भारत का संविधान जाति को अशक्तता या भेदभाव के स्रोत के रूप मेंं देखता है और असमानता की इस रूढ़ि को जड़ से मिटाने के लिए संविधान मेंं कुछ व्यवस्थाएँ भी की गई हैं. यह परिकल्पना की गई है कि भारत के सामाजिक जीवन मेंं जाति व्यवस्था एक अपवाद है, जो धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी.दूसरे शब्दों मेंं, संविधान भारतीय नागरिक को एक जाति-विहीन नागरिक के रूप मेंं स्वीकार करता है और किसी भी प्रकार के जातिसूचक संबंधों को स्वीकार नहीं करता. यद्यपि संविधान मेंं जाति के आधार पर असमानता को मिटाने का संकल्प स्पष्ट है,लेकिन भारत के सामाजिक जीवन मेंं जातिगत समूहों की हैसियत के बारे मेंं संविधान मेंं स्थिति स्पष्ट नहीं है. परंतु जाति के आधार पर गणना के निर्णय से जातिगत समूहों –विशेषकर अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) जैसे निम्न वर्गों को- कानूनी मान्यता मिल जाएगी और इससे कानूनी तौर पर जातिगत आधार पर राजनैतिक गतिविधियों को बल मिलेगा. इसका अर्थ यह होगा कि भारत कानूनी तौर पर एक जातिगत समाज बन जाएगा. भारत का संभ्रांत वर्ग इस निहितार्थ से सकते मेंं है और इसके परिणामस्वरूप होने वाले व्यापक सामाजिक कायाकल्प और उससे कानूनी तौर पर मिलने वाली जातिगत समाज की सामाजिक स्वीकृति से बेहद आशंकित है.
यह दृष्टि भी नई नहीं है कि भारतीय समाज एक जातिगत समाज है. दलित और अन्य जाति-विरोधी सामाजिक आंदोलनों की यह मान्यता रही है कि भारतीय समाज के मूल मेंं जातिगत व्यवस्था है. ब्रिटिश काल मेंं फुले और अम्बेडकर ने मुखर रूप मेंं यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भारतीय समाज मेंं जाति के आधार पर ही हैसियत,सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का निर्धारण होता है. आपात् काल के बाद नई पीढ़ी के दलित लेखकों, आलोचकों, विद्वानों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने न केवल इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत एक जातिमूलक समाज है, बल्कि जाति की नई अवधारणा भी की थी. उन्होंने समाज मेंं विभाजन करने वाली संभ्रांत वर्ग की एक इकाई वाली जातिमूलक अवधारणा की न केवल आलोचना की, बल्कि उसे सिरे से नकार भी दिया और हिंसा के दैनंदिन के अनुभवों के स्रोत और गतिशीलता की पहचान के लिए जाति की नई अवधारणा को जन्म दिया. वस्तुत: जाति को राष्ट्रीय वर्ग के रूप मेंं मान्यता दिलाने के लिए जबर्दस्त दबाव की शुरूआत उस समय हुई जब 1970 और 1980 के दशकों मेंं दलितों के सामूहिक नरसंहार के संदर्भ मेंं समकालीन दलित आंदोलन का उदय हुआ. दलितों पर होने वाले अत्याचारों के संदर्भ मेंं ही कॉन्ग्रेस सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 बनाए. इन अधिनियमों से जाति के कानूनी दृष्टिकोण मेंं महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ. जहाँ एक ओर अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 ने ‘‘अस्पृश्यता’’ को जातिमूलक न मानकर अशक्तता का एक कारण माना, वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम,1989 ने ‘‘जाति’’ को अत्याचार और जाति संबंधी अत्याचार का मूल कारण मानते हुए राष्ट्रीय अपराध माना. 1991 से 1993 के दौरान मंडल आंदोलन के समय जनता के दबाव मेंं आकर उच्चतम न्यायालय ने भी जाति को राष्ट्रीय इकाई (इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ, 1992) के रूप मेंं कानूनी मंजूरी दे दी. इसलिए जनगणना 2011 मेंं जाति-आधारित गणना की माँग दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) ने की है. ये वर्ग समकालीन समाज मेंं सामाजिक समूह के रूप मेंं उभरकर संगठित हो गए हैं और अब एक शक्तिशाली वर्ग के रूप मेंं काम कर रहे हैं.
भारत का संभ्रांत वर्ग भारत को एक समरसता पूर्ण और तटस्थ इकाई के रूप मेंं देखने का आग्रह बनाए रखना चाहता है जिसमेंं किसी प्रकार का वर्गभेद न हो. भारतीय नागरिकों (मेरी जाति हिंदुस्तानी) का यह विशेष वर्ग है. यह वर्ग अंग्रेज़ी मेंं शिक्षित शहरी लोगों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसमेंं मुख्यत: ऊँची जाति के बुद्धिजीवी और कुछ राजनीतिज्ञ शामिल हैं. यह वर्ग जाति को विभाजक तत्व और एक बुराई के रूप मेंं देखता है.इस वर्ग मेंं कुछ उदार विचारधारा के बुद्धिजीवियों के साथ-साथ वामपंथी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो यह मानते हैं कि जाति के आधार पर जनगणना से भारत के सार्थक और पूर्ण लोकतांत्रिक समाज के रूप मेंं विकसित होने मेंं अवरोध उत्पन्न होगा. वे यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था पर की जाने वाली बहस अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के आरक्षण या अन्य नीतिगत मामलों तक ही सीमित है.ये दोनों संभ्रांत वर्ग अपने-आपको जातिविहीन (अर्थात् सच्चे भारतीय) और दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लोगों को जातिपरक लोग ही मानते हैं. वे यह नहीं मानते कि विभिन्न जातियों की मान्यता और देश मेंं विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अपने-आप मेंं ही एक महत्वपूर्ण निर्णय है.
हमेंं जाति की महत्वपूर्ण अवधारणाओं के संबंध मेंं दलितों की आलोचना पर ध्यान देना चाहिए. दलितों के साहित्यिक लेखक, कार्यकर्ता और अकादमीय विद्वान् रोज़मर्रे के भेदभाव, हिंसा के विभिन्न प्रकार के क्रूर रूपों और अमानवीयता और असमानता को जाति व्यवस्था का मूल स्रोत मानते हैं.
साथ ही ये लेखक अपने अनुभव के आधार पर जाति की भूमिका को उजागर करते हुए कहते हैं कि हैसियत, जातिगत अहंकार, सामाजिक मान-सम्मान और सत्ता का मूल आधार जाति ही है और इस धारणा को निरस्त कर देते हैं कि धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के नागरिक जातिविहीन हैं. वे जाति के इस ऐकांतिक और प्रभावी दृष्टिकोण को भी चुनौती देते हैं कि सामाजिक विभाजन का एकमात्र साधन जाति ही है और नीची जाति के लोगों की पहचान केवल जाति से ही है.अकादमीय पंडित इस बात पर हैरत मेंं पड़ जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन मेंं और चुनावी मैदान मेंं जाति की पहचान को ज़ोर देकर रेखांकित किया जाता है. जाति के रेखांकन के इन नए तरीकों से यह सवाल उठता है कि भारत मेंं सामाजिक परिवर्तन को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कदाचित् जाति की अवधारणा ही एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है और साथ ही मूल बिंदु भी है.
भारत की जनगणना भारत की पहचान को दर्शाने का मूलभूत साधन है. केंद्र सरकार का यह दावा है कि भारत की जनगणना से व्यापक जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक आँकड़े प्राप्त होते हैं और ‘‘यह गाँव, कस्बे और वार्ड के स्तर पर प्राथमिक आँकड़े प्राप्त करने का एकमात्र स्रोत है’’. ये आंकड़े संसद, विधानसभा, पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के स्तर पर चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन / आरक्षण के आधार हैं. परंतु 1931 के बाद से इन महत्वपूर्ण आँकड़ों मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. जनगणना के वर्गों मेंं केवल धार्मिक समुदायों, भाषिक समूहों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी और पुरुष-स्त्री अनुपात का ही समावेश है. अपवाद के रूप मेंं जाति का रिकॉर्ड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए रखा जाता है. जनता के अन्य वर्गों के संदर्भ मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. इस प्रकार भारतीय जनगणना सच्चे अर्थों मेंं ‘‘भारतीय’’ ही रहती है.
राष्ट्रीय जनगणना के प्रतीकात्मक और राजनैतिक महत्व को देखते हुए और राष्ट्रीय जनगणना मेंं जाति के आँकड़ों के अभाव को देखते हुए सन् 2001 मेंं जाति के समावेश की माँग उठाई गई. तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. इस बार दलित समाज के लोग भारतीय जनगणना के समरसता पूर्ण और एकपक्षीय दृष्टिकोण को चुनौती देने के लिए कटिबद्ध हैं और यह तर्क देते हैं कि भारत मेंं विविध सामाजिक वर्गों के अस्तित्व को मान्यता दी जाए. जनगणना मेंं राष्ट्रीय वर्गों को समग्र रूप मेंं दर्शाया गया है और भारत को एक जातिगत समाज के रूप मेंं फिर से परिभाषित करना राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. दलित और अन्य कुचले हुए जातिगत समूह भारत जैसे आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र की संस्थाओं से जुडऩे का महत्व अब समझने लगे हैं. इसलिए जाति के आधार पर जनगणना की माँग का उनके लिए रणनीतिक महत्व है. वे निश्चय ही भूमि वितरण कार्यक्रम के रूप मेंं या फिर जनगणना की नई रूपावली के रूप मेंं क्रांति के लिए भी सन्नद्ध हैं. लेकिन वे न तो अब व्यापक सामाजिक कायाकल्प की परियोजनाओं की प्रतीक्षा कर सकते हैं और न ही ठीक अभी संपूर्ण जनगणना प्रक्रिया को पूरी तरह से पुनर्निर्मित करने मेंं सक्षम हैं.
जनगणना मेंं न केवल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की बल्कि ‘‘हर परिवार के प्रत्येक सदस्य की जाति’’ की गणना से भारत जातिगत समाज बन जाएगा और इससे अनेक नए सवाल उठेंगे. जनगणना से कुछ जातिगत समूहों की विशेषाधिकार की हैसियत और उनकी संख्या का भी साफ़-साफ़ पता चल जाएगा. व्यापक जातिगत आँकड़ों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के प्रत्येक वर्ग के लिए आरक्षण के प्रतिशत की माँग भी बढ़ सकती है और आरक्षण की वर्तमान 50 प्रतिशत की सीमा को भी चुनौती दी जा सकती है.
नए जातिगत समूह आरक्षण और कल्याण योजनाओं से कहीं अधिक की माँग कर सकते हैं और भूमि, संपत्ति और सत्ता के पुनर्वितरण की नई माँग कर सकते हैं. कई मायावतियाँ हो सकती हैं जो संख्या के खेल मेंं निपुण हैं और राष्ट्रीय चुनाव के दृश्य को पूरी तरह से बदलने मेंं सक्षम हैं. जाति के आधार पर गणना से एक ऐसी सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू होगी जिससे अकादमीय क्षेत्र से अलग सार्थक जन-संवाद के माध्यम से जाति का गैर-अनिवार्यीकरण और राजनीतिकरण मथकर ऊपर आ जाएगा. इस प्रक्रिया से जातिगत तनाव भी बढ़ सकता है और नए शासक वर्ग (अन्य पिछड़े वर्गों को मिलाकर) का उदय हो सकता है और भारत के संभ्रांत वर्ग से जुड़े वर्तमान शासक वर्ग का पूरी तरह खात्मा हो सकता है. लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया मेंं बहुत-से अंतर्विरोध और विस्मयपूर्ण बातें होंगी और भारत का संभ्रांत वर्ग अभी इस कायाकल्प के लिए तैयार नहीं है.
सरकार मेंं आरक्षण और शिक्षण संस्थाओं, नौकरी मेंं आरक्षण दो अलग अलग मुद्दे हैं। पंचायत मेंं अथवा संसद मेंं महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए जो आरक्षण दिया गया है तथा इस दिशा मेंं जो प्रयास किए जा रहे हैं वो उचित हैं। वह इसलिए कि सरकार का तो काम ही होता है कि वह लोगों का प्रतिनिधित्व करे। इसलिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, समुदाय या क्षेत्र आधारित आरक्षण दिया जाता है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। पर यही बात नौकरी या शिक्षण संस्थाओं मेंं दिए जाने वाले आरक्षण के बारे मेंं नहीं कही जा सकती।
इंजीनियरिंग या मेंडिकल आदि उच्च शिक्षण संस्थाओं तथा नौकरी मेंं चयन का आधार खुली प्रतिस्पर्धा मेंं समान मानकों पर प्रदर्शन होता है। इसके अलावा और किसी भी आधार पर अगर वहां चयन किया जाएगा तो उसका प्रदर्शन और कार्यकुशलता पर विपरीत असर तो पड़ेगा ही। शुरू मेंं जरूर ऐसा लग सकता है कि कुछ वंचित समुदायों को आगे बढ़ाने मेंं हमने सफलता हासिक की है, पर दीर्घावधि मेंं तो इसके दुष्परिणाम ही होते हैं। इससे समाज बंटता है तथा सामाजिक विभाजन और मजबूत होते हैं। भारत मेंं आरक्षण व्यवस्था की जो भी थोड़ी बहुत समीक्षा हुई है, उसके निष्कर्ष यही हैं। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के दुष्परिणाम समझने के लिए हमेंं कुछ साल पीछे जाना होगा।
इंजीनियरिंग और मेंडिकल कॉलेजों मेंं 2006के दौरान ‘‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’’ के बैनर तले कई माह तक चले आंदोलन को याद कर सकते हैं जिसमेंं कई छात्रों ने आत्मदाह भी किया था। जिसके बाद इस संगठन ने कई शिक्षण संस्थाओं मेंं चुनाव भी लड़ा था।
यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। इसके विपरीत आज जिस तरह से कभी जाट तो कभी किसी अन्य समुदाय को राजनीतिक हानि-लाभ को ध्यान मेंं रखकर आरक्षण दिए जाने की बात की जाती है। योग्यता और कार्यकुशलता को पूरी तरह ताख पर रख दिया गया है। जिसने समुदायों मेंं पारस्परिक वैमनस्य बढ़ाकर सामाजिक एकता को भी चोट पहुंचाई है। अमरीका आदि देशों मेंं भी 'विविधता' को बढ़ावा देने की नीति बनाकर 'अफरमेंटिव एक्शन' के तहत अश्वेत लोगों को नौकरी तथा विशेष रूप से सरकारी ठेकों आदि मेंं प्राथमिकता दी गई थी, वहां भी उसके दूरगामी नकारात्मक असर को देखकर अब उन सबको धीरे धीरे कम किया जा रहा है।
आज तक का अनुभव तो यही कहता है कि नौकरियों अथवा दाखिले मेंं किसी तरह के आरक्षण के बजाए समाज के वंचित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें समर्थनकारी कार्यों के माध्यम से सक्षम बनाने की पहल की जानी चाहिए। उन्हें बेहतर कोचिंग जाने के लिए पैसे दें। अन्य कोई भी समर्थनकारी सहायता चाहे वह सांस्कृतिक-सामाजिक पूंजी के रूप मेंं हो अथवा आर्थिक पूंजी के रूप मेंं हो, दी जा सकती है। पर प्रवेश और नौकरी के लिए तो खुली प्रतिस्पर्धा ही पैमाना होना चाहिए। कई बार सरकारी ठेकों मेंं कुछ समुदायों के लिए आरक्षण की बात भी की जाती है। इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। इसके बजाए यह हो सकता है कि कुछ समुदायों के लिए ठेके की राशि मेंं 10 या 15 प्रतिशत की रियायत दी जा सकती है, जिससे उन पर आर्थिक बोझ कम आए। पर ठेके की नीलामी तो खुली प्रतिस्पर्धा से ही होनी चाहिए। दीर्घावधि मेंं समाज की एकता और कुशलता दोनों के लिए यही बेहतर है।
यह दृष्टि भी नई नहीं है कि भारतीय समाज एक जातिगत समाज है. दलित और अन्य जाति-विरोधी सामाजिक आंदोलनों की यह मान्यता रही है कि भारतीय समाज के मूल मेंं जातिगत व्यवस्था है. ब्रिटिश काल मेंं फुले और अम्बेडकर ने मुखर रूप मेंं यह सिद्ध करने का प्रयास किया था कि भारतीय समाज मेंं जाति के आधार पर ही हैसियत,सम्पत्ति, ज्ञान और शक्ति का निर्धारण होता है. आपात् काल के बाद नई पीढ़ी के दलित लेखकों, आलोचकों, विद्वानों और सक्रिय कार्यकर्ताओं ने न केवल इस बात पर ज़ोर दिया था कि भारत एक जातिमूलक समाज है, बल्कि जाति की नई अवधारणा भी की थी. उन्होंने समाज मेंं विभाजन करने वाली संभ्रांत वर्ग की एक इकाई वाली जातिमूलक अवधारणा की न केवल आलोचना की, बल्कि उसे सिरे से नकार भी दिया और हिंसा के दैनंदिन के अनुभवों के स्रोत और गतिशीलता की पहचान के लिए जाति की नई अवधारणा को जन्म दिया. वस्तुत: जाति को राष्ट्रीय वर्ग के रूप मेंं मान्यता दिलाने के लिए जबर्दस्त दबाव की शुरूआत उस समय हुई जब 1970 और 1980 के दशकों मेंं दलितों के सामूहिक नरसंहार के संदर्भ मेंं समकालीन दलित आंदोलन का उदय हुआ. दलितों पर होने वाले अत्याचारों के संदर्भ मेंं ही कॉन्ग्रेस सरकार ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचारों की रोकथाम) अधिनियम, 1989 बनाए. इन अधिनियमों से जाति के कानूनी दृष्टिकोण मेंं महत्वपूर्ण परिवर्तन हुआ. जहाँ एक ओर अस्पृश्यता (अपराध) अधिनियम, 1955 ने ‘‘अस्पृश्यता’’ को जातिमूलक न मानकर अशक्तता का एक कारण माना, वहीं अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति अधिनियम,1989 ने ‘‘जाति’’ को अत्याचार और जाति संबंधी अत्याचार का मूल कारण मानते हुए राष्ट्रीय अपराध माना. 1991 से 1993 के दौरान मंडल आंदोलन के समय जनता के दबाव मेंं आकर उच्चतम न्यायालय ने भी जाति को राष्ट्रीय इकाई (इंद्रा साहनी बनाम भारतीय संघ, 1992) के रूप मेंं कानूनी मंजूरी दे दी. इसलिए जनगणना 2011 मेंं जाति-आधारित गणना की माँग दलितों और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) ने की है. ये वर्ग समकालीन समाज मेंं सामाजिक समूह के रूप मेंं उभरकर संगठित हो गए हैं और अब एक शक्तिशाली वर्ग के रूप मेंं काम कर रहे हैं.
भारत का संभ्रांत वर्ग भारत को एक समरसता पूर्ण और तटस्थ इकाई के रूप मेंं देखने का आग्रह बनाए रखना चाहता है जिसमेंं किसी प्रकार का वर्गभेद न हो. भारतीय नागरिकों (मेरी जाति हिंदुस्तानी) का यह विशेष वर्ग है. यह वर्ग अंग्रेज़ी मेंं शिक्षित शहरी लोगों का एक छोटा-सा वर्ग है, जिसमेंं मुख्यत: ऊँची जाति के बुद्धिजीवी और कुछ राजनीतिज्ञ शामिल हैं. यह वर्ग जाति को विभाजक तत्व और एक बुराई के रूप मेंं देखता है.इस वर्ग मेंं कुछ उदार विचारधारा के बुद्धिजीवियों के साथ-साथ वामपंथी बुद्धिजीवी भी शामिल हैं जो यह मानते हैं कि जाति के आधार पर जनगणना से भारत के सार्थक और पूर्ण लोकतांत्रिक समाज के रूप मेंं विकसित होने मेंं अवरोध उत्पन्न होगा. वे यह मानते हैं कि जाति व्यवस्था पर की जाने वाली बहस अनुसूचित जाति / अनुसूचित जनजाति / अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के आरक्षण या अन्य नीतिगत मामलों तक ही सीमित है.ये दोनों संभ्रांत वर्ग अपने-आपको जातिविहीन (अर्थात् सच्चे भारतीय) और दलितों और अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) के लोगों को जातिपरक लोग ही मानते हैं. वे यह नहीं मानते कि विभिन्न जातियों की मान्यता और देश मेंं विभिन्न सामाजिक वर्गों का अस्तित्व अपने-आप मेंं ही एक महत्वपूर्ण निर्णय है.
हमेंं जाति की महत्वपूर्ण अवधारणाओं के संबंध मेंं दलितों की आलोचना पर ध्यान देना चाहिए. दलितों के साहित्यिक लेखक, कार्यकर्ता और अकादमीय विद्वान् रोज़मर्रे के भेदभाव, हिंसा के विभिन्न प्रकार के क्रूर रूपों और अमानवीयता और असमानता को जाति व्यवस्था का मूल स्रोत मानते हैं.
साथ ही ये लेखक अपने अनुभव के आधार पर जाति की भूमिका को उजागर करते हुए कहते हैं कि हैसियत, जातिगत अहंकार, सामाजिक मान-सम्मान और सत्ता का मूल आधार जाति ही है और इस धारणा को निरस्त कर देते हैं कि धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक भारत के नागरिक जातिविहीन हैं. वे जाति के इस ऐकांतिक और प्रभावी दृष्टिकोण को भी चुनौती देते हैं कि सामाजिक विभाजन का एकमात्र साधन जाति ही है और नीची जाति के लोगों की पहचान केवल जाति से ही है.अकादमीय पंडित इस बात पर हैरत मेंं पड़ जाते हैं कि सार्वजनिक जीवन मेंं और चुनावी मैदान मेंं जाति की पहचान को ज़ोर देकर रेखांकित किया जाता है. जाति के रेखांकन के इन नए तरीकों से यह सवाल उठता है कि भारत मेंं सामाजिक परिवर्तन को समझने और उसका मूल्यांकन करने के लिए कदाचित् जाति की अवधारणा ही एकमात्र महत्वपूर्ण साधन है और साथ ही मूल बिंदु भी है.
भारत की जनगणना भारत की पहचान को दर्शाने का मूलभूत साधन है. केंद्र सरकार का यह दावा है कि भारत की जनगणना से व्यापक जनसांख्यिकीय और सामाजिक-आर्थिक आँकड़े प्राप्त होते हैं और ‘‘यह गाँव, कस्बे और वार्ड के स्तर पर प्राथमिक आँकड़े प्राप्त करने का एकमात्र स्रोत है’’. ये आंकड़े संसद, विधानसभा, पंचायत और अन्य स्थानीय निकायों के स्तर पर चुनाव क्षेत्रों के परिसीमन / आरक्षण के आधार हैं. परंतु 1931 के बाद से इन महत्वपूर्ण आँकड़ों मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. जनगणना के वर्गों मेंं केवल धार्मिक समुदायों, भाषिक समूहों, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की आबादी और पुरुष-स्त्री अनुपात का ही समावेश है. अपवाद के रूप मेंं जाति का रिकॉर्ड अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की पहचान के लिए रखा जाता है. जनता के अन्य वर्गों के संदर्भ मेंं जाति का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता. इस प्रकार भारतीय जनगणना सच्चे अर्थों मेंं ‘‘भारतीय’’ ही रहती है.
राष्ट्रीय जनगणना के प्रतीकात्मक और राजनैतिक महत्व को देखते हुए और राष्ट्रीय जनगणना मेंं जाति के आँकड़ों के अभाव को देखते हुए सन् 2001 मेंं जाति के समावेश की माँग उठाई गई. तत्कालीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) सरकार ने इस माँग को अस्वीकार कर दिया. इस बार दलित समाज के लोग भारतीय जनगणना के समरसता पूर्ण और एकपक्षीय दृष्टिकोण को चुनौती देने के लिए कटिबद्ध हैं और यह तर्क देते हैं कि भारत मेंं विविध सामाजिक वर्गों के अस्तित्व को मान्यता दी जाए. जनगणना मेंं राष्ट्रीय वर्गों को समग्र रूप मेंं दर्शाया गया है और भारत को एक जातिगत समाज के रूप मेंं फिर से परिभाषित करना राजनैतिक दृष्टि से महत्वपूर्ण है. दलित और अन्य कुचले हुए जातिगत समूह भारत जैसे आधुनिक उदारवादी लोकतंत्र की संस्थाओं से जुडऩे का महत्व अब समझने लगे हैं. इसलिए जाति के आधार पर जनगणना की माँग का उनके लिए रणनीतिक महत्व है. वे निश्चय ही भूमि वितरण कार्यक्रम के रूप मेंं या फिर जनगणना की नई रूपावली के रूप मेंं क्रांति के लिए भी सन्नद्ध हैं. लेकिन वे न तो अब व्यापक सामाजिक कायाकल्प की परियोजनाओं की प्रतीक्षा कर सकते हैं और न ही ठीक अभी संपूर्ण जनगणना प्रक्रिया को पूरी तरह से पुनर्निर्मित करने मेंं सक्षम हैं.
जनगणना मेंं न केवल अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) की बल्कि ‘‘हर परिवार के प्रत्येक सदस्य की जाति’’ की गणना से भारत जातिगत समाज बन जाएगा और इससे अनेक नए सवाल उठेंगे. जनगणना से कुछ जातिगत समूहों की विशेषाधिकार की हैसियत और उनकी संख्या का भी साफ़-साफ़ पता चल जाएगा. व्यापक जातिगत आँकड़ों से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़े वर्गों (ओबीसी) के प्रत्येक वर्ग के लिए आरक्षण के प्रतिशत की माँग भी बढ़ सकती है और आरक्षण की वर्तमान 50 प्रतिशत की सीमा को भी चुनौती दी जा सकती है.
नए जातिगत समूह आरक्षण और कल्याण योजनाओं से कहीं अधिक की माँग कर सकते हैं और भूमि, संपत्ति और सत्ता के पुनर्वितरण की नई माँग कर सकते हैं. कई मायावतियाँ हो सकती हैं जो संख्या के खेल मेंं निपुण हैं और राष्ट्रीय चुनाव के दृश्य को पूरी तरह से बदलने मेंं सक्षम हैं. जाति के आधार पर गणना से एक ऐसी सबसे अधिक महत्वपूर्ण प्रक्रिया शुरू होगी जिससे अकादमीय क्षेत्र से अलग सार्थक जन-संवाद के माध्यम से जाति का गैर-अनिवार्यीकरण और राजनीतिकरण मथकर ऊपर आ जाएगा. इस प्रक्रिया से जातिगत तनाव भी बढ़ सकता है और नए शासक वर्ग (अन्य पिछड़े वर्गों को मिलाकर) का उदय हो सकता है और भारत के संभ्रांत वर्ग से जुड़े वर्तमान शासक वर्ग का पूरी तरह खात्मा हो सकता है. लोकतंत्रीकरण की इस प्रक्रिया मेंं बहुत-से अंतर्विरोध और विस्मयपूर्ण बातें होंगी और भारत का संभ्रांत वर्ग अभी इस कायाकल्प के लिए तैयार नहीं है.
सरकार मेंं आरक्षण और शिक्षण संस्थाओं, नौकरी मेंं आरक्षण दो अलग अलग मुद्दे हैं। पंचायत मेंं अथवा संसद मेंं महिलाओं का प्रतिनिधित्व बढ़ाने के लिए जो आरक्षण दिया गया है तथा इस दिशा मेंं जो प्रयास किए जा रहे हैं वो उचित हैं। वह इसलिए कि सरकार का तो काम ही होता है कि वह लोगों का प्रतिनिधित्व करे। इसलिए प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिए अगर लिंग, समुदाय या क्षेत्र आधारित आरक्षण दिया जाता है तो उसे गलत नहीं कहा जा सकता। पर यही बात नौकरी या शिक्षण संस्थाओं मेंं दिए जाने वाले आरक्षण के बारे मेंं नहीं कही जा सकती।
इंजीनियरिंग या मेंडिकल आदि उच्च शिक्षण संस्थाओं तथा नौकरी मेंं चयन का आधार खुली प्रतिस्पर्धा मेंं समान मानकों पर प्रदर्शन होता है। इसके अलावा और किसी भी आधार पर अगर वहां चयन किया जाएगा तो उसका प्रदर्शन और कार्यकुशलता पर विपरीत असर तो पड़ेगा ही। शुरू मेंं जरूर ऐसा लग सकता है कि कुछ वंचित समुदायों को आगे बढ़ाने मेंं हमने सफलता हासिक की है, पर दीर्घावधि मेंं तो इसके दुष्परिणाम ही होते हैं। इससे समाज बंटता है तथा सामाजिक विभाजन और मजबूत होते हैं। भारत मेंं आरक्षण व्यवस्था की जो भी थोड़ी बहुत समीक्षा हुई है, उसके निष्कर्ष यही हैं। वर्तमान आरक्षण व्यवस्था के दुष्परिणाम समझने के लिए हमेंं कुछ साल पीछे जाना होगा।
इंजीनियरिंग और मेंडिकल कॉलेजों मेंं 2006के दौरान ‘‘यूथ फॉर इक्वैलिटी’’ के बैनर तले कई माह तक चले आंदोलन को याद कर सकते हैं जिसमेंं कई छात्रों ने आत्मदाह भी किया था। जिसके बाद इस संगठन ने कई शिक्षण संस्थाओं मेंं चुनाव भी लड़ा था।
यह नहीं भूलना चाहिए कि आरक्षण व्यवस्था का उद्देश्य जाति पर जोर देना नहीं, जाति को खत्म करना था। इसके विपरीत आज जिस तरह से कभी जाट तो कभी किसी अन्य समुदाय को राजनीतिक हानि-लाभ को ध्यान मेंं रखकर आरक्षण दिए जाने की बात की जाती है। योग्यता और कार्यकुशलता को पूरी तरह ताख पर रख दिया गया है। जिसने समुदायों मेंं पारस्परिक वैमनस्य बढ़ाकर सामाजिक एकता को भी चोट पहुंचाई है। अमरीका आदि देशों मेंं भी 'विविधता' को बढ़ावा देने की नीति बनाकर 'अफरमेंटिव एक्शन' के तहत अश्वेत लोगों को नौकरी तथा विशेष रूप से सरकारी ठेकों आदि मेंं प्राथमिकता दी गई थी, वहां भी उसके दूरगामी नकारात्मक असर को देखकर अब उन सबको धीरे धीरे कम किया जा रहा है।
आज तक का अनुभव तो यही कहता है कि नौकरियों अथवा दाखिले मेंं किसी तरह के आरक्षण के बजाए समाज के वंचित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए उन्हें समर्थनकारी कार्यों के माध्यम से सक्षम बनाने की पहल की जानी चाहिए। उन्हें बेहतर कोचिंग जाने के लिए पैसे दें। अन्य कोई भी समर्थनकारी सहायता चाहे वह सांस्कृतिक-सामाजिक पूंजी के रूप मेंं हो अथवा आर्थिक पूंजी के रूप मेंं हो, दी जा सकती है। पर प्रवेश और नौकरी के लिए तो खुली प्रतिस्पर्धा ही पैमाना होना चाहिए। कई बार सरकारी ठेकों मेंं कुछ समुदायों के लिए आरक्षण की बात भी की जाती है। इसे भी उचित नहीं कहा जा सकता। इसके बजाए यह हो सकता है कि कुछ समुदायों के लिए ठेके की राशि मेंं 10 या 15 प्रतिशत की रियायत दी जा सकती है, जिससे उन पर आर्थिक बोझ कम आए। पर ठेके की नीलामी तो खुली प्रतिस्पर्धा से ही होनी चाहिए। दीर्घावधि मेंं समाज की एकता और कुशलता दोनों के लिए यही बेहतर है।
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