ग्रहों की नैसर्गिक श्रेणियां ग्रहों की नैसर्गिक श्रेणियां दो हैं- ;पद्ध सौम्य शुभ ग्रह - गुरु, चंद्र, शुक्र, बुध ;पपद्ध पाप ग्रह- सूर्य, मंगल, शनि, राहु व केतु। ग्रहों की ये दो श्रेणियां विंशोत्तरी दशा में काम नहीं देती, क्योंकि सौम्य व पाप श्रेणी के ग्रह आपस में शत्रुता व मित्रता दोनों ही रखते हैं, अतः फलादेश में गलती हो सकती है, फलादेश की इस त्रुटि को दूर करने हेतु महर्षि पराशर ने ग्रहों की निम्न चार श्रेणियां बनाईं- ;पद्ध पहली श्रेणी में ग्रह सदा शुभ फल देते हैं। इसमें त्रिकोण (5, 9, 1 भाव) के स्वामी शामिल हैं। यदि इन भावों के स्वामी नैसर्गिक पाप ग्रह-सूर्य, मंगल, शनि हो तो भी वे अपनी विंशोत्तरी दशा, भुक्ति में सदा शुभ फल करते हैं। यदि नैसर्गिक शुभ ग्रह सौम्य ग्रह-गुरु, चंद्र, शुक्र, बुध हो तो सोने पे सुहागा अर्थात सुनहरा समय होता है। ;पपद्ध द्वितीय श्रेणी के ग्रह सदा अशुभ फल देते हैं| इसमें 3, 6, 11 भाव के स्वामियों का समावेश है। यदि इन भावों के स्वामी नैसर्गिक सौम्य ग्रह-गुरु, चंद्र, शुक्र व बुध हों तो भी अशुभ फल करेंगे और यदि इन भावों के स्वामी नैसर्गिक पाप ग्रह सूर्य, मंगल, शनि आदि हो तो अशुभता का क्या कहना? यानि अशुभता अत्यधिक होगी। ;पपपद्ध तृतीय श्रेणी में ग्रह सदा तटस्थ रहते हैं इसमें केंद्र (4, 7, 10) के स्वामियों का समावेश है। इससे ग्रह शुभ या अशुभ होकर तटस्थ हो जाता है। ;पअद्ध चतुर्थ श्रेणी में ग्रह कभी शुभ तो कभी अशुभ फल करते हैं ये द्वितीय व द्वादश भाव के स्वामी हैं। अन्य नियम पाप ग्रह सूर्य, मंगल और शनि तीनों से अधिष्ठित राशियों के ये स्वामी और द्वादशेश तथा राहु व केतु ये सभी ग्रह पृथक प्रभाव देते हैं। ये जिस भाव आदि पर प्रभाव (युक्ति दृष्टि) डालते हैं, उससे संबंधित पृथकता या हानि देते हैं। उदाहरण- यदि इनका प्रभाव सप्तम भाव, स्वामी व कारक शुक्र या गुरु हो तो जातक अपने जीवनसाथी से पृथक हो जाता है आदि। किसी भी राशि, भाव, अथवा ग्रह पर उससे दशम भाव में स्थित ग्रह का प्रभाव सदा रहता है। इसे केंद्रीय प्रभाव कहते हैं। यदि दशमस्थ ग्रह अच्छा या बुरा है तो इसका प्रभाव क्रमशः अच्छा (शुभ) या अशुभ (बुरा) रहेगा। प्रत्येक ग्रह अपने स्थान से सप्तम भाव, इसमें स्थित राशि व ग्रह को पूर्ण दृष्टि से देखते हैं जिससे इनमें प्रभाव (अच्छा/बुरा) आ जाता है। नैसर्गिक सौम्य ग्रहों - चंद्र, शुक्र व बुध (गुरु को छोड़कर) की केवल एक ही पूर्ण दृष्टि सप्तम होती है। पाप ग्रहों में सूर्य (क्रूर ग्रह) की केवल एक दृष्टि, सप्तम होती है। इसके अलावा पाप ग्रहों में मंगल, शनि, राहु व केतु तथा सौम्य ग्रह गुरु की अन्य दृष्टियां भी होती हैं। गुरु की 5, 9 दृष्टि, मंगल की 4, 8, शनि की 3, 10, राहु व केतु की 5, 9 दृष्टियां भी होती हैं अर्थात इन पर प्रभाव रहता है।जब राहु व केतु किसी भी भाव में अकेले स्थित हो अर्थात् युक्ति या दृष्टि द्वारा किसी अन्य ग्रह से प्रभावित न हो तो क्रमशः शनि व मंगल का प्रभाव रखते हैं। यदि राहु व केतु किसी भी भाव में अन्य ग्रह के साथ युति या दृष्टि में हो तो उस ग्रह का भी साथ में प्रभाव रखते हैं। राहु व केतु अधिष्ठित राशियों के स्वामी क्रमशः शनि व मंगल के प्रभाव को लेकर कार्य करते हैं। जैसे- यदि केतु ग्रह, तुला राशि में स्थित हो तो तुला राशि का स्वामी शुक्र, केतु का भी काम करेगा अर्थात् जिस भाव पर युक्ति दृष्टि द्वारा प्रभाव डालेगा उसपर केतु का मारणात्मक अथवा आघात्मक प्रभाव भी रहेगा। किसी भी राशि का स्वामी उस राशि में स्थित ग्रह या ग्रहों के प्रभाव को लेकर कार्य करता है। उदाहरण- यदि मीन राशि में सूर्य और शनि स्थित हो तो गुरु (मीन राशि स्वामी) में पृथकताजनक (सूर्य व शनि के कारण) प्रभाव आ जाता है और उसकी दृष्टि लाभ देने के बजाय उल्टे हानि करती है। यह नियम हर ग्रह पर लागू होता है। नैसर्गिक सौम्य ग्रह चंद्र, गुरु, बुध, शुक्र सौम्य ग्रह तथा पाप ग्रह- मंगल, सूर्य, शनि, राहु व केतु है। सूर्य व चंद्र कुछ अलग फल भी प्रदान करते हैं। सूर्य ग्रह पाप ग्रह नहीं क्रूर ग्रह है अतः धर्म आदि के विवेचन में सात्विकता आदि विचार देता है और चंद्र ग्रह अमावस्या के आस-पास (घटी तिथि) निर्बल, क्षीण व पापी, अशुभ फल करता है, मन-मस्तिष्क कमजोर करता है। बुध ग्रह अकेला शुभ होता है पापी ग्रहों के साथ अशुभ फल करता है। बाकि ग्रहों के फल उपरोक्त पाराशर के अनुसार समान हैं।इस नियम को निम्न सारणी से समझ सकते हैं- भाव भाव स्वामी का तत्व 1, 5, 9 अग्नि 2, 6, 10 पृथ्वी 3, 7, 11 वायु 4, 8, 12 जल उपरोक्त सारणी से स्पष्ट है कि उपरोक्त भाव के स्वामी संबंधित तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं। उदाहरण सूर्य अग्नि रूप (तत्व) होते हुए भी यदि 4, 8, 12 भाव का स्वामी हो तो यह अग्नि का प्रतिनिधत्व न करके जल का प्रतिनिधित्व करेगा, परंतु यदि किसी राशि में कोई ग्रह स्थित हो तो उस राशि का स्वामी, उस ग्रह से संबंधित तत्व के अनुसार प्रभाव करेगा, न कि अपनी प्रवृत्ति के अनुसार। जैसे- यदि द्वादश भाव में तुला राशि में अग्नि, तत्व सूर्य व मंगल स्थित हो तो शुक्र जल रूप में कार्य न करके अग्नि रूप में कार्य करेगा। यह नियम थोड़ा विपरीत प्रकृति के अनुसार प्रभाव देता है। जन्मकुंडली में 1, 2, 4, 5, 7, 9, 10, 11 भाव शुभ संज्ञक हैं अर्थात् धन के विचार में इनके भावेश बली हों तो धनदायक होते हैं। शेष भाव - 3, 6, 8, 12, भाव अशुभ संज्ञक हैं। यदि इनके स्वामी बली हों तो आर्थिक हानि होती है। जब कोई ग्रह उपरोक्त शुभ भावों का स्वामी होकर केंद्रादि शुभ भावों में अपनी उच्च, स्वगृही या मित्र राशि में अपनी राशियों से शुभ स्थानों में, नवांश आदि शुभ वर्गों में, वक्री होकर शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट होकर जिस राशि को देखता हुआ स्थित होता है तो वह बली होता है और जिस भाव का स्वामी होता है उसके लिये शुभ करता है। जब कोई ग्रह शुभ भावों का स्वामी तो हो परंतु 3, 6, 8, 12 भावों में स्थित होकर निर्बल अर्थात् नीच या शत्रु राशि में स्थित हो, अपनी राशियों से अशुभ स्थानों में स्थित होकर बाल या मृत आदि अवस्था में होता हुआ, पाप प्रभाव (युक्ति दृष्टि द्वारा) में हो, अशुभ नवांश आदि वर्गों में स्थित हो, सूर्य के निकट हो, दशानाथ से षडाष्टक आदि अनिष्ट स्थिति में हो, दिग्बल आदि से हीन, पापी ग्रहों से प्रभावित (युक्ति या दृष्टि द्वारा) हो तो वह ग्रह निर्बल होता है और जिस भाव का स्वामी होता है उसके लिए अपनी दशा, भुक्ति से अशुभ फल करता है। जब कोई ग्रह तृतीय आदि अनिष्ट भावों का स्वामी होता है परंतु उपरोक्त रूप से बली होता है तो तृतीय आदि भावों के लिये शुभ फल देने के कारण धन के लिये अशुभ सिद्ध होता है परंतु जब वह ग्रह उपरोक्त रूप से निर्बल हो तो धन के लिये शुभ हो जाता है। जब नवमेश, लग्न में स्थित हो तो जातक इनकी दशा में विदेश यात्राएं बहुत करता है। दशा, गोचर में दशा प्रभावी रहती है तथा गोचर भी दशा के अनुसार ही फल करता है। दशाफल नियमों में एक नियम और है जो कालसर्प योग व पितृदोष के प्रभाव को कुछ कम कर देता है। यदि कुंडली में पंचमहापुरूष के योग- मंगल से रूचक, बुध से भद्र, गुरु से हंस, शुक्र से मालव्य, शनि से शश व बुधादित्य तथा गजकेसरी योग हो। श्रीमोदी जी की कुंडली में पितृदोष (ग्रहण च चंद्र योग) है तथा साथ ही शुभ योग रूचक, बुधादित्य व गजकेसरी योग भी है। ग्रहो भावराशिदृग्योग जीविकादि फलं स्वदशान्तर्दशाया ददाति।। ग्रहों का भावफल, राशिफल, दृष्टिफल, योगफल एवं जीविकादी से शुभाशुभ फल संबंधित ग्रहों की दशा-अंतर्दशा में प्राप्त होता है। (जातक तत्त्वम) विशोंत्तरी दशा में यूं तो सभी ग्रह अपने षड्बल के अनुसार फल करते हैं परंतु यदि स्थिति वश षड्बल उपलब्ध न हो तो ग्रह से संबंधित कुछ तथ्यों का अध्ययन कर फल विचार किया जाता है। अब प्रश्नानुसार ग्रह स्थिति, युति, राशि, स्वामित्व, दृष्टियां, योग, गोचर, नक्षत्र स्वामित्व आदि सभी स्थितियों में विशोंत्तरी दशा फल के कुछ प्रमुख नियमों की चर्चा करेंगे। ग्रह स्थिति दशानाथ ग्रह की स्थिति, उस ग्रह के द्वारा अधिष्ठित भाव पर निर्भर करती है। ग्रह को केंद्र व त्रिकोण (1,4,5,7,9,10) भाव स्थिति का विशेष लाभ मिलता है क्योंकि यह शुभ भाव कहलाते हैं इसलिए इन भावों में स्थित ग्रह दशाकाल में शुभ फलदायक होते हैं। 2, 3, 6, 8, 11, 12 भाव, अशुभ भाव कहलाते हैं इन भावों में स्थित ग्रह, दशाकाल में अशुभ फलदायक होते हैं। दशानाथ जिस भाव में स्थित है उस भाव स्वामी के साथ नैसर्गिक संबंधों के अनुसार फल पर प्रभाव होता है। दशानाथ ग्रह यदि भाव आरंभ से भाव मध्य के बीच स्थित हैं तो यह दशाकाल में अपनी भाव स्थिति के अनुसार पूर्ण फल देते हैं। दशानाथ ग्रह भाव मध्य से भाव विराम संधि के बीच ग्रह उच्चगत, स्वक्षेत्री आदि होने पर भी वह अपने दशाकाल में पूर्ण फल नहीं दे पाते हैं। युति कुंडली में यदि दो या दो से ज्यादा ग्रह एक ही भाव या राशि में एक साथ होते हैं तो उसे ग्रहों की युति के नाम से जाना जाता है। दशानाथ, यदि नैसर्गिक शुभ ग्रहों, योगकारक व मित्र ग्रहों से युत हो तो फल में वृद्धि व शीघ्र फलदायक होते हैं।दशानाथ ग्रह, पाप युक्त होने पर, दशाकाल में थोड़ा अरिष्ट फल या हानि जरूर होती है। दशानाथ ग्रह, नैसर्गिक अशुभ/ पाप, अस्त, नीच व वक्री ग्रहों से युत होने पर फल में कमी व देरी होती है। राशि स्वामित्व दशानाथ ग्रह, जिस राशि में स्थित है उस राशि तथा राशि स्वामी के अनुसार फल करता है। दशानाथ पर राशि के स्वभाव, गुण-धर्म-दोष आदि से भी ग्रहफल प्रभावित होता है जैसे यदि दशानाथ ग्रह चंद्र जल कारक ग्रह के जल राशि में स्थित होने पर फल में वृद्धि व अग्नि राशि में स्थित होने पर निश्चित रूप से फल में कमी होगी। योगकारक व शुभ ग्रहों की राशि में स्थित ग्रह दशाकाल के दौरान शुभ फल करता है। उच्च राशि, स्वराशि, मित्रराशि स्थित ग्रह की दशा काल के दौरान शुभ फल प्राप्त होते हैं। नीचराशि, शत्रुक्षेत्री, वक्री, अस्त ग्रहों की दशा में जातक पाप कर्मों के लिए आसानी से आकर्षित हो जाता है इसलिए ऐसे ग्रहों की दशाकाल के समय बदनामी का डर रहता है। इस काल में अधिष्ठित भाव संबंधित रोग का भय भी रहता है। नीच राशिगत ग्रह की नीच राशि का स्वामी यदि नीच राशि को देखे या स्वराशि में हो तो नीचगत ग्रह की दशा भी शुभ हो जाती है क्योंकि उसका नीच भंग हो जाता है। दृष्टियां दशानाथ ग्रह पर नैसर्गिक क शुभ, योगकारक व मित्र ग्रहों की दृष्टि, ग्रह के फल में वृद्धि करती है तथा अस्त, वक्री, अकारक, बाधक, पाप व शत्रु ग्रहों की दृष्टि ग्रह फल में कमी या बाधा का कारण बनती है। योग कुंडली में सभी ग्रहों की विभिन्न भावों में युति, परस्पर स्थिति व निश्चित अंशों की दूरी से योग बनाते हैं। यह शुभ व अशुभ दोनों प्रकार के होते हैं जैसे गुरु व राहु एक साथ होने पर चांडाल योग, सूर्य व बुध में निश्चित अंशों की दूरी से बुध-आदित्य योग, चंद्र व गुरु की परस्पर केंद्र स्थिति से गजकेसरी योग व चंद्र के द्वि-द्वादश भाव में यदि कोई ग्रह न हो तो केमद्रुम नामक योग बनाता है। इसी प्रकार से कुंडली में विभिन्न ग्रह स्थितियों के अनुसार योगों का अध्ययन किया जाता है। यह सभी योग संबंधित ग्रहों की दशा में ही प्रभावी होते हैं। जन्मकुंडली दशानाथ ग्रह, शुभ या अशुभ जिस योग का अवयय होगा उसके अनुसार ही फल करेगा। गोचर: दशानाथ की गोचर स्थिति भी फल विचार में विशेष स्थान रखती है। किसी भी ग्रह के फल में गोचर और दशा का विशेष योगदान होता । गोचर फल अध्ययन के लिए अष्टकवर्ग की सहायता ली जाती है। दशानाथ ग्रह जिस राशि में है यदि अष्टकवर्ग में उस राशि को 5 से 8 रेखाएं प्राप्त हों तो उस ग्रह की दशाकाल के दौरान गोचर में ग्रह उस स्थिति में आने पर उत्कृष्ट फल देता है। दशानाथ ग्रह की अधिष्ठित राशि को अष्टकवर्ग में 4 रेखाएं प्राप्त हों तो उस ग्रह की दशा व गोचर के दौरान शुभ-अशुभ समान फल मिलते हैं। दशानाथ ग्रह की राशि को अष्टकवर्ग में शून्य से 3 रेखाएं प्राप्त हों तो उस ग्रह की दशा व गोचर काल में अशुभ या देरी से फल मिलते हैं। नक्षत्र स्वामित्व दशानाथ ग्रह जन्म कुंडली में जिस ग्रह के नक्षत्र में स्थित होता है उस नक्षत्र स्वामी का भी फलादेश पर होता है । नक्षत्र स्वामी क े साथ ग्रह विशेष के नैसर्गिक संबंध के अनुसार ही फल पर प्रभाव पड़ता है। इसके अतिरिक्त जन्म नक्षत्र से दूसरा नक्षत्र संपत, छठा नक्षत्र साधक, आठवां नक्षत्र मित्र तथा नवम नक्षत्र परम मित्र कहलाता है। इन नक्षत्रों के स्वामी ग्रहों की दशाएं शुभ होती हैं तथा समृद्धि व संपत्ति में वृद्धि करने वाली होती हैं। इनके अतिरिक्त नक्षत्र स्वामी अपने पंचधा मैत्री संबंध के अनुसार ही दशाकाल में फल को प्रभावित करेंगे। दशाफल निर्णय में सभी सामान्य और विशेष सिद्धांतों को ध्यान में रखकर ही किसी निष्कर्ष पर पहुंचना चाहिए।
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