Friday 27 November 2015

औद्योगिक क्षेत्र में कर्मचारी चयन की समस्या

आज का उद्योग विविध समस्याओं से ग्रसित है जिनमें परिस्थितिजनक सामाजिक तथा वैयक्तिक समस्याएँ प्रमुख है। उद्योग की समस्याओ में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण समस्या है कर्मचारी चयन की। अपने व्यक्तिगत शील-गुणों के आधार पर हर व्यक्ति दूसरे से भिन्न होता है और इस सिद्धान्त के आधार पर हम कह सकते है कि हर व्यक्ति हर कार्य को समुचित रूप से कर सकने में सक्षम नहीं होता। आज की बढ़ती हुई आबादी के युग में जब बेरोजगारी की समस्या एक विकराल रूप धारण किए हुए है तब हर व्यक्ति किसी भी प्रकार से किसी भी काम को प्राप्त कर लेने के लिए प्रयत्नशील हो जाता है। यदि कार्य उसकी रुचि तथा क्षमताओं के अनुकूल हुआ तब तो ढोक है अन्यथा कार्य प्राप्त कर लेने के बाद तथा उस पर स्थायी हो जाने के बाद व्यक्ति का सम्बन्ध सिर्फ हर महीने प्राप्त होने वाले वेतन से रह जाता है। कार्य से स्वय को वह मनौवैज्ञानिक रूप से जोड नहीं पाता और उसकी उपादेयता नष्ट हो जाती है। अत: किसी भी उद्योग के सामने सबसे बड़ी समस्या होती है सही काम के लिए सही व्यक्ति का चुनाव करे यदि यह समस्या सुलझ जाए तो उद्योग की अधिकांश समस्याएँ जन्म लेने के साथ ही समाप्त हो जाएं या वे अस्तित्व में आएंगी ही नहीं। अधिक कार्यं-कौशल की माँग करने वाले कार्यं पर ऐसे कर्मचारियों का चुनाव वाछित है जो न सिर्फ योग्य तथा कुशल हो बल्कि उस कार्य के प्रति उनमें रुचि तथा मनोकुलता भी हो। योग्य व्यक्तियों को चुन लेना मात्र ही अपने आपमें सब कुछ नहीं होता। उनका योग्य उचित स्थान पर नियोजन भी उतना ही आवश्यक है। 1. कार्यस्थल पर मानवीय प्रतिक्रिया जनित समस्याएँ-कार्यं से सम्बद्ध अनेक समस्याएँ ऐसी है जो समय-समय पर उठती ही रहती है और अकसर उनके स्वरूप में परिवर्तन भी देखे जाते हैं। जहाँ उत्पादन, प्रशिक्षण, प्रेरण, प्राणोदन, नियोक्ता-कर्मचारी संबंध सदृश समस्याएँ उद्योग-नीति अथवा प्रबंधकों की कार्य प्रणाली की दें होती है, वहीँ कर्मचारियों द्वारा उत्पन की गयी समस्याएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं होतीं। कर्मचारियों की कार्य अथवा उद्योग संस्थान के प्रति मनोवृति, मनोबल, कार्य संतुष्टि, हड़ताल तथा तालाबंदी, औद्योगिक उथलपुथल, अनुपस्थिति तथा श्रमिक परिवर्तन आदि कुछ ऐसी ही 
महत्त्वपूर्ण समस्याएँ है जिनका सामना आज हर छोटे-बड़े उद्योग कों करना पड़ रहा है।
निरीक्षण कर्मचारियों द्वारा उत्पन्न समस्याओ की क्रोटि में निरीक्षण संबंधी समस्याएँ जैसे कर्मचारियों के साथ गलत व्यवहार, पक्षपातपूर्ण अवलोकन तथा मूल्यांकन, सही निरीक्षण का अभाव आदि हैं। इनके कारण भी कर्मचारियों में तनाव पैदा होता है जो बढ़कर यदि उग्र रूप धारण कर ले तो उद्योग के लिए हानिकर हो जाता है। उपर्युक्त हर कोटि की समस्याओं का समाधान आज का उद्योगपति तथा प्रबंधक शीघ्रताशीघ्र कर लेना चाहता है क्योंकि इसी से उद्योग की भलाई तथा समृद्धि है। अब यह प्रबंध की निपुणता पर निर्भर करता है कि वह इन समस्याओं को कितनी जल्दी तथा
केसे सुलझाता है । 
2. कर्मचारी के मनोवैज्ञानिक पक्षजनित समस्याएँ-आज के औद्योगिक मनोवैज्ञानिक के सामने सबसे जटिल समस्या है उद्योग के अन्तर्गत कर्मचारियों के मनोवैज्ञानिक पहलू। किसी भी समूह, समाज तथा संस्थान में व्यक्ति की वैयक्तिक्रता के महत्त्व को समझने में अब कोई संशय नहीं बच रहा है। हम जानते है कि व्यक्ति की इच्छाएँ अभिवृत्तियों, प्रेरणाएँ, आकाक्षाएँ आदि अनेक तत्व ऐसे है जो व्यक्ति के व्यवहारों को निर्णीत करते है। अत: औद्योगिक मनोवैज्ञानिक के समक्ष यह एक बहुत बडा प्रश्नचिह्न आ जाता है कि उद्योग के अन्तर्गत होने वाले सभी व्यवहारों को एक सामान्य सिद्धान्त के आधार पर व्याख्यायित किया जाए या उन व्यवहारों के वैयक्तिक निर्णायक तत्वों की खोज की जाए।
3.नियोक्ता तथा कर्मचारी के बीच पारस्परिक एवं व्यक्तिगत सम्बन्धों के अभाव में उनमें सद्भाव एव सम्भाव उत्पन्न नहीँ हो पाते। इसके कारण उनमें प्रत्यक्ष संभाषण भी नहीं हो पाता और प्रत्यक्ष संभाष्ण के अभाव में किन्हें दो व्यक्तियों के बीच अथवा व्यक्ति एवं समूह के बीच अनेकानेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती है। अक्सर देखा जाता है कि एक छोटे से परिवार में भी किस प्रकार पारस्परिक संभाष्ण का अभाव परिवार के सदस्यों में दूरी पैदा कर अनेक जटिल परिस्थितियों को उत्पन्न कर देता है जिसके कारण वह परिवार टूट कर बिखर जाने की स्थिति तक पहुँच जाता है तब एक उद्योग संस्थान में यदि नियोक्ता तथा कर्मचारी के बीच संभाषण का अभाव हो तब कौन-कौन सी जटिल समस्याएँ उत्पन्न होंगी इसका अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। प्रत्यक्ष संपर्क के अभाव में उनमें एकदूसरे के विषय में सही तथा शीघ्र जानकारी नहीँ मिल सकतीं। उनके बीच की मानसिक तथा सामाजिक दूरी बढ़ती जाती है तथा उनमें पारम्परिक आस्था पनप नहीँ पाती और इस आस्था के अभाव में सहयोग की भावना नहीं पनप पाती तथा लक्ष्य की प्राप्ति के लिए वह सम्मिलित प्रयास नहीँ हो सकता जो किसी भी उद्योग संस्थान के लिए अभीष्ट है।
4. कार्य विश्लेषण की समस्या-आधुनिक उद्योग मनोविज्ञान के समक्ष कार्य विश्लेषण की समस्या भी अपने आप मैं अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । उद्योग संस्थानों के अन्दर होने वाला प्रत्येक कार्य पूर्व निर्धारित होता है तथा उसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सम्बन्ध उत्पादन से जुडा होता है। अत: यह आवश्यक है कि हर कार्य का पूर्ण विश्लेष्ण कर उसके हर अंग की आवश्यकताओं तथा उनके महत्व को समझा जाए और
उसी के आधार पर उस कार्यं को करने के लिए सर्वाधिक उपर्युक्त कर्मचारी का चुनाव किया जाए। एक अनिच्छा अथवा अन्यमनस्यक कर्मचारी को अपने कार्य को सफलतापूर्वक सम्पादित तो कर ही नाते सकता बल्कि उद्योग के लिए एक बोझ बन कर रह जाता हैं। सही कार्यं के लिए सही कर्मचारी का चुनाव कर लेने मात्र से ही नियोक्ता की जिम्मेवारी खत्म नहीं हो जाती। चुने हुए कर्मचारी को उपर्युक्त प्रशिक्षण देना, मशीनो की पूर्ण जानकारी देना तथा उसके कार्य-परिवेश से उसे समुचित रूप से अवगत कराना एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कार्यं है। हम यह मान कर नहीं चल सकते है कि हर कुशल व्यक्ति अपना कार्य सही रूप से कर ही लेगा। प्रत्येक उद्योग की अपने लक्ष्य से सम्बन्धित्त धारणाएँ हैं परिकल्पनाएँ तथा कार्य-प्रणाली अलग होती है तथा उसके अनुरूप एक कुशल कर्मचारी को प्रशिक्षण देकर ही उसे उद्योग के लिए उपयोगी बनाया जा सकता है।
5.थकान एकरसता, ऊब सदृशा मानसिक स्थितियों की समस्या-कर्मचारियों में थकान, एकरसता एवं ऊब की स्थिति का उत्पन्न होना तथा बढ़ना किसी भी उद्योग के लिए एक विकट समस्या का कारक हो जाता है, क्योंकि इन्हें स्थितियों के कारण अन्यमनस्यकता से कार्यं करना, धीमे कार्यं करना, अनुपस्थिति दुर्घटना, मशीनो का नुकसान, कार्यं-क्षमता तथा कार्यकाल की बरबादी आदि समस्याएँ उत्पन होती है जो उद्योग के लिए अत्यन्त हानिकारक होती है। अत : औद्योगिक मनोवैज्ञानिक के समक्ष यह एक विशिष्ट कार्य हो जाता है कि एक तो थकान, एकरसता एवं उब की स्थितियों के उत्पन्न होने की संभावनाओं को कम करें और इन स्थितियों के उत्पन्न हो जाने पर उनके उपर्युक्त समाधान की खोज करें। क्योंकि तभी कम-से कम समय में तथा कम-से-कम व्यक्ति ऊर्जा की खपत में अधिक-से-अधिक कार्यं समाहित हो सकेगा| 
6. दुर्घटना को समस्या-उद्योग के समक्ष एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण समस्या है दुर्घटना की। दुर्घटना कई प्रकार से उद्योग को प्रभावित करती है। दुर्घटना-ग्रस्त कर्मचारी की कार्य से अनुपस्थिति उत्पादन को कम तो बजती ही है, उसके उपचार तथा पुनर्वास अष्ट में हुआ व्यय उद्योग के ऊपर एक अवांछित किन्तु अनिवार्य बोझ बन जाता है। कई बार तो यह भी देखा जाता है कि दुर्धटना-ग्रस्त व्यक्ति स्वस्थ होकर अपने कार्य पर आने के बाद बडा अन्यमनस्यकता से कार्य करता है। उस कार्य से उसे अरुचि हो जाती है तथा कार्य के साथ वह तादात्म्स्थ स्थाई नहीं कर पाता। इस स्थिति में कार्य के लिए उसकी पूर्व उपयोगिता बनी रही रह पाती जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उसकी उपादन-क्षमता पर पड़ता है । अत: औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों के समक्ष एक विशिष्ट कार्यं यह उपस्थित हो जाता है कि वे उद्योग से सम्बन्धित दुर्घटनाओं का विश्लेषण करे, उनके मनोवैज्ञानिक पक्षों की गवेषणा करे तथा उनकी रोक की संभावनाएं बताएँ। एक से अधिक बार दुर्धटनाग्रस्त होने वाले कर्मचारियों के मानसिक परीक्षण तथा मनोविल्लेषण की आवश्यकता पर ध्यान दिया जाए और यदि इस बात का पता चल जाए कि यह कर्मचारी किसी भी कारण से अपने कार्य या कार्य परिवेश से संतुष्ट नहीं है तो उसके स्थान-परिवर्तन की व्यवस्था होनी चाहिए। यदि दुर्घटना के कारण परिवेश संबंधी हो जैसे अनुपयुक्त प्रकाश व्यवस्था, असह्य ताप, शोर-गुल आदि, तो उन कारणों को दूर कर औद्योगिक दुर्घटनाओं को रोका जा सकता है ।
7. कर्मचारियों को अप्रतिबद्धता की समस्या-श्रम प्रबंधन संस्थानिक संरचना
की भूमिका ने आधुनिक औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों के समक्ष नयी समस्याएँ प्रस्तुत कर दी हैँ। तीव्रता से होते हुए तकनीकी परिवर्तनों के साथ उद्योगों तथा व्यवसाय-गृहों की संरचना, मुलयों लक्षणों आदि में परिवर्तन होते रहे है और इन सतत होते हुए परिवर्तनों को कर्मचारी यदि स्वीकार नही करते तो उनकी प्रतिक्रियाएँ प्रबंधन के लिए समस्या उत्पन्न कर देती हैँ। इन परिस्थितियों में यदि प्रबंधन की ओर से कर्मचारियों को इन परिवर्तनों के विषय में समुचित जानकारी देकर उन्हें विश्वास में लाने के प्रयास न किए जाएँ तो स्थिति की गंभीरता और बढ़ सकती है। ऐसे में विद्रोही, असंतुष्ट तथा आक्रामक कर्मचारियों की प्रतिक्रियाएँ तथा गतिविधियों उद्योग संस्थानों के परिवेश तथा उत्पादन को क्षतिग्रस्त कर सकती हैँ। यहाँ औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों की भूमिका उपयोगी सिद्ध होती है। तेजी से बदलते हुए सामाजिक परिवेश की बदलती तथा बढ़ती हुई मांगों उत्पाद-विपणन के क्षेत्र में बढती हुई स्पर्धा आदि का हवाला देते हुए यदि कर्मचारियों को परिवर्तनों के विषय में आश्वस्त कर दिया जाए तो उनके द्वारा किसी भी प्रकार का समस्या-मूलक व्यवहार ही न हो।
उपर्युक्त औद्योगिक समस्याओ के संदर्भ में यदि हम गंभीरता से सोचे तो पाएँगे कि यदि उद्योगपतियों के द्वारा समय-समय पर औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों का सहयोग उद्योग के हर उस क्षेत्र में लिया जाता रहे जहां मानव-व्यवहार सम्बद्ध है, तो ये समस्याएँ या तो उत्पन्न ही नहीं होगी या उत्पन्न होते ही समाप्त कर दी जाएँगी। औद्योगिक मनोवैज्ञानिक यदि प्रासंगिक क्षेत्रों मैं अनुसंधान कर सतत् प्रगतिशील उद्योग संस्थानों की समस्याओं का अध्ययन तथा विश्लेषण का उनके समाधान की दिशा निर्धारित करने का प्रयास करते रहे तो उद्योगो की अनेक समस्याएँ स्वत: ही दम तोड़ दें।

Pt.P.S.Tripathi
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