जिस दिन सूर्य एक राशि से दुसरे राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन को संक्रांति कहते है | मकर संक्रांति त्योहार माघ मास की प्रतिपदा को मनाया जाता है | इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है | सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन दान-पुण्य और देव अनुष्ठान की बहुत महिमा है | इस दिन किया गया दान अगले जन्मों में सौ गुणा पुण्यफलदायी होकर मिलता है |
त्यौहार किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता की झलक दिखाते हैं एवं सामजिक एकीकरण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भारत देश में पर्वों और त्योहारों को बहुत श्रद्धा, आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है। मकर संक्रांति का पर्व जिसे सम्पूर्ण भारत में अत्यंत जोश और उत्साह से मनाया जाता है। मत्स्य पुराण और स्कंद पुराण में मकर संक्रांति के बारे में विशिष्ट उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में व्रत विधि और स्कंद पुराण में संक्रांति पर किए जाने वाले दान को लेकर व्याख्या प्रस्तुत की गई है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि इसे मकर संक्रांति क्यों कहा जाता है? मकर संक्रांति का सूर्य के राशियों में भ्रमण से गहरा संबंध है। वैज्ञानिक स्तर पर यह पर्व एक महान खगोलीय घटना है और आध्यात्मिक स्तर पर मकर संक्रांति सूर्यदेव के उत्तरायण में प्रवेश की वजह से बहुत महत्वपूर्ण बदलाव का सूचक है। सूर्य 6 माह दक्षिणायन में रहता है और 6 माह उत्तरायण में रहता है।मकर राशि में सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम तीन चरण, श्रवण नक्षत्र के चारों चरण और धनिष्ठा नक्षत्र के दो चरणों में भ्रमण करते हैं।
हम जानते हैं कि ग्रहों एवं नक्षत्रों का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। इन ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति आकाशमंडल में सदैव एक समान नहीं रहती है। हमारी पृथ्वी भी सदैव अपना स्थान बदलती रहती है। यहाँ स्थान परिवर्तन से तात्पर्य पृथ्वी का अपने अक्ष एवं कक्ष-पथ पर भ्रमण से है। पृथ्वी की गोलाकार आकृति एवं अक्ष पर भ्रमण के कारण दिन-रात होते है। पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सम्मुख पड़ता है वहाँ दिन होता है एवं जो भाग सूर्य के सम्मुख नहीं पड़ता है, वहाँ रात होती है। पृथ्वी की यह गति दैनिक गति कहलाती है। किंतु पृथ्वी की वार्षिक गति भी होती है और यह एक वर्ष में सूर्य की एक बार परिक्रमा करती है। पृथ्वी की इस वार्षिक गति के कारण इसके विभिन्न भागों में विभिन्न समयों पर विभिन्न ऋतुएँ होती है जिसे ऋतु परिवर्तन कहते हैं। पृथ्वी की इस वार्षिक गति के सहारे ही गणना करके वर्ष और मास आदि की गणना की जाती है। इस काल गणना में एक गणना अयन के संबंध में भी की जाती है। इस क्रम में सूर्य की स्थिति भी उत्तरायण एवं दक्षिणायन होती रहती है। जब सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर होती है तो उसे उत्तरायण एवं जब उत्तर से दक्षिण होती है तो उसे दक्षिणायण कहा जाता है।
जिस दिन सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन को संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति त्यौहार माघ मास की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन दान-पुण्य और देव -अनुष्ठान की बहुत महिमा है। इस दिन किया गया दान अगले जन्मों में सौ गुना पुण्यफलदायी होकर मिलता है। मकर संक्रांति को तिल और गेहूं का दान करना चाहिए, तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। और अपने वजन के बराबर गेहूं का तुलादान करना श्रेष्ठ फलदायी होता है। इसी दिन पितरों को तिल मिश्रित जल से तर्पण करना चाहिए इससे उन्हें असीम शान्ति और मुक्ति मिलती है तथा वे प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद स्वरुप पारिवारिक सौहार्द, उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु और आर्थिक समृद्धि प्रदान करते हैं। मकर संक्रांति को सूर्य पूजा का विशेष महत्व है। सूर्य हमें तेज, बल, ऊर्जा और निरोगी शरीर देते हैं। अत: इनकी उपासना करने वाले व्यक्ति को आत्मविश्वास, ऊर्जा और एकाग्रता प्राप्त होती है तथा यश, प्रतिष्ठा और आकर्षक व्यक्तित्व भी मिलता है।
जन्म कुंडली में निर्बल सूर्य व्यक्ति को आत्महीनता, सिरदर्द, बालों से सम्बंधित परेशानी, कन्धा, गर्दन और पैरों की समस्या, शरीर में कैल्शियम की कमी व रक्त सम्बन्धी विकारों से पीडि़त करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को नित्य सूर्य को सिन्दूर मिश्रित जल से अर्घ्य देना चाहिए व आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। यदि आप भी इनमे से किसी समस्या से जूझ रहे हैं तो मकर संक्रांति के विशेष पर्व को आप भी सूर्य अनुष्ठान पूर्ण करके अपनी इन समस्याओं से सदैव के लिए छुटकारा पा सकते हैं।
उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश का अर्थ कितना गहन है और आध्यात्मिक व धार्मिक क्षेत्र के लिए कितना पुण्यशाली है, इसका अंदाज सिर्फ भीष्म पितामह के उदाहरण से लगाया जा सकता है। महाभारत युग की प्रामाणिक आस्थाओं के अनुसार सर्वविदित है कि उस युग के महान नायक भीष्म पितामह शरीर से क्षत-विक्षत होने के बावजूद मृत्यु शैया पर लेटकर प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश का इंतजार कर रहे थे।
मकर संक्रांति से कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था।
इस त्यौहार को अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल के रूप में तो आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व केरला में यह पर्व केवल संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।
इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी व सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था। इस प्रकार यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है।
यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।
ज्योतिषीय मान्यता है कि सूर्य का पुत्र शनि है। पिता पुत्र के रिश्ते के बावजूद इन दोनों के रिश्ते में बड़ी कड़वाहट है। सूर्य इस दिन एक माह के लिए शनि के घर जाते है। कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। इसका आशय है आपसी रिश्ते सुधारने के लिए सूर्य और शनि एक माह तक एक दुसरे के सतत संपर्क में रहते है। तिल शनि का कारक और गुड़ सूर्य का कारक पदार्थ है। तिल का स्वाद कड़वा होता है, जबकि गुड़ का स्वाद बहुत मीठा। गुड़ से मिलकर तिल भी अपना कडवापन त्याग कर स्वादिष्ट हो जाता है। इन दोनों पदार्थ के तालमेल से तिल का लड्डू बनाकर खाने-खिलाने की परम्परा का आशय मुंह में मीठास लाने के साथ-साथ हमारे सामजिक रिश्तों में भी मिठास घोलना है।
त्यौहार किसी भी देश की संस्कृति और सभ्यता की झलक दिखाते हैं एवं सामजिक एकीकरण में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। भारत देश में पर्वों और त्योहारों को बहुत श्रद्धा, आस्था और उल्लास के साथ मनाया जाता है। मकर संक्रांति का पर्व जिसे सम्पूर्ण भारत में अत्यंत जोश और उत्साह से मनाया जाता है। मत्स्य पुराण और स्कंद पुराण में मकर संक्रांति के बारे में विशिष्ट उल्लेख मिलता है। मत्स्य पुराण में व्रत विधि और स्कंद पुराण में संक्रांति पर किए जाने वाले दान को लेकर व्याख्या प्रस्तुत की गई है। यहाँ यह जानना जरूरी है कि इसे मकर संक्रांति क्यों कहा जाता है? मकर संक्रांति का सूर्य के राशियों में भ्रमण से गहरा संबंध है। वैज्ञानिक स्तर पर यह पर्व एक महान खगोलीय घटना है और आध्यात्मिक स्तर पर मकर संक्रांति सूर्यदेव के उत्तरायण में प्रवेश की वजह से बहुत महत्वपूर्ण बदलाव का सूचक है। सूर्य 6 माह दक्षिणायन में रहता है और 6 माह उत्तरायण में रहता है।मकर राशि में सूर्य उत्तराषाढ़ा नक्षत्र के अंतिम तीन चरण, श्रवण नक्षत्र के चारों चरण और धनिष्ठा नक्षत्र के दो चरणों में भ्रमण करते हैं।
हम जानते हैं कि ग्रहों एवं नक्षत्रों का प्रभाव हमारे जीवन पर पड़ता है। इन ग्रहों एवं नक्षत्रों की स्थिति आकाशमंडल में सदैव एक समान नहीं रहती है। हमारी पृथ्वी भी सदैव अपना स्थान बदलती रहती है। यहाँ स्थान परिवर्तन से तात्पर्य पृथ्वी का अपने अक्ष एवं कक्ष-पथ पर भ्रमण से है। पृथ्वी की गोलाकार आकृति एवं अक्ष पर भ्रमण के कारण दिन-रात होते है। पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सम्मुख पड़ता है वहाँ दिन होता है एवं जो भाग सूर्य के सम्मुख नहीं पड़ता है, वहाँ रात होती है। पृथ्वी की यह गति दैनिक गति कहलाती है। किंतु पृथ्वी की वार्षिक गति भी होती है और यह एक वर्ष में सूर्य की एक बार परिक्रमा करती है। पृथ्वी की इस वार्षिक गति के कारण इसके विभिन्न भागों में विभिन्न समयों पर विभिन्न ऋतुएँ होती है जिसे ऋतु परिवर्तन कहते हैं। पृथ्वी की इस वार्षिक गति के सहारे ही गणना करके वर्ष और मास आदि की गणना की जाती है। इस काल गणना में एक गणना अयन के संबंध में भी की जाती है। इस क्रम में सूर्य की स्थिति भी उत्तरायण एवं दक्षिणायन होती रहती है। जब सूर्य की गति दक्षिण से उत्तर होती है तो उसे उत्तरायण एवं जब उत्तर से दक्षिण होती है तो उसे दक्षिणायण कहा जाता है।
जिस दिन सूर्य एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करता है तो उस दिन को संक्रांति कहते हैं। मकर संक्रांति त्यौहार माघ मास की प्रतिपदा को मनाया जाता है। इस दिन सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करता है। सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार मकर संक्रांति के दिन दान-पुण्य और देव -अनुष्ठान की बहुत महिमा है। इस दिन किया गया दान अगले जन्मों में सौ गुना पुण्यफलदायी होकर मिलता है। मकर संक्रांति को तिल और गेहूं का दान करना चाहिए, तिल मिश्रित जल से स्नान करना चाहिए। और अपने वजन के बराबर गेहूं का तुलादान करना श्रेष्ठ फलदायी होता है। इसी दिन पितरों को तिल मिश्रित जल से तर्पण करना चाहिए इससे उन्हें असीम शान्ति और मुक्ति मिलती है तथा वे प्रसन्न होकर हमें आशीर्वाद स्वरुप पारिवारिक सौहार्द, उत्तम स्वास्थ्य, दीर्घायु और आर्थिक समृद्धि प्रदान करते हैं। मकर संक्रांति को सूर्य पूजा का विशेष महत्व है। सूर्य हमें तेज, बल, ऊर्जा और निरोगी शरीर देते हैं। अत: इनकी उपासना करने वाले व्यक्ति को आत्मविश्वास, ऊर्जा और एकाग्रता प्राप्त होती है तथा यश, प्रतिष्ठा और आकर्षक व्यक्तित्व भी मिलता है।
जन्म कुंडली में निर्बल सूर्य व्यक्ति को आत्महीनता, सिरदर्द, बालों से सम्बंधित परेशानी, कन्धा, गर्दन और पैरों की समस्या, शरीर में कैल्शियम की कमी व रक्त सम्बन्धी विकारों से पीडि़त करते हैं। ऐसे व्यक्तियों को नित्य सूर्य को सिन्दूर मिश्रित जल से अर्घ्य देना चाहिए व आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। यदि आप भी इनमे से किसी समस्या से जूझ रहे हैं तो मकर संक्रांति के विशेष पर्व को आप भी सूर्य अनुष्ठान पूर्ण करके अपनी इन समस्याओं से सदैव के लिए छुटकारा पा सकते हैं।
उत्तरायण में सूर्य के प्रवेश का अर्थ कितना गहन है और आध्यात्मिक व धार्मिक क्षेत्र के लिए कितना पुण्यशाली है, इसका अंदाज सिर्फ भीष्म पितामह के उदाहरण से लगाया जा सकता है। महाभारत युग की प्रामाणिक आस्थाओं के अनुसार सर्वविदित है कि उस युग के महान नायक भीष्म पितामह शरीर से क्षत-विक्षत होने के बावजूद मृत्यु शैया पर लेटकर प्राण त्यागने के लिए सूर्य के उत्तरायण में प्रवेश का इंतजार कर रहे थे।
मकर संक्रांति से कई पौराणिक कथाएं जुड़ी हुई हैं। मकर संक्रांति के दिन ही गंगाजी भागीरथ के पीछे-पीछे चलकर कपिल मुनि के आश्रम से होकर सागर में जा उनसे मिली थीं। यह भी कहा जाता है कि गंगा को धरती पर लाने वाले महाराज भगीरथ ने अपने पूर्वजों के लिए इस दिन तर्पण किया था। उनका तर्पण स्वीकार करने के बाद इस दिन गंगा समुद्र में जाकर मिल गई थी। इसलिए मकर संक्रांति पर गंगा सागर में मेला लगता है।
महाभारत काल के महान योद्धा भीष्म पितामह ने भी अपनी देह त्यागने के लिए मकर संक्रांति का ही चयन किया था।
इस त्यौहार को अलग-अलग प्रांतों में अलग-अलग नाम से मनाया जाता है। मकर संक्रांति को तमिलनाडु में पोंगल के रूप में तो आंध्रप्रदेश, कर्नाटक व केरला में यह पर्व केवल संक्रान्ति के नाम से जाना जाता है।
इस दिन भगवान विष्णु ने असुरों का अंत कर युद्ध समाप्ति की घोषणा की थी व सभी असुरों के सिरों को मंदार पर्वत में दबा दिया था। इस प्रकार यह दिन बुराइयों और नकारात्मकता को खत्म करने का दिन भी माना जाता है।
यशोदा जी ने जब कृष्ण जन्म के लिए व्रत किया था तब सूर्य देवता उत्तरायण काल में पदार्पण कर रहे थे और उस दिन मकर संक्रांति थी। कहा जाता है तभी से मकर संक्रांति व्रत का प्रचलन हुआ।
ज्योतिषीय मान्यता है कि सूर्य का पुत्र शनि है। पिता पुत्र के रिश्ते के बावजूद इन दोनों के रिश्ते में बड़ी कड़वाहट है। सूर्य इस दिन एक माह के लिए शनि के घर जाते है। कहा जाता है कि इस दिन भगवान सूर्य अपने पुत्र शनि से मिलने स्वयं उसके घर जाया करते हैं। शनिदेव चूंकि मकर राशि के स्वामी हैं, अत: इस दिन को मकर संक्रांति के नाम से जाना जाता है। इसका आशय है आपसी रिश्ते सुधारने के लिए सूर्य और शनि एक माह तक एक दुसरे के सतत संपर्क में रहते है। तिल शनि का कारक और गुड़ सूर्य का कारक पदार्थ है। तिल का स्वाद कड़वा होता है, जबकि गुड़ का स्वाद बहुत मीठा। गुड़ से मिलकर तिल भी अपना कडवापन त्याग कर स्वादिष्ट हो जाता है। इन दोनों पदार्थ के तालमेल से तिल का लड्डू बनाकर खाने-खिलाने की परम्परा का आशय मुंह में मीठास लाने के साथ-साथ हमारे सामजिक रिश्तों में भी मिठास घोलना है।
No comments:
Post a Comment