ज्योतिष शास्त्र के प्रवर्तक ऋषियों ने जन्म कुंडली के षष्ठ, अष्टम और द्वादश भावों को दुःख स्थान तथा अन्य भावों को सुस्थान की संज्ञा दी है। दुःस्थानम् षष्टभरिपुव्ययभावमाहुः सुस्थानमन्यभवनं शुभदं प्रदिष्टम। -फलदीपिका सामान्यतः छठे, आठवें और 12वें भावों के स्वामी जिस किसी भाव या भावेश से संबंध बनाते हैं तथा जिस किसी भाव का स्वामी इन भावों में स्थित होता है, उस भाव संबंधी फलों की हानि होती है। परंतु छठे, आठवें और 12वें भाव का स्वामी स्वराशि में स्थित हो, तो शुभ फलदायक होता है। द्वादश भाव से बायीं आंख, पैर, हानि, व्यय, पाप कर्म, शय्या सुख, क्रय, बंधन आदि का विचार किया जाता है। फलदीपिका ग्रंथ के अनुसार द्वादशेश यदि द्वादश भाव में स्थित हो, तो विमल नामक योग का निर्माण होता है, जिसके फलस्वरुप जातक कम खर्चीला, धनवान, स्वतंत्र तथा उच्च विचारवान होता है। द्वादशेश की फलश्रुति के बारे में महर्षि पराशर का कथन है: व्ययद्वितीयरन्ध्रेशाः साहचार्यत् फलप्रदाः। स्थानान्तरानुरोधात्ते प्रबलाश्चोत्तरोत्तरम्।। (बृ.प.हो.शा. 36.5) अर्थात, द्वादशेश, द्वितीयेश तथा अष्टमेश अन्य शुभ या अशुभ ग्रह के साहचर्य के अनुसार फल देते हैं, तथा मुख्यतः अपनी दूसरी राशि का फल देते हैं। सूर्य और चंद्रमा के अतिरिक्त अन्य ग्रह दो-दो राशियों के स्वामी होते हैं। अतः जब कोई ग्रह द्वितीयेश या व्ययेश हो और उसकी दूसरी राशि शुभ स्थान में हो, तो वह शुभ फल देता है। परंतु यदि उसकी दूसरी राशि अशुभ भाव में हो, तो अशुभ फल देता है। जैसे वृश्चिक लग्न में बृहस्पति द्वितीय और पंचम भाव का स्वामी होने के कारण शुभ फलदायक होता है तथा कर्क लग्न में बुध व्ययेश और तृतीयेश होने के कारण अशुभ फलदायी होता है। व्ययेश और द्वितीयेश जिस ग्रह के साथ होते हैं उसी के अनुरूप फल देते हैं तथा जिस भाव में होते हैं उसी भाव द्वारा अपना फल दर्शाते हैं। जैसे यदि मित्र स्थान में हों, तो मित्रों से लाभ मिलता है। इसके विपरीत शत्रु स्थान में होने पर शत्रु और विरोधियों द्वारा हानि होती है। फल का विचार करते समय ग्रह (व्ययेश या द्वितीयेश) की अवस्था (बलाबल) का भी ध्यान रखना आवश्यक होता है। उत्तरकालामृत (खंड 4, श्लोक 16) के अनुसार: शुक्रो द्वादश संस्थितोऽपिशुभदो मदांशराशिविना। अर्थात्, शुक्र द्वादश भाव में स्थित होने पर शुभ फलदायक होता है। परंतु द्वादश शुक्र शनि की राशि अथवा नवांश में शुभ फल नहीं करता। नोट: शुक्र ग्रह भोग विलास का कारक होकर द्वादश भाव (शय्या सुख) में भोग विलास तथा धन देता है। परंतु शनि (भोग की कमी के सूचक ग्रह) की राशि में शुक्र को भोग विलास आदि फल देने में रुकावट पैदा होती है। भावार्थ रत्नाकर ग्रंथ के रचनाकार श्री रामानुजाचार्य ने द्वादश भाव के संबंध में एक महत्वपूर्ण सूत्र प्रतिपादित किया है। यद्भावकारको लग्नाद्व्यये तिष्ठिति चेद्यति। तस्य भावस्य सर्वस्य भाग्य योग उदीरितः।। अर्थात् जातक को उस भाव विषयक बातों में लाभ होता है जिस भाव का कारक ग्रह लग्न से द्वादश भाव में स्थित होता है। इस बारे में वह कहते हैं: पितृकारक भानोश्च भाग्यभावेश्वरोपि वा। उभौ तो व्ययगौस्यातां पितृभाग्यमुदीरितम्।। अर्थात यदि पितृकारक सूर्य और नवम भाव (पिता) का स्वामी दोनों द्वादश भाव में हों, तो पिता भाग्यशाली होता है। व्यये शुक्रस्य संस्थानं कलात्रात्भायमुदेशेत्। व्यये चन्द्रस्य संस्थानं मातृभाग्यमुदीरितम्।। अर्थात् शुक्र यदि द्वादश भाव में हो, तो पत्नी द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार द्वादश स्थान में चंद्र हो, तो माता द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है। कुजो व्यये स्थितो यस्य भ्रातृभाग्यमुदीरितम्। भाग्येश सुबलं रिःफे पितृभाग्य मुदीरितम्।। अर्थात् मंगल यदि द्वादश भाव में स्थित हो, तो भाइयों द्वारा भाग्य की प्राप्ति होती है। इसी प्रकार नवमेश यदि द्वादश भाव में बली हो, तो पिता से भाग्य की प्राप्ति होती है। व्ययेश भाग्यराशीश सूर्याणां संस्थितिव्र्यये। पितृस्तु भाग्ययोगश्च व्यये देवेज्य रिःफपौ।। अर्थात् नवमेश, द्वादशेश और सूर्य 12वें भाव में स्थित हों, तो पिता भाग्यशाली होता है। यदि द्वादशेश और गुरु द्वादश भाव में हांे, तो भी यही फल होता है।
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