Monday, 7 September 2015

राधा-कृष्ण विवाह


हममें से सभी लोग यही जानते हैं कि राधाजी श्रीकृष्ण की प्रेयसी थीं परन्तु इनका विवाह नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण के गुरू गर्गाचार्य जी द्वारा रचित ‘‘गर्ग संहिता’’ में यह वर्णन है कि राधा-कृष्ण का विवाह हुआ था। एक बार नन्द बाबा कृष्ण जी को गोद में लिए हुए गाएं चरा रहे थे। गाएं चराते-चराते वे वन में काफी आगे निकल आए। अचानक बादल गरजने लगे और आंधी चलने लगी। नन्द बाबा ने देखा कि सुन्दर वस्त्र आभूषणों से सजी राधा जी प्रकट हुई। नन्द बाबा ने राधा जी को प्रणाम किया और कहा कि वे जानते हैं कि उनकी गोद मे साक्षात श्रीहरि हैं और उन्हें गर्ग जी ने यह रहस्य बता दिया था। भगवान कृष्ण को राधाजी को सौंप कर नन्द बाबा चले गए। तब भगवान कृष्ण युवा रूप में आ गए। वहां एक विवाह मण्डप बना और विवाह की सारी सामग्री सुसज्जित रूप में वहां थी। भगवान कृष्ण राधाजी के साथ उस मण्डप में सुंदर सिंहासन पर विराजमान हुए। तभी वहां ब्रम्हा जी प्रकट हुए और भगवान कृष्ण का गुणगान करने के बाद कहा कि वे ही उन दोनों का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न कराएंगे। ब्रम्हा जी ने वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ विवाह कराया और दक्षिणा में भगवान से उनके चरणों की भंक्ति मांगी। विवाह संपन्न कराने के बाद ब्रम्हा जी लौट गए। नवविवाहित युगल ने हंसते खेलते कुछ समय यमुना के तट पर बिताया। अचानक भगवान कृष्ण फिर से शिशु रूप में आ गए। राधाजी का मन तो नहीं भरा था पर वे जानती थीं कि श्री हरि भगवान की लीलाएं अद्भुत हैं। वे शिशु रूपधारी श्री कृष्ण को लेकर माता यशोदा के पास गई और कहा कि रास्ते में नन्द बाबा ने उन्हें बालक कृष्ण को उन्हें देने को कहा था। राधा जी उम्र में श्रीकृष्ण से बडी थीं। यदि राधा-कृष्ण की मिलन स्थली की भौगोलिक पृष्ठभूमि देखें तो नन्द गांव से बरसाना 7 किमी है तथा वह वन जहाँ ये गायें चराने जाते थे नंद गांव और बरसाना के ठीक मघ्य में है। भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम को अध्यात्मिक प्रेम की श्रेणी में रखते हैं। इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली।



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असीरगढ़ के किले में रोज आते हैं अश्वत्थामा कथा-प्रसंग

असीरगढ़ का किला, रहस्यमय किला। कहते हैं यहाँ स्थित शिव मंदिर में महाभारतकाल के अश्वत्थामा आज भी पूजा-अर्चना करने आते हैं। यहां पूछने पर लोगों ने हमें किले के संबंध में अजीबो-गरीब दास्तां सुनाई। किसी ने बताया ‘‘उनके दादा ने उन्हें कई बार वहाँ अश्वत्थामा को देखने का किस्सा सुनाया है।’’ तो किसी ने कहा- ‘‘जब वे मछली पकडऩे वहाँ के तालाब में गए थे, तो अंधेरे में उन्हें किसी ने तेजी से धक्का दिया था। शायद धक्का देने वाले को मेरा वहाँ आना पसंद नहीं आया।’’ गाँव के कई बुजुर्गों की बातें ऐसे ही किस्सों से भरी हुई थीं। किसी का कहना था कि जो एक बार अश्वत्थामा को देख लेता है, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ जाता है।
बुजुर्गों से चर्चा करने के बाद हमने रुख किया असीरगढ़ के किले की तरफ। यह किला आज भी पाषाण युग में जीता नजर आता है। बिजली के युग में यहाँ की रातें अंधकार में डूबी रहती हैं। शाम छह बजे से किले का अंधकार ‘भुतहा’ रूप ले लेता है। इस सुनसान किले पर चढ़ाई करते समय कुछ गाँव वाले हमारे साथ हो गए।
हमारे इस सफर के साथी थे गाँव के सरपंच, एक गाइड और दो-तीन स्थानीय लोग। हमारी घड़ी का काँटा शाम के छह बजा रहा था। लगभग आधे घंटे की पैदल चढ़ाई करने के बाद हमने किले के बाहरी बड़े दरवाजे पर दस्तक दी।
जाहिर है, किले का दरवाजा खुला हुआ था। हमने अंदर की तरफ रुख किया। लंबी घास के बीच जंगली पौधों को हटाते हुए हम आगे बढ़ते जा रहे थे। तभी हमारी नजर कुछ कब्रों पर पड़ी। एक नजर देखने पर कब्रें काफी पुरानी मालूम हुईं। साथ आए गाइड ने बताया कि यह अंग्रेज सैनिकों की कब्रें हैं।
कुछ देर यहाँ ठहरने के बाद हम आगे बढ़ते गए। हमें टुकड़ों में बँटा एक तालाब दिखाई दिया। तालाब को देखते ही गाइड बताने लगा, यही वो तालाब है जिसमें स्नान करके अश्वत्थामा शिव मंदिर में पूजा-अर्चना करने जाते हैं, वहीं कुछ लोगों का कहना था नहीं वे ‘‘उतालवी-नदी’’ में स्नान करके पूजा के लिए यहाँ आते हैं। हमने तालाब को गौर से देखा। लगता है पहाडिय़ों से घिरी इस जगह पर बारिश का पानी जमा हो जाता है। सफाई न होने के कारण यह पानी हरा नजर आ रहा था, लेकिन आश्चर्य यह कि बुरहानपुर की तपती गरमी में भी यह तालाब सूखता नहीं।
कुछ कदम और चलने पर हमें लोहे के दो बड़े एंगल दिखाई दिए। गाइड ने बताया यह फाँसीघर है। यहाँ फाँसी की सजा दी जाती थी। सजा के बाद मुर्दा शरीर यूँ ही लटका रहता था। अंत में नीचे बनी खाई में उसका कंकाल गिर जाता था। यह सुन हम सभी की रूह काँप गई।
हमने यहाँ से आगे बढऩा ही बेहतर समझा। हम थोड़ा ही आगे बढ़े थे कि हमें गुप्तेश्वर महादेव का मंदिर दिखाई दिया। मंदिर चहुँओर से खाइयों से घिरा हुआ था। किंवदंती के अनुसार इन्हीं खाइयों में से किसी एक में गुप्त रास्ता बना हुआ है, जो खांडव वन (खंडवा जिला) से होता हुआ सीधे इस
मंदिर में निकलता है। इसी रास्ते से होते हुए अश्वत्थामा मंदिर के अंदर आते हैं। हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। यहाँ की सीढिय़ां घुमावदार थीं और चारों तरफ खाई बनी हुई थी। जरा-सी चूक से हम खाई में गिर सकते थे।
बड़ी सावधानी से हम मंदिर के अंदर दाखिल हुए। मंदिर देखकर महसूस हो रहा था कि भले ही इस मंदिर में कोई रोशनी और आधुनिक व्यवस्था न हो, यहाँ परिंदा भी पर न मारता हो, लेकिन पूजा लगातार जारी है। वहाँ श्रीफल के टुकड़े नजर आए। शिवलिंग पर गुलाल चढ़ाया गया था। हमने रात इसी मंदिर में गुजारने का फैसला कर लिया। अभी रात के बारह बजे थे। गाइड हमसे नीचे उतरने की विनती करने लगा। उसने कहा यहाँ रात रुकना ठीक नहीं, लेकिन हमारे दबाव देने पर वह भी हमारे साथ रुक गया।
इस वीराने में रात भयानक लग रही थी। लग रहा था कि समय न जाने कैसे कटेगा। घड़ी की सूई दो बजे पर पहुँची ही थी कि तापमान एकदम से घट गया। बुरहानपुर जैसे इलाके में जून की तपती गरमी में इतनी ठंड। मुझे ध्यान आया कि मैंने कहीं पढ़ा था कि ‘‘जहाँ आत्माएँ आसपास होती हैं, वहाँ का तापमान एकदम ठंडा हो जाता है।’’ क्या हमारे आसपास भी ऐसा ही कुछ था। हमारे कुछ साथी
घबराने लगे थे। हमने ठंड और डर दोनों को भगाने के लिए अलाव जला लिया था।
आसपास का माहौल बेहद डरावना हो गया था। पेड़ों पर मौजूद कीड़े अजीब-अजीब-सी आवाजें निकाल रहे थे। खाली खंडहरों से टकराकर हवा साँय-साँय कर रही थी। समय रेंगता हुआ कट रहा था। चार बजे के लगभग आसमान में हलकी-सी ललिमा दिखाई दे रही थी। पौ फटने को थी। साथ आए सरपंच ने सुझाव दिया कि बाहर जाकर तालाब को देखना चाहिए। देखें क्या वहाँ कोई है। हम सभी तालाब की ओर निकल पड़े।
कुछ देर हमने तालाब को निहारा, इधर-उधर टहलकर किले का जायजा लिया। हमें कुछ भी दिखाई नहीं दिया। भोर का हलका उजास हर और फैलने लगा। हम सभी मंदिर की ओर मुड़ गए। लेकिन यह क्या, शिवलिंग पर गुलाब चढ़े हुए थे। हमारे आश्चर्य का ठिकाना न था। आखिर यह कैसे हुआ। किसी के पास इसका जवाब नहीं था। अब यह सच था या किसी की शरारत या फिर इन खाइयों में कोई महात्मा साधना करते हैं, इस बारे में कोई भी नहीं जानता न ही इन खाइयों से जाती सुरंग का ही पता लग पाया है, लेकिन इतना अवश्य है कि अतीत के कई राज इस खंडहर के किले की दीवारों में बंद हैं, जिन्हें कुरेदने की जरूरत है।

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विनाशकाले विपरीत बुद्धि

महाभारत के वन पर्व का प्रसंग है। जुए में हारने के बाद पाण्ड़व वन में चले गए। एक दिन धृतराष्ट्र ने विदुर को बलाया और दुखी होकर कहा कि तुम सबका भला सोचते हो, इसलिए कुछ ऐसा बताओ कि कौरवों और पाण्डवों दोनों का हित हो। विदुर बोले कि किसी भी राज्य का स्थायित्व धर्म पर होता है। आप धर्म के अनुसार काम करें पांडवों को उनका राज्य लौटा दीजिए और दुर्योधन को काबू कीजिए।
राजा का सबसे बड़ा कर्तव्य है कि वह अपने धन से संतुष्ट रहे और दूसरों के धन का लालच न करें। यदिआप ऐसा नहीं करेगें तो कौरव कुल का नाश निश्चित है क्यों कि गुस्से से भरे भीम और अर्जुन लौटने पर किसी को जिन्दा नही छोड़ेगें। विदुर की यह बात धृतराष्ट्र के सीने में कांटों की तरह चुभ गई, और उसने कहा तुम केवल पाड़वों का भला चाहते हो इसलिए यहां से  अभी चले जाओ। असल में उस समय धृतराष्ट्र केवल कौरवों के हित के बारे में ही सोच रहे थे क्यों कि वे सब उनके सगे बेटे थे। धृतराष्ट्र ने विदुर की बात नहीं मानी और जिसका परिणाम महाभारत का युद्ध हुआ और कौरवों का समूल नाश हो गया। इसलिए कहते हैं विनाशकाले विपरीत बुद्धि।

वास्तु में दिशाओं और विदिशाओं का महत्व

दिशाओं का ध्यान रखे बिना निर्मित मकान में अगर्थिक नुकसान, पारिवारिक एवं शारीरिक समस्याएँ. कलह आदि बढ़ जाती हैं | अपने घर या कार्यालय में अच्छे परिणाम लेने के लिए हमें इन पंच तत्वों का ध्यान रखकर निर्माण करवाना चाहिए

पूर्व दिशा - यह दिशा अग्नि तत्व को प्रभावित करती है । मकान की कुण्डली में लग्न में पूर्व दिशा को लेते है । या पितृ स्थान है यह दिशा पुरुषों पर प्रभाव डालती है | इस दिशा में गलत निर्माण होने से मकान में रहने वालों के मान-सम्मान की हानि होती हैं । धन-धान्य की वृद्धि नहीं हो पाती है आकस्मिक धन की कमी से ऋण बढ़ जाता है । ऐसा पूर्व दिशा में आने वाली सूर्य की किरणों का घर में प्रवेश रूकने या बाधा पहुँचने अथवा किरणों की दूषित होने से होता है । यहाँ सिंह राशि का प्रभाव होता है |

ईशान दिशा (उतर-पूर्व) - उतर-पूर्व दिशाओं को मध्य होने के कारण इस दिशा को पवित्र व ईश्वर तुल्य माना गया है | यह दिशा साहस, विवेक, धैर्य. ज्ञान और बुद्धि प्रदान करने के साथ-साथ कष्टों को भी दूर रखती है । यह दिशा पुरुष संतान का भी फल देती है । यदि यह दूषित या दोषपूर्ण हो तो तना-तनी का माहौल बना रहेगा। वहॉ कं निवासी रोग एवं मानसिक अशान्ति के शिकार वास्तु के सौं सूत्र था होगे तरह-तरह के कष्ट झेलने होने के लिए विवश होंगे। उत्तरी इंशान की राशि कर्क तथा पूर्वी ईशान श्री राशि मेष होती है। इसी दिशा में वास्तु पुरुष का सिर होने के  कारण इसका महत्व और भी बढ़ जाता है। इस दिशा से वास्तुदोष होने पर उसका निदान उस दोष को मिटाना ही श्रेष्ठ है न की अन्य कोई पद्धति से उसका निराकरण करवाना ।
उत्तर दिशा :-जल तत्व इस दिशा का स्वामी माना गया है। यह दिशा मातृ स्थान है। बुध व केतु के शुभ होने पर घन, लाभ, कर्म व भाग्य तथा व्यापारिक वार्ता हेतु सभाकक्ष होता है। राचि में ध्रुव तारा इसी दिशा में निकलता है। यह दिशा जीवन से सभी प्रकार का सुख देने वाली है। विद्या-अध्ययन चिंतन-मनन अथवा कोई भी ज्ञान सम्बन्धी कार्य उत्तर दिशा की ओर मुँह करने से लाभ देता है। भवन में उत्तर दिशा का स्थान खाली रखना चाहिए अन्यथा घर की स्त्री सुख से वंचित रहेगी। इस दिशा से दरवाजे खिड़कियों होने से कुबेर देवता की सीधी दृष्टि गिरती है।
आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) हैं- इस दिशा का स्वामी अग्नि तत्व माना गया है । इस दिशा से स्वास्थ्य की जाँच की जा सकती है। यह दिशा दोषपूर्ण या दूषित होने पर उस भवन में निवास करने वालों का रवास्थ्य हमेशा खराब रहता है। वहाँ आग लगने का भय भी हमेशा बना रहता है । गुरू व राहु के कास्था पूर्वी आग्नेय प्रभावित होता है। गुरु अच्छा होने पर दक्षिण आग्नेय मॅ द्वार निवास हेतु शुभ है।
दक्षिणा दिशा :- यह दिशा पृथ्वी तत्व एबं मृत्यु के देवता यम की दिशा है। यह दिशा बुराइयों का नाश करने वाली तथा धैर्य एव स्थिरता देने के साथ-साथ सभी अच्छी बातों हेतु शुभ है। इस दिशा को बंद रखने से रोग व शत्रुओं से रक्षा होती है। यह दिशा वृश्चिक राशि या कुण्डली में मंगल ग्रह के लिए उचित है । दक्षिण दिशा को भारी एवं ऊँचा बनाऐँ जिससे इसके शुभ फल प्राप्त हो सकें ।
पश्चिम दिशा -यह दिशा वायु तत्व से प्रभावित है। इस दिशा के भवन में रहने वाले प्राणी का मन सदैव चंचल बना रहता है। इस दिशा में दोषपूर्ण निर्माण होने से मानसिक तनाव बना रहता है। किसी कार्य में सफलता नहीं मिलती। गृह स्वामी को अनावश्यक परिश्रम करना पड़ता है । बच्चों की शिक्षा एवं उन्नति में रूकावट आती है। व्यापारी वर्ग को यह दिशा अच्छा फल देती है, लक्ष्मी की विशेष कृपा बनी रहती है । यह दिशा कुम्भ राशि के जातकों के लिए भी लाभदायक है।
वायव्य दिशा (उत्तर-पश्चिम कोण) - यह वायु का स्थान माना जाता है। यह दिशा शक्ति, स्वास्थ्य एवं दीर्घायु प्रदान यती है। इस दिशा के दूषित होने पर मित्र मी शत्रु बन जाते है। ऐसे दूषित स्थान पर रहने वाले घमण्डी होते हैं एवं इनका विश्वास नहीं किया जा सकता । यहाँ के निवासी अनेक आरोप-प्रत्यारोप के शिकार हो सकते है। पश्चिम वायव्य की स्वामी राशि गुरु वायव्य की वृष राशि तथा चन्द्रमा स्वामी होता है।

नैऋत्य दिशा (दक्षिण-पश्चिम कोण) - भवन के इस कोने में दोष होने पर वहाँ रहने वालों का चरित्र खराब हो जाता है। हमेशा शत्रुओं का भय बना रहता है। मकान के भुत-प्रेत बाधाएं उत्पन्न हो सकती है। अपमृत्यु तथा आकस्मिक दुर्घटनाओं की संभावना रहती है। इसका प्रभाव चंचल या अस्थिर माना गया है। मिथुन राशि, दक्षिण नैत्रदृत्य दो तथा पश्चिमी नैऋत्य की तुला राशि मानी गई है।

ब्रहा स्थान (आंगन) :-भवन के मध्य खाली जगह आँगन,चौक अथवा ब्रहा स्थान कहलाता है। इसके कारण पारिवारिक वातावरण अच्छा रहता है परिवार ने आपसी प्रेम बहता है। इस क्षेत्र दो राशि धनु है । यह आकाश तत्व का स्थान है। कुंडली में बुध के कमजोर होने पर, गुरू के कमजोर होने पर तथा शनि, राहु व केतु के भी कमजोर होने के कारण आँगन ढका हुआ होगा। अंधेरा होगा तथा चौक खुला नहीं होगा ।

 

 
 







 






 
 
 
 
 
 
 


जब चोर बने गोस्वामी तुलसीदास के शिष्य

एक बार गोस्वामी तुलसीदास रात्रि को कहीं से लौट रहे थे कि सामने से कुछ चोर आते दिखाई दिए। चोरों ने तुलसीदास जी से पूछा- ‘‘कौन हो तुम?’’
उत्तर मिला- ‘‘भाई, जो तुम सो मैं।’’ चोरों ने उन्हें भी चोर समझा, बोले- मालूम होता है, नए निकले हो। हमारा साथ दो।
उन्हें खींचकर वे एक ओर ले गए और पूछा- ‘‘शंख क्यों बजाया था?’’ ‘‘आपने ही तो बताया था कि जब कोई दिखाई दे तो खबर कर देना। मैंने अपने चारों तरफ देखा, तो मुझे प्रभु रामचंद्रजी दिखाई दिए। मैंने सोचा कि आप लोगों को उन्होंने चोरी करते देख लिया है और चोरी करना पाप है, इसलिए वे जरूर दंड देंगे, इसलिए आप लोगों को सावधान करना उचित समझा।’’
‘‘मगर रामचंद्रजी तु्म्हें कहां दिखाई दिए?’’ -एक चोर ने पूछ ही लिया। ‘‘भगवान का
वास कहां नहीं है? वे तो सर्वज्ञ हैं, अंतर्यामी हैं और उनका सब तरफ वास है। मुझे तो इस संसार में वे सब तरफ दिखाई देते हैं, तब किस स्थान पर वे दिखाई दिए, कैसे बताऊं?’’ तुलसीदास जी ने जवाब दिया।
चोरों ने सुना, तो वे समझ गए कि यह कोई चोर नहीं, महात्मा है। अकस्मात उनके प्रति श्रद्धाभाव जागृत हो गया और वे उनके पैरों में गिर पड़े। उन्होंने फिर चोरी करना छोड़ दिया और वे उनके शिष्य हो गए।
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future for you astrological news shaubhagya aur jyotish 07 09 2015

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Sunday, 6 September 2015

कहीं आपका बच्चा दब्बू तो नहीं बन रहा है?

आपके बच्चे की शिकायत होती है कि स्कूल में हमेशा उसका लंच कोई बच्चा खा लेता है, कोई उसकी चीजें चुरा लेता है, तो कोई उसके कपड़ो को गंदा कर देता है। स्कूल के शुरुआती दिनों में अकसर बच्चों का संकोच कब उनकी झिझक में बदल जाता है, पता ही नहीं चलता। आप जब बच्चे को स्कूल ले जाते हैं तो वह रोता है, टीचर से बात नहीं करता, लंच पूरा नहीं करता जैसी कई बाते हैं जो शुरू में तो हर बच्चे के व्यवहार में इस तरह के बदलावों को सामान्य माना जाता है लेकिन इन्हें अनदेखा करने से कई बार बच्चों की यही झिझक उन्हें दब्बू बना देती है। कभी-कभी बच्चे में अनावश्यक व बिना किसी कारण के ही भय, संकोच और दब्बूपन पाया जाता है। वे अपनी सही बात तक माता-पिता, मित्र, शिक्षक या घर के अन्य लोगों के सामने नहीं रख पाते हैं।
लोगों के सामने नहीं रख पाते हैं।
कभी-कभी बच्चे भीरु एवं भयभीत माता-पिता के कारण भी हो जाया करते है। उन्हें वे भूत-प्रेत की डरावनी कहानियाँ सुनाकर या डर बता कर भयग्रस्त कर दिया करते हैं। बच्चे को बार-बार निरुत्साहित करने से भी वे भीरु प्रवृत्ति के बन जाते हैं। इसके निवारण के लिए अभिभावक आत्मविश्वास से भरपूर, साहसिक और वीर कहानियाँ बच्चों को सुनाया करें। बच्चों को छोटे-छोटे काम सुपुर्द करके उनमें आत्मविश्वास की भावना जाग्रत करना चाहिए। ऐसा करते रहने से वे साहसी आत्मविश्वासी एवं कर्मठ बनने लगेंगे साथ ही ज्योतिषीय निदान भी लेनी चाहिए।
अगर इसे ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी जातक की कुंडली में अगर उसका तीसरे
स्थान का स्वामी छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर बैठ जाए अथवा इस स्थान पर बैठकर राहु से आक्रांत हो जाए तो स्वभाव में दब्बूपन आ सकता है। यदि आपके बच्चे की इस प्रकार की शिकायत हो अथवा वह स्कूल जाने से डरे या बाहर के लोगों से हमेशा एक दूरी बनाकर रहे है तो उसकी कुंडली का विश्लेषण कराकर आवश्यक ज्योतिषीय निदान जरूर लेना चाहिए, जिससे दब्बूपन के कारण जीवन में अहित होने से रोका जा सके। दब्बूपन को रोकने के लिए हनुमान चालीसा का नियमित पाठ कराना, हनुमान मंदिर में दर्शन कराना तथा तीसरे स्थान के स्वामी से संबंधित ग्रह दान करने से दब्बूपन को रोका जा सकता है।
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हस्तरेखा में हस्त मुद्रा से रोग का उपचार

अंगुष्ट मुद्रा- बाएं हाथ का अंगूठा सीधा खड़ा कर दाहिने हाथ से बाएं हाथ कि अंगुलियों में परस्पर फँसाते हुए दोनों पंजों को ऐसे जोडें कि दाहिना अंगूठा बाएं अंगूठे को बहार से कवर कर ले,इस प्रकार जो मुद्रा बनेगी उसे अंगुष्ठ मुद्रा कहेंगे।
लाभ- मौसम के परिवर्तन के कारण संक्रमण से कई बार वाइरल इंफेक्शन के कारण हमारे गले व फेफड़ों में जमने वाली एक श्लेष्मा होती है जो खांसी या खांसने के साथ बाहर आता है। यह फायदेमंद और नुकसानदायक दोनों है। इसे ही कफ कहा जाता है। अगर आप भी खांसी या जुकाम से परेशान है तो बिना दवाई लिए भी रोज सिर्फ दस मिनट इस मुद्रा के अभ्यास से कफ छुटकारा पा सकते हैं।
ज्ञान मुद्रा या ध्यान मुद्रा : अंगुष्ठ एवं तर्जनी अंगुली के अग्रभागों के परस्पर मिलाकर शेष तीनों अँगुलियों को सीधा रखना होता है।
लाभ : धारणा एवं धयानात्मक स्थिति का विकास होता है, एकाग्रता बढ़ती है एवं नकारात्मक विचार कम् होते है। इस मुद्रा से स्मरण शक्ति बढ़ती है इसलिए इसके निरंतर अभ्यास से बच्चे मेघावी व ओजस्वी बनते है। मष्तिष्क के स्नायु मजबूत होते है एवं सिरदर्द,अनिद्रा व् तनाव दूर होता है तथा क्रोध
का नाश होता है।
नमस्कार मुद्रा: दोनों हाथों की हथेलियों से कोहनी तक मिलाने से बनने वाली नमस्कार मुद्रा का नियमित अभ्यास भी मधुमेह के रोगी को करना चाहिये। नमस्कार मुद्रा से डायाफ्राम के ऊपर का भाग संतुलित होता है। नमस्कार मुद्रा से पांचों महाभूत तत्त्वों का शरीर में संतुलन होने लगता है तथा हृदय, फेंफड़े और पेरिकार्डियन मेरेडियन में प्राण ऊर्जा का प्रवाह संतुलित होने से, इन अंगों से संबंधित रोग दूर होने लगते हैं। गोदुहासन के साथ नमस्कार मुद्रा का अभ्यास करने से पूरा शरीर संतुलित हो जाता है।
प्राण मुद्रा: हथेली की सबसे छोटी एवं अनामिका अंगुलि के ऊपरी भाग को अंगुष्ठ के ऊपरी पोरबे को मिलाने से प्राण मुद्रा बनती है। प्राण मुद्रा से शरीर की प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। रक्त संचार सुधरता है तथा शरीर सशक्त बनता है। भूख प्यास सहन होने लगती है।
वायु मुद्रा: तर्जनी अंगुली को अंगुष्टो के मूल में लगाकर अंगूठे को हल्का दबाकर रखने से यह वायु मुद्रा बनती है (तर्जनी अंगुली को अंगुष्टो से दबाकर भी ये मुद्रा बनती है)शेष तीनो अंगुलियों को सीधा रखनी चाहिए।
लाभ: इसके अभ्यास से समस्त प्रकार के वायु सम्बन्धी रोग- गठिया, संधिवात, आर्थराइटिस, पक्षाघात, कंपवात, साइटका, घुटने के दर्द तथा गैस बनना आदि रोग दूर होते है ,गर्दन एवं रीड़ के दर्द में लाभ मिलता है।
शुन्य मुद्रा: विधि: मध्यमा अंगुली आकाश तत्व का प्रतिनिधित्व करती है, इसको अंगुष्ठ के मूल में लगाकर अंगूठे से हल्का दबाकर रखते है। शेष अंगुलियाँ सीधी होनी चाहिए।
लाभ: इस मुद्रा से कान का बहना ,कान में दर्द और कान दर्द के सभी रोगो के लिए कम से कम प्रति दिन एक घंटा करने से लाभ मिलता है। हदय रोग ठीक होते है और मसूढ़ो की पकड़ मजबूत होती है। गले के रोग और थाइराइड रोग में लाभ मिलता है।
सावधानी: भोजन करते समय तथा चलते फिरते यह मुद्रा न करें।
लिंग मुद्रा: मुट्ठी बांधे तथा बाएं हाथ के अंगूठे
को खड़ा रखें, अन्य अंगुलियां परस्पर बंधी हुए हों।
लाभ : यह मुद्रा शरीर में गर्मी बढाती है। सर्दी-झुकाम ,खांसी,साइनस, लकवा तथा ये कफ को सुखाती है।
सावधानी: इसका प्रयोग करने पर जल,फल ,फलों का रस, घी और दूध का सेवन अधिक मात्र में करें। इसे अधिक लम्बे समय तक न करें।
वरुन मुद्रा: कनिष्ठा अंगुली को अंगूठे से लगाकर रखें।
लाभ: इस मुद्रा से शरीर का रूखापन नष्ट होता है तथा चमड़ी चमकीली तथा मुलायम बनती है। चर्म रोग,रक्त विकार,मुहांसे एवं जलतत्व की कमी से उतपन्न व्याधि को दूर करती है। चहेरा सुन्दर बनता है।
अपान वायु मुद्रा: अपानमुद्रा तथा वायु मुद्रा को एक साथ मिलाकर करने से यह मुद्रा बनती है। कनिष्ठा अंगुली सीधी होती है।
लाभ: हदय एवं वात रोगो को दूर करके शरीर में आरोग्य को बढाती है। जिनको को दिल की बीमारी है, उन्हें इसे प्रतिदिन करना चाहिए। गैस की बीमारी को दूर करता है। सिरदर्द,दम एवं उच्च रक्तचाप में लाभ मिलता है।
सूर्यमुद्रा: अनामिका अंगुली को अंगूठे के मूल पर लगाकर अंगूठे से दबायें।
लाभ: इस मुद्रा से शरीर संतुलित होता है।, वजन घटता है एवं मोटापा काम होता है पाचन में मदद मिलती है। तनाव में कमी, शक्ति का विकास , रक्त में कोलेस्ट्रोल कम होता है। इस मुद्रा के अभ्यास से मधुमेह, यकृत के दोष दूर होते है।
सावधानी: इस मुद्रा को दुर्बल व्यक्ति न करें। गर्मी में
ज्यादा समय तक न करें।
अपान मुद्रा: अंगुष्ठ, मध्यमा एवं अनामिका के अग्रभागों को स्पर्श करके शेष दो अँगुलियों को सीधा रखने से यह मुद्रा बनती है।
लाभ: शरीर के विजातीय तत्व बाहर निकलते है तथा शरीर निर्मल बनता है। इसके अभ्यास से बवासीर, वायुविकार, कब्ज, मधुमेह, मूत्रावरोध, गुर्दो के दोष के विकार दूर होते है। हदय रोग एवं पेट के लिए लाभदाए है।
सावधानी: इस मुद्रा से मूत्र अधिक स्त्रवित होगा।
प्राण मुद्रा: यह मुद्रा कनिष्ठा, अनमिका तथा अंगुष्ठ के अग्रभागों परस्पर मिलाने से बनती है। शेष दो अंगुलियाँ सीधी रखनी चाहिए।
लाभ: इस मुद्रा से प्राण की सुप्त शक्ति का जागरण होता है, आरोग्य,स्फूर्ति एवं ऊर्जा का विकास होता है। यह मुद्रा आँखों के दोषो को दूर करता है एवं नेत्र की ज्योति बढाती है और रोग प्रतिरोधक शक्ति बढ़ाती है। विटामिनो की कमी दूर करती है तथा थकान दूर करके नवशक्ति का संचार करती है। अनिंद्रा में इसे गयान मुद्रा के साथ करने से लाभ होता है।
पृथ्वी मुद्रा: अनामिका और अंगुष्ठ के अग्रभागो को मिलाकर रखने तथा शेष तीन अँगुलियों को सीधा करने से यह मुद्रा बनती है।
लाभ : निरन्तर अभ्यास से शारीरिक दुर्बलता,भार की अल्पता तथा मोटापा रोग दूर होते है। यह मुद्रा पाचन शक्ति को ठीक करती है और विटामिन की कमी दूर करती है। शरीर में स्फूर्ति एवं तेजस्विता आती है।
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Saturday, 5 September 2015

मृगशिरा नक्षत्र

वैदिक ज्योतिष में मूल रूप से 27 नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। नक्षत्रों के गणना क्रम में मृगशिरा नक्षत्र का स्थान पांचवां है । मृगशिरा नक्षत्र वृष राशि में 23 अंश 20 कला से 30 अंश तक रहता है अर्थात मृगशिरा नक्षत्र के दो चरण वृष राशि में आते हैं। इस नक्षत्र के बाकि दो चरण, 0 अंश से 6अंश 40 कला तक मिथुन राशि में पड़ते हैं। इस नक्षत्र का स्वामी मंगल होने से यह नक्षत्र शक्ति, साहस व सूझबूझ का प्रतिनिधि है। यह क्रान्ति वृत्त से 13 अंश 22 कला 12 विकला दक्षिण में और विषुवत रेखा के ऊपर या उत्तर में होने से क्रान्तिवृत्त व विषुवत रेखा के बीच में पड़ता है।
यह नक्षत्र मृग मंडल के ऊपरी भाग में स्थित है। इसमें तीन मंद क्रान्ति के तारे हैं जो एक छोटा त्रिभुज बनाते हैं। यह त्रिभुज किसी मृग का सिर जान पड़ता है। इसलिये इसे मृगशिरा नाम दिया गया है। निरायन सूर्य 7 जून को मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश करता है। मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा मृगशिरा नक्षत्र में होता है।
मृगशिरा नाम से हिरण का बोध होता है। हिरण एक सौम्य प्रकृित व परोपकारी जीव है। मृगशिरा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से अग्रहायण मास आज भी कुछ स्थानों में वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। कुछ विद्वान मृगशिरा नक्षत्र का प्रतीक सोमपात्र या अमृत कुंभ को मानते हैं। अमृत देव गण का दैवीय पेय है जो उन्हे स्वस्थ, सबल व अमर बनाता है। मृगशिरा या हिरण का सिर, हिरण के स्वभाव को दर्शाता है। हिरण चंचल, कोमल, भीरू व भ्रमण प्रिय है।
मृगशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्रमा है। चन्द्रमा औषधि व आरोग्य से जुड़ा है। मृगशिरा का परिचय यदि एक शब्द में देना हो तो हम इसे ‘‘अन्वेषण’’ या ‘‘खोज’’ कहेंगे। सभी विद्वानों ने इसे जिज्ञासा प्रधान नक्षत्र माना है। अपने ज्ञान व अनुभव का विस्तार करना, इसके जीवन का एकाकी लक्ष्य होता है। बुध की राशि मिथुन, मृगशिरा नक्षत्र में आरंभ होती है अत: इसे विवेक, निष्कर्म व परिपच् धारणा का नक्षत्र भी माना जाता है। ऐसा जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
कुछ विद्वानों ने इस नक्षत्र को बुनकर द्वारा बुने जाने वाले वस्त्र से दर्शाया है। कुछ इसी प्रकार मृगशिरा नक्षत्र भी जीव के गुणों को विकसित कर, उसे परमात्मा की ओर ले जाता है। मृगशिरा नक्षत्र एक निश्चेष्ट नक्षत्र सरीखा है। एसा जातक दूसरों की उपस्थिति, प्रभाव को सहज व निर्विरोध रुप से स्वीकारता है। ऐसे जातक को प्रसिद्धि व यश की कामना नहीं होती। अपने से अधिक औरों की चिन्ता होती है।
मृगशिरा नक्षत्र की जाति विद्वानों ने कृषक, बुनकर या हस्तशिल्पी माना है। अन्य शब्दों में भूमि सुधार, भवन निर्माण या जन-सुविधा के कार्यों से जुड़े कर्मचारियों या उद्योगों में श्रमिक शक्ति, का संबंध मृगशिरा से माना जाता है। मृगशिरा नक्षत्र को स्त्री या पुरुष ना मान कर उभयलिंगी माना गया है। इस नक्षत्र में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण मिलते हैं। क्योंकि इस नक्षत्र के स्वामी चन्द्र और मंगल दोनों हैं।
विद्वानों ने नेत्र व नेत्रों के ऊपर भौंहों को मृगशिरा नक्षत्र का हिस्सा माना है। इस नक्षत्र का संबंध पित्त दोष से है। मंगल अग्नि तत्व ग्रह होने से पित्त कारक है तथा इस नक्षत्र को मंगल की ऊर्जा का स्त्रोत माना गया है।यहाँ मंगल की शक्ति, विनाश, हिंसा या ध्वंसात्मक नहीं है। अपितु रचनात्मक है। मृगशिरा नक्षत्र की दिशा दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम के मध्य का भाग मृगशिरा नक्षत्र की दिशा मानी गई है।
मृगशिरा नक्षत्र के व्यवसाय सभी प्रकार के गायक व संगीतज्ञ, चित्रकार, कवि, भाषाविद, रोमांटिक उपन्यासकार, लेखक, विचारक या मनीषी। भूमि भवन, पथ या सेतु निर्माण से जुड़े यंत्र, वस्त्र उद्योग से जुड़े कार्य, फैशन डिजायनिंग, पशुपालन या पशुओं से जुडी़ सामग्री का उत्पादन व वितरण। प्रशिक्षण कार्य,शिल्पी क्लर्क, प्रवचन कर्ता, संवादाता आदि जैसे विवध कार्य इस नक्षत्र में आते हैं।
मृगशिरा नक्षत्र का स्थान वनक्षेत्र, खुले मैदान, चरागाह, हिरण उद्यान, गाँव व उपनगर, शयनकक्ष, नर्सरी व प्ले स्कूल, विश्राम गृह, मनोरंजन कक्ष या स्थल, फुटपाथ, गलियाँ, कला व संगीत स्टूडियो, छोटी दुकानें, बाजार या पटरी बाजार, ज्योतिष व आध्यात्मिक संस्थाएं और मृगशिरा नक्षत्र संबंधी व्यवसायों से जुड़े सभी स्थान।
मृगशिरा नक्षत्र तमोगुणी या तामसिक नक्षत्र है। वृष राशि और मंगल नक्षत्र दोनों तमोगुणी
हैं इसी वजह से इस नक्षत्र को तमोगुणी कहा गया है। इस नक्षत्र का गण देव गण है। इस नक्षत्र का संबंध मनुष्यों से कम व देवताओं से अधिक है। मृगशिरा को सतही या समतल नक्षत्र भी कहा जाता है। मार्गशीर्ष मास का प्रथम पक्ष तथा सभी मासों की शुक्ल और कृष्ण पंचमी को मृगशिरा का मास व तिथि होती है। मृगशिरा मास का अन्य नाम अग्रहायणी नक्षत्र भी है।
मृगशिरा नक्षत्र पर मंगल, शुक्र तथा बुध का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। कुछ विद्वान मंगल को मृगशिरा नक्षत्र का स्वामी या अधिपति ग्रह मानते हैं। मृगशिरा नक्षत्र के प्रथम दो चरण वृष राशि में तो अंतिम चरण मिथुन राशि में होने से शुक्र व बुध की ऊर्जा को मिलाने वाला सेतु भी कहा जाता है। विद्वानों का मत है कि मंगल+बुध या मंगल+शुक्र अथवा बुध+शुक्र या मंगल+बुध+शुक्र का परस्पर दृिष्ट युति या राशि परिवर्तन या राशि संबंध भी मृगशिरा नक्षत्र की ऊर्जा प्रदान करता है।
मृगशिरा नक्षत्र का प्रथम चरण का अक्षर ‘वे’ है। दूसरे चरण का अक्षर ‘वो’ है। तीसरे चरण का अक्षर ‘का’ है। चतुर्थ चरण का अक्षर ‘की’ है। मृगशिरा नक्षत्र की योनि सर्प योनि है। इस नक्षत्र को महर्षि पुलस्त्य का वंशज माना जाता है।
मृगशिरा नक्षत्र का व्यक्तित्व आकर्षक होता है लोग इनसे मित्रता करना पसंद करते हैं। ये मानसिक तौर पर बुद्धिमान होते और शारीरिक तौर पर तंदरूस्त होते हैं। इनके स्वभाव में मौजूद उतावलेपन के कारण कई बार इनका बनता हुआ काम बिगड़ जाता है या फिर आशा के अनुरूप इन्हें परिणाम नहीं मिल पाता है। ये संगीत के शौकीन होते हैं, संगीत के प्रति इनके मन में काफी लगाव रहता है। ये स्वयं भी सक्रिय रूप से संगीत में भाग लेते हैं परंतु इसे व्यवसायिक तौर पर नहीं अपनाते हैं। इन्हें यात्रओं का भी शौक होता है, इनकी यात्राओं का मूल उद्देश्य मनोरंजन होता है। कारोबार एवं व्यवसाय की दृष्टि से यात्रा करना इन्हें विशेष पसंद नहीं होता है।व्यक्तिगत जीवन में ये अच्छे मित्र साबित होते हैं, दोस्तों की हर संभव सहायता करने हेतु तैयार रहते हैं। ये स्वाभिमानी होते हैं और किसी भी स्थिति में अपने स्वाभिमान पर आंच नहीं आने देना चाहते। इनका वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखमय होता है क्योंकि ये प्रेम में विश्वास रखने वाले होते हैं। ये धन सम्पत्ति का संग्रह करने के शौकीन होते हैं। इनके अंदर आत्म गौरव भरा रहता है। ये सांसारिक सुखों का उपभोग करने वाले होते हैं। मृगशिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति बहादुर होते हैं ये जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव को लेकर सदैव तैयार रहते हैं, इस नक्षत्र के जातक मशीन के कार्यों में निपुण, हथियार व उपकरण बनाने वाले, बिजली कार्यों में निपुण, ऑपरेशन में काम आने वाले सामान बनाने वाले, संचार कार्य, इंजीनियर, गणितज्ञ, ऑडिट करने वाले चतुर व्यक्ति, विदेशों में नियुक्त दूत, रेडियो-फोन विक्रेता,सेल्स में काम करने वाले, संगीत सम्बन्धी कार्य, इत्र-सेंट आदि चीजों के कारोबारी, प्रकृति प्रेमी जंगलों में काम करने वाले, रत्न कारोबारी, पक्षियों को पालने वाले, प्रकाशन व मुद्रण में कार्य करने वाले घर बनाने वाले आदि।
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Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
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मृगशिरा नक्षत्र

वैदिक ज्योतिष में मूल रूप से 27 नक्षत्रों का जिक्र किया गया है। नक्षत्रों के गणना क्रम में मृगशिरा नक्षत्र का स्थान पांचवां है । मृगशिरा नक्षत्र वृष राशि में 23 अंश 20 कला से 30 अंश तक रहता है अर्थात मृगशिरा नक्षत्र के दो चरण वृष राशि में आते हैं। इस नक्षत्र के बाकि दो चरण, 0 अंश से 6अंश 40 कला तक मिथुन राशि में पड़ते हैं। इस नक्षत्र का स्वामी मंगल होने से यह नक्षत्र शक्ति, साहस व सूझबूझ का प्रतिनिधि है। यह क्रान्ति वृत्त से 13 अंश 22 कला 12 विकला दक्षिण में और विषुवत रेखा के ऊपर या उत्तर में होने से क्रान्तिवृत्त व विषुवत रेखा के बीच में पड़ता है।
यह नक्षत्र मृग मंडल के ऊपरी भाग में स्थित है। इसमें तीन मंद क्रान्ति के तारे हैं जो एक छोटा त्रिभुज बनाते हैं। यह त्रिभुज किसी मृग का सिर जान पड़ता है। इसलिये इसे मृगशिरा नाम दिया गया है। निरायन सूर्य 7 जून को मृगशिरा नक्षत्र में प्रवेश करता है। मार्गशीर्ष मास की पूर्णिमा को चन्द्रमा मृगशिरा नक्षत्र में होता है।
मृगशिरा नाम से हिरण का बोध होता है। हिरण एक सौम्य प्रकृित व परोपकारी जीव है। मृगशिरा नक्षत्र में पूर्णिमा होने से अग्रहायण मास आज भी कुछ स्थानों में वर्ष का प्रथम मास माना जाता है। कुछ विद्वान मृगशिरा नक्षत्र का प्रतीक सोमपात्र या अमृत कुंभ को मानते हैं। अमृत देव गण का दैवीय पेय है जो उन्हे स्वस्थ, सबल व अमर बनाता है। मृगशिरा या हिरण का सिर, हिरण के स्वभाव को दर्शाता है। हिरण चंचल, कोमल, भीरू व भ्रमण प्रिय है।
मृगशिरा नक्षत्र के देवता चन्द्रमा है। चन्द्रमा औषधि व आरोग्य से जुड़ा है। मृगशिरा का परिचय यदि एक शब्द में देना हो तो हम इसे ‘‘अन्वेषण’’ या ‘‘खोज’’ कहेंगे। सभी विद्वानों ने इसे जिज्ञासा प्रधान नक्षत्र माना है। अपने ज्ञान व अनुभव का विस्तार करना, इसके जीवन का एकाकी लक्ष्य होता है। बुध की राशि मिथुन, मृगशिरा नक्षत्र में आरंभ होती है अत: इसे विवेक, निष्कर्म व परिपच् धारणा का नक्षत्र भी माना जाता है। ऐसा जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
जातक अध्यात्म मार्ग का पथिक बन कर जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने का इच्छुक होता है।
कुछ विद्वानों ने इस नक्षत्र को बुनकर द्वारा बुने जाने वाले वस्त्र से दर्शाया है। कुछ इसी प्रकार मृगशिरा नक्षत्र भी जीव के गुणों को विकसित कर, उसे परमात्मा की ओर ले जाता है। मृगशिरा नक्षत्र एक निश्चेष्ट नक्षत्र सरीखा है। एसा जातक दूसरों की उपस्थिति, प्रभाव को सहज व निर्विरोध रुप से स्वीकारता है। ऐसे जातक को प्रसिद्धि व यश की कामना नहीं होती। अपने से अधिक औरों की चिन्ता होती है।
मृगशिरा नक्षत्र की जाति विद्वानों ने कृषक, बुनकर या हस्तशिल्पी माना है। अन्य शब्दों में भूमि सुधार, भवन निर्माण या जन-सुविधा के कार्यों से जुड़े कर्मचारियों या उद्योगों में श्रमिक शक्ति, का संबंध मृगशिरा से माना जाता है। मृगशिरा नक्षत्र को स्त्री या पुरुष ना मान कर उभयलिंगी माना गया है। इस नक्षत्र में स्त्री व पुरुष दोनों के गुण मिलते हैं। क्योंकि इस नक्षत्र के स्वामी चन्द्र और मंगल दोनों हैं।
विद्वानों ने नेत्र व नेत्रों के ऊपर भौंहों को मृगशिरा नक्षत्र का हिस्सा माना है। इस नक्षत्र का संबंध पित्त दोष से है। मंगल अग्नि तत्व ग्रह होने से पित्त कारक है तथा इस नक्षत्र को मंगल की ऊर्जा का स्त्रोत माना गया है।यहाँ मंगल की शक्ति, विनाश, हिंसा या ध्वंसात्मक नहीं है। अपितु रचनात्मक है। मृगशिरा नक्षत्र की दिशा दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तर-पश्चिम के मध्य का भाग मृगशिरा नक्षत्र की दिशा मानी गई है।
मृगशिरा नक्षत्र के व्यवसाय सभी प्रकार के गायक व संगीतज्ञ, चित्रकार, कवि, भाषाविद, रोमांटिक उपन्यासकार, लेखक, विचारक या मनीषी। भूमि भवन, पथ या सेतु निर्माण से जुड़े यंत्र, वस्त्र उद्योग से जुड़े कार्य, फैशन डिजायनिंग, पशुपालन या पशुओं से जुडी़ सामग्री का उत्पादन व वितरण। प्रशिक्षण कार्य,शिल्पी क्लर्क, प्रवचन कर्ता, संवादाता आदि जैसे विवध कार्य इस नक्षत्र में आते हैं।
मृगशिरा नक्षत्र का स्थान वनक्षेत्र, खुले मैदान, चरागाह, हिरण उद्यान, गाँव व उपनगर, शयनकक्ष, नर्सरी व प्ले स्कूल, विश्राम गृह, मनोरंजन कक्ष या स्थल, फुटपाथ, गलियाँ, कला व संगीत स्टूडियो, छोटी दुकानें, बाजार या पटरी बाजार, ज्योतिष व आध्यात्मिक संस्थाएं और मृगशिरा नक्षत्र संबंधी व्यवसायों से जुड़े सभी स्थान।
मृगशिरा नक्षत्र तमोगुणी या तामसिक नक्षत्र है। वृष राशि और मंगल नक्षत्र दोनों तमोगुणी
हैं इसी वजह से इस नक्षत्र को तमोगुणी कहा गया है। इस नक्षत्र का गण देव गण है। इस नक्षत्र का संबंध मनुष्यों से कम व देवताओं से अधिक है। मृगशिरा को सतही या समतल नक्षत्र भी कहा जाता है। मार्गशीर्ष मास का प्रथम पक्ष तथा सभी मासों की शुक्ल और कृष्ण पंचमी को मृगशिरा का मास व तिथि होती है। मृगशिरा मास का अन्य नाम अग्रहायणी नक्षत्र भी है।
मृगशिरा नक्षत्र पर मंगल, शुक्र तथा बुध का प्रभाव स्पष्ट दिखता है। कुछ विद्वान मंगल को मृगशिरा नक्षत्र का स्वामी या अधिपति ग्रह मानते हैं। मृगशिरा नक्षत्र के प्रथम दो चरण वृष राशि में तो अंतिम चरण मिथुन राशि में होने से शुक्र व बुध की ऊर्जा को मिलाने वाला सेतु भी कहा जाता है। विद्वानों का मत है कि मंगल+बुध या मंगल+शुक्र अथवा बुध+शुक्र या मंगल+बुध+शुक्र का परस्पर दृिष्ट युति या राशि परिवर्तन या राशि संबंध भी मृगशिरा नक्षत्र की ऊर्जा प्रदान करता है।
मृगशिरा नक्षत्र का प्रथम चरण का अक्षर ‘वे’ है। दूसरे चरण का अक्षर ‘वो’ है। तीसरे चरण का अक्षर ‘का’ है। चतुर्थ चरण का अक्षर ‘की’ है। मृगशिरा नक्षत्र की योनि सर्प योनि है। इस नक्षत्र को महर्षि पुलस्त्य का वंशज माना जाता है।
मृगशिरा नक्षत्र का व्यक्तित्व आकर्षक होता है लोग इनसे मित्रता करना पसंद करते हैं। ये मानसिक तौर पर बुद्धिमान होते और शारीरिक तौर पर तंदरूस्त होते हैं। इनके स्वभाव में मौजूद उतावलेपन के कारण कई बार इनका बनता हुआ काम बिगड़ जाता है या फिर आशा के अनुरूप इन्हें परिणाम नहीं मिल पाता है। ये संगीत के शौकीन होते हैं, संगीत के प्रति इनके मन में काफी लगाव रहता है। ये स्वयं भी सक्रिय रूप से संगीत में भाग लेते हैं परंतु इसे व्यवसायिक तौर पर नहीं अपनाते हैं। इन्हें यात्रओं का भी शौक होता है, इनकी यात्राओं का मूल उद्देश्य मनोरंजन होता है। कारोबार एवं व्यवसाय की दृष्टि से यात्रा करना इन्हें विशेष पसंद नहीं होता है।व्यक्तिगत जीवन में ये अच्छे मित्र साबित होते हैं, दोस्तों की हर संभव सहायता करने हेतु तैयार रहते हैं। ये स्वाभिमानी होते हैं और किसी भी स्थिति में अपने स्वाभिमान पर आंच नहीं आने देना चाहते। इनका वैवाहिक जीवन बहुत ही सुखमय होता है क्योंकि ये प्रेम में विश्वास रखने वाले होते हैं। ये धन सम्पत्ति का संग्रह करने के शौकीन होते हैं। इनके अंदर आत्म गौरव भरा रहता है। ये सांसारिक सुखों का उपभोग करने वाले होते हैं। मृगशिरा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति बहादुर होते हैं ये जीवन में आने वाले उतार चढ़ाव को लेकर सदैव तैयार रहते हैं, इस नक्षत्र के जातक मशीन के कार्यों में निपुण, हथियार व उपकरण बनाने वाले, बिजली कार्यों में निपुण, ऑपरेशन में काम आने वाले सामान बनाने वाले, संचार कार्य, इंजीनियर, गणितज्ञ, ऑडिट करने वाले चतुर व्यक्ति, विदेशों में नियुक्त दूत, रेडियो-फोन विक्रेता,सेल्स में काम करने वाले, संगीत सम्बन्धी कार्य, इत्र-सेंट आदि चीजों के कारोबारी, प्रकृति प्रेमी जंगलों में काम करने वाले, रत्न कारोबारी, पक्षियों को पालने वाले, प्रकाशन व मुद्रण में कार्य करने वाले घर बनाने वाले आदि।
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राहु

मानसिक तनाव, आर्थिक नुक्सान, स्वयं को ले कर गलतफहमी,आपसी तालमेल में कमी, बात बात पर आपा खोना, वाणी का कठोर होना व अप्शब्द बोलना, व कुंडली में राहु के अशुभ होने पर हाथ के नाखून अपने आप टूटने लगते हैं। राजक्ष्यमा रोग के लक्षण प्रगट होते हैं। वाहन दुर्घटना, उदर कष्ट, मस्तिष्क में पीड़ा अथवा दर्द रहना, भोजन में बाल दिखना, अपयश की प्राप्ति, सम्बन्ध खऱाब होना, दिमागी संतुलन ठीक नहीं रहता है, शत्रुओं से मुश्किलें बढऩे की संभावना रहती है। जल स्थान में कोई न कोई समस्या आना आदि।
उपाय: गोमेद धारण करें। दुर्गा, शिव व हनुमान की आराधना करें। तिल, जौ किसी हनुमान मंदिर में या किसी यज्ञ स्थान पर दान करें। जौ या अनाज को दूध में धोकर बहते पानी में बहाएँ, कोयले को पानी में बहाएँ, मूली दान में देवें, भंगी को शराब, माँस दान में दें। सिर में चोटी बाँधकर रखें। सोते समय सर के पास किसी पात्र में जल भर कर रक्खेंं और सुबह
किसी पेड़ में डाल दें, यह प्रयोग 43 दिन करें। इसके साथ हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, हनुमान बाहुक, सुंदरकांड का पाठ और राहवे नम: का 108बार नित्य जाप करना लाभकारी होता है।
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शुक्र गृह:

शुक्र भी दो राशिओं का स्वामी है, वृषभ और तुला। शुक्र तरुण है, किशोरावस्था का सूचक है, मौज मस्ती, घूमना फिरना, दोस्त मित्र इसके प्रमुख लक्षण है। कुंडली में शुक्र के अशुभ प्रभाव में होने पर मन में चंचलता रहती है, एकाग्रता नहीं हो पाती। खान पान में अरुचि, भोग विलास में रूचि और धन का नाश होता है। अँगूठे का रोग हो जाता है। अँगूठे में दर्द बना रहता है। चलते समय अगूँठे को चोट पहुँच सकती है। चर्म रोग हो जाता है। स्वप्न दोष की शकिायत रहती है।
उपाय: माँ लक्ष्मी की सेवा आराधना करें। श्री सूक्त का पाठ करें। खोये के मिस्ठान व मिश्री का भोग लगायें। ब्रह्मण ब्रह्मणि की सेवा करें। स्वयं के भोजन में से गाय को प्रतिदिन कुछ हिस्सा अवश्य दें। कन्या भोजन कराये। ज्वार दान करेंं। गरीब बच्चों व विद्यार्थिओं में अध्यन सामग्री का वितरण करें। नि:सहाय, निराश्रय के पालन-पोषण का जिम्मा ले सकते हैं। अन्न का दान करें। ú सुं शुक्राय नम: का 108बार नित्य जाप करना भी लाभकारी सिद्ध होता है।
शनि गृह: शनि की गति धीमी है। इसके दूषित होने पर अच्छे से अच्छे काम में गतिहीनता आ जाती है। कुंडली में शनि के अशुभ प्रभाव में होने पर मकान या मकान का हिस्सा गिर जाता या क्षतिग्रस्त हो जाता है। अंगों के बाल झड़ जाते हैं। शनिदेव की भी दो राशियां है, मकर और कुम्भ। शरीर में विशेषकर निचले हिस्से में (कमर से नीचे) हड्डी या स्नायुतंत्र से सम्बंधित रोग लग जाते है। वाहन से हानि या क्षति होती है। काले धन या संपत्ति का नाश हो जाता है। अचानक आग लग सकती है या दुर्घटना हो सकती है।
उपाय: हनुमान आराधना करना, हनुमान जी को चोला अर्पित करना, हनुमान मंदिर में ध्वजा दान करना, बंदरो को चने खिलाना, हनुमान चालीसा, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक, सुंदरकांड का पाठ और ú हन हनुमते नम: का 108बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है। नाव की कील या काले घोड़े की नाल धारण करें। यदि कुंडली में शनि लग्न में हो तो भिखारी को ताँबे का सिक्का या बर्तन कभी न दें, यदि देंगे तो पुत्र को कष्ट होगा। यदि शनि आयु भाव में स्थित हो तो धर्मशाला आदि न बनवाएँ। कौवे को प्रतिदिन रोटी खिलाएँ। तेल में अपना मुख देख वह तेल दान कर दें (छाया दान करें)। लोहा, काली उड़द, कोयला, तिल, जौ, काले वस्त्र, चमड़ा, काला सरसों आदि दान दें।
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बुध गृह:

बुध व्यापार व स्वास्थ्य का करक माना गया है। यह मिथुन और कन्या राशि का स्वामी है। बुध वाक् कला का भी द्योतक है। विद्या और बुद्धि का सूचक है। कुंडली में बुध की अशुभता पर दाँत कमजोर हो जाते हैं। सूँघने की शक्ति कम हो जाती है। गुप्त रोग हो सकता है। व्यक्ति वाक् क्षमता भी जाती रहती है। नौकरी और व्यवसाय में धोखा और नुक्सान हो सकता है।
उपाय: भगवान गणेश व माँ दुर्गा की आराधना करें। गौ सेवा करें। काले कुत्ते को इमरती देना लाभकारी होता है। नाक छिदवाएँ। ताबें के प्लेट में छेद करके बहते पानी में बहाएँ। अपने भोजन में से एक हिस्सा गाय को, एक हिस्सा कुत्तों को और एक हिस्सा कौवे को दें, या अपने हाथ से गाय को हरा चारा, हरा साग खिलायें। उड़द की दाल का सेवन करें व दान करें। बालिकाओं को भोजन कराएँ। किन्नेरों को हरी साड़ी, सुहाग सामग्री दान देना भी बहुत चमत्कारी है। बुं बुद्धाय नम: का 108बार नित्य जाप करना श्रेयस्कर होता है आथवा गणेशअथर्वशीर्ष का पाठ करें। पन्ना धारण करें या हरे वस्त्र धारण करें यदि संभव न हो तो हरा रुमाल साथ रक्खें।
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ग्रह दोष से उत्पन्न रोग और उसके निवारण:

सूर्य गृह: सूर्य पिता, आत्मा समाज में मान, सम्मान, यश, कीर्ति, प्रसिद्धि, प्रतिष्ठा का करक होता है। इसकी राशि है सिंह। कुंडली में सूर्य के अशुभ होने पर पेट, आँख, हृदय का रोग हो सकता है साथ ही सरकारी कार्य में बाधा उत्पन्न होती है। इसके लक्षण यह है कि मुँह में बार-बार बलगम इक_ा हो जाता है, सामाजिक हानि, अपयश, मन का दुखी या असंतुस्ट होना, पिता से विवाद या वैचारिक मतभेद सूर्य के पीड़ित होने के सूचक है।
उपाय: ऐसे में भगवान राम की आराधना करें। आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करें, सूर्य को आर्घ्य दे, गायत्री मंत्र का जाप करें। ताँबा, गेहूँ एवं गुड का दान करेंं। प्रत्येक कार्य का प्रारंभ मीठा खाकर करेंं। ताबें के एक टुकड़े को काटकर उसके दो भाग करेंं। एक को पानी में बहा दें तथा दूसरे को जीवन भर साथ रखें। ú रं रवये नम: या ú घृणी सूर्याय नम: 108बार (1 माला) जाप करेंं।
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future for you astrological news rashifal 05 09 2015

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Thursday, 3 September 2015

शिव का गृहस्थ-जीवन उपदेश कथा-रस

एक बार पार्वती जी भगवान शंकर जी के साथ सत्संग कर रही थीं। उन्होंने भगवान भोलेनाथ से पूछा, गृहस्थ लोगों का कल्याण किस तरह हो सकता है? शंकर जी ने बताया, सच बोलना, सभी प्राणियों पर दया करना, मन एवं इंद्रियों पर संयम रखना तथा सामर्थ्य के अनुसार सेवा-परोपकार करना कल्याण के साधन हैं। जो व्यक्ति अपने माता-पिता एवं बुजुर्गों की सेवा करता है, जो शील एवं सदाचार से संपन्न है, जो अतिथियों की सेवा को तत्पर रहता है, जो क्षमाशील है और जिसने धर्मपूर्वक धन का उपार्जन किया है, ऐसे गृहस्थ पर सभी देवता, ऋषि एवं महर्षि प्रसन्न रहते हैं।
भगवान शिव ने आगे उन्हें बताया, जो दूसरों के धन पर लालच नहीं रखता, जो पराई स्त्री को वासना की नजर से नहीं देखता, जो झूठ नहीं बोलता, जो किसी की निंदा-चुगली नहीं करता और सबके प्रति मैत्री और दया भाव रखता है, जो सौम्य वाणी बोलता है और स्वेच्छाचार से दूर रहता है, ऐसा आदर्श व्यक्ति स्वर्गगामी होता है।
भगवान शिव ने माता पार्वती को आगे बताया कि मनुष्य को जीवन में सदा शुभ कर्म ही करते रहना चाहिए। शुभ कर्मों का शुभ फल प्राप्त होता है और शुभ प्रारब्ध बनता है। मनुष्य जैसा कर्म करता है, वैसा ही प्रारब्ध बनता है। प्रारब्ध अत्यंत बलवान होता है, उसी के अनुसार जीव भोग करता है। प्राणी भले ही प्रमाद में पडक़र सो जाए, परंतु उसका प्रारब्ध सदैव जागता रहता है। इसलिए हमेशा सत्कर्म करते रहना चाहिए।










देश को दीमक की तरह खाता भ्रष्टाचार

आज देश के सामने कई प्रकार की समस्यायें हैं जिनके साथ हम रोजाना जूझ भी रहे हैं व उनके साथ जी भी रहे हैं। लेकिन सबसे बड़ी समस्या कौन सी है इसको लेकर समाज में अलग-अलग प्रकार के लोगों के अलग-अलग मत हो सकते हैं। अनुभव ऐसा है कि जो जिस समय जिस समस्या से प्रभावित होता है उसके लिए वह उतनी ही बड़ी समस्या बन जाती हैं।
पर मेरे विचार से सबसे बड़ी समस्या वह है जिसे लोग समस्या मानना बन्द कर कर चुकें हैं और उसे अपने जीवन का एक हिस्सा मान कर जीने लगे हैं। और वह है भ्रष्टाचार। इस प्रकार देखा जाय तो भ्रष्टाचार आज देश की सबसे बड़ी समस्या बन गई है जिसे आज आम आदमी सहज ही स्वीकार कर ले रहा है। लेकिन अगर सोचा जाए तो देश में जो भी विकास के कार्य होने है या हुये हैं, केवल भ्रष्टाचार के कारण अच्छे या गुणवत्ता के साथ नहीं हो पाए, जिससे देश साल दर साल पीछे होता गया। अब समाज में इसे गलत नहीं समझा जाता बल्कि जो विरोध करता है उसे बेवकूफ या आदर्शवादी कह कर उसका मजाक बनाया जाता है। कुछ माह पूर्व तक समाज में सभी स्तरों पर व्याप्त भ्रष्टाचार आम चर्चा का विषय भी नहीं था। लोगों ने इसे अपनी नियति मानकर स्वीकार कर लिया था- कि यह तो होगा ही या ये सब तो आवश्यक है।
भ्रष्टाचार का यह महारोग अभी पनपा है ऐसा नहीं है, मुगलों के समय में भी भ्रष्टाचार था पर वह आटे में नमक की तरह था। अंग्रेज तो भारत को लूटने ही आये थे इसलिये येन-केन-प्रकरेण अंग्रेजों ने तो हमें लूटा ही। पर आजादी के बाद आये प्रजातन्त्र में यह रूकना चाहिये था पर हुआ उल्टा देश मे पैदा हुये काले अंग्रेजों ने ही हमें लूटा ही नहीं बल्कि देश के भविष्य को भी गर्त में डाल दिया। भ्रष्टाचार की नाली दिन ब दिन चौड़ी होती गई और अब इसने महासागर का रूप ले लिया। कारण देश में प्रजातन्त्र तो आया पर प्रजा की सुनने वाला कोई तन्त्र नहीं बना। अगर देश का राजनैतिक नेतृत्व भ्रष्ट नहीं होता तो प्रजा भी ईमानदार बनी रहती। इन्हीं राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के कारण पारदर्शी तन्त्र को बनने नहीं दिया, उल्टे जनता को भी ईमानदार नहीं रहने दिया।
आज हमारे भारत देश में समस्यायों का अम्बार लगा हुआ है, वर्षो की गुलामी ने हमारे दिल और दिमाग पर गहरा असर डाला है। जो हो चुका उसे हम बदल तो नहीं सकते पर क्या उससे सबक लेकर सुधार नहीं कर सकते?  क्या वाकई हमारे देश में काबलियत की कमी हो गयी है या फिर हमे समस्याओ में रहने की आदत ही पड़ गयी है और हम सुधार करना ही नहीं चाहत? या फिर हमने मान लिया है की अब इन समस्याओं का कोई समाधान नहीं हो सकता और हमे इनकी आदत डाल लेनी ही होगी? यह बड़ा प्रश्न है।
अगर इस मुद्दे को ज्योतिष की नजर से देखें तों 15 अगस्त 2015 को 69 वें वर्ष, कन्या लग्न की कुंडली में मुन्था पंचम भाव में बनती है। प्रशासनिक भाव पर सूर्य-मंगल-शुक्र-शनि की दृष्टियां होने से केंद्र सरकार कई जगह विवश दिखेगी। वृश्चिक के शनि के कारण भ्रष्टाचार के भी कई मामले सामने आएंगे। परंतु सकारात्मक बात यह रहेगी कि शनि और गुरू के अनुकूल होने के कारण देश आर्थिक रूप से आगे बढ़ेगा। अर्थव्यस्था मजबूत होगी। वित्तीय व्यवस्था में व्यापक परिवर्तन आएंगे जिससे आम आदमी लाभान्वित होगा। शनि के लगातार अनुकूल होने से न्यायपालिका के हस्ताक्षेप से भ्रष्टाचार के कम होने की संभावना बनती है। हां, गुरू के लगातार अनुकूलता से देश की अवाम में मानवीय चेतना के जागृत हो जाने के आसार जरूर दिख रहे हैं।


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कुंडली में लग्न भाव के क्या है प्रभाव और उपाय?



कुंडली में चार केंद्र स्थान होते हैं। यह प्रथम, चतुर्थ, सप्तम एवं दशम भाव होते हैं जो कि तन, सुख, दांपत्य एवं कर्म के कारक होते हैं।
यदि केंद्र में शुभ ग्रह हो तो जातक लक्ष्मीपति होता है। वहीं केंद्र में उच्च के पाप ग्रह बैठे हो तो जातक राजा तो होता ही है पर वह धन से हीन होता है।
सूर्य यदि उच्च को हो तथा गुरु केंद्र में चतुर्थ स्थान पर बैठा हो तो जातक आधुनिक केंद्र या राज्य में मंत्री पद को प्राप्त करता है। सूर्य के केंद्र में होने से जातक राजा का सेवक, चंद्रमा केंद्र में हो तो व्यापारी, मंगल केंद्र में हो तो व्यक्ति सेना में कार्य करता है।
बुध के केंद्र में होने से अध्यापक तथा गुरु के केंद्र में होने से विज्ञानी, शुक्र के केंद्र में होने पर धनवान तथा विद्यावान होता है। शनि के केंद्र में होने से नीच जनों की सेवा करने वाला होता है।
यदि केंद्र में कोई भी ग्रह नहीं हो तो जातक समस्या ग्रस्त परेशान रहता है। कोई भी ग्रह केंद्र में न हो तथा आप, ऋण, रोग, दरिद्रता से परेशान हो तो निम्न उपाय करें।
- शिवजी की उपासना करें।
- सोमवार का व्रत करें।
- भगवान शिव पर चांदी का नाग अर्पण करें।
- बिल्व पत्रों से 108 आहूतियां दें।
- घी, कच्चा, दूध, शहद, मिश्री का हवन करें।

कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो क्या करें

कुंडली में शुक्र ग्रह अशुभ स्थिति में हो तो व्यक्ति को पूर्ण सुख-सुविधाएं प्राप्त नहीं हो पाती हैं। साथ ही, वैवाहिक जीवन में भी परेशानियों का सामना करना पड़ सकता है। शुक्र के दोषों के दूर करने के लिए शुक्रवार को विशेष उपाय किए जा सकते हैं। शास्त्रों के अनुसार शुक्रवार को देवी लक्ष्मी के निमित्त भी उपाय किए जा सकते हैं। यहां जानिए छोटे-छोटे 5 उपाय...
1. हर शुक्रवार शिवलिंग पर दूध और जल अर्पित करें। साथ ही, ऊँ नम: शिवाय मंत्र का जप करें। मंत्र जप कम से कम 108 बार करना चाहिए। मंत्र जप के लिए रुद्राक्ष की माला का उपयोग करना चाहिए।
2. किसी गरीब व्यक्ति को या किसी मंदिर में दूध का दान करें।
3. शुक्रवार को किसी विवाहित स्त्री को सुहाग का सामान दान करें। सुहाग का सामान जैसे चूड़ियां, कुमकुम, लाल साड़ी। इस उपाय से देवी लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं।
4. शुक्र से शुभ फल पाने के लिए शुक्रवार को शुक्र मंत्र का जप करें। मंत्र जप की संख्या कम से कम 108 होनी चाहिए। शुक्र मंत्र: द्रां द्रीं द्रौं स: शुक्राय नम:।
5. शुक्र ग्रह के लिए इन चीजों का दान भी किया जा सकता है... हीरा, चांदी, चावल, मिश्री, सफेद वस्त्र, दही, सफेद चंदन आदि। इन चीजों के दान से शुक्र के दोष कम हो सकते हैं।

वैवाहिक विलम्ब में शुक्र की विशिष्ट संस्थिति

शुक्र और चन्द्रमा की पारस्परिक शत्रुता है । चन्द्र और सूर्य दोनों ही शुक्र के शत्रु हैं । यदि शुक्र, सूर्यं अथवा चन्द्रमा की राशि कर्क या सिंह में स्थित हो एवं सूर्य और चन्द्रमा उससे द्वितीयस्थ एवं द्वादशस्थ हों तो विवाह नहीं होता अथवा उसमें अनेकानेक बाधाएं समुपस्थित होती हैं । बहुधा वैवाहिक सम्बन्ध निश्चित होकर भी भंग हो जाता है ।28 वैवाहिक विलम्ब कै विविध आयाम एवं सत्र शुक्र और चन्द्रमा की सप्तम भाव में स्थिति भी पर्याप्त चिन्तनीय है । यदि शनि व मंगल उनसे सप्तम हों अर्थात लग्न में हों तो विवाह निश्चित रूप से नहीं हो पाता । यदि यह योग बृहस्पति से दुष्ट हो तो विवाह पर्याप्त विलम्ब के बाद सम्पन्न होता है । शुक्र और चन्द्र यदि सप्तम भाव में कर्क, सिंह, तुला या वृषभ राशिगत होकर स्थित हों या नवांश लग्न से सप्तमस्थ हों अथवा शुक्र और चन्द्रमा षडाष्टक हों तो विवाह में अवरोध जाता है । यदि शुक्र शत्रु राशिगत होकर सप्तमस्य हो और चन्द्रमा उसे देख रहा हो अर्थात् कुम्भ या मकर लग्न में चन्द्रमा स्थित हो तथा शुक्र सप्तमस्य हो तो विवाह में अनेक अवरोध जाते हैं और विलम्ब होता है । यदि सप्तमेश शुक्र हो और उसके साथ सूर्य और चन्द्रमा स्थित हों तो शुक्र अत्यन्त पापी हो जाता है । ऐसी स्थिति में विवाह नहीं होता । यदि हो जाय तो अविवाहित की तरह ही जीवनयापन करना पड़ता है । इसी प्रकार यदि शुक्र सूर्य और चन्द्रमा से युक्त होकर सप्तमस्थ हो तब भी विवाह का सुख-निषेध होता है । यह स्थिति सतर्कतापूर्वक देखनी चाहिए ।

वैवाहिक विलंभ के संदर्भ में शनि की स्तिथि

शनि सर्वाधिक मन्द गति से भ्रमण करने वाला ग्रह है । द्वादशराशियों में भ्रमण करने के निमित्त उसे 30 वर्ष अपेक्षित होते हैं । अत: विवाह के विलम्ब से होने में शनि की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका है किसी भी जन्मकुण्डली में विवाह-काल का निर्णय करते समय सर्वप्रथम विचारणीय यह है की जातिका (कन्या) या जातक का विवाह उचित आयु में होगा या विलम्ब से होगा अथवा नहीं होगा । प्राय: कन्या के विवाह में विलम्ब होने की स्थिति में ही अभिभावक चिंताग्रस्त होते हैं । जब विलम्ब अधिक होने लगता है तो स्वयं जातिका की व्यग्रता भी बढ़ जाती है । विवाह की समुचित अवस्था, विशेषतया कन्या के लिए 18-25 वर्ष तक है । परन्तु 22वें वर्ष के समाप्त होने के साथ-साय कन्या के अविवाहित रहने की स्थिति में, अभिभावकों को कुछ विलम्ब का अनुभव होने लगता है । 25वें वर्ष से अभिभावकों के संगन्ती। वज्या स्वयं भी विवाह की ओर से अनिश्चितता की स्थिति में आ जाती है । विवाह में विलम्ब होगा अथवा विवाह होगा ही नहीं, इसके ज्ञान के लिए ज्योतिष से अधिक कोई अन्य विद्वान उपयोगी सिद्ध नहीं हुआ है । सर्वप्रथम निम्नलिखित प्रश्नों पर गम्भीरता से विचार करना चाहिए । विवाह में अवरोध का क्या कारण है 7 कौंन-कौंन से ग्रह बाधक हैं, किस प्रयोग के कारण अनेक गम्भीर प्रयत्न भी लगातार विफल होते जा रहे हैं । जव किसी कन्या की जन्मकुंडली में शनि, चन्द्रमा अथवा सूर्यं से युक्त या दृष्ट होकर सप्तम भाव अथवा लग्न में क्रमश: संस्थित हो तो विवाह नहीं होता । नवांश चक्र भी अवश्य देखना चाहिए ।

घर में तिजोरी वास्तु अनुसार

सभी के घरों में पैसा या धन, ज्वेलरी या अन्य कोई मूल्यवान सामान रखने के लिए कोई विशेष स्थान होता है। सामान्यत: यह सभी सामान तिजोरी या किसी अलमारी में रखे जाते हैं।
तिजोरी और अलमारी के लिए यहां एक चमत्कारी उपाय बताया जा रहा है जिससे आपके घर में बरकत बनी रहेगी और कभी भी पैसों की कमी नहीं होगी...
चूंकि तिजोरी में सभी मूल्यवान सामान ही रखा जाता है अत: इस संबंध वास्तु उपाय अपनाने से घर में हमेशा बरकत बनी रहती है और धन की कमी नहीं होती। तिजोरी में पैसा रखते हैं और इसी वजह से यहीं धन की देवी महालक्ष्मी का भी वास होता है।
इस स्थान को एकदम पवित्र एवं साफ-स्वच्छ रखना चाहिए। इसके अलावा एक सटीक उपाय बताया गया है जिसे अपनाने से परिवार के सभी सदस्यों को आर्थिक तंगी से परेशान नहीं होना पड़ेगा।
घर की तिजोरी के दरवाजे पर महालक्ष्मी की अद्भुत और चमत्कारी फोटो लगाएं। फोटो ऐसा हो जिसमें देवी लक्ष्मी बैठी हुईं हों, चित्र सुंदर और परंपरागत होना चाहिए। साथ ही दो हाथी सूंड उठाए नजर आते हों।
ऐसा फोटो लगाने पर आपके घर पर महालक्ष्मी की कृपा हमेशा बनी रहेगी और पैसों की कमी कभी नहीं आएगी। इसके साथ ही ध्यान रखें कि खुद को किसी भी प्रकार के अधार्मिक कर्मों से दूर ही रखें। जिस कमरे में तिजोरी रखी गई है उस कमरे में हल्का क्रीम रंग पेंट करेंगे तो अच्छा रहेगा।
वास्तु के अनुसार धन के देवता कुबेर का स्थान उत्तर दिशा में माना गया है। उत्तर दिशा में कुबेर के प्रभाव से धन की सुरक्षा होती है और समृद्धि बनी रहती है। इसका मतलब यही है कि हमें अपने नकद धन को उत्तर दिशा में रखना चाहिए।
हर व्यक्ति के लिए नकद धन के लिए अलग कमरा बनवाना संभव नहीं है। कुछ लोगों के यहां ही पैसा रखने के लिए अलग कमरे की सुविधा उपलब्ध रहती है।
जिन लोगों के यहां पैसा रखने के लिए अलग कमरा नहीं है वे अपना धन उत्तर दिशा के किसी भी कमरे में रख सकते हैं। ध्यान रखें कमरा पूरी तरह सुरक्षित हो और वहां चोरी आदि का भय नहीं होना चाहिए। धन को इस स्थान पर रखने से व्यक्ति की आर्थिक स्थिति में सुधार होता है।
कुछ विद्वानों का मानना है कि नकद धन को उत्तर दिशा में रखना चाहिए और रत्न, आभूषण आदि दक्षिण दिशा में रखना चाहिए। इसके पीछे यह कारण है कि नकद धन आदि हल्के होते है, इसलिए इन्हें उत्तर दिशा में रखना वृद्धिदायक माना जाता है।
जबकि रत्न आभूषण में वजन और मूल्य अधिक होता है, इसलिए ये चीजें विशेष स्थान पर ही रखी जा सकती है। इन चीजों के लिए तिजोरी या अलमारी श्रेष्ठ रहती है और ये काफी भारी होती है। भारी सामान रखने के लिए दक्षिण दिशा श्रेष्ठ मानी जाती है। अत: रत्न और आभूषण को दक्षिण दिशा में रखा जा सकता है।

future for you astrological news swal jwab 03 09 2015

वैवाहिक विलम्ब एवं प्रयोग :ज्योतिषीय विश्लेषण

क्षणजीवी भौतिकता की दिशा में समग्र सामर्ध्व के साथ उधत मानव समाज में सर्वाधिक आहत एवं क्षत-विक्षत हैं सम्बन्धों के समीकरण । समाज क्री समस्त इकाइयों और संस्थाएं इस दुष्कातिक आक्रमण से स्तब्ध हैं । विवाह नामक केन्दीय संस्कार भी समस्याओं के चक्रव्यूह में मोहाविष्ट है । इस संदर्भ में अनागत दर्शन की क्षमता से संपन्न ज्योतिष शास्त्र की भूमिका अत्यन्त उत्तरदायी एवं अनाविल हो उठती है । विवाह एक संश्लिष्ट और बहुआयामी संस्कार है । इसके संबंध में किसी प्रकार की फलप्राप्ति के लिए विस्तृत एव धैर्यपूर्ण अध्ययन-मनन-चिंतन की अनिवार्यता होती है | किसी जातक के जन्मांग से विवाह संबधी ज्ञानप्राप्ति के लिए द्वितीय, पंचम, सप्तम एवं द्वादश भादों का विश्लेषण करना चाहिए । द्वितीय भाव परिवार का धोतक है तथा पति-पत्नी परिवार की भूल इकाई हैं । सातवें भाव से अष्टमस्थ होने के कारण विवाह के प्रारंभ व अंत का ज्ञान देकर यह भाव अपनी स्थिति महत्वपूर्ण बनाता है । प्राय: पापाक्रांत द्वितीय भाव विवाह से वंचित रखता है । सन्तान सुख वैवाहिक जीवन का प्रसाद पक्ष है, जिसके लिए पंचम माय का समुचित विश्लेषण आवश्यक है । सप्तम भाव से तो मुख्यत: विवाह से संबंधित अनेक तथ्यों का उदूघाटन होता ही है । द्वादश भाव शैया सुख के लिए विचारणीय है । अनेक ज्योतिषी एकादश भाव का विवेचन भी आवश्यक समझते हैं । एक बहुख्यात सूत्र है कि यदि एकादश भाव में दो ग्रह संस्थित हों तो जातक के दो विवाह होते हैं। फलदीपिका में मन्वेथ्वर ने शुक्र और बृहस्पति क्रो क्रमश: पुरुष व स्त्री का विवाह कारक ग्रह बाताया है । जबकि प्रश्नमार्ग के मतानुसार स्त्रियों के विवाह का कारक ग्रह शनि है । बृहस्पति और शनि पर विचार करने के साथ-साथ शुक्र पर भी अवश्य विचार करना चाहिए अन्यथा निर्णय में अशुद्धि होगी । सप्तामाधिपति की स्थिति भी विवाह के विषय में पर्याप्त बोध कराती है । यदि सप्तामाधिपति अपनी उच्च राशि में स्थिति हो तो उच्च कूल की श्रेष्ठ कन्या के साथ विवाह संपन्न होता है, यदि निम्न राशि में स्थित हो तो सामान्य परिवार से परिणय सूत्र जुड़ता है । इसके केन्द्र में श्रेष्ठ स्थिति में स्थित होने पर वैवाहिक संस्कार अत्यन्त वैभवशाली ढंग से सम्पन्न होता है । सप्तमाधिपति यदि षष्ठ, अष्टम या द्वादश भाव में स्थित हो तो विवाह प्राय: दुःखपूर्ण होता है ।

आईटी सॉफ्टवेयर बनने के ग्रह योग

सूचनाओं का महत्व आदि काल से ही रहा है । इस बदलते परिवेश में अब सूचनाओं का महत्व सर्वोपरि हो गया है। इस प्रगतिशील संसार में यदि आपका ज्ञान अपटूडेट नहीं है, तो जाप प्रगति की दोड़ में पिछड़ सकते हैं। प्रतिष्ठित व्यवसायिक संस्थानों द्वारा अब इस ओर विशेष ध्यान देकर इनफारमेशन टेक्नोलॉजी विषय को पाठ्यक्रमों में शामिल करते हुए इस कंप्यूटर युग में नये-नये सॉफ्टवेयर बनाये जाने के हेतु पढाई कराई जा रही है । अब सभी काम कंप्यूटर मशीन के माध्यम से बिना समय गवांऐ ज्ञान व सूचनाएँ हर एक के पास उपलब्ध हो रहीं है । यहीं तक की ज्योतिष जैसे गूढ विषय को भी कंप्यूटर के माध्य से गणित व फलित किया जा रहा है । इसके लिए भी नये-नये सॉफ्टवेयर डिजाइन किये जा रहे हैं । कोई भी क्षेत्र हो, बिना आईटी के सब अधूरे नजर आते है। ई-गर्वनेश, इं-बैंकिग ईं-फाइनेंसिंग, ई-मेनेजमेंट आदि-आदि तेजी से बढते नज़र आ रहे हैं । अब सभी व्यापारिक संस्थान,कार्यालय, शिक्षण संस्थाओं में आईटी अपने पैर जमा चुका है । रोजगार के नये अवसरों, विदेशों में कार्य करने के अवसर, पद एवं प्रतिष्ठा के कारण आज प्रत्येक युवक का सपना आईटी सेक्टर में ज्ञान अर्जित कर माहिरी हासिल करना हो गया है । हमारे महषि ऋशियों द्वारा इस तरह के क्षेत्र को ज्योतिषीय विवेचन कर कहीं भी नहीं दिया गया है, परंतु आज के इस युग में शोघपूरक ज्योतिष के माध्यम से कुछ ग्रह, भागो, ग्रहसंबंधों, ग्रह दृष्टि  संबंधों, ग्रह नक्षत्रों, ग्रहगोचरों को ध्यान में रखते हुए इस सूचना प्रोद्योगिक क्षेत्र का विवेचन किया गया है । इन्हें सब को ध्यान को रखते हुए सर्वप्रथम हमने इस आईटी सेक्टर से जुडे घटकों जैसे कंप्यूटर, इलेवट्रानिक,  उपकरण एवं सेटेलाइट संबंधी कारकत्वों पर विशेष ध्यान दिया है । इस तरह
पाया गया कि शुक्र ग्रह कंप्यूटर एवं टेलीवीजन का कारक होने के कारण मंगल विधुत एव सिविल इंजीनियरिंग बुध ग्रह शिल्प,तर्क, विश्लेषणात्मक विज्ञान, सांख्यकी, कंप्यूटर का कारक होते के कारण, हैं शनि तकनीकी कार्यों एव अभ्यास, यंत्रों का ज्ञान तथा उनका निर्माण इंजीनीरिंग का कारक होने के कारण आईटी सेक्टर के लिए महत्वपूर्ण कारक ग्रह माने जा रहे हैं । सूर्य ग्रह स्वतंत्र रुप से तो तकनीकी ज्ञान का कारक नहीं है, परन्तु मंगल के साथ युति या दृष्टि संबंध करने से इंजीनोयर बनाने में सहयोग कारक होता है । अत: उक्त तत्यों को ध्यानभे रखते हुए कुछ इन्हें से संबंधित ग्रह योग, ग्रह संबंध,ग्रह दृष्टि संबंध, नक्षत्रों, दशाएँ एवं ग्रह गोचरों क्रो समाहित कर कुछ योग निम्नानुसार दिये जा रहे हैं । इन्हें देखकर कोई भी जातक आईटी सेक्टर में अपना कार्य-व्यवसाय बाबत् भविष्य ज्ञान कर सकता है

आईआईटी या अन्य बड़े संस्थानों से इंजीनियरिंग करने के योग

आजकल हर माँ-बाप यहीं चाहते हैं कि उसके बेटा-बेटी उच्च तकनीकी या व्यवसायिक शिक्षा अच्छे से अच्छे संस्थान से केरे । यह इसलिए भी इच्छा बलवती होती है, चुंकि तकनीकी ज्ञान में रोजगार के अवसर ज्यादा से ज्यादा देश व विदेशों से मिलते दिख रहे हैं । तकनीकी शिक्षा के क्षेत्र में तंरह-तरह के नये विषय जैसे कंप्यूटर, इलेवट्रानिक्स, केमिकल, पेट्रोकेमिकल, आईटी, माइनिंग, मेकेनिकल, सिविल, कम्युनिकेशन आदि-आदि में इंजीनियरिग डिग्री दी जा रही है । संचार एव इलेवट्रानिक्स के क्षेत्र में विकास लगातार ज्यादा से ज्यादा होने के कारण रोजगार के अवसर भी खुलते जा रहे हैं । तकनीकी संस्थानों में भी तरह-तरह के संस्थान है, जैसे आईआईटी हैं एनआईटी है रीजनल इंजीनियरिग कालेज, प्राइवेट इजीनियरिग कालेज आदि देश में तकनीकी शिक्षा दे रहे हैं । इनमें भी हर एक आईआईटी जैसी उच्च तकनीकी संस्थान में पढ़ना चाहता
है, जिसमें अति कठिन परीक्षा के माध्यम से प्रवेश हो पाता है । इसके अतिरिक्त
अन्य परीक्षाएँ जैसे एआईईईई, पीईटी, जेईई आदि भी अन्य संस्थाओं के प्रवेश हेतु देनी पड़ती है । आखिर कुंडली में ऐसे कौन से ग्रह ,ग्रहृयोग, विशिष्ठ ग्रह संबंध योग होते है, जिनके कारण जातक अलग-अलग विषयों में तकनीकी शिक्षा की पढाई करता है ।
मंगल औजार का काराक है, शनि इनका प्रयोग करना और शुक्र औजारों में प्रयोग करने का रिफाइन्मेंट देता है । यदि इनका संबंध दशम भाव एवं दशमेश से हो, तो जातक इंजीनियर बन सकता है ।
शनि बलवान होकर लग्न, दशम या दशमेश को प्रभावित को, तो भी जातक का इंजिनियर बनने का योग बनता है।
यदि दशम भाव या दशमेश का संबंध सप्तम भाव या सप्तमेश से हो व मंगल बली होकर इनमें से किसी पर भी दृष्टि करे, तो जातक यन्तु से संबधित
इंजीनियर होता है ।
मंगल-राहू का योग केन्द्र या त्रिकोंण में यदि हो, तो जातक के इंजीनियर बनने का योग बनता है ।
बुध,सूर्य,मंगल का आपसी संबंध होने पर भी इंजीनियर बनता है ।
मंगल एव शुक्र की युति या दृष्टि यदि भाव 5 या 10 में हो और शनि की दृष्टि पड़ती हो, तो भी जातक को इंजीनियर बनाने के योग बनते हैं ।
भाव 10 या 11 में यदि सूर्य और मंगल की युति हो और शनि की इन पर दृष्टि हो या मंगल की शनि पर दृष्टि हो, तो भी जातक की इंजीनियर बनने की संभावना रहती है।
सूर्यं-चंद्र की युति पर शनि और मंगल की दृष्टि हो रही हो, तब भी माइनिंग इंजीनियर बनने के योग बनते हैं ।
यदि शनि की मंगल पर दृष्टि और मंगल की शनि पर दृष्टि हो रही हो, तो जातक सिविल इंजीनियर बनता है ।
मेष लग्न में यदि लग्नेश मंगल व शनि दोनों उच्च के होकर केन्द्र भाव 10 व 7 में हों तथा पंचमेश सूर्य नवंम भाव में केतु, बुध व शुक्र के साथ युति करके बैठा हो तथा राहू भाव 3 में उच्च का होकर शनि पर दृष्टि कर रहा हो, तो जातक उच्च संस्थान आईआईटी से इंजीनियरिग करता है ।

वास्तु से बढाएं दाम्पत्य सुख

भास्तीय समाज में सोलह संस्कार मुख्य माने गए है । जिनमे विवाह सर्वोपरि संस्कार है ।नव बधू के स्वागत हेतु प्रत्येक परिवारजन आतुर रहता है । नव-वधू भी यथा संभव उनकी आकांक्षाओं पर खरा उतरने का प्रयास करती है । फिर क्या कारण है कि सास-बहू के सबंध आत्मिक नहीं रह पाते हैं? क्यों बहू-ननद को अपनी अंतरंग सखी न मानकर उसे अवाछ्नीय समझने लगती है? क्यों पति गृह को सर्वस्व: मानने घाली पत्नी मायके चली जाती है? तलाक जो "मास्तीय समाज के लिए अपरिचित शब्द था क्यों आज इतना प्रचलित शब्द बनता जा रहा है ।
वास्तु के सहयोग से इन समस्याओं को सुलझाया जा सकता है | नव बधू के आवास स्थान, शयनकक्ष, सिरहाने की रिशति जैसे गौण लगने बाले तथ्यों को वास्तु की मदद से परिवर्तित करके सुखी भी सुदृढ़ दाम्पत्य जीवन की नींव रखी
जा सकती है |
नव दंपत्ति को कमी भी वायव्य दिशा वाला कमरा रहने के लिए नहीं देना चाहिए| वायव्य दिशा में रहने से पत्नी का ससुराल में मन नहीं लगेगा और वह मायके रहना ही ज्यादा पसंद करेगी | पति भी वास्तु रने प्रभावित होकर ज्यादातर समय इस कमरे के बाहर बिताएगा ।
नव वधु तहखाने में सोए तो वह तनावग्रस्त रहेगी| पति-पत्नी के सबंध परिवार जनो से खराब हो जाएगे । अधिकतर ऐसे मामलों में पत्नी के सबंध सास व् ननद से व पति कं सम्बन्ध पिता व् भाइयों रनै मधुर नही रहेगा और उनमे आत्मिक सबंध नहीं रहेंगे |
बीम अथवा गाटर के नीचे भी उन्हें नहीं सोना चाहिए । बीम के नीचे सोने के अनावश्यक तनाव बढ़ता है और पत्नी-पति कं बीच कलह और तलाक जैसी स्थिति भी उत्पन्न हो जाती है ।
वास्तु के आग्नेय कोने मे शयनकक्ष होने से पति-पत्नी में बिना वजह कलह होते है फालतू खर्च बढते हैं और किसी न किसी मुसीबत का सामना करना पड़ता है। जिससे उनका दाम्पत्य जीवन दुखमय हो जाता है । पूर्व दिशा में भी नव-दम्पत्ति को नहीं चुकाना चाहिए ।
वायव्य व उतर दिशा के बीच वाले कमरे में नव दम्पत्ति को रहना चाहिए । प्रेम में बढोतरी होती है और दाम्पत्य जीवन सुखमय बना रहता है । नव दम्पत्ति अपना सिरहाना अगर उचित दिशा में नहीं रखेंगे तो उनके प्रेम से बाधा लेगी और संतान कष्ट रहेगा। दक्षिण की और पैर करके सोने से स्वस्थ गहरी नीद नहीं आती है दुस्वप्न आते हैं मन में बुरे विचार आते है । कभी-कभी सीने पर बडे बोझ का अनुभव होता है मानसिक संतुलन बिगड़ता है ओर आयु कम होती है । अत: सोते समय हमेशा सिर दक्षिण व पैर उतर की ओर रखने चाहिए ।
कभी भी पति-पत्नी को हाथों से मुह ढंककर नहीं सोना चाहिए। आत्मविश्वास में कमी होती है। हमेशा बाएं करवट लेकर सोना चाहिए।
नव-दम्पत्ति को चाहिए कि वह अपनी  पलंग चंदन, शीशम, सागवान, देवदार और शाल की बनाएं। तेन्दूक या तेन्दु एवं आम की पलंग पर कमी भी न सोएं, क्योंकि ये रोग देने वाली व प्राण हरने वाली होती है ।
नव वधू को चाहिए कि वह वास्तु के ईशान दिशा को हमेशा साफ सुथरा रखें । ईशान दिशा में कूड़ा-करकट होने पर पति दुश्चरित्र बन जाता है । झाडू को भी ईशान दिशा में नहीं रखना चाहिए ।
शयनकक्ष में अधिक मात्रा ने ताजे फुलों का प्रयोग नहीं करना चाहिए तथा परदों पर भी फूलों की जगह छोटे फूलों कं चित्र बेहतर माने जाते है ।शयनकक्ष में पूजाघर नहीं बनाना चाहिए| यदि घर में केवल एक कमरा हो तो पूजाघर कं सामने पर्दा अवश्य लगाना चाहिए ।मुख्य द्वार के ठीक सामने वृक्ष होने पर संतान नष्ट व खम्बा होने से स्त्री वियोग संभव है |
शयनकक्ष में इस बात का विशेष ध्यान रखना चाहिए जि फर्नीचर, अलमारी या सजावटी वस्तुओ के कोने सोते समय आपकी और निशाना तो नहीं बना रहे । नव वधू को हमेशा सोते समय ताम्बे के पात्र में पानी डालकर पलंग के ईशाण कोण में रखकर सोना चाहिए| सुबह उठने पर मन प्रसन्न रहेगा|
नव वधू को पूर्वी दिशा में मुंह करके भोजन बनाना चाहिए । भोजन करते समय पति और पारिवारिक सदस्यों का मुंह भी पूर्व की और होना चाहिए । इसके अतिरिक्त घर में तुलसी का पौधा अवश्य लगाएं । नव वधू लाल वस्त्रों का प्रयोग अधिकाधिक करें | पूजा-अर्चना पूर्व, उत्तर अथवा ईशाण दिशा में मुंह करके करें ।
सोते समय कमरे में हल्का प्रकाश रखें|




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Wednesday, 2 September 2015

हस्त रेखा और भविष्य

मानव जाति में कदाचित ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा, जो अपने अतीत का भलीभांति अध्ययन करने के बाद यह अनुभव न करता हो कि उसके विकसित जीवन के कितने वर्ष या कितना भाग उसके अपने और माता-पिता के अनभिज्ञता के कारण बेकार ही बीत चुके हैं। अपने बारे में पूरा-पूराज्ञान प्राप्त करने के बाद ही हम स्वयं को नियन्त्रित करने में सक्षम और समर्थ हो सकेंगे। साथ ही अपनी उन्नति करके मानव जाति की उन्नति कर सकेंगे। हस्त विज्ञान का स्वयं को पहचानने से सीधा सम्बन्ध है। इस विज्ञान की उत्पत्ति पर विचार करने के लिए हमें विश्व इतिहास के प्रारम्भिक काल में लौटना होगा। आदि काल के मनीषियों का स्मरण करना होगा जिन्होंने विश्व के महान साम्राज्यों सभ्यताओं, जातियों और राजवंशों को नष्ट हो जाने के बाद भी अपने इस भण्डार को सुरक्षित रखा। विश्व इतिहास के प्रारम्भिक काल का अध्ययन करने पर हमें ज्ञात होगा कि हस्त विज्ञान से सम्बन्धित सामाग्री इन्हीं मनिषियों की धरोहर थी। सभ्यता के उस आदिकाल केा मानव इतिहास में आर्य सभ्यता के नाम से पुकारा जाता है। हस्त रेखा विज्ञान के मूल विन्दुओं को जांचते-परखते समय हमें प्रतीत होने लगता है कि हाथों की रेखाओं का यह विज्ञान विश्व के पुरातन विज्ञान में से एक है। इतिहास साक्षी है कि भारत के उत्तर-पश्चिमी प्रान्तों की जोशी नामक जाति न जाने किस काल से हस्त रेखा विज्ञान को व्यवहार में लाती रही है। स्थूल या सूक्ष्म गतिविधि को संचालित करने वाले स्नायु जिनसे ठीक वैसी ही सलवटें या रेखाएँ बनती हैं। उनका निर्माण प्रमुखरूप से गतिशील देशों
से होता है। लेकिन सम्भवतः उनमें कुछ अन्य ऐसे तन्तु भी होते हैं जो अर्जित या अन्र्तनिहित प्रवृत्तियों के मिश्रित प्रभावों का कम्पनों द्वारा सम्प्रेषण करते हुए और उनका जीवन रेखा के प्रभावित होने वाले भाग से मुख्य रेखा या उसकी शाखा के जोड़ पर क्राश चिह्न बनाते हुए दोनों का सम्बन्ध स्थापित करते हैं। कुछ कोशिकाओं की ऐसी वृत्ति है जिनके कारण
उनमें आगामी घटनाओं का प्रभाव उत्पन्न हो जाता है। शायद कम्पन्न उत्पन्न हो जाता है। कोशिकाओं में उत्पन्न कम्पन्न अपने साथ जुड़े तर्क प्रक्रियाओं में लगे कोणों में कोई गतिविधि तो उत्पन्न नहीं करवा सकता लेकिन उनमें चेतनात्मक कम्पन्न अवश्य जगा देता है और इन कम्पनों का सम्पे्रषण हाथ पर बने विभिन्न आकार-प्रकार के चिह्नों के साथ में अंकित हो जाता है। एक तर्कयुक्त जीवन के रुप में मनुष्य का हाथ विशेष रुप से विकाश की उच्च स्थिति का द्योतक है। उसकी गति से क्रोध प्रेम आदि प्रवृत्तियों का
ज्ञान होता है। यह गति स्थूल अथवा सूक्ष्म होती है, इसलिए उससे हाथं पर बड़ी या छोटी सलवटें या रेखाएं बनती है। चिकित्सा विज्ञान से कान का रक्त अर्बुद काफी समय पहले जाना जा चुका है, यह कान के ऊपरी भाग में विभिन्न आकार में बनता है, यह फिर उपरी भाग के फूल जाने से उसी की शक्ल में बन जाता है। जिसमें रक्त अर्बुद होता है, यह अर्बुद अक्सर पागलों के कान में ही बनता है सामान्य रुप से उन लोगों के कान में जिनका पागलपन पैतृक होता है। इस बात का विशेष अध्ययन पेरिस में किया गया। विज्ञान अकादमी के तमाम
परीक्षणों के जो परिणाम निकले उनसे सिद्ध हो गया कि केवल कान की परख करके वर्षो पहले भविष्यवाणी की जा सकती है। इसलिए यह तर्क सिद्ध हो चुका है कि जब केवल कान की जांच-परख करके सही-सही भविष्यवाणी की जा सकती है, तो क्या हाथों का निरीक्षण करके अन्य भविष्यवाणी करना असम्भव है? हाथ के विषय में स्नायु मण्डल और उनके
गति संचालन को देखते हुए यह माना जा चुका है कि हाथ ही पूरे मानव शरीर का सर्वाधिक विचित्र अंग है, और हाथ का मस्तिष्क के साथ सबसे ज्यादा गहरा सम्बन्ध है।
किन्हीं दो हाथों पर अंकित रेखाएं और चिह्न कभी भी एक जैसे नहीं पाये जाते। इसके अलावा जुड़वा बच्चों की हस्तरेखा में भी परस्पर अन्तर पाया जाता है। यह भी पाया गया है कि हाथ की रेखाएँ किसी परिवार की किसी विशिष्ट प्रवृत्ति केा स्पष्ट कर देती है और आने वाली पीढि़यों में यह प्रवृत्ति निरन्तर बनी रहती है, लेकिन यह भी देखा गया है कि कुछ बच्चों
के हाथ पर अंकित रेखाओं की स्थिति में अपने माता-पिता से कोई समानता नहीं होती। अगर गहराई से अध्ययन किया जाय, तो इस सिद्धान्त के अनुसार वे बच्चे अपने माता-पिता से पूरी तरह भिन्न होते हैं। एक प्रचलित धारणा है कि हाथ की रेखाओं पर व्यक्ति के कार्यों का गहरा प्रभाव पड़ता है। वे उनके अनुसार ही चलती रहती हैं। लेकिन सच्चाई
इसके विल्कुल विपरीत है, शिशु के जन्म के समय ही उसके हाथ की चमड़ी मोटी और कुछ सख्त हो जाती है, अगर व्यक्ति के हंथेली की चमड़ी को पुल्टिस या किसी अन्य साधनों से मुलायम बना दिया जाये तो उसपर अंकित चिह्न किसी भी समय देखे जा सकते हैं। इनमें अधिकांश चिह्न उसकी हथेली पर जीवन के अंतिम क्षण तक बने रहते हैं। इस संदर्भ में हाथ में विद्यमान कोषाणुओं पर ध्यान देना अत्यन्त महत्वपूर्ण है। मैरनर ने अपनी पुस्तक हाथ की रचना और विधान में लिखा है कि हाथ के इन कोषाणुओं का अर्थ बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह अद्भुत आणविक पदार्थ अंगुलियों की पोरों में और हाथ की रेखाओं में पाये जाते हैं, तथा कलाई तक पहुंचते पहुँचते-2 लुप्त हो जाते हैं। यह शरीर के जीवित रहने
की अवधि में कुछ विशेष कम्पन्न भी उत्पन्न करते हैं तथा जैसे जीवन समाप्त होता है यह रुक जाते हैं। अब हम हाथों की चमड़ी, स्नायु और स्पर्श करने की अनुभूति पर ध्यान देते
हैं। सर चाल्र्सवेल ने चमड़ी के सम्बन्ध में लिखा है- चमड़ी त्वरित स्पर्श अनुभूति का महत्त्वपूर्ण अंश है। यही वह माध्यम है जिसके द्वारा बाहरी प्रभाव हमारे स्नायुओं तक पहुंचते हैं। उंगलियों के सिरे इस अनुभूति की व्यवस्थाओं का श्रेष्ठ प्रदर्शन करते हैं। नाखून उंगलियों को सहारा देते हैं और लचीले गद्दे के प्रभाव को बनाये रखने के लिए ही उसके सिरे बने हैं।
उनका आकार चैड़ा और ढालनुमा है। यह बाहरी उपकरणों का एक महत्त्वपूर्ण भाग है। इसकी लचक और भराव इसे प्रशंसनीय ढंग से स्पर्श के अनुकूल ढालते हैं। यह एक अद्भुद् सत्य है कि हम जीभ से नाड़ी नहीं देख सकते, लेकिन उंगलियों से देख सकते हैं। गहराई से निरीक्षण करने पर हमें मालूम होता है, उंगलियों के सिरों में उन्हें स्पर्श के अनुकूल ढालने
के लिए उनका विशेष प्रावधान है। जहां भी अनुभूति की आवश्यकता अधिक स्पष्ट होती है, वहीं हमें त्वचा की छोटी-छोटी घुमावदार मेड़ें-सी महसूस होती हैं। इन मेड़ों की इस अनुकूलता में आन्तरिक सतह पर दबी हुई प्रणालिकाएं होती हैं जो पौपिला कहलाने वाली त्वचा की कोमल और मांसल प्रक्रियाओं को टिकाव और स्थापन प्रदान करती हैं। जिनमें स्नायुओं
के अन्तिम सिरों का आवास होता है। इस प्रकार स्नायु पर्याप्त सुरक्षित होते हैं और साथ ही साथ इतने स्पष्ट भी दिखाई देते हैं कि लचीली त्वचा द्वारा उन्हें सम्पेषित प्रभावों को ग्रहण कर सकें और इस प्रकार स्पर्श अनुभूति को जन्म दे सकें।

शनि व्रत की विधि विधान

शनिवार का व्रत शनिदेव की पूजा अथवा आराधना नहीं, परंतु इस दिशा में पहला कदम अवश्य है । शनिदेव के आराधकों और उपासकों को यह व्रत अवश्य करना चाहिए । वैसे शनि ग्रह दशा से पीडित व्यक्ति यह व्रत रखते ही हैं । इस बारे में शास्त्रों का कथन है कि शनि ग्रह की शांति तथा सुखों की इच्छा रखने वाले स्त्री-पुरुषों को शनिवार का वत करना चाहिए ।
विधिपूर्वक शनिवार का व्रत करने से शनिजनित संपूर्ण दोष तथा रोणा-शोक नष्ट हो जाते हैं । धन का लाभ होता है । स्वास्थ्य, सूख तथा बुद्धि की बृद्धि होती है । विश्व के समस्त उधोग, व्यवसाय, कल-कारखाने, धातु उद्योग, लौह वस्तुएं, समस्त तेल, काले रंग की सभी वस्तुएं काले जीव, जानवर, अकाल, पुलिस भय, कारागार, रोग भय, गुर्दे का रोग, जुआ, सट्टा, लाटरी, चोर भय तथा क्रूर कार्यों के स्वामी शनिदेव हैं । अत: जन्मराशि के आधार पर शनि की साढेसाती से पीड़ित होने पर शनिवार का व्रत कष्ठों में काफी कमी कर देता है ।
शनिदेव आडंबर से दूर रहने वाले, मस्त और औघड़देव हैं । यहीं कारण है कि वे धर्मं, जाति, उम तथा ऊंच-नीच आदि किसी भी बंधन को नहीं मानते ।प्रत्येक स्त्री-पुरुष तथा बालक-वृद्ध इस व्रत को कर सकता है । इसे किसी भी शनिवार से प्रारंभ किया जा सकता है । वैसे श्रावण मास के पहले अथवा तीसरे शनिवार से यह व्रत प्रारंभ करना विशेष लाभप्रद रहता है ।
व्रतधारकों को चाहिए कि वे प्रात:काल नदी या तालाब में अथवा कुएं पर स्नान करके ऋषि-पितृ तर्पणा करने के बाद एक कलश में जल भरकर ले आएं ।
शमी अथवा पीपल के पेड़ के नीचे जड़ के पास उस कलश को रखकर एक वेदी बनाएं और वेदी पर काले रंग से रंगे हुए चावलों द्वारा चौबीस दल का कमल बनाएं । फिर लोहे अथवा टिन की चादर काटकर बनाई गई शनिदेव की प्रतिमा को स्नान कराकर चावलों से बनाए हुए चौबीस दल के कमल पर स्थापित करे । काले रंग के गंध, पुष्प, अष्टांग, धूप, फूल तथा उत्तम प्रकार के नैवेद्य आदि से पूजन की । फिर शनिदेव के इन नामों का श्रद्धापूर्वक उच्चारण करें-कोणास्थ,पिंगलो बभ्रु,कृष्ण रौद्रोतको, यम, सौरि, मंद, शनैश्चर एवं पिप्पला ।शमी अथवा पीपल के वृक्ष में सूत के सात धागे लपेटकर सात परिक्रमा करके वृक्ष का पूजन करें। शनि पूजन सूर्योदय से पूर्व तारों की छांव में करना चाहिए । शनिवार व्रत-कथा को भक्ति और प्रेमपूर्वक सुने । कथा कहने वाले को दक्षिणा दें । तिल, जौ, उड़द, गुड़, लोहा, सरसों का तेल तथा नीले वस्त्र का दान कों । आरती केरे और प्रार्थना करके प्रसाद बांटें ।
पहले शनिवार को उड़द का भात और दही, दूसरे शनिवार को खीर, तीसरे शनिवार को खजला तथा चौथे शनिवार को घी एवं पूरियों का भोग लगाएं । इस प्रकार तेंतीस शनिवार तक इस व्रत को करें। अंतिम शनिवार को व्रत का उद्यापन की । तेंतीस ब्राह्मणों को भोजन एवं दक्षिणा से संतुष्ट करके व्रत का विसर्जन कों । इस प्रकार व्रत करने से शनिदेव प्रसन्न होते हैं । सर्वप्रकार के कष्ट एबं अरिष्ट आहि व्याधियों का नाश होता है । अनेक प्रकार के सुख, साधन, धन, पुत्र एवं पौत्रादि की प्राप्ति तथा मनोकामना की पूर्ति होती है ।
राहु और केतु के कष्ट निवारण हेतु भी शनिवार के व्रत का विधान है । ऐसे में शनि की लोहे की तथा राहु व केतु की सीसे की मूर्ति बनवाएँ । कृष्या वर्ण वस्त्र, दो भुजदंड और अक्षमता धारी, काले रंग के आठ घोड़े वाले शीशे के रथ में बैठे शनिदेव का ध्यान करें। कराल बदन, खडग, चर्म और शूल से युक्त नीले सिंहासन पर विराजमान वरप्रद राहु का ध्यान करें । धूम्रवर्ण, भुजदंडों, गदादि आयुध एवं गुध्रासन पर विराजमान, विकटासन और वरप्रद केतु का ध्यान करें। इन्हीं स्वरूपों में मूर्तियों का निर्माण कराएं अथवा गोलाकार मूर्ति बनाएं । काने रंग के चावलों से चौबीस दल का कमल निर्माण कों । कमल के मध्य में शनि, दक्षिण भाग में राहु और वाम भाग में केतु को स्थापना कों । रक्त चंदन में केशर मिलाकर गंध, चावल में काजल मिलाकर काले चावल; काकमाची, कागलहर के काले पुष्प, कस्तूरी आदि से "कृष्ण धूप' और तिल आदि के संयोग से कृष्णा नैवेद्य (भोग) अर्पण करें। फिर शनैश्चर नमस्तुभ्यं नमस्तेतवथ राहुवे केतवेऽथ नमस्तुभ्यं सर्वशांति प्रदो भव मंत्र से उनकी प्रार्थना करें ।
सात शनिवार तक यह व्रत करें । शनि हेतु शनि मंत्र से शनि की समिधा में, राहु हेतु राहु मंत्र से पूर्वा की समिधा में तथा केतु हेतु केतु मंत्र से कुशा की समिधा में कृष्णा जी और काले तिल मिश्रित हवन सामग्री से प्रत्येक के लिए 108 आहुतियां दे । इसके पश्चात ब्राह्मणों को भोजन कराएं । इस प्रकार शनिवार के व्रत के प्रभाव से शनि, राहु एवं केतु जनित सभी प्रकार के अरिष्ट, कष्ट तथा व्याधियों का सर्वथा नाश को जाता है ।

मंगल सप्तम, अष्टम या नवम भाव में हो तो...

मंगल सप्तम भाव में स्थित हो तो...
- अपने चांदी की कोई वस्तु अवश्य रखें।
- बहन एवं बुआ को कपड़े उपहार में दें।
- शनि का उपाय करें।
- हनुमानजी का विशेष पूजन अर्चन करें।
- अधार्मिक कार्यों से दूर रहें।

मंगल अष्टम भाव में स्थित हो तो...
- तीन धातुओं की अंगूठी पहनें।
- एक तरफ से सिकी हुई रोटियां कुत्ते को खिलाएं।
- चांदी की चेन पहनें।
- बहते पानी में बताशे और रेवडिय़ां बहाएं।

मंगल नवम भाव में स्थित हो तो...
- मंगलवार के दिन हनुमानजी को सिंदूर और तेल चढ़ाएं।
- मूंगा धारण करें।
- लाल रंग का कोई वस्त्र सदैव अपने पास रखें।
- बड़े भाई का अनादर ना करें।
- चावल, दूध, गुड़ और धन का दान करें।

मंगल दशम, एकादश या द्वादश भाव में हो तो...

मंगल दशम भाव में स्थित हो तो...
- हनुमान जी की विशेष पूजा-अर्चना करें।
- भोजन में कुछ ना कुछ मीठा अवश्य खाएं।
- सोना कभी ना बेचे।
- शनि की पूजा कराएं।
- मंगलवार को मंगल की पूजा कराएं।

मंगल एकादश भाव में स्थित हो तो...
- सफेद-काला रंग का कुत्ता पालें।
- हनुमानजी को सिंदूर चढ़ाएं।
- किसी मिट्टी के बर्तन में सिंदूर भरे और घर में रखें।
- घर में शहर अवश्य रखें।
- मंगलवार को मंगल की पूजा करें।

मंगल द्वादश भाव में स्थित हो तो...
- मित्रों को मिठा खिलाएं।
- हनुमानजी की पूजा करें।
- घर में कभी भी कोई हथियार ना रखें।
- सुबह शहद का सेवन करें।
- 12 दिनों तक निरंतर नदी में गुड़ बहाएं।

मंगल चतुर्थ, पंचम या षष्ठम भाव में हो तो..

मंगल चतुर्थ भाव में स्थित हो तो...
- सोना, चांदी, तांबा तीनों मिलाकर अंगूठी पहनें।
- विधवा स्त्रियों को धन का दान करें।
- बहते पानी में रेवडिय़ां बहाएं।
- चावल को दूध में धोएं और 7 मंगलवार तक नहीं में बहाएं।
- अपनी माता की सेवा करें। साधु-संतों तथा बंदरों को खाना खिलाएं।
मंगल पंचम भाव में स्थित हो तो...
- रात को सोते समय सिर के पास पानी का बर्तन भरकर रखें और सुबह पेड़-पौधों में वह पानी डाल दें।
- अधार्मिक कार्यों से बचें।
- दूध तथा दूध से बनें खाद्य पदार्थ दान करें।
मंगल षष्ठम भाव में स्थित हो तो...
- बच्चों को सोना नहीं पहनाएं।
- शनिदेव की विशेष पूजा अर्चना करें।
- हनुमानजी को सिंदूर-तेल चढ़ाएं।
- कन्याओं को दूध, चांदी का दान दें।
- अमावस्या को धर्म स्थान में खीर व मीठा भोजन दान करें।

आद्रा नक्षत्र और ज्ञानि

यदि शनि आद्रा नक्षत्र के पहले चरण में हो तो जातक दीन-हीन तथा कर्ज में डूबा रहता है । वह स्वभाव से कठोर, परिश्रमी, चोर और तस्कर होता है । ऐसा जातक धन के लिए कुछ भी कर सकता है।
दूसरे चरण में शनि की उपस्थिति से जातक दूसरों की संपत्ति हड़पने वाला होता है । पिता-पक्ष से उसे कोई लाभ नहीं मिलता । वह धार्मिकता का दोंग करता है और दूसरों को मूर्ख बनाकर धन इकटठा करता है।
यदि तीसरे चरण में शनि हो तो जातक पत्नी पर आश्रित रहता है । परेशानी और कठिनाइयों से घिरा रहता है । पत्नी अथवा परिवार से उसके संबंध कटु होते हैं । वह किसी असामाजिक संगठन का मुखिया, चीर या बदमाश होता है ।
यदि शनि चौथे चरण में हो तो जातक अपने श्वसुर की दौलत पर गुल्छर्रे उड़ने वाला होता है । वह व्यसनी, मदिरासेवी, कोर्ट-कचहरी में दंडित होने वाला और धन तथा सुख से हीन होता है । ऐसे जातक को पत्नी कुलटा और परपुरुष से शारीरिक संबंध स्थापित करने वाली होती है।

मृगशिरा नक्षत्र और शनि

यदि शनि मृगशिरा नक्षत्र के पहले चरण में हो तो जातक लंबा, सिकुड़े कंधों वाला तथा घुंगराले बालों से युक्त काले रंग का होता है । उसकी पत्नी कुलटा होती है| उसका स्वास्थ्य अंतिम समय तक खराब ही रहता है । ऐसे जातक को धन का आभाव सदैव सालता रहता है ।
यदि शनि दुसरे चरण में हो तो जातक बहुत खर्चीला एवं बुरी संगत में रहकर धन को बर्बाद करने वाता होता है । वह अपना काम खुद बिगाड़ता है, अत: सफलता उससे कोसों दूर रहती है। उसका अंतिम समय धनाभाव में बीतता है ।
यदि तीसरे चरण में शनि हो तो जातक सरकारी सुरक्षाकर्मी होता है । उसकी केवल एक संतान होती है । वह जीवन भर उतार-चढाव करता रहता है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक को विकलांगता का शिकार होना पड़ता है । यह गुप्त रूप से पाप कर्म करने वाला तथा श्वास रोगी होता है ।