Thursday 31 March 2016

अतिथि सेवाव्रत परंपरा



अतिथि सत्कार सेवा व्रत भारतीय संस्कृति का परम कल्याणकारी व्रत है जिसके अनुपालन से स्वर्ग लोक तो क्या विराट विराटेश्वर पुराण पुरुषोत्तम भगवान के अद्वितीय परम धाम को प्राप्त करना भी संभव है। महाराज रन्तिदेव ने अतिथि सेवा के द्वारा परमपद् का लाभ पाया था। शास्त्रों में वर्णित है। मातृ देवो भव ! पितृ देवो भव ! अतिथि देवो भव ! आचार्य देवो भव ! अतिथि भगवान का स्वरूप है। इसीलिए कहा भी गया है- ना जाने किस भेष में मिल जाए भगवान। मानव मात्र को अपने जीवन में इस अतिथि सेवा व्रत का अवश्य ही पालन करना चाहिए। द्वार पर आए हुए प्रत्येक जीव की अन्न-जल-पत्र पुष्पादि से सेवा करना प्राणी मात्र का कर्तव्य है। अधिक संभव न हो सके तो वाणी के ही द्वारा अतिथि का सम्मान करें। कहा भी है: ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय। औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।। वाणी एक अमोल है, जो कोई बोले बोल। हिए तराजू तौल के, तब मुख बाहिर खोल।। वाणी के द्वारा अतिथि सत्कार करके भी श्रद्धा का पात्र बना जा सकता है। वाणी सत्कार के द्वारा परम लाभ और वाणी की कटुता से परम हानि को प्राप्त किया जा सकता है। देवर्षि नारद ने वाणी के द्वारा ही भक्ति देवी को श्री वृंदावन धाम में सांत्वना प्रदान कर उसके कष्टों को भी दूर किया। असत्य भाषण के कारण सत्यनारायण व्रत कथा के पात्र साधु नामक वणिक को दंडी वेशधारी भगवान सत्यनारायण के शाप का भाजन होना पड़ा तथा वाणी से उनकी स्तुति करने पर वरदान भी मिला। यह एक ऐसा व्रत है, जिसे मनुष्य किसी भी क्षण अपनाकर आत्मिक लाभ प्राप्त करता हुआ परम प्रभु का प्रिय बन सकता है। जीवमात्र में सर्वव्यापी परमात्मा स्थित है। इसीलिए कहा है- ईश्वर अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुख राशी। पशु-पक्षी भी अतिथि सेवा व्रत का पालन करते हैं, तो हम मानव होकर भी यदि इस व्रत का पालन न करें, तो धिक्कार है उस मानव जीवन को। मानव रूप लेकर जगत में पदार्पण तो हुआ परंतु अतिथि सेवा बिन मानव कहलाने के योग्य भी नहीं रहे। यहां महाभारत में वर्णित एक कबूतर के अतिथि सत्कार सेवा व्रत का आख्यान प्रस्तुत है, जिसमें उस कबूतर ने अतिथि के भोजन के लिए अग्नि में अपनी ही आहुति दे दी। किसी बड़े जंगल में दुष्ट स्वभाव वाला एक बहेलिया रहता था। वह प्रतिदिन जाल लेकर वन में जाता और परिवार के पालन पोषण के लिए पक्षियों को मारकर उन्हें बाजार में बेच दिया करता था। उसके इस भयानक तथा क्रूर कर्म के कारण उसके मित्रों तथा संबंधियों ने उसका परित्याग कर दिया था, किंतु उस मूढ़ को अन्य कोई कर्म अच्छा ही नहीं लगता था। एक दिन वह भयानक वन में घूम रहा था, तभी बहुत जोर की आंधी के साथ-साथ मूसलाधार वर्षा होने लगी। आंधी और वर्षा के प्रलयकारी प्रकोप से सारे वनवासी जीव त्रस्त हो उठे। सर्दी से ठिठुरते और इधर-उधर भटकते हुए बहेलिए ने शीत से पीड़ित तथा पृथ्वी पर पड़ी हुई एक कबूतरी को देखा और उसे उठाकर अपने पिंजरे में बंद कर लिया। चारों ओर घने अंधकार के कारण बहेलिया एक सघन वृक्ष के नीचे पत्तों का बिछौना कर सो गया। उसी वृक्ष पर एक कबूतर निवास करता था, जो अचानक आई विपत्ति के समय में दाना चुगने गई और अभी तक वापस न लौटी अपनी प्राण प्रिया कबूतरी के लिए विलाप कर रहा था। उसका करुण क्रंदन सुनकर पिंजरे में बंद कबूतरी ने उसे द्वार पर आए हुए बहेलिए के आतिथ्य सत्कार की सलाह देते हुए कहा कि ‘हे प्राण-प्राणेश्वर ! मैं आपके आत्मकल्याण की, आत्मोन्नति की बात बता रही हूं, उसे सुनकर आप वैसा ही कीजिए। इस समय विशेष प्रयास करके एक शरणागत प्राणी की आपको रक्षा करनी है। यह व्याध आपके गृह-द्वार पर आकर ठंड और भूख से बेहाल होकर सो रहा है, आप इसकी सेवा कीजिए, मेरी चिंता मत कीजिए।’ शास्त्र कहता है- ‘‘सेवा हि परमो धर्मः’’। सेवा ही परम धर्म है। सेवा के द्वारा मान-प्रतिष्ठा-वैभव की प्राप्ति तो होती ही है, अविनाशी ब्रह्म के गोलोकधाम की प्राप्ति भी सहज में ही हो जाती है। पत्नी की धर्मानुकूल बातें सुनकर कबूतर ने सामथ्र्यानुसार विधिपूर्वक बहेलिए का सत्कार किया और उससे कहा- ‘आप हमारे अतिथि हैं, बताइए मैं आपकी क्या सेवा करूं?’ बहेलिए ने कबूतर से कहा-‘इस समय मुझे सर्दी के कारण अत्यधिक कष्ट है, अतः हो सके तो इस दुःसह ठंड से मुझे बचाने का कोई उपाय कीजिए।’ कबूतर ने शीघ्र ही बहुत से सूखे पत्ते लाकर बहेलिए के पास एकत्रित कर दिए और यथाशीघ्र कुम्हार के घर से जलती लकड़ी को चोंच में दबाकर लाकर पत्तों को प्रज्वलित कर दिया। आग तापकर बहेलिए की शीतपीड़ा शांत हो गई। तब उसने कबूतर से कहा-‘मुझे अब भूख सता रही है। मुझे भोजन की इच्छा है; अतः कुछ भक्षणीय पदार्थ की व्यवस्था कीजिए।’ यह सुनकर कबूतर उदास होकर चिंता करने लगा। थोड़ी देर विचार करते हुए उसने सुखे पत्तों में पुनः आग लगाई और हर्षित होकर कहने लगा - ‘मैंने ऋषियों, महर्षियों, तपस्वियों, देवताओं, पितरों और महानुभावों के मुख से सुना है कि अतिथि की सेवा-पूजा करना महान धर्म होता है, अतः आप मुझे ही भोजन रूप में स्वीकार करने की कृपा कीजिए।’ इतना कहकर तीन बार अग्नि की प्रदक्षिणा करके वह कबूतर आग में कूद पड़ा। महात्मा कबूतर ने देह-दान द्वारा अतिथि सत्कार सेवा व्रत का ऐसा ज्वलंत एवं उज्ज्वल आदर्श प्रस्तुत किया कि व्याध ने उसी दिन से अपना निंदित कर्म सदा-सदा के लिए छोड़ दिया। कबूतर तथा कबूतरी दोनों को आतिथ्य धर्म के पालन से उत्तम लोक प्राप्त हुआ। दिव्य रूप धारण कर श्रेष्ठ विमान पर बैठकर वह पक्षी अपनी प्राण प्रिया सहित स्वर्गलोक को चला गया और अपने सत्कर्म के कारण पूजित हो वहां आनंद पूर्वक रहने लगा। ततः स्वर्गं गतः पक्षी विमानवर मास्थितः। कर्मणा पूजितस्तत्र रेमे स सह भार्यया।। अतः इससे सिद्ध होता है कि अतिथि सत्कार सेवा व्रत महापुण्यदायी व्रत है। एक पक्षी होकर विपन्नावस्था में ही अतिथि सेवा के द्वारा स्वर्ग प्राप्त कर सकता है तो सर्व समर्थ संपूर्ण भावों, साधनों से युक्त होकर मानव भी अतिथि सेवा व्रत के द्वारा उत्तमोत्तम गति को अवश्य ही प्राप्त कर सकता है। भार्या की सुविचारणा ही पति को धर्म में प्रेरित करने में सहयोगी है, अतः विशेष संकट में भी पत्नी को पति का मार्गदर्शन करना ही श्रेयष्कर है, तभी तो धर्म पत्नी की सार्थकता प्रमाणित है। स्वयं महाराज जरासंध का अतिथि सत्कार सेवा व्रत जगत में प्रशंसनीय है। आप भी अपने जीवन को आलोकित करने के लिए अतिथि सत्कार सेवा व्रत का पालन करें और चैरासी लाख योनियों में सर्वश्रेष्ठ मानव योनि को कृत-कृत्य करें। यही जीव के जीवन का परम लाभ है।

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Wednesday 30 March 2016

ज्वाला जी की अखंड ज्वाला

मां के नौ रूप तो जग प्रसिद्ध हैं ही, 51 शक्तिपीठों के रूप में भी मां जगदंबा पूरे भारतवर्ष में पूजी जाती है। हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित ज्वालामुखी मंदिर भी 51 शक्तिपीठों में से एक है। दक्ष यज्ञ में पार्वती के कूदने के बाद जब सती पार्वती का शव लेकर शिव निकले तो माता सती की जिह्वा यहां गिरी तब इस शक्तिपीठ का निर्माण हुआ। यहां निरंतर जलती रहने वाली ज्वाला के रूप में मां ज्वाला की पूजा-अर्चना की जाती है। इस शक्ति मंदिर की स्थापना के विषय में एक अन्य आख्यान भी प्रचलित है। बहुत दिनों से एक ग्वाला इस बात पर गौर कर रहा था कि उसकी गाय के थनों से दूध पहले ही कोई दुह लेता है। जब वह बहुत दिनों तक इस रहस्य को नहीं जान पाया तो उसने एक बार गाय का पीछा किया और पाया कि जंगल में एक कन्या आती है और गाय का दूध पीकर प्रकाश में विलीन हो जाती है। अपनी आंखों से यह दृश्य देखकर वह भौचक्का रह गया। उस रात वह सो नहीं पाया, सुबह उठकर उसने उस चमत्कारी बालिका के विषय में राजा को बताने का निश्चय किया। राजा ने ग्वाले से यह घटना सुनी तो उसे उस क्षेत्र में सती की जिह्वा गिरने वाली कथा स्मरण हो आई। राजा ने क्षेत्र का बारीकी से निरीक्षण किया मगर वह उस पावन स्थल को तलाशने में सफल नहीं हो पाया। कुछ साल बाद वह ग्वाला दोबारा उस क्षेत्र में गया तो उसे वहां एक ज्वाला जलती दिखी। ग्वाला फिर राजा के पास गया और बताया कि उसने पर्वत शिखरों के बीच से जलती हुई ज्वाला निकलती देखी है। राजा ने उस स्थान पर एक मंदिर का निर्माण किया। तब से यहां नित्य पूजा-अर्चना की जाने लगी। कहा जाता है कि बाद में पांडव यहां आए और उन्होंने इस मंदिर का पुनरुद्धार किया। कुछ समय बाद कटोच वंश, कांगड़ा के तत्कालीन राजा भूमि चंद ने पहली बार यहां एक भव्य मंदिर बनाया। तब से अब तक यहां निरंतर तीर्थयात्रियों का तांता लगा रहता है। ज्वाला जी में भूमि से अनवरत निकलने वाली ज्वाला सबके लिए आकर्षण का केंद्र है। जिन लोगों की आद्य शक्ति माता के चमत्कारिक व्यक्तित्व में आस्था नहीं है उन लोगों ने यहां जाकर इस ज्वाला को बुझाने के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रयास किए लेकिन उन्हें मुंह की खानी पड़ी। कहा जाता है कि मुगल बादशाह अकबर ने इस ज्वाला को बुझाने के लिए लोहे की एक चकती रख दी, जब उससे भी लौ नहीं बुझी तो उसके ऊपर नहर का पानी छोड़ दिया। परंतु इस सबके बावजूद लौ जलती ही रही, तो अकबर ने माता की शक्ति से प्रभावित होकर मंदिर में सोने का छत्र चढ़ाया, हालांकि मां के प्रति उसके अविश्वास के चलते वह छत्र अन्य धातु में परिवर्तित हो गया। लेकिन इस घटना के बाद शक्तिस्वरूप मां के प्रति अकबर की आस्था और भी दृढ़ हो गई। मां शक्ति के विरुद्ध अकबर द्वारा किए गए शक्ति प्रयोग ने जन-जन के मन से सारी शंकाएं मिटा दीं और मां के दर्शन को आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या बढ़ती ही चली गई। देवी मां यहां नौ ज्वालाओं के रूप में एक दूसरे से भिन्न दिखाई देती हैं, जिनके नाम महाकाली, अन्नपूर्णा, चंडी, हिंगलाज, विन्ध्यवासिनी, महालक्ष्मी, महासरस्वती, अंबिका और अंजना हैं। रंगारंग मेला: ज्वाला जी में मार्च-अप्रैल एवं सितंबर-अक्तूबर में आने वाली नवरात्रियों में साल में दो बार बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले में लोक गीत, लोक नृत्य, नाटक आदि की रंगारंग झलक तो मिलती ही है, साथ ही कुश्ती, दौड़ आदि की प्रतिस्पर्धाएं भी आयोजित की जाती हैं। हिमाचली संस्कृति मानो जीवंत हो उठती है। यहां मिलने वाली हस्त शिल्प की लुभावनी वस्तुएं पर्यटकों का मन बरबस मोह लेती हैं। नवरात्रियों के दौरान यहां बहुत भीड़ रहती है। श्रद्धालु लोग लाल ध्वज हाथ में लेकर मां का जयकार करते हुए मंदिर में आते हैं। माता को चढ़ाए जाने वाले भोग में रबड़ी या गाढ़े दूध की मलाई, मिश्री और मौसमी फल होते हैं। पूरे दिन विभिन्न चरणों में पूजा-अर्चना चलती रहती है। दिन में पांच बार आरती और एक बार हवन होता है, मंदिर परिसर में दुर्गा सप्तशती के श्लोकों के भक्ति एवं भावपूर्ण स्वर गुंजायमान होते रहते हैं। भक्तों का विश्वास है कि नवरात्रियों के दौरान यह ज्वाला साक्षात मां के मुंह से निकलती है। आसपास के दर्शनीय स्थल: नागिनी माता: ज्वाला जी मंदिर की ऊपरी पहाड़ी पर यह मंदिर स्थित है। इसके आसपास ही मेला लगता है। श्री रघुनाथ जी मंदिर: यहां पर राम, लक्ष्मण एवं सीता की मूर्तियां हैं। इस मंदिर के संकेत भूकंप के बाद मिले। कहा जाता है कि इसे पांडवों ने बनाया। अष्टभुजा मंदिर: इस प्राचीन मंदिर में प्रस्तर से अष्ट भुजाओं वाली माता की मूर्ति बनी हुई है। नादौन: यह ज्वाला जी से लगभग 12 किमी दूरी पर स्थित है। कांगड़ा के राजाओं की इस भव्य नगरी में कई प्राचीन मंदिर एवं महल बने हुए हैं। चैमुखा मंदिर: नादौन से होते हुए 22 किमी की दूरी पर स्थित इस मंदिर में शिव की चार मुंह वाली प्रतिमा स्थापित है। चिंतपूर्णी: ज्वाला जी से लगभग 940 मीटर दूर पंजाब के होशियारपुर जिले में भक्तों की समस्त चिंताएं हरने वाली माता चिंतपूर्णी का मंदिर है। यहां वर्ष भर श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। ऐसी मान्यता है कि जो भी लोग सच्चे मन एवं विश्वास से अपनी चिंताओं को लेकर यहां आते हैं, माता उनकी चिंताएं अपने पास रख, खुशियों से झोली भर देती है। सोलह सीढ़ियां चढ़कर माता के दर्शन होते हैं। यहां देवी मूर्ति रूप में नहीं पिंडी के रूप में अवस्थित है। यहां देवी का मस्तक नहीं है इसलिए इसे छिन्नमस्तिका भी कहा जाता है।

गौ सेवा व्रत

वेदों, पुराणों, उपनिषदों और शास्त्रों में ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति के जटिल से जटिल साधनों का उल्लेख है। मानव बुद्धि उस रहस्य को समझने में असमर्थ है। परंतु धन्य है उन सदगुरुओं की कृपा, जिन्होंने गौ सेवा का एक ऐसा व्रत बतला दिया, जिस व्रत के द्वारा सहजता से ही ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति संभव है। गाय सेवा के बारे में कहा गया है: तीर्थ स्थानेषु यत् पुण्यं यत् पुण्यं विप्र भोजने। यत् पुण्यं च महादाने यत् पुण्यं हरि सेवने।। सर्वव्रतोपवासेषु सर्वेष्वेव तपः सु च। भूमिपर्यटने यन्तु सत्यवाक्येषु यद् भवेत्।। तत् पुण्यं प्राप्यते सद्यः केवलं धनुसेवया।। गोमाता का स्थान सर्वश्रेष्ठ है। इसीलिए कहा है-‘माता से बढ़कर गो माता।’ कथा: सत्यकाम नाम का एक छोटा सा बालक था। घर में उसकी माता ही उसकी रक्षक और पालक थी। जब बालक की अवस्था बारह वर्ष की हो गई, तब उसने जाकर अपनी माता से कहा- ‘मां ! अब मैं बारह वर्ष का हो गया हूं, अब मुझे गुरु के समीप गुरुकुल में वास करके वेदाध्ययन करना चाहिए।’ मां ने सहर्ष कहा- ‘अच्छा बेटा ! जाओ। तुम्हारा कल्याण हो।’ सत्यकाम ने कहा- ‘किंतु मां ! गुरुदेव मुझसे मेरा गोत्र पूछेंगे तो मैं क्या उत्तर दूंगा? मुझे अपने गोत्र का तो ज्ञान ही नहीं, मुझे मेरा गोत्र बता दो।’ माता ने कहा - ‘बेटा सत्यकाम ! गोत्र का तो मुझे भी पता नहीं, मैं सेवा में सदा तत्पर रहती थी। युवावस्था में तेरा जन्म हुआ, संकोचवश मैं तेरे पिता से गोत्र न पूछ सकी।’ मां की बात सुनकर सत्यकाम वेदाध्ययन के उद्देश्य से हारिद्रुमत ऋषि के पास गया। उन्हें प्रणाम करके वह उनकी आज्ञा से विनम्रतापूर्वक बैठ गया। गुरु ने पूछा - ‘बालक ! तुम क्या चाहते हो?’ सत्यकाम ने कहा - ‘भगवन् ! मैं आपके चरणों में रहकर वेदाध्ययन करना चाहता हूं।’ गुरु ने पूछा- ‘तुम्हारा गोत्र क्या है?’ सत्यकाम बोला - ‘भगवन् ! मैंने अपनी मां से अपने गोत्र के संबंध में पूछा था। उन्होंने कहा - ‘मैं सर्वदा अतिथियों की सेवा में रत रहती थी। युवावस्था में तू उत्पन्न हुआ, मैं कह नहीं सकती कि तेरे पिता का गोत्र क्या है? मैं इतना ही जानती हूं, तेरा नाम सत्यकाम है और तू मुझ जाबाला का पुत्र है। यह सुनकर महर्षि अत्यंत प्रसन्न होकर बोले- ‘बेटा ! निश्चय ही तू ब्राह्मण है; क्योंकि ब्राह्मण के अतिरिक्त इतनी सत्य बात कोई कह नहीं सकता, तू समिधा ले आ, मैं तेरा उपनयन करूंगा। तू आज से सत्यकाम जाबाल के नाम से प्रसिद्ध होगा।’ बालक समिधा लेकर आया। गुरु ने शिष्य का उपनयन किया। उन दिनों गौ को ही धन माना जाता था, जिसके यहां जितना ही अधिक गोधन होता वह उतना ही बड़ा श्रेष्ठ माना जाता था। दान, धर्म, पारितोषिक, शास्त्रार्थ, यज्ञ और सभी देव, पितृ तथा ऋषि-ऋणों में गौ ही दी जाती थी। ऋषियों के समीप जो शिष्य शिक्षा प्राप्त करने आते थे, उन्हें सर्वप्रथम यही शिक्षा दी जाती थी कि वे गौ सेवा का व्रत लें। गौओं की सेवा-सुश्रूषा से स्वतः ही उन्हें सर्वशास्त्रों का ज्ञान हो जाता था। महर्षि हारिद्रुमत के यहां भी सहस्रों गौएं थीं। सत्यकाम जाबाल का जब उपनयन संस्कार संपन्न हो गया, तब गुरुदेव उसे अपनी गौओं के गोष्ठ में लेकर गए। सहस्रों दुधारू गौओं में से मुनि ने चार सौ दुबली-पतली गौएं छांटीं और सत्यकाम से बोले - ‘बेटा! तू इन गौओं के पीछे-पीछे जा और इन्हें चराकर पुष्ट कर ला।’ बारह वर्ष का छोटा सा बालक सत्यकाम गुरुदेव के अंतर्भाव को जानकर बोला, ‘भगवन् ! मैं इन गौओं को लेकर जाता हूं और जब तक ये एक सहस्र न हो जाएंगी, तब तक मैं लौटकर न आऊंगा।’ गुरु ने कहा- ‘तथास्तु! कल्याणमस्तु!’ सत्यकाम उन गौओं को लेकर ऐसे वन में गया जहां हरी-हरी दूब घास थी, जल पर्याप्त था और जंगली जानवरों का कोई भय न था। वह गौओं के ही मध्य में रहता, उनकी सेवा-सुश्रूषा करता, वन के सभी कष्टों को सहता, गौ के दुग्ध पर जीवन निर्वाह करता। उसने अपने जीवन को गौओं के जीवन में ही तदाकार कर दिया। वह गौ सेवा में ऐसा तल्लीन हो गया कि उसे पता ही न चला कि गौएं कितनी हो गई हैं। तब वायुदेव ने वृषभ रूप धारण कर सत्यकाम से कहा- ‘ब्रह्मचारिन् ! हम अब सहस्र हो गए हैं। तुम हमें आचार्य के घर ले चलो और मैं तुम्हें एक पाद ब्रह्म का उपदेश करूंगा।’ यह कहकर धर्मरूपी वृषभ ने सत्यकाम को एक पाद ब्रह्म का उपदेश दिया। गुरु के आश्रम से वन दूर था। चार दिन का मार्ग था। इसलिए मार्ग में जहां वह ठहरा, वहां उसे ब्रह्मज्ञान का उपदेश मिला। इस प्रकार पहले पाद का वृषभ ने, दूसरे पाद का अग्नि देव ने, तीसरे का हंस ने और चैथे का उपदेश मद्गु नामक जलचर पक्षी ने किया। गौओं की निष्काम सेवा-सुश्रूषा से वह परम तेजस्वी ब्रह्मज्ञानी हो गया। उसने एक सहस्र गौओं को ले जाकर गुरु के सम्मुख प्रस्तुत किया और उनके श्रीचरणों में साष्टांग प्रणाम किया। गुरु ने उसके मुखमंडल को देदीप्यमान देखकर अत्यंत ही प्रसन्नता से कहा-‘बेटा ! तेरे मुखमंडल को देखकर तो मुझे ऐसा लगता है कि तुझे ब्रह्मज्ञान हो गया है, तू सत्य-सत्य बता तुझे ब्रह्म ज्ञान का उपदेश किसने किया?’ सत्यकाम ने अत्यंत विनीत भाव से कहा- ‘गुरुदेव! आपकी कृपा से सब कुछ हो सकता है। आप मुझे उपदेश करेंगे तभी मैं अपने ज्ञान को पूर्ण समझूंगा। वही ज्ञान गुरु ने दोहरा दिया। सत्यकाम पूर्ण ब्रह्मज्ञानी हो गए। अतः आज से, अभी से, इसी क्षण से गौ सेवा का व्रत अपने जीवन में धारण करें। गौ सेवा ही जीवन के चार पुरुषार्थों धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष को पूर्णता प्रदान करती है।

पशुपतिनाथ जी का मंदिर

भक्तों की पुकार सुन तुरंत वरदान देने वाले भक्तवत्सल शिव का नाम देश की सीमाओं के बाहर भी गुंजायमान होता है क्योंकि उनके भक्त असंख्य हैं। भांग धतूरे का सेवन करने, अंग में भस्म रमाने वाले शिव ने कभी किसी भौतिक ऐश्वर्य की चाह नहीं की लेकिन अपने भक्तों को सदा संपन्नता प्रदान की। घुमक्कड़ प्रवृत्ति के शिव जहां मन किया वहीं चल दिए, कालांतर में उनके भक्तों ने वहीं उनकी स्थापना कर दी। नेपाल स्थित पशुपतिनाथ जी का भव्य मंदिर भी शिव के प्रति उनके भक्तों के अप्रतिम लगाव का परिणाम है। यहां वर्ष भर भक्त जनों का मेला लगा रहता है। शिवरात्रि के अवसर पर यहां अद्भुत उत्सवी वातावरण उत्पन्न हो जाता है। लाखों की संख्या में लोग यहां पूजा-अर्चना करने आते हैं। ऐसी मान्यता है कि चार धामों की यात्रा के बाद यदि पशुपतिनाथ के दर्शन न किए जाएं तो यात्रा अधूरी ही रहती है। पशुपतिनाथ जी के मंदिर का बाहरी दृश्य भव्य छवि प्रदान करता है। मंदिर की छत सोने की एवं दरवाजे चांदी के बने हैं। मंदिर का शिल्प विन्यास पगोडा शैली में है। साथ में बहती बागमती नदी की अविरल धारा नैसर्गिक सौंदर्य के बीच बसे इस अनूठे धाम को अलौकिक लोक का सा रूप देती है। पशुपति का अर्थ है- समस्त जीवों का ईश्वर, जीव ‘पशु’ है और उसके ‘पति’ ईश महेश्वर हैं। पशुपतिनाथ की स्थापना के संबंध में कई प्रकार की कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार शिव कैलाश पर रहते-रहते जब बहुत थकान महसूस करने लगे तो इस स्थान के सौंदर्य से अभिभूत होकर अपनी दिव्य शक्ति से वे बिना किसी को बताए चुपचाप यहां चले आए। माता पार्वती को जब शिव के गायब होने की बात पता चली तो उन्होंने सभी देवताओं से मंत्रणा की। शिव को खोजने में सभी देवता लग गए। जब तक वे शिव को खोज पाते तब तक शिव नेपाल में पशुपति के नाम से प्रसिद्ध हो गए थे। दूसरी कथा के अनुसार किसी कारणवश शिव ने जब एक सींग वाले पशु का रूप धारण कर लिया, तो सभी देवता उन्हें पकड़ने और सींग को तोड़ डालने के लिए यहां तक आए और आखिरकार उनका सींग तोड़ ही डाला। इसके बाद शिव ने लिंग का रूप धारण कर लिया। इसके कुछ समय बाद वह लिंग गायब हो गया, फिर वह एक ऐसे स्थान पर मिला जहां एक गाय अपने थनों से दूध गिरा रही थी। तीसरी कथा (गोपाल राज वंशावली) के अनुसार नेपा नामक ग्वाले की गाय बहुह्री रोज बागमती नदी के तट पर जाया करती थी। एक दिन उत्सुकतावश वह गाय का पीछा करता-करता उस स्थान पर पहुंचा। उसने वहां की मिट्टी को खोदना शुरू किया तो उसे वहां शिवलिंग मिला। इन कथा प्रसंगों में कितनी सत्यता है यह तो समय के गर्भ में बंद है। लेकिन पशुपतिनाथ की अलौकिक शक्ति पूरे विश्व में दिव्य मणि की तरह देदीप्यमान है। भक्ति-भावना, प्रेम एवं आस्था से क्षण भर में प्रसन्न हो जाने वाले आशुतोष शिव यहां आने वाले सभी भक्तों की कामना पूरी करते हैं। पशुपतिनाथ महादेव लिंग रूप में नहीं, मानुषी विग्रह के रूप में विराजमान हैं। यह विग्रह कटिप्रदेश से ऊपर का भाग है। मूर्ति स्वर्णनिर्मित एवं पंचमुखी है जिसमें चार मुख साफ दिखाई देते हैं। इसके आस-पास चांदी का जंगला है जो सफाई ढंग से न होने के कारण कालिमायुक्त दिखाई देता है। यहां पर केवल पुजारी ही जा सकता है। दर्शनार्थियों को जाने की अनुमति नहीं होती। यहां तक कि नेपाल नरेश का प्रवेश भी यहां वर्जित है। यहां लगभग दो हजार वर्षों से निरंतर पूजा-अर्चना हो रही है। मुख्य मंदिर में केवल हिंदुओं को ही प्रवेश की अनुमति दी गई है। मंदिर प्राकृतिक छटा से घिरा हुआ है। चारों ओर पहाड़ियां, साथ में बागमती नदी। यह परिसर छोटे-बड़े मंदिरों, स्तूप, दूतावास आदि से घिरा हुआ है। काठमांडू से गुजरने वाले पर्यटक ऐसी सौंदर्यमयी स्थली की अनदेखी भला कैसे कर सकते हैं ! इस क्षेत्र में फोटो लेना वर्जित है। यहां के साधु शिव के अनुयायी हैं और शिव का अनुकरण करते हुए अंग में भस्म रमाए मृगछाला ओढ़े घूमते दिखाई देते हैं। श्रद्धालु लोग बागमती नदी में स्नान कर शिव की पूजा अर्चना करते हैं। बागमती नदी क्षेत्र: बागमती नदी का माहात्म्य गंगा नदी की तरह ही है। यहां से कुछ ही दूरी पर बहुत बड़ा मैदान है जहां कई चिताओं को एक साथ जलते हुए देखा जा सकता है। ऐसी मान्यता है कि यहां दाह-संस्कार होने से जीव बार-बार जन्म मृत्यु के फेर से मुक्त हो जाता है। बागमती नदी के पूर्वी किनारे से पशुपति नाथ मंदिर का दृश्य बेहद सुंदर दिखाई देता है। नदी के किनारे छोटी-छोटी पहाड़ियों पर यहां दर्जनों शिवलिंग दिखाई देते हैं। उत्तरी किनारे के आखिरी चबूतरे पर शिवलिंग स्थित है जिस पर छठी शताब्दी की खुदाई है। यहां से पशुपतिनाथ जी के मंदिर के ऊपर लगा सोने का त्रिशूल साफ दिखाई देता है। बागमती नदी के उस पार जाकर अंत्येष्टि मैदान को पार करने के बाद दक्षिण की ओर राम मंदिर व राम जानकी मंदिर अवस्थित हैं। इसके आगे लक्ष्मी नारायण (विष्णु) का मंदिर है जिसके प्रांगण में विष्णु के वाहन गरुड़ जी की प्रतिमा बनी हुई है। नदी के उस पार पहाड़ियों के ऊपर बहुत ही खूबसूरत जगह गोरखनाथ काम्पलेक्स है जहां पर बंदरों का साम्राज्य है। गोरखनाथ का मुख्य मंदिर शिखर टावर है। इस मंदिर के शीर्ष पर गोरखनाथ जी को इंगित करता हुआ त्रिशूल है। इसके चारों ओर अन्य मंदिर, मूर्तिकला, शिव, नंदी एवं शिवलिंग बने हुए हैं। गोरखनाथ मंदिर के दक्षिण पूर्व में विश्वरूप मंदिर है जो भगवान विष्णु के सार्वभौमिक स्वरूप का प्रतिनिधित्व करता है। यहां पर शिव-पार्वती की बहुत बड़ी प्रतिमा बनी है। गोरखनाथ मंदिर से आगे चलते हुए नीचे पहाड़ी की ओर गुह्येश्वरी मंदिर है, जहां काली की पूजा की जाती है। कहा जाता है जब शिव माता पार्वती की मृत देह को लेकर यहां आए तो उनका गुह्य प्रदेश का भाग यहां गिरा। बागमती नदी के पश्चिमी तट पर किरातेश्वर महादेव का मंदिर है जहां पूर्णिमा के दिन नेपाली शास्त्रीय संगीत के कार्यक्रम का आयोजन होता है।

कामाख्या पीठ

माता जगदंबा के 51 शक्तिपीठों में सर्वश्रेष्ठ माना जाने वाला कामाख्या पीठ असम राज्य के नीलाचल पर्वत पर स्थित है। माता सती की अदम्य शक्ति एवं आस्था के प्रतीक इस शक्तिपीठ का माहात्म्य देश के कोने-कोने तक फैला हुआ है। ऐसी मान्यता है कि कामाख्या के दर्शन, भजन एवं पूजन करने से सर्वविघ्नों का नाश एवं मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। आश्विन और चैत्र के नवरात्रों में यहां बहुत बड़ा मेला लगता है। मां सती के शक्तिपीठों के निर्माण की कथा सभी लोग जानते हैं। उन्होंने हर बार जन्म लेकर शिव शंकर को अपने पति रूप में प्राप्त किया। मां शक्ति पक्के इरादे वाली हैं। जो काम उन्होंने ठान लिया उसे करके ही छोड़ती हैं। शिव शंकर के मना करने के बावजूद वह अपने पिता दक्ष के यज्ञ में बिना बुलाए चली गईं, तो पति की निंदा सुनकर उन्हें जीवित रहना भी गवारा नहीं लगा। दक्ष यज्ञ में शिव का अपमान देख जब सती ने प्राण त्याग दिए तो शिव सती के शव को लेकर अनवरत तांडव करने लगे। शिव के विकराल रूप को देखकर सभी देवी देवताओं ने विष्णु के सुदर्शन चक्र की मदद से सती के शव के टुकड़े-टुकड़े कर दिए जिनके फलस्वरूप शक्तिपीठों का निर्माण हुआ। यहां सती के कामक्षेत्र गिरने से कामाख्या शक्ति पीठ बना। परंपरागत भाषा में असम को कामरूप प्रदेश के रूप में जाना जाता है, यहां तांत्रिक लोग शक्ति साधना में जुटे रहते हैं। इस शक्ति स्थल के उद्भव के विषय में कई अन्य कथाएं भी प्रचलित हैं। कालिका पुराण की एक कथा के अनुसार वराह पुत्र नरक जब नारायण की कृपा से कामरूप राज्य में राजपद को प्राप्त हुआ, तब भगवान ने नरक को यह उपदेश दिया कि तुम कामाख्या के प्रति भक्तिभाव बनाए रखना, जब तक उसने इस उपदेश का पालन किया तब तक वह सुखपूर्वक स्वच्छंद राज्य करता रहा। लेकिन बाणासुर के परामर्श से नरक देवद्रोही होकर असुर संज्ञा को प्राप्त हो गया। यही कारण है कि मान मर्यादा भूल कर एक बार राक्षस नरकासुर देवी कामाख्या के रूप सौंदर्य पर मोहित होकर उनसे प्रेम करने लगा। वह देवी से विवाह सूत्र में बंधने के लिए अपनी पूरी शक्ति का प्रयोग करने लगा। मां कामाख्या ने इस समस्या को दूर करने के लिए चतुराई से काम लेते हुए नरकासुर के सामने यह शर्त रखी कि ‘यदि तुम मेरे लिए सूर्य निकलने से पहले एक भव्य मंदिर, उसके घाट एवं मार्ग आदि का निर्माण कर सको तो मैं तुम्हारे साथ विवाह करने को तैयार हूं। नरकासुर ने यह शर्त मंजूर कर ली। प्रातः होने से पहले ही मंदिर लगभग पूरा होने को था कि इतने में ही माता कामाख्या ने एक मुर्गे को भेज दिया जिसने सूर्योदय से पहले ही बांग लगा दी। यह देखकर नरकासुर अत्यंत क्रोधित हो गया और उसने मुर्गे को वहीं पर मार गिराया। मगर शर्त हारने के बाद वह देवी से विवाह नहीं कर पाया। कहा जाता है कि कामाख्या में वर्तमान समय में जो मंदिर है वह नरकासुर द्वारा ही निर्मित है। एक अन्य कथा के अनुसार ईसा की सोलहवीं शताब्दी के प्रारंभ में जब कामरूप प्रदेश के छोटे-छोटे राज्यों के बीच एकाधिपत्य प्राप्ति के लिए आपसी संग्राम चल रहा था, उसमें कोचराज विश्वसिंह विजयी होकर कामरूप प्रदेश के एकछत्र राजा बने। कहा जाता है कि युद्ध के दौरान एक दिन विश्वसिंह अपने साथियों से बिछुड़ गए तो अपने भाई के साथ वह उन्हें खोजने के लिए घूमते-घूमते नीलाचल के शिखर पर पहुंच एक वट वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस निर्जन स्थल पर उन्हें एक वृद्धा दिखाई दी जिसकी सहायता से उन्होंने अपनी प्यास बुझाई। वृद्धा ने उन्हें बताया कि कोच जाति के लोग वटवृक्ष के नीचे स्थित मिट्टी के टीले की पूजा-अर्चना किया करते हैं और इस स्थल के देवता बड़े जाग्रत हैं। व्यक्ति जो भी कामना लेकर आता है वह पूरी होती है। तब विश्वसिंह ने भी अपने साथियों के शीघ्र मिलने की कामना की। कामना करते ही उनके साथी वहां आ पहुंचे। विश्वसिंह आश्चर्यमय विश्वास के वशीभूत हो उस शक्ति के प्रति गद्गद् हो गए। उन्होंने यह मनौती की कि यदि मेरे राज्य में कोई उपद्रव नहीं होगा तो मैं यहां स्थित देवता के लिए सोने का मंदिर बनाऊंगा। शीघ्र ही राज्य में शांति स्थापित हो गई। राजा विश्वसिंह के राज्य के पंडितों ने इस स्थल के कामाख्या पीठ होने के प्रमाण राजा को दिए। राजा विश्वसिंह ने वट वृक्ष को काट मिट्टी के टीले को खुदवाया तो मूल मंदिर का निम्न भाग बाहर निकल आया। राजा ने उसी पर नया मंदिर बनवाया। सोने के मंदिर के बदले में ईंट के भीतर एक-एक रत्ती सोना देकर मंदिर बनवाया गया। गुवाहाटी से दो मील पश्चिम नीलगिरि पर्वत पर स्थित यह शक्तिपीठ एक अंधेरी गुफा के भीतर अवस्थित है। इस स्थल पर केवल एक कुंड सा है जो फूलों एवं सिल्क साड़ी से आच्छादित रहता है। पास ही एक मंदिर है जिसमें भगवती की मूर्ति भी है। इस क्षेत्र में कामरूप कामाख्या का मेला भी आयोजित किया जाता है। आसपास के दर्शनीय स्थल शिव मंदिर: यह मंदिर ब्रह्मपुत्र नदी के बीचोंबीच स्थित द्वीप में है। उमानंद घाट से यहां मोटर बोट और नावों द्वारा जाया जाता है। नवग्रह मंदिर: यह मंदिर पूर्वी गुवाहाटी में ऊंची पहाड़ी पर स्थित है। यह मधुमक्खी के छत्तेनुमा गुंबद आकार म है। यहां सूर्य, चंद्र, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि एक घेरे में स्थित हैं। राहु और केतु सांप के सिर और पूंछ के प्रतीक रूप में चंद्र से जुड़े हुए हैं। वशिष्ठ आश्रम: गुवाहाटी रेलवे स्टेशन से 12 किमी दूर वशिष्ठ मुनि का आश्रम स्थित है। यह बहुत खूबसूरत जगह है। यहां चारों ओर हरियाली है। यहां ललिता, कांता और संध्या तीन नदियां बहती हैं। इसके अलावा यहां कई अन्य मंदिर भी हैं। भुवनेश्वरी मंदिर: कामाख्या मंदिर के ऊपर एक छोटा सा मंदिर भुवनेश्वरी देवी का है। यहां से संपूर्ण गुवाहाटी का सुंदर नजारा देखा जा सकता है।

पार्थसारथी मंदिर: तमिलनाडु

विशाल अलंकृत व चित्ताकर्षक शिखर, मीनाकारी से युक्त गौपुर, सुसज्जित स्तंभों पर टीके, सभामंडप और बड़े परकोटे के साथ-साथ देव स्तंभ व शिल्प-कौशल से परिपूर्ण विशाल सिंह द्वार से जुड़े दक्षिण भारतीय देवालयों का भारतीय सभ्यता संस्कृति में उत्कृष्ट स्थान है। आज भी संपूर्ण दक्षिण भारत के शताब्दिक स्थानों पर ऐसे ख्यातनाम देवालय हैं जिनका अपना सुदीर्घ इतिहास रहा है और इनके दर्शन से बीते हुए युग की स्मृति सहज में जीवन्त हो जाती है। ऐसा ही एक देवालय तमिलनाडु प्रदेश की राजधानी चेन्नई में नगरखंड ट्रिप्लिकेन में विराजमान है जिसे अरानयूला पार्थ सारथी मंदिर कहा जाता है। चेन्नई का पार्थ सारथी मंदिर द्रविड़ कला संस्कृति का एक उत्कृष्ट उदाहरण है जिसे चेन्नई क्षेत्र के सर्व पुरातन जीवन्त देवालय के रूप में अभिहित किया जाता है। यह मंदिर वर्तमान में मद्रास प्रांत के पुराने नगरीय क्षेत्र ट्रिप्लिकेन में अवस्थित है जिसका प्राचीन नाम ‘तिरूवल्लिकेनी’ अथवा ‘‘तिरू-अल्ली-केनी’’ था। स्वीकार किया जाता है कि प्रजा में धार्मिक संदेश प्रदान करने व धर्म तत्व की ध्वजा दूर देश तक फहराने के उद्देश्य से इस मंदिर का निर्माण आठवीं शताब्दी में पल्लव राजा नरसिंह वर्मन द्वारा किया गया। ऐसे दर्शन कीजिए पार्थसारथी मंदिर का कहीं-कहीं राजा के रूप में दन्ति वर्मन का नाम भी मिलता है। इसे आगे के समय में चोल राजाओं द्वारा फिर बाद में विजयनगर साम्राज्य के शासकों द्वारा यथेष्ठ सहायता, सुरक्षा व संरक्षा प्रदान किया गया। इस मंदिर क्षेत्र से प्राप्त अभिलेखों से इसके इतिहास पर विशद् प्रकाश पड़ता है जो मूलतः ‘तमिल’ व ‘तेलुगू’ में है। इस मंदिर में पाषाण उत्कीर्णन का बड़ा ही अच्छा कार्य हुआ है। भगवान श्री कृष्ण को समर्पित वैष्णव संप्रदाय के 108 दिव्य देश में इसकी गणना की जाती है। अलंकृत प्रदेश द्वार से प्रवेश करने के बाद 36 पाषाण स्तंभों पर टीका विशाल सभा मंडल पार कर गोपुरम में भीतर प्रवेश करने पर स्वर्ण मंडित स्तंभ का दर्शन किया जा सकता है। यहां के प्रत्येक स्तंभ पर पाषाण कलाकारिता का उत्कृष्ट नमूना देखा जा सकता है जिस पर किसी न किसी पौराणिक धर्माख्यान से जुड़े कथानक का विशिष्ट चित्रण किया गया है। इस चित्रण का रूप अंकन व मीनाकारी देखने योग्य है। मंदिर प्रवेश के बाएं तरफ मंदिर का कार्यकाल है जो मंदिर की व्यवस्था पर पूरा नजर रखता है। संप्रति मंदिर में कुछ निर्माण कार्य चल रहा है। अंदर में पांच सीढ़ी चढ़कर प्रवेश करने पर श्री पार्थ-सारथी देव का दर्शन किया जा सकता है जिनके एक तरफ श्री देवी व दूसरी ओर भू-देवी का स्थान है। सामने में नीचे चरण की प्रतिकृति रखा गया है। ऊपर में अलंकृत व आकर्षक चांदी छत्र और पीछे में रंगीन चमकदार शीशा लगा देने से यहां की आकर्षकता द्विगुणित हुई है। सामने के देवालय में देवी मां (महालक्ष्मी) का स्थान है। लोग चढ़ावे के रूप में जो भी ले जाते हैं उसे देवता के समक्ष भाव अर्पण कर दे दिया जाता है। यहां दीपदान का विशेष महत्व है यही कारण है कि मंदिर के बाहर दीप की खूब बिक्री होती है। कहते हैं दक्षिण भारत के पांच प्रसिद्ध वैष्णव देवालय जो क्रमशः श्रीरंगम्, अहोबिल, कोम्बिल, विलिपुलूर और कांची पुरम् में स्थापित है, की भांति यह देवालय भी अतिशय महत्व का है। इस देवालय में नयनार संतांे का विग्रह भी देखा जा सकता है तो अन्यान्य भारतीय संत खासकर सप्तऋषियों को भी यहां देवता की भांति स्थान दिया गया है। मूलतः इस मंदिर में श्री विष्णु के पांच रूप-अवतारों का विशद् चित्रण हुआ है जिनके नाम हैं नृसिंह, राम, वरदराज, रंगनाथम और श्री कृष्ण। यहां विष्णु जाया (लक्ष्मी जी) भोवावाली आमान भी छोटे से मंदिरत्सवों का देवालय भी कहा जाता है जहां सालांे भर धार्मिक अनुष्ठान का आयोजन होता रहता है। यहां के प्रधान उत्सवों में जनवरी-फरवरी में थाई, फरवरी-मार्च में भाभी, मार्च-अप्रैल में पानुनी, अप्रैल मई में चैतिराई, मई-जून में वैगासी, जून-जुलाई में आती, सितंबर-अक्तूबर में पुरातसी, अक्तूबर-नवंबर में त्रिपासी और नवंबर-दिसंबर में करतिगाई के साथ-साथ दिसंबर-जनवरी में मरगाझी उत्सव में दूर-दूर के भक्तों का आगमन होता है। ऐसे यहां का सर्वप्रसिद्ध वार्षिक पुण्यकारी तिथि ‘श्री वैकुंठ एकादशी है, तब पांच सप्ताह का मेला यहां लगता है। यहां के एक कर्मी उमावागेश्वरण बताते हैं कि उत्सव के दिनों में मंदिर में विशेष व्यवस्था की जाती है ताकि भक्तों को कोई परेशानी न हो। इस बार जून माह के द्वितीय सप्ताह में आयोजित कुंभाभिषेक समारोह के दौरान यहां देश-विदेश के विभिन्न हिस्सों से लाखों श्रद्धालुओं का आगमन होना इस बात का साक्षी है कि जन-जन के बीच इस देवालय के प्रति अटूट विश्वास व अगाध निष्ठा है। वर्तमान में यह देवालय 1650 ई. के करीब नवशृंगार के साथ उपस्थित हुआ है जहां कुछ विशेष उत्सव दिवस को छोड़कर प्रातः छः से बारह बजे तक और सायंकाल चार से नौ बजे तक खुला रहता है। मंदिर में विशेष दर्शन के लिए शुल्क की भी व्यवस्था है जो बीस अथवा पचास रु. के टिकट के रूप में देय है। दक्षिण भारतीय स्थापत्य कला और उसकी शैलीगत क्षेत्रीय विभिन्नताओं के व्याख्यान स्मारक के रूप में प्रस्तुत श्री पार्थ सारथी मंदिर न सिर्फ चेन्नई वरन् संपूर्ण दक्षिण भारतीय देवालयों में पांक्तेय है जिसे देश का एकमेव अर्जुन का स्वतंत्र मंदिर बताया जाता है। यह जानने की बात है कि भारत के पहले पहल चार महानगरों में एक मद्रास का ही नया नाम अब चेन्नई है जहां छोटे-बड़े शताधिक देवालयों के बीच नौ की प्रसिद्धि चातुर्दिक है। इसमें श्री पार्थ सारथी के अलावे नीचे वर्णित मंदिरों का दर्शन किया जा सकता है। चेनाम्बा मंदिर: स्वीकार किया जाता है कि माता चेनाम्बा के ही नाम से चेन्नई नगर का नामकरण हुआ है। इन्हें मद्रास क्षेत्र की रक्षिका देवी (अधिष्ठात्री शक्ति) माना जाता है। साहुकार पेठ में श्री बालाजी मंदिर से थोड़ी दूरी पर माता जी का चित्ताकर्षक देवालय विराजमान है। बाला जी मंदिर: चेन्नई के साहुकार पेठ के सन्निकट यह मंदिर श्री बाला जी को समर्पित है। मंदिर के अंदर गर्भ गृह में श्री देवी व भू देवी के मध्य श्री बाला श्री स्वामी का विग्रह दर्शनीय है। अंदर भाग में परिभ्रमण स्थल में श्री लक्ष्मी जी का आकर्षक मंदिर है। मंदिर के बाहरी क्षेत्र में गणेश, कार्तिकेय, राधा-कृष्ण, श्री राम लक्ष्मण जानकी व लक्ष्मी नारायण आदि के आकर्षक स्थान है। कपालीश्वर मंदिर: अपने आकर्षक 36 मीटर ऊंचे प्रवेश द्वार व उत्कृष्ट शिखर के साथ जागृत शैव तीर्थ के रूप में कपालीश्वर (कपालेश्वर) महादेव की गणना की जाती है जो मेहलापुर (मैलापुर) मुहल्ले में विराजमान हैं। मंदिर के बाहरी परिक्रमा मार्ग में मयूरेश्वर लिंग है जहां मयूरी के रूप में पार्वती जी भगवान शंकर की आराधना कर रही हैं। मंदिर में ही पार्वती जी और सुब्रह्मण्यम स्वामी का मंदिर है। इस देवालय में श्री गणेश, नटराज व नायनार को भी स्थान दिया गया है। मंदिर के समक्ष विशाल सरोवर है जिसके मध्य में टापूनुमा गुंबज प्रत्येक दर्शकों को आनंद प्रदान करता है। अष्ट लक्ष्मी मंदिर: यह मंदिर समुद्र (अरब सागर) के किनारे विशाल द्वार के अंदर में अवस्थित है जहां की दीवारें कन्याकुमारी मंदिर की तरफ रंगीन बनी हंै। यहां देवी लक्ष्मी के आठों रूप का अलग-अलग मंदिर निचले व ऊपरी तल पर विराजित है। मंदिर के छत से समुद्र का दर्शन सुखकारी प्रतीत होता है। यह मंदिर मुख्यतः इलियट्स बीच के किनारे है। इसके अलावे राघवेन्द्र मंदिर, अरूल-मिज्जु मरून्दीश्वर मंदिर, विश्वरूप अधिवयाधिहरा मंदिर, थापथंबली मंदिर, इस्काॅन मंदिर, श्री निवास मंदिर, श्री मुरूगन स्वामी मंदिर आदि यहां की धार्मिक फलक को समृद्ध बना रहा है। श्री पार्थसारथी मंदिर के पुण्यकारिणी को ‘कैरावाणी’ कहा गया है जहां इंदिरा, झोमा, अग्नि, मीन व विष्णु के रूप में कुंड का स्थान है। विशेष पूजन अवसर पर इस सरोवर की शोभा देखते बनती है। अस्तु ! आधुनिकता से सराबोर चेन्नई नगर में श्री पार्थ सारथी मंदिर दर्शन का अपना आनंद है जहां चेन्नई सेंट्रल रेलवे स्टेशन व बस टर्मिनल से सवारी सहज में मिल जाते हैं। सच कहें तो मंदिर के प्रथम दर्शन से ही पल्लवकालीन कलाकारिता आंखों के आगे जीवन्त हो जाती है।

जगन्नाथ पुरी धाम

चार धामों में से एक भगवान श्रीकृष्ण की नगरी जगन्नाथ पुरी अपनी महिमा और सौंदर्य दोनों के लिए जगत विख्यात है। श्रीकृष्ण यहां जगन्नाथ के रूप में अपने भाई बलराम एवं बहन सुभद्रा के साथ विद्यमान हैं। हर साल जून एवं जुलाई माह में आयोजित की जाने वाली रथयात्रा पूरे विश्व में प्रसिद्ध है। पुरी के अनेक नाम हैं। इसे पुरुषोत्तमपुरी तथा शंखक्षेत्र भी कहा जाता है, क्योंकि इस क्षेत्र की आकृति शंख के समान है। शाक्त इसे उड्डियान पीठ कहते हैं। यह 51 शक्तिपीठों में से एक पीठ स्थल है, यहां सती की नाभि गिरी थी। पुरी के जगन्नाथ मंदिर का निर्माण 12 वीं शताब्दी में हुआ। मंदिर 40 लाख वर्ग फुट पर बना है। यहां स्थित अन्य मंदिरों की भांति, यह भी पारंपरिक उड़िया शैली में बना हुआ है। मंदिर के चार द्वार हैं- सिंह, अश्व, व्याघ्र एवं हस्ति। मंदिर के चारों ओर 20 फुट ऊंची चहारदीवारी की गई है। विश्व की सबसे बड़ी रसोई भी यहीं है, जहां रथ यात्रा उत्सव के दिनों में प्रतिदिन एक लाख लोगों के लिए भोजन बनता है और सामान्य दिनों में 25 हजार लोगों की रसोई तैयार होती है। कहा जाता है कि पहले यहां नीलाचल नामक पर्वत था जिस पर नील माधव भगवान की मूर्ति थी जिसकी आराधना देवता किया करते थे। बाद में यह पर्वत भूमि में चला गया और भगवान की उस मूर्ति को देवता अपने लोक में ले गए। इसी की स्मृति में इस क्षेत्र को नीलाचल कहा जाता है। श्री जगन्नाथ जी के मंदिर के शिखर पर लगे चक्र को ‘नीलच्छत्र’ कहा जाता है। इस नीलच्छत्र के दर्शन जहां तक होते हैं वह पूरा क्षेत्र जगन्नाथपुरी कहलाता है। पुरी के उद्भव के विषय में कथा आती है कि एक बार द्वारिका में श्रीकृष्ण जी की पटरानियों ने माता रोहिणी जी के भवन में जाकर कृष्ण की ब्रज लीला के प्रेम-प्रसंग को सुनाने का आग्रह किया। माता ने इस बात को टालने का बहुत प्रयत्न किया मगर पटरानियों के आग्रह को वह टाल न सकीं। प्रेम प्रसंग सुनाते समय कृष्ण की बहन सुभद्रा का वहां रहना उचित नहीं था। इसलिए माता रोहिणी ने उन्हें द्वार के बाहर खड़े रहने का आदेश दिया ताकि कोई अंदर न आने पाए। सुभद्रा बाहर खड़ी ही थी कि इसी बीच श्रीकृष्ण और बलराम पधार गए। वह दोनों भाइयों के बीच में खड़े होकर दोनों हाथ फैलाकर उनको भीतर जाने से रोकने लगी। इस उपक्रम में बंद द्वार के भीतर से ब्रज प्रेम वार्ता बाहर भी सुनाई दे रही थी। उसे सुनकर तीनों के ही शरीर द्रवित होने लगे। उसी समय देवर्षि नारद वहां आ गए और तीनों के प्रेम द्रवित रूप देखकर उनसे इसी रूप में यहां विराजमान होने की प्रार्थना की। श्रीकृष्ण ने अपनी सहमति दे दी। स्नान माहात्म्य: पुरी में महोदधि, रोहिणी कुंड, इंद्ऱद्युम्न सरोवर, मार्कण्डेय सरोवर, श्वेत गंगा, चंदन तालाब, लोकनाथ सरोवर तथा चक्रतीर्थ इन पवित्र आठ जल तीर्थों में स्नान का बहुत माहात्म्य माना जाता है। प्रसाद माहात्म्य: श्री जगन्नाथ जी के महाप्रसाद की महिमा चारों ओर प्रसिद्ध है। कहा जाता है कि इस महाप्रसाद को बिना किसी संदेह एवं हिचकिचाहट के उपवास, पर्व आदि के दिन भी ग्रहण कर लेना चाहिए। प्रसाद ग्रहण के विषय में एक घटना का उल्लेख भी मिलता है। आज से कई सौ साल पहले श्री बल्लभाचार्य महाप्रभु जब पुरी आए तो एकादशी के व्रत के दिन उनकी निष्ठा की परीक्षा करने के लिए किसी ने उन्हें मंदिर में ही महाप्रसाद दे दिया। बल्लभाचार्य ने महाप्रसाद हाथ में लेकर उसका स्तवन प्रारंभ किया और एकादशी के पूरे दिन तथा रात्रि में स्तवन करते रहे। दूसरे दिन द्वादशी में स्तवन समाप्त कर उन्होंने प्रसाद ग्रहण किया। इस प्रकार उन्होंने महाप्रसाद एवं एकादशी दोनों को समुचित आदर दिया। रथयात्रा: श्री जगन्नाथ जी की रथयात्रा पुरी का प्रधान महोत्सव है जिसका आयोजन आषाढ़ शुक्ल की द्वितीया को किया जाता है। इस दौरान यहां के मंदिरों की साज-सज्जा कर उन्हें विशेष रूप दिया जाता है। रथ यात्रा के लिए तीन विशाल रथ सजाए जाते हैं। पहले रथ पर श्री बलराम जी, दूसरे पर सुभद्रा एवं सुदर्शन चक्र तथा तीसरे रथ पर श्री जगन्नाथ जी विराजमान रहते हैं। संध्या तक ये रथ गुंडीचा मंदिर (वृंदावन का प्रतीक) पहुंच जाते हैं। दूसरे दिन भगवान से उतरकर मंदिर में पधारते हैं और सात दिन वहीं विराजमान रहते हैं। दशमी को वहां रथ से लौटते हैं। इन नौ दिनो में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को ‘आड़पदर्शन’ कहते हैं। जगन्नाथ जी के इस रूप का विशेष माहात्म्य है। पुरी धाम के अन्य मंदिर एवं मठ: पुरी के आस-पास शंकराचार्य मठ और गंभीर मठ सहित अनेक मठ हैं। गुंडीचा मंदिर, कपाल मोचन, लोकनाथ, बेड़ी हनुमान, चक्र नारायण, कानवत हनुमान आदि मंदिर दर्शनीय हैं। आसपास के दर्शनीय स्थल: भुवनेश्वर: उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर देश के व्यवस्थित शहरों में से एक है, जो अपने प्राचीन मंदिरों और शिल्प-कला के कारण देश-विदेश के पर्यटकों के लिए मुख्य आकर्षण बना रहता है। राज्य संग्रहालय: यह संग्रहालय एक नवीनतम डिजाइन की इमारत में बना हुआ है। यहां पुरातात्विक वस्तुओं का संग्रहालय है। यहां 12 वीं शताब्दी की बुद्ध की मूर्ति, संगीत के वाद्य यंत्र, हथियार एवं पारंपरिक वस्त्र आदि मुख्य हैं। रवींद्र मंडप: यहां प्रतिदिन संगीत, नृत्य एवं नाटक संबंधी गतिविधियां आयोजित की जाती हैं। वीर प्रतापपुर एवं गंगा नारायणपुरः नारियल के पेड़ों, धान के खेतों, झीलों, नदियों और छोटे-छोटे मंदिरों से घिरा यह खूबसूरत स्थल पुरी-भुवनेश्वर रोड से लगभग 10 से 13 किमी की दूरी पर स्थित है। कोणार्क: विश्वप्रसिद्ध कोणार्क सूर्य मंदिर पुरी से 40 किमी उत्तर में स्थित है। यहां सात घोड़ों और 24 नक्काशीदार पहियों वाले रथ पर सूर्य देव सवार हैं। चिल्का झील: यह एशिया की सबसे बड़ी झील है जो यहां आने वाले पर्यटकों और देश-विदेश के पक्षियों की पसंदीदा स्थली भी है। इनके अलावा राजा-रानी मंदिर, मुक्तेश्वर मंदिर, लिंगराज मंदिर, बिंदु सागर आदि दर्शनीय स्थल हैं। कब जाएं: रथयात्रा के समय जून, जुलाई, अक्तूबर से लेकर अप्रैल तक। कैसे जाएं: पुरी का निकटतम हवाई अड्डा भुवनेश्वर है। वहां से 56 किमी की दूरी पर पुरी है।

पद्मा एकादशी का व्रत

पद्मा एकादशी का व्रत भाद्रपद मास शुक्लपक्ष एकादशी को किया जाता है। एक समय धर्मराज युधिष्ठिर ने अकारण करूणावरूणालय पुराण पुरूषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण के चरणों में प्रणाम कर पूछा, हे भगवन्। मैं भाद्रपद मास शुक्ल पक्ष की एकादशी पद्मा का माहात्म्य श्रवण करना चाहता हूं। इसका क्या विधान है? किस देवता का पूजन किया जाता है? फल क्या है? कृपा करके बतलाइये। परमाराध्य ब्रजेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- हे नृपश्रेष्ठ धर्मराज। श्रम ताप विनाशक, सच्चिदानंद प्रभु के चरण कमलों में प्रीति बढ़ाने वाली तथा संपूर्ण मनोऽभिलाषाओं को पूर्ण करने वाली पद्मा एकादशी के व्रत में दशमी तिथि को शुद्ध चित्त होकर सूर्यनारायण भगवान के अस्त होने से पहले ही दिन में एक बार सात्विक भोजन करंे। मन और इंद्रियों को वश में रखते हुए प्रभु नाम का स्मरण करता हुआ दिन व्यतीत करें तथा रात्रि में विश्राम करें। प्रातःकाल ब्रह्म मुहूर्त में जागकर नित्यनैमित्तिक कार्यों को पूर्णकर एकादशी व्रत का संकल्प करें तथा गणेश नवग्रहादि देवताओं व भगवान् श्रीकृष्ण व श्रीराधारानी का विधिवत् षोडशोपचार पूजन करें। भगवान् के अलौकिक दिव्य लीला चरित्रों का कर्णेन्द्रिय पुटों से श्रवण व मंत्रों का जाप करें। रात्रि में जागरण व भगवत् संकीर्तन करें। द्वादशी में पुनः विधिपूर्वक पूजनादि कृत्यों के उपरांत पंच महायज्ञों को पूर्ण करते हुए ब्राह्मणों को यथाशक्ति सुस्वादिष्ट पकवान्नों व मिष्ठान्नों से तृप्त कर वस्त्र, द्रव्य, दक्षिणादि समर्पित कर आदर सहित विदा करें। तदुपरांत स्वयं बंधु-बांधवों के साथ भगवान् का प्रसाद ग्रहण करें। राजन् ! इस विषय में मैं तुम्हें परम कल्याणकारी, आनंदप्रदाता तथा आश्चर्यजनक कथा सुनाता हूं; जिसे ब्रह्माजी ने महात्मा नारद से कहा था। नारदजी ने पूछा - चतुर्मुख ! आपको नमस्कार है। मैं भगवान् विष्णु की आराधना के लिये आपके मुख से यह सुनना चाहता हूं कि भाद्रपदमास के शुक्ल पक्ष में कौन-सी एकादशी होती है? ब्रह्माजी ने कहा - मुनिश्रेष्ठ ! तुमने बहुत उत्तम बात पूछी है। क्यों न हो, वैष्णव जो ठहरे। भादों के शुक्ल पक्ष की एकादशी -‘पद्मा’ के नाम से विख्यात है। उस दिन भगवान् हृषीकेश की पूजा होती है। यह उत्तम व्रत अवश्य करने योग्य है। सूर्यवंश में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती, सत्यप्रतिज्ञ और प्रतापी राजर्षि हो गये हैं। वे प्रजा का अपने ओरस पुत्रों की भांति धर्मपूर्वक पालन किया करते थे। उनके राज्य में अकाल नहीं पड़ता था, मानसिक चिंताएं नहीं सताती थीं और व्याधियों का प्रकोप भी नहीं होता था। उनकी प्रजा निर्भय तथा धन-धान्य से समृद्ध थी। महाराज के कोष में केवल न्यायोपार्जित धन का ही संग्रह था। उनके राज्य में समस्त वर्णों और आश्रमों के लोग अपने-अपने धर्म में लगे रहते थे। मान्धाता के राज्य की भूमि कामधेनु के समान फल देने वाली थी। उनके राज्य करते समय प्रजा को बहुत सुख प्राप्त होता था। एक समय किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर राजा के राज्य में तीन वर्षों तक वर्षा नहीं हुई। इससे उनकी प्रजा भूख से पीड़ित हो नष्ट होने लगी; तब संपूर्ण प्रजा ने महाराज के पास आकर इस प्रकार कहा- प्रजा बोली - नृपश्रेष्ठ ! आपको प्रजा की बात सुननी चाहिये। पुराणों में मनीषी पुरुषों ने जलको ‘नारा’ कहा है; वह नारा ही भगवान् का अयन - निवास स्थान है; इसलिये वे नारायण कहलाते हैं। नारायणस्वरूप भगवान् विष्णु सर्वत्र व्यापक रूप में विराजमान हैं। वे ही मेघस्वरूप होकर वर्षा करते हैं, वर्षा से अन्न पैदा होता है और अन्न से प्रजा जीवन धारण करती है। हे नृपश्रेष्ठ ! इस समय अन्न के बिना प्रजा का नाश हो रहा है; अतः ऐसा कोई उपाय कीजिये, जिससे हमारे योग क्षेम का निर्वाह हो। राजा ने कहा - आपलोगों का कथन सत्य है, क्योंकि अन्न को ब्रह्म कहा गया है। अन्न से प्राणी उत्पन्न होते हैं और अन्न से जगत् जीवन धारण करता है। लोक में बहुधा ऐसा सुना जाता है तथा पुराण में भी बहुत विस्तार के साथ ऐसा वर्णन है कि राजाओं के अत्याचार से प्रजा को पीड़ा होती है; किंतु जब मैं बुद्धि से विचार करता हूं तो मुझे अपना किया हुआ कोई अपराध नहीं दिखायी देता। फिर भी मैं प्रजा का हित करने के लिये पूर्ण प्रयत्न करूंगा। ऐसा निश्चय करके राजा मान्धाता इने-गिने व्यक्तियों को साथ लेकर विधाता को प्रणाम करके सघन वन की ओर चल दिये। वहां जाकर मुख्य-मुख्य मुनियों और तपस्वियों के आश्रमों पर घूमते फिरे। एक दिन उन्हें ब्रह्मपुत्र अड्गिरा ऋषि का दर्शन हुआ। उन पर दृष्टि पड़ते ही राजा हर्ष में भरकर अपने वाहन से उतर पड़े और इन्द्रियों को वश में रखते हुए दोनों हाथ जोड़कर उन्होंने मुनि के चरणों में प्रणाम किया। मुनिने भी ‘स्वस्ति’ कहकर राजा का अभिनन्दन किया और उनके राज्य के सातों अंगों की कुशल पूछी। मुनिने राजा को आसन और अघ्र्य दिया। उन्हें ग्रहण करके जब वे मुनि के समीप बैठे तो उन्होंने इनके आगमन का कारण पूछा। तब राजा ने कहा - भगवन् ! मैं धर्मानुकूल प्रणाली से पृथ्वी का पालन कर रहा था। फिर भी मेरे राज्य में वर्षा का अभाव हो गया। इसका क्या कारण है, इस बात को मैं नहीं जानता। ऋषि बोले - राजन्, यह सब युगों में उत्तम सत्ययुग है। इसमें सब लोग परमात्मा के चिंतन में लगे रहते हैं तथा इस समय धर्म अपने चारों चरणों से युक्त होता है। इस युग में केवल ब्राह्मण ही तपस्वी होते हैं, दूसरे लोग नहीं। किंतु महाराज ! तुम्हारे राज्य में यह शूद्र तपस्या करता है; इसी कारण मेध पानी नहीं बरसाते। तुम इसके प्रतिकार का यत्न करो; जिससे यह अनावृष्टि का दोष शांत हो जाय। राजा ने कहा - मुनिवर ! एक तो यह तपस्या में लगा है, दूसरे निरपराध है; अतः मैं इसका अनिष्ट नहीं करूंगा। आप उक्त दोष को शांत करने वाले किसी धर्म का उपदेश कीजिये। ऋषि बोले - राजन्, यदि ऐसी बात है तो एकादशी का व्र्रत करो। भाद्रपदमास के शुक्ल पक्ष में ‘पद्मा, नाम से विख्यात एकादशी होती है, उसके व्रत के प्रभाव से निश्चय ही उत्तम वृष्टि होगी। नरेश ! तुम अपनी प्रजा और परिजनों के साथ इसका व्रत करो। ऋषि का यह वचन सुनकर राजा अपने घर लौट आये। उन्होंने चारों वर्णों की समस्त प्रजाओं के साथ भादों के शुक्ल पक्ष की ‘पद्मा’ एकादशी का व्रत किया। इस प्रकार व्रत करने पर मेघ पानी बरसाने लगे। पृथ्वी जल से आप्लावित हो गयी और हरी-भरी खेती से सुशोभित होने लगी। उस व्रत के प्रभाव से सब लोग सुखी हो गये। भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं - राजन्! इस कारण इस उत्तम व्रत का अनुष्ठान अवश्य करना चाहिये। ‘पद्मा’ एकादशी के दिन जल से भरे हुए घड़े को वस्त्र से ढककर दही और चावल के साथ ब्राह्मण को दान देना चाहिये, साथ ही छाता और जूता भी देना चाहिये। दान करते समय निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे- नमो नमस्ते गोविन्द बुधश्रवणसंज्ञक।। अघौघसंक्षयं कृत्वा सर्वसौख्यप्रदो भव। भुक्तिमुक्तिप्रदश्चैव लोकानां सुखदायकः ।। बुधवार और श्रवण नक्षत्र के योग से युक्त द्वादशी के दिन बुद्धश्रवण नाम धारण करने वाले भगवान् गोविन्द ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है; मेरी पापराशि का नाश करके आप मुझे सब प्रकार के सुख प्रदान करें। आप पुण्यात्माजनों को भोग और मोक्ष प्रदान करने वाले तथा सुखदायक हैं। राजन्, इसके पढ़ने और सुनने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है।

अहोई अष्टमी व्रत: कब,क्यूँ और कैसे करें???

बच्चों की मां दिन भर व्रत रखें। सायंकाल अष्ट कोष्ठकी अहोई की पुतली रंग भरकर बनाएं। उस पुतली के पास सेई तथा सेई के बच्चों के चित्र भी बनाएं, अहोई अष्टमी का चित्र मंगवा कर लगा लें तथा उसका पूजन कर सूर्यास्त के बाद अर्थात् तारे निकलने पर अहोई माता की पूजा करने से पहले पृथ्वी को पवित्र करके चैक पूर कर एक लोटे में जल भरकर एक पटले पर कलश की भांति रख कर पूजा करें। अहोई माता का पूजन करके माताएं कहानी सुनें। पूजा के लिए चांदी की अहोई पेंडल के रूप में बनाएं, जिसे स्याऊ भी कहते हैं। डोरे में चांदी के मोती रूपी दाने डलवा लें फिर अहोई की रोली, चावल, दूध व भात से पूजा करें और जल से भरे लोटे पर सतिया बना लें। एक कटोरी में हलवा तथा रुपये का वायना निकालकर रख लें और सात दाने गेहूं लेकर कहानी सुनें। कहानी सुनने के बाद अहोई स्याऊ की माला को गले में पहन लें। जो वायना निकाल कर रखा था उसे सासू जी के पांव लगाकर आदर पूर्वक उन्हें दे दें। इसके बाद चंद्रमा को अघ्र्य देकर स्वयं भोजन करें। दीपावली के बाद किसी शुभ दिन अहोई को गले से उतार कर उसका गुड़ से भोग लगावें और जल के छींटे देकर मस्तक झुकाकर रख दें। जितने बेटे हों उतनी बार तथा जितने बेटों का विवाह हो गया हो, उतनी बार चांदी के दो-दो दाने अहोई में डालती जाएं। ऐसा करने से अहोई देवी प्रसन्न होकर बच्चों की दीर्घायु करके घर में नित नए मंगल करती रहती हैं। उस दिन पण्डितों को पेठा दान करने से विशेष फल की प्राप्ति होती है। अहोई का उजमन - जिस स्त्री के बेटा हुआ हो अथवा बेटे का विवाह हुआ हो, उसे अहोई माता का उजमन करना चाहिए। एक थाली में सात जगह चार-चार पूड़ियां रखकर उन पर थोड़ा हलवा रखें। साथ ही एक पीली साड़ी और ब्लाउज, उस पर सामथ्र्यानुसार रुपये रखकर थाल के चारों तरफ हाथ फेर श्रद्धापूर्वक सासू जी के पांव लगाकर वह सामान सासू जी को दें, साड़ी तथा रुपये सासू जी अपने पास रख लें तथा हलवा पूरी का वायना बांट दें। बहन बेटी के यहां भी वायना भेजना चाहिए। कथा- एक नगर में एक साहूकार रहा करता था। उसके सात लड़के थे। एक दिन उसकी स्त्री खदान में मिट्टी खोदने के लिए गई और ज्यों ही उसने मिट्टी में कुदाल मारी त्यों ही सेही के बच्चे कुदाल की चोट से सदा के लिए सो गए। इसके बाद उसने कुदाल को स्याहूं के खून से सना देखा, तो उसे सेही के बच्चों के मर जाने का बड़ा दुःख हुआ परन्तु वह विवश थी और यह काम उससे अनजाने में हो गया था। इसके बाद वह बिना मिट्टी लिए ही खेद करती हुई अपने घर आ गई। उधर जब सेही अपने घर में आई, तो अपने बच्चों को मरा देखकर नाना प्रकार से विलाप करने लगी और ईश्वर से प्रार्थना की कि जिसने मेरे बच्चों को मारा है, उसे भी इसी प्रकार का कष्ट होना चाहिए। तत्पश्चात् सेही के श्राप से सेठानी के सातों लड़के एक साल के अन्दर ही मर गए। इस प्रकार अपने बच्चों के असमय काल के मुंह में चले जाने पर सेठ-सेठानी इतने दुखी हुए कि उन्होंने किसी तीर्थ पर जाकर अपने प्राणों को तज देना उचित समझा। इसके बाद वे घर-बार छोड़ कर पैदल ही किसी तीर्थ की ओर चल दिये और खाने-पीने की ओर कोई ध्यान न देकर जब तक उनमें कुछ भी शक्ति और साहस रहा तब तक चलते ही रहे और जब वे पूर्णतया अशान्त हो गए तो अन्त में मूच्र्छित होकर गिर पड़े। उनकी यह दशा देखकर भगवान् करुणा सागर ने उनको भी मृत्यु से बचाने के लिए उनके पापों का अन्त चाहा और इसी अवसर पर आकाशवाणी हुई कि - हे सेठ! तुम्हारी सेठानी ने मिट्टी खोदते समय ध्यान न देकर सेही के बच्चों को मार दिया था, इसी कारण तुम्हें अपने बच्चों का दुःख देखना पड़ा। यदि अब पुनः घर जाकर तुम मन लगाकर गऊ की सेवा करोगे और अहोई माता देवी का विधि-विधान से व्रत आरम्भ कर प्राणियों पर दया रखते हुए स्वप्न में भी किसी को कष्ट नहीं दोगे, तो तुम्हें भगवान् की कृपा से पुनः सन्तान का सुख प्राप्त होगा। इस प्रकार की आकाशवाणी सुनकर सेठ-सेठानी कुछ आशावान् हो गए और भगवती देवी का स्मरण करते हुए अपने घर को चले आए। इसके बाद श्रद्धा शक्ति से न केवल अहोई माता के व्रत के साथ गऊ माता की सेवा करना आरम्भ कर दिया अपितु सब जीवों पर दया भाव रखते हुए क्रोध और द्वेष का परित्याग कर दिया। ऐसा करने के पश्चात् भगवान् की कृपा से सेठ और सेठानी पुनः सातों पुत्र वाले होकर और अगणित पौत्रों के सहित संसार में नाना प्रकार के सुखों को भोगने के पश्चात् स्वर्ग को चले गए। शिक्षा - बहुत सोच विचार के बाद भली प्रकार निरीक्षण करने पर ही कार्य आरम्भ करें और अनजाने में भी किसी प्राणी की हिंसा न करें। गऊ माता की सेवा के साथ-साथ ही अहोई माता अजन्मा देवी भगवती की पूजा करें। ऐसा करने पर सन्तान सुख तथा सम्पत्ति सुख प्राप्त होगा।

वासुकिधाम

प्राचीन काल में इस उत्तर-पूर्व भारतीय भूमि पर मागधी, भोजपुरी, मैथिली व अंगिका नामक सांस्कृतिक खंड स्थापित रहे जिसमें अंग क्षेत्र में आज भी शताधिक प्रख्यात शिव मंदिर हैं इन्हीं में एक है बाबा वासुकी नाथ, जो देवघर यात्रा के अंतिम पड़ाव क्षेत्र के रूप में युगों-युगों से चर्चित है। श्रावण के दिनों में होने वाले विश्व स्तर पर प्रतिष्ठा प्राप्त पूर्व भारत की काँवर-यात्रा का प्रारंभ अजगैवीनाथ (सुलतानगंज) से होता है जिसका प्रधान केंद्र वैद्यनाथ धाम है पर इसके बाद भक्तों की समस्त टोली जहां अनिवार्य रूप से जाती है वही है वासुकीनाथ। इस तरह से शिवशंकर के तिर्यक सिद्ध धाम का अंतिम प्रसिद्ध केंद्र यही वासुकीनाथ है। यहां बाबा बोल बम के नाम पर ही पूरे क्षेत्र को वासुकीधाम कहा जाता है। शिवभक्तों की राय में बाबा वैद्यनाथ तीर्थ दीवानी अदालत है तो बाबा वासुकीनाथ फौजदारी अदालत है, जहां भक्तों के मनोरथों की त्वरित सुनवाई होती है। द्वादश ज्योतिर्लिंग में एक श्री वासुकीधाम तीर्थ को द्वादश ज्योतिर्लिंग में दसवें स्थान पर विराजित नागेश्वर महादेव के रूप मे पूजा की जाती है। स्थान दर्शन, प्राचीन उल्लेख व स्थान के पहचान के उपरांत यह स्पष्ट हो जाता है कि प्राचीन दारूक वन (आज का दुमका क्षेत्र) में अवस्थित नागेश्वर तीर्थ यही है जहां शिव के साथ-साथ उसी भक्ति व श्रद्धाभाव से नागराज की पूजा की जाती है। ऐसे नागेश्वर का स्थान गोमती द्वारका से 20 किमी. उत्तर-पूर्व या हैदराबाद से अवहा ग्राम में अथवा अल्मोड़ा के जगेश्वर तीर्थ को भी नागेश्वर तीर्थ (नागेश तीर्थ) के रूप में अभिहित किया जाता है। पर नागेश्वर तीर्थ के रूप में सर्वाधिक प्रसिद्धि प्राप्त स्थल यही है जो झारखंड राज्य के दुमका जिलान्तर्गत जरमुंडी प्रखंड में देवघर दुमका मार्ग पर लगभग देवघर से 45 किमी. दूरी पर उत्तर-पूर्व दिशा में अवस्थित है। यहां रांची, दुमका व भागलपुर से भी बस सेवा उपलब्ध है। झारखंड की उपराजधानी दुमका से यह नगर 25 किमी. दूरी पर है। प्राचीन कथा: जानकारी मिलती है कि प्राचीन काल में सुप्रिय नामक एक वैश्य परम शिवभक्त था जो एक बार नौका से यात्रियों के साथ लंबी दूरी में जा रहा था तभी उस नौके पर आतंकी राक्षस दारूक ने आक्रमण कर दिया और सभी यात्रियों को अपने कारागृह में डालकर बंदी बना लिया पर बंदी होने के बावजूद भी सुप्रिय ने भगवान शिव की पूजा में कोई कमी नहीं की और वह ध्यानावस्था में रह अन्न जल छोड़कर शिवोपासना करता रहा। जब यह बात दारूक को ज्ञात हुई तो उसने सुप्रिय को कहा कि तू इतना ढोंग क्यों रच रहा है यहां कोई महादेव नहीं, सिर्फ हमारी सरकार है, हमारे क्षेत्र में हमसे ही षड्यंत्र। पर इसके बाद भी सुप्रिय पर कोई असर नहीं हुआ तो क्रोधवश दारूक ने जैसे ही तलवार उठायी कि साक्षात शिव ने प्रकट हो दारूक सहित उसके समस्त गणचरों का वध कर अपने भक्त की रक्षा की और सुप्रिय के अनुनय-विनय पर वहीं उसी क्षेत्र में लिंग के रूप में सदा सर्वदा के लिए प्रतिष्ठित हो गए। चूंकि यह पौराणिक क्षेत्र वासुकी नाग राज तीर्थ था अतः बाबा के संरक्षक पूजक वासुकी के नाम पर ही इस महातेजमय लिंग का नाम वासुकीनाथ पड़ गया। आज भी इस क्षेत्र में नामकरण के संबंध में एक कथा कही जाती है कि कलियुग में यह क्षेत्र अरण्य रूप में स्थापित हो जनशून्य हो गया। वसु नामक एक स्थानीय व्यक्ति एक बार कंदमूल के चक्कर में भूमि खोद रहा था उसी क्रम में जब उसके कुल्हाडी से पत्थर पर चोट लगी तो पत्थर से रक्तधार बहने लगी। यह देख वसु अत्यंत भयभीत हुआ, तभी आकाशवाणी हुई कि यह सामान्य पाषाण खंड नहीं वरन् महादेव शंकर का दिव्य रूप है, तभी से उस शिवलिंग को वासुकीनाथ कहा जाने लगा। धर्म विद्वान दारू दयाल गुप्त ने ‘शिव महिमा’ में यहां की विशद् चर्चा की है। हम आप सभी जानते हैं कि भगवान शंकर के कंठ का हार है सर्प खासकर नाग और आज भी न सिर्फ दुमका क्षेत्र में वरन् संपूर्ण संथाल परगना में सर्प पूजन की विशेष परंपरा है तभी तो गांव-गांव में नागचैरा, सर्प पिंडी व नाग मंदिर हैं और इन सभी का प्रधान पूजन तीर्थ श्री वासुकीनाथ ही है जिसे जागृत शैव तीर्थ कहा जाता है। वर्तमान में एक विशाल परकोटे के अंदर ही चंद्रकूप (शिवगंगा) के नाम से प्राचीन जलाशय है जिसका जल भी वासुकी नाथ को अर्पित किया जाता है। मुख्य मंदिर के चारों तरफ गणेश, पार्वती, अन्नपूर्णा, काली, छिन्नमस्तिका, बगला, त्रिपुर भैरवी, कमला, तारा, राधाकृष्ण, नंदी व कार्तिकेय के विग्रह को देखा जा सकता है। खुले आकाश के नीचे पालकालीन नंदी देखकर बंग कला शैली जीवन्त हो जाती है। देवघर की भांति यहां भी शिव शक्ति के देवालयों के शिखर का बंधन होता है जिसे गठबंधन कहते हैं। कितने ही लौकिक-अलौकिक कथा का संबंध श्री वासुकीधाम तीर्थ से है। यहां पूरे श्रावण काँवरियों की भीड़ से विशाल मेला लग जाता है। वासुकीनाथ एक ऐसा तीर्थ है जहां आज भी असाध्य बीमारी व मनोवांछित मन्नतों के लिए मंदिर परिसर में ही धरना दिया जाता है और इसके आशानुकूल परिणाम मिलने से भक्तों की आस्था व विश्वास द्विगुणित हो जाती है। मंदिर के आस-पास ही कामचलाऊ बाजार है जहां पूजन सामग्री, खाने-ठहरने के छोटे-बड़े होटल व घर ले जाने के लिए प्रसाद सहित कितने ही सजावटी व गृहोपयोगी सामान मिलते रहते हैं जिसे लोग यादगारी स्वरूप ले जाते हैं। देवघर व वासुकी नाथ के बीच पेडे़ के लिए दो स्थल प्रसिद्ध हैं जहां से लोग पेड़ा अवश्य लेते हैं। आसपास के दर्शनीय स्थल: दुःखहरण नाथ: वासुकीनाथ मंदिर से 4.5 किमी. पहाड़ियों से घिरा दुःखहरण नाथ है। विवरण है कि बाबा की कृपा से तमाम तरह के दुखों का शमन दमन स्वतः हो जाता है। नीमानाय शिव: वासुकीनाथ से करीब 18.5 कि.मी. दूरी पर मयूराक्षी नदी के किनारे नीमानाथ महादेव का विशेष धार्मिक महत्व है जहां श्रावण के दिनों में बड़ा भारी मेला लगा करता है। शुम्भेश्वर नाथ: वासुकीनाथ के पास देवघर-भागलपुर रोड पर सरैया हाट गांव के कोड़िया रोड मोड़ से छः कि.मी. दूर वन प्रान्तर में शुम्भेश्वर नाथ का विशाल मंदिर है। इस देवालय की प्रसिद्धि इस कारण भी है कि यहां पर दैत्य शुम्भ (निशुम्भ के भ्राता) ने भगवान शिव की आराधना कर सिद्धि प्राप्त की थी। यहां भी शिवगंगा के नाम से प्राचीन सरोवर है। मंदराचल पर्वत: इतिहास प्रसिद्ध मंदार पर्वत जिसका उपयोग समुद्र मंथन में मथानी के रूप में किया गया, वासुकीनाथ से 80 किमी. दूरी पर बांका जिला के बौंसी क्षेत्र में है जहां मधुसूदन तीर्थ पुराण प्रसिद्ध है। धार्मिक मान्यता है कि वासुकीनाथ ने रज्जु के रूप में यहां अपनी सेवा प्रभु के चरणों में अर्पित की थी। पहाड़ी पर इसके लिपटने का अंकन आज भी द्रष्टव्य है। त्रिबूटेश्वर महादेव: देवघर वासुकीनाथ पथ पर देवघर से 18 किमी. दूर यह स्थान धार्मिक पर्यटन का एक प्रमुख केंद्र है। यहां का मंदिर महिमाकारी है जो वैद्यनाथ व वासुकीनाथ के मध्य का शैव तीर्थ है। विवरण है कि यहां भी लंकेश रावण ने शिव साधना और तपस्या की थी। मयूराक्षी नदी का उद्गम भी यहीं है। ऐसे मार्ग में अवस्थित नंदन पर्वत (देवघर से 4 किमी.) भी एक अत्याधुनिक पर्यटन क्षेत्र बन गया है। कुल मिलाकर धार्मिक संस्कार व लौकिक परंपरा में रोग मुक्ति के साथ कामनाओं की पूर्ति स्थल के रूप में वासुकीधाम की चर्चा दूर-दूर तक है। यही कारण है कि यहां सालांे भर देश-विदेश से शिव भक्तों का आगमन होता रहता है जो यहां बाबा के श्री चरणों में नतमस्तक होकर धन्य-धन्य हो जाते हैं।

ऋषभ देव

श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् ! आग्नीध्रनन्दन महाराज नाभि के कोई संतान नहीं थी। इस कारण उन्होंने अपनी धर्मपत्नी मेरूदेवी के साथ पुत्र की कामना से यज्ञ प्रारंभ किया। प्रभु प्रसन्न हुए और शंख-चक्र-गदा पद्मधारी चतुर्भुज नारायण प्रकट हुए। ऋत्विजों ने राजा रानी के सहित सौंदर्य सुधासिन्धु अनन्त गुण निधान प्रभु का दर्शनकर, स्तुति करते हुए अघ्र्य पादादि से पूजाकर प्रभु पदपस्मों में सादर दंडवत् प्रणाम किया और कहा- प्रभो! राजर्षि नाभि और उनकी पत्नी मेरूदेवी आपके ही समान पुत्र चाहते हैं। श्रीभगवान ‘‘मैं स्वयं महाराज नाभि के यहां अवतरित होऊंगा, क्योंकि मेरे समान तो मैं ही हूं, अन्य कोई नहीं।’ ऐसा कहकर अंतर्धान हो गए। कुछ दिनों के बाद नाभि की परम सौभाग्यशालिनी पत्नी मेरूदेवी की कुक्षि से भगवान् विष्णु के वज्र-अंकुश आदि चिह्नों से युक्त अतुलित गुणनिधान परमतत्व प्रकट हुआ। पुत्र के अत्यंत सुंदर गुणों को देखकर महाराज ने उसका नाम ‘ऋषभ’ (श्रेष्ठ) रखा। महाराज नाभि परमप्रभु ऋषभदेव का पुत्रवत् पालन करने लगे। कुछ ही दिनों के अनन्तर ऋषभदेव वयस्क हो गए और महाराज नाभि ने देखा कि संपूर्ण राष्ट्र के नागरिक तथा मंत्री आदि सभी ऋषभदेव को आदर व प्रीति की दृष्टि से देखते हैं, तब उन्होंने ऋषभदेव को राजपद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं अपनी सती पत्नी मेरूदेवी के साथ गंध मादन पर्वत पर भगवान् नर-नारायण के वासस्थान बद्रिकाश्रम में पहुंचकर भगवान के नर-नारायण रूप की उपासना एवं चिंतन करते हुए समयानुसार उन्हीं के तेज में स्थित हो गए। श्री शुकदेव जी कहते हैं- राजन् ! शासन का दायित्व स्वीकार कर ऋषभदेव ने मानवोचित कर्तव्य का पालन करना प्रारंभ कर दिया। भगवान् ऋषभदेव के शासनकाल में कोई भी पुरुष अपने लिए किसी से भी अपने प्रभु के प्रति दिन-दिन बढ़ने वाले अनुराग के सिवा और किसी वस्तु की कभी इच्छा नहीं करता था।’’ संपूर्ण प्रजा ऋषभदेव को अत्यधिक प्यार करती एवं श्रीभगवान् की तरह उनका आदर करती थी। यह देखकर शचीपति (इंद्र) के मन में बड़ी ईष्र्या हुई। उन्होंने सोचा - मैं त्रैलोक्यपति हूं, वर्षा के द्वारा सबका भरण-पोषण करता और सबको जीवनदान देता हूं, फिर भी प्रजा मेरे प्रति इतनी श्रद्धा न रखकर धरती के नरेश को परमेश्वर की भांति पूजती है। तब सुरेंद्र ने ईष्र्यावश एक वर्ष तक वर्षा बंद कर दी। तब भगवान् ऋषभदेव ने अमरपति की द्वेष वृत्ति एवं अहंकार को जानकर योगबल से सजल-घनों की सृष्टि की। आकाश काले मेघों से आच्छादित हो गया और पृथ्वी पर जल ही जल हो गया। सुरपति का मद उतर गया। उन्होंने भगवान ऋषभदेव के प्रभाव को समझकर उनकी स्तुति की और अपनी पुत्री जयंती का विवाह उनके साथ कर दिया। ऋषभदेव ने लोक मर्यादा की रक्षा के लिए गृहस्थाश्रम धर्म का पालन किया और उनसे सौ पुत्र हुए। उनमें सबसे बड़े, सर्वाधिक गुणवान् एवं महायोगी भरत प्रतापी नरेश हुए और उन्हीं के नाम पर इस अजनाभखंड का नाम ‘भारतवर्ष’ प्रख्यात हुआ। राजकुमार भरत से छोटे-नौ राजकुमार भारत वर्ष में पृथक-पृथक् देशों के प्रजापालक नरेश हुए। ये सभी तपस्वी एवं भगवद्भक्त थे। इनसे छोटे नौ राजकुमार बालब्रह्मचारी, भागवत धर्म प्रचारक एवं भगवद् भक्त थे। ये योगी व संन्यासी हो गए। इनसे छोटे महाराज ऋषभदेव के इक्यासी पुत्र वेदज्ञ, देवार्चन और पुण्यकर्मों के कहने से ब्राह्मण हो गए। एक बार की बात है। महाराज ऋषभदेव भ्रमण करते हुए गंगा-यमुना के मध्य की पुण्य भूमि ब्रह्मावर्त में पहुंचे, जहां के शासक उनके चतुर्थ पुत्र ब्रह्ममावर्त थे। वहां उन्होंने प्रख्यात महर्षियों के साथ अपने अत्यंत विनयी एवं शीलवान् 8 पुत्रों को भी बैठे देखा। इस सुअवसर का लाभ उठाकर भगवान् ऋषभदेव ने अपने पुत्रों के माध्यम से जगत् के लिए अत्यंत कल्याणकर उपदेश दिया। ऋषभदेव ने कहा- ‘पुत्रों! इस मत्र्यलोक में यह मनुष्य शरीर दुखमय विषय भोग प्राप्त करने के लिए ही नहीं है। यह भोग तो विष्ठाभोजी सूकर कूकरादि को भी मिलते ही हैं। इस शरीर से अंतःकरण शुद्धि व अनन्त ब्रह्मानंद की प्राप्ति हेतु दिव्य तप ही करना श्रेयस्कर है। इसी से भगवान् की प्राप्ति सुलभ है।’’ ‘‘मनुष्य प्रमादवश कुकर्म में प्रवृत्त होता है, किंतु इससे आत्मा को नश्वर एवं दुःखदायी शरीर प्राप्त होता है। जब तक मनुष्य श्री हरि के चरणों का आश्रय नहीं लेता, उन्हीं का नहीं बन जाता, तब तक उसे जन्म-जरा-मरण से मुक्ति नहीं मिल पाती। अतएव प्रत्येक माता-पिता एवं गुरु का परम पुनीत कर्तव्य है कि वह अपनी संतान व शिष्य को विषयासक्ति एवं काम्यकर्मों से सर्वथा पृथक् रहने की ही शिक्षा दे।’’ ‘‘पुनः संसार की नश्वरता एवं भगवद्भक्ति का माहात्म्य बताते हुए श्रीऋषभदेव जी ने कहा- जो अपने प्रिय संबंधी को भगवद्भक्ति का उपदेश देकर मृत्यु की फांसी से नहीं छुड़ाता, वह गुरु गुरु नहीं है, स्वजन स्वजन नहीं है, पिता-पिता नहीं है, माता-माता नहीं है, इष्टदेव-इष्टदेव नहीं है और पति-पति नहीं है। पुत्रों ! तुम संपूर्ण चराचर भूतों को मेरा ही शरीर समझकर शुद्ध बुद्धि से पद-पद पर श्री हरि की सेवा करो; यह मेरी सच्ची पूजा है।’’ ज्ञान की सात श्रेणियां जो योग वशिष्ठ रामायण में हैं, उनका ज्ञान दिया, कहा- 1. शुभेच्छा - आत्मकल्याणार्थ सद्गुरु की शरण में जाये व शास्त्रों का अध्ययन व आत्मदर्शन का उपाय करे। 2. सुविचारणा - मन-बुद्धि सुविचार से युक्त हो, कुविचार किसी के प्रति भी न हो। 3. तनुमानसा - श्रवण, मनन, निदिध्यासन के द्वारा शब्दादि विषयों के प्रति अनासक्ति पैदा करना। 4. सत्वात्पत्ति: समाधि रूप स्थिति को प्राप्त होना। 5. असंसक्ति: अविद्या तथा इससे संबंधित कार्यों का अभाव होना। 6. पदार्थ भाविनी: पदार्थों में दृढ़ अप्रतीति होना, यानी मात्र भगवत् दर्शन ही करना। 7. तुर्यगा: ब्रह्म को अखंड व आत्मरूप जानना परम लक्ष्य ज्ञानी पुरुष वस्तु से स्नेह न करे, ना ही संग्रह करे- यह उपदेश पुत्रों का दिया। अपने सुशिक्षित एवं भक्त पुत्रों के माध्यम से जगत् को उपदेश देकर ऋषभदेव जी ने संकल्प मात्र से ही अपने बड़े पुत्र को राज-पद पर अभिषिक्त कर दिया और स्वयं विरक्त जीवन का आदर्श प्रस्तुत करने के लिए राजधानी से बाहर वन में चले गए। भगवान् ऋषभदेव सर्वथा ज्ञान स्वरूप थे, किंतु लोकदृष्टि से प्राणियों को शिक्षा देने एवं पारमहंस्य धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध करने के लिए उन्होंने उन्मत्तों का वेष धारण कर लिया। बुद्धि के आगार होने पर भी मूर्खों जैसा उनका आचरण होने लगा। वे किसी के प्रश्न का उत्तर न देकर मूक सा व्यवहार करने लगे। धूल-धूसरित शरीर, जिधर जी में आता-भागने लगते। जहां कोई कुछ दे देता, पेट में डाल लेते; पर किसी से मांगते न थे। ऋषभदेव जी सर्वथा दिगंबर होकर विचरण करने लगे। उनकी उच्चतम स्थिति को न समझकर कितने ही दुष्ट उन पर दंड प्रहार कर बैठते। कितने गालियां देते, कितने उन परम पुरूष पर थूक देते और कुछ कंकड़ पत्थर मारते तो कुछ उनके ऊपर मल त्याग भी कर देते। पर शरीर के प्रति अनासक्ति और मैं पन का भाव न होने के कारण ऋषभदेव जी कुछ नहीं बोलते। सर्वथा शांत और मौन रहकर अपनी राह आगे बढ़ जाते। अब वे अवधूत वृत्ति के अनंतर अजगर-वृत्ति से रहने लगे। उन्हें मनुष्यता का अभिमान विस्मृत हो गया। कोई खाने को दे देता तो खा लेते। पशुओं की तरह पानी पी लेते। लेटे ही लेटे पशुओं की तरह मल-मूत्र का त्याग कर देते। मल को अपने सारे शरीर में पोत लेते, किंतु उनके मल से अत्यंत अलौकिक सुगंध निकलती थी, जो दस-दस योजन तक फैल जाती थी। इस प्रकार मोक्षपति भगवान् ऋषभदेव अनेक प्रकार की योग चर्चाओं का आचरण करते हुए निरंतर आनंदमग्न रहते थे। प्रभु का यह जीवन आचरणीय नहीं, यह तो अवस्था थी। यह स्थिति शास्त्र से परे है। जब भगवान् ऋषभदेव संसार की असारता का पूर्णतया अनुभव कर जीवन मुक्त अवस्था का आनंद लाभ कर रहे थे, उस समय समस्त सिद्धियों ने उनकी सेवा में उपस्थित होकर उनकी सेवा करनी चाही, परंतु ऋषभदेवजी ने उनका मन से आदर या ग्रहण नहीं किया, वरन् मुस्कुराते हुए वहां से चले जाने की आज्ञा दे दी। सर्वसमर्थ भगवान् ऋषभदेव को सिद्धियों की आवश्यकता भी क्या थी? वे तो सिद्धों के सिद्ध महासिद्ध थे। सिद्धियां तो उनकी चरण-धूलि का स्पर्श प्राप्त करने के लिए लालायित रहतीं, पर वह पुण्यमयी धूलि- सुर-मुनि-वंदित रज उन्हें मिल नहीं पाती। साथ ही साधकों, भक्तों एवं योगाभ्यासियों के सम्मुख उन्हें आदर्श भी उपस्थित करना था। मन बड़ा ही चंचल होता है। इसे तनिक भी सुविधा देने से पतन के महागर्त में ढकेल देता है। ‘‘काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और भय आदि शत्रुओं का तथा कर्म-बंधन का मूल तो यह मन ही है; इस पर कोई भी बुद्धिमान कैसे विश्वास कर सकता है।’’ इसी कारण भगवान् ऋषभदेव ने साक्षात् पुराणपुरुष आदिनारायण के अवतार होने पर भी अपने ईश्वरीय प्रभाव को छिपाकर अवधूत का सा, मोक्ष की प्राप्ति कराने वाले पारमहंस्य-धर्म का आचरण किया। ज्ञानी तो अपनी योग दृष्टि से उन्हें ईश्वरावतार समझते थे; किंतु सामान्य प्राणी उनका परिचय पाने में असमर्थ ही थे। दिगंबर-वेष में भ्रमण करते-करते उन्होंने कुटकाचल के निर्जन वन में प्रवेश किया और पंच भौतिक शरीर को त्याग देने की इच्छा हो आयी। एक दिन सहसा प्रबल झंझावात से घर्षण के कारण वन के बांसों में आग लग गयी और वह आग अपनी लाल-लाल लपटों से संपूर्ण वन को भस्मसात् करने लगी। ऋषभदेव जी भी वहीं विद्यमान थे। उनकी शरीर में तनिक भी आसक्ति व मोह नहीं था, इसी कारण शरीर रक्षा के लिए उन्होंने कोई प्रयत्न नहीं किया, उनकी तो सर्वत्र समबुद्धि थी। अतएव वे चुपचाप बैठे रहे और उनका नश्वर शरीर अग्नि की भयानक ज्वाला में जलकर भस्म हो गया। इस प्रकार शरीर छोड़कर भगवान् ऋषभदेव ने योगियों को देह त्याग की विधि की भी शिक्षा दे दी। ‘अयमवतारों रजसोपप्लुत कैवल्योपशिक्षणार्थ भगवान् का यह अवतार रजोगुण से भरे हुए लोगों को मोक्षमार्ग की शिक्षा देने के लिए ही हुआ था।’

मांगलिक कार्यों में भद्रा योग की परिभाषा

किसी भी मांगलिक कार्य में भद्रा का योग अशुभ माना जाता है। भद्रा में मांगलिक कार्य का शुभारंभ या समापन दोनों ही अशुभ माने गये हैं। पुराणों के अनुसार भद्रा भगवान सूर्य देव व देवी छाया की पुत्री व राजा शनि की बहन है। शनि की तरह ही इनका स्वभाव कड़क है। आचार्य श्रीपति ने कहा है कि जिस समय देवासुर संग्राम में देवताओं की पराजय को देखकर श्री शंकर भगवान को क्रोध उत्पन्न हो गया और उनकी दृष्टि हृदय पर पड़ जाने से एक शक्ति उत्पन्न हो गई जो गर्दभ (गधा) के से मुंह वाली, सात भुजा वाली, तीन पैर युक्त, लम्बी पूंछ और सिंह के समान गर्दन से युक्त, कृश पेट वाली थी। वह पे्रत पर सवार होकर दैत्यों (राक्षसों) का विनाश करने लगी। इससे प्रसन्न होकर देवताओं ने इसे अपने कानों के समीप में स्थापित किया अतः इसे करणों में गिना जाने लगा। इस प्रकार काले वर्ण, लम्बे केश, तथा बड़े दांत व भंयकर रुप वाली, सात हाथ वाली, दुबले पेट वाली, महादेव जी के शरीर से उत्पन्न होकर दैत्यों का विनाश करने वाली भद्रा का जन्म हुआ। पंचांग में भद्रा का महत्व हिन्दू पंचांग के पांच प्रमुख अंग होते हैं- तिथि, वार, नक्षत्र, योग व करण। करण तिथि का आधा भाग होता है। करण ग्यारह होते हैं। इसमें ७ करण चर व ४ करण स्थिर होते हैं। ७वें चर करण का नाम ही विष्टि या भद्रा है। बव, बालव, कौलव, तैतिल, गर, वणिज और विष्टि (भद्रा) चर करण हैं और स्थिर करण हैं - शकुनि, चतुष्पद, नाग, किंस्तुध्न। भद्रा तीनों लोकों में घूमती है, मृत्युलोक, भू-लोक एवं स्वर्ग लोक। जब वह मृत्युलोक में होती है तो आवश्यक कार्यों में बाधक होती है। भद्रा के दोष का परिहार निम्नांकित चार स्थितियों में होता है- 1.स्वर्ग या पाताल में भद्रा का वास हो। 2.प्रतिकूल-काल वाली भद्रा हो। 3.दिनार्द्ध के अनन्तर वाली भद्रा हो। 4.भद्रा का पुच्छ काल हो। 1. स्वर्ग या पाताल में भद्रावास:- जिस भद्रा के समय चन्द्रमा मेष, वृष, मिथुन, वृश्चिक राशियों में हो उस भद्रा का वास स्वर्ग में, जिस भद्रा के समय चन्द्रमा कन्या, तुला, धनु, मकर राशियों में हो उसका वास पाताल और जिस भद्रा के समय चन्द्रमा कर्क, सिंह, कुम्भ, मीन राशियों में हो उस भद्रा का वास भूमि पर माना जाता है। शास्त्रों का निर्णय है कि वही भद्रा दोषकारक है, जिसका भूमि पर वास हो। शेष (स्वर्ग या पाताल में वास करने वाली) भद्राओं का काल शुभ माना गया है। ‘‘भूलोकस्था सदा त्याज्या स्वर्ग-पातालगा शुभा।’’ इससे स्पष्ट है कि मेष, वृष, मिथुन, कन्या, तुला, वृश्चिक, धनु और मकर राशि में चन्द्रमा की स्थिति के समय घटित होने वाली (अर्थात् स्वर्ग-पातालवासी) भद्राएं शुभ होने से मंगल कार्यों के लिए शुभ हैं। स्पष्ट है, परिहार के इस नियम के अनुसार भद्रा का 67 प्रतिशत काल, जिसे हम अशुभ समझते हैं, मंगल कार्यों के लिए शुभ होता है। 2. प्रतिकूल-काल वाली भद्राः- तिथि के पूर्वार्द्ध में रहने वाली (यानी कृष्ण पक्ष की 7, 14 और शुक्ल पक्ष की 8, 15 तिथियों वाली) भद्राएं रात्रि की भद्राएं कहलाती हैं। यदि दिन की भद्रा रात्रि के समय और रात्रि की भद्रा दिन के समय आ जाए तो उसे ‘‘प्रतिकूल काल वाली भद्रा कहा जाता है। प्रतिकूल-काल वाली भद्रा को आचार्यों ने शुभ माना है- रात्रि भद्रा यदाऽह्नि स्याद् दिवा भद्रा यदा निशि। न तत्र भद्रादोषः स्यात् सा भद्रा भद्रदायिनी।। यदि ‘रात्रिभद्रा’ रात्रि के समय और ‘दिनभद्रा’ दिन के समय घटित हो तो उसे ‘अनुकूल काल वाली भद्रा’ कहा जाता है, ऐसी भद्रा को ही अशुभ माना गया है। 3. दिनार्द्ध के अनन्तर वाली भद्रा:- जो भद्रा दिनार्द्ध (मध्याह्न) से पूर्ववर्ती काल में हो उसे अशुभ और जो उसके (मध्याह्न) के परवर्ती काल में हो, उसे शुभ माना गया है- विष्टिरंगारकश्चैव व्यतीपातश्च वैधृतिः। प्रत्यरि-जन्मनक्षत्रं मध्याह्नात् परतः शुभम्।। भद्रा को वार के अनुसार भी नाम दिये गये हैं। सोमवार एवं शुक्रवार की भद्रा हो तो कल्याणी, यदि शनिवार को भद्रा हो तो वृश्चिकी, गुरुवार को हो तो पुण्यवती, रविवार, मंगलवार और बुधवार को हो तो भद्रिका की संज्ञा दी गयी है। 4. भद्रा का पुच्छकाल: कश्यप संहिता अनुसार मुखे पंच गले त्वेका वक्षस्येकादश स्मृताः। नाभौ चतस्रः षट् कट्यां तिस्त्रः पुच्छाख्यनाडिकाः।। कार्यहानिः मुखे मृत्युर्गले वक्षासि निःस्वता। कट्यामुन्मत्तता नाभौ च्युतिः पुच्छे ध्रवो जयः।। अर्थात् भद्रा की 30 घड़ियों में से पहली पांच घड़ियां (कुल काल का षष्ठांश) उसका मुख, उसके बाद एक घड़ी गला, 11 घड़ियां वक्ष, 4 घड़ियां नाभि, 6 घड़ियां कमर और तीन घड़ियां (कुल काल का दशमांश) उसकी पुच्छ होती है। मुखकाल में कार्यहानि, कण्ठकाल में मृत्यु, वक्षकाल में निर्धनता, कटिकाल में पागलपन, नाभिकाल में पतन और पुच्छकाल में निश्चित विजय होती है। यदि भद्रा 30 घड़ी से अधिक की हो तो मुख व अन्य अंग भी षष्ठांश की गणनानुसार बड़े होंगे। सभी मुहूत्र्त ग्रन्थों में भद्रा के मुख काल को अशुभ और पुच्छ काल को शुभ लिखा गया है। भद्रा सर्पिणी की भांति अपना मुख पुच्छ की ओर करके रहती है। अर्थात जहां पुच्छ समाप्त होती है वहीं मुख प्रारंभ होता है लेकिन विभिन्न तिथियों में मुख का प्रारंभ काल अलग-अलग होता है। विभिन्न तिथियों वाली भद्राओं के मुख और पुच्छ का प्रारंभ काल, जो मुहूत्र्त संहिता ग्रन्थों में बतलाया गया है, उपरोक्त तालिका में वर्णित है। तालिकानुसार कृष्णपक्ष की तृतीया तिथि वाली भद्रा का मुख इस भद्रा के चैथे प्रहर के प्रारम्भ में इस भद्रा के षष्ठांश तुल्य समय तक और इसकी पुच्छ इसके तीसरे प्रहर के अन्त में इस भद्रा के दशमांश तुल्य समय तक रहेगी। सारांश -स्वर्ग और पातालवासी भद्राएं शुभ हैं, भूवासी नहीं। - भूवासी भद्रा भी शुभ हो जाती है, यदि वह प्रतिकूल काल वाली हो। - यदि भद्रा भूवासी है, वह प्रतिकूल काल वाली भी नहीं है, तब भी वह शुभ होगी, यदि वह दिनार्द्ध के बाद हो। - अत्यावश्यकता की स्थिति में भद्रा के मुखकाल को छोड़कर शेष भाग में शुभ कार्य किया जा सकता है। इस स्थिति में यदि हो सके तो पुच्छ काल को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। कार्योंऽत्यावश्यके विष्टेः मुखमात्रं परित्यजेत्। - भद्रा के पुच्छकाल प्रत्येक स्थिति में शुभ हैं। जो व्यक्ति प्रातः काल भद्रा के १२ नामों का स्मरण करता हैं तो उसके सभी कार्य निर्विघ्न संपन्न होते हैं। धन्या दधिमुखी भद्रा महामारी खरानना। कालरात्रिर्महारुद्रा विष्टिस्च कुल पुत्रिका ।। भैरवी च महाकाली असुराणां क्षयंकरी । द्वादशैव तु नामानि प्रातरुत्थाय यः पठेत्।। अर्थात् धन्या, दधि मुखी, भद्रा, महामारी, खरानना, कालरात्रि, महारूद्रा, विष्टि, कुलपुत्रिका, भैरवी, महाकाली, असुरक्षयंकारी द्वादश नाम प्रातः लेने से भद्रा शुभ फलदायी होती है।

तीन सौ वर्ष पूर्व स्थित शिवालय

तकरीबन तीन सौ वर्षों तक बिहार, बंगाल व झारखंड क्षेत्र में शासन सत्ता स्थापित कर अपने गौरवनामा का परचम लहराने वाला पालवंश भारतीय कला संस्कृति के अभ्युदय काल के स्वरूप का स्पष्ट दिग्दर्शन है। इस युग में जहां एक ओर तथागत और उनसे जुड़े मूत्र्त विग्रह व स्थल का उद्धार हुआ तो हिंदू धर्म से जुड़े स्मारकों का भी श्रीउदय हुआ । इनमें शिव मंदिर यत्र-तत्र-सर्वत्र विराजमान हैं। राजकीय शासन क्षेत्र में रहने के कारण, राजमार्ग पर अवस्थित होने के कारण, राजकीय समारोह स्थल होने के कारण अथवा अंग्रेज सर्वेयर की निगाह पड़ने से कितने ही शिवालय का स्वतः प्रचार-प्रसार हो गया पर कुछ उत्कृष्टता के बावजूद स्थानीय स्तर तक ही चर्चित हो पाया। ऐसा ही एक बेशकीमती शिवालय गया जिले के टनकुपा प्रखंड के चोवार गांव में स्थित है जिसे ‘जटा-शंकर’, ‘जटाजूट महादेव’ या ‘जटाधारी स्थान’ कहा जाता है। चोवार का शिव मंदिर अपनी विशिष्टता, प्राचीनता, पुरातात्विक महत्व व अचरज भरे दास्तान के लिए प्रदेश प्रसिद्ध है जहां शिवलिंग के नाम पर प्राचीन अनगढ़ पाषाण खंड गर्भगृह के अरधे के बीच में अंदर की ओर विराजमान हैं। मंदिर से जुड़े वृत्तांत का अध्ययन व गांव में मंदिर व गढ़ क्षेत्र का दर्शन यह स्पष्ट करता है कि मगध क्षेत्रीय शिवालयों में चोवार का महत्व अप्रतिम है। फतेहपुर मार्ग पर अवस्थित पथरा मोड़ (बरतारा मोड़ से ढाई किमी. आगे मुख्य मार्ग पर ही) से छः किमी. अंदर आकर इस शिव मंदिर का दर्शन लाभ किया जा सकता है जिसके दर्शन से ही बीते जमाने की याद जीवन्त हो जाती है। मगध का वह क्षेत्र जो पुरातन काल में कोलगढ़ी प्रक्षेत्र के रूप में आबाद रहा उसमें चोवार भी एक है। चोवार के चातुर्दिक भी गढ़ क्षेत्र का बाहुल्य है जिनमें टनकुपा, जयपुर, टिवर, कंधरिया, फतेहपुर, पुनावां आदि का नाम लिया जा सकता है। कोल राजाओं के परम आराध्य शिव शंकर का देवालय कितने ही गढ़ क्षेत्र के समीप मिलता है पर यहां का देवालय निर्माण की दृष्टि से एक उत्कृष्ट कृति है। भले ही इसका प्रचार-प्रसार इसके नाम व यशःकृति के अनुरूप नहीं हो पाया। लाल गेरूए रंग से रंगा यह शिव मंदिर एक आयताकार प्लेटफाॅर्म पर बना है जिसके ठीक सामने एक प्राचीन कूप है। यहीं पर कुछ प्राचीन मूर्तियों के खंडित अंश व मनौती स्तूप देखे जा सकते हैं। मंदिर के बाहरी दीवार पर भी शिवलिंग, मनौती स्तूप व पाषाण खंड का अलंकृत रूप देखा जा सकता है और ये सब के सब पाल कालीन हैं। यह मंदिर दो तल विभाज्य रूप में है जहां से प्रवेश कर गर्भ गृह तक जाया जा सकता है। मंदिर के प्रवेश द्वार का चैखट 1.58 मीटर ऊंचा और 68 से.मी. चैड़ा है। सामने गर्भगृह 2.16 मीटर का वर्गाकार है जिसके ईशान कोण में शिवलिंग की आकृति के पाषाण खंड व गणेश जी का स्थान देखा जा सकता है। यहां का प्रधान शिवलिंग अनगढ़ पाषाण खंड का बना है जो अरधे के अंदर है। इस लिंग के अरधे की लंबाई 1.25 मीटर व चैड़ाई 1.4 मीटर है। शिवलिंग हेतु बने गोलाकार खंड का व्यास 34 से. मी. है। इस गर्भगृह के बाहर के कक्ष में बारह पाषाण स्तंभों को आमने-सामने लगाकर छत को सहारा प्रदान किया गया है। इस प्रथम प्रवेश कक्ष में दाहिनी ओर ऊंचा ताखा बनाकर विष्णु, बुद्ध, मनौती स्तूप भैरव, उमाशंकर, विशाल फलक, बड़ा मिट्टी के गागर सहित कुल 36 पुरावशेष या तो रखे हैं या दीवार के ताखे में स्थापित कर दिए गए हैं। चोवार के शिवालय में बुद्ध मूर्ति अथवा मनौती स्तूप का मिलना इस बात का प्रमाण है कि कभी यह स्थान बौद्ध स्थवीरों से भी आबाद रहा। ऐसे यह बात जानने योग्य है कि प्राचीन राजगृह व बोधगया मार्ग के एकदम सन्निकट है चोवार, अतः बहुत संभव है कि मार्ग विश्राम स्थल के रूप में चोवार की महत्ता वर्षों कायम रही। मंदिर क्षेत्र से उत्तर की ओर 1/2 किमी. चलने पर विशालगढ़ का अवलोकन किया जा सकता है जो भू-तल से 92 फीट तक ऊंचा है। यहां के टीले पर बनी दीवारें आज भी इसकी विशालता की कथा कहती हैं। इस गढ़ क्षेत्र के चातुर्दिक कृष्ण लौहित मृद्भांड, चित्रित मृद्भांड, लौहित मृद्भांड व बहुत कम मात्रा में एन. बी. पी. भी प्राप्त होते हैं। ग्रामीण कहते हैं कभी यहां तीन मंजिला राज भवन था जहां कोल राजा निवास करते थे। यहां से आगे बढ़कर मार्ग तक आने में एक प्राचीन देवी स्थान और उसके आगे गुरु नानक के जमाने का उपेक्षित संगत दर्शनीय है। विवरण है कि अपनी धर्मयात्रा के सिलसिले में श्री नानक देव 1508 ईमें गया आए और इसी रास्ते रजौली (नवादा) गए। जहां उन्होंने रात्रि विश्राम किया, वहीं आज संगत है। यहां भी एक प्राचीन व विशाल कूप है और पास में एक और आश्चर्य कि एक तार के पेड़ से निकली पांचों शाखा पुनः जड़ में प्रवेश कर गयी है। गया क्षेत्र के चातुर्दिक द्वादश प्रधान शिव क्षेत्र में चोवार की गणना प्राच्य काल से की जाती है। पर पर्यटन की दृष्टि से इसके नव उद्धार का प्रयास अभी तक नहीं किया जाना दुखद है। साल के किसी भी पर्व-त्योहार में खासकर पूरा श्रावण, सरस्वती पूजा,अनंत चतुर्दशी और शिवरात्रि में यहां की गहमागहमी देखते बनती है। चोवार आने के लिए गया के मानपुर बस स्टैंड से जाना सहज है। ऐसे निजी गाड़ी से भी दूर-देश के भक्त यहां आकर बाबा के दरबार में हाजिरी जरूर लगाते हैं। जानकार विद्वान कविवर पं. धनंजय मिश्र का मानना है कि संपूर्ण मगध ही नहीं वरन् पूरे उत्तर भारत में ऐसा शैव स्थल अनूठा ही नहीं दुर्लभ है। सचमुच अपनी पुरासंपदा के कारण ‘चोवार’ एक ऐतिहासिक गांव के रूप में स्थापित हो गया है जहां के शिवालय और पालकालीन मूर्तियां शिल्पकला का बेहतरीन उदाहरण है जहां किसी भी शिव पर्व में दूर-दूर से लोगों के आने के कारण मेला लग जाता है।

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Tuesday 29 March 2016

शिव की प्रतिमा

शिव की शरण लेने से परम पद की प्राप्ति होती है- शिवा भूत्वा शिव यजेत् अर्थात् शिव बनकर ही शिव का पूजन करें। सुनने में यह बड़ा विचित्र सा लगता है, किंतु यह ईश्वर की अभेद उपासना है। वस्तुतः सख्य भाव नवधा भक्तियों में प्रमुख है। सखा भक्ति में मैत्री भाव से ईश्वर की उपासना की जाती है। श्री कृष्ण और अर्जुन दोनों मित्र हैं क्योंकि समान गुण वाले व्यक्ति ही मित्र होते हैं, विरोधी स्वभाव वाले नहीं। इसलिए कहा जाता में आने वाले व्यवधान, कष्ट आदि रूपी विष को चुप चाप पी लें- इसी में हमारा और दूसरों का कल्याण निहित है। सत्यम् शिवम् सुन्दरम्- शिव शब्द आनंद का बोधक है। जब हमारा मन शिव संकल्प से युक्त होता है तो हमें सारा संसार सुंदर दिखाई देता है। हमारे तन की कुरूपता ओझल होने लगती है और हमारे नेत्रों से, वाणी से आरै कर्म से सौंदर्य झलकने लगता है तब सारा संसार शिवमय दिखाई देता है। श्वेताश्वतरोपनिषद् के अध्याय 4 के 10 वें श्लोक में कहा गया है- मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।। प्रकृति को माया जानना चाहिए और महेश्वर को मायावादी। उसी के अवयवभूत (अंश) से यह संपूर्ण जगत् व्याप्त है अर्थात् संपूर्ण जगत् में शिव ही शिव समाया हुआ है। शिव महिम्न स्तोत्र में कहा गया है- हे शरद्! आप सब में व्याप्त है। आप ओंकार पद से ऋग, यजु, साम (तीनों वेदों), जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति (तीनों अवस्थाओं), स्वर्ग, मृत्यु, पाताल (तीनों लोकों) और ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र (तीनों देवताओं) आदि मायिक प्रपंचों (विकारों) को धारण किए हुए हैं। इनसे परे जो विकार रहित, विलक्षण और चैतन्य स्वरूप है, वही चैथा ‘तुरीय’ आपका पवित्र धाम है। ओंकार का चंद्र बिंदु, जिसे सूक्ष्म ध्वनि द्वारा इंगित किया जाता है, सभी जीव-आत्माओं के अंदर स्थित परम पिता ‘ओंकारेश्वर’ की जो शरण ग्रहण कर लेता है उसे यह तुरीय पद प्राप्त हो जाता है। शिव के परम धाम तुरीय को अधिक स्पष्ट करने के लिए माण्डूक्योपनिषद् के प्रथम आगम प्रकरण का 12 वां श्लोक यहां प्रस्तुत है। अमात्रश्चतुर्थो अव्यवहार्यः प्रपन्चोपशमः शिवोऽद्वैत। एवमोंकार आत्मैव संविशंत्यात्मनात्मानं य एवं वेद।। मात्रा रहित ओंकार तुरीय आत्मा ही है। वह अव्यवहार्य, प्रपंचोपशम, शांत, शिव और अद्वैत है, जो इसे इस प्रकार जानता है वह स्वतः अपनी आत्मा में ही प्रवेश कर जाता है। शिव ज्येतिर्लिंग: बहुत से अज्ञानीजन शिवलिंग को भगवान शंकर की शारीरिक इन्द्रिय मानते हैं, जो गलत है। संस्कृत भाषा में लिंग का अर्थ होता है चिह्न या प्रतीक। शिवलिंग को ज्योतिर्लिंग कहा जाता है। यह ज्योतिर्लिंग सभी प्राणियों के हृदय में महाज्योति के रूप में विद्यमान है, यही आत्मा है। ज्योतिर्लिंग ही निर्गुण निराकार ब्रह्म का प्रतीक है। गीता के अनुसार, ‘वह परमात्मा सूर्यादि ज्योतियों का भी ज्योति और अज्ञानरूपी अंधकार से परे कहा जाता है। वह ज्ञान, ज्ञेय और ज्ञानगम्य है तथा सबके हृदय में स्थित है’। सृष्टि के प्रारंभ में अज्ञानरूपी अंधकार का विनाश करने के लिए भगवान शिव ही स्वयं ज्योतिर्लिंग के रूप में प्रकट हुए।

श्री लक्ष्मी नारायणी मंदिर श्रीपुरम



वेल्लूरू से 7 किलोमीटर दूर थिरूमलाई कोडी में स्वर्ण से बना श्री लक्ष्मी नारायणी मंदिर श्रीपुरम् है। सोने से निर्मित इस मंदिर को बनने में 7 वर्षों का समय लगा जो हरी-भरी 100 एकड़ भूमि के मध्य 55000 स्क्वेयर फीट भूमि पर निर्मित है। 24 अगस्त 2007 को यह मंदिर दर्शन के लिए खोला गया। मंदिर के चारों ओर एक सितारे के आकार का रास्ता (पाथवे) बना है। दर्शनार्थी मंदिर परिसर की दक्षिण दिशा से प्रवेश कर पाथवे से क्लाक वाईज घुमते हुए पूर्व दिशा तक आते है जहां से मंदिर के अंदर भगवान श्री लक्ष्मी नारायण के दर्शन करने के बाद पुनः पूर्व दिशा में आकर पाथवे से होते हुए दक्षिण दिशा से ही बाहर आ जाते है। श्रीपुरम् का यह स्वर्ण जड़ित मंदिर और इसका परिसर इतना सुंदर है कि, मानो धरती पर स्वर्ग उतर आया हो। मंदिर को देखने वर्षभर सैलानियों की भारी भीड़ बनी रहती है। निश्चित ही मंदिर और इसका परिसर बहुत संुदर निर्मित किया गया है परंतु इसकी इस सुंदरता में निश्चित ही इसकी वास्तुनुकुलताओं के कारण चार चांद लग रहे हैं। मंदिर के मध्य का भाग ऊंचा है जिसके चारों ओर ढलान है। मंदिर परिसर की भूमि की ऐसी भौगोलिक स्थिति को वास्तुशास्त्र में गजपृष्ठ भूमि कहते हैं। ऐसी भूमि पर भवन बनाकर रहने वाले का जीवन सुख-समृद्धि एवं एैष्वर्य से पूर्ण रहता है और ऐसे स्थान पर बना भवन भी चिर स्थायी होता है। मंदिर की उत्तर दिशा में तीखा ढलान है और साथ ही ईशान कोण में श्रीमंगल जलधारा है। जहां ऊंचाई से पानी नीचे जमीन पर आता है। वहां छोटा सा तालाब भी है। जो कि, इस मंदिर की प्रसिद्धि को बढाने में और अत्यधिक सहायक हो रहा है। वास्तु सिद्धांत के अनुसार जहां भी उत्तर दिशा में ज्यादा मात्रा में पानी का संग्रह हो तो वह स्थान निश्चित प्रसिद्धि प्राप्त करता ही है जैसे, तिरूप्पती बालाजी तिरूपति, गुरूवायूर मंदिर त्रिशूर, वक्कडनाथ मंदिर त्रिशूर, पद्नाभ स्वामी मंदिर त्रिरूअन्नतपुरम् इत्यादि। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु पूर्वमुखी होकर विराजमान है और मंदिर का प्रवेश द्वार भी पूर्व दिशा में ही है और मंदिर का विमान पश्चिम दिशा में है। इससे पश्चिम दिशा पूर्व दिशा की तुलना में ऊंची होकर भारी हो रही है। पूर्व और पश्चिम दिशा की यह वास्तुनुकुलताएं दर्शनार्थियों को आकर्षित करती हैं। मंदिर परिसर की कम्पाऊण्ड वाॅल का प्रवेश द्वार दक्षिण आग्नेय में है। वास्तुशास्त्र के अनुसार दक्षिण आग्नेय का द्वार वैभव बढ़ाने में सहायक होता है। इन वास्तुनुकुलताओं के साथ-साथ स्वर्ण मंदिर श्रीपुरम् में कुछ वास्तुदोष भी हैं। हो सकता है कि, अद्भुत अद्वितीय वास्तु शक्ति वाले इस स्वर्ण मंदिर में वास्तुदोषों का प्रभाव खुले रूप में नजर नहीं आ रहा हो। किंतु वास्तुदोष अपना कुप्रभाव अवश्य ही देते हैं। यह उसी प्रकार है जैसे कि, एक ग्लास पानी में चार चम्मच शक्कर डली हो उसमें यदि चुटकीभर नमक डाल दिया जाए तो वह पानी पीने पर नमक के स्वाद का पता नहीं लगेगा। परंतु इस घोल को पीने के बाद शक्कर और नमक अपनी-अपनी मात्रा के अनुसार शरीर पर अपना प्रभाव तो डालते ही है। परिसर की कम्पाऊण्ड वाल उत्तर दिशा में थोड़ी अंदर की ओर दब गई है। वास्तुशास्त्र के अनुसार उत्तर दिशा का यह दोष इसकी प्रसिद्धि में कुछ अंश तक कमी ला रहा है। इसके लिए मंदिर प्रशासन को चाहिए कि, जहां से उत्तर दिशा में कम्पाऊण्ड वाल दबी है वहां से उसे वायव्य कोण तक दबा कर सीधा कर दिया जाए और उत्तर ईशान में यह बढ़ाव बना रहे। उत्तर ईशान का बढ़ाव प्रसिद्धि दिलाने में सहायक होता है। मंदिर परिसर का नैऋत्य कोण बढ़ा हुआ है। जहां पर जूतों का स्टैण्ड है। वास्तुशास्त्र में नैऋत्य कोण के बढ़ाव को भी शुभ नहीं माना जाता है। यह बढ़ाव विभिन्न प्रकार की परेशानियां पैदा करता है अतः परिसर की चारदीवारी के नैऋत्य कोण को छोटा कर 90 डिग्री का करना चाहिए। यह तय है कि, स्वर्ण से बने श्रीपुरम् के इस मंदिर को जितना यश मिल रहा है। वह मंदिर की सुंदर बनावट के साथ-साथ निश्चित ही मंदिर परिसर की वास्तुनुकुल भौगोलिक स्थिति एवं बनावट के कारण ही है। यदि उपरोक्त वास्तुदोषों को दूर कर दिया जाए तो निश्चित ही यह परिवर्तन मंदिर की सुख-समृद्धि प्रसिद्धि बढ़ाने में सोने में सुहागे का काम करेगा।

खरगोन का श्री नवग्रह मंदिर

खरगोन का श्री नवग्रह मंदिर संपूर्ण भारतवर्ष में अपना ऐतिहासिक महत्व रखता है। इस मंदिर में माता बगलामुखी देवी स्थापित हैं। यहां नवग्रहों की शांति के लिए माता पीताम्बरा की पूजा अर्चना एवं आराधना की जाती है, इसलिए यह पीताम्बरा ग्रह शांति पीठ के नाम से विख्यात है। नवग्रह देवता को नगर के देवता व स्वामी के रूप में पूजा जाता है, इसलिए खरगोन को नवग्रहों की नगरी कहते हैं। इस ऐतिहासिक मंदिर में प्रतिवर्ष नवग्रह मेला लगता है एवं मेले के अंतिम गुरुवार को नवग्रह की पालकी यात्रा निकाली जाती है। खरगोन नगर मध्यप्रदेश का अति विकासशील जिला है। यह इंदौर से 140 किमी, खंडवा से 88 किमी, ओंकारेश्वर से 87 किमी, सेंधवा से 67 किमी तथा बावनगजा से 96 किमी की दूरी पर स्थित है। श्री नवग्रह मंदिर कुंदा नदी तट पर स्थित है। मंदिर की स्थापना वर्तमान पुजारी के आदि पूर्वज श्री शेषाप्पा सुखावधानी वैरागकर ने लगभग 600 वर्ष पूर्व की। शेषाप्पा जी ने कुन्दा नदी के तट पर सरस्वती कुंड, सूर्य कुंड, विष्णु कुंड, शिव कुंड एवं सीताराम कुंड का निर्माण किया और इनके समीप तपस्या करके माता पीताम्बरा को प्रसन्न कर अनेक सिद्धियां प्राप्त कीं। फिर इन कुंडों के सम्मुख ही नवग्रह मंदिर की स्थापना की। मंदिर के रखरखाव का संपूर्ण प्रबंधन मंदिर के संस्थापक शेषाप्पा जी की छठी पीढ़ी के वंशज पं. लोकेश दत्तात्रय की देखरेख में चलता है। मंदिर में श्री ब्रह्मा के रूप में माता सरस्वती, मुरारी के रूप में भगवान राम तथा त्रिपुरांतकारी के रूप में श्री पंचमुखी महादेव तथा गर्भगृह में नवग्रह विराजमान हैं। गर्भगृह के मध्य में पीताम्बरा ग्रहशांति पीठ व सूर्यनारायण मंदिर तथा परिक्रमा स्थली में अन्य ग्रहों के दर्शन होते हैं। पीताम्बरा ग्रहशांति पीठ में माता बगलामुखी देवी व सिद्ध ब्रह्मास्त्र स्थापित हैं। सूर्यनारायण मंदिर में सात घोड़ों के रथ पर सवार भगवान सूर्यनारायण एवं सिद्ध अष्टदल सूर्ययंत्र स्थापित हैं। परिक्रमा स्थली में पूर्व दिशा में बुध, शुक्र व चंद्र, दक्षिण में मंगल, पश्चिम में केतु, शनि व राहु और उत्तर में गुरु ग्रह विराजमान हैं। सभी ग्रहों की स्थापना दक्षिण भारतीय पद्धति व नवग्रह दोषनाशक यंत्र के आधार पर की गई है। सभी ग्रह अपने-अपने वाहन व ग्रहमंडल सहित स्थापित हैं। सूर्य नारायण ग्रहों के राजा हैं, इसलिए इस मंदिर में सूर्य ग्रह को प्रधान रखा गया है। यह मंदिर संपूर्ण भारतवर्ष में एकमात्र सूर्यप्रधान नवग्रह मंदिर है। यहां नवग्रहों की शांति के लिए माता बगलामुखी की पूजा-अर्चना व आराधना होती है। नवरात्र पर यहां विशेष पूजन-अभिषेक होता है। पीताम्बरा ग्रह शांति पीठ श्री नवग्रह मंदिर के गर्भगृह के मध्य भगवान श्री सूर्यदेव विराजमान हैं। सूर्यदेव के पीछे माता बगलामुखी देवी विराजमान हैं। श्री बगलामुखी देवी के दायें हाथ में गदा और बायें हाथ में बकासुर राक्षस की जिह्वा है। उनका बायां पैर राक्षस के दायें पैर पर है। माता के इस स्वरूप को द्विभुज वाला स्वरूप कहा जाता है। माता बगलामुखी एवं श्री सूर्यदेव के मध्य श्री ब्रह्मास्त्र स्थापित है। यह ब्रह्मास्त्र माता बगलामुखी के यंत्र के रूप में वृत्त, षटकोण, अष्टकोण, चतुष्कोण, त्रिकोण, बिंदु एवं परिधि सहित पत्थर पर उकेरा गया है। जब माता बगलामुखी का अवतरण हुआ तभी माता के तेज से समस्त जगत को स्तंभित करने वाली ब्रह्मास्त्र विद्या उत्पन्न हुई। इसी तथ्य को ध्यान में रखकर मंदिर में माता की स्थापना के साथ साथ ब्रह्मास्त्र की स्थापना भी की गई। श्री बगलामुखी देवी के साथ ब्रह्मास्त्र एकमात्र इसी मंदिर में देखने को मिलता है। माता बगलामुखी के दरबार में पूजा करने से नवग्रहों की शांति होती है। शत्रुओं से बचाने वाली माता पीतांबरी प्राचीन तंत्र ग्रंथों में दस महाविद्याएं क्रमशः काली, तारा, षोडशी, भुवनेश्वरी, छिन्नमस्ता, त्रिपुरभैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी व कमला उल्लिखित हैं। माता बगलामुखी अष्टम महाविद्या हैं। ये शत्रुओं का नाश करने वाली, युद्ध, वाद-मुकदमों व प्रतियोगिता में विजय दिलाने वाली, प्राकृतिक आपदाओं से रक्षा करने वाली, चुनाव में विजय दिलाने वाली, विश्व कल्याण करने वाली, वांछित स्थान पर स्थानांतरण कराने वाली तथा विशेष रूप से नवग्रहों के दुष्प्रभाव को समाप्त करने वाली देवी हैं। ये देवी बगलामुखी तंत्र की अधिष्ठात्री देवी हैं। इनकी साधना से प्रत्येक असंभव कार्य को संभव बनाया जा सकता है। माता बगलामुखी का पूजन-अर्चन ब्रह्मास्त्र की शक्ति का कार्य करता है। माता बगलामुखी की आराधना पीतवर्णा होेने के कारण यह देवी पीताम्बरा कहलाती हैं। माता को अर्पित की जाने वाले वस्त्र, नैवेद्य, फल आदि समस्त सामग्री पीले रंग की होनी चाहिए। साधक को भी पीले वस्त्र धारण कर ही माता की आराधना मंगलवार को करनी चाहिए। नवरात्र में यहां 9 दिनों तक माता का विशेष रूप से अभिषेक व शृंगार एवं महा आरती की जाती है। भक्तगण नवरात्र में मंदिर में स्थापित माता का पूजन-अर्चन व अभिषेक करते हैं एवं सर्वत्र यश, विजय, लाभ का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। ग्रहशांति के उद्देश्य से देवी के दर्शन हेतु देश के विभिन्न भागों से श्रद्धालुगण आते हैं।

जलमंदिर

आदि अनादि काल से धर्म सम्मत रहे भारतवर्ष में गया की भूमि मोक्ष धाम है। इस पुण्य धरा पर प्रकारान्तर से ही श्राद्ध, पिंडदान और तर्पण की निर्बाध परंपरा रही है और इस घोर कलियुग में भी यहां की महिमा अक्षुण्ण है। हजारों वर्षों के गौरवशाली इतिहास की गवाह यह भूमि संपूर्ण भारतीय और विश्व के देशों में निवासरत् हिंदुओं के लिए पुण्यमय तीर्थ है जहां हरेक वर्ष भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन अमावस्या तक के पंद्रह दिनों में पितृपक्ष मेला लगता है। मगध क्षेत्र के इस वार्षिक कुंभ में संपूर्ण विश्व के हिंदू आकर गया-श्राद्ध के बाद ही पितृऋण से उऋृण होते हैं। युगों-युगों से अपनी गौरवमयी सभ्यता संस्कृति के लिए अखिल विश्व में जयघोष का परचम लहराता भारतभूमि में हिंदू धर्म के साथ कुछ अन्यान्य धर्म संप्रदाय का आविर्भाव हुआ इसमें जैन धर्म का सर्व विशिष्ट स्थान है। जैन परंपरा के अनुरूप जैन धर्म में कुल चैबीस महा तीर्थंकर हुए जिनमें अहिंसा, सत्य अस्तेय, अपरिग्रह और ब्रह्मचर्य जैसे ‘पंचमहाव्रत’ के उद्घोषकत्र्ता महावीर स्वामी का अपना अलग स्थान है। अंतिम व चैबीसवें तीर्थंकर के रूप में प्रख्यात महावीर स्वामी का जीवन व दर्शन एक ऐसा झलकता आईना है जिसमें भारतीयता के प्रायशः कृत दृष्टिगत होते हैं। महाश्रमण भगवान महावीर का महापरिनिर्वाण जहां हुआ था वह स्थान पावापुरी कहलाता है। विवरण है कि इसी स्थल में अंतिम समवशरण के बाद महावीर स्वामी बहत्तर वर्ष की अवस्था में शरीर छोड़ परममोक्ष को प्राप्त हो गये। भारतीय इतिहास में इसकी सर्वमान्य तिथि 468 ई. पूबतायी जाती है पर इतिहासविदों का एक वर्ग इसे 526 ई. पूर्व भी स्वीकार करता है। स्थान भ्रमण, दर्शन व जैन आगम शास्त्रों के अध्ययन अनुशीलन से ज्ञात होता है कि बिहार क्षेत्र के जैन तीर्थ यथा राजगृह, वैशाली, कुंडलपुर, चैखंडी, लडुआर, बासो कुंड, गुणावां जी आदि के मध्य पावापुरी की महत्ता युगांे-युगों से कायम है जो नालंदा व राजगीर के साथ मिलकर ‘‘स्वर्णिम पर्यटन त्रिकोण’ बनाता है। पावापुरी राष्ट्रीय राजमार्ग पर अवस्थित पावापुरी मोड़ से दो किमी. अंदर है जो नालंदा से 21 किमीराजगीर से 30 किमी. और बिहार की राजधानी पटना से 62 किमी. दूरी पर अवस्थित है। यह जानकारी की बात है कि महावीर स्वामी जी के निर्वाण तिथि के बाद से ही ‘वीर निर्वाण संवत्’ प्रारंभ होता है जिसका जैन समाज में विशेष महत्व है। ऐतिहासिक साक्ष्यों से जानकारी मिलती है कि भगवान महावीर धर्म प्रचार के क्रम में निर्वाण स्थिति का बोध होते हजारों सहयोगियों के साथ राजगृह से ‘पावा’ आए। पूर्व काल में इस क्षेत्र का नाम अप्पापुरी (आपापुरी) था। यहां आकर उन्होंने लोक कल्याणार्थ प्रवचन दिए, यह स्थान समवशरण कहलाता है। फिर दो किमी. पहले ही आकर जहां प्राण त्याग किए आज वहीं ‘जल मंदिर’ बना है। विवरण है कि भगवान महावीर का अंतिम संस्कार एक बड़े कमल सरोवर के बीच किया गया। ऐसे यहां के महात्मा यह भी कहते हैं कि मृत्यु के बाद महावीर जी का शरीर कर्पूर की भांति कांतिमय हो हवा में विलीन हो गया। चाहे जो भी हो पर यह पूर्णतया सत्य है कि महावीर जी का जीवनान्त यहीं हुआ। जैन आगम शास्त्र में इसका नाम नौखूद-सरोवर मिलता है। प्राच्य काल में लगभग पचास एकड़ भू-भाग में विस्तृत इस तालाब में लाल, नीला व सफेद कमल पुष्प खिले थे और आज भी कमल पुष्प व रंग-बिरंगी पद्धतियों से यह तालाब शृंगारित है। पास में ही पार्क, दादाबाड़ी और श्वेताम्बर व दिगंबर मंदिर दर्शनीय हैं। संपूर्ण देश में अनूठा व विअलग इस मंदिर तक जाने के लिए लाल पाषाण खंड के पहुंच पुल बनाए गए हैं जिसके प्रारंभिक व अंतिम छोर पर अलंकृत कक्ष बना हुआ है। मंदिर पूर्वाभिमुख है जिसके अंदर के तीन कक्षों में ठीक सामने बाबा महावीर जी, बाएं तरफ गौतम स्वामी व दाहिने सुधर्मा स्वामी का चरण वंदन स्थान है। शांति, साधना व तपश्चर्या के इस स्थल में श्वेत संगमरमर पाषाण से बनी कृतियां भ्रमणकारियों को सुखद अहसास दिलाती हैं। मंदिर में चारांे कोनों पर व बीच में अलंकृत शिखर बने हैं। यह मंदिर तीन द्वार युक्त है। यहां पूजा पाठ का दायित्व निभाने वाले पारस उपाध्याय बताते हैं कि ऐसे तो यहां सालों भर दूर देश के लोग आते रहते हैं पर दीपावली की रात ‘निर्वाण महोत्सव’ पर यहां की रौनकता देखते बनती है। पावापुरी का प्रथम आकर्षक पड़ाव जलमंदिर के बाद यहां पुरानी बस्ती में विराजमान ‘गांव मंदिर’ देखे जाने का विधान है। इसकी ऊपरी मंजिल के छत पर की गई नक्काशी व चित्रकारी के साथ महावीर स्वामी का प्रभावोत्पादक विग्रह दर्शकों का मन प्रसन्न कर देता है। पावापुरी जल मंदिर से दो कि.मीदूरी पर समवशरण मंदिर देखा जा सकता है। यह वही स्थान है जहां महा श्रमण महावीर के अंतिम संदेश ने जन-जन को तृप्त किया था। श्वेत व आकर्षक संगमरमर खंडों से निर्मित यह स्थान निर्माण कला का उत्कृष्ट नमूना है जहां मध्य भाग में उंचे पाठ पीठ पर महावीर जी की मूर्ति चारों दिशाओं में चार लगी है और इन्हें देखकर ऐसा लगता है जैसे अब प्रभु बोल उठेंगे। यहां पूजा वस्त्र पहन कर ही अंदर (गर्भगृह में) आने का विधान है। जिस प्रकार तथागत के जीवन में पीपल पेड़ का महत्वपूर्ण स्थान रहा है ठीक वैसे ही महावीर स्वामी के साथ भारत के राष्ट्रीय वृक्ष अशोक का जुड़ाव है यही कारण है कि समवशरण मंदिर में संगमरमर पत्थर पर बना अशोक वृक्ष व उसकी लता कुंजों का सुंदर चित्रण हुआ है। ध्यातव्य है कि जैनतीर्थ ‘पावापुरी’ के रूप में चांपानेर का भी नाम आता है जो कभी गुजरात प्रदेश की राजधानी के रूप में चर्चित रही। इसी नगर में पावागढ़ पर्वत है जो बड़ोदरा नगर से पचास किमी. दूरी पर अवस्थित है। सम्प्रति नए जमाने में पावापुरी में विकास की किरण तो आई है पर यहां योजनाबद्ध तरीके से विकासात्मक कार्य कराया जाना आवश्यक प्रतीत होता है।

जागृत देवी पीठ: पद्मावती मंदिर

भारतवर्ष के मध्यकालीन ख्यातनाम नगरों में शेरघाटी अपनी भौगोलिक बनावट और शौर्य शक्ति के कारण दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। आज गया जिले के अनुमंडल के रूप में प्रसिद्ध शेरघाटी में नए पुराने देवालय, नए पुराने मजार-मस्जिद, तालाब, बावली व कौलिया गढ़ के साथ कितने ही पुरातन संस्कृति के चिह्न देखे जा सकते हैं। इनमें माता पद्मावती का स्थान एक जागृत देवी पीठ के रूप में स्थापित है। शेरघाटी नगर में अवस्थित रंगलाल उच्च विद्यालय व पुराने कब्रिस्तान मार्ग से होकर यहां जाना सहज है जहां पास में ही 250 वर्ष प्राचीन एक ठाकुरबाड़ी व प्राचीन कूप भी दर्शनीय है। धर्म-इतिहास के पन्नों में चर्चित यह स्थान उत्तर पालकालीन है जहां प्रारंभिक काल में देवी पद्मावती कोल राजाओं की अधिष्ठात्री देवी के रूप में पूजित रहीं। सल्तनत काल में भी मां की आभा प्रज्ज्वलित रही और इसी जमाने में पास के ब्राह्मण परिवारों की तरफ से माता जी की पूजा अर्चना की जाने लगी जो अभी तक निर्बाध रूप से जारी है। इसी मंदिर से थोड़ी दूर पर शेरघाटी के हिंदू जमींदार की विशाल हवेली के अंशावशेष व उसके मध्य विराजमान ‘दुल्हिन मंदिर’ का दर्शन किया जा सकता है जिसका निर्माण पुराने ब्रह्म स्थान पर सन् 1888 ई. में किया गया। उस समय में भी पद्मावती से जुड़े मार्ग व मंदिर में कुछ कार्य किए जाने का विवरण प्राप्त होता है। आज पुजारी वर्ग और जन सहयोग से मंदिर प्रगति पथ पर अग्रसर है। लोकमानस में यह धारणा बलवती है कि मातृ कृपा से हरेक असहज कार्य भी पूर्ण हो जाते हैं। यहां की माता जी का नाम पद्मावती क्यों है? इस बात पर चर्चा करने से ज्ञात होता है कि कोलराज की पुत्री के नाम पर ही माता जी का नाम प्रकाशवान है। ऐसे माता-पद्मावती का एक मंदिर तिरूपति तीर्थ में भी है जिसे तिरूपति बाला जी की अधिष्ठात्री शक्ति स्वीकारा जाता है। प्रधान मार्ग जो गोला बाजार तक जाता है, को छोड़ कर उपमार्ग पर आधे किलोमीटर दूरी तय करके मातृ तीर्थ पर पहुँचते ही प्राचीनता का स्पष्ट आभास होता है। मंदिर शिखर विहिन भवननुमा है जो दो कक्ष में विभाज्य व लाल रंग से लेपित है। अंदर के कक्ष में माता जी ऊंचे पाठपीठ पर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित आशीर्वाद मुद्रा में विराजमान हैं जिनके मस्तक के ऊपर चांदी का छत्र शोभायमान है। मूत्र्त विग्रह के दोनों तरफ पाद खंड में ‘जया’ और ‘विजया’ तथा नीचे दो पंक्ति में ब्राह्मी लिपि का अंकन है जो अपठनीय और उत्तर गुप्तकालीन लिपि से साम्य है। इस कक्ष के बारह दरवाजे के कोने पर श्रीराम दरबार का दर्शन किया जा सकता है जहां अष्टधातु के राम, लक्ष्मण, जानकी व हनुमान स्थापित हैं। आगे में दीवार में ताखे बनाकर खड्गधारिणी मां, सूर्य व बुद्ध की प्रतिमा रखी गई है। एक ताखे में आस-पास के पुरातन चिह्न, शालीग्राम व तीन शिवलिंग के अवशेष देखे जा सकते हैं। इस देवालय में शिवशंकर का मूल स्थान धरती से करीब तीन फीट नीचे है जहां 65 इंच लंबाईयुक्त पालकालीन शिवलिंग का दर्शन किया जा सकता है। पास में ही दो अन्य शिवलिंग पूजित है पर बड़े लिंग का ऊपरी भाग भी कमलदल से ऐसे सजा दिया गया है कि उसकी शोभा द्विगुणित हो गयी है। मंदिर में भक्तों के सहायतार्थ उपस्थित माता जी उमा देवी बताती हैं कि लोक मानस में ‘पदमौती स्थान’ के रूप में चर्चित यह देवी स्थान बारह सौ वर्ष से भी ज्यादा प्राचीन है। लोग मनिता पूरण के बाद घी, धूप, सिंदूर चुनरी व मिष्टान्न भोग अर्पित कर माता पद्मावती की पूजा हर्षोल्लास से करते हैं। साल के दोनों नवरात्र, हरेक मंगलवार व शनिवार को यहां दूर-दूर से लोग आते ही हैं पर प्रत्येक दिन भी यहां पूजा करने वालों की संख्या कोई कम नहीं है। मंदिर के बाहर पुरातन वृक्ष के जड़ के पास मनौति स्तूप, बुद्ध फलक और प्राचीन मूर्तियों के अंश देखे जा सकते हैं। मगध विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग से जुड़े डाॅ. मारूति नंदन पाठक का मानना है कि जिस टापू भूमि में शेरघाटी विराजमान है उसके मध्य बिंदू में मां का यह स्थान नगर के विकास, प्रगति व अन्यान्य कार्यों का साक्षी रहा है। मां की महिमा देखें कि शेरघाटी के अंग्रेज अधिकारी और इस्लाम धर्म से सरोकार रखने वाले निवासी भी मां की महिमा के समक्ष नतमस्तक रहा करते हैं। यही कोई 20 वर्ष पूर्व तक मां का यह स्थान खपड़ैल भवन में शोभित था जिसकी दीवारें मिट्टी और पाषाण खंडों की बनी थी पर अब नवशृंगार के बाद यहां का कलेवर ही बदल गया है। मां की इस मूर्ति को महालक्ष्मी स्वरूपा स्वीकारा जाता है जहां कंधे के नीचे भैरव जी का स्थान देखा जा सकता है। अष्टभुजी मां की यह प्रतिमा ऐसे चमकदार पत्थर से बनी है कि आज इतने वर्षों के बाद भी मातृ विग्रह की आभा ज्यों की त्यों है। शेरघाटी नगर के दोनों तरफ प्रवाहमान मोरहर व बुढ़िया नदी के मध्य मार्ग में विराजमान इस देवी तीर्थ से कोलिया गढ़ भी एक किलोमीटर दूरी के अंदर ही है जहां आज भी मिट्टी की उंची ढेर, दीवार व गुप्त द्वार देखा जा सकता है। इस स्थल से प्राचीन देव विग्रह, सिक्के और मृदभांड भी मिलते रहते हैं जिनमें कृष्ण लौहित मृद्भांड, चित्रित मृद्भांड व लौहित मृद्भांड प्रमुख है । शेरघाटी नगर के प्राचीन आबादी के मध्य अवस्थित इस देवी तीर्थ के भक्त स्थानीय और बाहरी दोनों हैं। वर्ष 1269 ई. तक यह क्षेत्र रामगढ़ जिला के अधीनस्थ था। यही कारण है कि रामगढ़ क्षेत्र में मां के कितने ही भक्त रहा करते हैं। सचमुच गुण-महिमा व यश, कीर्ति के कारण प्रसिद्ध माता जी का यह स्थान देखने लायक है जहां भक्तों के नित्य आगमन से गहमागहमी बनी रहती है।

अनंत चतुर्दर्शी व्रत कब,कैसे और क्यूँ करें



भविष्य पुराण में कहा गया है कि भाद्रपद के अंत की चतुर्दशी तिथि में पौर्णमासी के योग में अनंत व्रत को करें। स्कंद पुराण में भी कहा गया है कि भाद्रपद मास की पूर्णिमा तिथि में मुहूर्त मात्र की चतुर्दशी हो, तो उसको संपूर्ण तिथि जानना चाहिए और उसमें अविनाशी विष्णु का पूजन करना चाहिए । भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की चतुर्दशी भगवान अनन्त का व्रत रखकर मनायी जाती है। इस व्रत के नाम से लक्षित होता है, कि यह दिन उस अंत न होने वाली सृष्टि के कर्ता विष्णु की भक्ति का दिन है, ‘‘अनन्त सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रसन्नोमे यक्तानाभयंकरः’’ मंत्र से पूजा करनी चाहिए। यह विष्णु कृष्ण रूप हैं, और शेषनाग काल रूप में विद्यमान हंै अतः दोनों की सम्मिलित पूजा हो जाती है। पूजा विधि: प्रातः काल, नित्य क्रिया तथा स्नानादि से निवृत्त होकर, चैकी के ऊपर मंडप बनाकर, उसमें अक्षत सहित या कुशा के सात टुकड़ों से शेष भगवान की प्रतिमा स्थापित करें। उसके निकट हल्दी से रंगे हुए कच्चे सूत के धागे में 14 गांठें लगाकर रखें और गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि से पूजन करें। तत्पश्चात अनंत देव का ध्यान करके शुद्ध कच्चे सूत से निर्मित अनंत का अपनी दायीं भुजा में धारण करें। यह धागा अनंत फल देने वाला है। पुनः निम्न मंत्र अनंत सर्व नागानामधिपः सर्वकामदः, सदा भूयात् प्रशन्नोमे भक्तानामभयंकरः से प्रार्थना करें। कथा भी श्रवण करें। कथा: धर्म के अंश द्वारा कुंती से उत्पन्न पांडु के ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा पुण्यात्मा महाराज युधिष्ठिर ने जब राजसूय यज्ञ किया तो उसमें यज्ञ मंडप इतना मनोरम था कि जल-स्थल की भिन्नता प्रतीत नहीं होती थी। भगवान श्री कृष्ण की अग्र पूजा के उपरांत, सभी दिशाओं से पधारे ऋषियों, महर्षियों, राजाओं को यथायोग्य कार्यों को सौंप, महाराज धृतराष्ट्र के पुत्र दुर्योधन को राजकोष का कार्य दे दिया गया। संपूर्ण कार्य विधिवत् नियमानुसार पूर्ण हो गये। एक दिन यज्ञ मंडप और महलों की शोभा निहारते हुए दुर्योधन यज्ञ मंडप के उस स्थल पर आ पहुंचे, जहां जल की जगह स्थल और स्थल की जगह जल का भ्रम हो जाता था। इसी भ्रम के कारण दुर्योधन जलाशय को स्थल समझ कर उसी में गिर पड़े। भीमसेन और द्रौपदी यह देख कर दुर्योधन का उपहास उड़ाने लगे, हंसने लगे और कहा कि ‘अंधों की संतान अंधी ही होती है।’ यह बात उनके हृदय में बाण जैसी लगी तथा उन्होंने बदला लेने की मन में ठान ली। कुछ समयोपरांत, मामा शकुनि से परामर्श कर, पांडवों को द्यूत क्रीड़ा का आमंत्रण भेज दिया तथा द्यूत क्रीड़ा में छल से सर्वस्व जीत लिया; यहां तक कि हार होने पर उन्हें, प्रतिज्ञानुसार, 12 वर्ष का बनवास तथा एक वर्ष का अज्ञात वास दे दिया। बनवास के अनेक कष्टों को सहते हुए एक दिन जब भगवान वसुदेव-देवकी नंदन श्री कृष्ण से युधिष्ठिर की भेंट हुई, तो उन्होंने अपने दुःख का संपूर्ण वृत्तांत श्री कृष्ण को कह सुनाया और इसे दूर करने का उपाय पूछा। तब श्री कृष्ण ने अनंत भगवान का विधिपूर्वक व्रत करने का परामर्श दिया और कहा कि इस व्रत से तुम्हें पुनः राज्य प्राप्त हो जाएगा। इस संदर्भ में एक दिव्य प्रसंग भी श्री कृष्ण ने युधिष्ठिर को श्रवण कराया। प्राचीन काल में सुमंत नामक ब्राह्मण की सुशीला नाम की एक सुंदर दिव्य गुणों से पूर्ण कन्या थी। ब्राह्मण े बड़ी होने पर कन्या का विवाह कौंडिन्य ऋषि के साथ संपन्न कर दिया। ऋषिवर सुशीला को ले कर आश्रम की ओर चल पड़े। रास्ते में ही संध्या वंदन का समय होने पर ऋषि संध्या करने लगे। सुशीला ने तब पास में ही देखा, तो बहुत सी सौभाग्यवती स्त्रियां, अपने-अपने पतियांे और स्वजनों के साथ, किसी देवता की पूजा कर रही हैं। तब उसने पास जा कर पूछा कि आप सब किसकी पूजा कर रही हैं? उन सभी ने सुशीला को अनंत भगवान और व्रत की महिमा बतायी। सुशीला ने भी वहीं उस व्रत का अनुष्ठान किया और चैदह गांठों वाला डोरा हाथ में बांध कर ऋषि कौंडिन्य के पास आयी। ऋषि कौंडिन्य ने सुशीला के हाथ में बंधे डोरे का रहस्य पूछा। सुशीला ने संपूर्ण वृत्तांत कह सुनाया। तब ऋषि ने क्रोधवश डोरा तोड़ कर अग्नि में डाल दिया। इससे भगवान अनंत का अत्यंत अपमान हुआ। उसका परिणाम यह हुआ कि ऋषि सुखी न रह सके। उन पर विपत्तियों का पहाड़ टूट पड़ा। धन-दौलत सभी कुछ समाप्त हो गया। तब उन्होंने सुशीला से इसका कारण पूछा, तो सुशीला ने अनंत डोरे की स्मृति दिलायी। कौंडिन्य पश्चाताप से उद्धिग्न हो, उस डोरे की प्राप्ति हेतु, वन में विचरण करने लगे और एक दिन क्षुधा-पिपासा से व्याकुल हो कर भूमि पर गिर पड़े। तब अनंत भगवान ने उन्हें दर्शन दिये और कहा ः हे कौंडिन्य! तुमने मेरा तिरस्कार किया था। उसी से तुम्हें इतना कष्ट भोगना पड़ा। ज्ञान हो गया हो, तो अब घर जा कर अनंत का अनुष्ठान 14 वर्षों तक करो। इससे तुम्हारे दुःख-दारिद्र्य मिट जाएंगे तथा धन-धान्य से संपन्न हो जाओगे।