Thursday 31 December 2015

नए साल में कैसी होगी देश और दुनिया का हाल जाने प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से


वर्तमान युग में दांपत्य जीवन

दाम्पत्य पुरुष और प्रकृति के संतुलन का पर्याय है। यह धरती और आकाश के संयोजन और वियोजन का प्रकटीकरण है। आकाश का एक पर्याय अंबर भी है जिसका अर्थ वस्त्र है। वह पृथ्वी को पूरी तरह अपने आवरण में रखता है। वह पृथ्वी के अस्तित्व से अछूता नहीं रहना चाहता। पुरुष और आकाश में कोई भिन्नता नहीं है। आकाश तत्व बृहस्पति का गुण है। स्त्री की कुंडली में सप्तम भाव का कारक गुरु ही है। गुरु अर्थात गंभीर, वह जो अपने दायित्व के प्रति गंभीर रहे। क्या आज के पति अपने धर्म का पूर्ण निर्वाह कर पा रहे हैं? आर्थिक युग के इस दौर में स्त्री घर छोड़कर बाहर निकल रही है। ऐसे में स्वाभाविक है वायरस (राहु) का फैलना जिससे निर्मित होता है गुरु चांडाल योग। इस विषय में ज्योतिष के सिद्धांत क्या कहते हैं, इसी का विवरण यहां दिया जा रहा है। यदि लग्न या चंद्र से सातवें भाव में नवमेश या राशि स्वामी या अन्य कारक ग्रह स्थित हों या उस पर उनकी दृष्टि हो तो शादी से सुख प्राप्त होगा और पत्नी स्नेहमयी और भाग्यशाली होगी । यदि द्वितीयेश, सप्तमेश और द्वादशेश केंद्र या त्रिकोण में हों तथा बृहस्पति से दृष्ट हों, तो सुखमय वैवाहिक जीवन व पुत्रवती पत्नी का योग बनाते हैं। यदि सप्तमेश और शुक्र समराशि में हांे, सातवां भाव भी सम राशि हो और पंचमेश और सप्तमेश सूर्य के निकट न हों या किसी अन्य प्रकार से कमजोर न हों, तो शीलवती पत्नी और सुयोग्य संतति प्राप्त होती है। यदि गुरु सप्तम भाव में हो, तो जातक पत्नी से बहुत प्रेम करता है। सप्तमेश यदि व्यय भाव में हो, तो पहली पत्नी के होते हुए भी जातक दूसरा विवाह करेगा, सगोत्रीय शादी भी कर सकता है। इस योग के कारण पति और पत्नी की मृत्यु भी हो सकती है। यदि सप्तमेश पंचम या पंचमेश सप्तम भाव में हो, तो जातक शादी से संतुष्ट नहीं रहता अथवा उसके बच्चे नहीं होते। स्त्री की कुंडली में सप्तम भाव में चंद्र और शनि के स्थित होने पर दूसरी शादी की संभावना रहती है जबकि पुरुष की कुंडली में ऐसा योग होने पर शादी या संतति नहीं होती है। लग्न में बुध या केतु हो, तो पत्नी बीमार रहती है। सातवें भाव में शनि और बुध स्थित हों, तो वैधव्य या विधुर योग बनता है। यदि सातवें भाव में मारक राशि और नवांश में चंद्र हो, तो पत्नी दुष्ट होती है। यदि सूर्य राहु से पीड़ित हो, तो जातक को अन्य स्त्रियों के साथ प्रेम प्रणय के कारण बदनामी उठानी पड़ सकती है। सूर्य मंगल से पीड़ित हो, तो वैवाहिक जीवन कष्टमय हो जाता है पति पत्नी दोनों एक दूसरे से घृणा करते हैं। जातक रक्तचाप और हृदय रोग से पीड़ित होता है। पुरुष के सप्तम भाव में मंगल की मेष या वृश्चिक राशि हो या मंगल का नवांश हो, यदि सप्तमेश नवांश लग्न से कमजोर हो अथवा राहु या केतु हो तो वह युवावस्था में ही अपनी पत्नी को त्याग देगा या पथभ्रष्ट हो जाएगा। यदि शुक्र और मंगल नवांश में स्थान परिवर्तन योग में हों, तो जातक विवाहेतर संबंध बनाता है। जातका के सप्तम भाव में यदि शुक्र, मंगल और चंद्र हों, तो वह अपने पति की स्वीकृति से विवाहेतर संबंध बनाएगी या अन्य पुरुष के साथ रहेगी। शादी के लिए कुंडली मिलान की प्रणाली का सहारा लिया जाना चाहिए, इससे कुछ हद तक प्रेम और वैवाहिक सौहर्द की स्थिरता को कायम रखा जा सकता है। पत्री मंे मंगल और शुक्र की स्थिति का विश्लेषण सावधानीपूर्वक किया जाना चाहिए। संभव है कि शुक्र व मंगल की युति हो अथवा न भी हो, लेकिन अंतग्र्रस्त नक्षत्र का स्वामी अनिष्ट ग्रह हो सकता है। ऐसे में तलाक और अलगाव की समस्या उत्पन्न हो सकती हैैं। मंगल आवेश में वृद्धि करता है और शुक्र सम्मोहक पहलुओं से जोड़ता है। अतः जन्मांक में यदि ऐसे पहलू दिखें, तो माता पिता बच्चों का पालन पोषण अनुशासित ढंग से करें, उन्हें समझाएं कि क्षणिक आनंद और भोग विलास की तरफ आकर्षित न हों। शुक्र वैभव, रोमांश, मधुरता आदि सम्मोहक पहलुओं का द्योतक है। यह लैंगिक सौहार्द और सम्मिलन, कला, अनुरक्ति, पारिवारिक सुख, साधारण विवाह, वंशवृद्धि, जीवनी शक्ति, शारीरिक सौंदर्य और प्रेम का कारक है। मंगल बल, ऊर्जा, आक्रामकता का द्योतक है। जब शुक्र के साथ मंगल की युति हो, तो विषय वासना की प्रचुरता रहती है। अतः आवश्यक है कि जब वर व कन्या की कुंडलियां देख रहे हों, तब मंगल शुक्र की युति, स्थान परिवर्तन, दृष्टि संबंध और विपरीत स्थिति में बृहस्पति की अनुकूल स्थिति का शुभ प्रमाण अवश्य देखें। शरीर सौष्ठव में शुक्र, मंगल की युति शारीरिक सुंदरता के लिए महत्वपूर्ण है। किंतु गुरु और शनि के सौम्य प्रभाव का अभाव हो, तो कमी भी आ सकती है। शुक्र व मंगल व्यक्ति को भौतिकवादी, मनोरंजनप्रिय, शौकीन, आडंबरी और विषयी बनाते हैं। यदि ये दोनों विपरीत दृष्टि दे रहे हों, तो विषय संबंधी कठिनाई और वैवाहिक जीवन में समस्या आती है। शुक्र यदि उŸाम नक्षत्र या राशि में हो, तो मंगल का रूखापन (ज्वलन शक्ति) कम हो जाता है। लेकिन यदि राहु की युति हो, तो वह जातक को व्यभिचारी बना देती है। यदि अंतग्र्रस्त नक्षत्र, गुरु, बुध या चंद्र न हो, तो जातक में या जातका कामुकता प्रबल होती है शुभ विवाह के लिए केतु, शुक्र और मंगल का युति या दृष्टि संबंध अशुभ है । शुक्र पुरुष की कुंडली में दाम्पत्य का कारक है। गुरु स्त्री की कुंडली में शुभ वर समझा जाता है। जैसा कि ऊपर कहा गया है, शुक्र पौरुष शक्ति, सुंदरता मधुरता एवं प्रेम का द्योतक है। यह घर में आग्नेय कोण में पूर्वी आग्नेय और दक्षिणी आग्नेय के मध्य भाव का स्वामी है। यह स्थान अग्नि देवता से आरंभ होकर यम की हद तक पहुंच जाता है। आग्नेय एवं वायव्य कोणों में दोष होना दाम्पत्य सुख में बाधा उत्पन्न करता है। शयनकक्ष दक्षिणी आग्नेय कोण में नहीं बनाना चाहिए। कभी-कभी तलाक और अलगाव की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दहेज के मुकदमे आदि चालू हो जाते हैं। स्त्री की कुंडली में गुरु की स्थिति शुभ होती है। पूर्वी ईशान से उत्तरी ईशान तक के मध्य भाग में गुरु का समावेश रहता है। गुरु आकाश तत्व अर्थात कर्ण ज्ञानेंद्रिय का कारक है। स्त्रियों को सुनने की क्षमता बहुत समृद्ध रखनी चाहिए। उस स्थान पर शंका (राहु), अहंकार (शौचालय), वाचालता (सीढ़ी), रजोगुण(बुध), (चं) चंचलता को व्यवस्थित रखना चाहिए। पूर्वी ईशान कोण से उŸारी वायव्य तक यदि दोष हो, तो स्त्रियों में दोष व्याप्त हो जाता है। इस दोष के फलस्वरूप कहीं कहीं विवाह भी नहीं हुए हैं। सुखी दाम्पत्य के लिए पति पत्नी को दरार युक्त बिस्तर पर शयन नहीं करना चाहिए। शयनकक्ष में खुला पानी, खुला शीशा आदि न रखें। आग्नेय कोण में जूठे बर्तन, झाडू इत्यादि न रखें। ईशान कोण शिव का स्थान माना जाता है। शिव आदि पुरुष हैं और आग्नेय कोण शक्ति का स्थान है, जो आदि नारी हैं। यही ब्रह्मांड के सुयोग्य पति पत्नी और हम सबके माता पिता हंै। देखने वाली बात यह है कि शिव (पुरुष) ने शक्ति के स्थान में और शक्ति ने शिव के स्थान में संतुलन बनाया। श्रद्धा और विश्वास का प्रतीक ये दोनों परम पूज्य हैं।

अध्यात्म और वास्तु

कुतः सर्वमिदं जातं कस्मिश्च लयमेफ्यति। नियंता कश्च सर्वेषां वदस्व पुरूषोत्तम।। यह जगत किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें जा कर विलीन हो जाता है? इस संसार का नियंता कौन है? हे पुरुषोत्तम ! यह बताने की कृपा करें। महेश्वरः परोऽव्यक्तः चर्तुव्यूह सनातनः। अननंता प्रमेयश्च नियंता सर्वतोमुखः।। सनातन अनंत अप्रमेय सर्वशक्तिमान महेश्वर सबके नियंता हैं। तत्व चिंतको ने उन्हें ही अव्यक्त कारण, नित्य, सत, असत्य रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है। वह (परमात्मा) गंध, वर्ण तथा रस से हीन, शब्द और स्पर्श से वंचित, अजर, ध्रुव, अविनाशी, नित्य और अपनी आत्मा में अवस्थित रहते हैं। वही संसार के कारण, महाभूत परब्रह्म, सनातन, सभी भूतों के शरीर, आत्मा में अधिष्ठित, महत्, अनादि, अनंत, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम थे। आत्मपुरुष के गुण साम्य की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहीं हो जाती है, तब तक प्राकृत प्रलय होता है। यह प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुतः ब्रह्मा का न दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त ईश्वर प्रकृति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकुचन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृति में अवस्थित होता है। स्पंदित प्रकृति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति, ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई। इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है। ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस (जिह्वा) का आधार है। जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के, गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहीं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है। यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है? व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहीं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि हमारा जीवन भी व्यर्थ है। प्रत्येक क्षण प्रकृति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का। इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहीं है, किसी प्रकार का परिणाम नहीं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहीं है। प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है। जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का यही संदेश है। जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और दुःखी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है। इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृतिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव अपने और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं। प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है। अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव डालती हंै, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है। अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं। सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर हंै। इनमें सुषुम्न नामक किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है।

छाया ग्रह राहु एवं केतु

जन्मकुंडली में सात ग्रहों के साथ दो छाया ग्रह राहु एवं केतु को भी उनके गोचर के अनुसार स्थापित किया जाता है। वैदिक युग में राहु ग्रह नहीं था, बल्कि एक राक्षस था। पौराणिक युग में उस राक्षस के दो भाग हो गये। समुद्र मंथन के पश्चात् मिले अमृत को देवताओं में बांटते समय धोखे से अमृतपान करने के पश्चात राक्षस का सिर भगवान श्री हरि विष्णु द्वारा सुदर्शन चक्र द्वारा धड़ से अलग हो गया। सिर-राहु में तथा धड़ केतु में अमर हो गया। पौराणिक गाथाआंे में राहु-केतु सर्प के सिर और पूंछ माने गये। राहु के काल तथा केतु को सर्प भी माना गया है। राहु और केतु दोनों ही पापग्रह हैं। राहु स्त्रीलिंग है। आद्र्रा, स्वाति, शतभिषा नक्षत्रों पर उसका शासन है। 3, 6, 11 भावों में इसे अच्छा मानते हैं। रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने लिखा है- ‘‘अजहुं देत दुख रवि शशिह सिर अवेशषित राहु’’ उच्चराशि मिथुन, नीचराशि धनु है। इसकी जाति म्लेच्छ एवं आकृति दीर्घ तथा दिशा नैर्ऋत्य है। राहु का रत्न गोमेद है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अनुसार पंचम भाव में राहु हो और उस पर मंगल की दृष्टि हो अथवा पंचम भाव में मंगल की राशि हो तो पूर्वजन्म के सर्पशाप के कारण इस जन्म में ऐसी कुंडली वाले जातक के पुत्र नहीं होते हैं। यदि होते हैं तो भी मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं। राहु केतु की उच्चता व नीचता के विषय में ज्योतिषियों में बड़ा मतभेद है। ‘‘राहोस्तु कन्यका गेहं मिथुन स्वाच्चमं समृतम् कन्या राहु ग्रह प्रोक्त राहुच्च मिथुन समृतम् राहानीचिं धनुः प्रोक्त केतोः सप्तम मेवच’’ राहु कन्या राशि में स्वगृही तथा मिथुन में उच्च तथा धनु में नीच माना जाता है एवं इसकी मूल त्रिकोण राशि कर्क मानी गई है। परंतु कई ज्योतिष शास्त्री राहु को वृषभ राशि में उच्च एवं केतु वृश्चिक में उच्च तथा इसकी मूल त्रिकोण कुंभ और प्रिय राशि मिथुन मानी है। राहोस्तु वृषभ केतोः वृश्चिके तुंभ संजितम्। मूल त्रिकोण कुंभचं प्रिय मिथुन उच्चते।। बृहत्पाराशर होरा में राहु का उच्च वृष, केतु का उच्च वृश्चिक, राहु मूल त्रिकोण कर्क, केतु का मूल त्रिकोण मिथुन और धनु, राहु का स्वगृह कन्या व केतु का स्वगृह मीन माना है। इस तरह राहु के स्वगृह, उच्च, मूल त्रिकोण और नीच के बारे में ज्योतिष सर्व सम्मत नहीं है। राहु को ब्रह्माजी ने ग्रह होने का वरदान तो दिया परंतु छाया जैसे घूमती है (वक्र गति) वैसे ही ये ग्रह घूमते हैं। इसलिए राहु के परिणाम आकस्मिक होते हैं। कई ज्योतिषी राहु-केतु को ग्रह ही नहीं मानते हैं। राहु-केतु ग्रहण में सूर्य और चंद्र के विमर्दक हैं, अतः प्रबल पाप ग्रह हैं। परंतु आकाश में इनका अपना बिंब नहीं है, अतः ये स्वतंत्र फलकारक नहीं हैं। राहु नवम स्थान में हो और नवमेश यदि बलवान हो तो अच्छा फलकारक होता है। विशेषरूप से बुध नवमेश हो तो अचानक भाग्य चमकता है, राहु, शनि के साथ हो तो धन हानि योग कर देता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा एवं राहु का परस्पर संबंध हो तो, व्यक्ति की मानसिक स्थिति को असामान्य बनाता है। यदि यह संबंध शुभ हो, तो जातक जीवन में अप्रत्याशित सफलताएं प्राप्त करता है व यदि चंद्रमा राहु के साथ दूषित स्थिति में हो तो जातक को जीवन में अनेक उतार-चढ़ाव, अस्थिरता एवं धोखे की स्थितियों का सामना करना पड़ता है। चंद्रमा यदि अपनी नीच राशि वृश्चिक में हो तो तथा उस पर राहु की दृष्टि हो तो जातक मन से परेशान रहता है। चंद्रमा यदि अष्ट्म भाव में राहु के प्रभाव में हो तो, उससे त्रिकोण में राहु का गोचर जातक को लंबी यात्राओं के लिए विवश कर देता है। यदि चंद्रमा द्वादश भाव में हो तथा राहु से प्रभावित हो तो, उससे त्रिकोण में राहु का गोचर धन हानि करता है। किसी कारणवश धन का अपव्यय होता है या जातक ठगी का शिकार हो जाता है। राहु की महादशा जातक के लिए विशेष महत्वपूर्ण होती है। यदि राहु के नक्षत्रों में बली एवं योगकारण ग्रह स्थित हांे तो ऐसे जातक के लिए राहु की दशा-महादशा अतीव शुभ फलदायक होती है।

ज्योतिष और आयुर्वेद

आधुनिक युग में जहां मानव शरीर में होने वाले रोगों के कारणों को जानने के लिए आधुनिक उपकरणों की सहायता लेते हैं वहीं वैदिक काल में वैद्य, हकीम, ज्योतिष की सहायता ले रोगों के कारणों की पूर्ण जानकारी प्राप्त कर उपचार करते थे और यह भी जान लेते थे कि उपचार से सफलता प्राप्त होगी या नहीं। ज्योतिष के अनुसार रोग की उत्पत्ति होना, ग्रह, नक्षत्र एवं राशियों पर निर्भर करता है क्योंकि जन्मकुंडली उस आकाशीय पिंडों का चित्रण है जो जन्म के समय जातक के शरीर को प्रभावित करते हैं। इसमें जातक के समस्त जीवन की रूप रेखा निश्चित हो जाती है और ग्रह नक्षत्रों के प्रतिदिन के बदलते प्रभाव से जातक का शरीर प्रभावित होकर रोगी या स्वस्थ होता है। ज्योतिष का आधार ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं काल पुरूष की कुंडली में द्वादश भाव है। प्रत्येक ग्रह, नक्षत्र, राशि या भाव मानव शरीर के किसी न किसी अंग का प्रतिनिधित्व करता है। रोग भी उसी अंग से संबंधित होगा जिस अंग का प्रतिनिधित्व ग्रह, नक्षत्र, राशि या भाव कर रहा होता है। कालपुरूष की कुंडली में बारह भाव, मानव शरीर के अंगों और रोगों का प्रतिनिधित्व इस प्रकार है: नौ ग्रह एवं अंग सूर्य - हड्डियाँ, चंद्र - खून, तरल पदार्थ; मंगल- मज्जा, बुध - त्वचा, नसें, गुरु-वसा, शुक्र - शुक्राणु, प्रजनन क्षमता, शनि- स्नायु, राहु-स्नायु प्रणाली, केतु-गैस, वायु द्वादश राशियां एवं अंग मेष - सिर, वृष- चेहरा, मिथुन- कंधे, गर्दन और छाती का ऊपरी भाग, कर्क-दिल, फेफड़े, सिंह- पेट, कलेजा, कन्या- आंतें (बड़ी एवं छोटी), तुला- कमर, कुल्हा, पेट का निचला भाग, वृश्चिक- गुप्त अंग, गुदा; धनु-जंघा, मकर- घुटने, कुंभ टांगें (पिंडलियां), मीन - पैर। द्वादश भाव एवं अंग और रोग प्रथम भाव: सिर, दिमाग, बाल, चमड़ी, शारीरिक कार्य क्षमता, साधारण स्वास्थ्य। द्वितीय भाव: चेहरा, दायीं आंख, दांत, जिह्वा, नाक, आवाज, नाखून, दिमागी स्थिति। तृतीय भाव: कान, गला, कंठ, कंधे, श्वांस नली, भोजन नली, स्वप्न, दिमागी अस्थिरता, शारीरिक विकास। चतुर्थ भाव: छाती, दिल, फेफड़े, रक्त चाप, स्त्रियों के स्तन। पंचम भाव: पेट का ऊपरी भाग, कलेजा, पित्ताशय, जीवन शक्ति, आंतें, बुद्धि, सोच, शुक्राणु, गर्भ। षष्ठ भाव: उदर, बड़ी आंत, गुर्दे, साधारण रोग, मूत्र, कफ, बलगम, दमा, चेचक, आंखों का दुखना। सप्तम भाव: गर्भाशय, अंडाशय और अंडग्रंथि, शुक्राणु, प्रोस्टेट ग्रंथि। अष्टम भाव: बाहरी जननेंद्रिय, अंग-भंग, लंबी बीमारी, दुर्घटना, लिंग, योनि, आयु। नवम भाव: कुल्हे, जांघें, धमनियां, आहार, पोषण। दशम भाव: घुटने, घुटनों के रोग, जोड़, चपली, शरीर के सभी जोड़ एवं आर्थराइटिस। एकादश भाव: टांगें, पिंडलियां, बायां कान, रोग से छुटकारा। द्वादश भाव: पांव, बायीं आंख, अनिद्रा, दिमागी संतुलन, अपंगता, मृत्यु, शारीरिक सुख-दुख। नक्षत्र एवं अंग: अश्विनी - घुटने, भरणी- सिर, कृत्तिका- आंखें, रोहिणी- टांगे, मृगशिरा- आंखें, आद्र्रा- बाल, पुनर्वसु- उंगलियां, पुष्य- मुख, अश्लेषा- नाखून, मघा- नाक, पू. फाल्गुनी- गुप्त अंग, उ. फाल्गुनी- गुदा, लिंग, गर्भाशय, हस्त- हाथ, चित्रा-माथा, स्वाति-दांत, विशाखा-बाजू, अनुराधा- दिल, ज्येष्ठा-जिह्वा, मूल-पैर, पू.आषाढ़ा-जांघ एवं कूल्हे, उ.आषाढा़-जंघाएं एवं कूल्हे, श्रवण-कान, धनिष्ठा-कमर, शतभिषा-ठुड्डी, रीढ़ की हड्डी, पू. भाद्रपद-फेफड़े, छाती, उ. भाद्रपद, छाती की अस्थियां, रेवती-बगलें। ज्योतिषीय दृष्टि से आयुर्वेद के तीन विकारों के प्रतिनिधि ग्रह आयुर्वेद का मूल आधार तीन विकार अर्थात् त्रिदोष है- वात, पित्त और कफ। जब इन तीन विकारों में असंतुलन आ जाता है तब मानव शरीर रोगी होता है। वैद्य, हकीम नाड़ी देखकर इन तीन विकारों के अनुपात का अध्ययन कर रोग का उपचार करते हैं। ज्योतिषीय दृष्टि से इन तीनों विकारों का प्रतिनिधित्व करने वाले ग्रह इस प्रकार हैं: सूर्य-पित्त, चंद्र-कफ, वात और मंगल-पित्त, बुध- तीनों विकार, गुरु-कफ, शुक्र-वात और कफ, शनि वात, राहु-केतु वात और कफ। जन्मकुंडली में जो ग्रह कमजोर होगा उस ग्रह से संबंधित विकार होगा। रोग का कारण विकार है, इसलिए यदि इस विकार से संबंधित ग्रह का उपचार किया जाए तो रोगी के स्वास्थ्य में सुधार हो सकता है। जन्मकुंडली से रोग विश्लेषण: काल पुरूष की कुंडली में षष्ठ भाव रोग भाव कहलाता है। इसलिए षष्ठेश को रोगेश भी कहते हैं। षष्ठ भाव पर काल पुरूष का पेट, आंतें (बड़ी-छोटी) और गुर्दे आदि आते हैं। इससे सीधा अभिप्राय यही है कि जातक का खाना-पीना ही उसके रोग का कारण है क्योंकि खाया-पीया पेट की आंतों से होता हुआ बाहर जाएगा। यदि वह किसी कारण पेट से बाहर पूरी तरह नहीं जा पाये तो जो मल आतों में रहेगा, सड़ेगा और रोग उत्पन्न करेगा। इसलिए षष्ठ भाव और षष्ठेश को रोग का कारक माना जाता है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण लग्न अर्थात प्रथम भाव है। प्रथम भाव जातक के पूरे शरीर का प्रतिनिधित्व करता है। यदि किन्हीं कारणों से लग्न, लग्नेश-पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट हुए तो जातक को जीवन भर रोगों का सामना करना पड़ेगा। जन्मकुंडली में रोगों का विश्लेषण करते समय लग्न-लग्नेश, षष्ठ भाव और षष्ठेश की स्थितियों को भली भांति जानना चाहिए, लग्न क्या है, इसमें क्या राशि है, नक्षत्र है और वह किस अंग और रोग का प्रतिनिधित्व करता है। षष्ठ भाव में क्या राशि है, नक्षत्र है और यह किस अंग और रोग का प्रतिनिधित्व करते हैं इसी तरह इनके स्वामी ग्रहों की स्थिति अर्थात किस भाव में किस राशि व नक्षत्र में है यह पूर्ण जानकारी आपको जातक के रोग का विश्लेषण करने में सहयोग देगी। रोग की अवधि: जन्मकुंडली में ग्रहों की पूर्ण स्थिति की जानकारी के बाद दशा-अंतर्दशा और गोचर का विचार करने से रोग के समय की जानकारी मिल जाती है। लग्नेश और षष्ठेश की दशा में जातक को रोग होने की संभावना रहती है। यदि लग्न कमजोर है, पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट है तो जातक को लग्नेश की दशा में रोग हो सकता है। जब गोचर में भी लग्नेश पाप ग्रहों से युक्त या दृष्ट होता है तो इस समय रोग अपनी चरम सीमा पर रहता है। गोचर में जब तक लग्नेश पाप ग्रहों के घेरे में रहता है और जब इस घेरे से युक्त होता है उतने समय जातक को रोग का सामना करना पड़ता है। इसी तरह षष्ठेश की दशा में भी जातक के रोग होने की संभावना रहती है। दशा, अंतर्दशा और गोचर का विचार वैसे ही करना होगा, जैसे लग्नेश के बारे में वर्णन किया गया है। इस प्रकार भावों की राशि एवं नक्षत्र स्वामियों की दशा में भी जातक को रोग हो सकता है। यदि इनके स्वामियों की स्थिति पाप युक्त या दृष्ट होगी और गोचर भी प्रतिकूल रहेगा तो रोग होता है। लग्नेश जब षष्ठ भाव के स्वामी या षष्ठ भाव के नक्षत्र में गोचर करता है तो रोग होता है। स्वामी और उसकी अवधि भी उतनी ही रहती है जितनी गोचर की अवधि होती है। इसके उपरांत रोग से छुटकारा मिल जाता है। इसके साथ ही दशा, अंतर्दशा के स्वामी का गोचर भी इसी प्रकार देखना होगा अर्थात् दशा/अंतर्दशा स्वामी यदि षष्ठेश या षष्ठेश के नक्षत्र में गोचर करता है तो रोग होता है और रोग उसी भाव से संबंधित होता है जिस भाव में ग्रह गोचर कर रहा होता है।

क्या कुंडली में शनि ग्रह होने से कैरिअर में सफलता मिलेगी??

शनि को ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील माना जाता है अर्थात् शनि सृष्टि के संतुलन चक्र का नियामक है। क्योंकि बैलेंस शनि का मुख्य गुण है इसलिए यह बैलेंस की कारक राशि तुला में अतिप्रसन्न अर्थात् उच्चराशिस्थ होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में अधिक संतुलन, सुरक्षा व स्थिरता अर्थात् जाॅब सैक्यूरिटी आदि देने में समर्थ होते हैं। इसे न्याय का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य को उसकी गलतियों और पाप कर्मों के लिए दण्डित करके मानवता की रक्षा करता है और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया को स्थिरता पूर्वक गति देता रहता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में करियर के उच्चतम शिखर पर पहंुचने के सभी शुभ योग विद्यमान हों तो यह सही है कि जातक अपने करियर में ऊंचा उठेगा लेकिन उन्नति प्राप्त होने का उसका मार्ग सरल होगा या कठिनाइयों से भरा हुआ होगा इसका सूक्ष्म विष्लेषण करने हेतु कुंडली में शनि की स्थिति का अध्ययन करना होगा। यदि कुंडली में शनि की स्थिति उत्तम हो, यह 3, 6, 10 या 11वें भाव में स्थित हो, नीचराषिस्थ व पीड़ित न हो तो आसानी से सफलता मिलेगी। नीचराषिस्थ होने की स्थिति में पूर्ण नीचभंग हो रहा हो तो भी सफलता मिल सकती है। परंतु यदि शनि का नीचभंग नहीं हुआ या शनि शत्रुराषिस्थ व पीड़ित होकर अषुभ भाव में स्थित हुआ तो जातक की सफलता पर प्रष्न चिह्न लग जाएगा तथा विषेष योग्यता संपन्न होने के बावजूद भी उसे जीवन में कठिनाइयों व संघर्ष से जूझना पड़ेगा तथा वह साधारण जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएगा। शनि हमें यथार्थवादी बनाकर हमारी वास्तविक शक्तियों व योग्यताओं से अवगत करवाता है तथा हमें एकान्तप्रिय होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करवाता है अर्थात् हमें थ्वबनेमक रखता है। कालपुरुष के अनुसार शनि को व्यवसाय के कारक दशम भाव का स्वामी माना जाता है। हमारे जीवन में स्थिरता व संतुलन का विचार दशम भाव से भी किया जाता है क्योंकि दशम भाव व्यवसाय का घर होता है और जितना हम व्यावसायिक स्तर पर सफल होते हैं उतनी ही श्रेष्ठ सफलता हमें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्राप्त होती है। निष्कर्षतः हम कह सकते हैं संतुलन अर्थात् बैलेंस के कारक शनि की राशि का व्यवसाय के भाव में होना उचित ही है। ग्रहों में शनि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि यह ग्रह बलवान होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता जातक के कदम चूमती है। शनि की विशेष उत्तम स्थिति से जातक को बहुत से नौकर-चाकर, उच्च पद्वी, व धन सम्पदा आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। शनि को सत्ता का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि राजनीति, कूटनीति, मंत्रीपद सभी इसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यदि कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो यह कालपुरुष की दशम राशि मकर को दशम दृष्टि से देखकर न केवल व्यावसायिक जीवन में सफलता की गारंटी देता है अपितु अपनी लग्नस्थ स्थिति के कारण जातक को कुशल विचारक व योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की योग्यता भी देता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, तांत्रिकों व ज्योतिषियों की कुंडली में शनि की इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। यदि लग्नस्थ शनि नीच का भी हो तो भी व्यावसायिक जीवन में स्थिरता व अधिकार प्राप्ति का कारक बनता है क्योंकि वह दशम दृष्टि से अपनी राशि को देखता है और कालपुरुष के अनुसार भी दशम भाव में इसकी मकर राशि ही होती है जिसे व्यवसाय की कारक राशि माना जाता है। लग्नस्थ शनि सभी लग्नों के लिए श्रेष्ठ है यद्यपि चर लग्न के लिए शनि की लग्नस्थ स्थिति अधिक उŸाम मानी जाएगी क्योंकि चर लग्नों के जातकों में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होती है जबकि शनि का गुण धैर्य व स्थिरितापूर्वक एकाग्रचित्त होकर कार्य सम्पादन करना है। इसलिए इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण जातक को श्रेष्ठस्तरीय सफलता का सूत्र व मार्ग स्पष्ट कर देता है। यदि कर्क लग्न के शनि का विचार करें तो यह सामान्य रूप से प्रबल अकारक होता है लेकिन शुभ भाव लग्न में बैठकर यह न केवल अष्टमेश का शुभ फल देकर दीर्घायु बनाता है अपितु जातक को रिसर्च ओरिएंटड, गुप्त व कूटनीतिक योग्यताओं से सम्पन्न भी कर देता है। कर्क लग्न की अपनी यह विशेषता होती है कि इससे प्रभावित जातकों का शरीर, मन और आत्मा एकात्म समन्वित होते हैं। लग्न से शरीर व आत्मा का विचार तो होता ही है साथ ही मन की राशि कर्क के लग्न में आ जाने से चंद्रमा का प्रभाव भी लग्न मंे आ जाएगा क्योंकि यह लग्नेश होगा इसलिए ऐसी कंुडली में लग्नस्थ शनि शरीर, मन व आत्मा तीनों को प्रभावित करेगा अर्थात् मानव को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले ग्रह शनि का प्रभाव आपके जीवन के हर पक्ष पर सीधे रूप से पड़ेगा और फलस्वरूप आप सर्वाधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होंगे तथा राजनीति के गलियारों में आपकी कुशलता का विशेष डंका बजेगा। तुला लग्न की पत्री में लग्नस्थ शनि उच्चराशिस्थ होकर चतुर्थेश व पंचमेश होकर आपको शश योग से समन्वित करके परम भाग्यशाली बना देगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में आप सफल होंगे। ऐसा भी संभव है कि आप योग, अध्यात्म, वैराग्य, दर्शन, त्याग आदि की कठिनतम रहस्यमयी आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करके संसार को चमत्कृत कर दें अथवा कोई बड़े वैज्ञानिक बनें। मकर राशि की कुंडली में लग्नेश शनि अपार धन सम्पदा से सम्पन्न बड़ा व्यापारी तो बना ही देगा साथ ही आपकी एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रवृति को भी सुदृढ़ करेगा। अधिकतर ऐसा देखा गया है कि दशम भावस्थ शनि चाहे किसी भी राशि का हो, जातक के जीवन में व्यावसायिक स्थिरता बनी रहती है। यदि ऐसा शनि नीच का हो तो भी जातक का कार्य चलता रहता है। नीच राशि का शनि अक्सर ज्योतिष कार्यों से या अन्य परामर्श संबंधी कार्यों से लाभान्वित कराता है। शनि का दशम भाव से संबंध होने से लोहे का व्यापार तथा तिल, तेल, खनिज पदार्थ, पेट्रोल, शराब आदि के क्रय-विक्रय से, ठेकेदारी से, दण्डाधिकारी, सरपंच अथवा मंत्री पद आदि से लाभान्वित करवा सकता है। जब शनि गोचर में उच्चराशिस्थ होता है तो समाज, देश व संसार में जगह-जगह पर न्याय व्यवस्था के समुचित रूप से स्थापित किए जाने की आवाजें उठने लगती हैं। ऐसा 30 वर्ष में एक बार होता है और ऐसे में शनि समाज में फैली अव्यवस्थाओं और अन्याय को नियंत्रित करता ही है। मानव के स्वभाव, भाग्य व जीवन चक्र का नियमन चंद्र की गति, नक्षत्र व चंद्र पर अन्य ग्रहों के प्रभाव द्वारा होता है इसलिए जातक की मानसिकता, मनः स्थिति, ग्रह दशा के क्रम व गोचर का विचार भी चंद्रमा को केंद्र में रखकर ही किया जाता है। कुंडली में की प्राप्ति के प्रबल कारक शनि का गोचर में चंद्रमा के निकट आना जीवन में जिम्मेदारियों की प्राप्ति का सबब बनते देखा गया है। इसे साढ़ेसाती भी कहते हैं। कुंडली में शनि की खराब स्थिति तथा साढ़ेसाती में अशुभ भाव व राशि में वक्री या अस्त होकर गोचर करना करियर में जबर्दस्त नुकसान देता है, नौकरी छूट जाती है, राजनीति में हार तथा व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। वहीं कुंडली में शनि की शुभ स्थिति हो तथा अच्छे राजयोग बन रहे हों तो ऐसे में साढ़ेसाती के समय शनि का शुभ भाव व राशि में गोचर करियर में श्रेष्ठतम सफलता प्रदान करता है। जितनी श्रेष्ठ कुंडली होगी उतनी ही ऊंची सफलता सुनिश्चित हो जाएगी। श्रेष्ठतम कुंडली में शुभ साढ़ेसाती का सुख देती है। चाहे ग्रह योग व साढ़ेसाती का सूक्ष्म निरीक्षण कितना ही शुभ फलदायी प्रतीत होता हो परंतु जातक को साढ़ेसाती के समय व्यापार में जोखिम नहीं उठाना चाहिए। शनि की साढ़ेसाती आपको अपने व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है साथ ही आपको जोखिम उठाने के लिए मना करती है। आपके लिए ऐसी कठिनाइयां भी उत्पन्न करती है जिससे आप अपनी गलतियों से सीखें। यह तकलीफें देकर आपको न केवल एक अच्छा इंसान बना देती है अपितु करियर को भी समुचित दिशा प्रदान करती है। जब कुंडली में शनि की स्थिति श्रेष्ठ हो, धन व लाभ भाव के स्वामी विशेष बली हों तथा गुरु व बुध भी उत्तम स्थिति में हों और गोचरस्थ शनि चंद्रमा से तृतीय, षष्ठ व एकादश भावों में शुभ राशि व शुभ ग्रहों के ऊपर से गोचर कर रहा हो तो वह समय व्यापारिक क्षेत्र में उन्नति के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। इस समय यदि शुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा भी चल रही हो तो जोखिम भी उठाए जा सकते हैं क्योंकि सफलता तय है। जिस समय दशम भाव, दशमेश व दशम के कारक पर शनि व गुरु दोनों का गोचरीय प्रभाव आ रहा हो और यह गोचर चंद्रमा से शुभ हो व शुभ राशि में भी हो तो करियर में उन्नति निश्चित रूप से होती है। यदि शनि मेष या वृश्चिक राशि में हो या मंगल से दृष्ट हो तो जातक मशीनरी, फैक्ट्री, धातु, इंजीनियरिंग, इंटीरियर या बिजली संबंधी कार्यों, केंद्रीय सरकार, कृषि विभाग, खान, खनिज या वास्तुकला विभाग में कार्य करता है। यदि इस ग्रह योग पर गुरु व शुक्र का भी प्रभाव हो तो ऐसा जातक न केवल धन लाभ अर्जित करता है अपितु उसे भूमि व संपत्ति का लाभ भी प्राप्त होता है। यदि शनि वृष या तुला राशि में हो अथवा इस पर शुक्र की दृष्टि हो तो कला, प्रबंधन, कम्प्यूटर के व्यवसाय से लाभ उठाता है। यदि गुरु व बुध का शुभ प्रभाव भी इस ग्रह योग पर पड़ता हो तो कानूनविद्, वकील, न्यायाधीश आदि के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। शनि और शुक्र मित्र हैं इसलिए शनि पर शुक्र का यह प्रभाव सौभाग्यवर्धक माना जाता है। शनि से गुरु, शुक्र व बुध की शुभ स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आय लाभ नियमित रूप से होता रहता है। ऐसे जातक अपने व्यवसाय में विशेष सुखी होते हैं। उनके पास धन, वाहन और भवन सभी मौजूद रहते हैं। शनि मिथुन या कन्या में हो अथवा बुध से दृष्ट हो तो ऐसे जातक एकाउंटिंग, काॅस्टिंग, अभिनय, बुद्धिजीवी वाले कार्यों, व्यापार, सौदों, विज्ञान व वाकपटुता आदि के अतिरिक्त लेखन कला व कानून संबंधी कार्यों से धन लाभ प्राप्त करते हैं। यदि गुरु व शुक्र का भी प्रभाव रहे तो धन कमाना सरल होने लगता है। ऐसे जातक को मित्रों से भी सहयोग मिलता है। शनि कर्क राशि में हो या चंद्रमा से दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति कला, ज्योतिष, राजनीति, धर्म, यात्रा, पेय पदार्थ, साहित्य, जल, मदिरा आदि के कार्यों से लाभ उठाते हैं। ऐसे लेगों के करियर में बार-बार परिवर्तन होते हैं। करियर में यात्राएं भी खूब होती हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं कि ऐसे लोग कठिन परिश्रम वाले कार्यों में संलग्न होना चाहें। ऐसे लोग अधिकतर शांत व नरम स्वभाव के होते हैं। शनि सिंह राशि में अथवा सूर्य से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को सरकारी नौकरी लेागों से लाभ मिलता है। इसका यह भी संकेत निकाल सकते हैं कि पिता पुत्र का व्यापार या साझेदारी आदि में संबंध है। इसके कारण सरकारी नौकरी व राजनीति से लाभ मिलता है। शनि सूर्य की शत्रुता के चलते कुछ संघर्ष के पश्चात् सफलता मिलती है। इसलिए यदि गुरु, शुक्र व बुध आदि ग्रहों का शनि पर प्रभाव न हो तो व्यावसायिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि गुरु, शुक्र, बुध व बलवान चंद्रमा का प्रभाव आ जाए तो जातक को विशेष प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। यदि शनि धनु या मीन राशि म हो या गुरु से दृष्ट हो तो जातक को कानून, वन विभाग, लकड़ी या धार्मिक संस्थाओं आदि में विशेष सफलता मिलती है। यह ग्रह योग जातक को मनोविज्ञान, गुप्त ज्ञान (पराविद्या), प्रशासनिक कार्य, प्रबंधन कार्य, शिक्षक, अन्वेषक, वैज्ञानिक, ज्योतिषी, मार्गदर्शक, वकील, इतिहासकार, चिकित्सक, धर्मोपदेशक आदि के रूप में प्रतिष्ठित कराता है। ऐसे जातक में वाद-विवाद करने का विशेष चातुर्य होता है व व्यक्तित्व विशेष आकर्षक होता है। इनके बहुत से मित्र होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। ऐसा ग्रह योग स्वतंत्र व्यवसाय या रोजगार की प्राप्ति करवाता है। शनि मकर या कुंभ राशि में हो तो जातक को सेवा, यात्रा, जन आंदोलन, विक्रय कार्य अथवा लायजनिंग संबंधी कार्यों से लाभ होता है। शनि विदेशी भाषा का कारक है इसलिए विद्या व भाषा पर अधिकार देने वाले ग्रहों जैसे शुक्र, गुरु, बुध व केतु से इसका शुभ संबंध और स्थिति जातक को अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का विद्वान बनाती है। शनि के ऊपर, गुरु, बुध, केतु इन सभी का प्रभाव पड़े तो मशहूर वकील बने। शनि पर केवल राहु का प्रभाव हो तो जातक छोटी नौकरी से गुजर बसर करता है परंतु यदि राहु के साथ-साथ गुरु, शुक्र का भी प्रभाव हो तो प्रारंभ में नौकरी करने के पश्चात् जातक धीरे-धीरे अपने आप को स्वतंत्र व्यवसाय में भी स्थापित कर लेता है।

कुंडली में चतुर्थ भाव और शनि

ज्योतिष शास्त्र में शनि ग्रह के अनेक नाम हैं - सूर्य पुत्र, अस्ति, शनैश्चर इत्यादि। अन्य ग्रहों की अपेक्षा जो ग्रह धीरे-धीरे चलता हुआ दिखाई देता है उसे ही हमारे ऋषि मुनियों ने ‘‘शनैश्चर ‘‘अथवा ’शनि’ कहा है। पाश्चात्य ज्योतिष में इसे ‘‘सैटर्न’’ कहते हैं। जनसाधारण में इसे सर्वाधिक आतंकवादी ग्रह के रूप में जाना जाता है। ऐसी धारणा है कि शनि की महादशा, ढैया अथवा साढ़ेसाती कष्टकारी या दुःखदायी ही होती है। भारतीय ज्योतिष में शनि को न्यायाधीश माना गया है। किंतु ‘शनि’ एक ऐसा ग्रह है जो विपत्तियों, संघर्षों और कष्टों की अग्नि में तपाकर जातक को अतिशय साहस और उत्साह देता है तथा उसके श्रम एवं अच्छे कर्मों का पूर्ण फल और शुभत्व भी प्रदान करता है। ‘‘जातक परिजाता’’ में दैवज्ञ वेद्यनाथ जी ने शनि को ‘‘चतुष्पदो भानुसुत’’ कहा है। 6, 8, 12 भाव इसके अपने भाव हैं। यह पश्चिम दिशा का स्वामी ग्रह है, मकर तथा कुंभ राशि का स्वामी है। शनि ग्रह से वात्-कफ, वृद्धावस्था, नींद, अंग-भंग पिशाच बाधा आदि का विचार करना चाहिए। शनि से प्रभावित व्यक्ति अन्वेषक, ज्योतिषी, ठेकेदार, जज इत्यादि हो सकता है, मेष राशि में नीच तथा तुला राशि में उच्च स्थिति में होता है। पुष्य, अनुराधा और उत्तराभाद्रपद इसके नक्षत्र हैं। अन्य ग्रहों के समान शनि ग्रह के भी कुंडली के 12 भावों और 12 राशियों में भिन्न-भिन्न फल होते हैं। वैसे प्रथम भाव में शनि यदि उच्च राशिस्थ अथवा स्वगृही है तो जातक को धनी, सुखी बनाता है। द्वितीय भाव में नेत्र रोगी, तृतीय में बुद्धिमान, चतुर्थ में भाग्यवान, बुद्धिमान एवं अपयशी भी बनाता है। इसी प्रकार द्वादश भावों में शनि के पृथक-पृथक फल बताये गये हैं। किंतु यहां पर में केवल चतुर्थ भावस्थ शनि के बारे में एक विचित्र एवं स्वानुभूत सत्य बताने की चेष्ट है। जैसा कि सर्वविदित है कि चतुर्थ भाव मातृ कारक भाव माना गया है। माता से संबंधित ज्ञान कुंडली के चतुर्थ भाव से प्राप्त करना चाहिए। अनेकानेक कुंडलियों का अध्ययन करने के बाद देखा गया कि शनि यदि चतुर्थ भाव में होगा तो ऐसे जातक को अपनी माता का सुख कम मिलता है तथा उसके जीवन में किसी एक ऐसी महिला का पदार्पण अवश्य होता है जिसे वह अपनी माता के समान ही सम्मान देता है और अपनी मां के होते हुए भी वह अपना सम्पूर्ण आदर, प्रेम व सम्मान उस स्त्री को देता है जिसे वह मातृतुल्य समझता है। चतुर्थ भावस्थ शनि वाला जातक ऐसी स्त्री को मां मानता है अर्थात उसके जीवन में एक से अधिक माताओं का प्यार होता है। यह महिला कोई भी हो सकती है, उसकी मौसी, चाची, बुआ या यहां तक भी देखने में आया है कि दोनों का कहीं से कोई भी संबंध नहीं है फिर भी कभी उससे बात हुई और धीरे-धीरे ये मां और बेटे के संबंध इतने मधुर हो जाते हैं कि यथार्थ में उनका प्रेम मां बेटे जैसा हो जाता है। यह एक शोध का विषय है जो क्रमशः कई कुंडलियों का लगातार अध्ययन करने के बाद पाया गया है।

नीचस्थ लग्नेश और विभिन्न रोग

मानव जीवन और रोग का अटूट संबंध है। विश्व में ऐसा कोई जातक नहीं है, जिसे कभी कोई रोग न हुआ हो, चाहे वह छोटा रोग हो, चाहे बड़ा। पूर्व जन्म के अशुभ कर्मों के कारण जातक को रोग होते हैं। ज्योतिष के आधार पर रोग, उसकी तीव्रता तथा उसके समयावधि का आकलन किया जा सकता है। प्रत्येक राशि, नक्षत्र, ग्रह और भाव किसी न किसी रोग के कारक होते हैं। ज्योतिष की वह शाखा, जो राशि, नक्षत्र ग्रह तथा भाव के आधार पर रोग का ज्ञान कराती है, चिकित्सा ज्योतिष कहलाती है। यों तो ज्योतिष में रोगों से संबंधित असंख्य योग हैं। परंतु यहां ऐसे योग का उल्लेख किया जा रहा है, जिसमें स्वयं लग्नेश (तनु भाव का स्वामी) अपनी विशिष्ट स्थिति के कारण, स्वयं रोगोत्पत्ति का कारण बन जाता है। इस योग को निम्न रूप में व्यक्त किया जा सकता है। ‘‘जन्म लग्नेश जिस भाव में नीचस्थ हो कर स्थित होता है, वह काल पुरुष के उसी भाव से संबंधित अंग में जातक को रोग देता है।’’ जन्म लग्नेश की नीच राशि में स्थिति विभिन्न लग्नों की जन्मकुंडलियों में यहां उद्धृत तालिका के अनुसार हो सकती है। जन्मकुंडली में तीन भाव ऐसे हैं, जिनमें कोई भी ग्रह लग्नेश हो कर नीच राशिस्थ नहीं हो सकता है। ये तीन भाव हैं लग्न, षष्ठ और अष्टम। इसका अर्थ यह हुआ कि कोई भी ग्रह अपनी स्वयं की राशि, अथवा अपनी राशि से षष्ठ, या अष्टम राशि में नीचस्थ नहीं होता। लग्न सिर का, षष्ठ भाव गुर्दे अंतड़ियों और अपेंडिक्स का तथा अष्टम भाव गुदा और अंडकोषों का प्रतिनिधित्व करते हैं। उपर्युक्त तीनों भाव उक्त सूत्र के अपवाद हैं। रोग की तीव्रता: नीचस्थ लग्नेश द्वारा उत्पन्न रोग की तीव्रता पर निम्न बातों का प्रभाव पड़ता है: यदि नीचस्थ लग्नेश पर युति, दृष्टि, या मध्यत्व द्वारा शुभ प्रभाव अधिक हो, तो काल पुरुष से संबंधित अंग में रोग की तीव्रता न्यून होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश नवांश में उच्च हो, तो भी रोग की तीव्रता न्यून होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश पर युति, दृष्टि या मध्यत्व द्वारा अशुभ प्रभाव अधिक हो, तो रोग की तीव्रता अधिक होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश नवांश में नीचस्थ हो, तो भी रोग की तीव्रता अधिक होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश नवांश कुंडली में त्रिक भावों (6, 8, 12) में हो, तो भी रोग की तीव्रता अधिक होती है। यदि नीचस्थ लग्नेश निरयण भाव चलित में अगले भाव में चला जाए, तो रोग का प्रभाव अगले भाव से संबंधित अंग पर भी होगा। यदि नीचस्थ लग्नेश निरयण भाव चलित में पिछले भाव में रह जाए, तो रोग का प्रभाव पिछले भाव से संबंधित अंग पर भी होगा। उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि नीचस्थ लग्नेश का रोग से संबंधित फलादेश करने से पहले सभी बिंदुओं पर भली भांति विचार कर लेना चाहिए।

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Tuesday 29 December 2015

आज के आधुनिक तकनीकी एवं प्राविधिकी विकास मेंन मनोवैज्ञानिकों की आवश्यकता

विज्ञान की प्रगति के साथ तकनीकी एवं प्राविधिकी विकास तथा परिवर्तनों ने उद्योग संस्थानों को प्रभावित किया है। श्रम-विभाजन तथा अति परित्कृत मशीनो के कारण हुए कार्यों का स्वचलन तथा बदलती हुई कार्य-प्रणाली ने उद्योगों के वातावरण में यांत्रिकता तथा एकरसता को बढावा दिया है । इसका प्रभाव कर्मचारी तथा मशीन एंव कर्मचारी एव प्रबंधन के बीच विरोध के रूप में पडा है तथा कर्मचारियों के बौद्धिक तथा संवेगात्मक्त पक्षों पर भी इसका नाकारात्मक प्रभाव पडा है । जिस कार्य को करने में मनुष्य की इच्छा, बुद्धि एवं प्रयास नहीं लगे हो वह कार्यं उसे सन्तुष्टि नहीं दे सकता और आज के अति उन्नत उद्योग संस्यानों में मनुष्य एक बटन दबने वाला साधन मात्र बन कर रह गया है । किसी भी कार्य को करने में उसकी बुद्धि तथा कौष्टाल का प्रयोग नहीं होता जिसका फल यह होता है कि न तो मनुष्य को उस कार्य में रुचि त्तथा अनुरक्ति विकसित हो पाती है न ही वह कार्य उसे कोई चुनौती दे पाता है जो उस व्यक्ति में कार्यं को संपादित करने की तत्परता एवं प्रेरणा जगा सके। इन स्थितियों मेँ औद्योगिक संस्यानों में विभिन्न प्रकार की जटिलताएँ उत्पन्न हो जाती है जिनके समाधान के लिए मनोवैज्ञानिकों की सहायता आवश्यक हो जाती है, न मात्र उद्योग के विभिन्न क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिकों की भूमिका है वरन हर उन संस्थानों में उनकी उपयोगिता है जहाँ कर्मचारियो के चयन एवं प्रशिक्षण की समस्या होती है, यथा-विभिन्न सेवा आयोग, सेना के संस्थान, आरक्षी प्रशिक्षण केन्द्र, ग्राम्य एवं सामुदायिक विकास योजनाएँ आदि। विभिन्न निजी एवं सार्वजनिक क्षेत्रों में भी मनोवैज्ञानिकों की भूमिका को लोग अब पहचानने लगे हैं।
आधुनिक औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों ने उद्योग संस्थानों में अपनी भूमिका तथा कार्य- कलापों में आमूल परिवर्तन बताया है। द्वितीय महायुद्ध के बाद तक के दिनो में मनोवैज्ञानिकों का कार्यक्षेत्र औद्योगिक वातावरण के भौतिक पक्षी तक ही सीमित था। किन्तु क्रमश: उनका ध्यान उद्योगो में कार्यरत् मनुष्यों के वैयक्तिक कारकों यर जाने लगा तथा उनके व्यक्तित्व का नैदानिक तथा वैज्ञानिक अध्ययन का उन्हें उद्योग के लिए अधिक उपयोगी बना देने का प्रयास मनोवैज्ञानिकों का अभीष्ट हो गया। आज के मनोवैज्ञानिकों के अध्ययन क्षेत्र में मनुष्य के प्रेरण, इच्छाएँ, आवश्यकताएँ, आकाक्षाएँ, आदि तो है ही, उनके क्षेत्र का विस्तार निरीक्षण, नेतृत्व प्रकार, नियोक्ताकर्मी संबंध, कार्यं के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति, मनोबल, आदि के अध्ययन के दिशा में भी हुआ है। उनकी मान्यता है कि व्यक्ति के ये वैयक्तिक कारक उद्योग संस्थानों के अन्तर्गत उनकी कार्य प्रणाली तथा कार्यक्षमता को प्रभावित करते है जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उत्पादन पर पता है।
1.कर्मचारियों की उधोग में सहभागिता बढाने की भूमिका-मनोवैज्ञानिकों ने विभिन्न प्रयोगशाला तथा क्षेत्र-प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित कर दिया है कि उद्योग संस्थानों में कर्मचारियों की सहभागिता तथा प्रबंधकों की ओर से लोकतात्रिक एव सहकारी वातावरण का उन्नयन नियोक्ता एवं कर्मिंर्या के पारस्परिक संबंर्धा को न सिर्फ बढाता है वरन् उत्पादन पर भी इसका प्रभाव पाता है। मनोवैज्ञानिकों की भूमिका कर्मचारियों की स्थितियों के अध्ययन तक ही सीमित नहीं है। उनका अभीष्ट उद्योगपतियों तथा प्रबंधकों की लक्ष्य-प्राप्ति के संसाधनों का अध्ययन करना भी है। अत: उद्योग संसाधनों की संरचना की योजना को कार्यान्वित करना मनोवैज्ञानिक अध्ययन क्षेत्र में आ जाता है।
2. उद्योग क्षेत्रों में श्रम-कल्याण-विभाग की स्थापना कराने की भूमिका-विभिन्न देशों की सरकारों ने भी उद्योगपतियों तथा कामगारों के प्रति अपना दायित्व स्वीकारा है। उद्योगों की सफलता मात्र के लिए हो कामगारों की सुख-सुविधा तथा संतुष्टि के लिए प्रयास हो यह उनका दर्शन नहीं रहा है। उनकी मान्यता रही है कि राष्ट्र के एक नागरिक के नाते हर कामगार को अपनी मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उन साधनो को प्राप्त करने का अधिकार है जो उससे ऊपर के वर्गों के नागरिको को प्राप्त हैं। अत: उद्योगों में कार्यरत कामगारों की सुबिधा तथा सुरक्षा के लिए श्रम अधिनियमों को पारित किया गया और उनके आलोक में सरकारी नीतियों के आघार पर उद्योगपतियों और उद्योग मनोवैज्ञानिकों के सम्मिलित प्रयास से उद्योगो में श्रम कल्याण विभाग के स्थापना हुईं। इस विभाग के अधिकारी को कार्मिक पदाधिकारी का पद दिया गया। इस पदाधिकारी के कार्यक्षेत्र के अन्तर्गत् कामगारों की कार्य-प्रणाली, कार्यस्थल पर उचित व्यवहार, निरीक्षकों के साथ उचित पारस्परिक सम्बन्ध आदि के अतिरिक्त उनके भविष्य की सुरक्षा के हर संभव प्रवासी का करना भी है-प्राविडेंट फण्ड, ग्रेच्युटी आदि की योजनाओं को पारित करना, दुर्घटना तथा बीमारी आदि की अवस्था में उनकी आर्थिक सुरक्षा की देखभाल आदि। ये सारे कार्यं सुचारु रूप से पारित हो सके। इसका दायित्व भी उद्योग मनोविज्ञानी की भूमिकाओं में शामिल है ।
3. औद्योगिक अभियंताओं के कार्य में सहयोग की भूमिका-उधोग संस्थानों में विभिन्न स्तरों पर कार्यंरत् अभियंताओं के समक्ष जब विभिन्न प्रवर की समस्याएँ आ जाती है तब वहाँ भी उन्हें मनोवैज्ञानिकों की सहायता की आवश्यकता पड़ जाती है। मशीनों के निर्माण की योजना बनाते समय अभियन्ता मनोवैज्ञानिकों के सुझाव मांगते है ताकि ऐसी मशीनो का निर्माण हो सकै जो मनुष्यों की क्षमताओं तथा सीमाओं के अनुरूप हो। ऐसी मशीनो पर काम करना मनुष्य के लिए भार-स्वरूप नहीं होता तथा उन्हें उन पर कार्य करने में आनन्द मिलता है। स्पष्ट है कि इसका प्रभाव उसकी कार्यक्षमता पर तथा उत्पादन, शक्ति पर साकारात्मक रूप से पडेगा।
4. कर्मचारी का व्यक्तित्व विश्लेषण कर उन्हें सही सुझाव देने को भूमिका -आज के युग के बदलते हुए स्वरूप ने मनुष्य की प्रकृति में अनेकानेक परिवर्तन तथा विकृति को उत्पन्न कर दिया है। धैर्य, सहनशिनलता, त्याग, सहयोग, समर्पण आदि मानवीय मूल्यों के लगभग लोभ होने की स्थिति उत्पन्न हो गयी है और इसके स्थान पर स्वार्थ तथा व्यक्तिगत आकांक्षाओं को प्रधानता मिलने लगी है। इन बातों का प्रभाव औद्योगिक वातावरण पर भी पड़। है। आज के उद्योग संस्थान इस सदी के पूर्वार्द्ध के उद्योगों के समान नहीं रह गये है जब औद्योगिक जीवन एक बंधी बंधायी लीक पर चलता था और नियोक्ता तथा कर्मचारी अपनी प्राप्ति से लगभग संतुष्ट रहा करते थे। आज के मनुष्य उनका समाधान कर सके यह देखना मनोवैज्ञानिक का कार्यं है।
5. उद्योग के कार्मिंक विभाग को सुझाव तथा सहयोग देने की भूमिका-आज़ के उद्योग मनोविज्ञानी ने पहले की तरह मनौवैज्ञानिक परिक्षण रचना मात्र में अपने कार्य क्षेत्र को सीमित नहीं कर रखा है। उद्योग में उसकी भूमिका का क्षेत्र व्यापक तथा विस्तृत हो गया है और उस विस्तृत क्षेत्र का अंग है उद्योग के कार्मिक विभाग को उपयुक्त सुझाव तथा सहयोग देना: कार्मिक विभाग का उत्तरदायित्व औद्योगिक परिवेश से सबसे अधिक
है। प्रबंधन की नीतियों को कर्मचारियों तक सही रूप में पहुँचाना तथा कर्मचारियो की कार्य प्रणाली का निर्धारण,निरीक्षकों को समुचित निर्देश तथा कर्मचारियों के विचारों को प्रबंधन तक सही रूप से आने देना आदि कार्मिक विभाग के कार्य-कलापों के अंतर्ग्रत विभाग में आता है |अत: कार्मिक विभाग अपना कार्य समुचित रूप से करता रहे इसी पर उधोग की प्रगति निर्भर है |
6. प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच मध्यस्थता की भूमिका-औद्योगिक प्रगति के लिए एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण तत्व है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सामंजस्य, सौहार्दपूर्ण सम्बन्ध तथा एकदूसरे से विचारों के स्तर पर त्तादात्स्य। इन स्थितियों की अनुपस्थिति में औद्योगिक लक्ष्य की प्राप्ति नही हो सकती, और ये स्थितियों उत्पन्न होती है प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच वार्ता के अभाव में। अत: उद्योग मनोवेज्ञानिको की एक अहम् भूमिका बन जाती है प्रबंधन तथा कर्मचारी संघ के बीच वार्ता की स्थिति को उत्पन्न करने की। यों देखा जाए तो यह कार्यं श्रम कल्याण विभाग के पदाधिकारियों का है क्योंकि वे ही प्रबंधन तथा कर्मचारियों के बीच सेतु का कार्यं करते है। किन्तु आज कल दिन-व-दिन मूल्य रहित होते हुए समाज में हर पदाधिकारी अपनी भूमिका निस्वार्थ रह कर तथा ईमानदारी से निभाह दे यह अमूमन देखने में नहीं आता। श्रम पदाधिकारियों को रिश्वत देकर तथा अन्य भौतिक प्रलोभन देकर उद्योगपतियों का उनको अपनी और मिला लेने और फलस्वरूप गरीब कर्मचारियों की उचित मानो को अनदेखा का कर देने की घटनाएँ आज आम हो गयी हैं। इस स्थिति में कर्मचारियों का आक्रोश बढ़ता है और एक हतोत्साह कर्मचारी उद्योग के लिए कितना अनुपयोगी और हानिकारक हो सकता है यह समझना बडा ही सहज है। हड़ताल, तालानंदी तथा श्रम-परिवर्तन आदि अवांछनीय घटनाएँ ऐसे ही कर्मचारियों की हताशा की देन हैँ। अत उद्योग मनोविज्ञानी की एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण भूमिका यहाँ यह हो जाती है कि वह प्रबंधन तथा कर्मचारियों के सम्मुख एकदूसरे के विचारों को स्पष्ट रूप से रखे और समझाएं, उन विचारों के औवित्य तथा उद्योग के लिए प्रभावकारिता का स्पष्टीकरण करें तथा दोनो को यह समझ लेने की स्थिति में ले आएँ कि एकदूसरे की अनुपस्थिति में वे अस्तित्वहीन है। उनका अस्तित्व पारस्परिक सहयोग तथा सामंजस्य पर ही निर्भर है।
7. विज्ञापन के क्षेत्र में सहयोगी की भूमिका-आज का युग विज्ञापन-युग है। आज विज्ञापन न सिर्फ उत्पादन के विपणन का एक साधन मात्र रह गया है वरन् स्वय एक उद्योग बन गया है। विश्व के हर उन्नत तथा विकासशील देश में विज्ञापन तेजी से उद्योग का रूप लेता जा रहा है जिसके सहारे अन्य उद्योग तथा व्यवसाय विकसित हो रहे हैं। अत: विज्ञापन के स्वरूप तथा उसके विभिन्न पक्षों का वैज्ञानिक तथा विश्लेषणात्मक अध्ययन करना भी आधुनिक मनोविज्ञान की कार्यं-सीमा मेँ आ गया है।
अत: हम कह सकते है किं औद्योगिक मनोवैज्ञानिकों की व्यापक भूमिका आधुनिक उद्योग संस्यानों तथा व्यवसाय गृहों में है, और यही कारण है कि आज हर छोटे-बड़े उद्योग संस्थानों में मनोवैज्ञानिको को स्थायी रूप से नियोजित किया जा रहा है । कर्मचारियों के चयन से लेकर प्रशिक्षण तक, निरीक्षण से लेकर कार्य-मुल्यांकनं तक तथा जीविका आयोजन से लेकर श्रम संबंधो तक औद्योगिक मनोविज्ञानी एक विस्तृत तथा सतत् परिवर्ती घटनास्थल में घूमता हैं।

Pt.P.S.Tripathi
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Disease cured by gems

Joint Pain : The inflammation in joints is caused by the deposition of uric acid in various parts of the body, especially in cartilage inside the joints. Astrologically the planet Saturn is the agent for development of Arthritis if posited in 6th house and aspected by Mars. Capricorn and Sagittarius governs knee, joints and hips. Gem Therapy : Use red coral in 9 ratti and yellow sapphire in 5 rattis warn on fourth finger (kanistha). Asthma : It is very serious disease. The bronchial tubes are narrowed by spasmodic contractions and secretes an excess of mucous which makes breathing difficult. The patient wheezes and coughs and usually suffer from insomnia. Astrologically, the Saturn is the chief planet which causes this trouble, when Saturn afflicts the 4th house from the ascendant or Leo. Gem Therapy : Use emerald in 6 rattis, yellow sapphire in 5 rattis, moonstone (moti) in 6 rattis may be worn in fourth finger. Blindness : This disease is caused by infection or due to accident to eyes. Astrologically 2nd and 12th houses from the ascendant governs the right and left eyes. Sun controls the right eye and moon controls left eye. Gem Therapy : This disease is practically in curable but use ruby and white pearl in first finger to get some relief. Myopia : It is called near sightedness. The eyes can focus on near by object but vision at a distance is blurred. Use of concave lens in spectacles cures this disease. Astrologically, Sun and moon controls the eye sight. Afflicted Sun and Moon give all sorts of eye troubles. Gem Therapy : Use of 6 rattis of red coral and white pearl in first finger. Pleurisy : This disease is caused by inflammation and infection of the pleura. It may arise suddenly. Symptom : Sharp pains in the lungs followed by fever, dry cough and difficulty in breathing. Astrologically, Gemini and Leo governs our lungs, Jupiter and Mars in Gemini or Leo afflicted by Saturn or Rahu. Gem Therapy : 6 rattis of red coral and yellow sapphire in first finger.

Why do horoscope matching before marriage????

According to Hindu scriptural texts marriage is a religious relationship. It shouldn’t be considered as an ordinary relationship. The mental, physical, intellectual and religious features of bride and groom should be matched necessarily. Only mental compatibility is not enough because if other elements don’t match and are inimical to each other in that case marital relation can turn into a painful experience.
Our ancient Rishis laid down several rules for public welfare with the help of their divine vision, experience, the extensive investigation and research. We can succeed in arranging the marriages of our children without having any worry about the future of their married life if we follow these rules thoughtfully after understanding them properly. However, by violating them we shall be creating only a bed of roses for our children.
Many people say that by following the process of horoscope matching the marriage gets delayed or else several inconveniences intervene. If we can spend lot of money and time to buy clothes and do not mind going from one corner of the city to other to get the clothes of choice then why can’t we follow few of certain rules to search the life partner of choice.
Some important rules laid down by our Rishis to ensure happy married life are as follows :
1) Married life remains good if the sign occupied by 7th lord of groom’s horoscope is the Moon sign of bride .
For example in the below mentioned case no.1 the 7th lord Sun of male is in Cancer and the female’s Rashi is also Cancer therefore their marriage was extremely successful.
Similarly in below mentioned case no.2 the 7th lord Jupiter is in Cancer in male’s horoscope and the Rashi of female is Cancer. They are doctors by profession and are enjoying happy married life.
On these horoscopes 2nd rule given below is also applicable.
2) If the Rashi of female is the exaltation sign of 7th lord of male’s horoscope it is very auspicious yoga for the married life. So both these rules are applicable in above mentioned case no. 2.
3) Happy married life can be predicted if the Rashi of bride is the debilitation sign of 7th lord of groom
In the below given case no.3 seventh lord is Saturn in male's chart & the debilitation sign of the same is the Rashi of female. They are leading successful married life.
4) If the sign occupied by Venus of male is the Rashi of female, married life is successful. For example in below mentioned case no.4 Venus of groom is in Virgo and the Rashi of bride is also Virgo therefore they are living a very happy married life in spite of having the problem of difference of opinion.
5) Marital bliss remains intact if the sign occupying 7th house in male’s chart is the Rashi of female.
In the below mentioned case no.5(i) the Scorpio sign occupying 7th house in the horoscope of male is the Rashi of female. Their marriage is successful and those who know about their married life do agree that they are made for each other.
Similarly in case no. 5(ii) sign occupying 7th house in male’s chart is Taurus and the same is the Rashi of female as a result of which their marriage is extremely successful.
6) Married life remains good if the sign occupied by lagna lord is the Rashi of female .
In the below mentioned case no. 6 lagna lord Mercury is occupying Leo sign and the same sign is the Rashi of female. Both are happy after their marriage.
7) Married life remains perfectly good if the 7th sign from the Rashi of male is lagna of female. For example in below mentioned case no.7 Sagittarius is the 7th sign from the Rashi of male which is also the lagna of female. Because of this their marriage proved very successful.
8) Marriage proves successful if the lagna of female is the sign occupied by planet aspecting 7th from Rashi of male. In case no. 8 the 7th house from Rashi of male is aspected by Rahu in Cancer. In female’s chart lagna is Cancer. Their love marriage brought lot of bliss to them.
In addition we should also study the elements of all signs. Aries, Leo and Sagittarius are fiery signs. Taurus, Virgo and Capricorn are earthy signs. Gemini, Libra and Aquarius are airy signs. Cancer, Scorpio and Pisces are classified as watery signs. Water extinguishes fire therefore water is inimical to fire. Fire burns earth but air supports fire to burn vigorously. Therefore fire and air elements are friendly. Similarly earth turns green with the irrigation of water therefore earth and water are friendly elements. But air and fire are inimical to earth and water. Therefore now we can know which signs are friendly to each other and accordingly you can proceed into the conversation regarding marriage. For instance if Moon is in fiery sign in male’s chart and in a watery sign in female’s chart and lagna is earthy sign it might create the possibility of problems in the internal aspect of their relationship.
During ancient times our ancestors gave special attention towards the match making criteria but gradually with the passage of time many people started neglecting the given principles and many young people started marrying their lovers without getting their charts analyzed from an astrologer. The result of this is unsuccessful marriage, and marital discords. Now again, astrological consciousness about match making is increasing day by day. This match making is done usually by referring to Melapak chart given in Panchang. The 8 factors on the basis of which this chart is calculated are known as Ashtakoota and considered to judge the stability of married life.
If the promise of happy married life is missing from a horoscope in that case Ashtakoota Milan results into a futile exercise.
In nutshell we can say that following 4 factors should be studied to know about the stability in one’s married life.
1) Promise of marital happiness
2) Ashtakoota matching
3) Manglik Dosa matching
4) Strength of Navansha chart
Sometimes marital happiness is promised in one chart but denied in the chart of spouse this indication is not enough for a good match. If promise of happy married life is indicated in both charts it can result in happy married life but Manglik Dosa matching and Ashtakoota matching should not be overlooked.
The indications of multiple relationships in a chart also ruin marital happiness. The human tendency is to seek maximum compatibility because fidelity comes due to natural inclination towards a relationship. Fidelity out of compulsion is not reliable. When mind wanders malefic planets get an opportunity to intervene.
It is inevitably essential to study the horoscopes by keeping in mind the above mentioned principles to ensure happy married life.

विवाह के समय कुंडली मिलन की सार्थकता

मनुष्य सामाजिक प्राणी है और समाज का निर्माण परिवार से होता है। परिवार का निर्माण दो व्यक्तियों के मिलन से होता है। इस मिलन को हम विवाह कहते हैं। परिवार समाज की मूलभूत इकाई है। एक स्वस्थ व खुशहाल परिवार ही एक स्वस्थ समाज का निर्माण कर सकता है। भारतीय विवाह पद्धति ही सिर्फ एक ऐसी पद्धति है जिसमें विवाह योग्य लड़के व लड़की की जन्म तिथि व समय के आधार पर कुंडलियां बनाकर उनका मेलापक करके विवाह की अनुमति देते हैं। कुंडली मिलान में 36 गुण होते हैं जिनमें कम से कम 18 मिलने चाहिए पर ही विवाह करना चाहिए। इस मिलान को अष्टकूट मिलान कहते हैं। कुंडली मिलान के दो भेद हैं - ग्रह मिलान और नक्षत्र मिलान/राशि/पुकारा जाने वाला नाम ग्रह मिलान में दोनों की कुंडलियों के विभिन्न भावों में स्थित ग्रहों के मिलान व स्थिति पर विचार किया जाता है। इसमें ग्रहों की शत्रुता व मित्रता देखी तथा आपस में युति देखी जाती है। नक्षत्र मिलान में जिस राशि में चंद्रमा हो उसके अनुसार नक्षत्र गणना कर नक्षत्र मिलान करते हैं। आजकल पुकारने वाले नाम के नक्षत्र का मिलान किया जाता है, पत्री के नक्षत्र का नहीं जो कि एक गलत तरीका है। अष्टकूट मिलान में निम्नलिखित आठ बातों का अध्ययन किया जाता है जिसके अनुसार अंकों का जोड़ 36 होता है। 1. वर्ण जातीय कर्म 1 2. वश्य स्वभाव 2 3.तारा भाग्य 3 4. योनि यौन विचार 4 5. ग्रहमैत्री आपसी संबंध 5 6. गण सामाजिकता 6 7. भकूट जीवन शैली 7 8. नाड़ी आय/संतान 8 36 यदि अष्टकूट मिलान में 18 गुण मिलते हैं तो विवाह की अनुमति दे दी है। आधुनिक संदर्भ में अष्टकूट मिलान में से ग्रह मैत्री और भकूट को सर्वाधिक महत्व प्राप्त है। विवाह के लिए कुंडली में पंचम, द्वितीय, सप्तम और अष्टम भावों पर विचार किया जाता है परंतु इनमें सप्तम व पंचम मुख्य हैं। केवल अष्टकूट मिलान पर्याप्त नहीं है, अपितु वर और कन्या के सप्तम भाव का शुभ होना भी विवाहित जीवन की सफलता के लिए आवश्यक है। इसके अतिरिक्त द्वितीय, चतुर्थ, पंचम तथा द्वादश भावों का विश्लेषण पारिवारिक तालमेल सुख, प्रेम तथा शयन सुख के लिए आवश्यक होता है। सप्तम भाव जीवन साथी का भाव है। इससे स्वभाव, रूप, रंग, प्रेम विवाह, व्यवहार आदि का विश्लेषण किया जाता है। वर्तमान समय में विवाह एक सामाजिक आवश्यकता भी नहीं रहा है। पति पत्नी साथ रहकर भी एक दूसरे से मानसिक व व्यावहारिक दोनों स्तरों पर दूर रहते हैं। इस विवाह का क्या अर्थ है जब दोनों व्यक्ति अनजानों की तरह पूरी जिंदगी व्यतीत कर दें।

जन्म दशा से जुड़ा पंचम, नवम व द्वादश भावों का संबंध

हिंदू ज्योतिष कर्म तथा पुनर्जन्म के सिद्धांत पर आधारित है। यह तथ्य प्रायः सभी ज्योतिषी तथा ज्ञानीजन अच्छी तरह से जानते हैं। मनुष्य जन्म लेते ही पूर्व जन्म के परिणामों को भोगने लगता है। जैसे फल फूल बिना किसी प्रेरणा के अपने आप बढ़ते हैं उसी तरह पूर्वजन्म के हमारे कर्मफल हमें मिलते रहते हैं। हर मनुष्य का जीवन पूर्वजन्म के कर्मों के भोग की कहानी है, इनसे कोई भी बच नहीं सकता। जन्म लेते ही हमारे कर्म हमें उसी तरह से ढूंढने लगते हैं, जैसे बछड़ा झुंड में अपनी मां को ढूढ़ निकालता है। पिछले कर्म किस तरह से हमारी जन्मकालीन दशाओं से जुड़ जाते हैं, यह किसी भी व्यक्ति की कुंडली में आसानी से देखा जा सकता है। कुंडली के प्रथम, पंचम और नवम भाव हमारे पूर्वजन्म, वर्तमान तथा भविष्य के सूचक हैं। इसलिए जन्म के समय हमें मिलने वाली महादशा/ अंतर्दशा/ प्रत्यंतर्दशा का संबंध इन तीन भावों में से किसी एक या दो के साथ अवश्य जुड़ा होता है। यह भावों का संबंध जन्म दशा के किसी भी रूप से होता है - चाहे वह महादशा हो या अंतर्दशा हो अथवा प्रत्यंतर्दशा। दशा तथा भावों के संबंध के इस रहस्य को जानने की कोशिश करते हैं पंचम भाव से। पंचम भाव, पूर्व जन्म को दर्शाता है। यही भाव हमारे धर्म, विद्या, बुद्धि तथा ब्रह्म ज्ञान का भी है। नवम भाव, पंचम से पंचम है अतः यह भी पूर्व जन्म का धर्म स्थान और इस जन्म में हमारा भाग्य स्थान है। इस तरह से पिछले जन्म का धर्म तथा इस जन्म का भाग्य दोनों गहरे रूप से नवम भाव से जुड़ जाते हैं। यही भाव हमें आत्मा के विकास तथा अगले जन्म की तैयारी को भी दर्शाता है। जिस कुंडली में लग्न, पंचम तथा नवम भाव अच्छे अर्थात मजबूत होते हैं वह अच्छी होती है क्योंकि भगवान श्री कृष्ण के अनुसार ”धर्म की सदा विजय होती है“। द्वादश भाव हमारी कुंडली का व्यय भाव है। अतः यह लग्न का भी व्यय है। यही मोक्ष स्थान है। यही भाव पंचम से अष्टम होने के कारण पूर्वजन्म का मृत्यु भाव भी है। मरणोपरांत गति का विचार भी फलदीपिका के अनुसार इसी भाव से किया जाता है। दशाओं के रूप में कालचक्र निर्बाध गति से चलता रहता है। ”पद्मपुराण“ के अनुसार ”जो भी कर्म मानव ने अपने पिछले जन्मों में किए होते हैं उसका परिणाम उसे भोगना ही पड़ेगा“। कोई भी ग्रह कभी खराब नहीं होता, ये हमारे पूर्व जन्म के बुरे कर्म होते हैं जिनका दंड हमें उस ग्रह की स्थिति, युति या दशा के अनुसार मिलता है। इसलिए हमारे सभी धर्मों ने जन्म मरण के जंजाल से मुक्ति की कामना की है। जन्म के समय पंचम, नवम और द्वादश भावों की दशाओं का मिलना निश्चित होता है।

पुलिस विभाग में नौकरी

सामान्यतः कहा जाता है कि रुचक योग में जन्म लेने वाला जातक साहसी, नेतृत्वकर्ता, यशस्वी, प्रभावशाली व्यक्तित्व वाला, शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने वाला, उद्यमशील, लीक से हटकर चलने वाला और परिश्रमी होता है। वस्तुतः अन्य योगों की भांति रुचक योग भी लग्न, भाव एवं भावेश के अनुरूप तथा मंगल की नक्षत्रीय स्थिति के अनुरूप फल देता है। मंगल को दशम भाव में विशेष बली माना जाता है। दशम भावगत उच्चस्थ मंगल से कुलदीपक योग की रचना होती है। हालांकि मंगल को अनिष्टकारी ग्रह माना गया है लेकिन किसी भी प्रकार का कोई फैसला तात्कालिक आधार पर लेना श्रेयस्कर नहीं है, क्योंकि पापी ग्रहों के शुभ भावों के स्वामी होने पर इनके पापत्व में क्षीणता आती है। मंगल भाई का कारक होते हुए भी क्रूर ग्रहों में अग्रणी है। कर्क व सिंह लग्न की कुंडली देखते ही ज्योतिषी के मुंह से पहला शब्द निकलता है राजयोग की कुंडली, क्योंकि इन दोनों लग्नों के लिए मंगल सदैव राजयोग कारक कहा गया है। इन दोनों लग्नों वालों के लिए मंगल की महादशा व अंतर्दशा काल जीवन का स्वर्णिम काल होता है। बशर्ते यह दशा सही उम्र में आए। ज्योतिष में कहा गया है कि राजा को संतोषी व ज्योतिषी को असंतोषी नहीं होना चाहिए, क्योंकि ज्योतिष शुभ ग्रहों के प्रभाव से बनता है और राजयोग बनाने वाले क्रूर ग्रह होते हैं जिनमंे मंगल मुख्य है। यदि मंगल केंद्र, तृतीय आदि में हो या कर्म स्थान पर दृष्टि आदि द्वारा प्रभाव बनाए तो जातक पुलिस विभाग में नौकरी करता है। यदि चंद्र लग्न बलवान है तो उससे भी यही फल होता है।

संतान सुख में बाधा तो क्या करें

शास्त्र कहता है ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभम’ अर्थात मनुष्य को अपने किए गए शुभ-अशुभ कर्मों के फलों को अवश्य ही भोगना पड़ता है। शुभ-अशुभ कर्म मनुष्य का जन्म जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ते। यही तथ्य बृहतपाराशर होरा शास्त्र के पूर्वशापफलाध्याय में स्पष्ट किया गया है। इस अध्याय में मैत्रेय जी महर्षि पाराशर से पुत्रहीनता का कारण और उसकी निवृत्ति का उपाय जानना चाहते हैं। मैत्रेय जी कहते हैं- ‘पुत्रहीन व्यक्ति को सद्गति नहीं मिलती, ऐसा शास्त्रों में कहा गया है। अतः कृपया कहें कि पुत्रहीनता किस पाप के कारण होती है। जन्म कुंडली से उस पूर्वकृत पापादि का ज्ञान कैसे होगा तथा बाधा जानकर उसकी शांति कैसे होगी? पराशर मुनि बोले - ‘हे मैत्रेय ! तुमने बहुत ही उत्तम प्रश्न पूछा है। पहले पार्वती जी के पूछने पर भगवान शंकर ने जो कहा था, वही मैं यथावत् तुम्हें कहता हूं। पार्वती जी ने पूछा- ‘प्रभो ! किस पाप या किस योग में संतान हानि होती है? संतान रक्षा के लिए कृपया उपाय भी कहें।’ शंकर जी बोले- ‘देवि ! मैं तुम्हें संतान हानि के योग-दुर्योग सहित उसके फल से बचने का उपाय कहता हूं। संतान हानि योग: गुरु, लग्नेश, सप्तमेश, पंचमेश ये सारे ही बलहीन हों तो संतान नहीं होती है। सूर्य, मंगल, राहु और शनि यदि बलवान होकर पुत्र भाव में अर्थात् पंचम भाव में गए हों तो संतान हानि करते हैं। यदि ये ग्रह निर्बल होकर पंचमस्थ हों तो संतानदायक होते हैं। शाप का ज्ञान: सर्प शाप से संतान सुख का अभाव निम्नलिखित योगों में सर्पराज के शाप अर्थात पूर्व जन्म या इस जन्म में जाने अनजाने की गई सर्प हत्या जनित दोष से संतान हानि होती है- पंचम में स्थित राहु को मंगल पूर्ण दृष्टि से देखे अथवा राहु मेष या वृश्चिक में हो। पंचमेश राहु के साथ कहीं भी हो तथा पंचम में शनि हो और शनि को या मंगल को चंद्रमा देखे या उससे योग करे। संतानकारक गुरु राहु के साथ हो और पंचमेश निर्बल हो, लग्नेश और मंगल साथ-साथ हों। गुरु और मंगल एक साथ हों, लग्न में राहु स्थित हो, पंचमेश छठे, आठवें या 12 वें भाव में हो। पंचम में तीसरी या छठी राशि हो, मंगल अपने ही नवांश में हो, लग्न में राहु और गुलिक हो। पंचम में पहली या आठवीं राशि हो, पंचमेश मंगल राहु के साथ हो अथवा पंचमेश मंगल से बुध का दृष्टि या योग संबंध हो। पंचम में सूर्य, मंगल, शनि या राहु, बुध, गुरु एकत्र हों और लग्नेश और पंचमेश निर्बल हों। लग्नेश और राहु एक साथ हों, पंचमेश और मंगल भी एक साथ हों और गुरु और राहु एक साथ हों। सर्पशाप शांति विधान: सर्पसाप की निवृत्ति के लिए नागपूजा अपनी कुल परंपरानुसार करें। नागराज की मूर्ति की प्रतिष्ठा करें अथवा नागराज की सोने की मूर्ति बनवाकर प्रतिदिन पूजा करें। तत्पश्चात् गोदान, भूमिदान, तिलदान, स्वर्णदान अपनी सामथ्र्य के अनुसार करें। तब नागराज की प्रसन्नता से वंश चल पड़ता है। पितृशाप से संतान हानि: पंचम में सूर्य तुला राशि में मकर या कुंभ नवांश में हो तथा पंचम भाव के दोनों ओर पाप ग्रह हों। पंचम में सिंह राशि हो, पांचवें या नौवें भाव में सूर्य व पाप ग्रह हों तथा सूर्य पाप दृष्ट या पाप मध्य में हो। सिंह राशि में गुरु हो तथा पंचमेश और सूर्य साथ हों। पहले तथा पांचवें भाव में पाप ग्रह हों। लग्नेश दुर्बल होकर पंचम में हो, पंचमेश सूर्ययुत हो तथा पहले और पांचवें भाव पापयुत हों। दशमेश होकर मंगल पंचमेश से युक्त हो तथा पहले, पांचवें और 10 वें भाव में पाप ग्रह हों। दशमेश छठे, आठवें या 12 वें में हो तथा संतानकारक गुरु पाप ग्रह की राशि में हो और पहला और पांचवां भावेश पापयुक्त हों। दशमेश पंचम में या पंचमेश दशम में हो तथा पहला और पांचवां भाव पापयुक्त हों। पहले या पांचवें भाव में किसी भी प्रकार से सूर्य, मंगल और शनि स्थित हों तथा आठवें या 12 वें में राहु या गुरु हो। अष्टम भाव में सूर्य, पंचम में शनि और पंचमेश राहु के साथ पहले या पांचवें और लग्न में पाप ग्रह हों। द्वादशेश लग्न में, अष्टमेश पंचम में और दशमेश अष्टम में हो। षष्ठेश पंचम में हो, दशमेश षष्ठ में हो तथा गुरु और राहु साथ हों। उपर्युक्त योगों में पितृशाप से संतानहीनता होती है। पितृशाप शांति का उपाय: पितृदोष निवारण हेतु गया (बिहार) में श्राद्ध करें तथा एक हजार या दस हजार ब्राह्मणों को वहां भोजन कराएं। इस विधान में असमर्थ हों तो कन्यादान करें व गोदान करें। इस तरह विधानपूर्वक शांति करने से पितृशाप से मुक्ति होती है तथा पुत्र-पौत्रादि से वंश की वृद्धि होती है। मातृशाप से संतान हानि: निम्नलिखित योगों में मातृशाप या मातृदोष से संतान हानि होती है। पंचम भाव में कर्क राशि हो और चंद्रमा भी नीचगत या पाप मध्य हो और चैथे और पांचवें भाव में पाप ग्रह हों। एकादश स्थान में शनि हो, चतुर्थ भाव में पाप ग्रह हो, और पंचम में नीचगत चंद्रमा हो। पंचमेश छठे, आठवें या 12वे में हो, लग्नेश नीचगत हो और चंद्रमा पापयुक्त हो। पंचमेश छठे, आठवें या 12वें में हो, चंद्रमा पाप नवांश में हो और पहले और पांचवें भावों में पाप ग्रह हों। पंचम में कर्क राशि हो, चंद्रमा शनि, मंगल या राहु से युक्त हो और पांचवें या नौवें भाव में उक्त चंद्रमा हो। पंचम में मंगल की राशि हो तथा मंगल, शनि और राहु एक साथ हों, पहले या पांचवें भाव में चंद्र और सूर्य हों। पहला व पांचवां भावेश षष्ठ में हों, चतुर्थेश अष्टम में हो और आठवां व 10वां भावेश लग्न में हों। छठा व आठवां भावेश लग्न में हों, चतुर्थेश 12वें में हो, पंचम में चंद्र और गुरु पापयुक्त हों। लग्न पाप ग्रहों के मध्य हो, क्षीण चंद्रमा सप्तम में हो तथा राहु व शनि चैथे या पांचवें भाव में हों। अष्टमेश पंचम में हो, पंचमेश अष्टम में हो और चंद्रमा व चतुर्थेश छठे, आठवें या 12वें में हों। कर्क लग्न में मंगल और राहु साथ हों और चंद्रमा और शनि पंचम में हों। लग्न या पंचम या अष्टम या द्वादश में मंगल, राहु, सूर्य, शनि किसी भी प्रकार से हों। पहला और चैथा भावेश छठे, आठवें या 12वें में हों। बृहस्पति अष्टम में हो तथा मंगल और राहु साथ हों, पंचम में शनि और चंद्रमा हांे। मातृशाप का निवारण: उपर्युक्त मातृशाप योगों में संतान की रक्षा हेतु शांति करनी चाहिए। रामेश्वरम में स्नान अथवा एक लाख गायत्री जप करके चांदी के पात्र में प्रतिदिन दूध पीएं। तत्पश्चात ग्रहों का दान करें एवं ब्राह्मण भोजन कराएं अथवा 1008 बार पीपल की विष्णुरूप में पूजा करके परिक्रमा करें। इस प्रकार करने से हे पार्वति ! ‘शाप से मुक्ति और सुपुत्र की प्राप्ति होती है तथा कुल-वृद्धि होती है।’ भ्रातृशाप का ज्ञान:शंकर जी बोले, ‘हे पार्वति ! अब मैं भ्रातृशाप से संतानहीनता कहता हूं। इन योगों में प्रयत्नपूर्वक शांति करनी चाहिए। तृतीयेश पंचम में मंगल और राहु के साथ हो और पहला व पांचवां भावेश अष्टम में हों। पहले या पांचवें भाव में मंगल और शनि हों तथा नवम में तृतीयेश और अष्टम में गुरु हो। तृतीय में गुरु नीचगत हो, पंचम में शनि तथा अष्टम में चंद्र व मंगल हों। लग्न के दोनों ओर पाप ग्रह हों और पंचम भाव भी पाप मध्य हो। पहला व पांचवां भावेश अष्टम में हों। लग्नेश अष्टम में हो, पंचम में मंगल और अष्टम में पापयुक्त पंचमेश हो। दशमेश तृतीय में हो, नवम भाव में पाप ग्रह हो और पंचम में मंगल हो। पंचम में मिथुन या कन्या राशि तथा शनि और राहु हों। द्वादश में बुध और मंगल हों। लग्नेश तृतीय में, तृतीयेश पंचम में और पहले, तीसरे और पांचवें भाव में पापग्रह हों। तृतीयेश अष्टम में और गुरु पंचम में हो तथा गुरु और राहु शनि से युत या दृष्ट हों। अष्टमेश पंचम में तृतीयेश के साथ हो तथा अष्टम में शनि और मंगल हों तो भ्रातृशाप से पुत्र नहीं होता है। शापमुक्ति का उपाय: भ्रातृशाप से मुक्त होने के लिए हरिवंश पुराण का विष्णु भगवान के सामने श्रवण तथा चंद्रायण व्रत करें अथवा पीपल के वृक्ष की स्थापना और पूजा करें तथा दस गायों या दशमहाधेनु का दान करें। साथ ही पुत्रेच्छुक व्यक्ति पत्नी के हाथ से भूमि दान कराएं। इस प्रकार धर्मपत्नी सहित जो उक्त उपायों को करता है, उसे अवश्य ही पुत्र होता है और उसकी वंश वृद्धि होती है। मातुलशाप से संतानहानि: निम्नलिखित योगों में मामा के शाप से संतान नहीं होती है। पंचम में बुध, गुरु, मंगल और राहु की स्थिति हो और लग्न में शनि हो। पंचम में पहले और पांचवंे भावेश के साथ बुध, मंगल और शनि हों। पंचमेश अस्त हो और पहले या सातवें भाव में शनि, लग्नेश और बुध साथ हों। चतुर्थेश लग्न में द्वादशेश के साथ हो और पंचम में चंद्र, बुध और मंगल हों। शापविमोचन का उपाय: इस दोष की शांति के लिए विष्णु भगवान की प्रतिमा की स्थापना करें। परोपकारार्थ बावड़ी, कुआं, तड़ागादि (जल के प्याऊ आदि या सार्वजनिक जलस्थान) तथा पुल बनवाने चाहिए। ब्रह्म (ब्राह्मण) शाप से संतानहानि निम्नलिखित योगों में ब्रह्मशाप से संतान नहीं होती है। राहु नौवें या 12वें राशि में हो पंचम में गुरु, मंगल और शनि हो और नवमेश अष्टम में हो। नवमेश पंचम में या पंचमेश अष्टम में गुरु, मंगल और राहु के साथ हो। नवमेश नीचस्थ हो, द्वादशेश पंचम में हो और राहु से युक्त या दृष्ट हो। गुरु नीच में हो, राहु लग्न में या पंचम में हो, पंचमेश छठे, आठवें या 12वे में हो। पंचमेश होकर गुरु अष्टम में पापयुक्त हो अथवा पंचमेश सूर्य चंद्र के साथ हो। शनि के नवांश में शनि के साथ गुरु और मंगल हों तथा पंचमेश द्वादश में हो। लग्न में शनि और गुरु हों, नवम में राहु हो अथवा द्वादश में गुरु हो। शाप निवारण विधि: ब्रह्मशाप के निवारणार्थ चंद्रायण व्रत करना चाहिए और तीन प्रायश्चित ब्रह्मकूर्च करके दक्षिणा सहित गोदान करें। साथ ही स्वर्ण व पंचरत्नों का दान करें और यथाशक्ति ब्राह्मण भोजन कराएं। ऐसा करने से सुपुत्र की प्राप्ति होती है तथा मनुष्य शापमुक्त होकर शुद्धात्मा व सुखी होता है। पूर्णमासी को लगातार 24 घंटे का व्रत करके अगले दिन प्रातः पंचगव्य पीकर व्रत खोलना ‘ब्रह्मकूर्च व्रत’ है। पत्नीशाप से संतानहानि: निम्नलिखित योगों में पत्नी के शाप से (पूर्व पत्नी या पूर्वजन्मकृत पत्नी दोष) संतानहीनता होती है। नवम में शुक्र तथा अष्टम में सप्तमेश और पहले तथा पांचवें में पाप ग्रह हों। नवमेश शुक्र हो, पंचमेश षष्ठ स्थान में हो और गुरु, लग्नेश व सप्तमेश छठे, आठवें और 12वे में हों। पंचम में शुक्र की राशि हो, राहु और चंद्र पंचम में हांे तथा पहले, दूसरे और 12वें में पाप ग्रह हों। सप्तम में शुक्र और शनि हों, अष्टमेश पंचम में तथा सूर्य और राहु लग्न में हों। सप्तमेश पंचम में हो व सप्तमेश के नवांश में शनि हो और पंचमेश अष्टम में हो। सप्तमेश और पंचमेश अष्टम में हों व गुरु पापयुक्त हो। शुक्र पंचम में हो, सप्तमेश अष्टम में हो और गुरु पापयुक्त हो। द्वितीय में कोई पाप ग्रह हो, सप्तमेश अष्टम में हो व पंचम में कोई पाप ग्रह हो। द्वितीय में मंगल, द्वादश में गुरु और पंचम में शुक्र हो तथा पंचम पर शनि व राहु का योग या दृष्टि हो। दूसरा और सातवां भावेश अष्टम में हों, पहले और पांचवें में मंगल व शनि हों और गुरु पापयुक्त हो।पहले, पांचवें व नौवें में क्रमशः राहु, शनि, मंगल हो और पांचवां तथा सातवां भावेश अष्टम में हों। दोष निवारण के उपाय: उक्त दोष का निवारण करने के लिए कन्यादान करें अथवा लक्ष्मी व विष्णु जी की सोने की मूर्ति, दस गाएं, शय्या, आभूषण व वस्त्र किसी गरीब गृहस्थ ब्राह्मण को दान करें। ऐसा करने से संतान होती है और भाग्यवृद्धि होती है। प्रेतादिशाप से संतानहानि: पितृकार्य श्राद्ध, तर्पणादि न करने से पितर प्रेत रूप को प्राप्त हो जाते हैं। तब उनके शाप से वंश नहीं चलता। जन्मलग्न में इन योगों को देखकर यह योग कहना चाहिए।पंचम में सूर्य और शनि, सप्तम में क्षीण चंद्रमा और लग्न और द्वादश में राहु व गुरु हों।पंचमेश शनि अष्टम में हो, लग्न में मंगल और अष्टम में गुरु हो। लग्न में पाप ग्रह, व्यय में सूर्य, पंचम में मंगल, बुध और शनि और अष्टम में पंचमेश हो। लग्न में राहु, पंचम में शनि और अष्टम में बृहस्पति हो। लग्न में राहु, शुक्र और गुरु हों, चंद्रमा व शनि साथ हों और लग्नेश अष्टम में हो।पंचमेश नीचस्थ हो, गुरु भी नीचस्थ हो और किसी नीचस्थ ग्रह से गुरु दृष्ट हो। लग्न में शनि, पंचम में राहु, अष्टम में सूर्य तथा द्वादश में मंगल हो। सप्तमेश छठे, आठवें या 12वें में हो, पंचम में चंद्रमा तथा लग्न में शनि और गुलिक हों।अष्टमेश पंचम में शनि और शुक्र के साथ हो और गुरु अष्टम में हो। (पितर) प्रेत शाप के उपाय: इस दोष की शांति के लिए गया में श्राद्ध तथा रुद्राभिषेक करें अथवा ब्रह्माजी की स्वर्णमयी मूर्ति, चांदी के वर्तन और नीलम का दान तथा गोदान करें और ब्राह्मणों को भोजन कराकर दक्षिणा दें। ऐसा करने से शाप से मुक्ति होती है तथा पुत्रोत्पत्ति एवं वंश वृद्धि होती है। ग्रह योगों से निःसंतान योग: दूसरा, पांचवां तथा सातवां भावेश पाप राशि में पापयुक्त होकर स्थित हों या इनके नवांशेश पापराशि के नवांश में पापयुक्त हों।द्वादशेश का नवांशेश अष्टम में हो और पंचमेश क्रूर षष्ट्यंश में हो। पहला और पांचवां भावेश छठे, आठवें या 12वें में हों, गुरु नीचगत हो और पंचम में कोई नपुंसक ग्रह (बुध, शनि) हो। गुरु क्रूर षष्ट्यंश में, पंचमेश अष्टम में व अष्टमेश पंचम में हो। उपर्युक्त योगों में संतान नहीं होती है। इस प्रकार के योगों में उक्त ग्रह की शांति करनी चाहिए। ग्रह बाधा शांति: यदि संतान सुख में बुध और शुक्र बाधक हों तो शिवपूजन करें। गुरु चंद्रकृत दोष हो तो मंत्र, यंत्र और औषधि प्रयोग करें। राहु बाधक हो तो कन्यादान करें। सूर्य का दोष हो तो विष्णु जी का जप या हरिवंश पुराण का श्रवण करें। सामान्यतः अच्छी संतान प्राप्त करने के लिए और सब दोषों को दूर करने के लिए हरिवंश पुराण का भक्तिपूर्वक श्रवण करना चाहिए।

Sun in twelfth house

1st House:-
Tall body, nose and forehead high, well proportioned body. Mentally disturbed with spouse and members of in-laws. Fond of tourism, foreign travel. Establishment away from homeland. Financial ups and downs. Gets angry very soon, self-respect, brave, courageous, playful. Problems in marriage. Ambitious,body ache, injury in head, weak eyesight, bald-headed.Whimsical, apprehensive, suspicious. Loss of wealth and property and therefore assets keep on varying. Health problems at the age of 15, mostly suffers from eczema.If debilitated, marriage not possible before age of 24, loss of wealth and son, loss of respect and honour. If exalted, wealth, intellectual ability, darkness before eyes, cataract, squint, Greedy, famous. If Sun in own sign, suffers from night blindness. If aspected by or in conjunction with benefic planets native gets only good results. If Sun in Cancer sign eyes small, if in Aries or Leo
sign heart trouble. If in Scorpio or Pisces sign very famous person. If aspected by Mars, suffers from T.B., Asthma. If aspected by Saturn, develops suicidal tendencies.
In female horoscope - Angry, self-respect, playful, obstinate, picks up quarrel, argumentative, deprived of husband’s attention. If aspected by Saturn, suicidal tendencies, stubborn, head injury, headache, harsh in speech, dependant on other’s food, ungrateful, ill health in childhood, contact with lower
grade people. If exalted or in own sign, luxurious life.1
2nd house.
Slender body, frail constitution, red eyes, extremely lucky, impatience in listening to others. Invests money for a good cause. Does not maintain good relations with members of inlaws. Suffering from ear-nose and throat (ENT) problems. Earns through the business of non-ferrous metals. Penalized
by government. Wealth and property acquired by Govt. Defect in speech, stammers, stays in other’s house. Well educated.Embezzles govt. money. Not affectionate with family members and spouse. Wealthy but pays fine to govt. in one form or other. Diseases of mouth. Death of husband after death of
wife.
If Sun in signs 1, 4, 5, 8, 9, 12 excellent results. If Sun in signs 7, 10, and 11 or in enemy sign then beneficial effect is reduced. Penalized in the age from 17 to 25, loss of money through theft. If in enemy sign or aspected by a malefic, problem in right eye. If aspected by Saturn, poor, danger from thief or
govt. If in conjunction with Rahu- very wealthy person.
In female horoscope – loss of wealth and family, poor, Throat problems. If Sun in own sign- prosperity. Jealous, quarrelsome, no friends, harsh in talking, without devotion, eyes problems, devoid of marital happiness. If Sun is exalted – wealthy and happy. If Sun in own sign or owner of benefic house – good
results.
3rd House:-
Bold, adventurous, dignified, fond of visiting religious places. Oppressed by brothers. Victorious in wars, wrestling and games. Honour from government, poet, intellectual, interested in meditation, yoga. Religious, very hard worker, sportsman, immense ability for occultism. Enmity with relatives, Having
loyal servants. Always in company with good looking and charming ladies, having number of disciples to serve. Destroyer of elder brothers, Fear of animals at the age of five, financial gains at the age of 20, having more number of cousin brothers. Comfort of conveyance, interest in science and art, living with brother may be harmful for both. If Sun is weak than chances of fracture in the hand. If Sun is malefic- danger from fire and poison. If sun is aspected by malefic – chances of death of brother/ sister or sister getting widow. If debilitated – ear problems, extravagant in expenditure.
In female horoscope:- Begets sons, dignified, luxurious life, sportswoman, proficient in dancing, settles away from the native place, Foreign travel, devoid of happiness from brothers/ sisters. Large breast, loving husband, health normal, good looking, protects others. If Saturn is in sixth house husband is
having very high status.
4th House :-
Grieved, handsome, settles away from native place. Defeated, destroyer of father’s property, Desire for learning occult subjects, Devoid of comfort of conveyance. Ill health of mother, self-health suffers, fearful. Heart troubles Devoid of comforts of friends, luxuries, land and property. Employed in
govt. service, Handicapped or problem in some vital organ of body. Have sexual relations with number of females. Progress at the age of 22. Efficiency of work improves at the age of 30. Does not get inherited property of father, even if gets, the same is destroyed. Fond of roaming around unnecessarily.
Mentally disturbed. Gets company of selfish friends. Difficult to get success in politics, interested in philosophy. Gets honour and wealth from govt. Not in good term with brothers. Likely to face defeat. If aspected by malefic - comfort of conveyance normal. If exalted/ in own sign/ aspected by benefic – honour by Govt. in old age. If with Venus – Raj yog. If with Mars – death after falling from high place or may be an accident. If in sign Scorpio – heat in the body and burning sensation in hands.
In female horoscope – difficult life, problem to self and mother. Heat in body and heart, Heavy menses, No charm on the face, Health normal, hatred from opposite sex, Big and long teeth, interested in sculpture, wife of senior officer, less number of children.
Fifth House:-
Angry disposition, death of first son. Normally one or at the most two sons. Status of one of the son higher than the native. Problems in childhood, wealth in young age. Interested in theatre, cinema etc. Fond of speculative activities, hiking, and trekking. Stomach disorders, intelligent, accumulates wealth
by his own efforts. Expert in Tantra mantra. cheat, fraudulent, heart trouble. Devotee of Lord Shiva. If Sun with Rahu/ Ketu –death of sons due to Sarpa Dosha. If in own sign – death of first child or abortion. If in moveable sign – happiness through progeny. If in dual sign- loss of progeny. If with or aspected by malefic planets – more female issues. If with or aspected by benefic – male progeny, If with Moon or Jupiter – normal happiness through progeny. If in
sign Cancer – possibility of having progeny through second marriage. If in Sagittarius sign along with Jupiter – wealth in abundance. If in own sign and Jupiter is posited in 11th house, wealthy. If benefic- speculation gains.
In female horoscope – No male progeny, intelligent, problems with first child, famous, scholar, bold, courteous, bulky face, obedient of parents, leader in females, disciplined, charming speech.
6th House :-
Destroyer of enemies, expenditure on friends and person connected with govt., problem to the maternal side. Injured by four legged airmails. Good health, problem of gall bladder/ kidney stones, gastric troubles, kidney problems. Luck favours at the age of 23. Bad luck for maternal uncle, high status,
famous, wealth, meritorious. Mental problems, fond of eating good food, very sexy. Teeth get damaged by wood or stone. If with benefic or aspected by benefic- excellent health. If Sun is weak – weak and short lived. If in Taurus, Scorpio or Aquarius signs ailments of throat, heart and back bone. If in
Gemini, Virgo, or Pisces sign- cough and T.B. If in Cancer, Libra and Capricorn signs – gastric troubles, arthritis, stomach disorders. If in Sagittarius sign with Mercury – enjoys very high status in society.
In female horoscope – wealthy, destroyer of enemies, enemity, quarrelsome, stomach disorder, gastric trouble; dehydration, good looking, good character, religious, extremely popular, lucky, successful in politics.
7th House :-
Hindrance in marriage, problems with spouse, grieved, mentally disturbed. Possibility of second marriage, venereal disease, piles, fistula. Fond of opposite sex, spouse priggish, insulted by spouse. Profit and loss in business, wanders aimlessly, problem from govt. side, wicked spouse. Long separation from spouse. Profit in partnership business. Help from yantra power, fame in society and war. Good income in the age of 24, foreign travels at the age of 25. Involved in activities against Govt., no happiness from conveyance, gets name and fame everywhere. If sun is debilitated– marriage not possible before 24 years. If exalted- educated and intelligent spouse. If malefic or in enemy sign – characterless spouse. If strong or in own sign – single marriage. If in Capricorn sign – problem with spouse. If with Saturn – spouse of doubtful chastity. If with Rahu – loss of wealth in company of females. If with Moon and aspected by Saturn – thorough corrupt. If with Jupiter – enjoys good health, enjoys all material comforts, handsome, rich, fond of jewels.
If with Venus- characterless spouse with the consent of native.
8th House:-
Short life, cheat, cunning, always with mental worries. Short tempered, impatient, and wealthy. Fond of having sexual relation with foreigners. Drunkard, ill health, fond of non- veg food. Loss of money in theft or wealth is destroyed due to native’s laziness. Beloved of fair sex, venereal diseases, widower, fire-accidents. Fear of firearms. Gets money through spouse, problem in right eye, children suffer from ill health, loss of wealth, friends and life. Chances of untimely death during the age of 30-33 years, unsuccessful till the age of 33, suffering equivalent to death at the age of 3, head injury at the age of 10. Unnecessary arguments with colleagues, Death of husband before the death of wife. If with benefic planets – no head injury. If in enemy’s signdeath
due to electric shock, snake bite or poison. If in male sign – chastity of wife doubtful. If exalted or in own sign –long life.
In female horoscope – widow, sexy, fear of theft and fire. If aspected by Mars death due to fire is certain even if aspected by benefices. Train accident, fond of travelling, settles in foreign country, ill- health. No comforts, poor, bad-deeds, injury or wound in the body, tendency of high blood pressures. Playful, deprived of husband’s attention. If Sun is in own sign – barren or sterile. If with Mars and Venus - involved into prostitution.
If with Venus – Characterless. If with Saturn and Venus or with Mars and Venus – either characterless or ascetic provided the difference in longitudes of these planets is not much.
9th House:-
Happy, father short- lived, difference of opinion with father,donor, ascetic, devotee, leader, astrologer, loss of fame, opponent, land-lord, lucky, progress with the help of others , long – lived, ill health during childhood, prosperous in adulthood, happiness from conveyance & servants, full benefit of human life. If exalted or in own sign – father long- lived. If debilitated – worries and asceticism, If malefic or in enemy’s sign – harmful for father. If exalted –very lucky, prosperous, luck will help at every stage in life. If with Moon – wealthy, powerful personality. If in Sagittarius sign with Mercury – benefic results.
In female horoscope – religious, loss of fortune, fantasies, asceticism, large number of enemies, happy in middle age but unhappy in old age. Harmful if debilitated.
Tenth House:-
Being digbali gives high status in government, intelligent, govt. recognizes his hard work, problems to mother, own- relatives become opponents, govt. service must, excellent behavior, recognition from govt., generous, enjoys the life, all types of happiness, happiness from progeny and conveyance, angrydisposition, expenditure, progress in politics, successful administrator, happiness from father & relatives, full of the jewels and gems, full benefit of human life, ill health in old age. Separation from near relation or from very dear object at the age of 19. Fame in education after the age of 18. Suffering to
father at the age of 28. Fortunate at the age of 30. If in own sign – respect by govt. If lord of Trikona houses – Healthy wealthy. If debilitated –characterless. If in sign Taurus – successful in agriculture. If in sign Cancer – profit through water travel. If in sign Aries or Leo – hunter, violent, builds
religious place. If with/ aspected by malefic – sinner. If aspected by any three planets – famous, close to king. If in sign Taurus with Mercury – wealthy. If lord of 10th house and Saturn are in 3rd house – respect, healthy, becomes very famous at an early age.
In female horoscope – recognition by govt., devoid of happiness from father, ascetic, always suffering from ill health, interest in dancing and singing, priggish, charitable, progeny.
Eleventh House:-
Wealthy, long- lived, no sufferings in life, income from govt., sudden gains, enemies are afraid. Officer in bank, treasury, number of enemies – even then victorious. People obey him, beautiful and prosperous wife, learned, stomach – troubles, trust worthy, children create problems, eliminates all malefic
effects if birth during daytime. Gets conveyance at the age of 25. High status interested in singing. leader, very beautiful eyes, not helpful for elder brother.
If in own sign – income through govt., animals, litigation or thieves. If lord of 4th house – all material comforts and wealth. If weak – malefic results. If in Sagittarius sign or aspected by Moon or Jupiter – marriage with girl of high family.
In female horoscope – prosperous, recognition from govt., govt. service or serving in bank or treasury. Gains, comforts, happiness from progeny, artist, self-reliant, with sons and grandsons, proficient in various arts, praised by relatives and brothers, abortions.
Twelfth House:-
Sinner, corrupt, eyes trouble, bodyache, lazy, mentally sick, journeys, poverty, settles in foreign country or foreign travel must, opponent of father, weak eye-sight, financial loss, fine, penalty, imposition of tax, no son, habit of stealing, loss at the age of 28 to 32, disease of private parts at the age of 36, victorious, loss during travel, trouble to uncle or does not maintain cordial relation with uncle, unreligious, deformity of some organ, having illicit relation with other ladies, hunter of birds. Ailments of thigh, wife impotent. If exalted – progeny. If weak – fear of penalty, bondage from govt., loss of wealth, may have to leave own country. If with malefic planets- number of journeys, extravagant, No marital happiness. If Sun a benefic planet or exalted – separation from brothers. If with Saturn and Moon – bankrupt. If with lord of 9th house – fortunate due to father. If with Moon – eyesight of both the eyes weak or may become blind. If in Virgo sign – life more than 75 years.
In female horoscope – angry, extravagant, weak eye- sight, settles in foreign country or foreign travel, impolite, expenditure in bad deeds, passionate, fond of liquor, non- vegetarian food. Chastity doubtful.
Pt.P.S.Tripathi
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Each house of the horoscope signifies certain aspects of life

Each house of the horoscope signifies certain aspects of life which are as under:-
First House:-
Body, appearance, personality, face, health, character, temperament, intellect, longevity, fortune, honour, dignity, prosperity.
Second House:- Wealth, family, speech, right eye, nail, tongue, nose, teeth, ambition, food, imagination, power of observation, jewellery, precious stones, unnatural sex, loss by cheating and violence between life partners.
Third House:- Younger brothers and sisters, cousins, relatives, neighbors, courage, firmness, valour, chest, right ear, hands, short journeys, nervous system, communication, writing – editing books, reporting to newspapers, education, intellect.
Fourth House:- Mother, conveyance, relatives, domestic environment, treasure, land, house, education, landed property, hereditary tendencies, later portion of life, hidden treasure, private love affairs, chest, interference in married life by parents-in laws and family, ornaments, clothes.
Fifth House:- Progeny, intelligence, fame, position, stomach, love affairs, pleasures, and amusements, speculation, past birth, soul, position in life, artistic talent, heart and back, proficiency in games, success in competition.
Sixth House:- Disease, debt, disputes, miseries, injuries, maternal aunt or uncle, enemies, service, food, clothes, theft, ill fame, pet animals, subordinates, tenants, waist.
Seventh House:- Spouse, personality of spouse, relations between life partners, desires, partnership, open enemies, recovery, journey, litigation, danger to life, influence in foreign countries and fame, relations between self and public, sexual or urinary disease.
Eighth House:-
Longevity, kind of death, sexual organs, obstacles, accident, unearned wealth, inheritance, legacy, will, insurance, pension and gratuity, theft, robbery, worries, delay, battles, enemies, inheritance of money, mental affliction, extramarital life.
Ninth House:-
Fortune, religion, character, grand parents, long journeys, grandson, devotion towards elders and god, spiritual initiation, dreams, higher education, wife’s younger brother, brother’s wife, visit to holy places, philosophy, communication with spirits.
Tenth House:- Profession, fame, power, position, authority, honour, success, status, knees, character, karmas, ambition in life, father, employers and superiors, relationship between self and superiors, success in business, promotion, recognition from government
Eleventh House:- Gains, prosperity, fulfillment of desires, friends, elder brother, ankles, left ear, advisers, favourites, recovery of illness, expectation, son’s wife, wishes, success in undertakings.
Twelfth House:- Harm, punishment, confinement, expenditure, donations (given), marriage, work related to water resorts, vedic sacrifice, fines paid, contacting sexually transmitted disease, sleeping comforts, enjoying luxuries, loss of spouse, losses in marriage, termination of employment, separation from own people, long journeys, settlement in forign land.
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