भारत के सारे क्षेत्र प्रशासनिक से लेकर शैक्षिक, धार्मिक आदि क्षेत्रों में भ्रष्टाचार का राज है। इसे ज्योतिष से देखा जाये तो लग्नस्थ राहू चारित्रिक पवित्रता का अभाव, भाग्येश और दशमेश शनि तीसरे स्थान में सूर्य के साथ होने से भाग्य और पुरुषार्थ की कमी, तृतीयेश चंद्रमा अपने स्थान से बारहवे होने से स्वभाव में सुचिता की कमी है। जरूरी है कि समाज में लोगों को संयुक्त होकर सूर्य को प्रबल बनाने के लिए सामूहिक रूप भ्रष्टाचार का विरोध करने एवं भ्रष्ट आचरण का सामूहिक बहिस्कार करने के साथ यज्ञ एवं हवन करना चाहिए। सामूहिक रूप से आदित्य-हृदय स्त्रोत का पाठ करने से समाज में सुचिता आयेगी और इस तरह की समस्याओं से छुटकारा मिलेगा। इसी प्रकार भारत की कुंडली में लग्रस्थ राहु कुंडली मारकर बैठा है, उसके लिए सभी को आगे बढक़र भौतिकता से परे देशहित एवं समाज कल्याण के लिए सोचना होगा। वृश्चिक लग्र की कुंडली में लग्रस्थ शनि तृतीयेश और चतुर्थेश होकर लग्र में अपने न्यायकारी दृढ़ता के साथ दंडाधिकारी की महती भूमिका में बैठा है और उसी के अनुरूप द्वितीयेश और पंचमेश गुरू कर्क का होकर भाग्यस्थ है अर्थात समाज और समाजिकता हेतु ऊंचे मापदंड स्थापित करने हेतु प्रतिबद्व दिखता है। हालांकि यह भी सच है कि दशम भाव का कारण सूर्य राहु से पापाक्रांत होकर पंचमस्थ है अर्थात सत्तापक्ष कितनी भी विपरीत परिस्थिति और विरोधाभास के बावजूद अपना अंह और मद छोड़ नहीं सकता। किंतु मेरा मानना है कि ग्रहों के गोचरों का प्रभाव समय के कालखंड पर पड़ता है तो जब से शनि और गुरू गोचर में है, तब से ही न्याय और ऊंचे मापदंड स्थापित करता रहा है और अभी जब शनि और गुरू इस स्थिति में हैं तब तक तो ये सिलसिला जारी रहेगा। भ्रष्टाचार के कारण हमारे सामाजिक जीवन के अस्तित्व में ही छिपे हैं और नेतागण महज चिल्लाते रहते हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, हमारे आते ही भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा किंतु मजे कि बात तो यह है कि जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढिय़ाँ पार करनी पड़ती हैं वर्ष 2016का मूल अंक 9 है, जिसका अधिपति मंगल है। जिसके कारण सारे विश्व में अस्थिरता की स्थिति रहेगी। इसके साथ ही पूरी दुनिया में आर्थिक अस्थिरता की स्थिति भी रहेगी। वर्ष 2016में शनि अष्ठम स्थान में बैठा हुआ है, जिसस विश्व के किन्हीं देशों में खाद्यान्न में जहरीला तत्व उत्पन्न हो सकता है। प्राकृतिक आपदाएं जनहानि करेंगी।
हिन्दुस्तान की कुंडली के अनुसार 2016में गुरु राहू का योग प्रथमार्थ में देश की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी। जनता और राजनेताओं के बीच दूरी बढ़ेगी। सामाजिक असहिष्णुता और धार्मिक उन्माद हो सकता है गुरू पञ्चम भाव में राहु से आक्रांत होने से हिन्दुस्तान को समाज और धर्म का विवाद उत्पन्न कर रहा है। जिसके कारण देश में अंदरूनी विवाद उत्पन्न होंगे। प्रशासनिक भाव पर शनि की दृष्टि होने से प्रधानमंत्री कई जगह विवश दिखेंगे। भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आएंगे। धर्म संबंधी विवादित बयानों से सत्ता पक्ष परेशान रहेगा। आतंकवाद , जातीय हिंसा, आंतरिक विरोध भी परेशान रखेगा। परंतु सकारात्मक बात यह रहेगी कि देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ेगा। अर्थव्यस्था मजबूत होगी। वित्तीय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आएंगे जिससे आम आदमी लाभान्वित होगा।
आज की अनेक बड़ी समस्याओं के मूल मेंं यही वजह है कि समाज मेंं सार्थक सामाजिक बदलाव के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष के बारे मेंं स्पष्ट सोच बनाना और इसका प्रसार करना मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है। प्रगति के तमाम दावों व बाहरी चमक-दमक के बावजूद समाज मेंं दुख-दर्द कम नहीं हुआ है। कुछ सीमित संदर्भे मेंं तरक्की नजर आती है तो इससे अधिक व्यापक संदर्भे मेंं दुख-दर्द बढ़े हुए नजर आते हैं। इसमेंं भी बड़ी बात है कि बढ़ते पर्यावरणीय विनाश, जल, जंगल, जमीन जैसे आधारभूत संसाधनों की गंभीर क्षति के कारण भविष्य मेंं समस्याएं उत्तरोत्तर बढ़ते जाने की आशंका है। टूटते-बिखरते सामाजिक ताने-बाने को देखें या हिंसा व महाविनाशक हथियारों मेंं अपार वृद्धि, तेजी से विलुप्त होती प्रजातियां या जलवायु बदलाव, विज्ञान के युग मेंं भी बढ़ती कट्टरता व अंधविास या तकनीक का दुरुपयोग, सभी बिंदुओं पर वर्तमान स्थिति चिंताजनक है और इनके भविष्य मेंं और चिंताजनक बनने की आशंकाएं हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि समाज मेंं बड़े स्तर पर व्याप्त दुख-दर्द व उसके कारणों को कम करने के लिए व भविष्य मेंं इससे भी गंभीर समस्याओं की संभावनाओं को दूर करने के लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत है। सुलझे विचारों व उनसे जुड़े कार्य की क्रान्ति से है जिनके आधार पर अधिकांश लोग समाज के सबसे जरूरी सरोकारों से जुड़ सकते हैं। ये कार्य निश्चय ही समता, पर्यावरण रक्षा, शान्ति, भाईचारा व जीवों की रक्षा से जुड़े हैं पर इनको मौजूदा समय की जरूरतों के संदर्भ मेंं स्थापित करने और उनमेंं आपसी सामंजस्य की चुनौती सामने है। व्यापक सामाजिक बदलाव का यह कार्यक्रम निश्चय ही ऐसा होना चाहिए जिसमेंं विभिन्न तरह के जरूरतमंद लोगों को अपनी समस्याओं का समाधान नजर आए, पर विचार व प्रतिबद्धता मेंं इससे एक कदम आगे जाने की जरूरत है। केवल अपनी समस्याओं से आगे बढक़र दूसरों की समस्याओं, अपने से अधिक जरूरतमंदों की समस्याओं व पूरी धरती के सब जीवों के दुख-दर्द के संदर्भ मेंं एक व्यापक प्रतिबद्धता स्थापित करने की जरूरत है। ऐसा होने पर सोचने-समझने मेंं, विभिन्न मुद्दों के प्रति नजरिए मेंं बड़ा बदलाव आ जाता है व समाज मेंं ऐसा बदलाव लाना बहुत जरूरी है। इस तरह के व्यापक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया समाज मेंं चलती रहनी चाहिए। वह चाहे मुख्य रूप से एक अभियान के रूप मेंं चले या थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कई अभियानों मेंं, पर यह प्रक्रिया व्यापक स्तर पर चलती रहनी चाहिए। इस व्यापक चिंतन-मंथन से ही समाज को कई स्तरों पर सही राह मिलेगी व तरह-तरह के भटकाव की संभावना कम होगी। सत्ता की राजनीति ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव से बड़ी नहीं हो सकती है। उसको व्यापक सामाजिक बदलाव के एक हिस्से या एक पक्ष के रूप मेंं ही जगह मिलनी चाहिए। हाल के समय के तथाकथित वैकल्पिक राजनीति के प्रयास इस कारण आधे-अधूरे रहे हैं क्योंकि उन्हें ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव की छाया नहीं मिली है, सहारा नहीं मिला है। इस कारण यह छिटपुट प्रयास बहुत कम समय मेंं ही तरह-तरह के भटकाव का शिकार होते चले गए। दूसरी ओर यह कहना भी अनुचित है कि व्यापक सार्थक बदलाव का अभियान अपने आप मेंं पूर्ण है। उसे सत्ता प्राप्त करने की राजनीति से जुडऩा ही नहीं चाहिए।
भारत ने 90 के दशक मेंं आर्थिक सुधार शुरू किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे। सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है। दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। भारत इस अवधि मेंं ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं।
भारत और भ्रष्टाचार की समस्या:
भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर मेंं रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है। भारत मेंं 70 फीसदी लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार की स्थिति और बिगड़ी है। 2जी टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स और कोयला घोटालों से हुए नुकसान को इसमेंं शामिल नहीं किया गया है जो हजारों करोड़ के हैं। भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था के विकास पर बहुत ही बुरा असर हो रहा है।
गरीबी और बेरोजगारी:
नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने मेंं सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है। आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है। नतीजे मेंं पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है। हालांकि बलात्कार और छेड़ छाड़ से संबंधित कानूनों मेंं सख्ती लाई गई है और सरकार ने महिला पुलिसकर्मियों की बहाली की दिशा मेंं कदम उठाए हैं, पूरे भारत मेंं महिलाओं के खिलाफ हिंसा मेंं कमी नहीं आई है।
समाज की बेरुखी:
पिछले महीनों मेंं भारत के आर्थिक विकास मेंं तेजी से आई कमी का कारण वैश्विक आर्थिक संकट बताया जा रहा है, लेकिन विकास दर को बनाए रखने मेंं विफलता की वजह प्रतिभाओं का इस्तेमाल न करना और कुशल कारीगरों की कमी भी है। भारत मुख्य रूप से गांवों मेंं रहने वाली अपनी आबादी की क्षमताओं का इस्तेमाल करने और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं देने मेंं नाकाम रहा है। उसे समझना होगा कि उसका आर्थिक स्वास्थ्य व्यापक रूप से उपलब्ध प्रतिभाओं के बेहतर इस्तेमाल पर ही निर्भर है।
आज व्यक्ति जीवन मेंं सामाजिक रूप से व्यापक बदलाव चाहता है। साक्षरता से ग्रामीण जनजीवन मेंं रचनात्मक, सामाजिक बदलाव संभव है। साक्षरता के जरिये व्यक्ति अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठा सकता है। हमेंं साक्षरता के जरिये लोगों के निर्णय लेने की क्षमता का बेहतर विकास करना जरूरी है। निर्णय लेने की क्षमता लोगों मेंं नये आत्मविश्वास का संचार करती है।
निवास व्यवस्था और स्थानांतरण:
परंपरागत रूप मेंं भारत मेंं सामाजिक सुरक्षा का आधार यही रहा है कि औरतें अपनी संतानों के साथ, विशेषकर पुरुष संतानों के साथ ही रहती रही हैं। जनगणना के अनुसार रोजग़ार की वजह से पुरुषों के स्थानांतरण के कारण और शादी के कारण महिलाओं के स्थानांतरण के कारण भारत मेंं अधिकांश उम्रदराज़ लोग अकेले रहने लगे हैं। राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौरों के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल एक दशक मेंं ही अकेले रहने वाली उम्रदराज़ औरतों या पतियों के साथ रहने वाली औरतों का अनुपात 9 प्रतिशत से बढक़र 19 प्रतिशत हो गया। यद्यपि इसका आशय सामाजिक अलगाव के बजाय आर्थिक स्वाधीनता भी हो सकता है, लेकिन इसकी संभावना बहुत ही कम है, क्योंकि इस समूह मेंं ज़्यादातर विधवाएँ और गरीब शहरी महिलाएँ ही हैं। इसी कारण प्रचलित सहायता प्रणाली के बजाय मज़बूत पेंशन प्रणाली की ज़्यादा आवश्यकता है। रोजग़ार के लिए जो बच्चे शहरों मेंं चले जाते हैं, वे शहरों मेंं निवास के भारी खर्च और भीड़-भाड़ वाले शहरी आवास के कारण अपने माँ-बाप को साथ नहीं ले जा पाते और इसका कारण यह भी होता है कि शहर मेंं अकेले रहने के कारण वे अधिक आज़ादी से अपनी ज़िंदगी जीना पसंद करते हैं। पुराने ढर्रे के घरों मेंं अब लोग रहना पसंद नहीं करते और घर मेंं रहते हुए बड़े-बूढ़ों की सेवा करना भी अधिक महँगा पड़ता है। बिखरते ’’भारतीय परिवारों’’ पर शोक मनाने के बजाय अब समय आ गया है कि हम अकेले रहने वाले बड़े-बूढ़ों की देखभाल के बारे मेंं नये ढंग से खास तौर पर उनकी सेहत की देखभाल को लेकर अधिक सृजनात्मक रूप मेंं सोचें।
हिन्दुस्तान की कुंडली के अनुसार 2016में गुरु राहू का योग प्रथमार्थ में देश की आर्थिक स्थिति कमजोर होगी। जनता और राजनेताओं के बीच दूरी बढ़ेगी। सामाजिक असहिष्णुता और धार्मिक उन्माद हो सकता है गुरू पञ्चम भाव में राहु से आक्रांत होने से हिन्दुस्तान को समाज और धर्म का विवाद उत्पन्न कर रहा है। जिसके कारण देश में अंदरूनी विवाद उत्पन्न होंगे। प्रशासनिक भाव पर शनि की दृष्टि होने से प्रधानमंत्री कई जगह विवश दिखेंगे। भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आएंगे। धर्म संबंधी विवादित बयानों से सत्ता पक्ष परेशान रहेगा। आतंकवाद , जातीय हिंसा, आंतरिक विरोध भी परेशान रखेगा। परंतु सकारात्मक बात यह रहेगी कि देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ेगा। अर्थव्यस्था मजबूत होगी। वित्तीय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आएंगे जिससे आम आदमी लाभान्वित होगा।
आज की अनेक बड़ी समस्याओं के मूल मेंं यही वजह है कि समाज मेंं सार्थक सामाजिक बदलाव के सैद्धांतिक और व्यावहारिक पक्ष के बारे मेंं स्पष्ट सोच बनाना और इसका प्रसार करना मौजूदा समय की सबसे बड़ी जरूरत है। प्रगति के तमाम दावों व बाहरी चमक-दमक के बावजूद समाज मेंं दुख-दर्द कम नहीं हुआ है। कुछ सीमित संदर्भे मेंं तरक्की नजर आती है तो इससे अधिक व्यापक संदर्भे मेंं दुख-दर्द बढ़े हुए नजर आते हैं। इसमेंं भी बड़ी बात है कि बढ़ते पर्यावरणीय विनाश, जल, जंगल, जमीन जैसे आधारभूत संसाधनों की गंभीर क्षति के कारण भविष्य मेंं समस्याएं उत्तरोत्तर बढ़ते जाने की आशंका है। टूटते-बिखरते सामाजिक ताने-बाने को देखें या हिंसा व महाविनाशक हथियारों मेंं अपार वृद्धि, तेजी से विलुप्त होती प्रजातियां या जलवायु बदलाव, विज्ञान के युग मेंं भी बढ़ती कट्टरता व अंधविास या तकनीक का दुरुपयोग, सभी बिंदुओं पर वर्तमान स्थिति चिंताजनक है और इनके भविष्य मेंं और चिंताजनक बनने की आशंकाएं हैं। इस आधार पर कहा जा सकता है कि समाज मेंं बड़े स्तर पर व्याप्त दुख-दर्द व उसके कारणों को कम करने के लिए व भविष्य मेंं इससे भी गंभीर समस्याओं की संभावनाओं को दूर करने के लिए बुनियादी बदलाव की जरूरत है। सुलझे विचारों व उनसे जुड़े कार्य की क्रान्ति से है जिनके आधार पर अधिकांश लोग समाज के सबसे जरूरी सरोकारों से जुड़ सकते हैं। ये कार्य निश्चय ही समता, पर्यावरण रक्षा, शान्ति, भाईचारा व जीवों की रक्षा से जुड़े हैं पर इनको मौजूदा समय की जरूरतों के संदर्भ मेंं स्थापित करने और उनमेंं आपसी सामंजस्य की चुनौती सामने है। व्यापक सामाजिक बदलाव का यह कार्यक्रम निश्चय ही ऐसा होना चाहिए जिसमेंं विभिन्न तरह के जरूरतमंद लोगों को अपनी समस्याओं का समाधान नजर आए, पर विचार व प्रतिबद्धता मेंं इससे एक कदम आगे जाने की जरूरत है। केवल अपनी समस्याओं से आगे बढक़र दूसरों की समस्याओं, अपने से अधिक जरूरतमंदों की समस्याओं व पूरी धरती के सब जीवों के दुख-दर्द के संदर्भ मेंं एक व्यापक प्रतिबद्धता स्थापित करने की जरूरत है। ऐसा होने पर सोचने-समझने मेंं, विभिन्न मुद्दों के प्रति नजरिए मेंं बड़ा बदलाव आ जाता है व समाज मेंं ऐसा बदलाव लाना बहुत जरूरी है। इस तरह के व्यापक सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया समाज मेंं चलती रहनी चाहिए। वह चाहे मुख्य रूप से एक अभियान के रूप मेंं चले या थोड़े-बहुत बदलाव के साथ कई अभियानों मेंं, पर यह प्रक्रिया व्यापक स्तर पर चलती रहनी चाहिए। इस व्यापक चिंतन-मंथन से ही समाज को कई स्तरों पर सही राह मिलेगी व तरह-तरह के भटकाव की संभावना कम होगी। सत्ता की राजनीति ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव से बड़ी नहीं हो सकती है। उसको व्यापक सामाजिक बदलाव के एक हिस्से या एक पक्ष के रूप मेंं ही जगह मिलनी चाहिए। हाल के समय के तथाकथित वैकल्पिक राजनीति के प्रयास इस कारण आधे-अधूरे रहे हैं क्योंकि उन्हें ऐसे किसी व्यापक सामाजिक बदलाव की छाया नहीं मिली है, सहारा नहीं मिला है। इस कारण यह छिटपुट प्रयास बहुत कम समय मेंं ही तरह-तरह के भटकाव का शिकार होते चले गए। दूसरी ओर यह कहना भी अनुचित है कि व्यापक सार्थक बदलाव का अभियान अपने आप मेंं पूर्ण है। उसे सत्ता प्राप्त करने की राजनीति से जुडऩा ही नहीं चाहिए।
भारत ने 90 के दशक मेंं आर्थिक सुधार शुरू किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह उस समय देश के वित्त मंत्री थे। सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है। दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। भारत इस अवधि मेंं ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं।
भारत और भ्रष्टाचार की समस्या:
भ्रष्टाचार देश की एक बड़ी समस्या बनी हुई है। भ्रष्टाचार विरोधी अंतरराष्ट्रीय संस्था की ताजा रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर मेंं रिश्तखोरी का स्तर काफी ऊंचा है। भारत मेंं 70 फीसदी लोगों का मानना है कि भ्रष्टाचार की स्थिति और बिगड़ी है। 2जी टेलीकॉम, कॉमनवेल्थ गेम्स और कोयला घोटालों से हुए नुकसान को इसमेंं शामिल नहीं किया गया है जो हजारों करोड़ के हैं। भ्रष्टाचार का अर्थव्यवस्था के विकास पर बहुत ही बुरा असर हो रहा है।
गरीबी और बेरोजगारी:
नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने मेंं सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है। आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है। नतीजे मेंं पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है। हालांकि बलात्कार और छेड़ छाड़ से संबंधित कानूनों मेंं सख्ती लाई गई है और सरकार ने महिला पुलिसकर्मियों की बहाली की दिशा मेंं कदम उठाए हैं, पूरे भारत मेंं महिलाओं के खिलाफ हिंसा मेंं कमी नहीं आई है।
समाज की बेरुखी:
पिछले महीनों मेंं भारत के आर्थिक विकास मेंं तेजी से आई कमी का कारण वैश्विक आर्थिक संकट बताया जा रहा है, लेकिन विकास दर को बनाए रखने मेंं विफलता की वजह प्रतिभाओं का इस्तेमाल न करना और कुशल कारीगरों की कमी भी है। भारत मुख्य रूप से गांवों मेंं रहने वाली अपनी आबादी की क्षमताओं का इस्तेमाल करने और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं देने मेंं नाकाम रहा है। उसे समझना होगा कि उसका आर्थिक स्वास्थ्य व्यापक रूप से उपलब्ध प्रतिभाओं के बेहतर इस्तेमाल पर ही निर्भर है।
आज व्यक्ति जीवन मेंं सामाजिक रूप से व्यापक बदलाव चाहता है। साक्षरता से ग्रामीण जनजीवन मेंं रचनात्मक, सामाजिक बदलाव संभव है। साक्षरता के जरिये व्यक्ति अपने जीवन स्तर को ऊंचा उठा सकता है। हमेंं साक्षरता के जरिये लोगों के निर्णय लेने की क्षमता का बेहतर विकास करना जरूरी है। निर्णय लेने की क्षमता लोगों मेंं नये आत्मविश्वास का संचार करती है।
निवास व्यवस्था और स्थानांतरण:
परंपरागत रूप मेंं भारत मेंं सामाजिक सुरक्षा का आधार यही रहा है कि औरतें अपनी संतानों के साथ, विशेषकर पुरुष संतानों के साथ ही रहती रही हैं। जनगणना के अनुसार रोजग़ार की वजह से पुरुषों के स्थानांतरण के कारण और शादी के कारण महिलाओं के स्थानांतरण के कारण भारत मेंं अधिकांश उम्रदराज़ लोग अकेले रहने लगे हैं। राष्ट्रीय परिवार और स्वास्थ्य सर्वेक्षण के दो दौरों के विश्लेषण से पता चलता है कि केवल एक दशक मेंं ही अकेले रहने वाली उम्रदराज़ औरतों या पतियों के साथ रहने वाली औरतों का अनुपात 9 प्रतिशत से बढक़र 19 प्रतिशत हो गया। यद्यपि इसका आशय सामाजिक अलगाव के बजाय आर्थिक स्वाधीनता भी हो सकता है, लेकिन इसकी संभावना बहुत ही कम है, क्योंकि इस समूह मेंं ज़्यादातर विधवाएँ और गरीब शहरी महिलाएँ ही हैं। इसी कारण प्रचलित सहायता प्रणाली के बजाय मज़बूत पेंशन प्रणाली की ज़्यादा आवश्यकता है। रोजग़ार के लिए जो बच्चे शहरों मेंं चले जाते हैं, वे शहरों मेंं निवास के भारी खर्च और भीड़-भाड़ वाले शहरी आवास के कारण अपने माँ-बाप को साथ नहीं ले जा पाते और इसका कारण यह भी होता है कि शहर मेंं अकेले रहने के कारण वे अधिक आज़ादी से अपनी ज़िंदगी जीना पसंद करते हैं। पुराने ढर्रे के घरों मेंं अब लोग रहना पसंद नहीं करते और घर मेंं रहते हुए बड़े-बूढ़ों की सेवा करना भी अधिक महँगा पड़ता है। बिखरते ’’भारतीय परिवारों’’ पर शोक मनाने के बजाय अब समय आ गया है कि हम अकेले रहने वाले बड़े-बूढ़ों की देखभाल के बारे मेंं नये ढंग से खास तौर पर उनकी सेहत की देखभाल को लेकर अधिक सृजनात्मक रूप मेंं सोचें।
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