थैलेसीमिया : यह रोग प्रायः आनुवांशिक होता है और अधिकतर बच्चों को ग्रसित करता है, उचित समय पर उपचार न होने पर बच्चे की मृत्यु तक हो सकती है। रक्त के लाल कणों की आयु लगभग 120 दिनों की होती है। लेकिन जब थैलेसीमिया होता है, तब इन कणों की आयु कम हो कर सिर्फ 20 दिन और इस से भी कम हो जाती है। इससे शरीर में स्थित हीमोग्लोबिन पर सीधा असर पड़ता है। यदि हीमोग्लोबिन की मात्रा शरीर में कम होती है, तो शरीर कमजोर हो जाता है, जिससे शरीर को कई रोग ग्रस्त कर लेते हैं। एक स्वस्थ जातक के शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं की संखया 45 से 50 लाख प्रति घन मिलीमीटर होती है। लाल रक्त कोशिकाओं का निर्माण लाल अस्थि मज्जा में होता है। हीमोग्लोबिन की उपस्थिति के कारण ही इन रक्त कोशिकाओं का रंग लाल दिखाई देता है। लाल रक्त कोशिकाएं शरीर में, ऑक्सीजन और कार्बनडाईऑक्साइड को परिवर्तित करती हैं। हीमोग्लोबिन में ऑक्सीजन से शीघ्रता से संयोजन कर अस्थायी यौगिक ऑक्सी हीमोग्लोबिन बनाने की क्षमता होती है। यह लगातार ऑक्सीजन को श्वसन संस्थान तक पहुंचा कर जातक को जीवन दान देता रहता है। गर्भ में बच्चा ठहर जाने पर अगर बच्चे के अंदर उचित मात्रा में हीमोग्लोबिन का अंश नहीं पहुंचता, तो बच्चा थैलेसीमिया का शिकार हो जाता है। बच्चे के जन्म से लगभग 6 माह में ही थैलेसीमिया के लक्षण नजर आ जाते हैं। बच्चे की त्वचा, नाखून, आंखें और जीभ पीली पड़ने लगती हैं। मुंह में जबड़े में भी दोष आ जाता है, जिससे दांत उगने में परेशानियां आने लगती हैं तथा दांतों में विषमता आने लगती है। यकृत और प्लीहा की लंबाई बढ़ने लगती है। बच्चे का विकास रुक जाता है। उपर्युक्त लक्षण पीलिया के भी होते हैं। यदि डॉक्टर इन्हें पीलिया समझ कर उपचार करते रहें, तो रोग बिगड़ने की संभावनाएं बढ़ जाती हैं। इसलिए रोग के लक्षणों की ठीक जांच कर के सही उपचार से लाभ प्राप्त हो सकता है। थैलेसीमिया दो प्रकार का होता है- 'माइनर' और 'मेजर'। माइनर थैलेसीमिया का रोगी सामान्य जीवन जीता है, जबकि मेजर थैलेसीमिया का रोगी असामान्य जीवन जीता है। मेजर थैलेसीमिया के रोगी को लगभग हर तीन सप्ताह में एक बोतल खून देना अनिवार्य हो जाता है। यदि समय पर रोगी को खून न मिले, तो जीवन का अंत हो जाता है। समय पर खून मिलता रहे, तो रोगी लंबा जीवन जी सकता है। जैसा कि ऊपर बताया गया है यह रोग आनुवंशिक होता है। यदि माता-पिता दोनों माइनर थैलेसीमिया के शिकार हैं, तब बच्चे को इस रोग की संभावना अधिक होती है। यदि माता-पिता दोनों में से कोई एक माइनर थैलेसीमिया का रोगी है, तो बच्चे को मेजर थैलेसीमिया की कोई संभावना नहीं होती। माइनर थैलेसीमिया के शिकार व्यक्ति को कभी भी इस बात का आभास नहीं होता कि उसके खून में दोष है। शादी से पहले पति-पत्नी के खून की जांच हो जाए, तो होने वाले बच्चे शायद इस आनुवंशिक रोग से बच जाएं। लाल रक्त कोशिकाओं की विकृति के उपचार में अभी वैज्ञानिकों को सफलता प्राप्त नहीं हुई है। लेकिन अनुसंधान लगातार जारी है। थैलेसीमिया से बचने के उपाय : शादी से पूर्व वर-वधू दोनों के रक्त की जांच अवश्य करवा लेनी चाहिए, ताकि होने वाली संतान को ऐसा रोग न हो। करीबी रिश्ते में शादी करने से परहेज करें। गर्भधारण के चार माह के अंदर बच्चे के भ्रूण का परीक्षण कराना चाहिए। भ्रूण में थैलेसीमिया के लक्षण पाते ही गर्भपात करवा लेना चाहिए। थैलेसीमिया के ज्योतिषीय कारण : थैलेसीमिया लाल रक्त कोशिकाओं की विकृति के कारण होता है। काल पुरुष की कुंडली में पंचम भाव यकृत का होता है। यकृत से रक्त की वृद्धि होती है। रक्त में लाल कोशिकाओं का निर्माण अस्थि मज्जा से होता है, जिसका कारक मंगल होता है। अस्थियों का कारक सूर्य होता है। रक्त की तरलता का कारक चंद्र है। यदि किसी कुंडली में पंचम भाव, पंचमेश, मंगल, सूर्य, लग्न और लग्नेश दुष्प्रभावों में हो जाएं, तो रक्त की लाल कोशिकाओं में विकृति पैदा होती है। इनमें विशेष कर मंगल प्रधान ग्रह है; अर्थात मंगल का दूषित होना रक्त से संबंधित व्याधियां देता है। विभिन्न लग्नों में थैलेसीमिया : मेष लग्न : लग्नेश मंगल षष्ठ भाव में हो, बुध द्वादश भाव में सूर्य से युक्त हो, लेकिन बुध अस्त न हो, चंद्र राहु से युक्त, या दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया हो सकता है। वृष लग्न : पंचमेश बुध गुरु से युक्त हो, मंगल पर गुरु की दृष्टि हो, लग्नेश त्रिक भावों में सूर्य से अस्त हो, चंद्र से द्वितीय, द्वादश भावों में कोई ग्रह न हो तो थैलेसीमिया रोग होता है। मिथुन लग्न : पंचमेश मंगल से युक्त या दृष्ट हो, लेकिन पंचमेश स्वगृही न हो, लग्नेश त्रिक भावों में गुरु से दृष्ट हो, चंद्र शनि से युक्त हो, तो थैलेसीमिया होता है। कर्क लग्न : पंचमेश मंगल, शनि से युक्त हो और बुध से दृष्ट हो, लग्नेश चंद्र, शनि, या राहु, केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होने की संभावना बढ़ जाती है। सिंह लग्न : लग्नेश पंचमेश से पंचम-नवम भाव में हो और शनि इन दोनों को पूर्ण दृष्टि से देख रहा हो, शनि पंचम भाव में हो और मंगल को देखता हो, मंगल चंद्र से युक्त और राहु-केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है। कन्या लग्न : पंचमेश मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, लग्नेश सूर्य से अस्त हो और त्रिक भावों में हो, गुरु पंचम भाव में हो और चंद्र से युक्त हो तथा केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है। तुला लग्न : पंचमेश गुरु से युक्त हो, लग्नेश और मंगल पर गुरु की दृष्टि हो, सूर्य भी गुरु से दृष्ट हो, चंद्र राहु -केतु से युक्त, या दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया हो सकता है। वृश्चिक लग्न : लग्नेश मंगल अष्टम भाव में हो और बुध से दृष्ट हो, बुध अस्त न हो और पंचमेश चंद्र से युक्त हो कर षष्ठ भाव में राहु-केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है। धनु लग्न : पंचमेश मंगल शुक्र से दृष्ट, अथवा युक्त हो, लग्नेश गुरु सूर्य से अस्त हो और बुध के अंश गुरु के अंशों से कुछ कम हों, लेकिन गुरु के अंशों के निकट हों; अर्थात् 10 के अंदर हों, चंद्र पंचम भाव में शनि, या राहु-केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है। मकर लग्न : गुरु पंचम भाव में, पंचमेश शुक्र एकादश भाव में सूर्य से अस्त हो, लग्नेश शनि त्रिक भावों में, मंगल-चंद्र नवम भाव में राहु-केतु से दृष्ट हों, तो थैलेसीमिया होता है। कुंभ लग्न : पंचमेश गुरु से युक्त, या दृष्ट हो और त्रिक भावों में हो, लग्नेश अस्त हो, मंगल चंद्र से युक्त, या दृष्ट हो और केतु से दृष्ट हो, तो थैलेसीमिया होता है। मीन लग्न : लग्नेश त्रिक भावो में अस्त हो, शुक्र पंचम भाव में शनि से युक्त हो, मंगल और पंचमेश राहु-केतु से युक्त हों और शुक्र से दृष्ट हों, तो थैलेसीमिया होता है। उपर्युक्त योग चलित पर आधारित हैं। दशा और गोचर में संबंधित ग्रह जब दुष्प्रभावों में रहेंगे, तो रोग में तीव्रता होगी। थैलेसीमिया अनुवांशिक है। इसलिए रोग मुक्ति की संभावनाएं बहुत कम होती हैं। उदाहरण कुंडली : यह जन्मकुंडली एक तीन वर्षीय बालक की है, जो थैलेसीमिया रोग से ग्रस्त है। बालक के जन्म समय तुला लग्न उदित हो रहा था। लग्न में सूर्य-बुध, तृतीय भाव में मंगल, चतुर्थ भाव में चंद्र केतु, सप्तम भाव में, गुरु- शनि, दशम में राहु, एकादश में शुक्र स्थित थे। जातक का जन्म सूर्य की दशा में, बुध के अंतर में हुआ। तुला लग्न की कुंडली में गुरु अकारक ग्रह है। पंचम भाव का स्वामी शनि गुरु से युक्त है। मंगल रक्त के लाल कणों के कारक पर गुरु की दृष्टि है। सूर्य पर गुरु की अकारक दृष्टि है। चंद्र केतु युक्त हो कर पीड़ित है। लग्नेश शुक्र पर भी गुरु की दृष्टि है। इसी कारण यह बालक मेजर थैलेसीमिया रोग से ग्रस्त है, क्योंकि पंचम भाव, लग्नेश, मंगल, चंद्र और सूर्य, जो क्रमशः यकृत, तन, रक्त मज्जा, रक्त और ऊर्जा के कारक हैं, सभी अकारक गुरु से पीड़ित है। इसी लिए जातक को मेजर थैलेसीमिया रोग है।
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