Wednesday 28 September 2016

मूल नक्षत्र

श्रीरामचरितमानस के रचियता गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र हुआ था। दरअसल अभुक्त मूल नक्षत्र यानी ज्येष्ठा नक्षत्र की अन्त की दो घड़ी तथा मूल नक्षत्र की आदि की दो घडी अभुक्त मूल कहलाती है। लेकिन यह बातें तब मानी जाती हैं। जब जातक के माता- पिता पहले से ही धर्म कार्यों के प्रति समर्पित हों। दरअसल जन्म के दौरान मूल पड़ना और जन्में शिशु का मांगलिक हो जाना। इसके पीछे भी विज्ञान है और वो है ज्योतिष विज्ञान। जब बच्चे का जन्म होता है तो उस का जन्म समय, तिथि, दिन, स्थान के आधार पर उस की कुंडली ज्योतिषाचार्य और पंडितों द्वारा तैयार करवा ली जाती है।
जन्म कुंडली के आधार पर ही पता चलता है कि वह शिशु जन्म होने के बाद मांगलिक है या नहीं। जन्म मूल नक्षत्र में हुआ है या नहीं और उस के जन्म के समय कौन से ग्रह नक्षत्र शुभ थे और कौन से अशुभ। कुंडली के आधार पर ही उस के पूरे भविष्य की गणना कर ली जाती है।
ये होते हैं गंडमूल नक्षत्र
अश्वनी, अश्लेषा, मघा, ज्येष्ठा, मूल और रेवती गंडमूल नक्षत्र कहलाते हैं। इन नक्षत्रों में जन्मे शिशु को 27 दिन तक पिता से दूर रखा जाता है ऐसा इसलिए क्यों कि पिता का शिशु को देखना वर्जित माना गया है। हिंदू धर्म शास्त्रों के अनुसार जन्म के ठीक 27वें दिन उसी नक्षत्र में इसकी मूल शांति करवाना बहुत जरूरी है। 27 नक्षत्रों में से 6 नक्षत्रों (ऊपर वर्णित) में चन्द्रमा के होने से यह दोष माना जाता है। यानी यह दोष लगभग हर चौथी-पांचवी कुंडली में बन जाता है। लेकिन यह धारणा ठीक नहीं है यह दोष इतनी अधिक कुंडलियों में नही बनता। यह दोष हर चौथी-पांचवी कुंडली में नहीं बल्कि हर 18 वीं कुंडली में ही बनता है। वैज्ञानिक परिभाषा के अनुसार यह दोष चन्द्रमा के इन 6 नक्षत्रों के किसी एक नक्षत्र के किसी एक विशेष चरण में होने से ही बनता है, न कि उस नक्षत्र के चारों में से किसी भी चरण में स्थित होने से।
मूल नक्षत्रों का प्रभाव
ज्येष्ठा नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो बड़े भाई को कष्ट, दूसरे में छोटे भाई को कष्ट, तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है। ज्येष्ठा मूल नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट दूसरे में माता को कष्ट तीसरे में धन हानि तथा चौथे में शुभ होता है। अश्वनी नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है। आश्लेषा नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो शुभ, दूसरे में धन हानि, तीसरे में माता को कष्ट तथा चौथे में पिता को कष्ट होता है। मघा नक्षत्र के पहले चरण में जन्म हो तो माता के पक्ष को हानि ,दूसरे में पिता को कष्ट तथा अन्य चरणों में शुभ होता है।
मूल नक्षत्रों की शांति मूल नक्षत्रों में जन्म लेने वाले शिशु के भविष्य के लिए नक्षत्रों की शांति करवानी चाहिए। मूल शांति कराने से इनके कारण लगने वाले दोष शांत हो जाते हैं।

Tuesday 27 September 2016

विवाह हेतु महत्वपूर्ण ग्रहों की दृष्टि

हमारे शास्त्रों में 16 संस्कार बताये गये हैं जिनमें विवाह सबसे महत्वपूर्ण संस्कार है। हमारे समाज में जीवन को सुचारू रूप से चलाने एवं वंश को आगे बढ़ाने के लिए विवाह करना आवश्यक माना गया है। जब हम कुंडली में विवाह का विचार करते हैं तो उसके लिए नौ ग्रहों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रह गुरु, शुक्र और मंगल का विश्लेषण करते हैं। इन तीनों ग्रहों का विवाह में विशेष भूमिका होती है। यदि किसी का विवाह नहीं हो रहा है या दांपत्य जीवन ठीक नहीं चल रहा है तो निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि उसकी कुंडली में गुरु, शुक्र और मंगल की स्थिति ठीक नहीं हैं। गुरु वर-वधू की कुंडली में गुरु ग्रह बली होना चाहिए। गुरु की शुभ दृष्टि यदि सप्तम भाव पर होती है तो वैवाहिक जीवन में परेशानियों के बाद भी अलगाव की स्थिति नहीं बनती है अर्थात गुरु की शुभता वर-वधू की शादी को बांधे रखती है। गुरु ग्रह शादी के साथ-साथ संतान का कारक भी है। अतः यदि गुरु बलहीन होगा तो शादी के बाद संतान प्राप्ति में भी कठिनाई होगी। अतः हमें कुंडली में मुख्य रूप से गुरु को सबसे पहले देखना चाहिए। गुरु यदि स्वयं बली है स्व अथवा उच्च राशि में है, केंद्र या त्रिकोण में है तथा शुभ ग्रह से प्रभावित है तो जातक के शादी में परेशानी नहीं आती है और जातक की शादी समय से हो जाती है। शुक्र गुरु ग्रह जहां शादी करवाते हैं वहीं शुक्र ग्रह शादी का सुख प्रदान करते हैं। कई बार देखा गया है कि शादी तो समय पर हो जाती है लेकिन पति को पत्नी सुख और पत्नी को पति सुख का अभाव रहता है। किसी न किसी कारण वश पति-पत्नी एक साथ नहीं रह पाते और अगर रहते हैं तो भी उन्हें शय्या सुख प्राप्त नहीं हो पाता। यदि आपके जीवन में ऐसी स्थिति बन रही है तो आपको समझ लेना चाहिए कि आपका शुक्र ग्रह पीड़ित है अर्थात शुक्र पापी ग्रहों से पीड़ित है, कमजोर है। अतः हमें विवाह का पूर्ण सुख लेने के लिए शुक्र की स्थिति का आकलन जरूर करना चाहिए। शुक्र की शुभ स्थिति दांपत्य जीवन के सुख को प्रभावित करती है अर्थात यदि शुक्र स्वयं बली हो, स्व अथवा उच्च राशि में स्थित हो, केंद्र या त्रिकोण में हो तब अच्छा दांपत्य सुख प्राप्त होता है। इसके विपरित जब त्रिक भाव, नीच का अथवा शत्रु क्षेत्री, अस्त, पापी ग्रह से दृष्ट अथवा पापी ग्रह के साथ बैठा हो तब दांपत्य जीवन के लिए अशुभ योग बनता है। अतः कुंडली में शुक्र की स्थिति का अवलोकन जरूर करना चाहिए। मंगल मंगल का अध्ययन किये बिना विवाह के पक्ष से कुंडलियों का अध्ययन अधूरा ही रहता है। वर-वधू की कुंडलियों का विश्लेषण करते समय पहले कुंडली में मंगल की भूमिका का विचार अवश्य करना चाहिए कि मंगल किन भावों में स्थित है कौन से ग्रहों से दृष्टि संबंध बना रहे हैं तथा किन भावों एवं ग्रहों पर इनकी दृष्टि है। मंगल से मांगलिक योग का निर्माण होता है। यदि कुंडली में प्रथम, चतुर्थ, सप्तम, अष्टम और द्वादश भाव में मंगल होता है तो कुंडली मांगलिक कहलाती है क्योंकि इन घरों में बैठकर मंगल सप्तम भाव को प्रभावित करता है। अतः कुंडली में मंगल की स्थिति ठीक होनी जरूरी है क्योंकि मंगल ग्रह की अशुभ स्थिति वैवाहिक जीवन के सुख में कमी लाता है। विशेष: यदि आपकी शादी नहीं हो रही है या आपके दांपत्य जीवन में सुख की कमी है तो आप किसी विद्वान ज्योतिषी से कुंडली दिखाकर गुरु, शुक्र और मंगल का उपाय करें। ऐसा करने से ग्रह की शुभता बढ़ेगी जिससे आपकी विवाह संबंधी समस्याएं दूर होंगी एवं शादी जल्द होगी ।

नक्षत्रों के दर्पण में शुभ मुहूर्त



नामकरण, मुंडन तथा विद्यारंभ जैसे संस्कारों के लिए तथा दुकान खोलने, सामान खरीदने-बेचने और ऋण तथा भूमि के लेन-देन और नये-पुराने मकान में प्रवेश के साथ यात्रा विचार और अन्य अनेक शुभ कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों के साथ-साथ कुछ तिथियों तथा वारों का संयोग उनकी शुभता सुनिश्चित करता है। नक्षत्र ही भारतीय ज्योतिष का वह आधार है जो हमारे दैनिक जीवन के महत्वपूर्ण कार्यों को प्रभावित करता है। अतः हमें कोई भी कार्य करते हुए उससे संबंधित शुभ नक्षत्रों का ध्यान अवश्य रखना चाहिए जिससे हम सभी कष्ट एवं विघ्न बाधाओं से दूर रहकर नयी ऊर्जा को सफल उद्देश्य के लिए लगा सकें। विभिन्न कार्यों के लिए शुभ नक्षत्रों को जानना आवश्यक है। नामकरण के लिए : संक्रांति के दिन तथा भद्रा को छोड़कर 1, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 12, 13 तिथियों में, जन्मकाल से ग्यारहवें या बारहवें दिन, सोमवार, बुधवार अथवा शुक्रवार को तथा जिस दिन अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, अनुराधा, तीनों उत्तरा, अभिजित, पुष्य, स्वाति, पुनर्वसु, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा इनमें से किसी नक्षत्र में चंद्रमा हो, बच्चे का नामकरण करना चाहिए। मुण्डन के लिए : जन्मकाल से अथवा गर्भाधान काल से तीसरे अथवा सातवें वर्ष में, चैत्र को छोड़कर उत्तरायण सूर्य में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार अथवा शुक्रवार को ज्येष्ठा, मृगशिरा, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पुनर्वसु, अश्विनी, अभिजित व पुष्य नक्षत्रों में, 2, 3, 5, 7, 10, 11, 13 तिथियों में बच्चे का मुंडन संस्कार करना चाहिए। ज्येष्ठ लड़के का मुंडन ज्येष्ठ मास में वर्जित है। लड़के की माता को पांच मास का गर्भ हो तो भी मुण्डन वर्जित है। विद्या आरंभ के लिए : उत्तरायण में (कुंभ का सूर्य छोड़कर) बुध, बृहस्पतिवार, शुक्रवार या रविवार को, 2, 3, 5,6, 10, 11, 12 तिथियों में पुनर्वसु, हस्त, चित्रा, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, मूल, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मूल, पूष्य, अनुराधा, आश्लेषा, रेवती, अश्विनी नक्षत्रों में विद्या प्रारंभ करना शुभ होता है। दुकान खोलने के लिए : हस्त, चित्रा, रोहिणी, रेवती, तीनों उत्तरा, पुष्य, अश्विनी, अभिजित् इन नक्षत्रों में, 4, 9, 14, 30 इन तिथियों को छोड़कर अन्य तिथियों में, मंगलवार को छोड़कर अन्य वारों में, कुंभ लग्न को छोड़कर अन्य लग्नों में दुकान खोलना शुभ है। ध्यान रहे कि दुकान खोलने वाले व्यक्ति की अपनी जन्मकुंडली के अनुसार ग्रह दशा अच्छी होनी चाहिए। कोई वस्तु/सामान खरीदने के लिए : रेवती, शतभिषा, अश्विनी, स्वाति, श्रवण, चित्रा, नक्षत्रों में वस्तु/सामान खरीदना चाहिए। कोई वस्तु बेचने के लिए : पूर्वा फाल्गुनी, पूर्वाभाद्रपद, पूर्वाषाढ़ा, कृत्तिका, आश्लेषा, विशाखा, मघा नक्षत्रों में कोई वस्तु बेचने से लाभ होता है। वारों में बृहस्पतिवार और सोमवार शुभ माने गये हैं। ऋण लेने-देने के लिए : मंगलवार, संक्रांति दिन, हस्त वाले दिन रविवार को ऋण लेने पर ऋण से कभी मुक्ति नहीं मिलती। मंगलवार को ऋण वापस करना अच्छा है। बुधवार को धन नहीं देना चाहिए। कृत्तिका, रोहिणी, आर्द्रा, आश्लेषा, उत्तरा तीनों, विशाखा, ज्येष्ठा, मूल नक्षत्रों में, भद्रा, अमावस में गया धन, फिर वापस नहीं मिलता बल्कि झगड़ा बढ़ जाता है। भूमि के लेन-देन के लिए : आश्लेषा, मघा, पूर्वाफाल्गुनी, मृगशिरा, मूल, विशाखा, अनुराधा, पूर्वाषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में, बृहस्पतिवार, शुक्रवार 1, 5, 6, 11, 15 तिथि को घर जमीन का सौदा करना शुभ है। नूतन ग्रह प्रवेश : फाल्गुन, बैशाख, ज्येष्ठ मास में, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, अनुराधा, रेवती नक्षत्रों में, रिक्ता तिथियों को छोड़कर सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को नये घर में प्रवेश करना शुभ होता है। (सामान्यतया रोहिणी, मृगशिरा, उत्तराषाढ़ा, चित्रा व उ. भाद्रपद में) करना चाहिए। यात्रा विचार : अश्विनी, मृगशिरा, अनुराधा, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती नक्षत्रों में यात्रा शुभ है। रोहिणी, ज्येष्ठा, उत्तरा-3, पूर्वा-3, मूल मध्यम हैं। भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मघा, आश्लेषा, चित्रा, स्वाति, विशाखा निन्दित हैं। मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रिक्ता और दिक्शूल को छोड़कर सर्वदा सब दिशाओं में यात्रा शुभ है। जन्म लग्न तथा जन्म राशि से अष्टम लग्न होने पर यात्रा नहीं करनी चाहिए। यात्रा मुहूर्त में दिशाशूल, योगिनी, राहुकाल, चंद्र-वास का विचार अवश्य करना चाहिए। वाहन (गाड़ी) मोटर साइकिल, स्कूटर चलाने का मुहूर्त : अश्विनी, मृगशिरा, हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, पुष्य, ज्येष्ठा, रेवती नक्षत्रों में सोमवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार व शुभ तिथियों में गाड़ी, मोटर साइकिल, स्कूटर चलाना शुभ है। कृषि (हल-चलाने तथा बीजारोपण) के लिए : अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तरा तीनों, अभिजित, स्वाति, विशाखा, अनुराधा, मूल, धनिष्ठा, रेवती, इन नक्षत्रों में, सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार को, 1, 5, 7, 10, 11, 13, 15 तिथियों में हल चलाना व बीजारोपण करना चाहिए। फसल काटने के लिए : भरणी, कृत्तिका, आर्द्रा, मृगशिरा, पुष्य, आश्लेषा, मघा, हस्त, चित्रा, स्वाति, ज्येष्ठा, मूल, पू.फाल्गुनी, श्रवण, धनिष्ठा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा तीनों, नक्षत्रों में, 4, 9, 14 तिथियों को छोड़कर अन्य शुभ तिथियों में फसल काटनी चाहिए। कुआँ खुदवाना व नलकूप लगवाना : रेवती, हस्त, उत्तरा भाद्रपद, अनुराधा, मघा, श्रवण, रोहिणी एवं पुष्य नक्षत्र में नलकूप लगवाना चाहिए। नये-वस्त्र धारण करना : अश्विनी, रोहिणी, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त, चित्रा, स्वाति, विशाखा, धनिष्ठा, रेवती शुभ हैं। नींव रखना : रोहिणी, मृगशिरा, चित्रा, हस्त, ज्येष्ठा, उत्तरा फाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा एवं श्रवण नक्षत्र में मकान की नींव रखनी चाहिए। मुखय द्वार स्थापित करना : रोहिणी, मृगशिरा, उ.फाल्गुनी, चित्रा, अनुराधा, उत्तराषाढ़ा, उत्तरा भाद्रपद एवं रेवती में स्थापित करना चाहिए। मकान खरीदना : बना-बनाया मकान खरीदने के लिए मृगशिरा, आश्लेषा, मघा, विशाखा, मूल, पुनर्वसु एवं रेवती नक्षत्र उत्तम हैं। उपचार शुरु करना : किसी भी क्रोनिक रोग के उपचार हेतु अश्विनी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढ़ा, हस्त, उत्तराभाद्रपद, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा एवं रेवती शुभ हैं। आप्रेशन के लिए : आर्द्रा, ज्येष्ठा, आश्लेषा एवं मूल नक्षत्र ठीक है। विवाह के लिए : रोहिणी, मृगशिरा, मघा, उत्तराफाल्गुनी, हस्त, स्वाति, अनुराधा, मूल, उत्तराषाढ़ा, उत्तराभाद्रपद एवं रेवती शुभ हैं। दैनिक जीवन में शुभता व सफलता प्राप्ति हेतु नक्षत्रों का उपयोगी एवं व्यावहारिक ज्ञान बहुत जरूरी है। वास्तव में सभी नक्षत्र सृजनात्मक, रक्षात्मक एवं विध्वंसात्मक शक्तियों का मूल स्रोत हैं। अतः नक्षत्र ही वह सद्शक्ति है जो विघ्नों, बाधाओं और दुष्प्रभावों को दूर करके हमारा मार्ग दर्शन करने में सक्षम है।

आइ.ए.एस. तथा आइ.पी.एस जैसे उच्च पदाधिकारि बनने के ज्योतिष्य योग

आइ. ए. एस. तथा आइ. पी. एस बनने के ज्योतिषीय योग प्रश्नः सरकारी नौकरी में आई. ए. एस., आइ. पी. एस. जैसे उच्च पदाधिकारी बनने के ज्योतिषीय योगों की सोदाहरण चर्चा करें। भारत देश को स्वतंत्र हुए छ दशक व्यतीत हो चुके हैं, परंतु हमारे मन मस्तिष्क पर आज भी नौकरशाहों का प्रभुत्व विद्यमान है। आज भी आई. ए. एस. तथा आई. पी. एस. जैसे उच्च सरकारी पदों पर बैठे व्यक्तियों का वर्चस्व बरकरार है। हम उन्हें आज भी राजा की श्रेणी में ही देखते हैं। यह स्वभाविक भी है, क्योंकि ऐसे व्यक्तियों की जन्मकुंडली का अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि उनकी जन्मकुंडली में ऐसे अनेक प्रकार के राजयोग तथा उच्च पदाधिकारी योग विद्यमान होते हैं। आज राजतंत्र तो प्रायः संपूर्ण संसार में समाप्त हो चुका है। विशिष्ट वैभव योग, लक्ष्मी योग, शौर्य योग वाले जातक ही इन पदों को सुशोभित करते हैं। किसी भी प्रतिस्पर्धात्मक परीक्षा में सफलता के लिये व उच्च पदाधिकारी जैसे आई. ए. एस, तथा आई. पी. एस आदि पदों पर प्रतिष्ठित होने के लिये ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न, दशम, षष्ठ स्थानों का कुंडली में प्रबल होना एवं इन भावों के भावेशों का शक्तिशाली होना अत्यंत आवश्यक है। सफलता के लिये पूर्ण रूपेण समर्पित होना तथा पराक्रम व साहस का होना भी अनिवार्य है। यह तृतीय भाव, भावेश व उसका कुंडली में उत्तम स्थान पर प्रतिष्ठित होना भी महत्वपूर्ण है। सबसे महत्वपूर्ण स्थान लग्न है, उसका बलवान व सशक्त होने के साथ-साथ लग्नेश का उत्तम स्थान पर होना परम आवश्यक है। कुंडली में लग्न के बाद दशम स्थान का महत्व है। यह कर्म का भाव है। इस भाव और भावेश की प्रबलता यह दर्शाने के लिये आवश्यक है कि व्यक्ति जीवन में किस व्यवसाय को अपने जीविकोपार्जन के लिए अपनाएगा तथा वह कितना सफल होगा। यूं तो दशम् स्थान लग्न के बाद सबसे महत्वपूर्ण होता है। प्रायः जिन भावों के स्वामी दशम् में होते हैं, उनको भी पर्याप्त बल मिल जाता है। यदि दशम में शुभ ग्रह हों और दशम का स्वामी बलवान होकर अपनी राशि में या मित्र राशि में स्थित होकर केंद्र या त्रिकोण में बैठे या लग्न का स्वामी बलवान होकर दशम में बैठे तो जातक का राजा के समान भाग्य होता है। और वह दीर्घायु भी होता हे। उसके यश का बहुत विस्तार होता है और उसकी प्रवृत्ति भी धर्म, कर्म में होती है। -(फलदीपिका) नभसि शुभखगे वा तत्पतौ केंद्रकोणे, बलिनि निजगृहोच्चे कर्मगे लग्नपे वा। महित पृथुयशाः स्याद्धर्म कर्म प्रवृत्तिः नृपति सदृशभाग्यं दीर्घामायुश्च तस्य॥ (फलदीपिका अ. 16- पद 27) सबले कर्मभावेशे स्वोच्चे स्वांशे स्वराशिशे जातस्तातसुखोनादयो यशस्वी शुभकर्मकृत॥ (बृ. हो. शा. अध्याय 23-श्लोक नं. 2) दशमेश सबल हो, अपनी राशि, उच्च राशि अथवा अपने ही नवांश में होने पर जातक पिता का सुख पाने वाला तथा यशस्वी एवं शुभ कर्म करने वाला होता है। स्वस्वाभिना वीक्षितः संयुतो वा बुधेन वाचस्पतिना प्रदिष्टः। स एव राशि बलवान् किल स्वाच्छेषैर्यदा दृष्ट युता न चात्र॥ (फलित मार्तण्ड. प्र. अध्याय श्लो-23) जो राशि अपने स्वामी से दृष्ट या युक्त हो अथवा बुध व गुरु से दृष्ट हो, वह लग्न राशि निश्चय करके बलवान होती है। अर्थात स्वस्वामी बुध, गुरु के अतिरिक्त अन्य ग्रहों से दृष्ट अथवा युक्त हो तो निर्बल होती है। बलवान लग्नेश तथा सशक्त दशमेश यदि लग्न व दशम् में हों तो निश्चय ही व्यक्ति उच्च पदों पर नियुक्ति पाता है। यहां पर अच्छे अन्य योग कुंडली में होने पर व्यक्ति के जीवन में यश, कीर्ति व शक्ति और लक्ष्मी की प्राप्ति होना निश्चित है। साथ ही साथ इन स्थानों पर सूर्य का प्रभुत्व होने पर राजपत्रित अधिकारी व राजनेता एवं मंगल का प्रभुत्व होने पर पुलिस अथवा सेना में उच्च पद प्राप्ति के निश्चित संकेत मिलते हैं। बुध का भी इसमें महत्वपूर्ण योग है। प्रायः आई. ए. एसआदि पदों पर कार्य करने वाले जातकों की कुंडली में बुध-आदित्य योग अवश्य ही होता है। बृहस्पति का भी उच्च सम्मानित पद, यश एवं कीर्ति तथा शुभ कर्म करने वाले लोगों पर अच्छा प्रभाव देखा जाता है। दशम् भाव की 6, 7, 9, 12 वें भाव पर अर्गला होती हैं जिनके द्वारा दुश्मन, नौकर, वैभव तथा निद्रा प्रभावित होती है। उदाहरणतया चाणक्य ने कहा है कि, जिस राजा के कर्मचारी वफादार होते हैं; उसे कभी परास्त नहीं किया जा सकता है।'' यदि छठा भाव तथा भावेश दशम् भाव पर अच्छा प्रभाव डाल रहे हैं। तो शत्रु परास्त होंगे तथा सेवक स्वामीभक्त होंगे। उच्च पदाधिकारी की सफलता छठे भाव के अनुकूल होने पर भी बहुत कुछ निर्भर है। इस भाव पर भी या तो गुरु की दृष्टि अथवा उपस्थिति प्रायः ऐसे अधिकारियों को सफल बनाती है। अतः इन सभी व्यवसायों की कुंडली का अध्ययन करते समय छठे भाव का अवश्य ही अध्ययन किया जाना चाहिये। एकादश, प्रथम, द्वितीय और अष्टम की दशम भाव पर अर्गला होती है। अतः यह भाव भी महत्वपूर्ण है। पंचम भाव दशम से आठवां होने के कारण कार्य का प्रारंभ तथा उसकी अवधि को प्रभावित करता है। पंचम भाव शक्ति, राज्य करने की योग्यता, सम्मान जो कोई व्यक्ति अपनी योग्यता के कारण पाता है; को दर्शाता है। यह पूर्व पुण्य, उच्च शिक्षा का भी भाव है। अतः नई नौकरी की शुरूआत भी पंचम् भाव से ही देखी जाती है। आर्थिक त्रिकोण 2, 6, 10 वें भाव पर निर्भर करता है। अतः इनका प्रभाव अवश्य ही महत्वपूर्ण होता है। यूं तो दशम भाव में कोई भी ग्रह उत्तम फल देने में स्वतंत्र होता है, लेकिन नवांश, दशमांश कुंडली का भी लग्न कुंडली की भांति भली प्रकार, सभी तरह के योगों का अध्ययन करने पर ही पूर्णतया फल-कथन किया जाना चाहिए।

क्यूँ भगवान शिव की पूजा लिंग के रूप में होती है......

शिव शंभु आदि और अंत के देवता है और इनका न कोई स्वरूप है और न ही आकार वे निराकार हैं. आदि और अंत न होने से लिंग को शिव का निराकार रूप माना जाता है, जबकि उनके साकार रूप में उन्हें भगवान शंकर मानकर पूजा जाता है.
केवल शिव ही निराकार लिंग के रूप में पूजे जाते हैं. लिंग रूप में समस्त ब्रह्मांड का पूजन हो जाता है क्योंकि वे ही समस्त जगत के मूल कारण माने गए हैं. इसलिए शिव मूर्ति और लिंग दोनों रूपों में पूजे जाते हैं. 'शिव' का अर्थ है– 'परम कल्याणकारी' और 'लिंग' का अर्थ है – ‘सृजन’. शिव के वास्तविक स्वरूप से अवगत होकर जाग्रत शिवलिंग का अर्थ होता है प्रमाण.
वेदों में मिलता है उल्लेख
वेदों और वेदान्त में लिंग शब्द सूक्ष्म शरीर के लिए आता है. यह सूक्ष्म शरीर 17 तत्वों से बना होता है. मन, बुद्धि, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां और पांच वायु. वायु पुराण के अनुसार प्रलयकाल में समस्त सृष्टि जिसमें लीन हो जाती है और पुन: सृष्टिकाल में जिससे प्रकट होती है उसे लिंग कहते हैं. इस प्रकार विश्व की संपूर्ण ऊर्जा ही लिंग की प्रतीक है.
पौराणिक कथा के अनुसार
जब समुद्र मंथन के समय सभी देवता अमृत के आकांक्षी थे लेकिन भगवान शिव के हिस्से में भयंकर हलाहल विष आया. उन्होंने बड़ी सहजता से सारे संसार को समाप्त करने में सक्षम उस विष को अपने कण्ठ में धारण किया तथा ‘नीलकण्ठ’ कहलाए. समुद्र मंथन के समय निकला विष ग्रहण करने के कारण भगवान शिव के शरीर का दाह बढ़ गया. उस दाह के शमन के लिए शिवलिंग पर जल चढ़ाने की परंपरा प्रारंभ हुई, जो आज भी चली आ रही है.
श्री शिवमहापुराण के सृष्टिखंड अध्याय 12 श्लोक 82 से 86 में ब्रह्मा जी के पुत्र सनत्कुमार जी वेदव्यास जी को उपदेश देते हुए कहते है कि हर गृहस्थ को देहधारी सद्गुरू से दीक्षा लेकर पंचदेवों (श्री गणेश, सूर्य, विष्णु, दुर्गा, शंकर) की प्रतिमाओं में नित्य पूजन करना चाहिए क्योंकि शिव ही सबके मूल है, मूल (शिव) को सींचने से सभी देवता तृत्प हो जाते है परन्तु सभी देवताओं को तृप्त करने पर भी प्रभु शिव की तृप्ति नहीं होती.
इस बात का प्रमाण श्री शिवमहापुराण सृष्टिखंड में मिलता है इस पुराण के अनुसार सृष्टि के पालनकर्ता विष्णु ने एक बार, सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा के साथ निर्गुण-निराकार-अजन्मा ब्रह्म(शिव) से प्रार्थना कि ‘आप कैसे प्रसन्न होते है.’ प्रभु शिव बोले, 'मुझे प्रसन्न करने के लिए शिवलिंग का पूजन करो. जब जब किसी प्रकार का संकट या दु:ख हो तो शिवलिंग का पूजन करने से समस्त दु:खों का नाश हो जाता है. जब देवर्षि नारद ने श्री विष्णु को श्राप दिया और बाद में पश्चाताप किया तब श्री विष्णु ने नारदजी को पश्चाताप के लिए शिवलिंग का पूजन, शिवभक्तों का सत्कार, नित्य शिवशत नाम का जाप आदि क्रियाएं बतलाई.

क्यूँ है भगवान शिव को सावन मास प्रिय.....

पूरे देश में सावन के महीने को एक त्योहार की तरह मनाया जाता है और इस परंपरा को लोग सदियों से निभाते चले आ रहे हैं. भगवान शिव की पूजा करने का सबसे उत्तम महीना होता है सावन लेकिन क्या आप जानते हैं कि सावन के महीने का इतना महत्व क्यों है और भगवान शिव को यह महीना क्यों प्रिय है? आइए जानते हैं इसके पीछे की मान्यताओं के बारे में...
सावन मास का महत्व...
श्रावण मास हिंदी कैलेंडर में पांचवें स्थान पर आता हैं और इस ऋतु में वर्षा का प्रारंभ होता हैं. शिव जो को श्रावण का देवता कहा जाता हैं उन्हें इस माह में भिन्न-भिन्न तरीकों से पूजा जाता हैं. पूरे माह धार्मिक उत्सव होते हैं और विशेष तौर पर सावन सोमवार को पूजा जाता हैं. भारत देश में पूरे उत्साह के साथ सावन महोत्सव मनाया जाता हैं.
भगवान शिव को क्यों प्रिय है सावन का महीना?
कहा जाता हैं सावन भगवान शिव का अति प्रिय महीना होता हैं. इसके पीछे की मान्यता यह हैं कि दक्ष पुत्री माता सती ने अपने जीवन को त्याग कर कई वर्षों तक श्रापित जीवन जीया. उसके बाद उन्होंने हिमालय राज के घर पार्वती के रूप में जन्म लिया. पार्वती ने भगवान शिव को पति रूप में पाने के लिए पूरे सावन महीने में कठोरतप किया जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनकी मनोकामना पूरी की. अपनी भार्या से पुन: मिलाप के कारण भगवान शिव को श्रावण का यह महीना अत्यंत प्रिय हैं. यही कारण है कि इस महीने कुमारी कन्या अच्छे वर के लिए शिव जी से प्रार्थना करती हैं.
मान्यता हैं कि सावन के महीने में भगवान शिव ने धरती पर आकार अपने ससुराल में विचरण किया था जहां अभिषेक कर उनका स्वागत हुआ था इसलिए इस माह में अभिषेक का महत्व बताया गया हैं.
पौराणिक कथाओं के अनुसार
धार्मिक मान्यतानुसार सावन मास में ही समुद्र मंथन हुआ था जिसमे निकले हलाहल विष को भगवान शिव ने ग्रहण किया जिस कारण उन्हें नीलकंठ का नाम मिला और इस प्रकार उन्होंने से सृष्टि को इस विष से बचाया. इसके बाद सभी देवताओं ने उन पर जल डाला था इसी कारण शिव अभिषेक में जल का विशेष स्थान हैं.
वर्षा ऋतु के चौमासा में भगवान विष्णु योगनिद्रा में चले जाते हैं और इस वक्त पूरी सृष्टि भगवान शिव के अधीन हो जाती हैं. अत: चौमासा में भगवान शिव को प्रसन्न करने हेतु मनुष्य जाति कई प्रकार के धार्मिक कार्य, दान, उपवास करती हैं.

जाने कौन से ग्रह आपको अहंकारी बनाते हैं

एक ही परमशक्ति पूरे ब्रह्मांड को चलाती है. फिर वो इंसान हो या कुदरत. लेकिन फिर भी कुछ लोग अपनी शक्ति और सामर्थ्य के गुमान में अहंकारी हो जाते हैं और अपने ही हाथों अपना भाग्य बिगाड़ लेते हैं.
धन-वैभव और वंश का अहंकार. ज्ञान और सौंदर्य का अहंकार. बुद्धि और ताकत का अहंकार या फिर हैसियत का अहंकार. किसी भी रूप में अहंकार आपकी तरक्की का सबसे बड़ा दुश्मन बन सकता है.
अहंकार बड़े-बड़ों को मिट्टी में मिला देता है. यह सबके भीतर किसी न किसी रूप में होता है. फर्क बस इतना है कि किसी में कम तो किसी में ज्यादा होता है. कहते हैं कि किसी भी अच्छे काम में अगर अहंकार आ गया तो वो काम बुरा हो जाता है. क्योंकि जहां अहंकार है, वहां ईश्वर नहीं होते | कुंडली में ग्रहों की बनती-बिगड़ती स्थिति इंसान को अहंकारी बनाती है तो जाने कौन से ग्रह आपको अहंकारी बनाते हैं और अहंकार से कैसे बिगड़ सकता है आपका भाग्य.
कौन से ग्रह बनाते हैं अहंकारी
अहंकार मन से जुड़ी हुई भावना है. मन से आगे बढ़कर ये व्यवहार तक पहुंच जाता है. हर ग्रह अलग तरह का अहंकार पैदा करता है. अहंकारी बनाने में सबसे बड़ी भूमिका बृहस्पति और चन्द्रमा की होती है. बृहस्पति व्यक्ति को परम अहंकारी बनाता है. दूसरे ग्रहों के साथ मिलकर बृहस्पति अलग तरह का अहंकार पैदा करता है. अलग-अलग अहंकार से अलग समस्या भी पैदा होती है.
सूर्य और अहंकार का क्या संबंध है
पुश्तैनी जायजाद, दौलत और शोहरत अक्सर इंसान के दिमाग पर हावी हो जाते हैं. अहंकार उसी का नतीजा है. ज्योतिष के जानकारों की मानें तो कुंडली में सूर्य अगर मजबूत हो तो वह भी बना सकता है आपको अहंकारी.
- सूर्य वैभवशाली परंपरा और खानदान का अहंकार पैदा करता है
- कुंडली में सूर्य के ज्यादा मजबूत होने से ये अहंकार पैदा होता है
- आमतौर पर मेष, सिंह और धनु राशि वालों को ये अहंकार ज्यादा होता है
- सूर्य से मिला अहंकार संतान से जुड़ी समस्या देता है

चन्द्रमा और अहंकार का क्या रिश्ता है
हर इंसान के पास कोई न कोई गुण ज़रूर होता है, लेकिन किसी –किसी के पास कोई खास हुनर होता है जिसकी वजह से समाज में उन्हें विशेष मान-सम्मान मिलता है. लेकिन ज्योतिष कहता है कि ऐसे इंसान का चंद्रमा मज़बूत हो तो वो अहंकारी बन सकता है.
- चन्द्रमा गुणों का अहंकार पैदा करता है
- इसके अलावा चंद्रमा विशेष श्रेणी का अहंकार भी पैदा करता है
- कर्क, वृश्चिक और मीन राशि वालों को ये अहंकार ज्यादा होता है
- ये अहंकार अक्सर किस्मत को बिल्कुल उल्टा कर देता है

मंगल और अहंकार का क्या रिश्ता है
जो अपने अहंकार पर जीत हासिल कर लेते हैं उन्हें ही मिलती है जिंदगी के हर पहलू में जीत. लेकिन ज्योतिष के जानकारों की मानें तो जिनकी कुंडली में मंगल मज़बूत होता है, उनमें ताकत को लेकर अहंकार बढ़ने लगता है और यह उनकी तरक्की में सबसे बड़ी रुकावट बन सकता है.
- मंगल शक्ति का अहंकार पैदा करता है
- इस तरह के अहंकार में इंसान अपनी ताकत का गलत इस्तेमाल करने लगता है
- वृष, सिंह, वृश्चिक और कुम्भ राशि में ये अहंकार ज्यादा होता है
- ये अहंकार रिश्तों से जुड़ी समस्याएं देता है

बुध और अहंकार का क्या संबंध है
अगर आपमें कुछ विशेष योग्यता है या आपकी बुद्धि तेज है तो सावधान हो जाएं क्योंकि आपके ये गुण आपको अहंकारी बना सकते हैं. आपकी कुंडली का बुध आपको अहंकार की ओर ले जा सकता है.
- बुध योग्यता और बुद्धि का अहंकार देता है
- ऐसे लोग अपनी बुद्धि के सामने किसी को कुछ नहीं समझते
- मिथुन, कन्या और मकर राशि में यह अहंकार ज्यादा होता है
- ये अहंकार धन के बड़े नुकसान का कारण बनता है

बृहस्पति और अहंकार का क्या संबंध है
जिनके पास पारिवारिक संपन्नता, ऊंची हैसियत और अपार ज्ञान हो, उन्हें अहंकार से सावधान रहना चाहिए. अहंकार के कारण ये सब कुछ नष्ट हो सकता है.
- बृहस्पति ज्ञान और पारिवारिक हैसियत का अहंकार देता है
- इस अहंकार की वजह से लोग अपनी वाणी पर नियंत्रण खो देते हैं
- ऐसे लोग अक्सर दूसरों को अपने ज्ञान से परेशान करते हैं
- वृष, कन्या, धनु, मकर और मीन राशि में यह अहंकार ज्यादा होता है
- ये अहंकार अक्सर अपयश का कारण बनता है

शुक्र और अहंकार का क्या रिश्ता है
खूबसूरती सबको आकर्षित करती है. उस पर शान-ओ-शौकत की जिंदगी मिल जाए तो जिंदगी और भी रंगीन नज़र आने लगती है लेकिन इन्हीं रंगीनियों के बीच कब इंसान अहंकार के काले साये में समा जाता है उसे खुद भी पता नहीं चलता. शुक्र मज़बूत हो तो कैसे बढ़ता है अहंकार, जानें
- शुक्र रूप-सौंदर्य और शान-ओ-शौकत का अहंकार देता है
- इस अहंकार के कारण लोग अक्सर मूर्ख बनते हैं और पैसे बर्बाद करते हैं
- मिथुन, तुला और कुम्भ राशि में यह अहंकार ज्यादा होता है
- इस अहंकार की वजह से अचानक पैसों का बड़ा नुकसान झेलना पड़ता है

शनि और अहंकार का क्या रिश्ता है
काम हर इंसान करता है लेकिन कुछ लोगों को अपने काम करने की क्षमता और हुनर पर गुमान होने लगता है. ये होता है कुंडली के शनि के मज़बूत होने के कारण. आइए जानते हैं, शनि कैसे बना सकता है आपको अहंकारी.
- शनि काम करने की योग्यता का अहंकार देता है
- ये लोग किसी और के काम को अपने काम और मेहनत के सामने कुछ नहीं समझते
- वृष, सिंह, कन्या और मकर राशि वालों को ये अहंकार ज्यादा होता है
- ये अहंकार करियर में उतार-चढ़ाव की वजह बनता है

अहंकार से कैसे बचें?
- रोज सुबह उठकर अपने बड़ों के चरण स्पर्श करें
- रोज सुबह सूर्य को जल अर्पित करें
- सूर्य के सामने गायत्री मंत्र का जाप करें
- पन्ना और पुखराज कतई न पहनें
- हफ्ते में एक बार अन्न और वस्त्र का दान करें
किसी ने बिल्कुल सटीक कहा है कि अपने भीतर से अहंकार को निकालकर खुद को हल्का कीजिए क्योंकि ऊंचा वही उठता है जो हल्का होता है. अगर आप अपनी खूबियों और तरक्की को ताउम्र बरकरार रखना चाहते हैं तो अहंकार से दूर ही रहिए. अपनी तरक्की और सुख के लिए ईश्वर को धन्यवाद करते रहें. अहंकार के राक्षस से बचने का यही सबसे कारगर रास्ता है.

साप्ताहिक राशिफल 26 सितंबर-02 अक्टूबर 2016

मेष राशि -
1. मनःस्थिति -तुला का शुक्र है अतः शुभ समाचार की प्राप्ति, पारिवारिक सुख, आत्मविष्वास तथा यष में वृद्धि। राहु से दृष्ट होने के कारण थोड़े विवाद की संभावना।
2. शैक्षणिक स्थिति-टीनएज के लिए शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर परिणाम की प्राप्ति।
3. व्यवसायिक स्थिति- राहु के कारण पार्टनरषीप में विघटन तथा मंदापन के कारण व्यवसायिक स्थिति में उतार-चढ़ाव संभव।
4. निवेष की संभावना- नये अवसर तथा भाग्य का साथ होने से व्यवसाय में नये क्षेत्र या सर्विस के नये अवसर की प्राप्ति संभव।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- कमर में दर्द, पेट की तकलीफ संभव।
समाधान -
1. ऊॅ शुं शुक्राय नमः का जाप करें...
2. माॅ महामाया के दर्शन करें...
3. चावल, दूध, दही का दान करें...

वृषभ -
1. मनःस्थिति - वाहन, मकान तथा नये अवसर से लाभ से मन प्रसन्न होगा।
2. शैक्षणिक स्थिति-टीनएज के लिए शिक्षा से संबंधित भटकाव।
3. व्यवसायिक स्थिति- राहु के कारण पार्टनरषीप में विवाद संभव।
4. निवेष की संभावना- व्यवसाय में नये क्षेत्र या सर्विस के नये अवसर की प्राप्ति संभव।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- कंधे या कान में दर्द संभव।
समाधान -
1. प्रातः स्नान के उपरांत सूर्य को जल में लाल पुष्प तथा शक्कर मिलाकर.... अध्र्य देते हुए..... ऊॅ धृणि सूर्याय नमः का पाठ करें.....
2. गुड़.. गेहू...का दान करें..
3. आदित्य ह्दय स्त्रोत का पाठ करें...

मिथुन -
1. मनःस्थिति - लाभ तथा दोस्तो का साथ मिलने से कार्य में सहयोग प्राप्त होगा।
2. शैक्षणिक स्थिति-टीनएज के लिए शिक्षा के क्षेत्र में बेहतर परिणाम की प्राप्ति।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में उतार-चढ़ाव संभव।
4. निवेष की संभावना- व्यवसायिक स्थिति स्थिर रहेगी।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- आलस्य तथा सर्दी हो सकती है।
समाधान -
1. ऊॅ बृं बृहस्पतयै नमः का एक माला जाप करें....
2. पुरोहित को केला, नारियल का दान करें....
3. साई जी के दर्शन कर दिन की शुरूआत करें....

कर्क -
1. मनःस्थिति -कार्यक्षेत्र में सहयोग तथा कार्य की कमी से दिन आरामदायी होगा।
2. शैक्षणिक स्थिति-टीनएज के लिए शिक्षा के क्षेत्र में दोस्ती का भावुक संबंध हानिकारक।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में वित्तीय इंवेस्टमेंट संभव।
4. अन्य-यात्रा की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- पिता के स्वास्थ्य संबंधी कष्ट संभव।
समाधान -
    1. ऊॅ सों सोमाय नमः का एक माला जाप करें......
2. खीर बनाकर कम से कम एक कन्या को खिलायें....
3. स्वेत वस्त्र धारण करें......

सिंह -
1. मनःस्थिति -वाहन की खराबी के कारण तनाव संभव ।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में अच्छी उर्जा होगी, किंतु एकाग्रता की कमी संभव।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में लाभ संभव।
4. अन्य-प्रषासनिक सहयोग से स्थानांतरण की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- सिर दर्द या थकान संभव।
समाधान -
1. ऊॅ कें केतवें नमः का जाप कर दिन की शुरूआत करें...
2. सूक्ष्म जीवों की सेवा करें...
3. शहद का दान करें.....

कन्या -
1. मनःस्थिति -उत्सव में सम्मिलित होंगे, जिससे मानसिक प्रसन्नता संभव ।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में अवसर की कमी तथा परिणाम में देरी संभव।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थल पर विवाद संभव।
4. अन्य-घरेलू सामान में व्यय की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- आॅखों में तकलीफ संभव।
समाधान -

1. ‘‘ऊॅ शं शनैश्चराय नमः’’ की एक माला जाप कर दिन की शुरूआत करें.
2. भगवान आशुतोष का रूद्धाभिषेक करें...
3. लोहे की वस्तु का दान करें....

तुला -
1. मनःस्थिति -घरेलू कलह तथा स्वास्थ्य कष्ट संभव ।
2. शैक्षणिक स्थिति- दुर्घटना की संभवना।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में नये कार्य की शुरूआत।
4. अन्य-आत्मविष्वास तथा वित्तीय लाभ संभव।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- एसीडिटी या लीवर से कष्ट संभव।
समाधान -

1. ऊॅ भौं भौमाय नमः का एक माला जाप करें....
2. मंदिर में लड्ड़ का भोग लगायें....
3. अपने वाहन में मंदिर का लाल कपड़ा बांधकर रखें......

वृश्चिक -
1. मनःस्थिति -कार्य में रूकावट तथा रिष्तों में अलगाव से मानसिक तनाव संभव ।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में भटकाव संभव।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में आकस्मि हानि संभव।
4. अन्य-इलेक्टानिक्स से लाभ की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- बदन दर्द तथा आलस्य संभव।
समाधान -
1. उॅ रां राहवे नमः का जाप करें...
2.   एक मुठ्ठी आटा तथा शक्कर पेड़ के तने में रखें...
धनु -
1. मनःस्थिति -प्रषासनिक कार्य से लाभ एवं यष की प्राप्ति ।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में साक्षात्कार में चयन संभव।
3. कार्य या व्यवसायिक स्थिति- नये अवसर की प्राप्ति संभव।
4. अन्य-धार्मिक यात्रा तथा पारिवारिक सुख की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- सिर दर्द या अनिद्रा संभव।
समाधान -
1. ऊॅ धृणि सूर्याय नमः का जाप करें...
2. हठधर्मिता से बचें, रस्मों का उचित पालन करें....
3. चावल...दूध का दान करें.....

मकर -
1. मनःस्थिति -घरेलू सुख तथा पारिवारिक साथ संभव ।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में अच्छा प्रदर्षन संभव।
3. व्यवसायिक या कार्य स्थिति- नयी योजना तथा अच्छा प्रोजेक्ट लाभदायी।
4. अन्य-प्रषासनिक कार्य में अधीनस्थों से सहयोग।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- अनियमित दिनचर्या से कष्ट संभव।
समाधान -
1. ऊॅ बृं बृहस्पतयै नमः का एक माला जाप करें....
2. कन्या को मीठा या केला खिलायें....
3. चापलूस लोगों से दूर रहें....
कुंभ -
1. मनःस्थिति -धनहानि या धोखा से तनाव संभव ।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में प्रयास की कमी संभव।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में यात्रा संभव।
4. अन्य-बड़ो का मार्गदर्षन तथा साथ की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- स्वास्थ्य होंगे।
समाधान -
1. उॅ नमः शिवाय नमः का जाप करें...
2. दूध, चावल का दान करें...
3. श्री सूक्त का पाठ करें धूप तथा दीप जलायें...

मीन -
1. मनःस्थिति -मांगलिक कार्य से सुख।
2. शैक्षणिक स्थिति- शिक्षा के क्षेत्र में बौद्धिक प्रदर्षन संभव।
3. व्यवसायिक स्थिति- व्यवसायिक स्थिति में लाभ संभव।
4. अन्य-प्रषासनिक सहयोग से कार्य में लाभ की संभावना।
5. स्वास्थ्य की स्थिति- आहार या जल से शारीरिक कष्ट संभव।
समाधान -
1. ऊॅ अं अंगारकाय नमः का जाप करें...
2. हनुमानजी की उपासना करें..
3. मसूर की दाल, गुड दान करें..


कुंडली में सूर्य मजबूत होंने से दिलाएगा सम्मान

सूर्यदेव की वजह से इस धरती पर पेड़-पौधे हम आप हैं. सूर्य देव की वजह से ही ये धरती जीवजंतुओं के रहने लायक है. ऐसे में कुंडली पर भी सूर्य का असर बहुत गहरा होता है. सूर्य की मजबूती से कुंडली के जातक को तेज प्राप्त होता है. सूर्य की कमजोर किसी को भी राजा सक रंक बना सकती है.
जीवन पर सूर्यदेव का असर
सारे संसार की ऊर्जा और प्रकाश का कारण सूर्य ही हैं. राज्य, औषधि, पिता और खाने-पीने की चीजों का कारक हैं. सूर्य मजबूत होने पर मनुष्य यशस्वी और सम्पन्न होता है और कमजोर होने पर व्यक्ति दुर्बल, रोगी और निर्धन होता है. ह्रदय रोग, आंखों की गंभीर समस्या और रोग के पीछे सूर्य ही होता है. सूर्य के कारण व्यक्ति को राजकीय सेवा भी हासिल होती है.
उपाय जिनसे सूर्य होंगे मजबूत
सूर्यदेव का आशीर्वाद आपको जीवन में हर वो सुख दिला सकता है जिसकी आप सिर्फ कल्पना ही किया करते थे. लेकिन उसके लिए जरूरी है कि आप सूर्यदेव की उपासना करें और कुंडली में उनकी स्थिति को मजबूत करने के उपाय करें.
- सूर्य को मजबूत करने का सबसे आसान तरीका सूर्य को अर्घ्य देना है. इसके अलावा सूर्य के मंत्र जाप भी काफी प्रभावशाली होता है.
- मन्त्रों के अलावा सूर्य के नामों की स्तुति भी विशेष कारगर होती है.
- सूर्य की स्तुति में इनके इक्कीस नामों का उल्लेख किया गया है.
- इन नामों को हर रोज सुबह पढ़ने से सूर्य मजबूत होते हैं.
- व्यक्ति को सूर्य संबंधी समस्याओं से छुटकारा मिलता है.
सूर्य के चमत्कारी 21 नाम
सूर्यदेव के कुछ ऐसे चमत्कारी नाम हैं जिनको अगर जप लिया जाए तो ज्योतिषी कहते हैं कि इसके अदभुत परिणाम मिलते हैं. चलिए हम आपको उन 21 नामों के बारे में बताते हैं.
1. विकर्तन
2. विवस्वान
3. मार्तण्ड
4. भास्कर
5. रवि
6. लोकप्रकाशक
7. श्रीमान
8. लोकचक्षु
9. गृहेश्वर
10. लोकसाक्षी
11. त्रिलोकेश
12. कर्ता
13. हर्ता
14. तमिस्त्रहा
15. तपन
16. तापन
17. शुचि
18. सप्ताश्ववाहन
19. गभस्तिहस्त
20. ब्रह्मा
21. सर्वदेवनमस्कृत
सूर्य के नामों का जपने के तरीका
- सुबह नहाने के बाद सूर्य को जल अर्पित करें.
- इसके बाद वहीँ पर खड़े होकर सूर्य के इक्कीस नाम पढ़ें.
- फिर अपनी प्रार्थना कहें. आपको सूर्य की कृपा हासिल होगी.

क्यूँ पितृ आपसे नाराज हैं...

पि‍तृ पक्ष, पितृों के तर्पण का महापर्व होता है और श्राद्ध संस्कार के दौरान किए गए दान-पुण्य से खुश होकर पूर्वज अपने बच्चों को सुख शांति का आशीर्वाद देते हैं. कई बार ऐसा होता है क‍ि घर में परेशानियों का डेरा बना ही रहता है और लाख पूजा-पाठ करने के बाद भी समस्याओं से छुटकारा नहीं मिल पाता.
इसके पीछे कई कारण हो सकते हैं और पितृों का आपसे नाराज होना भी उसमें से एक कारण हो सकता है. अगर आपके पितृ आपसे नाराज होते हैं और आपका किया गया श्राद्धकर्म उन्हें मिलता है तो आपके घर में परेशानि‍यां सामने आती हैं.
जब पि‍तृ आपसे नाराज होते हैं तो कैसी-कैसी परेशानियां आपके घर पर डेरा जमा लेती हैं...
1. पितृ पक्ष के दौरान पूर्वजों की विधि-विधान से पूजा करनी चाहिए और उनका आवह्न करके उन्हें आमंत्र‍ित करना चाहिए. ऐसा न करने पर पितृ नाराज हो जाते हैं और इस कारण से घर में पैसों की तंगी जैसी परेशानियां आने लगती हैं.
2. पितृ पक्ष में रोजाना सुबह उठकर अपने पूर्वजों का तर्पण करने का विधान है. ऐसा करने से घर में खुशियां बनी रहती हैं.
3. अगर आप बच्चे की किलकारी सुनने के लिए तरस रहे हैं तो आपकी कुंडली में पितृ दोष का योग होना इसका कारण बन सकता है.
4. परिवार के लोगों के बीच आपसी कलह और पैसों की तंगी भी इसी ओर इशारा करते हैं.
5. बेवजह के कोर्ट-कचहरी के केस और मसले होना पितृ दोष की वजह से हो सकता है.
6. अगर आपकी बेटी के विवाह में देरी हो रही है और इसके पीछे का कारण आपको समझ में नहीं आ रहा है तो कुंडली में पितृ दोष की जांच करवानी चाहिए.
7. सबकुछ ठीक चल रहा है लेकिन अगर आपका स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता तो आपकी कुंडली में पितृ दोष का योग ऐसा कर सकता है.

श्राद्ध में क्या-क्या दान करना चाहिए

विष्णु पुराण में कहा गया है कि श्रद्धा-भक्ति से किए गए श्राद्ध से पितरों के साथ ही देवगण और अन्य समस्त भूत प्राणी सभी तृप्त होते हैं. इसलिए श्राद्ध में कुछ वस्तुओं का विशेष महत्व है और कुछ का निषेध है.
ऐसी ही महत्वपूर्ण बातें जिनका श्राद्ध के समय ध्यान रखना बहुत जरूरी होता है....
1. महत्वपूर्ण वस्तुओं में चांदी के बर्तन, कुश, गौ, काला तिल हैं.
2. कुश और काला तिल भगवान विष्णु के शरीर से उत्पन्न माने गए हैं और चांदी भगवान शिव के नेत्रों से उत्पन्न मानी गई गए है.
3. महुआ और पलाश के पत्र अत्यंत पवित्र माने गए हैं.
4. गाय का दूध, गंगाजल का प्रयोग श्राद्ध के कर्मफल को कई गुना बढ़ा देता है.
5. तुलसी के प्रयोग से पितृ अत्यंत प्रसन्न होते हैं.
6. पितरों का वर्ण रजत समान धवल और उज्ज्वल होता है इसलिए उनके कर्म में श्वेत और हल्की गंध के पुष्पों का प्रयोग ठीक माना जाता है.
7. श्राद्ध स्थान को गोबर से लीपकर शुद्ध किया जाता है. तीर्थ स्थान में श्राद्ध करना करोड़ों गुना फलदायक माना जाता है.
8. श्राद्ध में दंतधावन, ताम्बूल सेवन, तैल मर्दन, उपवास, स्त्री संभोग, औषध ग्रहण तामसिक माना जाता है.
9. पीतल और कांसी के पात्र शुद्ध माने गए हैं. लौह पात्र अशुद्ध माने गए हैं.
10. गंधों में खस, श्रीखंड, कपूर सहित सफेद चंदन पवित्र और सौम्य माने गए हैं, बाकी सभी को वर्जित बताया गया हैं.

संतान की लम्बी आयु के लिए करें जितिया व्रत

जितिया व्रत के बारे में आस्‍था है कि इसे करने से भगवान जीऊतवाहन, पुत्र पर आने वाली सभी समस्याओं से उसकी रक्षा करतें हैं. इस व्रत को विवाहित महिलाएं करती हैं. मान्‍यता है कि इसे करने से पुत्र प्राप्ति भी होती है.
जितिया व्रत की कथा
नर्मदा नदी के पास कंचनबटी नाम का नगर था. वहां का राजा मलयकेतु था. नर्मदा नदी के पश्चिम दिशा में मरुभूमि थी, जिसे बालुहटा कहा जाता था. वहां विशाल पाकड़ का पेड़ था. उस पर चील रहती थी. पेड़ के नीचे खोधर था, जिसमें सियारिन रहती थी. चील और सियारिन, दोनों में दोस्‍ती थी. एक बार दोनों ने मिलकर जितिया व्रत करने का संकल्प लिया. फिर दोनों ने भगवान जीऊतवाहन की पूजा के लिए निर्जला व्रत रखा. व्रत वाले दिन उस नगर के बड़े व्यापारी की मृत्यु हो गयी. अब उसका दाह संस्कार उसी मरुस्थल पर किया गया. काली रात हुई और घनघोर घटा बरसने लगी. कभी बिजली कड़कती तो कभी बादल गरजते. तूफ़ान आ गया था. सियारिन को अब भूख लगने लगी थी. मुर्दा देखकर वह खुद को रोक न सकी और उसका व्रत टूट गया. पर चील ने संयम रखा और नियम व श्रद्धा से अगले दिन व्रत का पारण किया फिर अगले जन्म में दोनों सहेलियों ने ब्राह्मण परिवार में पुत्री के रूप में जन्म लिया. उनके पिता का नाम भास्कर था. चील, बड़ी बहन बनी और उसका नाम शीलवती रखा गया। शीलवती की शादी बुद्धिसेन के साथ हुई। सिया‍रन, छोटी बहन के रूप में जन्‍मी और उसका नाम कपुरावती रखा गया. उसकी शादी उस नगर के राजा मलायकेतु से हुई. अब कपुरावती कंचनबटी नगर की रानी बन गई। भगवान जीऊतवाहन के आशीर्वाद से शीलवती के सात बेटे हुए. पर कपुरावती के सभी बच्चे जन्म लेते ही मर जाते थे. कुछ समय बाद शीलवती के सातों पुत्र बड़े हो गए. वे सभी राजा के दरबार में काम करने लगे. कपुरावती के मन में उन्‍हें देख इर्ष्या की भावना आ गयी. उसने राजा से कहकर सभी बेटों के सर काट दिए. उन्‍हें सात नए बर्तन मंगवाकर उसमें रख दिया और लाल कपड़े से ढककर शीलवती के पास भिजवा दिया.
यह देख भगवान जीऊतवाहन ने मिटटी से सातों भाइयों के सर बनाए और सभी के सिर को उसके धड़ से जोड़कर उन पर अमृत छिड़क दिया. इससे उनमें जान आ गई. सातों युवक जिंदा हो गए और घर लौट आए. जो कटे सर रानी ने भेजे थे वे फल बन गए. दूसरी ओर रानी कपुरावती, बुद्धिसेन के घर से सूचना पाने को व्याकुल थी. जब काफी देर सूचना नहीं आई तो कपुरावती स्वयं बड़ी बहन के घर गयी. वहां सबको जिंदा देखकर वह सन्न रह गयी. जब उसे होश आया तो बहन को उसने सारी बात बताई. अब उसे अपनी गलती पर पछतावा हो रहा था. भगवान जीऊतवाहन की कृपा से शीलवती को पूर्व जन्म की बातें याद आ गईं. वह कपुरावती को लेकर उसी पाकड़ के पेड़ के पास गयी और उसे सारी बातें बताईं. कपुरावती बेहोश हो गई और मर गई. जब राजा को इसकी खबर मिली तो उन्‍होंने उसी जगह पर जाकर पाकड़ के पेड़ के नीचे कपुरावती का दाह-संस्कार कर दिया.

Tuesday 20 September 2016

द्वादश भाव संबंधी फल

ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों ने जन्म कुंडली के षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावों को दुःख स्थान तथा अन्य भावों को सुस्थान की संज्ञा दी है। दुःस्थानम् षष्टभरिपुव्ययभावमाहुः सुस्थानमन्यभवनं शुभदं प्रदिष्टम। -फलदीपिका सामान्यतः छठे, आठवें और 12वें भावों के स्वामी जिस किसी भाव या भावेश से संबंध बनाते हैं तथा जिस किसी भाव का स्वामी इन भावों में स्थित होता है, उस भाव संबंधी फलों की हानि होती है। परंतु छठे, आठवें और 12वें भाव का स्वामी स्वराशि में स्थित हो, तो शुभ फलदायक होता है। द्वादश भाव से बायीं आंख, पैर, हानि, व्यय, पाप कर्म, शय्या सुख, क्रय, बंधन आदि का विचार किया जाता है। फलदीपिका ग्रंथ के अनुसार द्वादशेश यदि द्वादश भाव में स्थित हो, तो विमल नामक योग का निर्माण होता है, जिसके फलस्वरुप जातक कम खर्चीला, धनवान, स्वतंत्र तथा उच्च विचारवान होता है। द्वादशेश की फलश्रुति के बारे में महर्षि पराशर का कथन है: व्ययद्वितीयरन्ध्रेशाः साहचार्यत् फलप्रदाः। स्थानान्तरानुरोधात्ते प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम्।। (बृ.प.हो.शा. 36.5) अर्थात, द्वादशेश, द्वितीयेश तथा अष्टमेश अन्य शुभ या अशुभ ग्रह के साहचर्य के अनुसार फल देते हैं, तथा मुख्यतः अपनी दूसरी राशि का फल देते हैं। सूर्य और चंद्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रह दो-दो राशियों के स्वामी होते हैं। अतः जब कोई ग्रह द्वितीयेश या व्ययेश हो और उसकी दूसरी राशि शुभ स्थान में हो, तो वह शुभ फल देता है। परंतु यदि उसकी दूसरी राशि अशुभ भाव में हो, तो अशुभ फल देता है। जैसे वृश्चिक लग्न में बृहस्पति द्वितीय और पंचम भाव का स्वामी होने के कारण शुभ फलदायक होता है तथा कर्क लग्न में बुध व्ययेश और तृतीयेश होने के कारण अशुभ फलदायी होता है। व्ययेश और द्वितीयेश जिस ग्रह के साथ होते हैं उसी के अनुरूप फल देते हैं तथा जिस भाव में होते हैं उसी भाव द्वारा अपना फल दर्शाते हैं। जैसे यदि मित्र स्थान में हों, तो मित्रों से लाभ मिलता है। इसके विपरीत शत्रु स्थान में होने पर शत्रु और विरोधियों द्वारा हानि होती है। फल का विचार करते समय ग्रह (व्ययेश या द्वितीयेश) की अवस्था (बलाबल) का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है। उत्तरकालामृत (खंड 4, श्लोक 16) के अनुसार: शुक्रो द्वादश संस्थितोऽपिशुभदो मदांशराशिविना। अर्थात्, शुक्र द्वादश भाव में स्थित होने पर शुभ फलदायक होता है। परंतु द्वादश शुक्र शनि की राशि अथवा नवांश में शुभ फल नहीं करता। नोट: शुक्र ग्रह भोग विलास का कारक होकर द्वादश भाव (शय्या सुख) में भोग विलास तथा धन देता है। परंतु शनि (भोग की कमी के सूचक ग्रह) की राशि में शुक्र को भोग विलास आदि फल देने में रुकावट पैदा होती है। भावार्थ रत्नाकर ग्रंथ के रचनाकार श्री रामानुजाचार्य ने द्वादश भाव के संबंध में एक महत्वपूर्ण सूत्र प्रतिपादित किया है। यद्भावकारको लग्नाद्व्यये तिष्ठिति चेद्यति। तस्य भावस्य सर्वस्य भाग्य योग उदीरितः।। अर्थात् जातक को उस भाव विषयक बातों में लाभ होता है जिस भाव का कारक ग्रह लग्न से द्वादश भाव में स्थित होता है। इस बारे में वह कहते हैं: पितृकारक भानोश्च भाग्यभावेश्वरोपि वा। उभौ तो व्ययगौस्यातां पितृभाग्यमुदीरितम्।। अर्थात यदि पितृकारक सूर्य और नवम भाव (पिता) का स्वामी दोनों द्वादश भाव में हों, तो पिता भाग्यशाली होता है। व्यये शुक्रस्य संस्थानं कलात्रात्भायमुदेशेत्। व्यये चन्द्रस्य संस्थानं मातृभाग्यमुदीरितम्।। अर्थात् शुक्र यदि द्वादश भाव में हो, तो पत्नी द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार द्वादश स्थान में चंद्र हो, तो माता द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है। कुजो व्यये स्थितो यस्य भ्रातृभाग्यमुदीरितम्। भाग्येश सुबलं रिःफे पितृभाग्य मुदीरितम्।। अर्थात् मंगल यदि द्वादश भाव में स्थित हो, तो भाइयों द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार नवमेश यदि द्वादश भाव में बली हो, तो पिता से भाग्य की प्राप्ति होती है। व्ययेश भाग्यराशीश सूर्याणां संस्थितिव्र्यये। पितृस्तु भाग्ययोगश्च व्यये देवेज्य रिःफपौ।। अर्थात् नवमेश, द्वादशेश और सूर्य 12वें भाव में स्थित हों, तो पिता भाग्यशाली होता है। यदि द्वादशेश और गुरु द्वादश भाव में हांे, तो भी यही फल होता है।

आध्यात्मिक वस्तुओं का माहात्म्य

सनातन धर्म में मूर्ति पूजा का विधान है। इस संसार को बनाने वाली सत्ता मूर्ति रूप लेकर किसी न किसी वेश में अपने भक्तों के सामने प्रकट होती है। इसी के उदाहरण हैं षोडश कलायुक्त भगवान श्री कृष्ण एवं मर्यादा पुरषोत्तम राम। यह आवश्यक नहीं कि वे मनुष्य रूप में ही जन्म लें। उन्होंने नरसिंह रूप में भी अवतार लिया, वामन अवतार, कूर्म अवतार, मत्स्य अवतार, वराह अवतार आदि अनेक रूपों में उन्होंने अपने को प्रकट किया। सही भी है, यदि वे विभिन्न कोटियों के प्राणियों, धरती, आकाश वायु, पर्वत आदि की रचना कर सकते हैं तो विभिन्न रूपों में स्वयं क्यों नहीं प्रकट हो सकते। इसीलिए सनातन धर्म में आकृति और वस्तु को विशेष महत्व दिया गया है। और यही कारण है कि मंदिरों में भगवान की प्रतिमाओं को अनेकानेक रूपों में पूजा जाता है। वेदों में देवी देवताओं की पूजा आराधना की विभिन्न विधियों का उल्लेख मिलता है जिनके द्वारा मनुष्य इस संसार में रहते हुए अपनी सांसारिक आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है। विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की सामग्रियों द्वारा पूजा अर्चना का विधान है। उपर्युक्त पदार्थ यदि रत्न के बने हों, तो सर्वोत्तम और यदि स्वर्ण के हों तो उत्तम होते हैं। इन दोनों के अभाव में क्रमानुसार रजत ताम्र या किसी अन्य धातु अथवा किसी पत्थर, काष्ठ या कागज से बनी सामग्री का उपयोग कर सकते हैं। इस प्रकार से रत्न की वस्तुएं सर्वाधिक प्रभावशाली मानी गई हैं। अन्यथा स्वर्णनिर्मित रत्नजड़ित वस्तुएं उत्तम मानी गई हैं। इसी प्रकार से देवताओं के आवाहन एवं मंत्र सिद्धि के लिए स्वर्ण निर्मित यंत्रों के उपयोग का उल्लेख मिलता है। इसके अभाव में धातु निर्मित स्वर्णयुक्त यंत्रों को उत्तम माना गया है। उपयोगिता के अनुसार कुछ वस्तुओं का उपयोग निम्न प्रकार से है: विभिन्न मालाएं: विभिन्न मंत्रों के जप तथा कामनाओं की पूर्ति के लिए विभिन्न प्रकार की मालाएं प्रयोग की जाती हैं जैसे शिव मंत्र के लिए रुद्राक्ष माला, लक्ष्मी मंत्र के लिए कमल गट्टे की माला, सरस्वती मंत्र के लिए सफेद चंदन की माला, मंगल मंत्र के लिए लाल चंदन या मूंगे की माला, गुरु मंत्र के लिए हल्दी माला, दुर्गा मंत्र के लिए स्फटिक माला, महामृत्युंजय मंत्र या स्वास्थ्य वृद्धि के लिए पारद माला, शांति लाभ के लिए तुलसी माला, प्रेमवृद्धि के लिए फिरोजा माला, आकर्षण के लिए वैजयंती माला, नवग्रह शांति के लिए नवरत्न माला आदि। यंत्र: शास्त्रों में अनेक प्रकार के यंत्रों का उल्लेख मिलता है। मंत्रों को सिद्ध करने के लिए यंत्रों की स्थापना आवश्यक है। स्वर्ण पत्र पर निर्मित यंत्र सर्वोत्तम, रजत पत्र पर उत्तम एवं ताम्र पत्र पर मध्यम होता है। भोजपत्र पर भी यंत्र बनाए जाते हैं। इन सभी के अभाव में यंत्रों का निर्माण कागज या दीवार पर भी किया जा सकता है। यंत्र पर अंकित ज्यामितिक रेखाएं व मंत्र ही यंत्र का निर्माण करते हैं। विभिन्न प्रकार के फलों की प्राप्ति के लिए अनेक यंत्रों के एक साथ उपयोग का विधान भी है। श्री यंत्र: दरिद्रता दूर करने एवं सुख समृद्धि की वृद्धि के लिए श्री यंत्र की स्थापना सर्वोत्तम मानी गई है। धन धान्य की पूर्ति के लिए स्फटिक श्री यंत्र या स्वर्णनिर्मित श्री यंत्र, स्वास्थ्य के लिए पारद श्री यंत्र, शक्ति एवं ऊर्जा के लिए सनसितारा निर्मित श्री यंत्र, विजय के लिए मूंगे के श्री यंत्र, ज्ञानवृद्धि के लिए मरगज या पन्ने के श्री यंत्र और ग्रह शांति के लिए अष्टधातु के श्री यंत्र की स्थापना उत्तम फलदायक होती है। नवरत्न: रत्न ग्रहों की रश्मियों को एकत्रित करने में अतिसक्षम होते हैं। इन्हें धारण कर ग्रहों के अनुकूल प्रभाव को संवर्धित किया जाता है। नवरत्न लाॅकेट: यह सभी साधकों के लिए लाभकारी होता है। जिस व्यक्ति को अपनी जन्मतिथि जन्म समय आदि पता न हों, वह इसे धारण कर सकता है। यह सभी नौ ग्रहों का प्रतीक है। यह अशुभ ग्रहों के प्रभाव को दूर करता है। दक्षिणावर्ती शंख: यह भगवान विष्णु का प्रतीक है। इसे पूजा स्थल पर रखने और इससे सूर्य को अघ्र्य देने से धन धान्य और यश सम्मान की प्राप्ति होती है। गोमती चक्र: यह समुद्र में पाया जाता है। यह लक्ष्मी नारायण का प्रतीक है एवं धन प्रदायक है। एकाक्षी नारियल: यह नारियल शिव का प्रतीक है और शिव की आराधना के लिए इसकी पूजा अत्यंत शुभ मानी गई है। शालिग्राम: यह नदी में पाया जाता है एवं इसके अंदर विष्णु के प्रतीक सुदर्शन चक्र के चिह्न पाए जाते हैं। शालिग्राम की पूजा विष्णु भगवान की आराधना मानी जाती है। श्वेतार्क गणपति: यह श्वेत आक की जड़ में मिलता है। यह अत्यंत दुर्लभ है। इसे पूजा स्थल पर रखने से सारे विघ्न दूर हो जाते हैं। पिरामिड: जीवन को सुखमय बनाने के लिए पिरामिड का उपयोग किया जाता है। इससे जातक को आकाशीय ऊर्जा मिलती है। इंद्रजाल: यह समुद्र में पाया जाता है। इसके दर्शन से भूत प्रेत जनित और अन्य ऊपरी बाधाएं दूर हो जाती हैं। काले घोड़े की नाल: यह शनि के प्रभाव को कम करता है। व्यक्ति के अपने ऊपर चल रहे शनि के बुरे प्रभाव को दूर करने के लिए इसे निवास या व्यापार स्थान के मुख्य द्वार पर अंग्रेजी के यू आकार में लगाना चाहिए। सच्ची श्रद्धा से एवं शाास्त्रानुसार उचित सामग्री प्रयोग कर मंत्र द्वारा पूजा अर्चना करने से शुभ फल शीघ्र अवश्य मिलते हैं।

द्वादशांश से अनिष्ट का निर्धारण

सृष्टि के रचयिता ब्रह्मा जी ने जब से इस संसार की रचना की है तभी से जीवन में प्रत्येक नश्वर आगमों को चाहे वे सजीव हों अथवा निर्जीव, उन्हें विभिन्न अवस्थाओं से गुजरना पड़ता है। जीवन की इस यात्रा में सबों को अच्छे एवं बुरे समय का स्वाद चखना पड़ता है तथा दोनों परिस्थितियों से होकर गुजरना पड़ता है। यदि हमारा अध्यात्म एवं पराविद्याओं में विश्वास है तो इनके अनुसार जन्म से मृत्युपर्यन्त मनुष्य के जीवन की हर घटना ग्रहों, नक्षत्रों एवं दशाओं आदि द्वारा पूर्णरूपेण निर्देशित होती है। इनके सम्मिलित प्रभाव जीवन में घटित होने वाली हर घटना को प्रभावित करते हैं। आधुनिक भौतिकवादी विश्व में प्रत्येक मनुष्य धनी, सुखी एवं हर प्रकार से संपन्न जीवन जीने की कल्पना करता है तथा उसकी यह आकांक्षा होती है कि उसे वे सभी विलासितापूर्ण सुख-सुविधाएं प्राप्त हों जिनकी उसे आकांक्षा है। किंतु यह हमारे हाथ में नहीं है। हम सिर्फ कर्म कर सकते हैं, फल का निर्धारण हमारी जन्म कुंडली में स्थित ग्रह करते हैं जो हमारे जन्म लेने के साथ हमारी कुंडली में अवतरित होते हैं। जन्म लेने के उपरांत यह अवश्यंभावी हो जाता है कि हमें निरंतर सुख एवं दुख के चक्र से गुजरना है। अब किसके भाग्य में विधाता ने क्या सुख अथवा दुख लिखे हैं इसका विवेचन ज्योतिषी अपने दैवीय ज्ञान, ज्योतिष के गहन एवं गूढ़ सिद्धांतों के ज्ञान के आधार पर करते हैं तथा लोगों को परामर्श देकर उनका मार्गदर्शन करते हैं कि उसके जीवन का अमुक समय सुख का है अथवा आने वाला समय दुख का होगा, अतः भावी परेशानियों अथवा आसन्न संकट के प्रति सावधान हो जायें। यदि बुरे समय का ज्ञान पूर्व में ही हो जाय तथा समुचित मार्गदर्शन मिल जाय तो व्यक्ति आने वाले बुरे समय के प्रति सचेत हो सकता है, मानसिक रूप से तैयार हो सकता है अथवा दैवीय उपायों द्वारा तथा अपने कृत्यों द्वारा ईश्वर प्रदत्त इस पीड़ा को कमतर करने में, इसकी तीव्रता एवं विभीषिका को न्यून करने में अवश्य सफल हो सकता है। यद्यपि कि ज्योतिष में अनिष्ट के निर्धारण एवं उनकी भविष्यवाणी के अनेक ज्ञात एवं अज्ञात सूत्र मौजूद हैं, किंतु एक अति महत्वपूर्ण, व्यवहृत एवं सिद्ध तकनीक द्वादशांश चक्र के द्वारा अनिष्ट के निर्धारण का है जिसमें राहु का गोचर देखकर काफी सटीक भविष्यवाणी की जा सकती है। यह तकनीक वर्षों के शोध एवं पर्यवेक्षण के परिणामस्वरूप प्रकाश में आयी है तथा शत-प्रतिशत सही फल देने में सक्षम है।

अनंत चतुर्दर्शी व्रत

हिंदू धर्म में ऐसी मान्यता है कि संसार को चलाने वाले प्रभु कण-कण में व्याप्त हैं. ईश्वर जगत में अनंत रूप में विद्यमान हैं. दुनिया के पालनहार प्रभु की अनंतता का बोध कराने वाला एक कल्याणकारी व्रत है, जिसे 'अनंत चतुदर्शी' के रूप में मनाया जाता है. भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्दशी को 'अनंत चतुर्दशी' कहा जाता है. इस दिन अनंत भगवान (श्रीहरि) की पूजा करके बांह पर अनंत सूत्र बांधा जाता है. भक्तों का ऐसा विश्वास है कि अनंत सूत्र धारण करने से हर तरह की मुसीबतों से रक्षा होती है. साथ ही हर तरह से साधकों का कल्याण होता है.
अनंत चतुर्दशी का महात्म्य
ऐसी मान्यता है कि महाभारत काल से इस व्रत की शुरुआत हुई. जब पांडव जुए में अपना राज्य गवांकर वन-वन भटक रहे थे, तो भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अनन्त चतुर्दशी व्रत करने को कहा. कष्टों से मुक्त‍ि पाने के लिए धर्मराज युधिष्ठिर ने अपने भाइयों व द्रौपदी के साथ इस व्रत को किया. तभी से इस व्रत का चलन शुरू हुआ.
व्रत करने वाले श्रद्धालु भगवान विष्णु या श्रीकृष्ण रूप की पूजा करते हैं. अनंत स्वरूप चौदह गांठों वाले अनंत सूत्र की विधिपूर्वक पूजा करने और व्रत की कथा सुनने के बाद इसे बांहों पर बांधा जाता है. पूजा के बाद पुरुष सूत्र को अपने दाहिने हाथ पर, जबकि स्त्रि‍यां बाएं हाथ पर बांधती हैं.
भारत के कई भागों में इस व्रत का चलन है. पूर्ण विश्वास के साथ व्रत करने पर यह अनंत फलदायी होता है.
अनंत चतुर्दशी की पूजन विधि:
अनंत चतुर्दशी के पूजन में व्रतकर्ता को प्रात:स्नान करके व्रत का संकल्प करना चाहिए पूजा घर में कलश स्थापित करना चाहिए, कलश पर भगवान विष्णु का चित्र स्थापित करनी चाहिए इसके पश्चात धागा लें जिस पर चौदह गांठें लगाएं इस प्रकार अनन्तसूत्र (डोरा) तैयार हो जाने पर इसे प्रभु के समक्ष रखें इसके बाद भगवान विष्णु तथा अनंतसूत्र की षोडशोपचार-विधिसे पूजा करनी चाहिए तथा अनन्तायनम: मंत्र क जाप करना चाहिए. पूजा के पश्चात अनन्तसूत्र मंत्र पढकर स्त्री और पुरुष दोनों को अपने हाथों में अनंत सूत्र बांधना चाहिए और पूजा के बाद व्रत-कथा का श्रवन करें. अनंतसूत्र बांधने लेने के बाद ब्राह्मण को भोजन कराना चाहिए और स्वयं सपरिवार प्रसाद ग्रहण करना चाहिए.

अनंत सूत्र बांधने का मंत्र इस तरह है:
अनंत संसार महासमुद्रे
मग्नं समभ्युद्धर वासुदेव।
अनंतरूपे विनियोजयस्व
ह्यनंतसूत्राय नमो नमस्ते।।

Monday 19 September 2016

अजा एकादशी व्रत

भाद्रपद कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी के नाम से जाना जाता है. इस दिन व्रत रखकर भगवान विष्णु की पूजा और रात्रि जागरण करते हुए भगवान का ध्यान करने से सारे कष्टों से मुक्ति मिलती है. शास्त्रों के अनुसार आज ही के दिन राजा हरिश्चंद्र को यह व्रत करने उनका खोया हुआ परिवार और साम्राज्य वापस मिला था.
कैसे करे पूजन और व्रत-विधि...
- अजा एकादशी व्रत को जो व्यक्ति इस व्रत को रखना चाहते हैं उन्हें दशमी तिथि को सात्विक भोजन करना चाहिए ताकि व्रत के दौरान मन शुद्ध रहे.
- एकादशी के दिन सुबह सूर्योदय के समय स्नान ध्यान करके भगवान विष्णु के सामने घी का दीपक जलाकर, फलों तथा फूलों से भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिए.
- भगवान की पूजा के बाद विष्णु सहस्रनाम या फिर गीता का पाठ करना चाहिए.
- व्रती के लिए दिन में निराहार एवं निर्जल रहने का विधान है लेकिन शास्त्र यह भी कहता है कि बीमार और बच्चे फलाहार कर सकते हैं.
- सामान्य स्थिति में रात्रि में भगवान की पूजा के बाद जल और फल ग्रहण करना चाहिए. इस व्रत में रात्रि जागरण करने का बड़ा महत्व है.
- द्वादशी तिथि के दिन प्रातः ब्राह्मण को भोजन करवाने के बाद स्वयं भोजन करना चाहिए. यह ध्यान रखें कि द्वादशी के दिन बैंगन नहीं खाएं.
अजा एकादशी का फल
पुराणों में बताया गया है कि जो व्यक्ति श्रृद्धा पूर्वक अजा एकादशी का व्रत रखता है उसके पूर्व जन्म के पाप कट जाते हैं और इस जन्म में सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है. अजा एकादशी के व्रत से अश्वमेघ यज्ञ करने के समान पुण्य की प्राप्ति होती है और मृत्यु के पश्चात व्यक्ति उत्तम लोक में स्थान प्राप्त करता है.

पितृ पक्ष माह........

पितृ पक्ष ....???????आश्विनमहीने के कृष्णपक्ष के पंद्रह दिन पितृपक्ष (पितृ = पिता) के नाम से विख्यात है। इन पंद्रह दिनों में लोग अपने पितरों (पूर्वजों) को जल देते हैं तथा उनकी मृत्युतिथि पर पार्वण श्राद्ध करते हैं। पिता-माता आदि पारिवारिक मनुष्यों की मृत्यु के पश्चात्‌ उनकी तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक किए जाने वाले कर्म को पितृ श्राद्ध कहते हैं।
श्रद्धया इदं श्राद्धम्‌ (जो श्र्द्धा से किया जाय, वह श्राद्ध है।) भावार्थ है प्रेत और पित्त्तर के निमित्त, उनकी आत्मा की तृप्ति के लिए श्रद्धापूर्वक जो अर्पित किया जाए वह श्राद्ध है।
हिन्दू धर्म में माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं जिसमे हम अपने पूर्वजों की सेवा करते हैं।
आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से लेकर अमावस्या तक ब्रह्माण्ड की ऊर्जा तथा उस उर्जा के साथ पितृप्राण पृथ्वी पर व्याप्त रहता है। धार्मिक ग्रंथों में मृत्यु के बाद आत्मा की स्थिति का बड़ा सुन्दर और वैज्ञानिक विवेचन भी मिलता है | मृत्यु के बाद दशगात्र और षोडशी-सपिण्डन तक मृत व्यक्ति की प्रेत संज्ञा रहती है। पुराणों के अनुसार वह सूक्ष्म शरीर जो आत्मा भौतिक शरीर छोड़ने पर धारण करती है प्रेत होती है |प्रिय के अतिरेक की अवस्था "प्रेत" है क्यों की आत्मा जो सूक्ष्म शरीर धारण करती है तब भी उसके अन्दर मोह, माया भूख और प्यास का अतिरेक होता है | सपिण्डन के बाद वह प्रेत, पित्तरों में सम्मिलित हो जाता है।
पितृपक्ष भर में जो तर्पण किया जाता है उससे वह पितृप्राण स्वयं आप्यापित होता है। पुत्र या उसके नाम से उसका परिवार जो यव (जौ) तथा चावल का पिण्ड देता है, उसमें से अंश लेकर वह अम्भप्राण का ऋण चुका देता है। ठीक आश्विन कृष्ण प्रतिपदा से वह चक्र उर्ध्वमुख होने लगता है। 15 दिन अपना-अपना भाग लेकर शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा से पितर उसी ब्रह्मांडीय उर्जा के साथ वापस चले जाते हैं । इसलिए इसको पितृपक्ष कहते हैं और इसी पक्ष में श्राद्ध करने से पित्तरों को प्राप्त होता है।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल की तीन-तीन अंजलियाँ प्रदान करते हैं, उनके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है। भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है। पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं। यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है। महालय में पुराणोक्त पद्धति से निम्नांकित कर्म किए जाते हैं :- एकोदिष्ट श्राद्ध, पार्वण श्राद्ध, नाग बलि कर्म, नारायण बलि कर्म, त्रिपिण्डी श्राद्ध, महालय श्राद्ध पक्ष में श्राद्ध कर्म उपरोक्त कर्मों हेतु विभिन्न संप्रदायों में विभिन्न प्रचलित परिपाटियाँ चली आ रही हैं। अपनी कुल-परंपरा के अनुसार पितरों की तृप्ति हेतु श्राद्ध कर्म अवश्य करना चाहिए। कैसे करें श्राद्ध कर्म महालय श्राद्ध पक्ष में पितरों के निमित्त घर में क्या कर्म करना चाहिए।

क्यों पितरों की शांति के लिए किया जाता है श्राद्ध

16 सितंबर से पूर्णिमा तिथि के दिन से श्राद्ध का आरंभ होगा गया है. इस पितृपक्ष अवधि में पूर्वजों के लिए श्रद्धा पूर्वक किया गया दान तर्पण रुप में किया जाता है. पितृपक्ष पक्ष को महालय या कनागत भी कहा जाता है. हिंदू धर्म में मान्यता अनुसार सूर्य के कन्याराशि में आने पर पितर परलोक से उतर कर कुछ समय के लिए पृथ्वी पर अपने पुत्र-पौत्रों के यहां आते हैं.
श्राद्ध संस्कार
मृतक के लिए श्रद्धा से किया गया तर्पण, पिण्ड और दान ही श्राद्ध कहा जाता है और जिस मृत व्यक्ति के एक वर्ष तक के सभी और्ध्व दैहिक क्रिया-कर्म सम्पन्न हो जाते हैं, उसी को 'पितर' को पितर कहा जाता है. वायु पुराण में लिखा है कि 'मेरे पितर जो प्रेतरुप हैं, तिलयुक्त जौ के पिण्डों से वह तृप्त हों. साथ ही सृष्टि में हर वस्तु ब्रह्मा से लेकर तिनके तक, चाहे वह चर हो या अचर हो, मेरे द्वारा दिए जल से तृप्त हों'.
श्राद्ध का कारण
प्राचीन साहित्य के अनुसार सावन माह की पूर्णिमा से ही पितर पृथ्वी पर आ जाते हैं. वह नई आई कुशा की कोंपलों पर विराजमान हो जाते हैं. श्राद्ध अथवा पितृ पक्ष में व्यक्ति जो भी पितरों के नाम से दान तथा भोजन कराते हैं अथवा उनके नाम से जो भी निकालते हैं, उसे पितर सूक्ष्म रुप से ग्रहण करते हैं. ग्रंथों में तीन पीढि़यों तक श्राद्ध करने का विधान बताया गया है. पुराणों के अनुसार यमराज हर वर्ष श्राद्ध पक्ष में सभी जीवों को मुक्त कर देते हैं. जिससे वह अपने स्वजनों के पास जाकर तर्पण ग्रहण कर सकते हैं. तीन पूर्वज पिता, दादा तथा परदादा को तीन देवताओं के समान माना जाता है. पिता को वसु के समान माना जाता है. रुद्र देवता को दादा के समान माना जाता है. आदित्य देवता को परदादा के समान माना जाता है. श्राद्ध के समय यही अन्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं.
श्राद्ध का महत्व
श्रद्धा के साथ जो शुभ संकल्प और तर्पण किया जाता है उसे 'श्राद्ध' कहते हैं. श्राद्ध के महत्व के बारे में कई प्राचीन ग्रंथों तथा पुराणों में वर्णन मिलता है. श्राद्ध का पितरों के साथ बहुत ही घनिष्ठ संबंध है. पितरों को आहार और अपनी श्रद्धा पहुंचाने का एकमात्र साधन श्राद्ध है.
इस प्रकार किया जाता है अन्न दान
शास्त्रों के अनुसार जिन व्यक्तियों का श्राद्ध मनाया जाता है, उनके नाम और गोत्र का उच्चारण करके मंत्रों द्वारा जो अन्न आदि उन्हें दिया समर्पित किया जाता है, वह उन्हें विभिन्न रुपों में प्राप्त होता है. जैसे यदि मृतक व्यक्ति को अपने कर्मों के अनुसार देव योनि मिलती है तो श्राद्ध के दिन ब्राह्मण को खिलाया गया भोजन उन्हें अमृत रुप में प्राप्त होता है. यदि पितर गन्धर्व लोक में है तो उन्हें भोजन की प्राप्ति भोग्य रुप में होती है. पशु योनि में है तो तृण रुप में, सर्प योनि में होने पर वायु रुप में, यक्ष रुप में होने पर पेय रुप में, दानव योनि में होने पर मांस रुप में, प्रेत योनि में होने पर रक्त रुप में और मनुष्य योनि होने पर अन्न के रुप में भोजन की प्राप्ति होती है.

श्री लक्ष्मी सूक्त का पाठ

मां लक्ष्मी अपने भक्तों की धन से जुड़ी हर तरह की समस्याएं दूर करती हैं. इतना ही नहीं, देवी साधकों को यश और कीर्ति भी देती हैं. इनकी पूजा से धन की प्राप्ति होती है, साथ ही वैभव भी मिलता है.
श्री लक्ष्मी सूक्त का पाठ

हरिः ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥1॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥2॥

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रबोधिनीम् ।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥3॥

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् ।
पद्मे स्थितां पद्मवर्णां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥4॥

प्रभासां यशसा लोके देवजुष्टामुदाराम् ।
पद्मिनीमीं शरणमहं प्रपद्येऽलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥5॥

आदित्यवर्णे तपसोऽधिजातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः ।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु मायान्तरायाश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥6॥

उपैतु मां देवसखः कीर्तिश्च मणिना सह ।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥7॥

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम् ।
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद गृहात् ॥8॥

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् ।
ईश्वरींग् सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम् ॥9॥

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि ।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥10॥

कर्दमेन प्रजाभूता सम्भव कर्दम ।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥11॥

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस गृहे ।
नि च देवी मातरं श्रियं वासय कुले ॥12॥

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम् ।
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥13॥

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् ।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ॥14॥

तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पूरुषानहम् ॥15॥

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥16॥

पद्मानने पद्म ऊरु पद्माक्षी पद्मासम्भवे ।
त्वं मां भजस्व पद्माक्षी येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥17॥

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने ।
धनं मे जुषताम् देवी सर्वकामांश्च देहि मे ॥18॥

पुत्रपौत्र धनं धान्यं हस्त्यश्वादिगवे रथम् ।
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु माम् ॥19॥

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः ।
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणं धनमश्नुते ॥20॥

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा ।
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु ॥21॥

न क्रोधो न च मात्सर्य न लोभो नाशुभा मतिः । भवन्ति कृतपुण्यानां भक्तानां श्रीसूक्तं जपेत्सदा ॥22॥

वर्षन्तु ते विभावरि दिवो अभ्रस्य विद्युतः ।
रोहन्तु सर्वबीजान्यव ब्रह्म द्विषो जहि ॥23॥

पद्मप्रिये पद्म पद्महस्ते पद्मालये पद्मदलायताक्षि ।
विश्वप्रिये विष्णु मनोऽनुकूले त्वत्पादपद्मं मयि सन्निधत्स्व ॥24॥

या सा पद्मासनस्था विपुलकटितटी पद्मपत्रायताक्षी । गम्भीरा वर्तनाभिः स्तनभर नमिता शुभ्र वस्त्रोत्तरीया ॥25॥

लक्ष्मीर्दिव्यैर्गजेन्द्रैर्मणिगणखचितैस्स्नापिता हेमकुम्भैः ।
नित्यं सा पद्महस्ता मम वसतु गृहे सर्वमाङ्गल्ययुक्ता ॥26॥

लक्ष्मीं क्षीरसमुद्र राजतनयां श्रीरङ्गधामेश्वरीम् ।
दासीभूतसमस्त देव वनितां लोकैक दीपांकुराम् ॥27॥

श्रीमन्मन्दकटाक्षलब्ध विभव ब्रह्मेन्द्रगङ्गाधराम् ।
त्वां त्रैलोक्य कुटुम्बिनीं सरसिजां वन्दे मुकुन्दप्रियाम् ॥28॥

सिद्धलक्ष्मीर्मोक्षलक्ष्मीर्जयलक्ष्मीस्सरस्वती ।
श्रीलक्ष्मीर्वरलक्ष्मीश्च प्रसन्ना मम सर्वदा ॥29॥

वरांकुशौ पाशमभीतिमुद्रां करैर्वहन्तीं कमलासनस्थाम् ।
बालार्क कोटि प्रतिभां त्रिणेत्रां भजेहमाद्यां जगदीस्वरीं त्वाम् ॥30॥

सर्वमङ्गलमाङ्गल्ये शिवे सर्वार्थ साधिके ।
शरण्ये त्र्यम्बके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥31॥

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुक गन्धमाल्यशोभे ।
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥32॥

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् ।
विष्णोः प्रियसखीं देवीं नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥33॥

महालक्ष्मी च विद्महे विष्णुपत्नीं च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥34॥

श्रीवर्चस्यमायुष्यमारोग्यमाविधात् पवमानं महियते ।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥35॥

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः ।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥36॥

य एवं वेद ॐ महादेव्यै च विष्णुपत्नीं च धीमहि ।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ॥37॥