Tuesday 28 February 2017

कुंडली में दशाफल

भारतीय ज्योतिष शास्त्र में फल शब्द कर्मफल का वाचक एवं बोधक है। क्योंकि कर्मफल वर्तमान जीवन में उसके घटनाचक्र के रूप में घटित होते हैं, अतः जीवन में घटित होने वाली घटनाओं को अथवा जीवन के घटनाचक्र को भी फल कहते हैं। कर्मफल जन्म जन्मांतरों में अर्जित कर्मों का फल होता है, जिसे यह शास्त्र ठीक उसी प्रकार अभिव्यक्ति देता है जैसे दीपक अंधकार में रखे हुए पदार्थों का स्पष्ट रूप से बोध करा देता हो। कर्मवाद के सिद्धांतानुसार जन्म जन्मांतरों में अर्जित कर्म तीन प्रकार के होते हैं- संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण। इन त्रिविध कर्मों के फल को जानने के लिए ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक महर्षियों ने तीन पद्धतियों का आविष्कार एवं विकास किया है, जिन्हें होराशास्त्र में योग, दशा एवं गोचर कहा जाता है। संचित कर्म परस्पर विरोधी होते हैं। इसलिए उनके फल के सूचक योग भी परस्पर विरोधी होते हैं। संचित कर्म एवं ग्रहयोग में कार्य-कारण संबंध हैं। जैसे काली मिट्टी से काला घड़ा, लाल मिट्टी से लाल घड़ा, पीली मिट्टी से पीला घड़ा या सफेद धागे से सफेद कपड़ा और रंगीन धागे से रंगीन कपड़ा बनता है; उसी प्रकार परस्पर विरोधी संचित कर्मों के परिणाम के सूचक योग भी परस्पर विरोधी होते हैं। इस प्रसंग में अरिष्टयोग एवं उसके भंग तथा राज योग एवं उसके भंग को उदाहरणस्वरूप प्रस्तुत किया जा सकता है। इस विषय में एक बात ध्यान में रखने योग्य है कि सभी कर्मों का फल मनुष्य को वर्तमान जीवन में नहीं मिलता, अपितु योगों के समस्त फल को भोगने के लिए कई जन्म लग जाते हैं। अतः समस्त योगों का फल मनुष्य को उसके जीवन-काल में नहीं मिलता। समस्त योगों में से केवल उन्हीं योगों का फल मनुष्य को मिलता है जिनकी दशा उसके जीवन-काल में आती है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि मनुष्य को उसकी कुंडली के सभी योगों का फल नहीं मिल पाता, इसलिए जीवन के घटनाचक्र का पूर्वानुमान करने में योगों के फल की अपेक्षा दशा-फल अधिक उपयोगी होता है। दशाफल के भेद: जातक ग्रन्थों में तीन प्रकार के दशाफलों का उल्लेख मिलता है। Û सामान्य फल Û योगफल एवं Û स्वाभाविक फल सामान्य फल: दशाकाल में ग्रहों का जो फल उनकी स्थिति, युति, दृष्टि, बल, अवस्था आदि के अनुसार जातकों को मिलता है, वह सामान्य फल कहलाता है। यह सामान्य फल चालीस विविध आधारों पर निर्णीत होने के कारण 40 प्रकार का होता है। इस फल के निर्णायक प्रमुख आधार इस प्रकार हैं- 1. परमोच्च 2. उच्च 3. आरोही 4. अवरोही 5. परम नीच 6. नीच 7. मूलत्रिकोण 8. स्वगृही 9. अतिमित्र गृही 10. मित्रगृही 11. समगृही 12. शत्रुगृही 13. अतिशत्रु गृही 14. उच्च नवांशस्थ 15. नीच नवांशस्थ 16. वर्गोत्तमस्थ 17. शत्रु नवांशस्थ 18. शुभ षष्ठ्यांशस्थ 19. पाप षष्ठ्यांशस्थ 20. परिजातदिवसर्गस्थ 21. शुभ द्रेष्काणस्थ 22. क्रूर द्रेष्काणस्थ 23. उच्चस्थ के साथ 24. शुभ ग्रह के साथ 25. पाप ग्रह के साथ 26. नीचस्थ ग्रह के साथ 27. शुभदृष्ट 28. पाप दृष्ट 29. स्थानबली 30. दिग्बली 31. कालबली 32. चेष्टाबली 33. नैसर्गिकबली 34. क्रूराक्रान्त 35. बलहीन 36. मार्गी 37. वक्री 38. अवस्थानुसार 39. राशि में स्थिति के अनुसार तथा 40. भाव में स्थिति के अनुसार। योगफल: होराग्रंथों में अनेक प्रकार के योगों का वर्णन मिलता है। ‘‘सर्वेषां च फल स्वपाके’’ इस नियम के अनुसार सब योगों का फल उन योगकारक ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में मिलता है। ये योगफल विशेष फल हैं, क्योंकि जिस जातक की कुंडली में जो-जा योग होते हैं, उनका फल उसे उन-उन ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में मिलता है। होराग्रंथों में प्रतिपादित सभी योगों की संख्या और उनके भेदोपभेदों का कहीं भी एक स्थान पर संकलन नहीं हो पाया है। फिर भी अनेक प्रसिद्ध एवं उपलब्ध होराग्रन्थों के कोष का निर्माण करने के लिए किए गए एक संकलन में प्रमुख योगों की संख्या 832 मिलती है। इस संख्या में द्विग्रह आदि योग, अरिष्टयोग, अरिष्टभंग योग, आयु योग, षोडशवर्ग योग, संन्यास योग और स्त्री योग का समावेश नहीं है। 832 योगों से अलग योगों को निम्नलिखित 22 वर्गों में वर्गीकृत किया जा सकता है। 1. प्रमुख योग (लगभग 832) 2. द्विग्रह योग 3. त्रिग्रह योग 4. चतुर्ग्रह योग 5. पंचग्रह योग 6. षड्ग्रह योग 7. सप्तग्रह योग 8. अष्टग्रह योग 9. अरिष्ट योग 10. अरिष्टभंग योग 11. षोडशवर्ग योग 12. राजयोग 13. स्त्रीजातक योग 14. रोग योग 15. अल्प-मध्य-दीर्घायु योग 16. धन योग 17. दरिद्री-भिक्षु-रेका योग 18. व्यवसाय योग 19. कारकांश योग 20. स्वांश योग 21. पद योग एवं 22. उपपद योग। इन 22 प्रकार के योगों के ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में इनका योगफल मिलता है। स्वाभाविक फल: ग्रहों के आत्म भावानुरूपी फल को स्वाभाविक फल कहते हैं। यह फल मुख्य रूप से भाव संबंध एवं सधर्म पर आधारित होता है। दशाफल में सामान्य एवं योगफल की तुलना में यह स्वाभाविक फल निर्णायक होता है। ग्रहों का सामान्य फल एवं योगफल इन दोनों में बहुधा विरोधाभास लगा रहता है; जैसे कोई भी ग्रह उच्च राशि में होने पर नीच आदि के नवांश में तथा नीच राशि में होने पर उच्च आदि के नवांश में हो सकता है। इसी प्रकार कोई भी ग्रह केंद्र में स्थितिवशात् पंच महापुरुष योग बनाने के साथ रेका योग या मारक योग बना सकता है अथवा मालिका योग के साथ-साथ कालसर्प योग बना सकता है। संभवतः इन्हीं कारणों से लघुपाराशरी में ग्रहों के सामान्य एवं योगफल का विचार नहीं किया गया। इन सब विरोधाभासों को ध्यान में रखकर इससे बचने तथा फल में एकरूपता रखने के लिए ही लघुपाराशरी में विंशोत्तरी दशा के आधार पर ग्रहों के स्वाभाविक फल का प्रतिपादन किया गया है।3 ग्रहों के स्वाभाविक फल की यह प्रमुख विशेषता है कि इसमें परिवर्तन होता तो है किंतु वह सकारण होता है और उसकी तर्कपूर्ण व्याख्या की जा सकती है। ग्रहों के सामान्य एवं योगफल में विरोधाभास जितना सांयोगिक है, उनके स्वाभाविक फल में उतना सांयोगिक नहीं है। स्वाभाविक फल में विरोधाभास लगता है पर होता नहीं है- जैसे योगकारक ग्रहों से संबंध होने पर पापी ग्रह भी अपनी अंतर्दशा में योगज फल देते हैं।4 यहां प्रथम दृष्टि में लगता है कि योगकारक ग्रह की दशा में पापी ग्रह की अंतर्दशा में योगज फल मिलना एक विरोधाभास है, क्योंकि योगकारक एवं पापी ग्रह आपस में विरुद्ध धर्मी होते हैं। किंतु वास्तव में इन दोनों का पारस्परिक संबंध इस विरोधाभास को दूर करने में सक्षम है। कारण यह है कि कोई भी ग्रह अपना आत्मभावानुरूपी (स्वाभाविक) फल अपनी दशा और अपने संबंधी या सधर्मी ग्रह की अंतर्दशा में देता है।(5) इस नियम के अनुसार योगकारक ग्रह का योगज फल उसकी दशा में उसके संबंधी (पाप या शुभ) ग्रह की अंतर्दशा में मिलना नियम, तर्क एवं युक्तिसंगत है। इसलिए कहा जा सकता है कि स्वाभाविक फल में विरोधाभास लगता है पर होता नहीं है। ग्रहों का आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल: ग्रहों का आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल वह है जो ग्रहों के भाव-स्वामित्व, उनके आपसी संबंध एवं सधर्म आदि पर आधारित होता है। जैसे समय एवं परिस्थितियों के दबाव वश व्यक्ति की मानसिकता में कभी-कभी कुछ अंतर दिखलाई देने पर भी उसके स्वभाव में अंतर नहीं पड़ता, लगभग उसी प्रकार ग्रहों के स्वाभाविक फल में बहुधा कोई अंतर नहीं पड़ता। एक बात अवश्य है कि इस स्वाभाविक फल का निर्णय करने की प्रक्रिया में कभी-कभी कुछ अंतर दिखलाई देता है जैसे केन्द्राधिपत्य दोष; सदोष केन्द्र-त्रिकोणेश एवं पापी ग्रह, जिनका स्वाभाविक फल शुभ नहीं होता, त्रिकोणेश से संबंध होने पर परम शुभफलदायक हो जाते हैं6 अथवा मारक ग्रहों से त्रिषडायाधीश शनि का संबंध होने पर मारक ग्रह अमारक हो जाते हैं।7 वस्तुतः यह अंतर प्रक्रिया की गतिशीलता का अंग या प्रक्रिया की विविध अवस्थाओं का गुण है, क्योंकि निर्णय की समस्त प्रक्रिया से निर्णीत होकर निकलने के बाद ग्रह का स्वाभाविक फल बदलता नहीं है। यह अलग बात है कि स्वाभाविक मिश्रित फल में ही विरोधाभास की कल्पना कर उसमें विरोधाभास खोजने या प्रस्तुत करने का प्रयास किया जाए। वस्तुतः मिश्रित फल मिलाजुला होता है। अतः इसमें विरोधाभास लगना स्वाभाविक है, किंतु इसमें मिश्रण एक सुनिश्चित मात्रा में होता है और वह तर्क पर आधारित होता है न कि संयोग पर। इसलिए मिश्रित फल के मिश्रण तथा उसकी मात्रा का निर्धारण तर्क एवं नियम के द्वारा किया और बतलाया जा सकता है। स्वाभाविक फल के प्रमुख आधार: स्वाभाविक फल का निर्धारण छः आधारों पर किया जाता है- 1. स्वभाव 2. अन्यभाव 3. योगज 4. सधर्म 5. दृष्टि एवं 6. युति। इन छः आधारों पर नियम एवं उपनियमों की प्रक्रिया (अनुशासन) से गुजरने के बाद निर्णीत फल स्वाभाविक फल कहलाता है। इस फल का नाम स्वाभाविक इसलिए है कि इसके निर्णय के उक्त आधारों में सर्वप्रथम एवं सर्वप्रमुख आधार स्व-भाव है। यहां स्वभाव का अर्थ अपना भाव है न कि ग्रह की प्रकृति। इसलिए स्वभाव अर्थात अपने भाव आदि उक्त छः तत्वों पर आधारित फल को स्वाभाविक फल कहा जाता है। स्वभाव: ग्रह के अपने भाव को, जिसका वह स्वामी है, स्वभाव या अपना भाव कहते हैं। इस भाव का गुण-धर्म ग्रह के शुभाशुभ फल का निर्धारक होता है। जैसे सभी ग्रह त्रिकोण के स्वामी होने पर शुभ फल और त्रिषडाय के स्वामी होने पर पाप फलदायक होते हैं8 तथा भाग्य भाव से बारहवें भाव का स्वामी होने से अष्टमेश शुभफल नहीं देता।9 अन्य भाव: ग्रह के फल निर्णय का दूसरा आधार उसका दूसरा भाव है। जिस प्रकार एक भाव उसके शुभाशुभ फल का निर्णायक होता है उसी प्रकार दूसरा भाव भी निर्णायक होता है।10 जैसे यदि अष्टमेश लग्न का भी स्वामी हो तो शुभ फल देता है।11 द्विद्र्वादशे अपने अन्य भाव के गुण धर्मानुसार शुभाशुभफल देता है।12 नैसर्गिक क्रूर ग्रह केन्द्रेश के साथ-साथ त्रिकोणेश हो तो शुभफल होते हैं13 तथा केन्द्रेश एवं त्रिकोणेश यदि अष्टमेश एवं लग्नेश हों तो उनके संबंधमात्र से योगज फल नहीं मिलता। योगज: यदि केंद्र एवं त्रिकोण के स्वामियों में आपसी संबंध हो तो दोषयुक्त होने पर भी वे योगकारक हो जाते हैं15 और इस प्रकार दोष होने पर भी परम शुभफल मिलता है। इसलिए योगकारकता को स्वाभाविक फल का आधार माना जाता है। इसी प्रकार ‘केंद्र या त्रिकोण में स्थित राहु अथवा केतु का त्रिकोणेश या केन्द्रेश से संबंध उन्हें योगकारक बना देता है।16 सधर्मी: समान गुण-धर्म वाले ग्रह परस्पर सधर्मी होते हैं। जैसे त्रिकोणेश त्रिकोणेशों का, केन्द्रेश केन्द्रेशों का त्रिषडायाधीश त्रिषडायाधीशों का द्विद्र्वादशेश द्विद्र्वादशेशों का, कारक कारकों का तथा मारक मारकों का सधर्मी होता है। यह सधर्मी फल निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। अतः स्वाभाविक फल का एक आधार माना जाता है, जैसे केन्द्राधिपति अपनी दशा एवं त्रिकोणेश की भुक्ति में शुभफल देता हैं।17 राहु एवं केतु नवम या दशम में हों तो संबंध न होने पर भी पापग्रह की अंतर्दशा में मारते हैं।19 यहां संबंध न होते हुए भी सधर्मता के प्रभाववश फल मिल रहा है। दृष्टि: ग्रहों की परस्पर दृष्टि एक महत्वपूर्ण आधार है जो दृष्टि संबंध या अन्यतर दृष्टि संबंध द्वारा ग्रहों के फल में महत्वपूर्ण परिवर्तन कर देती है। अतः दृष्टि को दशाफल का प्रमुख आधार माना जाता है। उदाहरणार्थ यदि राहु व केतु केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हांे और वे यथाक्रमेण त्रिकोणेश या केन्द्रेश से युत या दृष्ट हों तो योगकारक होते हैं।20 वस्तुतः चतुर्विध संबंधों में दो संबंध -दृष्टिसंबंध एवं अन्यतर दृष्टि संबंध - दृष्टि पर आधारित होते हैं। अतः दृष्टि को दशाफल का आधार माना गया है। युति: ग्रहों की आपसी युति दशाफल का निर्णायक आधार है क्योंकि इसकी ग्रहों के शुभाशुभ फल का निर्धारण करने में निर्णायक भूमिका होती है। यथा द्वितीयेश एवं द्वादशेश अन्य ग्रहों के साहचर्य (युति) के अनुसार शुभाशुभ फल देते हैं।21 राहु एवं केतु जिस भावेश से युत हों, उसके अनुसार शुभाशुभ फल देते हैं।22 इसके अलावा चतुर्विध संबंधों में युति एक संबंध है जो ग्रहों के फल में कभी-कभी चमत्कार या स्वभाव फल अन्य भाव योगज सधर्म दृष्टि युति परिवर्तन पैदा करती है। अतः युति का दशाफल के निर्धारण का प्रमुख आधार माना गया है। स्वाभाविक फल के प्रमुख आधार छः या चार: इस प्रसंग में कुछ लोग कह सकते हैं कि यदि स्वभाव, अन्य भाव, संबंध एवं सधर्म इन चारों को स्वाभाविक फल का आधार मान लिया जाए तो योग, दृष्टि एवं युति का संबंध में अंतर्भाव होने के कारण उन सभी का इन चारों में समावेश हो जाएगा और स्वाभाविक फल के निर्धारण में कोई कठिनाई नहीं आएगी, अपितु आधारों की संख्या छः से घट कर चार हो जाने पर सुविधा रहेगी। किंतु योग, दृष्टि एवं युति के साथ संबंध को आधार मानने से लघुपाराशरी के कुछ प्रसंग अछूते रह जाते हैं। जैसे द्वितीयेश एवं द्वादशेश - अन्य ग्रहों के साहचर्य (युति) से शुभाशुभ फल देते हैं या राहु एवं केतु जिस भावेश से युत हों वैसा शुभाशुभ फल देते है23 आदि। योगकारता के प्रसंग को छोड़कर अन्यत्र युति एवं दृष्टि के फल से दो ग्रहों में से एक प्रभावित होता है जबकि युति दृष्टि दोनों संबंधों को प्रभावित करता है। अतः युति एवं दृष्टि का संबंध में अंतर्भाव करने से द्वितीयेश, द्वादशेश राहु एवं केतु के शुभाशुभ फल के निर्णय में कठिनाइयां आ सकती हैं। इसलिए स्वाभाविक फल के निर्धारण हेतु चार आधार न मान कर उक्त छः आधारों को ही मानना समीचीन होगा। उक्त आधारों की कसौटी का परिणाम: स्वाभाविक फल के उक्त छः आधारों की कसौटी पर कसकर निर्णय करने के परिणामस्वरूप ग्रह छः प्रकार का होता है- शुभ, योगकारक, पापी, मारक, सम एवं मिश्रित। शुभ ग्रह के दो भेद होते हैं - शुभ तथा अतिशुभ। पापी ग्रह के तीन भेद होते हैं पापी, केवल पापी, परम पापी। शुभ: जो ग्रह लग्नेश, पंचमेश या नवमेश हो किंतु त्रिषडायाधीश न हो, वह शुभफलदायक होने के कारण शुभ कहलाता है जैसे मेष लग्न में मंगल, सूर्य एवं गुरु। अतिशुभ: जो ग्रह केंद्र एवं त्रिकोण दोनों भावों का स्वामी हो, वह स्वतः कारक होने के कारण अतिशुभ माना जाता है। जैसे वृष एवं तुला लग्न में शनि, कर्क एवं सिंह लग्न में मंगल तथा मकर एवं कुंभ लग्न में शुक्र अति शुभ होता है। पापी: तृतीय, षष्ठ एवं एकादश भावों के स्वामी तथा मारकेश ग्रह पापी कहलाते हैं जैसे मेष लग्न में शनि एवं शुक्र। केवल पापी: जिस ग्रह की दोनों राशियां त्रिषडाय में हों या जिस ग्रह की एक राशि त्रिषडाय एवं दूसरी राशि द्विद्र्वादश में हो, वह ग्रह केवल पापी कहा जाता है। केवल पाप स्थान का स्वामी होने के कारण उसकी संज्ञा केवल पापी होती है जैसे मेष लग्न में बुध, वृष में चंद्रमा, मिथुन में सूर्य, तुला में गुरु, धनु में शनि तथा कुंभ लग्न में गुरु आदि। परम पापी: जिस ग्रह की एक राशि अष्टम में तथा दूसरी त्रिषडाय में हो, वह परम पापी कहलाता है जैसे वृष लग्न में गुरु, कन्या में मंगल, वृश्चिक में बुध एवं मीन लग्न में शुक्र। कारक: जिन दो केंद्रेशों एवं त्रिकोणेशों में परस्पर संबंध हो और उनमें से कोई अष्टम या एकादश भाव का स्वामी न हो, वे केन्द्रेश एवं त्रिकोणेश कारक कहलाते हैं। यदि केंद्र में स्थित राहु या केतु का त्रिकोणेश से संबंध हो अथवा त्रिकोण में स्थित राहु या केतु का केन्द्रेश से संबंध हो तो वे भी कारक कहलाते हैं। मारक: द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय एवं सप्तम में स्थित त्रिषडायाधीश और द्वितीयेश या सप्तमेश से युत त्रिषडायाधीश प्रमुख मारकेश होते हैं। इसके अलावा विशेष स्थिति में व्ययेश, व्ययेश से संबंधित ग्रह, अष्टमेश एवं केवल पापी ग्रह भी मारकेश हो जाते हैं। सम: जो ग्रह शुभ या अशुभ फल नहीं देते, वे सम कहलाते हैं। उदाहरणार्थ मिथुन एवं सिंह लग्नों में स्वराशिस्थ चंद्रमा, कर्क एवं कन्या में स्वराशिस्थ सूर्य और द्वितीय या द्वादश में स्थित अकेला राहु या केतु। मिश्रित: जिस ग्रह की एक राशि त्रिकोण में और दूसरी त्रिषडाय या अष्टम में हो, वह मिश्रित कहलाता है। क्योंकि वह दोनों भावों का मिलाजुला फल देता है, अतः उसकी संज्ञा मिश्रित होती है, जैसे मिथुन एवं कन्या लग्नों में शनि, कर्क एवं सिंह लग्नों में गुरु तथा मकर एवं कुंभ लग्नों में बुध। इस प्रकार उक्त छः आधारों की कसौटी पर जांच-परखकर देखने पर यह निर्णय होता है कि ग्रह शुभ, कारक, पापी, मारक, सम या मिश्रित है। इस अंतिम निर्णय के आधार पर उसका आत्मभावानुरूपी या स्वाभाविक फल निश्चित हो जाता है।

Monday 27 February 2017

कर्म और किस्मत

ज्योतिषीय दृष्टिकोण से अगर कुंडली में योग नहीं है तो फल मिलने की संभावना नहीं है, यानि आपकी किस्मत में वह फल नहीं है और मिल भी नहीं सकते। और अगर कुंडली में संभावना या योग है तो आपकी किस्मत में वह फल लिखे हैं और अनुकूल दशा-गोचर पर आपको वह फल प्राप्त होने चाहिये। परन्तु कई बार ऐसा भी देखा गया है कि अनुकूल फल या अपेक्षानुसार फलों की प्राप्ति नहीं हो पाती है। प्रश्न है, कि क्या किस्मत में लिखा यूँ ही बिना कुछ किये मिल सकता है, जैसे निम्न चित्र में व्यक्ति सपनों से ही सभी प्रकार के फलों के कामना कर रहा है? ज्योतिष शास्त्र का आधारभूत सिद्धांत है कि मनुष्य कर्म करने के लिये पैदा हुआ है और अपने कर्मों के अनुरूप वह जन्म-जन्मान्तरों में फल भोगता है। श्रीमद्भगवतगीता के अनुसार, सारा मनुष्य समुदाय प्रकृतिजन्य गुणों द्वारा उत्पन्न हुआ है और मनुष्य कर्म करने के लिये बाध्य है और कर्म करना और कर्म करते रहना मनुष्य का प्राकृतिक गुण है। मनुष्य का अधिकार केवल कर्म करने में ही है, फल मिलेंगे या नहीं यह तो उसके अधिकार क्षेत्र में ही नहीं आता। नियत कर्मों के बारे में के अनुसार कोई कर्म न करने से कर्म करना श्रेष्ठ है और बिना कर्म किये तो शरीर निर्वाह भी नहीं हो सकता है। इसीलिये, किस्मत में लिखा पाने की बात तो बहुत दूर की है। चलो यह तो साफ हो रहा है, कि हमें कर्म तो करना ही है क्योंकि कर्म करने के लिये हम बाध्य हैं। तो क्या हम उदासीन भाव से कर्म करें और इसे एक बंधन मानें, क्या इस भांति किये कर्मों से भी हमें किस्मत में लिखा प्राप्त हो सकता है? कर्म किस प्रकार करने हैं उसके बारे में भी बहुत कुछ लिखा गया है। ठळ टप्प्.14 के अनुसार सात्विक, राजसिक और तामसिक गुणों से बनी यह माया है जिसके वशीभूत सामान्य मनुष्य कर्म करता है और जो मनुष्य ईश्वर को समर्पित होकर कर्म करते हैं वह इस माया को पार कर लेते हैं, क्योंकि उन्हें ईश्वर की स्वीकृति एवं आश्रय प्राप्त हो जाता है। प्राचीन समय में किसी कार्य को करने से पूर्व यज्ञ आदि करने का प्रचलन था, उसका भी तात्पर्य कार्य सिद्धि के लिये ईश्वर की स्वीकृति या आशीर्वाद लेना ही था। किस्मत और कर्म के कनेक्शन में कुछ अधिक विस्तार से समझाया है। इसमें सभी कर्मों की सिद्धि या फल की प्राप्ति के लिये पाँच कारण बताये गये हैं। कर्ता होना चाहिये, अर्थात पात्रता होनी चाहिये जो त्रिगुणों के आधार पर बनती है और उसी से आप अपने लक्ष्य के बारे में सोच पाते हैं और उसे निर्धारित कर पाते हैं। हर व्यक्ति का लक्ष्य अलग होता है क्योंकि लक्ष्य निर्धारित करने की शक्ति का मूल आधार है पात्रता। इन्द्रियाँ से तात्पर्य है विविध योजनाओं का होना और उनको कार्यान्वित करना। सभी ज्ञानेन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, मन, अहंकार और बुद्धि का जिस प्रकार संतुलित प्रयोग सभी सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति करा सकता है, उसी प्रकार योजनाओं को भी कार्यान्वित करने से मनुष्य अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होता है। इसे एक साधना की भांति भी समझ सकते हैं। विविध चेष्टाओं से तात्पर्य है कि निरंतर मेहनत करना और विपरीत परिस्थितियों में भी मेहनत करते रहना। पांचवें कारण पर मनुष्य का वश नहीं है और पांचवें कारण का अस्तित्व उससे पूर्व के चार कारणों के बाद ही आता है। इसका अर्थ यह है, कि अगर प्रथम चार कारण नहीं हैं तो पंचम कारण का तो सवाल ही नहीं उठ सकता चाहे आपकी किस्मत में कुछ भी लिखा हो, किस्मत में लिखा प्राप्त करने के लिये प्रथम चार कारण तो होने ही चाहिये जो कि मनुष्य के बस में ही हैं और मनुष्य को अपने कर्मों को एक सीमा के अन्दर चयन करने की स्वतंत्रता भी है। हालांकि, इसमें कोई संदेह नहीं है कि किस्मत में लिखे अनुसार ही मनुष्य के समक्ष इस प्रकार का वातावरण निर्मित हो ही जाता है, जिससे वह अपने प्रारब्ध में लिखे फलों को पाने और कर्म करने के लिये प्रवृत्त हो सके। निष्कर्ष यह है कि कर्म और किस्मत का एक गहरा संबंध है और किस्मत में लिखे पूर्ण फल तभी मिल सकते हंै जब ठळ ग्टप्प्प्.14 के पाँचों कारण उपलब्ध हों जिसमें से प्रथम चार मनुष्य के अधीन और पंचम ईश्वर के अधीन है।

कुंडली में शनि का गोचर फल

कुंडली में यदि शनि ग्रह बलशाली हो तो जातक को आवासीय सुख प्रदान करता है। दुर्बल शनि शारीरिक दुर्बलता-शिथिलता, निर्धनता, प्रमाद एवं व्याधि प्रदान करता है शनि ग्रह किसी भी एक राशि में लगभग 2 वर्ष 6 माह विचरण करते हुये लगभग 30 वर्ष में 12 राशियों का भोग करते हैं। शनि ग्रह के इस राशि भ्रमण को ही गोचर कहते हैं। शनि ग्रह का किसी एक राशि में भ्रमण करने से शुभ या अशुभ फल भी 2 वर्ष 6 माह तक ही रहता है। शनि ग्रह के चंद्रमा की राशि (जिस राशि में चंद्रमा स्थित हो) से भिन्न-भिन्न भाव में भ्रमण करने से किस-किस प्रकार का कर्मफल प्राप्त होता है
1. शनि जब चंद्र राशि में होता है:- उस समय जातक की बौद्धिक क्षमता क्षीण हो जाती है। दैहिक एवं आंतरिक व्यथायें प्रखर होने लगती है। अत्यंत आलस्य रहता है। विवाहित पुरूष को धर्मपत्नी तथा विवाहित स्त्री को पति एवं आत्मीय जनों से संघर्ष रहता है। मित्रों से दुख प्राप्त होता है, गृह-सुख विनष्ट होता है। अनपढ़ एवं घातक वस्तुओं से क्षति संभव है, मान-प्रतिष्ठा धूल-धूसरित होती है, प्रवास बहुत होते हैं। असफलतायें भयभीत करती हैं, दरिद्रता का आक्रमण होता है, सत्ता का प्रकोप होता है, व्याधियां पीड़ित करती हैं।
2. चंद्र राशि से शनि जब द्वितीय स्थान में होता है: स्वस्थान का परित्याग होता है, दारूण दुख रहता है, बिना प्रयोजन विवाद व संघर्ष होते हैं। निकटतम संबंधियों से अवरोध उत्पन्न होता है। विवाहित पुरूष की धर्मपत्नी तथा विवाहित स्त्री के पति को मारक पीड़ा सहन करनी पड़ती है। दीर्घ काल का दूर प्रवास संभव होता हैं, धनागम, सुखागम बाधित होते हैं आरंभ किये गये कार्य अधूरे रहते हैं।
3. चंद्र राशि से शनि जब तृतीय स्थान में होता है: भूमि का पर्याप्त लाभ होता है, व्यक्ति स्वस्थ, आनंद व संतुष्ट रहता है। एक अनिर्वचनीय जागृति रहती है, धनागम होता है, धन-धान्य से समृद्धि होती है। आजीविका के साधन प्राप्त होते हैं। समस्त कार्य सहजता से संपन्न होते हैं। व्यक्ति शत्रु विजयी सिद्ध होता है, अनुचर सेवा करते हैं, आचरण में कुत्सित प्रवृत्तियों की अधिकता होती है। पदाधिकार प्राप्त होते हैं।
4. चंद्र राशि से शनि जब चतुर्थ स्थान में होता है:- बहुमुखी अपमान होता है। समाज एवं सत्ता के कोप से साक्षात्कार होता है, आर्थिक कमी शिखर पर होती है। व्यक्ति की प्रवृत्तियां स्वतः धूर्ततायुक्त एवं पतित हो जाती है, विरोधियों एवं व्याधियों का आक्रमण पीड़ादायक होता है। नौकरी में स्थान परिवर्तन अथवा परित्याग संभव होता है, यात्राएं कष्टप्रद होती हैं। आत्मीय जनों से पृथकता होती है, पत्नी एवं बंधु वर्ग विपत्ति में रहते हैं।
5. चंद्र राशि से शनि जब पंचम स्थान में होता है: मनुष्य की रूचि कुत्सित नारी/ नारियों में होती है। उनकी कुसंगति विवेक का हरण करती है, पति का धर्मपत्नी और पत्नी का पति से प्रबल तनाव रहता है, आर्थिक स्थिति चिंताजनक होती है, व्यक्ति सुविचारित कार्यपद्धति का अनुसरण न कर पाने के कारण प्रत्येक कार्य में असफल होता है। व्यवसाय में अवरोध उत्पन्न होते हैं, पत्नी वायु जनित विकारों से त्रस्त रहती है। संतति की क्षति होती है, जातक जन समुदाय को वंचित करके उसके धन का हरण करता है। सुखों में न्यूनता उपस्थित होती है शांति दुर्लभ हो जाती है, परिवारजनों से न्यायिक विवाद होते हैं।
6. चंद्र राशि से शनि जब षष्ठ स्थान में होता है- शत्रु परास्त होते हैं, आरोग्य की प्राप्ति होती है, अनेकानेक उत्तम भोग के साधन उपलब्ध होते हैं, संपत्ति, धान्य एवं आनंद का विस्तार होता है, भूमि प्राप्त होती है, आवासीय सुख प्राप्त होता है। स्त्री वर्ग से लाभ होता है।
7. चंद्र राशि से शनि जब सप्तम स्थान में होता है- कष्टदायक यात्राएं होती हैं, दीर्घकाल तक दूर प्रवास व संपत्ति का विनाश होता है, व्यक्ति आंतरिक रूप से संत्रस्त रहता है, गुप्त रोगों का आक्रमण होता है, आजीविका प्रभावित होती है, अपमानजनक घटनायें होती हैं, अप्रिय घटनायें अधिक होती हैं, पत्नी रोगी रहती है, किसी कार्य में स्थायित्व नहीं रह जाता।
8. चंद्र राशि से शनि जब अष्टम स्थान में होता है- सत्ता से दूरी रहती है, पत्नी/पति के सुख में कमी संभव है, निन्दित कृत्यों व व्यक्तियों के कारण संपत्ति व सम्मान नष्ट होता है, स्थायी संपत्ति बाधित होती है, कार्यों में अवरोध उपस्थित होते हैं, पुत्र सुख की क्षति होती है, दिनचर्या अव्यवस्थित रहती है। व्याधियां पीड़ित करती हैं। व्यक्ति पर असंतोष का आक्रमण होता है।
9. चंद्र राशि में शनि जब नवम् स्थान में होता है - अनुचर (सेवक) अवज्ञा करते हैं, धनागम में कमी रहती है। बिना किसी प्रयोजन के यात्राएं होती हैं, विचारधारा के प्रति विद्रोह उमड़ता है, क्लेश व शत्रु प्रबल होते हैं, रूग्णता दुखी करती है, मिथ्याप्रवाह एवं पराधीनता का भय रहता है, बंधु वर्ग विरूद्ध हो जाता है, उपलब्धियां नगण्य हो जाती है, पापवृत्ति प्रबल रहती है, पुत्र व पति या पत्नी भी यथोचित सुख नहीं देते।
10. चंद्र राशि से शनि जब दशम स्थान में होता है: संपत्ति नष्ट होकर अर्थ का अभाव रहता है। आजीविका अथवा परिश्रम में अनेक उठा-पटक होते हैं। जन समुदाय में वैचारिक मतभेद होता है। पति-पत्नी के बीच गंभीर मतभेद उत्पन्न होते हैं, हृदय व्याधि से पीड़ा हो सकती है, मनुष्य नीच कर्मों में प्रवृत्त होता है, चित्तवृत्ति अव्यवस्थित रहती है, असफलताओं की अधिकता रहती है।
11. चंद्र राशि से शनि जब दशम स्थान में होता है: संपत्ति नष्ट होकर अर्थ का अभाव रहता है। आजीविका अथवा परिश्रम में अनेक उठा-पटक होते हैं। जन समुदाय में वैचारिक मतभेद होता है। पति-पत्नी में गंभीर मतभेद उत्पन्न होते हैं, हृदय व्याधि से पीड़ा हो सकती है, मनुष्य नीच कर्मों में प्रवृत्त होता है, चित्तवृत्ति अव्यवस्थित रहती है, असफलताओं की अधिकता रहती है।
12. चंद्र राशि से शनि जब एकादश स्थान में होता है: बहुआयामी आनंद की प्राप्ति होती है। लंबे समय के रोग से मुक्ति प्राप्त होती है, अनुचर आज्ञाकारी व परिश्रमी रहते हैं, पद व अधिकार में वृद्धि होती है, नारी वर्ग से प्रचुर संपत्ति प्राप्त होती है, पत्थर, सीमेंट, चर्म, वस्त्र एवं मशीनों से धनागम होता है, स्त्री तथा संतान से सुख प्राप्त होता है।
13. चंद्र राशि से शनि जब द्वादश स्थान में होता है: विघ्नों तथा कष्टों का अंबार लगा रहता है, धन का विनाश होता है। संतति सुख हेतु यह भ्रमण मारक हो सकता है अथवा संतान को मृत्यु तुल्य कष्ट होते हैं। श्रेष्ठजनों से विवाद होता है, शरीर गंभीर समस्याओं से ग्रस्त रहता है, सौभाग्य साथ नहीं देता, व्यय अधिक होता है, जिस कारण मन उद्विग्न रहने से सुख नष्ट हो जाते हैं।

Sunday 26 February 2017

मन के हारे हार है मन के जीते जीत !!!

मनुष्य की समस्त जीवन प्रक्रिया का संचालन उसके मस्तिष्क द्वारा होता है। मन का सीधा संबंध मस्तिष्क से है। मन में हम जिस प्रकार के विचार धारण करते हैं हमारा शरीर उन्हीं विचारों के अनुरूप ढल जाता है। हमारा मन-मस्तिष्क यदि निराशा व अवसादों से घिरा हुआ है तब हमारा शरीर भी उसी के अनुरूप शिथिल पड़ जाता है। हमारी समस्त चैतन्यता विलीन हो जाती है ।
परंतु दूसरी ओर यदि हम आशावादी हैं और हमारे मन में कुछ पाने व जानने की तीव्र इच्छा हो तथा हम सदैव भविष्य की ओर देखते हैं तो हम इन सकारात्मक विचारों के अनुरूप प्रगति की ओर बढ़ते चले जाते हैं। मन के द्वारा संचालित कर्म ही प्रधान और श्रेष्ठ होता है। मन के द्वारा जब कार्य संचालित होता है तब सफलताओं के नित-प्रतिदिन नए आयाम खुलते चले जाते हैं। मनुष्य अपनी संपूर्ण मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं का अपने कार्यों में उपयोग तभी कर सकता है जब उसके कार्य मन से किए गए हों। मनुष्य के मन, मस्तिष्क और शरीर पर मौसम, ग्रह और नक्षत्रों का प्रभाव रहता है। कुछ लोग इन प्रभाव से बच जाते हैं तो कुछ इनकी चपेट में आ जाते हैं। बचने वाले लोगों की सुदृढ़ मानसिक स्थिति और प्रतिरोधक क्षमता का योगदान रहता है। इस प्रकार स्वास्थ्य एक प्रकार से मनःस्थिति पर निर्भर करता है। स्कीन से जुड़ी ज्यादातर बीमारियों का कारण मन के कमजोर होने के कारण इरीटेट होने से होता है वहीं कैंसर जैसी बीमारियों का कारण भी मन के कमजोर होने से किए गए व्यसन के द्वारा होता है। अतः जीवन में स्वास्थ्य प्राप्ति हेतु मन को सुदृढ़ करना आवश्यक है। अतः यदि किसी का मन कमजोर हो अर्थात् तीसरे स्थान का स्वामी छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए तो कमजोर मन के कारण व्यक्ति व्यसन का शिकार होता है वहीं यदि इस स्थान पर शनि हो अथवा शनि की दृष्टि हो तो कमजोर मानसिकता के कारण स्कीन में जलन या खुजली जैसी बीमारियाॅ होती है। अतः मन को मजबूत कर बीमारियों से बचा जा सकता है। इसके लिए ज्योतिषीय उपाय करना चाहिए जिसमें मन के तीसरे स्थान के कारक ग्रह की शांति, शनि एवं बुध के मंत्रों का जाप एवं काली चीजों का दान करना चाहिए।

क्यों हो जाता है नवजात शिशु को पीलिया - जाने ज्योतिषीय कारण



हिंदू दर्शन के अनुसार, मनुष्य के जन्म के पीछे उस वंश का अंश होता है अतः यदि किसी बच्चे में जन्म से या तत्काल बाद से कोई गंभीर बीमारी दिखाई दे या स्वास्थ्यगत कष्ट हो तो दिखाए कि उसकी कुंडली में प्रमुख ग्रह कहीं राहु से पापाक्रांत तो नहीं हैं। क्योंकि गंभीर बीमारी की स्थिति कुंडली में स्पष्ट दिखाई देती है तथा उस बीमारी की शुरूआत का समय भी कुंडली में गोचर होता है। क्योंकि राहु अनुवाशिंक दोष का वाहक होता है अतः प्रमुख ग्रह एवं उस स्थान का ग्रह राहु से आक्रांत हो तो जिस स्थान तथा ग्रह को राहु आक्रांत करता है, उस स्थान तथा ग्रह से संबंधित बीमारी होती है। नवजात बच्चे को ज्यादातर पीलिया दिखाई देता है, यदि पीलिया ज्यादा परेशानी का सबब बने तो देखें कि कहीं बच्चे के लग्न, दूसरे, तीसरे, एकादश स्थान पर शनि और उसपर क्रूर ग्रह की दृष्टि तो नहीं है। इसके अलावा भी बच्चे को यदि कोई बीमारी दिखाई दे तो चिकित्सकीय सलाह के साथ कुंडली का परीक्षण कराया जाना चाहिए। साथ ही संबंधित ग्रह की शांति के साथ पितृशांति भी कराया जाना विशेषलाभकारी होता है।

Saturday 25 February 2017

वास्तु अनुसार बच्चों का कमरा

माता-पिता की यह उत्कट अभिलाषा होती है कि बच्चों को हर प्रकार की सुख-सुविधा उपलब्ध कराएं, अच्छी से अच्छी शिक्षा प्रदान करें, खेलकूद-मनोरंजन की समुचित व्यवस्था करें ताकि बच्चों का समग्र विकास हो सके। बच्चों का कमरा उनके लिए मनोरंजन, मस्ती और उल्लास का केंद्र होता है। उनका रूम जितना अधिक वास्तु सम्मत होगा उतना ही अधिक वे ऊर्जावान होंगे तथा अपनी क्रिएटिविटी का सकारात्मक उपयोग अपनी पढ़ाई-लिखाई, खेलकूद, अनुशासन आदि जीवन के हर क्षेत्र में बखूबी कर पाएंगे। जीवन में सफलता के चरमोत्कर्ष पर पहुंचने के लिए आॅल राउंडर बनना जरूरी है और यह तभी संभव है जब उनका रूम पूर्णरूपेण वास्तु सम्मत हो जिससे कि अपने रूम में मनोरंजन, मस्ती एवं उल्लास के साथ-साथ आराम एवं सुखद नींद की भी अनुभूति कर सकें। वास्तु सम्मत रूम का तात्पर्य है सभी सामानों एवं अवयवों जैसे स्टडी टेबल, बेड, बाथरूम आदि का समंजन उचित स्थान एवं दिशा में करना। सभी सामानों का उचित स्थानों पर प्लेसमेंट बच्चों के मन में सकारात्मक सोच, ऊर्जा एवं स्फूर्ति विकसित करता है जिससे वे हंसमुख रहकर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित होते हैं। आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, वैश्वीकरण आदि के कारण संकुचित होते भूखंड में वास्तु का ध्यान लोग नहीं रख पाते। यही कारण है कि बच्चों के व्यवहार में अनुशासन हीनता, उग्रता, हिंसात्मक विचारों की अभिवृद्धि होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण वास्तु नियमों की अवहेलना है। अतः यदि आप अपने बच्चों का बेहतर भविष्य चाहते हैं तथा यदि आप चाहते हैं कि वे आज्ञाकारी हों, विकासशील हों तथा उनकी सोच सकारात्मक हो तो निम्नांकित निर्देशानुसार उनके कक्ष की व्यवस्था करें: चिल्ड्रेन्स रूम के लिए उपयुक्त दिशाएं बच्चों का कमरा पश्चिम दिशा में सर्वश्रेष्ठ है किंतु विकल्प के तौर पर उत्तर-पश्चिम भी श्रेष्ठ है। अतः चिल्ड्रेन्स रूम के लिए इन्हीं दो दिशाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। रखें कि सोते वक्त उनका सिर दक्षिण दिशा में हो। यदि दक्षिण में सिर रखना संभव न हो तो पूर्व दिशा में भी सिर रखकर सोना उपयुक्त है। स्टडी एरिया एवं स्टडी टेबल स्टडी के लिए बच्चों के कमरों में उत्तर-पूर्व का कोना यथेष्ट है। स्टडी एरिया बिल्कुल साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त होना चाहिए। इससे बच्चों की पढ़ाई में रूचि बढ़ती है तथा उनका संकेन्द्रण भी बढ़ता है। साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त स्टडी एरिया होने से बच्चों के दिमाग में नये-नये विचारों का उदय होता है तथा उनकी रचनात्मक गतिविधियां बढ़ती हैं। स्टडी टेबल को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि पढ़ते समय बच्चे का मुंह उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। पूर्व दिशा को सबसे शुभ दिशा माना जाता है क्योंकि यह बच्चों को ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। स्टडी टेबल को दीवार से बिल्कुल सटाकर न रखें। दीवार एवं टेबल के बीच कम से कम 3’’ की दूरी आवश्यक है। स्टडी टेबल रेगुलर शेप का अर्थात् आयताकार अथवा वर्गाकार ही होना चाहिए। गोल, अंडाकार अथवा कोई अन्य आकार का स्टडी टेबल न रखें। स्टडी टेबल के ऊपर ऐसा ग्लास न रखें जो बच्चे का प्रतिबिंब बनाए। स्टडी टेबल का साइज न अधिक बड़ा और न ही अधिक छोटा होना चाहिए। यदि स्टडी टेबल पूर्वाभिमुख है तो लाइट अथवा लैंप दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर रखें और यदि स्टडी टेबल उत्तराभिमुख है तो उत्तर-पश्चिम में लाइट अथवा लैंप रखना उपयुक्त है। टी. वी., कंप्यूटर/लैपटाॅप बच्चों के कमरों में टी. वी., कंप्यूटर/ लैपटाॅप आदि न रखें। इससे बच्चों का ध्यान भटकता है तथा वे पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते। किंतु स्थानों पर प्लेसमेंट बच्चों के मन में सकारात्मक सोच, ऊर्जा एवं स्फूर्ति विकसित करता है जिससे वे हंसमुख रहकर अधिक मेहनत करने के लिए प्रेरित होते हैं। आज के आधुनिक परिप्रेक्ष्य में बढ़ती जनसंख्या, शहरीकरण, वैश्वीकरण आदि के कारण संकुचित होते भूखंड में वास्तु का ध्यान लोग नहीं रख पाते। यही कारण है कि बच्चों के व्यवहार में अनुशासन हीनता, उग्रता, हिंसात्मक विचारों की अभिवृद्धि होती जा रही है। इसका एक प्रमुख कारण वास्तु नियमों की अवहेलना है। अतः यदि आप अपने बच्चों का बेहतर भविष्य चाहते हैं तथा यदि आप चाहते हैं कि वे आज्ञाकारी हों, विकासशील हों तथा उनकी सोच सकारात्मक हो तो निम्नांकित निर्देशानुसार उनके कक्ष की व्यवस्था करें: चिल्ड्रेन्स रूम के लिए उपयुक्त दिशाएं बच्चों का कमरा पश्चिम दिशा में सर्वश्रेष्ठ है किंतु विकल्प के तौर पर उत्तर-पश्चिम भी श्रेष्ठ है। अतः चिल्ड्रेन्स रूम के लिए इन्हीं दो दिशाओं को प्राथमिकता देनी चाहिए। रखें कि सोते वक्त उनका सिर दक्षिण दिशा में हो। यदि दक्षिण में सिर रखना संभव न हो तो पूर्व दिशा में भी सिर रखकर सोना उपयुक्त है। स्टडी एरिया बिल्कुल साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त होना चाहिए। इससे बच्चों की पढ़ाई में रूचि बढ़ती है तथा उनका संकेन्द्रण भी बढ़ता है। साफ-सुथरा एवं कबाड़ मुक्त स्टडी एरिया होने से बच्चों के दिमाग में नये-नये विचारों का उदय होता है तथा उनकी रचनात्मक गतिविधियां बढ़ती हैं। स्टडी टेबल को इस प्रकार व्यवस्थित करें कि पढ़ते समय बच्चे का मुंह उत्तर, पूर्व अथवा उत्तर-पूर्व दिशा की ओर रहे। पूर्व दिशा को सबसे शुभ दिशा माना जाता है क्योंकि यह बच्चों को ध्यान केन्द्रित करने में सहायक होता है। स्टडी टेबल को दीवार से बिल्कुल सटाकर न रखें। दीवार एवं टेबल के बीच कम से कम 3’’ की दूरी आवश्यक है। स्टडी टेबल रेगुलर शेप का अर्थात् आयताकार अथवा वर्गाकार ही होना चाहिए। गोल, अंडाकार अथवा कोई अन्य आकार का स्टडी टेबल न रखें। स्टडी टेबल के ऊपर ऐसा ग्लास न रखें जो बच्चे का प्रतिबिंब बनाए। स्टडी टेबल का साइज न अधिक बड़ा और न ही अधिक छोटा होना चाहिए। यदि स्टडी टेबल पूर्वाभिमुख है तो लाइट अथवा लैंप दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर रखें और यदि स्टडी टेबल उत्तराभिमुख है तो उत्तर-पश्चिम में लाइट अथवा लैंप रखना उपयुक्त है। टी. वी., कंप्यूटर/लैपटाॅप बच्चों के कमरों में टी. वी., कंप्यूटर/ लैपटाॅप आदि न रखें। इससे बच्चों का ध्यान भटकता है तथा वे पढ़ाई पर ध्यान केंद्रित नहीं कर पाते।

कुंडली में पंचम,नवम एवं द्वादश भाव में संबंध....

हिंदू ज्योतिष कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। यह तथ्य प्रायः सभी ज्योतिषी तथा ज्ञानीजन अच्छी तरह से जानते हैं। मनुष्य जन्म लेते ही पूर्व जन्म के परिणामों को भोगने लगता है। जैसे फल फूल बिना किसी प्रेरणा के अपने आप बढ़ते हैं उसी तरह पूर्वजन्म के हमारे कर्मफल हमें मिलते रहते हैं। हर मनुष्य का जीवन पूर्वजन्म के कर्मों के भोग की कहानी है, इनसे कोई भी बच नहीं सकता। जन्म लेते ही हमारे कर्म हमें उसी तरह से ढूंढने लगते हैं, जैसे बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूढ़ निकालता है। पिछले कर्म किस तरह से हमारी जन्मकालीन दशाओं से जुड़ जाते हैं, यह किसी भी व्यक्ति की कुंडली में आसानी से देखा जा सकता है। कुंडली के प्रथम, पंचम और नवम भाव हमारे पूर्वजन्म, वर्तमान तथा भविष्य के सूचक हैं। इसलिए जन्म के समय हमें मिलने वाली महादशा/ अंतर्दशा/ प्रत्यंतर्दशा का संबंध इन तीन भावों में से किसी एक या दो के साथ अवश्य जुड़ा होता है। यह भावों का संबंध जन्म दशा के किसी भी रूप से होता है - चाहे वह महादशा हो या अंतर्दशा हो अथवा प्रत्यंतर्दशा। दशा तथा भावों के संबंध के इस रहस्य को जानने की कोशिश करते हैं पंचम भाव से। पंचम भाव, पूर्व जन्म को दर्शाता है। यही भाव हमारे धर्म, विद्या, बुद्धि तथा ब्रह्म ज्ञान का भी है। नवम भाव, पंचम से पंचम है अतः यह भी पूर्व जन्म का धर्म स्थान और इस जन्म में हमारा भाग्य स्थान है। इस तरह से पिछले जन्म का धर्म तथा इस जन्म का भाग्य दोनों गहरे रूप से नवम भाव से जुड़ जाते हैं। यही भाव हमें आत्मा के विकास तथा अगले जन्म की तैयारी को भी दर्शाता है। जिस कुंडली में लग्न, पंचम तथा नवम भाव अच्छे अर्थात मजबूत होते हैं वह अच्छी होती है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के अनुसार ”धर्म की सदा विजय होती है“। द्वादश भाव हमारी कुंडली का व्यय भाव है। अतः यह लग्न का भी व्यय है। यही मोक्ष स्थान है। यही भाव पंचम से अष्टम होने के कारण पूर्वजन्म का मृत्यु भाव भी है। मरणोपरांत गति का विचार भी फलदीपिका के अनुसार इसी भाव से किया जाता है। दशाओं के रूप में कालचक्र निर्बाध गति से चलता रहता है। ”पद्मपुराण“ के अनुसार ”जो भी कर्म मानव ने अपने पिछले जन्मों में किए होते हैं उसका परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा“। कोई भी ग्रह कभी खराब नहीं होता, ये हमारे पूर्व जन्म के बुरे कर्म होते हैं जिनका दंड हमें उस ग्रह की स्थिति, युति या दशा के अनुसार मिलता है। इसलिए हमारे सभी धर्मों ने जन्म मरण के जंजाल से मुक्ति की कामना की है। जन्म के समय पंचम, नवम और द्वादश भावों की दशाओं का मिलना निश्चित होता है।

Thursday 23 February 2017

विवाह के लिए सार्थक समय

भारतीय संस्कृति में विवाह को एक ऐसा पवित्र संस्कार माना गया है जो कि समाज में नैतिकता और मानव जीवन में निरंतरता बनाये रखने के लिए आवश्यक है। प्राचीन काल में विवाह की प्राथमिकताएं कुछ हट कर थी। उपरोक्त के अतिरिक्त कन्याओं का अल्प आयु में विवाह विलासी और कामुक राजाओं, सामंतों तथा अंग्रेज शासकों की कुदृष्टि से बचाने के लिए किये जाते थे, परंतु आधुनिक समय में ये समस्याएं नहीं हैं। अतः वर्तमान परिस्थितियों में विवाह की आयु को तीन खंडों में 1. शीघ्र विवाह (18 से 23 वर्ष तक), 2. उचित सामान्य विवाह (24 से 28 वर्ष तक), 3. देरी से विवाह (29 वर्ष के पश्चात) विभाजित करके विचार करेंगे। प्राचीन ग्रंथों में जैसे बृहत् पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 19, श्लोक 22 में जो सूत्र दिया है उसके अनुसार विवाह 5वें या 9वें वर्ष में होगा तो इसे आधुनिक समय की परिस्थितियों में परिवर्तित करके शीघ्र विवाह की आयु (18 से 23 वर्ष तक) वाले फलकथन के साथ ही अध्याय में 22 से 34वें सूत्र तक जो भी वर्णित किया गया है उसमें सप्तम भाव, सप्तमेश तथा कारक ग्रह शुक्र आदि के ऊपर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण विवाह में देरी आदि को नहीं लिया गया है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 19 जमाभाव फलाअध्याय के श्लोक या सूत्र संख्या 22 से 34 में विवाह के समग्र ज्ञान के लिए सूत्र/योग दिये गये हैं जो कि निम्न हैं: सप्तमेश शुभग्रह की राशि में बैठा हो और शुक्र अपने उच्च राशि का या स्वक्षेत्र में स्थित हो तो उस जातक का प्रायः 5वें या 9वें वर्ष में विवाह योग आता है (श्लोक 22)। सप्तम भाव में सूर्य हो और सप्तमेश शुक्र से युत हो तो प्रायः 7 या 11वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 23)। द्वितीय भाव में शुक्र हो और सप्तमेश एकादश स्थान में हो तो 10 या 16वें वर्ष में प्रायः जातक का विवाह योग आता है (श्लोक 24)। लग्न या केंद्र में शुक्र हो और लग्नेश शनि की राशि में स्थित हो तो 11वें वर्ष में जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 25)। लग्न से केंद्र में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम भाव में शनि हो तो प्रायः 19 या 22वें वर्ष में उस जातक का विवाह योग होता है। (श्लोक 26)। चंद्रमा से सप्तम में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम में शनि हो तो 18वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 27)। धनेश लाभ स्थान में हो और लग्नेश दशम भाव में स्थित हो तो 15वें वर्ष में जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 28)। धनेश लाभ स्थान में और लाभेश धन स्थान (राशि) में स्थित हो तो जातक का 13वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 29)। अष्टम भाव के सप्तम भाव में शुक्र हो और अष्टमेश मंगल के साथ हो तो जातक 22 या 27वें वर्ष में विवाह योग प्राप्त करता है (श्लोक 30)। लग्नाधिपति सप्तमेश के नवमांश में हो और सप्तमेश द्वादश भाव में स्थित हो तो उस जातक का विवाह 23 या 26वें वर्ष में होता है (श्लोक 31)। अष्टमेश लग्न के नवमांश में होकर सप्तम भाव में शुक्र के साथ बैठा हो तो 25 या 33वें वर्ष में उस जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 32)। भाग्य भाव से नवम में शुक्र हो या उन दोनों स्थानों में से किसी एक स्थान में राहु बैठा हो तो 31 या 33वें वर्ष में स्त्री लाभ होता है (श्लोक 33)। नवम भाव से सप्तम भाव में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम में सप्तमेश स्थित हो तो जातक 27 या 30वें वर्ष में विवाह योग प्राप्त करता है (श्लोक 34)। उपरोक्त श्लोकों का यदि काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली को ध्यान में रखकर विश्लेषण किया जाये तो संक्षेप में निम्न तथ्य ज्ञात होंगे कि: सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश एवं कारक ग्रह शुक्र/गुरु का संबंध शुभ ग्रहों, राशियों एवं भावों से हो तो विवाह शीघ्र ही कम आयु में संभव हो पाता है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश तथा कारक ग्रह शुक्र/गुरु पर शनि की दृष्टि, युति या शनि की राशियों (मकर/कुंभ) का प्रभाव हो तो विवाह में देरी होती है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश एवं कारक ग्रह शुक्र/गुरु पर अशुभ भावों के स्वामियों या क्रूर या वक्री ग्रहों या राहु/केतु का प्रभाव हो तो विवाह में ज्यादा देरी होती है या विवाह ही नहीं हो पाता। विवाह के योगों का अध्ययन करने के पश्चात यह देखना होगा कि जातक के विवाह के लिए उचित दशा-अंतर्दशा कौन सी होगी साथ ही विवाह समय गोचर भी स्वीकृति दे रहा है अथवा नहीं क्योंकि, योग दशा तथा गोचर तीनों की सम्मिलित स्वीकृति ही विवाह के संस्कार करायेगी।

चतुर्थ भाव में शनि एवं उसके ज्योतिष्य फल

ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह के अनेक नाम हैं - सूर्य पुत्र, अस्ति, शनैश्चर इत्यादि। अन्य ग्रहों की अपेक्षा जो ग्रह धीरे-धीरे चलता हुआ दिखाई देता है उसे ही हमारे ऋषि मुनियों ने ‘‘शनैश्चर ‘‘अथवा ’शनि’ कहा है। पाश्चात्य ज्योतिष में इसे ‘‘सैटर्न’’ कहते हैं। जनसाधारण में इसे सर्वाधिक आतंकवादी ग्रह के रूप में जाना जाता है। ऐसी धारणा है कि शनि की महादशा, ढैया अथवा साढ़ेसाती कष्टकारी या दुःखदायी ही होती है। भारतीय ज्योतिष में शनि को न्यायाधीश माना गया है। किंतु ‘शनि’ एक ऐसा ग्रह है जो विपत्तियाँ, संघर्षों और कष्टों की अग्नि में तपाकर जातक को अतिशय साहस और उत्साह देता है तथा उसके श्रम एवं अच्छे कर्मों का पूर्ण फल और शुभत्व भी प्रदान करता है। ‘‘जातक परिजाता’’ में दैवज्ञ वेद्यनाथ जी ने शनि को ‘‘चतुष्पदो भानुसुत’’ कहा है। 6, 8, 12 भाव इसके अपने भाव हैं। यह पश्चिम दिशा का स्वामी ग्रह है, मकर तथा कुंभ राशि का स्वामी है। शनि ग्रह से वात्-कफ, वृद्धावस्था, नींद, अंग-भंग पिशाच बाधा आदि का विचार करना चाहिए। शनि से प्रभावित व्यक्ति अन्वेषक, ज्योतिषी, ठेकेदार, जज इत्यादि हो सकता है, मेष राशि में नीच तथा तुला राशि में उच्च स्थिति में होता है। पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्रपद इसके नक्षत्र हैं। अन्य ग्रहों के समान शनि ग्रह के भी कुंडली के 12 भावों और 12 राशियों में भिन्न-भिन्न फल होते हैं। वैसे प्रथम भाव में शनि यदि उच्च राशिस्थ अथवा स्वगृही है तो जातक को धनी, सुखी बनाता है। द्वितीय भाव में नेत्र रोगी, तृतीय में बुद्धिमान, चतुर्थ में भाग्यवान, बुद्धिमान एवं अपयशी भी बनाता है। इसी प्रकार द्वादश भावों में शनि के पृथक-पृथक फल बताये गये हैं। किंतु यहां पर में केवल चतुर्थ भावस्थ शनि के बारे में एक विचित्र एवं स्वानुभूत सत्य बताने की चेष्ट है। जैसा कि सर्वविदित है कि चतुर्थ भाव मातृ कारक भाव माना गया है। माता से संबंधित ज्ञान कुंडली के चतुर्थ भाव से प्राप्त करना चाहिए। अनेकानेक कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद देखा गया कि शनि यदि चतुर्थ भाव में होगा तो ऐसे जातक को अपनी माता का सुख कम मिलता है तथा उसके जीवन में किसी एक ऐसी महिला का पदार्पण अवश्य होता है जिसे वह अपनी माता के समान ही सम्मान देता है और अपनी मां के होते हुए भी वह अपना सम्पूर्ण आदर, प्रेम व सम्मान उस स्त्री को देता है जिसे वह मातृतुल्य समझता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वाला जातक ऐसी स्त्री को मां मानता है अर्थात उसके जीवन में एक से अधिक माताओं का प्यार होता है। यह महिला कोई भी हो सकती है, उसकी मौसी, चाची, बुआ या यहां तक भी देखने में आया है कि दोनों का कहीं से कोई भी संबंध नहीं है फिर भी कभी उससे बात हुई और धीरे-धीरे ये मां और बेटे के संबंध इतने मधुर हो जाते हैं कि यथार्थ में उनका प्रेम मां बेटे जैसा हो जाता है। यह एक शोध का विषय है जो क्रमशः कई कुंडलियों का लगातार अध्ययन करने के बाद पाया गया है। अब इस कथन की सत्यता को स्थापित करने के लिए कुछ कुंडलियों की ज्योतिषीय व्याख्या करते हैं - सर्वप्रथम देखते हैं युग पुरुष-मर्यादा पुरोशोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी की जन्म पत्रिका - भगवान श्रीरामचंद्र की कुंडली कर्क लग्न की है। माता का कारक ग्रह चंद्रमा स्वयं लग्न में और चतर्थ भाव में उच्चस्थ शनि । शनि और चन्द्र का केंद्रस्थ संबंध और माता का कारक कुंडली में (शुक्र) नवम् भाव में गुरु की राशि में उच्चस्थ। चतुर्थ भावस्थ शनि ने चार-चार माताएं प्रदान की।

Wednesday 22 February 2017

सफल शिक्षक शिक्षिका बनने के ग्रह योग

शिक्षक का हमारे समाज में महत्वपूर्ण स्थान होता है। किसी भी छात्र को योग्य बनाने व उसको शारीरिक व मानसिक तौर पर सक्षम बनाने में शिक्षक की अहम भूमिका होती है। जैसा कि हमारे शास्त्रों में विदित है माता-पिता के पश्चात वह गुरु ही है जो छात्र का मार्गदर्शन करके उसको भविष्य के लिए तैयार करता है जिससे वह भविष्य में आने वाली चुनौतियों का सामना कर सके व उसे सफलता प्राप्त हो सके। अतः गुरु का स्थान देवता से पूर्व कहा गया है। ज्योतिष शास्त्र में अध्यापन क्षेत्र में सफलता प्राप्त करने के लिये कुंडली में गुरु तथा बुध का बली होना आवश्यक है। गुरु ज्ञान के कारक माने जाते हैं तथा बुध बुद्धि के कारक होते हैं। कुंडली में इन दोनों ग्रहों की शुभ स्थिति तथा इनका लग्न, धन, विद्या, रोग व सेवा, कर्म, लाभ स्थान से किसी भी प्रकार युति, दृष्टि संबंध स्थापित होने पर व्यक्ति को अध्यापन क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है। यदि इस योग में ‘गुरु’ विशेष रूप से बली हैं तो व्यक्ति समाज में विशेष स्थान प्राप्त करता है। यदि लग्न कुंडली के अतिरिक्त नवमांश, दशमांश, चतुर्विंशांश कुंडली में भी गुरु तथा बुध का युति व दृष्टि संबंध बने तो व्यक्ति अध्यापन क्षेत्र में समृद्धि, संपत्ति अर्जित करता है। धन स्थान, सेवा स्थान, कर्म स्थान को अर्थ स्थान की संज्ञा दी गयी है। इन स्थानों व इनके स्वामियों का संबंध गुरु से बनने पर व्यक्ति अध्यापन क्षेत्र द्वारा धन अर्जित करता है। यदि इस योग में गुरु का संबंध सूर्य से बने तो व्यक्ति सरकारी सेवा से लाभ अर्जित करता है। अध्यापन में सफलता प्रप्त करने के योग - यदि कुंडली में हंस योग, भद्र योग उपस्थित हो तो व्यक्ति अध्यापन क्षेत्र में सफलता प्राप्त करता है। - गुरु तथा बुध के मध्य स्थान परिवर्तन योग बनने पर सफलता प्राप्त होती है। यह योग धन, पंचम, दशम व लाभ भाव के मध्य बनने पर अच्छी सफलता प्राप्त होती है और व्यक्ति संपत्ति व समृद्धि अर्जित करता है। - गुरु व बुध की केंद्र में स्थिति, दोनों का एक दूसरे से युति व दृष्टि संबंध इस क्षेत्र में सफलता प्रदान करता है। - लग्न तथा चंद्र कुंडली से लग्नेश, पंचमेश, दशमेश का संबंध गुरु तथा बुध से बनने पर अध्यापन क्षेत्र द्वारा जीविका अर्जन होती है। - फलदीपिका के अनुसार यदि दशमेश के नवमांश का अधिपति गुरु हो तो व्यक्ति गुरु के क्षेत्र (शिक्षा क्षेत्र) द्वारा जीविका प्राप्त करता है। - यदि कुंडली में गजकेसरी योग उपस्थित हो तथा उसका संबंध धन, पंचम, दशम स्थान से बन रहा हो। - लग्न कुंडली, नवमांश कुंडली, दशमांश कुंडली में गुरु व बुध का दृष्टि व युति संबंध बनने पर अध्यापन क्षेत्र में अच्छी सफलता मिलती है। - सूर्य का धन स्थान, पंचम, सेवा, कर्म में गुरु व बुध से संबंध सरकारी सेवा प्राप्त करने में सफलता प्रदान करता है।

मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन

विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा।अगर आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा। एक अन्य उदाहरण देखें। आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति ें मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला सिद्ध होगा। मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले हों तो रत्न का चयन करना सरल होता है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वे अरिष्टकारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा-सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगी। इसे और स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। मान लें कि आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आप अपनी माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होंगी। जन्मपत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है। ध्यान रखें, इस स्थिति में चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना चहिए। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियां कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती है तथा त्रिक भावों अर्थात् छठे, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित है तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोष से मुक्ति दिलाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार नैसर्गिक मित्र चक्र से कर सकते हैं परंतु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। मान ले कि इस उदाहरण में जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहां कर्क राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियां क्रमशः इस प्रकार हैं - सिंह, मेष, वृश्चिक, धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क से छठे भाव में स्थित है अर्थात षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहां इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा। कालसर्प दोष से बाधित उन्नति एवं रत्न चयन यह दोष जन्म कुंडली में तब बनता है जब राहु तथा केतु के मध्य सातों ग्रह आ जाते हैं। यह दोष जिसकी पत्री में होता है उसकी उन्नति सदैव बाधित रहती है। लाख प्रयास करने के बाद भी सफलता उसे जल्दी नहीं मिल पाती। जीवन की दौड़ में कालसर्प दोष से पीड़ित व्यक्ति सर्वथा पीछे रह जाता है, ऐसा ज्योतिष मनीषियों का मानना है। ज्योतिष के प्रसिद्ध अनेक मूल ग्रंथों में इसका कहीं भी विवरण नहीं मिलता है। मूलतः बारह प्रकार से कालसर्प दोष व्यक्ति की जन्मपत्रिकाओं में बनते हैं। लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु (स्वाभाविक) हो तथा अन्य सभी ग्रह बाएं स्थित हों अथवा दाएं तो यह कालसर्प दोष का एक विकल्प है। इसी प्रकार राहु क्रमशः दूसरे, तीसरे अथवा सातवें भाव में हो और केतु क्रमशः आठवें, नवें अथवा लग्न में हो और अन्य सातों ग्रह राहु, केतु के इस अर्धगोलाकार भचक्र से बाएं अथवा दाएं स्थित हों तो यह भी उदाहरण है कालसर्प दोष का। इन स्थितियों में व्यक्ति पर पड़ने वाला सुप्रभाव अथवा दुष्प्रभाव क्या हो सकता है, यह अलग विषय है। हां इनसे जनित दुष्प्रभाव के निदान स्वरूप रत्नों की सहायता से हम शुभ की अनुभूति अवश्य कर सकते हैं। जन्मपत्री में देखें कि राहु किस राशि में स्थित है। पंचधा मैत्री चक्र से उस राशि के स्वामी ग्रह के मित्र, अधिमित्र ग्रह चुन लें। यदि वह ग्रह अथवा उसकी राशि राहु की राशि से, अर्थात जिस राशि में राहु है, छठे अथवा आठवें भाव में स्थित न हो तो आप उस ग्रह के रत्न कालसर्प दोष के निदान हेतु चयन कर सकते हैं। पाठक देखें कि राहु कन्या अर्थात बुध की राशि में बैठकर कालसर्प दोष बना रहा है या नहीं। राहु का रत्न गोमेद भी इस दोष के निदान हेतु धारण कराया जा सकता था परंतु उक्त दो रत्न क्यों चुने गए, पाठक इसका विवेचनात्मक पहलू देखें। पंचधा मैत्री के आधार पर कन्या राशि के स्वामी ग्रह बुध के सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि तथा राहु मित्र हैं। शनि और मंगल को इसलिए छोड़ दिया गया था कि वे कन्या राशि से षडाष्टक दोष बना रहे थे। शुक्र मंगल के नक्षत्र में था इसलिए पहले वह मंगल का प्रभाव देता। मंगल त्याज्य था ही इसलिए शुक्र का रत्न भी यहां कार्य नहीं करता। बुध ग्रह अपने ही नक्षत्र में स्थित था। कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार वह ग्रह अधिक प्रबल हो जाता है जो अपने ही नक्षत्र में होता है। राहु भी बुध अधिष्ठित राशि स्वामी है। इस दृष्टिकोण से भी बुध शुभ रहा। साथ में सूर्य के रत्न माणिक्य को इसलिए भी चुना गया कि वह लग्नेश था। मंगल दोष एवं रत्न चयन लड़के अथवा लड़की की जन्मकुंडली में मंगल ग्रह यदि पहले, चैथे, सातवें, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित होता है तो वह मंगल दोष कहलाता है। ऐसे में एक-दूसरे के जीवन में अनिष्टकारी परिणाम होते हैं। लग्न के अतिरिक्त चंद्र तथा सूर्य लग्न से भी मंगल की इन भावों में स्थिति मंगल दोष का कारण बनती है। दक्षिण भारत में मंगल की द्वितीय भाव गत स्थिति को भी मंगल दोष का कारण मानते हैं तथा शुक्र लग्न से भी इन भावों में मंगल की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाता है। इतने सारे संयोगों का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो इस गणित से 70 प्रतिशत से अधिक लड़के-लड़कियां मंगली होते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मंगल दोष होने से दाम्पत्य जीवन अनिष्टकारी होगा ही। यह मात्र एक हौवा बना दिया गया है। मंगल दोष होता अवश्य है परंतु इस विषय की गणना विद्वान ज्योतिषी द्वारा ही की जा सकती है क्योंकि जितनी संख्या में मंगल दोष होते हैं उतनी ही उस दोष के परिहार की संभावनाएं बनती हैं। यदि वास्तव में मंगल दोष जन्मपत्री में बनता है तो अपने अनुरूप रत्न चयन करें। यह उपक्रम भी मंगल दोष के निवारण में उपयोगी सिद्ध होगा। अकसर मंगल दोष के निदान स्वरूप पुखराज अथवा मूंगा धारण करवाया जाता है। यह प्रत्येक दशा में उपयुक्त नहीं है, यह ध्यान रखें। यदि जन्मपत्री में मंगल दोष बनता है तथा गुरु से मंगल युति बनाता है अथवा उससे दृष्ट है तब तो पुखराज इस दोष के निवारण में उपयोगी होगा। गुरु यदि मंगल से षडाष्टक दोष बनाता है अथवा ऐसी राशि में स्थित है जो पंचधा मैत्री से मंगल की शत्रु है तब पुखराज पहनाना उचित नहीं है। इसी प्रकार मात्र मंगल दोष देखकर मूंगा धारण करवा देना भी सर्वथा अनुचित है। गुरु की तरह मंगल का यदि राहु से युति अथवा दृष्टि संबंध बनता है और राहु मंगल की किसी मित्र राशि में स्थित है तो गोमेद अथवा उस ग्रह का रत्न धारण करवाया जा सकता है जिस ग्रह के नक्षत्र में राहु हो। दूसरे, राहु जिस ग्रह की राशि में हो उस राशि के स्वामी ग्रह से संबंधित रत्न भी धारण करवाया जा सकता है। तीसरे, राहु के साथ जितने ग्रह स्थित हों उनमें से जो मंगल का मित्र ग्रह हो उस ग्रह का रत्न भी मंगल दोष के निवारण हेतु धारण करवाया जा सकता है। हर पल प्रयास यह रखना है कि मित्र राशि पीड़ित ग्रह से षडाष्टक दोष न बनाती हो। यदि राशि से संबंधित ग्रह का भी इस दोष में ध्यान रखा जाता है तो यह सर्वाधिक प्रभावशाली चयन सिद्ध होगा। मंगल का राहु अथवा गुरु से संबंध न हो और उसकी स्थिति मंगल दोष बना रही हो तो मंगल की राशि की मित्र राशियां देखें। ये कुंडली में मंगल की स्थिति से छठे या आठवें नहीं होनी चाहिए। इन राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न मंगल दोष का निवारण करेंगे। पूर्व की भांति यदि यह भी ध्यान रखा जाए कि संबंधित ग्रह भी मंगल से षडाष्टक दोष न बना रहे हों तो आपका चयन सर्वथा उचित होगा। नाड़ी दोष और रत्न चयन वर-कन्या की जन्मपत्रियों को विवाह हेतु मिलाना केवल एक तथाकथित जन्मपत्रिका मेलापक परंपरा का निर्वाह करना नहीं है। इसका मूल उद्देश्य है भावी दम्पति के गुण, स्वभाव, आचार-व्यवहार, प्रजनन शक्ति, विद्या तथा आर्थिक दशा का मिलान करना जिससे कि दोनों का भावी जीवन सुखमय हो। इस गुण मिलान पद्धति में निम्न बातें होती हैं- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री, भकूट तथा तथाकथित महादोष नाड़ी दोष। क्रम में एक-एक अधिक गुण माने जाते हैं अर्थात वर्ण का 1, वश्य का 2, तारा का 3, योनि का 4. ग्रह मैत्री का 5. गण मैत्री का 6. भकूट का 7 तथा नाड़ी का 8। इस प्रकार कुल 36 गुण होते हैं। इसमें कम से कम 18 गुण मिलने पर विवाह किया जा सकता है परंतु नाड़ी और भकूट गुण अवश्य होने चाहिए। इन गुणों के बिना 18 गुणों में विवाह मंगलकारी नहीं माना जाता है। यदि वर और वधू की नाड़ी एक होती है तो यह स्थिति दोनों के लिए शुभ नहीं होती है ऐसी ज्योतिष की मान्यता है। कहा तो यहां तक जाता है कि आदि, अन्त्य तथा मध्य तीन प्रकार की नाड़ियों में अंतिम नाड़ी का एक होना दोनों की मृत्यु तक का कारण बनता है। इसीलिए नाड़ी का विवाह मेलापक सारिणी में न मिलना लोगों को भयभीत किए हुए है। यदि विवाह हो गया है और दोनों की नाड़ी एक है और आप इससे भयभीत हैं तो रत्नों का प्रयोग करके अपने भय को दूर कर सकते हैं। लड़का और लड़की यदि अश्विनी, आद्र्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों में से किसी एक में जन्म लेते हैं तो यह आदि नाड़ी कहलाती है। भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपद में से किसी एक में दोनों जन्म लेते हैं तो यह मध्य नाड़ी है। कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण अथवा रेवती में दोनों के जन्म लेने पर अन्त्य नाड़ी होती है। लड़के-लड़की दोनों का जन्म यदि एक नक्षत्र में होता है, परंतु उनके चरण भिन्न हैं अर्थात मान लें कि लड़का रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुआ है और लड़की तीसरे चरण में, तब यहां नाड़ी दोष नहीं होगा तथा इस प्रयोजन हेतु रत्न धारण कराने की भी आवश्यकता नहीं है। परंतु यदि लड़का-लड़की एक नक्षत्र के एक ही चरण में जन्मे हैं तो यह नाड़ी दोष का कारण है। यहां आप निम्न प्रकार से रत्न प्रयोग कर सकते हैं, यह उपक्रम नाड़ी दोष निदान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। दोनों के नक्षत्र स्वामी ग्रहों की बलाबल स्थिति क्या है? यहां तीन विकल्प हो सकते हैं। दोनों ग्रह बलवान हों। दोनो ग्रह बलहीन हों। एक बलवान हो तथा दूसरा बलहीन। यदि दोनों ग्रह बलवान हैं तो आप उन से संबंधित रत्न, उपरत्न अथवा दोनों का प्रयोग कर सकते हैं। मान लें कि दोनों का जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के द्वितीय चरण में हुआ है। ज्येष्ठा का स्वामी ग्रह है बुध। इसलिए यहां लड़का-लड़की दोनों को आप पन्ना अथवा उसका कोई उपरत्न धारण करवा सकते हैं। यदि नक्षत्र स्वामी ग्रह लड़के-लड़की दोनों की जन्मपत्रियों में क्षीण हैं तो दोनों की जन्मपत्रिकाओं में पंचधा मैत्री से उन ग्रहों के मित्र तथा अधिमित्र ग्रह देख लें। दोनों में से जिसके भी नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे ग्रह छठे अथवा आठवें भाव में स्थित हों तो वे ग्रह छोड़ दें। शेष ग्रह के रत्न लड़के तथा लड़की को धारण करना दीर्घायु प्रदान करने वाला तथा सुख-समृद्धि दाता सिद्ध होगा। तीसरी स्थिति में लड़के तथा लड़की के नक्षत्र के स्वामी ग्रह जन्मपत्री में बलवान तथा बलहीन हो सकते हैं। जिसकी पत्री में जो ग्रह बलवान हों उनसे संबंधित रत्न उसे धारण करवा सकते हैं। दोनों में से जिसके ग्रह बलहीन हों उनके पंचधा मैत्री से मित्र ग्रह देखकर यह पता कर लें कि उनमें से उसके नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे षडाष्टक दोष तो नहीं बना रहे हैं। यदि नहीं तो उन ग्रह के रत्न आप उसे धारण करवा सकते हैं। मारकेश, मृत्युभय एवं रत्न चयन राजा हो अथवा रंक - मृत्युभय से कोई भी अछूता नहीं है। मृत्यु आनी है तो फिर त्रिदेव भी उसे टाल नहीं सकते। यदि इस पर विजय प्राप्त हो गई होती तो कुबेरपति अथवा धनपति कभी मरते ही नहीं। क्या है यह भयभीत करने वाला मारकेश? ज्योतिष में वे कौन-कौन से अरिष्टकारी योग बनते हैं जो मारण करते हैं अथवा मरण तुल्य कष्ट देते हैं? ये पूर्णतया ज्योतिष शास्त्र के विषय हैं। संक्षिप्त में यह जान लें कि मृत्यु का निर्णय करने के लिए मारक का ज्ञान करना आवश्यक है। तदनुसार ही रत्नादि चयन करना उचित है। ज्योतिष में लग्नेश, षष्ठेश, अष्टमेश, गुरु तथा शनि से मारकेश का विचार होता है। अष्टमेश बलवान होकर यदि पहले, चैथे, छठे, दसवें अथवा 12वें भाव में हो तो मारक बन जाता है। पूर्व की भांति ऐसे में अष्टमेश के मित्र ग्रहों को पंचधा मैत्री सूची से ज्ञात कर लें। यह देख लें कि जहां अष्टमेश स्थित है वे ग्रह उससे षष्ठम-अष्टम भावगत न हों, न ही उनकी राशि इन भावों में पड़ती हो। उन ग्रहों के रत्न आप मारकेश के प्रभाव को कम करने के लिए धारण कर सकते हैं। यहां विशेष रूप से यह ध्यान रखें कि अन्य किसी विधि से यदि बलवान अष्टमेश का रत्न निकल रहा हो तो वह कदापि धारण न करें अन्यथा वह प्रबल मारकेश बन जाएगा। मारक ग्रह का प्रभाव अष्टमेश ग्रह की अंतर्दशा में प्रभावी होता है, इसलिए उस दशा में यत्न करके वह रत्न अवश्य जुटा लें। शनि षष्ठेश तथा अष्टमेश होकर यदि लग्नेश को देखता है तो लग्नेश ही मारक हो जाता है। ऐसी स्थिति में लग्नेश को, यदि वह बली है, उसके रत्न से बलवान करना होगा। परंतु यदि लग्नेश ऐसे में बली नहीं है तो पूर्व की भांति उसके मित्र ग्रहों में जो बलवान ग्रह हो तथा लग्नेश से छठे या आठवें भी न हो तो संबंधित रत्न धारण करवाना बुद्धिमानी होगी। पराशर के मत से जन्मकुंडली में द्वितीय और सप्तम भाव मारकेश हैं तथा इन दोनों के स्वामी - द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय और सप्तम में रहने वाले पाप ग्रह एवं द्वितीयेश और सप्तमेश के साथ रहने वाले पाप ग्रह-मारकेश हो जाते हैं जैसा कि पूर्व में लिखा है। पाप ग्रह मारकेश यदि बली है तब उसके रत्न-उपरत्न अथवा रोगादि से सर्वथा बचें। अन्यथा यह प्रबल मारकेश बन जाते हैं। यहां उनके मित्र ग्रहों के रत्न पूर्व की भांति ही प्रयोग करने चाहिए। शनि मारकेश से भी दो हाथ आगे है, इसीलिए सब इससे भयभीत रहते हैं। प्रबल मारक शनि का रत्न, छल्ला, कड़ा आदि ऐसे में कदापि प्रयोग न करें। सुरक्षा की दृष्टि से शनि के मित्र ग्रहों में से पूर्व की भांति छांटकर उनके रत्न, रंग आदि चयन करें। द्वादशेश पापग्रह हो तो मारक बन जाता है। पापग्रह षष्ठेश हो अथवा पाप राशि में षष्ठेश स्थित हो या पापग्रह से दृष्ट हो तो षष्ठेश की दशा मारक हो जाती है। मारकेश की दशा में षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश की अंतर्दशा भी मारक होती है। मारकेश यदि अधिक बलवान है तो उसकी ही दशा अथवा अंतर्दशा में मरण अथवा मरण तुल्य कष्ट होता है। राहु-केतु पहले, सातवें, आठवें अथवा 12वें भाव में हांे अथवा मारकेश से सातवें भाव में हों अथवा मारकेश के साथ हों तो मारक बन जाते हैं। मकर और वृश्चिक लग्न वालों के लिए राहु मारक बन जाता है। शनि का भूत और रत्न चयन जातक ग्रंथों में शनि की साढ़े साती और ढइया का अलग-अलग तरीके से वर्णन है। इसकी गणना चलित नाम से, लग्न से, चंद्र से तथा सूर्य से की जाती है। एक व्यक्ति के जीवन में अधिक से अधिक साढ़े 22 वर्ष साढ़े साती में निकल जाते हैं। कहते हैं साढ़े साती में जातक उन्नति नहीं कर पाता और उसे दुख, कलह तथा बीमारी आदि निरंतर घेरे रहते हैं। यदि शनि उच्च का हो और उसकी साढ़े साती प्रारंभ हो जाए तो व्यक्ति चहुदिश हानि प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतः शनि की साढ़े साती का विचार जन्मपत्री में चंद्रमा की स्थिति से किया जाता है। गोचरवश भ्रमण करता हुआ शनि जब चंद्रमा से द्वादश भाव में प्रवेश करता है तो यह शनि की साढ़े साती का प्रारंभ कहलाता है। चंद्रमा से तीसरी राशि को जब शनि पार करता है तो साढ़े साती का अंत माना जाता है। इस प्रकार हर राशि पर ढाई-ढाई वर्ष भ्रमण करता हुआ चंद्र की राशि सहित उसके आगे और पीछे स्थित रहता है। चंद्रमा से चैथी तथा आठवीं राशियों में जब शनि गोचरवश ढाई-ढाई वर्ष स्थित रहता है तो यह शनि की ढइया कहलाती है। शनि के इन गोचरवश स्थित स्थानों को लोगों ने शनि का भूत, शनि का प्रकोप, दारिद्र्य और आरोग्य से जोड़कर एक अज्ञात भय बैठा दिया है। यह उचित नहीं है। शनि के तथाकथित इन दिनों में सामान्यतः शनि का रत्न नीलम, उपरत्न, लोहे का छल्ला अथवा कड़ा पहनने का चलन है। यह चयन ठीक है परंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए नहीं। सदैव ध्यान रखें कि यम-नियम प्रत्येक व्यक्ति पर सटीक बैठें, यह आवश्यक नहीं है। किसी भी रूप में निदान के समय सामान्य नियमों के स्थान पर व्यक्ति विशेष के अनुरूप नियम खोज करके ही आगे बढ़ना चाहिए। साढ़े साती में रत्न धारण करवाते समय ध्यान रखें कि धारण किए गए रत्न का कैसा भी संबंध उसके गोचर भाव से छठे अथवा आठवें से न हो। भाग्य प्रदायक दिशा एवं रत्न चयन यदि आपको अपना जन्म लग्न ज्ञात है तब तो ठीक है अन्यथा अपने नाम के प्रथम अक्षर की राशि को लग्न मानकर लग्न कुंडली तैयार करें। मान लें आपका नाम राम है और आपकी नाम राशि तुला बनती है। कुंडली में आप देखिए कि दूसरे, नौवें तथा ग्यारहवें भावों में कौन-कौन सी राशियां हैं और वे राशियां किन-किन दिशाओं अथवा विदिशाओं की सूचक हैं। उदाहरण के लिए इन भावों में क्रमशः वृश्चिक, मिथुन तथा सिंह राशियां हैं और वह उत्तर, पश्चिम तथा पूर्व दिशाओं की कारक हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने वर्तमान स्थान से यदि आप इन दिशा-विदिशाओं में पड़ने वाले गांव, शहर आदि में प्रवास करते हैं तो आपके भाग्य में उत्तरोत्तर उन्नति की संभावना बढ़ सकती है। यह बात अवश्य ध्यान में रखें कि यह चयन बहुत ही साधारण सा सूत्र है, शुभ फल की प्राप्ति के लिए अन्य ज्योतिषीय घटकों का आपके लिए अनुकूल होना भी परमावश्यक है। लाभ देने वाले घटकों में एक विकल्प उचित रत्न चयन भी हो सकता है। इन राशियों के रत्न, उपरत्नादि यदि परस्पर मित्र हैं तो आपके लिए भाग्यशाली सिद्ध हो सकते हैं। यदि तीन रत्नों का संयोग न मिल पाए तो यह देखें कि कौन से दो रत्न परस्पर मित्र हैं। यदि यह संयोग भी नहीं मिल रहा है तो आप राशियों के अन्य मित्र राशियों के रत्न चयन करें। अन्य मित्र राशियों का चयन करते समय षडाष्टक दोष का ध्यान अवश्य रखें अर्थात वे राशियां छठे, आठवें भाव में परस्पर न हों।

मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन

विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा।अगर आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति विनाशकारी मूल संज्ञक नक्षत्र एवं रत्न चयन सृष्टि त्रिआयामी तथा त्रिगुणात्मक है। इसमें 27 नक्षत्र हैं। यदि इनको तीन समान भागों में बांटा जाए तो 1 से 9, 10 से 18 तथा 19 से 27 वर्ग बनते हैं। इन तीनों वर्गों की संधि वाले नक्षत्रों को मूल संज्ञक नक्षत्र कहते हैं। ये नक्षत्र हैं- पहला अश्विनी, नवां आश्लेषा, दसवां मघा, अट्ठारहवां ज्येष्ठा, उन्नीसवां मूल तथा सत्ताइसवां रेवती। ये तीन नक्षत्र युग्म ऐसे हैं जैसे दो संलग्न नक्षत्र अलग-अलग राशियों में हैं, किसी का कोई चरण दूसरी राशि में नहीं आता। इसीलिए इन्हें नक्षत्र चक्र का ‘मूल’ अर्थात प्रधान नक्षत्र माना जाता है। ऐसे नक्षत्रों को अशुभ मानने की परंपरा जाने कब, कहां और कैसे चल पड़ी। यदि आप भी मूल नक्षत्र से भयभीत हैं तो रत्नों उपरत्न अथवा वनस्पतियों, रंगों आदि से उपाय करके देखें। सर्वप्रथम आप शुद्ध जन्मपत्री से अपना जन्म नक्षत्र, उसका चरण तथा लग्न जान लें। मान लें कि आपका जन्म रेवती नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। यह निम्न सारिणी में दर्शाती है कि मान-सम्मान मिलना है। यह इंगित करता है कि आपको अपनी जन्म कुंडली के दशम भाव के अनुसार शुभ फल मिलना है। इस प्रकार यदि आप अपनी जन्मकुंडली में दसवें भाव की राशि के अनुरूप रत्न धारण कर लेते हैं तो आपको शुभ फल अवश्य मिलेगा। मान लें कि आपका लग्न मकर है। इसके अनुसार आपके दसवें भाव का स्वामी हुआ शुक्र। शुक्र ग्रह के अनुसार यदि आप हीरा अथवा उसका उपरत्न धारण कर लेते हैं तो आपको लाभ अवश्य मिलेगा। आपका जन्म यदि मघा नक्षत्र के चतुर्थ चरण में हुआ है तो यह दर्शाता है कि आप धन संबंधी विषयों में भाग्यशाली रहेंगे। जन्मपत्री में दूसरे भाव से धन संबंधी पहलुओं पर विचार किया जाता है। यदि आपका जन्म सिंह लग्न में हुआ है तो दूसरे भाव में कन्या राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह बुध है। इस स्थिति में बुध का रत्न पन्ना आपको विशेष रूप से लाभ देगा। एक अन्य उदाहरण देखें। आपका जन्म आश्लेषा नक्षत्र के प्रथम चरण में हुआ है। इसका अर्थ हुआ कि आप सुखी हैं। यदि आपका जन्म मेष लग्न में हुआ है तो सुख के कारक भाव अर्थात चतुर्थ में कर्क राशि होगी। इस राशि का रत्न है मोती। आप यदि इस स्थिति ें मोती धारण करते हैं तो वह आपको सुख तथा शांति देने वाला सिद्ध होगा। मूल संज्ञक नक्षत्र यदि शुभ फल देने वाले हों तो रत्न का चयन करना सरल होता है। कठिनाई उस स्थिति में आती है जब वे अरिष्टकारी बन जाएं। आप यदि थोड़ा-सा अभ्यास कर लेते हैं तो यह भी पूर्व की भांति सरल प्रतीत होने लगेगी। इसे और स्पष्ट करने के लिए कुछ उदाहरण प्रस्तुत हैं। मान लें कि आपका जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के तृतीय चरण में हुआ है। यह इंगित करता है कि आप अपनी माता पर भारी हैं। आपके जन्म लेने से वह कष्टों में रहती होंगी। जन्मपत्री में माता का विचार चतुर्थ भाव से किया जाता है। ध्यान रखें, इस स्थिति में चतुर्थ भाव में स्थित राशि का रत्न धारण नहीं करना चहिए। अरिष्टकारी परिस्थिति में आप देखें कि जिस भाव से यह दोष संबंधित है उसमें स्थित राशि की मित्र राशियां कौन-कौन सी हैं। वह राशि कारक राशियों से यदि षडाष्टक दोष बनाती है तथा त्रिक भावों अर्थात् छठे, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित है तो उन्हें छोड़ दें। अन्य मित्र राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न-उपरत्न आपको मूल नक्षत्र जनित दोष से मुक्ति दिलाने में लाभदायक सिद्ध होंगे। साधारण परिस्थिति में शुभ राशि विचार नैसर्गिक मित्र चक्र से कर सकते हैं परंतु यदि रत्न चयन के लिए आप गंभीरता से विचार कर रहे हैं तो मैत्री के लिए पंचधा मैत्री चक्र से अवश्य विचार करें। मान ले कि इस उदाहरण में जन्म मेष राशि में हुआ है। चतुर्थ भाव में यहां कर्क राशि होगी जिसका स्वामी ग्रह है चंद्र और रत्न है मोती। इस स्थिति में मोती धारण नहीं करना है। चंद्र के नैसर्गिक मित्र ग्रह हैं सूर्य, मंगल तथा गुरु। इन ग्रहों की राशियां क्रमशः इस प्रकार हैं - सिंह, मेष, वृश्चिक, धनु तथा मीन। धनु राशि कर्क से छठे भाव में स्थित है अर्थात षडाष्टक दोष बना रही है। इसलिए यहां इसके स्वामी ग्रह गुरु का रत्न पुखराज धारण नहीं करना है। इस उदाहरण में माणिक्य अथवा मूंगा रत्न लाभदायक सिद्ध होगा। कालसर्प दोष से बाधित उन्नति एवं रत्न चयन यह दोष जन्म कुंडली में तब बनता है जब राहु तथा केतु के मध्य सातों ग्रह आ जाते हैं। यह दोष जिसकी पत्री में होता है उसकी उन्नति सदैव बाधित रहती है। लाख प्रयास करने के बाद भी सफलता उसे जल्दी नहीं मिल पाती। जीवन की दौड़ में कालसर्प दोष से पीड़ित व्यक्ति सर्वथा पीछे रह जाता है, ऐसा ज्योतिष मनीषियों का मानना है। ज्योतिष के प्रसिद्ध अनेक मूल ग्रंथों में इसका कहीं भी विवरण नहीं मिलता है। मूलतः बारह प्रकार से कालसर्प दोष व्यक्ति की जन्मपत्रिकाओं में बनते हैं। लग्न में राहु तथा सप्तम में केतु (स्वाभाविक) हो तथा अन्य सभी ग्रह बाएं स्थित हों अथवा दाएं तो यह कालसर्प दोष का एक विकल्प है। इसी प्रकार राहु क्रमशः दूसरे, तीसरे अथवा सातवें भाव में हो और केतु क्रमशः आठवें, नवें अथवा लग्न में हो और अन्य सातों ग्रह राहु, केतु के इस अर्धगोलाकार भचक्र से बाएं अथवा दाएं स्थित हों तो यह भी उदाहरण है कालसर्प दोष का। इन स्थितियों में व्यक्ति पर पड़ने वाला सुप्रभाव अथवा दुष्प्रभाव क्या हो सकता है, यह अलग विषय है। हां इनसे जनित दुष्प्रभाव के निदान स्वरूप रत्नों की सहायता से हम शुभ की अनुभूति अवश्य कर सकते हैं। जन्मपत्री में देखें कि राहु किस राशि में स्थित है। पंचधा मैत्री चक्र से उस राशि के स्वामी ग्रह के मित्र, अधिमित्र ग्रह चुन लें। यदि वह ग्रह अथवा उसकी राशि राहु की राशि से, अर्थात जिस राशि में राहु है, छठे अथवा आठवें भाव में स्थित न हो तो आप उस ग्रह के रत्न कालसर्प दोष के निदान हेतु चयन कर सकते हैं। पाठक देखें कि राहु कन्या अर्थात बुध की राशि में बैठकर कालसर्प दोष बना रहा है या नहीं। राहु का रत्न गोमेद भी इस दोष के निदान हेतु धारण कराया जा सकता था परंतु उक्त दो रत्न क्यों चुने गए, पाठक इसका विवेचनात्मक पहलू देखें। पंचधा मैत्री के आधार पर कन्या राशि के स्वामी ग्रह बुध के सूर्य, शुक्र, मंगल, शनि तथा राहु मित्र हैं। शनि और मंगल को इसलिए छोड़ दिया गया था कि वे कन्या राशि से षडाष्टक दोष बना रहे थे। शुक्र मंगल के नक्षत्र में था इसलिए पहले वह मंगल का प्रभाव देता। मंगल त्याज्य था ही इसलिए शुक्र का रत्न भी यहां कार्य नहीं करता। बुध ग्रह अपने ही नक्षत्र में स्थित था। कृष्णमूर्ति पद्धति के अनुसार वह ग्रह अधिक प्रबल हो जाता है जो अपने ही नक्षत्र में होता है। राहु भी बुध अधिष्ठित राशि स्वामी है। इस दृष्टिकोण से भी बुध शुभ रहा। साथ में सूर्य के रत्न माणिक्य को इसलिए भी चुना गया कि वह लग्नेश था। मंगल दोष एवं रत्न चयन लड़के अथवा लड़की की जन्मकुंडली में मंगल ग्रह यदि पहले, चैथे, सातवें, आठवें अथवा 12 वें भाव में स्थित होता है तो वह मंगल दोष कहलाता है। ऐसे में एक-दूसरे के जीवन में अनिष्टकारी परिणाम होते हैं। लग्न के अतिरिक्त चंद्र तथा सूर्य लग्न से भी मंगल की इन भावों में स्थिति मंगल दोष का कारण बनती है। दक्षिण भारत में मंगल की द्वितीय भाव गत स्थिति को भी मंगल दोष का कारण मानते हैं तथा शुक्र लग्न से भी इन भावों में मंगल की स्थिति पर गंभीरता से विचार किया जाता है। इतने सारे संयोगों का यदि सूक्ष्मता से अध्ययन किया जाए तो इस गणित से 70 प्रतिशत से अधिक लड़के-लड़कियां मंगली होते हैं परंतु वास्तव में ऐसा नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि मंगल दोष होने से दाम्पत्य जीवन अनिष्टकारी होगा ही। यह मात्र एक हौवा बना दिया गया है। मंगल दोष होता अवश्य है परंतु इस विषय की गणना विद्वान ज्योतिषी द्वारा ही की जा सकती है क्योंकि जितनी संख्या में मंगल दोष होते हैं उतनी ही उस दोष के परिहार की संभावनाएं बनती हैं। यदि वास्तव में मंगल दोष जन्मपत्री में बनता है तो अपने अनुरूप रत्न चयन करें। यह उपक्रम भी मंगल दोष के निवारण में उपयोगी सिद्ध होगा। अकसर मंगल दोष के निदान स्वरूप पुखराज अथवा मूंगा धारण करवाया जाता है। यह प्रत्येक दशा में उपयुक्त नहीं है, यह ध्यान रखें। यदि जन्मपत्री में मंगल दोष बनता है तथा गुरु से मंगल युति बनाता है अथवा उससे दृष्ट है तब तो पुखराज इस दोष के निवारण में उपयोगी होगा। गुरु यदि मंगल से षडाष्टक दोष बनाता है अथवा ऐसी राशि में स्थित है जो पंचधा मैत्री से मंगल की शत्रु है तब पुखराज पहनाना उचित नहीं है। इसी प्रकार मात्र मंगल दोष देखकर मूंगा धारण करवा देना भी सर्वथा अनुचित है। गुरु की तरह मंगल का यदि राहु से युति अथवा दृष्टि संबंध बनता है और राहु मंगल की किसी मित्र राशि में स्थित है तो गोमेद अथवा उस ग्रह का रत्न धारण करवाया जा सकता है जिस ग्रह के नक्षत्र में राहु हो। दूसरे, राहु जिस ग्रह की राशि में हो उस राशि के स्वामी ग्रह से संबंधित रत्न भी धारण करवाया जा सकता है। तीसरे, राहु के साथ जितने ग्रह स्थित हों उनमें से जो मंगल का मित्र ग्रह हो उस ग्रह का रत्न भी मंगल दोष के निवारण हेतु धारण करवाया जा सकता है। हर पल प्रयास यह रखना है कि मित्र राशि पीड़ित ग्रह से षडाष्टक दोष न बनाती हो। यदि राशि से संबंधित ग्रह का भी इस दोष में ध्यान रखा जाता है तो यह सर्वाधिक प्रभावशाली चयन सिद्ध होगा। मंगल का राहु अथवा गुरु से संबंध न हो और उसकी स्थिति मंगल दोष बना रही हो तो मंगल की राशि की मित्र राशियां देखें। ये कुंडली में मंगल की स्थिति से छठे या आठवें नहीं होनी चाहिए। इन राशियों के स्वामी ग्रहों से संबंधित रत्न मंगल दोष का निवारण करेंगे। पूर्व की भांति यदि यह भी ध्यान रखा जाए कि संबंधित ग्रह भी मंगल से षडाष्टक दोष न बना रहे हों तो आपका चयन सर्वथा उचित होगा। नाड़ी दोष और रत्न चयन वर-कन्या की जन्मपत्रियों को विवाह हेतु मिलाना केवल एक तथाकथित जन्मपत्रिका मेलापक परंपरा का निर्वाह करना नहीं है। इसका मूल उद्देश्य है भावी दम्पति के गुण, स्वभाव, आचार-व्यवहार, प्रजनन शक्ति, विद्या तथा आर्थिक दशा का मिलान करना जिससे कि दोनों का भावी जीवन सुखमय हो। इस गुण मिलान पद्धति में निम्न बातें होती हैं- वर्ण, वश्य, तारा, योनि, ग्रह मैत्री, गण मैत्री, भकूट तथा तथाकथित महादोष नाड़ी दोष। क्रम में एक-एक अधिक गुण माने जाते हैं अर्थात वर्ण का 1, वश्य का 2, तारा का 3, योनि का 4. ग्रह मैत्री का 5. गण मैत्री का 6. भकूट का 7 तथा नाड़ी का 8। इस प्रकार कुल 36 गुण होते हैं। इसमें कम से कम 18 गुण मिलने पर विवाह किया जा सकता है परंतु नाड़ी और भकूट गुण अवश्य होने चाहिए। इन गुणों के बिना 18 गुणों में विवाह मंगलकारी नहीं माना जाता है। यदि वर और वधू की नाड़ी एक होती है तो यह स्थिति दोनों के लिए शुभ नहीं होती है ऐसी ज्योतिष की मान्यता है। कहा तो यहां तक जाता है कि आदि, अन्त्य तथा मध्य तीन प्रकार की नाड़ियों में अंतिम नाड़ी का एक होना दोनों की मृत्यु तक का कारण बनता है। इसीलिए नाड़ी का विवाह मेलापक सारिणी में न मिलना लोगों को भयभीत किए हुए है। यदि विवाह हो गया है और दोनों की नाड़ी एक है और आप इससे भयभीत हैं तो रत्नों का प्रयोग करके अपने भय को दूर कर सकते हैं। लड़का और लड़की यदि अश्विनी, आद्र्रा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, ज्येष्ठा, मूल, शतभिषा और पूर्वाभाद्रपद नक्षत्रों में से किसी एक में जन्म लेते हैं तो यह आदि नाड़ी कहलाती है। भरणी, मृगशिरा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, धनिष्ठा और उत्तराभाद्रपद में से किसी एक में दोनों जन्म लेते हैं तो यह मध्य नाड़ी है। कृतिका, रोहिणी, आश्लेषा, मघा, स्वाति, विशाखा, उत्तराषाढ़ा, श्रवण अथवा रेवती में दोनों के जन्म लेने पर अन्त्य नाड़ी होती है। लड़के-लड़की दोनों का जन्म यदि एक नक्षत्र में होता है, परंतु उनके चरण भिन्न हैं अर्थात मान लें कि लड़का रोहिणी नक्षत्र के प्रथम चरण में उत्पन्न हुआ है और लड़की तीसरे चरण में, तब यहां नाड़ी दोष नहीं होगा तथा इस प्रयोजन हेतु रत्न धारण कराने की भी आवश्यकता नहीं है। परंतु यदि लड़का-लड़की एक नक्षत्र के एक ही चरण में जन्मे हैं तो यह नाड़ी दोष का कारण है। यहां आप निम्न प्रकार से रत्न प्रयोग कर सकते हैं, यह उपक्रम नाड़ी दोष निदान में महत्वपूर्ण सिद्ध हो सकता है। दोनों के नक्षत्र स्वामी ग्रहों की बलाबल स्थिति क्या है? यहां तीन विकल्प हो सकते हैं। दोनों ग्रह बलवान हों। दोनो ग्रह बलहीन हों। एक बलवान हो तथा दूसरा बलहीन। यदि दोनों ग्रह बलवान हैं तो आप उन से संबंधित रत्न, उपरत्न अथवा दोनों का प्रयोग कर सकते हैं। मान लें कि दोनों का जन्म ज्येष्ठा नक्षत्र के द्वितीय चरण में हुआ है। ज्येष्ठा का स्वामी ग्रह है बुध। इसलिए यहां लड़का-लड़की दोनों को आप पन्ना अथवा उसका कोई उपरत्न धारण करवा सकते हैं। यदि नक्षत्र स्वामी ग्रह लड़के-लड़की दोनों की जन्मपत्रियों में क्षीण हैं तो दोनों की जन्मपत्रिकाओं में पंचधा मैत्री से उन ग्रहों के मित्र तथा अधिमित्र ग्रह देख लें। दोनों में से जिसके भी नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे ग्रह छठे अथवा आठवें भाव में स्थित हों तो वे ग्रह छोड़ दें। शेष ग्रह के रत्न लड़के तथा लड़की को धारण करना दीर्घायु प्रदान करने वाला तथा सुख-समृद्धि दाता सिद्ध होगा। तीसरी स्थिति में लड़के तथा लड़की के नक्षत्र के स्वामी ग्रह जन्मपत्री में बलवान तथा बलहीन हो सकते हैं। जिसकी पत्री में जो ग्रह बलवान हों उनसे संबंधित रत्न उसे धारण करवा सकते हैं। दोनों में से जिसके ग्रह बलहीन हों उनके पंचधा मैत्री से मित्र ग्रह देखकर यह पता कर लें कि उनमें से उसके नक्षत्र स्वामी ग्रह से वे षडाष्टक दोष तो नहीं बना रहे हैं। यदि नहीं तो उन ग्रह के रत्न आप उसे धारण करवा सकते हैं। मारकेश, मृत्युभय एवं रत्न चयन राजा हो अथवा रंक - मृत्युभय से कोई भी अछूता नहीं है। मृत्यु आनी है तो फिर त्रिदेव भी उसे टाल नहीं सकते। यदि इस पर विजय प्राप्त हो गई होती तो कुबेरपति अथवा धनपति कभी मरते ही नहीं। क्या है यह भयभीत करने वाला मारकेश? ज्योतिष में वे कौन-कौन से अरिष्टकारी योग बनते हैं जो मारण करते हैं अथवा मरण तुल्य कष्ट देते हैं? ये पूर्णतया ज्योतिष शास्त्र के विषय हैं। संक्षिप्त में यह जान लें कि मृत्यु का निर्णय करने के लिए मारक का ज्ञान करना आवश्यक है। तदनुसार ही रत्नादि चयन करना उचित है। ज्योतिष में लग्नेश, षष्ठेश, अष्टमेश, गुरु तथा शनि से मारकेश का विचार होता है। अष्टमेश बलवान होकर यदि पहले, चैथे, छठे, दसवें अथवा 12वें भाव में हो तो मारक बन जाता है। पूर्व की भांति ऐसे में अष्टमेश के मित्र ग्रहों को पंचधा मैत्री सूची से ज्ञात कर लें। यह देख लें कि जहां अष्टमेश स्थित है वे ग्रह उससे षष्ठम-अष्टम भावगत न हों, न ही उनकी राशि इन भावों में पड़ती हो। उन ग्रहों के रत्न आप मारकेश के प्रभाव को कम करने के लिए धारण कर सकते हैं। यहां विशेष रूप से यह ध्यान रखें कि अन्य किसी विधि से यदि बलवान अष्टमेश का रत्न निकल रहा हो तो वह कदापि धारण न करें अन्यथा वह प्रबल मारकेश बन जाएगा। मारक ग्रह का प्रभाव अष्टमेश ग्रह की अंतर्दशा में प्रभावी होता है, इसलिए उस दशा में यत्न करके वह रत्न अवश्य जुटा लें। शनि षष्ठेश तथा अष्टमेश होकर यदि लग्नेश को देखता है तो लग्नेश ही मारक हो जाता है। ऐसी स्थिति में लग्नेश को, यदि वह बली है, उसके रत्न से बलवान करना होगा। परंतु यदि लग्नेश ऐसे में बली नहीं है तो पूर्व की भांति उसके मित्र ग्रहों में जो बलवान ग्रह हो तथा लग्नेश से छठे या आठवें भी न हो तो संबंधित रत्न धारण करवाना बुद्धिमानी होगी। पराशर के मत से जन्मकुंडली में द्वितीय और सप्तम भाव मारकेश हैं तथा इन दोनों के स्वामी - द्वितीयेश, सप्तमेश, द्वितीय और सप्तम में रहने वाले पाप ग्रह एवं द्वितीयेश और सप्तमेश के साथ रहने वाले पाप ग्रह-मारकेश हो जाते हैं जैसा कि पूर्व में लिखा है। पाप ग्रह मारकेश यदि बली है तब उसके रत्न-उपरत्न अथवा रोगादि से सर्वथा बचें। अन्यथा यह प्रबल मारकेश बन जाते हैं। यहां उनके मित्र ग्रहों के रत्न पूर्व की भांति ही प्रयोग करने चाहिए। शनि मारकेश से भी दो हाथ आगे है, इसीलिए सब इससे भयभीत रहते हैं। प्रबल मारक शनि का रत्न, छल्ला, कड़ा आदि ऐसे में कदापि प्रयोग न करें। सुरक्षा की दृष्टि से शनि के मित्र ग्रहों में से पूर्व की भांति छांटकर उनके रत्न, रंग आदि चयन करें। द्वादशेश पापग्रह हो तो मारक बन जाता है। पापग्रह षष्ठेश हो अथवा पाप राशि में षष्ठेश स्थित हो या पापग्रह से दृष्ट हो तो षष्ठेश की दशा मारक हो जाती है। मारकेश की दशा में षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश की अंतर्दशा भी मारक होती है। मारकेश यदि अधिक बलवान है तो उसकी ही दशा अथवा अंतर्दशा में मरण अथवा मरण तुल्य कष्ट होता है। राहु-केतु पहले, सातवें, आठवें अथवा 12वें भाव में हांे अथवा मारकेश से सातवें भाव में हों अथवा मारकेश के साथ हों तो मारक बन जाते हैं। मकर और वृश्चिक लग्न वालों के लिए राहु मारक बन जाता है। शनि का भूत और रत्न चयन जातक ग्रंथों में शनि की साढ़े साती और ढइया का अलग-अलग तरीके से वर्णन है। इसकी गणना चलित नाम से, लग्न से, चंद्र से तथा सूर्य से की जाती है। एक व्यक्ति के जीवन में अधिक से अधिक साढ़े 22 वर्ष साढ़े साती में निकल जाते हैं। कहते हैं साढ़े साती में जातक उन्नति नहीं कर पाता और उसे दुख, कलह तथा बीमारी आदि निरंतर घेरे रहते हैं। यदि शनि उच्च का हो और उसकी साढ़े साती प्रारंभ हो जाए तो व्यक्ति चहुदिश हानि प्रारंभ हो जाती है। सामान्यतः शनि की साढ़े साती का विचार जन्मपत्री में चंद्रमा की स्थिति से किया जाता है। गोचरवश भ्रमण करता हुआ शनि जब चंद्रमा से द्वादश भाव में प्रवेश करता है तो यह शनि की साढ़े साती का प्रारंभ कहलाता है। चंद्रमा से तीसरी राशि को जब शनि पार करता है तो साढ़े साती का अंत माना जाता है। इस प्रकार हर राशि पर ढाई-ढाई वर्ष भ्रमण करता हुआ चंद्र की राशि सहित उसके आगे और पीछे स्थित रहता है। चंद्रमा से चैथी तथा आठवीं राशियों में जब शनि गोचरवश ढाई-ढाई वर्ष स्थित रहता है तो यह शनि की ढइया कहलाती है। शनि के इन गोचरवश स्थित स्थानों को लोगों ने शनि का भूत, शनि का प्रकोप, दारिद्र्य और आरोग्य से जोड़कर एक अज्ञात भय बैठा दिया है। यह उचित नहीं है। शनि के तथाकथित इन दिनों में सामान्यतः शनि का रत्न नीलम, उपरत्न, लोहे का छल्ला अथवा कड़ा पहनने का चलन है। यह चयन ठीक है परंतु प्रत्येक व्यक्ति के लिए नहीं। सदैव ध्यान रखें कि यम-नियम प्रत्येक व्यक्ति पर सटीक बैठें, यह आवश्यक नहीं है। किसी भी रूप में निदान के समय सामान्य नियमों के स्थान पर व्यक्ति विशेष के अनुरूप नियम खोज करके ही आगे बढ़ना चाहिए। साढ़े साती में रत्न धारण करवाते समय ध्यान रखें कि धारण किए गए रत्न का कैसा भी संबंध उसके गोचर भाव से छठे अथवा आठवें से न हो। भाग्य प्रदायक दिशा एवं रत्न चयन यदि आपको अपना जन्म लग्न ज्ञात है तब तो ठीक है अन्यथा अपने नाम के प्रथम अक्षर की राशि को लग्न मानकर लग्न कुंडली तैयार करें। मान लें आपका नाम राम है और आपकी नाम राशि तुला बनती है। कुंडली में आप देखिए कि दूसरे, नौवें तथा ग्यारहवें भावों में कौन-कौन सी राशियां हैं और वे राशियां किन-किन दिशाओं अथवा विदिशाओं की सूचक हैं। उदाहरण के लिए इन भावों में क्रमशः वृश्चिक, मिथुन तथा सिंह राशियां हैं और वह उत्तर, पश्चिम तथा पूर्व दिशाओं की कारक हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि अपने वर्तमान स्थान से यदि आप इन दिशा-विदिशाओं में पड़ने वाले गांव, शहर आदि में प्रवास करते हैं तो आपके भाग्य में उत्तरोत्तर उन्नति की संभावना बढ़ सकती है। यह बात अवश्य ध्यान में रखें कि यह चयन बहुत ही साधारण सा सूत्र है, शुभ फल की प्राप्ति के लिए अन्य ज्योतिषीय घटकों का आपके लिए अनुकूल होना भी परमावश्यक है। लाभ देने वाले घटकों में एक विकल्प उचित रत्न चयन भी हो सकता है। इन राशियों के रत्न, उपरत्नादि यदि परस्पर मित्र हैं तो आपके लिए भाग्यशाली सिद्ध हो सकते हैं। यदि तीन रत्नों का संयोग न मिल पाए तो यह देखें कि कौन से दो रत्न परस्पर मित्र हैं। यदि यह संयोग भी नहीं मिल रहा है तो आप राशियों के अन्य मित्र राशियों के रत्न चयन करें। अन्य मित्र राशियों का चयन करते समय षडाष्टक दोष का ध्यान अवश्य रखें अर्थात वे राशियां छठे, आठवें भाव में परस्पर न हों।

गर्भपात का ज्योतिषीय कारण

विवाह के बाद संतान का ना होना कष्ट देने वाला होता है उसमें भी यदि संतान सुख में बाधा गर्भपात का हो तो मानसिक संत्रास बहुत ज्यादा हो जाती है। कई बार चिकित्सकीय परामर्ष अनुसार उपाय भी कारगर साबित नहीं होते हैं किंतु ज्योतिष विद्या से संतान सुख में बाधा गर्भपात का कारण ज्ञात किया जा सकता है तथा उस बाधा से निजात पाने हेतु ज्योतिषीय उपाय लाभप्रद होता है। सूर्य, शनि और राहु पृथकताकारक प्रवृत्ति के होते हैं। मंगल में हिंसक गुण होता है, इसलिए मंगल को विद्यटनकारक ग्रह माना जाता है। यदि सूर्य, शनि या राहु में से किसी एक या एक से अधिक ग्रहों का पंचम या पंचमेष पर पूरा प्रभाव हो तो गर्भपात की संभावना बनती है। इसके साथ यदि मंगल पंचम भाव, पंचमेष या बृहस्पति से युक्त या दृष्ट हो तो गर्भपात का होना दिखाई देता है। आषुतोष भगवान षिव मनुष्यों की सभी कामनाएॅ पूर्ण करते हैं अतः संतानसुख हेतु पार्थिवलिंगार्चन और रूद्राभिषेक से संतान संबंधी बाधा दूर होती है।

प्रकृति एवं ज्योतिष

न केवल भारतीय सनातन परम्परा में बल्कि शिव की अन्य संस्कृतियों में भी ‘आदि-मिथुन’ की कल्पना की गई है। चाहे वह पाश्चात्य संस्कृति में उपलब्ध एडम और ईव हों अथवा स्वयम्भुवन् मनु और सद्रूपा। मानव जाति को स्त्री-पुरुष द्वन्द्वात्मक स्वरूप में ही स्वीकृत किया गया है। मानव जाति और सभ्यता के लाखों वर्षों के विकासक्रम में स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य प्रकृति भी अस्तित्व में आ गई है। यह प्रकृति स्त्री और पुरुष के मध्य की है और अपने हाव-भाव, व्यवहार, चिंतन, पसंद-नापसंद के आधार पर इन्होंने समाज में अपना एक अलग स्थान निश्चित कर लिया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में स्त्री जातक-पुरुष जातक के अतिरिक्त इस विशिष्ट प्रकृति से संबंधित विषयों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। न केवल भारतीय सनातन परम्परा में बल्कि शिव की अन्य संस्कृतियों में भी ‘आदि-मिथुन’ की कल्पना की गई है। चाहे वह पाश्चात्य संस्कृति में उपलब्ध एडम और ईव हों अथवा स्वयम्भुवन् मनु और सद्रूपा। मानव जाति को स्त्री-पुरुष द्वन्द्वात्मक स्वरूप में ही स्वीकृत किया गया है। मानव जाति और सभ्यता के लाखों वर्षों के विकासक्रम में स्त्री-पुरुष के अतिरिक्त एक अन्य प्रकृति भी अस्तित्व में आ गई है। यह प्रकृति स्त्री और पुरुष के मध्य की है और अपने हाव-भाव, व्यवहार, चिंतन, पसंद-नापसंद के आधार पर इन्होंने समाज में अपना एक अलग स्थान निश्चित कर लिया है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र के प्राचीन ग्रंथों में स्त्री जातक-पुरुष जातक के अतिरिक्त इस विशिष्ट प्रकृति से संबंधित विषयों पर पर्याप्त चर्चा उपलब्ध होती है। यह सृष्टि द्वन्द्वात्मक है। स्त्री और पुरुष का विपरीत लिंगियों के प्रति आकर्षण सनातन और अनादि काल से होता रहा है और इसे प्राचीन समाजशास्त्री ऋषि मुनियों और आधुनिक संविधान और कानून द्वारा भी मान्यता प्रदान की गई है। परंतु जब इस सनातन व्यवस्था का अतिक्रमण कर पुरुष का पुरुष के प्रति और स्त्री का स्त्री के प्रति आकर्षण और यौन संबंध आदि अस्तित्व में आ जाए तो इसकी वैधता और अवैधता का निर्धारण करने वाले कानूनविदों, न्यायालयों और कानून निर्माताओं के लिए अत्यंत ही असहज स्थिति उत्पन्न हो जाती है। परिवार के किसी प्रिय व्यक्ति के इस स्थिति में आने पर स्थिति और भी अधिक सोचनीय हो जाती है। कारण - आधुनिक चिकित्सा विज्ञान के अनुसार गर्भ के तृतीयामास से ही भ्रूण के लिंग निर्धारण की प्रक्रिया आरंभ हो जाती है और यौवनारंभ की कालावधि में हाॅर्मोनों के प्रभाव से पुरुष या स्त्री विषयक शारीरिक और मानसिक परिवर्तन अस्तित्व में आते हैं। स्त्री तथा पुरुष हाॅर्मोन्स का आधिक्य और पुरुष शरीर में स्त्री हाॅर्मोन का आधिक्य ही ऐसी असहज स्थिति उत्पन्न करता है और तृतीय प्रकृति अस्तित्व में आती है। भारतीय ज्योतिषशास्त्र में ही स्पष्ट रूप से इस विषय पर चर्चा की गई है और कहा गया है कि गर्भाधान के समय स्त्री-पुरुष की जैसी मनोभावना, उत्कट इच्छाएं, गर्व, कामातुरता, कफ-वात आदि की मात्र रहती है, वैसे ही गुण गर्भस्थ शिशु में भी आ जाते हैं जातक की शारीरिक और मानसिक दशा का निर्धारण उसके देश, जाति, कुल, पूर्वज आदि के द्वारा ही निर्धारित होता है। जहां तक जातक के शरीर की बनावट का प्रश्न है तो लग्न में स्थित नवांश राशि से शरीर की बनावट प्रभावित होती है। इसी प्रकार सूर्य जिस ग्रह के त्रिशांश में स्थित हो उसी ग्रह के रूप, गुण, शील व प्रकृति का जातक पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। प्राचीन भारतीय मनीषियों ने अपने ग्रंथों में स्त्री-पुरुष के साथ ही साथ ‘नपुंसक’ के लिए भी विशेष रूप से विचार किया है। इन ग्रंथों में नपुंसकों के अधिपति के रूप में बुध व शनि को स्वीकृत किया गया है। जन्मकालीन ग्रह स्थिति, यौवनारम्भ की कालावधि में हाॅर्मोन्स का असंतुलन, सान्न्ािध्य आदि ऐसे अनेक महत्वपूर्ण अवयव हैं, जिससे मनुष्य की ंिचंतनशैली प्रभावित होती है। इन कारणों के अतिरिक्त कभी-कभी दुर्घटनावश, चिकत्सकीय आवश्यकताओं, दुर्भावनावश या स्वेच्छा से ही पुरुष जातक का लिंगच्छेद भी होता देखा गया है। यहां कुछ ऐसे ही ज्योतिषशास्त्रीय योगों की चर्चा की गई है, जिनके जन्मांग में उपस्थिति के कारण ‘तृतीया प्रकृति’ और उनसे संबंधित हाव-भाव और शारीरिक व्यवहार अस्तित्व में आते हैं- ज्योतिषशास्त्रीय योग - बलवान सूर्य व चन्द्रमा विषम राशियों में हों तथा परस्पर दृष्टि रखते हों। बलवान बुध शनि विषम राशियों में परस्पर राशि में चंद्रमा व सूर्य लग्न में हों तथा उन्हें मंगल देखता हो। विषम राशि में बुध, सम राशि में चंद्रमा हों तथा दोनों को मंगल देखता हो। विषम राशि व विषम नवांश में लग्न, चंद्रमा व बुध हों तथा उन पर शुक्र शनि की दृष्टि हो, सूर्य, बुध तथा शनि एक साथ हों। चंद्र, मंगल, गुरु, शुक्र, शनि साथ हों। सिंहस्थ सूर्य शनि द्वारा दृष्ट हों। कन्या राशि में सूर्य हो तो स्त्रीवत शरीर वाला। मकर या कुंभ राशि के सूर्य पर बुध की दृष्टि हो। मिथुन राशि में चंद्रमा हो तो नपुंसकों का मित्र। कर्क नवांशगत चंद्रमा शुक्र द्वारा दृष्ट हो। बुध मकर या कंुभ राशि में स्थित हो। सिंहस्थ बुध को मंगल देखता हो। कन्या राशि में शनि हो। वृष या तुलागत शनि को बुध देखे। मिथुन व कन्या राशि में शनि का त्रिशांश हो तो कन्या नपुंसक। सिंह राशि में बुध का त्रिशांश हो तो पुरुष के समान व्यवहार करने वाली। बुध, शुक्र, चंद्र निर्बल हों, शनि मध्यबली व शेष पुरुष ग्रह बली हो तो स्त्री का आचरण पुरुषवत् होता है। दशम भाव में अथवा अष्टम भाव में शुक्र और शनि की युति हो तथा शुभ ग्रह से अदृष्ट हों। शनि जलराशिस्थ होकर षष्ठ या द्वादश भाव में शुभ दृष्टि से रहित होकर स्थित हों। कारकांश लग्न में केतु स्थित होकर शनि और बुध से दृष्ट हो। षष्ठ या अष्टम भाव में नीचराशि का शनि हो। नपुंसक ग्रहों की राशि लग्न में हो तथा नपुंसक ग्रह राशि का नवांश भी हो। सप्तम, दशम, चतुर्थ में नपुंसक ग्रह हों। शुक्र से युक्त शनि दशम भाव में या शुक्र से षष्ठ या व्यय भाव में जलचर राशिस्थ शनि हो। सप्तमेश पाप ग्रहों के साथ नीच राशि में अस्त हो या छठे या आठवें भाव में हो या पाप ग्रहों से युक्त होकर सप्तम भाव में हो। सप्तम भाव में निर्बल क्रूर ग्रह या शुभ ग्रह हो तथा सप्तमेश अष्टम में या दूसरे ग्रह के नवांश में हो। निर्बल लग्नेश नीच राशि में नीच राशिस्थ ग्रह से दृष्ट हो व सप्तमेश छठे भाव में अस्त हो। प्रथम, द्वि तीय, तृतीय तथा चतुर्थ भावों में शुभ ग्रह व पाप ग्रह हों और सप्तमेश सप्तम में पाप ग्रह के साथ हों। शुक्र के नवांश में शनि और शनि के नवांश में शुक्र हो और दोनों में परस्पर दृष्टि संबंध बन रहा हो। लग्न में वृष, तुला या कुंभ राशि का नवमांश हो। षष्ठेश और बुध, राहु या केतु के साथ लग्न में स्थित हो तो लिंगच्छेद। सप्तमेश और शुक्र संयुक्त होकर छठे भाव में स्थित हो तो स्त्री नपुंसक (षण्ढा)। षष्ठ भाव का स्वामी बुध और राहु के साथ युत हो और लग्नेश के संबंध हो। षष्ठेश लग्न में बुध की राशि का हो तथा लग्नेश बुध स्वयं की राशि में हो तो स्त्री नपुंसक। इसी योग में यदि शनि तथा बुध भी साथ हों तो पुरुष नपुंसक होता है। लग्नेश बुध से युक्त होकर चंद्रमा लग्न में बैठा हो। लग्न एवं चंद्रमा दोनों ही पुरुष राशियों में हों तथा इन्हीं राशियों के नवांश भी हों तथा लग्न, चंद्र पर पाप ग्रहों की दृष्टि हो तो स्त्री का शरीर, रूप, स्वभाव, पुरुषाकार। सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध तथा शुक्र साथ हों तो नपुंसकों से मित्रता रखने वाला। सिंहस्थ चंद्रमा पर बुध की दृष्टि हो तो स्त्री के समान हाव-भाव दिखाने वाला होगा। निराकरण - जन्मांक में उपरोक्त योगों की उपस्थिति यदि अधिक मात्रा में हो तो जातक के बाल्यावस्था (3-4 वर्ष) में ही ज्योतिषशास्त्रीय उपाय करा लेने चाहिए। इन योगों के निर्धारक ग्रहों से संबंधित मंत्रों का शास्त्रीय अनुष्ठान भी इस दृष्टि से अनुकूल प्रभाव उत्पन्न कर सकता है। यौवनारम्भ के दिनों में चिकित्सकों से परामर्श तथा जीवनशैली, रहन-सहन आदि पर नियंत्रण द्वारा भी इस असहज स्थिति से बचा जा सकता है।

बेहतर करियर के लिए कुंडली में शनि को बनाए प्रबल

शनि को ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील माना जाता है अर्थात् शनि सृष्टि के संतुलन चक्र का नियामक है। क्योंकि बैलेंस शनि का मुख्य गुण है इसलिए यह बैलेंस की कारक राशि तुला में अतिप्रसन्न अर्थात् उच्चराशिस्थ होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में अधिक संतुलन, सुरक्षा व स्थिरता अर्थात् जाॅब सैक्यूरिटी आदि देने में समर्थ होते हैं। इसे न्याय का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य को उसकी गलतियों और पाप कर्मों के लिए दण्डित करके मानवता की रक्षा करता है और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया को स्थिरता पूर्वक गति देता रहता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में करियर के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के सभी शुभ योग विद्यमान हों तो यह सही है कि जातक अपने करियर में ऊंचा उठेगा लेकिन उन्नति प्राप्त होने का उसका मार्ग सरल होगा या कठिनाइयों से भरा हुआ होगा इसका सूक्ष्म विष्लेषण करने हेतु कुंडली में शनि की स्थिति का अध्ययन करना होगा। यदि कुंडली में शनि की स्थिति उत्तम हो, यह 3, 6, 10 या 11वें भाव में स्थित हो, नीचराषिस्थ व पीड़ित न हो तो आसानी से सफलता मिलेगी। नीचराषिस्थ होने की स्थिति में पूर्ण नीचभंग हो रहा हो तो भी सफलता मिल सकती है। परंतु यदि शनि का नीचभंग नहीं हुआ या शनि शत्रुराषिस्थ व पीड़ित होकर अषुभ भाव में स्थित हुआ तो जातक की सफलता पर प्रष्न चिह्न लग जाएगा तथा विषेष योग्यता संपन्न होने के बावजूद भी उसे जीवन में कठिनाइयों व संघर्ष से जूझना पड़ेगा तथा वह साधारण जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएगा। शनि हमें यथार्थवादी बनाकर हमारी वास्तविक शक्तियों व योग्यताओं से अवगत करवाता है तथा हमें एकान्तप्रिय होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करवाता है अर्थात् हमें थ्वबनेमक रखता है। कालपुरुष के अनुसार शनि को व्यवसाय के कारक दशम भाव का स्वामी माना जाता है। हमारे जीवन में स्थिरता व संतुलन का विचार दशम भाव से भी किया जाता है क्योंकि दशम भाव व्यवसाय का घर होता है और जितना हम व्यावसायिक स्तर पर सफल होते हैं उतनी ही श्रेष्ठ सफलता हमें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्राप्त होती है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं संतुलन अर्थात् बैलेंस के कारक शनि की राशि का व्यवसाय के भाव में होना उचित ही है। ग्रहों में शनि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि यह ग्रह बलवान होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता जातक के कदम चूमती है। शनि की विशेष उत्तम स्थिति से जातक को बहुत से नौकर-चाकर, उच्च पद्वी, सत्ता व धन सम्पदा आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। शनि को सत्ता का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि राजनीति, कूटनीति, मंत्रीपद सभी इसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यदि कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो यह कालपुरुष की दशम राशि मकर को दशम दृष्टि से देखकर न केवल व्यावसायिक जीवन में सफलता की गारंटी देता है अपितु अपनी लग्नस्थ स्थिति के कारण जातक को कुशल विचारक व योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की योग्यता भी देता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, तांत्रिकों व ज्योतिषियों की कुंडली में शनि की इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। यदि लग्नस्थ शनि नीच का भी हो तो भी व्यावसायिक जीवन में स्थिरता व अधिकार प्राप्ति का कारक बनता है क्योंकि वह दशम दृष्टि से अपनी राशि को देखता है और कालपुरुष के अनुसार भी दशम भाव में इसकी मकर राशि ही होती है जिसे व्यवसाय की कारक राशि माना जाता है। लग्नस्थ शनि सभी लग्नों के लिए श्रेष्ठ है यद्यपि चर लग्न के लिए शनि की लग्नस्थ स्थिति अधिक उत्तम मानी जाएगी क्योंकि चर लग्नों के जातकों में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होती है जबकि शनि का गुण धैर्य व स्थिरितापूर्वक एकाग्रचित्त होकर कार्य सम्पादन करना है। इसलिए इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण जातक को श्रेष्ठस्तरीय सफलता का सूत्र व मार्ग स्पष्ट कर देता है। यदि कर्क लग्न के शनि का विचार करें तो यह सामान्य रूप से प्रबल अकारक होता है लेकिन शुभ भाव लग्न में बैठकर यह न केवल अष्टमेश का शुभ फल देकर दीर्घायु बनाता है अपितु जातक को रिसर्च ओरिएंटड, गुप्त व कूटनीतिक योग्यताओं से सम्पन्न भी कर देता है। कर्क लग्न की अपनी यह विशेषता होती है कि इससे प्रभावित जातकों का शरीर, मन और आत्मा एकात्म समन्वित होते हैं। लग्न से शरीर व आत्मा का विचार तो होता ही है साथ ही मन की राशि कर्क के लग्न में आ जाने से चंद्रमा का प्रभाव भी लग्न में आ जाएगा क्योंकि यह लग्नेश होगा इसलिए ऐसी कुंडली में लग्नस्थ शनि शरीर, मन व आत्मा तीनों को प्रभावित करेगा अर्थात् मानव को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले ग्रह शनि का प्रभाव आपके जीवन के हर पक्ष पर सीधे रूप से पड़ेगा और फलस्वरूप आप सर्वाधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होंगे तथा राजनीति के गलियारों में आपकी कुशलता का विशेष डंका बजेगा। तुला लग्न की पत्री में लग्नस्थ शनि उच्चराशिस्थ होकर चतुर्थेश व पंचमेश होकर आपको शश योग से समन्वित करके परम भाग्यशाली बना देगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में आप सफल होंगे। ऐसा भी संभव है कि आप योग, अध्यात्म, वैराग्य, दर्शन, त्याग आदि की कठिनतम रहस्यमयी आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करके संसार को चमत्कृत कर दें अथवा कोई बड़े वैज्ञानिक बनें। मकर राशि की कुंडली में लग्नेश शनि अपार धन सम्पदा से सम्पन्न बड़ा व्यापारी तो बना ही देगा साथ ही आपकी एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रवृत्ति को भी सुदृढ़ करेगा। अधिकतर ऐसा देखा गया है कि दशम भावस्थ शनि चाहे किसी भी राशि का हो, जातक के जीवन में व्यावसायिक स्थिरता बनी रहती है। यदि ऐसा शनि नीच का हो तो भी जातक का कार्य चलता रहता है। नीच राशि का शनि अक्सर ज्योतिष कार्यों से या अन्य परामर्श संबंधी कार्यों से लाभान्वित कराता है। शनि का दशम भाव से संबंध होने से लोहे का व्यापार तथा तिल, तेल, खनिज पदार्थ, पेट्रोल, शराब आदि के क्रय-विक्रय से, ठेकेदारी से, दण्डाधिकारी, सरपंच अथवा मंत्री पद आदि से लाभान्वित करवा सकता है। जब शनि गोचर में उच्चराशिस्थ होता है तो समाज, देश व संसार में जगह-जगह पर न्याय व्यवस्था के समुचित रूप से स्थापित किए जाने की आवाजें उठने लगती हैं। ऐसा 30 वर्ष में एक बार होता है और ऐसे में शनि समाज में फैली अव्यवस्थाओं और अन्याय को नियंत्रित करता ही है। मानव के स्वभाव, भाग्य व जीवन चक्र का नियमन चंद्र की गति, नक्षत्र व चंद्र पर अन्य ग्रहों के प्रभाव द्वारा होता है इसलिए जातक की मानसिकता, मनः स्थिति, ग्रह दशा के क्रम व गोचर का विचार भी चंद्रमा को केंद्र में रखकर ही किया जाता है। कुंडली में सत्ता की प्राप्ति के प्रबल कारक शनि का गोचर में चंद्रमा के निकट आना जीवन में जिम्मेदारियों के बढ़ने तथा सत्ता प्राप्ति का सबब बनते देखा गया है। इसे साढ़ेसाती भी कहते हैं। कुंडली में शनि की खराब स्थिति तथा साढ़ेसाती में अशुभ भाव व राशि में वक्री या अस्त होकर गोचर करना करियर में जबर्दस्त नुकसान देता है, नौकरी छूट जाती है, राजनीति में हार तथा व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। वहीं कुंडली में शनि की शुभ स्थिति हो तथा अच्छे राजयोग बन रहे हों तो ऐसे में साढ़ेसाती के समय शनि का शुभ भाव व राशि में गोचर करियर में श्रेष्ठतम सफलता प्रदान करता है। जितनी श्रेष्ठ कुंडली होगी उतनी ही ऊंची सफलता सुनिश्चित हो जाएगी। श्रेष्ठतम कुंडली में शुभ साढ़ेसाती सत्ता का सुख देती है। चाहे ग्रह योग व साढ़ेसाती का सूक्ष्म निरीक्षण कितना ही शुभ फलदायी प्रतीत होता हो परंतु जातक को साढ़ेसाती के समय व्यापार में जोखिम नहीं उठाना चाहिए। शनि की साढ़ेसाती आपको अपने व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है साथ ही आपको जोखिम उठाने के लिए मना करती है। आपके लिए ऐसी कठिनाइयां भी उत्पन्न करती है जिससे आप अपनी गलतियों से सीखें। यह तकलीफें देकर आपको न केवल एक अच्छा इंसान बना देती है अपितु करियर को भी समुचित दिशा प्रदान करती है। जब कुंडली में शनि की स्थिति श्रेष्ठ हो, धन व लाभ भाव के स्वामी विशेष बली हों तथा गुरु व बुध भी उत्तम स्थिति में हों और गोचरस्थ शनि चंद्रमा से तृतीय, षष्ठ व एकादश भावों में शुभ राशि व शुभ ग्रहों के ऊपर से गोचर कर रहा हो तो वह समय व्यापारिक क्षेत्र में उन्नति के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। इस समय यदि शुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा भी चल रही हो तो जोखिम भी उठाए जा सकते हैं क्योंकि सफलता तय है। जिस समय दशम भाव, दशमेश व दशम के कारक पर शनि व गुरु दोनों का गोचरीय प्रभाव आ रहा हो और यह गोचर चंद्रमा से शुभ हो व शुभ राशि में भी हो तो करियर में उन्नति निश्चित रूप से होती है। यदि शनि मेष या वृश्चिक राशि में हो या मंगल से दृष्ट हो तो जातक मशीनरी, फैक्ट्री, धातु, इंजीनियरिंग, इंटीरियर या बिजली संबंधी कार्यों, केंद्रीय सरकार, कृषि विभाग, खान, खनिज या वास्तुकला विभाग में कार्य करता है। यदि इस ग्रह योग पर गुरु व शुक्र का भी प्रभाव हो तो ऐसा जातक न केवल धन लाभ अर्जित करता है अपितु उसे भूमि व सम्पति का लाभ भी प्राप्त होता है। यदि शनि वृष या तुला राशि में हो अथवा इस पर शुक्र की दृष्टि हो तो कला, प्रबंधन, कम्प्यूटर के व्यवसाय से लाभ उठाता है। यदि गुरु व बुध का शुभ प्रभाव भी इस ग्रह योग पर पड़ता हो तो कानूनविद्, वकील, न्यायाधीश आदि के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। शनि और शुक्र मित्र हैं इसलिए शनि पर शुक्र का यह प्रभाव सौभाग्यवर्धक माना जाता है। शनि से गुरु, शुक्र व बुध की शुभ स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आय लाभ नियमित रूप से होता रहता है। ऐसे जातक अपने व्यवसाय में विशेष सुखी होते हैं। उनके पास धन, वाहन और भवन सभी मौजूद रहते हैं। शनि मिथुन या कन्या में हो अथवा बुध से दृष्ट हो तो ऐसे जातक एकाउंटिंग, काॅस्टिंग, अभिनय, बुद्धिजीवी वाले कार्यों, व्यापार, वितत्य सौदों, विज्ञान व वाकपटुता आदि के अतिरिक्त लेखन कला व कानून संबंधी कार्यों से धन लाभ प्राप्त करते हैं। यदि गुरु व शुक्र का भी प्रभाव रहे तो धन कमाना सरल होने लगता है। ऐसे जातक को मित्रों से भी सहयोग मिलता है। शनि कर्क राशि में हो या चंद्रमा से दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति कला, ज्योतिष, राजनीति, धर्म, यात्रा, पेय पदार्थ, साहित्य, जल, मदिरा आदि के कार्यों से लाभ उठाते हैं। ऐसे लेगों के करियर में बार-बार परिवर्तन होते हैं। करियर में यात्राएं भी खूब होती हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं कि ऐसे लोग कठिन परिश्रम वाले कार्यों में संलग्न होना चाहें। ऐसे लोग अधिकतर शांत व नरम स्वभाव के होते हैं। शनि सिंह राशि में हो अथवा सूर्य से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को सरकारी नौकरी या सत्ताधारी लेागों से लाभ मिलता है। इसका यह भी संकेत निकाल सकते हैं कि पिता पुत्र का व्यापार या साझेदारी आदि में संबंध है। इसके कारण सरकारी नौकरी व राजनीति से लाभ मिलता है। शनि सूर्य की शत्रुता के चलते कुछ संघर्ष के पश्चात् सफलता मिलती है। इसलिए यदि गुरु, शुक्र व बुध आदि ग्रहों का शनि पर प्रभाव न हो तो व्यावसायिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि गुरु, शुक्र, बुध व बलवान चंद्रमा का प्रभाव आ जाए तो जातक को विशेष प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। यदि शनि धनु या मीन राशि म हो या गुरु से दृष्ट हो तो जातक को कानून, वन विभाग, लकड़ी या धार्मिक संस्थाओं आदि में विशेष सफलता मिलती है। यह ग्रह योग जातक को मनोविज्ञान, गुप्त ज्ञान (पराविद्या), प्रशासनिक कार्य, प्रबंधन कार्य, शिक्षक, अन्वेषक, वैज्ञानिक, ज्योतिषी, मार्गदर्शक, वकील, इतिहासकार, चिकित्सक, धर्मोपदेशक आदि के रूप में प्रतिष्ठित कराता है। ऐसे जातक में वाद-विवाद करने का विशेष चातुर्य होता है व व्यक्तित्व विशेष आकर्षक होता है। इनके बहुत से मित्र होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। ऐसा ग्रह योग स्वतंत्र व्यवसाय या रोजगार की प्राप्ति करवाता है। शनि मकर या कुंभ राशि में हो तो जातक को सेवा, यात्रा, जन आंदोलन, विक्रय कार्य अथवा लायजनिंग संबंधी कार्यों से लाभ होता है। शनि विदेशी भाषा का कारक है इसलिए विद्या व भाषा पर अधिकार देने वाले ग्रहों जैसे शुक्र, गुरु, बुध व केतु से इसका शुभ संबंध और स्थिति जातक को अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का विद्वान बनाती है। शनि के ऊपर, गुरु, बुध, केतु इन सभी का प्रभाव पड़े तो मशहूर वकील बने। शनि पर केवल राहु का प्रभाव हो तो जातक छोटी नौकरी से गुजर बसर करता है परंतु यदि राहु के साथ-साथ गुरु, शुक्र का भी प्रभाव हो तो प्रारंभ में नौकरी करने के पश्चात् जातक धीरे-धीरे अपने आप को स्वतंत्र व्यवसाय में भी स्थापित कर लेता है।