जन्मकुंडली के बारह भाव मानव जीवन के विभिन्न अवयवों को दर्शाते हैं। किसी भाव के फल का विचार करते समय सर्वप्रथम उस भाव और भावेश के बल का आकलन किया जाता है। जिस भाव में उसके स्वामी या शुभ ग्रह की स्थिति हो, या उनकी दृष्टि पड़ती हो, तब वह भाव बलवान होकर शुभ फलदायक होता है। इसके विपरीत स्थिति में वह भाव निर्बल होकर शुभ फल नहीं देता है। जब भाव का स्वामी स्वोच्च, मित्र या स्वराशि में स्थित होकर शुभ भावाधिपतियों से संबंध बनाता है तब वह बलवान होता है और अपने स्वामित्व भाव का उत्तम फल देता है। भावेश का बली होना भाव की शुभता बढ़ाता है। भाव व भावेश के साथ ही उस भाव के ‘नित्य कारक’ ग्रह का भी आंकलन आवश्यक होता है। ‘भाव कारक’, ‘वस्तु कारक’, ‘योग कारक’ व ‘जैमिनी कारक’ सर्वथा भिन्न हैं। महर्षि पाराशर ने प्रत्येक भाव का एक ‘नित्य कारक’ निर्धारित किया था - सूर्यो गुरुः कुजः सोमो गुरुभौमः सितः शनिः। गुरुंचन्द्रसुतो जीवो मन्द´च भावकारकाः।। परंतु कालांतर में रचित ज्योतिष ग्रंथों में वर्णित ‘नित्य भावकारक’ इस प्रकार हैं- प्रथम भाव -सूर्य, द्वितीय भाव-बृहस्पति, तृतीय भाव-मंगल, चतुर्थ भाव - चंद्र व बुध, पंचम भाव -बृहस्पति, षष्ठ भाव -शनि व मंगल, सप्तम भाव - शुक्र, अष्टम भाव - शनि, नवम भाव - सूर्य व बृहस्पति, दशम भाव - सूर्य, बुध, बृहस्पति व शनि, एकादश भाव - बृहस्पति, द्वादश भाव - शनि। फलदीपिका ग्रंथ (15, 25) के अनुसार- तस्मिन भावे कारके भावनाथे वीर्योपेते तस्य भावस्य सौरव्यम्। अर्थात्, ”जब भाव, भावेश और कारक तीनों बलवान हों तब उस भाव का अच्छा फल व्यक्ति को प्राप्त होता है।“ ‘भाव प्रकाश’ ग्रंथ के अनुसार- भवन्ति भावभावेशकारका बलसंयुताः। तदा पूर्ण फलं द्वाभ्याम एकेनाल्प फलं वदेत्।। अर्थात् ” यदि भाव, भाव का स्वामी तथा भाव का कारक तीनों बलवान हों तब उस भाव का पूर्ण फल कहना चाहिए, और यदि तीन में से दो बलवान हों तो आधा फल कहना चाहिए, तथा केवल एक ही बलवान होने पर बहुत थोड़ा फल होता है। ‘जातक पारिजात’ ग्रंथ (अ. 2-51) ने प्रचलित भाव कारकों का विवरण देने के बाद अगले श्लोक (अ. 2-52) में कहा है कि यदि शुक्र, बुध और बृहस्पति लग्न से क्रमशः सप्तम, चतुर्थ और पंचम भाव में हानिप्रद होते हैं तथा शनि अष्टम भाव में शुभ फल करता है। ज्ञातव्य है कि उपरोक्त ग्रह इन भावों के कारक माने गये हैं। परंतु ‘भावार्थ रत्नाकर’ ग्रंथ के रचयिता श्री रामानुजाचार्य ने निम्न श्लोक में सभी कारक ग्रहों को संबंधित भाव में हानिकारक बताया है- सर्वेषु भाव स्थानेषु तत्त्द भावादिकारकः। विद्यते तस्यभावस्य फलमस्वंल्पमुदीरितय्।। अर्थात्, ”सभी कारक ग्रह अपने संबंधित भाव में स्थित होने पर उस भाव के फल को बहुत कम करते हैं।“ उपरोक्त शलोक कालांतर में ”कारको भाव नाशाय“ नामक लोकोक्ति के रूप में प्रचलित हो गया। इसी आधार पर बृहस्पति का पंचम भाव में होना पुत्र अभाव का सूचक, शुक्र की सप्तम भाव में स्थिति वैवाहिक सुख का अभाव सूचक, तथा छोटे भाई के कारक मंगल ग्रह का तृतीय भाव में सिथति छोटे भाई के अभाव का सूचक कहा जाता है। अपवाह स्वरूप केवल शनि ग्रह का अष्टम (आयु) में होना दीर्घायु देता है। ‘कारको भाव नाशाय’ के पीछे जो हेतु है उस पर विचार करने से ज्ञात होता है कि जब किसी भाव का कारक उसी भाव में स्थित होता है तब साझे विषय के दो द्योतक (भाव व कारक) इकट्ठे होंगे और उन पर किसी पापी ग्रह का प्रभाव होने पर उनके साझे तथ्य की हानि होगी। वहीं शनि ग्रह की अष्टम आयु) भाव में स्थिति अपनी धीमी चाल से आयु को बढ़ायेगा। अनुभव में भी आता है कि जब भाव में उसका कारक शत्रु राशि में या अशुभ प्रभावी होने पर ही उस भाव के फल में कमी आती है। परंतु जब कोई ग्रह उस भाव में स्थित हो जिसका वह कारक है और वह स्वराशि अथवा मित्र राशि में स्थित हो वा शुभ दृष्ट हो तब अवश्य ही भाव फल की वृद्धि होती है। जैसे तृतीय भाव में मंगल यदि स्वराशि या मित्र राशि में हो और शुभ दृष्ट हो तो जातक का भाई अवश्य होता है। इसी प्रकार चतुर्थ भाव में चंद्रमा शुभ राशि में शुभ दृष्ट होने पर माता दीर्घजीवी होती है तथा सप्तम भाव में शुभ राशि स्थित व दृष्ट शुक्र वैवाहिक सुख देता है।
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