Monday 30 November 2015

निंदक नियरे राखिये, कुंडली को दिखायें- रहे सावधान दोष को निकाल -

निंदक नियरे राखिये, कुंडली को दिखायें- रहे सावधान दोष को निकाल -

मनुष्य को बुरा कहलाने से नहीं डरना चाहिए, किन्तु बुरा होने या बुरे काम करने से डरना चाहिए, जबकि होता इसके ठीक विपरीत है। लोग-बुरे कर्म करने से उतना नहीं डरते जितना इस बात से डरते हैं कि कोई बुरा न कह दे। मनुष्य का यह स्वभाव हो गया है कि वह स्वयं भले दूसरों की निंदा-आलोचना करता रहे, किन्तु स्वयं अपनी निंदा-आलोचना उसे पसंद नहीं है। कोई थोडी सी उसकी आलोचना करे तो वह दुखी ही नहीं क्रुद्ध भी हो जाता है। यहाॅ तक कि आलोचना करने वाले को अपना विरोधी तक मान लेता है, भले ही वह आलोचना कितनी ही सही क्यों न हो और उसकी भलाई के लिए ही क्यों न की गई हो। जबकि यह मानना चाहिए कि निंदक व्यक्ति हमारी निदा करके हमें सावधान कर रहा है तथा हमारे दोषो को निकालने की हमें प्रेरणा दे रहा है। सदगुरु कबीर की यह साखी सदैव स्मरण रहै-
निंदक नियरे राखिये आंगन कुटी छवाय, बिन पानी बिन साबुन निर्मल करे सुभाय।
इस संबंध में यदि कुंडली का विष्लेषण किया जाए तो यदि किसी व्यक्ति के तीसरे स्थान का स्वामी अनुकूल, उच्च तथा सौम्य ग्रहों से संरक्षित हो तो ऐसे व्यक्ति बुराई को भी भलाई में बदलने में सक्षम होते हैं वहीं यदि किसी जातक का तीसरा स्थान विपरीत कारक हो अथवा राहु जैसे ग्रहों से पापक्रांत हो तो ऐसे लोग किसी की छोटी सी बात या आलोचना सहन नहीं कर पाते और क्रोधित हो जाते हैं अतः आपको अपने हित में या किसी की कहीं कोई छोटी बात भी बुरी लगती है तो अपनी कुंडली का विष्लेषण करा लें तथा कुंडली में इस प्रकार की कोई ग्रह स्थिति बन रही हो तो तीसरे स्थान के स्वामी अथवा कालपुरूष की कुंडली में तीसरे स्थान के स्वामी ग्रह बुध अर्थात् गणेषजी की उपासना, गणपति अर्थव का पाठ का हरी मूंग का दान करने से आलोचना को साकारात्मक लेकर अपनी बुराई को धीरे-धीरे दूर करने का प्रयास करने से आप निरंतर बुराई से बचते हुए सफलता प्राप्त करेंगे तथा लोगों के बीच लोकप्रिय भी होंगे।

सूर्य-शनि की युति मचायेगा प्रजातांत्रिक उथल पुथल -

सूर्य और शनि पिता-पुत्र होने पर भी परस्पर शत्रुता रखते हैं। वैसे भी प्रकृति का विचार करें तो प्रकाष और अंधकार, सच और झूठ का जो प्रभाव होता है वहीं प्रभाव सूर्य और शनि की युति। सूर्य-शनि युति जीवन को पूर्णतः संघर्षमय बनाते हैं। पहले से उपस्थित वृष्चिक के शनि के साथ सूर्य की भी युति हो रही है। चूॅकि वृष्चिक का शनि सत्य, सहिष्णुता तथा सदाचार को बढ़ावा देने के लिए जाने जाते हैं। वृष्चिक का सूर्य होने पर शनि अर्थात् प्रजा द्वारा राजा मतलब सूर्य के लिए विरोध पैदा कर सकता है साथ ही राजा द्वारा किए गए वादें एवं कार्य पर अब वृष्चिक के सूर्य-षनि युति पर परिणीति की मांग बढ़ेगी और यदि अब आम जनता की बुनियादी जरूरत आसानी से पूरी न हुई तो प्रजातांत्रिक असंतोष अपने चरम पर होगा। अतः इस एक माह में जब तक सूर्य-षनि की युति होगी प्रजातांत्रिक उथल-पुथल का समय रहेगा। राजा को अपने कार्य पर पुर्नमूल्यांकन ना करने पर भयानक विरोध का सामना करना पड़ सकता है। अतः समय रहते सूर्य-षनि संक्रांत में सूर्य की शांति के लिए तिल का दान तथा सूर्य को अघ्र्य देना चाहिए।


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अनसर्टेन इंवेस्टमेंट से आर्थिक कष्ट -

वर्तमान युग में जल्दी अमीर बनने तथा समृद्धि पाने की चाह कई व्यक्ति को होती है, इसके लिए कई बार व्यक्ति लाटरी, शेयर या स्टाॅक से संबंधित क्षेत्र में धन लाभ हेतु प्रयास करता है किंतु कई बार दूसरों की देखादेखी यह प्रयास उसके लिए हानिकारक साबित होता है। जहाॅ किसी व्यक्ति को शेयर से लाभ होता है वहीं किसी व्यक्ति को बहुत ज्यादा हानि भी उठानी पड़ती है। इसका कारण जातक की कुंडली से जाना जा सकता है। अतः कोई व्यक्ति अपनी कुंडली की ग्रह स्थितियों के अनुरूप आचरण करें तो उसे कभी भी हानि या घाटा नहीं उठाना पड़े। किसी व्यक्ति की कुंडली धनवान बनने के योग बन रहें हैं या धन हानि के तथा गोचर में समय का पता किया जाता है। यह सर्वज्ञात है कि बिना भाग्य के कोई भी कार्य जीवन में सफल नहीं हो सकता। जब भी मनुष्य का भाग्योदय होगा, तभी उसे प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त होगी। अतः आकस्मिक धनलाभ या धन की हानि को जातक की कुंडली में जानने के लिए किसी जातक की कुंडली का धनभाव, भाग्यभाव या आयभाव अनुकूल तथा उच्च हो साथ ही आकस्मिक हानि या व्यय भाव कमजोर हों तो घाटा से बचा जा सकता है। आकस्मिक लाभ या हानि में सबसे अधिक प्रभावी ग्रह है राहु यदि राहु प्रतिकूल हो तो आकस्मिक हानि तथा अनुकूल हो तो आकस्मिक लाभ के योग बनाता है। अतः निष्चित लाभ की प्राप्ति के लिए राहु की शांति समय-समय पर कराते रहना चाहिए एवं राहु के अनुकूल होने पर ही शेयर या स्टाॅक जैसे अनिष्चित व्यवसाय पर निवेष करना चाहिए।


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ब्रेकअप से बचने के लिए करें शनि की शांति -


हर  रिश्ते की अपनी अपनी अहमियत होती है। लेकिन जरूरत होती हैं उसे संभाल कर रखने की। प्रेमाघात से केवल भावनात्मक और मानसिक चोट ही लगती हो, बल्कि इससे आपकी सेहत पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है। सभी दिल से यही चाहते हैं कि हमारे सभी रिश्ते मजबूत रहें और रिश्तों में प्रेम की गंगा बहती रहे। लेकिन ऐसा हो नहीं पाता। बड़ा गहरा होता है रिश्ता टूटने का दर्द। कुछ लोगों से रिश्ते अच्छे से निभते हैं लेकिन कुछ लोगों से रिश्तों को निभाना कठिन जान पड़ता है और अंततः आपसी कड़वाहट के कारण रिश्ते टूट भी जाते हैं। और सबसे बड़ी बात यह है कि रिश्ते उन्हीं से ज्यादा कड़वे हो जाते हैं जिनसे हमारा सबसे ज्यादा लगाव रहता है। इसे ज्योतिषीय दृष्टिकोण से देखा जाए तो यदि किसी की कुंडली में लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम, दसम या द्वादष स्थान पर शनि हो अथवा सौम्य ग्रह शनि से पापाक्रांत हों और शनि की दषा चले तो नजदीकी रिष्तों में दूरी आती है और ये दूरी इतनी बढ़ जाती है कि बात बे्रकअप तक चली जाती है। अतः यदि रिष्तों में बे्रकअप हो रहा हो तो शनि की शांति करानी चाहिए। इसके लिए मंत्रजाप, दान करना चाहिए।


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Saturday 28 November 2015

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Friday 27 November 2015

कर्मचारी चयन का महत्त्व

औद्योगिक संगठनों में कर्मचारी चयन अथवा व्यावसायिक चयन मौलिक रूप से महत्त्वपूर्ण है। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि औद्योगिक मनोविज्ञान के उद्देश्य की प्राप्ति एक बडी सीमा तक सही कर्मचारी चयन पर निर्भर करती हे। इसी बात को ध्यान में रखकर वाड़टलै ने कहा है कि, कर्मचारी को उपर्युक्त कार्य पर लगाना उद्योग में वैयक्तिक कुशलता एव समायोजन को बढाने से प्रथम तथा संभवत: सर्वाधिक महत्वपूर्ण चरण है | कर्मचारी चयन अथवा व्यावसायिक वयन का महत्त्व उपयुक्त उक्ति से स्पष्ट हो जाता है
वैयक्तिक कुशलता के लिए -कर्मचारी चयन वस्तुत्त: किसी कर्मचारी की व्यक्तिगत कुशलता के दृष्टिकोण से महत्त्वपूर्ण है। सही कर्मचारी चयन के होने पर व्यक्ति की अपनी योंग्यताएँ समुचित रूप से विकसित होती है जिससे उसकी कार्यकुशलता में भी वृद्धि होती है। इसके विपरीत व्यवसाय से व्यक्ति के गलत नियोजन की स्थिति में उसकी योग्यताएँ समुचित रूप से विकसित नहीं हो पाती न ही उसकी कार्यकुशलता समुचित बन जाती है। अत: वैयक्तिक कुशलता को समुचित बनाने के लिए यह आवश्यक है कि कर्मचारी का नियोजन सही हो।
वैयक्तिक समायोजन के लिए-कर्मचारी चयन का सही होना न केवल व्यक्ति की कार्य कुशलता के दृष्टिकोणा से महत्त्वपूर्ण है बल्कि उसके वैयक्तिक समायोजन के दृष्टिकोण से भी है। जब सही कार्यं के लिए किसी सही व्यक्ति का चयन किया जाता है तो वह अपने उद्योग में समायोजित होता है। यह बात उल्लेखनीय है कि उद्योग एक सामाजिक संगठन है जिसमेँ अन्य सामाजिक-मकानो की तरह सामाजिक पारस्परिक क्रिया होती है। जो कर्मचारी किसी कार्य में सही रूप से नियोजित होते है वे उद्योग में पारस्परिक संबंधो को समुचित रूप से निभाने में सफल होते है। किन्तु गलत कार्य में नियोजित होने पर कर्मचारी में अन्तवैक्तिक संबंध दोषपूर्ण हो जाता है| जिसके कारण वह नाना प्रकार के कुशोमायोजन के लक्षणों से पीडित हो जाता है। इस दृष्टिकोण से भी यह आवश्यक है कि व्यावसायिक चयन को यथासम्भव सफल बनाने का प्रयास किया जाए।
उत्पादन के लिए- कर्मचारी चयन तथा उत्पादन के बीच घनिष्ट संबंध होता है। अध्ययनों से पता चलता है कि जब कर्मचारियों का कार्यनियोजन सही तौर पर होता है तब उत्पादन संतोषप्रद होता है क्योंकि कर्मचारी में कार्यं के प्रति संतुष्टि तथा अनुकूल मनोवृति होती है जिससे कार्य करने में रुचि मिलती है और आनंद का अनुभव होता है। दूसरी ओर गलत कार्य नियोजन की स्थिति में कर्मचारी अपने कार्य से असंतुष्ट होता है, कार्यं में रुचि नहीं मिलती, अत: कार्यं के प्रति उदासीनता बद जाती है और कार्यं कुशलता घट जाती है। अत संतोषजनक उत्पादन के लिए यह अनावश्यक है कि कार्य में व्यक्ति का सही नियोजन हो।
बेहतर आय के लिए- कर्मचारी की आय के दृष्टिकोण से भी व्यवसायिक चयन की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। सही कार्य के लिए सही व्यक्ति के चयन होने पर उसे अपने कार्यं से संतुष्टि का अनुभव होता है इसलिए वह अधिक मेहनत के साथ काम करता है जिससे उत्पादकता बढ़ जाती है और उसके बदले उसे प्रबंधन की ओर से अतिरिक्त पारिश्रमिक दिया जाता है। ऐसे कर्मचारियों को प्रबंधन की ओर से अधिक समय की भी व्यवस्था होती है, उजरती-विधि की स्थिति में बढ़ते हुए उत्पादन के साथ उसकी आय बढती है। लेकिन गलत कार्य नियोजन की स्थिति मेँ जाय घट जाती है क्योंकि अपने कार्य से असंतुष्ट कर्मचारी नीरसता का अनुभव करता है और उत्पादन घट जाता है जिसके करण उसे उजरती विधि में भी कम आय होती है और अधिसमय की संभावना भी नगण्य बन जाती है। अत: आय के दृष्टिकोण से भी कर्मचारी चयन का सही होना अनावश्यक है। नियोजित नहीँ हो पाता तो वह अपने कार्य से असंतुष्ट रहा करता है, कार्यं के प्रति उदासीन बन जाता है, नीरसता एवं प्रतिक्रियात्मक अवरोध की मात्रा बढ़ जाती है तथा ध्यान भंग अधिक होता है जिससे दुर्घटना करने की प्रवृति बढ़ जाती है। दुर्घटना से कर्मचारी तथा उद्योग दोनों को हानि होती है। अत दुर्घटना प्रवृत्ति को घटाने के लिए भी यह आवश्यक है कि कार्यं में कर्मचारी का नियोजन सही हो।
प्रोन्नति के लिए -कर्मचारी चयन का महत्त्व कर्मचारी की प्रोन्नति केक दृष्टिकोण से भी कम नहीं है। जब सही कार्य के लिए सही व्यक्ति का चयन किया जाता है तो ऐसी स्थिति में उसे कार्य संतुष्टि प्राप्त होती है जिससे उसकी वैयक्तिक कुशलता बढ़ जाती है और उत्पादकता काफी संतोषप्रद होती है। वह अपने कार्य से पूरी तरह समायोजित होता है। ऐसे कर्मचारियों के प्रति प्रबंधन की मनोवृति अनुकूल होती है और पुरस्कार के रूप में उनकी पदोन्नति दी जाती है। इसके साथ- साथ प्रबंधन की ओर से ऐसे कर्मचारियों को प्रशंसा के रूप में पुरस्कार मिलता है तथा उसकी तृप्ति में उनका सम्मान बढ़ जाता है। दूसरी ओर जो कर्मचारी अपने कार्य से सही तौर पर नियोजित नहीँ हो पाते वे कार्य असंतुष्टि का अनुभव करते है जिससे उत्पादन घट जाता है। फलत: प्रबंधन की दृष्टि में उनका सम्मान घट जाता है, निदा के रूप में दण्ड मिलता है तथा प्रोन्नति की संभावना क्षीण हो जाती है। इससे भी यह प्रमाणित होता है कि कर्मचारी चयन का सही होना बहुत आवश्यक है।
बेहतर पारिवारिक समायोजन के लिए- आज से बहुत पहले इस वास्तविकता की ओर संकेत किया था कि कर्मचारी अपने उद्योग के भीतर जो अनुभव करता है उसे वह परिवार तक ढोकर ले जाता हैं। उनका यह विचार आज भी संगत प्रतीत होता गलत कर्मचारी चयन की स्थिति में जब कर्मचारी अपने कार्य, अपने अपने अधिकारियो के साथ समायोजित नही हो पाता और कुसमायोज़न के लक्षणों का शिकार बन जाता है, वह अपने परिवार के अदर पति-पत्नी या बच्चों के साथ भी समायोजित नहीं हो पाता। इस प्रकार उसका परिवार ही नष्ट हो जाता है। दूसरी ओर जो कर्मचारी अपने कार्य में समायोजित होते है वह न केवल अपने सहकर्मियों अधिकारियों के साथ बेहतर समायोजन स्थापित कर पाते है बल्कि उनका जीवन भी सफल तथा सुखद होता है।
मानसिक स्वास्थ्य के लिए-मानसिक स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से भी व्यावसायिक चयन काफी महत्त्वपूर्ण है। सही व्यावसायिक चयन स्थिति में कर्मचारी मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है क्योंकि वह अपने कार्यं से संतुष्ट रहता है, कार्यं में रुचि रखता है तथा कार्यं करते समय आनंद का अनुभव करता है | उसका संबंध सहकर्मियों तथा मैनेजरों के साथ संतोषजनक रहता है। उसके संबंध परिवार तथा समाज के विभिन्न वर्गों के साथ भी संतोषजनक रहता है। इस तरह वह उधोग के भीतर या बाहर मानसिक द्वंदों चिन्ताओं, कुषठाओं आदि से मुक्त रहता है| मानसिक रूप से स्वस्थ रहता है। ऐसे स्वस्थ कर्मचारियों से ही स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है। इसके विपरीत गलत कर्मचारी चयन की ' कर्मचारीगण मानसिक रूप से अस्वस्थ होते है जिसके कारणा संगठनात्मक प्रदूषित हो जाता है। यह बात उल्लेखनीय है कि वर्तमान समय में भी मनोवैज्ञानिकों अथवा संगठनात्मक मनोवैज्ञानिकों का सबसे कर्त्तव्य किसी संगठन के वातावरण को स्वस्थ बनता है जिसके बिना उद्योग के लक्ष्यों को प्राप्त करना असंभव नहीं तो कठिन अवश्य है।
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औद्योगिक क्षेत्र में कर्मचारी चयन की समस्या

आज का उद्योग विविध समस्याओं से ग्रसित है जिनमें परिस्थितिजनक सामाजिक तथा वैयक्तिक समस्याएँ प्रमुख है। उद्योग की समस्याओ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या है कर्मचारी चयन की। अपने व्यक्तिगत शील-गुणों के आधार पर हर व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है और इस सिद्धान्त के आधार पर हम कह सकते है कि हर व्यक्ति हर कार्य को समुचित रूप से कर सकने में सक्षम नहीं होता। आज की बढ़ती हुई आबादी के युग में जब बेरोजगारी की समस्या एक विकराल रूप धारण किए हुए है तब हर व्यक्ति किसी भी प्रकार से किसी भी काम को प्राप्त कर लेने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। यदि कार्य उसकी रुचि तथा क्षमताओं के अनुकूल हुआ तब तो ढोक है अन्यथा कार्य प्राप्त कर लेने के बाद तथा उस पर स्थायी हो जाने के बाद व्यक्ति का सम्बन्ध सिर्फ हर महीने प्राप्त होने वाले वेतन से रह जाता है। कार्य से स्वय को वह मनौवैज्ञानिक रूप से जोड नहीं पाता और उसकी उपादेयता नष्ट हो जाती है। अत: किसी भी उद्योग के सामने सबसे बड़ी समस्या होती है सही काम के लिए सही व्यक्ति का चुनाव करे यदि यह समस्या सुलझ जाए तो उद्योग की अधिकांश समस्याएँ जन्म लेने के साथ ही समाप्त हो जाएं या वे अस्तित्व में आएंगी ही नहीं। अधिक कार्यं-कौशल की माँग करने वाले कार्यं पर ऐसे कर्मचारियों का चुनाव वाछित है जो न सिर्फ योग्य तथा कुशल हो बल्कि उस कार्य के प्रति उनमें रुचि तथा मनोकुलता भी हो। योग्य व्यक्तियों को चुन लेना मात्र ही अपने आपमें सब कुछ नहीं होता। उनका योग्य उचित स्थान पर नियोजन भी उतना ही आवश्यक है। 1. कार्यस्थल पर मानवीय प्रतिक्रिया जनित समस्याएँ-कार्यं से सम्बद्ध अनेक समस्याएँ ऐसी है जो समय-समय पर उठती ही रहती है और अकसर उनके स्वरूप में परिवर्तन भी देखे जाते हैं। जहाँ उत्पादन, प्रशिक्षण, प्रेरण, प्राणोदन, नियोक्ता-कर्मचारी संबंध सदृश समस्याएँ उद्योग-नीति अथवा प्रबंधकों की कार्य प्रणाली की दें होती है, वहीँ कर्मचारियों द्वारा उत्पन की गयी समस्याएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं। कर्मचारियों की कार्य अथवा उद्योग संस्थान के प्रति मनोवृति, मनोबल, कार्य संतुष्टि, हड़ताल तथा तालाबंदी, औद्योगिक उथलपुथल, अनुपस्थिति तथा श्रमिक परिवर्तन आदि कुछ ऐसी ही 
महत्त्वपूर्ण समस्याएँ है जिनका सामना आज हर छोटे-बड़े उद्योग कों करना पड़ रहा है।
निरीक्षण कर्मचारियों द्वारा उत्पन्न समस्याओ की क्रोटि में निरीक्षण संबंधी समस्याएँ जैसे कर्मचारियों के साथ गलत व्यवहार, पक्षपातपूर्ण अवलोकन तथा मूल्यांकन, सही निरीक्षण का अभाव आदि हैं। इनके कारण भी कर्मचारियों में तनाव पैदा होता है जो बढ़कर यदि उग्र रूप धारण कर ले तो उद्योग के लिए हानिकर हो जाता है। उपर्युक्त हर कोटि की समस्याओं का समाधान आज का उद्योगपति तथा प्रबंधक शीघ्रताशीघ्र कर लेना चाहता है क्योंकि इसी से उद्योग की भलाई तथा समृद्धि है। अब यह प्रबंध की निपुणता पर निर्भर करता है कि वह इन समस्याओं को कितनी जल्दी तथा
केसे सुलझाता है । 
2. कर्मचारी के मनोवैज्ञानिक पक्षजनित समस्याएँ-आज के औद्योगिक मनोवैज्ञानिक के सामने सबसे जटिल समस्या है उद्योग के अन्तर्गत कर्मचारियों के मनोवैज्ञानिक पहलू। किसी भी समूह, समाज तथा संस्थान में व्यक्ति की वैयक्तिक्रता के महत्त्व को समझने में अब कोई संशय नहीं बच रहा है। हम जानते है कि व्यक्ति की इच्छाएँ अभिवृत्तियों, प्रेरणाएँ, आकाक्षाएँ आदि अनेक तत्व ऐसे है जो व्यक्ति के व्यवहारों को निर्णीत करते है। अत: औद्योगिक मनोवैज्ञानिक के समक्ष यह एक बहुत बडा प्रश्नचिह्न आ जाता है कि उद्योग के अन्तर्गत होने वाले सभी व्यवहारों को एक सामान्य सिद्धान्त के आधार पर व्याख्यायित किया जाए या उन व्यवहारों के वैयक्तिक निर्णायक तत्वों की खोज की जाए।
3.नियोक्ता तथा कर्मचारी के बीच पारस्परिक एवं व्यक्तिगत सम्बन्धों के अभाव में उनमें सद्भाव एव सम्भाव उत्पन्न नहीँ हो पाते। इसके कारण उनमें प्रत्यक्ष संभाषण भी नहीं हो पाता और प्रत्यक्ष संभाष्ण के अभाव में किन्हें दो व्यक्तियों के बीच अथवा व्यक्ति एवं समूह के बीच अनेकानेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। अक्सर देखा जाता है कि एक छोटे से परिवार में भी किस प्रकार पारस्परिक संभाष्ण का अभाव परिवार के सदस्यों में दूरी पैदा कर अनेक जटिल परिस्थितियों को उत्पन्न कर देता है जिसके कारण वह परिवार टूट कर बिखर जाने की स्थिति तक पहुँच जाता है तब एक उद्योग संस्थान में यदि नियोक्ता तथा कर्मचारी के बीच संभाषण का अभाव हो तब कौन-कौन सी जटिल समस्याएँ उत्पन्न होंगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। प्रत्यक्ष संपर्क के अभाव में उनमें एकदूसरे के विषय में सही तथा शीघ्र जानकारी नहीँ मिल सकतीं। उनके बीच की मानसिक तथा सामाजिक दूरी बढ़ती जाती है तथा उनमें पारम्परिक आस्था पनप नहीँ पाती और इस आस्था के अभाव में सहयोग की भावना नहीं पनप पाती तथा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह सम्मिलित प्रयास नहीँ हो सकता जो किसी भी उद्योग संस्थान के लिए अभीष्ट है।
4. कार्य विश्लेषण की समस्या-आधुनिक उद्योग मनोविज्ञान के समक्ष कार्य विश्लेषण की समस्या भी अपने आप मैं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उद्योग संस्थानों के अन्दर होने वाला प्रत्येक कार्य पूर्व निर्धारित होता है तथा उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उत्पादन से जुडा होता है। अत: यह आवश्यक है कि हर कार्य का पूर्ण विश्लेष्ण कर उसके हर अंग की आवश्यकताओं तथा उनके महत्व को समझा जाए और
उसी के आधार पर उस कार्यं को करने के लिए सर्वाधिक उपर्युक्त कर्मचारी का चुनाव किया जाए। एक अनिच्छा अथवा अन्यमनस्यक कर्मचारी को अपने कार्य को सफलतापूर्वक सम्पादित तो कर ही नाते सकता बल्कि उद्योग के लिए एक बोझ बन कर रह जाता हैं। सही कार्यं के लिए सही कर्मचारी का चुनाव कर लेने मात्र से ही नियोक्ता की जिम्मेवारी खत्म नहीं हो जाती। चुने हुए कर्मचारी को उपर्युक्त प्रशिक्षण देना, मशीनो की पूर्ण जानकारी देना तथा उसके कार्य-परिवेश से उसे समुचित रूप से अवगत कराना एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यं है। हम यह मान कर नहीं चल सकते है कि हर कुशल व्यक्ति अपना कार्य सही रूप से कर ही लेगा। प्रत्येक उद्योग की अपने लक्ष्य से सम्बन्धित्त धारणाएँ हैं परिकल्पनाएँ तथा कार्य-प्रणाली अलग होती है तथा उसके अनुरूप एक कुशल कर्मचारी को प्रशिक्षण देकर ही उसे उद्योग के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है।
5.थकान एकरसता, ऊब सदृशा मानसिक स्थितियों की समस्या-कर्मचारियों में थकान, एकरसता एवं ऊब की स्थिति का उत्पन्न होना तथा बढ़ना किसी भी उद्योग के लिए एक विकट समस्या का कारक हो जाता है, क्योंकि इन्हें स्थितियों के कारण अन्यमनस्यकता से कार्यं करना, धीमे कार्यं करना, अनुपस्थिति दुर्घटना, मशीनो का नुकसान, कार्यं-क्षमता तथा कार्यकाल की बरबादी आदि समस्याएँ उत्पन होती है जो उद्योग के लिए अत्यन्त हानिकारक होती है। अत : औद्योगिक मनोवैज्ञानिक के समक्ष यह एक विशिष्ट कार्य हो जाता है कि एक तो थकान, एकरसता एवं उब की स्थितियों के उत्पन्न होने की संभावनाओं को कम करें और इन स्थितियों के उत्पन्न हो जाने पर उनके उपर्युक्त समाधान की खोज करें। क्योंकि तभी कम-से कम समय में तथा कम-से-कम व्यक्ति ऊर्जा की खपत में अधिक-से-अधिक कार्यं समाहित हो सकेगा| 
6. दुर्घटना को समस्या-उद्योग के समक्ष एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या है दुर्घटना की। दुर्घटना कई प्रकार से उद्योग को प्रभावित करती है। दुर्घटना-ग्रस्त कर्मचारी की कार्य से अनुपस्थिति उत्पादन को कम तो बजती ही है, उसके उपचार तथा पुनर्वास अष्ट में हुआ व्यय उद्योग के ऊपर एक अवांछित किन्तु अनिवार्य बोझ बन जाता है। कई बार तो यह भी देखा जाता है कि दुर्धटना-ग्रस्त व्यक्ति स्वस्थ होकर अपने कार्य पर आने के बाद बडा अन्यमनस्यकता से कार्य करता है। उस कार्य से उसे अरुचि हो जाती है तथा कार्य के साथ वह तादात्म्स्थ स्थाई नहीं कर पाता। इस स्थिति में कार्य के लिए उसकी पूर्व उपयोगिता बनी रही रह पाती जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उसकी उपादन-क्षमता पर पड़ता है । अत: औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों के समक्ष एक विशिष्ट कार्यं यह उपस्थित हो जाता है कि वे उद्योग से सम्बन्धित दुर्घटनाओं का विश्लेषण करे, उनके मनोवैज्ञानिक पक्षों की गवेषणा करे तथा उनकी रोक की संभावनाएं बताएँ। एक से अधिक बार दुर्धटनाग्रस्त होने वाले कर्मचारियों के मानसिक परीक्षण तथा मनोविल्लेषण की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाए और यदि इस बात का पता चल जाए कि यह कर्मचारी किसी भी कारण से अपने कार्य या कार्य परिवेश से संतुष्ट नहीं है तो उसके स्थान-परिवर्तन की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि दुर्घटना के कारण परिवेश संबंधी हो जैसे अनुपयुक्त प्रकाश व्यवस्था, असह्य ताप, शोर-गुल आदि, तो उन कारणों को दूर कर औद्योगिक दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है ।
7. कर्मचारियों को अप्रतिबद्धता की समस्या-श्रम प्रबंधन संस्थानिक संरचना
की भूमिका ने आधुनिक औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों के समक्ष नयी समस्याएँ प्रस्तुत कर दी हैँ। तीव्रता से होते हुए तकनीकी परिवर्तनों के साथ उद्योगों तथा व्यवसाय-गृहों की संरचना, मुलयों लक्षणों आदि में परिवर्तन होते रहे है और इन सतत होते हुए परिवर्तनों को कर्मचारी यदि स्वीकार नही करते तो उनकी प्रतिक्रियाएँ प्रबंधन के लिए समस्या उत्पन्न कर देती हैँ। इन परिस्थितियों में यदि प्रबंधन की ओर से कर्मचारियों को इन परिवर्तनों के विषय में समुचित जानकारी देकर उन्हें विश्वास में लाने के प्रयास न किए जाएँ तो स्थिति की गंभीरता और बढ़ सकती है। ऐसे में विद्रोही, असंतुष्ट तथा आक्रामक कर्मचारियों की प्रतिक्रियाएँ तथा गतिविधियों उद्योग संस्थानों के परिवेश तथा उत्पादन को क्षतिग्रस्त कर सकती हैँ। यहाँ औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों की भूमिका उपयोगी सिद्ध होती है। तेजी से बदलते हुए सामाजिक परिवेश की बदलती तथा बढ़ती हुई मांगों उत्पाद-विपणन के क्षेत्र में बढती हुई स्पर्धा आदि का हवाला देते हुए यदि कर्मचारियों को परिवर्तनों के विषय में आश्वस्त कर दिया जाए तो उनके द्वारा किसी भी प्रकार का समस्या-मूलक व्यवहार ही न हो।
उपर्युक्त औद्योगिक समस्याओ के संदर्भ में यदि हम गंभीरता से सोचे तो पाएँगे कि यदि उद्योगपतियों के द्वारा समय-समय पर औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों का सहयोग उद्योग के हर उस क्षेत्र में लिया जाता रहे जहां मानव-व्यवहार सम्बद्ध है, तो ये समस्याएँ या तो उत्पन्न ही नहीं होगी या उत्पन्न होते ही समाप्त कर दी जाएँगी। औद्योगिक मनोवैज्ञानिक यदि प्रासंगिक क्षेत्रों मैं अनुसंधान कर सतत् प्रगतिशील उद्योग संस्थानों की समस्याओं का अध्ययन तथा विश्लेषण का उनके समाधान की दिशा निर्धारित करने का प्रयास करते रहे तो उद्योगो की अनेक समस्याएँ स्वत: ही दम तोड़ दें।

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आधुनिक उद्योग संस्थानों तथा व्यवसाय में मनोवैज्ञानिकों को भूमिका

विज्ञान की प्रगति के साथ तकनीकी एवं प्राविधिकी विकास तथा परिवर्तनों ने उद्योग संस्थानों को प्रभावित किया है। श्रम-विभाजन तथा अति परित्कृत मशीनो के कारण हुए कार्यों का स्वचलन तथा बदलती हुई कार्य-प्रणाली ने उद्योगों के वातावरण में यांत्रिकता तथा एकरसता को बढावा दिया है । इसका प्रभाव कर्मचारी तथा मशीन एंव कर्मचारी एव प्रबंधन के बीच विरोध के रूप में पडा है तथा कर्मचारियों के बौद्धिक तथा संवेगात्मक्त पक्षों पर भी इसका नाकारात्मक प्रभाव पडा है । जिस कार्य को करने में मनुष्य की इच्छा, बुद्धि एवं प्रयास नहीं लगे हो वह कार्यं उसे सन्तुष्टि नहीं दे सकता और आज के अति उन्नत उद्योग संस्यानों में मनुष्य एक बटन दबने वाला साधन मात्र बन कर रह गया है । किसी भी कार्य को करने में उसकी बुद्धि तथा कौष्टाल का प्रयोग नहीं होता जिसका फल यह होता है कि न तो मनुष्य को उस कार्य में रुचि त्तथा अनुरक्ति विकसित हो पाती है न ही वह कार्य उसे कोई चुनौती दे पाता है जो उस व्यक्ति में कार्यं को संपादित करने की तत्परता एवं प्रेरणा जगा सके। इन स्थितियों मेँ औद्योगिक संस्यानों में विभिन्न प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती है जिनके समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों की सहायता आवश्यक हो जाती है, न मात्र उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका है वरन हर उन संस्थानों में उनकी उपयोगिता है जहाँ कर्मचारियो के चयन एवं प्रशिक्षण की समस्या होती है, यथा-विभिन्न सेवा आयोग, सेना के संस्थान, आरक्षी प्रशिक्षण केन्द्र, ग्राम्य एवं सामुदायिक विकास योजनाएँ आदि। विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में भी मनोवैज्ञानिकों की भूमिका को लोग अब पहचानने लगे हैं।
आधुनिक औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों ने उद्योग संस्थानों में अपनी भूमिका तथा कार्य- कलापों में आमूल परिवर्तन बताया है। द्वितीय महायुद्ध के बाद तक के दिनो में मनोवैज्ञानिकों का कार्यक्षेत्र औद्योगिक वातावरण के भौतिक पक्षी तक ही सीमित था। किन्तु क्रमश: उनका ध्यान उद्योगो में कार्यरत् मनुष्यों के वैयक्तिक कारकों यर जाने लगा तथा उनके व्यक्तित्व का नैदानिक तथा वैज्ञानिक अध्ययन का उन्हें उद्योग के लिए अधिक उपयोगी बना देने का प्रयास मनोवैज्ञानिकों का अभीष्ट हो गया। आज के मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन क्षेत्र में मनुष्य के प्रेरण, इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, आकाक्षाएँ, आदि तो है ही, उनके क्षेत्र का विस्तार निरीक्षण, नेतृत्व प्रकार, नियोक्ताकर्मी संबंध, कार्यं के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति, मनोबल, आदि के अध्ययन के दिशा में भी हुआ है। उनकी मान्यता है कि व्यक्ति के ये वैयक्तिक कारक उद्योग संस्थानों के अन्तर्गत उनकी कार्य प्रणाली तथा कार्यक्षमता को प्रभावित करते है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादन पर पता है।
1.कर्मचारियों की उधोग में सहभागिता बढाने की भूमिका-मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगशाला तथा क्षेत्र-प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि उद्योग संस्थानों में कर्मचारियों की सहभागिता तथा प्रबंधकों की ओर से लोकतात्रिक एव सहकारी वातावरण का उन्नयन नियोक्ता एवं कर्मिंर्या के पारस्परिक संबंर्धा को न सिर्फ बढाता है वरन् उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पाता है। मनोवैज्ञानिकों की भूमिका कर्मचारियों की स्थितियों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं है। उनका अभीष्ट उद्योगपतियों तथा प्रबंधकों की लक्ष्य-प्राप्ति के संसाधनों का अध्ययन करना भी है। अत: उद्योग संसाधनों की संरचना की योजना को कार्यान्वित करना मनोवैज्ञानिक अध्ययन क्षेत्र में आ जाता है।
2. उद्योग क्षेत्रों में श्रम-कल्याण-विभाग की स्थापना कराने की भूमिका-विभिन्न देशों की सरकारों ने भी उद्योगपतियों तथा कामगारों के प्रति अपना दायित्व स्वीकारा है। उद्योगों की सफलता मात्र के लिए हो कामगारों की सुख-सुविधा तथा संतुष्टि के लिए प्रयास हो यह उनका दर्शन नहीं रहा है। उनकी मान्यता रही है कि राष्ट्र के एक नागरिक के नाते हर कामगार को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन साधनो को प्राप्त करने का अधिकार है जो उससे ऊपर के वर्गों के नागरिको को प्राप्त हैं। अत: उद्योगों में कार्यरत कामगारों की सुबिधा तथा सुरक्षा के लिए श्रम अधिनियमों को पारित किया गया और उनके आलोक में सरकारी नीतियों के आघार पर उद्योगपतियों और उद्योग मनोवैज्ञानिकों के सम्मिलित प्रयास से उद्योगो में श्रम कल्याण विभाग के स्थापना हुईं। इस विभाग के अधिकारी को कार्मिक पदाधिकारी का पद दिया गया। इस पदाधिकारी के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत् कामगारों की कार्य-प्रणाली, कार्यस्थल पर उचित व्यवहार, निरीक्षकों के साथ उचित पारस्परिक सम्बन्ध आदि के अतिरिक्त उनके भविष्य की सुरक्षा के हर संभव प्रवासी का करना भी है-प्राविडेंट फण्ड, ग्रेच्युटी आदि की योजनाओं को पारित करना, दुर्घटना तथा बीमारी आदि की अवस्था में उनकी आर्थिक सुरक्षा की देखभाल आदि। ये सारे कार्यं सुचारु रूप से पारित हो सके। इसका दायित्व भी उद्योग मनोविज्ञानी की भूमिकाओं में शामिल है ।
3. औद्योगिक अभियंताओं के कार्य में सहयोग की भूमिका-उधोग संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर कार्यंरत् अभियंताओं के समक्ष जब विभिन्न प्रवर की समस्याएँ आ जाती है तब वहाँ भी उन्हें मनोवैज्ञानिकों की सहायता की आवश्यकता पड़ जाती है। मशीनों के निर्माण की योजना बनाते समय अभियन्ता मनोवैज्ञानिकों के सुझाव मांगते है ताकि ऐसी मशीनो का निर्माण हो सकै जो मनुष्यों की क्षमताओं तथा सीमाओं के अनुरूप हो। ऐसी मशीनो पर काम करना मनुष्य के लिए भार-स्वरूप नहीं होता तथा उन्हें उन पर कार्य करने में आनन्द मिलता है। स्पष्ट है कि इसका प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर तथा उत्पादन, शक्ति पर साकारात्मक रूप से पडेगा।
4. कर्मचारी का व्यक्तित्व विश्लेषण कर उन्हें सही सुझाव देने को भूमिका -आज के युग के बदलते हुए स्वरूप ने मनुष्य की प्रकृति में अनेकानेक परिवर्तन तथा विकृति को उत्पन्न कर दिया है। धैर्य, सहनशिनलता, त्याग, सहयोग, समर्पण आदि मानवीय मूल्यों के लगभग लोभ होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है और इसके स्थान पर स्वार्थ तथा व्यक्तिगत आकांक्षाओं को प्रधानता मिलने लगी है। इन बातों का प्रभाव औद्योगिक वातावरण पर भी पड़। है। आज के उद्योग संस्थान इस सदी के पूर्वार्द्ध के उद्योगों के समान नहीं रह गये है जब औद्योगिक जीवन एक बंधी बंधायी लीक पर चलता था और नियोक्ता तथा कर्मचारी अपनी प्राप्ति से लगभग संतुष्ट रहा करते थे। आज के मनुष्य उनका समाधान कर सके यह देखना मनोवैज्ञानिक का कार्यं है।
5. उद्योग के कार्मिंक विभाग को सुझाव तथा सहयोग देने की भूमिका-आज़ के उद्योग मनोविज्ञानी ने पहले की तरह मनौवैज्ञानिक परिक्षण रचना मात्र में अपने कार्य क्षेत्र को सीमित नहीं कर रखा है। उद्योग में उसकी भूमिका का क्षेत्र व्यापक तथा विस्तृत हो गया है और उस विस्तृत क्षेत्र का अंग है उद्योग के कार्मिक विभाग को उपयुक्त सुझाव तथा सहयोग देना: कार्मिक विभाग का उत्तरदायित्व औद्योगिक परिवेश से सबसे अधिक
है। प्रबंधन की नीतियों को कर्मचारियों तक सही रूप में पहुँचाना तथा कर्मचारियो की कार्य प्रणाली का निर्धारण,निरीक्षकों को समुचित निर्देश तथा कर्मचारियों के विचारों को प्रबंधन तक सही रूप से आने देना आदि कार्मिक विभाग के कार्य-कलापों के अंतर्ग्रत विभाग में आता है |अत: कार्मिक विभाग अपना कार्य समुचित रूप से करता रहे इसी पर उधोग की प्रगति निर्भर है |
6. प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच मध्यस्थता की भूमिका-औद्योगिक प्रगति के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सामंजस्य, सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध तथा एकदूसरे से विचारों के स्तर पर त्तादात्स्य। इन स्थितियों की अनुपस्थिति में औद्योगिक लक्ष्य की प्राप्ति नही हो सकती, और ये स्थितियों उत्पन्न होती है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच वार्ता के अभाव में। अत: उद्योग मनोवेज्ञानिको की एक अहम् भूमिका बन जाती है प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच वार्ता की स्थिति को उत्पन्न करने की। यों देखा जाए तो यह कार्यं श्रम कल्याण विभाग के पदाधिकारियों का है क्योंकि वे ही प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सेतु का कार्यं करते है। किन्तु आज कल दिन-व-दिन मूल्य रहित होते हुए समाज में हर पदाधिकारी अपनी भूमिका निस्वार्थ रह कर तथा ईमानदारी से निभाह दे यह अमूमन देखने में नहीं आता। श्रम पदाधिकारियों को रिश्वत देकर तथा अन्य भौतिक प्रलोभन देकर उद्योगपतियों का उनको अपनी और मिला लेने और फलस्वरूप गरीब कर्मचारियों की उचित मानो को अनदेखा का कर देने की घटनाएँ आज आम हो गयी हैं। इस स्थिति में कर्मचारियों का आक्रोश बढ़ता है और एक हतोत्साह कर्मचारी उद्योग के लिए कितना अनुपयोगी और हानिकारक हो सकता है यह समझना बडा ही सहज है। हड़ताल, तालानंदी तथा श्रम-परिवर्तन आदि अवांछनीय घटनाएँ ऐसे ही कर्मचारियों की हताशा की देन हैँ। अत उद्योग मनोविज्ञानी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका यहाँ यह हो जाती है कि वह प्रबंधन तथा कर्मचारियों के सम्मुख एकदूसरे के विचारों को स्पष्ट रूप से रखे और समझाएं, उन विचारों के औवित्य तथा उद्योग के लिए प्रभावकारिता का स्पष्टीकरण करें तथा दोनो को यह समझ लेने की स्थिति में ले आएँ कि एकदूसरे की अनुपस्थिति में वे अस्तित्वहीन है। उनका अस्तित्व पारस्परिक सहयोग तथा सामंजस्य पर ही निर्भर है।
7. विज्ञापन के क्षेत्र में सहयोगी की भूमिका-आज का युग विज्ञापन-युग है। आज विज्ञापन न सिर्फ उत्पादन के विपणन का एक साधन मात्र रह गया है वरन् स्वय एक उद्योग बन गया है। विश्व के हर उन्नत तथा विकासशील देश में विज्ञापन तेजी से उद्योग का रूप लेता जा रहा है जिसके सहारे अन्य उद्योग तथा व्यवसाय विकसित हो रहे हैं। अत: विज्ञापन के स्वरूप तथा उसके विभिन्न पक्षों का वैज्ञानिक तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन करना भी आधुनिक मनोविज्ञान की कार्यं-सीमा मेँ आ गया है।
अत: हम कह सकते है किं औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों की व्यापक भूमिका आधुनिक उद्योग संस्यानों तथा व्यवसाय गृहों में है, और यही कारण है कि आज हर छोटे-बड़े उद्योग संस्थानों में मनोवैज्ञानिको को स्थायी रूप से नियोजित किया जा रहा है । कर्मचारियों के चयन से लेकर प्रशिक्षण तक, निरीक्षण से लेकर कार्य-मुल्यांकनं तक तथा जीविका आयोजन से लेकर श्रम संबंधो तक औद्योगिक मनोविज्ञानी एक विस्तृत तथा सतत् परिवर्ती घटनास्थल में घूमता हैं।
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सामाजिक मूल्यों के अनुसार मानव व्यवहार का परिवर्तन

सामाजिक मूल्यों के अनुसार मानव व्यवहार का परिवर्तन एवं परिमार्जन भी होता है। व्यक्ति अपने व्यवहारों की अभिव्यक्ति सामाजिक सीमाओं में ही करता है और वह सामाजिक सीमाओं के उल्लंघन का प्रयास नहीँ करता है। ऐसा करने से वह समाज का सम्मानित सदस्य ही नहीं माना जाता है वरन् व्यक्ति अपने को सुरक्षित भी अनुभव करता है। व्यक्ति सभी सामाजिक परिस्थितियों से एक समान व्यवहार नहीं करता है, वह सभी परिस्थितियों के सामाजिक मांगो पर विचार करना है और सामजिक मांगों के अनुसार अपने व्यवहार में परिवर्तन एवं परिमार्जन करके परिष्कृत व्यवहार को अभिव्यक्ति करता है। व्यक्ति का यह व्यवहार एक समाज से दूसरे समाज, एक समूह से दूसरे समूह, एक स्थान से दूसरे स्थान तथा एक समय से दूसरे समय पर सामजिक मागी एवं परिस्थितिजन्य कारणों से परिवर्तित होता रहता है। व्यक्ति के द्वारा प्रकट किया गया एक ही व्यवहार कभी समाजविरोधी और कभी सामान्य हो सकता है, परन्तु यह सामाजिक नियमों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जब व्यक्ति अपने व्यवहार प्रदर्शन में सामाजिक नियमों का पालन नहीं करता, उसके व्यवहार सामाजिक माँगों तथा परिस्थितियों के अनुकूल एवं उपयुक्त नहीँ होते है, तथा उसका व्यवहार समाज द्वारा स्वीकृत व्यवहार के अनुरूप नाते होता हैं तो उसके व्यवहार को समाज विरोधी व्यवहार या मनोविकारों व्यवहार कहते है। जो व्यक्ति इस प्रकार के व्यवहारों का प्रदर्शन करता है, उसका व्यक्तित्व समाज विरोधी व्यक्तित्व या मनोविकारों व्यक्तित्व कहलाता है। समाज विरोधी व्यक्तित्व के लिए अनेक पर्यायवाची ज्ञाब्दों यथा गठन संबंर्धा मनोविकारों हीनता नैतिक मूढ़ता समाजविकारी आदि का प्रयोग किया जाता है।
समाज विरोधी व्यक्तिव के मनोथिवारी व्यक्तित्व ज्ञाब्द को पर्यायवाची के रूप में इसलिए प्रयोग किया गया वचोंकिं व्यक्तित्व संबंधी मनोविकारों के कास्या ही असामाजिक व्यक्तित्व का अम्युदय होता है। फ्रायड, एडलर एल चुग आदि मनोवेज्ञानिको ने व्यक्तित्व संबंधी मनोविकारों के उपचार का प्रयास किया। समाजविरोधी व्यक्तित्व को ज्वाठन संबंधी मनोविकारों हीँनत्ता कहा गया है। इसका कारण यह है कि शारीरिक गठन संबंधी हीनता के काश्या भी व्यक्ति में असामाजिक व्यवहार उत्पन्न हो सकते है। जैसे कृष्टाकाय प्रकार के व्यक्ति चिड़चिड़े, झगड़ालु तथा  होते है। इसके अतिरिक्त इसकी व्याख्या इस प्रकार भी की जा सकती है कि जब व्यक्ति के शारीरिक गठन में किसी प्रकार की अपूर्णता पाई जाती है तब उसमें हीनता की ग्रन्थियाँ उत्पन्न हो जाती है। समाज विरोधी व्यक्तित्व को नैतिक भूलता इसलिए कहते है वर्थाकि नैतिक मूढ़ व्यक्तियों में बौद्धिक योग्यता की कमी पाई जाती है। जिससे व्यक्ति असामाजिक व्यवहार करने लगता है। लेकिन कभी ऐसा भी देखा जाना है कि असामाजिक बनाये गये है, वे सामाजिक नियमों की अवेहेलना करते है और नियमो को तोड़ते रहते हैँ। वह संघटित प्राधिकार को स्वीकार नहीं करते है और ऐसा करते समय वे आदेशो, आक्रामक औरे आपराधिक कयों को करते हैं। शैक्षिक एवं कानून लागू करनेवाले प्राधिकार व्यक्तियों के प्रति इनका विरोधी व्यवहार होता है। ऐसे व्यक्ति अक्सर अश्यथजन्य कार्यो को करते हैं। यद्यपि यह पेशेवर अपराधी नहीं होते हैं। समाज-विरोधी कार्यों के लिए मिलनेवाले कष्ट एवं दण्ड के बारे में दान रहने के बावजूद भी वह अपने कार्यों के परिणामों से चिन्तित नहीं होते हैं।
अच्छा अन्तवैश्यक्तिक संबंध बनाये रखने की अयोग्यता -यद्यपि समाज-विरोधी व्यक्ति दूसरों को मित्र बनाने में योग्य होते है, परन्तु इनके घनिष्ट मित्रों का अभाव होता है। यह मित्र तो बना लेते है पर मित्रता का निर्वाह नहीं कर पाते। ऐसे व्यक्ति अपने व्यवहार में गैर जिम्मेदार, आत्मकेन्द्रित. निन्दक, बेदर्द एवं कृतघ्न होते है तथा अपने समाज-विरोधी कार्यों पर इन्हें पश्चताप नहीं होता है। यह न तो दूसरों के प्रेमपूर्ण व्यवहार कर समझ पाते है और उनके प्रति प्रेमपूर्ण व्यवहार प्रदर्शित ही कर पाते है। ऐसे व्यक्ति अपने परिचितों से भय ही नहीं उत्पन्न करते है, वरन् उन्हें अधिक दुखी भी कर देते है, |
विस्फोटक व्यक्तित्व -इस व्यवहार प्रतिरूप की प्रमुख विशेषता यह है कि ऐसे व्यवहार प्रतिरूप वाले व्यक्ति अधिक उत्साहपूर्ण तथा शारीरिक आक्रमक व्यवहार करते है यही नहीं यह लोग बरबस अपना क्रोध प्रकट करने लगते हैँ। ऐसे क्रोध का प्रदर्शन उनके सामान्यतया प्रकट होने वाले व्यवहार से भिन्न होता है, ऐसे व्यक्तित्व के व्यक्ति अपने बरबस क्रोध के लिए खेद भी प्रकट करते है और पश्चताप भी करते है। ऐसे व्यक्तित्व
वातावरणीय दबावों के प्रति सामान्यतया उतेजित एवं अति प्रतिंक्रियाशील भी होते है। बरबस क्रोध तथा क्रोध को नियंत्रित्त करने की अयोग्यता के कारण ऐसे व्यक्ति दूसरे लोगों से भिन्न समझे जाते हैं।
मनोगाग्रस्त-बाध्यता व्यक्तित्व- इस व्यवहार प्रतिरूप की प्रमुख विशेषता यह है कि व्यक्ति के मन में निरन्तर उठनेवाले अस्वागत योग्य विचार पाए जाते है , जिनके प्रति उनमें वाध्यताएँ पाई जाती है। व्यक्ति स्वय जानता है कि यह विचार निरर्थक ताश अविवेकपूर्ण है फिर भी वह इन विचारों से छुटकारा नहीँ प्राप्त का पाता है और सब कुछ जानते हुए भी उसी व्यवहार को करने के लिए बाध्य रहता है।मनोग्रस्त्ता बाध्यता व्यक्तित्व के लोग अपने व्यवहारों में अपने कर्तव्यों एवं अन्तरात्मा के आदर्शो के प्रति अत्यधिक दक्षता प्रदर्शित करते है। यह व्यक्ति अपने कर्तव्यों के प्रति इतने अधिक अति अवरोधित होते है कि इन्हें विश्राम करने का अवसर नहीं मिलता है। यह विकृति इनमे प्रारंभ में साधारणा रूप में ही पाई जाती है लेकिन आगे चलकर इसका रूप उग्र हो जाता है और व्यक्तित्व समाज-विरोधी हो जाता है।
 उन्मादी व्यक्तित्व -ऐसे व्यक्तित्व के लोगो से अपरपिवदता, उतेज़नशीलता, सावेगिक अस्थिरता एवं स्व-नाटकीयता की विशेषता पाई जाती है। व्यक्ति को अपने अभिप्रेरकों के बारे में ज्ञान हो या न हो, परन्तु व्यक्ति रकंनाटकीक्ररषा के द्वारा दूसरों के ध्यान को आकर्षित करते है। यही नहीं ऐसे व्यक्ति सम्पोहक भी होते हैँ। जो व्यक्ति उन्मादी व्यक्तित्व वर्गीकरण के अन्तर्गत आते है, वे आत्मकेद्रित होते है तथा अपने व्यवहारों का अनुमोदन समाज के दूसरे व्यक्तियों द्वारा चाहते है।



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Wednesday 25 November 2015

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Saturday 21 November 2015

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Friday 20 November 2015

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Thursday 19 November 2015

चन्द्र महादशा व अन्तर्दशा में प्रत्यंतर दशा फल

चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा पूर्ण बली एवं शुभ अवस्था का हो तो अपनी दशान्तर्दशा में शुभ फल ही देता है। जातक को राज्य से मान-सम्मान एवं धन की प्राप्ति होती है, नए-नए मित्रों से, विशेषत: रित्रयों के साय संपर्क बनते हैं । कलापूर्ण कार्यों में रुचि बढ़ती है और जातक इस क्षेत्र में धन और ख्याति प्राप्त कर लेता है। अशुभ चन्द्रमा होने से आदर, अतिसार एव देह में आलस्य आदि व्याधिया घर कर लेती है।
मंगल-चंद्रन्तर्दशा में शुभ मंगल के प्रत्यन्तर काल में जातक से उत्साह की वृद्धि हो जाती है तथा उसे धन-ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। पूर्ण दाम्पत्य-सुख और सन्तति-सुख मिलता है । परिजनों एव मित्रों से सौहार्द बढ़ता है । कार्य-व्यवसाय में विशेष लाभ मिलता है। यदि मंगल अशुभ हो तो जातक को शत्रुओं से घात क्या रक्ताल्पत्ता, रक्तातिसार, रक्तपित्त आदि रोग होते हैं।
राहु-यदि चंद्रन्तर्दशा में राहु शुभ राशि एवं कारक से युक्त हो तो जातक को आकस्मिक रूप में धन लाभ होता है । शत्रुओं का पराभव कर जातक कष्टपूर्ण राहु को सुगम कर लेता है । उसे किए गए कार्यों - में सफलता मिलती है। यदि राहु अशुभ ग्रह की राशि में अशुभ ग्रह से युक्त हो तो अपनी प्रत्यन्तर्दशा में जातक की पैतृक सप्पत्ति का नाश करा देता है, उसके हृदय में व्यर्थ के भय की सृष्टि होती है और अनेक रोग घेर लेते है । इस काल में जातक दीन-हीन हो जाता है ।
बृहस्पति-यदि चन्द्रन्तर्दशा में शुभ बृहस्पति की प्रत्यन्तर्दशा चल रही हो तो जातक को सद्गुरु मिलते हैं तथा उनके द्वारा उसे ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति और अल्प-लाभ मिलता है । घर्म-कर्म के कार्यो में उसकी विशेष रुचि रहती है । सामाजिक कार्यों में भाग लेकर जातक अपने वर्ग में प्रभावशाली बन जाता है । नए-नए मित्र उसके सप्पर्क में आते है तथा उसे शासन-सत्ता से मान-सम्मान की प्राप्ति होती है । यदि गुरु अशुभ हो तो मामा से वियोग तथा माता को पीडा होती है ।
शनि-चंद्रन्तर्दशा में शनि का प्रत्यन्तर आने पर जातक को आरम्भ में तो पवित्र तीर्थस्थलों के दर्शन एव स्नान का पुण्य मिलता है, परन्तु बाद में उसके प्रत्येक कार्य में
विघ्न-बाघाएं आती हैं, परिजनों के सम्बन्थ में उडेग, मन में दुख तथा कार्य-व्यवसाय में
हानि होती है । नशा करने का व्यसन तथा अन्य कई दुर्गन उसके जीवन को कष्टमय बना देते है। उदर-पीडा, मस्तिष्क-शूल तथा वात-पित्तजन्य रोग हो जाते हैं ।
बुध-चंद्रन्तर्दशा में जब बुध का प्रत्यन्तर काल आता है तो जातक को विद्या की प्राप्ति होती है, घर में मंगल-कार्य होते है तथा पुष्ट का जन्मोत्सव मनाया जाता है । उसे एव उच्व वाहन की प्राप्ति होती है तथा नौकरी में पदोन्नति मिलती है । यदि बुध अशुभ हो तो चर्म रोग से देहपीड़ा मिलती है तथा आर्थिक हानि होती है।
केतु-चद्भान्तर्दशा में केतु का प्रत्यन्तर आने पर जातक घर्म विरुद्ध आचरण करता है । किसी नए धर्म की स्थापना मेँ लगा रहकर अपने को सन्देहास्पद बना लेता है । इस दशा में उसे विषपान का भय एव दुर्घटना की आशंका बनी रहती है। ऐसे में जातक के सुख का क्षय एव धन का नाश होता है क्या उसकी मृत्यु भी सम्भावित होती है ।
शुक्र-चन्तान्तर्दशा से शुक्र की प्रत्यन्तर्दशा जाने पर जातक का कार्य-व्यवसाय उन्नति को प्राप्त होता है एव उसे यन-लाभ मिलता है । प्राकृतिक सौन्दर्य के प्रति जातक का रुझान पप्रालपन की स्थिति तक पहुच जाता है । प्राकृतिक दृश्य देखने और कलापूर्ण एव सुन्दर वस्तुएं खरीदने से जातक धन का व्यर्थ व्यय करता है। यदि शुक अशुभ हो तो जातक को जलोदर, प्रमेह व स्वप्नदोष सादे रोग होते हैं क्या उसके विचारों में वासनावृत्ति अत्यधिक बढ़ जाती है ।
सूर्य-यदि चंद्रन्तर्दशा में सूर्य की प्रत्यन्तर्दशा हो तो जातक के शत्रुओं का पराभव, उसे सर्वत्र विजय-लाभ, अन्न-धन की प्राप्ति तथा राज-समाज में सम्मान प्राप्त होता है । उसके सुख-सौभाग्य की वृद्धि होती है तथा उसे पुत्रजन्म से हर्ष होता है । यदि सूर्य अशुभ हो तो नकसीर फूटना, रक्तविकार आदि रोगों से देह-पीड़ा मिलती है।
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मंगल महादशा व अन्तर्दशा में प्रत्यंतर दशा फल

मंगल-यदि मंगलन्तर्दशा से मंगल की ही प्रत्यन्तर्दशा चल रही हो तो जातक को राज्य की ओर से कष्ट और पीडा पहुंचती है। शत्रु प्रबल होकर उसे हानि पहुंचाते है । उदर विकार विशेका कज्ज हो जाने से उदर जैसी व्याधि उसके स्वास्थ्य को क्षीण कर देती है । स्वी-सुख में कमी जाती है, नेत्रों में लाती, जलन, देह से रक्तस्वाव होकर उसे अपमृत्यु का भय रहता है।
राहु-यदि मंगलान्तर्दद्रगा में राहु की प्रत्यन्तर्दशा हो तो जातक को उसके किसी कर्म के फलस्वरूप कारावास का दण्ड मिलता है । जातक विधर्मी, आपसी एव हिंसाप्रिय बन जाता है। निकृष्ट भोजन के कारण उदर रोग तथा अन्य भयंकर व्याधिया उसकी देह को क्षीण करती है | पदावनति, स्थानच्युति, शत्रु वर्ग से शस्वाघात तथा अपमृत्यु का भय भी बनता है क्या घर में कलह वनी रहती है।
बृहस्पति-यदि मंगल की अन्तर्दशा से बृहस्पति की प्रत्यंतर्दशा चले तो जातक की बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है । वह किसी को अपने से अधिक ज्ञानवान नहीं समझता, लेकिन समाज में लोग उसे मिथ्या या ज्ञानाभिमानी और दूषित समझते हैं तथा उससे घृणा करते हैं। भाग्यहीनता यहा तक पहुच जाती है कि उसके छुने से सोना भी मिट्टी हो जाता है। ऐसे में जातक प्रवासी, रोगी क्या मानसिक कलहयुक्त हो जाता है।
शनि-मंगल एव शनि दोनों ही नैसर्गिक पापी ग्रह है, फलत: एक ही अन्तर्दशा में दूसरे की प्रत्यन्तर्दशा जाने पर प्रारम्भ में स्वल्प सुख एबं लाभ ही निलता है, अन्यथा समाज़विरोधी कार्य तथा अपराध वृति के कारण जातक को जेल यात्रा करनी पडती है, भृत्य हो तो स्वामी का नाश एव उसे घन-हानि होती है । गृह-कलह से जातक के मन को परिताप तथा वात-विकूति के कारण उसे शरीर के जोडों में दर्द से पीडा होती है ।
बुध-मंगलान्तर्दशा में बुध का प्रत्यन्तर चलने पर जातक की बुद्धि भ्रमयुक्त हो जाती है । अस्थिर मति होने से, समय पर सही निर्णय न ले पाते के कारण उसे व्यवसाय में हानि उठानी पड़ती है क्या यह दीवालिया भी हो जाता है । यर-द्वार सब बिक जाता है तथा मित्रों के यहा भोजन और निवास की व्यवस्था करनी पड़ती है । जीर्ण ज्वर, ग्रन्थियों से शोथ तथा खाज-ढाली से उसे देहपीड़ा भी मिलती है।
केतु-मंगल की अन्तर्दशा में केतु की प्रत्यन्तर्दशा आने पर जातक अत्यधिक कष्ट भोगता है । दुर्घटना में अंग-भंग होने, हड्डी टूटने क्या अकाल-मृत्यु को प्राप्त होने का मय रहता है। मलिन चित्त एवं दूषित दिवार जातक को अपने वर्ग और समाज से काट देते हैं । परास्त भोजन करना पड़ता है, लोंक्रोपवाद फैलने से उसके मन को परिताप पहुंचला है क्या आत्ममृलानि के कारपा उसे आत्मदाह करने की भी इच्छा होती है ।
शुक्र-मंग्लान्तार्दर्षा से शुक की प्रत्यन्तर्दशा आने पर जातक में कामवासना प्रबल हो जाती है । बलात्कार तक करने की उसमें इच्छा होती है । नीच जनों का संग समाज में उसकी निन्दा का कारण बनता है। किसी कुटिल व्यक्ति से धात का भय रहता है, मित्र भी शत्रु बन जाते हैं तथा स्त्री-पुत्रों में कलह होती है । अतिसार, हैजा एव अपच के होने से उसकी देह को घोर पीडा पहुंचती है।
सूर्य-मंगलान्तर्दशा में सूर्य की प्रत्यन्तर्दशा आने पर जातक को भूमि का लाभ होता है, कृषि कार्यों में धन-लाभ क्या पशुओं के क्रअंबिक्रय से धनार्जन होता है । नौकरी में पदोन्नति तथा वेतन-वृद्धि होती है, उच्चाधिकार प्राप्त लोगों का स्नेह एबं सहयोग उसकी उन्नति से सहायक रहता है । पैतृक सप्पत्ति मिलती है तथा मन में हर्ष एवं सन्तोष बढ़ता है, परन्तु स्त्री से वियोग एव देह में उष्णता बढ़ती है।
चन्द्रमा-भौमंतार्दशा में जब चन्द्रमा का प्रत्यन्तर काल आता है तो जातक को वस्त्राभूषण, मोती, मूंगा, रत्नादि का लाभ प्राप्त होता है । विशेषता दक्षिण दिशा से उसे लाभ प्राप्त होता है । किए गए प्रत्येक कार्य में उसे सफलता मिलती है तथा श्वेत वस्तुओ के व्यवसाय से विशेष धन प्राप्त होता है |माता अथवा नानी की संपत्ति मिलती है |
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शुक्र महादशा में अन्तर्दशा का फल

शुक्र-यदि शुक्र उच्च राशि, स्वरराशि, शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट होकर कारक हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में अतीव शुभ फल प्रदान करता है | जातक सामान्य श्रम करके ही भरपूर लाभ प्राप्त कर लेता है । विद्यार्थियों को विशेषत: सहज ही उत्तम विद्या एवं सफलता प्राप्त हो जाती है । उच्च शिक्षा अथवा शोध कार्य के लिए विदेशवास करना होता है । विवाह की अपेक्षा प्रेम-प्रसंग बनाने में रुचि रहती है और सफलता भी मिलती है । श्रृंगारिक वस्तुओं एवं स्वय के रख ररवाव पर अधिक धन व्यय होता है । अनायास घन निलता है । यदि शुक्र पंचमेश से युक्त हो या अष्टम में मंगल से युक्त हो तो भूमि से, लाटरी व सट्टे से धनागमन होता है। अशुभ शुक्र की अन्तर्दशा में आर्थिक हानि होती है । विषयासक्त चित्त के कारण लोक-समाज से निन्दा तथा धनहानि, गृहकलह से मनस्ताप, शुक्रमेह, घातुक्षीणता, बल तथा ओज का क्षय हो जाता है। अपेक्षाकृत यह समय अच्छा ही रहता है।
सूर्य-शुक्र और सूर्य नैसर्गिक शत्रु हैं, सूर्य शुभावस्था से तथा पंचघा मैत्री में सम हो तो शुक्र महादशा में सूर्य अन्तर्दशा का मिश्रित फल प्राप्त होता है। जातक को कवि-व्यवसाय से लाभ, उच्चवर्गीय लोगों से मेल-जोल तथा पैतृक सप्पत्ति से लाभ मिलता है । चित्त में आकुलता, मलिनता बनी रहती है, शिरोवेदना और नेत्र कष्ट प्राय होते रहते हैं, पठन-पाठन से मन रमता नहीं, फ़लत: जैसे-जैसे परीक्षा में सफलता मिलती है । अशुभ सूर्य की अन्तर्दशा में माता-पिता से कलह, भाइयों को कष्ट मिलता है । शय्या सुख में कमी आ जाती है अथवा वह नष्ट हो जाता है। व्यर्थ में लोगों से शत्रुता बनती है, अनेक समस्याएं, बाधाएं उपस्थित होती हैं, जिनका निराकरण करते-करते जातक थक जाता है। मन्दाग्नि, जिगर एव प्रमेह के रोगों से देहपीड़ा मिलती है।
चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा उच्च राशि का, स्वराशिस्थ या पूर्ण बलवान व शुभ ग्रहों से युक्त या दुष्ट हो तथा कारक होकर शुभ भावस्थ हो तो शुक्र महादशा में अपनी अन्तर्दशा व्यतीत होने पर शुभ फल देता है । व्यापार-व्यवसाय में विशेषत: श्वेत वस्तुओं और श्रृंगारिक वस्तुओं के व्यापार से लाभ निलता है। कामवासना प्रबल और अनेक रमंणियों से रमण के अवसर मिलते हैं । कला की ओर विशेष रुझान होता है तथा जातक कला, कविता, काव्य आदि के क्षेत्र में ख्याति अर्जित कर धन-मान-सम्मान पा लेता है। यदि शुक्र चतुर्थेश हो तो उत्तम वाहन एव जानदार के कारण चुनाव में विजय होती है । अशुभ और क्षीण चन्द्रमा की अन्तर्दशा में कामकुंठाएं त्रस्त करती हैं । मोह, लोभ, मत्सर, ईष्यों आदि के कारण निन्दा होती है। मस्तिष्क में उष्णता के कारण पागल होने की आशंका रहती है । नख, हड्डी के रोग, रक्ताल्पता, कामता आदि रोग देह को क्षीण कर देते है।
मंगल-यदि मंगल परमोच्च, स्वक्षेत्री, शुभ ग्रह से युक्त होकर केन्द्र,त्रिकोण में सप्त बल युक्त हो और शुक्र महादशा में ऐसे मंगल की अन्तर्दशा हो तो जातक अनेक प्रकार से भूमि, वस्त्राभूषण एव इष्टसिद्धि प्राप्त कर लेता है । साहसिक एव परक्रमयुक्त कार्यों में विशेष रुचि लेकर राजकीय मान-सम्मान एवं पारितोषक प्राप्त करता है ।
वाद-विवाद मेँ विजय, सैन्य अथवा पुलिसकर्मियों को पदोन्नति एव पदक तथा अन्यो को वेतनवृद्धि होती है। वासनामय विचार कुष्ठाग्रस्त करते है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा से जातक में कामवासना इतनी उद्दीप्त हो उठती है कि वह बलात्कार तक कर बैठता है, देश काल और परिस्थिति का भी ध्यान नहीं रखता, फलत: लोकनिंदा तो होती ही है सामाजिक दण्ड भी मिलता है । लडाई-झगड़ों में पराजय, वात-पित्तजन्य रोग जैसे उदर शूल अमलपित, मन्दाग्नि, रक्तचाप, जोडों से दर्द तथा रक्तचिकार आदि देह को पीडा पहुंचाते है।
राहु-यदि शुक्र महादशा से राहु की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही हो तो शुभाशुभ दोनो प्रकार के फल मिलते है। जातक के मन में अस्थिरता बन जाती है । क्या करू, क्या न करूँ की स्थिति बनती है, आकस्मिक रूप में अर्थलाभ होता है, शत्रु का पराभव होता है, इष्टसिद्धि का लाभ तथा घर में मांगलिक कार्य होते है। मनोत्साह में वृद्धि,नीले रंग की वस्तुओ, मुर्दा पशुओं के कार्य से लाभ मिलता' है। ये शुभ फल दशा के प्रारम्भ से मिलते हैं, अन्त में अशुभ पाल प्राप्त होते है। जातक धर्म-कर्म विहीन हो जाता है, इष्ट-मित्रों एवं परिजनों से व्यर्थ में विवाद, कार्यनाश, स्थानच्युति, गोरी में हो तो कई बार स्थानान्तरण होता है । मन में उडेग, चित्त में सन्ताप, इर्षा, द्वेष जैसे दुर्गमं पनपते है। भोजन की व्यवस्था तक में कठिनाई आती है, अशुभ संवाद सुनने को मिलते है।
बृहस्पति- यदि बृहस्पति शुभ व बलवान हो तो शुभ फल ही अपनी अन्तर्दशा से प्रदान करेगा । ऐसा प्राचीन परियों का मत है, लेकिन अनुभव में इसके विपरीत शुभ फल दशा के अन्त में क्या अशुभ फल दशा के आरम्भ मिलते हैं । जातक धर्माचरण दिखावे के लिए करता है, विपयवासना बढ़ जाती है और छिपकर प्रेमालाप करता है। देहरोगों से पीडित, गृहकलह के कारण चित्त को परिताप पहुँचता है । विधोपार्जन, इष्टसिद्धि, प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता मिलती है, न्यायवादी, जज आदि पद मिलते है । मन्त्रणाशक्ति प्रबल होती है। प्रबन्धक के कार्य में सफलता मिलती है । धन-वाहन का पूर्ण सुख मिलता है, भोग-विलास में रुचि तो रहती है, लेकिन फूहडपन नहीं, पात्र उत्कृष्ट, कुलीन-शालीन लोगों से ही मेल-मिताप रखने की इच्छा बनती है। स्त्री, पुत्र एवं परिवार का पूर्ण सहयोग एवं सुख मिलता है।
शनि-शुक्र महादशा से शनि की अन्तर्दशा प्राय: अशुभ फल ही प्रदान करती हे, लेकिन यदि शनि कारक होकर उच्च राशि, स्वराशि और शुभ ग्रहों से दुष्ट हो तो उत्तम फ़ल भी मिलते है । जातक इस दशा में यथेष्ट स्थावर संपत्ति का अर्जन कर लेता है। इस कृत्य से लोकोंपवाद, देह को आधि-व्याधि से पीडा एवं आलस्य का प्रादुर्भाव होता है । राजा के समान वैभव प्राप्त कर जातक भाग्यशालियों में गिना जाता है।नीच और अशुभ शनि की अन्तर्दशा में जातक अवनति के गर्त में डूब जाता है । स्त्रीसुख की हानि, संतान को कष्ट, कार्य-व्यवसाय का नाश हो जाता है । खाने के भी लाले पड़ जाते हैं तथा नीयत भिक्षा मांगने तक आ जाती है । किसी प्रियजन की मृत्यु से मन को सन्ताप तथा गठिया, वातव्याधि, उदर शूल एव शुक्रक्षय आदि रोग हो जाते हैं । जीवन भार अनुभव होने लता है और आत्मघात की इच्छा बनती है।
बुध-यदि बुध शुभ, उच्चादि राशि का होकर केन्द्र या त्रिकोण में स्थित हो तो जातक इसकी अन्तर्दशा में पूर्व में पाए कामों से सुख की सास लेता है। परीक्षार्थी उत्तम श्रेणी पाते हैं,गणित में यशस्वी होते हैं । व्यापारी वर्ग को व्यवसाय में उत्तम लाभ मिलता है, नौकरी करने वालों को उच्चाधिकारियों का अनुग्रह तथा पद और वेतन में वृद्धि होती है । राजकीय सम्मान मिलता है । जातक धर्म-कर्म के कार्यों में भाग लेता है तथा परिजनों का स्नेहभाजन बना रहता है । अशुभ बुध की अन्तर्दशा में जातक युवक हो अथवा वृद्ध परस्त्री संग को लालायित रहता है और करता भी है, अपने वर्ग और समाज में अपकीर्ति होती है । पशुधन का नाश, व्यापार में घाटा, नौबत दीवालिया हो जाने तक आ जाती है, पुत्री के विवाह में विघ्न आते हैं अथवा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है।
केतु-केतु की अन्तर्दशा में शुभाशुभ दोनो प्रकार के फल मिलते हैं । केतु के अशुभ होने पर अत्यन्त निकृष्ट फलों की प्राप्ति होती है। शुभ केतु की अन्तर्दशा के प्रारम्भ में जातक को शुभ समाचार मिलते हैं, मिष्ठान्न, उत्तम वस्त्राभूषण, उत्तम वाहन एव आवास की प्राप्ति होती है । सट्टा, रेस, लाटरी आदि से यदा-कदा लाभ मिलता है । काष्ठ, फूस आदि के व्यवसाय से लाभ निलता है। अशुभ केतु हो तो जातक नीच कर्म में रत रहता है, बुद्धि में अस्थिरता आ जाती है । इष्ट-मित्रों से झगडे होते हैं, मुकदमों में पराजय, किसी के निधन से मानसिक सन्ताप, दुर्घटना में अंग-भंग होने की आशंका, विषपान, सर्पदंश, कुत्ते के काटने से अपमृत्यु का भय बनता है। उदर शूल, सन्धिवात, शुक्रमेह आदि रोग व अनेक प्रकार के कष्ट मिलते हैं तथा जातक मृत्यु को जीवन से श्रेष्ठ मान आत्मघात तक कर लेता है।
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Wednesday 18 November 2015

केतु महादशा में अंतर्दशा फल





केतु-यदि केतु केन्द्र, त्रिकोण या आय स्थान में शुभावस्था में होकर लग्नेश,भाग्येश व कर्मेश से युक्ति करता हो तो अपनी दशा-अंतर्दशा के प्रारम्भ में शुभ फल प्रदान करता है। इस दशा में जातक को स्वल्प धन का लाभ, पशुधन से लाभ, ग्राम में भूमि लाभ आदि कराता है तथा दशा के अन्त में अशुभ फल प्रदान करता है । अशुभ केतु की दशा में जातक अथक पश्चिम करने पर भी जीविकोपार्जन के साधन नहीं जुटा पाता, नौकरी मिलती नहीं, व्यवसाय में हानि होती है| नौकरी हो तो नौकरी छूट जाती है या  कर दिया जाता है । बचपन में यह दशा जातक को चेचक, हैजा, अतिसार, कांच निकलने जैसे रोगो से पीडित करती है।  किसी निकट सम्बन्धी के निधन से मन को सन्ताप मिलता है । जातक एक दुख से पीडा छुड़ाता है तो दूसरा दुख आ उपस्थित होता है।
शुक्र-जब केतु की महादशा में शुक्र की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही होती है तो जातक की बुद्धि कामासक्त हो जाती है, वह सदैव भोग-विलास जीवन के स्वप्न लेता रहता है, प्रेमकथा, उपन्यास आदि पढने में समय को व्यर्थ गवांता है । सहशिक्षा संस्थानों में इस दशाकाल में युवक-युवतियां एक-दूसरे के साथ भाग जाते है । नीव और भ्रष्ट स्त्रियों अथवा पुरुषों के साथ प्रेम्प्रसंगों के कारण लोकोपवाद सहना पडता है। अनीति और अधर्म के कार्यों में चित्त खूब लगता है, धनलिप्सा बढ़ जाती है, अधिकारी वर्ग रिश्वत लेते पकडे जाते है। पत्नी एव पुत्रों से कलह होती है। जातक वेश्यागमन और सुरापान में अर्जित सम्पत्ति का नाश करता है । प्रतिश्याय, शुक्रक्षय, प्रमेह, से देह से पीडा होती है। मन में इर्षा द्वेष अपना स्थायी स्थान बना लेते है। जातक उन्नति की अपेक्षा अवनति को ही प्राप्त होता है।
सूर्य-केतु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा में शुभाशुभ दोनों प्रकार के फल मिलते हैं । यदि शुभ और बलवान सूर्य हो तो देह सुख, द्रव्य सुख, राज्यानुग्रह एव स्वल्प वैभव व तीर्थाटन आदि पाल मिलते हैं । अशुभ सूर्य होने पर जातक के मन में भ्रम व बुद्धि में आवेश आ जाता है। जातक व्यर्थ में क्रोध करने वाला, अपने से दण्ड पाने सीता तथा पदोन्नति में वस्थाओ का सामना करने बाता होता है । वाद-विवाद में पराजय, प्रवास में धनहानि और देहकष्ट निलता है । दुर्घटना में हड्डी टूटने का भय अथवा अंग-भंग होने की आशंका रहती है। निकृष्ट भोजन खाने से देह मेँ विषैला प्रभाव, आंखों से जलन, पित्त में उग्रता तथा शिरोवेदना होती है । माता-पिता से कलह, चोर, सर्प, अग्नि से भय तथा सभी कार्यों में असफलता मिलने से मन में हीनता आ जाती है। अपपृत्यु का भय रहता है।
चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा अपने उच्च स्थान मै, स्वस्थान में केन्द्र या त्रिकोण का अधिपति होकर शुभ ग्रह से युक्त या दृष्ट हो तथा पूर्ण बली हो तो अपनी अन्तर्दशा आने पर शुभ फलों को देता है । इस दशाकाल में जातक सत्ता में मान-आदर पाता है। भूमि, धन का लाभ होता है, वाहन, निवास क्या वस्त्राभूषण की प्राप्ति और सरोवर, देवालय आदि बनाने में धन का व्यय क्या स्त्री-पुत्र आदि से सुख मिलता है। अशुभ चन्द्र की अन्तर्दशा में जातक कामान्ध हो, उंच-नीच, धर्म-जाति का विचार त्पाग कर प्रेम-प्रसंग बना लेता है । लोकोपवाद, अपयश तथा परिजनों से विरोध के कारण मानहानि, दुर्गम स्थानो, पुराने और सुनसान भवनों में घूमने का शौक बढ़ता है । जातक में भावुकता बढ़ जाती है, जिसके कारण अविवेकी बन वह प्रत्येक कार्य में हानि उठाता है । इस दशा से शुभाशुभ मिश्रित फल प्राप्त होते हैं ।
मंगल- क्षत्रिय ग्रह है तथा केतु से भी मंगल के गुणों की प्रधानता है, इसलिए शुभ और बलवान मंगल की अन्तर्दशा में जातक के उत्साह से वृद्धि हो जाती है, जातक साहसिक और प्रारंभिक कार्यों में विक्षेप रुधि लेता है क्या इनमें सफल होकर मान-सम्मान तथा पारितोषिक प्राप्त करता है ।सैन्य कर्मचारी हो तो पद में वृद्धि और सेवापदक तथा धन मिलता है । जातक में हिंसक प्रवृत्ति बढ़ जाती है जो कि सेना को छोड़कर अन्य जगह अशोभनीय मानी जाती है। अशुभ मंगल की अन्तर्दशा में हिंसक प्रवृत्ति अधिक उग्र हो जाती है तथा जातक क्रोध में हत्या तक कर डालता है और परिणामस्वरुप कारावास दण्ड अथवा मृत्युदण्ड पाता है | अभक्ष्य-भक्षण करता है, फलत: रक्तविकार, रक्तचाप, रक्तार्श, फोड़ा-फुन्सी एवं उद व्याधि से पीडित होता है।
राहु-यदि राहु शुभ राशिगत होकर केन्द्र, त्रिक्रोण अथवा शुभ स्थान में हो तो केतु महादशा में जब राहु की अन्तर्दशा आती है तो जातक को अहिंसक रूप से तत्काल धनलाभ एव ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। किसी प्लेच्छ (विदेशी पश्चिम.) से विशेष सहायता मिलती है । चौपायों का व्यवसाय लाभप्रद रहता है । जातक ग्रामसभा का सदस्य बनता है । अशुभ राहु की अन्तर्दशा में अत्यन्त निकृष्ट फल मिलते हैं । कुकर्मों के लिए राज्य से दण्ड मिलता है। छोर, अग्नि, दुर्घटना का भय रहता है, सर्पदंश के कारण मृत्यु के दर्शन होते हैं, लेकिन जान बच जाती है । सभी कार्यों में असफलता मिलती है । बनंघु-बान्धवों, परिजनों से वल्लाह होती है क्या वियोग होता है, सप्तमेश से युक्त हो तो जीवनसाथी की मृत्यु अथवा तलाक हो जाता है, रीढ के हड्डी में दर्द, वातरोग, अफारा, मन्दाग्नि आदि से देहपीड़ा होती है। विषम ज्वर स्वास्थ्य क्षीण कर मरणान्तक कष्ट देता है ।
बृहस्पति-शुभ, बलवान एबं कारक बृहस्पति की अन्तर्दशा में जातक का चित्त पूर्व दशा की अपेक्षा कुछ शान्त एवं धर्म कार्यों में रुचि लेने वाला रहता है, तीर्थयात्रा तथा देशाटन में धन का सद्व्यय होता है । ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में उन्नति होती है, मन में उत्साह बना रहता है । देव-गौ-ब्राहाण के प्रति निष्ठा और इनकी कृपा से सम्पति का लाभ होता है । सात्विक एवं उच्च विचार बन जाते हैं, स्वाध्याय, मन्त्रजाप तथा ईश्वर आराधना में खूब मन लगता है। ग्रन्थ-लेखन से सम्मान प्राप्त होता है। अशुभ बृहस्पति की अन्तर्दशा चलने पर पुत्रलाभ, स्त्री को रोग अथवा उस से वियोग तथा स्थानच्युति होती है । प्रवास अधिक करने होते हैं, यात्रा में चोर-ठगों द्वार सम्पति की हानि होती है । नीच लोगों की संगति के कारण अपवाद एव अपयश मिलता है । क्रोधावेग बढ़ जाता है और जातक व्यर्थ में झगडे करता है। सर्पविष से मृत्यु समान कष्ट मिलता है, किन्तु प्राणान्त नहीं होता ।
शनि-यदि शनि परमोच्व, स्यस्थान में, शुभ ग्रह से युक्त या दुष्ट हो तो जाता को अपनी अन्तर्दशा में शुभाशुभ दोनों प्रकार के पाल प्रदान करता है । जातक के सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं, स्वग्राम में मुखिया अथवा ग्रामसभा का सदस्य बनता है, धर्म के अपेक्षा अधर्म में रुचि रहती है, लोहे, काष्ठादि के व्यवसाय में लाभ मिलता है, अष्ट व्यवसाय से हानि मिलती है । अशुभ, अस्त, वक्री शनि की अन्तर्दशा में जातक अनेक कष्ट भोगता है जीवकोपार्जन के लिए भटकना पड़ता है, कठिन श्रम करने पर भी इष-सिद्धि नहीं होती अनेक अशुभ समाचार सुनने को मिलते हैं, शत्रु प्रबल हो जाते हैं तथा घात लगाकर हमला करते है । दूषित अन्न ग्रहण करने से वात-कफ दूषित हो जाते हैं, वायुगोला, कास, स्वास,गठिया, मन्दाकिनी आदि रोग हो जाते हैं । स्व-बन्धुओ से मनोमाल्नीय बढ़ता है जायदाद के मुकाबले में हार एव परदेश गमन होता है ।
बुध- यदि बुध शुभ, बलवान अवस्था में हो तथा उसकी अंतर्दशा वर्तमान हैं तो शुभ फल मिलते हैं । जातक शति दज्ञाकाल में प्राप्त दुखों से छुटकारा पाकर किंचित सुख की सास लेता है। पठन-पाठन में रुचि बढ़ती है। रुके कार्य पूरे हो जाते हैं लोक-समाज में मान-सम्मान बढता है। विधुत समाज के साथ सपागम, आप्तजनों से मिलन एव सप्पत्ति लाभ होता है। पुराने मित्र से मिलने की प्रबलता, नवीन ज्ञान के प्राप्ति, कार्य-व्यवसाय में प्रगति एव सुयश मिलता है। अशुभ बुध की अन्तर्दधग़ में जावा-व्यवसाय में हानि प्राप्त होती है। गृह-कलह
बढ़ जाती है, मित्र भी शत्रुवत व्यवहार करते हैं, शत्रुओ, चोरों और ठगों से सप्पत्ति हानि का भय, सन्तान को पीडा मिलती है । मन को सन्ताप तथा देह को बात्त-पित्तजन्य रोग, उदरशूल, कामता, गठिया आदि से कष्ट मिलता है।


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कौन है रावण?

पुलत्स्य ऋषि के उत्कृष्ट कुल में जन्म लेने के बावजूद रावण का पराभव और अधोगति के अनेक कारणों में मुख्य रूप से दैविक एवं मानवीय कारणों का उल्लेख किया जाता है। दैविक एवं प्रारब्ध से संबंधित कारणों में उन शापों की चर्चा की जाती है जिनकी वजह से उन्हें राक्षस योनि में जाना पड़ा। शक्तियों के दुरुपयोग ने उनके तपस्या से अर्जित ज्ञान को नष्ट कर दिया था। ब्राह्मण कुल में जन्म लेने के बावजूद अशुद्ध, राक्षसी आचरण ने उन्हें पूरी तरह सराबोर कर दिया था और हनुमानजी को अपने समक्ष पाकर भी रावण उन्हें पहचान नहींं सका था कि ये उसके आराध्य देव शिव के अवतार हैं। रावण के अहंकारी स्वरूप से यह शिक्षा मिलती है कि शक्तियों के नशे में चूर होने से विनाश का मार्ग प्रशस्त होता है। भक्त के लिए विनयशील, अहंकाररहित होना प्राथमिक आवश्यकता है। पौराणिक संदर्भों के अनुसार पुलत्स्य ऋषि ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक माने जाते हैं। इनकी गिनती सप्तऋषियों और प्रजापतियों में की जाती है। विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा ने पुलत्स्य ऋषि को पुराणों का ज्ञान मनुष्यों में प्रसारित करने का आदेश दिया था। पुलत्स्य के पुत्र विश्रवा ऋषि हुए, जो हविर्भू के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। विश्रवा ऋषि की एक पत्नी इलबिड़ा से कुबेर और कैकसी के गर्भ से रावण, कुंभकर्ण, विभीषण और शूर्पणखा पैदा हुए थे। सुमाली विश्रवा के श्वसुर व रावण के नाना थे। विश्रवा की एक पत्नी माया भी थी, जिससे खर, दूषण और त्रिशिरा पैदा हुए थे और जिनका उल्लेख तुलसी की रामचरितमानस में मिलता है।  दो पौराणिक संदर्भ रावण की स्थिति को स्पष्ट करने के लिए जरूरी हैं। एक कथा के अनुसार भगवान विष्णु के दर्शन हेतु सनक, सनंदन आदि ऋषि बैकुंठ पधारे परंतु भगवान विष्णु के द्वारपाल जय और विजय ने उन्हें प्रवेश देने से इंकार कर दिया। ऋषिगण अप्रसन्न हो गए और क्रोध में आकर जय-विजय को शाप दे दिया कि तुम राक्षस हो जाओ। जय-विजय ने प्रार्थना की व अपराध के लिए क्षमा माँगी। भगवान विष्णु ने भी ऋषियों से क्षमा करने को कहा। तब ऋषियों ने अपने शाप की तीव्रता कम की और कहा कि तीन जन्मों तक तो तुम्हें राक्षस योनि में रहना पड़ेगा और उसके बाद तुम पुन: इस पद पर प्रतिष्ठित हो सकोगे। इसके साथ एक और शर्त थी कि भगवान विष्णु या उनके किसी अवतारी स्वरूप के हाथों तुम्हारा मरना अनिवार्य होगा। यह शाप राक्षसराज, लंकापति, दशानन रावण के जन्म की आदि गाथा है। भगवान विष्णु के ये द्वारपाल पहले जन्म में हिरण्याक्ष व हिरण्यकशिपु राक्षसों के रूप में जन्मे। हिरण्याक्ष राक्षस बहुत शक्तिशाली था और उसने पृथ्वी को उठाकर पाताललोक में पहुँचा दिया था। पृथ्वी की पवित्रता बहाल करने के लिए भगवान विष्णु को वराह अवतार धारण करना पड़ा था। फिर विष्णु ने हिरण्याक्ष का वधकर पृथ्वी को मुक्त कराया था। हिरण्यकशिपु भी ताकतवर राक्षस था और उसने वरदान प्राप्तकर अत्याचार करना प्रारंभ कर दिया था।भगवान विष्णु द्वारा अपने भाई हिरण्याक्ष का वध करने की वजह से हिरण्यकशिपु विष्णु विरोधी था और अपने विष्णुभक्त पुत्र प्रह्लाद को मरवाने के लिए भी उसने कोई कसर नहींं छोड़ी थी। फिर भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार धारण कर हिरण्यकशिपु का वध किया था। खंभे से नृसिंह भगवान का प्रकट होना ईश्वर की शाश्वत, सर्वव्यापी उपस्थिति का ही प्रमाण है।
त्रेतायुग में ये दोनों भाई रावण और कुंभकर्ण के रूप में पैदा हुए और तीसरे जन्म में द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने श्रीकृष्ण के रूप में जन्म लिया, तब ये दोनों शिशुपाल व दंतवक्त्र नाम के अनाचारी के रूप में पैदा हुए थे। इन दोनों का ही वध भगवान श्रीकृष्ण के हाथों हुआ।  त्रेतायुग में रावण के अत्याचारों से सर्वत्र त्राहि-त्राहि मची हुई थी। रावण का अत्यंत विकराल स्वरूप था और वह स्वभाव से क्रूर था। उसने सिद्धियों की प्राप्ति हेतु अनेक वर्षों तक तप किया और यहाँ तक कि उसने अपने सिर अग्नि में भेंट कर दिए। ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर रावण को वर दिया कि दैत्य, दानव, यक्ष, कोई भी परास्त नहींं कर सकेगा, परंतु इसमें ‘नर’ और ‘वानर’ को शुमार नहींं किया गया था। इसलिए नर रूप में भगवान श्रीराम ने जन्म लिया, जिन्होंने वानरों की सहायता से लंका पर आक्रमण किया और रावण तथा उसके कुल का विनाश हुआ। प्रकांड पंडित एवं ज्ञाता होने के नाते रावण संभवत: यह जानता था कि श्रीराम के रूप में भगवान विष्णु का अवतार हुआ है। छल से वैदेही का हरण करने के बावजूद उसने सीता को महल की अपेक्षा अशोक वाटिका में रखा था क्योंकि एक अप्सरा रंभा का शाप उसे हमेशा याद रहता था कि ‘रावण, यदि कभी तुमने बलात्कार करने का प्रयास भी किया तो तुम्हारा सिर कट जाएगा।’ खर, दूषण और त्रिशिरा की मृत्यु के बाद रावण को पूर्ण रूप से अवगत हो गया था कि वे ‘‘मेरे जैसे बलशाली पुरुष थे, जिन्हें भगवान के अतिरिक्त और कोई नहींं मार सकता था।’’कुछेकों का मत है कि रावण एक विचारक व दार्शनिक पुरुष था। वह आश्वस्त था कि यदि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम भगवान हैं तो उनके हाथों मरकर उनके लोक में जाना उत्तम है और यदि वे मानव हैं तो उन्हें परास्त कर सांसारिक यश प्राप्त करना भी उचित है। अंतत: रावण का परास्त होना इस बात का शाश्वत प्रमाण है कि बुराइयों के कितने ही सिर हों, कितने ही रूप हों, सत्य की सदैव विजय होती है। विजयादशमी को सत्य की असत्य पर विजय के रूप में देखा जाता है। कहते हैं कि भगवान श्रीराम ने त्रेतायुग में नवरात्रि का व्रत करने के बाद ही रावण का वध किया था।


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कुंडली योगों के अनुसार करें बच्चों का पालन

सनातन हिंदू धर्म बहुत सारे संस्कारों पर आधारित है, जिसके द्वारा हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन को पवित्र और मर्यादित बनाने का प्रयास किया था। ये संस्कार ना केवल जीवन में विशेष महत्व रखते हैं, बल्कि इन संस्कारों का वैज्ञानिक महत्व भी सर्वसिद्ध है। गौतम स्मृति में कुल चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है, वहीं महर्षि अंगिरा ने पच्चीस महत्वपूर्ण संस्कारों का उल्लेख किया है तथा व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है जोकि आज भी मान्य है। माना जाता है कि मानव जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक प्रमुख रूप से सोलह संस्कार करने चाहिए। वैदिक काल में प्रमुख संस्कारों में एक संस्कार गर्भाधान माना जाता था, जिसमें उत्तम संतति की इच्छा तथा जीवन को आगे बनाये रखने के उद्देश्य से तन मन की पवित्रता हेतु यह संस्कार करने के उपरांत पुंसवन संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे माह में किया जाने वाला संस्कार गर्भस्थ शिशु के स्वस्थ्य और उत्तम गुणों से परिपूर्ण करने हेतु किया जाता था, गर्भाधान के छठवे माह में गर्भस्थ शिशु तथा गर्भिणी के सौभाग्य संपन्न होने हेतु यह संस्कार किये जाने का प्रचलन है। उसके उपरांत नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व जातकर्म करने का विधान वैदिक काल से प्रचलित है जिसमें दो बूंद घी तथा छ: बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर नौ मंत्रों का विशेष उच्चारण कर शिशु को चटाने का विधान है, जिससे शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना की जाती थी। जिसके उपरांत प्रथम स्तनपान का रिवाज प्रचलित था। उसके उपरांत शिशु के जन्म के ग्यारवहें दिन नामकरण संस्कार करने का विधान है। यह माना जाता है कि ‘‘राम से बड़ा राम का नाम’’ अत: नामकरण संस्कार का महत्व जीवन में प्रमुख है। अत: यह संस्कार ग्यारहवें दिन शुभ घड़ी में किये जाने का विधान है। नामकरण के उपरांत निस्क्रमण संस्कार किया जाता है, जिसे शिशु के चतुर्थ माह के होने पर उसे सूर्य तथा चंद्रमा की ज्योति दिखाने का प्रचलन है, जिससे सूर्य का तेज और चंद्रमा की शीतलता शिशु को मिले, जिससे उसके व्यवहार में तेजस्व और विनम्रता आ सकें। उसके उपरांत अन्नप्राशन शिशु के पंाच माह के उपरांत किया जाता है जिससे शिशु के विकास हेतु उसे अन्न ग्रहण करने की शुरूआत की जाती है। चूड़ाकर्म अर्थात् मुंडन संस्कार पहले, तीसरे या पांचवे वर्ष में किया जाता है, जोकि शुचिता तथा बौद्धिक विकास हेतु किया जाता है। जिसके उपरांत विद्यारंभ संस्कार का विधान है जिसमें शुभ मुहूर्त में अक्षर ज्ञान दिया जाना होता है। उसके उपरांत कर्णेभेदन, यज्ञोपवीत तथा केशांत जिससे बालक वेदारम्भ तथा क्रिया-कर्मों के लिए अधिकारी बन सके अर्थात वेद-वेदान्तों के पढऩे तथा यज्ञादिक कार्यों में भाग ले सके। गुरु शंकराचार्य के अनुसार ‘‘संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्दोशापनयनेन वा’’ अर्थात मानव को गुणों से युक्त करने तथा उसके दोषों को दूर करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे ही संस्कार कहते हैं। इन संस्कारों के बिना एक मानव के जीवन में और किसी अन्य जीव के जीवन में विशेष अंतर नहींं है। ये संस्कार व्यक्ति के दोषों को खत्म कर उसे गुण युक्त बनाते हैं। महान विद्वान चाणक्य ने कहा था कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को सिर्फ प्यार से समझा कर सिखाना चाहिए। उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा ज्ञान देने की कोशिश करना चाहिए। बाद में ये बात कई वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च में साबित की कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को जो भी सिखाया जाए वो हमेशा याद रहता है। लेकिन बच्चों को सिखाने की ये बात सिर्फ किताबों तक सीमित नहींं होनी चाहिए। बच्चे अक्षर या अंकों का ज्ञान तो लेंगे ही, लेकिन इसी उम्र में उनमें संस्कार और आचरण की नींव डालना भी बेहद ज़रूरी है। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें जैसा रूप देना चाहें, दे सकते हैं। उनके अच्छे भविष्य और उन्हें बेहतर इंसान बनाने के लिए सही परवरिश जरूरी है। अधिकतर अभिभावक के लिए परवरिश का अर्थ केवल अपने बच्चों की खाने-पीने, पहनने-ओढऩे और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना है। इस तरह से वे अपने दायित्व से तो मुक्त हो जाते हैं लेकिन क्या वे अपने बच्चों को अच्छी आदतें और संस्कार दे पाते हैं, जिनसे वे आत्मनिर्भर और जिम्मेदार बन सकें।
हर बच्चा अलग होता है। उन्हें पालने का तरीका अलग होता है। बच्चों की सही परवरिश के लिए हालात के मुताबिक परवरिश की जरूरत होती है। सवाल यह है कि बच्चे के साथ कैसे पेश आएं कि वह अनुशासन में रहे और जीवन में सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें, सभी का सम्मान करें, अपने जीवन में सदाचार बनाये रखें। अक्सर अभिभावक इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि हम अपने बच्चों की परवरिश किस तरह से करें तो हम आपको बताते हैं आपके बच्चे की कुंडली में क्या योग बन रहे हैं और उन योगों के अनुसार आप अपने बच्चे के कौन से गुणों को उभार सकते हैं और कौन से ऐसे दोष हैं जिन्हें सुधारने की आवश्यकता हो सकती है या उसमें बदलाव लाना होगा। कुछ ऐसे ज्योतिषीय तरीके जो आपकी मदद करेंगे आपके बच्चे को योग्य और सामथ्र्यवान बनाने के साथ सुखी और खुशहाल बनाने में सहयोगी होते हैं। आप सबसे पहले अपने बच्चे की कुंडली किसी योग्य ज्योतिषाचार्य को दिखायें और देखें कि उसके जन्मांग में कौन-कौन से योग हैं जो उन्हें भटका सकते हैं और कौन से योग हैं जिन्हें उभारने की जरूरत है। जिनमें से देखें कि कुछ योग इस प्रकार हो सकते हैं-
* कुंडली में मंगल-शुक्र की युति के कारण बच्चों राह से भटकते है। कुंडली में शुक्र चन्द्र की युति से काल्पनिक होने से पढ़ाई में बाधा आती है तथा बच्चे-बच्चियों को अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षित करते हैं। चंद्रमा कमजोर हो तो बच्चा बहुत भावुक होता है। ऐसे बच्चो को कुछ स्वार्थी लोग बच्चे/बच्चियां ब्लैकमेल करते हैं।
* कुंडली में चन्द्र राहु की युति हो तो बच्चे के मन में खुराफातें उपजती हैं। चन्द्र राहु की युति होने से कई प्रकार के भ्रम आते हैं और उन भ्रमों से बाहर निकलना ही नहीं हो पाता है।
* मंगल शनि की युति हो और मंगल बहुत बली हो तो बच्चा किसी को भी हानि पहुँचाने से नहींं डरेगा। गुरु खराब हो, नीच, अस्त, वक्री हो तो बच्चा अपने माता-पिता, बड़े बुजुर्ग किसी की भी इज्जत नहींं करेगा।
* पांचवें भाव, पांचवें भाव का स्वामी और चंद्रमा भावनाओं को नियंत्रित करता है, अत: ये ग्रह खराब स्थिति में हों तो आत्मनियंत्रण में कमी होती है।
लग्न, पांचवें या सातवें भाव पर उनके प्रभाव से व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है।
* तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह और मंगल साहस का कारक हैं। यदि ये ग्रह छठे, आठवे या बारहवे स्थान में हों तो अतिवादी होने से लड़ाई होने की संभावना बहुत होती है।
* राहु तथा बारहवें और आठवें भाव के स्वामी सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* शुक्र, चंद्रमा, आठवें भाव लग्न या सातवें भाव के साथ जुड़ कर सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* राहु, शुक्र और भावनाओं और साहस के कारकों के साथ जुडक़र प्यार के लिए जुनून दिखाता है। बच्चा उम्र की अनदेखी, सभी सामाजिक मानदंडों की अनदेखी कर सुख की इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता हैं। शुक्र और सप्तम घर की कमजोरी अतिरिक्त योगदान करता है। पंचम की स्थिति सातवें या आठवें भाव में हो तो विपरीत सुख के लिए झुकाव देता है। प्यार और लगाव के लिए जिम्मेदार ग्रह शनि, चंद्रमा, शुक्र और मंगल ग्रह और पंचम या सप्तम या द्वादश स्थान में होने से बचपन में ही स्थिति खराब हो जाती है।
* मोह, हानि, आत्महत्याओं के लिए अष्टम भाव को देखा जाता है। मन के संतुलन के हानि के लिए 12वां भाव और बुध गृह को देखना होता है। मन का भटकाव मंगल, राहु, बुध, शुक्र और चंद्रमा ग्रह की दशा और 5, 7वीं, 8वीं और 12वीं भाव के साथ संबंध हो तब होता है।
* आठवें भाव जो की वैवाहिक जीवन, विधवापन, पापों-घोटालों, यौन अंग, रहस्य मामलों तथा अश्लील हरकतों के लिए देखा जाता है।
* जब शनि और राहु की स्थिति विपरीत हो तो अनुशासन में रहना सिखाएं।
* बच्चा जब बड़ा होने लगता है तब ही से उसे नियम में रहने की आदत डालें। ‘‘अभी छोटा है बाद में सीख जाएगा यह रवैया खराब है।’’ उन्हें शुरू से अनुशासित बनाएं। कुछ पेरेंट्स बच्चों को छोटी-छोटी बातों पर निर्देश देने लगते हैं और उनके ना समझने पर डांटने लगते हैं, कुछ माता-पिता उन्हे मारते भी हैं। यह तरीका भी गलत है। वे अभी छोटे हैं, आपका यह तरीका उन्हें जिद्दी और विद्रोही बना सकता है। यदि आपके बच्चे की कुंडली में लग्र, द्वितीय, तीसरे या एकादश स्थान में शनि हो तो आपका बच्चा शुरू से ही जिद्दी होगा, अत: ऐसी स्थिति में उसे शुरू से ही अनुशासन में रहने की आदत डालें, इसके लिए उसे प्यार से समझाते हुए अनुशासित करें एवं उसकी जिद्द के उचित और अनुचित होने का भान कराते हुए भावनाओं को नियंत्रण में रखना सिखायें।
* जब तृतीयेश, छठे, आठवे या बारहवे स्थान में या क्रूर ग्रहों अथवा राहु से पापाक्रांत होकर बैठा हो तो उनके साथ दोस्ताना व्यवहार करें।
* अगर आपके बच्चे में यदि तीसरा स्थान कमजोर या नीच का होगा तो उसे कमजोर मनोबल वाला व्यक्तित्व देगा, जिससे यदि वह किसी गलत व्यक्ति के उपर भरोसा कर लें तो गलत आदतें सीख सकता है। अत: इसके लिए आप अपने बच्चे के स्वयं अच्छे दोस्त बनें और उसे साकारात्मक दिशा में प्रयास करने के लिए प्रेरित करें।
* यदि आपके बच्चे का लग्रेश और गुरू अथवा सूर्य या चंद्रमा कमजोर हो तो ऐसा जातक कमजोर आत्मविश्वास का होता है इसके लिए उसे आत्मनिर्भर बनाएं।
* बचपन से ही उन्हें अपने छोटे-छोटे फैसले खुद लेने दें। जैसे उन्हें डांस क्लास जाना है या जिम। फिर जब वे बड़े होंगे तो उन्हें सब्जेक्ट लेने में आसानी होगी। आपके इस तरीके से बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा और वे भविष्य में चुनौतियों का सामना डट कर, कर पाएंगे। ऐसे बच्चों को उसके छोटे-छोटे निर्णय लेने में सहयोग करें किंतु निर्णय उसे स्वयं करने दें। साथ ही ये शिक्षा भी दें कि क्या गलत है और क्या उनके लिए सही। इसके लिए उन्हें ग्रहों की शांति तथा मंत्रों के जाप का सहारा लेने की आदत डालें और सही गलत का फैसला स्वयं करने दें।
* यदि आपके बच्चे के एकादश एवं द्वादश स्थान का स्वामी विपरीत या नीच को हो तो गलत बातों पर टोकें।
* बढ़ती उम्र के साथ-साथ बच्चों की बदमाशियां भी बढ़ जाती है। जैसे- मारपीट करना, गाली देना, बड़ों की बात ना मानना आदि। ऐसी गलतियों पर बचपन से ही रोक लगा देना चाहिए ताकि बाद में ना पछताना पड़े। ऐसे बच्चों की कुंडली बचपन में देखें कि क्या आपके बच्चे का तीसरा, एकादश एवं पंचम स्थान दूषित तो नहींं है, ऐसी स्थिति में इन आदतों पर बचपन से काबू करने की कोशिश करें, इसके लिए कुंडली में ग्रहों की शांति का भी उपाय अपनायें।
* यदि दूसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह होकर कमजोर हो तो बच्चों के सामने अभद्र भाषा का प्रयोग ना करें।
* बच्चे नाजुक मन के होते हैं। उनके सामने बड़े जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही वे सीखेंगे। सबसे पहले खुद अपनी भाषा पर नियंत्रण रखें। सोच-समझकर शब्दों का चयन करें। आपस में एक दूसरे से आदर से बात करें। धीरे-धीरे यह चीज बच्चे की बोलचाल में आ जाएगी। कुंडली में स्थित कुछ योगों से पता चल सकता है की बच्चा किस प्रकार का है और उसी के अनुसार ही बच्चे पर ध्यान देना जरुरी है।
* इसके अलावा आप अपने बच्चे को शुरूआत से ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर उसकी कुंडली के दोषों को दूर करने एवं गुणों को बढ़ाने के उपाय कर सकते हैं।
* मंगल-केतु के लिए बच्चे को खेलकूद में डालें, जिससे उसकी उर्जा का सही उपयोग होगा, जिससे उसमें लडऩे-झगडऩे की नौबत नहींं आयेगी और उसकी उर्जा का सदुपयोग होगा।
* बच्चों की कुंडली में यदि लग्र के दूसरे, तीसरे या पंचम स्थान में शुक्र, चंद्रमा या राहु हो तो इस तरह के योग में उसे संगीत, डांस, पेंटिंग आदि किसी कला में डाले, जिससे भटकाव की संभावना कम होगी।
* यदि आपके बच्चे की कुंडली में गुरू विपरीत स्थान में हो तो उसे बड़ों का आदर करना सिखाएं, अपने बुजुर्गों का आदर करने से गुरु ग्रह मजबूत होगा।
जीवन में अनुशासन बनाये रखने एवं सही मार्ग पर बने रहने के लिए भगवान हनुमान और गणेश की पूजा, हनुमान चालीसा का पाठ तथा ध्यान करने की आदत डालें।
इस प्रकार बचपन से ही बच्चों की सही परवरिश में यदि जन्म कुंडली का सहारा लिया जाकर उसके ग्रहों के दोषों के अनुरूप प्रयास किया जाए तो आपका बच्चा ना केवल एक अच्छा नागरिक बनेगा अपितु सफलता की हर उचाई को भी छू लेगा। इसके साथ वयस्क होते बच्चे की कुंडली में यदि राहु-शुक्र या शनि की दशा चले तो भृगुकालेन्द्र पूजा करायें।

आस्था:जहाँ की जाती हैं बुलेट बाइक कि पूजा माँगी जाती हैं सकुशल यात्रा कि मन्नत

आप सब ने अपने जिंदगी में बहुत से मंदिरो में कई भगवानों कि पूजा कि होगी लेकिन कभी किसी मंदिर में बाइक कि पूजा नहीं कि होगी। आज हम आपको राजस्थान के पाली जिले में स्तिथ एक ऐसे स्थान के बारे में बता रहे है जहाँ कि सकुशल यात्रा के लिए बुलेट-350 बाइक कि पूजा कर दुआ मांगी जाती हैं। इस मंदिर को लोग बुलेट बाबा का मंदिर कहते हैं।
बुलेट बाबा का मंदिर जोधपुर से 50 किलो मीटर दूर जोधपुर - पाली हाईवे पर चोटिला गाँव के समीप स्तिथ है। यहाँ पर एक पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर ओम बन्ना (वह व्यक्ति जो उस बुलेट गाड़ी में एक्सीडेंट के दौरान मारा गया था) की बड़ी सी फ़ोटो लगी हुई हैं, इसके सामने एक अखंड ज्योत जलती रहती है। पेड़ से कुछ दूरी पर बुलेट 350 बाइक खड़ी है। इस रूट से गुजरने वाला हर वाहन चालक यहाँ पर शीश झुकाकर ही आगे बढ़ता है।
ओम बन्ना (ओम सिंह राठौड़) पाली शहर के पास ही स्थित चोटिला गांव के ठाकुर जोग सिंह जी राठौड़ के पुत्र थे। ओम बन्ना का 1988में अपनी बुलेट बाइक से जाते वक्त इसी स्थान पर इसी पेड़ से टकराकर निधन हो गया था। स्थानीय लोगों के अनुसार इस स्थान पर हर रोज कोई न कोई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाया करता था जिस पेड के पास ओम सिंह राठौड़ की दुर्घटना घटी, उसी जगह पता नहीं कैसे कई वाहन दुर्घटना का शिकार हो जाते यह रहस्य ही बना रहता था। कई लोग यहाँ दुर्घटना के शिकार बन अपनी जान गँवा चुके थे।
ओम सिंह राठोड़ की दुर्घटना में मृत्यु के बाद पुलिस ने अपनी कार्यवाही के तहत उनकी इस मोटर साईकिल को थाने लाकर बंद कर दिया लेकिन दूसरे दिन सुबह ही थाने से मोटर साईकिल गायब देखकर पुलिस कर्मी हैरान थे। आखिर तलाश करने पर मोटर साईकिल वही दुर्घटना स्थल पर ही पाई गई, पुलिस कर्मी दुबारा मोटर साईकिल थाने लाये लेकिन हर बार सुबह मोटर साईकिल थाने से रात के समय गायब हो दुर्घटना स्थल पर ही अपने आप पहुँच जाती। आखिर पुलिस कर्मियों व ओम सिंह के पिता ने ओम सिंह की मृत आत्मा की यही इच्छा समझ उस मोटर साईकिल को उसी पेड़ के पास छाया बना कर रख दिया। इस चमत्कार के बाद रात्रि में वाहन चालकों को ओम सिंह अक्सर वाहनों को दुर्घटना से बचाने के उपाय करते व चालकों को रात्रि में दुर्घटना से सावधान करते दिखाई देने लगे। वे उस दुर्घटना संभावित जगह तक पहुँचने वाले वाहन को जबरदस्ती रोक देते या धीरे कर देते ताकि उनकी तरह कोई और वाहन चालक असामयिक मौत का शिकार न बने। और उसके बाद आज तक वहाँ दुबारा कोई दूसरी दुर्घटना नहीं हुई।
ओम सिंह राठौड़ के मरने के बाद भी उनकी आत्मा द्वारा इस तरह का नेक काम करते देखे जाने पर वाहन चालकों व स्थानीय लोगों में उनके प्रति श्रद्धा बढ़ती गयी और इसी श्रद्धा का नतीजा है कि ओम बन्ना के इस स्थान पर हर वक्त उनकी पूजा अर्चना करने वालों की भीड़ लगी रहती है। उस राजमार्ग से गुजरने वाला हर वाहन यहाँ रुक कर ओम बन्ना को नमन करता है और बुलेट गाड़ी के सामने सिर झुकाता है। दूर दूर से लोग उनके स्थान पर आकर उनमें अपनी श्रद्धा प्रकट कर उनसे व उनकी मोटर साईकिल से मन्नत मांगते है कि वो उन्हें इस तरह की दुर्घटनाओं से सदा दूर रखें।

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असत्य पर सत्य की जीत

हर तरफ फैले भ्रष्टाचार और अन्याय रूपी अंधकार को देखकर मन में हमेशा उस उजाले की चाह रहती है जो इस अंधकार को मिटाए। कहीं से भी कोई आस ना मिलने के बाद हमें हमारी संस्कृति के ही कुछ पन्नों से आगे बढऩे की उम्मीद मिलती है। हम सबने रामायण को किसी ना किसी रूप में सुना, देखा और पढ़ा ही होगा। रामायण हमें यह सीख देता है कि चाहे असत्य और बुरी ताकतें कितनी भी ज्यादा हो जाएं, पर अच्छाई के सामने उनका वजूद एक ना एक दिन मिट ही जाता है। अंधकार के इस मार से मानव ही नहींं भगवान भी पीडि़त होते हैं। सच और अच्छाई ने हमेशा सही व्यक्ति का साथ दिया है।अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है, इसीलिए इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पाप यथा काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है।
राम और रावण की कथा तो हम सब जानते ही हैं जिसमें राम को भगवान विष्णु का एक अवतार बताया गया है। राम महान राजा दशरथ के पुत्र थे और पिता के वचन के कारण उन्होंने 14 साल का वनवास सहर्ष स्वीकार किया था। लेकिन वनवास के दौरान ही रावण नामक एक राक्षस ने भगवान राम की पत्नी सीता का हरण कर लिया था। अपनी पत्नी को असुर रावण से छुड़ाने और इस संसार को रावण के अत्याचार से मुक्त कराने के लिए राम ने रावण के साथ दस दिनों तक युद्ध किया था और दसवें दिन रावण के अंत के साथ इस युद्ध को समाप्त कर दिया था। वह चाहते तो अपनी शक्तियों से सीता को छुड़ा सकते थे लेकिन मानव जाति को यह पाठ पढ़ाने के लिए कि ‘‘हमेशा बुराई अच्छाई से नीचे रहती है और चाहे अंधेरा कितना भी घना क्यूं न हो एक दिन मिट ही जाता है।’’ उन्होंने मानव योनि में जन्म लिया और एक आदर्श प्रस्तुत किया।दशहरा भारत के उन त्यौहारों में से है जिसकी धूम देखते ही बनती है। बड़े-बड़े पुतले और झांकियां इस त्यौहार को रंगा-रंग बना देती हैं। रावण, कुंभकर्ण और मेघनाथ के पुतलों के रूप में लोग बुरी ताकतों को जलाने का प्रण लेते हैं। आज दशहरे का मेला छोटा होता जा रहा है लेकिन दशहरा आज भी लोगों के दिलों में भक्तिभाव को ज्वलंत कर रहा है।
दुर्गा पूजा:
विजयदशमी को देश के हर हिस्से में मनाया जाता है। बंगाल में इसे नारी शक्ति की उपासना और माता दुर्गा की पूजा अर्चना के लिए श्रेष्ठ समयों में से एक माना जाता है। अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर बंगाल में दशहरा का मतलब है दुर्गा पूजा। बंगाली लोग पांच दिनों तक माता की पूजा-अर्चना करते हैं जिसमें चार दिनों का अलग महत्व होता है। ये चार दिन पूजा के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें दिन होते हैं जिन्हें क्रमश: सप्तमी, अष्टमी, नौवीं और दसमी के नामों से जाना जाता है। दसवें दिन प्रतिमाओं की भव्य झांकियां निकाली जाती हैं और उनका विसर्जन पवित्र गंगा में किया जाता है। गली-गली में मां दुर्गा की बड़ी-बड़ी प्रतिमाओं को राक्षस महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है।
देश के अन्य शहरों में भी हमें दशहरे की धूम देखने को मिलती है। गुजरात में जहां गरबा की धूम रहती है तो कुल्लू का दशहरा पर्व भी देखने योग्य रहता है। बस्तर का दशहरा भी देश में खासा प्रसिद्ध है।दशहरे के दिन हम तीन पुतलों को जलाकर बरसों से चली आ रही परपंरा को तो निभा देते हैं लेकिन हम अपने मन से झूठ, कपट और छल को नहीं निकाल पाते। हमें दशहरे के असली संदेश को अपने जीवन में भी अमल में लाना होगा तभी यह त्यौहार सार्थक बन पाएगा।
दशेंद्रियों पर विजय:
वैदिक परम्परा में जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण क्षण अज्ञान से बाहर निकल कर ज्ञान प्राप्ति अथवा मुक्ति का क्षण माना गया है। दशहरा का अर्थ है, वह पर्व जो दसों प्रकार के पापों को हर ले। इस दिन को विजय दशमी का दिन भी स्वीकार किया गया है। एक मान्यता के अनुसार आश्विन-शुक्ल-दशमी को तारा उदय होने के समय ‘विजय’ नामक काल होता है। यह काल सर्वकार्य सिद्धिदायक होता है। यह वह क्षण है जब दशेंद्रियों पर सम्पूर्ण विजय प्राप्त कर मानव जीवन की सीमाओं का उल्लंघन कर ज्ञान प्राप्त करता है। इसीलिए दशहरे के पर्व को ‘सीमोल्लंघन’ के नाम से भी पुकारा जाता है। पूर्वी भारत में यह ‘बिजोया’ नव वर्ष की भाँति उल्लास से नवरात्रि के रूप में मनाया जाता है। यहाँ इसे मां भगवती की महिषासुर पर विजय का प्रतीक माना जाता है।
विजयदशमी का त्योहार वर्षा ऋतु की समाप्ति तथा शरद के आगमन की सूचना देता है। ब्राह्मण इस दिन सरस्वती का पूजन करते हैं जबकि क्षत्रिय शास्त्रों की पूजा करते हैं। अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में यह त्योहार सदियों से भारत के कोने कोने में मनाया जाता है। यह अधर्म पर धर्म की विजय का द्योतक माना गया और दशमी के इस दिन को विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा।
एक अन्य कथा के अनुसार परशुराम की माता रेणुका ने शापग्रस्त देवताओं के आग्रह पर उनके कुष्ठ रोग दूर करने के लिए अपने पति ‘भृगु’ की आज्ञा के बिना नौ दिन तक देवताओं की सेवा की फलत: दसवें दिन उनका कोढ़ दूर हो गया। शाप मुक्त होने के कारण देवताओं ने यह दिवस दु:ख मुक्ति अथवा विजय दिवस के रूप में मनाया। इस दिन आश्विन-शुक्ल दशमी थी अत: तभी से यह दिन विजय दशमी के रूप में मनाया जाने लगा। इसी प्रकार इस दिन को नरकासुर राक्षस के वध के साथ भी जोड़ा जाता है। कहते हैं कि नरकासुर ने अपनी इच्छा की पूर्ति के लिए 1600 स्त्रियों की बलि देने का निश्चय किया। उसे वरदान प्राप्त था कि उसका वध केवल नारी द्वारा ही होगा। भगवान श्री कृष्ण ने ‘सत्यभामा’ के हाथों उसका वध करवाया। नरकासुर के हाथों बच जाने के कारण नारियों ने इसे विजय पर्व के रूप में मनाया। चाहे राम ने रावण का संहार किया हो अथवा अर्जुन द्वारा कौरवों पर विजय पाई गई हो, यह दिवस सर्वत्र निर्विवाद अधर्म पर धर्म की जीत के रूप में मनाया जाता है। स्थानीय रीति रिवाजों, वेश भूषाओं और परम्पराओं के कारण इस त्योहार का बाह्य रूप पृथक पृथक हो सकता है परन्तु इसकी भावना एक ही है और वह है ‘‘असत्य पर सत्य की जीत।’’
दशहरा एक प्रतीक पर्व है। राम-रावण के युद्ध में जिस रावण की कल्पना की गई है वह है मन का विकार है और जो विकार रहित हैं वह हैं परम पुरुष राम। सीता आत्मा है जबकि राम स्वयं परमात्मा। आत्मा का अपहरण जब रावण ने किया तो चारों ओर धर्म नष्ट होने लगा, लोग वानरों की भाँति चंचल और उच्छृंखल होने लगे, तब राम ने उनको अर्थात उनके काम-क्रोध-मोह आदि को अनुशासित किया तभी रावण का वध संभव हो पाया। राम और रावण विपरीतार्थ के बोधक हैं। रावण का अर्थ है रुलाने वाला जबकि राम का अभिप्राय है लुभाने वाला। रावण के दस सिर कहे गए हैं। उसका सिर तो एक ही है, शेष- काम, क्रोध, मद, मोह, मत्सर, लोभ, मन, बुद्धि और अहंकार को उसके सिरों के रूप में स्वीकार किया गया है।
राम को दशरथ का पुत्र माना गया है। उपनिषदों में शरीर को रथ कहा गया है। शरीर की दशेन्द्रियों को योगी साधना द्वारा वश में कर सकते हैं। ऐसे संयमी योगी साधक ही होते हैं दशरथ। इस प्रकार राम दशरथी हैं। रावण दशमुखी है, वह ब्राह्मण है। शास्त्र कहते हैं, ‘ब्रह्मं जानाति ब्राह्मण’ जो ब्रह्म को जानता है वही ब्राह्मण है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि उच्च आचार विचार द्वारा ब्रह्म को प्राप्त न करके दशग्रन्थों को मुखाग्र कर, दशेंन्द्रियों के पराधीन होकर स्वयं को ब्राह्मण घोषित करना केवल पाखंड ही हैं। ऐसे पाखंडियों को ही रावण कहा गया है। शास्त्रों के अनुसार, ‘‘रवैतीति रावण’ जो अपने कथित ज्ञान का स्वयं ढोल पीटता है, वही रावण है। यही वृत्ति राक्षसी है। जिस पर नियंत्रण करने के लिए मर्यादा पुरुषोत्तम की आवश्यकता होती है। इसी वृत्ति पर विजय प्राप्त करने का त्योहार है विजयदशमी। महाभारत की कथा का भी आशय यही है। वेद व्यास जी ने पाण्डवों के बारह वर्ष के वनवास के बाद एक वर्ष के अज्ञातवास की बात की है। इस का अभिप्राय है कि साधक बारह वर्ष तक साधना की सफलता से इतना अहंकारी न हो जाए कि अपनी साधना का ढिंढोरा पीटने लगे इसलिए साधक को एक वर्ष के अज्ञातवास का प्रावधान किया गया। यहाँ भी दुर्योधन अर्थात् बुरी वृत्तियों वाला तथा बृहन्नला जिसने अपनी बृहत वृत्तियों को संयमित कर रखा है, में परस्पर युद्ध होता है और अच्छी वृत्तियों की विजय होती है।
महाराष्ट्र और उससे लगे भू प्रदेशों में दशहरे के दिन आपटा अथवा शमी वृक्ष की पत्तियाँ अपने परिजनों एवं मित्रों में स्वर्ण के रूप में वितरित करने की प्रथा है। आपटा वृक्ष की पत्तियाँ मध्य से दो समान भागों में विभक्त रहती हैं। यह वृक्ष गाँव की सीमा से बाहर ही होते थे। इस पत्ती को गाँव की सीमा से बाहर जा कर तोडऩा ही सीमोल्लंघन है। यह पत्ती द्वैत वृत्ति पार कर अद्वैतवृत्ति में जा कर दशेंन्द्रियों पर विजय प्राप्त करने का प्रतीक है। इसी प्रकार शमी की पत्तियाँ सुवर्ण मान कर वितरित की जाती हैं। शमी वृक्ष की पत्तियाँ बुद्धि के देवता गणेश जी को अर्पित की जाती हैं। शम् अर्थात् कल्याणकारक। ‘शमीं’ वह कल्याणकारी अवस्था है जो बुद्धि के देवता की शरण में जाने पर प्राप्त होती है। बुद्धि के देवता की शरण में जाने का अर्थ भी दशेन्द्रियों पर विजय प्राप्त करना ही है। कई शताब्दीयों से मनाये जाने वाले इस त्योहार को मध्य युगीन राजाओं, महाराजाओं ने नए आयाम दिए, कुल्लू, कोटा, और कर्नाटक में आज भी 15वीं शताब्दी की कई बातों की झलक मिल जाती है। कुमाउँ का दशहरा भी उत्तर भारत में रामायण के पात्रों के पुतलों के कारण काफी चर्चित है।
कुल्लू का दशहरा:
कुल्लू में दशहरा देवताओं के मिलन का मेला मान कर मनाया जाता है। विश्वास किया जाता है कि देवता जमलू ने देवताओं को एक टोकरी में उठा कर किन्नर कैलाश की ओर से कुल्लू पहुँचाया था। तभी से कुल्लू देवताओं की भूमि मानी जाती है और यहाँ पर देवताओं का मिलन प्रति वर्ष होता है। कुल्लू घाटी के प्रत्येक गाँव का अपना ग्राम देवता होता है। प्रत्येक देवता का अपना मेला लगता है। देश के दूसरे भागों में विजय दशमी के समाप्त होते ही आश्विन शुक्ल दशमी से पूर्णिमा तक कुल्लू के ढाल मैदान में सभी देवता सज धज कर, गाजे बाजे के साथ लाये जाते हैं। परम्परागत वेश भूषा में सजे स्त्री पुरुष देवता की सवारी के साथ आते हैं। कुल्लू की घाटी के कण-कण में लोक नृत्य, संगीत और मस्ती भरी हुई है फलत: यह मिलन स्थली विभिन्न प्रकार के वाद्य यंत्रों के स्वरों एवं लोक नर्तकों की थापों पर थिरक उठती हंै। इन्हीं लोगों के उल्लास भरे नृत्यों एवं रंग बिरंगे परिधानों की छटा ने कुल्लु के दशहरे की महक को विदेशों तक पहुँचा दिया है। अब आधुनिकता का प्रभाव भी इस मेले में दिखाई देने लगा है जिसके फलस्वरूप इसका परम्परागत रूप बदलने लगा है। पहले इस मेले में भाग लेने के लिए तीन सौ पैंसठ देवता कुल्लू आया करते थे अब इनकी संख्या घट कर साठ सत्तर रह गई हैं।
कुल्लू के राजाओं ने इस मेले को वर्षों गरिमा प्रदान की है। देवताओं की मिलन स्थली ढालपुर का नामकरण भी 16वीं शताब्दी में राजा बहादुर सिंह ने अपने छोटे भाई ढाल सिंह के नाम पर किया था। 17वीं शताब्दी में राजा मानसिंह ने इसे व्यावसायिक रूप दिया और कुल्लू दशहरा अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार का संगम बन गया। हिमालय पर्वत के दुर्गम दर्रे लांघ कर रूस, चीन, लद्दाख, तिब्बत, समरकन्द, यारकन्द और लौहल स्पिति के व्यापारी यहाँ पर ऊन और घोड़ों का व्यापार करने आते थे। आज भी यहाँ दूर दूर से व्यापारी आ कर अच्छा व्यापार करते हैं। इस अवसर पर यहाँ पशु मेलों का भी आयोजन होता है। मेले का मुख्य आकर्षण रघुनाथ जी की यात्रा होती है जिसमें राजपरिवार के सदस्य राजसी वेश भूषा में सम्मिलित होते हैं। इस अवसर पर द्वापर युग की राक्षसी, भीम की पत्नी हिडिंबा की उपस्थिति को अनिवार्य माना जाता है। पांडु पुत्र भीम के संसर्ग से हिडिंबा को मानवी स्वीकार कर लिया गया था। अब मनाली स्थित हिडिंबा मन्दिर में उनकी पूजा एक देवी के रूप में की जाती है।
कुल्लू दशहरे में रघुनाथ जी की यात्रा हिडिंबा की उपस्थिति के बिना नहींं निकल सकती। इसके लिए हिडिंबा देवी को निमंत्रण भेजने का एक विशेष विधान है। मनाली से चल कर देवी कुल्लू के पास रामशिला नामक स्थान पर ठहरती है। यहीं उन्हें राजा की ओर से छड़ी भेज कर बुलावा भेजा जाता है। देवी का धूप जलाने का पात्र स्वयं राजा उठाता है। इस मेले में जहाँ हिडिंबा की उपस्थिति अनिवार्य है वही विश्व के सबसे प्राचीन लोकतंत्र ‘मलाना’ के संस्थापक देवता जमलू तथा कमाद की पराश्र भेखली देवी इसमें शामिल नहींं होते। झाड़-फूस की लंका दहन के साथ दशहरा पूर्ण होता है और रघुनाथ जी की यात्रा वापिस लौटती है। लौटते समय रघुनाथ जी के साथ सीता जी की मूर्ति भी विराजमान कर दी जाती है। यह राम द्वारा लंका से सीता को छुड़ा कर लाने का प्रतीक माना जाता है।
मैसूर का दशहरा:
दक्षिण भारत में कर्नाटक प्रान्त के मैसूर नगर का दशहरा भी अपनी भव्यता और तडक़-भडक़ के लिए विश्व प्रसिद्ध है। कन्नड़ में दशहरे को नांदहप्पा अर्थात राज्य का त्योहार कहा जाता है। 15वीं शताब्दी में मैसूर के लोकप्रिय एवं कलाप्रेमी राजा कृष्णदेव राय ने इस उत्सव को राजकीय प्राश्रय दिया, नवरात्रि उत्सव के अन्तिम दिन राजा हाथी पर सवार हो कर नागरिकों के मध्य जाते और उनके द्वारा सम्मानपूर्वक दिए गये उपहार प्रेम से स्वीकार करते। राजमहल से चल कर राजा की यात्रा नगर सीमा बाहरबली मंडप तक जाती। यहाँ पर दशहरे के साथ महाभारत काल से ही जुड़े शमी वृक्ष की पूजा की जाती और इस वृक्ष की पत्तियों को सुर्वण मान कर परिजनों में वितरित किया जाता है।
शमी वृक्ष के संबंध में विद्वानों का मत है कि पांडवों ने अपने एक वर्ष के अज्ञातवास में इसी वृक्ष पर अपने अस्त्र शस्त्र छिपा कर रखे थे। इस वृक्ष को न्याय, अच्छाई और सुरक्षा का प्रतीक माना जाता है। कर्नाटक के निवासियों का मत है कि जिस प्रकार पांडवों ने धर्म की रक्षा की उसी प्रकार से यह वृक्ष उनकी तथा उनके परिजनों की रक्षा करेगा।
इस त्योहार को प्राश्रय देने वाला विजय नगरम राज्य अपने अपार वैभव के लिए विश्व प्रसिद्ध था फलत: राजा की सवारी बहुत ही भव्यता के साथ निकाली जाती थी। आजकल जुलूस में राजा का स्थान महिषासुरमर्दिनी चांमुडेश्वरी देवी की प्रतिमा ने ले लिया है। चामुंडेश्वरी देवी का मन्दिर मैसूर महल से थोड़ी ही दूर एक सुन्दर पहाड़ी पर बना हुआ है। मैसूर में दशहरे के अवसर पर एक विशाल प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। इसमें देश भर से व्यापारी पहुँचते हैं। राज्य के महत्वपूर्ण कला-शिल्प यहाँ पूरी सज-धज के साथ रखे जाते हैं। चन्दन की लकड़ी से बनी कलाकृतियाँ, अगरबत्तियों और रेशमी साडिय़ों के लिए लोग इस उत्सव की वर्ष भर प्रतीक्षा करते हैं। सांस्कृतिक गतिविधियों की चहल पहल से भरे वातावरण में मैसूर का राजमहल जब विद्युत के प्रकाश से जगमगाता है तो उसकी छटा देखते ही बनती है।
राजस्थान का दशहरा:
कुल्लू और कर्नाटक की ही भाँति कोटा, राजस्थान का दशहरा भी पिछले पांच सौ वर्ष से हडौती संभाग की जनता के लिए आकर्षक का केन्द्र बना हुआ है। उत्तर भारत का यह सबसे प्राचीन दशहरा माना जाता है। कोटा के महाराजा इसे शक्ति पर्व के रूप में मनाते आये हैं। 15वीं शताब्दी में राव नारायण दास ने मालवा सुल्तान महमूद को परास्त करने के उपलक्ष में इसे प्रारम्भ किया था। कोटा में दशहरा का प्रारम्भ आश्विन मास से शक्तिपर्व मनाने से होता है और इसका समापन विजय पर्व के रूप में विजय दशमी के दिन राजाओं द्वारा प्राश्रय प्राप्त यह मेला 1995 से स्थानीय नगर परिषद् द्वारा आयोजित किया जाता है। गत पांच सौ वर्षों में इस मेले के रंग रूप में समयानुकूल परिवर्तन होते रहे हैं।
1579 में कोटा राज्य की स्थापना के साथ राव माधे सिंह ने यहाँ लंका पुरी का निर्माण कराया और पुतलों के स्थान पर मिट्टी के रावण-वध की प्रथा डाली। स्वतंत्रता प्राप्ति तक यहाँ 15.20 फुट ऊंचे रावण, मेघनाथ और कुम्भकर्ण के मिट्टी के पुतले बनाये जाते थे। उनके गले में बंधी जंजीर को खींच कर राजदरबार का शाही हाथी उनका वध करता था। 1771 मेंजब महाराव उम्मेद सिंह गद्दी पर बैठे तो उन्होंने इस उत्सव के सार्वजनिक रूप को निखारा।
नवरात्रि से पहले ही दिन दशहरा शुरू करने के लिए ब्राह्मणों द्वारा डाड़ देवी, अन्नपूर्णा, काल भैरव, आशापुरा और बाला जी जैसे क्षेत्र के प्रतिष्ठित मन्दिरों में पूजा की जाती थी। कोटा नरेश सज-धज के साथ हाथी की सवारी करके रावण वध के लिए निकलते थे। लंका क्षेत्र और गढ़ की बुर्जियों पर रखीं तोपें दागी जाती थीं। कोटा नरेश स्वयं लंका पुरी में प्रवेश करके रावण वध करते थे। आज इस मेले में आकर्षण को बनाये रखने के लिए नगर पालिका अनेक सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन करती है। 20 दिन तक लगने वाले इस मेले में देर रात तक रौनक रहती है। मेला स्थल पर स्थाई रूप सेपक्की दुकानें बना दी गई हैं और मेले में भाग लेने के लिए आए व्यापारियों को चुंगी कर से मुक्त रखा गया है।
मेले की अनेक पुरानी परम्पराएं समाप्त होती जा रहीं है फिर भी अभी तक भगवान बृजनाथ की शोभा यात्रा निकाली जाती है। राजा के स्थान पर अब भगवान लक्ष्मी नारायण रावण की नाभि को लक्ष्य करके तीर चलाते हैं और कागज के पुतलों में आग लगा दी जाती है। मैसूर और कुल्लू दशहरों का आकर्षण आज भी बना हुआ है जबकि कोटा दशहरा अपना आकर्षण खोता जा रहा है।
कुमाऊं का दशहरा:
कुमाऊं क्षेत्र में अल्मोड़ा के लोगों में दशहरा पुतलों के उत्सव के रूप में मनाया जाता है। अल्मोड़ा के आस पास के ग्रामीण क्षेत्रों के लोग रामायण के राक्षसी पात्रों के विशाल पुतले बनाते हैं। यह सुनिश्चित किया जाता है कि एक ही पात्र के दो पुतले न बनें। सभी धर्मों के लोग मिल जुल कर पूरे उत्साह के साथ इन पुतलों का निर्माण करते हैं। इन पुतलों का जुलूस निकाला जाता है और लोग उनके विरूद्ध नारे लगाते हैं। चौधान में ला कर सभी पुतलों के कीमती वस्त्र और आभूषण उतार कर उन्हें जला दिया जाता है। इस उत्सव में स्थानीय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है।
बस्तर का दशहरा:
बस्तर के दशहरे को ले कर आम लोगों की उत्सुकता बेवजह नहींं है। बस्तर का दशहरा वाकई खास और शेष देश के दशहरों से अलग होता है। यह पर्व एक, दो या तीन दिन नहींं, बल्कि पूरे 75 दिन मनाया जाता है। तय है कि यह दुनिया का सब से ज्यादा अवधि तक मनाया जाने वाला त्योहार है जिस की शुरुआत सावन के महीने की हरियाली अमावस से होती है। बस्तर के दशहरे की दूसरी खासीयत यह है कि बस्तर में गैर पौराणिक देवी की पूजा होती है। आदिवासी लोग शक्ति के उपासक होते हैं। सच जो भी हो, इन विरोधाभासों से परे बस्तर के आदिवासी हरियाली अमावस के दिन लकडिय़ां ढो कर लाते हैं और बस्तर में तयशुदा जगह पर इक_ा करते हैं। इसे स्थानीय लोग पाट यात्रा कहते हैं। बस्तर कभी घने जंगलों के लिए जाना जाता था, आज भी उस की यह पहचान कायम है और सागौन व टीक जैसी कीमती लकडिय़ों की यहां इतनी भरमार है कि हर एक आदिवासी को करोड़पति कहने में हर्ज नहींं। इस त्योहार पर 8पहियों वाला रथ आकर्षण का केंद्र होता है।
75 दिन रुकरुक कर दर्जनभर क्रियाकलापों के बाद दशहरे के दिन आदिवासियों की भीड़ पूरे बस्तर को गुलजार कर देती है। इस दिन आदिवासी अपने पूरे रंग में रंगे, नाचते, गाते और मस्ती करते हैं। वे तमाम वर्जनाओं से दूर रहते हैं। उन्हें देख समझ में आता है कि आदिवासियों को क्यों सरल व सहज कहा जाता है। त्योहार के अवसर पर यहां 11 बकरों की बलि देने और शराब खरीदने के लिए भी पैसा जमा होता है। मदिरा सेवन के अलावा इस दिन मांस, मछली, अंडा, मुरगा वगैरह खाया जाना आम है। दूरदराज से आए आदिवासी अपने साथ नारियल जरूर लाते हैं। दशहरे के आकर्षण के कारण इस दिन पूरे जगदलपुर में आदिवासी ही दिखते हैं और शाम होते ही वे परंपरागत तरीके से नाचगाने और मेले की खरीदारी में व्यस्त हो जाते हैं।
इसलिए हो रहा मशहूर: आदिवासी जीवन में दिलचस्पी रखने वाले लोग यों तो सालभर बस्तर आते रहते हैं पर उन में ज्यादातर संख्या इतिहास के छात्रों और शोधार्थियों की होती है। लेकिन बीते 3-4 सालों से आमलोग पर्यटक के रूप में यहां आने लगे हैं। बस्तर के दशहरे की खासीयत को रूबरू देखने का मौका न चूकने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है तो इस का एक बड़ा श्रेय छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल को जाता है जिस ने बस्तर के दशहरे को एक ब्रैंड सा बना दिया है। बस्तर आ कर ही पता चलता है कि प्रकृति की मेहरबानी सब से ज्यादा यहीं बरसी है। चारों तरफ सीना ताने झूमते घने जंगल, तरहतरह के पशुपक्षी, जगहजगह झरते छोटेबड़े झरने और चट्टानें देख लोग भूल जाते हैं कि बाहर हर कहीं भीड़ है, इमारतें और वाहन हैं कि चलना और सांस लेना तक दूभर हो जाता है। यहां आ कर जो ताजगी मिलती है वह वाकई अनमोल व दुर्लभ है।
बस्तर जाने के लिए अब रायपुर से लग्जरी बसें भी चलने लगी हैं और टैक्सियां भी आसानी से मिल जाती हैं। उत्सव के दिनों में पर्यटकों की आवाजाही बढऩे से यहां पर्यटन एक नए रूप में विकसित हो रहा है। वैसे भी, पर्यटन का यह वह दौर है जिस में पर्यटक कुछ नया चाहते हैं, रोमांच चाहते हैं और ठहरने के लिए सुविधाजनक होटल भी, जो छत्तीसगढ़ पर्यटन मंडल ने यहां बना रखा है। दशहरा उत्सव के दौरान यानी अक्टूबर-नवंबर में बस्तर का मौसम अनुकूल होता है। अप्रैल-मई की भीषण गरमी तो यहां बस गए बाहरी और नौकरीपेशा लोग भी बरदाश्त नहींं कर पाते। इसलिए भी दशहरा देखने के लिए भीड़ उमड़ती है। दशहरे के बहाने पूरे छत्तीसगढ़ राज्य के आदिवासी जनजीवन, रीतिरिवाजों, रहनसहन और संस्कृति से बखूबी परिचय भी होता है।
इस प्रकार भारत के प्रत्येक क्षेत्र में धूम धाम के साथ अधर्म पर धर्म की विजय का यह पर्व लोगों के उत्साह में वृद्धि करता है और एक विजय दशमी के सम्पूर्ण होते ही लोग अगले वर्ष की प्रतीक्षा करने लगते हैं।

Pt.P.S.Tripathi
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