Monday 13 April 2015

अन्नप्राशन-संस्कार


छठे माह में बालक का अन्नप्राशन-संस्कार किया जाता है। शास्त्रों में अन्न को प्राणियों का प्राण कहा गया है। गीता में कहा गया है कि अन्न से ही प्राणी जीवित रहते हैं। अन्न से ही मन बनता है। इसलिए अन्न का जीवन में सर्वाधिक महत्व है। माता के गर्भ में मलिन भोजन के जो दोष शिशु में आ जाते हैं, उनके निवारण और शिशु को शुद्ध भोजन कराने की प्रक्रिया को अन्नप्राशन-संस्कार कहा जाता है - अन्नाशनान्मातृगर्भे मलाशाद्यपि शुद्धयति। शिशु को जब 6-7 माह की अवस्था में पेय पदार्थ, दूध आदि के अतिरिक्त प्रथम बार यज्ञ आदि करके अन्न खिलाना प्रारंभ किया जाता है, तो यह कार्य अन्नप्रशन-संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार का उद्देश्य यह होता है शिशु सुसंस्कारी अन्न ग्रहण करे।
शुद्ध एवं सात्त्विक, पौष्टिक अन्न से ही शरीर व मन स्वस्थ रहते हैं तथा स्वस्थ मन ही ईश्वरानुभुति का एक मात्र साधन है। आहार शुद्ध होने पर ही अंत:करण शुद्ध होता है।
आहारशुद्धौ सत्त्वशुद्धि: अर्थात शुद्ध आहार से शरीर में सत्त्वगुण की वृद्धि होती है। अन्न से केवल शरीर का पोषण ही नहीं होता, अपितु मन, बुद्धि, तेज़ व आत्मा का भी पोषण होता है। इसी कारण अन्नप्राशन को संस्कार रुप में स्वीकार करके शुद्ध, सात्त्विक व पौष्टिक अन्न को ही जीवन में लेने का व्रत करने हेतु अन्नप्राशन-संस्कार संपन्न किया जाता है। अन्नप्राशन का उद्देश्य बालक को तेजस्वी, बलशाली एवं मेधावी बनाना है, इसलिए बालक को धृतयुक्त भात या दही, शहद और धृत तीनों को मिलाकर अन्नप्राशन करने का का विधान है। छ: माह बाद बालक हल्के अन्न को पचाने में समर्थ हो जाता है, अत: अन्नप्राशन-संस्कार छठें माह में ही करना चाहिए। इस समय ऐसा अन्न दिया जाता है, जो पचाने में आसान व बल प्रदान करने वाला हो। 6-7 माह के शिशु के दांत निकलने लगते हैं और पाचनक्रिया प्रबल होने लगती है। ऐसे में जैसा अन्न खाना वह प्रारंभ करता है, उसी के अनुरुप उसका तन-मन बनता है। मनुष्य के विचार, भावना, आकांक्षा एवं अंतरात्मा बहुत कुछ अन्न पर ही निर्भर रहती है। अन्न से ही जीवनतत्त्व मिलते हैं, जिससे रक्त, मांस आदि बनकर जीवन धारण किए रहने की क्षमता उत्पन्न होती है। अन्न ही मनुष्य का स्वाभाविक भोजन है, उसे भगवान् का कृपा-प्रसाद समझकर ग्रहण करना चाहिए। शास्त्रों में देवों को खाद्य पदार्थ निवेदित करके अन्न खिलाने का विधान बताया गया है। इस संस्कार में शुभमुहूर्त में देवताओं का पूजन करने के पश्चात् माता-पिता चांदी के चम्मच से खीर आदि पवित्र और पुष्टिकारक अन्न शिशु को चटाते हैं और निम्नलिखित मंत्र बोलते हैं-
शिवौ ते स्तां व्रीहियवावबलासावदोमधौ। एतौ यक्ष्मं वि बाधेते एतौ मुंचतो अंहस:।।
अर्थात हे बालक! जौ और चावल तुम्हारे लिए बलदायक तथा पुष्टिकारक हों, क्योंकि ये दोनों वस्तुएं यक्ष्मानाशक हैं तथा देवान्न होने से पापनाशक हैं।
शरीर रूपी मशीन को चलाने के लिए उर्जा और शक्ति की आवश्यक होती है। भोज्य पदार्थों से हमें उर्जा और शक्ति मिलती है। सनातन ध्रर्म के अनुसार जब बच्चों के दांत निकलने शुरू होते हैं और वह पहली बार दूध के अलावा ठोस आहार लेता है तब यह संस्कार किया जाता है, अर्थात पहली बार जब बच्चा शास्त्रोक्त तरीके से अन्न ग्रहण करता है उस संस्कार को अन्नप्राशन संस्कार के नाम से जाना जाता है। इस संस्कार में बच्चे को ठोस आहार दिया जाता है। यह ठोस आहार खीर होती है जो ना तो पूरी तरह तरह पेय होती है और न ही खाद्य। इस खीर में शहद, घी, तुलसी पत्ता और गंगाजल मिलाया जाता है। इन सभी चीज़ो को शामिल करने का उद्देश्य यह है कि ये पौष्टिक, रोगनाशक तथा पवित्र आध्यात्मिक गुणों को बढ़ाने वाले होते हैं।
शास्त्रों में कहा गया है कि जैसा आहार होता है वैसी ही हमारी बुद्धि, हमारा स्वभाव और व्यक्तित्व होता है इसलिए शुद्ध और पुष्ट आहार से अन्नप्राशन कराया जाता है। यह शुभ कर्म अर्थात संस्कार शुभ समय में हो इसके लिए मुहुर्त का विचार किया जाता है। अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त देखते समय सबसे पहले हम संस्कार का समय ज्ञात करते हैं।
संस्कार का समय: ज्योतिषशास्त्र के विधान के अनुसार इस संस्कार के लिए समय का आंकलन बालक और बालिका के अनुसार अलग अलग होता है। अगर संतान बालक है तो इनका अन्नप्राशन छठे, आठवें अथवा दसवें महीने में किया जाना चाहिए। अगर संतान बालिका है तो इनका अन्नप्राशन पंचम, सप्तम, नवम या एकादश मास में करना शास्त्रानुकूल माना जाता है।
नक्षत्र का आंकलन: अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त के रूप में रोहिणी, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद, स्वाती, पुनर्वसु, श्रवण, घनिष्ठा, शतभिषा, मृगशिरा, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, अश्विनी, पुष्य और शतभिषा नक्षत्र का नाम लिया जाता है। उपरोक्त नक्षत्रों को छोड़कर अन्य नक्षत्र में अन्नप्राशन करना शुभ नहीं माना जाता।
तिथि विचार: ज्योतिष विधा के अनुसार अन्नप्राशन रिक्ता यानी चतुर्थ, नवम व चतुर्दशी तिथि, एवं नन्दा तिथि यानी प्रतिपदा, षष्टी एवं एकादश तिथि तथा अष्टम, द्वादश तथा अमावस को छोड़कर अन्य किसी भी तिथि यानी द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी तथा पूर्णिमा के दिन किया जा सकता है।
वार का आंकलन: अन्नप्राशन के लिए ज्योतिषशास्त्र कहता है यह सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार के दिन करना चाहिए। इस शुभ संस्कार हेतु यह उत्तम दिन माना जाता है।
लग्न का विचार: अन्नप्राशन के लिए शुभ मुहुर्त का आंकलन करते समय शुभ लग्न का भी विचार करना चाहिए। वृष, मिथुन, सिंह, कन्या, तुला, धनु, मकर एवं कुम्भ लग्न अन्नप्राशन संस्कार के लिए शुभ माने जाते हैं। इस शुभ कार्य हेतु प्रथम, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम भावों में स्थित शुभ ग्रह तथा तृतीय, षष्टम एवं एकादश भाव में स्थित पाप ग्रह का होना बहुत ही शुभ माना जाता है।
निषेध: अन्नप्राशन के लिए ज्योतिषशास्त्र में बताया गया है कि जब लग्न के रूप में मेष, वृश्चिक या मीन मौजूद हो तो यह संस्कार नहीं करना चाहिए। संतान के जन्म के समय जिस राशि का लग्न था उससे आठवें राशि के लग्न में यह संस्कार नहीं करना चाहिए। मुहुर्त लग्न में चन्द्रमा प्रथम, षष्टम व अष्टम भाव में नहीं होना चाहिए, तथा दशम भाव रिक्त होना चाहिए। चन्द्र व तारा शुद्धि भी इस संस्कार के लिए आवश्यक है, अगर चन्द्र व तारा शुद्ध नहीं हैं तो स्थिति दोषपूर्ण मानी जाती है।
इस प्रकार इस विधि से इस संस्कार की रस्म अदा की जाती है।

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