Monday, 14 September 2015

पेप्टिक अल्सर और ज्योतिष्य विश्लेषण

पेप्टिक अल्सर आयुर्वेद के अनुसार मानव शरीर में अग्नि मूल है। जब तक शरीर में अग्नि संतुलित रहती है, तब तक स्वास्थ्य का अनुवर्तन होता रहता है। इसलिए शरीर में प्राण और स्वास्थ्य अग्निमूलक हैं। शरीर में मंदाग्नि रहने से कई उदर रोग उत्पन्न होते हैं। मानसिक दबाव और तनाव भरी जिंदगी जीने वालों के शारीरिक विकारों में ग्रहणी और पाचन संस्थान के रोग ज्यादातर दिखाई देते हैं, जिनमें अल्सर सबसे अधिक पायी जाने वाली व्याधि है। मानव शरीर में आमाशय और ग्रहणी आहार नाल के सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं। आमाशय आहार नाल का सबसे चैड़ा भाग है, जो अन्न नालिका के अंत से ले कर छोटी आंत के प्रारंभ के मध्य स्थित रहता है। आमाशय का कार्य है आहार को ग्रहण करना, अपने पाचक रसों को उसमें मिलाना, अपनी पेशियों द्वारा भोजन का मंथन करना और उसे आगे की तरफ धकेल कर ग्रहणी में भेजना। ग्रहणी छोटी आंत का सबसे चैड़ा और प्रारंभिक भाग है, जिसका आकार ‘सी’ अक्षर के समान है। जब अमाशय की भित्ति में घाव (व्रण) बन जाता है, तो उसे ‘आमाशय व्रण’ कहा जाता है। जब आमाशय और ग्रहणी दोनों में ही एक साथ घाव बन जातें हैं, तो उसे ‘गैस्ट्रोड्यूडेनल अल्सर’ कहा जाता है और जब यह घाव या व्रण ग्रहणी की भित्ति में बनता है, तो उसे ड्यूडेनल अल्सर के नाम से जाना जाता है। यद्यपि इन तीनों प्रकार के व्रणों के रचनात्मक रूप में कई प्रकार की विविधता है, पर इन तीनों के कारण और उपचार लगभग एक जैसे ही हैं। अतः इन्हें समान्यतः एक ही नाम ‘पेप्टिक अल्सर’- से संबोधित कर दिया जाता है । पेप्टिक अल्सर के वास्तविक कारण का अभी तक सही पता नहीं चल पाया है। फिर भी रोग उत्पत्ति में मुख्य भूमिका आमाशय अम्ल की सक्रियता पर निर्भर करती है। आमाशय में हाइड्रोक्लोरिक अम्ल की अधिकता के कारण, अथवा आमाशय और ग्रहणी की आंतरिक श्लेष्मिक कला की इस अम्ल के प्रति प्रतिरोध शक्ति कम पड़ जाने के कारण आमाशय रस का अम्ल इस श्लेष्मिक कला को पचाने लग जाता है, जिससे उस स्थान पर घाव (व्रण) उत्पन्न हो जाते हैं। यह तो सर्वविदित है कि तीव्र अम्ल किसी भी प्रकार के मांस को गला सकता है, स्वस्थ मानव के शरीर में आमाशय कोशिकाओं द्वारा उत्पन्न पाचक रस और अम्ल से श्लेष्मिक कला की रक्षा करता है। इस पाचक रस में ऐसे प्रजिजीव भी मौजूद रहते हैं, जो अम्ल की क्रिया से बचाते हैं। किसी कारण से इनकी न्यूनता होने से श्लेष्मिक कला की प्रतिरोध शक्ति घटने तथा रक्त संचार के पर्याप्त न रहने से उन स्थानों की श्लेष्मिक कोशिकाओं का पाचन संभव हो पाता है, जिससे वहां घाव बन जाते हैं। ‘पेप्टिक अल्सर’ की उत्पत्ति का सीधा सा कारण आमाशय रस के पेप्टिक और हाइड्रोक्लोरिक अम्ल द्वारा आमाशय की श्लेष्मिक कला का पच जाना ही होता है, क्योंकि अल्सर की उत्पत्ति के लिए अम्ल और पेप्टिक की मौजूदगी आवश्यक होती है। रोग का उपचार: पेप्टिक अल्सर के उपचार के लिए औषधियों से अधिक आवश्यक है परहेज। अपनी बुरी आदतों और चीजों को जीवन भर के लिए छोड़ना पड़ता है। धूम्रपान, शराब और अन्य प्रकार के नशीले पदार्थों को त्याग कर संतुलित आहार पर ही रहना पड़ेगा। एस्प्रिन और अन्य कई शोथ निवारक औषधियों को भी छोड़ना पड़ता है। आयुर्वेद में कई ऐसी औषधियां हैं, जो पेप्टिक अल्सर में शीघ्र लाभ करती हैंः यहां तक कि बहुत जल्द ही रोग को समूल नष्ट भी कर डालती हैं, जैसे आंवला। आंवला अपने विशेष रसायन से आमाशय की श्लेष्मिक कला पर म्यूसिन और एल्यूमिन को मिला कर एक परत सी बना देता है, जिससे श्लेष्मिक कला का कोमल भाग जठर रस और अम्ल के प्रभाव से बचने लग जाता है।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण: ज्योतिषीय दृष्टि से काल पुरुष की कुंडली में पंचम भाव पेप्टिक, अर्थात् पाचन संस्थान का है और सिंह राशि इस संस्थान का नेतृत्व करती है। पाचन संस्थान में अग्नि मूल, जिसके कारण पाचक रस उत्पन्न होता है, भोजन को पचाने का कार्य करता है। इस संस्थान में पाचक रस में अम्ल की मात्रा अधिक होने के कारण पाचक संस्थान में घाव (व्रण) बन जाता है, जो अल्सर कहलाता है। इसलिए अम्ल, जो अग्निकारक है, उसका नेतृत्व मंगल और सूर्य करता है। इसलिए पंचम भाव, सिंह राशि, सूर्य और मंगल का दुष्प्रभावों में रहने के कारण पेप्टिक अल्सर होता है। विभिन्न लग्नों में पेप्टिक अल्सर: मेष लग्न: सूर्य षष्ठ भाव में राहु, केतु से युक्त, या दृष्ट, बुध पंचम भाव में शनि से युक्त, या दृष्ट, मंगल चतुर्थ भाव में रहने से पेप्टिक अल्सर की संभावनाएं होती हैं। वृष लग्न: मंगल केतु युक्त और गुरु से दृष्ट पंचम भाव में तथा बुध अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो, शुक्र षष्ठ भाव में हो, तो जातक को पाचन संबंधी समस्या होती है, जो बाद में अल्सर का रूप धारण कर लेती है। मिथुन लग्न: पंचमेश शुक्र सूर्य से अस्त हो और लग्नेश पंचम भाव में मंगल से युक्त हो और गुरु से दृष्ट हो। राहु नवम् भाव में हो, तो अल्सर जैसा रोग पाचन संस्थान पर होता है। कर्क लग्न: बुध, राहु पंचम भाव में, मंगल शनि से युक्त षष्ठ भाव में, गुरु ग्यारहवें भाव में रहने से ऐसे रोग की संभावनाएं बन सकती हैं। सिंह लग्न: लग्नेश षष्ठ भाव में राहु, या शनि से युक्त हो, मंगल अष्टम भाव में पंचमेश के साथ हो और बुध पंचम भाव में शुक्र के साथ अस्त न हो, तो अल्सर रोग हो सकता है। कन्या लग्न: लग्नेश षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त हो, मंगल पंचम भाव में गुरु से युक्त, या दृष्ट हो और शनि स्थिर राशियों में स्थित हो, तो अल्सर होने की संभावना रहती है। तुला लग्न: लग्नेश अष्टम भाव में मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, गुरु एकादश भाव में हो, सूर्य पंचम भाव में स्थित हो और बुध अस्त हो कर षष्ठ भाव में हो, तो पेप्टिक अल्सर होने की संभावना होती है। वृश्चिक लग्न: लग्नेश मंगल द्वितीय भाव में, शनि अष्टम भाव में, बुध पंचम भाव में सूर्य से युक्त, शुक्र षष्ठ भाव में पंचमेश राहु, केतु से युक्त, या दृष्ट कुंडली में कहीं भी हो, तो पेप्टिक अल्सर होने की संभावना होती है। धनु लग्न: शुक्र-बुध पंचम भाव में, सूर्य चतुर्थ भाव में, लग्नेश गुरु त्रिक भाव में शनि से दृष्ट, या युक्त हो, गुरु पंचमेश केतु से युक्त कुंडली में कही भी हो, तो पेप्टिक अल्सर हो सकता है। मकर लग्न: गुरु पंचम भाव में केत से युक्त, या दृष्ट हो, मंगल द्वितीय भाव में, लग्नेश शनि अपनी नीच राशि बुध से युक्त हो, तो पेप्टिक अल्सर की संभावना बढ़ती है। कुंभ लग्न: अष्टमेश और नवमेश मंगल के साथ युक्त हो कर पंचम भाव में स्थित हों, सूर्य चतुर्थ भाव में गुरु से दृष्ट हो, लग्नेश शनि त्रिक भावों में हो, तो पेप्टिक अल्सर की संभावना बढ़ती है। मीन लग्न: शुक्र पंचम भाव से दृष्ट, या युक्त हो, सूर्य और मंगल षष्ठ भाव में, लेकिन मंगल अस्त न हो, बुध सप्तम भाव में, लग्नेश शनि से युक्त द्वादश भाव, या अष्टम भाव में हो, तो पेप्टिक अल्सर की संभावना बढ़ती है। उपर्युक्त सभी योग चलित कुंडली पर आधारित हैं। रोग की उत्पति संबंधित ग्रह दशा-अंतर्दशा और गोचर ग्रह के प्रतिकूल रहने से होता है। जब तक दशा-अंतर्दशा प्रतिकूल रहेंगे, शरीर में रोग रहेगा। उसके बाद ठीक हो जाएगा, लेकिन ठीक अवस्था में भी पाचन संस्थान में कुछ व्याधि रहेगी।

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