Saturday 16 April 2016

जहाँ मुर्दों के साथ खेली जाती है होली

होली पर्व रंगों का त्यौहार है जिसे भारत के हर कोने में अलग अलग तरीके से मनाया जाता है। भारत के अलग अलग हिस्सों में होली के दस दिन पहले से लेकर दस दिन बाद तक अलग जगहों पर अलग अलग रस्मोरिवाज के साथ होली मनाई जाती है । उसी अनोखी होली का एक रिवाज आपको वाराणसी में देखने को मिल जायेगी जहां पर कुछ साधु मुर्दों के साथ होली खेलते हैं और जलती चिताओं के बीच श्मशान में होली खेलते हैं। कैसे शुरू हुई यह परम्परा आईये विस्तार से जानें।
एक प्राचीन मान्यता है जिसके अनुसार रंगभरी एकादशी के दिन शिवजी जिनका बाबा विश्वनाथ भी कहते हैं, माता पार्वती का गौना कराकर वापस कैलाश लौट रहे थे। दूसरे दिन जब वो औघड़ होकर श्मशान में जलती चिताओं के बीच भस्म की होली खेले। तब से इस परम्परा को औघड़ साधू और सन्यासी निभाते हैं। इस परम्परा में साधू डमरू बजाते हुए झूमते हुये नाचते हैं जिनके साथ कई और लोग भी शामिल हो जाते हैं और हर-हर महादेव बोलते हुये एक दूसरे को चिताओं का राख लगाते हैं।
इस परंपरा की शुरूआत में रंगभरी एकादशी के दिन सुबह जल्दी मणिकर्णिका घाट पर साधू जमा हो जाते हैं जहां पर डमरुओं की गूंज के साथ बाबा मसान नाथ की आरती शुरू होती है जिसमें विधिपूर्वक बाबा मशान नाथ को गुलाल और रंग लगाया जाता है। आरती होने के बाद साधुओं की टाली चिताओं की ओर रुख करती है, और श्मशान के राख से होली खेलते हैं। यहां पर ऐसी मान्यता है कि यहां पर बाबा लोगों को मुक्ति का तारक मन्त्र देते हैँ जिससे प्राण त्यागने वाला व्यक्ति शिवत्व की प्राप्ति कर लेता है।

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