Monday, 28 March 2016

इश्वर प्राप्ति का मार्ग: भक्ति मार्ग



वृंदावन में एक स्थान ऐसा है, जहां ज्ञान हारा और भक्ति जीती। इस प्रसंग ने लोक मानस में यह बैठाया कि ज्ञानार्जन से अधिक ज्ञानानुभव महत्वपूर्ण होता है। बुद्धि से ज्यादा भावनाएं प्रमुख होती हैं। मस्तिष्क से अधिक दिल की बात सुननी चाहिए। इस स्थान को ज्ञान गूदड़ी कहते हैं। लोक में यह प्रसंग उद्धव-गोपी संवाद के रूप में जाना जाता है। भक्तिकालीन कवियों ने इस प्रसंग से यह स्थापित किया कि भगवान को पाने का सबसे सहज और सरल मार्ग भक्ति का है। शास्त्रों-पुराणों में यह प्रसंग नाम मात्र है। महाकवि सूरदास ने इस प्रसंग को विस्तार दिया। अनेक वर्षों बाद जगद्गुरु शंकराचार्य ने भी भज गोविंद, भज गोविंद मूढ़मते, गाकर स्थापित किया कि भगवान को पाने का ज्ञानमार्ग से ज्यादा सहज भक्तिमार्ग है। बात उस समय की है जब- कृष्ण गुरु संदीपन के यहां ज्ञानार्जन के लिए गये थे तब उन्हें ब्रज की याद सताती थी। वहां उनका एक ही मित्र था उद्धव, वह सदैव ज्ञान-नीति की, निर्गुण ब्रह्म और योग की बातें करता था। श्रीकृष्ण का उद्धव से परिचय मथुरा में हुआ। उद्धव हर संदर्भ में नीतियों का सहारा लेते। परिणामस्वरूप उनसे बात करने वाला निरुर रह जाता। उनके गहन अध्ययन और विद से प्रभावित लोग उन्हें देवताओं के गुरु बृहस्पति का शिष्य मानते। पहले परिचय में ही उद्धव ने अपनी ज्ञानपूर्ण बातों से श्रीकृष्ण को प्रभावित किया। श्रीकृष्ण को यह अनुभूति थी कि उद्धव को ज्ञान का गर्व है। शंका निवारण के लिए श्रीकृष्ण ने युक्ति निकाली। एक दिन उन्होंने उद्धव से बात करते हुए कहा कि मैं मानता हूं कि ज्ञान का मार्ग सर्वोम है। ज्ञान से व्यक्ति के मोहपाश खुल जाते हैं। माया के बंधनों से उसे मुक्ति मिल जाती है। इस तरह मोह-माया उसे दुख नहीं पहुंचाते। उद्धव को अपनी बात गंभीरता से सुनते देख गंभीर लंबी सांस लेकर श्रीकृष्ण ने कहा- उद्धव जी, क्या यह संभव है कि आप ब्रज जाकर गोपियों को समझाएं। उन्हें बताएं कि दुनिया का सार ज्ञान है, पे्रम नहीं। ज्ञान से प्राप्ति होती है, भावनाओं से नहीं। ज्ञान से शांति मिलती है, जबकि प्रेम अशांत करता है। ज्ञान दुखों से ऊपर उठाता है और प्रेम दुखों में डुबोता है। ज्ञान समस्याओं का अंत है और प्रेम दुखों का आरंभ। ज्ञान और नीतियों के सहारे आप गोपियों को समझा सकते हैं कि प्रेम निरा पागलपन है। श्रीकृष्ण की बात सुनकर उद्धव के भीतर ज्ञानजन्य गर्व हिलोरें लेने लगा। उन्होंने ब्रज जाकर गोपियों को समझाने की बात मान ली। उन्होंने श्रीकृष्ण को आश्वासन दिया कि वे गोपियों को समझाकर कुछ दिन में ही लौट आएंगे। श्रीकृष्ण का संदेश लेकर उद्धव वृंदावन पहुंचे। उद्धव के आगमन का समाचार पूरे ब्रज में फैल गया। नंद बाबा के घर कुछ समय बिताने के बाद उद्धव गोपियों से मिलने पहुंचे। उद्धव ने देखा गोपियां बेहाल हैं। उद्धव को यह सब विचित्र लगा। गोपियों की दशा पर वे मन ही मन मुस्कुरा उठे। ज्ञान गर्व पीड़ित हो उन्होंने आंखें मूंद लीं। आगे बढ़ने पर उन्हें सखियां से घिरी राधा दिखीं। अपूर्व सौंदर्य, सौंदर्य से अभिभूत उद्धव ने अपने को कृष्ण सखा बताकर राधा को प्रणाम किया। उद्धव ने बात आगे बढ़ाते हुए कहा कि मैं आपके लिए उनका संदेश लाया हूं। वह सोच रहे थे कि श्रीकृष्ण का संदेश सुनते ही गोपियां, मां यशोदा और नंदबाबा की तरह आनंद से भर उठेंगी। लेकिन राधा तो लगता है मद में हैं। उन्हें किसी की चिंता ही नहीं। उद्धव के अभिमान ने करवट ली। उनके मन ने कहा-अपने ज्ञान से वे कितने मूर्खों का जीवन बदल चुके हैं। फिर ये गोपियां क्या हैं? आखिर हैं तो स्त्रियां ही। प्रेम ने इनका मस्तिष्क दूषित कर दिया है। इनसे हार मानकर लौटना उचित नहीं। उद्धव ने एक बार फिर बात शुरू करने का प्रयास किया। उन्होंने कहा कि आपको श्रीकृष्ण के पास मथुरा कोई संदेश भेजना हो तो बताइए। इस पर राधा बोल पड़ीं- उद्धव जी हमारे हृदय प्रेम से भरे हैं। इसलिए हमें किसी संदेश या संदेशवाहक की आवश्यकता नहीं। प्रेम संदेश तो हृदय सुन लेता है। हम तो नित्य अपने मनमोहन को अपना संदेश सुनाती और उनका सुनती हैं। उद्धव को लगा राधा विक्षिप्त हो चुकी हैं। इसीलिए ऐसी निरर्थक बातं कर रही हैं। उद्धव की खीझ बढ़ गई। उन्होंने कहा जितना प्रेम तुम श्रीकृष्ण से करती हो, उतना परम ब्रह्म से करतीं तो तुम्हारा कल्याण हो जाता। तुम्हें दुख नहीं भुगतना पड़ता। परम ब्रह्म निर्गुण निराकार हैं। वह अपने भक्तों के साथ सदैव रहते हैं। मानवीय प्रेम दुख देता है जबकि ईश्वरीय प्रेम आनंद। विवेक की आंखें खोलो। परम ब्रह्म सृष्टि का नियंता है। उसका निर्माता और पालक भी। आनंद ही नहीं, वह परमानंद प्रदाता है। वह स्थान पर उपस्थित है। यहां तक कि हमारे और तुम्हारे भीतर भी वह उपस्थित है। उसे पाने के लिए बस शांतचि आंख मूंदकर बैठने, ध्यान लगाने की जरूरत है। उद्धव ने गोपियों को समझाने की दृष्टि से कहा-तुम्हारा मन चंचल और सांसारिक है। माया के अधीन है, इसलिए तुम अपने को कृष्ण से अलग मान रही हो। चंचल मन शारीरिक और मानसिक विकार उत्पन्न करता है। मन की चंचलता तनाव का कारण होती है। तन एवं मन को दुर्बल करती है। मन को एकाग्र करो। उसे निर्गुण निराकार ब्रह्म में लगाओ। इससे मनःस्थिति ठीक होगी। ऋषि मुनि इसे योग कहते हैं। योग मानसिक शांति देता है। इसी से ध्यान लगता है। योगीजन ध्यान के माध्यम से ही ईश्वर की प्राप्ति करके परमानंद पाते हैं। मोक्ष और स्वर्ग पाते हैं। उद्धव आगे कुछ कहते तभी एक गोपी बोल पड़ी उद्ध व जी, हम समझ नहीं पा रहे हैं कि आप हमें क्या समझा रहे हैं। प्यारे श्रीकृष्ण के दर्शन के लिए हम अपनी आंखें रात दिन खोले रहते हैं और तुम हमें आंख मूंदकर ध्यान लगाने की सीख दे रहे हो। हमें मानसिक शांति का पाठ पढ़ा रहे हो। उद्धव निरुर हो गये। गोपियों के आगे वह ठगे से खड़े रहे। जीवन में अब तक उनसे इस तरह की बातें किसी ने नहीं की थीं। वे सोचने लगे श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां इस तरह बंधी हैं जैसे कांटे में मछली। गोपियों को श्रीकृष्ण के प्रेम से निकालना कठिन है। समझाने की दृष्टि से उन्होंने अंतिम प्रयास करते हुए कहा-ईश्वर की ओर मन लगाने से धन, रूप, ईश्वर और मुक्ति, तुम जो चाहोगी, तुम्हें मिल जायेगा। उद्धव आगे कुछ बोलते कि गोपियां बोल पड़ीं-उद्धव जी, हमें ना तो धन संपदा चाहिए और ना ही मुक्ति। हम स्वर्ग भी नहीं चाहते और ना ही हमें भोग विलास चाहिए। हम तो चाहते हैं कि जन्म जन्मांतर तक मनमोहन के प्रति हमारा प्रेम इसी तरह बना रहे। हम तो बार-बार जन्म लेकर भी उनके प्रेम में ही डूबना चाहते हैं। उद्धव को लगा कि गोपियों की प्रेम बयार में उनका ज्ञान तिनके की तरह उड़ रहा है। तर्क शक्ति जवाब देने लगी है। उद्धव ने सोचा- श्रीकृष्ण के प्रेम में गोपियां इस तरह डूबी हैं कि इन्हें संसार का ज्ञान ही नहीं रह गया। सांसारिक आचरण से यह ऊपर हो गई हैं। गोपियों के प्रेम के प्रति उद्धव के मन में आदरभाव पनप उठा। ज्ञान से बंजर हुए मस्तिष्क में प्रेम का अंकुर फूट पड़ा। ज्ञान की गूदड़ी में उन्हें प्रेम का हीरा मिल गया। उद्धव शांत हो गये। उन्हें लगा कि उन्होंने ज्ञानार्जन तो बहुत किया, लेकिन ज्ञानानुभव आज ही हुआ। उनका मन श्रद्धा से भर उठा। मस्तक वृंदावन की प्रेम भूमि पर नत हो गया। श्रद्धावनत उद्धव के हाथ राधा के पैरों पर जा टिके। राधा के पैरों पर उद्धव के हाथ देख गोपियां हतप्रभ रह गईं। गोपियां आश्चर्य से भर उठीं। उद्धव प्रेम में डूबे थे। उनका हृदय प्रेमसागर में गोते लगा रहा था। उन्हें अपनी दशा का ज्ञान नहीं रह गया। बुदबुदाते हुए उद्धव ने कहा जन्म-जन्मांतर वृंदावन में ही मेरा जन्म हो। कृष्ण के प्रति मेरा प्रेम भी गोपियों जैसा ही रहे। मानव रूप में जन्म न मिले तो भी वृंदावन के पशु-पक्षी, लता-वृक्षके रूप में जन्म लेता रहूं। मुझे मुक्ति नहीं चाहिए। राधा ने उन्हें उठाया। उद्धव की आंखों से प्रेम के अश्रु बह रहे थे। वे वंृदावन की धूल में लौट गये। ऊधौं मन ना भये दस-बीस एक हुतो सो गयौ स्याम संग, कौ आराधे ईस।।1।।

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