ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह के अनेक नाम हैं - सूर्य पुत्र, अस्ति, शनैश्चर इत्यादि। अन्य ग्रहों की अपेक्षा जो ग्रह धीरे-धीरे चलता हुआ दिखाई देता है उसे ही हमारे ऋषि मुनियों ने ‘‘शनैश्चर ‘‘अथवा ’शनि’ कहा है। पाश्चात्य ज्योतिष में इसे ‘‘सैटर्न’’ कहते हैं। जनसाधारण में इसे सर्वाधिक आतंकवादी ग्रह के रूप में जाना जाता है। ऐसी धारणा है कि शनि की महादशा, ढैया अथवा साढ़ेसाती कष्टकारी या दुःखदायी ही होती है। भारतीय ज्योतिष में शनि को न्यायाधीश माना गया है। किंतु ‘शनि’ एक ऐसा ग्रह है जो विपत्तियाँ, संघर्षों और कष्टों की अग्नि में तपाकर जातक को अतिशय साहस और उत्साह देता है तथा उसके श्रम एवं अच्छे कर्मों का पूर्ण फल और शुभत्व भी प्रदान करता है। ‘‘जातक परिजाता’’ में दैवज्ञ वेद्यनाथ जी ने शनि को ‘‘चतुष्पदो भानुसुत’’ कहा है। 6, 8, 12 भाव इसके अपने भाव हैं। यह पश्चिम दिशा का स्वामी ग्रह है, मकर तथा कुंभ राशि का स्वामी है। शनि ग्रह से वात्-कफ, वृद्धावस्था, नींद, अंग-भंग पिशाच बाधा आदि का विचार करना चाहिए। शनि से प्रभावित व्यक्ति अन्वेषक, ज्योतिषी, ठेकेदार, जज इत्यादि हो सकता है, मेष राशि में नीच तथा तुला राशि में उच्च स्थिति में होता है। पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्रपद इसके नक्षत्र हैं। अन्य ग्रहों के समान शनि ग्रह के भी कुंडली के 12 भावों और 12 राशियों में भिन्न-भिन्न फल होते हैं। वैसे प्रथम भाव में शनि यदि उच्च राशिस्थ अथवा स्वगृही है तो जातक को धनी, सुखी बनाता है। द्वितीय भाव में नेत्र रोगी, तृतीय में बुद्धिमान, चतुर्थ में भाग्यवान, बुद्धिमान एवं अपयशी भी बनाता है। इसी प्रकार द्वादश भावों में शनि के पृथक-पृथक फल बताये गये हैं। किंतु यहां पर में केवल चतुर्थ भावस्थ शनि के बारे में एक विचित्र एवं स्वानुभूत सत्य बताने की चेष्ट है। जैसा कि सर्वविदित है कि चतुर्थ भाव मातृ कारक भाव माना गया है। माता से संबंधित ज्ञान कुंडली के चतुर्थ भाव से प्राप्त करना चाहिए। अनेकानेक कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद देखा गया कि शनि यदि चतुर्थ भाव में होगा तो ऐसे जातक को अपनी माता का सुख कम मिलता है तथा उसके जीवन में किसी एक ऐसी महिला का पदार्पण अवश्य होता है जिसे वह अपनी माता के समान ही सम्मान देता है और अपनी मां के होते हुए भी वह अपना सम्पूर्ण आदर, प्रेम व सम्मान उस स्त्री को देता है जिसे वह मातृतुल्य समझता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वाला जातक ऐसी स्त्री को मां मानता है अर्थात उसके जीवन में एक से अधिक माताओं का प्यार होता है। यह महिला कोई भी हो सकती है, उसकी मौसी, चाची, बुआ या यहां तक भी देखने में आया है कि दोनों का कहीं से कोई भी संबंध नहीं है फिर भी कभी उससे बात हुई और धीरे-धीरे ये मां और बेटे के संबंध इतने मधुर हो जाते हैं कि यथार्थ में उनका प्रेम मां बेटे जैसा हो जाता है। यह एक शोध का विषय है जो क्रमशः कई कुंडलियों का लगातार अध्ययन करने के बाद पाया गया है। अब इस कथन की सत्यता को स्थापित करने के लिए कुछ कुंडलियों की ज्योतिषीय व्याख्या करते हैं - सर्वप्रथम देखते हैं युग पुरुष-मर्यादा पुरोशोत्तम भगवान श्रीरामचंद्र जी की जन्म पत्रिका - भगवान श्रीरामचंद्र की कुंडली कर्क लग्न की है। माता का कारक ग्रह चंद्रमा स्वयं लग्न में और चतर्थ भाव में उच्चस्थ शनि । शनि और चन्द्र का केंद्रस्थ संबंध और माता का कारक कुंडली में (शुक्र) नवम् भाव में गुरु की राशि में उच्चस्थ। चतुर्थ भावस्थ शनि ने चार-चार माताएं प्रदान की।
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