विश्व के परिदृश्य पर सूचना प्रौद्योगिकी की क्रांति के एक खिलाड़ी के रूप मेंं भारत के उदय के कारण नयी आशाओं और आकांक्षाओं को बल मिला है. आर्थिक शक्ति होने के साथ-साथ अब भारत ज्ञान शक्ति के रूप मेंं, नवोन्मेंष और सृजनात्मक विचारों के केंद्र के रूप मेंं भी उभरने लगा है. लेकिन यही हमारा अभीष्ट मार्ग और मंजिल नहीं है. इसमेंं संदेह नहीं कि भारत के पास इस मंजिल तक पहुँचने के साधन तो हैं, लेकिन जब तक बुनियादी संस्थागत परिवर्तन नहीं होते तब तक इन लक्ष्यों को प्राप्त नहीं किया जा सकता.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध शैक्षणिक और अनुसंधान केंद्रों का भारतीय परिदृश्य ज्ञान शक्ति के रूप मेंं भारत को उभरने देने मेंं साफ़ तौर पर रुकावटें पैदा कर रहा है. इसका प्रमुख कारण अनुसंधान संबंधी इसका बुनियादी ढाँचा और खास तौर पर इसका वर्तमान संस्थागत विन्यास है. ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिगनल व दूरसंचार उद्यम का जन्म पं. नेहरू के उस दृष्टिकोण का परिणाम है, जिसकी देश के विकास मेंं महत्वपूर्ण भूमिका समझी जाती है और जिसकी शुरूआत आज़ादी के बाद एक उछाल की तरह अचानक हुई थी. पं. नेहरू के संरक्षण मेंं मेंघनाथ साहा, विक्रम साराभाई, होमी भाभा और सी.वी. रमन जैसे उस पीढ़ी के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने तेज़ी से देशी वैज्ञानिक समुदाय को तैयार करने और तकनीकी आत्मनिर्भरता और सुविधा को हासिल करने के लिए उच्च प्राथमिकता के आधार पर वैज्ञानिक अनुसंधान को विकसित करने पर ज़ोर दिया था. इसलिए सोवियत संघ के मॉडल के आधार पर विशिष्ट विषयों से संबद्ध कुछ राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को सीमित संसाधन उपलब्ध करा दिये गये थे. संस्थागत टैम्पलेट का यह विकल्प अपनाने के कारण आज हमारी ये संस्थाएँ बहुत दरिद्र हो गयी हैं. इसी आरंभिक ऐतिहासिक दरार के कारण ही विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान को न तो पर्याप्त सहायता और समर्थन मिल सका और न ही संरचनात्मक बदलाव लाये जा सके जो विश्वविद्यालयों को जीवंत बनाने और पुन: आकार देने के लिए आवश्यक थे. इस बीच विश्वविद्यालय प्रणाली के बाहर विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र मेंं अधिकाधिक अनुसंधान संस्थान खुलते चले गये. अनुसंधान को शिक्षण से अलग करने के कारण सबसे अधिक नुक्सान विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध अंत:स्नातकीय शिक्षा को हुआ, जिसमेंं बुनियादी सुधार लाने की आवश्यकता है. शिक्षाशास्त्र को अनुसंधान से अलग करने के कारण ही दोनों ही गतिविधियों को भारी नुक्सान हुआ. पश्च-माध्यमिक शिक्षा मेंं महत्वपूर्ण चिंतन कौशल को विकसित न करने के कारण ही अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम मेंं वह चमक नहीं रही और इसने ही विश्वविद्यालयों के संकाय सदस्यों को विद्वान् न बन पाने के कारण अनेक प्रोत्साहनों से वंचित कर दिया और कुंठाग्रस्त और हताश शिक्षाशास्त्रियों की एक पीढ़ी को भी जन्म दे दिया. दूसरी ओर अधिकांश अनुसंधान केंद्र फलने-फूलने लगे और उनमेंं से कुछ संस्थान तो विश्व स्तर के हो गये. इसके उदाहरण हैं, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामैंटल रिसर्च (टीएफ़आईआर), इंटर युनिवर्सिटी सैंटर फ़ॉर ऐस्ट्रोनॉमी ऐंड ऐस्ट्रोफज़ि़िक्स ( आईयूसीएए), राष्ट्रीय जीववैज्ञानिक केंद्र (एनसीबीएस) और भारतीय विज्ञान संस्थान ( आईआईएस). परंतु नवोन्मेंष मेंं विश्व स्तर पर अग्रणी रहने के लिए भारत को अनुसंधान उद्यमों को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
भारत मेंं एक बार फिर से अनुसंधान और शिक्षण को तत्काल ही परस्पर जोडऩा होगा. संरचनात्मक परिवर्तनों को विश्वविद्यालय प्रणाली मेंं लाने की आवश्यकता है. आवश्यकता इस बात की है कि वे अनुसंधान संस्थानों मेंं सहयोगियों के बीच सहयोग को बढ़ावा दें और ऐसा करने के लिए उन्हें निधि भी प्रदान करें. यह कार्य भारत सरकार के विज्ञान व इंजीनियरी अनुसंधान परिषदों (एसईआरसी) मेंं उपलब्ध निधि को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अवसंरचना कार्यक्रम मेंं सुधार लाने के लिए वितरण करके किया जा सकता है. एसईआरसी इस प्रकार के मात्र सहयोगपरक कार्यों के लिए अनुदान कार्यक्रम आबंटित कर सकती है. अनुसंधान और शैक्षिक महाविद्यालयों के बीच वैज्ञानिक सहयोग को सक्रिय रूप मेंं बढ़ावा देने का लाभ यह होगा कि इससे एक ऐसी सरणी तैयार हो जाएगी जिससे अंत:स्नातक अनुसंधान के काम मेंं जुट जाएँगे. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विश्वविद्यालयों को कम से कम सभी ऑनर्स डिग्री पाठ्यक्रमों मेंं अंत:स्नातकों के लिए अनुसंधान परियोजनाओं की आवश्यकता होगी. अनुसंधान के चक्र की स्थापना के लिए आवश्यक होगा कि अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाकर चार साल कर दी जाए. अनुसंधान विज्ञान के अंत:स्नातकों के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है और प्रत्येक विद्यार्थी इसका स्वाद भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों (आईआईएसईआर) मेंं ही चख लेता है. परंतु इसका कोई सादृश्य मानविकी और समाज विज्ञान मेंं नहीं मिलता. दूसरा आवश्यक और संबंधित मुद्दा है, अंत:स्नातकों की शिक्षा मेंं व्यापकता मेंं कमी. इसे व्यापक बनाने के लिए एक ऐसा व्यापक मूलभूत पाठ्यक्रम बनाना आवश्यक है जिसमेंं मात्रापरक तर्कप्रणाली, महत्वपूर्ण चिंतन, लेखन कौशल और बुनियादी गणित की क्षमता को विशिष्ट विज्ञान, इंजीनियरी या मैडिकल कॉलेजों के साथ-साथ सभी संस्थाओं के डिग्री कॉलेजों मेंं अंत:स्नातकों की शिक्षा का एक अंग बनाया जाना चाहिए.
ऑनलाइन शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र मेंं आयी वर्तमान क्रांति की सहायता से शिक्षा संस्कृति मेंं बुनियादी परिवर्तन लाया जा सकता है. जिन्हें दुनिया मेंं कहीं भी स्ट्रीमलाइन किया जा सकता है और सामग्री को नि:शुल्क या मामूली शुल्क देकर प्राप्त किया जा सकता है. जिस पैमाने पर इन पाठ्यक्रमों को वितरित किया जा सकता है, वह आश्चर्यजनक है. व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) ने विशेषकर भारत जैसे देश मेंं पाठ्यसामग्री वितरित करने के लिए एक विशेष विकल्प की पेशकश की है, क्योंकि भारत की जनसांख्यिकी और शिक्षित किये जाने वाले युवा छात्रों की मात्र संख्या ही इतनी है कि यह अपने-आपमेंं एक चुनौती पैदा करती है. पश्च माध्यमिक शिक्षा मेंं व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) के उपयोग से लाइव और क्रमिक विषयवस्तुओं के साथ मिश्रित कक्षाओं की सुविधाओं का पूरक पाठ्यक्रम की तरह से उपयोग करते हुए वर्तमान अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रमों को अद्यतन किया जा सकता है. चूँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इससे अपने-आप मेंं अनुसंधान के क्षेत्र मेंं कैरियर मेंं उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी, इसलिए इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि इस क्रांति का कितना प्रभाव पड़ेगा. व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसीएस) के माध्यम से पाठ्यक्रमों के वितरण, पाठ्यक्रम और शिक्षण को मानकीकृत किया जा सकता है.
विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान की गतिविधियों को बढा़वा देने के लिए एक और सरणी है, विज्ञान के विद्यार्थियों को तथाकथित नागरिक विज्ञान संबंधी परियोजनाओं से जोडऩा. शैक्षिक उपक्रमों मेंं विदेशी सहयोग भारत के लिए नया नहीं है. उदाहरण के लिए विशिष्ट आईआईटी संस्थाओं की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही की गयी है. शायद अनुसंधान विश्वविद्यालयों के साथ संबंधों के नवीयन से वैसी ही मदद मिलती है, लेकिन इससे वर्तमान आईआईटी के संकाय सदस्यों की अनुसंधान परियोजनाओं को बढ़ावा देने मेंं भी मदद मिलेगी.
निर्णायक और साहसिक नीति संबंधी हस्तक्षेपों से भारत अपनी शैक्षणिक संस्कृति को इस पीढ़ी के अंदर भी ला सकेगा और अपनी अनूठी जनसांख्यिकी का लाभ भी उठा सकेगा. जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं और ऊर्जा, पानी और भोजन जैसे दुर्लभ संसाधनों की बढ़ती माँग की चुनौतियों के नये और नवोन्मेंषकारी समाधान ढूँढने के लिए भारत सिगनल व दूरसंचार से उम्मीदें बाँधे हुए है. सिगनल व दूरसंचार ने समाधान दिये भी हैं और जब तक हम इन स्थितियों को अनुकूल बना नहीं लेते तब तक हमारे पास आशावादी बने रहने की हर वजह मौजूद है. भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र मेंं भारी चुनौतियों का सामना कर रहा है. सन् 2007 मेंं प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत के लगभग आधे ज़िलों मेंं उच्च शिक्षा मेंं नामांकन ’’बहुत ही कम’’ है और दो तिहाई भारतीय विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत भारतीय कॉलेज गुणवत्ता की दृष्टि से औसत से भी बहुत नीचे हैं. इसमेंं हैरानी की कोई बात नहीं है कि शिक्षा की माँगों को पूरा करने मेंं शासन की विफलता के कारण ही भारत के संभ्रांत और मध्यम वर्ग के विद्यार्थी भारत मेंं और भारत के बाहर भी सरकारी संस्थाओं को छोडक़र निजी संस्थाओं की ओर रुख करने लगे हैं. सरकारी संस्थाओं से यह पलायन भारतीयों की शिक्षा संबंधी माँगों को पूरा करने मेंं शासन की क्षमता को निरंतर कमज़ोर कर रहा है और इस समस्या को और भयावह बनाता जा रहा है. दुर्भाग्यवश निजी संस्थाओं मेंं संकीर्ण व्यावसायिक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और आंतरिक प्रशासन कमज़ोर होने लगा है और शासकीय नियमों मेंं शिथिलता आने लगी है.
बड़े पैमाने पर मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसी) चलाकर न केवल भारत की उच्च शिक्षा संबंधी चुनौतियों का पूरी तरह से सामना किया जा सकता है, बल्कि उच्च शिक्षा मेंं भारत की पहुँच और गुणवत्ता को कुछ हद तक बढ़ाया भी जा सकता है. पिछले दो वर्षों के दौरान एमओओसी ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है. एमओओसी के समर्थक सामाजिक, आर्थिक या राष्ट्रीय पृष्ठभूमि की परवाह किये बिना सभी को शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराने की संभावित क्रांति की बात करने लगे हैं. लेकिन कुछ लोग इस बात को लेकर सतर्कता बरतने की बात करते हैं कि इससे उच्च शिक्षा संबंधी स्थानीय संस्थाओं का महत्व घटने लगेगा और भौतिक (फज़िक़िल) विश्वविद्यालयों मेंं विशिष्ट संभ्रांत वर्ग के छात्रों को व्यक्तिनिष्ठ शिक्षा की सुविधा प्रदान करके शैक्षणिक असमानता को और भी बढ़ावा मिलेगा, जबकि अधिकांश छात्र वर्चुअल शिक्षा तक सीमित रह जाएँगे, जिससे शिक्षा की लागत मेंं तो कमी आ जाएगी, लेकिन गुणवत्ता मेंं भी गिरावट आ जाएगी.
भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं एमओओसी के संभावित प्रभाव को समझने के लिए और इस बात पर विचार करने के लिए कि एमओओसी किस तरह से प्रभावी और समान परिणाम हासिल कर सकता है, हमेंं पहले एमओओसी के भागीदारों को अच्छी तरह से समझना होगा. इस समस्या के समाधान के लिए पैन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय ने उन तमाम विद्यार्थियों का सर्वेक्षण कराया था जिन्होंने कम से कम कोर्सेरा के एमओओसी (जो विश्व का सबसे बड़ा एमओओसी प्रदाता है) के किसी एक पाठ्यक्रम मेंं नामांकन करवाया हो.
कोर्सेरा द्वारा संचालित एमओओसी लेने वाले विद्यार्थियों मेंं अमेंरिका के बाद भारतीय विद्यार्थियों की संख्या दूसरे नंबर पर (अर्थात् 10 प्रतिशत) है. उपयोगकर्ताओं के उनके आईपी पतों के आधार पर किये गये भू-देशीय विश्लेषण से पता चलता है कि इस उपयोगकर्ताओं मेंं से अधिकांश उपयोगकर्ता भारत के शहरी इलाकों तक ही सीमित हैं. इनमेंं से 61 प्रतिशत उपयोगकर्ता भारत के पाँच बड़े शहरों मेंं से किसी एक शहर मेंं बसे हुए हैं और 16प्रतिशत उपयोगकर्ता अगले पाँच बड़े शहरों मेंं बसे हुए हैं. मुंबई और बैंगलोर मेंं उपयोगकर्ताओं की तादाद सबसे ज़्यादा है. भारत के कुल कोर्सेरा विद्यार्थियों मेंं से 18-18प्रतिशत इन दोनों शहरों से हैं और इनमेंं से अधिकांश पूर्णकालिक नौकरी कर रहे हैं (और शेष विद्यार्थी या तो स्व-नियोजित हैं या अंशकालीन नौकरी कर रहे हैं). और यह ठीक उसी तरह है जैसे हाल ही मेंं सैल फ़ोन, नया मीडिया और अन्य प्रौद्योगिकी अपनाने वाले उपयोगकर्ताओं की स्थिति है. इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि गणित, मानविकी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बाद विद्यार्थी सबसे अधिक व्यवसाय, अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों को ही लेना पसंद करते हैं. यह तथ्य कि एमओओसी के उपयोगकर्ताओं मेंं सबसे अधिक संख्या भारतीयों की है, इस बात की ओर इंगित करता है कि अच्छी किस्म की शिक्षा की भारत मेंं बेहद माँग है, जिसे अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है. लेकिन यदि हम चाहते हैं कि एमओओसी भारत की उच्च शिक्षा की चुनौतियों को पूरा करने के लिए अर्थक्षम और सही मार्ग प्रदान करे तो हमेंं बहुत-से काम करने होंगे.
सर्वप्रथम हमेंं बुनियादी प्रौद्योगिकीय ढाँचा तैयार करना होगा, जिसमेंं कंप्यूटरों, मोबाइल उपकरणों और उच्च-गति वाले इंटरनैट की सुविधाओं को और विकसित करना होगा ताकि भारत के अधिकाधिक लोगों तक ऑन-लाइन शिक्षा की पहुँच बढ़ायी जा सके. जब तक प्रौद्योगिकीय बाधाएँ दूर नहीं होंगी तब तक केवल संभ्रांत वर्ग के कुछेक विद्यार्थी ही शिक्षा के इस विकल्प का चुनाव कर सकेंगे और इससे भारत मेंं शिक्षा के अवसरों मेंं असमानता की स्थिति और भी बिगड़ती जाएगी.
एमओओसी प्रदाताओं को कम से कम लागत वाली, व्यापक कवरेज वाली और अपने स्वामित्व वाली मोबाइल फ़ोन की भारतीय क्रांति से अपने-आपको जोडऩा होगा. भारत जैसे देश मेंं जहाँ ब्रॉडबैंड कवरेज बहुत सीमित है, एमओओसी की पहुँच को सुगम बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है. एमओओसी प्रदाताओं को मोबाइल की दुनिया मेंं प्रवेश करने के लिए बैंकिंग उद्योग के मुकाबले ज़्यादा बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि उनकी वीडियो की विषय-वस्तु, प्रश्नोत्तरी और असाइनमैंट के लिए स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत पड़ती है, जबकि मोबाइल बैंकिंग के कुछ काम मात्र एसएमएस सेवाओं के ज़रिये ही निपटाये जा सकते हैं. लेकिन 3जी और 4जी के इंटरनैट के कारण अब स्मार्टफ़ोन और टेबलैट की सुविधा भारत मेंं बढ़ती जा रही है और जैसे-जैसे उनके दाम कम होते जाएँगे, उनकी सुविधाओं का भी तेज़ी से विस्तार होता जाएगा.
दूसरी बात यह है कि दुनिया के कुछ सबसे बढय़िा विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित अधिकांश एमओओसी बहुत ही चुनौतीपूर्ण और माँग वाले पाठ्यक्रम हैं, जो विद्यार्थियों को उच्च-कौशल वाले क्षेत्रों मेंं व्यावसायिक प्लेसमैंट के लिए तैयार करते हैं. भारत की असमान शैक्षणिक माँगों की पूर्ति के लिए विविधीकरण की नीति को बढ़ावा देने मेंं मदद कर सकते हैं. अंतत: शैक्षणिक माँगों को समझने और उन्हें पूरा करने के लिए भारत मेंं निवेश करना होगा. भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं पूर्ति और भारी माँग के बीच असंतुलन और किफ़ायती व अच्छी किस्म की शिक्षा की आवश्यकता को देखते हुए, भारतीय विद्यार्थियों के लिए उनकी विशेष रुचि के आधार पर भारतीय भाषाओं की विषयवस्तु को डिज़ाइन करना चाहिए और उसे उपलब्ध कराना चाहिए. अगर इन पाठ्यक्रमों की पहुँच को सुगम बनाने के मार्ग मेंं आने वाली प्रौद्योगिकीय, शैक्षणिक और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर कर दिया जाए तो लाखों भारतीय विद्यार्थी अच्छे स्तर की उच्च शिक्षा सहजता से प्राप्त कर सकेंगे और इससे नाटकीय रूप मेंं भारत मेंं और विश्व-भर मेंं भी उच्च शिक्षा के परिदृश्य को बदला जा सकेगा.
विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध शैक्षणिक और अनुसंधान केंद्रों का भारतीय परिदृश्य ज्ञान शक्ति के रूप मेंं भारत को उभरने देने मेंं साफ़ तौर पर रुकावटें पैदा कर रहा है. इसका प्रमुख कारण अनुसंधान संबंधी इसका बुनियादी ढाँचा और खास तौर पर इसका वर्तमान संस्थागत विन्यास है. ऐतिहासिक तौर पर भारतीय सिगनल व दूरसंचार उद्यम का जन्म पं. नेहरू के उस दृष्टिकोण का परिणाम है, जिसकी देश के विकास मेंं महत्वपूर्ण भूमिका समझी जाती है और जिसकी शुरूआत आज़ादी के बाद एक उछाल की तरह अचानक हुई थी. पं. नेहरू के संरक्षण मेंं मेंघनाथ साहा, विक्रम साराभाई, होमी भाभा और सी.वी. रमन जैसे उस पीढ़ी के प्रतिष्ठित वैज्ञानिकों ने तेज़ी से देशी वैज्ञानिक समुदाय को तैयार करने और तकनीकी आत्मनिर्भरता और सुविधा को हासिल करने के लिए उच्च प्राथमिकता के आधार पर वैज्ञानिक अनुसंधान को विकसित करने पर ज़ोर दिया था. इसलिए सोवियत संघ के मॉडल के आधार पर विशिष्ट विषयों से संबद्ध कुछ राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं को सीमित संसाधन उपलब्ध करा दिये गये थे. संस्थागत टैम्पलेट का यह विकल्प अपनाने के कारण आज हमारी ये संस्थाएँ बहुत दरिद्र हो गयी हैं. इसी आरंभिक ऐतिहासिक दरार के कारण ही विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान को न तो पर्याप्त सहायता और समर्थन मिल सका और न ही संरचनात्मक बदलाव लाये जा सके जो विश्वविद्यालयों को जीवंत बनाने और पुन: आकार देने के लिए आवश्यक थे. इस बीच विश्वविद्यालय प्रणाली के बाहर विज्ञान और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र मेंं अधिकाधिक अनुसंधान संस्थान खुलते चले गये. अनुसंधान को शिक्षण से अलग करने के कारण सबसे अधिक नुक्सान विज्ञान और प्रौद्योगिकी से संबद्ध अंत:स्नातकीय शिक्षा को हुआ, जिसमेंं बुनियादी सुधार लाने की आवश्यकता है. शिक्षाशास्त्र को अनुसंधान से अलग करने के कारण ही दोनों ही गतिविधियों को भारी नुक्सान हुआ. पश्च-माध्यमिक शिक्षा मेंं महत्वपूर्ण चिंतन कौशल को विकसित न करने के कारण ही अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम मेंं वह चमक नहीं रही और इसने ही विश्वविद्यालयों के संकाय सदस्यों को विद्वान् न बन पाने के कारण अनेक प्रोत्साहनों से वंचित कर दिया और कुंठाग्रस्त और हताश शिक्षाशास्त्रियों की एक पीढ़ी को भी जन्म दे दिया. दूसरी ओर अधिकांश अनुसंधान केंद्र फलने-फूलने लगे और उनमेंं से कुछ संस्थान तो विश्व स्तर के हो गये. इसके उदाहरण हैं, टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ़ फ़ंडामैंटल रिसर्च (टीएफ़आईआर), इंटर युनिवर्सिटी सैंटर फ़ॉर ऐस्ट्रोनॉमी ऐंड ऐस्ट्रोफज़ि़िक्स ( आईयूसीएए), राष्ट्रीय जीववैज्ञानिक केंद्र (एनसीबीएस) और भारतीय विज्ञान संस्थान ( आईआईएस). परंतु नवोन्मेंष मेंं विश्व स्तर पर अग्रणी रहने के लिए भारत को अनुसंधान उद्यमों को बहुत बड़े पैमाने पर बढ़ावा देने की आवश्यकता है.
भारत मेंं एक बार फिर से अनुसंधान और शिक्षण को तत्काल ही परस्पर जोडऩा होगा. संरचनात्मक परिवर्तनों को विश्वविद्यालय प्रणाली मेंं लाने की आवश्यकता है. आवश्यकता इस बात की है कि वे अनुसंधान संस्थानों मेंं सहयोगियों के बीच सहयोग को बढ़ावा दें और ऐसा करने के लिए उन्हें निधि भी प्रदान करें. यह कार्य भारत सरकार के विज्ञान व इंजीनियरी अनुसंधान परिषदों (एसईआरसी) मेंं उपलब्ध निधि को विज्ञान और प्रौद्योगिकी के अवसंरचना कार्यक्रम मेंं सुधार लाने के लिए वितरण करके किया जा सकता है. एसईआरसी इस प्रकार के मात्र सहयोगपरक कार्यों के लिए अनुदान कार्यक्रम आबंटित कर सकती है. अनुसंधान और शैक्षिक महाविद्यालयों के बीच वैज्ञानिक सहयोग को सक्रिय रूप मेंं बढ़ावा देने का लाभ यह होगा कि इससे एक ऐसी सरणी तैयार हो जाएगी जिससे अंत:स्नातक अनुसंधान के काम मेंं जुट जाएँगे. इसकी प्रतिक्रिया स्वरूप विश्वविद्यालयों को कम से कम सभी ऑनर्स डिग्री पाठ्यक्रमों मेंं अंत:स्नातकों के लिए अनुसंधान परियोजनाओं की आवश्यकता होगी. अनुसंधान के चक्र की स्थापना के लिए आवश्यक होगा कि अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रम की अवधि बढ़ाकर चार साल कर दी जाए. अनुसंधान विज्ञान के अंत:स्नातकों के पाठ्यक्रम का अभिन्न अंग है और प्रत्येक विद्यार्थी इसका स्वाद भारतीय वैज्ञानिक शिक्षा व अनुसंधान संस्थानों (आईआईएसईआर) मेंं ही चख लेता है. परंतु इसका कोई सादृश्य मानविकी और समाज विज्ञान मेंं नहीं मिलता. दूसरा आवश्यक और संबंधित मुद्दा है, अंत:स्नातकों की शिक्षा मेंं व्यापकता मेंं कमी. इसे व्यापक बनाने के लिए एक ऐसा व्यापक मूलभूत पाठ्यक्रम बनाना आवश्यक है जिसमेंं मात्रापरक तर्कप्रणाली, महत्वपूर्ण चिंतन, लेखन कौशल और बुनियादी गणित की क्षमता को विशिष्ट विज्ञान, इंजीनियरी या मैडिकल कॉलेजों के साथ-साथ सभी संस्थाओं के डिग्री कॉलेजों मेंं अंत:स्नातकों की शिक्षा का एक अंग बनाया जाना चाहिए.
ऑनलाइन शिक्षण और प्रशिक्षण के क्षेत्र मेंं आयी वर्तमान क्रांति की सहायता से शिक्षा संस्कृति मेंं बुनियादी परिवर्तन लाया जा सकता है. जिन्हें दुनिया मेंं कहीं भी स्ट्रीमलाइन किया जा सकता है और सामग्री को नि:शुल्क या मामूली शुल्क देकर प्राप्त किया जा सकता है. जिस पैमाने पर इन पाठ्यक्रमों को वितरित किया जा सकता है, वह आश्चर्यजनक है. व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) ने विशेषकर भारत जैसे देश मेंं पाठ्यसामग्री वितरित करने के लिए एक विशेष विकल्प की पेशकश की है, क्योंकि भारत की जनसांख्यिकी और शिक्षित किये जाने वाले युवा छात्रों की मात्र संख्या ही इतनी है कि यह अपने-आपमेंं एक चुनौती पैदा करती है. पश्च माध्यमिक शिक्षा मेंं व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम ( एमओओसीएस) के उपयोग से लाइव और क्रमिक विषयवस्तुओं के साथ मिश्रित कक्षाओं की सुविधाओं का पूरक पाठ्यक्रम की तरह से उपयोग करते हुए वर्तमान अंत:स्नातकीय पाठ्यक्रमों को अद्यतन किया जा सकता है. चूँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि इससे अपने-आप मेंं अनुसंधान के क्षेत्र मेंं कैरियर मेंं उनकी दिलचस्पी बढ़ेगी, इसलिए इस बात का अनुमान लगाना मुश्किल है कि इस क्रांति का कितना प्रभाव पड़ेगा. व्यापक मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसीएस) के माध्यम से पाठ्यक्रमों के वितरण, पाठ्यक्रम और शिक्षण को मानकीकृत किया जा सकता है.
विश्वविद्यालयों मेंं अनुसंधान की गतिविधियों को बढा़वा देने के लिए एक और सरणी है, विज्ञान के विद्यार्थियों को तथाकथित नागरिक विज्ञान संबंधी परियोजनाओं से जोडऩा. शैक्षिक उपक्रमों मेंं विदेशी सहयोग भारत के लिए नया नहीं है. उदाहरण के लिए विशिष्ट आईआईटी संस्थाओं की स्थापना अंतर्राष्ट्रीय सहयोग से ही की गयी है. शायद अनुसंधान विश्वविद्यालयों के साथ संबंधों के नवीयन से वैसी ही मदद मिलती है, लेकिन इससे वर्तमान आईआईटी के संकाय सदस्यों की अनुसंधान परियोजनाओं को बढ़ावा देने मेंं भी मदद मिलेगी.
निर्णायक और साहसिक नीति संबंधी हस्तक्षेपों से भारत अपनी शैक्षणिक संस्कृति को इस पीढ़ी के अंदर भी ला सकेगा और अपनी अनूठी जनसांख्यिकी का लाभ भी उठा सकेगा. जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक समस्याओं और ऊर्जा, पानी और भोजन जैसे दुर्लभ संसाधनों की बढ़ती माँग की चुनौतियों के नये और नवोन्मेंषकारी समाधान ढूँढने के लिए भारत सिगनल व दूरसंचार से उम्मीदें बाँधे हुए है. सिगनल व दूरसंचार ने समाधान दिये भी हैं और जब तक हम इन स्थितियों को अनुकूल बना नहीं लेते तब तक हमारे पास आशावादी बने रहने की हर वजह मौजूद है. भारत उच्च शिक्षा के क्षेत्र मेंं भारी चुनौतियों का सामना कर रहा है. सन् 2007 मेंं प्रधानमंत्री ने कहा था कि भारत के लगभग आधे ज़िलों मेंं उच्च शिक्षा मेंं नामांकन ’’बहुत ही कम’’ है और दो तिहाई भारतीय विश्वविद्यालय और 90 प्रतिशत भारतीय कॉलेज गुणवत्ता की दृष्टि से औसत से भी बहुत नीचे हैं. इसमेंं हैरानी की कोई बात नहीं है कि शिक्षा की माँगों को पूरा करने मेंं शासन की विफलता के कारण ही भारत के संभ्रांत और मध्यम वर्ग के विद्यार्थी भारत मेंं और भारत के बाहर भी सरकारी संस्थाओं को छोडक़र निजी संस्थाओं की ओर रुख करने लगे हैं. सरकारी संस्थाओं से यह पलायन भारतीयों की शिक्षा संबंधी माँगों को पूरा करने मेंं शासन की क्षमता को निरंतर कमज़ोर कर रहा है और इस समस्या को और भयावह बनाता जा रहा है. दुर्भाग्यवश निजी संस्थाओं मेंं संकीर्ण व्यावसायिक मार्ग पर चलने की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है और आंतरिक प्रशासन कमज़ोर होने लगा है और शासकीय नियमों मेंं शिथिलता आने लगी है.
बड़े पैमाने पर मुक्त ऑनलाइन पाठ्यक्रम (एमओओसी) चलाकर न केवल भारत की उच्च शिक्षा संबंधी चुनौतियों का पूरी तरह से सामना किया जा सकता है, बल्कि उच्च शिक्षा मेंं भारत की पहुँच और गुणवत्ता को कुछ हद तक बढ़ाया भी जा सकता है. पिछले दो वर्षों के दौरान एमओओसी ने अंतर्राष्ट्रीय मीडिया का ध्यान आकर्षित किया है. एमओओसी के समर्थक सामाजिक, आर्थिक या राष्ट्रीय पृष्ठभूमि की परवाह किये बिना सभी को शिक्षा की सुविधा उपलब्ध कराने की संभावित क्रांति की बात करने लगे हैं. लेकिन कुछ लोग इस बात को लेकर सतर्कता बरतने की बात करते हैं कि इससे उच्च शिक्षा संबंधी स्थानीय संस्थाओं का महत्व घटने लगेगा और भौतिक (फज़िक़िल) विश्वविद्यालयों मेंं विशिष्ट संभ्रांत वर्ग के छात्रों को व्यक्तिनिष्ठ शिक्षा की सुविधा प्रदान करके शैक्षणिक असमानता को और भी बढ़ावा मिलेगा, जबकि अधिकांश छात्र वर्चुअल शिक्षा तक सीमित रह जाएँगे, जिससे शिक्षा की लागत मेंं तो कमी आ जाएगी, लेकिन गुणवत्ता मेंं भी गिरावट आ जाएगी.
भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं एमओओसी के संभावित प्रभाव को समझने के लिए और इस बात पर विचार करने के लिए कि एमओओसी किस तरह से प्रभावी और समान परिणाम हासिल कर सकता है, हमेंं पहले एमओओसी के भागीदारों को अच्छी तरह से समझना होगा. इस समस्या के समाधान के लिए पैन्सिल्वेनिया विश्वविद्यालय ने उन तमाम विद्यार्थियों का सर्वेक्षण कराया था जिन्होंने कम से कम कोर्सेरा के एमओओसी (जो विश्व का सबसे बड़ा एमओओसी प्रदाता है) के किसी एक पाठ्यक्रम मेंं नामांकन करवाया हो.
कोर्सेरा द्वारा संचालित एमओओसी लेने वाले विद्यार्थियों मेंं अमेंरिका के बाद भारतीय विद्यार्थियों की संख्या दूसरे नंबर पर (अर्थात् 10 प्रतिशत) है. उपयोगकर्ताओं के उनके आईपी पतों के आधार पर किये गये भू-देशीय विश्लेषण से पता चलता है कि इस उपयोगकर्ताओं मेंं से अधिकांश उपयोगकर्ता भारत के शहरी इलाकों तक ही सीमित हैं. इनमेंं से 61 प्रतिशत उपयोगकर्ता भारत के पाँच बड़े शहरों मेंं से किसी एक शहर मेंं बसे हुए हैं और 16प्रतिशत उपयोगकर्ता अगले पाँच बड़े शहरों मेंं बसे हुए हैं. मुंबई और बैंगलोर मेंं उपयोगकर्ताओं की तादाद सबसे ज़्यादा है. भारत के कुल कोर्सेरा विद्यार्थियों मेंं से 18-18प्रतिशत इन दोनों शहरों से हैं और इनमेंं से अधिकांश पूर्णकालिक नौकरी कर रहे हैं (और शेष विद्यार्थी या तो स्व-नियोजित हैं या अंशकालीन नौकरी कर रहे हैं). और यह ठीक उसी तरह है जैसे हाल ही मेंं सैल फ़ोन, नया मीडिया और अन्य प्रौद्योगिकी अपनाने वाले उपयोगकर्ताओं की स्थिति है. इस सर्वेक्षण से पता चलता है कि गणित, मानविकी और सार्वजनिक स्वास्थ्य के बाद विद्यार्थी सबसे अधिक व्यवसाय, अर्थशास्त्र और समाज विज्ञान के पाठ्यक्रमों को ही लेना पसंद करते हैं. यह तथ्य कि एमओओसी के उपयोगकर्ताओं मेंं सबसे अधिक संख्या भारतीयों की है, इस बात की ओर इंगित करता है कि अच्छी किस्म की शिक्षा की भारत मेंं बेहद माँग है, जिसे अभी तक पूरा नहीं किया जा सका है. लेकिन यदि हम चाहते हैं कि एमओओसी भारत की उच्च शिक्षा की चुनौतियों को पूरा करने के लिए अर्थक्षम और सही मार्ग प्रदान करे तो हमेंं बहुत-से काम करने होंगे.
सर्वप्रथम हमेंं बुनियादी प्रौद्योगिकीय ढाँचा तैयार करना होगा, जिसमेंं कंप्यूटरों, मोबाइल उपकरणों और उच्च-गति वाले इंटरनैट की सुविधाओं को और विकसित करना होगा ताकि भारत के अधिकाधिक लोगों तक ऑन-लाइन शिक्षा की पहुँच बढ़ायी जा सके. जब तक प्रौद्योगिकीय बाधाएँ दूर नहीं होंगी तब तक केवल संभ्रांत वर्ग के कुछेक विद्यार्थी ही शिक्षा के इस विकल्प का चुनाव कर सकेंगे और इससे भारत मेंं शिक्षा के अवसरों मेंं असमानता की स्थिति और भी बिगड़ती जाएगी.
एमओओसी प्रदाताओं को कम से कम लागत वाली, व्यापक कवरेज वाली और अपने स्वामित्व वाली मोबाइल फ़ोन की भारतीय क्रांति से अपने-आपको जोडऩा होगा. भारत जैसे देश मेंं जहाँ ब्रॉडबैंड कवरेज बहुत सीमित है, एमओओसी की पहुँच को सुगम बनाने के लिए एक महत्वपूर्ण कदम है. एमओओसी प्रदाताओं को मोबाइल की दुनिया मेंं प्रवेश करने के लिए बैंकिंग उद्योग के मुकाबले ज़्यादा बड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा, क्योंकि उनकी वीडियो की विषय-वस्तु, प्रश्नोत्तरी और असाइनमैंट के लिए स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत पड़ती है, जबकि मोबाइल बैंकिंग के कुछ काम मात्र एसएमएस सेवाओं के ज़रिये ही निपटाये जा सकते हैं. लेकिन 3जी और 4जी के इंटरनैट के कारण अब स्मार्टफ़ोन और टेबलैट की सुविधा भारत मेंं बढ़ती जा रही है और जैसे-जैसे उनके दाम कम होते जाएँगे, उनकी सुविधाओं का भी तेज़ी से विस्तार होता जाएगा.
दूसरी बात यह है कि दुनिया के कुछ सबसे बढय़िा विश्वविद्यालयों द्वारा संचालित अधिकांश एमओओसी बहुत ही चुनौतीपूर्ण और माँग वाले पाठ्यक्रम हैं, जो विद्यार्थियों को उच्च-कौशल वाले क्षेत्रों मेंं व्यावसायिक प्लेसमैंट के लिए तैयार करते हैं. भारत की असमान शैक्षणिक माँगों की पूर्ति के लिए विविधीकरण की नीति को बढ़ावा देने मेंं मदद कर सकते हैं. अंतत: शैक्षणिक माँगों को समझने और उन्हें पूरा करने के लिए भारत मेंं निवेश करना होगा. भारत मेंं उच्च शिक्षा के संदर्भ मेंं पूर्ति और भारी माँग के बीच असंतुलन और किफ़ायती व अच्छी किस्म की शिक्षा की आवश्यकता को देखते हुए, भारतीय विद्यार्थियों के लिए उनकी विशेष रुचि के आधार पर भारतीय भाषाओं की विषयवस्तु को डिज़ाइन करना चाहिए और उसे उपलब्ध कराना चाहिए. अगर इन पाठ्यक्रमों की पहुँच को सुगम बनाने के मार्ग मेंं आने वाली प्रौद्योगिकीय, शैक्षणिक और सांस्कृतिक बाधाओं को दूर कर दिया जाए तो लाखों भारतीय विद्यार्थी अच्छे स्तर की उच्च शिक्षा सहजता से प्राप्त कर सकेंगे और इससे नाटकीय रूप मेंं भारत मेंं और विश्व-भर मेंं भी उच्च शिक्षा के परिदृश्य को बदला जा सकेगा.
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