Sunday 28 February 2016

महाशिवरात्रि व्रत का विधि विधान

महाशिवरात्रि का व्रत फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को होता है। कुछ लोग चतुर्दशी के दिन भी इस व्रत को करते हैं। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरा को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत तारिणी पावन गंगा तथा माथे पर प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं, और श्री -संपत्ति प्रदान करते हैं। काल के काल और देवों के देव महादेव के इस व्रत का विशेष महत्व है। इस व्रत को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, नर-नारी, बालक-वृद्ध हर कोई कर सकता है। व्रत विधि : इस दिन प्रातः काल स्नान ध्यान से निवृत्त होकर अनशन व्रत रखना चाहिये। पत्र-पुष्प तथा सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके सर्वतोभद्र की वेदी पर कलश की स्थापना के साथ-साथ गौरी शंकर की स्वर्ण मूर्ति और नंदी की चांदी की मूर्ति रखनी चाहिये। यदि इस मूर्ति का नियोजन न हो सके तो शुद्ध मिट्टी से शिवलिंग बना लेना चाहिये। दूध, दही, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र आदि का प्रसाद शिव जी को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। रात को जागरण करके ब्राह्मणों से शिव स्तुति का पाठ कराना चाहिये। इस जागरण में शिवजी की चार आरती का विधान जरूरी है। इस अवसर पर शिव पुराण का पाठ मंगलकारी है। दूसरे दिन प्रातः, जौ, तिल-खीर तथा बेलपत्रों का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण करना चाहिये। इस विधि-विधान तथा स्वच्छ भाव से जो भी यह व्रत रखता है, भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे अपार सुख संपदा प्रदान करते हैं। भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खा लेता है, वह नरक के दुखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिये शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति का रहना अनिवार्य है। यदि शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम हो तो नैवेद्य रखने का कोई दोष नहीं होता। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि में भगवान शंकर का ब्रह्म से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में भी इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसलिये इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया है। रखने का कोई दोष नहीं होता। व्रत कथा : किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। ब्राह्मण का लड़का चंद्रसेन दुष्ट प्रवृत्ति का था। बड़े होने पर भी उसकी इस नीच प्रवृत्ति में कोई अंतर नहीं आया बल्कि उसमें दिनो-दिन बढ़ोत्तरी होती गई। यह बुरी संगत में पड़कर चोरी-चकारी तथा जुए इत्यादि में उलझ गया। चंद्रसेन की मां बेटे की हरकतों से परिचित होते हुए भी अपने पति को कुछ नहीं बताती थी। वह उसके हर दोष को छिपा लिया करती थी। इसका प्रभाव यह पड़ा कि चंद्रसेन कुसंगति के गर्त में डूबता चला गया। एक दिन ब्राह्मण अपने यजमान के यहां पूजा कराके लौट रहा था तो उसने मार्ग में दो लड़कों को सोने की अंगूठी के लिये लड़ते देखा। एक कह रहा था कि यह अंगूठी चंद्र सेन से मैंने जीती है। दूसरे का तर्क था कि अंगूठी मैंने जीती है। यह सब देख-सुनकर ब्राह्मण बहुत दुखी हुआ। उसने दोनों लड़कों को समझा-बुझाकर अंगूठी ले ली। घर आकर ब्राह्मण ने पत्नी से चंद्रसेन के बारे में पूछा। उत्तर में उसने कहा - ''यहीं तो खेल रहा था अभी? ''जबकि हकीकत यह थी कि चंद्रसेन पिछले पांच दिनों से घर नहीं आया था। ब्राह्मण ऐसे घर में क्षणभर भी नहीं रहना चाहता था, जहां जुआरी चोर बेटा रह रहा हो तथा उसकी मां उसके अवगुणों पर हमेशा पर्दा डालती रही हो। अपने घर से कुछ चुराने के लिये चंद्रसेन जा ही रहा था कि दोस्तों ने उसके पिता की नाराजगी उस पर जाहिर कर दी। वह उल्टे पांव भाग निकला। रास्तें में एक मंदिर के पास कीर्तन हो रहा था। भूखा चंद्रसेन कीर्तन मंडली में बैठ गया। उस दिन शिवरात्रि थी। भक्तों ने शंकर पर तरह-तरह का भोग चढ़ा रखा था। चंद्रसेन इसी भोग सामग्री को उड़ाने की ताक में लग गया। कीर्तन करते-करते भक्तगण धीरे-धीरे सो गये। तब चंद्रसेन ने मौके का लाभ उठाकर भोग की चोरी की और भाग निकला। मंदिर से बाहर निकलते ही किसी भक्त की आंख खुल गई। उसने चंद्रसेन को भागते देख चोर-चोर कहकर शोर मचा दिया। लोगों ने उसका पीछा किया। भूखा चंद्रसेन भाग न सका और डंडे के प्रहार से चोट खाकर गिरते ही उसकी मृत्यु हो गई। अब मृतक चंद्रसेन को लेने शंकर जी के गण तथा यमदूत एक साथ वहां आ पहुंचे। यमदूतों के अनुसार चंद्रसेन नरक का अधिकारी था क्योंकि उसने पाप ही पाप किये थे, लेकिन शिव के गणों के अनुसार चंद्र सेन स्वर्ग का अधिकारी था क्योंकि वह शिवभक्त था। चंद्रसेन ने पिछले पांच दिनों से भूखे रहकर व्रत तथा शिवरात्रि का जागरण किया था। चंद्रसेन ने शिव पर चढ़ा हुआ नैवेद्य नहीं खाया था। वह तो नैवेद्य खाने से पूर्व ही प्राण त्याग चुका था इसलिये भी शिव के गणों के अनुसार वह स्वर्ग का अधिकारी था। ऐसा भगवान शंकर के अनुग्रह से ही हुआ था। अतः यमदूतों को खाली हाथ लौटना पड़ा। इस प्रकार चंद्रसेन को भगवान शिव के सत्संग मात्र से ही मोक्ष मिल गया।

भगवान विष्णु का मास: वैशाख मास

वैशाख मास परम पावन मास है। यह भगवान विष्णु का प्रिय मास है, इसलिए इस मास स्नान, तर्पण, मार्जन, पूजन आदि का विशेष महत्व है। वैशाख मास में जब सूर्य मेष राशि का होता है, तब किसी बड़ी नदी, तालाब, तीर्थ, सरोवर, झरने, कुएं या बावड़ी पर निम्नोक्त श्लोक का पाठ कर श्रद्धापूर्वक भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए स्नान करना चाहिए। श्लोक ‘‘यथाते माधवो मासोवल्लभो मधुसूदन। प्रातः स्नानेन मे तस्मिन फलदः पापहा भव।। स्नान करने की विधि प्रातः काल उठकर सर्वप्रथम किसी नदी, तालाब, तीर्थ स्थान, कुएं या बावड़ी पर जाकर हाथ में कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करें, हाथ पांव धोकर भगवान नारायण का स्मरण करते हुए सविधि स्नान करें और ¬ नमो नारायणाय मंत्र का जप करें। फिर संकल्प करें तथा मन को एकाग्र कर शुद्ध चित्त से संवत, तिथि, मास, पक्ष, नक्षत्र, चंद्र, स्थान, तीर्थ, प्रांत, शहर, गांव, नाम, गोत्र, ऋतु, अयन, सूर्य तथा गुरु के नाम का उच्चारण करके संकल्प को छोड़ कर फिर स्नान करें और गंगा से प्राथना करें कि आप श्री भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई हैं, विष्णु ही आपके देवता हंै। इसलिए आपको वैष्णवी कहते हैं। हे देवि! आप सभी पापों से मेरी रक्षा करें। स्वर्ग, पृथ्वी और अंतरिक्ष में कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं और वे सभी आपके अंदर विद्यमान हैं। इसीलिए हे माता जाह्नवी! देव लोक में आपका नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके अलावा अन्य नामों से भी आपको जाना जाता है, जैसे दक्षा, पृथ्वी विपद्रंगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोक प्रसादिनी, क्षेमकरी, जाह्नवी, शांति प्रदायिनी आदि। स्नान करते समय इन पवित्र नामों का स्मरण व ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने से त्रिपथ गामिनी भगवती गंगा प्रकट हो जाती हैं। दोनों हाथों में जल लेकर चार, छह और सात बार नामों का जप कर शरीर पर डालें, फिर स्नान करें। फिर आचमन कर शुद्ध वस्त्र पहनकर सबसे पहले सृष्टिकत्र्ता ब्रह्मा का, फिर श्री विष्णु, रुद्र और प्रजापति का और तब देवता, यक्ष, नाग, गंधर्व, अप्सरा, असुरगण, क्रूर सर्प, गरुड़, वृक्ष, जीव-जंतु, पक्षी आदि को जलांजलि दें। देवताओं का तर्पण करते समय यज्ञोपवीत को बायें कंधे पर रखें और ऋषि का तर्पण करते समय माला की तरह धारण करें। फिर पितृ तर्पण करें। सनक, सनन्दन सनातन और सनत्कुमार दिव्य मनुष्य हैं। कपिल, आसुरि, बोढु तथा पंचशिख प्रधान ऋषि पुत्र हंै। मरिचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, नारद तथा अन्यान्य देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों आदि का अक्षत और जल से तर्पण करें और कहें कि मेरे द्वारा दिए गए जल से तृप्त हों और उसे स्वीकार कर आशीर्वाद दें। पितृ तर्पण में दक्षिणमुख होकर अपसव्य जनेऊ दाएं कंधे पर रखें। फिर बाएं घुटने को पृथ्वी पर टेककर बैठें और उनका तिल तथा जल से तर्पण करें। फिर पूर्वाभिमुख और सव्य होकर जनेऊ सीधी करके आचमन कर सूर्य देव को अघ्र्य दें और निम्नोक्त श्लोक का पाठ कर परिक्रमा करें तथा जल, अक्षत पुष्प, चंदन आदि अर्पित करते हुए प्रार्थना करें। श्लोक नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे। सहस्र रश्मये नित्यं नमस्ते सवतेजसे । नमस्ते रुद्र वपुषे नमस्ते भक्त वत्सल।। पद्मनाभ नमस्तेस्तु कुण्डलांगदभूषित। नमस्ते सर्वलोकानां सुप्तानामुपबोधन।। सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्व पश्यसि सर्वदा।। सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीदमम् भास्कर।। दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तुते।। भगवान की पूजा विधि भगवान केशव की कृपा के लिए उनकी पूजा विधिपूर्वक करनी चाहिए। पूजा तीन प्रकार की होती है - वैदिक, तांत्रिक और मिश्र। भगवान श्री हरि की पूजा तीनों ही विधियों से करनी चाहिए। शूद्र वर्ण के लिए पूजन की केवल तांत्रिक विधि विहित है। साधक को एकाग्रचित्त होकर निष्ठापूर्वक शास्त्रसम्मत विधि से भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। भगवान के विग्रह की चल और अचल दोनों रूपों से प्रतिष्ठा का विधान है। साधक सुविधानुसार किसी भी रूप से प्रतिष्ठा कर सकता है। पूजन में स्नान और अलंकरण आवश्यक है। प्रतिमा को शुद्ध जल, गंगाजल तथा पंचामृत से स्नान कराने के पश्चात वस्त्र धारण और अलंकरण कराकर सिंहासन पर स्थापित करें और फिर षोडशोपचार पूजन करें। फिर भोग लगाकर आरती करें। तत्पश्चात प्रार्थना, स्तुति व परिक्रमा कर दंडवत प्रणाम करें और अंत में उनकी झांकी स्वरूप का ध्यान करें। इस प्रकार पूजा करने के बाद सुख-शांति की प्राप्ति तथा धन-धान्य की वृद्धि के लिए हवन भी करें। भगवद्विग्रह की स्थापना करने से सार्वभौम पद की, मंदिर बनवाने से तीनों लोकों की और अनुष्ठान करने से भगवत्सायुज्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वैशाख मास में शास्त्रानुसार सविधि स्नान कर तर्पण व पूजा करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इस मास धार्मिक अनुष्ठान, व्रत जप, पूजा-पाठ आदि का भी अपना विशेष महत्व है और साधक को इनका अनंत गुणा फल प्राप्त होता है।

महाशिवरात्रि में कालसर्प दोष की शांति

महाशिवरात्रि के दिन अथवा नागपंचमी के दिन किसी सिद्ध शिव स्थल पर कालसर्प योग की शांति करा लेने का अति विशिष्ट महत्व माना जाता है। निरंतर महामृत्युंजय मंत्र के जप से, शिवोपासना से, हनुमान जी की आराधना से एवं भैरवोपासना से यह योग शिथिल पड़ जाता है। श्रावण मास में सोमवार का व्रत करते हुये भगवान शिव से कालसर्प योग के दुष्प्रभावों से बचाने के लिये प्रार्थना करने पर बहुत शांति मिलती है। महा शिवरात्रि की शुभ वेला में संपूर्ण कालसर्प दोष निवारण यंत्र की स्थापना कर, महामृत्युंजय मंत्र का विधि-विधान से पंडित के द्वारा जाप करवाना, हवन शांति कराना, स्वयं सर्पसूक्त का पाठ करना, नवनाग नाम स्तोत्र का रूद्राक्ष माला से जप करना, चांदी के बने नाग-नागिन के जोड़े को शिवजी को अर्पित करना कालसर्प दोष निवारण के सरल एवं अचूक उपाय हैं। इसी दिन किसी शिवालय में जाकर शिव चालीसा अथवा शिव सहस्रनाम स्तोत्र की पोथियां वितरित करनी चाहिए। 1- कालसर्प दोष निवारण के विभिन्न उपाय विद्वानों द्वारा परामर्शित हैं। इस दोष की शांति विधानानुसार किसी योग्य अनुभवी, निर्लोभी, विद्वान ब्राह्मण, कुलगुरु या पुरोहित से करवा लेने से दोष शांत हो जाता है। 2- भगवान गणेश केतु की पीड़ा शांत करते हैं एवं सरस्वती देवी उनका पूजन-अर्चन करने वालों की राहु के अनिष्ट से रक्षा करती हैं। 3- भैरवाष्टक का नित्य पाठ करने वाले लोगों को इस दोष से शांति मिलती है। उनके दुर्दिन समाप्त होने के लक्षण दिखलाई देने लगते हैं। 4- नित्य ऊन के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से नाग मंत्र गायत्री का जप करने से इस दोष के कष्टों से छुटकारा मिल सकता है बशर्ते सतत् 108 दिन जप करने का संकल्प लेकर प्रयास करें। जप के समय भोले नाथ के समक्ष शुद्ध घी का दीपक जलते रहना चाहिए। 5- इसी तरह से सतत् 108 दिनों तक संकल्प लेकर प्रतिदिन सर्पसूक्त का नित्य एक पाठ करने से दोष निवारण में सफलता मिलने लगती है। बिगड़े कार्य बनने लगते हैं और उन्नति के सुअवसर प्राप्त होने लगते हैं। अपने घर की पूजा स्थली में शिवजी के समीप ही सर्प पकड़े हुए गरुड़ासीन, श्री हरि विष्णु अथवा शेषशायी विष्णु की तस्वीर रखकर उनके दर्शन करते हुये लगातार 108 दिनों तक नवनाग नाम स्तोत्र के नित्य नौ बार पाठ करने से कालसर्प दोष निवारण में बहुत शांति मिलती है। उपरोक्त 108 दिनों के जप/पाठ का प्रारंभ महाशिवरात्रि के पावन पर्व के दिन से कर सकते हैं। ‘‘नमः शिवाय’’ मंत्र पंचाक्षर, जपत मिटत सब क्लेश भयंकर। नाग मंत्र ऊँ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि। तन्नः सर्पः प्रचोदयात्।। नव नाग नाम स्तोत्र अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कंबलम्। शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।। 1 ।। एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्। सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः।। 2 ।। तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।। 3 ।।

चतुर्मास का माहात्म्य

शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन, भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं। आषाढ़ माह में देवशयन एकादशी से कार्तिक माह में हरि प्रबोधिनी एकादशी अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक माह को चतुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में आधे से अधिक मुख्य त्यौहार पड़ते हैं। चतुर्मास में मुख्य पर्व है: गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन, हरीतीज, गणेश चतुर्थी, श्राद्ध, नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज व छठ पूजन। श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा श्रावण नक्षत्र में होता है, इसलिए इस माह का नाम श्रावण है। यह माह अति शुभ माह माना जाता है एवं इस माह में अनेक पर्व होते हैं। इस माह में प्रत्येक सोमवार को श्रावण सोमवार कहते हैं। इस दिन विशेष रूप से शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं कि श्रावण मास में ही समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए थे जिसमें एक था हलाहल विष। इसको शिवजी ने अपने गले में स्थापित कर लिया था जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। विष के जलन को रोकने के लिए सभी देवताओं ने उनपर गंगा जल डाला। तभी से श्रावण मास में श्रद्धालु (कांवड़िए) तीर्थ स्थल से गंगाजल लाकर शिवजी पर चढ़ाते हैं। कहते हैं कि उत्तरायण के 6 माह देवताओं के लिए दिन होता है और दक्षिणायन के 6 माह की रात होती हैं। चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। अतः सभी संत एवं ऋषि-मुनि इस समय में व्रत का पालन करते हैं। इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है। चार माह जमीन पर सोते हैं और भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फलदायक होता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। चतुर्मास में द्विगर्त प्रदेश अर्थात गंगा व यमुना के बीच के स्थानों में विशेष तौर से विवाहादि नहीं किए जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक ही स्थान पर रहकर तप करते हैं। धार्मिक कार्यों में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर ब्रज भूमि में निवास करते हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि चतुर्मास में वर्षा का मौसम होता है। पृथ्वी में सुषुप्त जीव जंतु बाहर निकल आते हैं। चलने से या कृषि कार्य करने से या जमीन खोदने से ये जंतु मारे जा सकते हैं। अतः इन चार माह में एक स्थान पर रहना पर्यावरण के लिए शुभ होता है। ऋषि-मुनियों को तो हत्या के पाप से बचने के लिए विशेष तौर पर एक ही स्थान पर रहने के शास्त्रों के आदेश हैं। दूसरे इस अवधि में व्रत का आचरण एवं जौ, मांस, गेहूं तथा मंग की दाल का सेवन निषिद्ध बताया है। नमक का प्रयोग भी नहीं या कम करना चाहिए। वर्षा ऋतु के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति कम हो जाती है। इन दिनों व्रतादि से शरीर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। साथ ही इन दिनों में सूर्य छुपने के पश्चात भोजन करना मना है। कारण लाखों करोड़ों कीट पतंगे रोशनी के सामने रात को आ जाते हैं और भोजन में गिरकर उसे अशुद्ध कर देते हैं। कहते हैं कि इन दिनों स्नान अगर किसी तीर्थ स्थल या पवित्र नदी में किया जाता है तो वह विशेष रूप से शुभ होता है। स्नान के लिए मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। इसके लिए धान्य के ऊपर लाल रंग के वस्त्र में लिपटे कुंभ रखकर, उसपर भगवान की प्रतिमा रखकर पूजा करनी चाहिए। धूप दीप एवं पुष्प से पूजा कर ‘‘नमो-नारायण’’ या ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। चतुर्मास का प्रारंभ अर्थात देवशयन एकादशी व इसका अंतिम दिन अर्थात हरि प्रबोधिनी एकादशी, दोनों ही विशेष शुभ दिन माने जाते हैं और इन दोनों को अनबूझ मुहूर्त की संज्ञा उपलब्ध है अर्थात् इस दिन मुहूर्त शोधन के बिना कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि किए जा सकते हैं। देवशयन एकादशी के बाद चार माह कोई विवाहादि नहीं होते हैं और हरि प्रबोधिनी एकादशी से पहले चार माह कोई विवाह नहीं हुए होते हैं और ये दोनों दिन अतिशुभ श्रेणी में माने जाते हैं। अतः इन दोनों दिनों में अनेक शादियां होती हैं। अतः इन दोनों दिवसों की बड़े विवाह मुहूर्तों में गणना की जाती है। हो भी क्यों न आखिर भगवान श्री विष्णु के विशेष कार्य के दिन जो हैं। चतुर्मास के शुभाशुभ फल जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चतुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है। जो चतुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चतुर्मास में तीन रात उपवास करके चैथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चैमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चतुर्मास में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरूषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चैमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बड़ा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होता है। चतुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए। 

दिशाओं से जीवन में समृद्धि

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान।। प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पùपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य नः।। ”तुभ पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।“ महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ”तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।“ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ”जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहीं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।“ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ”यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। ... वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्....।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहीं दी ? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश ळें। योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ”वैष्णव जन को“ तथा ”रघुपति राघव राजा राम“ गाते थे। चंबल े डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है? यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अतः वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।


ग्रह योगों में अभीष्ट और अनिष्ट स्थितियां

ग्रह पीड़ा निवारण हेतु - ग्रह योगों में अभीष्ट और अनिष्ट स्थितियां इस शक्ति के अनुकूल एवं प्रतिकूल कारणों से ही बनती है, अतः आद्याशक्ति की उपासना ग्रहों के अनिष्ट परिणामों से रक्षा कर सकती है। सभी लोगों तथा विशेषकर ज्योतिष फलादेश देने वालों को तो शक्ति उपासना बहुत शक्ति प्रदान करती है। आद्या शक्ति की उपासना महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, नवदुर्गा, दशविद्या, गायत्री आदि अनेक रूपों में की जाती है। नवरात्रि के समय शक्ति उपासना का महत्व सभी भारतीय पौराणिक ग्रंथों में बतलाया गया है। जन्म से मृत्युपर्यन्त की स्थिति का अवलोकन करें तो शिव संहार का कार्य करते हैं तथा शक्ति की प्रधानता सृष्टि कार्य के लिए स्वीकारी गई है। वह ऊर्जा जो गति में निरंतरता बनाए रखती है शक्ति कहलाती है तथा यह व्यक्तिगत तथा लौकिक सामर्थ्य तक विद्यमान रहती है। ज्योतिष शास्त्र का आधार ग्रह, नक्षत्र, राशियां तथा अनंत ब्रह्मांड है। ब्रह्मांड में मौजूद पिंड, पृथ्वी के जीवन पिंडों को अपनी ऊर्जा अर्थात् शक्ति प्रदान कर गतिशील बनाए रखते हैं। इन ग्रह पिंडों की शक्ति मानव पिंडों को प्रभावित करती है। मानव पिंडों को जो शक्ति ग्रह पिंडों से मिलती है, आदिकाल से उसी को आद्याशक्ति के नाम से जाना जाता है। शक्ति के बिना प्राणी शव के समान होता है। आराधना करने वाले आराधकों ने गुण-कार्य-भेद के कारण उसे महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती कहा है जबकि शक्ति एक ही है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये समान धर्म रूप हैं। दुर्गा सप्तशती में लिखा है। या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ प्रत्येक मनुष्य में दो तरह की शक्तियां, शारीरिक एवं मानसिक रूप से मौजूद रहती हैं, इन्हें धन, ऋण, शिव-शक्ति, नर-मादा के नाम से जाना जाता है। बारह राशियों, नवग्रहों तथा 28 नक्षत्रों में ये योगात्मिका तथा क्षयात्मिका शक्तियां मौजूद रहती हैं और यही सृष्टि को निरंतरता देती हुई हमें प्रगति या अवनति का अहसास कराती है। ज्योतिषीय फलादेश चाहे ग्रह नक्षत्रों (जन्म पत्रिका) को देखकर दिया जाए अथवा अंक शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र को आधार मानकर। दोनों में ही निर्माणात्मक तथा संहारात्मक शक्तियों का आधार होता है। ये ही शिव-शक्ति स्वरूप माने जाते हैं। जन्मकुंडली में लग्न से सप्तम भाव तक शक्ति खंड है तथा सप्तम से लग्न तक शिव खंड है। स्त्री ग्रह पुरुष भाग में तथा पुरुष ग्रह स्त्री भाव में मौजूद होने पर शक्ति संपन्न देखे गये है। ग्रह योगों में अभीष्ट और अनिष्ट स्थितियां इस शक्ति के अनुकूल एवं प्रतिकूल कारणों से ही बनती है, अतः आद्याशक्ति की उपासना ग्रहों के अनिष्ट परिणामों से रक्षा कर सकती है। सभी लोगों तथा विशेषकर ज्योतिष फलादेश देने वालों को तो शक्ति उपासना बहुत शक्ति प्रदान करती है। शक्ति को भारतीय पुराणों, शास्त्रों में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, काली, चामुण्डा शैलपुत्री दुर्गा आदि अनेक नामों से जाना जाता है, परंतु वास्तव में यह सब एक ही है जो अपने विभिन्न स्वरूपों को आवश्यकतानुसार धारण करती हैं। हम उपासना, पूजा किसी चित्र या प्रतिमा को प्रतीक मानकर करते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि वह शक्ति हम में ही मौजूद होती है। विश्व में हमें जो दिखाई देता है, हम उसी का अस्तित्व स्वीकार करते हैं जबकि विश्व में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसमें कोई न कोई शक्ति न हो। वस्तुओं का अनुभव इंद्रियों से होता है, जबकि शक्ति का अनुभव इंद्रियों से नहीं हो सकता जैसे आग हमें आंखों से दिखाई देती है, परंतु उस आग में जलाने की शक्ति है यह अनुभव वस्तु के जलने पर ही पता चलता है। भविष्यवक्ताओं को फलादेश के लिए एक विशेष पराशक्ति की आवश्यकता होती है और वह पराशक्ति, गुरु कृपा, मातृकृपा, साधना से ही प्राप्त होती है। शक्ति उपासना के बिना इनमें सफलता कूूष्मांडा स्कंदमाता कात्यायनी मिलना संदिग्ध होता है। भविष्य बतलाने में तीन काल समाहित होते हैं, भूत, वर्तमान एवं भविष्य। इनको भली-भांति जानने के लिए ज्योतिषी के पास तीन शक्तियां अवश्य होनी चाहिए। इन तीन शक्तियों की साधना की जाए तो भूत, वर्तमान, भविष्य ज्योतिषी को प्रत्यक्ष दिखाई देगा। लेकिन यदि एक ही साधना सफल होती है तो एक भाग ही प्रत्यक्ष दिखाई देगा। आपने कई बार देखा होगा कि कोई भविष्य वक्ता, भूतकाल की सभी घटनाओं को बता देता है तो कोई वर्तमान को ही सटीकता से बता पाता है और यदि कोई भविष्य अच्छा बता पा रहा है तो उसकी भूत-वर्तमान काल के फलादेश पर पकड़ कमजोर हो जाती है, अतः सफल ज्योतिषी को आद्या, मध्या तथा पराशक्ति की साधना से ही चमत्कार संभव है अतः शारदीय नवरात्र में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती स्वरूप त्रिशक्तियों की आराधना कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए। विश्व में दो सप्तशती प्रसिद्ध है (1) गीता-मोक्षदायनी (2) दुर्गा सप्तशती-धर्म, अर्थ, काम प्रदाता। दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से तथा ब्रह्मचर्य पालन से किसी भी प्रकार की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। हम यहां स्पष्ट कर दें कि रावण को पराजित करने की इच्छा से भगवान राम ने नवरात्र काल में शक्ति का संचय कर विजयादशमी के दिन रावण का वध किया। महाभारत काल में युद्ध से पूर्व भगवान भी कृष्ण कालरात्रि सिद्धिदात्रि ने अर्जुन को पीताम्बरा शक्ति की उपासना की प्रेरणा दी थी। शारदीय नवरात्र प्रायः कन्या-तुला की संक्रांति पर आती है। नवग्रह में कोई भी ग्रह अनिष्ट फल देने जा रहा हो तो शक्ति उपासना एक विशेष फल प्रदान करती है। शक्ति उपासना में स्थापना मुहूर्त से करनी चाहिए ताकि उपासना में कोई विघ्न न आए। सूर्य कमजोर हो तो स्वास्थ्य के लिए शैलपुत्री की उपासना से लाभ मिलेगा। चंद्रमा के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए कूष्माण्डा देवी की विधि विधान से नवरात्रि में साधना करें। मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव से बचने के लिए स्कंद माता, बुध ग्रह की शांति तथा अर्थव्यस्था के उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए कात्यायनी देवी, गुरु ग्रह की अनुकूलता के लिए महागौरी, शुक्र के शुभत्व के लिए सिद्धिदात्री तथा शनि के दुष्प्रभाव को दूर कर, शुभता पाने लिए कालरात्रि की उपासना सार्थक रहती है। राहु की महादशा या नीचस्थ राहु (वर्तमान गोचर में राहु नीच राशि का धनु राशि में भ्रमण कर रहा है।) होने पर ब्रह्मचारिणी की उपासना से शक्ति मिलती है। केतु के विपरीत प्रभाव को दूर करने के लिए चंद्रघंटा की साधना अनुकूलता देती है। इस काल (शारदीय नवरात्रि) में सत्य मन से किये गये कार्य एवं विचार शुभ फल प्रदान करते हैं। नव दुर्गा के अतिरिक्त दश महाविद्याओं की उपासना ग्रहों की शुभता की अभिवृद्धि के उद्देश्य से भी की जाती है।

Saturday 27 February 2016

बुधवार का व्रत साधना और नियम

बुधवार व्रत: व्रत बुध ग्रह को प्रसन्न करने वाला महत्वपूर्ण व्रत है। इस व्रत का पालन किसी भी बुधवार से किया जा सकता है। यह व्रत व्यापारियों को व्यापार में वृद्धि व लाभ प्रदाता, विद्यार्थियों को ज्ञान, बुद्धि व वाक्द्गाक्ति देने वाला, ग्रहस्थी महिलाओं को गृह कार्य में दक्षता प्रदान करने वाला, सेवाकार्य में स्थित देवियों को कार्य कुद्गालता का प्रतीक, वृद्धों को मनः स्थिति में संयम को देने वाला एवं जगत् के मानरूप में जन्मे प्रत्येक जीव को विवेक से संपन्न बनाने वाला है। मनुष्य के पास सबकुछ है, परंतु बुध की कृपा दृष्टि नहीं है, तो समझिए कुछ भी नहीं है। जीवन में बुध के द्वारा प्राप्त विवेक के द्वारा अंधा व्यक्ति मार्ग चलने में समर्थ, धनाढ्य व्यक्ति धन का सही प्रयोग करने में चतुर और बड़े-बड़े संकटों से भी पार जाने का मार्ग हर व्यक्ति को बुध की कृपा से ही प्राप्त होता है। भगवान् नारायण ने स्वयं ही जीवन मात्र पर कृपा करने के लिए नवग्रहों के स्वरूप बुध देवता को ''बुध'' अवतार के रूप में प्रकट होकर सर्वशक्तिमान स्वरूप प्रदान किया है। बुध की कृपा जिसे प्राप्त हो जाए, वह ऊंचाईयों की ओर निरंतर बढ़ता चला जाता है और जिस पर बुध क्रोधित हो जाए वह निश्चय ही पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। बुध की कृपा से विवेक (ज्ञान) जाग्रत होता है तथा विवेक के आने पर वाणी व कार्य की कुशलता समृद्ध होती है और यही कुशलता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लाभकारी व उन्नति प्रदायक बनकर मानव का कल्याण करती है। उसके जीवन में बुध की प्रसन्नता के कारण ही असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योमाऽमृतं गमय का श्री गणेश होकर पूर्णत्व आता है। अभाव, दैन्यता, रिक्तता, अपूर्णता का नष्ट होना व भाव व पूर्णता को प्राप्त कराना यह बुध की सेवा से ही संभव है। संपूर्ण शरीर क्रिया शक्ति से युक्त हो परंतु मस्तक ज्ञान शून्य हो तो सारे कार्य निष्फल हो जाते हैं इसके विपरीत मस्तक ज्ञान (चेतना) से युक्त हो व शरीर क्रिया शक्ति शून्य हो तो भी मानव बैठे-बैठे दिमाग की चेतना से कठिन से कठिन कार्यों को भी सिद्ध कर लेता है एवं केवल मात्र दिशा निर्देश के द्वारा ही प्रगति पथ पर अग्रसर होता हुआ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी पुरुषार्थों को भी सहज में प्राप्त कर जीवन को कृतार्थ कर लेता है। बुध ही ज्योतिष, गणित (हिसाब), नाच, वैद्य (डाक्टरी) हास्य (हंसी मजाक), लक्ष्मी, शिल्पकला, विद्या, बौद्धिक कार्य (लेखन, अध्यापक, कवित्व, चित्रकला आदि), संगीत, संपादक, वकील, पत्रकार, संवाददाता, न्याय संबंधी कार्य, औषधि, व्यावसायिक विभाग, सुगंधित द्रव्य, वस्त्र, दाल, अन्न, पक्षी, पन्ना, भूमि, नाटक, विज्ञान, धातु क्रिया (रसायनज्ञ), पूण्यव्रत (पुरोहित, पादरी), दूत, माया (ठग), असत्य कार्य, सेतु (पुल) जलमार्ग (जहाज नौकादि), जल संबंधी कार्य, यंत्र कार्य, प्रसाधन कर्ता (नाई, ब्यूटीसैलून स्वामी), जादूगर, रक्षाधिकारी, नट, घी, तेल, परिवहन, द्रव्य, खच्चर आदि का कारक ग्रह है। ज्योतिष में बुध चतुर्थ भाव व दशम भाव का कारक है। जूआ खेलना, युद्ध करना, कन्या के विवाहादि का निश्चय करना, शत्रु एवं रुठे हुए मित्रों से संधि करना आदि ऐसे अनेक कार्य बुधवार को शुभ होते हैं। बुध ग्रह बलवान होगा तो निश्चय ही उस व्यक्ति का पथ (मार्ग) सुख से युक्त व आनंद प्रदान करने वाला होगा। बुध को बलवान बनाने के लिए बुध मंत्र के जप, यज्ञ, कवच, बुध पंचविंशति नाम स्तोत्र का पाठ व बुध की वस्तुओं का दान तथा पन्नादि रत्नों का धारण करना लाभकारी रहेगा। बुध ग्रह की शांति व बल प्रदान करने के लिए मां दुर्गा की उपासना, मॉ सरस्वती की आराधना, गणेश पूजन, हनुमत उपासना, विष्णु पूजन एवं भगवान् श्रीकृष्ण का अभिषेक भी अद्भुत सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। लौकिक परंपरा में तो बुध के दिन बहिन की विदाई भी नहीं करनी चाहिए। जब भी बुधवार का व्रत प्रारंभ करना हो तो दैनिक कर्मों से निवृत्त होकर संकल्प के सहित बुध ग्रह व बुध भगवान् का गणेश गौरी नवग्रहादि ग्रहों सहित पूजन करना मंगलकारी है। इस संबंध में निम्न कथाओं का व विष्णु पुराण तथा श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ भी अवश्य ही करना चाहिए। सत्य भाषण व मौन रहें। आवश्यकता के समय ही समयानुकूल वार्तालाप करें तो हितकर होगा। षोऽशोपचार पूजन करें व बुध की या क्क जय जगदीश हरे की आरती करें। बुध का व्रत व उपासना-बुध की अशुभ दशाओं, अंतर्दशाओं, प्रत्यंतर दशाओं एवं बुध के वक्री, नीच, अस्त व मृतादि अवस्थाओं में भी अधिक लाभकारी है। बुध को मनाने वला बुद्धिमान बनता है व विजय श्री उसके कदम चूमती रहती है। बुध के व्रत में एक बार ही हरी वस्तुओं से निर्मित मीठा भोजन क रना चाहिए। हरे वस्त्र धारण करें व हरी वस्तुओं का दान भी यथायोग्य अवश्य करें। बुध जन्म की कथा : बुध एक सौम्य ग्रह है। सूर्य, चंद्र, मंगल एवं अन्य ग्रहों की भांति बुध के विषयों में भी अनेक पौराणिक आखयान प्राप्त होते हैं। बुध की उत्पत्ति के संबंध में एक रोचक कथा प्राप्त होती है। कहा जाता है कि अत्रि पुत्र चंद्रमा देव गुरु बृहस्पति का शिष्य था। विद्या अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् जब उसने गुरु को दक्षिणा देनी चाहिए तो उन्होंने उससे कहा कि वह उस दक्षिणा को उनकी पत्नी तारा को दे आए। चंद्रमा जब गुरु पत्नी को अपनी दक्षिणा देने गया तो उसके रूप में आसक्त हो गया और उसे साथ ले जाने का हठ करने लगा। गुरु पत्नी ने उसे बहुत समझाया पर वह न माना। जब बृहस्पति को यह बात मालूम हुई तो उसे शिष्य जान उन्होंने बहुत समझाया पर चंद्रमा ने फिर भी दुराग्रह न छोड़ा। अंततः वह युद्ध के लिए तत्पर हुआ। बृहस्पति ने भी शस्त्र संभाले लेकिन युद्ध में वह अपने शिष्य चंद्रमा से परास्त हो गये। अब देवताओं ने चंद्रमा को समझाया लेकिन वह अपने हठ पर अड़ा रहा। जब शिवजी को चंद्रमा का यह अनाचार पता चला तो वे क्रोधित हो उठे और चंद्रमा को दंड देने चल पड़े। चंद्रमा फिर भी नहीं माना। उसने नक्षत्रों, दैत्यों, असुरों के साथ-साथ शनैश्चर और मंगल के सहयोग से शिव से युद्ध करने का निर्णय किया। अब घोर युद्ध शुरु हो गया। तीनों लोक भयभीत हो उठे। अंततः ब्रह्मा ने हस्तक्षेप का निर्णय किया। इस बार चंद्रमा झुक गया और उसने गुरु पत्नी तारा को लौटा दिया। एक वर्ष बाद तारा ने एक कांतिवान पुत्र को जन्म दिया। उसका पिता चंद्रमा ही था। चंद्रमा ने उस पुत्र को ग्रहण कर लिया और उसका नाम बुध रखा। बुध के विषय में और भी अनेक आखयान प्राप्त होते है। विदेशी पौराणिक आखयानों में भी बुध के संबंध में अनेक कथाएं प्राप्त होती हैं। यूरोपीय जन इसे 'मरकरी' के नाम से जानते हैं। बुधवार व्रत कथा : एक समय एक व्यक्ति अपनी पत्नी को विदा करवाने के लिए अपनी ससुराल गया। वहां पर कुछ दिन रहने के पश्चात् सास-ससुर से विदा करने के लिए कहा। किंतु सब ने कहा कि आज बुधवार का दिन है आज के दिन गमन नहीं करते हैं। वह व्यक्ति किसी प्रकार न माना और हठधर्मी करके बुधवार के दिन ही पत्नी को विदा कराकर अपने नगर को चल पड़ा। राह में उसकी पत्नी को प्यास लगी तो उसने अपने पति से कहा कि मुझे बहुत जोर से प्यास लगी हो तब वह व्यक्ति लोटा लेकर रथ से उतरकर जल लेने चला गया। जैसे ही वह व्यक्ति पानी लेकर अपनी पत्नी के निकट आया तो वह यह देखकर आश्चर्य से चकित रह गया कि ठीक अपनी ही जैसी सूरत तथा वैसी ही वेश-भूषा में एक व्यक्ति उसकी पत्नी के साथ रथ में बैठा हुआ है। उसने क्रोध से कहा कि तू कौन है जो मेरी पत्नी के निकट बैठा हुआ है। दूसरा व्यक्ति बोला यह मेरी पत्नी है। मैं अभी-अभी ससुराल से विदा कराकर ला रहा हूं। वे दोनों व्यक्ति परस्पर झगड़ने लगे। तभी राज्य के सिपाही आकर लौटे वाले व्यक्ति को पकड़ने लगे। स्त्री से पूछा, तुम्हारा असली पति कौन-सा है? तब पत्नी शांत ही रही, क्योंकि दोनों एक जैसे थे, वह किसे अपना असली पति कहे। वह व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ बोला-हे परमेश्वर, यह क्या लीला है कि सच्चा झूठा बन रहा है। तभी आकाशवाणी हुई कि मूर्ख आज बुधवार के दिन तुझे गमन नहीं करना था। तूने किसी की बात नहीं मानी। यह सब लीला बुधदेव भगवान् की है। उस व्यक्ति ने बुधदेव से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। तब बुधदेव जी प्रसन्न हो आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। वह अपनी स्त्री को लेकर घर आया तथा बुधवार का व्रत वे दोनों पति-पत्नी नियमपूर्वक करने लगे। जो व्यक्ति इस कथा को श्रवण करता तथा सुनता है उसको बुधवार के दिन यात्रा करने का कोई दोष नहीं लगता, उसको सर्व प्रकार से सुखों की प्राप्ति होती है। दान की वस्तुएं : स्वर्ण, कान्स्य, स्टेशनरी का सामान, हरे वस्त्र, हरी सब्जियां, मूंग, तोता, घी, हरे रंग का पत्थर, पन्ना, केला व हरी वस्तुएं। बुध मंत्र : ¬ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः। ¬ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जाग्रहि। त्वमिष्टापूर्ते सूं सृजेथामय च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युन्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चय सदित। चंद्र पुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्। सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्। ¬ बुधाय नमः। ¬ नमो नारायणाम। ¬ चंद्र पुत्राय नमः। ¬ विश्व रूपाय नमः।

मौन व्रत का महत्व

मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है। सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है। व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद (सत्ता) का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सत्ता का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है। अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन मंे ंउतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक संयम बनाए रखना। संयम बनाए रखना ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है। यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।

पंचतत्व का महत्व

ईश्वर यानी भगवान ने अपने अंश में से पांच तत्व-भूमि, गगन, वायु, अग्नि और जल का समावेश कर मानव देह की रचना की और उसे सम्पूर्ण योग्यताएं और शक्तियां देकर इस संसार में जीवन बिताने के लिये भेजा है। मनुष्य, ईश्वर की अनुपम कृति है, इसलिए उसमें ईश्वरीय गुण आनन्द व शांति आदि तो होने ही चाहिये जिससे वह ईश्वर (भगवान) को हमेशा याद रखे। मनुष्य को यदि इन पंचतत्वों के बारे में समझाया जाता तो शायद उसे समझने में अधिक समय लगता, इसलिये हमारे मनीषियों ने इन पंचतत्वों को सदा याद रखने के लिये एक आसान तरीका निकाला और कहा कि यदि मनुष्य ईश्वर अथवा भगवान को सदा याद रखे तो इन पांच तत्वों का ध्यान भी बना रहेगा। उन्होंने पंचतत्वों को किसी को भगवान के रूप में तो किसी को अलइलअह अर्थात अल्लाह के रूप में याद रखने की शिक्षा दी। उनके द्वारा भगवान में आये इन अक्षरों का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है- भगवान: भ-भूमि यानी पृथ्वी, ग- गगन यानि आकाश, व- वायु यानी हवा, अ- अग्नि अर्थात् आग और न- नीर यानी जल। इसी प्रकार अलइलअह (अल्लाह) अक्षरों का विश्लेषण इस प्रकार किया गया है: अ- आब यानी पानी, ल- लाब यानी भूमि, इ- इला- दिव्य पदार्थ अर्थात् वायु, अ- आसमान यानी गगन और ह- हरक- यानी अग्नि। इन पांच तत्वों के संचालन व समन्वय से हमारे शरीर में स्थित चेतना (प्राणशक्ति) बिजली- सी होती है। इससे उत्पन्न विद्युत मस्तिष्क में प्रवाहित होकर मस्तिष्क के 2.4 से 3.3 अरब कोषों को सक्रिय और नियमित करती है। ये कोष अति सूक्ष्म रोम के सदृश एवं कंघे के दांतों की तरह पंक्ति में जमे हुए होते हैं। मस्तिष्क के कोष पांच प्रकार के होते हैं और पंच महाभूतों (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश) का प्रतिनिधित्व करते हैं। मूलरूप से ये सब मूल तत्व हमारे शरीर में बराबर मात्रा में रहने चाहिये। जब इनमें थोड़ी-सी भी गड़बड़ी होती है या किसी एक तत्व में त्रुटि आ जाने या वृद्धि हो जाने से दूसरे तत्वों में गड़बड़ी आती है तो शरीर में रोग उत्पन्न हो जाते हैं। इन पंच महाभूतों का हमारे मनीषियों ने इस प्रकार विश्लेषण किया है- पृथ्वी तत्व यह तत्व असीम सहनशीलता का द्योतक है और इससे मनुष्य धन-धान्य से परिपूर्ण होता है। इसके त्रुटिपूर्ण होने से लोग स्वार्थी हो जाते हैं। जल तत्व यह तत्व शीतलता प्रदान करता है। इसमें विकार आने से सौम्यता कम हो जाती है। अग्नि तत्व यह तत्व विचारशक्ति में सहायक बनता है और मस्तिष्क की भेद अंतर परखने वाली शक्ति को सरल बनाता है। यदि इसमें त्रुटि आ जाय तो हमारी सोचने की शक्ति का ह्रास होने लगता है। वायु तत्व यह तत्व मानसिक शक्ति तथा स्मरण शक्ति की क्षमता व नजाकत को पोषण प्रदान करता है। अगर इसमें विकार आने लगे तो स्मरण शक्ति कम होने लगती है। आकाश तत्व यह तत्व शरीर में आवश्यक संतुलन बनाये रखता है। इसमें विकार आने से हम शारीरिक संतुलन खोने लगते हैं। चरक संहिता के अनुसार पंचतत्वों के समायोजन से स्वाद भी बनते हैं: मीठा- पृथ्वी  जल; खारा - पृथ्वी,अग्नि; खट्टा- जल अग्नि, तीखा- वायु अग्नि; कसैला - वायु जल; कड़वा- वायु आकाश।

पुरषोत्तम मास या अधिमास में व्रत

 इसे 'अधिमास' और 'मलमास' भी कहते हैं। मलमास की दृष्टि से शुभ कर्मों के वर्जित होने के कारण यह मास निंदित है। परंतु पुरुषोत्तमेति मासस्य नामाप्यस्ति सहेतुकम्। तस्य स्वामी कृपासिन्धुः पुरुषोत्तम उच्यते॥ अहमेवास्य संजातः स्वामी च मधुसूदनः। एतन्नाम्ना जगत्सर्वं पवित्रं च भविष्यति॥ मत्सादृश्यमुपागम्य मासानामधिपो भवेत्। जगत्पूज्यो जगद्वन्द्यो मासोऽयं तु भविष्यति॥ पूजकानां च सर्वेषां दुःखदारिद्र्यखण्डनः॥ भगवान् पुरुषोत्तम इसको अपना नाम देकर इसके स्वामी बन गए हैं। अतः इसकी महिमा बहुत बढ़ गई है। इस पुरुषोत्तम मास में साधना करने से कोई व्यक्ति पापमुक्त होकर भगवान को प्राप्त हो सकता है। यह मास अन्य सभी मासों का अधिपति है। यह जगत्पूज्य और जगद्वन्द्य है तथा इसमें पूजा करने पर यह लोगों के दुःख दारिद्र्य और पाप का नाश करता है। पुराणों की उक्तियां हैं- येनाहमर्चितो भक्त्या मासेऽस्मिन् पुरुषोत्तमे। धनपुत्रसुखं लब्ध्वा पश्चाद् गोलोकवासभाक्॥ अर्थात इस मास में पुरुषोत्तम भगवान की निष्ठा एवं विधिपूर्वक पूजा करने से भगवान अत्यंत प्रसन्न होते हैं और साधक इस लोक में सब प्रकार के धन-पुत्रादि के सुखों का भोग कर मृत्यु के बाद वैकुंठ जाता है। अतः सभी घरों में, मंदिरों में, तीर्थों में और पवित्र स्थलों में इस मास भगवान की विशेष रूप से महापूजा होनी चाहिए। साथ ही धर्म की रक्षा के लिए व्रत-नियमों का आचरण करते हुए दान, पुण्य, पूजन, कथा, कीर्तन और जागरण करना चाहिए। इससे गौ, ब्राह्मण, साधु-संत, धर्म, देश और विश्व का मंगल होगा। क्योंकि कहा गया है- मंगलं मंगलार्चनं सर्वमंगलमंगलम्। परमानन्दराज्यं च सत्यमक्षरमव्ययम्॥ जो मंगलरूप हैं, जिनका पूजन मंगलमय है, जो सभी मंगलों का मंगल करने वाले हैं तथा जो परमानंद के राजा हैं, ऐसे सत्य, अक्षर और अव्यय पुरुषोत्तम भगवान वासुदेव का ध्यान करना चाहिए। '¬नमो भगवते वासुदेवाय।' मंत्र का नियमित रूप से जप करना चाहिए। इस मास में श्री विष्णु सहस्रनाम, पुरुष सूक्त, श्री सूक्त, हरिवंश पुराण एवं एकादशी माहात्म्य कथाओं के श्रवण से भी सभी मनोरथ पूरे होते हैं। घट-स्थापन करना चाहिए और घी का अखंड दीप भी रखना चाहिए। श्री शालिग्राम भगवान की मूर्ति स्थापित करके उसकी पूजा स्वयं करनी चाहिए या किसी योग्य ब्राह्मण द्वारा करानी चाहिए। श्रीमद्भगवद्गीता के 15 वें (पुरुषोत्तम नामक) अध्याय का नित्य प्रेमपूर्वक अर्थ सहित पाठ करना चाहिए। पुरुषोत्तम मास में श्रीमद्भागवत की कथा का पाठ करना-कराना महान पुण्यदायक होता है। यथासंभव सवा लाख तुलसीदल पर चंदन से राम, ¬या कृष्ण नाम लिखकर भगवान शालिग्राम या भगवद्विग्रहमूर्ति पर चढ़ाने चाहिए। इसकी महिमा अपरंपार है। पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम माहात्म्य की कथा सुननी चाहिए। नित्य प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व उठकर स्नानादि नित्य कर्मों से निवृत्त होकर 'गोवर्धनधरं वन्दे गोपालं गोपरूपिणम्। गोकुलोत्सवमीशानं गोविन्दं गोपिकाप्रियम्॥' मंत्र का जप करते हुए पुरुषोत्तम भगवान की विधिपूर्वक षोडशोपचार से पूजा करनी चाहिए। पूजा करते समय और कथा श्रवण-पठन करते समय नीलवसना परम द्युतिमती भगवती श्रीराधाजी के सहित नव-नील-नीरद-श्याम-घन, पीत वस्त्रधारी द्विभुज मुरलीधर पुरुषोत्तम भगवान का ध्यान करते रहना चाहिए। पुरुषोत्तम माहात्म्य में श्री कौण्डिन्य ऋषि कहते हैं। ध्यायेन्नवघनश्यामं द्विभुजं मुरलीधरम्। लसत्पीतपटं रम्यं सराधं पुरुषोत्तमम्॥ पुरुषोत्तम व्रत करने वाले को क्या भोजन करना चाहिए और क्या नहीं, क्या वर्ज्य है और क्या अवर्ज्य इसके संबंध में श्रीवाल्मीकि ऋषि ने कहा है- पुरुषोत्तम मास में एक समय हविष्यान्न भोजन करना चाहिए। भोजन में गेहूं, चावल, सफेद धान, जौ, मूंग, तिल, बथुआ, मटर, चौलाई, ककड़ी, केला, आंवला, दही, दूध, घी, आम, हर्रे, पीपल, जीरा, सोंठ, सेंधा नमक, इमली, पान-सुपारी, कटहल, शहतूत, सामक, मेथी आदि का सेवन करना चाहिए। केवल सावां या केवल जौ पर रहना अधिक हितकर है। माखन-मिस्री पथ्य है। गुड़ नहीं खाना चाहिए, लेकिन ऊख का या ऊख के रस का सेवन करना चाहिए। मांस, शहद, चावल का मांड़, उड़द, राई, मसूर की दाल, बकरी, भैंस और भेड़ का दूध ये सब त्याज्य कहा हैं। काशीफल (कुम्हड़ा), मूली, प्याज, लहसुन, गाजर, बैगन, नालिका आदि का सेवन वर्जित है। तिलका तेल, दूषित अन्न, बासी अन्न आदि भी ग्रहण न करें। अभक्ष्य और नशे की चीजों का सेवन नहीं करना चाहिए। फलाहार पर रहें और संभव हो तो कृच्छ-चांद्रायण व्रत करें। इस मास ब्रह्मचर्य का पालन और पृथ्वी पर शयन करना करें। थाली में भोजन न करें, बल्कि पलाश के बने पत्तल पर भोजन करें। रजस्वला स्त्री और धर्मभ्रष्ट तथा संस्कार रहित लोगों से दूर रहें। परस्त्री का भूलकर भी स्पर्श नहीं करें। इस मास वैष्णव की सेवा करनी चाहिए। वैष्णवों को भोजन कराना बहुत पुण्यप्रद होता है। पुरुषोत्तम मास के व्रती को शिव या अन्य देवी-देवता, ब्राह्मण, वेद, गुरु, गौ, साधु-संन्यासी, स्त्री, धर्म और प्राज्ञगणों की निंदा भूलकर भी न तो करनी और न ही सुननी चाहिए। तांबे के पात्र में दूध, चमड़े के पात्र में पानी तथा केवल अपने लिए पकाया हुआ अन्न ये सब दूषित माने गए हैं। अतएव इनका परित्याग करना चाहिए। दिन में सोना नहीं चाहिए। संभव हो, तो मास के अंत में उद्यापन के लिए एक मंडप की व्यवस्था कर योग्य पंडित द्वारा भगवान की षोडशोपचार पूजा कराकर चार-पांच वेदविद् ब्राह्मणों द्वारा चतुर्व्यूह का जप कराना चाहिए। फिर दशांश हवन कराकर नारियल का होम करना चाहिए। गौओं को घास तथा दाना देना चाहिए। ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। वैष्णवों को यथाशक्ति वसु-सोना, चांदी आदि एवं गाय, घी, अन्न, वस्त्र, पात्र, जूता, छाता आदि और गीता-भागवत आदि पुस्तकों का दान करना चाहिए। कांसे के बर्तन में तीस पूए रखकर संपुट करके ब्राह्मण-वैष्णव को दान करने वाला अक्षय पुण्य का भागी होता है। पुरुषोत्तम मास में भक्ति पूर्वक अध्यात्म विद्या का श्रवण करने से ब्रह्म हत्यादि जनित पाप नष्ट होते हैं। पितृगण मोक्ष को प्राप्त होते हैं तथा दिन-प्रतिदिन अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस विद्या निष्काम भाव से श्रवण किया जाए, तो व्यक्ति पापमुक्त हो जाता है। ततश्चाध्यात्मविद्यायाः कुर्वीत श्रवणं सुधीः। सर्वथा वित्तहीनोऽपि मुहूर्तं स्वस्थमानसः॥ आजीविका न हो तो भी बुद्धिमान मनुष्य को दो घड़ी शांत मन से गुरु से अध्यात्म विद्या का श्रवण करना और पुरुषोत्तम तत्व को समझना चाहिए, क्योंकि गीता में कहा गया है- उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्येत्युदाहृतः। यो लोकत्रययाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः॥ (15/17) 'क्षर और अक्षर-इन दोनों से उत्तम पुरुष तो अन्य ही है, जो तीनों लोकों में प्रवेश करके अपरा-परा प्रकृति और पुरुष सब का धारण-पोषण करता है। वह अविनाशी परमेश्वर और परमात्मा है।' गतिर्भर्ता प्रभुः साक्षी निवासः शरणं सुहृत्। प्रभवः प्रलयः स्थानं निधानं बीजमव्ययम्॥ (9/18) वही पुरुषोत्तम सब की एकमात्र गति-मुक्तिस्थान हैं। जो सब के साक्षी, आश्रय, शरण्य तथा सुहृद हैं, वह भगवान सब की उत्पत्ति, लय, आधार और निधानस्वरूप हैं। सब चराचर के बीज-कारण, अविनाशी, माता, धाता, पिता और पितामह हैं और वही पुरुषोत्तम कहलाते हैं। उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः। परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः॥ (13/22) वास्तव में वही पुरुषोत्तम देह में स्थित हुए भी परे हैं; साक्षी, उपद्रष्टा, अनुमन्ता, भर्ता और भोक्ता हैं। ब्रह्मादिकों के भी स्वामी महान ईश्वर हैं; वही सत्-चित्-आनंदघन, विशुद्ध परमात्मा, पुरुषोत्तम भगवान कहलाते हैं। भगवान पुरुषोत्तम की वाणी है यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥ (15/18) क्योंकि मैं नाशवान जडवर्ग क्षेत्र प्रकृति से सर्वथा अतीत हूं और माया में स्थित अविनाशी जीवात्मा से भी उत्तम हूं, इसलिए लोक में और वेद में भी पुरुषोत्तम नाम से प्रसिद्ध हूं। पुरुषोत्तम मास में पुरुषोत्तम को जानने की श्रद्धा रखते हुए जो पयत्नपूर्वक व्रत करना है, वास्तव में वही सच्चा भजन, भाव, भक्ति और मुमुक्षुता है। जो पुरुषोत्तम के अति गोपनीय रहस्य को तत्व से जान गया, वह ज्ञानवान और कृतार्थ हो गया। अतः पुरुषोत्तम तत्व को समझना और उसका भजन करना चाहिए। श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान का नाम, जप, कीर्तन, सत्संग, यज्ञ, हवन, दान-पुण्य, दीन-सेवा, तीर्थयात्रा, आर्त-सेवा, गो-रक्षा, कथा-श्रवण, पाठ-पूजा आदि नियमों का आचरण-पालन करना भजन है। इस कालावधि में विवाह, मुंडन, गृहारंभ, नवीन गृहप्रवेश यज्ञोपवीत, काम्य व्रतानुष्ठान, नवीन आभूषण बनवाना, नया वाहन खरीदना आदि वर्जित हैं।

दुर्गा सप्तशती का पाठ

दुर्गासप्तशती का पाठ दो प्रकार से होता है- एक साधारण व दूसरा सम्पुट। सप्तशती में कुल सात सौ मंत्र हैं। प्रत्येक मंत्र के आरंभ और अंत में इच्छित फल प्राप्ति के उद्देश्य से विशेष मंत्र का उच्चारण किया जाता है। इस प्रकार से सप्तशती के सात सौ मंत्र सम्पुटित करके जपे जाते हैं। ऐसे पाठ को सम्पुट पाठ कहते हैं जिसे काम्य प्रयोगों में विशेष प्रभावशाली समझा जाता है। विभिन्न प्रकार के उद्देश्यों की प्राप्ती हेतु संपुट पाठ में विभिन्न मंत्रों का प्रयोग होता है। इस आलेख में प्रस्तुत है सप्तशती के सिद्ध सम्पुट मंत्रों का विवरण। जो लोग पाठ करने में असमर्थ हैं वे इन मंत्रों का स्फटिक माला पर नित्य जप करके वांछित फल प्राप्त कर सकते हैं। मॉं दुर्गा के इन मंत्रों का जप करने से मनोवांछित फलों की प्राप्ति होती है। परंतु नवरात्र में जप करने से शीघ्र ही फल प्राप्त होता है। कार्य विशेष अनुसार निम्न मंत्रों का मां दुर्गा के चित्र के सम्मुख धूप-दीपादि जलाकर व पुष्प-फलादि अर्पित कर, 3 या 5 माला जाप रोजाना स्फटिक की माला पर विधिपूर्वक करने से उचित लाभ लिया जा सकता है :- सर्व मंगल व कल्याण हेतु : सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके। शरण्ये त्रयंबके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥ भावार्थ : हे नारायणी ! आप सब प्रकार का मंगल प्रदान करने वाली मंगलमयी हो। कल्याणकारी शिवा हो। सब पुरुषार्थों को सिद्ध करने वाली, शरणागत वत्सला, तीन नेत्रोंवाली गौरी आपको नमस्कार है। सामूहिक कल्याण हेतु : देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या निश्श्ेषदेवगणशक्ति समूहमूर्त्या । तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां भक्त्या नताः स्म विदधातु शुभानि सा नः ॥ भावार्थ : जिस देवी का स्वरुप ही सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय है तथा जिस देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं व महर्षियों की पूजनीय उस जगदम्बा देवी को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हम लोगों का कल्याण करें। सर्व बाधा मुक्ति हेतु : सर्वाबाधा विनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वितः। मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशयः॥ भावार्थ : मेरे प्रसाद से मनुष्य सब बाधाओं से मुक्त होगा तथा धन धान्य व पुत्र से सम्पन्न होगा - इसमें संदेह नहीं है। बाधा शांति हेतु : सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि। एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥ भावार्थ : हे सर्वेश्वरि ! तुम इसी प्रकार तीनो लोकों की समस्त बाधाओं को शांत करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो। विद्या प्राप्ति हेतु : विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु। त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥ भावार्थ : देवि ! विश्व की संपूर्ण विद्यायें तुम्हारे ही भिन्न भिन्न स्वरुप हैं। जगत में जितनी स्त्रियांॅ हैं वे सब तुम्हारी ही मूर्तियां हैं। जगदंबे ! एक मात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है ? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे हो। आरोग्य व सौभाग्य की प्राप्ति हेतु : देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि में परमं सुखम्। रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥ भावार्थ : मुझे सौभाग्य व आरोग्य दो। परम सुख दो, रुप दो, जय दो, यश दो और काम क्रोध आदि मेरे शत्रुओं का नाश करो। रोग नाश हेतु : रोगान्शेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्। त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रितां ह्माश्रयतां प्रयान्ति॥ भावार्थ : देवी, तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपति तो आती ही नहीं है। तुम्हारी शरण में गये हुये मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं। भय नाश हेतु : सर्वस्वरुपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते। भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ एतते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्। पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते। ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्। त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ भावार्थ : हे सर्वस्वरुपा ! हे सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से संपन्न दिव्यरुपा दुर्गे देवी ! सब प्रकार के भय से हमारी रक्षा करो। तुम्हें नमस्कार है। हे कात्यायनी ! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भय से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। हे भद्रकाली, ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होने वाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करने वाले अपने त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है। विपत्ति नाश हेतु : शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे। सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणी नमोऽस्तु ते॥ भावार्थ : शरण में आये हुये दीनों एवं पीडितों की रक्षा में सलंग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करने वाली हे नारायणी देवी ! तुम्हें नमस्कार हैं। विपत्तिनाश और शुभ प्राप्ति हेतु : करोतु सा नः शुभहेतुरीश्वरी शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापदः। भावार्थ : हे कल्याण की साधनभूता ईश्वरी ! हमारा कल्याण और मंगल करें तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डालें। दारिद्रय-दुख आदि नाश हेतु : दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोः स्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि। दारिद्रयदुखभयहारिणि का त्वदन्या सर्वोपकारकरणाय सदाऽर्द्रचिता॥ भावार्थ : मां दुर्गे ! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हो और स्वस्थ पुरुषों द्वारा चिंतन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हो। हे दुख दरिद्रता और भय हरने वाली देवी ! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित सबका उपकार करने के लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो। शक्ति प्राप्ति हेतु : सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि। गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥ भावार्थ : आप सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार सर्वगुणमयी नारायणी ! तुम्हें नमस्कार है। सर्वविध अभ्युदय हेतु : ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्गः। धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥ भावार्थ : सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली, आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं। उनको धन व यश की प्राप्ति होती है। उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट पुष्ट देह, स्त्री, पुत्र व भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं। सुलक्षणा पत्नि की प्राप्ति हेतु : पत्नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्। तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥ भावार्थ : हे मन की इच्छा के अनुसार चलने वाली देवी ! मनोहर पत्नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारने वाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।

हाथ की रेखाओं से जाने किस देवी देवता की पूजा करें

भारत की सनातन धार्मिक और पूजन परंपरा में देवताओं का मुख्य स्थान है। इनकी संख्या भी हमारे यहां 33 करोड़ बतायी गई है। महादेव शंकर भगवान हों या शक्ति और बल के देवता बजरंग बली हों या फिर मर्यादा पुरुषोम राम हों या नटखट माखन चोर भगवान कृष्ण हों सभी की अपार महिमा का वर्णन हमारे शास्त्रों में किया गया है। पुरुषों की शक्ति और महिमा की अभिव्यक्ति करने वाले इन देवताओं के बाद महिलाओं के शक्ति पुंज की भी व्याख्या हमारे यहां दुर्गा और काली तथा चामुण्डा के रूप में सदियों से होती आई है। देवताओं के लिए ऐसे महत्वपूर्ण नजरिए रखने के बाद भारत की संस्कृति और धर्म ने विश्व में एक गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर लिया है। अनेक देवताओं के इस देश में शक्ति स्वरूप भगवान की पूजा करके समृद्धि और संपन्न बनने की लालसा हर एक के मन में रहती है परंतु देवताओं की ऐसी अनगिनत संख्या के बीच मनुष्य यह समझ नहीं पाता है कि कौन से देवता की प्रकृति और स्वभाव उसके संस्कार से मेल बिठा पाते हैं। सभी देवताओं की बराबर समर्पण और भक्ति के साथ पूजा नहीं की जा सकती है क्योंकि एक व्यक्ति के अंदर एक ही देवता की प्रकृति का वास होता है। जो व्यक्ति सभी देवताओं को प्रसन्न करने की शक्ति रखता होगा उसे इस संसार में पूजा करने की आवश्यकता ही नहीं वह बिना पूजा के ही संसार के सभी लोगों के प्रति प्यार की भावनाएं रखकर मुक्ति का पथ प्राप्त कर लेगा। परंतु हम बात कर रहे हैं एक सामान्य आदमी की जिसे अपने संस्कार से मेल खाते किसी एक देवता या नाम की जरूरत जीवन में पड़ती है जिसके नाम का बार-बार स्मरण करके उसे जीवन संघर्षों से विजय प्राप्त करने का संबल मिलता है। अतः व्यक्ति को अपने अंदर समाहित देवता के स्वभाव को पहचानना जरूरी हो जाता है। अक्सर देखने में आता है कि किसी के लिए महादेव भोले भण्डारी की पूजा काफी लाभदायक होती है तो पता चलता है कि कोई व्यक्ति राम भक्त हनुमान की अपार कृपा प्राप्त कर रहा है। उसी तरह किसी को संतोषी मां तो किसी को शक्ति स्वरूपा दुर्गा की शक्ति प्राप्त होती है। कुछ मनुष्य तो अपने अनुभवजन्य गुणों से अपने देवता की प्रकृति के नजदीक देर सबेर आ जाते हैं परंतु कुछ भटकते रहते हैं। ऐसे भटकने वाले पुरुष अगर किसी योग्य हस्तरेखा शास्त्री के पास जाकर जानकारी प्राप्त करें तो उन्हें इस परेशानी (भटकने) से मुक्ति मिल सकती है। जी हां हाथ की रेखाएं बता सकती हैं कि किस देवी-देवता की पूजा ज्यादा लाभकारी होगी। अमुक हाथ की रेखाओं के माध्यम से ये जाना जा सकता है कि अमुक व्यक्ति के लिए अमुक देवता लाभदायी होगा। हाथ की रेखाओं में कुछ ऐसे संस्कारों की व्याख्या होती है जो आपके अंदर छुपी देवता की प्रकृति को स्पष्ट करती है। तो आइए इस लेख में जानं कि हस्त रेखाओं से देवी देवता किस तरह संबंधित हैं। 1- यदि हाथ में शनि की अंगुली सीधी हो, शनि ग्रह मध्य हो ते ऐसे व्यक्तियों को शनि देव की स्तुति अवश्य करनी चाहिए। नित्य शनि मंत्र का 108 बार जाप करने से मनुष्य के जीवन में सुख शांति व समृद्धि आती है। मंत्र - ऊँ प्रां प्रीं प्रौं सह शनिश्चराय नमः। 2- यदि हृदय रेखा पर त्रिशूल बनता हो, उंगलियां चाहे टेढ़ी-मेढ़ी हों तो इन्हें भगवान शिव की आराधना व उन्हें ही अपना आराध्य मानना चाहिए। इससे जीवन में आने वाले कष्टों से मुक्ति मिलती है। ऊँ नमः शिवाय का जाप हितकारी है। 3- यदि हृदयरेखा के अंत पर एक शाखा गुरु पर्वत पर जाती हो तो इन्हें भक्त प्रवर हनुमान जी का पूजन करना चाहिए जिससे जीवन में आने वाली विपदाएं दूर होती हैं। ऊँ नमो हनुमंता या हनुमान चालीसा का पाठ करने सुख शांति मिलती है। 4- यदि भाग्य रेखा खंडित हो व इसमें दोष हो तो इन्हें लक्ष्मी माता का ध्यान या लक्ष्मी मंत्र का जाप लाभकारी है। इससे आर्थिक कमियों का निदान होता है और घर में धन संपत्ति आती है। मंत्र इस प्रकार है- ऊँ श्रीं, ह्रीं, श्रीं कमले कमलालये प्रसीद-प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं सिद्ध लक्ष्म्यै नमः। 5- यदि हाथ में सूर्य ग्रह दबा हुआ हो, व्यक्ति को शिक्षा में पूर्ण सफलता न मिल पा रही हो, मस्तिष्क रेखा खराब हो, तो इन्हें सूर्य को जल देना चाहिए तथा सूर्य के पूजन के साथ सरस्वती का पूजन करना चाहिए। सूर्य मंत्र- ऊँ ह्रां, ह्रीं, ह्रौं सः सूर्याय नमः। 6- यदि जीवन रेखा व भाग्य रेखा को कई मोटी रेखाएं काटें तो इनके जीवन में प्रत्येक व्यवसाय में रुकावट आती है तो इस रुकावट को दूर करने के लिए ऊपर दिये गये लक्ष्मी मंत्र का जाप विधिवत् नित्य करना चाहिए। 7- यदि सभी ग्रह सामान्य हों, जीवन रेखा टूटी हो तो ये जीवन में दुर्घटनाओं का सूचक है। इसलिए इन्हें शिव आचरण या शिव स्तोत्र या ऊँ नमः शिवाय का जाप नियमित करना चाहिए। 8- यदि हृदय रेखा खंडित हो और साथ में हृदय रेखा से काफी सारी शाखाएं मस्तिष्क रेखा पर आ रही हों तो इन्हें मां दुर्गा का पूजन तथा दुर्गा सप्तशती का नित्य पाठ करना चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य का विचलन शांत होता है तथा इससे उसकी निर्णय क्षमता में वृद्धि होती है। 9- यदि हृदय रेखा व मस्तिष्क रेखा एक हो या मस्तिष्क रेखा मंगल क्षेत्र तक जाती हो तो इन्हें भगवान कृष्ण का ध्यान करना चाहिए तथा मंत्र- ऊँ नमोः भगवते वासुदेवाय नमः का जाप करना चाहिए। इससे व्यक्ति को संतान सुख व वंश की प्राप्ति होती है। 10- यदि हाथ में भाग्य रेखा लंबी हो, जीवन रेखा गोल हो, हृदय रेखा सुंदर हो तो इन्हें मर्यादा पुरुषोम श्री राम का ध्यान और पूजन करना चाहिए। राम-राम के जाप से जीवन काफी सुखमय बन जाता है। इन रेखाओं के साथ हाथां में कई अन्य रेखाएं हैं जो अन्य देवताओं की कृपा दृष्टि की ओर ईशारा करती हंै। इन रेखाओं का संपूर्ण विवरण इस लेख में नहीं किया जा सकता अतः अनेक अन्य देवताओं और उनकी कृपा दृष्टि के लिए योग्य हस्तरेखा शास्त्री से परामर्श आवश्यक है।

Thursday 25 February 2016

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Wednesday 24 February 2016

लक्ष्मी प्राप्ति की कुछ ज्योतिष्य उपाय

कुछ ऐसे दुर्लभ उपाय होते हैं, जिनकी जानकारी जनसामान्य को आम-तौर पर नहीं होती। परन्तु इनका उपयोग करने से निश्चित रूप से लाभान्वित हो सकते हैं और कठिन परिस्थितियों व आर्थिक अभाव की स्थिति में इनका आश्रय ग्रहण किया जा सकता है। इसी कारण इस लेख का नाम लक्ष्मी प्राप्ति के उपायों को चमत्कारी बताना तर्क संगत है, क्योंकि इसमें बताए गये लक्ष्मी प्राप्ति के उपाय विद्वत् समाज में सर्वमान्य है। इस लेख में लक्ष्मी प्राप्ति के उपाय़ जिनमें धन लक्ष्मी प्राप्ति के उपाय, लक्ष्मी प्राप्ति मन्त्र जप, श्री धन लक्ष्मी प्राप्ति यन्त्र / लक्ष्मी आकर्षण यन्त्र पूजन तथा जड़ी-बूटियों का उपयोग व लक्ष्मी प्राप्ति यज्ञ, अनुष्ठान विधि तथा उद्देश्यों का उल्लेख सम्मिलित है।
अपने घर के ईशान कोण में श्री यंत्र ताम्रपत्र, रजत पत्र या भोजपत्र पर बनायें। प्राण प्रतिष्ठा करके नित्य पूजा करने से विविध ऐश्वर्य के साथ लक्ष्मी प्राप्त होती है।
अर्क (अकोड़ा), छाक (छिला), खैर, अपामार्ग, पीपल की जड़, गूलर की जड़ खेजड़े की जड़, दुर्वा एवं कुशा की जड़ को एक चांदी की डिब्बी में रखकर नित्य पूजा करें। जीवन में कभी असफलता नहीं आयेगी, नवग्रह शांत रहेंगे सुख सम्प की बढ़ोरी होगी। धन लक्ष्मी प्राप्ति के टोटकों में यह टोटका अनुभूत सिद्ध प्रयोग है।
सम्पूर्ण दीपावली की रात्रि ‘‘हत्था जोड़ी” को सामने रखकर ‘‘धनम् देहि” मंत्र का जाप करें निश्चित रूप से धन की प्राप्ति होगी। यह धन लक्ष्मी प्राप्ति का टोटका है
यदि दीपावली रविवार को हो तो ब को लाल रंग से रंग दें। यदि सोमवार को हो तो ब पर सफेद अबीर लगा दें। मंगल को हो तो लाल, बुधवार को हो तो हरा, बृहस्पतिवार को हो तो पीला रंग, शुक्रवार को हो तो सफेद अबीर, शनिवार को हो तो ब में काला अबीर लगायें। धन की वृद्धि होगी।
लक्ष्मी आकर्षण यंत्र या छसा यंत्र दीवाली की रात्रि को सफेद कोरे कागज पर लाल स्याही से या अष्टगंध से लिखकर 100 छोटी-छोटी गोलियां बना लें। उन गोलियों को सवा किलो आटे में घी, शक्कर (चीनी) का बूरा दूध मिला दें। गीले आटे में गोली डालकर छोटी-छोटी आटे की गोलियां बना लें। विभिन्न मंत्र बोलते हुए मछलियों को खिलाएं। धन सम्प की वर्ष भर कमी नहीं रहेगी। ‘‘ऊँ महाशक्ति वेगेन, आकर्षय आकर्षय मणिभद्र स्वाहा”
दीवाली पूजन के समय कौड़ियों को केसर या हल्दी से रंगकर पीले कपड़े में बांध लें और फिर इन कौड़ियों को धन रखने के स्थान पर रखें, धन की कमी नहीं रहेगी।
पांच गोमती चक्र दीपावली के दिन पूजा के समय थाली में रखें और निम्न मंत्र का उच्चारण 108 बार (एक माला) करें। ‘‘ऊँ वे आरोग्यानिकरी रोग नशेषा नमः’’ इसको धन के स्थान पर रखने से धन की कमी नहीं रहेगी। सब रोगों का नाश होगा। शरीर स्वस्थ रहेगा।
गोमती चक्र उपरोक्त मंत्र से या ऊँ लक्ष्मी नमः’’ से अभिमंत्रित करके लाल पोटली में बांध लें और दुकान में किसी स्थान पर रख दें। जब तक पोटली दुकान में रहेगी तो निश्चय ही व्यापार में उन्नति होगी या व्यापार रुक गया तो फिर तेजी से शुरु हो जायेगा।
दीपावली के दिन प्रातःकाल उठकर तुलसी के की माला बनाकर श्री महालक्ष्मी के चरणों में अर्पित करें। धन लाभ होगा।
दीपावली की प्रातःकाल सबसे पहले साबुत काले उड़द और चमकीला काला वस्त्र किसी को दान करें या शनि मंदिर में चुप-चाप रख दें, ग्रह दोष समाप्त हो जायेगा।
दीपावली के दिन काली मिर्च के दाने ‘ऊँ क्लीं’ बीज मंत्र का जप करते हुए परिवार के सदस्यों के सिर पर घुमाकर दक्षिण दिशा में घर से बाहर फेंक दें, शत्रु शांत हो जायेंगे।
दीपावली की रात को 11 हल्दी की गांठ लें, इनको पीले कपड़े में बांध लें फिर लक्ष्मी-गणेश की संयुक्त फोटो के सामने घी का दीपक जलायें और 11 माला निम्न मंत्र का उच्चारण करें। ‘‘ऊँ वक्र- तुण्डाय हं।’’ फिर हल्दी की गांठों वाली पोटली अपने हाथ में लेकर ‘श्रीं श्रीं’ का जाप करते हुए कैश बाक्स में रखें और प्रतिदिन धूप दें। लक्ष्मी स्थिर रहेगी।
दीपावली के दिन 11 ‘‘कौड़ियां,’’11 गोमती चक्र, 5 सुपारी एवं 5 काली हल्दी की गांठें लें। अब काली हल्दी की गांठ पर पीली पिसी हुई हल्दी की छींटे लगाते समय श्रीं श्रीं का उच्चारण करते रहें। दीपावली की सारी रात उस सामग्री को पड़े रहने दें, अगले दिन इन सारी वस्तुओं को पीले कपड़े मं बांधकर तिजोरी में रख दें, लक्ष्मी वर्ष भर प्रसन्न रहेंगी।
घर में कमलगट्टे की माला, लघु नारियल, दक्षिणावर्ती शंख, श्वेतार्क गणपति, श्री यंत्र, कुबेर यंत्र, धन लक्ष्मी यंत्र, महालक्ष्मी यंत्र व कमला यंत्र आदि स्थापित कर जो भी दीपावली की रात को नित्य इनकी पूजा करता है ‘उनके घर में लक्ष्मी पीढ़ियों तक वास करती हैं।’ स्मरण रहे इस लेख में दिये गये विभिन्न प्रकार के धन लक्ष्मी यंत्रों का विधिवत् पूजन विशेष फलदायी होता है।
दीपावली की रात्रि को लक्ष्मी जी की फोटो के सामने शुद्ध देशी घी के दीपक जलाकर कमलगट्टे की माला से इस मंत्र का उच्चारण करें ‘ऊँ ऐं ह्रीं श्रीं क्लीं दारिरय विनाशके जगत्मासूत्यै नमः’। इस मंत्र से लक्ष्मी देवी प्रसन्न होती हैं। यही क्रिया यदि रोज करें तो लक्ष्मी का वास स्थिर हो जायेगा।
दीपावली के दिन शनि की साढ़ेसाती, ढैया या अशुभ प्रभाव को दूर करने के लिए काले तिल और कपास की ब से सरसों के तेल का दीपक जलाएं और शमी के पौधे के सामने शनि मंत्र का उच्चारण करें। शनि का बुरा प्रभाव कम हो जायेगा, शुभ फल देगा।
शंख में, गोबर में, आंवले में और सफेद वस्तुओं में लक्ष्मी का वास होता है। इनका प्रयोग सदा करें। सदा आंवला घर में रखें। लक्ष्मी का वास सदा रहेगा।
दीपावली पूजन के बाद पूरे घर में गुग्गुल का धुआं दें। बुरी आत्माओं और आसुरी शक्तियों से रक्षा रहेगी।
यदि बिल्ली के जेर मिल जायें तो दीपावली की रात्रि को या किसी शुभ मुहूर्त में उस पर हल्दी लगाएं और बायें हाथ की मुठ्ठी में रखकर आखें बंद करके ‘‘मर्जबान उल किस्ता’’ यह मंत्र 54 बार पढ़ें और दूसरे दिन उसे धन रखने के स्थान पर रखें।
दीपावली की शाम को अशोक वृक्ष की जड़ अशोक वृक्ष से मांगकर लायें तथा अपने पास रखें, धन स्थिर रहेगा।
दीपावली को प्रातः काल महालक्ष्मी के चित्र के समक्ष घी का दीपक, 2 लौंग डालकर जलाएं। नैवेद्य में खीर या हलवा रखें। तुलसी के पौधे में जल अर्पित करें और ‘‘ऊँ नमो महालक्ष्म्यै नमः’’ मंत्र का जाप करें। लक्ष्मी प्रसन्न रहेगी और घर में वास रहेगा।

जल : एक सम्पूर्ण प्राकृतिक ओषधि

जल जीवन है। इसलिए जल के बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। संसार के सभी प्राणी, वनस्पति आदि जल के बिना नहीं जी सकते अतः जल का महत्व जीवन में विशेष है। जल का प्रयोग पीने में, स्नान करने में विशेष रूप से किया जाता है। इसके फलस्वरूप हमारा स्वास्थ्य ठीक रहता है। जल की उपयोगिता चिकित्सा के क्षेत्र में भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखती है। स्वास्थ्य की दृष्टि से स्नान करना अति आवश्यक है। गर्मी के मौसम में दो बार और सर्दी के मौसम में एक बार ताजे पानी से स्नान करने से शरीर में स्फूर्ति आती है, रोम छिद्र खुल जाते हैं, विषैले तत्व नष्ट हो जाते हैं और अन्य तत्व के रोग भी ठीक हो जाते हैं। इस प्रकार पानी के पीने से भी स्वास्थ्य पर विशेष प्रभाव पड़ता है। कब्ज को दूर कर आँता में जमा मल को बाहर निकालता है। कई प्रकार के आंतरिक विकारों को दूर करता है। इसलिए खूब पानी पीना चाहिए। कम पानी पीने वालों को कई प्रकार के रोग हो जाते हैं। स्वस्थ रहने के लिए व्यक्ति को कम से कम दो लीटर पानी अवश्य पीना चाहिए। अधिक पानी पीने वाले व्यक्ति को गुर्दे के रोग की शिकायत नहीं हो सकती है और चेहरे के आभा मंडल का भी विस्तार होता है। जल अपने आप में एक औषधि है। किसी भी प्रकार के रोग में जल का प्रयोग रोग को दूर करने में सहायक होता है। सही मात्रा में प्रतिदिन पानी पीने वाले व्यक्ति की आंखों की रोशनी बढ़ती है। आंखों को पानी से छप्पा मारकर धोना चाहिए। स्वस्थ रहने के लिए पानी का प्रयोग इस प्रकार करें -प्रातःकाल बिस्तर छोड़ने के बाद दो गिलास पानी पीना चाहिए। इससे उदर विकारों में आराम होता है। कब्ज दूर होती है और मल त्याग आसानी से होता है। - खाना खाते समय अधिक पानी नहीं पीना चाहिए। इससे पाचन क्रिया मंद पड़ जाती है। यदि पानी पीना ही पड़े तो घूँट-घँट थोड़ा-थोड़ा पीना चाहिए, ताकि यह खाये गये भोजन में नमी लाए और भोजन सही पच जाए। - प्यास लगने पर आलस न कर पानी अवश्य पीना चाहिए नहीं तो कई प्रकार के रोग लग सकते हैं। जैसे पीलिया, कब्ज, आदि रोगों को दूर करने की शक्ति जल में है जो प्राकृतिक रूप से शरीर का पोषण करता है, जीवन दान देता है। प्राकृतिक चिकित्सा में जहां जल के पीने का महत्व है वहीं जल से स्नान का महत्व भी उतना ही है। स्नान करने से त्वचा में निरोगता, निखार और चमक आती है और चर्बी का बढ़ना भी रूकता है। इसीलिए प्राकृतिक चिकित्सा में कमर के स्नान पर अधिक जोर दिया जाता है। इसको कटि स्नान भी कहते हैं। इ स्नान से पेट की नसं सुचारू रूप से काम करती हैं जिससे उदर संबंधी रोगों से बचा जा सकता है। कटि स्नान करने की विधि इस प्रकार है - एक टब लेकर उसमें ताजा पानी भर लें और स्नान के लिए उसमें इस प्रकार बैठं कि आपके बैठने पर पानी आपकी नाभि तक आ जाए। - जल से भरे टब में नितंब के सहारे बैठना चाहिए पैरों के बल नहीं। दोनों टांगों को बाहर निकाल लें। पैरों को किसी पटरी पर सीधा रखें। - इस तरह शुरू-शुरू में 10 से 15 मिनट तक इसी स्थिति मं बैठे रहें। स्नान की अवधि को आधे घंटे तक बढ़ा सकते हैं। - पश्चात उठकर तौलिए से शरीर को रगड़-रगड़ कर पोंछना चाहिए। कटि स्नान के पश्चात संपूर्ण शरीर स्नान भी कर लें। कटि स्नान में ध्यान रखने योग्य बातें कटि स्नान प्रातःकाल सूर्य उदय से पूर्व करना चाहिए। - जागने के कुछ देर बाद दो गिलास पानी पिएं। यदि हो सके तो नींबू और शहद डालकर पिएं ताकि शौच खुलकर आए। शौचादि के बाद 10-15 मिनट घूमना चाहिए, उपरांत कटि स्नान के लिए बैठें। - कटि स्नान करते समय अंडर वीयर ही पहना होना चाहिए। टांगं और ऊपरी भाग नग्न रखें। - यदि हो सके तो बिल्कुल नग्न अवस्था में ही कटि स्नान करें। - पानी नाभि तक ही रहे। - सर्दी के मौसम में गर्म पानी का प्रयोग करना चाहिए। कटि स्नान के लाभ - कटि स्नान से उदर पर विशेष प्रभाव पड़ता है। इससे आंतों में नमी आती है जिससे जमा हुआ मल शौच के समय आसानी से बाहर हो जाता है। - पेट नरम रहता है। आँतें सुचारू रूप से कार्यरत होती हैं तो पाचन क्रिया सुचारू रूप से होता है। प्राकृतिक जल स्नान सभी स्त्री पुरुष नित्य स्नान करते हैं परंतु इस प्रकार का स्नान साधारण स्नान कहलाता है क्योंकि इसमें वैज्ञानिक विधि की कमी होती है। स्विमिंग पूल में तैरने की क्रिया एक वैज्ञानिक स्नान व प्राकृतिक है। वैज्ञानिक स्नान वह स्नान होता है जिसमें शरीर की अच्छी तरह कसरत हो और रगड़-रगड़ कर धोया जाए जिससे रक्त संचार ठीक तरह हो सके। प्राकृतिक व वैज्ञानिक स्नान करने में इन बातों का ध्यान रखें। - सदैव ताजे पानी से स्नान करना चाहिए चाहे मौसम कोई भी हो। - वृद्ध व्यक्तियों को जाड़े में गरम पानी से स्नान करना चाहिए क्योंकि ठंडा पानी उनके शरीर में दर्द पैदा कर सकता है। - प्राकृतिक जल से स्नान सर्दी में शरीर को गर्म और गर्मी में ठंडा रखता है और चुस्ती फुर्ती बनी रहती है। - प्राकृतिक जल से स्नान करने से शरीर हल्का हो जाता है। - ताजा और प्राकृतिक जल शरीर को सदैव सुख प्रदान करता है। - प्रकृति की प्रत्येक वस्तु मनुष्य की प्रकृति के अनुसार अपना कार्य करती है। अतः ताजा जल से स्नान में प्रसन्नता का ही अनुभव होता है। - स्नान करते समय सबसे पहले नीचे के अंगों को भिगोना चाहिए, उसके बाद सिर पर पानी डालना चाहिए। इस प्रकार स्नान करने से शरीर की फालतू गर्मी बाहर निकल जाती है। - प्राकृतिक स्नान के लिए टब का इस्तेमाल भी किया जा सकता है। टब में बैठकर सारे शरीर को अच्छी तरह साफ किया जा सकता है। स्नान के बाद शरीर को रोएंदार तौलिए से कसकर पांछना चाहिए इससे नसों का पोषण होता है। - स्नान ऐसी जगह करनी चाहिए जहां पर ताजी हवा भी रहती है। प्राकृतिक स्नान से लाभ -कई प्रकार के रोगों से छुटकारा मिलता है। - स्त्री पुरूष की जननेन्द्रिय संबंधी रोग दूर हो जाते हैं। - कब्ज-बदहजमी, प्रमेह आदि से राहत मिलती है। - इससे शरीर को अतिरिक्त शक्ति मिलती है। - सर्दी में शरीर गर्म और गर्मी के मौसम में शरीर ठंडा रहता है।

अंक विद्या से जाने विभिन्न रोग और बचाओ के उपाय

अंक से जानिए रोग और उसका बचाव पं. एम. सी भट्ट जन्म कुंडली में छठे भाव से रोगों की पहचान की जाती है और उसके ज्योतिषीय उपाय भी बताये जाते हैं जो ज्यादा खर्चीले होते हैं लेकिन अंक ज्योतिष से रोग की पहचान और उससे बचाव का जो अनोखा तरीका इस लेख में बताया गया है वह आम आदमी के करने और पढ़ने लायक है। जीवन में सफलता के लिये व्यक्ति का स्वस्थ होना बहुत आवश्यक है। लेकिन प्रत्येक जन्मांक के साथ अंतर्निहित सहज रोग संभावनाएं होती हैं और जन्मांक उनके बचाव का उपाय भी बताता है जिसका समुचित लाभ उठाकर व्यक्ति स्वास्थ्य-लाभ प्राप्त कर सकता है। अंक 1 अर्थात पहली, 10, 19 या 28 तारीख को पैदा हुए व्यक्तियों के लिये जो फल और जड़ी-बूटियां उपयोगी हैं, वे हैं - किशमिश, बेबूने के फूल, केसर, लौंग, जायफल, पत्थरचूर, संतरा, नींबू, खजूर, अदरक, सौंठ, जौ की रोटी और जौ का पानी आदि। अंक 1 वाले व्यक्तियों को शहद का भी खूब प्रयोग करना चाहिये। उनके 19वें, 28वें, 37वें वर्ष में उनके स्वास्थ्य में किसी न किसी रूप में महत्वपूर्ण परिवर्तन होंगे। ऐसे व्यक्तियों को अक्तूबर, दिसंबर और जनवरी माह में स्वास्थ्य रक्षा पर विशेष ध्यान देना चाहिए। अंक 2 अर्थात 2, 11, 20 अथवा 29 तारीख को उत्पन्न हुए व्यक्तियों को पेट अथवा पाचन तंत्र के रोग हो सकत े ह।ैं उन्ह ें टामे ने , जहरवाद, गैस, आंखों में सूजन, रसौली या फोड़ा आदि हो सकता है। इन व्यक्तियों के लिये सलाद, गोभी, कुम्हड़ा, खीरा, ककड़ी, तरबूज, चिकोरी या कासनी, करम का साग, केला और भिंसा की भस्म आदि साग-सब्जियां और बूटियां उपयोगी होती हैं। 20वें, 25वें , 29वें, 43 वें, 47 वें, 52 वें और 65वें वर्ष में उनके स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। उन्हें जनवरी, फरवरी और जुलाई आदि महीनों में अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए। अंक 3 अर्थात 3, 12, 21 या 30 तारीख को पैदा हुए व्यक्तियों में यह इच्छा होती है कि वे जो काम कर रहे हैं, उसमें कुछ बाकी न रह जाये। इसलिए अधिक कार्य करने के कारण उनके स्नायु-तंत्र पर अधिक जोर पड़ता है, इसलिए उन्हें तंत्रिकाओं में सूजन, शियाटिका दर्द और अनेक त्वचा रोग हो सकते हैं। इन लोगों के लिये चुकंदर, पत्थरचूर, विलबैरी, शतावर, चेरी, स्ट्राबेरी, सेव, शहतूत, नाशपाती, जैतून, खेंदचीनी, अनार, अन्नास, अंगूर, पोदीना, केसर, जायफल, लौंग, बादाम, अंजीर और पहाड़ी बादाम आदि फल और बूटियां उपयोगी हैं। उन्हें दिसंबर, फरवरी, जून और सितंबर में अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये। उनके जीवन के 12वें, 21वें, 39वें, 48वें और 57वें वर्ष में स्वास्थ्य में महत्वपूर्ण परिवर्तन का योग है। अंक 4 अर्थात 4, 13, 22 या 31 तारीख को पैदा हुए लोगों को कुछ महत्वपूर्ण रोग होने का भय रहता है जिसका निराकरण होना कठिन होता है। उनको पागलपन, मानसिक अस्वस्थता, रक्त की कमी, सिर, कमर, मूत्रस्थान और गुर्दो में पीड़ा हो सकती है। इस अंक वाले व्यक्तियों के लिए पालक सर्दियों की हरी सब्जियां, लोकाट, आईलैंडमास और सोलोमन सील आदि चीजें उपयोगी हैं। अंक 4 वालों को बिजली के इलाज से अत्यधिक लाभ पहुंचता है। उन्हें मानसिक सुझाव और सम्मोहन से भी लाभ होता है। लेकिन उन्हें नशीली दवाओं, मसालेदार भोजन और लाल रंग के मांस से परहेज करना चाहिये। उन्हें जनवरी, फरवरी, जुलाई, अगस्त और सितंबर माह में स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिए। स्वास्थ्य की दृष्टि से उनके लिये 12वां, 13 वां, 31 वां, 40 वां, 49वां और 58वां वर्ष महत्वपूर्ण होते हैं। अंक 5 अर्थात 5, 14 या 23 तारीख में पैदा हुए व्यक्ति बहुत अधिक तनाव में रहते हैं। वे मानसिक और स्नायविक तनाव में जीने के अभ्यस्त हो जाते हैं। उन्हें आंखों, चेहरे और हाथों के टेढे-मेढे होने का भय बना रहता है। उनके स्नायुओं पर दबाव रहता है। वे अनिद्रा अथवा अधरंग आदि के शिकार हो सकते हैं। उनके लिये सोना, आराम करना और शांत रहना ही सबसे अच्छी औषधियां हैं। अंक 5 वालों के लिए चुकंदर, ओट्समील अथवा ओट्स की रोटी के रूप में ओट्स, कराजमोद, सभी प्रकार की गिरियां, विशेष रूप से अखरोट और पहाड़ी बादाम आदि उपयोगी रहते हैं। अंक 5 वाले व्यक्तियों को जून, सितंबर और दिसंबर के महीनों में अपने स्वास्थ्य के संबंध में सतर्क रहना चाहिये। स्वास्थ्य की दृष्टि से उनके लिये 10वां, 41वां और 50वां वर्ष महत्वपूर्ण होता है। अंक 6 अर्थात 6, 15 या 24 तारीख को पैदा हुए व्यक्तियों के लिए सभी प्रकार की फलियां, चुकंदर, पालक, मज्जा, तरबूज, अनार, सेव, नाशपाती, खुबानी, अंजीर, अखरोट, बादाम, मेडन्स, फर्न का रस, डैफोनिल, कस्तूरी, वनफशा, गंधवेन और गुलाब के पत्ते आदि, फल और जड़ी-बूटियां उपयोगी रहती है। इन व्यक्तियों को मई, अक्तूबर और नवंबर के महीने में अपने स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये। इनका 15वां, 24वां, 42वां, 51वां और 60वां वर्ष स्वास्थ्य की दृष्टि से महत्वपूर्ण होता है। अंक 7 अर्थात किसी भी महीने की 7, 16 या 25 तारीख को पैदा हुए व्यक्ति अन्य श्रेणी के व्यक्तियों की अपेक्षा अधिक चिंतित रहते हैं। जब तक वे ठीक रहते हैं, जितना चाहे काम करते रहते हैं। परंतु जब परिस्थितियों के कारण चिंतित हो जाते हैं तो सोचने लगते हैं कि सब चीजें गलत हैं और वे निराश हो जाते हैं। उनके आसपास के वातावरण का उन पर बहुत प्रभाव पड़ता है। सही मूल्यांकन किये जाने पर वे कोई भी उत्तरदायित्व लेने को तैयार रहते हैं। उन्हें जो भी काम दिया जाता है, वे उसके प्रति बहुत सजग रहते हैं, परंतु वे शरीर की अपेक्षा मानसिक रूप से सशक्त होते हैं। इसलिए उनकी देहयष्टि दुबली-पतली होती है और वे अपनी शक्ति से अधिक कार्य करने का यत्न करते हैं। उनकी त्वचा बहुत मुलायम तथा चोट आदि के प्रति संवेदनशील होती है। किसी ऐसी चीज के खाने से जो हजम न हो या अनुकूल न हो तो शरीर पर फुंसियां निकल आती है। इन व्यक्तियों के लिये सलाद, गोभी, चिंकोरी, खीरा, ककड़ी, अलसी, खुंबी, सेव, अंगूर और सभी फलों के रस उपयोगी वस्तुएं हैं। जनवरी, फरवरी, जुलाई और अगस्त के महीने में इन लोगों को स्वास्थ्य के प्रति विशेष सतर्क रहना चाहिये। स्वास्थ्य परिवर्तन की दृष्टि से 7वां, 16वां, 25वां, 34वां, 43वां, 52वां और 61वां वर्ष इनके लिये महत्वपूर्ण वर्ष है। अंक 8 अर्थात किसी भी महीने की 8, 17 या 26 तारीख को पैदा हुए व्यक्तियों को अन्य लोगों की अपेक्षा जिगर, पित्ताशय, आंतों तथा मलोत्सर्जन से संबंधित कष्ट होने की संभावना रहती है। उन्हें सिरदर्द, रक्तरोग, वाहनों से जहरबाद तथा गठिया आदि बीमारियों के होने का भय रहता है। उन्हें जहां तक संभव हो, फलों, जड़ी-बूटियों और सब्जियों का प्रयोग करना चाहिये। ऐसे व्यक्तियों को पालक, गाजर, केला, अजमोद तथा जंगली गंधवेन आदि का प्रयोग करना चाहिये तथा दिसंबर, जनवरी, फरवरी और जुलाई महीनों में स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना चाहिये। शक्ति से अधिक कार्य करने से कष्ट हो सकता है। उनके स्वास्थ्य के लिये 17वां, 26वां, 35वां और 62वां वर्ष महत्वपूर्ण हो सकता है। अंक 9 अर्थात किसी भी महीने की 9, 18 या 27 तारीख को उत्पन्न हुए व्यक्तियों को सभी तरह के बुखार, खसरा, माता, चिकनपॉक्स, चकत्ते आदि रोग होने का भय रहता है। उन्हें अधिक पौष्टिक भोजन और मद्य सेवन से बचना चाहिये। उन्हें प्याज, लहसुन, मूली, अदरक, मिर्च, रेवन्दचीनी, तोरी, मजीठ और बिच्छू बूटी के रस का सेवन करना चाहिये। ऐसे व्यक्तियों को अप्रैल, मई, अक्तूबर और नवंबर के महीनों में अपने स्वास्थ्य का विशेष रूप से ध्यान रखना चाहिये। स्वास्थ्य की दृष्टि से उनके जीवन का 9वां, 18वां, 27वां, 36वां, 45वां और 63वां वर्ष महत्वपूर्ण होते हैं। जिन जड़ी-बूटियों का यहां वर्णन किया गया है, वे प्रायः सभी देशों में प्राप्त होती हैं और प्राकृतिक रूप से रोगनाशक हैं।

राशि के अनुसार रुद्राक्ष धारण

एक मुखी रुद्राक्ष: इस रुद्राक्ष को कोई भी व्यक्ति धारण कर सकता है यह साक्षात् भगवान शिव का स्वरूप माना गया है। इसे धारण करने से यश, मान, प्रतिष्ठा, धन, ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। विशेष रूप से कामना भेद से, यह भोग और मोक्ष दोनों को देने वाला है। 1. मेष राशि तथा वृश्चिक राशि के लिए चैदहमुखी रुद्राक्ष यह रुद्राक्ष हनुमान जी का स्वरूप माना गया है। इसलिए इसे मेष, तथा वृश्चिक राशि वाले व्यक्ति धारण कर सकते हैं। इसे धारण करने से बल, बृद्धि, धन, पद, प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। 2. वृष तथा तुला राशि के लिए तेरह मुखी रुद्राक्ष यह रुद्राक्ष देवराज इंद्र का स्वरूप है। इस रुद्राक्ष को वृष एवं तुला राशि वाले व्यक्ति धारण कर सकते हैं। इसे धारण करने से भोग, ऐश्वर्य स्वास्थ्य का लाभ प्राप्त होता है। 3. मिथुन तथा कन्या राशि के लिए दशमुखी रुद्राक्ष यह रुद्राक्ष भगवान विष्णु का स्वरूप माना गया है। इस रुद्राक्ष को बुध की राशि-मिथुन, एवं कन्या राशि के जातक धारण कर सकते हैं। इसे धारण करने से, बुद्धि, विद्या, धन, संपत्ति की प्राप्ति होती है। 4. कर्क राशि के लिए, पांच मुखी रुद्राक्ष इस रुद्राक्ष को विशेष कर कर्क राशि वाले व्यक्ति धारण कर सकते हैं। इसे धारण करने से मानसिक शांति, सात्त्विक बुद्धि, धन, प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। 5. सिंह राशि के लिए बारह मुखी रुद्राक्ष यह रुद्राक्ष द्वादश आदित्यों का स्वरूप माना गया है। इसे सिंह राशि वाले लोग धारण कर सकते हैं। इसे धारण करने से आयु-आरोग्यता, यश, मान प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। 6. धनु एवं मीन राशि के लिए चार मुखी रुद्राक्ष यह रुद्राक्ष ब्रह्माजी का स्वरूप माना गया है। इसे बृहस्पति ग्रह की राशि वाले जातक धारण कर सकते हैं। इसे धारण करने से धन, ऐश्वर्य, विद्या, बुद्धि तथा स्वास्थ्य का लाभ प्राप्त होता है। 7. मकर एवं कुंभ राशि के लिए सातमुखी एवं नौ मुखी रुद्राक्ष सात मुखी रुद्राक्ष महासेन अनन्त का स्वरूप है तथा नौमुखी रुद्राक्ष महाभैरव का स्वरूप माना गया है। इनमें से किसी भी अथवा दोनों को शनि की राशि वाले (मकर एवं कुंभ) जातक धारण कर सकता है। इसे धारण करने से स्वास्थ्य, धन, यश, संपत्ति की प्राप्ति होती है। संक्षिप्त धारण विधि रुद्राक्ष को पंचामृत से शुद्ध करके, अथवा गंगा जल से शुद्ध करके धूप, दीप से पूजन करके सोने या चांदी की चेन, अथवा धागे में सोमवार को धारण करें। उसके पश्चात् ¬ नमः शिवाय मंत्रा का जप 108 बार करें।

गले का कैंसर: ज्योतिष कारण

गले के स्वर यंत्र के कैंसर में आवाज भारी हो जाती है। गले की लसिका ग्रंथियों में सूजन भी आ जाती है। इसके अतिरिक्त सांस लेने एवं निगलने में तकलीफ होती है, खांसी के साथ रक्त मिश्रित बलगम आ जाता है।
गले एवं कान में तीव्र दर्द होता है। गले की ग्रास नलिका अथवा ग्रसनी के कैंसर में निगलने की तकलीफ होती है साथ ही स्वर यंत्र पर दबाव के कारण आवाज में बदलाव आ जाता है। रोगी को सांस लेने में भी परेशानी हो सकती है, गले में दर्द भी हो सकता है।
गले के कैंसर के कारण
अत्यधिक तंबाकू का सेवन और धूम्रपान करना तथा अधिक शराब पीना गले में कैंसर पैदा पर सकते हैं। कई रासायनिक पदार्थ जैसे कोलतार, एस्बेस्टस, विनाइल क्लोराइड, बेंजीन, कैडमियम, आर्सेनिक जैसे पदार्थ भी कैंसर उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। कई कारखानों में इन पदार्थों के संपर्क में प्रतिदिन आने से कैंसर होने की संभावना बढ़ जाती है। इसी तरह से खाद्य पदार्थ, जो गले में जलन पैदा करते हैं या तीक्ष्ण लगते हैं, कैंसर पैदा कर सकते हैं। अधिक मात्रा में प्रदूषण भी गले एवं कई प्रकार के अन्य कैंसर पैदा करते हैं। डिब्बा बंद खाद्य और कृत्रिम रंग तथा रसायनों के सेवन में भी कैंसर होने की संभावना हो जाती है। शीतल पेय, पेप्सी, कोक आदि का अधिक सेवन भी गले का कैंसर पैदा कर सकता है।
आनुवांशिक लक्षण भी कैंसर होने में सहायक हो सकते हैं यह देखा गया है कि यदि मां को किसी प्रकार का कैंसर है, तो बेटी को भी हो जाता है। पिता को कैंसर है, तो बेटे को भी होने की संभावना बढ़ जाती है।
रोग निदान और इलाज
आधुनिक युग में रोग की पहचान शुरुआती लक्षणों में संभव है। यदि ऊपर लिखे लक्षणों में कोई मिले, तो तुरंत चिकित्सक से संपर्क करें, जांच करवाएं। कैंसर की पहचान जितनी जल्दी होगी, चिकित्सा से उतना ही अधिक लाभ होगा। थोड़ी-सी शंका होने पर तुरंत चिकित्सक से संपर्क करें। कैंसर का शीघ्र निदान और इलाज ठीक से होने पर रोगी लंबी आयु जीता है। कैंसर के शीघ्र निदान के बाद शल्य-क्रिया कर दी जाए, तो रोगी सामान्य आयु तक जिंदा रहता है। शल्य क्रिया के अतिरिक्त विकिरण (रेडिएशन) द्वारा भी इलाज करते हैं जिससे रोगी को बहुत फायदा होता है। विशेष स्थितियों में कैंसर रोगी को दवाईयां भी दी जाती हैं।
गले के कैंसर से बचाव
गले के कैंसर से बचने के लिए आवश्यक है खान-पान की आदतों में सुधार लाना। हानिकारक नशे का सेवन छोड़कर इस रोग से बचा जा सकता है। कैंसर पैदा करने वाले सभी पदार्थों का सेवन छोड़ना अच्छा होता है। किसी भी रूप में तंबाकू का सेवन छोड़ देना चाहिए। इसके अतिरिक्त पान-मसाला, कच्ची सुपारी आदि का उपयोग भी बंद कर देना चाहिए। तंबाकू युक्त मंजन भी न करें। कैंसर से बचने के लिए शराब का सेवन भी छोड़ना उचित होगा। इसके अतिरिक्त ज्यादा तले, भुने, मिर्च-मसाले युक्त आहार प्रतिदिन नहीं खाना चाहिए। अधिक चर्बीयुक्त खाद्य पदार्थों से भी परहेज करें। इसके अतिरिक्त मोटापे पर नियंत्रण भी कैंसर से बचाव के लिए लाभकारी है क्योंकि यह पाया गया है कि मोटे लोगों को कैंसर होने की संभावना अधिक होती है।
भोजन में विटामिन ‘सी’ और ‘बी’ से भरपूर पदार्थों जैसे- गाजर, आंवला, अमरूद, नींबू, हरी सब्जियां सलाद इत्यादि को पर्याप्त मात्रा में शामिल कर इस रोग से बचा जा सकता है। प्रयोगों द्वारा यह सिद्ध हो चुका है कि विटामिन ‘सी’ और ‘बी’ तथा भोजन में रेशों की मात्रा शरीर को कई तरह के कैंसर से बचाती है। रेशायुक्त खाद्य लेने से आंतों के कैंसर से सुरक्षा मिलती है।
उम्र के 40 वर्ष के पश्चात् या दो वर्षों के अंतराल में कैंसर के लिए शरीर की जांच करवाना भी कैंसर की रोक-थाम में सहायक होता है। केवल गले के कैंसर से ही नहीं, अपितु कई तरह के अन्य कैंसरों से भी इन उपायों द्वारा बचा जा सकता है।

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Sunday 21 February 2016

Astro-Vastu aspects for Career Growth

Sun : If Sun is placed appropriately in birth chart it indicates a person will be self – confident, kind hearted, sincere, fatherly, inspiring and motivating, encouraging people to meet their goals and will have leadership skills. Professions governed by Sun are– Administrator, Manager, Director, leader, celebrity, sports person, Government officer, interior decorator. Sun can be enhanced by performing following vastu remedies : Place a bamboo plant in East direction of drawing room. Display a rising Sun picture in the East direction of living room. • Interior of east direction should be light weight. Good Sun leads to celebrity status and of orange hue. Moon : Moon acts as a “Mother” taking responsibility for a social environment of a place. A person who has favourable Moon in birth chart is open to others, tolerant, hospitable, nurturing, intuitive and empathetic and sensitive about the anxieties and problems of others. Professions indicated by Moon – Humanitarian workers, healers, nurses, counsellors, psychologists, social workers, child care, women – care activities, food and beverage business, water workers, irrigation, Sailor, fisherman, importer – exporter of sea products and raising animals ( dairy). Moon can be enriched by performing following vastu remedies. Place a Conch filled with water in the Northwest direction. Display a Crystal Globe in the Northwest direction of Study or working table. Place a bunch of pea-cock feathers in the Northwest direction. Mars : Mars is a warrior who feels proud to show courage and determination. Person whose Mars is good in birth chart is action oriented, enthusiastic, energetic, and ambitious and always ready to accept challenges. Professions indicated by Mars – Military officer, police, surgeons, estate agents, persons employed in mining, athletics and sports man. Mars can be balanced by performing following vastu remedies. Display a red Phoenix in the South direction of Drawing room. Decorate the South direction with your certificates and medals. Avoid placing water feature in South direction. Mercury : Favourable Mercury in birth chart indicates person will have systematic approach, good in numerical skills like accounting, fi nance, measuring and surveying, writing. Occupations related to Mercury The use of advanced speech, speech therapist, publishing, editor, writer, entertainer, consultant, analyst, accountant, mathematician, good in communication or related fields like Call Center, Journalism, fiction and non-fiction writing, telecom, internet, digital networks, financial controller, librarian, advertiser, skin care, youth –oriented program organizers and gardener. Remedies to enhance Mercury Place a jade or basil plant in the Northeast direction of drawing room. Keep the Northeast direction open or with very light furniture. Avoid toilet in this direction. Jupiter : Jupiter or the Dev guru if favourable in birth chart makes you optimistic, accepting, truthful, and spiritual, giving you ability to handle stress in a balanced way, honouring the trust that people put in them, adheres to values in spite of difficult circumstances. Occupations related to Jupiter Judge, advisor, counsellor, psychologist, financial advisor, social or charity worker, professor, educationalist, priest, human resources and employee development, consultant, studies in ancient traditions and spiritual nature. Jupiter can be enriched by following remedies : Place a bowl filled with water and fresh yellow flowers in North direction of drawing room. Do not keep any iron or black shade item in the North direction of any of the room in house or office. Place your cash box in North direction. Venus : Venus is a planet of beauty, art and joy of life. A favourable Venus makes a person’s persona charismatic, a good host, good sense of art and culture, building relationship and networking, focus on harmony, highly diplomatic, skilled reader of people and situations, knows to enjoy pleasure and comfort. Occupations related to Venus Art, design, fashion, photography, textiles and fabrics, boutiques, spa, cosmetician, beauty products and services, gems, precious metals, florist, interior decorator, music, drama, all forms of entertainment, working with women and their associated affairs, sexual issues, fancy restaurants, sweets and desserts. Venus can be strengthened by following remedies : Place an Amethyst crystal lotus in the Southeast direction of drawing room. Place a crystal Sri yantra in a silver bowl in the Southeast direction of worship area (pooja). Wear a rose quartz bracelet. Place an artificial pomegranate in the dining area. Saturn : The positive Saturn in the birth chart indicates good stamina and endurance making the person hard working, who puts in the extra effort to make things right, follows traditions, knows the rule and abides by them. When Saturn is weak in the chart the person becomes unenthusiastic, depressed, low on intelligence, gloomy, poorly groomed, sluggish, follows orders to one’s detriment, displays lack of vitality, has a life fi lled with delays and losses, uses drugs or alcohol. Occupations related to Saturn Jobs entailing hard work or labour like places where one gets dirty or soiled, work in land development and agriculture, oil, gas, mining, minerals, geology, excavation, antiques, archaeology, museums, Saturn also governs professions related to monasteries, sanitariums, civil engineering, disaster relief, insurance sales, drug rehabilitation, animal care and prison work. Saturn can be made favourable by : Place Metal furniture or metal decor in the West direction of your room. Always help labourers, needy and handicapped and give them food on Saturday. Feed wheat flour to ants. Keep mustard oil in an iron bowl and place it in the West direction of your store room. Rahu and Ketu or Dragon’s head and Dragon’s tail Rahu and Ketu are shadow planets they do not have their own identity. They indicate according to the associations of other planet or significance of house where they are placed. Rahu : In general Rahu acts like Saturn. Rahu gives a person a vision to come up with innovative solutions to the problems in difficult times. If Rahu is positive in birth chart the person will be clever and will have technical brain. Occupations related to Rahu Technicians, technologists, pharmacist, bioenergy worker, secret service, magician and profession in foreign or exotic travel. Ketu : In general Ketu acts like Mars. Ketu indicates intuition, enlightenment (moksha), feel of inner silence, ignoring the material in favor of the spiritual. When Ketu is weak in a chart a person has low self image, full of doubts and fear, lets others take advantage of them, do not have any aim in life, hypersensitive, nervous and unreliable. Occupations related to Ketu Monk or nun, meditation or self – improvement guru, connection with mystical objects, alternative medicine practitioner, unique healing methods and deals in occult science. Rahu and Ketu can be made positive by.Display a painting or picture of flying birds in the Northwest direction of office or drawing room.Place green plants in the Northeast direction.Place some magnets in a crystal bowl in the South west direction.