धन से अधिक महत्व चरित्र का माना गया है। अमेरिका के प्रसिद्ध विचारक इमर्सन ने लिखा है था कि ‘उत्तम चरित्र ही सबसे बड़ा धन है।’ इसी तरह ग्रीन नामक विद्वान का कथन था, ‘चरित्र को सुधारना ही मनुष्य का परम लक्ष्य होना चाहिए।’ स्वामी विवेकानंद प्रायः युवाओं को संबोधित करते हुए कहा करते थे, ‘युवाओ! उठो! जागो! अपने चरित्र का विकास करो।’ इस तरह विभिन्न विद्वानों ने चरित्र के महत्व पर प्रकाश डाला है और मानव जीवन में इसे सर्वोपरि माना है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का चरित्र इसीलिए आकर्षक और प्रभावशाली था कि उन्होंने सदैव अपने चरित्र का ख्याल रखा। वस्तुतः आज इसी चरित्र को बनाए रखने की परम आवश्यकता है। हम चाहें किसी भी क्षेत्र में कार्य कर रहे हों, किसी भी पद पर अपना योगदान कर रहे हों, हमें चरित्र को बनाकर और बचाकर रखना चाहिए। भारतीय संस्कृति की यही तो विशेषता रही है। यही संस्कृति ‘बहुजन हिताय’ और ‘बहुजन सुखाय’ और ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ की पावन भावना का विकास करती है। यही मनुष्य का सबसे बड़ा धर्म है। जितने भी महापुरुष हुए, उन सभी ने अपने बाल्यकाल से ही चरित्र की रक्षा का ध्यान रखा। मनुष्य का चरित्र विचार और आचार दोनों से मिलकर बनता है। संसार में बहुत से ऐसे लोग पाए जा सकते हैं, जिनके विचार बड़े ही उदात्त, महान और आदर्शपूर्ण होते हैं, किन्तु उनकी क्रियाएँ उसके अनुरूप नहीं होती। विचार पवित्र हों और कर्म अपावन तो यह सच्चरित्रता नहीं हुई। इसी प्रकार बहुत से लोग ऊपर से बड़े ही सत्यवादी, आदर्शवादी और धर्म- कर्म वाले दीखते हैं, किन्तु उनके भीतर कलुषपूर्ण विचारधारा बहती रहती है। ऐसे व्यक्ति भी सच्चे चरित्र वाले नहीं माने जा सकते। सच्चा चरित्रवान वही माना जायेगा और वास्तव में वही होता भी है, जो विचार और आचार दोनों को समान रूप से उच्च और पुनीत रखकर चलता है। चरित्र मनुष्य की सर्वोपरि सम्पत्ति है। विचारकों का कहना है कि ‘‘धन चला गया, कुछ नहीं गया। स्वास्थ्य चला गया, कुछ चला गया। किन्तु यदि चरित्र चला गया तो सब कुछ चला गया।’’ विचारकों का यह कथन शत- प्रतिशत भाव से अक्षरशः सत्य है। संयत इच्छाशक्ति से प्रेरित सदाचार का नाम ही चरित्र है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। जीवन में सफलता का आधार मनुष्य का चरित्र ही है। चरित्र मानव जीवन की स्थायी निधि है। सेवा, दया, परोपकार, उदारता, त्याग, शिष्टाचार और सद्व्यवहार आदि चरित्र के बाह्य अंग हैं, तो सद्भाव, उत्कृष्ट चिंतन, नियमित-व्यवस्थित जीवन, शांत-गंभीर मनोदशा चरित्र के परोक्ष अंग हैं। किसी व्यक्ति के विचार इच्छाएं, आकांक्षाएं और आचरण जैसा होता है, उन्हीं के अनुरूप चरित्र का निर्माण होता है। ज्योतिष में संपूर्ण चरित्र का निर्माण विभिन्न स्थानों एवं विभिन्न ग्रहों की अनुकूल स्थिति तथा संयोजन का परिणाम होती है, माना जाता है कि व्यक्ति की कुंडली सब कुछ बया करती है अतः यदि किसी जातक के चरित्र को जानना है तो उसके लग्न, तीसरे, पंचम, सप्तम एवं एकादश स्थान के ग्रह, इन स्थानों में उपस्थित ग्रह एवं ग्रहों के पाप प्रभाव से देखा जा सकता है। अगर ये स्थान उच्च, अनुकूल तथा सौम्य ग्रहों के साथ हों तो चरित्र का आकार अनुकूल दिशा में बढता है वहीं पर यदि इन क्षेत्रों पर कू्रर ग्रहों एवं प्रतिकूल स्थिति में हो जाए तो उसका चरित्र दुषित हो सकता है। चरित्र के निर्माण में वैसे तो सभी ग्रहों का संपूर्ण प्रभाव होता है किंतु गुरू संपूर्ण ग्रहों में सबसे महत्वपूर्ण ग्रह है। अतः यदि गुरू दूषित हो जाए अथवा उपरोक्त स्थानों का स्वामी होकर राहु जैसे पाप ग्रहों से पापाक्रांत होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए तो चरित्र को बचाकर रखना बहुत कठिन हो जाता है। अतः बचपन से ही चरित्र के निर्माण का ध्यान रखना चाहिए साथ ही गुरू एवं अन्य समस्त ग्रहों की अनुकूलता, जातक के व्यवहार का बारीकी से अध्ययन करने के लिए ज्योतिषीय गणना जरूर कराना चाहिए। इसके साथ गोचर के ग्रहों तथा समय काल परिस्थिति के अनुरूप इन समस्त ग्रहों तथा इन ग्रहों की दशाओं को ज्ञात कर उचित ज्योतिषीय उपाय द्वारा चरित्र को सुधारा जा सकता है, जो ना केवल व्यक्ति अपितु परिवार उसके उपरांत समाज एवं देश को बचाया जा सकता है।
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