Saturday, 10 October 2015

ह्रदय-रेखा की गहराई और रंग

यदि हृदय-रेखा एक डंडे की भाँति सारी हथेली पर आर-पार हो व शीर्ष-रेखा भी ऐसी ही हो, तथा दोनों रेखा गहरी और लाल हों एवं मंगल-क्षेत्र बहुत उन्नत हो तो ऐसा व्यक्ति हिंसक होता है और दूसरे के प्राण भी ले सकता है ।यदि ह्रदय-रेखा पीलापन लिए हुए और चौड़ी हो, और प्रभाव-रेखा शुक-क्षेत्र से आकर बुध-क्षेत्र या मंज्जाल के प्रथम क्षेत्र पर रुके तो विषय-वासना अधिक होती है । यदि शुक्र मेखला कीदो रेखा हो, या टूटी हो तो अत्यधिक इर्षा के कारण ऐसे व्यक्ति में हिंसात्मक प्रवृत्ति भी हो सकती है ।यदि हृदय-रेखा अत्यधिक गहरी हो, शुक्र-मेखला बहुत स्पष्ट हो और चन्द्रक्षित्र विस्मृत और उन्नत हो या उस पर बारीक-बारीक बहुत-सी रेखा हों तो अत्यन्त ईष्ठर्या के कारण ऐसे जातक की विचार-शक्ति कुंठित हो जाती है और वह ऐसे काम कर बैठताहै जिनसे विपत्ति में फँसता है । यदि हृदय-रेखा दुर्बल और अस्पष्ट हो और शीर्ष-रेखा भी दुर्बल तथा क्षीणा हो तो ऐसा जातक विस्वास करने योग्य नहीं । वैवाहिक जीवन में भी उचित रास्ते से डिगा जाता है । यदि हृदय-रेखा श्रृंखलाकार हो या अस्पष्ट हो और शीर्ष-रेखा भी ऐसे ही हो, शुक-क्षेत्र उन्नत और विस्मृत हो या उस पर आड़ी काटने वाली बहुत-सी रेखा हो तो ऐसे पुरुष सदैव अन्य स्त्रियों से सम्बन्ध करने के इच्छुक रहते है या उनके अनेकों सम्बन्ध हो चुके होते है । स्त्रियों के सम्बन्ध में भी यहीं समझना चाहिये ।
भाग्य-रेखा ह्रदय-रेखा को जहाँ काटे, हृदय-रेखा का वह भाग यदि श्रृंखलाकार हो तो समझना चाहिए कि ह्रद्रोग अथवा दुखान्त प्रेमाधिक्य के कारण जातक के भाग्योदय तथा वृति में विघ्न पड गया ।
हृदय-रेखा के उद्गम-स्यान तथा प्रारम्भ में निकली हुई शाखा
भारतीय मतानुसार तो यह रेखा कनिष्ठिका के मूल से (छोटी ऊँगली के नीचे बुध-क्षेत्र के बायी बगल से) निकलकर तर्जनी-मूल (गुरु-क्षेत्र) की ओर जाती है । किन्तु पाश्चात्य मतानुसार बिलकुल उलटा, कनिष्ठिका मूल में इसका अन्त और दाहिनी ओर (गुरु-क्षेत्र किंवा शनि-क्षेत्र पर) इसका प्रारम्भ माना जाता है ।
(१) पाश्चात्य मतानुसार यदि तर्जनी के तृतीय पर्व से (पोरवे के अन्दर से) यह प्रारम्भ हो तो जीवन में सफलता नहीं मिलती । जब हथेली की रेखायें उंगली के अन्दर से प्रारम्भ हो या ऊँगली के अन्दर पहुँच जावें तो गुण नहीं प्रत्युत अवगुण समझना चाहिए । इसका कारण यह है कि जिस ग्रह-क्षेत्र के ऊपर उगली है उस ग्रह का प्रभाव, रेखा पर इतना अधिक हो जाता है कि वह 'अति' मात्रा अवगुण हो जाती है । 'अति सर्वत्र वर्जयेत्' सीमा से बाहर कोई वस्तु अच्छी नहीं होती । यदि उँगलियाँ अति लम्बी हों तो भी अच्छा नहीं, ग्रह-क्षेत्र अति उन्नत हो तो उनका अनिष्ट प्रभाव होता है । अति सौन्दर्य-प्रिय में अति कामुकता आ जाती है । अति धार्मिक सांसारिक जीविका-उपार्जन के साधनों में चतुर नहीं होते । इसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिए ।
(२) यदि बृहस्पति के क्षेत्र के अन्दर-ऊपर की और से हृदय-रेखा प्रारम्भ हो और प्रारम्भ में कोई शाखा न हो तो ऐसे व्यक्ति आदर्श-प्रेमी होते है । उनमें कामुकताजन्य वासना की प्रधानता नहीं होती । (यह लक्षण है, अन्य लक्षणों से यह देख लेना चाहिए कि सम्पूर्ण प्रकृति किस प्रकार की होगी । ) इस प्रकार की हृदय-रेखा वालों के प्रेम में आदर्शवादिता अधिक होती है ।
(३) किन्तु यदि यहीं रेखा बृहस्पति-क्षेत्र के मध्य से प्रारम्भ हो और आरम्भ में एक ही शाखा हो तो भी गभीर और दृढ़ प्रेम-प्रकृति का जातक होता है । ऐसे व्यक्ति में प्रेमाधिक्य और आदर्शवाद दोनो समान रूप से रहते है ।
(४) यदि हृदय-रेखा बृहस्पति के क्षेत्र को अर्धवृत्त की तरह आधी ओर से घेर ले तो ऐसे व्यक्ति में प्रेमाधिक्य के कारण इर्षा की मात्रा तीव्र होगी । बहुत से पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि ऐसी ह्रदय-रेखा यह प्रकट करती है कि जातक दार्शनिक और गुप्त विद्याओं का विशेष प्रेमी है
(५) यदि हृदय-रेखा गुरु क्षेत्र और शनि-क्षेत्र के बीच के भाग से प्रारम्भ हो तो यह भी स्थिर प्रेम प्रकट करती है । ऐसे व्यक्ति न तो प्रेम के तूफान में बहते है न किसी किनारे ही बैठे रहते है । उनके प्रेम में विशेष उल्लास और तन्मयता नही होती, न निराशा और विरह उन्हें अधिक पीडित करते है ।
(६) यदि यही रेखा तर्जनी और मध्यमा के बीच के भाग से प्रारम्भ हो तो ऐसा जातक आजीवन कठिन परिश्रम करने वाला होता है । कठिनाइयों का सामना करने में ही उसका जीवन जाता है । प्रेम की भावना हृदय में दबी रहती है ।

हृदय-रेखा की बनावट

(१) यदि हृदय-रेखा श्रीन्ख्लाकर हो तो समझिये हृदय अपना काय अच्छी तरह नहीं कर रहा है । अनुचित प्रेम-सम्बंध की प्रवृति रहती है ।
(२) यदि यह रेखा पीली, चौडी तथा श्रीन्खलाकार हो तो ऐसा व्यक्ति दुष्टतापूर्वक भी अपनी अभिलाषा-पूमि में नहीं हिचकता । सुन्दर हृदय-रेखा पारस्परिक आकर्षण द्वारा प्रेम उत्पन्न करती है । परन्तु- इस प्रकार की दोषयुक्त हृदय-रेखा नीच वृति प्रकट करती हैं ।
(३) यदि हृदय-रेखा श्रृंखलाकार हो और बीच में शनि-क्षेत्र की ओर झुकी हुई हो तो ऐसे पुरुषों को स्त्रियों की, तथा स्त्रियों को पुरुषों की कोई परवाह नही रहती । यदि हाथ के अन्य लक्षण अच्छे हों तो यह प्रकट करते है कि एकान्तवास की भावना प्रबल होने के कारण ऐसे व्यक्ति सामाजिक सुख की ओर प्रवृत्त नहीं होते । किन्तु हाथ के अन्य लक्षण अच्छे न हों तो इस प्रकार की रेखा वाले अप्राकृतिक अवगुणों की ओर सुंप्तते है यह संकेत समझना चाहिये ।
(४) यदि यह रेखा सुन्दर, लम्बी और अपने उचित स्थान पर हो और अँगूठे का पहला पर्व मज़बूत हो तो अपनी ही पत्नी, या अपने ही पति तक प्रेम सीमित रहता है । किन्तु यदि अंगूठे का प्रथम पर्व मज़बूत न हो तो ऐसा नहीं होता । अपने हृदय पर संयम नहीं रहता ।
(५) यदि हृदय-रेखा और शीर्ष-रेखा दोनों अच्छी हो और जीवन-रेखा जहाँ समाप्त होती है उस पर त्रिकोण चिह्न हो तो ऐसा जातक चतुर तथा व्यवहार-कुशल होता है ।
(६) किन्तु ऊपर निर्दिष्ट स्थान पर त्रिकोण तो हो किन्तु हृदय-रेखा तथा शीर्ष-रेखा खराब हों (लहरदार-कहीं गहरी, कहीं हलकी अदि दोषयुक्त) तो ऐसे व्यक्तियों की वाणी में कटुता और दूसरों की निन्दा करने की प्रवृत्ति होती है ।
(७) यदि हृदय-रेखा अच्छी और बलिष्ठ हो और चन्द्र तथा शुक के क्षेत्र विशेष रूप से विस्मृत और उन्नत हो तो नवीन-नवीन स्नेह-सम्बन्ध स्थापित करने की आकांक्षा और प्रेमालुता ।
(८) यदि हृदय-रेखा बहुत बडी हो, शुक्र-मेखला का चिह्न स्पष्ट हो और चंद्र-क्षेत्र उच्च हो या उस पर बहुत सी बारीक-बारीक रेखा हो तो जातक में अत्यधिक ईष्ठर्यालुता होती है ।
(९) यदि हृदय-रेखा तथा शीर्ष-रेखा अच्छी न हों और उनके बीच का स्थान सकड़ा हो, उगलियाँ चिकनी हो (अर्थात्गां उन्नत न हों) और ग्रेगुष्ठ का प्रथम पर्व छोटा हो तो ऐसे व्यक्ति के चित्त में मुस्तकिल-मिजाजी (एक विचार पर दृढ़ रहना) नहीं होती है और वह संकल्प-विकल्प किया करता है ।
(१०) यदि हृदय-रेखा खराब हो और शीर्ष-रेखा जीवन-रेखा के प्रारम्भ के भाग से न निकलकर ऊपर बृहस्पति के क्षेत्र से प्रारम्भ हुई हो तो अपनी अपेक्षा अत्यधिक उच्चकुल में विवाह की महत्वाकांक्षा रखने के कारण जातक को दुख और निराशा प्राप्त होती है ।

ह्रदय रेखा की स्थिति और दिशा

यदि हृदय-रेखा बृहस्पति या शनि-क्षेत्र के नीचे से प्रारम्भ हो, सीधी या कुछ गोलाई लिये हो और हथेली के अन्त तक जाये तो यह स्वाभाविक स्थिति समझनी चाहिये । यदि बृहस्पति क्षेत्र के अन्दर से प्रारम्भ हो तो भी सामान्यत: अच्छी है । परन्तु यदि इसकी स्थिति अपने सामान्य स्थान से निचे हो तो ऐसा व्यक्ति बहुत प्रेम करने वाला नहीं होता, उसके हृदय में संयम तथा कठोरता होती है और स्वार्थपरता भी । यदि मनुष्य का हाथ अच्छा है (अर्थात् हाथ की माँसलता, वर्ण, आकार, उगलियों का गठन आधि) तो इस प्रकार की हृदय-रेखा वाले मनुष्यों के हृदय में प्रेम तो होगा परन्तु अपने संयम के कारण वे इसका प्रदर्शन नहीं करगे । इसके विपरीत यदि एक निकृष्ट कोटि के हाथ में (जिसकी हथेली, उगलियों तथा अन्य चिह्नों से गुण की अपेक्षा अवगुण अधिक प्रतीत होते है) हृदय-रेखा अपने सामान्य स्थान से अधिक नीची हो तो ऐसा व्यक्ति कठोर प्रकृति का, लालची तथा धोखा देने की प्रवृति वाला होगा । यदि हृदय-रेखा बहुत ऊँची हो अर्थात् उगलियाँ जहाँ हथेली से प्रारम्भ होती है उस स्थान के बहुत समीप हो तो ऐसे व्यक्ति बहुत उग्र रूप से प्रेम करने वाले होते है ।
उनके प्रेम में तीव्रता विशेष होने के कारण उनमें डाह या इर्षा की मात्रा भी साधारण से अधिक होती है । ऐसी हृदय-रेखा करीब-करीब वहीं प्रभाव उत्पन्न करती है जो शुक्र-मेखला में होते है |यदि ह्रदय-रेखा कुछ गोलाई लिये एक ओर से दूसरी ओर पूरी हथेली पर हो तो ऐसा व्यक्ति अत्यधिक प्रेम करने वाला होता है और अपने इस स्वभाव के कारण कष्ट भी उठाता है । यदि ऐसी हृदय-रेखा के साथ-साथ चन्द्र-क्षेत्र भी उच्च हो तो कल्पना का आधिक्य होने से स्वभाव में अत्यधिक इर्षा आ जाती है । किन्तु हथेली पर आर-पार, पूरी र्चाड़ाई पर होती हुई भी, यदि हृदय-रेखा कुछ भी गोलाई लिये हुए न हो और बिलकुल सीधी हो और हाथ में मृदुता या माँसलता न हो तो ऐसा व्यक्ति कठोर प्रकृति का होता है अर्थात् उसका स्वभाव स्नेहशील नहीं होता । यदि हृदय-रेखा शीर्ष-रेखा की ओर सहसा झुकी हुई हो ओर शनि-क्षेत्र या सूर्य-क्षेत्र के नीचे अधिक झुकाव हो जिस कारण हृदय-रेखा तथा शोर्ष-रेखा से सीमित क्षेत्र बहुत संकुचित हो गया हो तो प्रकृति में क्षुद्रता होगी । यदि उगलियों की संधि (गांठे) पुष्ट न हो और उनका अग्र भाग भी चतुष्कोण हो तो स्वभाव में और भी क्षुद्रता होगी । ऐसे व्यक्तियों की दृष्टि में 'आदर्श' का कोई मूल्य नहीं, स्वार्थपरता ही सब कुछ है और इसी भावना से वे कार्य करते है । परंतु यदि हृदय-रेखा का झुकाव किसी एक स्थान पर विशेष न हो प्रत्युत क्रमश: हृदय-रेखा शीर्ष-रेखा की ओर झुकती जा रहीं हो और इस कारण दोनों रेखाओं से सीमित स्थान संकुचित हो गया हो और चन्द्र-क्षेत्र भी विस्मृत और उच्च हो तो उसके स्वभाव में 'दोरंगी' बात होगी अर्थात् मन में कुछ और बाहर और । साथ ही मिथ्या भाषण विशेष मात्रा में पाया जावेगा| यदि हृदय-रेखा के उपर्युक्त झुकाव के साथ-साथ शीर्ष-रेखा का प्रारम्भ जीवन-रेखा से होता हो तो ऐसे व्यक्ति के स्वभाव में और व्यवहार में मृदुता का अभाव और ऊपरीपन होता है ।यदि हृदय-रेखा के उपर्युक्त झुकाव के साथ-साथ, यकृत-रेखा लहरदार और निकृष्ट कोटि की हो तो दमा आदि रोग होगे ।

अंगूठे का महत्व

अँगूठे से आत्मबल और साहस भी प्रकट होता है । बच्चे अपराध व भय की अवस्था में प्राय: येंगूठों को मुट्ठी में छिपा लेते है । जिनके अँगूठे मुट्ठी के अन्दर रहे उनमें आत्मबल और आत्मविश्वास की कमी समझनी चाहिए । पैदा होने के बाद जो बच्चे अँगूठे को उगलियों के नीचे दबाये रहते है वे प्राय: कमजोर होते है । यदि कोई पागलखाने का निरीक्षण करे तो उसकी दृष्टि फौरन इस ओर जाएगी कि जो लोग जन्म से ही पागल, अर्ध-विक्षिप्त या भोले होते है उनके अंगूठे बहुत छोटे और कमजोर होते है । अंगूठा चैतन्य-शक्ति का एक प्रधान केन्द्र है । यदि कोई अधिक बीमार हो और अंगूठा ढीला होकर हथेली पर गिर पते तो समझना चाहिये कि अंतिम समय आ पहुँचा । यदि अंगूठे में कुछ जान हो तो कुछ बचने की आशा रहती है । मनुष्य के अंगूठे का महत्व इसलिये अधिक है कि वह सब प्राणियों में विशेष उन्नत और बुद्धिमान है । इस कारण मनुष्य का अँगूठा लम्बा होता है । अँगूठा जितना ऊँचा और पुष्ट हो उतना ही अच्छा । चिंपाजी का शरीर बहुत-कुछ मनुष्य के शरीर से मिलता है किन्तु उसका अँगूठा तर्जनी उगली की जड़ तक भी नहीं पहुँचता । इससे यह नतीजा निकलता है कि जितनी ही ऊँची अंगूठे की जड होगी और अँगूठा जितना बडा होगा उतनी ही बुद्धि और शक्ति की प्रबलता होगी । इसके विपरीत यदि अँगूठा छोटा हो या हथेली में बहुत नीचा हो तो मनुष्य में आत्मशक्ति और बुद्धि दोनोंकम मात्रा में पाई जाएँगी । जिस व्यक्तियों के अँगूठे लम्बे और सुन्दर हों वे बुद्धिमान तथा सभ्य व्यवहार वाले होंगे । ऐसे अंगूठे परिष्ठकृत मस्तिष्क वालों के होते है, किन्तु यदि अँगूठा आगे से मोटा, गोल, छोटा और हाथ के अधिक नीचे हो तो मनुष्य जानवर की तरह उधंड, असभ्य और मूर्ख होता है। किन्तु किसी मनुष्य की हस्तपरीक्षा करने का अवसर प्राप्त न हो और किसी बडे आदमी से, अपने कार्य के लिये मिलने जाना हो तो उसके हाथ के अँगूठे को दूर से ही देखकर उस मनुष्य की प्रकृति और स्वभाव का आप कुछ-कुछ पता लगा सकतेहै । जिससे हमें कुछ कार्य लेना है, उसकी प्रकृति का कुछ पता लगा लेने से उसकी रुचि के अनुकूल बातचीत करके उससे आसानी से अपना कार्य निकाला जा सकता है-यदि किसी मनुष्य के अंगूठे का नखवाला पर्व बहुत लम्बा हो तो समझिये की वह मनुष्य तानाशाही प्रकृति का है, वह सब पर अपना रोब और प्रभाव जमाना चाहता है । यदि ऐसे मनुष्य की खुशामद की जाये तो तुरन्त प्रसन्न हो जाता है और प्रार्थी के मनोनुकूल कार्य कर देता है । और दूसरे व्यक्ति का पीला, निस्तेज और छोटा तथा दबा हुआ हो तो भी फलादेश पृथक-पृथक होगा ।

मणिबन्ध से जाने वाली रेखायें और चिह्न

यदि मणिबन्ध से कोई रेखा निकलकर शुक्रक्षेत्र पर होती हुई बृहस्पति के क्षेत्र पर जावे तो किसी लम्बी यात्रा द्वारा सफलता प्राप्त होती है । यदि मणिबन्ध से निकलकर दो रेखा शनिक्षेत्र को जावे और यदि ये दोनों रेखा एक-दूसरे को काटे तो दुर्भाग्य प्रकट करती है । संभवत: जातक दूर देश को जाकर वापस नहीं आएगा ।
यदि मणिबंध से निकलकर कोई रेखा सूर्य के क्षेत्र पर जावे तो यात्रा के फलस्वरूप विशिष्ट व्यक्तियों के सम्पर्क में आने से मनुष्य को प्रतिष्ठा प्राप्त होती है । यदि सूर्यक्षेत्र की बजाय यह रेखा बुधक्षेत्र पर आये तो अकस्मात् धन-प्राप्ति होती है । ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य-रेखा के पास ही यह दिखाई देगी ।मणिबन्ध से निकलकर यदि रेखा चन्द्रक्षेत्र पर आवे तो जल-
यात्रा अर्थात् समुद्र-पार देशों को मनुष्य जाता है । जितनी रेखा हों उतनी ही यस्कायें समझनी चाहिये । लम्बी रेखा हो तो लम्बी यात्रा, छोटी हो तो छोटी । किन्तु यदि दो रेखा बिलकुल समानान्तर रूप से चन्द्रक्षेत्र पर आवे तो लाभयुक्त होने के साथ-साथ यात्रा में भय
भी रहता है । यदि मणिबन्ध की तीनो रेखा एक के ऊपर एक-एक ही स्थान पर खंडित हो तो असत्य-भाषण तथा वृथा अभिमान के कारण कष्ट पाता है । यदि मणिबंध से कोई रेखा निकलकर जीवन-रेखा पर आकर समाप्त हो जाए तो यह प्रकट करता है कि किसी यात्रा में ही जातक की मृत्यु होगी । यदि मणिबन्ध से अस्पष्ट, लहरदार रेखा निकलकर स्वास्थ्य-रेखा को काटे तो जातक आजीवन मन्दभागी रहता है ।
मणिबन्ध पर चिह्न
(१) यदि मणिबन्ध की रेखा सुन्दर हों और प्रथम रेखा के मध्य में 'काँस' का चिह्न हो तो जीवन के प्रथम भाग में कठिनाइयों का सामना करना पडेगा किन्तु बाद का जीवन सुख और शान्ति से व्यतीत होगा ।
(२) यदि मणिबन्ध से प्रारम्भ होकर कोई रेखा बृहस्पति के क्षेत्र पर जाए और मणिबन्ध की प्रथम रेखा पर क्रॉस या कोण का चिह्न हो तो किसी विशेष सफल यात्रा से धन-लाभ प्रकट
करता है ।
(३) यदि मनिबन्ध की प्रथम रेखा के मध्य में कोण-चिह्न हो तो वृद्धावस्था में किसी की विरासत पाने से भाग्योदय होता है । यह त्रिकोण चिह्न हो और त्रिकोण के अन्दर 'काँस' हो तो उत्तराधिकार द्वारा धन-प्राप्ति होती है ।
प्र) यदि हाथ में अन्य लक्षण उत्तम हों और प्रथम मणिबन्ध रेखा के मध्य में 'तारे' का चिह्न हो तो विरासत से धन-प्राप्ति । यदि यहीं चिह्न ऐसे हाथ में हो जिसमें असंयम और दुराचार प्रकट होता हो तो यह व्यभिचारी प्रवृत्ति का धोतक है ।

मणिबन्ध

हाथ जहाँ से आरम्भ होता है वहाँ कलाई पर भीतर की और (हथेली की तरफ) जो रेखाएँ होती हैं उन्हें संस्कृत में मणिबन्ध कहते है । इस स्थान को सामुद्रिक शास्त्र में 'पाणिमूल' या हाथ की जड़ या प्रारम्भ भी कहा गया है । यदि कलाई का यह भाग मांसल (मसिम-जिसमें हडूडी ,दिखाई न दे), पुष्ट, अच्छी सन्धि सहित (अच्छी तरह जुड़ा हुआ अर्थात् दृढ़) हो तो जातक भाग्य-शाली होता है । यदि इसके विपरीत हो अर्थात् देखने से यह मालूम हो कि हाथ और बाहू का, जो कलाई के पास जोड़ है वह ढीला, लटकता मनिबन्ध हाथ (बिप्र नै० ८) हुआ, असुन्दर कमजोर है और हाथ को हिलाने से वहाँ कुछ आवाज होती है (हड्डी का जोड़ पुष्य न होने के कारण) तो मनुष्य निर्धन होता है और यदि अन्य अशुभ लक्षण हों तो राज-दण्ड का भागी हो या किसी दुर्घटना के कारण हाथ पर आधात लगे । 'गरुड़ पुराण' तथा "वाराही सहिता' दोनों के अनुसार मणिबन्ध की हहिडयाँ दिखाई नहीं देनी चाहिए और वह जोड़ दृढ़ होना सौभाग्य का लक्षण है ।
पाश्चात्य मत
मणिबन्ध से रेखाओं का निकलकर उगलियों की ओर जाना अच्छा माना गया है किन्तु हथेली की कोई रेखा नीचे की ओर मणिबन्ध की ओर आवे तो यह अच्छा नहीं ।
(१) यदि मणिबन्ध पर एक ही रेखा हो और टूटी न हो तो २३-२८ वर्ष तक की आयु जातक की होगी ।
(२) यदि दो रेखा हों तो आयु ४६ से ५६ तक ।
(३) यदि तीन रेखा सम्पूर्ण हों तो ६९ से ८४ वर्ष तक जातक का जीव-योग समझना चाहिये ।
यदि मणिबन्ध की रेखा अच्छी हों किन्तु जीवन-रेखा अच्छी न हो तो भाग्य अच्छऱ किन्तु स्वास्थ्य अच्छा नहीं रहेगा ।
यदि स्त्रियों के हाथ में मणिबन्ध की प्रथम रेखा हथेली की ओर बही हुई हो और उसी ओर गोलाई लिये हुए हो तो प्रसव कठिनता से होता है । यदि मणिबन्ध की तीनों रेखायें सुस्पष्ट, सुंदर और अच्छे वर्ण की हों तो जातक दीर्धायु, स्वस्थ और भाग्यशाली होता है । यदि सुस्पष्ट न हों तो जातक अपव्ययी होने के कारण धन का संग्रह नहीं कर पाता और यदि अन्य लक्षण भी आज्ञ जावें तो विषय-भोग के कारण स्वास्थ्य-हानि भी करता है ।
यदि प्रथम रेखा (हाथ की ओर से गिनना चाहिये) श्रृंखलाकार हो तो परिश्रम और चिन्तायुक्त जीवन रहता है किन्तु परिणाम में सफलता प्राप्त होती है ।







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Friday, 9 October 2015

चार्टेड अकाउंटेंट बनने के ग्रह योग

आज के युग में बड़े-बड़े उद्योगपति एवं व्यवसायी उद्योग का इतना प्रसार कर चुके होते हैं कि संपूर्ण हिसाब-किताब, नफा-नुकसान का आंकलन करना संभव नहीँ हो पाता । सरकारी टेक्स के इतने कानूनी पहलू होते हैं, जिसके कारण हर व्यक्ति को अपने आय-व्यय का सही सही हिसाब कर टेक्स भरना मुश्किल हो रहा हैं। इन्हीं सब कारणों के कारण आज़ चार्टेंड एकाउंटेन्ट की महत्ता बढती जा रही है । चार्टेट एकांउटेन्ट बनने के लिए व्यक्ति को कामर्स व गणित विषय के साथ व्यवसायिक संस्थानों में व्यवहारिक ज्ञान लेना पड़ता है ।इसकी परीक्षा पास करना कठिन भी होता है और सभी के लिए यह संभव नहीं हो पाता कि वह चार्टेट एकाउंटेन्ट पास कर किसी व्यवसायिक संस्था या स्वतंत्र व्यवसाय के रुप में दक्षता पूर्वक कार्य कर सके । चार्टेट एकांउन्टेन्ट का व्यवसाय इस भौतिक युग में अत्याधिक प्रतिष्ठा, धन व शोहरत का पर्याय बन क्या है । इस व्यवसाय की ओर आज की युवा पीड़ी अत्याधिक रुझान दिखा रही है। आखिर ग्रहयोगों का ही खेल है कि सभी लोग इस व्यवसायिक शिक्षा को नहीं पढ़ पाते और न ही इस व्यवसाय में सफ़लता अर्जित कर पाते हैं । सफल चार्टड एकाउंटेट बनने के लिए जातक की कुंडली में बुद्धिकारक बुध, ज्ञानकारक गुरू, गणित कारक मंगल,शनि एवं उत्प्रेरक शुक्र, रुचिवर्धक चंद्रमा का अच्छा होना अनिवार्य होता है । बुध की राशि मिथुन लग्न या रशि हो और बुध स्वग्रही लग्न में सूर्य के साथ बुधदित्य योग बना कर जातक को प्रखर बुद्धि का स्वामी बनाता है, जो कि इस व्यवसाय के लिए आवश्यक होता है।
कुंडली में उपरोक्त ग्रहों के अतिरिक्त लग्नेश,दशमेश,पंचमेँश,भाग्येश, लाभेश, धनेश ये सभी अत्यन्त महत्व रखते है । क्योंकि इन सब की शुभ स्थिति के कारण ही जातक को उच्चस्तर का व्यवसाय उच्चशिक्षित कर अधिक लाभ अर्जन करते हुए प्रतिष्ठा देते है । यदि कुंडली में बुध सूर्य के साथ युति कर बुध की लग्न में बुधादित्य योग बनाये, गुरू एवं धनेश चंद्र की युति धन भाव में गजकेशरी योग बनाये, भाग्येश शनि दशम में हो पंचमेश शुक्र कहीं बैठकर भाग्य भाव पर दृष्टि दे है लाभेश पंचम में होकर लाभ भाव व एकादस्थ राहु को देखे, तो ऐसा जातक बुद्धिवान, चतुर, धनवान, ख्यातिप्राप्त चार्टेड एकांउंटेन्ट बन सकता है। शनि की राशि मकर लग्न हो और यह लग्नेश शनि जनता कारक भाव चतुर्थ में होकर दशमस्थ यश कारक सूर्य-भाग्येश बुध-ज्ञान कारक गुरु-पंचमेश व दशमेश शुक्र की युति पर दष्ट करें, जनता के घर का स्वामी एवं लाभेश मंगल भाग्यभाव में हो,अचानक धन कारक राहु मूल त्रिकोंण कुंभ का धनभाव में होकर दशम पर दृष्टि को, तो ऐसा जातक ख्याति प्राप्त, उच्चस्तर का धनवान योग्य सफ़ल चार्टेट एकांउटेन्ट होता है ।बुद्धिकारक बुध सूर्य से युति कर गुरु की राशि मीन लग्न में बुघादित्य योग बनाये और उस पर लग्नेश गुरु की पंचम में बैठकर दृष्टि हो, दशम में भाग्येश मंगल हो,लाभेश शनि पंचमेश चन्द्र -राहु के साथ बैठकर पराक्रमेश शुक्र एवं गुरू से दृष्ट हो, तो ऐसा जातक एक सफल चार्टेड एकांउंटेन्ट होता है ।बुध की राशि का लग्न हो और लग्नेश बुध लाभेश मंगल के साथ दशम में गुरु की राशि मीन में हों, पंचमेश शुक्र भाग्यभाव में उच्चाभिलाषी होकर केतू के साथ हो एवं भाग्येश शनि-राहु का आपस में दृष्टि संबंध हो, दशमेश गुरू उच्चराशि का धनभाव में तथा पराक्रमेश सूर्य उच्च का लाभ भाव में हो, तो ऐसा जातक गणित-कामर्स जैसे विषय पढ़ते हुए चार्टेड एकाउंटेन्ट बनकर बड़ी संस्था में कार्य करता है ।बुध-सूर्य युति होकर बुधादित्य योग मिथुन राशि दशम में हो, चतुर्थेश गुरु पंचम शनि के साथ पंचम भाव में बैठकर लाभ स्थान पर उच्च की दृष्टि करें लाभेश चंद्र केन्द्र में गुरु की राशि में हो, पराक्रमेश वाल राहु के साथ व्यय भाव में होकर अपने ही पराक्रम भाव को देखे |

पायलट बनने के ग्रहयोग

हवाई जहाजों के माध्यम से देश-विदेश में आवागमन बढते जाने के कारण विमान चालकों एव उनकी परिचारिकाओं की भी आवश्यकता अत्यधिक होती जा रही है । इनकों मिलने वाले पैसे औंर विभन्न जगहों की सैर इनकी ग्लैमरस छवि बना रही है। टीवी पर विमान और विमान में काम करने वाले इस वर्ग के लोगों को बहुत ही लुभावना दिखाये जाने के फलस्वरुप ही आज का छोटा बच्चा भी पायलेट बन उडान भरने की जिज्ञासा पैदा किये हुए दिखता है और छोटी बालिकांए विमान में काम करने वाली एयर होस्टेस बनने का सुहाना सपना देखने लगती हैं । ज्योतिष के माध्यम से यह जाना जा सकता है कि कौन सा बच्चा या बालिका पायलेट या एयर होस्टेस बन सकता है । पायलेट या एयर होस्टेस या विमान उडान में कार्यं करने वाले लोगों की कुंडली में पराक्रम भाव, लग्न, कर्म भाव, अक्षम व व्ययभाव वायु तत्व व आकाश तत्व राशियों से संबंधित होना अनावश्यक होता है। इसके अतिरिक्त इन्हीं भादों की चर राशियां या प्रेमभाव राशियां भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं । यदि कुंडली में वायु कारक शुक्र, द्विस्वभाव कारक बुध, जल कारक चंद्रुवायु कारक राहु यांत्रिक कारक वाल व शनि आदि का संबंध लग्न, पराक्रम, अष्टम, कर्म,लाभ, व्यय, सप्तम आदि से होता हो,तब भी जातक की हवाई उड़ान से संबंधित कार्य में रुचि होती है ।यदि कर्मभाव से शुक्र के राशि हो और इस भाव पर भाग्येश, लग्नेश,लाभेश आदि का किसी भी रुप में संबंध बनता हो एवं वायु कारक राहु का चंद्रमा के साथ होकर व्यय भाव, चतुर्थ भाव से किसी भी रुप से संबंध बनता हो तथा कर्मेश शुभ त्रिकोंण में हो तब भी जातक हवाई उड़ान से संबंधित काम करता है ।यदि कुंडली की लग्न में चर राशि का राहु होकर पराक्रमेश की दृष्टि संबंध से प्रभावित करे,क्रमेश चंद्रमा से संबंध व्यय या पराक्रम भाव में करे, कर्मभाव को किसी भी रुप में लग्नेश व भाग्येश प्रभावित करें, तब भी जातक हवाई उड़ान से संबंधित कार्य में रुचि रखता है। चर राशि की लग्न में यदि कर्मेश राहु के साथ युति कर पराक्रम या व्ययभाव या अष्टमभाव में हो, वायु कारक शुक्र कर्म भाव को किसी भी सप्रे में प्रभावित करे और पराक्रपेश का संबंध पंचमेश या भाग्वेश से हो और यांत्रिक कारक संभल लग्न या कर्मभाव से संबंध करे, तब भी जातक हवाई उड़ान से संबधित कार्य कर सकता है । यदि कारक शुक्र व राहु किसी भी रुप में पराक्रम या कर्म या पंचम या लग्न या अष्टम या व्यय भाव से संबंध को और लग्नेश का संबंध भी किसी भी रुप में अष्टम या व्यय या पराक्रम या कर्म भाव से हो रहा हो, तो भी जातक हवाई उड़ान की ओर रुचि रखकर कार्य करता है । यदि राहु व्यय भाव में होकर शुक्र को प्रभावित केरे, व्ययेश कर्मभाव में हो या उसे प्रभावित करे, कर्मेश का संबंध दशम से दशम या यानी सप्तम भाव के स्वामी से हो, जल कारक चंद्रमा यांत्रिक कारक मंगल जैसे ग्रह से प्रभावित हो, तब भी जातक हवाई उड़ान में पायलेट या एयरहोस्टेस बन सकता है। यदि कुंडली में लग्नेश का संबंध राहु, चन्द्र, शुक्र जैस ग्रहों से किसी भी रुप में बनता हो, अष्टमेष कर्म भाव में हो, राहु व्ययेश से संबंध किसी भी रुप में कर प्रभावित करता हो और कर्मेश का संबध किसी भी रुप में पंचमेश या लग्नेश या व्ययेश या पराक्रनेश से होता हो, तो भी जातक हवाई उड़ान से संबंधित कार्य करता है । यदि व्ययेश का संबंध पंचमेश के साथ होता हो, भाग्येश व कर्मेश का संबंध पराक्रमेश। या अष्टमेष से होता हो और कर्मभाव राहु या शुक्र या व्ययेश जैसे ग्रह से प्रभावित हो, तो भी जातक हवाई उड़ान से संबंधित कार्य में रुचि रखता है ।

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Thursday, 8 October 2015

सिंहस्थ गुरु


कंप्यूटर का व्यवसाय और ज्योतिष्य कारक

वर्तमान समय प्रतियोगिता व स्पर्धा का समय है। इस समय में संतान को व्यवसाय के किस क्षेत्र में भेजा जाये - यह प्रश्न माता पिता के लिये बड़ा जटिल प्रश्न बनता जा रहा है। बच्चे को मेडिकल, इंजीनियरिंग, कला, कानून आदि किस विषय में पढ़ाया जाये कि वह अपने आने वाले समय में अपने व्यवसाय में मान सम्मान, धन दौलत व प्रसिद्धि पा सके। ऐसे अनेक प्रश्न माता पिता के सामने दुविधा पैदा कर देते हैं कि आखिर इन प्रश्नों का उचित व सटीक हल कैसे प्राप्त किया जाये। वर्तमान काल में व्यवसाय के क्षेत्र में परिवर्तन व क्रांति को देखकर कहा जा सकता है कि व्यवसाय चयन से संबंधित जानकारी ज्योतिष शास्त्रों में पर्याप्त नहीं है। इसलिये इस क्षेत्र में निरन्तर शोध की आवश्यकता बनी रहती है। व्यवसाय में क्षेत्रों के इतने आयाम हैं कि प्रस्तुत लेख में इन सभी की चर्चा कर पाना संभव नहीं होगा। अतः केवल कम्प्युटर क्षेत्र के व्यवसाय को ही प्रस्तुत लेख में शोध के माध्यम से पेश किया जा रहा है। किसी भी जन्म कुंडली में दशम भाव ही कर्म का भाव कहलाता है। नवम भाव भाग्य भाव है। अतः व्यवसाय चयन हेतु निम्न बिंदुओं पर प्रकाश डाला जा रहा है - 1. भाव दशम भाव (कर्म का भाव) सप्तम भाव (दशम से दशम) षष्ठ भाव (दशम से नवम यानि कर्म का भाग्य भाव) 2. ग्रह दशमेश ग्रह दशम भाव पर प्रभाव डालने वाले ग्रह सबसे बलवान ग्रह (षड्बली) 3. कारक कम्पयुटर के कारक ग्रह - शुक्र, मंगल, राहू, शनि बुद्धि व गणना का कारक ग्रह - बुध ज्ञानकारक ग्रह - गुरु 4. नवमांश व दशमांश कुंडली नियम - यदि किसी जातक की जन्मकुंडली, नवमांश व दशमांश कुंडली के ऊपर वर्णित भावों में वर्णित ग्रह व कारक ग्रह बली होकर दृष्टि या युति संबंध बनाते हैं तो जातक कम्पयुटर व्यवसाय में उल्लेखनीय सफलता प्राप्त करता है। संबंधित योग इस प्रकार से हैं - 1. जन्मकुंडली में मंगल, बुध, शुक्र या शनि, दशमेश ग्रह होने चाहियें क्योंकि मंगल कम्पयुटर प्रोग्रामिंग के बारे में बताता है। बुध बु़िद्ध व गणना का कारक है। शुक्र कूटभाषा व यंत्र का कलात्मक उपयोग सिखाता है। शनि भी यंत्र की उचित उपयोगिता दर्शाता है। 2. जन्मकुंडली का दशमेश ग्रह मंगल, बुध, शुक्र या शनि के नवांश में होना चाहिये। 3. मंगल, बुध, शुक्र, शनि व राहू (तकनीक का ग्रह) का नवांश व दशमांश कुंडली में आपस में कोई संबंध होना चाहिये। 4. मंगल, बुध, शुक्र, शनि या राहू ग्रह नवांश व दशमांश कुंडली के षष्ठ, नवम या दशम भावों से संबंधित होने चाहियें। 5. सबसे बलवान ग्रह मंगल, बुध, शुक्र, शनि या राहू होने चाहियें। 6. आत्मकारक ग्रह मंगल, बुध, शुक्र, शनि या राहू में से ही होना चाहिये।

धन योग और हस्तरेखा

इसके लिए हाथ की रेखाएं भी इशारा करती हैं। जैसे - हाथ भारी, गुदगुदा, अंगुलियां सीधी, जीवन रेखा गोल, भाग्य रेखा मोटी से पतली या इसका अंत सीधे शनि ग्रह पर हो और हाथ में सभी ग्रह उन्नत हों तो यह धनपति योग या करोड़पति व्यक्ति का हाथ कहलाता है। पर कई बार ऐसा देखा गया है ऐसा योग होने पर भी लक्ष्मी रूठ जाती है। इसके लिए दीपावली पर लक्ष्मी-गणेश का पूजन विधिवत करने से मनुष्य को इस योग (धनपति) का फल मिलने लगता है। - जीवन रेखा के साथ पूरी मंगल रेखा, भाग्य रेखाओं की संख्या एक से अधिक, अंगूठा पीछे की तरफ, गुरु ग्रह, शनि ग्रह, बुध ग्रह या अन्य ग्रहों का प्रबल होना, हाथ मुलायम होने से भी धनपति योग बनता है। इस फल में और अधिक बरकत लाने के लिए नित्य लक्ष्मी मंत्र का हवन और गायत्री मंत्र का पाठ करना चाहिये। - मस्तिष्क रेखा जितनी ही निर्दोष और सीधी होती है, व्यक्ति उतना ही स्वतंत्र मस्तिष्क का होता है तथा जीवन बिना किसी संकट के आगे बढ़ता है। ऐसे व्यक्ति धनवान होते हैं। यदि इस लक्षण के साथ शुक्र ग्रह उठा हुआ हो, तो कार्य में बाधाएं बहुत अधिक आती हैं। धनपति योग को भी पूरी तरह से सफल करने में रुकावट आती है। इसकी शांति के लिए यंत्र स्थापना विधिवत करवानी चाहिए। - भाग्य रेखा का जीवन रेखा से दूर होना बहुत ही उत्तम लक्षण माना जाता है। ये व्यक्ति सदैव कार्य करने वाले होते हैं। इनका रहन-सहन बड़े व्यक्तियों जैसा होता है और खर्चे भी इसी के अनुरूप होते हैं। यह एक धनपति योग का लक्षण माना जाता है। किंतु कई बार देखा जाता है कि भाग्य रेखा हृदय रेखा या मस्तिष्क रेखा पर रुक जाने से धनपति योग में बहुत रुकावट आती है। इस दोष को दूर करने के लिए कुबेर पूजन करवाना चाहिए जिससे व्यक्ति के धनवान बनने के बीच की रुकावटें दूर हों। - भारी हाथ होने पर रेखाएं जितनी ही पतली, सुडौल और दोषरहित होती हैं, व्यक्ति सुखी, धनवान, स्वस्थ तथा गुणसंपन्न होते हैं। इनकी गिनती गिने चुने धनिको में होती है पर जीवन भर मानसिक परेशानियों का सामना करना पड़ता है। इस दोष की मुक्ति विपासना साधना द्वारा संभव है। - मुख्य भाग्य रेखा का अंत बृहस्पति ग्रह पर बहुत देखने को मिलता है। या तो यह भाग्य रेखा जीवन रेखा से निकल कर बृहस्पति पर जाती है या भाग्य रेखा ही शाखान्वित होकर बृहस्पति पर पहुंचती है। 2 रेखाएं जीवन रेखा से निकल कर गुरु पर जाएं तो व्यक्ति भाग्यशाली होता है और 22 वर्ष की आयु से ही धनी होना शुरू हो जाता है। यदि इस रेखा पर क्राॅस बन जाए तो यह धनवान बनने के योग को कम कर देता है। इसके लिए बृहस्पति पूजन, बृहस्पति यंत्र और बृहस्पति साधना करनी आवश्यक है। - जीवन रेखा के अंत में कोई रेखा यदि चंद्र पर्वत की तरफ आती हो तो ऐसे व्यक्ति वृद्धावस्था में धनी होते हैं। इस योग का फल कुछ समय पहले भी मिल सकता है। यदि लक्ष्मी पूजन करें और 42 दिन तक लक्ष्मी मंत्र का जाप करें तो धन आयु सीमा से पहले ही आने लगता है। - हाथ में जीवन रेखा के साथ एक दूसरी समानांतर जीवन रेखा भी देखने में आती है। कई बार यह रेखा पूरी जीवन रेखा के साथ चलती है। यह दोहरी जीवन रेखा कहलाती है। दोहरी जीवन रेखा निर्दोष होने पर व्यक्ति को जीवन में सुख-शांति, धन और प्रतिष्ठा देती है। इस दशा में यदि हाथ का आकार चैड़ा, भारी और मांसल हो तो विपुल धन-संपत्ति प्राप्त होती है। व्यक्ति जीवन में असाधारण उन्नति करने वाला होता है।

स्लिप डिस्क का ज्योतिष्य कारण और उपाय

सुरक्षा कवच का डिगना मानव शरीर ईद्गवर की जटिल कारीगरी का एक अनोखा नमूना है। यह अनगिनत छोटी-छोटी कोद्गिाकाओं से बना है। यह कोद्गिाकाएं शरीर में रक्त, त्वचा, मांसपेद्गिायों, हड्डियों तथा अन्य अंगों का निर्माण करती हैं। अस्थि तंत्र शरीर का विद्गोष अंग है, जिसकी प्रत्येक हड्डी की, उसके कार्य के अनुरूप, एक विद्गिाष्ट आकृति होती है। एक मनुष्य के शरीर में 206 विभिन्न हड्डियां होती हैं। शरीर का पूरी तरह से परीक्षण करने पर मालूम होता है कि मानव शरीर में दृढ़ और कठोर हड्डियां होती हैं। अगर शरीर में हड्डियां न होतीं, तो शरीर का कोई आकार भी न होता। शरीर के पीछे के भाग में रीढ़ की हड्डी होती है, जो लगभग 33 छोटी-छोटी हड्डियों से मिल कर बनी होती है। हर एक-दो हड्डियों के बीच कार्टिलेज, अर्थात मांस की तह गद्दी की तरह स्थित होती है। यह लचीली तह रीढ़ में लचीलापन बनाए रखती है, आपस में टकराती नहीं है; अर्थात आपसी रगड़ से बची रहती हैं। गिरने पर, झटका लगने पर, चलने-फिरने, कूदने पर यही गदि्दयां, या डिस्क शरीर को सुरक्षा प्रदान करती हैं। रीढ़ की हड्डी के बीच से ही विभिन्न तंत्र नलिकाएं गुजरती हैं। अतः कार्टिलेज उन्हे भी सुरक्षित रख कर मस्तिष्क पर, या शरीर के अंगों पर कोई हानिकारक प्रभाव नहीं पड़ने देती है। रेशों से बना कार्टिलेज का बाहरी भाग कुछ सखत होता है, जबकि इसका भीतरी भाग जेली की तरह मुलायम होता है। अचानक झटका लगने, चोट लगने, या भारी वजन आदि उठाने पर रीढ़ की हड्डी के निचले भाग पर विद्गोष जोर पड़ता है, जिससे कार्टिलेज का एनूलस फाइब्रोरस फट जाता है और जेली वाला भाग फूल कर बाहर आ जाता है। इसे 'स्लिप डिस्क' कहते हैं। डिस्क के फूलने के साथ-साथ ही वहां से गुजरने वाली तंत्र नलिकाएं, जो शरीर के निचले भाग और पैरों तक मस्तिष्क के संकेत पहुंचाती हैं, प्रभावित हो जाती हैं। उनमें दर्द होने लगता है। यही दर्द साइटिका कहलाता है। अतः यह स्पष्ट है कि कार्टिलेज पर दबाव, या जोर पड़ने से 'स्लिप डिस्क' और साइटिका का दर्द हो जाता है। स्लिप डिस्क होने पर पीठ के निचले भाग पर तेज दर्द महसूस होता है। यह प्रायः एक ओर के सिरे पर होता है। कभी-कभी यह दर्द एक तरफ के पूरे पैर पर फैल जाता है। कभी यह घुटनों के नीचे और कभी सामने की तरफ जांघ में भी होने लगता है। दर्द की शुरुआत कहां से होगी, यह कौनसी स्लिप डिस्क है, इस पर निर्भर है। स्लिप डिस्क (साइटिका) होने के कारणः स्लिप डिस्क की समस्या स्त्री, या पुरुष दोनों में हो सकती है। अधिक आयु में गर्भ धारण करने पर, बच्चे के भार के कारण, एकाएक वजन उठाने पर, या मोटापा इसका कारण होते हैं। कुदरत ने हर जोड़ को मशीन की तरह बनाया है और इस मशीन पर एक निद्गिचत वजन ही पड़ना चाहिए। वजन बढ़ने से कमर की हड्डियों के बीच की डिस्क धीरे-धीरे घिस कर कमजोर हो जाती है और नीचे झुक कर उठने, झुक कर काम करने पर 'साइटिका' स्लिप डिस्क हो जाता है। स्लिप डिस्क अगर नाड़ी पर दबाव डालती है, तो उसी को साइटिका कहते हैं। आजकल प्रायः लोग व्यायाम नहीं करते, जिस कारण, उम्र के साथ-साथ, सारी चीजों एवं जोड़ों में विघटन होने लगता है। ऐसे व्यक्ति, जो लगातार सड़को पर स्कूटर, साइकिल, या मोटर से चलते हैं, सड़कों के गड्ढे़, स्पीड ब्रेकर पर झटकों को झेलते हैं, उनको सारा दबाव कमर के निचले भाग पर सहन करना पड़ता है, जिससे स्लिप डिस्क हो सकता है।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण : स्लिप डिस्क होने पर पीठ के निचले भाग पर तेज दर्द होता है, जो काल पुरुष की कुंडली में सप्तम भाव पर आता है। सप्तम भाव का कारक ग्रह शुक्र है। डिस्क जो स्लिप होता है, उसका बाहरी भाग रेशे से बना सखत और भीतर का भाग जेली, अर्थात चर्बी की तरह होता हैं, जिसका कारक ग्रह गुरु है। इसलिए जब कुंडली में लग्न, लग्नेद्गा, सप्तम भाव, सप्तमेद्गा, शुक्र, गुरु दुष्प्रभावों में रहते है, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। विभिन्न लग्नों में स्लिप डिस्क : मेष लग्न : लग्नेद्गा षष्ठ भाव में सप्तमेद्गा से युक्त हो और शनि से दृष्ट हो, चंद्र और बुध से युक्त हो कर सप्तम भाव में हो और सूर्य अष्टम भाव में हो, तो जातक को 'स्लिप डिस्क' होता है। वृष लग्न : लग्नेद्गा अष्टम भाव में, सप्तमेद्गा मंगल से युक्त हो और गुरु केतु से युक्त हो कर सप्तम भाव में हो, चंद्र लग्न में शनि से युक्त, या दृष्ट हो, तो स्लिप डिस्क होता है। मिथुन लग्न : गुरु एकादद्गा भाव में, बुध षष्ठ भाव में अस्त हो, मंगल चतुर्थ भाव में, शुक्र सप्तम भाव में केतु से युक्त, या दृष्ट हो और चंद्र अष्टम भाव में हो, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। कर्क लग्न : लग्न और लग्नेद्गा दोनों राहु-केतु से युक्त, या दृष्ट हों, बुध, शुक्र सप्तम भाव में, शनि षष्ठ, या अष्टम भाव में और गुरु शनि से युक्त, या दृष्ट हो, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। सिंह लग्न : लग्नेद्गा और सप्तमेद्गा दोनों की युति चतुर्थ, या दद्गाम भाव में हो, मंगल त्रिक भावों में हो, चंद्र शुक्र से युक्त, या दृष्ट हो, गुरु-बुध में आपसी संबंध हो, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। कन्या लग्न : मंगल लग्न में हो, गुरु चतुर्थ भाव, या अष्टम भाव में हो, सप्तम भाव में चंद्र केतु से दृष्ट हो, लग्नेद्गा और शुक्र शनि से दृष्ट, या युक्त केंद्र भावों में हों, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। तुला लग्न : लग्नेद्गा और सप्तमेद्गा दोनों की युति षष्ठ, या अष्टम भाव में हो, गुरु सप्तम भाव में सूर्य से युक्त हो और राहु-केतु से दृष्ट भी हो, चंद्र केंद्राधिपति दोष में हो कर शनि से दृष्ट हो, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। वृद्गिचक लग्न : लग्नेद्गा अष्टम भाव में सप्तमेद्गा से युक्त हो, बुध सप्तम भाव में चंद्र से युक्त हो, शुक्र और गुरु दोनों चतुर्थ, या पंचम भाव में हों और शनि से, या राहु से दृष्ट हों, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। धनु लग्न : लग्नेद्गा अष्टम भाव में शनि से दृष्ट, या युक्त हो, शुक्र सप्तम भाव में चंद्र से युक्त हो कर राहु से दृष्ट हो, सूर्य-बुध षष्ठ भाव में हों, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। मकर लग्न : गुरु सप्तम भाव में, अष्टमेद्गा लग्न में, लग्नेद्गा अष्टम भाव में केतु से युक्त हो, सप्तमेद्गा षष्ठ भाव में, शुक्र-बुध द्वादद्गा भाव में हों, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। कुंभ लग्न : गुरु शुक्र से युक्त हो कर षष्ठ, या अष्टम भाव में हो, लग्नेद्गा षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त हो, मंगल सप्तम भाव में केतु से दृष्ट हो, तो 'स्लिप डिस्क' होता है। मीन लग्न : सप्तमेद्गा और लग्नेद्गा अष्टम भाव में, शुक्र सप्तम भाव में राहु से युक्त, या दृष्ट हो, शनि लग्न में हो, मंगल चतुर्थ भाव में चंद्र से युक्त हो, तो 'स्लिप डिस्क' होता है।

मार्केटिंग सेल्स के क्षेत्र में कार्य करने के ग्रह योग

आज के उपभोक्तावादी युग में उत्पादों को जन-जन तक पहुचाने और उनके प्रचार को बढ़ावा देने आदि की होड़ भी दिख रही है । ऐसे में हर संस्था को मार्केटिंग उच्च स्तर की करनी पड़ रही है | माकेर्टिंग करने के लिए अब उच्चस्तर के व्यावसायिक शिक्षा की -आवश्यकता देखी जा रही है और इससे संबंधित शिक्षा के लोगों की ज्यादा से ज्यादा प्रलोभन देकर माकेर्टिंग क्षेत्र में कार्य करने हेतु प्रित्साहित किया जा रहा है । उपायों की नवयुवा पीड़ी भी उसी तरह की शिक्षा कर माकेर्टिंग जैसे व्यवसाय को अपनाने के लिए लालायित दिख रहा में है | समाज में भी इसका महत्व बढता जा रहा है । परन्तु हर नवयुवक इस क्षेत्र में सफलता पूर्वक कार्य नहीं कर पा रहा है, केवल कुछ युवक ही इसको अच्छे तरीके से करते हुए अपनी आजीविका का मुख्य साधन बनाये हुए है । यह सब करने के लिए जातक की कुंडली में इससे संबंधित कारक ग्रह एवं ग्रह योग का होना अति आवश्यक होता है | इस व्यवसाय के लिए बुध, बुध की राशियां, शुक्र एव उसकी राशियां, प्रेरक ¸ राहु, जनता कारक शनि एवं उत्साह कारक मंगल का अच्छी स्थिति से होना आवश्यक समझा गया है । कुंडली में व्यवसाय कारक बुध अपनी स्वराशि का होकर कर्मेश के साथ संबंध करें शुक्र स्वगृही अच्छी स्थिति में हो, लग्नेश लाभ या धन भाव से संबंध करें, जनता कारक शनि का संबंध कर्म भाव से हो एवं प्रेरित करने वाले राहु का लग्न या कर्म भाव से किसी भी प्रकार का संबंध बनता हो, तो जातक मार्केटिंग के क्षेत्र में कार्य करने की रुचि रखता है। धनेश और लाभेश की युति केन्द्र में होकर लग्न को प्रभावित को, राहु रुप से कर्म भाव को प्रभावित बरे, बुध लग्नेश से दाट हो, शुक्र धन या लाभ में हो और राहु किसी भी रुप में बुध को प्रभावित करे, तो जातक मार्केटिंग के क्षेत्र में कार्य करता है।4. यदि कुंडली से माकेंटिंक कारक बुध धनेश होकर लगन को प्रभावित करे जनता कारक शनि से भी यही बुध प्रभावित हो लग्नेश के रूप में शुक्र त्रिकोंण मेँ बली हो तथा लाभेश व घुमक्कड़ प्रवृत्तिकारी भाव 12 का स्वामी किसी भी रुप में जनता कारक शनि और कर्मभाव या लाभभाव को प्रभावित करे, तो भी जातक घूम-घूम कर मार्केटिंग के काम में सफलता अर्जित करता है । यदि किसी भी रुप में लग्न और लग्नेश का संबंध जनता कारक शनि से हो, लग्न राहु से प्रभावित हो तथा व्यापार कारक बुध मन कारक चन्द्रमा से प्रभावित हो,भाग्येश जनता कारक भाव 4 में स्थित होकर कर्मभाव को प्रभावित करे, लग्नेश लाभ भाव या धनाभाव या कर्मभाव को दृष्टि से प्रभावित करें एवं शुक्र दशमेश से संबंध करे, तो जातक मार्केटिंग क्षेत्र में सफल कार्य करता है ।

बैंकिंग क्षेत्र में काम करने के ज्योतिष्य कारक

आज के व्यवसायिक क्षेत्र की स्पर्धाओं के चलते बैंकिग क्षेत्र का महृत्व बढता ही जा रहा है । रोज नई-नई प्राइवेट संस्थाऐं भी बैंकिग क्षेत्र से पदार्पण करती जा रहीं- है । इसी कारण इस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का महत्व भी दिनो-दिन तो बढता नजर आ ही रहा है, साथ ही उनको मिल रहे आकर्षक वेतन के कारण आज का नवयुवा भी इस क्षेत्र में जाने हेतु उत्साही दिख रहा है । इस क्षेत्र में काम करने के लिए ज्योतिष्य शोध द्वारा वाणिज्य कारक बुध,ज्ञान कारक गुरु, वेभवकारक शुक्र क्या जनता कारक शनि का महत्वपूर्ण योगदान कुंडलियों में पाया गया है । इसके अतिरिक्त कुंडली में लग्न, धन भाव, पराक्रम भाव, भाग्य भाव, कर्मभाव व लाभभाव की भी भूमिका अत्यन्त महत्वपूर्ण पाई गई है । कुंडली में वाणिज्य कारक बुध, वैभव कारक शुक्र, जनता का कारक शनि व ज्ञान कारक गुरु यदि बली होकर लया, केन्द्र अथवा त्रिकोंपा में हों, तो जातक को इस क्षेत्र में जाने की रुचि पैदा करता है । यदि लग्नेश का संबंध कारक बुध या शुक्र, भाग्य या भावृयेश, दशम या दशमेश, लाभ या लय आदि में से किसी भी रुप में शुभ स्थानों केन्द्र या त्रिकोण में बनता हो, तो जातक वाणिज्य या की संबंधित कयों में धनार्जन करता है ।यदि सुंली में जनता कारक शनि धनेश से दृष्टि संबंध कर भाग्य भाव को दृष्टि कर्मेश लाभ भाव में मित्र राशि का होकर घनेश व जनता कारक शनि से दुष्ट हो और मुख्य कारक बुध उच्च के शुक्र के साथ अच्छी स्थिति में हो, तो जातक की इस क्षेत्र में कार्य करने की प्रबल संभावना होती हे। यदि कुंडली में ज्ञान कारक गुरु लग्न में बैठकर लाभेश व घनेश को दृष्टि करे तथा शुक्र उच्च का होकर बुध के साथ बली हो, तो जातक की इस क्षेत्र में सफल होता है। बैकिंग क्षेत्र का कारक बुध यदि कुंडली के दशम भाव में सप्तमेश के साथ युति करे, साथ ही भाग्येश होकर शुक्र स्वग्रही अथवा उच्च राशि का हो तथा दशमेश व धनेश की युति लाभ भाव में हो, तो जातक इस क्षेत्र में सफलता प्राप्त कर धनार्जन करता है । यदि कुंडली से लग्नेश व जनता के घर के स्वामी के बीच युति अथवा दृष्टि संबंध हो, लाभेश केन्द्र स्थित लग्नेश को देखता हो, कारक ग्रह बुध एवं शुक्र युति
अथवा दृष्टि द्वारा भाग्य अथवा कर्मभाव से संबंध रखते हो, तो भी जातक बैकिंग के क्षेत्र में रुझान कर जीवन यापन करता है। लग्नेश का संबंध वाणिज्य कारक बुध से युति या दृष्टि द्वारा संबंध हो, कर्मेश का संबंध जनता भाव के स्वामी चतुर्थेश से हो, धनभाव में त्रिकोंणेश होकर गुरु अपनी नवंम दृष्टि से कर्म भाव को प्रभावित करें, साथ ही जनता कारक शनि
जनता के ही घर चतुर्थ में बैठकर कर्मभाव या कर्मेश, लग्न या लग्नेश को दृष्टि से प्रभावित करे तथा प्रेरक राहु की शुभ दृष्टि लाभ भाव पर हो तो ऐसा जातक बैंकिग क्षेत्र में पद प्राप्त करता है । यदि कुंडली में लग्नेश कर्मेश के साथ युति कर केन्द्र या त्रिकोंण में कारक बुध या शुक्र से दृष्ट हो रहा हो, शिक्षा कारक गुरु भी अपनी शुभ स्थिति से लाभभाव, भाग्यभाव, लग्न या धन भाव को प्रभावित को और जनता का कारक शनि की दृष्टि लग्न या लग्नेश, लाभ या लाभेश, कर्म या कर्मेशा या धन या धनेश में से किसी पर भी हो, तो जातक बैंकिंग क्षेत्र में कार्य करता है ।

आई.ए.एस एवं उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनने के ग्रह योग एवं संबंधित कुंडली विवेचन

जब तक किसी जातक की जन्मपत्री में ग्रह योग उच्च प्रशासनिक कार्य करने हेतु न बनते हों, तब तक जातक अथक प्रयास करने के बावजूद भी उच्च प्रशासनिक अधिकारी बनकर राज्य पद प्राप्त नहीं कर पाता । यदि पत्रिका में ग्रहयोग उच्च राजकीय प्रशासनिक पद पर कार्य करते की ओर इंगित कर रहे हों, तो जातक को थोड़े प्रयास से ही राजकीय पद दिलाने वाले ग्रहों की महादशा व अंतर्दशा में अवश्य ही सफलता मिलती है । यदि इस बात का ज्ञान पूर्व से हो जावे, कि जातक को उच्च राजकीय प्रशासनिक या आई.ए.एस. जैसे पद मिलने की संभावना है, तो जातक अपना सम्पूर्ण ध्यान उस ओर लगाकर सफलता प्राप्त कर सकता है ।
1.आई.ए.एस. जैसे प्रतिष्ठित सेवा में चयन हेतु कुंडली में सूर्य,गुरु,मंगल,राहु एवं चंद्रमा जैसे ग्रहों का बलिष्ठ होना अनिवार्य पाया गया है । यदि भाव 11 का स्वामी भाव 9 में हो व भाव 10 के स्वामी से युति या दृष्ट-करता हो तो जातक आई.ए.एस. बन सकता है। यदि पत्रिका में लग्नेश लग्न को देखे, साथ ही भाग्येश केन्द्र 1,4,7, 10 भाव या त्रिकोंण 5,9 भाव में हो, तो भी इस सर्विस का योग बनता है । भाव 2 का स्वामी यदि भाव 11 लाभ स्थान में होकर भाव 10 के स्वामी से दुष्ट हो अथवा भाव 10 के स्वामी के साथ हो, तो भी इस सर्विस में सफल होना की संभावना होती है। भाव 9 में उच्च का गुरु या शुक्र हो और उस पर शुभ ग्रहों की दृष्टि हो, सूर्य अच्छी स्थिति का हो, तो जातक इन्ही ग्रहों की दशा या अंर्तदशा में उच्च पदाधिकारी आईएएस आफीसर बनता है । भाव 10 का स्वामी यदि केन्द्र या त्रिकोंण में शुभ दृष्ट पर हो, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद दिलाता है । यदि लग्नेश और दशमेश स्वग्रही या उच्च के होकर केन्द्र या त्रिकॉंण में हों और गुरु उच्च का या स्वग्रही हो, तो भी जातक की आईएएस अधिकारी बनने की प्रबल संभावना होती है । यदि तीन "या चार ग्रह उच्च या मूल त्रिकोंण में बली हों, तो भी जातक को उच्च राजकीय पद मिलने की संभावना रहती है ।यदि केन्द्र में, विशेषकर लग्न में सूर्य और बुध हों और गुरु की शुभ दृष्टि इन पर हो, तो जातक प्रशासनिक सेवा में उच्च पद प्राप्त करता है। यदि मेष लग्न हो तथा चंद्रमा, मंगल,गुरु तीनों अच्छे अंशों में हों, तो भी जातक को राजकीय सेवा में उच्च पद दिलाते हैं । यदि इन्हें पर कहीं सूर्य की दृष्टि हो या इससे युति हो रही हो, तो भी जातक उच्च राजकीय सेवा में जाकर काफी नाम कमाता है । यदि मेष लग्न हो और लग्न में मंगल व गुरू का किस भी रुप में संबंघं हो रहा हो, तब भी जातक उच्च राजनीतिक प्रद प्राप्त करता है । मेष लग्न में ही यदि भाव 11 में चंद्र और गुरु हों तथा उनपर शुभ ग्रह की दृष्टि हो,तो जातक उच्च शासनाघिकारी बन यश प्राप्त करता है |

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Wednesday, 7 October 2015

कुंडली में इंजीनियरिंग करने के योग

जन्म पत्रिका में इंजीनियरिंग योग में मुखयतः शनि और मंगल ग्रह का योग कारक होना अति आवश्यक है। लेकिन भिन्न-भिन्न तकनीकि कार्यों में विभिन्न ग्रहों का योगदान भी महत्वपूर्ण हैं जैसे टी. वी., दूर संचार, कंप्यूटर संबंधी योग्यता हेतु बुध, वस्त्र निर्माण में इंजीनियरिंग हेतु बृहस्पति, बच्चों के खिलौने, सौंदर्य प्रसाधन आदि के क्षेत्र में दक्षता हेतु चंद्र, शुक्र तथा विद्युत विभाग में एक सफल इंजीनियर बनने के लिये ऊर्जा और अग्नि प्रधान ग्रह सूर्य का शुभ और योगकारक होना अति आवश्यक है। इंजीनियरिंग में दक्षता प्राप्त करने के लिए इंजीनियरिंग के कारक ग्रहों का लग्न या लग्नेश, चतुर्थ भाव या चतुर्थेश, सप्तम भाव, सप्तमेश तथा दशम भाव, दशमेश एवं पंचमेश और नवम (भाग्य भाव) एवं नवमेश से शुभ संबंध होना अति आवश्यक है। इन भावों पर इन कारक ग्रहों का जितना अधिक शुभ प्रभाव होगा जातक को अपने व्यवसाय में उतनी ही रूचि होगी। यदि लग्न भाव से मंगल व शनि का संबंध हो तो जातक इंजीनियर होता है। मेष लग्न में यदि शनि चतुर्थ भाव में स्थित हो तथा मंगल का प्रभाव भी लग्न एवं दशम भाव पर हो तो जातक इंजीनियर होता है। मकर या कुंभ लग्न हो, दशम् या सप्तम भाव में मंगल स्थित हो तो जातक इंजीनियर होता है। यदि सूर्य लग्न, चंद्र लग्न एवं जन्म लग्न एक ही हो तथा उन पर शनि व मंगल का प्रभाव अधिक हो तो जातक एक सफल इंजीनियर होता है। यदि चतुर्थ भाव में शनि स्थित हो और उस पर केतु का प्रभाव हो अथवा चतुर्थ भाव में मंगल एवं केतु की युति हो, शनि सप्तम भाव में स्थित हो तो जातक इंजीनियर होता है। दशम भाव चूंकि कार्यभाव है अतः दशम् भाव एवं दशमेश का यदि शनि, मंगल, केतु एवं बृहस्पति से संबंध हो तो जातक एक सफल इंजीनियर होता है। दशम भाव एवं चतुर्थ भाव में से किसी एक में शनि व दूसरे में मंगल स्थित हो तथा गुरु का लग्न, चतुर्थ एवं नवम, दशम किन्हीं दो भावों पर प्रभाव हो तो जातक वस्त्र उद्योग में इंजीनियर होता है। यदि धनु लग्न हो, दशम् भाव में शनि स्थित हो, लग्न सप्तम एवं दशम् भाव में से किन्हीं दो भावों पर मंगल, केतु या सूर्य की स्थिति, दृष्टि या युति संबंध हो तो जातक सफल विद्युत इंजीनियर होता है। लग्न में मंगल स्वराशिस्थ हो, शनि चतुर्थ भावस्थ हो या शनि सूर्य की दशम् भाव पर दृष्टि हो तो जातक इंजीनियर होता है। यदि कुंडली में चंद्र शनि या चंद्र मंगल की युति हो तथा चतुर्थ या पंचम भाव पर मंगल, केतु या राहु की युति स्थिति या दृष्टि प्रभाव हो तो जातक इंजीनियरिंग में दक्षता प्राप्त करता है। लग्नस्थ बुध पर मंगल या शनि की दृष्टि हो तथा बृहस्पति द्वितीय भाव में स्थित हो अथवा इन तीनों ग्रहों का किसी भी रूप में शुभ संबंध बन रहा हो तो जातक कंप्यूटर इंजीनियर होता है तथा उसे मशीनरी एवं कलपूर्जों आदि से संबंधित अच्छी जानकारी होती है। राहु-केतु, शनि और बुध यदि शुभ स्थिति में हों तो जातक को तीक्ष्ण बुद्धि और अच्छी सोच प्रदान करते हैं। यदि दशम् भाव में राहु या केतु स्थित है। दशम भाव पर शनि की दृष्टि हो, बुध शनि की राशि में, या शनि बुध की युति या बुध पर शनि की दृष्टि का प्रभाव हो तो जातक को कंप्यूटर इंजीनियर के रूप में अच्छी सफलता प्राप्त होती है। जन्म पत्रिका में शुक्र-शनि का कारक योग भी कंप्यूटर इंजीनियरिंग में सफलता दिलाता है। दशम् भाव में यदि सूर्य, मंगल, शनि और बुध ग्रहों से 'चतुर्ग्रही' का योग बन रहा हो तो व्यक्ति एक सफल इंजीनियर होने के साथ-साथ खूब धन कमाता है। नवम भाव (भाग्य भाव) में यदि धनेश या लाभेश होकर बुध स्थित हो तथा दशम् भाव पर मंगल का प्रभाव हो, शुक्र बुध की युति यदि लग्न में अथवा शुक्र बुध की राशि में स्थित हो तो जातक हार्डवेयर इंजीनियर होता है। यदि दशम भाव में सूर्य शनि की युति हो साथ ही सूर्य धनेश, लाभेश या भाग्येश हो और चतुर्थ एवं पंचम भाव पर सूर्य, मंगल एवं केतु की स्थिति, युति या दृष्टि प्रभाव हो तो जातक को इंजीनियरिंग के क्षेत्र में अत्यंत सफलता, खयाति, प्रसिद्धि एवं सम्मान भी मिलता है।

शीर्ष रेखा के शुभ लक्षण

(1) यदि शीर्ष-रेखा लम्बी और सुन्दर हो और शुक-क्षेत्र अति उच्च न हो तो जातक का प्रेम अपनी पत्नी (या पति) तक ही सीमित रहता है । अपने दाम्पत्य कर्तव्य-पालन की ओर ध्यान, आत्मसंयम तथा विशेष कामुकता न होने से सतीत्व या एकपस्वीत्व
गुण होता है ।
(2) यदि शीर्ष-रेखा लम्बी और सुन्दर हो और मंगल, बुध तथा बृहस्पति के क्षेत्र उन्नत तथा विस्तीर्ण हों तो एकाग्रचित्तता (अध्ययन-विचार, किंवा आध्यात्मिक उन्नति के लिये) का गुण होता है । ऐसा जातक किसी विषय पर अपने चित्त को एकाग्र कर सकता है ।
3) यदि दोनो हाथों में शीर्ष-रेखा लम्बी तथा चन्द्र-गोत्र की ओर घुमावदार हो, चन्द्र-क्षेत्र बलवान हो और अनामिका तथा मध्यमा बराबर लम्बी हो तो जातक ऐसा व्यापारिक कार्य करता है जिसमें एकदम बहुत लाभ हो या चाहे घाटा ही हो जावे (यथा शेयर, चाँदी, रुई आदि का सट्टा) ।
4) शीर्ष-रेखा लम्बी और चन्द्र-क्षेत्र की ओर घूमी हुई हो, बृहस्पति-क्षेत्र अति उच्च हो और उस पर जाल-चिह्न हो तो प्रसिध्द राजनीतिक वक्ता होता है । उसका भाषण बहुत ओजस्वी और प्रभावपूर्ण होता है । जाल-चिह्न जहाँ होता है उस स्थान के गुण को बढा देता है, किन्तु उस गुण का जातक सदुपयोग न कर दुरुपयोग करता है (यथा-राजनीति में प्राय: ओजस्विता पार्टीबांजी के ही उपयोग में आती है) ।
5) यदि शीर्ष-रेखा लम्बी और सीधी हो, हाथ लम्बे हों और हाथों की उँगलियाँ भी लम्बी हों तो ऐसा जातक प्रत्येक बात के विवरण की जाच-पड़ताल करता है (उदाहरण केलिये यदि वह दावत देगा तो क्या-क्या भोजन बनेगा, क्या चीज क्या भाव आई, कौन मेहमान कहाँ बैठेगा आदि छोटी-से-ओटी बात के विश्लेषण और प्रबन्ध की ओर ध्यान देगा ) ।
6) यदि शीर्ष-रेखा लम्बी और सीधी हो किन्तु उंगलियों में गांठे बहुत निकली हों और चिटत्ती उगली बहुत छोटी हो तो जातक में व्यावहारिक कुशलता या नीतिज्ञता नहीं होती ।
7) शीर्ष-रेखा सारी हथेली पर फैली हुई हो और यकृत-रेखा साफ तथा सीधी हो और अधिक चौडी न हो तो स्मरण-शक्ति अच्छी होती है ।
8) (क) यदि, सारी हथेली पर सेसिल की भांति बिलकुल सीधी रेखा हो और जीवन-रेखा, शीर्ष-रेखा तथा भाग्य-रेखा से सुन्दर त्रिकोण न बनता हो तो लोभ की प्रवृत्ति अधिक होती है । यदि शीर्ष-रेखा के मध्य भाग में बिलकुल झुकाव या गोलाई न हो तो उदारता या उपकार-बुद्धि या दूसरे की बात मान जाना यह गुण नहीं होता ।
(ख) यदि सूर्य तथा वृहस्पति के क्षेत्र उन्नत और विस्तीर्ण हों या अन्य शुभ लक्षणों से युक्त हों, तर्जनी का अग्रभाग नुकीला हो तथा शीर्ष-रेखा लम्बी, सीधी और स्पष्ट हो तो जातक पढ़ने का शौकीन होता है ।
9) यदि शीर्ष-रेंखा लम्बी तथा सुन्दर हो तथा शीर्ष एवं हृदय-रेखा के बीच का भाग चौडा हो, तर्जनी का अग्रभाग नुकीला व अन्य उँगलियों का अग्रभाग चतु७कोणाकार हो तो जातक में न्याय प्रियता होती है । वह सबके साथ इन्साफ़ चाहता है और किसी का हक नहीं छीनना चाहता ।
10) यदि यह रेखा तथा हृदय-रेखा भी-दोनों लम्बी और सुंदर हों और जीवन- रेखा के अन्तिम भाग पर त्रिकोण चिह्न हो तो जातक में नीतिज्ञता, बुद्धिपूर्वेक कार्य साधन की योग्यता होती है ।
11) यदि शीर्ष तथा हृदय-रेखाएँ लम्बी और अच्छी हों और तर्जनी विशेष लम्बी हो तो ऐसा जातक अपने दोस्ती की खातिरदारी, दावत आदि तो खूब करता है किन्तु उसकी दोस्ती इतने तक ही सीमित रहती है ।
12) यदि शीर्ष-रेखा बिलकुल सीधी (डंडे की तरह) हो और हृदय-रेखा अच्छी न हो तो जातक स्वयं अपने भोगविलास पर व्यय करेगा, अन्य लोगों के लिए नहीं ।
13) यदि सूर्य-रेखा लम्बी हो, मलिमा-अनामिका बराबर हो और शीर्ष-रेखा लम्बी व चन्द्र-शेत्र की ओर झुकी हुई हो तो जातक ऐसी यात्रायें करता है जो भय से खाली न हो (यथा जंगलों में, तूफानी समुद्रो में, वायुयानों के उडान-प्रदर्शन में) ।
14) यदि शीर्ष-रेखा छोटी हो, साथ ही हृदय-रेखा भी अच्छी न हो और जीवन-रेखा के अन्त भाग पर त्रिकोण-चिह्न हो तो ऐसा आदमी बहुत बोलता है, जिसका उसके लिये शुभ परिणाम न होकर अशुभ परिणाम ही होता है । बुद्धि की कमी तथा कूर प्रकृति होने से मनुष्य उचित-अनुचित अवसर का विचार न कर पर-निन्दक होता है ।
15) यदि बृहस्पति-क्षेत्र तो अवनत (नीचा) हो और शुक तथा चन्द्रमा के क्षेत्र उन्नत हों, और शीर्ष-रेखा छोटी हो तो जातक आरामपसन्द तथा सुस्त होता है । बृहस्पति का क्षेत्र नीचा रहने से महत्वाकांक्षा नहीं होती ।
16) यदि शीर्ष-रेखा छोटी हो, शुक्र-क्षेत्र नीचा हो, शीर्ष-रेखा तथा हृदय-रेखा का मध्यभाग सकड़ा हो तो मानसिक (ह्रदय की) क्षुद्रता तथा अनुदारता का लक्षण है । यदि चन्द्र-क्षेत्र नीचा हो तो दूसरों के साथ सहानुभूति नहीं होती |
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शीर्ष-रेखा की समाप्ति का प्रभाव

जहाँ शीर्ष-रेखा समाप्त हो वहाँ या उससे कुछ पहले किसी भी ग्रह-क्षेत्र की ओर उसका झुकाव हो या शीर्ष-रेखा से निकल कर कोई शाखा किसी ग्रह-क्षेत्र पर जावे तो उस ग्रह-क्षेत्र का प्रभाव शीर्ष-रेखा में आ जाता है ।
1) यदि चन्द्र-क्षेत्र को ओर झुकी हो या उस क्षेत्र पर शाखा रेखा जावे तो कल्पना, गुप्त विद्या, प्रेम आदि की ओर मस्तिष्क का झुकाव होता है ।
2) बुध- क्षेत्र पर या उस ओर झुकी हो-विज्ञान या व्यापार में कुशलता ।
3)सूर्य-क्षेत्र पर या उस ओर जावे
4) शनि-क्षेत्र पर या उस ओर जावे-विचार-गम्भीर्य संगीत तथा धार्मिकता ।
5) बृहस्पति-गोत्र-यदि शाखा वृहस्पति-क्षेत्र पर जावे तो हुकूमत की इच्छा तथा अभिमान ।
6) यदि शीर्ष-रेखा से निकलकर कोई रेखा जाकर हृदय- रेखा में मिल जावे तो समझना चाहिये कि जातक का किसी से अत्यन्त प्रेम और गाढा अनुराग होने का लक्षण है । इस प्रकार का यह प्रेम इतना आत्यन्तिक तथा तीव्र होगा कि मनुष्य किसी लाभ, हानि आशंका या मर्यादा की परवाह न कर उसके वशीभूत हो जायगा ।
7) यदि शीर्ष-रेखा शनि-क्षेत्र के ही नीचे समाप्त हो जाने तो समय से पहले आकस्मिक मृत्यु हो या उस अवस्था पर दिमाग पूरा काम करना बन्द कर दे व नया दिमागी काम न कर सके ।
8) यदि हाथ के मध्य में समाप्त हो जावे और (क) सूर्य तथा वृहस्पति के क्षेत्र उन्नत न हों तो बुद्धि की कसी (ख) मंगल-क्षेत्र नीचा हो तो साहस तथा उत्साह की कमी ।
9) यदि भाग्य-रेखा से योग करने के पहले ही शीर्ष-रेखा का अन्त हो जावे तो दुवे-जीवन तया अकाल-मृत्यु हो ।
10) यदि शीर्ष-रेखा मंगल के प्रथम क्षेत्र तक लम्बी जावे और वहाँ अंकुश की तरह नीचे की ओर मुड़ जावे तो अत्यधिक आत्म-विश्वास एवं अभिमान के कारण जातक कष्ट उठाता है ।
11) (क) यदि शीर्ष-रेखा शनि-क्षेत्र के नीचे तक तो सीधी जावे और फिर मुड़कर ह्रदय-रेखा को काटती हुई शनि-क्षेत्र के ऊपर जाकर समाप्त हो जावे तो सिर में चोट लगने से मृत्यु होती है| ऐसे व्यक्ति में धर्मान्धता भी होती है ।
ख) यदि उपर्युक्त प्रकार की शीर्ष-रेखा हो किन्तु हृदय-रेखा काटने के पहले ही समाप्त हो जावे तो सिर में चोट तो लगेगी किन्तु प्राण-रक्षा हो जावेगी । धर्मान्धता भी अधिक नहीं होगी ।
12) (क) यदि शीर्ष-रेखा सूर्य-क्षेत्र के नीचे तक सीधी आवे फिर एकदम हृदय-रेखा को काटती हुई सूर्य-क्षेत्र की ओर मुड़ जावे तो जातक को साहित्य या कला का अत्यधिक व्यसन होगा ।
(ख) यदि उपर्युक्त प्रकार की शीर्ष-रेखा हो किन्तु हृदय-रेखा को न काटे तो साहित्य या कला में सफलता प्राप्त होने का लक्षण है ।
ग) यदि हाथ के अन्य लक्षण (यथा उंगलियों की बनावट, ग्रहों के क्षेत्र, भाग्य-रेखा आदि) उपर्युक्त सफलता के प्रतिकूल हों तो केवल देती रेखा का परिणाम यह होता है कि जातक बिना अधिक परिश्रम किये धनी होने की इच्छा रखता है ।
13) यदि ऊपर (ख) भाग में जैसा आकार बताया गया है वैसा आकार हो किन्तु सूर्य-क्षेत्र की बजाय सूर्य-क्षेत्र तथा बुध-क्षेत्र के बीच के भाग की ओर मुड़कर जावे और हृदय-रेखा को न काटे तो ऐसा जातक कला को व्यापारिक रूप देकर, या व्यापारिक वस्तु को कला से विशेष उत्कृष्ट बना, सफलता प्राप्त करता है ।
14) यदि शीर्ष-रेखा मंगल के प्रथम-क्षेत्र तक आवे और फिर मुड़कर बुचंक्षेत्र वाले हृदय-रेखा के भाग से स्पर्श कर (क) समाप्त हो जावे या (ख) ह्रदय-रेखा का बिना स्पर्श किये समाप्त हो जावे या (ग) हृदय-रेखा को काटकर बुघ-क्षेत्र पर पहुँच जाय तो फलादेश निम्नलिखित होगा ।
(क) मस्तिष्क में चक्कर आने का रोग ।
(ख) लोगों की नकल बनाने का हुनर (जैसे नाटक इत्यादि में मनोरंजन के लिये किया जाता है) ।
(ग) प्रबन्ध-कुशलता, चतुरता, नीतिज्ञता । यदि हाथ में अन्य लक्षण अच्छे न हों तो ऐसा व्यक्ति धोखेबाज होता है ।
15) यदि शीर्ष-रेखा मंगल-क्षेत्र को पार कर हथेली के बाहर तक जावे और स्वास्थ्य-रेखा अच्छी हो तो स्मरणशक्ति अच्छी होती है ।
16) यदि उपर्युक्त प्रकार की सीधी शीर्ष-रेखा हो, अंगूठा भीतर की ओर झुका हो, बृहस्पति तथा शुक के पर्वत उन्नत न हों, तथा उगलियाँ परस्पर भिड़ी हों तो जातक स्वार्थी, अनुदार और कंजूस होता है । .
17) यदि शीर्ष-रेखा के अन्त में दो शाखा हो जावें (एक प्रधान रेखा तथा एक छोटी-सी शाखा) तो कल्पना पर व्यावहारिक बुद्धि का संयम रहता है ।
साधारणत: इस प्रकार की शीर्ष-रेखा की समाप्ति अच्छी समझी जाती है । किन्तु यदि हथेली मोटी और मुलायम हो, अँगूठा छोटा हो और उगलियों के तृतीय पर्व फूले हुए और उपर्युक्त प्रकार की शीर्ष-रेखा हो तो जातक विश्वास के योग्य नहीं होता । ऐसे व्यक्ति में कामुकता तथा सुस्ती होती है ।
18) यदि शीर्ष-रेखा लम्बी और सुन्दर हो व मंगलक्षेत्र पर जाकर समाप्त होवे किन्तु एक बहुत बडी शाखा शीर्ष-रेखा से निकलकर चन्द्रक्षेत्र पर नीचे तक जावे तो जातक धोखा नहीं देता ।
19) यदि शीर्ष-रेखा अन्त में दो शाखायुक्त हो जावे एक शाखा हृदय-रेखा को काटती हुई बुध क्षेत्र पर जावे दूसरी नीचे की ओर चन्द्र-क्षेत्र पर तो जातक चालाक, व्यापार में (ईमानदारी या बेईमानी से भी) घन कमाने वाला तथा दूसरों पर प्रभाव जमा सकता है ।
20) यदि शीर्ष-रेखा की एक शाखा चन्द्र-गोत्र पर जावे तथा दूसरी शाखा जाकर हृदय-रेखा से स्पर्श करे तो जातक प्रेम के पीछे सर्वस्व बलिदान करने के लिये सन्नद्ध रहेगा । यदि उपर्युक्त लक्षण के साथ-साथ भाग्य-रेखा का भी हृदय- रेखा तक जाकर अन्त हो जावे तो 'प्रेम' के कारण जातक का आर्थिक सर्वनाश समझना चाहिये ।
21) यदि शीर्ष-रेखा अन्त में दो शाखाओं में विभक्त हो जावे और दोनों शाखाएँ चन्द्र-क्षेम पर जावें तो दिमाग खराब हो जाता है (कल्पना का आधिक्य ही पागलपन है) है |
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शीर्ष-रेखा का अन्य रेखाओं से योग

शीर्ष-रेखा का जीवन-रेखा से योग हो तो क्या फ़ल होता है यह बताया जा चुका है किन्तु जीवन-रेखा से योग होने पर, शीर्ष- रेखा का आगे जाकर अलग-अलग ओर झुकाव या अन्य रेखाओं से योग होने से फल में क्या विभिन्नता होती है यह बताया जाता है ।
(1) जीवन-रेखा से योग करती हुई शीर्ष-रेखा प्रारम्भ हो तथा हृदय-रेखा की ओर कुछ झुकती हुई आगे आवे, फिर बीच में पहुँच कर ह्रदय-रेखा की ओर झुकाव बंद हो जावे और ऊपर की बजाय नीचे की ओर अपनी स्वाभाविक दिशा में जाने लगे, तो ऐसे जातक का किसी से आत्यन्तिक प्रेम हो जाता है और बहुत बरसों तक हृदय की ऐसी ही स्थिति रहती है । परिणाम में सफलता प्राप्त नहीं होती । ऐसे व्यक्ति में शुद्ध उदात्त प्रेम की अपेक्षा वासना-पूर्ति की आकांक्षा विशेष होती है । ह्रदय तथा शीर्ष-रेखा में अन्तर कम होने से अनुदार वृत्ति (कंजूसी तथा अन्य बातों में भी) होती है ।
(2) याद शीर्ष-रेखा अपने प्रारम्भिक स्थान पर जीवन-रेखा व हृदय-रेखा दोनों से संयुक्त हो तो जातक की अचानक मृत्यु होती है ।
3) (क) यदि जीवन-रेखा से तो प्रारम्भ हो-किन्तु जीवन- रेखा के उस भाग से प्रारम्भ हो जो शनि-क्षेत्र के नीचे है-तो जीवन के प्रारम्भिक काल में शिक्षा का अभाव होने के कारण मस्तिष्क का विकास तथा दिमागी उन्नति देर से प्रारम्भ हुई यह प्रकट होता है ।
ख) किन्तु यदि उपर्युक्त प्रकार की शीर्ष-रेखा हो और जीवन-रेखा तथा हृदय-रेखा भी छोटी हों तो जातक की सहसा मृत्यु हो जाती है ।
4) (क) यदि शीर्ष-रेखा प्रारम्भ में जीवन-रेखा से मिली हुई हो और आगे ऊँची होती-होती हृदय-रेखा से मिलकर उसमें विलीन हो जावे और हृदय-रेखा, सुन्दर, वृहस्पति के क्षेत्र से
निकलकर आई हो तो ऐसा जातक किसी एक व्यक्ति को ही जी-जान से प्रेम करता है और उसमें उसको हद से ज्यादा खुशी हासिल होती है । जातक एक प्रकार से अपने को प्रेमी या प्रेमिका पर न्योछावर कर देता है । संभव है ऐसी परिस्थिति में दुनियावी कामों में सफलता न मिले किन्तु प्रेम के क्षेत्र में पूर्ण सुख प्राप्त होता है ।
ख) यदि उपर्युक्त प्रकार की रेखा हो किन्तु हृदय-रेखा बृहस्पति के क्षेत्र से न निकली हो और शीर्ष-रेखा, हृदय-रेखा से जहाँ मिले वह भाग शनिक्षित्र के नीचे हो तो प्रेम के पीछे दीवाना हो जाने से जातक आत्महत्या या अन्य सांधातिक कार्य कर सकता है (हाथ के अन्य लक्षणों से क्या विदित होता है यह भी अचछी तरह विचारना चाहिये) ।
5) यदि बृहस्पति क्षेत्र अति उच्च हो, जीवन-रेखा छोटी-छोटी रेखाओं से कटी हो, भाग्य-रेखा कमजोर हो और शीर्ष-रेखा स्वास्थ्य-रेखा से मिली हो (उसमें विलीन हो जावे) तो जातक की आत्म-हत्या की ओर प्रवृत्ति होती है ।
6) यदि जीवन-रेखा प्रारम्भ में दो शाखायुक्त हो (एक प्रधान रेखा, एक शाखा) और शीर्ष-रेखा स्वास्थ्य-रेखा में जाकर विलीन हो जाय तो मस्तिष्क रोग. सदैव दु:खी और गमगीन रहना ।
7) यदि शीर्ष-रेखा चन्द्रक्षेत्र के मर स्वास्थ्य-रेखा को काट कर आगे बढ़ जाय तो कल्पना इतनी बढ़ जाती है कि उसे एक प्रकार से 'पागलपन' का रोग कहना चाहिये । ॰
8) यदि शीर्ष-रेखा जीवन-रेखा से प्रारम्भिक स्थान पर न मिली हो किन्तु पतली-पतली छोटी-छोटी रेखाएँ जीवन-रेखा से निकलकर शीर्ष-रेखा से योग करती हों तो जातक बदमिजाज होता है, किन्तु यदि हाथ में अन्य लक्षण अच्छे हों तो जल्दबाजी, तथा शिष्टता का अभाव समझना चाहिये |
9) यदि शीर्ष-रेखा तपा जीवन-रेखा प्रारम्भिक स्थान पर मिली न हों किन्तु उस स्थान पर दोनों के बीच कॉस-चिह्न हो और उसके द्वारा दोनों रेखाओं में योग होता हो तो जातक के बचपन में ही कोई पारिवारिक मुकदमेबाजी होती है जिसके कारण जातक को नुकसान उठाना पड़ता है ।
10) यदि शुक्रक्षेत्र के मूल से रेखाएँ निकलकर जीवन-रेखा तथा शीर्ष-रेखा दोनों को काटें तो कौटुम्बिक परिस्थिति के कारण आर्थिक कठिनता का लक्षण है ।
11) शीर्ष-रेखा कहीं भी ह्रदय-रेखा से आकर मिल जावे उसमें विलीन हो जावे, तो जातक प्रेम के पीछे मतवाला हो जाता है । यदि शीर्ष-रेखा लहरदार या अन्य दोषयुक्त हो तो इस प्रेम में और भी अधिक दीवानापन होता है ।
12) छोटी-छोटी रेखाएँ शीर्ष-रेखा से निकलकर ह्रदय-रेखा में आकर विलीन हो जावे-उसे काष्ट नहीं-तो मित्रों का जातक पर बहुत प्रभाव रहता है ।
13) जहाँ शीर्ष-रेखा का अन्त होता है-उसके कुछ पहले शीर्ष-रेखा से एक शुद्ध गम्भीर रेखा निकलकर हृदय-रेखा में विलीन हो जावे तो आत्यन्तिक प्रेम के कारण जातक किसी बात की परवाह नहीं करता ।
14) यदि शुक्र-क्षेत्र से कोई अच्छी रेखा निकलकर जीवन, शीर्ष तथा विवाह-रेखा तीनों को काटे तो विवाह या गुप्तप्रेम के कारण कठिन आपत्ति या विपत्ति सहनी पड़ेगी ।
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शीर्ष-रेखा की दिशा तथा रूप, गुण, अवगुण आदि

यदि शीर्ष-रेखा अपने स्वाभाविक स्थान की अपेक्षा नीची हो; (अर्थात् जालियों की जड से जितनी दूर होना चाहिये उसकी अपेक्षा अधिक दूर हो) तो आत्मविश्वास की कमी होती है और थोडी सी बात या कष्ट से ऐसे व्यक्ति नाराज तथा दु:खी हो जाते है ।
यदि शीर्ष-रेखा अपने स्वाभाविक स्थान पर हो और सीधी, स्पष्ट तथा समान रूप से गहरी हो तो मनुष्य में व्यावहारिक बुद्धि अच्छी होती है और उसकी पुस्तक पढने, दर्शन, काव्य या कलात्मक अनुसंधान की बजाय धन-दौलत की ओर विशेष प्रवृत्ति रहती है किन्तु यदि प्रारम्भिक आधे भाग में सीधी हो और उसके बाद नीचे की ओर कुछ झुकी हुई हो तो दोनों ओर (धन-दौलत तथा विद्या- सम्बन्धी) समान रूप से प्रवृति रहती है । ऐसे व्यबित मस्तिष्क- सम्बन्धी, कल्पना-प्रधान या दार्शनिक ग्रंथियों को सुलझाते हुए भी सांसारिक मव्यावहारिकता का ध्यान रखते है । किन्तु यदि शीर्ष-रेखा प्रारम्भ से ही गोलाई लिये चन्द्र-क्षेत्र की ओर जाती हो तो काव्य, दर्शन कला आदि की ओर विशेष झुकाव होता है । काव्य, दर्शन, नव आविष्कार किंवा मशीन आदि की भी नई योजना बनाने की ओर इनका मानसिक झुकाव विशेष होता है । यदि हाथ चतुष्कोणाकार हो तो सांशांरेक उन्नति के साधन में (यथा नई प्रकार की योजना या क्षेम-निर्माण मे) इनका दिमाग लगता है, यदि हाथ लम्बा और नुकीला हो तो काव्य या दर्शन-शास्त्र में मन लगता है ।
यदि यह रेखा बहुत अधिक झुकी हुई हो तो कल्पना-शक्ति बहुत अधिक बढी हुई होती है । ऐसा जातक कल्पना-जगत् में अधिक रहता है तथा वास्तविक जगत् में कम । यदि 'प्रेम' हो गया तो उसे 'स्वर्ग' समझ बैठता है यदि निराशा हुई तो जीवन को बिल्कुल निस्सार समझने लगेगा । प्रेम के पीछे
लोक-व्यवहार की उपेक्षा कर बैठेगा । यदि झुकाव अधिक होते हुए चन्द्र-क्षेत्र पर शीर्ष-रेखा चली जावे और दो शाखामुक्त (एक प्रधान रेखा, एक शाखा) हो जावे ऐसे जातक की साहित्य तथा काव्य की ओर विशेष रुचि तथा इन विषयों में विशेष योग्यता भी होती है ।
यदि शीर्ष-रेखा बिलकुल सीधी और बहुत लम्बी हो और सारी हथेली पार कर मंगल के प्रथम क्षेत्र पर होती हुई हथेली के बाहर तक चली जावे तो यह प्रकट होता है कि जातक बहुत अधिक बुद्धिमान है किंतु उसकी बुद्धि स्वार्थ में अधिक लगेगी, परमार्थ में कम । यदि मगल-क्षेत्र साथ-ही-साथ उन्नत हो और अंगूठे का प्रथम पव बलिष्ठ हो तो जातक की किसी से शत्रुता हो जाने पर वह उससे बदला अवश्य लेगा और यदि अँगुष्ठ का द्वितीय पर्व भी लम्बा हो तो नीतिज्ञ होने से शत्रु पर विजयी भी होगा ।
यदि शीर्ष-रेखा मंगल के प्रथम क्षेत्र तक तो सीधी जावे और उस क्षेत्र पर जाकर कुछ ऊपर को मुड़ जावे तो जातक को व्यापार में अत्यधिक सफलता मिलती है और शीघ्र धन-संग्रह करने में सफल होता है ।
यदि शीर्ष-रेखा छोटी हो (अर्थात् हाथ के मध्य भाग तक ही हो) तो सांसारिक बातों में तो जातक चतुर होता कि किन्तु विद्या, कल्पना, दर्शन, साहित्य आदि में बुद्धि विशेष नहीं चलती ।
यदि शीर्ष-रेखा अत्यन्त छोटी हो और अन्य लक्षण भी यदि अत्पायु होना प्रकट करते हो तो जातक अत्पायु होता है और शिरो-रोग के कारण मृत्यु होती है ।
( 1) यदि बीच में कुछ ह्रदय-रेखा की ओर झुककर शीर्ष रेखा इस प्रकार सीधी जावे कि ह्रदय-रेखा से क्रमश: दूर होती जावे और हथेली के उस पार तक लम्बी हो तो बुद्धि और आत्मिक शक्ति दोनों सबल होती है ।
2) यदि शीर्ष-रेखा हृदय-रेखा के बहुत पास-पास जावे अर्थात् दोनों में क्या अन्तर हो तो दमा या high fever होता है । दोनों के बीच का स्थान संकीर्ण होने से जातक रोगी तथा हृदय का क्षुद्र होता है ।
3) यदि शीर्ष-रेखा हृदय-रेखा की ओर झुकती चली जावे और जीवन-रेखा से निकलकर स्वास्थ्य-रेखा इनको काटे तो मुच्छा रोग हो । पाचन-शक्ति बिगड़ने पर प्राय: यह रोग होता है ।
4) यदि शोर्ष-रेखा करीब-करीब शनि-क्षेत्र की सीध तक हृदय-रेखा की ओर झुकती चली आवे और फिर मुड़कर नीचे की ओर (चन्द्र-क्षेम की ओर) चली जावे तो जिनको जातक स्नेह करता है उनके कारण घोर मानसिक कष्ट प्रकट होता है ।
5) यदि शीर्ष-रेखा इतनी ऊंची हो कि उसके और ह्रदय- रेखा के बीच बहुत कम अन्तर रहे तो (1) यदि शीर्ष-रेखा दृढ़ और पुष्ट हो तो दिमाग दिल को काबू में रखेगा तथा (2) यदि
हृदय-रेखा दृढ़ और पुष्ट हो तो दिल दिमाग पर काबू पा लेगा ।
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कुंडली में राहु की अंतर्दशा का फल और उपाय

राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। राहु में राहु की अंतर्दशा का काल 2 वर्ष 8 माह और 12 दिन का होता है। इस अवधि में राहु से प्रभावित जातक को अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ सकता है। विष और जल के कारण पीड़ा हो सकती है। विषाक्त भोजन, से स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इसके अतिरिक्त अपच, सर्पदंश, परस्त्री या पर पुरुष गमन की आशंका भी इस अवधि में बनी रहती है। अशुभ राहु की इस अवधि में जातक के किसी प्रिय से वियोग, समाज में अपयश, निंदा आदि की संभावना भी रहती है। किसी दुष्ट व्यक्ति के कारण उस परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है।
उपाय:
भगवान शिव के रौद्र अवतार भगवान भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढ़ाएं और तेल का दीपक जलाएं।
शराब का सेवन कतई न करें।
लावारिस शव के दाह-संस्कार के लिए शमशान में लकड़िया दान करें।
अप्रिय वचनों का प्रयोग न करें।
राहु में बृहस्पति:
राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा की यह अवधि दो वर्ष चार माह और 24 दिन की होती है।
राक्षस प्रवृत्ति के ग्रह राहु और देवताओं के गुरु बृहस्पति का यह संयोग सुखदायी होता है। जातक के मन में श्रेष्ठ विचारों का संचार होता है और उसका शरीर स्वस्थ रहता है। धार्मिक कार्यों में उसका मन लगता है। यदि कुंडली में गुरु अशुभ प्रभाव में हो, राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो उक्त फल का अभाव रहता है। ऐसी स्थिति में निम्नांकित उपाय करने चाहिए।
किसी अपंग छात्र की पढ़ाई या इलाज में सहायता करें।
शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं।
शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगाएं।
पीले रंग के फूलों से शिव पूजन करें।
राहु में शनि:
राहु में शनि की अंतदर्शा का काल 2 वर्ष 10 माह और 6 दिन का होता है। इस अवधि में परिवार में कलह की स्थिति बनती है। तलाक भाई, बहन और संतान से अनबन, नौकरी में या अधीनस्थ नौकर से संकट की संभावना रहती है। शरीर में अचानक चोट या दुर्घटना के दुर्योग, कुसंगति आदि की संभावना भी रहती है। साथ ही वात और पित्त जनित रोग भी हो सकता है।
दो अशुभ ग्रहों की दशा-अंतर्दशा कष्ट कारक हो सकती है। इससे बचने के लिए निम्न उपाय अवश्य करने चाहिए।
भगवान शिव की शमी के पत्रों से पूजा और शिव सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र के जप स्वयं, अथवा किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जप के पश्चात् दशांश हवन कराएं जिसमें जायफल की आहुतियां अवश्य दें।
नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं।
काले तिल से शिव का पूजन करें।
राहु में बुध:
राहु की महादशा में बुध की अंतर्दशा की अवधि 2 वर्ष 3 माह और 6 दिन की होती है। इस समय धन और पुत्र की प्राप्ति के योग बनते हैं। राहु और बुध की मित्रता के कारण मित्रों का सहयोग प्राप्त होता है। साथ ही कार्य कौशल और चतुराई में वृद्धि होती है। व्यापार का विस्तार होता है और मान, सम्मान यश और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
उपाय:
भगवान गणेश को शतनाम सहित दूर्वाकुंर चढ़ाते रहें।
हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं।
कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं।
पक्षी को हरी मूंग खिलाएं।
राहु में केतु:
राहु की महादशा में केतु की यह अवधि शुभ फल नहीं देती है। एक वर्ष और 18 दिन की इस अवधि के दौरान जातक को सिर में रोग, ज्वर, शत्रुओं से परेशानी, शस्त्रों से घात, अग्नि से हानि, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। रिश्तेदारों और मित्रों से परेशानियां व परिवार में क्लेश भी हो सकता है।
उपाय:
भैरवजी के मंदिर में ध्वजा चढ़ाएं। कुत्तों को रोटी, ब्रेड या बिस्कुट खिलाएं।
कौओं को खीर-पूरी खिलाएं।
घर या मंदिर में गुग्गुल का धूप करें।
राहु में शुक्र:
राहु की महादशा में शुक्र की प्रत्यंतर दशा पूरे तीन वर्ष चलती है। इस अवधि में शुभ स्थिति में दाम्पत्य जीवन में सुख मिलता है। वाहन और भूमि की प्राप्ति तथा भोग-विलास के योग बनते हैं। यदि शुक्र और राहु शुभ नहीं हों तो शीत संबंधित रोग, बदनामी और विरोध का सामना करना पड़ सकता है। इस अवधि में अनुकूलता और शुभत्व की प्राप्ति के लिए निम्न उपाय करें-
सांड को गुड़ या घास खिलाएं।
शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें और वस्त्र आदि दें।
एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें।
स्फटिक की माला धारण करें।
राहु में सूर्य:
राहु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा की अवधि 10 माह और 24 दिन की होती है, जो अन्य ग्रहों की तुलना में सर्वाधिक कम है। इस अवधि में शत्रुओं से संकट, शस्त्र से घात, अग्नि और विष से हानि, आंखों में रोग, राज्य या शासन से भय, परिवार में कलह आदि हो सकते हैं। सामान्यतः यह समय अशुभ प्रभाव देने वाला ही होता है।
उपाय:
इस अवधि में सूर्य को अघ्र्य दें। उनका पूजन एवं उनके मंत्र का नित्य जप करें।
हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें।
चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें।
सूअर को मसूर की दाल खिलाएं।
राहु में चंद्र:
एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है।
उपाय:
राहु और चंद्र की दशा में उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से बचने के लिए माता की सेवा करें।
माता की उम्र वाली महिलाओं का सम्मान और सेवा करें।
प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें।
चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें।
राहु में मंगल:
राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते हंै। इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।

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Tuesday, 6 October 2015

शक की बीमारी कहीं ग्रहों का गड़बड़ तो नहीं -

सामाजिक, पारिवारिक और दांपत्य जीवन में विश्वसनीयता बहुत आवश्यक है। यदि छोटी-छोटी बातों पर शक उत्पन्न हो गया तो रिश्तों में कड़वाहट और दरार पैदा हो जाती है। बात-बात पर शक करने के कारण किसी से भी नहीं बनती, कोई अपना नहीं होता या महसूस नहीं हो पाता जिसके फलस्वरूप मानसिक तनाव, अकेलापन तथा अविश्वास के कारण स्वस्थ्यगत परेशानियाॅ भी बढ़ जाती है। शक का कारण अगर हम ज्योतिषीय गणना द्वारा देखें तो शक बहुधा कमजोर मानसिकता को दर्शाता है। अतः यदि किसी का लग्नेश या तृतीयेश छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए अथवा तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से पापाक्रांत हो, तो ऐसे जातक को शक करने की आदत होती है। इसी प्रकार अगर किसी के लग्न, तीसरे अथवा एकादश स्थान का स्वामी बुध होकर विपरीतकारक हो तो नाकारात्मक विचार के कारण सभी को शक की नजर से देखते है। इसी प्रकार अगर शनि द्वादशेश या तृतीयेश होकर तीसरे स्थान पर प्रभाव डालें तो ऐसे लोगों को झूठ बोलेने की आदत होती है और ऐसे लोग दूसरों पर भी शक करते हैं। इसी प्रकार अगर शनि इन स्थानों पर होकर जिस स्थान पर दृष्टि डालता है, उस स्थान से संबंधित व्यक्ति पर शक की सुई ज्यादा गहरी होती है। इस प्रकार यदि बात-बात शक हो और कई बार इस शक के कारण अपमानित महसूस कर रहे हों तो तृतीयेश को मजबूत बनाने के लिए तीसरे स्थान के ग्रह की शांति, मंत्रजाप तथा दान करना चाहिए। इसके अलावा शनि हेतु शनि के मंत्रों का जाप, काली चीजों का दान तथा जामुनिया धारण करना चाहिए।
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कलंक या बदनामी का कारण और ज्योतिषीय उपाय -

कलंक या बदनामी किसी भी इंसान के लिए सबसे बुरा वक्त कहा जा सकता है। कई बार जीवन में आप कुछ भी गलत नहीं कर रहे होते हैं किंतु जब कालचक्र की गति विपरीत होती है, तब उसके निशाने पर आ ही जाते हैं। सामान्य वक्त में कुछ जातक जरूर कुछ गलत या कार्य या गतिविधियों में लिप्त होते हैं हालांकि तब उन पर कोई भी दाग प्रत्यक्षतः नहीं लगता और वह साफ-साफ बच निकलता है किंतु बुरा वक्त उन्हें भी नहीं छोड़ता और ऐसे में उनका छोटा अपराध भी जग जाहिर हो जाता है। एक और परिस्थिति तब आती है जबकि आप तो किसी के बारे में अच्छा सोचते हों और अच्छा करते भी हों किंतु वही इंसान आपके बारे में गलत धारणा बैठा ले.........राहु अथवा द्वितीयेश, तृतीयेश, अष्टमेश या भाग्येश के ग्रहों का संबंध या दृष्टि संबंध बने या शनि, गुरू जैसे ग्रह राहु से पापाक्रंात हो और उन ग्रहों की दशाएॅ चले तो व्यक्ति मतिभ्रम का शिकार बनता है, अपने को श्रेष्ठ समझने लगता है और परिणामस्वरूप उसके द्वारा अक्सर गलतियां ही होती हैं। राहु जब किसी क्रूर या पापी ग्रह के साथ होते हैं तो ऐसे में उनका बुरा प्रभाव अधिक भयावह रूप से सामने आता है..........यदि किसी जातक की जन्म कुण्डली के अनुसार ऐसी स्थिति बने तो ऐसे में उसे कलंक, बेवजह बदनामी का सामना करना ही पड़ता है। यदि इस दरमियान किसे जातक का आचरण सही नहीं है तो उसे इसका दण्ड जरूर मिलता है......अतः जानते बुझते या अनजाने में भी इस प्रकार की स्थिति बन रही हो, तो जातक को पितृशांति करानी चाहिए। पापाक्रांत ग्रहों को शांत करने के लिए मंत्रजाप, दान तथा व्रत-पूजन करना चाहिए।
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अभीष्ट सिद्ध हेतु करें - पद्मा एकादशी


पद्मा एकादशी या परिवर्तनी एकादशी भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी को कहा जाता है। यह लक्ष्मी का परम आह्लादकारी व्रत है। इस दिन आषाढ़ मास से शेष शैय्या पर निद्रामग्न भगवान विष्णु शयन करते हुए करवट बदलते हैं। इस एकादशी को वर्तमान एकादशी भी कहते हैं। इस एकादशी को भगवान के वामन अवतार का व्रत व पूजन किया जाता है। इस व्रत को करने से सभी प्रकार के अभीष्ट सिद्ध होते हैं। भगवान विष्णु के बौने रूप वामन अवतार की यह पूजा वाजपेय यज्ञ के समान फल देने वाली समस्त पापों को नष्ट करने वाली है। इस दिन लक्ष्मी का पूजन करना श्रेष्ठ है, क्योंकि देवताओं ने अपना राज्य को पुनः पाने के लिए महालक्ष्मी का ही पूजन किया था। इस दिन व्रती को चाहिए कि प्रातः स्नान आदि से निवृत होकर भगवान वामनजी की प्रतिमा स्थापित करके मत्स्य, कूर्म, वाराह, आदि नामों का उच्चारण करते हुए गंध, पुष्प आदि से विधिपूर्वक पूजन करें। फिर दिनभर उपवास रखें और रात्रि में जागरण करें। दूसरे दिन पुनः पूजन करें तथा ब्राह्मण को भोजन कराएँ व दान दें। तत्पश्चात स्वयं भोजन करके व्रत समाप्त करें। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन वामन रूप की पूजा करता है, उसे तीनों लोक पूज्य होते हैं। अतः मोक्ष की इच्छा करने वाले मनुष्य इस व्रत को अवश्य करें। जो विधिपूर्वक इस एकादशी का व्रत करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर स्वर्ग में जाकर चंद्रमा के समान प्रकाशित होते हैं और यश पाते हैं। जो पापनाशक इस कथा को पढ़ते या सुनते हैं, उनको हजार अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है।

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साथी से सुख प्राप्त करने के ज्योतिषीय कारक-

प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका साथी उसके लिए लाभकारी तथा सुखकारी हो, किंतु कई बार सभी प्रकार से अच्छा करने के बाद भी साथ वाला व्यक्ति आपके लिए दुख का कारक बन जाता है। ज्योतिष से जाने कि आपके साथी के साथ व्यवहार कैसा होगा। सप्तमभाव या सप्तमेष का किसी से भी प्रकार से मंगल, शनि या केतु से संबंध होने पर रिश्तों में बाधा, सुख में कमी का कारण बनता है वहीं शुक्र से संबंधित हो तो रिश्तों में आकर्षक तथा लगाव होगा तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा भौतिक सुख भी अच्छी होगी, जिसका लाभ साथी को भी मिलेगा। ऐसी स्थिति सप्तम या सप्तमेष का किसी भी प्रकार का संबंध 6, 8 या 12 वे भाव से बनने पर भी दिखाई देता है। वहीं पर लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश या द्वादशेष की युक्ति किसी भी प्रकार से शनि के साथ बनने पर लगाव के साथ अधिकार का भाव ज्यादा होता है। अतः इन ग्रहों के विपरीत फलकारी होने पर या कू्रर ग्रहों से आक्रांत होेने पर सर्वप्रथम इन ग्रहों से संबंधित निदान कराने के उपरांत ही साथी के साथ रिश्ता निभाना ज्यादा आसान होता है साथ ही कुंडली मिलान में नौ ग्रहों के मिलान कर भी आपसी समझ तथा लगाव को बढ़ाने के ज्योतिष उपाय करना चाहिए।

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रियल स्टेट में कैरियर-ज्योतिषीय गणना से पायें सफलता -

रियल-एस्टेट जहाँ व्यक्ति को शानदार करियर प्रदान करता है वहीं उस स्थान की सूरत बदल देता है। हालांकि यह क्षेत्र चुनौतियों से भरा हुआ है पर साथ ही उच्च पारितोषिक भी देता है। इस क्षेत्र में ढेर सारा धन कमाने के साथ-साथ कुछ करने का संतोष भी प्राप्त होता है.
रियल-एस्टेट क्षेत्र में करियर बनाने के लिए उन सभी गुणों और कौशल की आवश्यकता होती है जो की एक बिजनेस स्थापित करने के लिए जरूरी होते हैं। इसके लिए आपको लगातार लोगों से अपनी जान-पहचान तो चाहिए ही होता है साथ ही रीयल एस्टेट को ज्योतिष विवेचना द्वारा जाना जा सकता है कि आपको रीयल एस्टेट में कितना लाभ है। यदि चतुर्थेश केंद्र या त्रिकोण में हो, मंगल त्रिकोण में हो, चतुर्थेश स्वगृही, वर्गोत्तम, स्व नवांश या उच्च का हो तो भूमि व रीयल एस्टेट के काम में लाभ होता है। यदि व्यक्ति का चतुर्थेश बलवान हो और लग्न से उसका संबंध हो तो भवन सुख की प्राप्ति होती है। यदि चतुर्थ भाव पर दो शुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो व्यक्ति भवन का स्वामी बनता है व रीयल एस्टेट में मुनाफा कमाता है। अत यदि रियल-एस्टेट में कार्य कर रहें हैं और लगातार सफलता आपसे दूर है तो उपर्युक्त ग्रहों को अनुकूल कराया जाकर उन्नति प्राप्त की जा सकती है। 


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ज्योतिष के मिथक ‘‘नाड़ी दोष’ की पुनः व्याख्या क्यों नहीं ???

ज्योतिषषास्त्र के बहुत से मिथक हैं, जिनमें से एक प्रमुख है जिसपर खुली बहस होनी चाहिए वह है ‘‘नाड़ी दोष’’। खासकर जब ज्योतिष को विज्ञान मानते हों तो फिर तर्क की कसौटी पर मान्यताओ को कसना चाहिए। जहाँ पर 18 गुन विवाह का न्यूनतम पैमाना हो वहाॅ 28 और 32 गुणों में तलाक होना एक विडम्बना ही है..... नाड़ी की व्याख्या करने वाले बड़े गर्व से इसे संतान की वजह और कभी वैचारिक ऐक्यता की वजह बना कर बहुत से अच्छे सम्बन्धों को मना कर देते है। यह भी एक बड़ा सवाल है कि सिर्फ ब्राम्हणो में ही नाड़ी दोष क्यों ? बाकि जातियो पर ये असर कारक क्यों नहीं होता? क्या विवाह के मेलापक में जातिगत आधार इसे विज्ञान की जगह मान्यता की श्रेणी में नहीं खड़े नहीं कर रहे है ? इस पर भी समाधान कराने से ये दोष दूर भी हो सकते है ! बहुत सारे प्रश्न लोग मुझसे करते है मैं वही प्रश्न ज्यो का त्यों समाज के सामने रख रहा हूॅ। विवाह मानव जीवन का सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। इस संस्कार में बंधने से पूर्व वर एवं कन्या के जन्म नामानुसार गुण मिलान करके की परिपाटी है। गुण मिलान नही होने पर सर्वगुण सम्पन्न कन्या भी अच्छी जीवनसाथी सिद्व नही होगी और नंबर के आधार पर नकार दिया जाता है। गुण मिलाने हेतु मुख्य रुप से अष्टकूटों का मिलान किया जाता है। ये अष्टकुट है वर्ण, वश्य, तारा, योनी, ग्रहमैत्री, गण, राशि, नाड़ी। विवाह के लिए भावी वर-वधू की जन्मकुंडली मिलान करते नक्षत्र मेलापक के अष्टकूटों (जिन्हे गुण मिलान भी कहा जाता है) में नाडी को सबसे महत्वपूर्ण स्थान दिया जाता है। वैदिक ज्योतिष के मेलापक प्रकरण में गणदोष, भकूटदोष एवं नाडी दोष - इन तीनों को सर्वाधिक महत्व दिया जाता है। यह इस बात से भी स्पष्ट है कि ये तीनों कुल 36 गुणों में से (6़7़8=21) कुल 21 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं और शेष पाँचों कूट (वर्ण, वश्य, तारा, योनि एवं ग्रह मैत्री) कुल मिलाकर (1़2़3़4़5=15) 15 गुणों का प्रतिनिधित्व करते हैं। अकेले नाडी के 8 गुण होते हैं, जो वर्ण, वश्य आदि 8 कूटों की तुलना में सर्वाधिक हैं। इसलिए मेलापक में नाड़ी दोष एक महादोष माना गया है। समाज में होते लगातार तलाक इस वर्षो से स्थापित धारणा, पर पुनः विचार करने को मजबूर कर रहे है। आप कहेंगे की समाज में बदलते परिवेश मान्यताए और कानून इसके लिए दोषी है, पर इससे बात नहीं बनती। बल्कि हमें भी अपने ज्योतिषीय नियमो में बदलाव लाने के लिए प्रेरित करती हैं। जैसे ज्यादातर सामाजिक कानूनो की इन दिनों समीक्षा हो रही है हमे भी एक बार फिर से चिंतन करना होगा, नियमो की पुनः व्याख्या करनी होगी, और गुण मेलापक को अर्थात् ज्योतिष को विज्ञान साबित करने के लिए यह करना आवष्यक भी है।
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