शोषण और भ्रष्टाचार में लिप्त हमारी पतित व्यवस्थाओं के विरोधस्वरूप उत्पन्न विद्रोहपूर्ण विचारधारा से प्रारम्भ होकर एक जन-आन्दोलन के रूप में विकसित होते हुये आतंक के पर्याय बने नक्सलवाद ने बंगाल से लेकर सम्पूर्ण भारत में आज अपने पैर पसार लिये हैं। इस लम्बी यात्रा के बीच इस विदोह के जनक कनु सान्याल ने विकृतावस्था को प्राप्त हुयी अपनी विचारधारा के हश्र से निराश होकर आत्महत्या भी कर ली। यह कटु सत्य है कि भ्रष्ट व्यवस्था और पतित नैतिक मूल्यों के प्रतिकार से अस्तित्व में आये नक्सलवाद को आज भी वास्तविक पोषण हमारी व्यवस्था द्वारा ही मिल रहा है। व्यवस्था, जिसमें सबकी भागीदारी है सरकार की भी और समाज की भी।
व्यवस्थायें आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं, ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस विकराल रूप ले चुका है।
नक्सलियों को सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नजऱबन्द करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती किंतु उनकी पत्नियों को टिकट देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है।
भारत में सभी समर्थों की केवल एक ही आति और एक ही धर्म है, इसे भी समझने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में सम्पूर्ण नीति निर्धारक तंत्र से लेकर पालनकर्ता तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। शिक्षा से लेकर नौकरी तक हर जगह पहुॅच या पैसे का बोलबाला है। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं।
अमेरिका कहीं भी आक्रमण करके अपनी सरकार चलाने लगता है। भारत के विभिन्न प्रांतों में चीन द्वारा प्रायोजित आज के नक्सली जो भी कर रहे हैं उसे उन्होंने सामाजिक विद्रोह का छद्म नाम दिया है जबकि यह विद्रोह नहीं है अपितु स्पष्टत: सत्ता प्राप्ति के लिये किया जा रहा गुरिल्ला युद्ध है। सत्ता के मूल में हिंसा है, इसे नकारा नहीं जा सकता। विश्व के सभी युद्धों का सत्य यही है। कहीं तो यह हिंसा दिखायी दे जाती है और कहीं पर नहीं। जहाँ दिखायी नहीं पड़ती वहाँ भी सत्ता के मूल में हिंसा ही है। केवल हत्या ही तो हिंसा नहीं है, कई रूप हैं उसके, हत्या से भी अधिक निर्मम और वीभत्स।
श्रीलंका में गृहयुद्ध, म्यांमार में दमन चक्र, नेपाल में माओवादी हिंसा, भारत में नक्सलवाद एवं पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के पीछे भी केवल सत्ता की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न रहा हो वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके बाद भी सत्ता के लिये हिंसा को किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ने ही नक्सलियों की रक्त हिंसा को जन्म दिया है। हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण दे रही हैं। यदि हमारी व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान अवसर प्रदान कर दें तो नक्सली या किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़ देंगी। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम निर्लज्ज खऱीद-फऱोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे, कम से कम अभी तो नहीं। तमाम सरकारी व्यवस्थाओं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत, रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
भारत में नक्सलवाद के कारण:
1- अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित ज्वार- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।
2- मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव - अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है। नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कनु सान्याल को आत्महत्या करनी पड़ी।
व्यवस्थायें आंकड़ों से चल रही हैं और आंकड़े कागज पर होते हैं, ज़ाहिर है कि हक़ीक़त भी ज़मीन पर नहीं कागज पर है। लूटमार के निर्लज्ज आखेट में हम सबने अपना-अपना नक्सलवाद विकसित कर लिया है। पूरे राष्ट्र की व्यवस्था में भ्रष्टाचार का वायरस विकराल रूप ले चुका है।
नक्सलियों को सत्ता चाहिए, वह भी हिंसा से। पर विचारणीय यह भी है कि लोकतंत्र का नक़ाब ओढ़कर देश में होने वाले चुनाव भी तो हिंसा से ही जीते जा रहे हैं। कहीं मतदान स्थल पर आक्रमण करके, कहीं मतदान दल को नजऱबन्द करके, कहीं मतदाता को डरा-धमका कर, तो कहीं उसे शराब और पैसे बाँटकर। भ्रष्टाचार के आरोपी नेताओं को दिखावे के लिये टिकट नहीं दी जाती किंतु उनकी पत्नियों को टिकट देकर पति के अपराध का पुरस्कार प्रदान कर दिया जाता है।
भारत में सभी समर्थों की केवल एक ही आति और एक ही धर्म है, इसे भी समझने की आवश्यकता है। भ्रष्टाचार की खुली प्रतियोगिता में सम्पूर्ण नीति निर्धारक तंत्र से लेकर पालनकर्ता तक सभी अपनी-अपनी सक्रिय भागीदारी निभा रहे हैं। शिक्षा से लेकर नौकरी तक हर जगह पहुॅच या पैसे का बोलबाला है। सड़कें बनती हैं तो पहली वर्षा में बह जाती हैं, भवन बनते हैं तो अधिग्रहण के पहले ही खण्डहर होने की सूचना देने लगते हैं।
अमेरिका कहीं भी आक्रमण करके अपनी सरकार चलाने लगता है। भारत के विभिन्न प्रांतों में चीन द्वारा प्रायोजित आज के नक्सली जो भी कर रहे हैं उसे उन्होंने सामाजिक विद्रोह का छद्म नाम दिया है जबकि यह विद्रोह नहीं है अपितु स्पष्टत: सत्ता प्राप्ति के लिये किया जा रहा गुरिल्ला युद्ध है। सत्ता के मूल में हिंसा है, इसे नकारा नहीं जा सकता। विश्व के सभी युद्धों का सत्य यही है। कहीं तो यह हिंसा दिखायी दे जाती है और कहीं पर नहीं। जहाँ दिखायी नहीं पड़ती वहाँ भी सत्ता के मूल में हिंसा ही है। केवल हत्या ही तो हिंसा नहीं है, कई रूप हैं उसके, हत्या से भी अधिक निर्मम और वीभत्स।
श्रीलंका में गृहयुद्ध, म्यांमार में दमन चक्र, नेपाल में माओवादी हिंसा, भारत में नक्सलवाद एवं पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकवाद के पीछे भी केवल सत्ता की ही आदिम भूख ही छिपी हुयी है। मानव समाज विकास की किसी भी स्थिति में क्यों न रहा हो वह अपने प्रभुत्व और सत्ता के लिये हिंसायें करता रहा है। किंतु इस सबके बाद भी सत्ता के लिये हिंसा को किसी मान्य सिद्धांत का प्रशस्तिपत्र नहीं दिया जा सकता। सत्ताधारियों की अरक्त हिंसा ने ही नक्सलियों की रक्त हिंसा को जन्म दिया है। हमारी राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक नीतियाँ इन्हें पोषण दे रही हैं। यदि हमारी व्यवस्थायें सबको जीने एवं विकास करने का समान अवसर प्रदान कर दें तो नक्सली या किसी भी उग्रवादी हिंसा को पोषण मिलना बन्द हो जायेगा और ये विचारधारायें दम तोड़ देंगी। आरक्षण के बटते कटोरों, राजनीतिक भ्रष्टाचार, बौद्धिक विकास हेतु अनुर्वरक स्थितियाँ, सरकारी नौकरियों तथा पदोन्नतियों की खुलेआम निर्लज्ज खऱीद-फऱोख़्त, त्रुटिपूर्ण कृषिनीतियाँ, कुटीर उद्योगों की हत्या एवं असंतुलित आर्थिक उदारीकरण आदि ऐसे पोषक तत्व हैं जो नक्सलवाद को मरने नहीं देंगे, कम से कम अभी तो नहीं। तमाम सरकारी व्यवस्थाओं, भारी भरकम बजट, पुलिस और सेना के जवानों की मौत, रेल संचालन पर नक्सली नियंत्रण से उत्पन्न आर्थिक क्षति और बड़े-बड़े रणनीतिकारों की मंहगी बैठकों के बाद भी नक्सली समस्या में निरंतर होती जा रही वृद्धि एक राष्ट्रीय चिंता का विषय है।
भारत में नक्सलवाद के कारण:
1- अनधिकृत भौतिक महत्वाकांक्षाओं के अनियंत्रित ज्वार- महत्वाकांक्षी होने में कोई दोष नहीं पर बिना श्रम के या कम से कम श्रम में अधिकतम लाभ लेने की प्रवृत्ति ही सारी विषमताओं का कारण है। सारा उद्योग जगत इसी विषमता की प्राणवायु से फलफूल रहा है। आर्थिक विषमता से उत्पन्न विपन्नता की पीड़ा वर्गसंघर्ष की जनक है।
2- मौलिक अधिकारों के हनन पर नियंत्रण का अभाव - अनियंत्रित महत्वाकाक्षाओं के ज्वार ने आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर डाका डालने की प्रवृत्ति में असीमित वृद्धि की है। नक्सलियों द्वारा जिस वर्गसंघर्ष की बात की जा रही है उसमें समर्थ और असमर्थ ही मुख्य घटक हैं, दलित या आदिवासी जैसे शब्द तो केवल भोले-भाले लोगों को बरगलाने के लिये हैं। समर्थ होने की होड़ में हर कोई शामिल है। मनुष्य की इस आदिम लोलुपता पर अंकुश लगाने के लिये वर्तमान में हमारे पास कोई वैधानिक उपाय नहीं है। मौलिक अधिकारों के हनन में नक्सलवादी भी अब पीछे नहीं रहे, शायद इसी कारण कनु सान्याल को आत्महत्या करनी पड़ी।
3- शोषण की पराकाष्ठायें - सामान्यत: आम मनुष्य सहनशील प्रवृत्ति का होता है, वह हिंसक तभी होता है जब शोषण की सारी सीमायें पार हो चुकी होती हैं। नक्सलियों के लिये शोषण की पराकाष्ठायें पोषण का काम करती हैं। शोषितों को एकजुट करने और व्यवस्था के विरुद्ध हिंसक विद्रोह करने के लिये अपने समर्थक बनाना नक्सलियों के लिये बहुत आसान हो जाता है।
4- सामाजिक विषमता - सामाजिक विषमता ही वर्गसंघर्ष की जननी है। आज़ादी के बाद भी इस विषमता में कोई कमी नहीं आयी। नक्सलियों के लिये यह एक बड़ा मानसिक हथियार है।
5- जनहित की योजनाओं की मृगमरीचिका - शासन की जनहित के लिए बनने वाली योजनाओं के निर्माण एवं उनके क्रियान्वयन में गंभीरता, निष्ठा व पारदर्शिता का अभाव रहता है जिससे वंचितों को भड़काने और नक्सलियों की नयी पौध तैयार करने के लिये इन माओवादियों को अच्छ बहाना मिल जाता है।
6- राजनीतिक इच्छाशक्ति का अभाव - आमजनता को अब यह समझ में आने लगा है कि सत्ताधीशों में न तो सामाजिक विषमतायें समाप्त करने, न भ्रष्टाचार को प्रश्रय देना बन्द करने और न ही नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति लेश भी राजनीतिक इच्छाशक्ति है। आर्थिक घोटालों के ज्वार ने नक्सलियों को देश में कुछ भी करने की मानसिक स्वतंत्रता प्रदान कर दी है।
7- लचीली कानून व्यवस्था, विलम्बित न्याय एवं कड़े कानून का अभाव -अपराधियों के प्रति कड़े कानून के अभाव, विलम्ब से प्राप्त होने वाले न्याय से उत्पन्न जनअसंतोष एवं हमारी लचीली कानून व्यवस्था ने नक्सलियों के हौसले बुलन्द किये हैं।
8- आजीविकापरक शिक्षा का अभाव एवं महंगी शिक्षा - रोजगारोन्मुखी शिक्षा के अभाव, उद्योग में परिवर्तित होती जा रही शिक्षा के कारण आमजनता के लिये महंगी और दुर्लभ हुयी शिक्षा, अनियंत्रित मशीनीकरण और कुटीर उद्योंगो के अभाव में आजीविका के दुर्लभ होते जा रहे साधनों से नक्सली बनने की प्रेरणा इस समस्या का एक बड़ा नया कारण है।
9- स्थानीय लोगों में प्रतिकार की असमर्थता - निर्धनता, शैक्षणिक पिछड़ेपन, राष्ट्रीयभावना के अभाव, नैतिक उत्तरदायित्व के प्रति उदासीनता और पुलिस संरक्षण के अभाव में स्थानीय लोग नक्सली हिंसाओं का सशक्त विरोध नहीं कर पाते जिसके कारण नक्सली और भी निरंकुश होते जा रहे हैं।
10- पर्वतीय दुर्गमता का भौगोलिक संरक्षण - देश के जिन भी राज्यों में भौगोलिक दुर्गमता के कारण आवागमन के साधन विकसित नहीं हो सके वहाँ की स्थिति का लाभ उठाते हुये नक्सलियों ने अपना आतंक स्थापित करने में सफलता प्राप्त कर ली है और अब वे इस अनुकूलन को बनाये रखने के लिये आवागमन के साधनों के विकास में बाधा उत्पन्न कर रहे हैं। यद्यपि, अब तो उनका बौद्धिक तंत्र नगरों और महानगरों में भी अपनी पैठ बना चुका है।
11- पड़ोसी देशों के उग्रवाद को भारत में प्रवेश की सुगमता - विदेशों से आयातित उग्र विचारधारा को भारत में प्रवेश करने से रोकने के लिये सरकार के पास राजनैतिक और कूटनीतिक उपायों का अभाव है जिसके कारण विचार और हथियार दोनो ही भारत में सुगमता से प्रवेश पाने में सफल रहते हैं।
नक्सलवाद की समस्या का समाधान - जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास जरूरी है क्योंकि बिना दृढ़ संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता।
शासकीय योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता, जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।
समुचित एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।
कानून व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल, जिससे लोगों को सहज और समय पर न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।
आजीविकापरक एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था, जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।
कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास, जिससे वर्गभेद की सीमायें नियंत्रित की जा सकें।
राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।
चीन और पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।
अगर झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा को देखा जाए तो नक्सलवाद की वजह से आदिवासी समाज को भारी क्षति हो रही है। झारखंड में हजारों निर्दोष आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में विभिन्न जेलों में डाल दिया गया है, वहीं छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भी कई हजार निर्दोष लोग जेलों में हैं। इसी तरह कई हजार लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गये हैं और महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया है। वहीं हजारों लोगों को पुलिस मुखबिर होने के आरोप में नक्सलियों ने मार गिराया है और बड़ी संख्या में आम ग्रामीणों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया है। कुल मिला कर कहें तो दोनों तरफ से आदिवासियों की ही हत्या हो रही है और उनका जीवन तबाह हो रहा है। यहां यह भी चर्चा करना जरूरी होगा कि बंदूक की नोंक पर नक्सलियों को खाना खिलाने, पानी पिलाने व शरण देने वाले आदिवासियों पर सुरक्षा बल लगातार अत्याचार कर रहे हैं लेकिन अपना व्यापार चलाने के लिए नक्सलियों को लाखों रुपये, गोला-बारूद और अन्य जरूरी समान देने वाले औद्योगिक घरानों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती है।
देश में आदिवासियों के संवैधानिक, कानूनी और पारंपरिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। पांचवीं अनुसूची के प्रावधान राज्यों में लागू नहीं हैं। इसके साथ ट्राइबल सब-प्लान का पैसा भी दूसरे मदों में खर्च किया जा रहा है, जो आदिवासी हक को लूटने जैसा है। आदिवासियों की इस हालत के लिए उनके जनप्रतिनिधि ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कभी भी ईमानदारी से उनके सवालों को विधानसभा और संसद में नहीं उठाया। फलस्वरूप, आज नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या बन गयी है लेकिन आदिवासियों की समस्या कभी भी देश की समस्या नहीं बन सकी बल्कि आदिवासियों को ही तथाकथित मुख्यधारा की समस्या मान लिया गया है क्योंकि वे ही प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों को सौंपना नहीं चाहते हैं और यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, कश्मीर में उग्रवादियों की, प्रदेशों में बाहुबलियों की और देश में अंतर्राष्ट्रीय माफिय़ाओं की समानांतर अंतर्सरकारें चल रही हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का एक सदस्य है और समाज के अन्य सदस्यों के प्रति प्रतिक्रिया करता है, जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्य उसके प्रति प्रक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रया उस समय प्रकट होती है जब समूह के सदस्यों के जीवन मूल्य तथा आदर्ष ऊॅचे हों, उनमें आत्मबोध तथा मानसिक परिपक्वता पाई जाए साथ ही वे दोषमुक्त जीवन व्यतीत करते हों। परिणाम स्वरूप एक स्वस्थ समाज का निमार्ण होगा तथा समाज में नागरिकों का योगदान भी साकारात्मक होगा। सामाजिक विकास में सहभागी होने के लिए ज्योतिष विषलेषण से व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर उचित उपाय अपनाने से जीवन मूल्य में सुधार लाया जा सकता है साथ ही लगातार होने वाले अपराध, हिंसा से समाज को मुक्त कराने में भी उपयोगी कदम उठाया जा सकता है। समाज और संस्कृति व्यक्ति के व्यवहार का प्रतिमान होता है, जिसमें आवश्यक नियंत्रण किया जाना संभव हो सकता है। सामाजिक तौर पर व्यवहार को नियंत्रण करने के लिए प्राथमिक स्तर पर विद्यालय जिसमें स्कूल में बच्चों के आदर्ष उनके शिक्षक होते हैं। शिक्षकों के आचरण व व्यवहार, रहन-सहन का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, उनके सौहार्दपूण व्यवहार से साकारात्मक और विपरीत व्यवहार से असुरक्षा, हीनता की भावना उत्पन्न होती है, जिसको देखने के लिए ज्योतिषीय दृष्टि है कि किसी की कुंडली में गुरू की स्थिति के साथ उसका द्वितीय तथा पंचम भाव या भावेष की स्थिति उसके गुरू तथा स्कूल षिक्षा से संबंधित क्षेत्र को दर्षाता है ये सभी अनुकूल होने पर सामाजिक विकास में सहायक होते हैं किंतु प्रतिकूल होने पर षिक्षा तथा षिक्षकों के प्रति असंतोष व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार तथा उसके प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक विकास में सहायक या बाधक हो सकता है। उसके उपरांत बच्चों के विकास में आसपडोस का बहुत प्रभाव पड़ता है, अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को आसपड़ोस में खेलने से मना करते हैं कि पड़ोस के बच्चों का व्यवहार प्रतिकूल होने से उनके बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, जिसके ज्योतिष दृष्टि है कि पड़ोस को जातक की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अगर तीसरा स्थान अनुकूल हो तो पड़ोस का वातावरण अनुकूल होगा, जिससे जातक का व्यवहार भी बेहतर होगा क्योंकि तीसरा स्थान मनोबल का भी होगा अत: मनोबल उच्च होगा। उसी प्रकार समुदाय और संस्कृति का प्रभाव देखने के लिए चूॅकि सकुदाय या जाति, रीतिरिवाज, नगरीय या ग्रामीण वातावरण का प्रभाव भी विकास में सहायक होता है, जिसे ज्योतिष गणना में पंचम तथा द्वितीय स्थान से देखा जाता है। पंचम स्थान उच्च या अनुकूल होने से जातक का सामाजिक परिवेष अच्छा होगा जिससे उसके सामाजिक विकास की स्थिति बेहतर होने से उस जातक के सामाजिक विकास में सहायक बनने की संभवना बेहतर होगी। इस प्रकार उक्त स्थिति को ज्योतिषीय उपाय से अनुकूल या प्रतिकूल बनाया जाकर समाज और राष्ट्र उत्थान में योगदान दिया जा सकता है।
नक्सलवाद की समस्या का समाधान - जन असंतोष के कारणों पर नियंत्रण और विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता के साथ-साथ कड़ी दण्ड प्रक्रिया नक्सली समस्या के उन्मूलन का मूल है। अधोलिखित उपायों पर ईमानदारी से किये गये प्रयास नक्सलवाद की समस्या के स्थायी उन्मूलन का मार्ग प्रशस्त करते हैं।
नक्सली समस्या के उन्मूलन के प्रति दृढ़ राजनीतिक इच्छाशक्ति का विकास जरूरी है क्योंकि बिना दृढ़ संकल्प के किसी भी उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती।
आम नागरिकों के मौलिक अधिकारों की रक्षा के उपायों से विकास के समान अवसरों की उपलब्धता की सुनिश्चितता।
शासकीय योजनाओं का समुचित क्रियान्वयन एवं उनमें पारदर्शिता की सुनिश्चितता, जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग सके।
समुचित एवं सहयोगपूर्ण कानून व्यवस्था- जिससे स्थानीय लोग नक्सलवादियों का प्रतिकार कर सकें और उन्हें जीवनोपयोगी आवश्यक चीजें उपलब्ध न कराने के लिये साहस जुटा सकें।
कानून व न्याय व्यवस्था में सुधार की आवश्यकता पर बल, जिससे लोगों को सहज और समय पर न्याय मिलने की सुनिश्चितता हो सके।
आजीविकापरक एवं सर्वोपलब्ध शिक्षा की व्यवस्था, जिससे सामाजिक विषमताओं पर अंकुश लग सके।
कुटीर उद्योगों को पुनर्जीवित करने के समुचित प्रयास, जिससे वर्गभेद की सीमायें नियंत्रित की जा सकें।
राष्ट्र के विकास की मुख्यधारा में नक्सलियों को लाने और उनके पुनर्व्यवस्थापन के लिये रोजगारपरक विशेष पैकेज की व्यवस्था।
चीन और पाकिस्तान से नक्सलियों को प्राप्त होने वाले हर प्रकार के सहयोग को रोकने के लिये दृढ़ राजनीतिक और सफल कूटनीतिक उपायों पर गम्भीरतापूर्वक चिंतन और तद्विषयक प्रयासों का वास्तविक क्रियान्वयन।
अगर झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा को देखा जाए तो नक्सलवाद की वजह से आदिवासी समाज को भारी क्षति हो रही है। झारखंड में हजारों निर्दोष आदिवासियों को नक्सली होने के आरोप में विभिन्न जेलों में डाल दिया गया है, वहीं छत्तीसगढ़ और उड़ीसा में भी कई हजार निर्दोष लोग जेलों में हैं। इसी तरह कई हजार लोग फर्जी मुठभेड़ में मारे गये हैं और महिलाओं के साथ सुरक्षा बलों ने बलात्कार किया है। वहीं हजारों लोगों को पुलिस मुखबिर होने के आरोप में नक्सलियों ने मार गिराया है और बड़ी संख्या में आम ग्रामीणों को नक्सलियों ने मौत के घाट उतार दिया है। कुल मिला कर कहें तो दोनों तरफ से आदिवासियों की ही हत्या हो रही है और उनका जीवन तबाह हो रहा है। यहां यह भी चर्चा करना जरूरी होगा कि बंदूक की नोंक पर नक्सलियों को खाना खिलाने, पानी पिलाने व शरण देने वाले आदिवासियों पर सुरक्षा बल लगातार अत्याचार कर रहे हैं लेकिन अपना व्यापार चलाने के लिए नक्सलियों को लाखों रुपये, गोला-बारूद और अन्य जरूरी समान देने वाले औद्योगिक घरानों पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं होती है।
देश में आदिवासियों के संवैधानिक, कानूनी और पारंपरिक अधिकारों का घोर उल्लंघन हुआ है। पांचवीं अनुसूची के प्रावधान राज्यों में लागू नहीं हैं। इसके साथ ट्राइबल सब-प्लान का पैसा भी दूसरे मदों में खर्च किया जा रहा है, जो आदिवासी हक को लूटने जैसा है। आदिवासियों की इस हालत के लिए उनके जनप्रतिनिधि ही सबसे ज्यादा जिम्मेदार हैं, जिन्होंने कभी भी ईमानदारी से उनके सवालों को विधानसभा और संसद में नहीं उठाया। फलस्वरूप, आज नक्सलवाद देश की सबसे बड़ी समस्या बन गयी है लेकिन आदिवासियों की समस्या कभी भी देश की समस्या नहीं बन सकी बल्कि आदिवासियों को ही तथाकथित मुख्यधारा की समस्या मान लिया गया है क्योंकि वे ही प्राकृतिक संसाधनों को पूंजीपतियों को सौंपना नहीं चाहते हैं और यही देश की सबसे बड़ी समस्या है। बस्तर में नक्सलियों की समानांतर सरकार चल रही है, कश्मीर में उग्रवादियों की, प्रदेशों में बाहुबलियों की और देश में अंतर्राष्ट्रीय माफिय़ाओं की समानांतर अंतर्सरकारें चल रही हैं।
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का एक सदस्य है और समाज के अन्य सदस्यों के प्रति प्रतिक्रिया करता है, जिसके फलस्वरूप समाज के सदस्य उसके प्रति प्रक्रिया करते हैं। यह प्रतिक्रया उस समय प्रकट होती है जब समूह के सदस्यों के जीवन मूल्य तथा आदर्ष ऊॅचे हों, उनमें आत्मबोध तथा मानसिक परिपक्वता पाई जाए साथ ही वे दोषमुक्त जीवन व्यतीत करते हों। परिणाम स्वरूप एक स्वस्थ समाज का निमार्ण होगा तथा समाज में नागरिकों का योगदान भी साकारात्मक होगा। सामाजिक विकास में सहभागी होने के लिए ज्योतिष विषलेषण से व्यक्ति की स्थिति का आकलन कर उचित उपाय अपनाने से जीवन मूल्य में सुधार लाया जा सकता है साथ ही लगातार होने वाले अपराध, हिंसा से समाज को मुक्त कराने में भी उपयोगी कदम उठाया जा सकता है। समाज और संस्कृति व्यक्ति के व्यवहार का प्रतिमान होता है, जिसमें आवश्यक नियंत्रण किया जाना संभव हो सकता है। सामाजिक तौर पर व्यवहार को नियंत्रण करने के लिए प्राथमिक स्तर पर विद्यालय जिसमें स्कूल में बच्चों के आदर्ष उनके शिक्षक होते हैं। शिक्षकों के आचरण व व्यवहार, रहन-सहन का बच्चों पर गहरा प्रभाव पड़ता है, उनके सौहार्दपूण व्यवहार से साकारात्मक और विपरीत व्यवहार से असुरक्षा, हीनता की भावना उत्पन्न होती है, जिसको देखने के लिए ज्योतिषीय दृष्टि है कि किसी की कुंडली में गुरू की स्थिति के साथ उसका द्वितीय तथा पंचम भाव या भावेष की स्थिति उसके गुरू तथा स्कूल षिक्षा से संबंधित क्षेत्र को दर्षाता है ये सभी अनुकूल होने पर सामाजिक विकास में सहायक होते हैं किंतु प्रतिकूल होने पर षिक्षा तथा षिक्षकों के प्रति असंतोष व्यक्ति के सामाजिक व्यवहार तथा उसके प्रतिक्रिया स्वरूप सामाजिक विकास में सहायक या बाधक हो सकता है। उसके उपरांत बच्चों के विकास में आसपडोस का बहुत प्रभाव पड़ता है, अक्सर अभिभावक अपने बच्चों को आसपड़ोस में खेलने से मना करते हैं कि पड़ोस के बच्चों का व्यवहार प्रतिकूल होने से उनके बच्चों पर दुष्प्रभाव पड़ेगा, जिसके ज्योतिष दृष्टि है कि पड़ोस को जातक की कुंडली में तीसरे स्थान से देखा जाता है अगर तीसरा स्थान अनुकूल हो तो पड़ोस का वातावरण अनुकूल होगा, जिससे जातक का व्यवहार भी बेहतर होगा क्योंकि तीसरा स्थान मनोबल का भी होगा अत: मनोबल उच्च होगा। उसी प्रकार समुदाय और संस्कृति का प्रभाव देखने के लिए चूॅकि सकुदाय या जाति, रीतिरिवाज, नगरीय या ग्रामीण वातावरण का प्रभाव भी विकास में सहायक होता है, जिसे ज्योतिष गणना में पंचम तथा द्वितीय स्थान से देखा जाता है। पंचम स्थान उच्च या अनुकूल होने से जातक का सामाजिक परिवेष अच्छा होगा जिससे उसके सामाजिक विकास की स्थिति बेहतर होने से उस जातक के सामाजिक विकास में सहायक बनने की संभवना बेहतर होगी। इस प्रकार उक्त स्थिति को ज्योतिषीय उपाय से अनुकूल या प्रतिकूल बनाया जाकर समाज और राष्ट्र उत्थान में योगदान दिया जा सकता है।
Pt.P.S.Tripathi
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