पितृों के तर्पण के लिए प्रसिद्ध 'मुक्तिधाम' मंदिर गया में स्थित है और यह वही जगह है जहां पर माता सीता ने भगवान श्रीराम के पिता और अपने ससुर राजा दशरथ का पिंडदान किया था.
पूरे देश से लोग पहुंचते हैं यहां
बिहार के गया को विश्व में मुक्तिधाम के रूप में जाना जाता है और ऐसी मान्यता है कि गयाजी में पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. बिहार में गया धाम का जिक्र गरूड़ पुराण समेत ग्रंथों में भी दर्ज है. कहा जाता है कि गयाजी में श्राद्ध करने मात्र से ही आत्मा को विष्णुलोक प्राप्त हो जाता है.
पौराणिक कथा के अनुसार
एक पौराणिक कथा के अनुसार वनवास काल के दौरान भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचते हैं. पिंडदान के लिए राम और लक्ष्मण जरूरी सामान लेने जाते हैं और माता सीता उनका इंतजार करती हैं. काफी समय बीत जाने के बावजूद दोनों भाई वापस नहीं लौटते तभी अचानक राजा दशरथ की आत्मा माता सीता के पास आकर पिंडदान की मांग करती है.
राजा दशरथ की मांग पर माता सीता फल्गू नदी के किनारे बैठकर वहां लगे केतकी के फूलों और गाय को साक्षी मानकर बालू के पिंड बनाकर उनके लिए पिंडदान करती हैं. कुछ समय बाद जब भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर लौटते हैं, तब सीता उन्हें बताती है कि वे महाराज दशरथ का पिंडदान कर चुकी हैं. इस पर श्रीराम बिना साम्रगी पिंडदान को मानने से इंकार करते हुए उन्हें इसका प्रमाण देने को कहते हैं.
भगवान राम के प्रमाण पर सीता ने केतकी के फूल, गाय और बालू मिट्टी से गवाही देने के लिए कहा, लेकिन वहां लगे वटवृक्ष के अलावा किसी ने भी सीताजी के पक्ष में गवाही नहीं दी. इसके बाद सीताजी ने महाराज दशरथ की आत्मा का ध्यान कर उन्हीं से गवाही देने की प्रार्थना की. उनके आग्रह पर स्वयं महाराज दशरथ की आत्मा प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सीता ने उनका पिंडदान कर दिया है. अपने पिता की गवाही पाकर भगवान राम आश्वस्त हो गए. वहीं फल्गू नदी और केतकी के फूलों के झूठ बोलने पर क्रोधित माता सीता ने फल्गू नदी को सूख जाने का श्राप दे दिया.
श्राप के कारण आज भी फल्गू नदी का पानी सूखा हुआ है और केवल बारिश में दिनों में इसमें कुछ पानी होता है. फल्गू नदी के दूसरे तट पर मौजूद सीताकुंड का पानी सूखा ही रहता है इसलिए आज भी यहां बालू मिट्टी या रेत से ही पिंडदान किया जाता है.
दूसरी मान्यता के अनुसार
ऐसी भी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष का पखवाड़ा सिर्फ पितरों अर्थात पूर्वजों के पूजन और तर्पण के लिए सुनिश्चित होता है. पितृपक्ष या महालय पक्ष में पिंडदान अहम कर्मकांड है. पिंडदान के लिए गया को सर्वोत्तम स्थल माना जाता है. वैसे तो पूरे वर्ष यहां पिंडदान किया जाता है लेकिन पितृपक्ष के दौरान पिंडदान का विशेष महत्व कहा गया है.
पूरे देश से लोग पहुंचते हैं यहां
बिहार के गया को विश्व में मुक्तिधाम के रूप में जाना जाता है और ऐसी मान्यता है कि गयाजी में पिंडदान करने से पितरों की आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. बिहार में गया धाम का जिक्र गरूड़ पुराण समेत ग्रंथों में भी दर्ज है. कहा जाता है कि गयाजी में श्राद्ध करने मात्र से ही आत्मा को विष्णुलोक प्राप्त हो जाता है.
पौराणिक कथा के अनुसार
एक पौराणिक कथा के अनुसार वनवास काल के दौरान भगवान राम अपने भाई लक्ष्मण के साथ पिता दशरथ का श्राद्ध करने गया धाम पहुंचते हैं. पिंडदान के लिए राम और लक्ष्मण जरूरी सामान लेने जाते हैं और माता सीता उनका इंतजार करती हैं. काफी समय बीत जाने के बावजूद दोनों भाई वापस नहीं लौटते तभी अचानक राजा दशरथ की आत्मा माता सीता के पास आकर पिंडदान की मांग करती है.
राजा दशरथ की मांग पर माता सीता फल्गू नदी के किनारे बैठकर वहां लगे केतकी के फूलों और गाय को साक्षी मानकर बालू के पिंड बनाकर उनके लिए पिंडदान करती हैं. कुछ समय बाद जब भगवान राम और लक्ष्मण सामग्री लेकर लौटते हैं, तब सीता उन्हें बताती है कि वे महाराज दशरथ का पिंडदान कर चुकी हैं. इस पर श्रीराम बिना साम्रगी पिंडदान को मानने से इंकार करते हुए उन्हें इसका प्रमाण देने को कहते हैं.
भगवान राम के प्रमाण पर सीता ने केतकी के फूल, गाय और बालू मिट्टी से गवाही देने के लिए कहा, लेकिन वहां लगे वटवृक्ष के अलावा किसी ने भी सीताजी के पक्ष में गवाही नहीं दी. इसके बाद सीताजी ने महाराज दशरथ की आत्मा का ध्यान कर उन्हीं से गवाही देने की प्रार्थना की. उनके आग्रह पर स्वयं महाराज दशरथ की आत्मा प्रकट हुई और उन्होंने कहा कि सीता ने उनका पिंडदान कर दिया है. अपने पिता की गवाही पाकर भगवान राम आश्वस्त हो गए. वहीं फल्गू नदी और केतकी के फूलों के झूठ बोलने पर क्रोधित माता सीता ने फल्गू नदी को सूख जाने का श्राप दे दिया.
श्राप के कारण आज भी फल्गू नदी का पानी सूखा हुआ है और केवल बारिश में दिनों में इसमें कुछ पानी होता है. फल्गू नदी के दूसरे तट पर मौजूद सीताकुंड का पानी सूखा ही रहता है इसलिए आज भी यहां बालू मिट्टी या रेत से ही पिंडदान किया जाता है.
दूसरी मान्यता के अनुसार
ऐसी भी मान्यता है कि आश्विन कृष्ण पक्ष का पखवाड़ा सिर्फ पितरों अर्थात पूर्वजों के पूजन और तर्पण के लिए सुनिश्चित होता है. पितृपक्ष या महालय पक्ष में पिंडदान अहम कर्मकांड है. पिंडदान के लिए गया को सर्वोत्तम स्थल माना जाता है. वैसे तो पूरे वर्ष यहां पिंडदान किया जाता है लेकिन पितृपक्ष के दौरान पिंडदान का विशेष महत्व कहा गया है.
No comments:
Post a Comment