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Monday 18 May 2015

कुंडली में शनि ग्रह क्या है जानें

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अक्सर लोग शनि ग्रह का नाम सुनते ही डर जाते हैं, या फिर अगर किसी को कह दिया जाए कि उसकी कुंडली में शनि की साढे साती या ढैय्या चल रही है... तो उसकी हालत खराब दिखाई देती है.... ऐसे में शनि ग्रह से प्रभावित लोगों को डरने की जरुरत नहीं.... अगर आपकी कुंडली में सम्सया है तो उसका समाधान भी साथ ही मौजूद हैं... जरुरत है तो किसी विद्वान ज्योतिषी से सही सलाह लेकर उसके उपाय करने की.... यूं तो शनि ग्रह अच्छे बुरे कर्मों का फल देने वाला देवता है... और इसके प्रभाव से देवता तक नही बचे.... लेकिन जब शनि प्रस्न्न हो तो रंक को राजा बना देता है, इसी के विपरीत अगर शनिदेव रुष्ट हो जाएं तो राजा भी रंक हो जाते हैं.... कुंडली में शुभ स्थिति में बैठा शनि बडे बडे कारखानो या वाहनों का मालिक बना देता है.... शनिदेव जितना जल्दी नाराज होने वाले देवता हैं तो उनकी पूजा अर्चना करने वाले पर शनिदेव जल्द ही प्रसन्न हो जाते हैं...

नवग्रहों के मध्य शनि पृथ्वी से सबसे ज्यादा दूरी पर स्थित है... शनि एक राशि पर ढाई साल तक भ्रमण करता है... परंतु शनि का संपूर्ण राशि चक्र का भ्रमण 29 साल 5 महीने 17 दिन और पांच घंटे में तय होता है.. गोचर वश शनि जब किसी राशि में प्रवेश करता है तो अपने से बारहवी राशि में ढाई साल कष्टकारी होता है... दूसरी एवं बारहवीं राशि पर लगभग साढे सात सालों तक शनि के कारण प्रभावित चक्र प्रक्रिया को शनि की साढे साती कहते हैं... शनि की साढे साती के प्रभाव से जातक को शारिरिक कष्ट, मानसिक तनाव, ग्रह क्लेश, धन संबंधी हानि और बनते कामों में बाधा आना शुरु हो जाता है... गोचरवश शनि जब चंद्र राशि से चौथे या आठवें स्थान पर बैठा होता है तो यह स्थिति शनि की ढैय्या कहलाती है... शनि की ढैय्या के फलस्वरुप जातक को रोग, भारी धन की हानि, भाई बंधुओं से मनमुटाव, विदेश में परेशानी और अपमान का सामना करना पडता है...

कुंडली में शनि का असर है तो भी डरने की जरुरत नहीं

पूजा अर्चना से जल्द ही प्रसन्न होते हैं शनिदेव

ज्योतिषी की सलाह से नीलम पहनने से हो सकता है फायदा

शनिवार को सूर्यास्त के बाद की जाती है शनि की पूजा

तेल का दीपक जलाना और भगवान शिव की पूजा करना फायदेमंद

पीपल के पेड पर कच्ची लस्सी में काले तिल डालकर चढाना चाहिए

कुंडली में शनि ग्रह की खराब स्थिति के अनुसार ज्योतिषी नीलम नाम का रत्न धारण करने की सलाह देते हैं.... लेकिन सभी को नीलम माफिक आ जाए, ये भी संभव नहीं है... किसी को भी नीलम धारण करवाने की बाकायदा एक पूरी विधी होती है.... क्योंकि नीलम का असर तीन चार घंटों में ही दिखाई देना शुरु हो जाता है... चाहे अच्छा असर हो या बुरा.... इसलिए नीलम धारण करने से पहले किसी विद्वान ज्योतिषी की सलाह जरुर लें....

शनि सदैव अनिष्टकारी ही हो, एसा भी नही है... यदि किसी जातक के नवमांश कुंडली में शनि वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर या कुंभ में शुभ स्थिति में हो तो शनि की दशा व्यवसाय एवं कैरियर की दृष्टि से विशेष शुभदायी रहती है... शनि प्राय दुख कष्ट देकर दुष्ट कर्मों का भुगतान करवाता है... इस स्थिति में जातक को अपने भी पराए हो जाते हैं... यदि किसी जातक की जन्म कुंडली में शनि कष्टकरार फल प्रदान कर रहा है तो शनि पूजन विधि पूर्वक करने से लाभ मिलता है... शनि पूजन की विधिवत पूजा सायं सूर्यास्त के बाद करनी चाहिए... हर शनिवार को शनि मंत्र का संकल्प पूर्वक शुद्द मन से पाठ करें और शनिवासरी अमावस्या हो तो उस दिन शाम सूर्यास्त के बाद शनि पूजन मंत्र जाप और स्त्रोत पाठ करना विशेष लाभकारी साबित होता है... शनि की साढे साती और ढेय्या से कष्ट भोग रहे जातकों के लिए रोजाना सुबह के समय भगवान शिव की पूजा, पीपल के पेड के समीप कच्ची लस्सी में काले तिल डालकर वृक्ष के मूल में चढाना तथा शाम के समय तेल का दीपक जलाकर श्रद्धापूर्वक प्रार्थना करने से शनि अरिष्ठ की शांति होती है...

-शनि का बीज मंत्र...

ऊं प्रां प्रीं प्रौं सं शनये नमः

-शनि का नमस्कार मंत्र

नीलांजन समाभासं रवि पुत्र यमाग्रजम,

छायामार्तण्ड सम्भूतं तं नमामि शनैश्चरम्......

-शनि का वैदिक मंत्र ऊं शन्नो देवी रभिष्टाय आपो भवंतू पीतये शं योरभिस्त्रवंतु ना शं नमै...


शनिदेव पर तेल चढ़ाने के पीछे हैं कई कथाएं…-----------
शनिदेव के नाम आते ही अक्सर लोग डर जाते हैं... क्योंकि शनिदेव न्याय के देवता हैं और हमारे अच्छे बुरे कर्मों का फल भी तुरंत देते हैं... उनके गुस्से से बचने के लिए उनकी पूजा अर्चना करना ही सबसे बेहतर उपाय है...और पूजा अचर्ना की सबसे अच्छी विधि है शनिदेव पर तेल चढ़ाना... पुराणों में शनिवार के दिन शनि पर तेल चढ़ाने के पीछे कई भिन्न-भिन्न कथाएं हैं... जिन का धार्मिक और वैज्ञानिक दोनों महत्व है। शनिदेव से जुड़ी सभी कथाएं रामायण काल और विशेष रूप से भगवान हनुमान से जुड़ी हैं। अलग-अलग कथाओं में शनि को तेल चढ़ाने की चर्चा है लेकिन सार सभी का यही है।

एक कथा ये भी है कि शनि नीले रंग का क्रूर माना जाने वाला ग्रह है, जिसका स्वभाव कुछ उद्दण्ड था। अपने स्वभाव के चलते उसने श्री हनुमानजी को तंग करना शुरू कर दिया। बहुत समझाने पर भी वह नहीं माना तब हनुमानजी ने उसको सबक सिखाया। हनुमान की मार से पीड़ित शनि ने उनसे क्षमा याचना की तो करुणावश हनुमानजी ने उनको घावों पर लगाने के लिए तेल दिया। शनि महाराज ने वचन दिया जो हनुमान का पूजन करेगा तथा शनिवार को मुझपर तेल चढ़ाएगा उसका मैं कल्याण करुंगा।धार्मिक महत्व के साथ ही इसका वैज्ञानिक आधार भी है। धर्म शास्त्रों में कहा गया है कि शनिवार को तेल लगाने या मालिश करने से सुख प्राप्त होता है। उक्त वाक्य और शनि को तेल चढ़ाने का सीधा संबंध है। ज्योतिष शास्त्र में शनि को त्वचा, दांत, कान, हड्डियों और घुटनों में स्थान दिया गया है। उस दिन त्वचा रुखी, दांत, कान कमजोर तथा हड्डियों और घुटनों में विकार उत्पन्न होता है। तेल की मालिश से इन सभी अंगों को आराम मिलता है। अत: शनि को तेल अर्पण का मतलब यही है कि अपने इन उपरोक्त अंगों की तेल मालिश द्वारा रक्षा करो।दांतों पर सरसो का तेल और नमक की मालिश। कानों में सरसो तेल की बूंद डालें। त्वचा, हड्डी, घुटनों पर सरसो के तेल की मालिश करनी चाहिए। शनि का इन सभी अंगों में वास माना गया है, इसलिए तेल चढ़ाने से वे हमारे इन अंगों की रक्षा करते हैं और उनमें शक्ति का संचार भी करते हैं

जाने गायत्री मंत्र की सम्पूर्ण ज्ञान


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समस्त विद्याओं की भण्डागार-गायत्री महाशक्ति 
ॐ र्भूभुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् 
गायत्री संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की आदि जननी है । वेदों को समस्त प्रकार की विद्याओं का भण्डार माना जाता है, वे वेद गायत्री की व्याख्या मात्र हैं । गायत्री को 'वेदमाता' कहा गया है । चारों वेद गायत्री के पुत्र हैं । ब्रह्माजी ने अपने एक-एक मुख से गायत्री के एक-एक चरण की व्याख्या करके चार वेदों को प्रकट किया । 

'ॐ भूर्भवः स्वः' से-ऋग्वेद
'तत्सवितुर्वरेण्यं' से-यर्जुवेद
'भर्गोदेवस्य धीमहि' से-सामवेद और 
'धियो योनः प्रचोदयात्' से अथर्ववेद की रचना हुई । 

इन वेदों से शास्त्र, दर्शन, ब्राह्मण ग्रन्थ, आरण्यक, सूत्र, उपनिषद्, पुराण, स्मृति आदि का निर्माण हुआ । इन्हीं ग्रन्थों से शिल्प, वाणिज्य, शिक्षा, रसायन, वास्तु, संगीत आदि ८४ कलाओं का आविष्कार हुआ । इस प्रकार गायत्री, संसार के समस्त ज्ञान-विज्ञान की जननी ठहरती है । जिस प्रकार बीज के भीतर वृक्ष तथा वीर्य की एक बूंद के भीतर पूरा मनुष्य सन्निहित होता है, उसी प्रकार गायत्री के २४ अक्षरों में संसार का समस्त ज्ञान-विज्ञान भरा हुआ है । यह सब गायत्री का ही अर्थ विस्तार है । 

मंत्रों में शक्ति होती है । मंत्रों के अक्षर शक्ति बीज कहलाते हैं । उनका शब्द गुन्थन ऐसा होता है कि उनके विधिवत् उच्चारण एवं प्रयोग से अदृश्य आकाश मण्डल में शक्तिशाली विद्युत् तरंगें उत्पन्न होती हैं, और मनःशक्ति तरंगों द्वारा नाना प्रकार के आध्यात्मिक एवं सांसारिक प्रयोजन पूरे होते हैं । साधारणतः सभी विशिष्ट मंत्रों में यही बात होती है । उनके शब्दों में शक्ति तो होती है, पर उन शब्दों का कोई विशेष महत्वपूर्ण अर्थ नहीं होता । पर गायत्री मंत्र में यह बात नहीं है । इसके एक-एक अक्षर में अनेक प्रकार के ज्ञान-विज्ञानों के रहस्यमय तत्त्व छिपे हुए हैं । 'तत्-सवितुः - वरेण्यं-' आदि के स्थूल अर्थ तो सभी को मालूम है एवं पुस्तकों में छपे हुए हैं । यह अर्थ भी शिक्षाप्रद हैं । परन्तु इनके अतिरिक्त ६४ कलाओं, ६ शास्त्रों, ६ दर्शनों एवं ८४ विद्याओं के रहस्य प्रकाशित करने वाले अर्थ भी गायत्री के हैं । उन अर्थों का भेद कोई-कोई अधिकारी पुरुष ही जानते हैं । वे न तो छपे हुए हैं और न सबके लिये प्रकट हैं । 

इन २४ अक्षरों में आर्युवेद शास्त्र भरा हुआ है । ऐसी-ऐसी दिव्य औषधियों और रसायनों के बनाने की विधियाँ इन अक्षरों में संकेत रूप से मौजूद हैं जिनके द्वारा मनुष्य असाध्य रोगों से निवृत्त हो सकता है, अजर-अमर तक बन सकता है । इन २४ अक्षरों में सोना बनाने की विधा का संकेत है । इन अक्षरों में अनेकों प्रकार के आग्नेयास्त्र, वरुणास्त्र, नारायणास्त्र, पाशुपतास्त्र, ब्रह्मास्त्र आदि हथियार बनाने के विधान मौजूद हैं । अनेक दिव्य शक्तियों पर अधिकार करने की विधियों के विज्ञान भरे हुए हैं । ऋद्धि-सिद्धियों को प्राप्त करने, लोक-लोकान्तरों के प्राणियों से सम्बन्ध स्थापित करने, ग्रहों की गतिविधि तथा प्रभाव को जानने, अतीत तथा भविष्य से परिचित होने, अदृश्य एवं अविज्ञात तत्त्वोंको हस्तामलकवत् देखने आदि अनेकों प्रकार के विज्ञान मौजूद हैं । जिकी थोड़ी सी भी जानकारी मनुष्य प्राप्त करले तो वह भूलोक में रहते हुए भी देवताओं के समान दिव्य शक्तियों से सुसम्पन्न बन सकता है । प्राचीन काल में ऐसी अनेक विद्याएँ हमारे पूर्वजों को मालूम थीं जो आज लुप्त प्रायः हो गई हैं । उन विद्याओं के कारण हम एक समय जगद्गुरु, चक्रवर्ती शासक एवं स्वर्ग-सम्पदाओं के स्वामी बने हुए थे । आज हम उनसे वञ्चित होकर दीन-हीन बने हुए हैं । 

‍आवश्यकता इस बात की है कि गायत्री महामन्त्र में सन्निहित उन लुप्तप्राय महाविद्याओं को खोज निकाला जाय, जो हमें फिर से स्वर्ग- सम्पदाओं का स्वामी बना सके । यह विषय सर्वसाधारण का नहीं है । हर एक का इस क्षेत्र में प्रवेश भी नहीं है । अधिकारी सत्पात्र ही इस क्षेत्र में कुछ अनुसंधान कर सकते हैं और उपलब्ध प्रतिफलों से जनसामान्य को लाभान्वित करा सकते हैं । 

गायत्री के दोनों ही प्रयोग हैं । वह योग भी है और तन्त्र भी । उससे आत्म-दर्शन और ब्रह्मप्राप्ति भी होती है तथा सांसारिक उपार्जन-संहार भी । गायत्री-योग दक्षिण मार्ग है- उस मार्ग से हमारे आत्म-कल्याण का उद्देश्य पूरा होता है । 

‍दक्षिण मार्ग का आधार यह है कि- विश्वव्यापी ईश्वरीय शक्तियों को आध्यात्मिक चुम्बकत्व से खींच कर अपने में धारण किया जाय, सतोगुण को बढ़ाया जाय और अन्तर्जगत् में अवस्थित पञ्चकोष, सप्त प्राण, चेतना चतुष्टय, षटचक्र एवं अनेक उपचक्रों, मातृकाओं, ग्रन्थियों, भ्रमरों, कमलों, उपत्यिकाओं को जागृत करके आनन्ददायिनी = अलौकिक शक्तियों का आविर्भाव किया जाय । 
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गायत्री-तन्त्र वाम मार्ग है- उससे सांसारिक वस्तुएँ प्राप्त की जा सकती हैं और किसी का नाश भी किया जा सकता है । वाम मार्ग का आधार यह है कि-'' दूसरे प्राणियों के शरीरों में निवास करने वाली शक्ति को इधर से उधर हस्तान्तरित करके एक जगह विशेष मात्रा में शक्ति संचित कर ली जाय और उस शक्ति का मनमाना उपयोग किया जाय ।'' 

तन्त्र का विषय गोपनीय है, इसलिए गायत्री तन्त्र के ग्रन्थों में ऐसी अनेकों साधनाएँ प्राप्त होती हैं, जिनमें धन, सन्तान, स्त्री, यश, आरोग्य, पदप्राप्ति, रोग-निवारण, शत्रु नाश, पाप-नाश, वशीकरण आदि लाभों का वर्णन है और संकेत रूप से उन साधनाओं का एक अंश बताया गया है । परन्तु यह भली प्रकार स्मरण रखना चाहिये कि इन संक्षिप्त संकेतों के पीछे एक भारी कर्मकाण्ड एवं विधिविधान है । वह पुस्तकों में नहीं वरन् अनुभवी साधना सम्पन्न व्यक्तियों से प्राप्त होता है, जिन्हें सद्गुरु कहते हैं । 

गायत्री की २४ शक्ति

गायत्री मंत्र में चौबीस अक्षर हैं । तत्त्वज्ञानियों ने इन अक्षरों में बीज रूप में विद्यमान उन शक्तियों को पहचाना जिन्हें चौबीस अवतार, चौबीस ऋषि, चौबीस शक्तियाँ तथा चौबीस सिद्धियाँ कहा जाता है । देवर्षि, ब्रह्मर्षि तथा राजर्षि इसी उपासना के सहारे उच्च पदासीन हुए हैं । 'अणोरणीयान महतो महीयान' यही महाशक्ति है । छोटे से छोटा चौबीस अक्षर का कलेवर, उसमें ज्ञान और विज्ञान का सम्पूर्ण भाण्डागार भरा हुआ है । सृष्टि में ऐसा कुछ भी नहीं, जो गायत्री में न हो । उसकी उच्चस्तरीय साधनाएँ कठिन और विशिष्ट भी हैं, पर साथ ही सरल भी इतनी है कि उन्हें हर स्थिति में बड़ी सरलता और सुविधाओं के साथ सम्पन्न कर सकता है । इसी से उसे सार्वजनीन और सार्वभौम माना गया । नर-नारी, बाल-वृद्ध बिना किसी जाति व सम्प्रदाय भेद के उसकी आराधना प्रसन्नता पूर्वक कर सकते हैं और अपनी श्रद्धा के अनुरूप लाभ उठा सकते हैं । 

'गायत्री संहिता' में गायत्री के २४ अक्षरों की शाब्दिक संरचना रहस्ययुक्त बतायी गयी है और उन्हें ढूँढ़ निकालने के लिए विज्ञजनों को प्रोत्साहित किया गया है । शब्दार्थ की दृष्टि से गायत्री की भाव-प्रक्रिया में कोई रहस्य नहीं है । सद्बुद्धि की प्रार्थना उसका प्रकट भावार्थ एवं प्रयोजन है । यह सीधी-सादी सी बात है जो अन्यान्य वेदमंत्रों तथा आप्त वचनों में अनेकानेक स्थानों पर व्यक्त हुई है । अक्षरों का रहस्य इतना ही है कि साधक को सत्प्रवृत्तियाँ अपनाने के लिए पे्रेरित करते हैं । इस प्रेरणा को जो जितना ग्रहण कर लेता है वह उसी अनुपात से सिद्ध पुरुष बन जाता है । कहा गया है- 
चतुविंशतिवर्णेर्या गायत्री गुम्फिता श्रुतौ । 
रहस्ययुक्तं तत्रापि दिव्यै रहस्यवादिभिः॥ गायत्री संहिता -८५ 
अर्थात्-वेदों में जो गायत्री चौबीस अक्षरों में गूँथी हुई है, विद्वान् लोग इन चौबीस अक्षरों के गूँथने में बड़े-बड़े रहस्यों को छिपा बतलाते हैं । 

गायत्री की २४ शक्तियों की उपासना करने के लिए शारदा तिलकतंत्र का मार्गदर्शन इस प्रकार है । 
ततः षडङ्गान्यभ्र्यचेत्केसरेषु यथाविधि । 
प्रह्लादिनी प्रभां पश्चान्नित्यां विश्वम्भरां पुनः॥ 
विलासिनी प्रभवत्यौ जयां शांतिं यजेत्पुनः । 
कान्तिं दुर्गा सरस्वत्यौ विश्वरूपां ततः परम्॥ 
विशालसंज्ञितामीशां व्यापिनीं विमलां यजेत् । 
तमोऽपहारिणींसूक्ष्मां विश्वयोनिं जयावहाम्॥ 
पद्मालयां परांशोभां पद्मरूपां ततोऽर्चयेत् । 
ब्राह्माद्याः सारुणा बाह्यं पूजयेत् प्रोक्तलक्षणाः॥ -शारदा० २१ ।२३ से २६ 
अर्थात्-पूजन उपचारों से षडंग पूजन के बाद प्रह्लादिनी, प्रभा, नित्या तथा विश्वम्भरा का यजन (पूजन) करें । पुनः विलासिनी, प्रभावती, जया और शान्ति का अर्चन करना चाहिए । इसके बाद कान्ति, दुर्गा, सरस्वती और विश्वरूपा का पूजन करें । पुनः विशाल संज्ञा वाली-ईशा (विशालेशा), 'व्यापिनी' और 'विमला' का यजन करना चाहिए । इसके अनन्तर 'तमो', 'पहारिणी', 'सूक्ष्मा', 'विश्वयोनि', 'जयावहा', 'पद्मालया', 'पराशोभा' तथा पद्मरूपा आदि का यजन करें । 'ब्राह्मी' 'सारुणा' का बाद में पूजन करना चाहिए ।


वास्तुनियम से बनाएं अपना घर और सुखी जीवन जियें

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- उत्तर दिशा जल तत्व की प्रतीक है। इसके स्वामी कुबेर हैं। यह दिशा स्त्रियों के लिए अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है। इस दिशा में घर की स्त्रियों के लिए रहने की व्यवस्था नहीं होनी चाहिए।
- उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र अर्थात्‌ ईशान कोण जल का प्रतीक है। इसके अधिपति यम देवता हैं। भवन का यह भाग ब्राह्मणों, बालकों तथा अतिथियों के लिए शुभ होता है।
- पूर्वी दिशा अग्नि तत्व का प्रतीक है। इसके अधिपति इंद्रदेव हैं। यह दिशा पुरुषों के शयन तथा अध्ययन आदि के लिए श्रेष्ठ है।

- दक्षिणी-पूर्वी दिशा यानी आग्नेय कोण अग्नि तत्व की प्रतीक है। इसका अधिपति अग्नि देव को माना गया है। यह दिशा रसोईघर, व्यायामशाला या ईंधन के संग्रह करने के स्थान के लिए अत्यंत शुभ होती है।
- दक्षिणी दिशा पृथ्वी का प्रतीक है। इसके अधिपति यमदेव हैं। यह दिशा स्त्रियों के लिए अत्यंत अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है।
- दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र यानी नैऋत्य कोण पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। यह क्षेत्र अनंत देव या मेरूत देव के अधीन होता है। यहाँ शस्त्रागार तथा गोपनीय वस्तुओं के संग्रह के लिए व्यवस्था करनी चाहिए।

- पश्चिमी दिशा वायु तत्व की प्रतीक है। इसके अधिपति देव वरुण हैं। यह दिशा पुरुषों के लिए बहुत ही अशुभ तथा अनिष्टकारी होती है। इस दिशा में पुरुषों को वास नहीं करना चाहिए।
- उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र यानी वायव्य कोण वायु तत्व प्रधान है। इसके अधिपति वायुदेव हैं। यह सर्वेंट हाउस के लिए तथा स्थायी तौर पर निवास करने वालों के लिए उपयुक्त स्थान है।
- आग्नेय, दक्षिणी-पूर्वी कोण में नालियों की व्यवस्था करने से भू-स्वामी को अनेक कष्टों को झेलना पड़ता है। गृहस्वामी की धन-सम्पत्ति का नाश होता है तथा उसे मृत्युभय बना रहता है।

नै कोण में जल-प्रवाह की नालियां भू-स्वामी पर अशुभ प्रभाव डालती हैं। इस कोण में जल-प्रवाह, नालियों का निर्माण करने से भू-स्वामी पर अनेक विपत्तियाँ आती हैं।
- दक्षिण दिशा में निकास नालियाँ भूस्वामी के लिए अशुभ तथा अनिष्टकारी होती हैं। गृहस्वामी को निर्धनता, राजभय तथा रोगों आदि समस्याओं से जूझना पड़ता है।
- उत्तर दिशा में निकास नालियाँ हों तो यह स्थिति भूस्वामी के लिए बहुत ही शुभ तथा राज्य लाभ देने वाली होती है।

- ईशान, उत्तर-पूर्व कोण में जल प्रवाह की नालियाँ भूस्वामी के लिए श्रेष्ठ तथा कल्याणकारी होती हैं। गृहस्वामी को धन-सम्पत्ति की प्राप्ति होती है तथा आरोग्य लाभ होता है।
- शयनकक्ष में पलंग को दक्षिणी दीवार से लगाकर रखें। सोते समय सिरहाना उत्तर में या पूर्व में कदापि न रखें। सिरहाना उत्तर में या पूर्व में होने पर गृहस्वामी को शांति तथा समृद्धि की प्राप्ति नहीं होती है।

वास्तुशास्त्र घर को व्यवस्थित रखने की कला का नाम है। इसके सिद्धांत, नियम और फार्मूले किसी मंत्र से कम शक्तिशाली नहीं हैं। आप वास्तु के अनमोल मंत्र अपनाइए और सदा सुखी रहिए।

वास्तु ज्योतिष के अनुरूप कैसे बनायें बाथरूम और शयन कक्ष

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वास्तु ज्योतिष से कैसे बनायें बाथरूम और शयन कक्ष

बाथरूम यह मकान के नैऋत्य; पश्चिम-दक्षिण कोण में एवं दिशा के मध्य अथवा नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य में होना उत्तम है। वास्तु के अनुसार, पानी का बहाव उत्तर-पूर्व में रखें।

जिन घरों में बाथरूम में गीजर आदि की व्यवस्था है, उनके लिए यह और जरूरी है कि वे अपना बाथरूम आग्नेय कोण में ही रखें, क्योंकि गीजर का संबंध अग्नि से है। चूँकि बाथरूम व शौचालय का परस्पर संबंध है तथा दोनों पास-पास स्थित होते हैं। शौचालय के लिए वायव्य कोण तथा दक्षिण दिशा के मध्य या नैऋत्य कोण व पश्चिम दिशा के मध्य स्थान को सर्वोपरि रखना चाहिए।

शौचालय में सीट इस प्रकार हो कि उस पर बैठते समय आपका मुख दक्षिण या उत्तर की ओर होना चाहिए। अगर शौचालय में एग्जास्ट फैन है, तो उसे उत्तरी या पूर्वी दीवार में रखने का निर्धारण कर लें। पानी का बहाव उत्तर-पूर्व रखें।

वैसे तो वास्तु शास्त्र-स्नान कमरा व शौचालय का अलग-अलग स्थान निर्धारित करता है,पर आजकल जगह की कमी के कारण दोनों को एक साथ रखने का रिवाज-सा चल पड़ा है।

लेकिन ध्यान रखें कि अगर बाथरूम व लैट्रिन, दोनों एक साथ रखने की जरूरत हो तो मकान के दक्षिण-पश्चिम भाग में अथवा वायव्य कोण में ही बनवाएँ या फिर आग्नेय कोण में शौचालय बनवाकर उसके साथ पूर्व की ओर बाथरूम समायोजित कर लें। स्नान गृह व शौचालय नैऋत्य व ईशान कोण में कदापि न रखें।


पश्चिम दिशा में रखें शयनकक्ष-----

बैडरूम कई प्रकार के होते हैं। एक कमरा होता है- गृह स्वामी के सोने का एक कमरा होता है परिवार के दूसरे सदस्यों के सोने का। लेकिन जिस कमरे में गृह स्वामी सोता है, वह मुख्य कक्ष होता है।

अतः यह सुनिश्चित करें कि गृह स्वामी का मुख्य कक्ष; शयन कक्ष, भवन में दक्षिण या पश्चिम दिशा में स्थित हो। सोते समय गृह स्वामी का सिर दक्षिण में और पैर उत्तर दिशा की ओर होने चाहिए।

इसके पीछे एक वैज्ञानिक धारणा भी है। पृथ्वी का दक्षिणी ध्रुव और सिर के रूप में मनुष्य का उत्तरी ध्रुव और मनुष्य के पैरों का दक्षिणी ध्रुव भी ऊर्जा की दूसरी धारा सूर्य करता है। इस तरह चुम्बकीय तरंगों के प्रवेश में बाधा उत्पन्न नहीं होती है। सोने वाले को गहरी नींद आती है। उसका स्वास्थ्य ठीक रहता है। घर के दूसरे लोग भी स्वस्थ रहते हैं। घर में अनावश्यक विवाद नहीं होते हैं।

यदि सिरहाना दक्षिण दिशा में रखना संभव न हो, तो पश्चिम दिशा में रखा जा सकता है। स्टडी; अध्ययन कक्ष वास्तु शास्त्र के अनुसार आपका स्टडी रूम वायव्य, नैऋत्य कोण और पश्चिम दिशा के मध्य होना उत्तम माना गया है।

ईशान कोण में पूर्व दिशा में पूजा स्थल के साथ अध्ययन कक्ष शामिल करें, अत्यंत प्रभावकारी सिद्ध होगा। आपकी बुद्धि का विकास होता है। कोई भी बात जल्दी आपके मस्तिष्क में फिट हो सकती है। मस्तिष्क पर अनावश्यक दबाव नहीं रहता।

राशियों में केतु का प्रभाव

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प्रत्येक ग्रह परिभ्रमण करते हुए द्वादश राशियों पर विराजमान रहते हैं। मेष से मीन तक। केतु किस राशि पर स्थित है तो क्या प्रभाव देगा, जानिए।

मेष : यदि केतु जातक की कुंडली में मेष राशि पर विराजमान है तो भौतिकवादी, धन संग्रह करने वाला, स्वार्थी, लोभी, चंचल बहुभाषी
सुखी के साथ जातक के चेहरे पर चेचक के दाग होंगे।

वृषभ : वृषभ राशि पर यदि केतु स्थित है, तो जातक तीर्थ में धार्मिक पर्वों में रु‍चि लेने वाला, आलसी, उदार, दानी तथा जातक परोपकारी होता है।

मिथुन : मिथुन राशि पर यदि केतु स्थित है, तो वात्-विकारी, अल्पसंतोषी, दम्भी, अल्पायु, प्रभावशाली संगीतज्ञ, व्यवहार कुशल, विद्वान के समान व्यक्तित्व होगा।

कर्क : कर्क राशि पर यदि केतु स्थित है तो धननाशक, अध्यात्मवादी, परिश्रमी, दूसरे का ध्यान केंद्रित करने वाला, कफ से पीड़ित के
साथ, प्रेत बाधा के योग जातक को होते हैं।

सिंह : सिंह राशि पर यदि केतु विराजमान है, तो बहुभाषी डरपोक असहिष्णु और उच्च गुणों वाला होता है। इसी के साथ विविध कला में निपुण, विद्वान होता है।

कन्या : कन्या राशि पर केतु स्थित है, तो जातक बीमार रहने वाला, धन नाशक के साथ मूर्ख, अल्पबुद्धि एवं शरीर से कमजोर रहता
है।

तुला : तुला राशि में केतु स्थित है तो कामी, क्रोधी, दुखी, हणी, असंतोषी एवं जातक को कुष्ठ रोग होने की पूर्ण स्थि‍ति बनती है।

वृश्चिक : वृश्चिक राशि में केतु स्थित हो तो क्रोधी, कुष्ठ रोगी, धूर्त, वाचाल, निर्धन के साथ व्यसन करने वाला होता है।

धनु : धनु राशि में विराजमान है तो जातक मिथ्‍यावादी, आदर्शवादी, चंचल, धनी, यशस्वी आस्तिक के साथ तीर्थ में प्रेम रखने वाला
होता है।

मकर : मकर राशि में हो तो व्यापार करने वाला, चंचल, तेजस्वी के साथ गूढ़ रहस्य को जानने वाला जातक में गुण होता है।

कुंभ : कुंभ राशि में हो तो भौतिकवादी मध्यम, अथवा साधारण धनी, खर्च करने वाला, भ्रमण प्रिय एवं कामी प्रवृत्ति का होता है।

मीन : मीन राशि पर विराजमान है तो जातक सज्जन, कर्ण रोगी के साथ आलोकिक शक्तियों से परिपूर्ण सहयोग पाता है।

विशेष : व्यक्ति मात्र पृथ्वी पर सुख की खोज में लगा रहता है परंतु सिर्फ निराशा हाथ लगती है। परंतु मरने के बाद मोक्ष प्राप्ति देने अथवा कराने का निर्णय केतु ग्रह ही लेता है। केतु का प्रभाव सात वर्ष तक रहता है। भवन एवं भूमि संबंधित कार्य सफल करने के लिए जातक को गणेश जी का पूजन विधिवत तरीके से करना चाहिए। उसके पश्चात केतु का पूजन करना चाहिए।

यमराज प्रसन्न होंगे : दीपदान करें धनतेरस पर

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कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की त्रयोदशी को धनतेरस का पर्व मनाया जाता है। इस दिन मृत्यु के देवता यमराज व भगवान विष्णु के अंशावतार धन्वन्तरि का पूजन किए जाने का विधान है। धनतेरस पर भगवान यमराज के निमित्त व्रत भी रखा जाता है।
पूजन विधि- इस दिन सायंकाल घर के बाहर मुख्य दरवाजे पर एक पात्र में अन्न रखकर उसके ऊपर यमराज के निर्मित्त दक्षिण की ओर मुंह करके दीपदान करना चाहिए। दीपदान करते समय यह मंत्र बोलना चाहिए-
"मृत्युना पाशहस्तेन कालेन भार्यया सह।त्रयोदश्यां दीपदानात्सूर्यज: प्रीतयामिति।।"

रात्रि को घर की स्त्रियां इस दीपक में तेल डालकर चार बत्तियां जलाती हैं और जल, रोली, चावल, फूल, गुड़, नैवेद्य आदि सहित दीपक जलाकर यमराज का पूजन करती हैं। हल जूती मिट्टी को दूध में भिगोकर सेमर वृक्ष की डाली में लगाएं और उसको तीन बार अपने शरीर पर फेर कर कुंकुम का टीका लगाएं और दीप प्रज्जवलित करें।
इस प्रकार यमराज की विधि-विधान पूर्वक पूजा करने से अकाल मृत्यु का भय समाप्त होता है तथा परिवार में सुख-समृद्धि का वास होता है।
दीपदान का महत्व :-
धर्मशास्त्रों में भी उल्लेखित है-कार्तिकस्यासिते पक्षे त्रयोदश्यां निशामुखे।यमदीपं बहिर्दद्यादपमृत्युर्विनश्यति।।
अर्थात- कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष की त्रयोदशी को यमराज के निमित्त दीपदान करने से मृत्यु का भय समाप्त होता है।
इस दिन भगवान धन्वंतरि का षोडशउपचार पूजा विधिवत करने का भी विशेष महत्व है जिससे परिवार में सभी स्वस्थ रहते हैं तथा किसी प्रकार की बीमारी नहीं होती।

विवाह पूर्व क्यों आवश्यक है गुण मिलाना

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वर्तमान आधुनिम परिवेष खुला वातावरण एवं टी.वी. संस्कुति के कारण हमारी युवा पीढी अपने लक्ष्यों से भटक रही है। विना सोच विचार किये गये प्रेम विवाह शीघ्र ही मन मुटाव के चलते तलाक तक पहुंच जाते हैं। टी.वीत्र धारावाहिकों एवं फिल्मो की देखादेखी युवक युवती एक दूसरे को आकर्षित करने प्रयास करते हैं। रोज डे, वेलेन्टाईन डे जैसे अवसर इस कार्यको बढावा देते है। पयार मोहब्बत करें लेकिन सोच समझकर। अवसाद कार षिकार होने आत्माहत्या से बचने या बदनामी से बचने हेतु दिल लगान से पूर्व अपने साथी से अपने गुण-विचार ठीक प्रकार से मिला लें ताकि भविष्य में पछताना न पडे। सोच-समझ कर ही निर्णय लें।
ग्रहों के कारण व्यत्ति प्रेम करता है और इन्हीं ग्रहों के प्रभाव से दिल भी टूटते हैं। ज्योतिष शास्त्रों में प्रेम विवाह के योगों के बारे में स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता है, परन्तु जीवनसाथी के बारे में अपने से उच्च या निम्र का विस्तृत विवरण है। कोई भी स्त्री-पुरूष अपने उच्च या निम्र कुल मं तभी विवाह करेगा जब वे दोनों प्रेम करते होंगे। आज की पढी-लिखी और घोर भोैतिकवादी युवा पीढी ओधिकतर प्रेम विवाह की ओर आकर्षित हो रही है। कई बार प्रेम एक-दूसरे की देखी या फेषन के तौर पर भी होता है किनतु जीवनपर्यत निभ नहीं पाता। ग्रह अनुकूल नहीं होन के कारण ऐसी स्थिति बनाती है। शास्त्रों मे प्रेम विवाह को गांधर्व विवाह के नाम से जाना जावाहै। किसी युवक-युवती के मध्य प्रेम की जो भावना पैदा होती है, वह सब उनके ग्रहों का प्रभाव ही होता है, जो कमाल दिखाता है। ग्रह हमारी मनोदषा, पसंद नापसंद और रूचियों को वय करते और बदलते है। वर्तमान में प्रेम विवाह बजुत हद तक गंधर्व विवाह का ही परिवर्तित रूप है।
प्रेम विवाह के कुछ मुख्य योग:
1 -लेग्रेष का पंचक से संबंध हो और जन्मपत्रिका में पंचमेष-सम्तमेष का किसी भी रूप मे संबंध हो। शुक्र, मंगल की युति, शुम्र की राषि में स्थिति और लग्र त्रिकोण का संबंधप्रेम संबंधो का सूचक है। पंचम या सप्तक भाव में शुक्र सप्तमेष या पंचमेष के साथ हो।
2 -किसी की जन्मपत्रिका में लग्न , पंचम , सप्तम भाव व इनके स्वामियों और शुक्र तथा चन्द्रमा जातक के वैवाहिक जीवन व प्रेम संबेधों को समान रूप से प्रभावित करते हैं। लग्र या लग्रेष का सप्तम और सप्तमेष का पंचम भाव व पंचमेष से किसी भी रूप में संबंध प्रेम संबंध की सूचना देता है। यह संबंध सफल होगा अथवा नही, इसकी सूचना ग्रह योगों की शुभ-अषुभ स्थिति देती है।
3 -यदि सप्तकेष लग्रेष से कमजोर हो अथवा यदि सप्तमेष अस्त हो अथवा मित्र राषि में हो या नवाष मे नीच राषि हो तो जातक का विवाह अपने से निम्र कुल में होता है। इसमे विपरित लगेष से सप्तवेष बाली हो, शुभ नवांष मे ही तो जीवनसाथी उच्च कुल का होता है।
4 -पंचमेष सप्तम भाव में हो अथवा लग्रंेष और पंचमेष सप्तम भाव के स्वामी के साथ लग में स्थित हो। सप्तमेष पंचम भाव मं हो और लग्र से संसबंध बना रहा हो। पंचमेष सप्तम में हो और सप्तमेष पंचम में हो। सप्तमेष लग्र में और लग्रेष सप्तम मे हो, साथ ही पंचम भाव के स्वामी से दृष्टि संबंधहो तो भी प्रेम संबंध का योग बनता है।
5 -पंचम में मंगल भी प्रेम विवाह करवाता हैं। यदि राहू पंचम या सप्तम में हो तो प्रेम विवाह की संभावना होती हैं। सप्तम भाव में यदि मेष राषि में मंगल हो तो प्रेम विवाह होता हैं सप्तमेष और पंचमेष एक-दूसरे के नक्षत्र पर हों तो भी प्रेम विवाह का योग बनता हैं।
6 -पंचमेष वथा सप्तमेष कहीं भी, किसी भी तरह से द्वादषेष से संबंध बनायें लग्रेष या सप्तमेष का आपस मं स्थान परिवर्तन अथवा आपस में युकत होना अथवा दृष्टि संबंधं।
7 -जैमिनी सूत्रानुसार दाराकारक और पुत्रकारक की युति भी प्रेम विवाह कराती है। पेचमेष और दाराकार का संबंध भी प्रेम विाह करवाताहै।
8-सप्तमेष स्वगृही हो, एकाादष स्थान पापग्रहों के प्रभाव में बिलकुल न हो, शुक्र लग्र मे ं लग्रेष के साथ, मंगल सप्तक भाव में हो, सप्तमेषके साथ, चन्द्रमा लग्र में लग्रेष के साथ हो, तो भी प्रेम विवाह का योग बनताहै।
प्रेम विाह असफल रहने के कारण:
9 शुक्र व मंगल की स्थिति व प्रभाव प्रेम संबेधें को प्रभावित करने की क्षमता रखते है। यदि किसी जातक की कुण्डली में सभीर अनुकूल स्थितियां होते हुई थी , शुक्र की स्थिति अनुकूल हो तो प्रेम संबंध टूटकर दिल टूटने की घटना होती र्है।
10 सपतम भाव या सव्तमेषका पाप पीडित होनापापयोग में होना प्रेम विवाह की सफलता पा प्रश्रचिह् लगाता है। पंचमेष व सप्तमेष देानों की स्थिति इस प्रकार हो कि उनका सपतम-पंचम से कोई संबंध न हो तो प्रेम की असफलता दुष्टिगत होतो है।
11 शुक्र का सुर्य के नक्षत्र में होनाऔर उस पर चन्द्रमा का प्रभाव होने की स्थिति में प्रेम संबेधहोने के उपरांत या परिस्थितिवष विवाह हो जाने पर भी सफलता नहीं मिलती । शुक्र का सूर्य-चन्द्रमा के मध्य में होना असफल प्रेम का कारण हौ।
12 पंचम व सप्तम भाव के स्वामी ग्रह यदि धीमी गति के ग्र्रह हों तो प्रेम संबंधों का योग होने पा चिर स्थाइ्र प्रेम की अनुभूति दर्षाता है। इस प्रकार के जातक जीवन भर प्रेम प्रसंगों को नहीं भूलते चाहे वे सफल हों या असफल।
प्रेम विवाह को बल देने या मजबूत करने के उपाय: 13 शुक्र देव की पूजा करें।
14 पंचमेश व सप्तमेष की पूजा करें।
15 पंचमेश का रत धारण करें ।
16 ब्ल्यू टोपाज सुखद दाम्पत्य एवं वषीकरएा हेतु पहनें।
17 चन्द्रमणी प्रेम प्रसंग में सफलता प्रदान करती है।
प्रेम विवाह के लिये जन्मकुण्डली के पहले, पांचवें सप्तम भाव के साथ-साथ बारहवें भाव को भी देखे क्योंकि विवाह के लिये बारहवां भाव भी देखा जाता हैं यह भाव शया सुख का भी है। इन भावों के साथ-साथ उन भावों के स्वामियों की स्थिति का पता करना होता है। यदि इन भावों के स्वामियों का संबंध किसी भी रूप् में अपने भावों से बन रहा हो तो निश्रित रूप से जातक प्रेम विवाह करता है।
अन्तरजातीय विवाह के मामले में शनि की मुख्य भूमिका होती है। यदि कुण्डली मे शनि का संबंध किसी भी रूप से प्रेम विवाह कराने वाले भावेषो के भाव से हो तो जातक अन्तरजातीय विवाह करेगा। जीवनसाथी का संबंध सातवें भाव से होता है, जबकि पंचम भाव को सन्तान, उदन एवं बुद्धि का भाव माना गया है, लेमिन यह भाव प्रेम को भी दर्षाता है। प्रेम विवाह के मामलों मे यह भाव विषेष भूमिका दर्षाता है।
कबीरदास जी, ने कहा है-
पोथी पढ-पढ जग मुआ पडित भयो ना कोई।
ढाई आखर प्रेम के, पढे सो पण्डित होई।।
प्रेम एक दिव्य, अलौकिक एवं वंदनीय तथा प्रफुलता देने वाली स्थिति है। प्रेम मनुष्य में करूणा , दुलार स्नेह की अनुभूति देताहै। फिर चाहे वह भक्त का भगवान से हो, माता का पुत्र से या प्रेमी का प्रेमिका के लिये हो, सभी का अपना महत्व है। प्रेम और विवाह ,विवाह और प्रेम दोनां के समान अर्थ है लेमिन दोनों के क्रम में परिवर्तन है। विवाह पश्रत पति या पत्नी के बीच समर्पण व भावनात्मकता प्रेम का एक पहलू है। प्रेम संबेध का विवाह में रूपांतरित होना इस बात को दर्षाता है कि प्रेमी-प्रेमिका एक दूसरे से भावनात्मक रूप् से इतनाजुडे हुये है िकवे जीवन भर साथ रहना चाहते है सर्वविदित है कि हिनदू संस्कृति में जिन सोलह संस्कारें का वर्णन कियाहै उनमें से विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कर है। जीवन के विकास, उसमें सरलता और सृष्टि को नये आयाम देने के लिये विवाह परम आवष्यक प्रकिगय है, इस सच्चाइ्र को नकारा नहीं जा सकता है। प्रेम और विवाह आदर्ष स्थितियों में वन्दनीय, आनन्ददायक और प्रफुलता देन वाला है।प्रेम संवंध का परिणाम विवाह होगा या नहीं इस प्राकर की स्थिति में ज्योतिष का आश्रय लेकर काफी हद तक भविष्य के संभावित परिणामों के बारे में जाना जा सकता है। दिल लगाने से पूर्व या टूटने की स्थिति न आये, इस हेतु प्रेमी प्रेमिका को अपनी जन्मपत्रिका के ग्रहों की स्थिति किसी योग्य ज्योतिषी से अवष्य पूछ लेनी चाहिये कि उनके जीवन में प्रेम की घटना होगी या नहीं। प्रेम ईश्रृर का वरदान है। प्रेम करे अवष्य लेकिन सोच समझकर।

जीवन में सुख समृद्धि हेतु उत्तर-पूर्व रखें शुभ



खुले स्थान का महत्व : वास्तु शास्त्र के अनुसार भूखण्ड में उत्तर, पूर्व तथा उत्तर-पूर्व (ईशान) में खुला स्थान अधिक रखना चाहिए। दक्षिण और पश्चिम में खुला स्थान कम रखें।

बॉलकनी, बरामदा, पोर्टिको के रूप में उत्तर-पूर्व में खुला स्थान ज्यादा रखें, टैरेस व बरामदा खुले स्थान के अन्तर्गत आता है। सुख-समृद्धि हेतु उत्तर-पूर्व में ही निर्मित करना शुभ होता है।

यदि दो मंजिला मकान बनवाने की योजना है, तो पूर्व एवं उत्तर दिशा की ओर भवन की ऊँचाई कम रखें। उन्हीं दिशाओं में ही छत खुली रखनी चाहिए। उत्तर-पूर्व में ही दरवाजे व खिड़कियाँ सर्वाधिक संख्या में होने चाहिए। यह भी सुनिश्चित करें कि दरवाजे व खिड़कियों की संख्या विषम न होने पाएँ। जैसे उनकी संख्या 2, 4, 6, 8 आदि रखें।

मकान में गार्डेनिंग ः ----आजकल लोग स्वास्थ्य के प्रति ज्यादा जागरूक होते जा रहे हैं। प्रायः शहरों में बन रहे मकानों में गार्डेनिंग की आवश्यकता पर जोर दिया जा रहा है। वास्तु के अनुसार मकान में गार्डेनिंग के कुछ नियम निर्धारित किए गए हैं। ऊँचे व घने वृक्ष दक्षिण-पश्चिम भाग में लगाएँ।

पौधे भवन में इस तरह लगाएँ कि प्रायः तीसरे प्रहर अर्थात्‌ तीन बजे तक मकान पर उनकी छाया न पड़े। वृक्षों में पीपल पश्चिम, बरगद पूर्व, गूलर दक्षिण और कैथ का वृक्ष उत्तर में लगाएँ।

वास्तु से लायें रिश्तों में प्रेम भाव

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ग्रह, उपग्रह, नक्षत्रों की चाल व ब्रह्मांड की क्रियाकलापों को देखते ही मन यह सोचने पर विवश हो जाता है कि यह परस्पर एक-दूसरे के चक्कर क्यों लगाते हैं। कभी तो अपनी परिधि में चलते हुए बिल्कुल पास आ जाते हैं तो कभी बहुत दूर। ब्रह्मांड की गतिशीलता व क्रियाकलाप परस्पर आपसी संबंधों पर निर्भर हैं। जिनको कभी हम प्रतिकूल और कभी अनुकूल स्थितियों में देखते या पाते हैं।

ठीक इसी के अनुरूप विश्व के देव-दानव, गंधर्व, नाग, किन्नर, मानव रिश्तों के डोर में आ बँधे। मानव जीवन के कई पवित्र व अनुपम रिश्ते हैं, जो जीवन के संचालन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं इनमें समय के अनुसार उतार-चढ़ाव देखे जाते हैं, जो जीवन पथ पर कई खट्टी-मीठी यादें देते रहते हैं। किन्तु बढ़ती नीरसता, स्वार्थपरता, आपाधापी व अनैतिकता से आज सिर्फ पिता-पुत्र के मध्य ही नहीं बल्कि अनेक रिश्ते मतभेद, कटुता, कलह, नीरसता व कंलक के हत्थे चढ़ते जा रहे हैं।

इन सम्पूर्ण विकारों ने मिलकर रिश्ते की पवित्र नींव को उखाड़ने का मानो ठेका ले रखा हो, शर्म, संकोच, दायित्व, सामाजिक मर्यादाएँ जो यथा समय इनकी रक्षा करती थीं आज वे विवश नजर आ रही हैं। जिन पंच तत्वों के सहारे तन, मन, श्वॉस, रक्त, दृष्टि में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता था आज उनकी वास्तु स्थिति गड़बडा गई है। आज वह लाख प्रयास करने के बावजूद भी चोट पर चोट खाते जा रहे हैं।
वास्तु अध्ययन व अनुभव यह बताता है कि जिस भवन में वास्तु स्थिति गड़बड होती है वहाँ व्यक्ति के पारिवारिक व व्यक्तिगत रिश्तों में अक्सर मतभेद, तनाव उत्पन्न होते रहते हैं। वास्तु में पूर्व व ईशानजनित दोषों के कारण पिता-पुत्र के संबंधों में धीरे-धीरे गहरे मतभेद व दूरियाँ उत्पन्न हो जाती हैं और साथ ही कई परिवारों को पुत्र हानि का भी सामना करना पड़ता है। सूर्य को पुत्र का कारक ग्रह माना जाता है, जब भवन में ईशान व पूर्व वास्तु दोषयुक्त हो तो यह घाव में नमक का कार्य करता है। जिससे पिता-पुत्र जैसे संबंधों में तालमेल का भाव व पुत्र-पिता के प्रति दुर्भावना रखता है। वास्तु के माध्यम से पिता पुत्र के संबंधों को अति मधुर बनाया जा सकता है।

महत्वपूर्ण व उपयोगी तथ्य जो पिता-पुत्र के संबंधों को प्रभावित करते हैं :---
- ईशान (उत्तर-पूर्व) में भूखण्ड कटा हुआ नहीं होना चाहिए।
- भवन का भाग ईशान (उत्तर-पूर्व) में उठा होना अशुभ हैं। अगर यह उठा हुआ है तो पुत्र संबंधों में मधुरता व नजदीकी का आभाव रहेगा।
- उत्तर-पूर्व (ईशान) में रसोई घर या शौचालय का होना भी पुत्र संबंधों को प्रभावित करता है। दोनों के स्वास्थ्य संबंधी समस्याएँ बनी रहती है।
- दबे हुए ईशान में निर्माण के दौरान अधिक ऊँचाई देना या भारी रखना भी पुत्र और पिता के संबंधों को कलह और परेशानी में डालता रहता है।
- ईशान (उत्तर-पूर्व) में स्टोर रूम, टीले या पर्वतनुमा आकृति के निर्माण से भी पिता-पुत्र के संबंधों में कटुता रहती है तथा दोनों एक-दूसरे पर दोषारोपण करते रहते हैं।
- इलेक्ट्रॉनिक आइटम या ज्वलनशील पदार्थ तथा गर्मी उत्पन्न करने वाले अन्य उपकरणों को ईशान (उत्तर-पूर्व) में रखने से पुत्र, पिता की बातों की अवज्ञा अर्थात्‌ अवहे‌लना करता रहता है, और समाज में बदनामी की स्थिति पर ला देता है।
- इस दिशा में कूड़ेदान बनाने या कूड़ा रखने से भी पुत्र, पिता के प्रति दूषित भावना रखता हैं। यहाँ तक मारपीट की नौबत आ जाती है।
- ईशान कोण खंडित होने से पिता-पुत्र आपसी मामलों को लेकर सदैव लड़ते-झगड़ते रहते हैं।
- यदि कोई भूखंड उत्तर व दक्षिण में सँकरा तथा पूर्व व पश्चिम में लंबा है तो ऐसे भवन को सूर्यभेदी कहते हैं यहाँ भी पिता-पुत्र के संबंधों में अनबन की स्थिति सदैव रहती है। सेवा तो दूर वह पिता से बात करना तथा उसकी परछाई में भी नहीं आना चाहता है।

इस प्रकार ईशान कोण दोष अर्थात्‌ वास्तुजनित दोषों को सुधार कर पिता-पुत्र के संबंधों में अत्यंत मधुरता लाई जा सकती हैं। सूर्य संपूर्ण विश्व को ऊर्जा शक्ति प्रदान करता है तथा इसी के सहारे पौधों में प्रकाश संश्लेषण की क्रिया संचालित होती है तथा पराग कण खिलते हैं जिसके प्रभाव से वनस्पति ही नहीं बल्कि समूचा प्राणी जगत्‌ प्रभावित होता है। पूर्व व ईशानजनित दोषों से प्राकृतिक तौर पर प्राप्त होने वाली सकारात्मक ऊर्जा नहीं मिल पाती और पिता-पुत्र जैसे संबंधों में गहरे तनाव उत्पन्न हो जाते हैं। अतएव वास्तुजनित दोषों को समझते हुए ईशान की रक्षा यत्नपूर्वक करनी चाहिए।