भारतीय संस्कृति में विवाह को एक ऐसा पवित्र संस्कार माना गया है जो कि समाज में नैतिकता और मानव जीवन में निरंतरता बनाये रखने के लिए आवश्यक है। प्राचीन काल में विवाह की प्राथमिकताएं कुछ हट कर थी। उपरोक्त के अतिरिक्त कन्याओं का अल्प आयु में विवाह विलासी और कामुक राजाओं, सामंतों तथा अंग्रेज शासकों की कुदृष्टि से बचाने के लिए किये जाते थे, परंतु आधुनिक समय में ये समस्याएं नहीं हैं। अतः वर्तमान परिस्थितियों में विवाह की आयु को तीन खंडों में 1. शीघ्र विवाह (18 से 23 वर्ष तक), 2. उचित सामान्य विवाह (24 से 28 वर्ष तक), 3. देरी से विवाह (29 वर्ष के पश्चात) विभाजित करके विचार करेंगे। प्राचीन ग्रंथों में जैसे बृहत् पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 19, श्लोक 22 में जो सूत्र दिया है उसके अनुसार विवाह 5वें या 9वें वर्ष में होगा तो इसे आधुनिक समय की परिस्थितियों में परिवर्तित करके शीघ्र विवाह की आयु (18 से 23 वर्ष तक) वाले फलकथन के साथ ही अध्याय में 22 से 34वें सूत्र तक जो भी वर्णित किया गया है उसमें सप्तम भाव, सप्तमेश तथा कारक ग्रह शुक्र आदि के ऊपर पड़ने वाले दुष्प्रभावों के कारण विवाह में देरी आदि को नहीं लिया गया है। बृहत्पाराशर होराशास्त्र के अध्याय 19 जमाभाव फलाअध्याय के श्लोक या सूत्र संख्या 22 से 34 में विवाह के समग्र ज्ञान के लिए सूत्र/योग दिये गये हैं जो कि निम्न हैं: सप्तमेश शुभग्रह की राशि में बैठा हो और शुक्र अपने उच्च राशि का या स्वक्षेत्र में स्थित हो तो उस जातक का प्रायः 5वें या 9वें वर्ष में विवाह योग आता है (श्लोक 22)। सप्तम भाव में सूर्य हो और सप्तमेश शुक्र से युत हो तो प्रायः 7 या 11वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 23)। द्वितीय भाव में शुक्र हो और सप्तमेश एकादश स्थान में हो तो 10 या 16वें वर्ष में प्रायः जातक का विवाह योग आता है (श्लोक 24)। लग्न या केंद्र में शुक्र हो और लग्नेश शनि की राशि में स्थित हो तो 11वें वर्ष में जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 25)। लग्न से केंद्र में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम भाव में शनि हो तो प्रायः 19 या 22वें वर्ष में उस जातक का विवाह योग होता है। (श्लोक 26)। चंद्रमा से सप्तम में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम में शनि हो तो 18वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 27)। धनेश लाभ स्थान में हो और लग्नेश दशम भाव में स्थित हो तो 15वें वर्ष में जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 28)। धनेश लाभ स्थान में और लाभेश धन स्थान (राशि) में स्थित हो तो जातक का 13वें वर्ष में विवाह योग होता है (श्लोक 29)। अष्टम भाव के सप्तम भाव में शुक्र हो और अष्टमेश मंगल के साथ हो तो जातक 22 या 27वें वर्ष में विवाह योग प्राप्त करता है (श्लोक 30)। लग्नाधिपति सप्तमेश के नवमांश में हो और सप्तमेश द्वादश भाव में स्थित हो तो उस जातक का विवाह 23 या 26वें वर्ष में होता है (श्लोक 31)। अष्टमेश लग्न के नवमांश में होकर सप्तम भाव में शुक्र के साथ बैठा हो तो 25 या 33वें वर्ष में उस जातक का विवाह योग होता है (श्लोक 32)। भाग्य भाव से नवम में शुक्र हो या उन दोनों स्थानों में से किसी एक स्थान में राहु बैठा हो तो 31 या 33वें वर्ष में स्त्री लाभ होता है (श्लोक 33)। नवम भाव से सप्तम भाव में शुक्र हो और शुक्र से सप्तम में सप्तमेश स्थित हो तो जातक 27 या 30वें वर्ष में विवाह योग प्राप्त करता है (श्लोक 34)। उपरोक्त श्लोकों का यदि काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली को ध्यान में रखकर विश्लेषण किया जाये तो संक्षेप में निम्न तथ्य ज्ञात होंगे कि: सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश एवं कारक ग्रह शुक्र/गुरु का संबंध शुभ ग्रहों, राशियों एवं भावों से हो तो विवाह शीघ्र ही कम आयु में संभव हो पाता है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश तथा कारक ग्रह शुक्र/गुरु पर शनि की दृष्टि, युति या शनि की राशियों (मकर/कुंभ) का प्रभाव हो तो विवाह में देरी होती है। जब सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वितीय भाव, द्वितीयेश एवं कारक ग्रह शुक्र/गुरु पर अशुभ भावों के स्वामियों या क्रूर या वक्री ग्रहों या राहु/केतु का प्रभाव हो तो विवाह में ज्यादा देरी होती है या विवाह ही नहीं हो पाता। विवाह के योगों का अध्ययन करने के पश्चात यह देखना होगा कि जातक के विवाह के लिए उचित दशा-अंतर्दशा कौन सी होगी साथ ही विवाह समय गोचर भी स्वीकृति दे रहा है अथवा नहीं क्योंकि, योग दशा तथा गोचर तीनों की सम्मिलित स्वीकृति ही विवाह के संस्कार करायेगी।
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