Thursday, 7 April 2016

जब वरुण ने अपने पुत्र की कठोर परीक्षा ली

एक बार वरुण के पुत्र भृगु के मन में परमात्मा को जानने की अभिलाषा जाग्रत हुई। उनके पिता वरुण ब्रह्म निष्ठ योगी थे। अत: भृगु ने पिता से ही अपनी जिज्ञासा शांत करने का विचार किया। वे अपने पिता के पास जाकर बोले- ‘भगवन्! मैं ब्रह्म को जानना चाहता हूं। आप कृपा कर मुझे ब्रह्म तत्व समझाइए’। वरुण बोले- ‘जिससे सभी का पालन-पोषण होता है, वही ब्रह्म है।’
भृगु ने सोचा- अन्न ही ब्रह्म है जो सबका पालन करता है। अत: उन्होंने अन्न उपजाया, अन्न को समझा, यह क्या है, यह कहां से आता है। पिता के पास गए और कहा - ‘प्रभु!’ अन्न को समझा, लेकिन शांति नहीं मिली।’ वरुण बोले- ‘तुम तप द्वारा ब्रह्म-तत्व को समझने का प्रयास करो।’
भृगु ने तप प्रारंभ कर दिया, इससे शरीर तो तेजस्वी हो गया किंतु फिर भी शांति प्राप्त नहीं हुई। पुन: वे पिता के पास गए और अपनी जिज्ञासा दोहराई - ‘ब्रह्म तत्व का रहस्य बताइए।’ पिता ने कहा- ‘तू तप कर।’ भृगु ने मन को संयम में रखने व पवित्र करने की साधना की किंतु शांति इस बार भी दूर ही रही।
वर्षों तक तपस्या के बाद भृगु को अद्भुत ज्ञान एवं मानसिक शक्ति प्राप्त हुई। जब पिता को विश्वास हो गया कि पुत्र ब्रह्म विद्या के ज्ञान का अधिकारी हो गया है, तब उन्होंने भृगु को ब्रह्मतत्व का ज्ञान दिया, जिससे भृगु की आत्मा प्रकाशित हो उठी।
तैतरीय उपनिषद के इस प्रसंग से प्रेरणा मिलती है कि सच्चे गुरु बिना पात्रता का विचार किए किसी शिष्य को ज्ञान नहीं देता। ज्ञान प्राप्त करने का सच्च अधिकारी वही है, उस ज्ञान को प्राप्त करने के बाद उसका दुरुपयोग न करे, और हमेशा गुरू का ऋणी रहे अर्थात कभी भी गुरू की अवहेलना न करे।

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