पैरी नदी के आंचल में हरे-भरे सघन वनों और पहाडिय़ों के मनोरम प्राकृतिक दृश्यों से सुसज्जित गरियाबंद जिले का निर्माण 690 गांवों, 306 ग्राम पंचायतों और 158 पटवारी हल्कों को मिलाकर किया गया है। जमीन के ऊपर बहुमूल्य वन सम्पदा के साथ-साथ यह जिला अपनी धरती के गर्भ में अलेक्जेण्डर और हीरे जैसी मूल्यवान खनिज सम्पदा को भी संरक्षित किए हुए है। गिरि यानी पर्वतों से घिरे होने (बंद होने) के कारण संभवत: इसका नामकरण गरियाबंद हुआ। गरियाबंद जिले की कुल जनसंख्या पांच लाख 75 हजार 480 है। लगभग चार हजार 220 वर्ग किलोमीटर के भौगोलिक क्षेत्रफल वाले इस जिले में दो हजार 860 वर्ग किलोमीटर वन क्षेत्र और एक हजार 360 वर्ग किलोमीटर राजस्व क्षेत्र है। नये गरियाबंद जिले का कुल वन क्षेत्र लगभग 67 प्रतिशत है। इस नये जिले में वन्य प्राणियों सहित जैव विविधता के लिए प्रसिध्द उदन्ती अभ्यारण्य भी है। इस अभ्यारण्य के नाम से वन विभाग का उदन्ती वन मण्डल भी यहां कार्यरत है।
गरियाबंद जिले के फिंगेश्वर विकासखण्ड (तहसील) में ग्राम कोपरा स्थित कोपेश्वर महादेव, फिंगेश्वर स्थित कर्णेश्वर महादेव और पंचकोशी महादेव सहित विकासखण्ड छुरा में ग्राम कुटेना में सिरकट्टी आश्रम, जतमई माता का मंदिर ओर घटारानी का पहाड़ी मंदिर तथा जल प्रपात भी इस जिले की सांस्कृतिक और नैसर्गिक पहचान बनाते हैं। पैरी नदी पर निर्मित सिकासार जलाशय सहित उदन्ती अभ्यारण्य, देवधारा (मैनपुर) और घटारानी के जल प्रपात यहां सैलानियों को यहां आकर्षित करते रहे हैं। सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व की दृष्टि से देखा जाए तो नये गरियाबंद जिले को अनेक प्रसिध्द हस्तियों की जन्म भूमि और कर्म भूमि होने का गौरव प्राप्त है। पहाड़ी क्षेत्र में घूमने के लिए राजिम मार्ग सबसे अच्छी जगह है। जहा प्रकृति की सौंदर्यता का आनंद लिया जा सकता है। राजिम मार्ग में 70 मीटर की उंचाई से गिरते हुए झरने का आनंद सबसे मनमोहक है। इस पहाड़ की खास बात यह है की पहाड़ को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे वहां के सारे पत्थर किसी ने अपने हाथो से जमाये हो।
जतमई और घटारानी में माता का दरबार:
झरनों की रिमझिम फुहार के बीच यह है जतमई माता का दरबार। राजधानी रायपुर से करीब 70 किलो मीटर की दूरी पर राजिम मार्ग में है, जतमई। जतमई का रास्ता इतना रोमांचक है कि यहां हर कोई जाना चाहता है। एक तो माता का दरबार, उस पर प्रकृति के अद्भुत नजारे हैं। छल छल करते मनोरम झरने और जतमई - घटारानी मंदिर। जतमई और घटारानी दो अलग-अलग जगहें हैं। पटेवा के निकट स्थित जतमई पहाड़ी एक 200 मीटर क्षेत्र में फैला पहाड़ है, जिसकी उंचाई करीब 70 मीटर है। यहां शिखर पर विशालकाय पत्थर एक-दूसरे के ऊपर इस कदर टिके हैं, जैसे किसी ने उन्हेंं जमाया हो। जतमई में प्रमुख मंदिर के निकट ही सिद्ध बाबा का प्राचीन चिमटा है, जिसके बारे में किवंदती है कि यह 1600 वीं शताब्दी का है. बारिश के दिनों झरनों की रिमझिम फुहार इसे बेहतरीन पिकनिक की जगह बना देता है , यहाँ पर्यटक नहाने का बहुत आनंद उठाते हैं। ऊपर है जतमई माता का दरबार। यहां के नजारें आंखों को बहुत प्यारे लगते हैं। जतमई के रास्ते का प्राकृतिक सौंदर्य भी देखने लायक और रोमांचक है नवरात्रि के समय यहां दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ लगने लगी है। घटारानी जतमई से 25 कि.मी. है। यहाँ पर भी बेहतरीन जल -प्रपात है। घटारानी मंदिर कि भी बहुत मान्यता है। घटारानी प्रपात तक पहुंचना आसान नहींं है, पर पर्यटकों के जाने के लिए पर्याप्त साधन हैं। प्रकृति प्रेमियों के लिए इन जगहों पर जाने का सबसे अच्छा समय अगस्त से दिसंबर तक है। गरियाबंद का जतमई और घटारानी धाम के वाटर फॉल को देखकर पर्यटक खासे रोमांचित होते हैं और जो एक बार यहां आ जाता है दोबारा आने की हसरत लिए वापस जाता है। बरसात के समय मंदिर में पानी भरा रहता है और ऐसी मान्यता है की जल भी माता के चरणों को छूकर आगे प्रवाहित होता है।
माँ जतमई के मंदिर में चैत्र नवरात्र और कुंवार नवरात्र में मनोकामना ज्योति प्रज्वलित किये जाते हैं एवं इस समय मेला भी लगता है। जतमई मार्ग पर और भी पर्यटक स्थल है यहाँ पास में छोटा सा बांध है जो पिकनिक स्पॉट भी है।
अदृश्य रहस्यमय गाँव:
धरती पर गाँव-नगर, राजधानियाँ उजड़ी, फिर बसी, पर कुछ जगह ऐसी हैं जो एक बार उजड़ी, फिर बस न सकी। कभी राजाओं के साम्राज्य विस्तार की लड़ाई तो कभी प्राकृतिक आपदा, कभी दैवीय प्रकोप से लोग बेघर हुए। बसी हुयी घर गृहस्थी और पुरखों के बनाये घरों को अचानक छोड़ कर जाना त्रासदी ही है। बंजारों की नियति है कि वे अपना स्थान बदलते रहते हैं, पर किसानों का गाँव छोड़ कर जाना त्रासदीपूर्ण होता है, एक बार उजडऩे पर कोई गाँव बिरले ही आबाद होता है। गरियाबंद जिले का एक ऐसा ही बांव है केडी आमा (अब रमनपुर), जो150 वर्षों के बाद अब पुन: आबाद हो रहा है। ऐसा ही एक गाँव गरियाबंद जिले में फिंगेश्वर तहसील से 7 किलो मीटर की दूरी पर चंदली पहाड़ी के नीचे मिला है। सूखा नदी के किनारे चंदली पहाड़ी की गोद में बसा था टेंवारी गाँव। यह आदिवासी गाँव कभी आबाद था, जीवन की चहल-पहल यहाँ दिखाई देती थी। अपने पालतू पशुओं के साथ ग्राम वासी गुजर-बसर करते थे। दक्षिण में चंदली पहाड़ी और पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती सूखा नदी आगे चल कर महानदी में मिल जाती है। इस सुरम्य वातावरण के बीच टेंवारी आज वीरान-सुनसान है। इस गाँव के विषय में मिली जानकारी के अनुसार इसे रहस्यमयी कहने में कोई संदेह नहींं है। उजड़े हुए घरों के खंडहर आज भी अपने उजडऩे की कहानी स्वयं बयान करते हैं। ईमली के घने वृक्ष इसे और भी रहस्यमयी बनाते हैं। ईमली के वृक्षों के बीच साँपों की बड़ी-बड़ी बांबियाँ दिखाई देती हैं। परसदा और सोरिद ग्राम के जानकार कहते हैं कि गाँव उजडऩे के बाद से लेकर आज तक वहां कोई भी रहने की हिम्मत नहींं कर पाया। ग्राम सोरिद खुर्द से सूखा नदी पार करने के बाद इस वीरान गाँव में एक मंदिर और आश्रम स्थित है। जंगल के रास्ते में साल के वृक्ष की आड़ में विशाल शिवलिंग है, जो पत्तों एवं घास की आड़ छिपा था। आश्रम, खपरैल की छत का बना है, सामने ही एक कुंवा है। कच्ची मिटटी की दीवारों पर सुन्दर देवाकृतियाँ बनी हैं। शिव मंदिर की दक्षिण दिशा में सूखा नदी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शिवलिंग प्राचीन एवं मान्य है। इसे टानेश्वर नाथ महादेव कहा जाता है, यह एकमुखी शिवलिंग तिरछा है। कहते हैं कि फिंगेश्वर के मालगुजार इसे ले जाना चाहते थे, खोदने पर शिवलिंग कि गहराई की थाह नहींं मिली। तब उसने ट्रेक्टर से बांध कर इसे खिंचवाया। तब भी शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस नहींं हुआ। थक हार इसे यहीं छोड़ दिया गया। तब से यह शिवलिंग टेढ़ा ही है।
प्राचीन बंदरगाह:
गरियाबंद से 15 किलोमीटर पर पैरी नदी के तट पर स्थित एक ग्राम का नाम मालगाँव है। यहाँ नावों द्वारा लाया गया सामान (माल) रखा जाता था। इसलिए इस गांव का नाम मालगाँव पड़ा। वर्षाकाल में रायपुर से देवभोग जाने वाले यात्री मालगाँव से भली भांति परिचित होते थे, क्योंकि यहीं से पैरी नदी को नाव द्वारा पार करना पड़ता था। यहाँ से महानदी के जल-मार्ग के माध्यम द्वारा कलकत्ता तथा अन्य स्थानों से वस्तुओं का आयात-निर्यात हुआ करता था। पू्र्वी समुद्र तट पर 'कोसल बंदरगाह नामक एक विख्यात बन्दरगाह भी था। जहाँ से जल परिवहन के माध्यम से व्यापार होता था। इससे ज्ञात होता है कि वन एवं खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ प्राचीन काल से ही समृद्ध रहा है। नदियाँ इसे धन धान्य से समृद्ध करते रही हैं। पैरी नदी के तट पर कुटेना में स्थित यह बंदरगाह (गोदी) पाण्डुका ग्राम से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि इस गोदी का निर्माण कुशल शिल्पियों ने किया है। इसकी संरचना में 90 अंश के कई कोण बने हैं। कठोर लेट्राईट को काटकर बनाई गयी गोदियाँ तीन भागों में निर्मित हैं, जो 5 मीटर से 6.60 मीटर चौड़ी तथा 5-6मीटर गहरी हैं। साथ ही इन्हें समतल बनाया गया, जिससे नाव द्वारा लाया गया सामान रखा जा सके। वर्तमान में ये गोदियाँ नदी की रेत में पट चुकी हैं। रेत हटने पर गोदियाँ दिखाई देने लगती हैं। इस स्थान पर महाभारत कालीन मृदा भांड के टुकटे भी मिलते हैं। नदी से कोसला वज्र (हीरा) प्राप्त होता था तथा जल परिवहन द्वारा आयात-निर्यात होता था। पैरी नदी का उद्गम मैनपुर से लगे हुए ग्राम भाटीगढ़ से हुआ है। पहाड़ी पर स्थित पैरी उद्गम स्थल से जल निरंतर रिसता है। अब इस स्थान पर छोटा सा मंदिर भी बना दिया गया है। पैरी और सोंढूर नदी का मिलन रायपुर-गरियाबंद मार्ग पर स्थित मालगाँव के समीप मुहैरा ग्राम के समीप हुआ है। यहाँ से चल कर दोनों नदियाँ महानदी से जुड़ जाती है।
सिरकट्टी आश्रम:
पैरी नदी के तट पर कुटेना ग्राम का सिरकट्टी आश्रम स्थित है। आश्रम का नाम सिरकट्टी इसलिए पड़ा कि यहाँ मंदिर के अवशेष के रुप में सिर कटी मूर्तियाँ प्राप्त हुई, जिन्हे बरगद के वृक्ष के नीचे स्थापित कर दिया। तब से इसे सिरकट्टी आश्रम के नाम से जाना जाता है। आश्रम में स्थित सिरकटी मूर्तियाँ एक दीमक की बांबी से प्राप्त हुई थी। कुछ द्रव्य के साथ दो शिवलिंग भी यहाँ प्राप्त हुए, जिसमें से एक पेड़ के नीचे स्थापित है, दूसरा मंदिर में स्थापित है। इस स्थान पर सुदूर प्रांतों से आये संत आश्रम की सेवा करते हैं।
प्राकृतिक शिवलिंग- भूतेश्वरनाथ महादेव:
गरियाबंद से 3 किलो मीटर दूर मरौदा के जंगलो में विश्व का सबसे बड़ा प्राकृतिक शिवलिंग है। यह अर्धनारीश्वर प्राकृतिक शिव लिंग हैं जो विश्वप्रसिध्द विशालतम शिव लिंग के नाम से प्रसिध्द है। यह शिव लिंग प्रतिवर्ष अपने आप में बढ़ता जा रहा हैं इसे भुतेश्वर महादेव कहा जाता है। हर वर्ष महाशिवरात्रि एवं सावन माह के पर्व पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। सुरम्य वनों एवं पहाडिय़ों से घिरे अंचल में प्रकृति प्रदत्त विश्व का सबसे विशाल शिवलिंग विराजमान है। यह समस्त क्षेत्र गिरी (पर्वत) तथा वनों से आच्छादित हैं इसे गिरिवन क्षेत्र कहा जाता था जो कालांतर में गरियाबंद कहलाया। भूमि, जल, अग्नि, आकाश और हवा पंचभूत कहलाते हैं, इन सबके ईश्वर भूतेश्वर हैं, समस्त प्राणियों का शरीर भी पंचभूतों से बना हैं इस तरह भूतेश्वरनाथ सबके ईश्वर हैं उनकी आराधना सम्पूर्ण विश्व की आराधना हैं।
इस तरह भुतेश्वर महादेव ने ज्ञान रूपी गंगा, शांति रूपी चन्द्रमा, विवके रूपी तीसरी आंख तथा कटुता रूपी सर्प और मृत्यु रूपी मुंड धारण किया हैं। भूतेश्वर नाथ प्रांगण अत्यंत विशाल हैं यहां पर गणेश मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, राम जानकी मंदिर, यज्ञ मंडप, दो सामुदायिक भवन, एक सांस्कृतिक भवन तथा बजरंग बली का मंदिर है। यहां के मंदिर व भवन, भूतेश्वर नाथ समिति तथा अनेक श्रध्दालुओं के द्वारा यह निर्माण किये गए हैं जो भूतेश्वर नाथ धाम को भव्यता प्रदान कर रहे हैं।
उदन्ती अभ्यादरण्य:
उड़ीसा से लगे रायपुर-देवभोग मार्ग पर यह अभयारण्य रायपुर से 140 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली उदंती नदी के नाम पर इस अभयारण्य का नामकरण हुआ है। छोटे-छोटे पहाडिय़ों की श्रृंखलाओं एवं उनके बीच फैली हुई मैदानी पट्टियों से इस अभयारण्य की विशेषाकृति तैयार हुई है। इस अभ्यारण्य में 10 वनग्राम है जिसमें मुख्यत: जनजाति के लोग रहते है।
उदंती की लहलहाती पहाडिय़ां, घने वनों से आच्छादित हैं। इन वनों में साजा, बीजा, लेंडिया, हल्दु, धाओरा, आंवला, सरई एवं अमलतास जैसी प्रजातियों के वृक्ष भी पाए जाते हैं। वनभूमि घास, पेड़ों, झाडिय़ों व पौधों से ढंकी हुई हैं। अभयारण्य का उत्तरी-पिश्चमी भाग साल के वृक्षों से सुसज्जित है। फरवरी माह में उदंती नदी का बहाव रूक जाता है। बहाव रूकने से नदी तल में पानी के सुंदर एवं शांत ताल निर्मित हो जाते हैं। जिनमें वनभैंसा, गौर, शेर, तेन्दुआ, चीतल, सांभर, नीलगाय, जंगली सुअर, सियार, भालू, जंगली कुत्ते, जंगली बिल्ली, साही, लोमड़ी, धारीदार लकड बग्घा देखे जा सकते हैं। उदंती में पक्षियों की 120 से भी ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें कई प्रवासी पक्षी शामिल हैं। इनमें से कुछ हैं जंगली मुर्गे, फेजेन्ट, बुलबुल, ड्रोंगो, कठफोड़वा आदि। उदंती संपूर्ण रूप से एक विशिष्ट अनुभव है।
उदंती में स्थित अन्य दर्शनीय स्थल:
1.गोडेना जलप्रपात: यह जलप्रपात कर्रलाझर से 8कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान बहुत ही मनोरम एवं एकांतमय है जहां झरने की कलकल ध्वनी से पहाड़ी गूंजती सी प्रतीत होती है। यह पर्यटकों के लिये पिकनिक का एक उत्तम स्थान है।
2.देवधारा जलप्रपात: तौरेंगा से 12 कि.मी. की दूरी पर यह जलप्रपात है। यहां पहुचने के लिये 1.5 कि.मी. पैदल चलना पड़ता है। यह स्थान भी बहुत ही खुबसूरत है एवं यह बांस एवं मिश्रित वन से घिरा हुआ है।
पहुंच मांर्ग:
वायुमार्ग- रायपुर (45कि.मी.) निकटतम हवाई अड्डा है जो दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग-रायपुर निकटतम रेल्वे स्टेशन है तथा यह हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग- नियमित बस तथा टैक्सी सेवा रायपुर तथा महासुमंद से जुड़ा हुआ है।
आवास व्यवस्था-
यहां पर पी.डब्लू.डी का विश्रामगृह है तथा अधिक आरामदायक सुविधा के लिए रायपुर में विभिन्न प्रकार के होटल्स उपलब्ध है।
गरियाबंद जिले के फिंगेश्वर विकासखण्ड (तहसील) में ग्राम कोपरा स्थित कोपेश्वर महादेव, फिंगेश्वर स्थित कर्णेश्वर महादेव और पंचकोशी महादेव सहित विकासखण्ड छुरा में ग्राम कुटेना में सिरकट्टी आश्रम, जतमई माता का मंदिर ओर घटारानी का पहाड़ी मंदिर तथा जल प्रपात भी इस जिले की सांस्कृतिक और नैसर्गिक पहचान बनाते हैं। पैरी नदी पर निर्मित सिकासार जलाशय सहित उदन्ती अभ्यारण्य, देवधारा (मैनपुर) और घटारानी के जल प्रपात यहां सैलानियों को यहां आकर्षित करते रहे हैं। सामाजिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक महत्व की दृष्टि से देखा जाए तो नये गरियाबंद जिले को अनेक प्रसिध्द हस्तियों की जन्म भूमि और कर्म भूमि होने का गौरव प्राप्त है। पहाड़ी क्षेत्र में घूमने के लिए राजिम मार्ग सबसे अच्छी जगह है। जहा प्रकृति की सौंदर्यता का आनंद लिया जा सकता है। राजिम मार्ग में 70 मीटर की उंचाई से गिरते हुए झरने का आनंद सबसे मनमोहक है। इस पहाड़ की खास बात यह है की पहाड़ को देखने पर ऐसा प्रतीत होता है मानो जैसे वहां के सारे पत्थर किसी ने अपने हाथो से जमाये हो।
जतमई और घटारानी में माता का दरबार:
झरनों की रिमझिम फुहार के बीच यह है जतमई माता का दरबार। राजधानी रायपुर से करीब 70 किलो मीटर की दूरी पर राजिम मार्ग में है, जतमई। जतमई का रास्ता इतना रोमांचक है कि यहां हर कोई जाना चाहता है। एक तो माता का दरबार, उस पर प्रकृति के अद्भुत नजारे हैं। छल छल करते मनोरम झरने और जतमई - घटारानी मंदिर। जतमई और घटारानी दो अलग-अलग जगहें हैं। पटेवा के निकट स्थित जतमई पहाड़ी एक 200 मीटर क्षेत्र में फैला पहाड़ है, जिसकी उंचाई करीब 70 मीटर है। यहां शिखर पर विशालकाय पत्थर एक-दूसरे के ऊपर इस कदर टिके हैं, जैसे किसी ने उन्हेंं जमाया हो। जतमई में प्रमुख मंदिर के निकट ही सिद्ध बाबा का प्राचीन चिमटा है, जिसके बारे में किवंदती है कि यह 1600 वीं शताब्दी का है. बारिश के दिनों झरनों की रिमझिम फुहार इसे बेहतरीन पिकनिक की जगह बना देता है , यहाँ पर्यटक नहाने का बहुत आनंद उठाते हैं। ऊपर है जतमई माता का दरबार। यहां के नजारें आंखों को बहुत प्यारे लगते हैं। जतमई के रास्ते का प्राकृतिक सौंदर्य भी देखने लायक और रोमांचक है नवरात्रि के समय यहां दर्शनार्थियों की बहुत भीड़ लगने लगी है। घटारानी जतमई से 25 कि.मी. है। यहाँ पर भी बेहतरीन जल -प्रपात है। घटारानी मंदिर कि भी बहुत मान्यता है। घटारानी प्रपात तक पहुंचना आसान नहींं है, पर पर्यटकों के जाने के लिए पर्याप्त साधन हैं। प्रकृति प्रेमियों के लिए इन जगहों पर जाने का सबसे अच्छा समय अगस्त से दिसंबर तक है। गरियाबंद का जतमई और घटारानी धाम के वाटर फॉल को देखकर पर्यटक खासे रोमांचित होते हैं और जो एक बार यहां आ जाता है दोबारा आने की हसरत लिए वापस जाता है। बरसात के समय मंदिर में पानी भरा रहता है और ऐसी मान्यता है की जल भी माता के चरणों को छूकर आगे प्रवाहित होता है।
माँ जतमई के मंदिर में चैत्र नवरात्र और कुंवार नवरात्र में मनोकामना ज्योति प्रज्वलित किये जाते हैं एवं इस समय मेला भी लगता है। जतमई मार्ग पर और भी पर्यटक स्थल है यहाँ पास में छोटा सा बांध है जो पिकनिक स्पॉट भी है।
अदृश्य रहस्यमय गाँव:
धरती पर गाँव-नगर, राजधानियाँ उजड़ी, फिर बसी, पर कुछ जगह ऐसी हैं जो एक बार उजड़ी, फिर बस न सकी। कभी राजाओं के साम्राज्य विस्तार की लड़ाई तो कभी प्राकृतिक आपदा, कभी दैवीय प्रकोप से लोग बेघर हुए। बसी हुयी घर गृहस्थी और पुरखों के बनाये घरों को अचानक छोड़ कर जाना त्रासदी ही है। बंजारों की नियति है कि वे अपना स्थान बदलते रहते हैं, पर किसानों का गाँव छोड़ कर जाना त्रासदीपूर्ण होता है, एक बार उजडऩे पर कोई गाँव बिरले ही आबाद होता है। गरियाबंद जिले का एक ऐसा ही बांव है केडी आमा (अब रमनपुर), जो150 वर्षों के बाद अब पुन: आबाद हो रहा है। ऐसा ही एक गाँव गरियाबंद जिले में फिंगेश्वर तहसील से 7 किलो मीटर की दूरी पर चंदली पहाड़ी के नीचे मिला है। सूखा नदी के किनारे चंदली पहाड़ी की गोद में बसा था टेंवारी गाँव। यह आदिवासी गाँव कभी आबाद था, जीवन की चहल-पहल यहाँ दिखाई देती थी। अपने पालतू पशुओं के साथ ग्राम वासी गुजर-बसर करते थे। दक्षिण में चंदली पहाड़ी और पूर्व से पश्चिम की ओर प्रवाहित होती सूखा नदी आगे चल कर महानदी में मिल जाती है। इस सुरम्य वातावरण के बीच टेंवारी आज वीरान-सुनसान है। इस गाँव के विषय में मिली जानकारी के अनुसार इसे रहस्यमयी कहने में कोई संदेह नहींं है। उजड़े हुए घरों के खंडहर आज भी अपने उजडऩे की कहानी स्वयं बयान करते हैं। ईमली के घने वृक्ष इसे और भी रहस्यमयी बनाते हैं। ईमली के वृक्षों के बीच साँपों की बड़ी-बड़ी बांबियाँ दिखाई देती हैं। परसदा और सोरिद ग्राम के जानकार कहते हैं कि गाँव उजडऩे के बाद से लेकर आज तक वहां कोई भी रहने की हिम्मत नहींं कर पाया। ग्राम सोरिद खुर्द से सूखा नदी पार करने के बाद इस वीरान गाँव में एक मंदिर और आश्रम स्थित है। जंगल के रास्ते में साल के वृक्ष की आड़ में विशाल शिवलिंग है, जो पत्तों एवं घास की आड़ छिपा था। आश्रम, खपरैल की छत का बना है, सामने ही एक कुंवा है। कच्ची मिटटी की दीवारों पर सुन्दर देवाकृतियाँ बनी हैं। शिव मंदिर की दक्षिण दिशा में सूखा नदी है। इससे अनुमान लगाया जा सकता है कि यह शिवलिंग प्राचीन एवं मान्य है। इसे टानेश्वर नाथ महादेव कहा जाता है, यह एकमुखी शिवलिंग तिरछा है। कहते हैं कि फिंगेश्वर के मालगुजार इसे ले जाना चाहते थे, खोदने पर शिवलिंग कि गहराई की थाह नहींं मिली। तब उसने ट्रेक्टर से बांध कर इसे खिंचवाया। तब भी शिवलिंग अपने स्थान से टस से मस नहींं हुआ। थक हार इसे यहीं छोड़ दिया गया। तब से यह शिवलिंग टेढ़ा ही है।
प्राचीन बंदरगाह:
गरियाबंद से 15 किलोमीटर पर पैरी नदी के तट पर स्थित एक ग्राम का नाम मालगाँव है। यहाँ नावों द्वारा लाया गया सामान (माल) रखा जाता था। इसलिए इस गांव का नाम मालगाँव पड़ा। वर्षाकाल में रायपुर से देवभोग जाने वाले यात्री मालगाँव से भली भांति परिचित होते थे, क्योंकि यहीं से पैरी नदी को नाव द्वारा पार करना पड़ता था। यहाँ से महानदी के जल-मार्ग के माध्यम द्वारा कलकत्ता तथा अन्य स्थानों से वस्तुओं का आयात-निर्यात हुआ करता था। पू्र्वी समुद्र तट पर 'कोसल बंदरगाह नामक एक विख्यात बन्दरगाह भी था। जहाँ से जल परिवहन के माध्यम से व्यापार होता था। इससे ज्ञात होता है कि वन एवं खनिज संपदा से भरपूर छत्तीसगढ प्राचीन काल से ही समृद्ध रहा है। नदियाँ इसे धन धान्य से समृद्ध करते रही हैं। पैरी नदी के तट पर कुटेना में स्थित यह बंदरगाह (गोदी) पाण्डुका ग्राम से 3 किलोमीटर दूर स्थित है। अवलोकन करने पर प्रतीत होता है कि इस गोदी का निर्माण कुशल शिल्पियों ने किया है। इसकी संरचना में 90 अंश के कई कोण बने हैं। कठोर लेट्राईट को काटकर बनाई गयी गोदियाँ तीन भागों में निर्मित हैं, जो 5 मीटर से 6.60 मीटर चौड़ी तथा 5-6मीटर गहरी हैं। साथ ही इन्हें समतल बनाया गया, जिससे नाव द्वारा लाया गया सामान रखा जा सके। वर्तमान में ये गोदियाँ नदी की रेत में पट चुकी हैं। रेत हटने पर गोदियाँ दिखाई देने लगती हैं। इस स्थान पर महाभारत कालीन मृदा भांड के टुकटे भी मिलते हैं। नदी से कोसला वज्र (हीरा) प्राप्त होता था तथा जल परिवहन द्वारा आयात-निर्यात होता था। पैरी नदी का उद्गम मैनपुर से लगे हुए ग्राम भाटीगढ़ से हुआ है। पहाड़ी पर स्थित पैरी उद्गम स्थल से जल निरंतर रिसता है। अब इस स्थान पर छोटा सा मंदिर भी बना दिया गया है। पैरी और सोंढूर नदी का मिलन रायपुर-गरियाबंद मार्ग पर स्थित मालगाँव के समीप मुहैरा ग्राम के समीप हुआ है। यहाँ से चल कर दोनों नदियाँ महानदी से जुड़ जाती है।
सिरकट्टी आश्रम:
पैरी नदी के तट पर कुटेना ग्राम का सिरकट्टी आश्रम स्थित है। आश्रम का नाम सिरकट्टी इसलिए पड़ा कि यहाँ मंदिर के अवशेष के रुप में सिर कटी मूर्तियाँ प्राप्त हुई, जिन्हे बरगद के वृक्ष के नीचे स्थापित कर दिया। तब से इसे सिरकट्टी आश्रम के नाम से जाना जाता है। आश्रम में स्थित सिरकटी मूर्तियाँ एक दीमक की बांबी से प्राप्त हुई थी। कुछ द्रव्य के साथ दो शिवलिंग भी यहाँ प्राप्त हुए, जिसमें से एक पेड़ के नीचे स्थापित है, दूसरा मंदिर में स्थापित है। इस स्थान पर सुदूर प्रांतों से आये संत आश्रम की सेवा करते हैं।
प्राकृतिक शिवलिंग- भूतेश्वरनाथ महादेव:
गरियाबंद से 3 किलो मीटर दूर मरौदा के जंगलो में विश्व का सबसे बड़ा प्राकृतिक शिवलिंग है। यह अर्धनारीश्वर प्राकृतिक शिव लिंग हैं जो विश्वप्रसिध्द विशालतम शिव लिंग के नाम से प्रसिध्द है। यह शिव लिंग प्रतिवर्ष अपने आप में बढ़ता जा रहा हैं इसे भुतेश्वर महादेव कहा जाता है। हर वर्ष महाशिवरात्रि एवं सावन माह के पर्व पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। सुरम्य वनों एवं पहाडिय़ों से घिरे अंचल में प्रकृति प्रदत्त विश्व का सबसे विशाल शिवलिंग विराजमान है। यह समस्त क्षेत्र गिरी (पर्वत) तथा वनों से आच्छादित हैं इसे गिरिवन क्षेत्र कहा जाता था जो कालांतर में गरियाबंद कहलाया। भूमि, जल, अग्नि, आकाश और हवा पंचभूत कहलाते हैं, इन सबके ईश्वर भूतेश्वर हैं, समस्त प्राणियों का शरीर भी पंचभूतों से बना हैं इस तरह भूतेश्वरनाथ सबके ईश्वर हैं उनकी आराधना सम्पूर्ण विश्व की आराधना हैं।
इस तरह भुतेश्वर महादेव ने ज्ञान रूपी गंगा, शांति रूपी चन्द्रमा, विवके रूपी तीसरी आंख तथा कटुता रूपी सर्प और मृत्यु रूपी मुंड धारण किया हैं। भूतेश्वर नाथ प्रांगण अत्यंत विशाल हैं यहां पर गणेश मंदिर, लक्ष्मी नारायण मंदिर, राम जानकी मंदिर, यज्ञ मंडप, दो सामुदायिक भवन, एक सांस्कृतिक भवन तथा बजरंग बली का मंदिर है। यहां के मंदिर व भवन, भूतेश्वर नाथ समिति तथा अनेक श्रध्दालुओं के द्वारा यह निर्माण किये गए हैं जो भूतेश्वर नाथ धाम को भव्यता प्रदान कर रहे हैं।
उदन्ती अभ्यादरण्य:
उड़ीसा से लगे रायपुर-देवभोग मार्ग पर यह अभयारण्य रायपुर से 140 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पश्चिम से पूर्व की ओर बहने वाली उदंती नदी के नाम पर इस अभयारण्य का नामकरण हुआ है। छोटे-छोटे पहाडिय़ों की श्रृंखलाओं एवं उनके बीच फैली हुई मैदानी पट्टियों से इस अभयारण्य की विशेषाकृति तैयार हुई है। इस अभ्यारण्य में 10 वनग्राम है जिसमें मुख्यत: जनजाति के लोग रहते है।
उदंती की लहलहाती पहाडिय़ां, घने वनों से आच्छादित हैं। इन वनों में साजा, बीजा, लेंडिया, हल्दु, धाओरा, आंवला, सरई एवं अमलतास जैसी प्रजातियों के वृक्ष भी पाए जाते हैं। वनभूमि घास, पेड़ों, झाडिय़ों व पौधों से ढंकी हुई हैं। अभयारण्य का उत्तरी-पिश्चमी भाग साल के वृक्षों से सुसज्जित है। फरवरी माह में उदंती नदी का बहाव रूक जाता है। बहाव रूकने से नदी तल में पानी के सुंदर एवं शांत ताल निर्मित हो जाते हैं। जिनमें वनभैंसा, गौर, शेर, तेन्दुआ, चीतल, सांभर, नीलगाय, जंगली सुअर, सियार, भालू, जंगली कुत्ते, जंगली बिल्ली, साही, लोमड़ी, धारीदार लकड बग्घा देखे जा सकते हैं। उदंती में पक्षियों की 120 से भी ज्यादा प्रजातियां पाई जाती हैं, जिनमें कई प्रवासी पक्षी शामिल हैं। इनमें से कुछ हैं जंगली मुर्गे, फेजेन्ट, बुलबुल, ड्रोंगो, कठफोड़वा आदि। उदंती संपूर्ण रूप से एक विशिष्ट अनुभव है।
उदंती में स्थित अन्य दर्शनीय स्थल:
1.गोडेना जलप्रपात: यह जलप्रपात कर्रलाझर से 8कि.मी. की दूरी पर स्थित है। यह स्थान बहुत ही मनोरम एवं एकांतमय है जहां झरने की कलकल ध्वनी से पहाड़ी गूंजती सी प्रतीत होती है। यह पर्यटकों के लिये पिकनिक का एक उत्तम स्थान है।
2.देवधारा जलप्रपात: तौरेंगा से 12 कि.मी. की दूरी पर यह जलप्रपात है। यहां पहुचने के लिये 1.5 कि.मी. पैदल चलना पड़ता है। यह स्थान भी बहुत ही खुबसूरत है एवं यह बांस एवं मिश्रित वन से घिरा हुआ है।
पहुंच मांर्ग:
वायुमार्ग- रायपुर (45कि.मी.) निकटतम हवाई अड्डा है जो दिल्ली, मुंबई, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चैन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग-रायपुर निकटतम रेल्वे स्टेशन है तथा यह हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर स्थित है।
सड़क मार्ग- नियमित बस तथा टैक्सी सेवा रायपुर तथा महासुमंद से जुड़ा हुआ है।
आवास व्यवस्था-
यहां पर पी.डब्लू.डी का विश्रामगृह है तथा अधिक आरामदायक सुविधा के लिए रायपुर में विभिन्न प्रकार के होटल्स उपलब्ध है।
Pt.P.S Tripathi
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