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Tuesday 23 June 2015

उन्नति में सहायक प्रमुख योग-

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उन्नति में सहायक प्रमुख योग-
एजुकेषन तथा कैरियर में सफलता एवं उन्नति हेतु जातक में अनेक गुण होने चाहिए, जोकि एक ही व्यक्ति में संभव नहीं है। किसी व्यक्ति के पास वाकशक्ति होती है तो किसी के पास कार्यनिष्ठा तो कोई कार्य में दक्ष होने से सफल होता है।
किसी व्यक्ति में कार्यक्षमता का स्तर कितना है यह शनि की स्थिति से देखना चाहिए। यदि शनि उत्तम या अनुकूल है तो व्यक्ति में कार्यक्षमता अच्छी होगी, जिससे उसके सफलता प्राप्ति के अवसर ज्यादा होंगे।
किसी व्यक्ति में यदि अच्छी समझ होगी तो उसे समझने में दिक्कतों का सामना कम करना पड़ेगा। किसी व्यक्ति की कुंडली में यदि गुरू उत्तम स्थिति या अनुकूल हो तो उसकी समझने की क्षमता अच्छी होगी। साथ ही स्मरणशक्ति प्रबल बनाने में भी गुरू का प्रभाव होता है, जिससे सही समय तथा सही जगह पर उसे प्रयोग करने से अच्छी सफलता की प्राप्ति हो सकती है।
किसी व्यक्ति की कुंडली में सूर्य अनुकूल हो तो अनुशासन तथा जिम्मेदार होेने से भी उन्नति में सहायक होता है। यांत्रिक ज्ञान तथा वाकशक्ति उत्तम होना भी सफलता में सहयोगी हो सकता है, इसके लिए जन्म कुंडली का तीसरा भाव तथा बुध एवं मंगल की स्थिति उत्तम होनी चाहिए।
इस प्रकार व्यक्तित्व के साथ प्रयास का स्तर तथा बौद्धिक क्षमता किसी जातक के उन्नति तथा सफलता में सहायक होता है। यदि इन में किसी प्रकार की परेषानी हो रही हो तो उस क्षेत्र विषेष से संबंधित उपाय तथा आवष्यक सावधानी इच्छुत सफलता प्राप्ति का रास्ता आसान बनाता है।

इंफ्लुएंजा वाइरस ज्योतिष्य विश्लेषण


विष्वव्यापी आतंक का नया नाम है ... इंफ्लुएंजा वाइरस जो एच1एन1 की वजह से फैलती है। प्रांरभ में इस रोग का वायरस सुअरों से इंसानों में फैला और फिर इंसानों के इंसानों से संपर्क में आने के कारण पूरी दुनिया को चपेट में लेता गया। अमरीका में 1976 का स्वाइन फ्लू- 5 फरवरी, 1976 को अमरीका के फोर्ट डिक्स में अमरीकी सेना के सैनिकों को थकान की समस्या होने लगी बाद में पता लगा कि यह बीमारी स्वाइन फ्लू ही है और एच1एन1 वायरस के नए स्ट्रेन की वजह से फैल रही है। सुअरों को एविएन और हूमेन एन्फ्लूएंजा स्ट्रेन दोनों का संक्रमण हो सकता है। किसी भी एन्फ्लूएंजा के वायरस का मानवों में संक्रमण श्वास प्रणाली के माध्यम से होता है। इस वायरस से संक्रमित व्यक्ति का खांसना और छींकना या ऐसे उपकरणों का स्पर्श करना जो दूसरों के संपर्क में भी आता है, उन्हें भी संक्रमित कर सकता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक सुअर (स्वाइन), पक्षी और इंसान तीनों के जीन मिलने से बना एच1एन1 वायरस सामान्य स्वाइन फ्लू वायरस से अलग है। बर्ड फ्लू और मानवीय फ्लू के विषाणु से सुअरों में संक्रमण शुरू हुआ। फिर सुअर के राइबोन्यूक्लिक एसिड (आरएनए) से मिलकर नए वायरस स्वाइन इन्फ्लुएंजा ए (एच1एन1) का जन्म हुआ। तब इन्फ्लुएंजा ए (एच1 एन1) का सुअर से मनुष्य में संक्रमण संभव हो सका। वैज्ञानिकों का कहना है कि यह वायरस किसी भी मौसम में फैल सकता है और हर आयुवर्ग के लोगों को आसानी से अपनी चपेट में ले सकता है। स्वाइन फ्लू के दौरान बुखार, तेज ठंड लगना, गला खराब हो जाना, मांसपेशियों में दर्द होना, तेज सिरदर्द होना, खांसी आना, कमजोरी महसूस करना आदि लक्षण तेजी से उभरने लगते हैं। एन्फ्लूएंजा वायरस लगातार अपना स्वरूप बदलने के लिए जाना जाता है। यही वजह है कि एन्फ्लूएंजा के वैक्सीन का भी इस वायरस पर असर नहीं होता। यही वजह है कि एन्फ्लूएंजा के वैक्सीन का स्वाईन फलू पर भी इस वायरस पर असर नहीं होता। यह रोग होली के बाद समाप्त हो जाएगी क्योंकि होली दहन के बाद संक्रमण का स्तर कम हो जाएगा क्योंकि तापमान का अंतर मिट जाएगा तथा वायरस का प्रकोप भी वातावरण में समाप्त होने लगेगा। चिकित्सकीय हल निकालने का प्रयास तो लगातार जारी है किंतु हमें अपनी जिम्मेदारी को देखते हुए इसका ज्योतिषीय कारण और निदान भी देखना चाहिए। देखा जाए तो हमें कालपुरूष की वर्तमान कुंडली देखनी चाहिए। कालपुरूष की कुंडली में आज चतुर्थेष चंद्रमा रोगभाव में राहु से पापाक्रांत है और मारक तथा मारकेष शुक्र व्ययभाव में राहु से पापदृष्ट होकर अष्टमेष मंगल से आक्रांत है। अतः संक्रमण से फैलने वाले रोग का समय और दसमेष और एकादषेष शनि अष्टमस्थ होने से कान, नाक और गले से संबंधित एलर्जी के कारण रोग तथा जो रोग लिवर तथा फेफडे को प्रभावित करें साथ ही कालपुरूष की मारकेष की दषा के कारण यह रोग आसानी से समाप्त होती नहीं दिखती। अतः इस समय यज्ञ, हवन तथा मंत्रजाप करना चाहिए।

Monday 22 June 2015

सफलता और उन्नति पाएँ बुधाष्टमी व्रत से

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व्यक्ति के जीवन में कई बार आकस्मिक हानि प्राप्त होती है साथ ही कई बार योग्यता तथा सामथ्र्य होने के बावजूद जीवन में वह सफलता प्राप्त नहीं होती, जिसकी योग्यता होती है। इस प्रकार का कारण ज्योतिषषास्त्र द्वारा किया जा सकता है। यदि किसी व्यक्ति की कुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, चतुर्थ, अष्टम, नवम भाव में से किसी भाव में राहु के होने पर जातक के जीवन में आकस्मिक हानि का योग बनता है। अगर राहु के साथ सूर्य, शनि के होने पर यह प्रभाव जातक के स्वयं के जीवन के अलावा यह दुष्प्रभाव उसके परिवार पर भी दिखाई देता है। राहु के साथ सूर्य या शनि की युति बने तो व्यक्ति अषांत, गुप्त चिंता, स्वास्थ्य एवं पारिवारिक परेषानियों के कारण चिंतित रहता है। दूसरे भाव में इस प्रकार की स्थिति निर्मित होेने पर परिवार में वैमनस्य एवं आर्थिक उलझनें बनने का कोई ना कोई कारण बनता रहता है। तीसरे स्थान पर होने पर व्यक्ति हीन मनोबल का होने के कारण असफलता प्राप्त करता है। चतुर्थ स्थान में होने पर घरेलू सुख, मकान, वाहन तथा माता से संबंधित कष्ट पाता है। पंचम स्थान में होने पर उच्च षिक्षा में कमी तथा बाधा दिखाई देती है तथा संतान से संबंधित बाधा तथा दुख का कारण बनता है। अष्टम में होने पर आकस्मिक हानि, विवाद तथा न्यायालयीन विवाद, उन्नति तथा धनलाभ में बाधा देता है। बार-बार कार्य में बाधा आना या नौकरी छूटना, सामाजिक अपयष अष्टम राहु के कारण दिखाई देता है। नवम स्थान में होने पर भाग्योन्नति तथा हर प्रकार के सुखों में कमी का कारण बनता है। सामान्यतः चंद्रमा के साथ राहु का दोष होने पर माता, बहन या पत्नी से संबंधित पक्ष में कष्ट दिखाई देता है वहीं शनि के साथ राहु दोष होेने पर पारिवारिक विषेषकर पैतृक दोष का कारण बनता है। सूर्य के आक्रांत होेने पर आत्मा प्रभावित हेाता है, जिसमें व्यक्ति का व्यक्तित्व तथा सोच दूषित होती है। बुध के साथ राहु होने पर जडत्व दोष बनता है, जिसमें विकास तथा बुद्धि प्रभावित होती है। मंगल के साथ होने पर संतान से संबंधित पक्ष से कष्ट तथा गुरू के साथ होने पर षिक्षा तथा सामाजिक प्रतिष्ठा संबंधित परेषानी दिखाई देती है। शुक्र के आक्रांत होेने पर सुख प्राप्ति के रास्ते में बाधा आती है। इस प्रकार के दोष जातक की कुंडली में बनने पर जातक के जीवन में स्वास्थ्य की हानि, सुख में कमी,आर्थिक संकट, आय में बाधा, संतान से कष्ट अथवा वंषवृद्धि में बाधा, विवाह में विलंब तथा वैवाहिक जीवन में परेषानी, गुप्तरोग, उन्नति में कमी तथा अनावष्यक तनाव दिखाई देता है। यदि किसी व्यक्ति के जीवन में इस प्रकार का दोष दिखाई दे तो अपनी कुंडली की विवेचना कराकर उसे नारायणबलि, नागबलि, पितृतर्पण, देवतर्पण, दानादि कर्म करना चाहिए। इसके साथ ही सूक्ष्म जीवों की सेवा, जिसमें गाय को चारा अमावस्या के दिन देना, कुत्तों का भोजन प्रत्येक शनिवार को देना या चिट्टी या चिडिया, कौओं को दाना डालना जीवन में सुख तथा समृद्धि का रास्ता प्रष्स्त करता है।
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पितृदोष का एक प्रमुख कारण भू्रण हत्या -


वैदिक शास्त्रों तथा पुराणों में सौभाग्यवती पतिव्रता नारी तथा कुमारी कन्याओं को देवी का प्रतीक माना गया है, वहीं मनुस्मृति में तो यहाँ तक कह दिया है कि- ‘‘एक आचार्य दस अध्यापकों से श्रेष्ठ हैं, एक पिता सौ आचार्यों से श्रेष्ठ है और एक माता एक हजार पिताओं से श्रेष्ठ है।’’ इतनी सारी विशेषताओं से समन्वित एक नारी अपनी स्वाभाविक ममता का गला घोंटकर उसके गर्भ में पल रहे जीव की हत्या या भू्रण हत्या जैसे कर्म की साक्षी बनती है तब उसके ममता तथा नारित्व पर जो बीतती है वह उस माॅ को ही पता होता है। उस हत्या को कैसे सामान्य हत्या से परे माना जा सकता है? गर्भ का जीव भी एक स्वतंत्र मानव-प्राणी है। गर्भधान के प्रथम क्षण से ही उसकी विकास यात्रा प्रारंभ हो जाती है। यह उत्तरोत्तर विकास-क्रिया जीव के बिना असंभव है। जब एक कण में आत्मा का वास होता है तब एक भू्रण या मानव का किसी भी रूप में समय से पूर्व मृत्यु को प्राप्त करने पर उसकी अतृप्त वासनायें बाकी रह ही जाती हैं। चूॅकि उस भू्रण का गर्भ में आते ही आत्म का वास हो जाता है अतः उसको मारने का प्रयास किया जाय या मार दिया जाय तो पितृ दोष का असर शुरू हो जाता है, इस तरह जीव हत्या का पाप पूरे वंष को भोगना होता है।
धर्म सिंधु ग्रंथ के पेज नं.-222 एवं 223 उल्लेख है कि ऐसे जातक को जिन्हें इस प्रकार के पितृदोष को दूर करने वास्तु नारायणबलि और नागबलि करना उचित है। यह नारायणबलि और नागबलि शुक्लपक्ष की एकादषी में, पंचमी में अथवा श्रवण नक्षत्र में किसी नदी के किनारे देवता के मंदिर में करना चाहिए। ये पूजा अम्लेष्वर घाम में खारून नदी के तट पर भगवान शंकरजी के मंदिर में शास्त्रोक्त विधि विधान से होती है।
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अंक शास्त्र में विवाह

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अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक, मूलांक और भाग्यांक इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है.
अंक ज्योतिष भविष्य जानने की एक विधा है. अंक ज्योतिष से ज्योतिष की अन्य विधाओं की तरह भविष्य और सभी प्रकार के ज्योंतिषीय प्रश्नों का उत्तर ज्ञात किया जा सकता है. विवाह जैसे महत्वपूर्ण विषय में भी अंक ज्योतिष और उसके उपाय काफी मददगार साबित होते हैं.
अंक ज्योंतिष अपने नाम के अनुसार अंक पर आधारित है. अंक शास्त्र के अनुसार सृष्टि के सभी गोचर और अगोचर तत्वों अपना एक निश्चत अंक होता है. अंकों के बीच जब ताल मेल नहीं होता है तब वे अशुभ या विपरीत परिणाम देते हैं. अंकशास्त्र में मुख्य रूप से नामांक, मूलांक और भाग्यांक इन तीन विशेष अंकों को आधार मानकर फलादेश किया जाता है. विवाह के संदर्भ में भी इन्हीं तीन प्रकार के अंकों के बीच सम्बन्ध को देखा जाता है. अगर वर और वधू के अंक आपस में मेल खाते हैं तो विवाह हो सकता है. अगर अंक मेल नहीं खाते हैं तो इसका उपाय करना होता है ताकि अंकों के मध्य मधुर सम्बन्ध स्थापित हो सके.
वैदिक ज्योतिष एवं उसके समानांतर चलने वाली ज्योतिष विधाओं में वर वधु के वैवाहिक जीवन का आंकलन करने के लिए जिस प्रकार से कुण्डली से गुण मिलाया जाता ठीक उसी प्रकार अंकशास्त्र में अंकों को मिलाकर वर वधू के वैवाहिक जीवन का आंकलन किया जाता है.
अंकशास्त्र से वर वधू का गुण मिलान अंकशास्त्र में वर एवं वधू के वैवाहिक गुण मिलान के लिए, अंकशास्त्र के प्रमुख तीन अंकों में से नामांक ज्ञात किया जाता है. नामांक ज्ञात करने के लिए दोनों के नामों को अंग्रेजी अलग अलग लिखा जाता है. नाम लिखने के बाद सभी अक्षरों के अंकों को जोड़ा जाता है जिससे नामांक ज्ञात होता है. ध्यान रखने योग्य तथ्य यह है कि अगर मूलक 9 से अधिक हो तो योग से प्राप्त संख्या को दो भागों में बांटकर पुन योग किया जाता है. इस प्रकार जो अंक आता है वह नामांक होता है. उदाहरण से योग 32 आने पर 3+2=5. वर का अंक 5 हो और कन्या का अंक 8तो दोनों के बीच सहयोगात्मक सम्बन्ध रहेगा, अंकशास्त्र का यह नियम है.
वर वधू के नामांक का फल अंकशास्त्र के नियम के अनुसार अगर वर का नामांक 1 है और वधू का नामांक भी एक है तो दोनों में समान भावना एवं प्रतिस्पर्धा रहेगी जिससे पारिवारिक जीवन में कलह की स्थिति होगी. कन्या का नामांक 2 होने पर किसी कारण से दोनों के बीच तनाव की स्थिति बनी रहती है. वर 1 नामांक का हो और कन्या तीन नामांक की तो उत्तम रहता है दोनों के बीच प्रेम और परस्पर सहयोगात्मक सम्बन्ध रहता है. कन्या 4 नामंक की होने पर पति पत्नी के बीच अकारण विवाद होता रहता है और जिससे गृहस्थी में अशांति रहती है. पंचम नामंक की कन्या के साथ गृहस्थ जीवन सुखमय रहता है. सप्तम और नवम नामाक की कन्या भी 1 नामांक के वर के साथ सुखमय वैवाहिक जीवन का आनन्द लेती है जबकि षष्टम और अष्टम नामांक की कन्या और 1 नमांक का वर होने पर वैवाहिक जीवन के सुख में कमी आती है.
वर का नामांक 2 हो और कन्या 1 व 7 नामांक की हो तब वैवाहिक जीवन के सुख में बाधा आती है. 2 नामांक का वर इन दो नामांक की कन्या के अलावा अन्य नामांक वाली कन्या के साथ विवाह करता है तो वैवाहिक जीवन आनन्दमय और सुखमय रहता है. तीन नामांक की कन्या हो और वर 2 नामांक का तो जीवन सुखी होता है परंतु सुख दुख धूप छांव की तरह होता है. वर 3 नामांक का हो और कन्या तीन, चार अथवा पांच नामांक की हो तब अंकशास्त्र के अनुसार वैवाहिक जीवन उत्तम नहीं रहता है. नामांक तीन का वर और 7 की कन्या होने पर वैवाहिक जीवन में सुख दुख लगा रहता है. अन्य नामांक की कन्या का विवाह 3 नामांक के पुरूष से होता है तो पति पत्नी सुखी और आनन्दित रहते हैं.
4 अंक का पुरूष हो और कन्या 2, 4, 5 अंक की हो तब गृहस्थ जीवन उत्तम रहता है. चतुर्थ वर और षष्टम या अष्टम कन्या होने पर वैवाहिक जीवन में अधिक परेशानी नहीं आती है. 4 अंक के वर की शादी इन अंकों के अलावा अन्य अंक की कन्या से होने पर गृहस्थ जीवन में परेशानी आती है. 5 नामांक के वर के लिए 1, 2, 5, 6, 8नामांक की कन्या उत्तम रहती है. चतुर्थ और सप्तम नामांक की कन्या से साथ गृहस्थ जीवन मिला जुला रहता है जबकि अन्य नामांक की कन्या होने पर गृहस्थ सुख में कमी आती है. षष्टम नामांक के वर के लिए 1 एवं 6अंक की कन्या से विवाह उत्तम होता है. 3, 5, 7, 8एवं 9 नामांक की कन्या के साथ गृहस्थ जीवन सामान्य रहता है और 2 एवं चार नामांक की कन्या के साथ उत्तम वैवाहिक जीवन नहीं रह पाता.
वर का नामांक 7 होने पर कन्या अगर 1, 3, 6, नामांक की होती है तो पति पत्नी के बीच प्रेम और सहयोगात्मक सम्बन्ध होता है. कन्या अगर 5, 8अथवा 9 नामंक की होती है तब वैवाहिक जीवन में थोड़ी बहुत परेशानियां आती है परंतु सब सामान्य रहता है. अन्य नामांक की कन्या होने पर पति पत्नी के बीच प्रेम और सहयोगात्मक सम्बन्ध नहीं रह पाता है. आठ नामांक का वर 5, 6अथवा 7 नामांक की कन्या के साथ विवाह करता है तो दोनों सुखी होते हैं. 2 अथवा 3 नामांक की कन्या से विवाह करता है तो वैवाहिक जीवन सामान्य बना रहता है जबकि अन्य नामांक की कन्या से विवाह करता है तो परेशानी आती है. 9 नामांक के वर के लिए 1, 2, 3, 6एवं 9 नामांक की कन्या उत्तम होती है जबकि 5 एवं 7 नामांक की कन्या सामान्य होती है. 9 नामांक के वर के लिए 4 और 8नामांक की कन्या से विवाह करना अंकशास्त्र की दृष्टि से शुभ नही होता है.
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रिश्तों में मधुरता

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ग्रह, नक्षत्र हमारे आपसी रिष्तों पर अपना पूरा प्रभाव डालते हैं। इस संबंध में ज्योतिषषास्त्र में पर्याप्त जानकारी प्राप्त होती है। कुंडली में प्रत्येक ग्रह से कोई ना कोई रिष्ता जुड़ा होता है तथा प्रत्येक भाव से रिष्तेदारो की स्थिति की जानकारी प्राप्त की जा सकती है। सूर्य से जहाॅ पिता तथा पितातुल्य संबंधों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है वहीं पर चंद्रमा से माॅ, मौसी तथा माता संबंधी रिष्तों के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। मंगल से भाई तथा मित्रों के संबंध में जानकारी प्राप्त की जा सकती है तो बुध से बहन, बुआ, बेटी, साली और इससे संबंधित रिष्तों के बारे में जाना जा सकता है वहीं पर गुरू से पिता, दादा, गुरू तथा देव का पता चलता है शुक्र से पत्नी तथा स्त्री का पता चलता है शनि से चाचा, माता, सेवक तथा अधिनस्थों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है तो राहु से साला और ससुर तथा केतु से संतान और नाना जैसे रिष्तों के बारे में जानकारी प्राप्त की जा सकती है। इसके साथ ही भाव भी रिष्तों के विषय में जानकारी देते हैं, जिसमें लग्न से स्वयं, दूसरे स्थान से कुटुंब, तीसरे स्थान से छोटे भाई-बहन तथा पड़ोसियों एवं सहायकों के बारे में जाना जा सकता है तो चतुर्थ भाव से माॅ, ससुर तथा नजदीकी रिष्तेदारों के बारे में जानकारी मिलती है तो पंचम से संतान, दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, समाज के संबंध में जाना जा सकता है। षष्ठम स्थान से मातृपक्ष, सेवक तो सप्तम स्थान से जीवनसाथी, पार्टनर के बारे में जानकारी प्राप्त हेाती है तो अष्टम स्थान पितृ संबंधी रिष्तों की जानकारी देता है वहीं नवम स्थान दादा तथा पारिवारिक बुजुर्गो के संबंध में सूचना देता है दषम स्थान से पिता, अधिकारी तथा सहयोगियों के बारे में जाना जा सकता है। एकादष स्थान से बड़े भाई-बहन तथा दोस्तों के बारे में जाना जा सकता है तो द्वादष स्थान से पिता पक्ष तथा, जीवनसाथी से संबंध जाना जाता है तो आध्यामिक रिष्तों के बारे में जाना जाता है अतः इनमें से किसी भी भाव या भावेष की स्थिति प्रतिकूल होने पर उस रिष्तें से हानि तथा कष्ट की संभावना बनती है तो जिस भाव या भावेष की स्थिति अनुकूल हो वह रिष्ता जीवन में सुख तथा सहायक बनता है। इस प्रकार जीवन में कौन सा रिष्ता सहयोगी होगा तथा किस रिष्ते से सुख प्राप्त होगा इसकी जानकारी कुंडली के भाव या भावेष से जाना जा सकता है। जीवन में जो रिष्ता दुखी करता हो, उस रिष्ते से संबंधित ग्रह तथा भाव को मजबूत करने का उपाय आजमाकर शुभ फल पाया जा सकता है।

South East bedroom can create tensions

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Igneous suite bedrooms for the men who use the fire-element-related high blood pressure, diabetes, stroke and more likely to cause disease and a tendency to turn into excited nature of the inter-ideological differences with the spouse are caused.
If the bedroom in the south-east rift between husband and wife can be. Can stay angry. Excessive stress or anger can ever come. If you can not make your bedroom beds elsewhere in the south-west and south lie the head.
Wasteful spending and increases in angle of igneous bedrooms unnecessarily discord between husband and wife is Halagney angle should not sleep together before marriage is bad blood between them and find the evil of each other only Everybody spent
Do not sleep in igneous Lliske angle is a lot of anger ... anger when the people are on his or water, becomes the cause of the rupture. If you like the relationship of husband and wife, father and son have become partners. Anger is piquant mixture of bitterness in relationships.


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information related to the kitchen of architectural

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Here are some information related to the kitchen of architectural,
Every kitchen should take the time to create. If stored in the kitchen at home homeowner in your job or business is facing considerable difficulties. To prevent these difficulties should create separate kitchen and store room.
Kitchen and bathroom in a straight line does not bode well be. Walanen live in such a house to live in the face of great difficulties. Health is not right. There is unrest in the lives of girls from home.
There is also a good place to worship in the kitchen. The home is a place of worship in the kitchen, living within the brain are hot. Family member may be blood-related complaints.
Kitchen in front of the main door of the house should not. Directly opposite the main entrance to the kitchen, brother of homeowner is unlucky. The kitchen with underground water tanks or wells If there are differences in the brothers. The owner of the house will have to travel to make money too. Eat meal or meeting house meeting is unlucky to be in front of the kitchen. There is hostility between the relatives and the children have difficulties in education.
The kitchen is connected to the main entrance of the house at the beginning is a lot of love between husband and wife, is Sahardpuarn home environment, but after a while seem to be differences among themselves without reason.
Experience has found that their homes as a means of food in the kitchen, gas stove, microwave oven, etc. are more than one, they are more than a means of income. All members of a family with at least one meal should consist. Doing so with mutual respect are strong and have a strong sense of living.

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Tuesday 16 June 2015

कैसे मिलेगी नर्क-यातनाओं से मुक्ति



नरक क्या है? यह कहां होता है? नरक वह स्थान है जहां पापियों की आत्मा दंड भोगने के लिए भेजी जाती है। दंड के बाद कर्मानुसार उनका दूसरी योनियों में जन्म होता है। स्वर्ग धरती के ऊपर है तो नरक धरती के नीचे। सभी नरक धरती के नीचे यानी पाताल भूमि में हैं। इसे अधोलोक भी कहते हैं। अधोलोक यानी नीचे का लोक है। ऊध्र्व लोक का अर्थ ऊपर का लोक अर्थात् स्वर्ग। मध्य लोक में हमारा ब्रह्मांड है। कुछ लोग इसे कल्पना मानते हैं तो कुछ लोग सत्य। लेकिन जो जानते हैं वे इसे सत्य ही मानते हैं, क्योंकि मति से ही गति तय होती है।

कौन जाता है नरक:
ज्ञानी से ज्ञानी, आस्तिक से आस्तिक, नास्तिक से नास्तिक और बुद्धिमान से बुद्धिमान व्यक्ति को भी नरक का सामना करना पड़ सकता है, क्योंकि ज्ञान, विचार आदि से तय नहीं होता है कि आप अच्छे हैं या बुरे। आपकी अच्छाई आपके नैतिक बल में छिपी होती है। आपकी अच्छाई यम और नियम का पालन करने में निहित है। अच्छे लोगों में ही होश का स्तर बढ़ता है और वे देवताओं की नजर में श्रेष्ठ बन जाते हैं। लाखों लोगों के सामने अच्छे होने से भी अच्छा है स्वयं के सामने अच्छा बनना।
धर्म, देवता और पितरों का अपमान करने वाले, पापी, मूर्छित और अधोगामी गति के व्यक्ति नरकों में जाते हैं। पापी आत्मा जीते जी तो नरक झेलती ही है, मरने के बाद भी उसके पाप अनुसार उसे अलग-अलग नरक में कुछ काल तक रहना पड़ता है। निरंतर क्रोध में रहना, कलह करना, सदा दूसरों को धोखा देने का सोचते रहना, शराब पीना, मांस भक्षण करना, दूसरों की स्वतंत्रता का हनन करना और पाप करने के बारे में सोचते रहने से व्यक्ति का चित्त खराब होकर नीचे के लोक में गति करने लगता है और मरने के बाद वह स्वत: ही नरक में गिर जाता है। वहां उसका सामना यम से होता है। पुराणों में ''गरुड़ पुराणÓÓ का नाम किसने नहीं सुना? पुराणों में नरक, नरकासुर और नरक चतुर्दशी, नरक पूर्णिमा का वर्णन मिलता है। नरकस्था अथवा नरक नदी वैतरणी को कहते हैं। नरक चतुर्दशी के दिन तेल से मालिश कर स्नान करना चाहिए। इसी तिथि को यम का तर्पण किया जाता है, जो पिता के रहते हुए भी किया जा सकता है।
नरक का स्थान:
महाभारत में राजा परीक्षित इस संबंध में शुकदेवजी से प्रश्न पूछते हैं तो वे कहते हैं कि राजन! ये नरक त्रिलोक के भीतर ही है तथा दक्षिण की ओर पृथ्वी से नीचे जल के ऊपर स्थित है। उस लोक में सूर्य के पुत्र पितृराज भगवान यम हैं, वे अपने सेवकों के सहित रहते हैं। तथा भगवान की आज्ञा का उल्लंघन न करते हुए, अपने दूतों द्वारा वहां लाए हुए मृत प्राणियों को उनके दुष्कर्मों के अनुसार पाप का फल दंड देते हैं।
श्रीमद्भागवत और मनुस्मृति के अनुसार नरकों के नाम:
(1)तामिस्त्र,  (2)अंधसिस्त्र, (3)रौवर, (4)महारौवर, (5)कुम्भीपाक, (6)कालसूत्र, (7)आसिपंवन, (8)सकूरमुख, (9)अंधकूप, (10)मिभोजन, (11)संदेश, (12)तप्तसूर्मि, (13)वज्रकंटकशल्मली, (14)वैतरणी, (15)पुयोद, (16)प्राणारोध, (17)विशसन, (18)लालभक्ष, (19)सारमेयादन, (20)अवीचि और (21)अय:पान।
इसके अलावा (22) क्षरकर्दम, (23)रक्षोगणभोजन, (24)शूलप्रोत, (25)दंदशूक, (26)अवनिरोधन, (27)पर्यावर्तन और (28)सूचीमुख। ये सात (22 से 28) मिलाकर कुल 28तरह के नरक माने गए हैं जो सभी धरती पर ही बताए जाते हैं।
इनके अलावा वायु पुराण और विष्णु पुराण में भी कई नरककुंडों के नाम लिखे हैं- वसाकुंड, तप्तकुंड, सर्पकुंड और चक्रकुंड आदि। इन नरककुंडों की संख्या 86है। इनमें से सात नरक पृथ्वी के नीचे हैं और बाकी लोक के परे माने गए हैं। उनके नाम हैं- रौरव, शीतस्तप, कालसूत्र, अप्रतिष्ठ, अवीचि, लोकपृष्ठ और अविधेय हैं। इन सभी नरकों में कर्मों के हिसाब से मनुष्य को मृत्यु के उपरांत भेजा जाता है।


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जहां जाने से... लोग बन जाते हैं पत्थर


भारत चमत्कारों और आस्था का देश है। कश्मीर से कन्याकुमारी तक कई चमत्कारिक मंदिर, दरगाह, गांव, साधु-संत, तांत्रिक और रहस्यमय गुफाएं मिल जाएंगी। अब इसे आप चमत्कार कहें या अंधविश्वास, लेकिन माना जाता है कि एक गांव ऐसा भी है जहां जाकर लोग हमेशा-हमेशा के लिए पत्थर बन जाते हैं। कोई कहता है कि इस गांव पर किसी भूत का साया है तो कोई कहता है कि इस शहर पर एक साधु के शाप का असर है, यहां के सभी लोग उसके शाप के चलते पत्थर बन गए थे और यही वजह है कि आज भी उस शाप के डर के चलते लोग वहां नहीं जाते हैं। लोगों में अब वहम बैठ गया है।

राजस्थान में बाड़मेर के पास स्थित है किराडु गांव। आखिर क्या सच है किराडु गांव का? क्यों आज भी लोग इस गांव में जाने से डरते हैं और क्यों शाम होते ही यह शहर भूतों का स्थान बन जाता है।
कहते हैं कि यहां के मंदिरों के खंडहरों में रात में कदम रखते ही लोग हमेशा-हमेशा के लिए पत्थर बन जाते हैं। यह कोई शाप है, जादू है, चमत्कार है या भूतों की हरकत- कोई नहीं जानता। हालांकि किसी ने यह जानने की हिम्मत भी नहीं की कि क्या सच में यहां रात रुकने पर वह पत्थर बन जाएगा? कौन ऐसी रिस्क ले सकता है? तभी तो आज तक इसका रहस्य बरकरार है। कैसे जान पाएगा कोई कि अगर ऐसा होता है तो इसके पीछे कारण क्या है?
मान्यता है कि इस शहर पर एक साधु का शाप लगा हुआ है। यह लगभग 900 साल पहले की बात है, जबकि यहां परमारों का शासन था। तब इस शहर में एक सिद्ध संत ने डेरा डाला। कुछ दिन रहने के बाद जब वे संत तीर्थ भ्रमण पर निकले तो उन्होंने अपने साथियों को स्थानीय लोगों के सहारे छोड़ दिया कि आप इनको भोजन-पानी देना और इनकी सुरक्षा करना।
संत के जाने के बाद उनके सारे शिष्य बीमार पड़ गए और बस एक कुम्हारिन को छोड़कर अन्य किसी भी व्यक्ति ने उनकी सहायता नहीं की। बहुत दिनों के बाद जब संत पुन: उस शहर में लौटे तो उन्होंने देखा कि उनके सभी शिष्य भूख से तड़प रहे हैं और वे बहुत ही बीमार अवस्था में हैं। यह सब देखकर संत को बहुत क्रोध आया।
उस सिद्ध संत ने कहा कि जिस स्थान पर साधुओं के प्रति दयाभाव ही नहीं है, तो अन्य के साथ क्या दयाभाव होगा? ऐसे स्थान पर मानव जाति को नहीं रहना चाहिए। उन्होंने क्रोध में अपने कमंडल से जल निकाला और हाथ में लेकर कहा कि जो जहां जैसा है, शाम होते ही पत्थर बन जाएगा। उन्होंने संपूर्ण नगरवासियों को पत्थर बन जाने का शाप दे दिया।
फिर उन्होंने जिस कुम्हारिन ने उनके शिष्यों की सेवा की थी, उसे बुलाया और कहा कि तू शाम होने से पहले इस शहर को छोड़ देना और जाते वक्त पीछे मुड़कर मत देखना। कुम्हारिन शाम होते ही वह शहर छोड़कर चलने लगी लेकिन जिज्ञासावश उसने पीछे मुड़कर देख लिया तो कुछ दूर चलकर वह भी पत्थर बन गई। इस शाप के चलते पूरा गांव आज पत्थर का बना हुआ है। जो जैसा काम कर रहा था, वह तुरंत ही पत्थर का बन गया।
इस शाप के कारण ही आस-पास के गांव के लोगों में दहशत फैल गई जिसके चलते आज भी लोगों में यह मान्यता है कि जो भी इस शहर में शाम को कदम रखेगा या रुकेगा, वह भी पत्थर का बन जाएगा।
किराडु के मंदिरों का निर्माण किसने कराया इस बारे में कोई तथ्य मौजूद नहीं है। यहां पर पर विक्रम शताब्दी 12 के तीन शिलालेख उपलब्ध हैं। पहला शिलालेख विक्रम संवत 1209, माघ वदी 14 तदनुसार 24 जनवरी 1153 का है। दूसरा विक्रम संवत 1218, ईस्वी 1161 का है जिसमें परमार सिंधुराज से लेकर सोमेश्वर तक की वंशावली दी गई है और तीसरा यह विक्रम संवत 1235 का है। इतिहासकारों का मत है कि किराडु के मंदिरों का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था तथा इनका निर्माण परमार वंश के राजा दुलशालराज और उनके वंशजों ने किया था। यहां मुख्यत: पांच मंदिर है जिसमें से केवल विष्णु मंदिर और सोमेश्वर मंदिर ही ठीक हालत में है। बाकी तीन मंदिर खंडहरों में बदल चुके हैं।
खजुराहो के मंदिरों की शैली में बने इन मंदिरों की भव्यता देखते ही बनती है। हालांकि आज यह पूरा क्षेत्र विराने में बदल गया है लेकिन यह पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। इन मंदिरों को क्यों बनाया गया और इसके पीछे इनका इतिहास क्या रहा है इस सब पर शोध अभी जारी है लेकिन मान्यताओं के हिसाब से ये तो एक शापित गांव है।



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Monday 15 June 2015

वास्तुशास्त्र के वैज्ञानिक सापेक्ष



मनुष्य को वास्तु शास्त्र के एक सौ पचास नियम बहुत ही बारीकी से अध्ययन कर के अपनाने चाहिएं, क्योंकि भूखंड की स्थिति एवं कोण की स्थिति जानने के बाद वास्तु शास्त्र के सभी पहलुओं का सूचारु रूप से अध्ययन कर के ही भवन निर्माण,औद्योगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि की स्थापना करें। तभी लाभ मिलेगा।

आदि काल से हिंदू धर्म गं्रथों में चुंबकीय प्रवाहों, दिशाओं, वायु प्रभाव, गुरुत्वाकर्षण के नियमों को ध्यान में रखते हुए वास्तु शास्त्र की रचना की गयी तथा यह बताया गया कि इन नियमों के पालन से मनुष्य के जीवन में सुख-शांति आती है और धन-धान्य में भी वृद्धि होती है। वास्तु वस्तुत: पृथ्वी, जल, आकाश, वायु और अग्नि इन पांच तत्वों के समानुपातिक सम्मिश्रण का नाम है। इसके सही सम्मिश्रण से 'बायो-इलेक्ट्रिक मैग्नेटिक एनर्जी की उत्पत्ति होती है, जिससे मनुष्य को उत्तम स्वास्थ्य, धन एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। मानव शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है, क्योंकि मानव शरीर पंच तत्वों से निर्मित होता है और अंतत: पंच तत्वों में ही विलीन हो जाता है। जिन पांच तत्वों पर शरीर का समीकरण निर्मित और ध्वस्त होता है, वह निम्नानुसार है। आकाश+अग्नि+वायु+जल+पृथ्वी = देह निर्माण क्रिया या शरीर का निर्माण। और वायु-जल-अग्नि-पृथ्वी-आकाश = ध्वंस प्रक्रिया या नाश हो जाना। वास्तुशास्त्र का परिचय, आकाश, वायु, अग्नि तेज, जल, पृथ्वी से ही होता है। मस्तिष्क में आकाश, कंधों में अग्नि, नाभि में वायु, घुटनों में पृथ्वी, पादांत में जल आदि तत्वों का निवास है और आत्मा परमात्मा है, क्योंकि दोनों ही निराकार हैं। दोनों को ही महसूस किया जा सकता है। इसी लिए स्वर महाविज्ञान में प्राण वायु आत्मा मानी गयी है और यही प्राण वायु जब शरीर (देह) से निकल कर सूर्य में विलीन हो जाती है, तब शरीर निष्प्राण हो जाता है। इसी लिए सूर्य ही भूलोक में समस्त जीवों, पेड़-पौधों का जीवन आधार है अर्थात् सूर्य सभी प्राणियों के प्राणों का स्रोत है। यही सूर्य जब उदय होता है, तब संपूर्ण संसार में प्राणाग्नि का संचार आरंभ होता है, क्योंकि सूर्य की रश्मियों में सभी रोगों को नष्ट करने की शक्ति मौजूद है। सूर्य पूर्व दिशा में उगता हुआ पश्चिम में अस्त होता है। इसी लिए भवन निर्माण में का स्थान प्रमुख है। भवन निर्माण में सूर्य ऊर्जा, वायु ऊर्जा, चंद्र ऊर्जा आदि के पृथ्वी पर प्रभाव प्रमुख माने जाते हैं। यदि मनुष्य मकान को इस प्रकार से बनाए, जो प्राकृतिक व्यवस्था के अनुरूप हो, तो प्राकृतिक प्रदूषण की समस्या काफी हद तक दूर हो सकती है, जिससे मनुष्य प्राकृतिक ऊर्जा स्रोतों को, भवन के माध्यम से, अपने कल्याण के लिए इस्तेमाल कर सके। पूर्व में उदित होने वाले सूर्य की किरणों का भवन के प्रत्येक भाग में प्रवेश हो सके और मनुष्य ऊर्जा को प्राप्त कर सके, क्योंकि सूर्य की प्रात:कालीन किरणों में विटामिन-डी का बहुमूल्य स्रोत होता है, जिसका प्रभाव हमारे शरीर पर रक्त के माध्यम से, सीधा पड़ता है। इसी तरह मध्याह्न के पश्चात् सूर्य की किरणें रेडियधार्मिता से ग्रस्त होने के कारण शरीर पर विपरीत (खराब) प्रभाव डालती हैं। इसीलिए भवन निर्माण करते समय भवन का 'दिशा इस प्रकार से रखा जाना चाहिए, जिससे मध्यांत सूर्य की किरणों का प्रभाव शरीर एवं मकान पर कम से कम पड़े। दक्षिण-पश्चिम भाग के अनुपात में भवन निर्माण करते समय पूर्व एवं उत्तर के अनुपात की सतह को इसलिए नीचा रखा जाता है, क्योंकि प्रात:काल के समय सूर्य की किरणों में विटामिन डी, एफ एवं विटामिन ए रहते हैं। रक्त कोशिकाओं के माध्यम से जिन्हें हमारा शरीर आवश्यकतानुसार विटामिन डी ग्रहण करता रहे। यदि पूर्व का क्षेत्र पश्चिम के क्षेत्र से नीचा होगा, अधिक दरवाजे, खिड़कियां आदि होने के कारण प्रात:कालीन सूर्य की किरणों का लाभ पूरे भवन को प्राप्त होता रहेगा। पूर्व एवं उत्तर क्षेत्र अधिक खुला होने से भवन में वायु बिना रुकावट के प्रवेश करती रहे और चुंबकीय किरणें, जो उत्तर से दक्षिण दिशा को चलती हैं, उनमें कोई रुकावट न हो और दक्षिण-पश्चिम की छोटी-छोटी खिड़कियों से धीरे-धीरे वायु निकलती रहे। इससे वायु मंडल का प्रदूषण दूर होता रहेगा। दक्षिण-पश्चिम भाग में भवन को अधिक ऊंचा का प्रमुख कारण तथा मोटी दीवार बनाने तथा सीढिय़ों आदि का भार भी दिशा में रखना, भारी मशीनरी, भारी सामान का स्टोर आदि भी बनाने का प्रमुख कारण यह है कि जब पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणी दिशा में करती है, तो वह एक विशेष कोणीय स्थिति में होती है। अत: इस क्षेत्र में अधिक भार रखने से संतुलन आ जाता है तथा सूर्य की गर्मी इस भाग में होने के कारण उससे इस प्रकार बचा भी जा सकता है। गर्मी में इस क्षेत्र में ठंडक तथा सर्दियों में गर्मी का अनुभव भी किया जा सकता है। दक्षिण-पश्चिम में कम और छोटी-छोटी खिड़कियां रखने का प्रमुख कारण है गर्मियों में ठंडक महसूस हो सके, क्योंकि भूखंड क्षेत्र के दक्षिण-पश्चिम में खुली हवा तापयुक्त हो कर सर्दियों में विशेष दबाव से कमरे में पहुंच कर कमरों को गर्म करती है। यह हवा रोशनदान एवं छोटी खिड़कियों से भवन में गर्मियों में कम ताप से युक्त अधिक मोलीक्यूबल दबाव के कारण भवन को ठंडा रखती है और साथ ही वातावरण को शुद्ध करने में सहायता पहुंचाती रहती है। आग्नेय (दक्षिण-पूर्वी) कोण में रसोई बनाने का प्रमुख कारण यह है कि सुबह पूर्व से सूर्य की किरणें विटामिन युक्त हो कर दक्षिण क्षेत्र की वायु के साथ प्रवेश करती हैं। क्योंकि पृथ्वी सूर्य की परिक्रमा दक्षिणायन की ओर करती है, अत: आग्नेयकों की स्थिति में इस भाग को अधिक विटामिन 'एफ एवं 'डी से युक्त सूर्य की किरणें अधिक समय तक मिलती रहे, तो रसोई घर में रखे खाद्य पदार्थ शुद्ध होते रहेंगे और इसके साथ-साथ सूर्य की गर्मी से पश्चिमी दीवार की नमी के कारण विद्यमान हानिकारक कीटाणु नष्ट होते रहते हैं। उत्तरी-पूर्वी भाग ईशान कोण में आराधना स्थल या पूजा स्थल रखने का प्रमुख कारण यह है कि पूजा करते समय मनुष्य के शरीर पर अधिक वस्त्र न रहने के कारण प्रात:कालीन सूर्य की किरणों के माध्यम से शरीर में विटामिन 'डी नैसर्गिक अवस्था में प्राप्त हो जाती है और उत्तरी क्षेत्र से पृथ्वी की चुंबकीय ऊर्जा का अनुकूल प्रभाव भी पवित्र माना जाता है। अंतरिक्ष से हमें कुछ अलौकिक शक्ति मिलती रहे, इसी लिए इस क्षेत्र को अधिक खुला रखा जाता है। उत्तर-पूर्व में आने वाले पानी के स्रोत का प्रमुख आधार यह है कि पानी में प्रदूषण जल्दी लगता है और पूर्व से ही सूर्य उदय होने के कारण सूर्य की किरणें जल पर पड़ती हैं, जिसके कारण इलेक्ट्रोमेग्नेटिक सिद्धांत के द्वारा जल को सूर्य से ताप प्राप्त होता है। उसी के कारण जल शुद्ध रहता है। दक्षिण दिशा में सिर रखने का प्रमुख कारण पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का मानव पर पडऩे वाला प्रभाव ही है। जिस प्रकार चुंबकीय किरणें उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की तरफ चलती हैं, उसी प्रकार मनुष्य के शरीर में जो चुंबकीय क्षेत्र हैं, वह भी सिर से पैर की तरफ होता है। इसी लिए मानव के सिर को उत्तरायण एवं पैर को दक्षिणायन माना जाता है। यदि सिर को उत्तर की ओर रखें तो चुंबकीय प्रभाव नहीं होगा, क्योंकि पृथ्वी के क्षेत्र का उत्तरी ध्रुव मानव के उत्तरी पोल ध्रुव से घृणा करेगा और चुंबकीय प्रभाव अस्वीकार करेगा, जिससे शरीर के रक्त संचार के लिए उचित और अनुकूल चुंबकीय क्षेत्र का लाभ नहीं मिल सकेगा, जिससे मस्तिष्क में तनाव होगा और शरीर को शांतिमय (पूर्वक) निद्रा का अनुकूल अवस्था प्राप्त नहीं होगी। सिर दक्षिण दिशा में रखने से चुंबकीय परिक्रमा पूरी होगी और पैर उत्तर की तरफ करने से दूसरी तरफ भी परिक्रमा पूरी होने के कारण चुंबकीय तरंगों के प्रभाव में रुकावट न होने से अच्छी नींद आएगी। चुंबकीय तरंगें उत्तर से दक्षिण दिशा को जाती हैं। अगर किसी भी मनुष्य से व्यापारिक चर्चा करनी हो, तो उत्तर की ओर मुंह कर के ही चर्चा करें। इसका प्रमुख कारण यह है कि उत्तरी क्षेत्र से चुंबकीय ऊर्जा प्राप्त होने के कारण मस्तिष्क की कोशिकाएं तुरंत सक्रिय होने से जो शुद्ध ऑक्सीजन प्राप्त होती है, उससे मस्तिष्क की कोशिकाओं के माध्यम से याददाश्त बढ़ जाती है, नैसर्गिक ऊर्जा शक्ति के साथ परामर्श करने वाली मस्तिष्क की ग्रंथियां अधिक सक्षम बन जाती हैं। इसी लिए इस दिशा में की जाने वाली व्यापारिक चर्चाएं अधिक महत्व रखती हैं। मनुष्य को चाहिए कि यदि उत्तर में मुंह कर के बैठे, तो अपने दाहिने तरफ चेक बुक आदि रखे। यदि मनुष्य मकान बनाए, तो मकान के चारों ओर खुला स्थान अवश्य रखे। खुला स्थान पूर्व एवं उत्तर दिशा में अधिक (यानी सबसे अधिक पूर्व) में, फिर उससे कम उत्तर में तथा उत्तर दिशा से भी कम दक्षिण दिशा में (और दक्षिण दिशा से भी कम) सबसे कम पश्चिम दिशा में रखे। इससे सभी दिशाओं से वायु का प्रवेश होता रहेगा। वायु का निष्कासन होने के कारण वायु मंडल शुद्ध रहता है। इससे गर्मी में भवन ठंडा एवं सर्दियों में भवन गर्म रहता है, क्योंकि वायु मंडल में अन्य गैसों के अनुपात में ऑक्सीजन की कम मात्रा होती है। यदि भवन के चारों ओर खुला स्थान है, तो मनुष्य को हमेशा आवश्यकतानुसार प्राण वायु (ऑक्सीजन) एवं चुंबकीय ऊर्जा का लाभ मिलता रहेगा। इसके अलावा वायु मंडल और ब्रह्मांड में काफी मात्रा में अदृश्य शक्तियां एवं ऐसी ऊर्जाएं हैं, जिनको हम न देख सकते हैं और न ही महसूस कर सकते हैं तथा जिनका प्रभाव दीर्घ काल में ही अनुभव होता है। इसी को प्राकृतिक ओज (औरा) कहते हैं। जीवित मनुष्य के अंदर और उसके चारों ओर हर समय एक विशेष चुंबकीय क्षेत्र होता है। इसी विशेष चुंबकीय क्षेत्र को हम 'बायोइलेक्ट्रिक चुंबकीय क्षेत्र भी कहते हैं। इसी लिए दक्षिण-पश्चिम का भाग ऊंचा तथा पूर्व-उत्तर का भाग नीचे रखने से 'बायोमैग्नेटिक फील्ड  के कारण मनुष्य के चुंबकीय क्षेत्र में कोई रुकावट नहीं आएगी। ये 'बायोइलेक्ट्रोमेग्नेटिक फील्ड वायु मंडल में वैसे तो बीस प्रकार के होते हैं, परंतु मानव शरीर के लिए चार प्रकार ही (बी. ई. एम. स.) अधिक उपयोगी माना गया है। इसीलिए वास्तु शास्त्र में इन पांच भूतों- पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश एवं वायु- का विशेष स्थान है। मनुष्य को वास्तु शास्त्र के एक सौ पचास नियम बहुत ही बारीकी से अध्ययन कर के अपनाने चाहिएं, क्योंकि भूखंड की स्थिति एवं कोण की स्थिति जानने के बाद वास्तु शास्त्र के सभी पहलुओं का सूचारु रूप से अध्ययन कर के ही भवन निर्माण,औद्योगिक भवन, व्यापारिक संस्थान आदि की स्थापना करें। तभी लाभ मिलेगा। आवासीय तथा व्यावसायिक भवन निर्माण करते समय यदि इन पांच तत्वों को समझ कर इनका यथोचित ध्यान रखा जाए, तो ब्रह्मांड की प्रबल शक्तियों का अद्भुत उपहार हमारे समस्त जीवन को सुखी एवं संपन्न बनाने में सहायक होंगे।


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Monday 1 June 2015

घर का सुख और ज्योतिष विश्लेषण

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घर का सुख देखने के लिए मुख्यत: चतुर्थ स्थान को देखा जाता है। फिर गुरु, शुक्रऔर चंद्र के बलाबल का विचार प्रमुखता से किया जाता है। जब-जब मूल राशि स्वामी या चंद्रमा से गुरु, शुक्र या चतुर्थ स्थान के स्वामी का शुभ योग होता है, तब घर खरीदने, नवनिर्माण या मूल्यवान घरेलू वस्तुएँ खरीदने का योग बनता है। व्यक्ति के जीवन पुरुषार्थ, पराक्रम एवं अस्तित्व की पहचान उसका निजी मकान है। महंगाई और आबादी के अनुरूप हर व्यक्ति को मकान मिले यह संभव नहीं है। आधी से ज्यादा दुनिया किराये के मकानों मेंं रहती है। कुछ किरायेदार, जबरदस्ती मकान मालिक बने बैठे हैं। कुछ लोगों को मकान हर दृष्टि से फलदायी है। कोई टूटे-फूटे मकानों मेंं रहता है तो कोई आलिशान बंगले का स्वामी है। सुख-दुख जीवन के अनेक पहलुओं पर मकान एक परमावश्यकता बन गई है।
जन्मपत्री मेंं भूमि का कारक ग्रह मंगल है। जन्मपत्री का चौथा भाव भूमि व मकान से संबंधित है। चतुर्थेश उच्च का, मूलत्रिकोण, स्वग्रही, उच्चाभिलाषी, मित्रक्षेत्री शुभ ग्रहों से युत हो या शुभ ग्रहों से दृष्ट हो तो अवश्य ही मकान सुख मिलेगा।
साथ ही मंगल की स्थिति का सुदृढ़ होना भी आवश्यक है। मकान सुख के लिये मंगल और चतुर्थ भाव का ही अध्ययन पर्याप्त नहीं है। भवन सुख के लिये लग्न व लग्नेश का बल होना भी अनिवार्य है। इसके साथ ही दशमेंश, नवमेंश और लाभेश का सहयोग होना भी जरूरी है।
1. स्वअर्जित भवन सुख (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- लग्नेश चतुर्थ स्थान मेंं हो चतुर्थेश लग्न मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्म लेने वाला जातक पराक्रम व पुरुषार्थ से स्वयं का मकान बनाता है।
2. उत्तम ग्रह योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश किसी शुभ ग्रह के साथ युति करे, केंद्र-त्रिकोण (1,4,7,9,10) मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति को अपनी मेहनत से कमाये रुपये का मकान प्राप्त होता है। मकान से सभी प्रकार की सुख सुविधायें होती है।
3. अकस्मात घर प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और लग्नेश दोनों चतुर्थ भाव मेंं हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- अचानक घर की प्राप्ति होती है। यह घर दूसरों का बनाया होता है।
4. एक से अधिक मकानों का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ स्थान पर चतुर्थेश दोनों चर राशियों मेंं (1,4,7,10) हो। चतुर्थ भाव के स्वामी पर शुभ ग्रहों का प्रभाव हो तो एक से अधिक मकान प्राप्ति के योग बनते हैं।
परिणाम- ऐसे व्यक्ति के अलग-अलग जगहों पर मकान होते हैं। वह मकान बदलता रहता है।
5 वाहन, मकान व नौकर सुख योग (परिवर्तन से):
निष्पत्ति- नवमेंश, दूसरे भाव मेंं और द्वितीयेश नवम भाव मेंं परस्पर स्थान परिवर्तन करें तो यह योग बनता है।
परिणाम- इस योग मेंं जन्मेंं जातक का भाग्योदय 12वें वर्ष मेंं होता है। 32वें वर्ष के बाद जातक को वाहन, मकान और नौकर-चाकर का सुख मिलता है।
6. बड़े बंगले का योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव मेंं यदि चंद्र और शुक्र हो अथवा चतुर्थ भाव मेंं कोई उच्च राशिगत ग्रह हो तो यह योग बनता है।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।
7. बिना प्रयत्न प्राप्ति योग:
निष्पत्ति- लग्नेश व सप्तमेंश लग्न मेंं हो तथा चतुर्थ भाव पर गुरु, शुक्र या चंद्रमा का प्रभाव हो।
परिणाम- ऐसा जातक बड़े बंगले व महलों का स्वामी होता है। घर के बाहर बगीचा, जलाशय एवं सुंदर कलात्मक ढंग से भवन बना होता है।
8. बिना प्रयत्न ग्रह प्राप्ति का दूसरा योग:
निष्पत्ति- चतुर्थ भाव का स्वामी उच्च, मूल त्रिकोण या स्वग्रही हो तथा नवमेंश केंद्र मेंं हो तो ये योग बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को बिना प्रयत्न के घर मिल जाता है।
9. ग्रहनाश योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश के नवमांश का स्वामी 12वें चला गया हो तो, यह दोष बनता है।
परिणाम- ऐसे जातक को अपनी स्वयं की संपत्ति व घर से वंचित होना पड़ता है।
10. उत्तम कोठी योग:
निष्पत्ति- चतुर्थेश और दशमेंश एक साथ केंद्र त्रिकोण मेंं हो तो उत्तम व श्रेष्ठ घर प्राप्त होता है।
परिणाम- कोठी, बड़ा मकान व संपत्ति प्राप्ति होती है।
घर सुख संबंधी मुख्य ज्योतिषीय सिद्धांत:
1. चतुर्थ स्थान मेंं शुभ ग्रह हों तो घर का सुख उत्तम रहता है।
2. चंद्रमा से चतुर्थ मेंं शुभ ग्रह होने पर घर संबंधी शुभ फल मिलते हैं।
3. चतुर्थ स्थान पर गुरु-शुक्र की दृष्टि उच्च कोटि का गृह सुख देती है।
4. चतुर्थ स्थान का स्वामी 6, 8, 12 स्थान मेंं हो तो गृह निर्माण मेंं बाधाएँ आती हैं। उसी तरह 6, 8, 12 भावों मेंं स्वामी चतुर्थ स्थान मेंं हो तो गृह सुख बाधित हो जाता है।
5. चतुर्थ स्थान का मंगल घर मेंं आग से दुर्घटना का संकेत देता है। अशांति रहती है।
6. चतुर्थ मेंं शनि हो, शनि की राशि हो या दृष्टि हो तो घर मेंं सीलन, बीमारी व अशांति रहती है।
7. चतुर्थ स्थान का केतु घर मेंं उदासीनता देता है।
8. चतुर्थ स्थान का राहु मानसिक अशांति, पीड़ा, चोरी आदि का डर देता है।
9. चतुर्थ स्थान का अधिपति यदि राहु से अशुभ योग करे तो घर खरीदते समय या बेचते समय धोखा होने के संकेत मिलते हैं।
10. चतुर्थ स्थान का पापग्रहों से योग घर मेंं दुर्घटना, विस्फोट आदि के योग बनाता है।
11. चतुर्थ स्थान का अधिपति 1, 4, 9 या 10 मेंं होने पर गृह-सौख्य उच्च कोटि का मिलता है।
उपरोक्त संकेतों के आधार पर कुंडली का विवेचन कर घर खरीदने या निर्माण करने की शुरुआत की जाए तो लाभ हो सकता है। इसी तरह पति, पत्नी या घर के जिस सदस्य की कुंडली मेंं गृह-सौख्य के शुभ योग हों, उसके नाम से घर खरीदकर भी कई परेशानियों से बचा जा सकता है।
गुरु का योग घर बनाने वाले कारकों से होता है तो रहने के लिये घर बनता है । शनि का योग जब घर बनाने वाले कारकों से होता है तो कार्य करने के लिये घर बनने का योग होता है जिसे व्यवसायिक स्थान भी कहा जाता है। बुध किराये के लिये बनाये जाने वाले घरों के लिये अपनी सूची बनाता है तो मंगल कारखाने और डाक्टरी स्थान आदि बनाने के लिये अपनी अपनी तरह से बल देता है। लेकिन घर बनाने के लिये मुख्य कारक शुक्र का अपना बल देना भी मुख्य है।
वर्षफल के हिसाब से शुक्र जब राहु, केतु के सम्बन्ध से अछूता हो और शुभ ग्रहों के साथ बैठा हो तो मकान ही मकान बनवायेगा लेकिन जब केवल राहु, केतु के साथ हो तो मकान बनने से बर्बाद होगा और हानि देगा। पुष्य नक्षत्र से शुरू कर इसी नक्षत्र मेंं पूर्ण किया मकान अति उत्तम होता है तथा पूर्ण होने पर मकान की प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।
शुभ लग्न मेंं शुरू किये मकान के लिए निम्न सावधानियां जरूरी हैं:
कोने: जमीन के टुकड़ों को एक गिन उस के कोने देखें। चार कोने वाला (90 डिग्री) का मकान सर्वोत्त्म है, आठ कोनो वाला मातमी या बीमारी देने वाला, अठारह कोनों वाला हो तो सोना, चांदी देने वाला होता है। तीन या तेरह कोनों वाला हो तो भाई बन्धुओं को मौतें, आग, फांसी देने वाला होता है। पांच कोनों वाला हो तो सन्तान का दुख व बरबादी, मध्य से बाहर या मछली की पेट की तरह उठा हुआ मकान हो तो खानदान घटेगा यानी दादा तीन, बाप दो, स्वयं अकेला और नि:सन्तान होता है।
दीवारें: कोने देखने के बाद, मकान बनाने के पहले दीवारों का क्षेत्रफल और नींव छोड़कर हरेक हिस्सा या कमरे का अंदरूनी क्षेत्रफल अलग-अलग देखा जाए तो जातक (मालिक मकान) के अपने हाथों का क्षेत्रफल भी देखा जाए। उस का हाथ चाहे 18,19 या 17 इंच का हो पैमाना उस के हाथ की लम्बाई का हो।
मुख्य द्वार: 1 पूर्व मेंं उत्तम, नेक व्यक्ति आए जाए, सुख हो। 2 पश्चिम मेंं दूसरे दर्जे का उत्तम। 3 उत्तर मेंं नेक, लम्बे सफर, पूजा पाठ नेक कार्य के लिए आने जाने का रास्ता जो परलोक सुधारे। 4 दक्षिण मेंं हानिकारक, मौत की जगह।
निम्न सावधानियां रखें नया मकान बनवाते समय:
हमारे ग्रंथ पुराणों आदि मेंं वास्तु एवं ज्योतिष से संबंधित गूढ़ रहस्यों तथा उसके सदुपयोग सम्बंधी ज्ञान का अथाह समुद्र व्याप्त है जिसके सिद्धान्तों पर चलकर मनुष्य अपने जीवन को सुखी, समृद्ध, शक्तिशाली और निरोगी बना सकता है।
सुखी परिवार अभियान मेंं वास्तु एक स्वतंत्र इकाई के रूप मेंं गठित की गयी है और उस पर श्रेष्ठ वातावरण और परिणाम के लिए वास्तु के अनुसार जीवनशैली और ग्रह का निर्माण अति आवश्यक है। इस विद्या मेंं विविधताओं के बावजूद वास्तु सम्यक उस भवन को बना सकते हैं, जिसमेंं कि कोई व्यक्ति पहले से निवास करता चला आ रहा है। वास्तु ज्ञान वस्तुत: भूमि व दिशाओं का ज्ञान है।
कब प्रारंभ करें मकान बनवाना ?
शुक्ल पक्ष मेंं करें गृह निर्माण: वास्तुशास्त्र मेंं प्राचीन मनीषियों ने सूर्य के विविध राशियों पर भ्रमण के आधार पर उस माह मेंं घर निर्माण प्रारंभ करने के फलों की विवेचना की है।
1. मेष राशि मेंं सूर्य होने पर घर बनाना प्रारंभ करना अति लाभदायक होता है।
2. वृषभ राशि मेंं सूर्य संपत्ति बढऩा, आर्थिक लाभ
3. मिथुन राशि मेंं सूर्य गृह स्वामी को कष्ट
4. कर्क राशि मेंं सूर्य धन-धान्य मेंं वृद्धि
5. सिंह राशि का सूर्य यश, सेवकों का सुख
6. कन्या राशि का सूर्य रोग, बीमारी आना
7. तुला राशि का सूर्य सौख्य, सुखदायक
8. वृश्चिक राशि का सूर्य धन लाभ
9. धनु राशि का सूर्य हानि, विनाश
10. मकर राशि का सूर्य धन, संपत्ति वृद्धि
11. कुंभ राशि का सूर्य रत्न, धातु लाभ
12. मीन राशि का सूर्य चौतरफा नुकसान
घर बनाने का प्रारंभ हमेशा शुक्ल पक्ष मेंं करना चाहिए। फाल्गुन, वैशाख, माघ, श्रवण और कार्तिक माहों मेंं शुरू किया गया गृह निर्माण उत्तम फल देता है।
वर्जित: मंगलवार व रविवार, प्रतिपदा, चतुर्थी, अष्टमी, नवमी, चतुर्दशी, अमावस्या तिथियाँ, ज्येष्ठा, रेवती, मूल नक्षत्र, वज्र, व्याघात, शूल, व्यतिपात, गंड, विषकुंभ, परिध, अतिगंड, योग - इनमेंं घर का निर्माण या कोई जीर्णोद्धार भूलकर भी नहीं करना चाहिए अन्यथा घर फलदायक नहीं होता।
अति शुभ योग: शनिवार, स्वाति नक्षत्र, सिंह लग्न, शुक्ल पक्ष, सप्तमी तिथि, शुभ योग और श्रावण मास ये सभी यदि एक ही दिन उपलब्ध हो सके, तो ऐसा घर दैवी आनंद व सुखों की अनुभूति कराने वाला होता है।
घर किस नगर, मोहल्ले मेंं बनवाना शुभ है। इस हेतु तीन विधियों से विचार करने का मत हमारे प्राचीन वास्तुशास्त्रियों ने दिये हैं-
नक्षत्र विधि: सर्वप्रथम अपने जन्म नक्षत्र का ज्ञान करें जो कि जन्मकुंडली से जाना जा सकता है और यदि जन्मकुंडली न हो तो जो प्रचलित नाम हो उसके प्रथम अक्षर से ज्ञात कर लें। इसी प्रकार जिस नगर, ग्राम, मोहल्ले मेंं घर बनवाना हो उसका भी नक्षत्र नाम के प्रथम अक्षर के अनुसार जान लें। अब ग्राम, नगर, मोहल्ले की नक्षत्र संख्या से अपने जन्म नक्षत्र की संख्या तक गिनें और फल इस प्रकार जानें यदि- संख्या फल 1 से 5 लाभदायक, 6से 8धन हानि, 9 से 13 समृद्धि धन लाभ, यश, 14 से 19 पत्नीकष्ट, हानि, विवाह सुख का अभाव 20 अंग भंग 21 से 24 सुखदायक, संपति से बढ़ोश्ररी 25 कष्टकारक तथा भयकारक 26कष्टकारी, शोककारी 27 ग्राम, नगर, मोहल्ले वालों से बैर इसमेंं अभिजित को संज्ञान मेंं लिया गया है। उदाहरण- माना कि आपका नाम मनमोहन सिंह तथा आप दिल्ली मेंं घर बनवाना चाहते हैं तो उपरोक्त विधि से विचार करने पर दिल्ली का नक्षत्र है पूर्वाभाद्रपद जिसकी नक्षत्र संख्या 25 है तथा नाम नक्षत्र मघा की नक्षत्र संख्या 10 है नगर नक्षत्र से नाम नक्षत्र तक गणना करने पर 13 अंक आ रहा है विवरण अनुसार यह अंक आपके लिए समृद्धि, धन लाभ एवं लाभ कारक है। अर्थात शुभ है।
वर्ग विचार विधि: इस विधि मेंं अपना तथा ग्राम, नगर, मोहल्ले का नाम लेने का विधान है। इस विधि मेंं यह विचारा जाता है कि अपना नाम एवं ग्राम, नगर, मोहल्ले का नाम किस वर्ग मेंं है। किस अक्षर का किस अक्षर तक क्या वर्ग है उसका विवरण इस प्रकार है- अक्षर वर्ग अ से अं तक अ वर्ग में जिसका स्वामी गरुण। क से ड. तक क वर्ग में जिसका स्वामी बिल्ली। च से ञ तक च वर्ग जिसका स्वामी सिंह। ट से ण तक ट वर्ग जिसका स्वामी श्वान। त से न तक त वर्ग का स्वामी सांप। प से म तक प वर्ग का स्वामी चूहा। य से व तक य वर्ग जिसका स्वामी हिरन। श से ह तक श वर्ग का स्वामी बकरी। अपने नाम की वर्ग संख्या को दो से गुणा कर उसमेंं नगर, ग्राम, मोहल्ले आदि वर्ग संख्या जोड़ दें फिर इसमेंं आठ का भाग दें।
अब नगर, ग्राम, मोहल्ले की वर्ग संख्या को दूना करके उसमेंं अपने वर्ग की संख्या जोड़ दें। अब यदि ग्राम, नगर, मोहल्ले की संख्या कम और नाम अधिक है तो यह ग्राम, नगर, मोहल्ला आपके 4, 8, 12 होने पर स्वास्थ्य की दृष्टि से शुभ नहीं है। घर किस ग्राम/नगर/मोहल्ले मेंं बनवाना है निश्चित हो जाने के बाद प्रश्न यह उठता है कि घर स्थान के किस भाग मेंं बनवाया जाये। राशि के अनुसार वृष, मकर, सिंह, मिथुन राशि के जातकों को बीच मेंं, वृश्चिक राशि वालों को पूर्व मेंं, मीन वाले को पश्चिम मेंं, तुला वालों को वायव्य मेंं, उत्तर दिशा मेंं मेष वालों को तथा कुंभ वालों को ईशान दिशा मेंं घर बनवाना चाहिए।


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Saturday 30 May 2015

वास्तु अनुसार कैसे बनाएँ अपना रसोई घर

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हमारे घर में किचन किस दिशा में स्थित है, वह कौन सा कोण बना रहा है और वह वास्तु के अनुरूप है कि नहीं। क्या कारण है कि घर में सबकुछ है पर शांति नहीं, संतोष नहीं। वैसे आप को बता दें कि घर की खुशहाली किचन से ही होकर निकलती है, सो आज हम आपको बताते हैं कैसी होनी चाहिए आपके किचन का वास्तु:
हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग वास्तु शास्त्र पूर्ण रूप से प्रकृति की लाभकारी ऊर्जा पर आधारित वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों पर आधारित है। प्राकृतिक ऊर्जा एवं पंचतत्वों के प्रभाव का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही हमारे ऋषि-मुनियों ने वास्तु शास्त्र के सूत्रों की रचना मानव जाति के कल्याण की मूलभूत भावना से की थी, जिनका लाभ मनुष्य आज हजारो वर्षों के बाद भी आसानी से प्राप्त कर सकता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पाकशाला (रसोईघर/ किचन) का प्रावधान, अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षणों के पश्चात ही घर की दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा में किया गया। पूर्व से प्राप्य अवरक्त तथा दक्षिण से प्राप्य पराबैंगनी किरणों का उचित सामंजस्य, दक्षिण-पूर्व स्थित रसोई में न सिर्फ वहां प्रात:काल से लेकर मध्याह्न (भोजन बनाने का समय) तक स्वास्थ्यप्रद प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान करता है बल्कि पाकशाला में आसानी से फैल सकने वाले कीटाणुओं, वायरस, सीलन एवं दुर्गन्ध से भी रक्षा करता है। पूर्व एवं उत्तर दिशा की खिड़कियों से तैलीय गन्ध एवं धुंआ भी बगैर घर के अन्य भागों को प्रभावित किये आसानी से बाहर निकल जाते हैं।
वस्तुत: किचन दक्षिण-पूर्व के अलावा कुछ अन्य दिशाओं में भी आसानी से बनाया जा सकता है एवं वहां ऊर्जा के उचित प्रवाह के माध्यम से सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) के अलावा मध्य दक्षिण एवं वायव्य के किचन भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाते हैं बशर्ते वहां की अन्य व्यवस्था वास्तु नियमों के अनुसार की गई हो। रसोईघर आपके घर का पावर हाऊस है, जहां गृहिणी का अधिकांश समय बीतता है एवं वहाँ बने भोजन को परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके तन तथा मन पर पड़ता है एवं वास्तु अनुरूप रसोईघर में बने भोजन से तन एवं मन स्वस्थ तथा प्रसन्न रहते हैं, तो धन भी भला पीछे कैसे रह सकता है?
आग्नेय कोण: इस कोण में रसोईघर होना काफी शुभ माना जाता है। इससे घर की महिलाएं प्रसन्न रहती हैं और सभी तरह के सुखों का घर में वास होता है।
नैत्रत्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामिनी उत्साहित एंव उर्जायुक्त रहती है।
वायव्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामी आशिक मिजाज होता है। मालिक की बदनामी का भी भय रहता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से रूबरू होना पड़ सकता है।
ईशान कोण: इस कोण में रसोईघर होने से पारिवारिक सदस्यों को कोई खास सफलता नहीं मिलती है और घर में क्लेश रहने की संभावना बनी रहती है।
कौन सी दिशा सही है रसोईघर के लिए:
रसोईघर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। अत: इस दिशा में रसोई घर के निर्माण से घर में शान्ति और समृद्धि बनी रहती है
रसोई वास्तु के अनुसार: किचन की ऊँचाई 10 से 11 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए। यदि 4-5 फीट में किचन की ऊँचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कभी भी किचन से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। किचन के बाजू में बोर, कुआँ, बाथरूम बनवाना अवाइड करें, सिर्फ वाशिंग स्पेस दे सकते हैं।
रसोई को घर के आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण) में बनाना चाहिए क्योंकि इसे ही अग्नि का स्थान माना गया है। यहां रसोई होने से अग्नि देव नित्य प्रदीप्त रहते हैं और घर का संतुलन बना रहता है। किंतु, इससे यह भी देखा गया है कि अक्सर दिन में तीन या उससे अधिक बार भोजन बनता है यानी खर्च बना ही रहता है। ऐसे में एकदम अग्निकोण को छोड़कर पूर्व की ओर रसोई बनाएं। यदि पूर्व की रसोई बनी हुई हो तो चूल्हे को थोड़ा पूर्व की ओर खिसका दें। चूल्हा इस तरह लगाएं कि सिलेंडर भी उसके एकदम नीचे रहे। रसोई तैयार करते समय मुख की स्थिति पूर्व में रहनी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि रसोई के दक्षिण में एग्जॉस्ट फैन हो तो व्यय की संभावना रहती है। ऐसे में पूर्व की दीवार पर एग्जॉस्ट फैन लगाना चाहिए। रसोई बन जाने के बाद भोजन कभी घर के ब्रह्मस्थान पर बैठकर नहीं करें। न ही वहां पर झूठा डालें।
अगर आपके घर का रसोईघर वास्तु के नियमानुसार नहीं है एवं उसके प्रतिकूल परिणाम आपको प्राप्त हो रहे हैं एवं किचन की स्थिति या घर बदलना सम्भव नहीं है, तो डरने या घबड़ाने की जरूरत नहीं है। वास्तु की सहायता से आप आसानी से अधिकांश वास्तु-दोष बिना किसी तोड़-फोड़ के सुधार सकते हैं। निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखें:
* किचन के ईशान में सिंक तो ठीक है, परन्तु वहां जूठे बर्तन न तो रखें या धुलाई करें।
* किचन के ईशान से सटाकर चूल्हा कदापि न रखें, वहां गैस सिलिन्डर भी न रखें।
* घर में प्रवेश करते वक्त एवं घर से बाहर जाते समय परिवार के सदस्यों को चूल्हे के दर्शन न हो, ऐसी व्यवस्था अवश्य करें। ड्राइंग टेबल पर भोजन करते समय भी चूल्हा नहीं दिखना चाहिये।
* भोजन बनाने की व्यवस्था सीढिय़ों के नीचे कदापि न करें। वहाँ अत्यन्त नकारात्मक ऊर्जा रहती हैं।
* किचन में दवाइयाँ कदापि न रखें। वहां पूजा/ मन्दिर भी न रखें।
* किचन के दक्षिण-पूर्व में एक छोटा सा पीला, नारंगी या हरा बल्ब लगायें, शुभ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
* किचन के वायव्य कोण में परदा हरगिज न लगायें। यह छोटी सी भूल अत्यन्त प्रतिकूल परिणाम दे सकती है। किचन में झाड़ू न रखें।
* रसोईघर की दीवार, देहरी, खिड़कियाँ, अलमारियाँ, विद्युत उपकरण, भोजन पकाने के प्लेटफार्म, बर्तन इत्यादि टूटी-फूटी अवस्था में न रखें। उन्हें तुरंत ठीक करवायें या बदलने की व्यवस्था करें। मुड़े हुए कांटे चम्मच, चाकू आदि भी तुरंत हटा दें। अपने रसोईघर को पूर्ण रूप से साफ अवश्य करें, ताकि आपका पावर हाऊस सदैव पावर फुल बना रहे।
* नित्य प्रात:काल अपने रसोईघर के ईशान की खिड़की से थोड़ा सा जल बाहर प्रवाहित करके सूर्य देवता का एवं आग्नेय में कपूर जला कर अग्नि देवता का ध्यान करके उनकी कृपादृष्टि हेतु प्रार्थना करें। परिवार में सौहार्द एवं समरसता की वृद्धि होने लगेगी और रसोईघर की रौनक सारे घर में रौनक लाकर सुख एवं समृद्धि के दरवाजे खोलने लगेगी।
* किचन में सूर्य की रोशनी सबसे ज्यादा आए। इस बात का हमेशा ध्यान रखें। किचन की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।
* किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होना चाहिए।
* पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।
* किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ लगाना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।
* भोजन कभी वायव्य कोण में बैठकर या खड़े-खड़े भी नहीं करें। इससे अधिक खाने की आदत हो जाती है। इसी तरह नैऋत्य कोण में बैठकर भोजन नहीं करें। यह राक्षस कोना है और इससे पेटू हो जाने की आशंका रहती है।
* भोजन बनाकर खाने से पूर्व एकाध कौर आग की ज्वाला में अर्पित कर दें।
अगर आपके घर में किचन ईशान या नैऋत्य (ये दिशाएं किचन हेतु वर्जित है) दिशा में हैं जिसका स्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है, तो उसे पिरामिड यंत्रों की सहायता से आसानी से सुधारा जा सकता है। अगर किसी कारणवश पूर्व दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाना सम्भव न हो तो जिस दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाते हैं, वहां चूल्हे के पास तीन पिरामिड लगाकर इस दोष को दूर किया जा सकता है। अगर सिंक एवं चूल्हा पास-पास रखे हों और उन्हें अलग जगह हटाना सम्भव न हो तो मध्य में एक छोटा सा पार्टीशन करके या सिंक पर एक पिरामिड लगाकर इस दोष से मुक्ति पा सकते हैं।
किचन के अगल-बगल या ऊपर-नीचे टायलेट अथवा पूजाघर हो या किचन के दरवाजे के ठीक सामने अन्य कमरों के दरवाजे पड़ते हों, तो सिंक पर पिरामिड लगाकर यह दोष सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है। अगर रसोईघर में बीम या दुच्छती हो, तो पिरामिड यंत्रों से उनकी नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है। रसोई घर में रंगों का आयोजन बहुत हल्का होना चाहिए। वास्तु अनुसार ही रंगों का चयन हो तो रसोई समृद्धशाली बनती है। हल्का हरा, हल्का नींबू जैसा रंग, हल्का संतरी या हल्का गुलाबी।
इस तरह के कुछ सरल उपाए के द्वारा आप अपने घर कि स्त्रियो कि सेहत ठीक रखे व सेहतमंद भोजन करे|

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