Saturday 30 April 2016

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Tuesday 26 April 2016

देश काल और पात्र अनुसार आराध्य देवी देवताओं का चयन

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्ट: शरणं त्वां प्रपन्नवान।।
प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पऽपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य न:।।
तुम पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।
महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ‘‘तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।’’ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ‘‘जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहींं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।’’ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ‘‘यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहींं दी? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश हैं।
योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ‘‘वैष्णव जन को’’ तथा ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’ गाते थे। चंबल के डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है?
यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अत: वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील : शनि



शनि को ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील माना जाता है अर्थात् शनि सृष्टि के संतुलन चक्र का नियामक है। क्योंकि बैलेंस शनि का मुख्य गुण है इसलिए यह बैलेंस की कारक राशि तुला में अतिप्रसन्न अर्थात् उच्चराशिस्थ होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में अधिक संतुलन, सुरक्षा व स्थिरता अर्थात् जॉब सैक्यूरिटी आदि देने में समर्थ होते हैं। इसे न्याय का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य को उसकी गलतियों और पाप कर्मों के लिए दण्डित करके मानवता की रक्षा करता है और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया को स्थिरता पूर्वक गति देता रहता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में करियर के उच्चतम शिखर पर पहुंचने के सभी शुभ योग विद्यमान हों तो यह सही है कि जातक अपने करियर में ऊंचा उठेगा लेकिन उन्नति प्राप्त होने का उसका मार्ग सरल होगा या कठिनाइयों से भरा हुआ होगा इसका सूक्ष्म विष्लेषण करने हेतु कुंडली में शनि की स्थिति का अध्ययन करना होगा। यदि कुंडली में शनि की स्थिति उत्तम हो, यह 3, 6, 10 या 11वें भाव में स्थित हो, नीचराषिस्थ व पीडि़त न हो तो आसानी से सफलता मिलेगी। नीचराषिस्थ होने की स्थिति में पूर्ण नीचभंग हो रहा हो तो भी सफलता मिल सकती है। परंतु यदि शनि का नीचभंग नहींं हुआ या शनि शत्रुराषिस्थ व पीडि़त होकर अशुभ भाव में स्थित हुआ तो जातक की सफलता पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा तथा विशेष योग्यता संपन्न होने के बावजूद भी उसे जीवन में कठिनाइयों व संघर्ष से जूझना पड़ेगा तथा वह साधारण जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएगा। शनि हमें यथार्थवादी बनाकर हमारी वास्तविक शक्तियों व योग्यताओं से अवगत करवाता है तथा हमें एकान्तप्रिय होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करवाता है। कालपुरुष के अनुसार शनि को व्यवसाय के कारक दशम भाव का स्वामी माना जाता है। हमारे जीवन में स्थिरता व संतुलन का विचार दशम भाव से भी किया जाता है क्योंकि दशम भाव व्यवसाय का घर होता है और जितना हम व्यावसायिक स्तर पर सफल होते हैं उतनी ही श्रेष्ठ सफलता हमें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्राप्त होती है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं संतुलन अर्थात् बैलेंस के कारक शनि की राशि का व्यवसाय के भाव में होना उचित ही है। ग्रहों में शनि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि यह ग्रह बलवान होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता जातक के कदम चूमती है। शनि की विशेष उत्तम स्थिति से जातक को बहुत से नौकर-चाकर, उच्च पद्वी, सत्ता व धन सम्पदा आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। शनि को सत्ता का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि राजनीति, कूटनीति, मंत्रीपद सभी इसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यदि कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो यह कालपुरुष की दशम राशि मकर को दशम दृष्टि से देखकर न केवल व्यावसायिक जीवन में सफलता की गारंटी देता है अपितु अपनी लग्नस्थ स्थिति के कारण जातक को कुशल विचारक व योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की योग्यता भी देता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, तांत्रिकों व ज्योतिषियों की कुंडली में शनि की इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। यदि लग्नस्थ शनि नीच का भी हो तो भी व्यावसायिक जीवन में स्थिरता व अधिकार प्राप्ति का कारक बनता है क्योंकि वह दशम दृष्टि से अपनी राशि को देखता है और कालपुरुष के अनुसार भी दशम भाव में इसकी मकर राशि ही होती है जिसे व्यवसाय की कारक राशि माना जाता है। लग्नस्थ शनि सभी लग्नों के लिए श्रेष्ठ है यद्यपि चर लग्न के लिए शनि की लग्नस्थ स्थिति अधिक उत्तम मानी जाएगी क्योंकि चर लग्नों के जातकों में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होती है जबकि शनि का गुण धैर्य व स्थिरितापूर्वक एकाग्रचित्त होकर कार्य सम्पादन करना है। इसलिए इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण जातक को श्रेष्ठस्तरीय सफलता का सूत्र व मार्ग स्पष्ट कर देता है। यदि कर्क लग्न के शनि का विचार करें तो यह सामान्य रूप से प्रबल अकारक होता है लेकिन शुभ भाव लग्न में बैठकर यह न केवल अष्टमेश का शुभ फल देकर दीर्घायु बनाता है अपितु जातक को रिसर्च ओरिएंटड, गुप्त व कूटनीतिक योग्यताओं से सम्पन्न भी कर देता है। कर्क लग्न की अपनी यह विशेषता होती है कि इससे प्रभावित जातकों का शरीर, मन और आत्मा एकात्म समन्वित होते हैं। लग्न से शरीर व आत्मा का विचार तो होता ही है साथ ही मन की राशि कर्क के लग्न में आ जाने से चंद्रमा का प्रभाव भी लग्न में आ जाएगा क्योंकि यह लग्नेश होगा इसलिए ऐसी कुंडली में लग्नस्थ शनि शरीर, मन व आत्मा तीनों को प्रभावित करेगा अर्थात् मानव को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले ग्रह शनि का प्रभाव आपके जीवन के हर पक्ष पर सीधे रूप से पड़ेगा और फलस्वरूप आप सर्वाधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होंगे तथा राजनीति के गलियारों में आपकी कुशलता का विशेष डंका बजेगा। तुला लग्न की पत्री में लग्नस्थ शनि उच्चराशिस्थ होकर चतुर्थेश व पंचमेश होकर आपको शश योग से समन्वित करके परम भाग्यशाली बना देगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में आप सफल होंगे। ऐसा भी संभव है कि आप योग, अध्यात्म, वैराग्य, दर्शन, त्याग आदि की कठिनतम रहस्यमयी आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करके संसार को चमत्कृत कर दें अथवा कोई बड़े वैज्ञानिक बनें। मकर राशि की कुंडली में लग्नेश शनि अपार धन सम्पदा से सम्पन्न बड़ा व्यापारी तो बना ही देगा साथ ही आपकी एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढऩे की प्रवृत्ति को भी सुदृढ़ करेगा। अधिकतर ऐसा देखा गया है कि दशम भावस्थ शनि चाहे किसी भी राशि का हो, जातक के जीवन में व्यावसायिक स्थिरता बनी रहती है। यदि ऐसा शनि नीच का हो तो भी जातक का कार्य चलता रहता है। नीच राशि का शनि अक्सर ज्योतिष कार्यों से या अन्य परामर्श संबंधी कार्यों से लाभान्वित कराता है। शनि का दशम भाव से संबंध होने से लोहे का व्यापार तथा तिल, तेल, खनिज पदार्थ, पेट्रोल, शराब आदि के क्रय-विक्रय से, ठेकेदारी से, दण्डाधिकारी, सरपंच अथवा मंत्री पद आदि से लाभान्वित करवा सकता है। जब शनि गोचर में उच्चराशिस्थ होता है तो समाज, देश व संसार में जगह-जगह पर न्याय व्यवस्था के समुचित रूप से स्थापित किए जाने की आवाजें उठने लगती हैं। ऐसा 30 वर्ष में एक बार होता है और ऐसे में शनि समाज में फैली अव्यवस्थाओं और अन्याय को नियंत्रित करता ही है। मानव के स्वभाव, भाग्य व जीवन चक्र का नियमन चंद्र की गति, नक्षत्र व चंद्र पर अन्य ग्रहों के प्रभाव द्वारा होता है इसलिए जातक की मानसिकता, मन: स्थिति, ग्रह दशा के क्रम व गोचर का विचार भी चंद्रमा को केंद्र में रखकर ही किया जाता है। कुंडली में सत्ता की प्राप्ति के प्रबल कारक शनि का गोचर में चंद्रमा के निकट आना जीवन में जिम्मेदारियों के बढऩे तथा सत्ता प्राप्ति का सबब बनते देखा गया है। इसे साढ़ेसाती भी कहते हैं। कुंडली में शनि की खराब स्थिति तथा साढ़ेसाती में अशुभ भाव व राशि में वक्री या अस्त होकर गोचर करना करियर में जबर्दस्त नुकसान देता है, नौकरी छूट जाती है, राजनीति में हार तथा व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। वहीं कुंडली में शनि की शुभ स्थिति हो तथा अच्छे राजयोग बन रहे हों तो ऐसे में साढ़ेसाती के समय शनि का शुभ भाव व राशि में गोचर करियर में श्रेष्ठतम सफलता प्रदान करता है। जितनी श्रेष्ठ कुंडली होगी उतनी ही ऊंची सफलता सुनिश्चित हो जाएगी। श्रेष्ठतम कुंडली में शुभ साढ़ेसाती सत्ता का सुख देती है। चाहे ग्रह योग व साढ़ेसाती का सूक्ष्म निरीक्षण कितना ही शुभ फलदायी प्रतीत होता हो परंतु जातक को साढ़ेसाती के समय व्यापार में जोखिम नहींं उठाना चाहिए। शनि की साढ़ेसाती आपको अपने व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है साथ ही आपको जोखिम उठाने के लिए मना करती है। आपके लिए ऐसी कठिनाइयां भी उत्पन्न करती है जिससे आप अपनी गलतियों से सीखें। यह तकलीफें देकर आपको न केवल एक अच्छा इंसान बना देती है अपितु करियर को भी समुचित दिशा प्रदान करती है। जब कुंडली में शनि की स्थिति श्रेष्ठ हो, धन व लाभ भाव के स्वामी विशेष बली हों तथा गुरु व बुध भी उत्तम स्थिति में हों और गोचरस्थ शनि चंद्रमा से तृतीय, षष्ठ व एकादश भावों में शुभ राशि व शुभ ग्रहों के ऊपर से गोचर कर रहा हो तो वह समय व्यापारिक क्षेत्र में उन्नति के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। इस समय यदि शुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा भी चल रही हो तो जोखिम भी उठाए जा सकते हैं क्योंकि सफलता तय है। जिस समय दशम भाव, दशमेश व दशम के कारक पर शनि व गुरु दोनों का गोचरीय प्रभाव आ रहा हो और यह गोचर चंद्रमा से शुभ हो व शुभ राशि में भी हो तो करियर में उन्नति निश्चित रूप से होती है। यदि शनि मेष या वृश्चिक राशि में हो या मंगल से दृष्ट हो तो जातक मशीनरी, फैक्ट्री, धातु, इंजीनियरिंग, इंटीरियर या बिजली संबंधी कार्यों, केंद्रीय सरकार, कृषि विभाग, खान, खनिज या वास्तुकला विभाग में कार्य करता है। यदि इस ग्रह योग पर गुरु व शुक्र का भी प्रभाव हो तो ऐसा जातक न केवल धन लाभ अर्जित करता है अपितु उसे भूमि व संपत्ति का लाभ भी प्राप्त होता है। यदि शनि वृष या तुला राशि में हो अथवा इस पर शुक्र की दृष्टि हो तो कला, प्रबंधन, कम्प्यूटर के व्यवसाय से लाभ उठाता है। यदि गुरु व बुध का शुभ प्रभाव भी इस ग्रह योग पर पड़ता हो तो कानूनविद्, वकील, न्यायाधीश आदि के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। शनि और शुक्र मित्र हैं इसलिए शनि पर शुक्र का यह प्रभाव सौभाग्यवर्धक माना जाता है। शनि से गुरु, शुक्र व बुध की शुभ स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आय लाभ नियमित रूप से होता रहता है। ऐसे जातक अपने व्यवसाय में विशेष सुखी होते हैं। उनके पास धन, वाहन और भवन सभी मौजूद रहते हैं। शनि मिथुन या कन्या में हो अथवा बुध से दृष्ट हो तो ऐसे जातक एकाउंटिंग, कॉस्टिंग, अभिनय, बुद्धिजीवी वाले कार्यों, व्यापार, वित्तीय सौदों, विज्ञान व वाकपटुता आदि के अतिरिक्त लेखन कला व कानून संबंधी कार्यों से धन लाभ प्राप्त करते हैं। यदि गुरु व शुक्र का भी प्रभाव रहे तो धन कमाना सरल होने लगता है। ऐसे जातक को मित्रों से भी सहयोग मिलता है। शनि कर्क राशि में हो या चंद्रमा से दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति कला, ज्योतिष, राजनीति, धर्म, यात्रा, पेय पदार्थ, साहित्य, जल, मदिरा आदि के कार्यों से लाभ उठाते हैं। ऐसे लेगों के करियर में बार-बार परिवर्तन होते हैं। करियर में यात्राएं भी खूब होती हैं लेकिन यह आवश्यक नहींं कि ऐसे लोग कठिन परिश्रम वाले कार्यों में संलग्न होना चाहें। ऐसे लोग अधिकतर शांत व नरम स्वभाव के होते हैं। शनि सिंह राशि में हो अथवा सूर्य से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को सरकारी नौकरी या सत्ताधारी लेागों से लाभ मिलता है। इसका यह भी संकेत निकाल सकते हैं कि पिता पुत्र का व्यापार या साझेदारी आदि में संबंध है। इसके कारण सरकारी नौकरी व राजनीति से लाभ मिलता है। शनि सूर्य की शत्रुता के चलते कुछ संघर्ष के पश्चात् सफलता मिलती है। इसलिए यदि गुरु, शुक्र व बुध आदि ग्रहों का शनि पर प्रभाव न हो तो व्यावसायिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि गुरु, शुक्र, बुध व बलवान चंद्रमा का प्रभाव आ जाए तो जातक को विशेष प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। यदि शनि धनु या मीन राशि में हो या गुरु से दृष्ट हो तो जातक को कानून, वन विभाग, लकड़ी या धार्मिक संस्थाओं आदि में विशेष सफलता मिलती है। यह ग्रह योग जातक को मनोविज्ञान, गुप्त ज्ञान (पराविद्या), प्रशासनिक कार्य, प्रबंधन कार्य, शिक्षक, अन्वेषक, वैज्ञानिक, ज्योतिषी, मार्गदर्शक, वकील, इतिहासकार, चिकित्सक, धर्मोपदेशक आदि के रूप में प्रतिष्ठित कराता है। ऐसे जातक में वाद-विवाद करने का विशेष चातुर्य होता है व व्यक्तित्व विशेष आकर्षक होता है। इनके बहुत से मित्र होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। ऐसा ग्रह योग स्वतंत्र व्यवसाय या रोजगार की प्राप्ति करवाता है। शनि मकर या कुंभ राशि में हो तो जातक को सेवा, यात्रा, जन आंदोलन, विक्रय कार्य अथवा लायजनिंग संबंधी कार्यों से लाभ होता है। शनि विदेशी भाषा का कारक है इसलिए विद्या व भाषा पर अधिकार देने वाले ग्रहों जैसे शुक्र, गुरु, बुध व केतु से इसका शुभ संबंध और स्थिति जातक को अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का विद्वान बनाती है। शनि के ऊपर, गुरु, बुध, केतु इन सभी का प्रभाव पड़े तो मशहूर वकील बने। शनि पर केवल राहु का प्रभाव हो तो जातक छोटी नौकरी से गुजर बसर करता है परंतु यदि राहु के साथ-साथ गुरु, शुक्र का भी प्रभाव हो तो प्रारंभ में नौकरी करने के पश्चात् जातक धीरे-धीरे अपने आप को स्वतंत्र व्यवसाय में भी स्थापित कर लेता है।

महेश्वर सबके नियंता

कुत: सर्वमिदं जातं कस्मिश्च लयमेफ्यति। नियंता कश्च सर्वेषां वदस्व पुरूषोत्तम।। यह जगत किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें जा कर विलीन हो जाता है? इस संसार का नियंता कौन है? हे पुरुषोत्तम! यह बताने की कृपा करें। महेश्वर: परोऽव्यक्त: चर्तुव्यूह सनातन:। अननंता प्रमेयश्च नियंता सर्वतोमुख:।। सनातन अनंत अप्रमेय सर्वशक्तिमान महेश्वर सबके नियंता हैं। तत्व चिंतको ने उन्हें ही अव्यक्त कारण, नित्य, सत, असत्य रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है। वह (परमात्मा) गंध, वर्ण तथा रस से हीन, शब्द और स्पर्श से वंचित, अजर, ध्रुव, अविनाशी, नित्य और अपनी आत्मा में अवस्थित रहते हैं। वही संसार के कारण, महाभूत परब्रह्म, सनातन, सभी भूतों के शरीर, आत्मा में अधिष्ठित, अनादि, अनंत, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम थे।
आत्मपुरुष के गुण साम्य की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहींं हो जाती है, तब तक प्राकृत प्रलय होता है। यह प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुत: ब्रह्मा का न दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त ईश्वर प्रकृति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकुचन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृति में अवस्थित होता है। स्पंदित प्रकृति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति, ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई। इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है। ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस (जिह्वा) का आधार है। जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के, गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहींं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है। यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है? व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहींं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि हमारा जीवन भी व्यर्थ है। प्रत्येक क्षण प्रकृति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का। इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहींं है, किसी प्रकार का परिणाम नहींं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहींं है।
प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है। जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का यही संदेश है। जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और दु:खी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है। इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृतिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव अपने और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं। प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है। अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव डालती है, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है। अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं। सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर है । इनमें सुषुम्न नामक किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है। विश्वकर्मा नामक किरण बुध का पोषण करती है। शुक्र का पोषण विश्वश्रवा नामक किरण करती है। संयद्वंसु नामक किरण मंगल का पोषण करती है। अर्वावसु किरण बृहस्पति को पुष्ट करती है। सप्तम स्वर नामक किरण शनि को पुष्ट करती है। इस प्रकार सूर्य के प्रभाव को प्राप्त कर के तारे-नक्षत्र वृद्धि को प्राप्त होते हैं और प्राणी जगत को प्रभावित करते हैं।

आपने बहुत देर कर दी !!!

नंद कुमार की माँ अक्सर बीमार रहती थी। माँ रोज बेटे-बहू को कहती थी कि बेटा, मुझे डॉक्टर के पास ले चल। बेटा भी रोज पत्नी को कह देता, ‘‘माँ को ले जाना, मैं तो फैक्टरी के काम में व्यस्त रहता हूँ। क्या तुम माँ का चेकअप नहीं करा सकती हो?’’
पत्नी भी लापरवाही से उत्तर दे देती, ‘‘पिछले साल गई तो थी, डॉक्टर ने कोई ऑपरेशन का कहा है। जब तकलीफ होगी ले जाना।’’
आनंद कुमार भी ब्रीफकेस उठाकर चलता हुआ बोल जाता है कि ‘‘माँ तुम भी थोड़ी सहनशक्ति रखा करो।’’
कुछ दिनों से आनंद कुमार की फैक्टरी की पार्किंग में मरे जैसे सूरत का एक गरीब लडक़ा बूट करने आ रहा था। जब कभी बूट पॉलिश का काम नहीं होता, तब वह वहाँ रखी गाडिय़ों को कपड़े से साफ करता। गाड़ी वाले उसे जो भी 2-4 रुपए देते, उसे ले लेता। आनंद कुमार उसे अब पहचानने लगा था। दूसरे लोग भी रोज मिलने से उसे पहचानने लग गए थे। लडक़ा भी जिस साहब से 5 रुपए मिलते, उस साहब को लंबा सलाम ठोकता था।
एक दिन की बात है आनंद कुमार शाम को मीटिंग लेकर अपने कैबिन में आकर बैठा। उसको एक जरूरी फोन पर जानकारी मिली, जो उसके घर से था। घर का नंबर मिलाया तो नौकर ने कहा ‘‘साहब आपको 11 बजे से फोन कर रहे हैं। माताजी की तबीयत बहुत खराब हो गई थी, इसलिए बहादुर और रामू दोनों नौकर उन्हें सरकारी अस्पताल ले गए हैं..’’
आनंद कुमार चिल्लाया ‘‘क्या मेम साहब घर पर नहीं हैं?’’
वह डरकर बोला, ‘‘वे तो सुबह 10 बजे ही आपके जाने के बाद चली गईं। साहब घर पर कोई नहीं था और हमें कुछ समझ में नहीं आया। माताजी बड़ी मुश्किल से कह पाईं थीं ‘‘बेटा मुझे सरकारी अस्पताल ले चलो...। तो माली और बहादुर दोनों रिक्शा में ले आए और मां जी को अस्पताल ले गए और साहब मैं मेम साहब का रास्ता देखने के लिए और आपको फोन करने के लिए घर पर रुक गया।’’
आनंद कुमार के गुस्से का ठिकाना न रहा। ऐन मौकों में ही ऐसा बखेड़ा खड़ा करना था मां को। वह लगभग दौड़ते हुए गाड़ी निकालकर तेज गति से सरकारी अस्पताल की ओर निकल पड़ा। जैसे ही अस्पताल के रिसेप्शन की ओर बढ़ा, उसने सोचा कि यहीं से जानकारी ले लेता हूँ।
‘‘सलाम साब’’
आनंद कुमार एकाएक चौंक पड़ा ‘‘अरे तुम वही लडक़े हो? बूट पालिस वाले।’’
‘‘हां साब।’’ उस लडक़े के साथ एक बूढ़ी औरत भी थी।
‘‘अरे तुम यहाँ? क्या बात है?’’ आनंद कुमार ने पूछा।
लडक़ा बोला ‘‘साहब, ये मेरी मां है। बीमार थी। 15 दिनों से यहीं भर्ती थी साब। इसीलिए पैसे इक_े करता था, वहां..., आपकी फैक्ट्री में।
‘‘मगर साब आप यहाँ कैसे?’’
आनंद कुमार जैसे नींद से जागा। ‘‘हाँ... !’’ कहकर वह रिसेप्शन की ओर दौड़ गया।
वहाँ से जानकारी लेकर लंबे-लंबे कदम से आगे बढ़ता गया। सामने से उसे दो डॉक्टर आते मिले। उसने अपना परिचय दिया और माँ के बारे में पूछा।
‘‘ओ आई एम सॉरी, शी इज नो मोर..... शी इज नो मोर, आपने बहुत देर कर दी।’’
शाम ढल चुकी थी, पंछी अपने घोसलों को वापस आ रहीं थीं। आनंद कुमार वहीं हारा-सा बैठा हुआ था। सामने गरीब लडक़ा चला जा रहा था और उसके कंधे पर हाथ रखे धीरे-धीरे उसकी माँ जा रही थी।

कितनी आय की प्राप्ति जाने हाथ की रेखाओं से



जीवन की तीन प्रमुख आवश्यकताएं रोटी, कपड़ा और मकान को प्राप्त करने के लिए पैसों की जरूरत होती है। इसके अलावा आज बदलते परिदृश्य में साधन जीवन को सुंदर बनाते हैं। इनकी पूर्ति के लिए भी धन-दौलत की जरूरत पड़ती है। धन दौलत की इस जरूरत को पूरा करने के लिए व्यक्ति दिन रात पसीना बहाता है। व्यक्ति का ऐसा पसीना बहाना यह सिद्ध करता है कि जीवन एक संघर्ष है और जो इस संघर्ष से हटकर है वे नष्ट हो जाते हैं। जीवन के इस शाश्वत सत्य यानि मेहनत को सिद्ध करते हुए व्यक्ति जीवन को सौंदर्य और ऐश्वर्य से भर डालता है। ऐसे मेहनती संसार में एक बात और गौर करने लायक है वह यह कि किसी-किसी व्यक्ति को बहुत ही कम मेहनत करके अथाह धन और संपदा मिल जाती है। वहीं कुछ व्यक्ति ऐसे भी होते हैं जो दिन रात मेहनत करके जीवन को साधारण ढंग से ही जी पाते हैं। ऐसी बात पर गहन विश्लेषण करें तो हमें यह पता चलेगा कि मेहनत के साथ मनुष्य का भाग्य भी इस जीवन क्रम में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। भाग्य यानि पूर्व का कर्म किसी व्यक्ति को बहुत ही कम उम्र में ही अपार दौलत और संपत्ति तथा यश का स्वामी बना देता है। अब अगर क्रिकेट खिलाड़ी सचिन तेंदुलकर की बात करें तो हमें पता चलेगा कि 34 साल के इस क्रिकेटर ने इतनी कम उम्र में ही अच्छी खासी दौलत और शोहरत अर्जित कर ली है। वहीं कई क्रिकेटर ऐसे हैं जिन्हें 32-33 वर्ष के दौरान महज कुछ लाख रूपए की ही आय हो पाती है। इस उदाहरण से हम समझ जाएंगे कि मनुष्य के अंदर दैवीय शक्ति या भाग्य नाम की चीज विद्यमान होती है जो उसे अन्य लोगों से कहीं अलग चमकीला और गौरवमयी बना देती है। उद्यमी पुरूष के पास लक्ष्मी आ जाती है साथ ही भाग्य के बल पर भी लक्ष्मी का सुनहरा साथ मनुष्य को प्राप्त होता है। भाग्य की बात करें और हाथों की रेखाओं का जिक्र न हो ऐसा हो ही नहींं सकता है। लेख में ऐसी हाथ की रेखाओं का विवरण है जो आदमी को मिलने वाली लक्ष्मी की जानकारी देती है। हाथों की रेखाओं को जानकर कोई भी व्यक्ति अपने भविष्य में मिलने वाली धन संपन्नता को जान सकता है। किन-किन रेखाओं से लक्ष्मी आपकी जिंदगी भर दोस्त बनी रह सकती है और किन-किन रेखाओं की वजह से ये आपसे रूठ जाती है उसका ही विवरण निम्नानुसार है। झ् अंगुलियों के बीच में छिद्र न होना, अंगुलियां लंबी होना, अंगुलियों का पीछे की तरफ जाना, जीवन रेखा और भाग्य रेखा के बीच अंतर हो तो ऐसे लक्षण जातक को बड़ी उम्र में संपत्ति का स्वामी बनाता है। ऐसे जातक का शुरूआती जीवन सामान्य ही रहता है। हाथ भारी हो, चौड़ा हो तथा अंगुलियां नरम हों, भाग्य रेखाएं भी अधिक हों, शनि ग्रह भी उत्तम हो तो ऐसे जातक एक से अधिक व्यवसाय करते हैं तथा बहुत धनवान होते हैं। लक्ष्मी की इन पर अपार कृपा होती है। जीवन रेखा घुमावदार या गोल हो, मस्तिष्क रेखा में किसी प्रकार का दोष न हो तथा भाग्य रेखा की एक शाखा जीवन रेखा से निकलती हो तथा अन्य रेखा भाग्य रेखा को काटती न हो। इसके अलावा शुक्र पर्वत से निकलकर कोई रेखा यदि शनि पर्वत तक आये तो ऐसा व्यक्ति स्वयं के बल पर धनवान बनता है। यदि शुक्र से मंगल पर्वत तक कोई रेखा आये तो पैतिृक सम्पत्ति से धनवान होता है किंतु यदि इन दोनों पर्वत से रेखा शनि पर्वत तक जाए और शनि पर्वत विकसित न हो तो ऐसा व्यक्ति पैतिृक सम्पत्ति को बरबाद कर बैठता है, सूर्य पर्वत तक जाए तो अहंकार के कारण धनहीन बनता है। गुरू पर्वत तक जाने से और अविकसित होने से व्यक्ति दूसरों में धन लुटा कर धनहीन बन जाता है। इस प्रकार यदि रेखाओं एवं पर्वतों का सुखद संयोग बने तो धन की गणना हस्तरेखा के पर्वत-विचार से कर जो पर्वत विकसित न हो, उन ग्रह-पर्वतों को विकसित करने हेतु ग्रहों के स्वभाव अनुकूल कार्य तथा हस्तमुद्रा का नियमित अभ्यास करने एवं सकारात्मक पहल करने से धनसुख प्राप्त किया जा सकता है।

महत्वकांक्षी कल्पना

एक टूटते परिवार की कहानी और उसका ज्योतिष्य विश्लेषण
यह सत्य कथा है, एक ऐसी कल्पना कि जिसे बचपन से कल्पना लोक में विचरने का बहुत शौक था। अपने खिलौनों से खेलते हुए वह अपने कल्पना लोक में चली जाती और फिर घंटों उसी आनंद में डूबी रहती। उसके माता-पिता ने भी शायद इसीलिए उसका नाम कल्पना रखा होगा। कल्पना को बचपन में ही उसके मामा-मामी ने गोद ले लिया था क्योंकि उनकी कोई अपनी संतान नहींं थी। मामा-मामी के लाड़ प्यार में कल्पना बड़ी हुई। बचपन से ही उसे पेंटिंग का बहुत शौक था और वह कुछ न कुछ अपनी कल्पना से पन्नों पर उकेरती रहती थी और फिर उन्हें अपने कमरे में लगा देती। कल्पना के नये माता-पिता एक रूढि़वादी परिवार से संबंधित थे और वे यही चाहते थे कि कल्पना भी उनके परिवार की परंपराओं का गंभीरता से पालन करे। वहां आस पास की परंपराओं के अनुसार आमतौर पर लड़कियों को कॉलेज में बहुत ज्यादा नहींं पढ़ाया जाता था पर कल्पना की जिद के आगे उनकी एक न चली और उसे उन्होंने वहीं के पोस्ट ग्रैजुएट कॉलेज में प्रवेश करा दिया। कल्पना सुंदर तो थी, साथ में उसकी कला क्षेत्र में रूचि ने उसे शीघ्र ही कॉलेज में बहुत लोकप्रिय बना दिया। यौवन की दहलीज पर खड़ी कल्पना भी अपनी लोकप्रियता से इतनी खुश थी कि अधिक से अधिक समय कॉलेज में बिताने लगी और उसे अपने युवा साथी का साथ भी अधिक अच्छा लगने लगा। लेकिन कल्पना की प्रेम की राह इतनी आसान नहींं थी। जैसे ही उसके माता-पिता को इस बात का पता चला उन्होंने फौरन उसे कॉलेज से निकाल कर वापिस उसके जन्मकालीन माता-पिता के पास भेज दिया। इससे कल्पना को बहुत बड़ा मानसिक आघात पहुंचा। वह अपने माता-पिता को कभी माफ नहींं कर पाई। जिन्होंने उसे अपना समझ कर पाला पोसा उन्हीं माता-पिता ने अपनी जिंदगी से तिनके की तरह निकाल फेंका।
कल्पना को कई दिन तक हॉस्पिटल में रहना पड़ा तभी वह आघात से उबर पाई। वइ इस आघात से उबर कर बाहर आई ही थी कि कुछ समय बाद एकाएक कल्पना का विवाह विवेक से कर दिया गया। विवेक एक सुशिक्षित परिवार से थे और सी.ए. कर बैंक में ऑफिसर के पद पर कार्यरत थे। विवाह के बाद कल्पना को अपने सास-ससुर से एडजस्ट करने में काफी मुश्किलें आईं। कल्पना बहुत महत्वाकांक्षी थी और उसे खुला जीवन पसंद था। वह ऊंचे आकाश में अपनी कल्पना के संसार में उडऩा चाहती थी पर ससुराल का माहौल बिल्कुल अलग था। वे लोग काफी रूढि़वादी और पुरानी परंपराओं को मानने वाले थे। सास ससुर की उपस्थिति व उनके हस्तक्षेप से कल्पना को अपना जीवन एक जेल की तरह लगता था और उसे लगता था कि वह इस पिंजरे में कैद एक पक्षी की तरह है जिसके पर काट दिये गये हैं इसलिए वह सबसे कटी-कटी रहती और अपनी सासु मां को खुश नहींं कर पाती थी। विवेक बैंक के काम से अक्सर लेट ही आते और आकर अपनी मां की बुराई सुनना पसंद नहींं करते थे। इसलिए अपनी कुंठा और मानसिक वेदना के चलते कल्पना ने कई बार स्वयं को समाप्त करने की कोशिश भी की पर समय को अभी कई करवटें और लेनी थी। इसी बीच कल्पना के दो बच्चे हो गये और समय का सदुपयोग करने के लिए कल्पना ने बी.एड और पीएच.डी भी कर ली और अपना अधिक से अधिक समय पेंटिंग को देने लगी। इससे उसको बहुत सुकून मिलता और वह यह कोशिश भी करने लगी कि वह पेन्टिंग को अपने व्यवसाय के रूप में अपना ले। लेकिन चाहकर भी इस कोशिश में कामयाब नहींं हो पाई। विवेक अपने काम में इतने मशगूल थे कि धीरे-धीरे एक के बाद एक प्रमोशन की सीढिय़ां चढ़ते रहे और अपने बैंक के उच्चतम पद सी.एमडी. तक पहुंच गये। कल्पना अपने पति की सफलता से बहुत खुश थी परंतु मानसिक रूप से अपने को उनसे जुड़ा नहींं पाती थी।
इतना पैसा, मान-सम्मान होने के बाद भी उसके अंदर कुछ टूटता रहता था। विवेक ने सी.एम.डी. के पद पर पहुंच कर अपने दोनों सालों को अपने कुछ कामों में मिला लिया था। इस पद पर पहुंचने के लिए उसकी कबिलियत के अलावा उसे और भी बहुत कुछ करना पड़ा था और इस पद पर बने रहने के लिए भी बहुत से नैतिक अनैतिक कामों को अंजाम देना पड़ता था। कल्पना को इसका कुछ इल्म नहींं था, न ही विवेक उससे इस बारे में कुछ चर्चा करते थे और अचानक वह हुआ जिसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहींं की थी। अचानक एक दिन उनके घर सीबी.आई का छापा पड़ा। विवेक घर पर नहींं थे। वह अकेली थी। उन्होंने आकर उसका फोन ले लिया और पूरे घर को उथल-पुथल कर सारा कैश, ज्वेलरी, फाइलें आदि ले गये। सभी लॉकर सील कर दिये गये, सभी बैंक अकाउंट भी सी.बी.आई. ने सील कर दिये और उधर विवेक को रिश्वतखोरी के इल्जाम में धर लिया गया।
कल्पना की दुनिया ही बदल गई उसके दोनों भाइयों को भी पुलिस पकड़ कर ले गई। कल्पना को पनाह देने वाला कोई भी न रहा। न जन्मकालीन माता-पिता न परवरिश करने वाले माता-पिता। सभी को अपने भविष्य की चिंता सता रही थी। ऐसे में जब कल्पना के पास कोई पैसा नहींं था और वह मानसिक और शारीरिक रूप से भी थक चुकी थी तो उसे सहारा दिया उसकी बचपन की सहेली मृदुला ने। उसने ऐसे विकट समय में उसका पूरा साथ दिया और परिस्थितियों से लडऩे की हिम्मत दी। कल्पना ने विवेक को बचाने के लिए रात दिन एक कर दिया और वास्तव में अपने पत्नी धर्म का पालन करते हुए बड़े से बड़े वकील कर विवेक और अपने भाइयों को बेल पर छुड़वा लिया। आज कल्पना अपने पति के साथ फिर से अपनी बिखरी हुई जिंदगी को संवारने में जुटी है और इसी कोशिश में है कि शीघ्र ही वे इस केस से बरी हो जाएं और कुछ ऐसा कार्य शुरू करें कि सुकून की जिंदगी जी सकें। आइये देखें क्या कहते हैं कल्पना और विवेक की कुंडलियों के सितारे? क्या अभी कोई इम्तहान बाकी है या फिर उनके अच्छे दिन आने वाले हैं?
कल्पना की कुंडली में लग्न भाव में नैसर्गिक पाप ग्रह राहु स्थित है तथा लग्न पाप कर्तरी योग से ग्रसित है। लग्नेश चंद्रमा भी अपनी नीच राशि में स्थित है। तीव्र पापकर्तरी योग होने से इनकी मानसिक शांति, आत्मविश्वास, आत्मबल तथा स्वतंत्रता को बार-बार चोट पहुंची व जीवन बहुत संपत्ति व सुविधा संपन्न होने के बावजूद भी नीरस लगने लगा तथा क्षुब्ध व उदास मन के कारण इनकी सदैव अपने घर में भी जेल जैसे जीवन की ही स्थिति बनी रही। लग्न में पापकर्तरी योग होने के अलावा राहु, केतु व शनि जैसे पाप ग्रहों का प्रभाव भी है। साथ ही लग्नेश भी नीच राशिस्थ है। न केवल आत्मबल, शारीरिक शक्ति व व्यक्तित्व का घर लग्न पीडि़त है अपितु मन का कारक राशि कर्क भी पीडि़त है और मन का कारक चंद्र लग्नेश होकर नीचराशिस्थ होने से दोहरा नुकसान कर रहा है। ऐसी स्थिति के चलते ऐसा लगता है कि उनको मानसिक शांति आसानी से सुलभ न होगी क्योंकि रिजर्व मेंटल एनर्जी का कारक गुरु भी अशुभ भाव में स्थित है। यदि वैवाहिक सुख या सोलमेट का विचार करें तो पति का कारक गुरु अशुभ भाव में स्थित है व सप्तम भाव पर अशुभ ग्रहों का प्रभाव है। इसके अतिरिक्त भावात् भावम् के सिद्धांतानुसार यदि अध्ययन करें तो पाएंगे की सप्तम से सप्तम अर्थात् लग्न की स्थिति अत्यधिक अशुभ होने के कारण सप्तम भाव में स्वगृही शनि भी वैवाहिक जीवन में सामंजस्य उत्पन्न नहींं कर पाया। इनके पति की कुंडली में भी वैवाहिक जीवन के लिए शुभ योग न होने के कारण इन्हें पति की ओर से भी विशेष स्नेह व आत्मीयता प्राप्त न हो सकी और लगभग ऐसी स्थिति हो गई की ये दोनों चाहकर भी पूर्णरूपेण एक दूसरे के न हो सके। विवेक की कुंडली में नवांश में उच्चराशिस्थ शनि होने के चलते यह कह सकते हैं कि इनका तलाक नहींं होगा व वैवाहिक जीवन में स्थिरता बनी रहेगी। कल्पना की जन्मपत्री में स्वगृही शुक्र माता के घर अर्थात् चतुर्थ भाव में होने से मालव्य योग का निर्माण होने व चतुर्थ भाव पर गुरु की दृष्टि होने से इन्हें इनके मामा ने गोद लेकर बड़े नाजों से पाला। चतुर्थ भाव में शुक्र की श्रेष्ठतम स्थिति से जातक को जीवन में सुख, संपत्ति, समृद्धि, सुविधा, वाहन, गृह सुख इत्यादि किसी भी चीज की कमी नहींं रहती। ऐसे लोग कई बार गोद ले लिए जाते हैं तथा अच्छी शिक्षा व अमीरी की भी प्राप्ति होती है और विवाहोपरांत पति की निरंतर उन्नति भी होती है क्योंकि चतुर्थ भाव सप्तम भाव से दशम होता है। कल्पना की कुंडली में द्वितीयेश द्वितीयस्थ, तृतीयेश तृतीयस्थ व चतुर्थेश चतुर्थस्थ है। ऐसा योग अखंड लक्ष्मी योग समझा जाता है। चतुर्थ भाव से शिक्षा का विचार होता है। इस भाव में शुक्र अपनी मूल त्रिकोण राशि में स्थित होने से कल्पना की पेंटिंग व कला के क्षेत्र में रूचि बनी और बहुत से व्यक्ति इसकी कला से प्रभावित भी हुए परंतु कार्य क्षेत्र का स्वामी एवं पंचम भाव का प्रतिनिधि ग्रह मंगल बारहवें भाव में स्थित होने से तथा शिक्षा का कारक भाग्येश गुरु अष्टमस्थ होने से वह अपने ज्ञान व कला को व्यावसायिक रूप देने में असफल रही और कोशिश करने पर भी अपना करियर नहींं बना पाई। इनकी महत्वाकांक्षा अतृप्त रह गई तथा जीवन में व्यावसायिक दृष्टि से उच्चस्तरीय सफलताओं में बाधाएं आती रहीं और अति महत्वाकांक्षी होते हुए भी इन्हें साधारण जीवन जीने के लिए विवश होना पड़ा। कल्पना की कुंडली में चार ग्रह स्वगृही हैं तथा इनके पति की कुंडली में भी तीन ग्रह स्वगृही हैं। परंतु इनके पति की कुंडली में एक भी शुभ ग्रह केंद्र में नहींं है तथा राहु, केतु केंद्रस्थ हैं। इसी कारण इन्हें अनैतिक कार्यों से परहेज नहींं है और ग्रहों की ऐसी स्थिति के चलते ही इन्हें कानूनी पचड़े में भी पडऩा पड़ा। विवेक को बुध की दशा में राहु की अंतर्दशा आने के बाद जेल की हवा भी खानी पड़ी। उस समय गोचर के शनि का द्वादश भाव में स्थित मंगल के साथ परस्पर दृष्टि योग भी चल रहा था। चतुर्थ व द्वादश भाव में पाप ग्रहों के प्रभाव से जेल योग होता है। आगे का समय कल्पना के व्यावसायिक जीवन के लिए श्रेष्ठ है। जिस तरह शनि की साढ़ेसाती ने उसके जीवन में इतनी उथल-पुथल कर दी वहीं शनि अब उसके भाग्योदय में सहायक होगा और वह अपनी पहचान कला क्षेत्र के माध्यम से बनाने में अवश्य सफल होगी।

फलादेश मे कारक ग्रहों का महत्व



जन्म कुण्डली के बारह भावों से भिन्न-भिन्न बातों को देखा जाता है। ज्योतिष का मूल नियम यह है कि भाव की शुभाशुभता का विचार भाव और भावेश की बलवत्ता और उस पर पड़ने वाली अन्य ग्रहों की युति एवं दृष्टि द्वारा निर्णित होता है साथ ही नित्य कारक ग्रहों से भी भाव की शुभाशुभता का विचार करते हैं। इस प्रकार भाव, भावेश और कारक इन तीनों के संयुक्त प्रभाव के फलस्वरूप भाव फल का निश्चय किया जाता है। यहां हम कारक और उनके महत्व की चर्चा करेंगे। कारक दो प्रकार के होते हैं- स्थिर कारक और चर कारक। स्थिर कारक का अर्थ यह है कि किसी भी लग्न की कुण्डली हो और कोई भी राशि जातक की हो स्थिर कारक में कोई अन्तर नहीं आता है अर्थात् स्थिर कारक ग्रह अंशादि सापेक्ष नहीं है। पितृ कारक ग्रह वह है जो सूर्य और शुक्र में बली हो अर्थात् सूर्य और शुक्र की स्थिति जातक की कुण्डली में क्या है इस पर विचारोपरान्त दोनों में जो बली सिद्ध होगा वही ग्रह पितृकारक माने जायेंगे। मातृकारक ग्रह वह है जो चन्द्रमा और शुक्र में बलवान सिद्ध होता है। इसी प्रकार मंगल ग्रह से बहन, साला, छोटे भाई का विचार किया जाता है। बुध ग्रह से चाची, गुरु से पितामह का, शुक्र से स्वामी का और शनि से पुत्र, पिता, सास-ससुर, मातामह, मातामही आदि तत्समान जनों का विचार करना चाहिए। इसके अतिरिक्त बारह भावों के भी कारक कहे गये हैं- लग्न अथवा प्रथम भाव का कारक सूर्य है। द्वितीय भाव का गुरु, तृतीय भाव का मंगल, चतुर्थ भाव का चंद्रमा, पंचम भाव का गुरु, छठे भाव का मंगल, सप्तम भाव का शुक्र, अष्टम भाव का शनि, नवम भाव का गुरु, दशम भाव का बुध, एकादश भाव का गुरु और द्वादश भाव का कारक शनि है इन स्थिर कारकों के बाद चर कारक का प्रसंग आता है। चर कारक ग्रह वह हैं जो जातकों के कुण्डलियों में उनके ग्रहांशों के आधार पर निर्णित होते हैं। चूंकि अलग-अलग कुण्डलियों में ग्रह के अंशादि अलग-अलग होते हैं इसलिए ये कारक भी स्थिर न होकर बदलते रहते हैं। जन्म पत्रिकाओं मंे जिस ग्रह का अंश सबसे अधिक होता है वह आत्मकारक कहलाते हैं। उससे कम अंशादि वाला ग्रह अमात्य कारक अर्थात् मंत्री, उससे कम अंशादि वाला ग्रह भातृ कारक, उससे कम अंश वाला ग्रह मातृकारक, उससे कम अंश वाला ग्रह पितृकारक, उससे न्यून अंश वाला ग्रह पुत्र कारक, उससे कम अंश वाला ग्रह ज्ञाति कारक और उससे भी कम अंश वाला ग्रह दारा कारक होता है। कुछ विद्वान मातृ कारक और पुत्र कारक ग्रह एक ही मानते हैं। चर कारक निश्चय करने में अंश से लेकर विकला तक विचार करना चाहिए। यदि ग्रह एक ही कारक के प्रतिनिधि माने जाते हैं। इस स्थिति में उससे आगे वाले कारक का लोप हो जाता है। तब उस कारकत्व का निर्णय स्थिर कारक से करने का विधान शास्त्रों ने दिया है। उपरोक्त चर कारक आठ हो गए हैं परन्तु ग्रहों की संख्या रवि से शनि पर्यन्त सात ही है। अतः विद्वान राहु को भी चर कारक निर्णय में स्थान देते हैं। परन्तु राहु के कारक विचार में राहु के अंश को 30 डिग्री में से घटाकर समझना चाहिए क्योंकि राहु सदैव उल्टा चलता है।

गोचर विज्ञान के लिए अन्य ग्रहों का प्रयोग



जन्म समय में ये ग्रह जिस राशि में पाये जाते हैं वह राशि इनकी जन्मकालीन राशि कहलाती है जो कि जन्म कुंडली का आधार है। जन्म के पश्चात् किसी भी समय वे अपनी गति से जिस राशि में भ्रमण करते हुए दिखाई देते हैं, उस राशि में उनकी स्थिति गोचर कहलाती है। वर्ष भर के समय की जानकारी गुरु और शनि से, मास की सूर्य से और प्रतिदिन की चंद्रमा के गोचर से प्राप्त की जा सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी ग्रह का गोचर फल उस ग्रह की अन्य प्रत्येक ग्रह से स्थिति के आधार पर भी कहना चाहिए न कि केवल चंद्रमा की स्थिति से। गोचर फलादेश के सिद्धांत: 1. मनुष्य को ग्रह गोचर द्वारा ग्रहों की, मुख्यतः ग्रहों की जन्मकालीन स्थिति के अनुरूप ही अच्छा अथवा बुरा फल मिलता है। इस विषय में मंत्रेश्वर महाराज ने ‘फलदीपिका’ में लिखा है। ‘‘यद भागवो गोचरतो विलग्नात्देशश्वरः सर्वोच्च सुहृदय ग्रहस्थः तद् भाववृद्धि कुरूते तदानीं बलान्वितश्चेत प्रजननेऽपि तस्य’’ अर्थात् यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में बली होकर गोचर में भी अपनी उच्च राशि, अपनी राशि अथवा मित्र राशि में जा रहा हो तो लग्न से जिस भाव में गोचर द्वारा जा रहा होगा, उसी भाव के शुभ फल को बढ़ायेगा। इसी विषय को पुनः अशुभ फल के रूप में भी फलदीपिका कार इस प्रकार लिखते हैं। ‘‘बलोनितो जन्मनि पाकनाथौ मौढ्यं स्वनीचं रिपुमंदिरं वा। प्राप्तश्च यद भावमुपैति चारात् तदभाव नाशकुरूते तदानीम्।। अर्थात् यदि कुंडली में कोई ग्रह जिसकी दशा चल रही हो, निर्बल है, अस्त है, नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में स्थित है तो वह ग्रह गोचर में लग्न के जिस भाव को देखेगा या जायेगा उस भाव का नाश करेगा। 2. यदि जन्मकुंडली में कोई ग्रह अशुभ भाव का स्वामी हो या अशुभ स्थान में पड़ा हो या नीच राशि अथवा नीच नवांश में हो तो वह ग्रह-गोचर में शुभ स्थान में आ जाने पर भी अपना गोचर का पूर्णअशुभ फल देगा। 3. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में शुभ हो, और गोचर में बलवान होकर शुभ स्थान में भ्रमण कर रहा हो तो उत्तम फल करता है। 4. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली के अनुसार शुभ हो, गोचर में भी शुभ भाव में होकर नीच आदि प्रकार से अधम हो तो कम शुभ फल करता है। 5. यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अशुभ हो और गोचर में शुभ भाव में हो, परंतु नीच, शत्रु आदि राशि में हो तो बहुत कम शुभ फल करेगा, अधिकांश अशुभ फल ही प्रदान करेगा। 6. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में अशुभ है और गोचर में भी अशुभ भाव में अशुभ राशि आदि में स्थित है तो वह अत्यंत अशुभ फल प्रदान करेगा। 7. जब ग्रह गोचरवश शुभ स्थान से जा रहा हो और जन्मकुंडली में स्थित दूसरे शुभ ग्रहों से अंशात्मक दृष्टि योग कर रहा हो तो विशेष शुभ फल प्रदान करता है। 8. गोचर में जब ग्रह मार्गी से वक्री होता है अथवा वक्री से मार्गी होता है तब विशेष प्रभाव दिखलाता है। 9. जब गोचर में कोई ग्रह अग्रिम राशि में चला जाता है और कुछ समय के लिए वक्री होकर पिछली राशि में आ जाता है तब भी वह आगे की राशि का फल प्रदान करता है। 10. सूर्य और चंद्रमा का गोचर फल: जिस जातक के जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण पड़ता है तो उस व्यक्ति के स्वास्थ्य आयु आदि के लिए बहुत अशुभ होता है। इस संबंध में ‘मुहूर्त’ चिंतामणि’ का निम्नलिखित श्लोक इस प्रकार है- ‘‘जन्मक्र्षे निधने ग्रहे जन्मतोघातः क्षति श्रीव्र्यथा, चिन्ता सौख्यकलत्रादौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमातदशुभ्यध्वस्त्यै जपः स्वर्ण, गोदानं शान्तिस्थो ग्रहं त्वशुभदं नोवीक्ष्यमाहुवरे।।’’ अर्थात जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर ग्रहण पड़ा हो उसकी सूर्य चंद्र के द्वारा जन्म नक्षत्र पर गोचर भ्रमण के समय मृत्यु हो सकती है। यही फल जन्म राशि पर ग्रहण लगने से कहा है। जन्म राशि से द्वितीय भाव में ग्रहण पड़े तो धन की हानि, तृतीय में पड़े तो धन की प्राप्ति होती है, पांचवे तो चिंता, छठे पड़े तो सुखप्रद होता है। सातवें पड़े तो स्त्री से पृथकता हो या उसका अनिष्ट हो, आठवें पड़े तो रोग हो, नवें पड़े तो मानहानि, दशम में पड़े तो कार्यों में सिद्धि, एकादश पड़े तो विविध प्रकार से लाभ और बारहवें पड़े तो अधिक व्यय तथा धन नाश होता है। 11. यदि वर्ष का फल अशुभ हो अर्थात् शनि, गुरु और राहु गोचर में अशुभ हों और मास का फल उत्तम हो तो उस मास में शुभ फल बहुत ही कम आता है। 12. यदि वर्ष और मास दोनों का फल शुभ हो तो उस मास में अवश्य अतीव शुभ फल मिलता है। 13. ग्रहों का गोचर में शुभ अशुभ फल जो उनके चंद्र राशि में भिन्न भावों में आने पर कहा है उसमें बहुत बार कमी आ जाती है। उस कमी का कारण ‘वेध’ भी होता है। जब कोई ग्रह किसी भाव में गोचरवश चल रहा हो तो उस भाव से अन्यत्र एक ऐसा भाव भी होता है जहां कोई अन्य ग्रह स्थित है तो पहले ग्रह का ‘वेध’ हो जाता है अर्थात् उसका शुभ अथवा अशुभ फल नहीं हो पाता। जैसे सूर्य चंद्र लग्न से जब तीसरे भाव में आता है, तो वह शुभ फल करता है, परंतु यदि गोचर में ही चंद्र लग्न से नवम् भाव में कोई ग्रह बैठा हो तो फिर सूर्य की तृतीय स्थिति का फल रुक जायेगा, क्योंकि तृतीय स्थित सूर्य के लिए नवम वेध स्थान है। इसी प्रकार चंद्रमा जब गोचर में चंद्र लग्न से पंचम भाव में स्थित हो तो कोई ग्रह यदि चंद्र लग्न से छठे भाव में आ जाय तो पंचम चंद्र का वेध हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य ग्रहों का भी वेध द्वारा फल का रुक जाना समझ लेना चाहिए। सूर्य तथा शनि पिता पुत्र हैं। इसलिए इनमें परस्पर वेध नहीं होता है। इसी प्रकार चंद्र बुध माता पुत्र है। अतः चंद्र और बुध में भी परस्पर वेध नहीं होता। वेध को समझने के लिए एक तालिका बनाई गई है, जिसमें नौ ग्रहों के चंद्र लग्न से विविध भावों पर आने से कहां-कहां वेध होना है दर्शाया गया है। इस तालिका में अंकों से तात्पर्य भाव से है जो कि चंद्र लग्न से गिनी जाती है। यदि गोचरवश शुभ ग्रह को चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो स्पष्ट है तो जितनी-जितनी अधिक रेखा होंगी, उतना ही फल उत्तम होता जायेगा। नोट: अष्टक वर्ग में रेखा को शुभ फल मानते है तथा बिंदु को अशुभ। दक्षिण भारत में बिंदु को शुभ एवं रेखा को अशुभ मानते हैं। महर्षि पराशर नें रेखा को शुभ एवं बिंदु को अशुभ के रूप में अंकित करने की सलाह दी है। इसीलिये यहां रेखा को शुभ के रूप में अंकित है। 16. गोचर में ग्रह कब फल देते हैं- ग्रहों की जातक विचार में जो फल प्रदान करने की विधि है वही गोचर में भी है। फलदीपिकाकार मंत्रेश्वर महाराज ने लिखा है। ‘‘क्षितितनय पतंगो राशि पूर्व त्रिभागे सुरपति गुरुशुक्रौ राशि मध्य त्रिभागे तुहिन किरणमन्दौराशि पाश्चात्य भागे शशितनय भुजड्गौ पाकदौ सार्वकालम्।।’’ अर्थात सूर्य तथा मंगल गोचर वश जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो तत्काल ही अपना प्रभाव दिखलाते हैं । एक राशि में 30 अंश होते हैं, इसलिए सूर्य और मंगल 0 डिग्री से 10 डिग्री तक ही विशेष प्रभाव करते हैं। गुरु और शुक्र मध्य भाग में अर्थात 10 अंश से 20 अंश विशेष शुभ तथा अशुभ प्रभाव दिखलाते हैं। चंद्रमा और शनि, राशि के अंतिम भाग अर्थात 29 अंश से 30 अंश तक विशेष प्रभावशाली रहते हैं। बुध तथा राहु सारी राशि में अर्थात् 0 अंश से 30 अंश तक सर्वत्र एक सा फल दिखाते हैं। 17. ग्रहों के गोचर में फलप्रदान करने के विषय में ‘काल प्रकाशिका’ नामक पुस्तक में थोड़ा सा मतभेद चंद्र और राहु के विषय में है। उसमें कहा गया है। ‘‘सूर्योदौ फलदावादौ गुरुशुक्रौ मध्यगौ मंदाही फलदावन्तये बुधचन्द्रौ तु सर्वदा। अर्थात सूर्य तथा मंगल राशि के प्रारंभ में, गुरु, शुक्र मध्य में, शनि और राहु अंत में तथा बुध और चंद्रमा सब समय में फल देते हैं। जन्म कालीन ग्रहों पर से गोचर ग्रहों के भ्रमण का फल: 1. जन्मकालिक ग्रहों से सूर्य का गोचर फल: जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान (जन्म कुंडली) से गोचर के सूर्य का गोचर व्यक्ति को कष्ट देता है। धन लाभ तो होता है किंतु टिकता नहीं, व्यवसाय भी ठीक नहीं चलता। शरीर अस्वस्थ रहता है। यदि दशा, अंतर्दशा भी अशुभ हो तो पिता की मृत्यु हो सकती है। इस अवधि में जातक का अपने पिता से संबंध ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ चंद्रमा पर से या इससे सातवें स्थान में गुजरता हुआ सूर्य शुभ फल प्रदान करता है। यदि सूर्य कुंडली में अशुभ स्थान का स्वामी हो तो मानसिक कष्ट, अस्वस्थता होती है। यदि सूर्य शुभ स्थान का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। जन्मस्थ मंगल पर से या इससे सातवें स्थान में गोचर रवि का प्रस्थान प्रायः अशुभ फल देता है। यदि कुंडली में मंगल बहुत शुभ हो तो अच्छा फल मिलता है। जन्मस्थ बुध से या उसके सातवें स्थान से सूर्य गुजरता है तो सामान्य तथा शुभ फल करता है परंतु संबंधियों से वैमनस्य की संभावना रहती है। जन्मस्थ गुरु पर से या उसके सातवें स्थान से गोचर का सूर्य शुभ फल नहीं देेता है। इस अवधि में उन्नति की संभावना कम रहती है। जन्मस्थ शुक्र पर से या उससे सातवें स्थान से सूर्य भ्रमण करने पर स्त्री सुख नहीं मिलता। स्त्री बीमार रहती है। व्यय होता है। राज्य की ओर से कष्ट होता है। जन्मस्थ शनि से या उससे सप्तम स्थान पर गोचर का सूर्य कष्ट देता है। 2. जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल: जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल जन्मस्थ चंद्र के पक्षबल पर निर्भर करता है। यदि पक्षबल में बली हो तो शुभ अन्यथा क्षीण होने पर अशुभ फल देता है। जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर के चंद्रमा का शुभ प्रभाव जन्मस्थ चंद्र के शुभ होने पर निर्भर है। चंद्रमा स्वास्थ्य की हानि, धन की कमी, असफलता तथा आंख में कष्ट देता है। जन्मस्थ गुरु पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर का चंद्रमा बली हो तो स्त्री सुख देता है। ऐशो आराम के साधन जुट जाते हैं, धन का लाभ होता है लेकिन जन्मकालीन चंद्रमा क्षीण हो तो इसके विपरीत अशुभ फल मिलता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सप्तम स्थान पर से जब गोचर का चंद्रमा गुजरता है तो धन मिलता है लेकिन निर्बल हो तो मनुष्य को व्यापार में घाटा होता है। 3. जन्मकालिक ग्रहों से मंगल का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा उससे दसवें स्थान पर से गोचर का मंगल जब जाता है तब उस अवधि में रोग होता है। खर्च बढ़ता है। व्यवसाय में बाधा आती है और नौकरी में भी वरिष्ठ पदाधिकारी नाराज हो जाते हैं। आंखों में कष्ट होता है तथा पेट के आॅपरेशन की संभावना रहती है। पिता को कष्ट होता है। जन्म के चंद्रमा पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचरवश जब मंगल आता है तो शारीरिक चोट की संभावना रहती है। क्रोध आता है। भाईयों द्वारा कष्ट होता है। धन का नाश होता है। यदि जन्म कुंडली में मंगल बली हो तो धन लाभ होता है। राजयोग कारक हो तो भी धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है और जन्मकुंडली में मंगल दूसरे, चैथे, पांचवे, सातवें, आठवें अथवा बारहवें स्थान में हो और विशेष बलवान न हो तो धन हानि, कर्ज, नौकरी छूटना, बल में कमी, भाइयों से कष्ट व झगड़ा होता है तथा शरीर में रोग होता है। जन्मस्थ बुध पर अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से जब मंगल भ्रमण करता है तो अशुभ फल मिलता है। बड़े व्यापारियों के दो नंबर के खाते पकड़े जाते हैं। झूठी गवाही या जाली हस्ताक्षर के मुकदमे चलते हैं। धन हानि होती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है तो लाभ होता है। लेकिन संतान को कष्ट होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल भ्रमण करता है तो कामवासना तीव्र होती है। वैश्या इत्यादि से यौन रोग की संभावना रहती है। आंखों में कष्ट तथा पत्नी को कष्ट होता है। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से मंगल गुजरता है और यदि जन्मकुंडली में शनि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, नवम अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित हो तो उस गोचर काल में बहुत दुख और कष्ट होते हैं। भूमि व्यवसाय से या अन्य व्यापार से हानि होती है। मुकदमा खड़ा हो जाता है। स्त्री वर्ग एवं निम्न स्तर के व्यक्तियों से हानि होती है। यदि जन्मकुंडली में शनि एवं मंगल दोनों की शुभ स्थिति हो तो विशेष हानि नहीं होती है। लेकिन मानसिक तनाव बना रहता है। 4. जन्मकालिक ग्रहों से बुध का गोचर फल: बुध के संबंध में यह मौलिक नियम है कि यदि बुध शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो शुभ एवं पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो पाप फल करता है। इसलिए गोचर के बुध का फल उस ग्रह के फल के अनुरूप होता है जिससे या जिनसे जन्मकुंडली में बुध अधिक प्रभावित है। यदि बुध पर सूर्य मंगल, शनि यदि नैसर्गिक पापी ग्रहों का प्रभाव शुभ ग्रहों के अपेक्षा अधिक हो तो ऊपर दिये गये सूर्य, मंगल, शनि आदि ग्रहों के गोचर फल जैसा फल करेगा। विपरीत रूप से यदि जन्मकुंडली में बुध पर प्रबल प्रभाव, चंद्र, गुरु अथवा शुक्र का हो तो इन ग्रहों के गोचर फल जैसा फल भी देगा। 5. जन्मकालिक ग्रहों से गुरु का गोचर फल: जन्मकालिक सूर्य से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जाता हुआ गुरु यदि चंद्र लग्न के स्वामी का मित्र है तो गुरु बहुत अच्छा फल प्रदान करता है। यदि गुरु साधारण बली है तो साधारण फल होगा। यदि गुरु, चंद्र लग्नेश का शत्रु अथवा शनि, राहू अधिष्ठित राशि का भी स्वामी हो तो खराब फल करेगा। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से जाता हुआ गुरु अशुभ फल करता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा 2, 3, 6, 7, 10 और 11 राशि में हो और गुरु शनि अथवा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो ऐसा गोचर का गुरु रोग देता है। माता से वियोग करता है। धन का नाश एवं व्यवसाय में हानि होती है। कर्ज के कारण मानसिक परेशानी होती है तथा घर से दूर भी कराता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव से गुजरता हुआ गुरु प्रायः शुभ फल देता है। यदि कुंडली में गुरु राहु या शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो खराब फल मिलता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव में, आया हुआ गोचर का गुरु निम्न प्रकार से फल प्रदान करता है। (क) यदि बुध अकेला हो और किसी ग्रह के प्रभाव में न हो तो शुभ फल मिलता है । (ख) यदि बुध पर गुरु के मित्र ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर के गुरु का वही फल होगा जो उन-उन ग्रहों पर गुरु की शुभ दृष्टि का होता है अर्थात शुभ फल प्राप्त होगा। (ग) यदि बुध पर गुरु के शत्रु ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर का गुरु अनिष्ट फल देगा। विशेषतया उस समय जब कि जन्म कुंडली में गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो और बुध पर दैवी श्रेणी के ग्रहों का प्रभाव हो। (घ) यदि बुध अधिकांशतः आसुरी श्रेणी के ग्रहों से प्रभावित हो तथा गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो गुरु के गोचर में कुछ हद तक शुभता आ सकती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश आया हुआ गुरु शुभ फल नहीं देता है। यदि यह जन्मकुंडली में 3, 6, 8 अथवा 12 भावों में शत्रु राशि में स्थित हो या पाप युक्त, पाप दृष्ट हो या शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, ऐसी स्थिति में वह खराब फल देता है। यदि गुरु जन्म समय में बलवान हो तो शुभ फल होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में जब गोचर वश गुरु आता है तो शुभ फल देता है, यदि शुक्र जन्म कुंडली में बली हो अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो। यदि शुक्र जन्मकुंडली में अन्यत्र हो और गुरु भी पाप दृष्ट, पापयुक्त हो तो गोचर का गुरु खराब फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जब गुरु आता है तो शुभफल करता है। यदि शनि जन्मकुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम अष्टम, दशम अथवा एकादश भावों में हो तो डूबा हुआ धन मिलता है तथा लाभ होता है यदि शनि अन्यत्र हो और पराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ आधिपत्य भी हो तो गोचर का गुरु कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता है बल्कि हानिप्रद ही सिद्ध होता है। 6. जन्मकालिक ग्रहों से शुक्र का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा इससे सप्तम स्थान में गोचरवश जाता हुआ शुक्र लाभप्रद होता है। यदि शुक्र का आधिपत्य अशुभ हो तो व्यसनों में समय बीतता है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र मन में विलासिता उत्पन्न करता है। वाहन का सुख मिलता है। धन की वृद्धि तथा स्त्री वर्ग से लाभ होता है। चंद्र यदि निर्बल हो तो अल्प मात्रा मंे लाभ मिलता है। जन्मस्थ मंगल पर से या उससे सप्तम भाव में गोचरवश आया हुआ शुक्र बल वृद्धि करता है, कामवासना में वृद्धि करता है, भाई के सुख को बढ़ाता है तथा भूमि से लाभ होता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा उससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र विद्या लाभ देता है। सभी से प्यार मिलता है। स्त्री वर्ग से तथा व्यापार से लाभ होता है। यह फल तब तक मिलता है जब बुध अकेला हो। यदि बुध किसी ग्रह विशेष से प्रभावित हो तो गोचर का फल उस ग्रह पर से शुक्र के संचार जैसा होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें भाव में गोचरवश जब शुक्र आता है जो सज्जनों से संपर्क बढ़ता है, विद्या में वृद्धि होती है। पुत्र से धन मिलता है, राजकृपा होती है, सुख बढ़ता है। यदि शुक्र निर्बल हो और शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो फल विपरीत होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम भाव से जब शुक्र गुजरता है तो विलासिता की वस्तुओं में और स्त्रियों से संपर्क में वृद्धि करता है। तरल पदार्थों से लाभ देता है। स्त्री सुख में वृद्धि करता है तथा व्यापार में वृद्धि करता है। कमजोर शुक्र कम फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश जब शुक्र आता है तो मित्रों की वृद्धि, भूमि आदि की प्राप्ति, स्त्री वर्ग से लाभ, नौकरी की प्राप्ति होती है। कमजोर शुक्र कम फल प्रदान करता है। 7. जन्मकालिक ग्रहों से शनि का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचरीय शनि आता है तो नौकरी छूटने की संभावनाएं रहती है, पेट में रोग तथा पिता को परेशानी होती है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में शनि भ्रमण करता है तब धन हानि, मानसिक तनाव होता है तथा रोग होता है। यदि चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी की हो तो मिश्रित फल मिलता है तथा आर्थिक लाभ भी हो सकता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश यदि शनि जाए तो शत्रुओं से पाला पड़ता है, स्वभाव में क्रूरता बढ़ती है तथा भाईयों से अनबन रहती है। राज्य से परेशानी है। रक्त विकार एवं मांसपेशियों में कष्ट होता है। बवासीर हो सकता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचर वश शनि जाता है तो बुद्धि का नाश, विद्या हानि, संबंधियों से वियोग व्यापार में हानि, मामा से अनबन एवं अंतड़ियों में रोग होता है। यदि बुध आसुरी श्रेणी का हो तो धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से जब गोचरवश शनि जाता है तब कर्मचारियों की ओर से विरोध, धन में कमी पुत्र से अनबन अथवा वियोग होता है। सुख में कमी आती है। जिगर के रोग होते हैं। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम स्थान से, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से गोचरवश शनि पत्नी से वैमनस्य कराता है। यदि शुक्र जन्म कुंडली में राहु, शनि आदि से पीड़ित हो तो तलाक भी करवा सकता है। प्रायः धन और सुख में कमी लाता है। सिवाय इसके जबकि जन्म लग्न आसुरी श्रेणी का हो। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थभाव में जब गोचर वश शनि भ्रमण करता है तो निम्न वर्ग के लोगों से हानि, भूमि, नाश, टांगों में दर्द तथा कई प्रकार के दुख होते हैं। यदि लग्न तथा चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी के हो तो धन, पदवी आदि सभी बातों में सुख मिलता है। 8. जन्मकालिक ग्रहों से राहु/केतु का गोचर फल: राहु और केतु छाया ग्रह है। इसका भौतिक अस्तित्व नहीं। यही कारण है कि इनको गोचर पद्धति में सम्मिलित नहीं किया गया है तो भी ज्योतिष की प्रसिद्ध लोकोक्ति है। शनिवत राहू कुजावत केतु अतः गोचर में राहू शनि जैसा तथा केतु मंगल जैसा ही फल करता है। यह स्मरणीय है कि राहु और केतु का गोचर मानसिक विकृति द्वारा ही शरीर, स्वास्थ्य तथा जीवन के लिए अनिष्टकारक होता है, विशेषतया जबकि जन्मकुंडली में भी राहु, केतु पर शनि, मंगल तथा सूर्य का प्रभाव हो, क्योंकि ये छाया ग्रह राहु जहां भी प्रभाव डालते हैं वहां न केवल अपना बल्कि इन पाप एवं क्रूर ग्रहों का भी प्रभाव साथ-साथ डालते हैं। राहु और केतु की पूर्ण दृष्टि नवम एवं पंचम पर भी (गुरु की भांति) रहती है। अतः गोचर में इन ग्रहों का प्रभाव और फल देखते समय यह देख लेना चाहिए कि ये अपनी पंचम और नवम, अतिरिक्त दृष्टि से किस-किस ग्रह को पीड़ित कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि सदा ही राहु तथा केतु का गोचरफल अनिष्टकारी होता है। कुछ एक स्थितियों में यह प्रभाव सट्टा, लाॅटरी, घुड़दौड़ आदि द्वारा तथा अन्यथा भी अचानक बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। वह तब, जब, कुंडली में राहु अथवा केतु शुभ तथा योगकारक ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों और गोचर में ऐसे ग्रह पर से भ्रमण कर रहे हों जो स्वयं शुभ तथा योग कारक हों। उदाहरण के लिए यदि योगकारक चंद्रमा तुला लग्न में हो और राहु पर जन्मकुंडली में शनि की युति अथवा दृष्टि हो तो गोचर वश राहु यदि बुध अथवा शुक्र अथवा शनि पर अपनी सप्तम, पंचम अथवा नवम दृष्टि डाल रहा हो तो राहु के गोचर काल में धन का विशेष लाभ होता है, यद्यपि राहु नैसर्गिक पाप ग्रह है। अष्टक वर्ग से गोचर का फल: गोचर के फलित का अष्टक वर्ग के फलित से तालमेल बैठाने की प्रक्रिया में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये। 1. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि से संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग की 30 से अधिक रेखाएं हों तो गोचर में चंद्र से अशुभ स्थिति में होने के बावजूद उस भाव-राशि से संबंधित कार्य कलापों और विषयों के संदर्भ में वह ग्रह शुभ फल प्रदान करता है। 2. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि में संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से कम रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग में 30 से कम रेखाएं हों तो भले ही वह ग्रह चंद्र से शुभ स्थानों में गोचर कर रहा हो, अशुभ फल ही देता है। ऐसी स्थिति में यदि उक्त ग्रह के संचरण वाली राशि चंद्र से अशुभ स्थान पर हो तो अशुभ फल काफी अधिक मिलते हैं। 3. ग्रह अष्टक वर्ग में भी शुभ हों और कुंडली में उपचय स्थान (3, 6, 10वें तथा 11 वें स्थान) में निज राशि में या मित्र की राशि में या अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो बहुत शुभ फल देते हैं और यदि अनुपचय स्थान में नीच अथवा शत्रु राशि में हो और गोचर में भी अशुभ हो तो अधिक अशुभ फल देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टक वर्ग से ग्रह का उतार-चढ़ाव देखा जाता है। 4. यदि किसी भाव को कोई रेखा न मिले तो उस भाव से गोचर फल अत्यंत कष्टकारी होता है। चार रेखा प्राप्त हो तो मिश्रित फल अर्थात मध्यमफल मिलता है। 5 रेखा मिलने पर फल अच्छा होता है। 6 रेखा मिले तो बहुत अच्छा, 7 रेखा मिले तो उत्तम फल और 8 में से 8 रेखा मिल जाये तो सर्वोत्तम फल कहना चाहिए। 5. जातक परिजात में अष्टकवर्ग को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जो ग्रह उच्च, मित्र राशि अथवा केंद्र (1, 4, 7, 10) कोण (5, 9), उपचय (3, 6, 10, 11) में स्थित है, जो शुभ वर्ग में है। बलवान है तो भी यदि अष्टक वर्ग में कोई रेखा नहीं पाता है तो फल का नाश करने वाला ही होता है और यदि कोई ग्रह पापी, नीच या शत्रु ग्रह के वर्ग में हो अथवा गुलिक राशि के स्वामी हो, परंतु अष्टक वर्ग में 5, 6, 7 अथवा 8 रेखा पाता है तो यह ग्रह उत्तम फल देता है। 6. सारावली ने अष्टकवर्ग के संबंध में जो सम्मति दी है, हम समझते हैं कि वह अधिक युक्तिसंगत है। सारावली में कहा गया है। ‘‘इत्युक्तं शुभ मन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः’’ शक्ताशक्त विशेषितं विद्धति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम्। स्वार्थी स्वोच्च्सुहृदगृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टसमम् नीचाराति गता ह्यानिष्ट बहुलं शक्तं न सम्यक् फलम्।। अर्थात इस प्रकार गोचरवश ये ग्रह शुभ अथवा अशुभ फल करते हैं। अष्टकवर्ग द्वारा ग्रह अच्छा, बुरा अथवा सम फल देते हैं। परंतु ग्रह उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में होकर भी यदि अष्टकवर्ग में अशुभ हो अर्थात कम रेखा प्राप्त हों, तो बुरा फल देते हैं। 4. कोई ग्रह किसी राशि विशेष में कब-कब अपना शुभ या अशुभ फल दिखलाएगा? इसके लिए प्रत्येक राशि को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। एक राशि के 30 अंशों को आठ बराबर भाग में बांटने पर मान 3 अंश 45 कला के बराबर होता है। इन अष्टमांशों को कक्षाक्रम से ही ग्रहों को अधिपत्य दिया गया है तथा वे तदनुसार ही फल देते हैं। माना किसी व्यक्ति को शनि योगकारक उत्तमफल दायक है। अब शनि जब-जब अधिक रेखा युक्त राशि में गोचर करेगा तो उसे अच्छा फल मिलेगा।

संतानहीनता कारण और निवारण



संतान का सुख मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा सुख है। शास्त्रानुसार पुत्र-संतान के बिना दंपत्ति की सद्गति नहीं होती। विवाह का एक प्रमुख उद्देश्य संतान प्राप्ति भी है। संतान ही वंश को आगे बढ़ाती है तथा सामाजिक व सांस्कृतिक चक्र को निरंतर बनाए रखती है। संतान का अभाव दांपत्य जीवन के कष्टप्रद होने का एक प्रमुख कारण है। संसार का प्रत्येक स्त्री-पुरूष संतान उत्पन्न कर तथा उसका पालन-पोषण कर अपने ऋण से मुक्त होने की अभिलाषा रखता है। ज्योतिष शास्त्र के माध्यम से संतान से संबंधित अनेक प्रश्नों के उत्तर दिए जा सकते हैं। जैसे संतान होगी या नहीं, पुत्र होगा या पुत्री, प्रथम संतान क्या होगी, कितनी संतानें उत्पन्न होंगी, संतान दुर्गुणी होगी या सद्गुणी इत्यादि। संतानहीनता एक ऐसा श्राप है जिसके कारण मनुष्य को अपने आप में अपूर्णता की भावना बारंबार ग्रस्ती रहती है। विवाह योग देखते समय या मेलापक पढ़ते समय संतान योग पर भी ध्यान देना नितांत आवश्यक है। जन्मपत्रिका के पंचम भाव से संतान के संबंध में विचार किया जाता है। संतान का कारक ग्रह गुरु है। अतः गुरु की स्थिति भी देखनी चाहिए। चंद्र लग्न से भी पंचम भाव के बलाबल पर ध्यान देना आवश्यक होता है। संतान के संबंध में स्त्री की जन्मपत्रिका में पंचम भाव के अतिरिक्त नवम भाव (पंचम से पंचम होने के कारण) का भी विचार करना चाहिए। इसके अतिरिक्त सप्तम व अष्टम भी संतानोत्पत्ति से संबंध रखते हैं क्योंकि अण्डाशय, गर्भाशय, अंडवाहिनी नलिकाएं इत्यादि अष्टम भाव से तथा कामांग व यौनाचार सप्तम भाव से संबंध रखते हैं। चंद्र नमी तथा गर्भधारण करने की क्षमता का तथा मंगल रक्त का कारक है। अतः गर्भ धारण में एवं प्रसव में चंद्र, मंगल व गुरु की भूमिका प्रमुख है। संतानोत्पत्ति के लिए पंचम भाव व पंचमेश, सप्तम व सप्तमेश, अष्टम व अष्टमेश, नवम भाव व नवमेश तथा चंद्र, मंगल व गुरु की स्थिति पर विचार करना आवश्यक है। पति-पत्नी दोनों की जन्मपत्रिकाओं के आधार पर संतान-सुख का निर्णय करना चाहिए। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार संतानहीनता के निम्न कारण हो सकते हैं- स्त्री जातक 1. बन्ध्यत्व 2. काक बन्ध्यत्व 3. गर्भ स्राव 4. मृतंवत्सत्व 5. संतानहीनता के योग। 1. बन्ध्यत्व जिस स्त्री में गर्भ धारण करने की क्षमता न हो उसे बांझ या बंध्या कहा जाता है। इससे संबंधित योग स्त्री की जन्मपत्रिका में देखे जा सकते हैं। - लग्न राशि मेष, वृष, कुंभ हो तथा लग्न पर पाप प्रभाव हो। - लग्न में शनि व मंगल हो अथवा चंद्र व शुक्र हो तथा पंचम भाव पाप ग्रहों से युत या दृष्ट हो। - सूर्य व शनि षष्ठ भाव में षष्ठेश के साथ हों तथा सप्तमस्थ चंद्र पर बुध की दृष्टि हो। - सूर्य व शनि की युति अष्टम भाव में हो। - चंद्र और शनि की दृष्टि अष्टम भाव में हो। - पंचमेश नीच राशि में हो तथा नवम भाव में पाप ग्रह हो। - चंद्र व शुक्र लग्न में मेष, वृश्चिक, मकर या कुंभ राशि में हो तथा षष्ठ भाव में पाप ग्रह हो। - पंचमेश षष्ठ भाव में हो तथा तृतीयेश पंचम या द्वादश भाव में हो। 2. काक बन्ध्यत्व जो स्त्री जीवन में केवल एक बार ही गर्भ धारण करे, चाहे संतान जीवित हो अथवा मृत अथवा गर्भपात हो जाए, काक बंध्या कहलाती है। निम्न योगों में स्त्री काक बन्ध्या होती है। - चंद्र कर्क राशि में होकर अष्टम भाव में स्थित हो। - सूर्य सिंह राशि में होकर अष्टम भाव में स्थित हो। - बुध मिथुन या कन्या राशि का होकर अष्टमस्थ हो। - मकर या कुंभ राशि में स्थित शनि अष्टमस्थ हो। 3. गर्भस्राव या गर्भपात स्त्री गर्भ स्राव या गर्भपात के कारण निम्न योगों में संतानहीन होती है। - मंगल व शनि की युति चतुर्थ भाव में हो। - पंचमेश पापयुत या पाप दृष्ट हो। - सूर्य व शनि षष्ठ भाव में षष्ठेश के साथ हों तथा सप्तमस्थ चंद्र पर बुध की दृष्टि हो। - सूर्य व शनि की युति अष्टम भाव में हो। - चंद्र और शनि की दृष्टि अष्टम भाव में हो। - पंचमेश नीच राशि में हो तथा नवम भाव में पाप ग्रह हो। - चंद्र व शुक्र लग्न में मेष, वृश्चिक, मकर या कुंभ राशि में हो तथा षष्ठ भाव में पाप ग्रह हो। - पंचमेश षष्ठ भाव में हो तथा तृतीयेश पंचम या द्वादश भाव में हो। 4. मृतंवत्सत्व जिस स्त्री की संतान गर्भ में ही मर जाती हो या संतान होते ही मर जाती हो उसे मृतवत्सा कहा जाता है। यह योग इस प्रकार है- - सप्तम भाव में सूर्य व राहु हो तथा उन्हें शनि देखता हो। - गुरु व शुक्र की युति अष्टम भाव में हो। 5. संतानहीनता के योग - जिस स्त्री के लग्न में सूर्य और सप्तम में शनि हो तो वह संतानहीन होती है। - सप्तम भाव में सूर्य और शनि, दशम भाव में चंद्र और गुरु की दृष्टि हो तो भी संतान उत्पन्न नहीं होती है। - षष्ठ भाव में षष्ठेश, सूर्य एवं शनि हों और चंद्र सप्तम भाव में हो तथा बुध उन्हें न देखता हो तो संतानहीन योग होता है। - मंगल और शनि चतुर्थ या षष्ठ भाव में हो तो संतान नहीं होती है। - पंचम भाव में षष्ठ, अष्टम व द्वादश भावों के स्वामी हों तो संतान उत्पन्न नहीं होती है। - पंचमेश षष्ठ, अष्टम या द्वादश भावों में स्थित हो तो संतान पैदा नहीं होती है। - पंचमेश नीचराशिगत या अस्त हो तो स्त्री संतानहीन होती है। - पंचम भाव में कर्क, धनु, मकर या मीन राशि हो और चतुर्थ या पंचम भाव में गुरु स्थित हो तो संतान का अभाव रहता है। - लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश व गुरु निर्बल हों तो संतान नहीं होती है। पुरूष जातक संतानहीनता के निम्न योग पुरुष जातक की जन्मपत्रिका में पाए जाते हैं। - लग्न में मंगल, अष्टम भाव में शनि और पंचम भाव में स्थित सूर्य वंश विच्छेद कराते हैं। - तृतीयेश व चंद्र केंद्र व त्रिकोण में हो तो संतान नहीं होती। - पंचम भाव में मंगल, षष्ठ भाव में पंचमेश और सिंह राशिस्थ शनि हो तो संतान नहीं होती है। - लग्न व बुध दोनों लग्न, चतुर्थ, सप्तम, दशम भाव में हों तो संतान नहीं होती। - पंचम भाव में चंद्र तथा अष्टम, द्वादश भाव में समस्त पापग्रह हो तो भी संतान नहीं होती है। - पंचम भाव में गुरु, चतुर्थ भाव में पाप ग्रह और सप्तम भाव में शुक्र$बुध की युति होने पर संतान नहीं होती। - चतुर्थ भाव में कोई तीन पापग्रह, सप्तम भाव में शुक्र तथा दशम भाव में चंद्र स्थित हों तो संतानहीन योग निर्मित होता है। - पंचम, षष्ठ, अष्टम एवं द्वादश भाव में पापग्रह का स्थित होना वंश-विच्छेद की निशानी होता है। - पंचमेश या सप्तमेश नीच राशिगत या अस्त हों तो भी संतान नहीं होती है। संतानहीनता निवारण 1. रविवार को ‘‘सुगंधा की जड़’’ एकवर्णा गाय के दूध के साथ पीसकर ऋतुकाल के समय (मासिक धर्म के समय) पीने से बन्ध्या दोष का निवारण होता है। 2. मासिक धर्म की शुद्धि के पश्चात ‘‘काली अपराजिता की जड़’ को जिस गाय ने प्रथम बछड़ा उत्पन्न किया हो उसके दूध के साथ पीसकर तीन दिन तक पीने के पश्चात पति सहवास करने पर बन्ध्या स्त्री भी अवश्य गर्भवती होती है। 3. नींबू के पुराने पेड़ की जड़ को दूध में पीसकर घी मिलाकर पीने से ‘‘पतिसहवास’’ द्वारा स्त्री को दीर्घायु पुत्र प्राप्त होता है। 4. जिस रविवार को कृतिका नक्षत्र हो उस दिन ‘‘पीत पुष्पा’’ की जड़ लाकर उसे पानी के साथ पीसकर सात दिन तक लगातार सेवन करने से उस स्त्री की संतान की मृत्यु नहीं होती है जिसे मृतवत्सा कहते हैं। 5. ‘‘पूर्वा फाल्गुनी’’ नक्षत्र में बरगद के पेड़ की जड़ लाकर लाल धागे में स्त्री बाएं भुजा में धारण करे तो संतान होती है। 6. नागरमोथा, कांगुनी, बेर, लाख का रस और शहद सम (बराबर) मात्रा में लेकर पुराने चावल के धोवन (चावल का धोया हुआ पानी) के साथ 10 ग्राम की मात्रा सात दिन तक सेवन करने से ‘‘बन्ध्या स्त्री’’ या ‘‘काकबन्ध्या स्त्री’’ संतान उत्पन्न करने में सक्षम होती है। 7. कदंब का पत्ता, श्वेत श्रीखंड चंदन, कटेरी की जड़ सब समान मात्रा में लेकर बकरी के दूध में पीसकर तीन रात्रि या पांच रात्रि ऋतुकाल के समय पीने से स्त्री अवश्य गर्भ धारण करती है तथा सुंदर और स्वस्थ संतान उत्पन्न करने में सक्षम होती है। 8. प्रथम बार बछड़े को जन्म देने वाली गाय के दूध के साथ नागकेशर का चूर्ण मासिक धर्म की शुद्धि के पश्चात सात दिन पीने के पश्चात पति के साथ समागम करने से संतान अवश्य उत्पन्न होती है। गर्भपात हेतु निवारण 1. सतावर, काले तिल, पीपल की छाल इन तीनों की बराबर मात्रा गाय के दूध के साथ पीसकर सात दिन पीने से प्रथम व द्वितीय मास की गर्भ पीड़ा से मुक्ति होती है। 2. चंदन, कमल की जड़, केशर, असगंध, काकोली, तगर व कूट को बराबर मात्रा में लेकर ठंडे पानी के साथ पीसकर पीने से तीसरे मास की गर्भ पीड़ा समाप्त हो जाती है। 3. तगर, नीलकमल, गदहपूर्णा, काकोली, गौखक यह सभी समान मात्रा में दूध के साथ पीसकर पीने से पांचवें मास की गर्भ पीड़ा शांत होती है। 4. कैंथ का गूदा ठंडे पानी में पीसकर दूध के साथ पीने से छठे मास की गर्भपीड़ा शान्त होती है। 5. नीलकमल की पंखुड़ी, सिंघोड़ा, कसेरू व पुष्कर समान मात्रा में पानी में पीसकर पीने से सातवें मास की गर्भ पीड़ा समाप्त होती है। 7. नीलकमल की पंखुड़ी, मुनक्का, छुआरा, पुरानी खांड बराबर मात्रा में दूध के साथ पीसकर पीने से दसवें मास की गर्भ की व्यथा दूर होती है। 8. आंवला, मुलहठी, सम मात्रा में दूध के साथ पीसकर पीने से गर्भ स्तंभन (गर्भ का रूकना) पूर्ण रूप से होता है, गर्भ गिरता नहीं है। 9. सिरस के बीज, देवदारू, मुलहठी काली गाय के दूध के साथ पीसकर पांच दिन तक पीने से गर्भ रक्षा होती है। 10. बांस के अंकुर से शिवलिंग का निर्माण कर पति-पत्नी दोनों मिलकर पूजन करें। 11. पति-पत्नी एक माह तक भोजन के पश्चात पीली वस्तु का भक्षण करें, दूसरे माह में दो-चार बार पीले वस्त्र धारण करें तथा तीसरे माह में श्रद्धानुसार पीली वस्तु व धन का दान करें। 12. उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र में नीम की जड़ लाकर पति-पत्नी अपने पास रखें।

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Saturday 23 April 2016

Enigmatic and Mysterious 11th house

Each and every person attached to astrological pursuits holds very high opinion whenever the 11th house of the horoscope comes into picture. Under these circumstances calling this house as enigmatic and mysterious sounds ridiculous. But when carefully analyzed under the various norms one will find that this house is worst among the 12 houses of horoscope. The lord of 11th house or any planet posited therein or the planet / planets associated with the lord of 11th house during its dasa or bhukti is capable of improving native’s acquisitions to a better extent but at the same time during this dasa or bhukti the same planet / planets give difficulties, litigations and serious diseases etc. The tendency of giving such effects applies to the main dasa of any of three planets and the bhukti of the others.
(a) The 11th house is 2nd from the 10th house hence it is a central point for one’s gains through the Karmas of present birth.
(b) The 11th house being 6th from the 6th house is an epicenter of diseases, litigations, punishments and debts etc. hence malefic effects predominate over the beneficence.
The lords of angles (Kendras) and trines (Konas) which are six in all and the lords of these six houses are generally considered auspicious apart from those who suffer from Kendradhipati dosha which are capable of doing some good apart from the harm they are destined to do. After these six houses we are left with the remaining six houses and their lords and these are 2nd, 3rd, 6th, 8th, 11th, and 12th. Even by implication these are adverse houses and so are their lords. Regarding this Sage Parashara is very much clear about this. In the chapter 34 and Sloka 4th of Brihat Parashara Hora Shastra the sage states as under:
It is very important that the above said views should not be confused with the word “Upachayas”. In this regard the benefic results pertaining to the “Upachaya” houses would apply to the planets occupying these houses and not to the lords of these houses and in most of the cases when benefics occupy these “Upachayas” give rise to so called “Vasumati yoga”. As regard the “Upachaya” lords the Sage has exempted the 10th house since it is the best angle (Kendra) in any horoscope. More so the concept of occupants of three out of four “Upachayas” viz. 3rd, 6th and 11th being auspicious stands demolished if one applies the rule as suggested by the sage.
Thus out of six houses viz. 2nd, 3rd, 6th, 8th, 11th and 12th, Parashara, removes three house from the list labeled as good ones and calls three houses as the evil houses. The remaining three houses are 2nd, 8th and 12th, according to Parashara and are not as bad as the 3rd, 6th and 11th. Parashara further comments that the houses 2nd, 8th and 12th tend to modify their attributes according to relationship the lords of these houses establish with another planet who is lord of a good or bad house. Vide Sloka 5th of Chapter 34 the sage quotes as under:
Thus one has to infer that the lords of 12th, 2nd and 8th (one should strictly adhere to the order of these lords) will prove auspicious if they are associated with the angular or the trinal lords. But they become deadly inauspicious by their association with the lords of 3rd, 6th, and 11th. While grading these two groups the sage states the intensity of malfeasance will increase in the ascending order ie. 6th lord is more harmful as compared to 3rd lord while 11th lord is most harmful / inauspicious of the three. Thus suitable inference may be made pertaining to the lords of 12th, 2nd, and 8th houses in this very order and their relationships with favourable or unfavourable lords give good or bad results as detailed below:
2nd lord when associated with an favourable planet is more auspicious as compared to the 12th lord associated with the same favourable planet.
2nd lord when associated with an unfavourable planet will be more harmful as compared to the 12th lord when associated with the same unfavourable planet.
8th lord in association with a favourable planet will be more favourable as compared to the 2nd lord if associated with the same favourable planet.
8th lord will be more harmful when associated with an unfavourable planet as compared to the lord of 2nd house in case it is associated with same unfavourable planet.
Sage Parashara gives some relief to the lord of 8th house but with certain conditions. That the said planet should have simultaneous lordship over a trine i.e. Saturn in case of signs Gemini rising in the lagna, Jupiter in case of Leo lagna and Mercury in case of Capricorn lagna.


Para Astrology



From ancient times, many scientific methods are popular for making predictions Palmistry, numerology, astrology, etc. are the most famous streams of proguostics.
Para astrology is the latest scientific method of making predictions to be made by a para astrologer.
Para-astrological predictions are based upon para-waves. Parawaves means - " to feel an energy at a divine or higher level from this worldly or material life." The waves emitted from a person's body and his spiritual level, mark the aura (energy circle) around a person's face and the whole body. The aura around the head -region forms the base for the predictions by a para-astrologer. There is a network of chakras or energy sources in the human body. These chakras provide energy to the various parts of body and control their functioning. According to their size, the chakras may be of major, minor and mini type. The major chakras not only control and energize the vital organs of the body but also control and affect a persons Psychological and spiritual conditions. There is a flow of positive or negative energy in all the chakras of the human body.
Over activated and Under activated chakras may cause several ailments. Positive energy increases the aura around a person's face, whereas, negative energy decreases this aura and due to its collection in a special chakra, it causes ailments of various parts of the body.
Cure of the ailments and disease can be successfully done by parawaves. A para astrologer by his touch therapy and para waves can minimise the negative flow of energy and can replace it by positive energy thus freeing him from various ailments.
Astrological reformation is successfully done by parawaves. The reformation has so many kinds. Gradually, the positive energy takes place. A man's thinking, karma, Adhyatma and Meditation are very effective aspects for having positive or negative energy, whereas wrong thinking of a man for other person creates the mental pollution and indicates negativity.
By the adhyatma and worship we get cosmic energy by which we can recharge ourselves. This cosmic energy is parawaves by which we can spiritually reform ourselves.
A person, who meditates with full devotion, not only frees or cleans his chakras from any sort of negativity, but also can help other people to be free from their growing deformities.
Full meditation's first requirement is a soul with all chakras balanced. A parayogi shows this path very well and with all his guidance and will, a negative personality can be easily changed into a positive personality. After examining a person very briefly the parayogi can pinpoint the chakras which needs reformation. He, with his para-waves drives the person back to right path setting his chakras right and fitting them in proper dimensions and places and cleaning them of any impurities that may be present. In all these things concentration and blessings of spiritual leader is very important.

Rashi and the type of decoration in house

Generally the credit of decoration of any house goes to the woman of the house. Interior of any house tells about the mindset, qualities and choice of a woman. Some women are fond of using bright colours in the interior of the house whereas the others prefer to use soft colors. It is easy to make out the likes and dislikes of a woman by roaming around in her house. Some women welcome the guests with scents, flowers and lamps and others use good quality table cloth & crockery.
Aries: The women of Aries ascendant/Rashi do not like to think much rather they believe in taking any decision/action in a hurry and because of that do not like to spend their whole day in house cleaning expeditions. You prefer to decorate house with such lightweight items which demand zero maintenance. Whether it is kitchenware or some bedroom item you fix a specific place for a specific object in an organized way so that much time doesn't get wasted in finding it. You keep the house fully fragrant and bright with various incense sticks, scents &candles on auspicious occasions of festivals etc. Articles of decoration are also not difficult to be searched in house as all these have also been assigned fixed places.
Taurus: Taurean women love their unique collection of articles. You always like to decorate house with beautiful, expensive and quality products. Each item including crockery, show pieces or any other article in house is a long term investment and a status symbol. Being Venusian you have natural hobby of interior designing and decoration. Your high class choice gets exhibited with the use of best curtains, sofa covers and carpets bought in proportion to your budget.
Gemini: The main hallmark of your personality is socializing because of which you love to invite people on every other day. It is your fertile imagination which tempts you to make quick changes. At home you keep making bigger changes in furniture arrangement and decoration for maintaining a new look always. You like colorful, modern and contemporary design prints & keep the house neat and clean and appreciate your settings and collected articles.
Cancer: It is your emotional and family oriented nature because of which you prefer to decorate house with such articles which give an ambience of affinity. You decorate house in a personalized way so that it looks diverse from the outer world. For instance fixing family photographs and paintings on walls and enhancing the beauty of the house with candles, handcrafted material or items gifted or created by family member or friend. You love your old items and do not throw them away early and in interiors too do not like to make big changes.
Leo: You like to fix gorgeous and excellent class objects at home. Your sofa covers and curtains give royal look. You are very fond of velvet. Golden and white color themes attract you more. You are fond of collecting items but because of your royal nature do not use all items. You are highly hospitable to guests and for that reason uphold good quality crockery for the purpose of serving variety of dishes. You do not keep things in a very organized way.
Virgo: You are also a lover of interior designing and architecture and pay due attention to every minute detail of beautification. Generally you like colorful clothes and designs. You are competent enough to manage even a very small house in an excellent manner. You place articles wisely by making various types of almirahs, cupboards, dressers and drawers at appropriate places. Generally you like spacious and empty houses and do not fill the whole place with decoration items. At times you get enthusiastic about decoration of your house.
Libra: The Venusian quality of yours attracts you to purchase those articles which are irresistibly pretty and it becomes very difficult for you to resist yourself from buying. You will like the luxurious and comfortable sofa bought from some expensive and quality item shop. You like to decorate your whole house in a designer theme. You are fond of various types of chandeliers and love to decorate table with exotic flower arrangement and special lights on the arrival of a special guest. Being spendthrift you spend lot of money on decoration and interiors and sparkling bright things attract you a lot.
Scorpio: You have got scientific temper and research oriented mind and probably because of that you like modern and abstract prints. You like straight line furniture only and abstain from the over use of various designs and themes rather prefer plain and solid warm color curtains and upholstery. The other quality is observing the way of working of others especially in terms of interior decoration minutely thereby giving the due appreciation for the same. You bring some changes in design/beautification idea before its application.
Sagittarius: Sagittarian women appreciate interior with golden color having royal touch. Therefore, you like to decorate house with branded curtains, sofa and carpet & show pieces. You are very fond of reading and before making any change in house you borrow the idea from magazine or internet. Ultra-modern glass work and wall interiors do not attract you much rather open, spacious and relaxed ambience is your first love. The old styled furniture with carvings having royal touch suits your choice.
Capricorn: The influence of Saturn is clearly visible because of which instead of beauty you believe in the utility of anything. The necessary items are clearly visible at home which indicates that you prefer to work with a practical approach. Only the traditional combinations of black, grey and brown can attract you. You like clay utensils, sculpture, stone and wood work. Because of very busy daily schedule you do not get sufficient time to keep the house organized. You are not inclined towards the latest trends in curtains and sofa cover as you do not pay much attention to such things.
Aquarius: For you empty and clean home only is the primary beauty. You are simple and clear hearted person and probably don't like to keep several articles at home. You create well defined areas by dividing the house with separators and curtains and keep everything in an organized way and instead of articles of decoration prefer to purchase necessary items. More than beauty you believe in durability. Although you don't mind latest colors but even then use the fabrics and furniture of regular colors and designs only.
Pisces: You love to use the latest fashion trends instantly. In beauty products, curtains, sofa covers and dressing tables etc you have everything ready and well decorated with various options of best brands. Your dressing table is always huge in which all beauty products are kept in a well-planned order and this gives correct idea about the excellent aesthetic sense you have. It is your fertile imagination which gives you new ideas in design and style while making furniture arrangement and decoration.