Monday, 11 May 2015

जीवन की उपयोगिता है वास्तु शास्त्र

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 वास्तुशास्त्र भारत का अत्यन्त प्राचीन शास्त्र है। प्राचीन काल में वास्तुकला सभी कलाओं की जननी कही जाती थी। आज भी जितने भवन और बिल्डिंग आदि बन रही है अधिकांश में वास्तु के हिसाब से बनाया जा रहा है ,
आइये जानते है वास्तु के कुछ नियम :-वास्तु तीन प्रकार के होते हैं- त्र आवासीय - मकान एवं फ्लैट त्र व्यावसायिक -व्यापारिक एवं औद्योगिक त्र धार्मिक- धर्मशाला, जलाशय एवं धार्मिक संस्थान। वास्तु में भूमि का विशेष महत्व है। भूमि चयन करते समय भूमि या मिट्टी की गुणवत्ता का विचार कर लेना चाहिए। भूमि परीक्षण के लिये भूखंड के मध्य में भूस्वामी के हाथ के बराबर एक हाथ गहरा, एक हाथ लंबा एवं एक हाथ चौड़ा गड्ढा खोदकर उसमें से मिट्टी निकालने के पश्चात् उसी मिट्टी को पुनः उस गड्ढे में भर देना चाहिए। ऐसा करने से यदि मिट्टी शेष रहे तो भूमि उत्तम, यदि पूरा भर जाये तो मध्यम और यदि कम पड़ जाये तो अधम अर्थात् हानिप्रद है। अधम भूमि पर भवन निर्माण नहीं करना चाहिये। इसी प्रकार पहले के अनुसार नाप से गड्ढा खोद कर उसमें जल भरते हैं, यदि जल उसमें तत्काल शोषित न हो तो उत्तम और यदि तत्काल शोषित हो जाए तो समझें कि भूमि अधम है। भूमि के खुदाई में यदि हड्डी, कोयला इत्यादि मिले तो ऐसे भूमि पर भवन नहीं बनाना चाहिए।
यदि खुदाई में ईंट पत्थर निकले तो ऐसा भूमि लाभ देने वाला होता है। भूमि का परीक्षण बीज बोकर भी किया जाता है। जिस भूमि पर वनस्पति समय पर उगता हो और बीज समय पर अंकुरित होता हो तो वैसा भूमि उत्तम है। जिस भूखंड पर थके होकर व्यक्ति को बैठने से शांति मिलती हो तो वह भूमि भवन निर्माण करने योग्य है। वास्तु शास्त्र में भूमि के आकार पर भी विशेष ध्यान रखने को कहा गया है
वर्गाकार भूमि सर्वोत्तम, आयताकार भी शुभ होता है। इसके अतिरिक्त सिंह मुखी एवं गोमुखि भूखंड भी ठीक होता है। सिंह मुखी व्यावसायिक एवं गोमुखी आवासीय दृष्टि उपयोग के लिए ठीक होता है। किसी भी भवन में प्राकृतिक शक्तियों का प्रवाह दिशा के अनुसार होता है अतः यदि भवन सही दिशा में बना हो तो उस भवन में रहने वाला व्यक्ति प्राकृतिक शक्तियों का सही लाभ उठा सकेगा, किसकी भाग्य वृद्धि होगी।
किसी भी भवन में कक्षों का दिशाओं के अनुसार स्थान इस प्रकार होता है जैसे :-
पूजा कक्ष - ईशान कोण, स्नान घर- पूर्व रसोई घर-आग्नेय, मुखिया का शयन कक्ष- दक्षिण, युवा दम्पति का शयन कक्ष वायव्य कोण एवं उत्तर के बीच, बच्चों का कक्ष वायव्य एवं पश्चिम, अतिरिक्त कक्ष- वायव्य, भोजन कक्ष-पश्चिम अध्ययन कक्ष- पश्चिम एवं र्नैत्य कोण के बीच, कोषागार- उत्तर एवं स्टोर- र्नैत्य कोण जल कूप या बोरिंग-उत्तर दिशा या ईशान कोण, सीढ़ी घर - र्नैत्य कोण, जल कूप या बोरिंग - उत्तर दिशा या ईशान कोण, सीढ़ी घर- नै र्त्य कोण, शौचालय- पश्चिम या उत्तर पश्चिम (वायव्य) अविवाहित कन्याओं के लिये शयन कक्ष-वायव्य। भवन में सबसे आवश्यक कक्ष पूजा घर है।
ईशान कोण पूर्व एवं उत्तर से प्राप्त होने वाली उर्जा का क्षेत्र है। इस कोण के अधिपति शिव हैं, जो व्यक्ति को मानसिक शक्ति प्रदान करते हैं। प्रातः कालीन सूर्य की किरणें सर्वप्रथम ईशान कोण पर पड़ती है। इन किरणों में निहित अल्ट्रॉवायलेट किरणों में इतनी शक्ति होती है कि वे स्थान को कीटाणुमुक्त कर पवित्र बनाते हैं। पवित्र स्थान पर पूजा करने से व्यक्ति का ईश्वर के साथ तादात्म्य स्थापित होता है जिससे शरीर में स्फूर्ति, शक्ति का संचार होता है साथ ही भाग्य बली होता है।
आग्नेय कोण में अग्नि के देवता के स्थित होने से भोजन को तैयार करने में सहायता मिलती है एवं भोजन स्वादिष्ट होता है। भोजन बनाते समय गृहणी का मुख पूर्व दिशा में होना चाहिये इसका कारण यह है कि पूर्व दिशा से आने वाली सकारात्मक ऊर्जा गृहणी को शक्ति प्रदान करती है।
ईशान कोण में रसोई नहीं होना चाहिए, क्योंकि यह जल के क्षेत्र हैं। जल तथा अग्नि में परस्पर शत्रुता है। र्नैत्य कोण में रसोई बनाने से परस्पर शत्रुता पारिवारिक कष्ट एवं अग्नि से दुर्घटनाओं का भय तथा जन-धन की हानि होती है। दक्षिण दिशा के स्वामी यम हैं तथा ग्रह मंगल हैं। यम का स्वभाव आलस्य एवं निद्रा को उत्तन्न करता है। सोने से पहले मनुष्य के शरीर से आलस्य एवं निद्रा की उत्पत्ति होने से मनुष्य को अच्छी नींद आती है। भरपूर नींद के बाद शरीर फिर से तरोताजा हो जाता है। इसीलिए परिवार के मुखिया का शयन कक्ष दक्षिण दिशा में होना चाहिए।
अतिथि गृह का वायव्य कोण में होना लाभप्रद है। इस दिशा के स्वामी वायु होते हैं तथा ग्रह चंद्रमा। वायु एक जगह नहीं रह सकते तथा चंद्रमा का प्रभाव मन पर पड़ता है। अतः वायव्य कोण में अतिथि गृह होने पर अतिथि कुछ ही समय तक रहता है तथा पूर्व आदर-सत्कार पाकर लौट जाता है, जिससे परिवारिक मतभेद पैदा नहीं होते।
वास्तु शास्त्र के आर्षग्रन्थों में बृहत्संहिता के बाद वशिष्ठसंहिता की भी बड़ी मान्यता है तथा दक्षिण भारत के वास्तु शास्त्री इसे ही प्रमुख मानते हैं। इस संहिता ग्रंथ के अनुसार विशेष वशिष्ठ संहिता के अनुसार अध्ययन कक्ष निवृत्ति से वरुण के मध्य होना चाहिए। वास्तु मंडल में निऋति एवं वरुण के मध्य दौवारिक एवं सुग्रीव के पद होते हैं। दौवारिक का अर्थ होता है पहरेदार तथा सुग्रीव का अर्थ है सुंदर कंठ वाला। दौवारिक की प्रकृति चुस्त एवं चौकन्नी होती है। उसमें आलस्य नहीं होती है। अतः दौवारिक पद पर अध्ययन कक्ष के निर्माण से विद्यार्थी चुस्त एवं चौकन्ना रहकर अध्ययन कर सकता है तथा क्षेत्र विशेष में सफलता प्राप्त कर सकता है।
पश्चिम एवं र्नैत्य कोण के बीच अध्ययन कक्ष के प्रशस्त मानने के पीछे एक कारण यह भी है कि यह क्षेत्र गुरु, बुध एवं चंद्र के प्रभाव क्षेत्र में आता है। बुध बुद्धि प्रदान करने वाला, गुरु ज्ञान पिपासा को बढ़ाकर विद्या प्रदान करने वाला ग्रह है।चंद्र मस्तिष्क को शीतलता प्रदान करता है। अतः इस स्थान पर विद्याभ्यास करने से निश्चित रूप से सफलता मिलती है। टोडरमल ने अपने 'वास्तु सौखयम्' नामक ग्रंथ में वर्णन किया है कि उत्तर में जलाशय जलकूप या बोरिंग करने से धन वृद्धि कारक तथा ईशान कोण में हो तो संतान वृद्धि कारक होता है। राजा भोज के समयंत्रण सूत्रधार में जल की स्थापना का वर्णन इस प्रकार किया-'पर्जन्यनामा यश्चाय् वृष्टिमानम्बुदाधिप'। पर्जन्य के स्थान पर कूप का निर्माण उत्तम होता है, क्योंकि पर्जन्य भी जल के स्वामी हैं।

विश्वकर्मा भगवान ने कहा है कि र्नैत्य, दक्षिण, अग्नि और वायव्य कोण को छोड़कर शेष सभी दिशाओं में जलाशय बनाना चाहिये। तिजोरी हमेशा उत्तर, पूर्व या ईशान कोण में रहना चाहिए। इसके अतिरिक्त आग्नेय दक्षिणा, र्नैत्य पश्चिम एवं वायव्य कोण में धन का तिजोरी रखने से हानि होता है। ड्राईंग रूम को हमेशा भवन के उत्तर दिशा की ओर रखना श्रेष्ठ माना गया है, क्योंकि उत्तर दिशा के स्वामी ग्रह बुध एवं देवता कुबेर हैं। वाणी को प्रिय, मधुर एवं संतुलित बनाने में बुध हमारी सहायता करता है। वाणी यदि मीठी और संतुलित हो तो वह व्यक्ति पर प्रभाव डालती है और दो व्यक्तियों के बीच जुड़ाव पैदा करती है।
र्नैत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में वास्तु पुरुष के पैर होते हैं। अतः इस दिशा में भारी निर्माण कर भवन को मजबूती प्रदान किया जा सकता है, जिससे भवन को नकारात्मक शक्तियों के प्रभाव से बचाकर सकारात्मक शक्तियों का प्रवेश कराया जा सकता है। अतः गोदाम (स्टोर) एवं गैरेज का निर्माण र्नैत्य कोण में करते हैं।
जिस भूखंड का ईशान कोण बढ़ा हुआ हो तो वैसे भूखंड में कार्यालय बनाना शुभ होता है। वर्गाकार, आयताकार, सिंह मुखी, षट्कोणीय भूखंड पर कार्यालय बनाना शुभ होता है। कार्यालय का द्वार उत्तर दिशा में होने पर अति उत्तम होता है। पूर्वोत्तर दिशा में अस्पताल बनाना शुभ होता है।
रोगियों का प्रतीक्षालय दक्षिण दिशा में होना चाहिए। रोगियों को देखने के लिए डॉक्टर का कमरा उत्तर दिशा में होना चाहिए। डॉक्टर मरीजों की जांच पूर्व या उत्तर दिशा में बैठकर करना चाहिए। आपातकाल कक्ष की व्यवस्था वायव्य कोण में होना चाहिए। यदि कोई भूखंड आयताकार या वर्गाकार न हो तो भवन का निर्माण आयताकार या वर्गाकार जमीन में करके बाकी जमीन को खाली छोड़ दें या फिर उसमें पार्क आदि बना दें। भवन को वास्तु के नियम से बनाने के साथ-साथ भाग्यवृद्धि एवं सफलता के लिए व्यक्ति को ज्योतिषीय उपचार भी करना चाहिए।
सर्वप्रथम किसी भी घर में श्री यंत्र एवं वास्तु यंत्र का होना अति आवश्यक है। श्री यंत्र के पूजन से लक्ष्मी का आगमन होता रहता है तथा वास्तु यंत्र के दर्शन एवं पूजन से घर में वास्तु दोष का निवारण होता है। इसके अतिरिक्त गणपति यंत्र के दर्शन एवं पूजन से सभी प्रकार के विघ्न-बाधा दूर हो जाते हैं। ज्योतिष एवं वास्तु एक-दूसरे के पूरक हैं। बिना प्रारंभिक ज्योतिषीय ज्ञान के वास्तु शास्त्रीय ज्ञान प्राप्त नहीं किया जा सकता और बिना 'कर्म' के इन दोनों के आत्मसात ही नहीं किया जा सकता। इन दोनों के ज्ञान के बिना भाग्य वृद्धि हेतु किसी भी प्रकार के कोई भी उपाय नहीं किए जा सकते।




आपके घर का वास्तु तो नहीं....आपके आपसी रिश्तों में तनाव का कारण

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अकसर परिवारों में सास-बहू, भाई-बहन, भाभी, माता-पिता के टकरावों के बारें में हम सुनते है. किसी परिचित परिवार में यदि ऐसा अलगाव दिखता है तो मन में बहुत दुःख होता है.किसी का वश नहीं चलता हम अपने ही सामने अपने मित्र या सम्बन्धी व रिश्तेदार का परिवार जो कुछ समय पहले शांत तथा मिलजुल के रहने वाला था किन्तु आज पल भर में ही बिखर गया.इसमें किस की गलती है या किस की नहीं यह तो सोचने से बाहर की बात हो गयी चाहे कुछ हो एक घर जो बड़ी मुश्किलों से बनता है आज उसे हम बिखरता हुआ देख रहे है.---
——-क्या कारण है कि पल भर में ही ऐसा हो रहा है. इसका उत्तर केवल वास्तु शास्त्र में ही वर्णित है यदि हम इस वास्तु के नियम अनुसार चलते है तो यह स्थिति पुनः नहीं दिखाई देगी. और सास-बहू के रिश्तों को मधुर बनाया जा सकता है. जन्मकुंडली के मिलान के समय हम केवल युवक एवं युवती की राशि,नक्षत्र व गण भकूट और नाडी का ही मिलान करते है किन्तु परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मिलान की व्यवस्था हमारे पास उपलब्ध नही है. इसी कारण से हम विपरीत परिणाम देखते है.
नये मकान के निर्माण की जानकारी देने के लिए, प्लॉट की दिशाओं का सही निर्धारण करने के साथ, प्लॉट के आस-पास की भौगोलिक वास्तु स्थिति, निर्माण करवाते समय आप जिस मकान में रह रहे हैं, उस मकान की वास्तु स्थिति तथा आपकी आर्थिक सामर्थ्य एवं आवश्यक्ताओं का भी ध्यान रखना पड़ता है।
मकान का निर्माण अगर वास्तु के सिद्धांतों के विपरीत हो गया तो, उस नव-निर्मित मकान में पैदा होने वाले वास्तु-दोषों के दुष्परिणाम, उस मकान में निवास करने वालों के जीवन को समस्याग्रस्त स्थिति में परिवर्तित कर देंगे, क्योंकि आपका वर्तमान और भविष्य, आपके मकान की वास्तु के आधार पर ही प्रभावित होगा।
मकान जीवन में बार-बार नहीं बनाए जाते हैं, अत: इतना चिंतन अवश्य करें कि मकान के निर्माण में एक कुशल व अनुभवी वास्तु विशेषज्ञ का मार्गदर्शन आपके जीवन में सुख-समृद्धि लाने में सक्षम होगा।
आज के भौतिक संसार में मनुष्य अध्यात्म को छोड़कर भौतिक सुखों के पीछे भाग रहा है। समय के अभाव ने उसे रिश्तों के प्रति उदासीन बना दिया है। किंतु आज भी मनुष्य अपने घर में संसार के सारे सुखों को भोगना चाहता है। इसके लिए हमें वैवाहिक जीवन को वास्तु से जोड़ना होगा।
—-वास्तु शास्त्र के नियम अनुसार घर / भवन में पारिवारिक सदस्यों को कहां कहां रहना व सोना चाहिए जिससे उनके आपस में सम्बन्ध मधुर हो. वास्तु शास्त्र के नियम अनुसार परिवार का मुखिया दक्षिण-पश्चिम कोण में सोना चाहिए.इस कोण में होने से आत्म विशवास बड़ता है. तथा वह निर्णय लेने में समर्थ होता है दक्षिण में सिर करके होने से व्यक्ति में नेतृत्व कि क्षमता बडती है.यदि दक्षिण में सिर करने की सुविधा न हो तो पूर्व दिशा में सिर करके तथा पश्चिम में पैर करके भी शयन किया जा सकता है.
—-परिवार का जो भी सदस्य यदि दक्षिण-पश्चिम में निवास करता है तो वह घर में प्रभावशाली हो जाता है अत: स्पष्ट है कि घर के मुखिया उसकी स्त्री को घर के दक्षिण-पश्चिम में निवास करना चाहिये. तथा कनिष्ठ स्त्री-पुरुष, देवरानिया या बहू को शयन नहीं करना चाहिये.
—–जो स्त्रियां घर के वायव्य उत्तर-पश्चिम कोण में शयन / निवास करती है उनके मन में उच्चाटन का भाव आने लगता है वह अपने अलग से घर बसाने के सपने देखने लगती है. इस लिए इस कोण में अविवाहित कन्याओं को निवास करना शुभ होता है जिससे उनका विवाह शीघ्र हो.
—वायव्य कोण में नई दुल्हन को तो बिलकुल मत रखे इससे उसका परिवार के साथ अलगाव रहेगा.
—-वास्तु शास्त्र के नियम अनुसार दक्षिण-पश्चिम कोण दिशा घर की सबसे शक्तिशाली होती है इसमें सास को सोना चाहिए अगर सास ना हो तो घर की बड़ी बहू को सोना चाहिए उससे छोटी को पश्चिम दिशा में रहना चाहिए उससे भी छोटी तीसरे नम्बर की बहु को पूर्व दिशा में शयन करना चाहिए यदि और भी चोटों बहू हो तो उसे ईशान कोण में निवास रखना चाहिए.
—–अगर आपका पूजा घर सीढियों के निचे बना हुआ है तो बहुत गलत है,इसके क्या दुषप्रभाव है जानिये —-
—-बहु और सास में झगडे होते हैं
—आपके पड़ोसियों से सम्बन्ध अच्छे नहीं रहेंगे
—आपके घर में शादी विवाह में रुकावट आएगी
—आपके घर में अशांति रहेगी,इस लिए सीढियों के निचे अपने घर में पूजा घर ना बनाइये
—दक्षिण में सोने वाली स्त्री को अपने पति के बायीं और शयन करना चाहिए अग्नि कोण में सोने वाली स्त्री को अपने पति के दायी और शयन करना चाहिए
—-ग्रहस्थ सांसारिक मामलों में पत्नी को हमेशा पति के बायीं और ही शयन करना चाहिए .
—परिवार की मुखिया सास या बड़ी बहू को कभी भी ईशान कोण में नहीं सोना चाहिए इससे परिवार में प्रभाव कम हो कर हास्यास्पद स्थिति रहती है वृद्धावस्था में अग्नि कोण में रह सकती है
—हमेशा इस बात का ध्यान रखे कि उत्तराभिमुख घर में उत्तर दिशा से ईशान कोण तक, पूर्वाभिमुख घर में पूर्व दिशा मध्य से अग्नि कोण पर्यन्त, दक्षिणाभिमुख मकान में दक्षिण दिशा मध्य से दक्षिण-पश्चिम कोण तक तथा —-पश्चिम मुख मकानों में पश्चिम दिशा से वायव्य कोण तक यदि बाह्य द्वार न रखा जाय तो घर की सभी स्त्रियां आपस में समन्वय व प्रेम की और अग्रसर हो कर सुख की अनुभूति करती है तथा परिवार में सुख समृधी बडती है.
—यही कारण हें कि आज के युग में यदि हम प्रक्टिकल वास्तु अपनाते है तो जीवन में किसी भी प्रकार के कष्ट से बिना यंत्र-मन्त्र-तंत्र से छुटकारा पा कर उन्नति के मार्ग में चल सकते है.

सास-बहु के बीच कलेश दूर करने के उपाय——
—आपस में शांति/सुलह हेतु उपाय——
------गाय के गोबर का दीपक बनाकर उसमें गुड़ तथा मीठा तेल डालकर जलाएं। फिर इसे घर के मुख्य द्वार के मध्य में रखें। इस उपाय से भी घर में शांति बनी रहेगी तथा समृद्धि में वृद्धि होगी।
—— एक नारियल लेकर उस पर काला धागा लपेट दें फिर इसे पूजा स्थान पर रख दें। शाम को उस नारियल को धागे सहित जला दें। यह टोटका 9 दिनों तक करें।
—- घर में तुलसी का पौधा लगाएं तथा प्रतिदिन इसका पूजन करें। सुबह-शाम दीपक लगाएं। इस उपाय को करने से घर में सदैव शांति का वातावरण बना रहेगा।
—– अगर घर में सदैव अशांति रहती हो तो घर के मुख्य द्वार पर बाहर की ओर श्वेतार्क (सफेद आक के गणेश) लगाने से घर में सुख-शांति बनी रहेगी।
—- यदि किसी बुरी शक्ति के कारण घर में झगड़े होते हों तो प्रतिदिन सुबह घर में गोमूत्र अथवा गाय के दूध में गंगाजल मिलाकर छिड़कने से घर की शुद्धि होती है तथा बुरी शक्ति का प्रभाव कम होता है।
—-घर के बर्तन के गिरने टकराने की आवाज न आने दें।
—-घर सजाकर सुन्दर रखें।
—-बहू को चाहिए की सूर्योदय से पहले घर में झाडू लगाकर कचड़े को घर के बाहर फेंके।
—-पितरों का पूजन करें।
—-प्रतिदिन पहली रोटी गाय को एवं आखरी रोटी कुत्ते को खिलाऐं।
—-ओम् शांति मन्त्र का जाप सास-बहू दोनों 21 दिन तक लगातर 11-11 माला करें।
—-रोटी बनाते समय तवा गर्म होने पर पहले उस पर ठंडे पानी के छींटे डाले और फिर रोटी बनाएं।

वास्तुदेवता सभी देवशक्तियों का स्वरूप होने से ही नियमित देव पूजा में विशेष मंत्र से वास्तुदेव का ध्यान वास्तु दोष को दूर करने के लिए आसान उपाय माना गया है, जो घर में बिना किसी तोड़-फोड़ किए भी कारगर हो सकता है। जिसे इस तरह अपनाएं –
हर रोज इष्ट देव की पूजा के दौरान हाथों में सफेद चन्दन लगे सफेद फूल व अक्षत लेकर वास्तुदेव का नीचे लिखे वेद मंत्र से ध्यान कर घर-परिवार से सारे कलह, संकट व दोष दूर करने की कामना करें व फूल, अक्षत इष्टदेव को चढ़ाकर धूप, दीप आरती करें –
वास्तोष्पते प्रति जानीह्यस्मान् त्स्वावेशो अनमीवो: भवान्।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्व शं नो भव द्विपदे शं चतुष्पदे।।
ऋग्वेद के इस मंत्र का सरल शब्दों में अर्थ है – हे वास्तु देवता, हम आपकी सच्चे हृदय से उपासना करते हैं। हमारी प्रार्थना को सुन आप हमें रोग-पीड़ा और दरिद्रता से मुक्त करें। हमारी धन-वैभव की इच्छा भी पूरी करें। वास्तु क्षेत्र या घर में रहने वाले सभी परिजनों, पशुओं व वाहनादि का भी शुभ व मंगल करें।
यदि आप अपने जीवन को सुखद एवं समृद्ध बनाना चाहते हैं और अपेक्षा करते हैं कि जीवन के सुंदर स्वप्न को साकार कर सकें। इसके लिए पूर्ण निष्ठा एवं श्रद्धा से वास्तु के उपायों को अपनाकर अपने जीवन में खुशहाली लाएं..
यदि आप भी परेशान हैं तो एक बार अपने घर के वास्तु दोषों पर ध्यान देकर जरुर विचार करें।

घर बनाते समय वास्तु शास्त्र का ध्यान अवस्य रखें



आजकल सभी शहरों में बढ़ती हुई आबादी और जगह की कमी की वजह से वास्तुशास्त्रोक्त भूमि तथा भवन का प्राप्त होना लगभग असंभव-सा होता है।अनेक शहरों में विकास प्राधिकरणों द्वारा दिए जा रहे प्लॉट या फ्लैट पूरी तरह से वास्तु के अनुसार नहीं होते हैं। इन प्लॉटों या फ्लैटों में वास्तुशास्त्रोक्त सभी कक्षों का निर्माण भी सम्भव नहीं होता है। अतः न्यूनतम कक्षों में भी वास्तुशास्त्रीय दृष्टि से लाभ प्राप्त करने के लिए गृह की आंतरिक सज्जा में किस कक्ष में क्या व्यवस्था होनी चाहिए...आइए जानें कि वास्तु के अनुसार हमारे घर की कौन सी दीवार किस रंग की होनी चाहिए, जिससे हमें समृद्धि और सकारात्मक उर्जी मिलती रहे।

घर केवल ईंट, चूने और पत्थर की आकृति वाले घरौंदे का नाम ही नहीं है। 'घर' का अर्थ उस स्थान से है जहाँ परिवार चैन-सुकून की तलाश करता है। यदि वास्तु को ध्यान में रखकर घर का निर्माण किया जाए तो वास्तुदोषों के दुष्परिणामों से बचा जा सकता है। घर की  साज-सज्जा में वास्तुशास्त्र की महत्वपूर्ण भूमिका है। घर का इंटीरियर डेकोरेशन करते समय घर के भीतरी दीवारो के रंग-संयोजन, पर्दो के डिजाइन, फर्नीचर, कलाकृतियां, पेंटिंग, इनडोर प्लांट्स, वॉल टाइल्स, सीलिंग का पीओपी, अलमारियां और फैंसी लाइट आदि को वास्तु के अनुरूप ही बना सकें तो यह एक पूर्ण वास्तु की स्थिति होगी।

वर्तमान के बदलते दौर में वास्तु का महत्व दिन-ब-दिन बढ़ता जा रहा है। आजकल कई बड़े-बड़े बिल्डर व इंटीरियर डेकोरेटर भी घर बनाते व सजाते समय वास्तु का विशेष ध्यान रखते हैं। वास्तु के अनुसार ही वे कमरे की बनावट, उनमें सामानों की साज-सज्जा करते हैं। इससे घर की खूबसूरती बढ़ने के साथ-साथ सकारात्मक ऊर्जा का भी प्रवाह होता है।एक सामान्य से घर को वास्तु के इतने जटिल नियमों में बाँध दिया जाता है कि जिन्हें पढ़कर मनुष्य न केवल भ्रमित हो जाता है वरन जिनके घर पूर्णत: वास्तु अनुसार नहीं होते, वे शंकाओं के घेरे में आ जाते हैं। ऐसे मनुष्य या तो अपना घर बदलना चाहते हैं या शंकित मन से घर में निवास करते हैं। वास्तु विज्ञान का स्पष्ट अर्थ है चारों दिशाओं से मिलने वाली ऊर्जा तरंगों का संतुलन। यदि ये तरंगें संतुलित रूप से आपको प्राप्त हो रही हैं, तो घर में स्वास्थ्य व शांति बनी रहेगी। अत: ढेरों वर्जनाओं में बँधने की बजाय दिशाओं को संत‍ुलित करें तो लाभ मिल सकता है।

ध्यान रखें की वास्तु से पहले वातावरण के हिसाब से घर की प्लॅनिंग होनी चाहिये. किचन और टाय्लेट को हमेशा एक बाहरी दीवार मिलनी चाहिये ताकि प्रॉपर वेंटिलेशन होती रहे. आपके घर को धूप प्रॉपर मिलनी चाहिये ताकि कीटाणु का नाश होता रहे, इत्यादि. इसके बाद वास्तु नियमो को लागु करें.

हर व्यक्ति अपने घर को खूबसूरत रखना चाहता है। करीने से सजा हुआ घर के व्यक्तित्व में चार चांद लगा देता है, सुंदर घर सभ्य और सुशिक्षित होने का सबूत है। आज के युवा ड्राइंग रूम और लिविंग रूम को सजाने में काफी दिलचस्पी लेने लगे हैं। घर को सजाना कोई फैशन नहीं है, बल्कि एक जरूरत है।घर की सजावट और इंटीरियर में दीवारों के रंग और पर्दों की अहम भूमिका है। अलग-अलग रंग के पर्दे घर को खूबसूरत तो बनाते ही हैं, घर में पॉजिटिव एनर्जी बनाए रखने में भी मदद करते हैं। उसी तरह घर के हर कमरे का उद्देश्य अलग-अलग होता है इसलिए घर के सभी कमरों में एक ही रंग की पुताई नहीं करवानी चाहिए।

बिना सोचे-विचारे मकान बनवाने पर उसमें भूल या परिस्थितिवश कुछ वास्तुदोष रह जाते  हैं। जिनका असर हमारे जीवन पर पड़ता है। वास्तु शास्त्रियों के अनुसार कुछ मामूली परिवर्तन कर इन वास्तु दोषों को समाप्त किया जा सकता है। इन दोषों के निवारण के लिए यदि आप  उपाय कर लें, तो बिना तोड़-फोड़ के ही वास्तुजनित दोषों से निजात पा सकते हैं।

आपकी जानकारी के लिए यहाँ पर वास्तुदोष का निवारण के उपाय दिये जा रहें है इसे अपना कर के, आप अपने घर के वास्तु दोषों को दूर कर के अपने यहाँ मंगलमय वातावरण कर सकते हैं...घर में वास्तुदोष होने पर, उचित यही होता है कि उसे वास्तुशास्त्र के अनुसार ठीक कर ले, यथासंभव घर के अंदर तोड़-फोड ना करे; इससे वास्तुभंग का दोष होता है। यदि हम घर की सजावट, रंग-रोगन आदि ज्योतिष एवं वास्तु के नियमों के अनुसार करें तो घर की सुंदरता तो बढ़ेगी ही, हमारे घर-आंगन में खुशियां भर जाएंगी।
---सबसे पहले ध्यान रखें-पर्दे हमेशा दो परतों वाले लगाने चाहिए।
--कमरों में रंगों की बात करें तो बेडरूम में मानसिक शांति और रिश्तों में मधुरता बनी रहे इसके लिए गुलाबी, आसमानी या हल्के हरा रंग की पुताई करवा सकते हैं।
--पूर्व दिशा का कमरा हो तो हरे रंग के पर्दे बेहतर रहते हैं।
---यदि पर्दे पश्चिम दिशा में लगाने हों तो सफेद रंग के पर्दे लगाना ठीक रहता है।
---उत्तर दिशा के कमरे में नीले रंग के पर्दे लगाने चाहिए..
----शौचालय और स्नान गृह के लिए सफेद या हल्का नीला रंग अनुकूल है।
---कैसा होबैठक कक्ष या ड्राइंग रूम ---इस रम में क्रीम, सफेद या भूरा रंग प्रयोग किया जा सकता है।इस कक्ष की दीवारों का हल्का नीला, आसमानी, पीला, क्रीम या हरे रंग का होना उत्तम होता है।घर का यह कमरा अत्यंत महत्वपर्ण है। इस कक्ष में फर्नीचर, शो केस तथा अन्य भारी वस्तुएं दक्षिण-पश्चिम या नैऋत्य में रखनी चाहिए। फर्नीचर रखते समय इस बात का ध्यान रखे कि घर का मालिक बैठते समय पूर्व या उत्तर की ओर मुख करके बैठे। इस कक्ष में यदि कृत्रिम पानी का फव्वारा या अक्वेरियम रखना हो तो उसे उत्तर-पूर्व कोण में रखना चाहिए। टीवी दक्षिण-पश्चिम या अग्नि कोण में रखा जा सकता है। बैठक में ही मृत पूर्वजों के चित्र दक्षिण या पश्चिमी दीवार पर लगाना चाहिए।ड्राइंग रूम में सभी फर्नीचर लकड़ी के बने होने चाहिए। लकड़ी से बने हुए ऐसे फर्नीचर जिनके कोने तीखे न होकर चौड़ी गोलाई लिए हुए हों वास्तु सम्मत होंगे। वायव्य दिशा में बने ड्राइंग रूम में हलका हरा, हलका स्लेटी, सफेद या क्रीम रंग का प्रयोग किया जाना चाहिए। यदि ड्राइंग रूम में उत्तर दिशा में खिड़कियां-दरवाजे हों तो उन पर हरे आधार पर बने नीले डिजाइन जिसमें कि जल की लहरों जैसी डिजाइन के पर्दे होने चाहिए। ऐसे हलके और बिना लाइनिंग वाले पर्दो का प्रयोग सर्वोत्तम होता है। ड्राइंग रूम में गृहस्वामी की कुर्सी या बैठने का स्थान कुछ इस प्रकार होना चाहिए कि बैठने पर उसका मुख सदा पूर्व अथवा उत्तर की ओर हो।
---दक्षिण दिशा के कोने का कमरा हो तो लाल रंग के पर्दे उपयुक्त रहते हैं।
---रसोई घर के लिए लाल और नारंगी शुभ रंग माना जाता है।
---कैसा हो छत:----कुछ लोग अपने घर की छत को गुलाबी, पीला, नीला आदि रंगों से रंगना पसंद करते हैं, लेकिन यदि आप अपने घर की छत को कोई ऐसा वैसा रंग देने जा रहे हैं तो रुक जाएं, क्योंकि वास्तु के अनुसार छतों का रंग सफेद ही सर्वोत्तम माना गया है। कहते हैं यह स्थान ब्रह्मस्थान की भूमिका निभाती है और इससे घर में पॉजिटिव एनर्जी आती है।
--कैसा हो शयन कक्ष :---- शयन कक्ष में कभी भी देवी-देवताओं या पूर्वजों के चित्र नहीं लगाने चाहिए। इस कक्ष में पलंग दक्षिणी दीवारों से सटा होना चाहिए। सोते समय सिर दक्षिण या पूर्व दिशा में होना चाहिए। ज्ञान प्राप्ति के लिए पूर्व की ओर तथा धन प्राप्ति के लिए दक्षिण की ओर सिर करके सोना प्रशस्त है। शयन कक्ष में सोते समय पैर दरवाजे की तरफ नहीं होना चाहिए। सोते समय जातक को कभी भी वास्तु पद में तिर्यक् रेखा में नहीं सोना चाहिए। ऐसा करने से जातक को गम्भीर बीमारियां हो जाती हैं। शयन कक्ष में दर्पण नहीं होना चाहिए, इससे परस्पर कलह होता है। बेडरूम की दीवार पर हमेशा हल्के रंगों का प्रयोग करें, वर्ना गहरे या चुभने वाले रंग आपकी लाइफ की उलझनें बढ़ा सकते हैं।इस कक्ष की दीवारों का रंग हल्का होना चाहिए।यहां की दीवारों पर पेस्टल या बहुत हलके रंगों का प्रयोग करना चाहिए। सफेद, क्रीम, ऑफ व्हाइट, आइवरी, क्रीम आदि रंग सभी दिशाओं में बने बेडरूम के लिए ठीक रहते है। नव-विवाहित दंपती के बेडरूम में हलका गुलाबी और बच्चों के कमरे में हलका बैगनी या हलके हरे रंग का भी प्रयोग कर सकती हैं। यहां पर सजावट के लिए प्रयोग किए जाने वाले इनडोर प्लांट बिलकुल नहीं होने चाहिए क्योंकि इन पौधों से रात को कार्बन-डाईआक्साइड निकालता है जो कि आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक होता है। इसी को वास्तु में नकारात्मक ऊर्जा का नाम दिया गया है। पति-पत्नी के कमरे में सुंदर शो-पीस या सौम्य पक्षियों की आकृति जैसे-लव-बर्ड को सदा जोड़े में ही रखना चाहिए। बेडरूम में कारपेट न हो तो अच्छा है।
यदि कोई नया शादीशुदा कपल हो तो वह बेडरूम के लिए दक्षिण-पश्चिम में मौजूद कमरे का इस्तेमाल करें। वैसे शादी के तुरंत बाद नॉर्थ-वेस्ट दिशा के कमरे उनके लिए बेहतर बताए गए हैं, लेकिन ज्यादा लंबे समय तक इस कमरे का इस्तेमाल उनके लिए सही नहीं। उनके कमरे की दीवार गुलाबी, हल्का बैंगनी आदि हो सकता है। इससे पॉज़िटिव एनर्जी का संचार होता है।

कैसा हो रसोईघर :------ रसोई गृह में भोजन बनाते समय गृहिणी का मुख पूर्व या उत्तर दिशा की तरफ होना चाहिए। बरतन, मसाले, राशन इत्यादि पश्चिम दिशा में रखने चाहिए। बिजली के उपकरण दक्षिण-पूर्व में रखने चाहिए। जूठे बरतन तथा चूल्हे की स्लैब अलग होनी चाहिए। रसोईघर में दवाइयां नहीं रखनी चाहिए। रसोईघर में काले रंग का प्रयोग नहीं करना चाहिए। यह हरा, पीला,क्रीम या गुलाबी रंग का हो सकता है।रसोईघर की स्लैब पर काले रंग के पत्थर प्रयोग न करे क्योंकि काला रंग शनि एवं अग्नि तत्व का द्योतक है और वास्तु में यह एक सुखद स्थिति नहीं है। किचन के दक्षिण पूर्व की स्लैब पर किसी कोने में हरे-भरे पौधे यहां पर ताजगी का एहसास कराते है एवं काष्ठ तत्व की उपस्थिति द्वारा इस क्षेत्र को सदैव कल्याणकारी बनाए रखते है। किचन की दीवारों पर गुलाबी या हलका रंग सर्वोत्तम है। किचेन में भगवान, परिवार सदस्यों, पूर्वजों आदि के चित्र न लगा कर सुंदर प्राकृतिक दृश्यों वाले लैंडस्केप का प्रयोग करना चाहिए।

कैसा हो पूजाघर :----- घर में पूजा घर या पूजा का स्थान ईशान कोण में होना चाहिए। माना जाता है कि इस कक्ष की दीवारों को हल्का नीला रंग से रंगना चाहिए, क्योंकि यह शांति, एकाग्रता का प्रतीक है।पूजा घर में मूर्तियां या फोटो इस तरह से रखनी चाहिए कि वे आमने-सामने न हों। घर में सार्वजनिक मंदिर की तरह पूजा कक्ष में गुम्बद, ध्वजा, कलश, त्रिशूल या शिवलिंग इत्यादि नहीं रखने चाहिए। मूर्तियां बार अंगुल से अधिक ऊंची नहीं रखना चाहिए। पूजा गृह शयन कक्ष में नहीं होना चाहिए। यदि शयनकक्ष में पूजा का स्थान बनाना मजबूरी हो तो वहां पर्दे की व्यवस्था करनी चाहिए। पूजा गृह हेतु सफेद, हल्का पीला अथवा हल्का गुलाबी रंग शुभ होता है।प्राय: पूजा के स्थान में लोग सजावट के लिए लाला रंग के बल्बों का प्रयोग करते है, जो सर्वथा अनुचित है। यहां नेचुरल सफेद, पीले या नीले रंग का प्रयोग करना चाहिए। साथ ही पूजा के कमरे की दीवारों को भी हलके नीले या पीले रंग से पेंट करवाना चाहिए। इस बात का हमेशा ध्यान रखें कि घर के पूजास्थल में भड़कीले रंगों के बजाय सौम्य रंगों का इस्तेमाल हो।

कैसा हो स्नानगृह तथा शौचालय :----- स्नानगृह की आंतरिक व्यवस्था में नल को पूर्व या उत्तर की दीवार पर लगाना चाहिए जिससे स्नान के समय मुख पूर्व या उत्तर दिशा में हो। स्नान घर में वॉश बेसिन ईशान या पूर्व में रखना चाहिए। गीजर, स्विच बोर्ड आदि अग्नि कोण में होना चाहिए। इन्हें स्नानगृह में दक्षिण पूर्व या उत्तर की दिवार में लगाना चाहिए। बाथटब इस प्रकार हो कि नहाते समय पैर दक्षिण दिशा में न हों। बाथरूम की दिवारों या टाइल्स का रंग हल्का नीला, आसमानी, सफेद या गुलाबी होना चाहिए। शौचालय में व्यवस्था इस प्रकार हो कि शौच में बैठते समय मुख दक्षिण या पश्चिम में हो। अन्य व्यवस्थाएं बाथरूम के समान रखनी चाहिए।

कैसा हो अध्ययन कक्ष :----- घर में अध्ययन का स्थान ईशान या पश्चिम मध्य में होना चाहिए। टेबल तथा कुर्सी इस प्रकार से रखने चाहिए कि पढ़ते समय मुख उत्तर या पूर्व दिशा में हो। पीठ के पीछे दीवार हो किन्तु खिड़की या दरवाजा न हो तथा बीम के नीचे न हो। बच्चों का कमरा (स्टडी रूम) हल्का बैंगनी, हल्का हरा या गुलाबी रखें। गहरे रंग का इस्तेमाल यहां सही नहीं होता। इससे बच्चों की एकाग्रत और मनन में बाधा आती है। अध्ययन कक्ष में किताब रखने की आलमारी दक्षिणी दीवार पर या पश्चिम दीवार पर होनी चाहिए। आलमारी कभी भी नैऋत्य या वायव्य कोण में नहीं होनी चाहिए। अध्ययन कक्ष का रंग हल्का हरा, बादामी, हल्का आसमानी या सफेद रखना अच्छा होता है। इसी प्रकार से जातक के राशि के रंगों के अनुसार गृह में रंगों का प्रयोग पर्दे,चादर इत्यादि में कभी किया जा सकता है। पढ़ने के क्षेत्र के आसपास टूटी-फूटी चीजें, गंदगी, जूते आदि नहीं होने चाहिए। किताबों की अलमारी कमरे की दक्षिण या पश्चिम की दीवार पर होनी चाहिए। बच्चों को सोते समय पूर्व अथवा दक्षिण में सिर रखकर सोना चाहिए।

यह रखें सावधानी---
घर को खूबसूरत बनाने में परदों और दीवारों के कलर्स का विशेष महत्व है। यदि आप एलआईजी और एमआईजी टाइप घरों में रहते हैं  तो ज्यादा प्रयोग करने से बचें। एलआईजी और एमआईजी टाइप घरों के लिए यह जरूरी है कि आप दीवारों का रंग सफेद रखें, ताकि आप जिस भी रंग के परदे लगाएं वह उससे मेल खा सकें। यदि सफेद रंग पसंद नहीं है तो हल्के रंगों का उपयोग करें। लिविंग रूम में आप स्ट्राइप्स या चेक वाले परदे लगाएं, यह ज्यादा महंगे भी नहीं है।

ड्राइंग रूम में एक ही रंग के परदे लगाएं, यह बेहतर लुक देंगे। यहां गहरे रंग का कालीन बिछा दें, साथ ही सोफे पर कुशन सजा दें। इस बजट में फर्नीचर और बहुत ज्यादा एसेसरीज बदल पाना संभव नहीं होगा। दीवारों के रंगों के लिए भी महंगे पेंट्स के बजाए डिस्टेंपर यूज में लाएं।

एचआईजी टाइप घरों के लिए  परदों के साथ ही दीवारों के कलर्स में भी प्रयोग किए जा सकते हैं। इसमें आप दो लेयर वाले परदे से लेकर जूट और सिल्क के परदे तक चयन कर सकते हैं यह बड़े कमरों में अलग ही लुक देंगे। वहीं, फेब्रिक में कॉटन, सिल्क और लेदर ट्रेंडी लगेंगे। फर्नीचर के लिए गहरे रंगों में सिल्क फैब्रिक को प्राथमिकता दें। वहीं, दीवारों को आकर्षक बनाने के लिए पेंटिंग से हटकर सुंदर और आकर्षक वालपेपर्स का उपयोग करें। फर्श को रॉयल लुक देने के लिए प्लास्टिक बेस फ्लोरिंग उपयोग में लाएं। इस बजट में प्लास्टिक पेंट भी बेहतर ऑप्शन हैं।

डिजाइनदार कुशन देंगे नया लुक-----
कमरे में यदि फर्नीचर की संख्या कम है और वह खाली-खाली लग रहें हो तो अलग-अलग डिजाइन के कुशन उपयोग में लाए जा सकते हैं। एलआईजी व एमआईजी टाइप कमरों में छोटे-ब़ड़े आकार के मिले-जुले कुशन एथनिक लुक देंगे। ये कुशन आजकल मिरर वर्क, क़ढ़ाई, बीड वर्क, एप्लिक वर्क, डोरी वर्क आदि में आते हैं।

घर की सुंदरता के लिए आप जमीन में रखने वाले कुशन भी ले सकते हैं। घर की सजावट में आप पेंटिंग भी शामिल कर सकते हैं। यह बहुत ज्यादा महंगे नहीं होते। वहीं, एचआईजी मकानों के लिए ट्रेंडी कारपेट, रग्स और कालीन उपयोग में लाए जा सकते हैं। लिविंग रूम बड़ा है तो इसमें स्टैचू रखे जा सकते हैं। वाटर फाउंटेन डेकोरेटिव पीस भी ट्राई कर सकते हैं।

किचन को दें मॉड्यूलर अंदाज------
मॉडयूलर किचन की चाहत तो आपकी भी होगी। चूंकि इस बजट में किचन को मॉड्यूलर नहीं बनाया जा सकता, इसलिए डिश रैक्स, हुक्स, वायरिंग केसेस व बॉक्स आदि ऐसेसरीज बाजार से खरीद लाएं जो किचन को मॉडयूलर लुक देंगे। आप इन्हें ट्राई कर सकते हैं।

सजावटी समान----
इंटीरियर में सजावटी वस्तुओं का भी विशेष महत्व है। खासकर ग्लास और ब्रास की बनी चीजें इंटीरियर पर चार चांद लगा देती हैं। इसमें भी महंगे स्पेशल पीस को हाइलाइट करने के लिए उसमें लाइटिंग इफेक्ट दिया जा सकता है। घर की सजावट में एंटीक और आर्ट पीसेज को शामिल करें। लक़ड़ी और मेटल से बनी वस्तुएं भी शामिल की जा सकती हैं। रोशनी के लिए डेकोरेटिव टेबल लैंप और स्टैंडिंग लैंप लगाएं। सिल्क प्लांट भी लगा सकते हैं, यह देखने में खूबसूरत, सस्ते और टिकाऊ होते हैं। घर के अंदर यदि सीढ़‍ियां है तो हैंगिंग गार्डन या गमला रखा जा सकता है।

लाइटिंग----
होम डेकोरेशन में लाइटिंग काफी महत्वपूर्ण है, लेकिन इसमें ध्यान रखने वाली बात यह है कि यह क्लासी होने के साथ-साथ हैवी न हो। घर कैसा भी क्यों न हो इसमें बेडरूम यह घर का मुख्य भाग होता है। इसलिए, बेडरूम के लिए सॉफ्ट शूदिंग रोशनी ही चुनें। इससे आप रिलेक्स महसूस करेंगे और आपका मन प्रसन्नता का अनुभव करेगा।

बेड, कबर्ड और आइने के लिए अलग-अलग लाइट रखें। लिविंग रूम में फोकल लाइटिंग का इस्तेमाल करें। घर के किसी कोने को उभारने के लिए ट्रेक लाइट उपयोग में लाएं। स्टाइलिश लुक के लिए फेयरी लाइट्स बेहतर है। यदि आप झूमर लगा रहे हैं तो इसके साथ दूसरे लाइट उपयोग न करें। किचन में हमेशा व्हाइट लाइट का ही उपयोग करें, ताकि देखने में आसानी हो। डायनिंग रूम में कभी भी ब्राइट कलर की लाइट न लगाएं

वास्तुशास्त्र के इन सामान्य सूत्रों के प्रयोगकर आप अपने जीवन में अधिक वैभव,सुख एवं लाभ प्राप्त कर सकतें  हैं।

वास्तु के अनुसार बनवाएँ अपने बच्चों का कमरा



किसी भी भवन का जब निर्माण किया जाए तब उसमें वास्तुशास्त्र के सिद्धांतों का भलीभांति पालन करना चाहिए चाहे वह निवास स्थान हो या व्यवसायिक परिसर है। इस युग में शिक्षा का क्षेत्र अत्यन्त विस्तृत हो गया हैं और बदलते हुए जीवन-मूल्यों के साथ-साथ शिक्षा के उद्धेश्य भी बदल गये हैं। शिक्षा व्यवसाय से जुड़ गई हैं और छात्र-छात्राएं व्यवसाय की तैयारी के रूप में ही इसे ग्रहण करते है। अधिकांश अभिभावकों एवं विद्यार्थियों की चिंता यह रहती हें कि क्या पढा जाएं ताकि अच्छा केरियर निर्मित हो आज के युग को देखते हुए ज्योतिष के माध्यम से शिक्षा का चयन उपयोगी हो सकता हैं । आज का भवन तो आलीशान होता है, सभी सुख सुविधाओं से परिपूर्ण होता है फिर भी उसके अनुशासन व पढाई के स्तर में निरंतर गिरावट आती चली जाती है बच्चे भी अध्ययन के प्रति रूचि नहीं दिखाते हैं। भवन का निर्माण करते समय वास्तुशास्त्र के नियमों का पालन करने से सफलता प्राप्त की जा सकती है।

प्राचीन काल में शिक्षा का मुख्य उद्धेश्य ज्ञान प्राप्ति होता था । विद्यार्थी किसी योग्य विद्वान के निर्देशन में विभिन्न प्रकार की शिक्षा ग्रहण करते थे । इसके अतिरिक्त उसे शस्त्र संचालन एवं विभिन्न कलाओं का प्रशिक्षण भी दिया जाता था । किन्तु वर्तमान समय मंे यह सभी प्रशिक्षण लगभग गौण हो गये । शिक्षा की महत्ता बढ़ने व प्रतिस्पर्धात्मक युग में सजग रहते हुए बालक के बोलने व समझने लगते ही माता-पिता शिक्षा के बारे में चिंतित हो जाते हैं ।

प्रतियोगिता के इस युग में लगभग सभी परिवार अपने बच्चों के कैरियर को लेकर काफी परेशान नजर आते हैं।बच्चों का न तो पढ़ने में मन लगता है और बड़ी मुश्किल से ही पास हो पाते हैं, स्वास्थ्य भी ठीक नहीं रहता है। इस कारण पढ़ने में काफी पिछड़ता जा रहा है।हम देखते हैं कि कई बच्चे खेलते-कूदते व मस्ती करते रहते हंै ज्यादा अध्ययन भी करते हुए नहीं पाए जाते हैं पर जब उनका परीक्षा परिणाम आता है तो वह बच्चे अच्छे नम्बरों से पास होते हंै। इसके विपरीत कई बच्चे अपना अत्यधिक समय अध्ययन में लगाते हैं। उन्हें परिवार के लोग भी काफी सहयोग करते हैं पर परीक्षा में या तो अनुत्तीर्ण हो जाते हैं या कम नंबरांे से पास होते हैं।

जहां भी वास्तु के सिद्धांतों के विपरीत अध्ययन कक्ष की बनावट हो तो उस कमरे मे पढ़ने वाले विद्यार्थी विभिन्न प्रकार की परेशानियों का सामना करते हैं और पढ़ाई में पिछड़ते जाते हैं। बच्चों का कैरियर उनकी अच्छी पढ़ाई लिखाई पर ही निर्भर करता है। ऐसी स्थिति में यदि माता-पिता एवं विद्यार्थी थोड़ी सी सतर्कता बरतें एवं वास्तु के कुछ साधारण से नियमों का पालन करें तो कम मेहनत कर अच्छे नंबरों से पास होंगे। उनका भविष्य भी उज्जवल होगा।वास्तु शास्त्र के अनुसार पूर्व , उत्तर एवं ईशान ;छण्म्ण्द्ध दिशाएँ ज्ञानवर्धक दिशाएँ कहलाती हैं अतः पढ़ते समय हमें उत्तर , पूर्व एवं ईशान दिशा की ओर मुँह करके पढ़ना चाहिए।

परिस्थिती वश यदि हमारा अध्ययन कक्ष पश्चिम दिशा में भी हो तो पढते समय हमारा मुँह उपरोक्त दिशाओं की ओर ही होना चाहिए। विज्ञान के अनुसार इंफ्रा रेड किरणें हमें उत्तरी पर्वी कोण अर्थात ईशान कोण से ही मिलती हैं, ये किरणें मानव शरीर तथा वातावरण के लिए अत्यन्त लाभदायक हैं जो शरीर की कोशिकाओं को शक्ति प्रदान करती हैं , और शरीर में एकाग्रता प्रदान करती हैं।

आजकल अधिकांश स्थानो पर स्कुल में एक्जाम/ परीक्षाएं चल रही हैं ..कुछ जगहों पर स्कुल खुल चुके हैं एवं उन सभी में पढ़ाई आरम्भ हो चुकी हैं..
आइये जाने की वास्तु अनुसार कैसा होना चाहिए बच्चों का कमरा और उनका स्डडी रूम / अध्ययन कक्ष/ पढाई का कमरा कहाँ और केसा होना चाहिए ताकी उनका मन पढ़ाई में लगा रहे और वे सभी अच्छे नंबरों से उत्त्तीर्ण हो जाएँ...

-- अध्ययन कक्ष हो सके तो भवन के पश्चिम या ईशान कोण मे ही बनाना चाहिये। पर भवन के नैत्रत्य व आग्नेय मे कभी भी अध्ययन कक्ष नही बनाना चाहिए।
-- विद्यार्थियों को पढ़ते समय मूॅह पूर्व या उत्तर की ओर रख कर ही अध्ययन करना चाहिए।
--- विद्यार्थियों को दरवाजे की तरफ पीठ करके कभी भी अध्ययन नही करना चाहिये।
--- विद्यार्थियों को किसी बीम या परछत्ती के नीचे बैठकर पढ़ना या सोना नहीं चाहिए इससे मानसिक तनाव उत्पन्न होता है।
--- विद्यार्थी चाहे तो अपने अध्ययन कक्ष मे सो भी सकते है। अर्थात् कमरे को स्टडी कम बेडरुम बनाया जा सकता है।
---- स्टडी रुम का दरवाजा ईशान, पूर्व, दक्षिण आग्नेय, पश्चिम वायव्य व उत्तर मे होना चाहिये। अर्थात् पूर्व आग्नेय, दक्षिण पश्चिम नैऋत्य, एवं उत्तर वायव्य मे नही होना चाहिये। स्टडी रुम मे यदि खिड़की हो तो पूर्व, पश्चिम या उत्तर की दीवार मे ही होना चाहिए। दक्षिण मे नही।
---- विद्यार्थियों को सदैव दक्षिण या पश्चिम की ओर सिर करके सोना चाहिए। दक्षिण में सिर करके सोने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है, और पश्चिम में सिर करके सोने से पढ़ने की ललक बनी रहती है।
---- अध्ययन कक्ष के ईशान कोण मे अपने आराध्य देव की फोटो व पीने के पानी की व्यवस्था भी रख सकते है।
---- किताबों का रॅक्स दक्षिण, पश्चिम मे रखे जा सकते है। पर नैत्रत्य व वायव्य मे नही रखना चाहिये। क्योकि नैऋत्य के रॅक्स कि किताबे बच्चे निकाल कर कम पढ़ते है व वायव्य मे किताबे चोरी होने का भय रहता है।
---- किताबे स्टडी रुम मे खुले रॅक्स मे ना रखें। खुली किताबे नकारात्मक उर्जा उत्पन्न करती है इससे स्वास्थ्य भी खराब होता है अतः रॅक्स के उपर दरवाजा अवश्य लगाये।
-----यदि आप अच्छा केरियर बनाना चाहते हेै तो स्टडी रुम मे अनावश्यक पुरानी किताबे व कपड़े न रखें। अर्थात् किसी भी किस्म का कबाड़ा कमरे मे नही होना चाहिए।
---अध्ययन कक्ष की दीवार व परदे का कलर हल्का आसमानी, हल्का हरा, हल्का बदामी हो तो बेहतर है। सफेद कलर करने पर विद्यार्थियों पर सुस्ती छाई रहती है।
----अध्ययन कक्ष के साथ यदि टायलेट हो तो उसका दरवाजा हमेशा बन्द रखे। टायलेट को ज्यादा ना सजाये। साफ सफाई का पूरा ध्यान रखें।
---- यदि कमरे मे एक से अधिक बच्चे पढ़ते है तो उनके हँसते मुस्काते हुए सामूहिक फोटो स्टडी रुम मे अवश्य लगाये इससे उनमे मिल जुलकर रहने कि भावना विकसित होगी।
---- यदि विद्यार्थी अपने अध्ययन में यथोचित सफलता नहीं पा रहे हैं तो अध्ययन कक्ष के द्वार के बाहर अधिक प्रकाश देने वाला बल्ब लगाएं जो 24 घंटे जलता रहे।
----यदि विद्यार्थी वास्तु के उपरोक्त सामान्य नियमों का पालन करते है तो उन्हे बहुत ज्यादा समय
स्टडी रुम मे बिताने की जरुरत नही रहेगी। उन्हे अन्य गतिविधियों जैसे खेलना कूदना इत्यादि के लिये समय भी मिलेगा साथ ही विद्यार्थी अच्छे नम्बरो से पास होकर अपने केरियर और अपना भविष्य उज्वल कर सकेंगे।
---- यदि विद्यार्थी कम्प्यूटर का प्रयोग करते है तो कम्प्यूटर आग्नेय से लेकर दक्षिण व पश्चिम के मध्य कही भी रख सकते है। ध्यान रहै ईषान कोण में कम्प्युटर कभी न रखें। ईषान कोण में रखा कम्प्युटर बहुत ही कम उपयोग में आता है।
----यदि सूर्य की सुबह की किरणे कमरे मे आती हो तो खिड़की दरवाजे सुबह के वक्त खोलकर रखना चाहिये। ताकि सुबह की लाभदायक सूर्य की उर्जा का लाभ ले सके। पर यदि सूर्य की शाम की किरणें आती है तो बिलकुल न खोले। ताकि दोपहर के वक्त के बाद की नकारात्मक उर्जा से बचा जा सके।
---- बच्चों का फेस पढ़ते समय उत्तर अथवा पूर्व दिशा में होना चाहिए। एक छोटा सा पूजा स्थल अथवा मंदिर बच्चों के कमरे की ईशान दिशा में बनाना उत्तम है। इस स्थान में विद्या की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती की मूर्ति अथवा तस्वीर लगाना शुभ है।
-----कमरे का ईशान कोण का क्षेत्र सदैव स्वच्छ रहना चाहिए और वहां पर किसी भी प्रकार का व्यर्थ का सामान, कूड़ा, कबाड़ा नहीं होना चाहिए। अलमारी, कपबोर्ड, पढ़ने का डेस्क और बुक शेल्फ व्यवस्थित ढंग से रखा जाना चाहिए। सोने का बिस्तर नैऋत्य कोण में होना चाहिए। सोते समय सिर दक्षिण दिशा में हो, तो बेहतर है। परंतु, बच्चे अपना सिर पूर्व दिशा में भी रख कर सो सकते हैं।
==कमरे के मध्य में भारी सामान न रखें। कमरे में हरे रंग के हल्के शेड्स करवाना उत्तम है। इससे बच्चों में बुद्धिमता की वृद्धि होती है। कमरे के मध्य का स्थान बच्चों के खेलने के लिए खाली रखें। बच्चों के कमरे का द्वार कभी भी सीढ़ियों अथवा शौचालय से सटा न हो, अन्यथा ऐसे परिवार के बच्चे मां-बाप के नियमानुसार अनुसरण नहीं करेंगे। बच्चों के कक्ष के ईशान कोण और ब्रह्म स्थान की ओर भी विशेष ध्यान दें कि वहां पर बेवजह का सामान एकत्रित न हो। यह क्षेत्र सदैव स्वच्छ और बेकार के सामान से मुक्त होना चाहिए।
क्या आपके बच्चे का पढ़ाई-लिखाई में मन नहीं लगता?
=== हो सकता है आपके बच्चों के स्डडी रूम में कहीं न कहीं से नकारात्मक ऊर्जा आ रही हो। पढ़ाई में कॉनसन्ट्रेशन बढ़ाने, याददाश्त बढ़ाने के लिए इन साधारण वास्तु टिप्स को फॉलो करें।
शायद आपकी चिंता दूर हो जाए...
==स्टडी रूम यानी जीवन का अहम् हिस्सा जहाँ यूथ अपना अधिक से अधिक समय बिताते हैं। यदि यह आपको सूट न करे तो बड़ी गड़बड़ हो सकती है और आपका ध्यान पढाई से हट भी सकता है।
==स्डडी रूम व्यवस्थित रखें :-- आपके बच्चों से कहें पुरानी किताबें, नोट्स, मेल्स, स्टेशनरी सभी स्टडी रूम से बाहर करें। रोज़ाना आपके बच्चों को स्टडी रूम को साफ करने की आदत डाल लें।
== टेबल के सामने अपने इष्ट देवता, माता-पिता या किसी महान व्यक्ति की तस्वीर लगा सकते हैं, मगर फिल्म स्टार या बेहूदी फोटो न लगाएँ।
==कलर : आपके बच्चों के स्डडी रूम में लेमन यलो और वॉयलेट कलर मेमरी और कॉनसन्ट्रेशन बढ़ाने में मददगार होते हैं। आपके बच्चों के स्डडी रूम की दीवारों और टेबल-कुर्सी के लिए इन रंगों का इस्तेमाल अच्छा रहेगा।
==कमरे का और स्टडी टेबल का रंग राशि के अनुसार हो। मेष और वृश्चिक सफेद व पिंक का प्रयोग करें। वृषभ और तुला सफेद-ग्रीन का इस्तेमाल करें। मिथुन और कन्या ग्रीन, सिंह ब्ल्यू, कर्क रेड एवं व्हाइट, धनु-मीन पीले-सुनहरे और मकर-कुंभ ब्ल्यू के सारे शेड्स का प्रयोग करें।

इन साधारण किंतु चमत्कारिक वास्तुशास्त्र सिद्धांतों के आधार पर यदि अध्ययन कक्ष का निर्माण किया जाऐ तो उत्तरोतर प्रगति संभव है।





गुड़ी पड़वा का महोत्सव

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चैत्र मास की  शुक्ल प्रतिपदा को गुड़ी पड़वा या नववर्ष का आरम्भ माना गया है। ‘गुड़ी’ का अर्थ होता है विजय पताका । ऐसा माना गया है कि शालिवाहन नामक कुम्हार के पुत्र ने मिट्टी के सैनिकों का निर्माण किया और उनकी एक सेना बनाकर उस पर पानी छिड़ककर उनमें प्राण फूँक दिये। उसमें सेना की सहायता से शक्तिशाली  शत्रुओं को पराजित किया। इसी विजय के उपलक्ष्य में प्रतीक रूप में ‘‘शालीवाहन शक’ का प्रारम्भ हुआ। पूरे महाराष्ट्र में बड़े ही उत्साह से गुड़ी पड़वा के रूप में यह पर्व मनाया जाता है। कश्मीरी हिन्दुओं द्वारा नववर्ष के रूप में एक महत्वपूर्ण उत्सव की तरह इसे मनाया जाता है।



इसे हिन्दू नव संवत्सर या नव संवत् भी कहते हैं।इस वर्ष 21 मार्च 2015 को कीलक नामक विक्रम संवत् 2072 का प्रारंभ होगा|  21 मार्च 2015 (शनिवार) को इस धरा की 1955885115वीं वर्षगांठ है|   ऐसी मान्यता है कि भगवान ब्रह्मा ने इसी दिन सृष्टि की रचना प्रारम्भ की थी। इसी दिन से विक्रम संवत् के नये साल का आरम्भ भी होता है। सिंधी नववर्ष चेटीचंड उत्सव से शुरू होता है जो चैत्र शुक्ल द्वितीया को मनाया जाता है। सिंधी मान्यताओं के अनुसार इस शुभ दिन भगवान् झूलेलाल का जन्म हुआ था जो वरूण देव के अवतार हैं।


चैत्रे मासि जगत्‌ ब्रह्म ससर्ज प्रथमे हनि

शुक्ल पक्षे समग्रे तु तदा सूर्योदये सति॥


कहा जाता है कि ब्रह्मा ने सूर्योदय होने पर सबसे पहले चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को सृष्टि की संरचना शुरू की। उन्होंने इसे प्रतिपदा तिथि को प्रवरा अथवा सर्वोत्तम तिथि कहा था। इसलिए इसको सृष्टि का प्रथम दिवस भी कहते हैं। इस दिन से संवत्सर का पूजन, नवरात्र घटस्थापन, ध्वजारोपण, वर्षेश का फल पाठ आदि विधि-विधान किए जाते हैं।चैत्र शुक्ल पक्ष की प्रतिपदा वसन्त ऋतु में आती है। इस ऋतु में सम्पूर्ण सृष्टि में सुन्दर छटा बिखर जाती है। विक्रम संवत के महीनों के नाम आकाशीय नक्षत्रों के उदय और अस्त होने के आधार पर रखे गए हैं। सूर्य, चन्द्रमा की गति के अनुसार ही तिथियाँ भी उदय होती हैं। मान्यता है कि इस दिन दुर्गा जी के आदेश पर श्री ब्रह्मा जी ने सृष्टि की रचना की थी। इस दिन दुर्गा जी के मंगलसूचक घट की स्थापना की जाती है।


 के अनुसार आज भी हमारे भारत देश में प्रकृति, शिक्षा तथा राजकीय कोश आदि के चालन-संचालन में मार्च अप्रेल के रूप में चैत्र शुक्ल प्रतिपदा को ही देखते हैं। यह समय दो ऋृतुओं का संधिकाल माना जाता है। इसमें रात्रि छोटी और दिन बड़े होने लगते हैं। प्रकृति एक नया रूप धारण कर लेती है। ऐसा प्रतीत होता है कि प्रकृति नव पल्लव धारण कर नव संरचना के लिए ऊर्जावान हो रही हो। मानव, पशु-पक्षी यहाँ तक की जड़-चेतन प्रकृति भी प्रमाद एवं आलस्य का परित्याग कर सचेतन हो जाती है। इसी समय बर्फ पिघलने लग जाती है। आमों पर बौर लगना प्रारम्भ हो जाता है। प्रकृति की हरितिमा नवजीवन के संचार का प्रतीक बनकर हमारे जीवन से जुड़ सी जाती है।


इसी प्रतिपदा के दिन आज से 2072 वर्ष पूर्व उज्जयिनी नरेष महाराज विक्रमादित्य ने विदेषी आक्रांत शकों से भारत भूमि की रक्षा की और इसी दिन से कालगणना प्रारम्भ की गई। उपकृत राष्ट्र ने भी उन्हीं महाराज के नाम से विक्रमीसंवत् का नामकरण किया। महाराज विक्रमादित्य ने आज से 2072 वर्ष पूर्व राष्ट्र को सुसंगठित कर शकों की शक्ति का जड़ से उन्मूलन कर देश से पराजित कर भगा दिया और उनके मूल स्थान अरब में विजय की पताका फहरा दी। साथ ही साथ यवन, हूण, तुषार, पारसिक तथा कम्बोज देशों पर अपनी विजय ध्वजा फहरा दी। इन्हीं विजय की स्मृति स्वरूप वर्ष प्रतिपदा संवत्सर के रूप में मनाई जाती रही और आज भी बड़े उत्साह एवं ऐतिहासिक धरोहर की स्मृति के रूप में मनाई जा रही है। इनके राज्य में कोई चोर या भिखारी नहीं था। विक्रमादित्य ने विजय के बाद जब राज्यारोहण हुआ तब उन्होंने प्रजा के तमाम ऋणों को माफ कर दिया तथा नये भारतीय कैलेण्डर को जारी किया, जिसे विक्रम संवत् नाम दिया।


हिन्दू मान्यताओं के अनुसार, यह दिन सृष्टि रचना का पहला दिन है| करीब एक अरब 97 करोड़ 39 लाख 49 हजार 111 वर्ष पूर्व इसी दिन ब्रह्मा जी ने जगत की रचना की थी| इस दिन चैत्र नवरात्रि भी प्रारंभ होती है| हिन्दू परम्परा के अनुसार इस दिन को 'नव संवत्सर' या 'नव संवत' के नाम से भी जाना जाता है|


 के अनुसार हिंदू पंचांग के मुताबिक, इस वर्ष 21 मार्च 2015 को कीलक नामक विक्रम संवत् 2072 का प्रारंभ होगा|  21 मार्च 2015 को इस धरा की 1955885115वीं वर्षगांठ है| इसी दिन ब्रह्मा जी ने जगत की रचना प्रारंभ की थी इसीलिए हम चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से नए साल का आरम्भ मानते हैं| हिन्दू पंचांग का पहला महीना चैत्र होता है| यही नहीं शक्ति और भक्ति के नौ दिन यानी कि नवरात्रि स्थापना का पहला दिन भी यही है| ऐसी मान्यता है कि इस दिन नक्षत्र शुभ स्थिति में आ जाते हैं और किसी भी नए काम को शुरू करने के लिए यह मुहूर्त शुभ होता है|


सबसे प्राचीन काल गणना के आधार पर ही प्रतिपदा के दिन विक्रमी संवत् के रूप में इस शुभ एवं शौर्य दिवस को अभिषिक्त किया गया है। इसी दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी के राज्याभिषेक अथवा रोहण के रूप में मनाया गया। यह दिन वास्तव में असत्य पर सत्य की विजय को याद करने का दिवस है। इसी दिन महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ था।अगर ज्योतिष की माने तो प्रत्येक संवत् का एक विशेष नाम होता है| विभिन्न ग्रह इस संवत् के राजा, मंत्री और स्वामी होते हैं| इन ग्रहों का असर वर्ष भर दिखाई देता है| सिर्फ यही नहीं समाज को श्रेष्ठ (आर्य) मार्ग पर ले जाने के लिए स्वामी दयानंद सरस्वती ने इसी दिन को 'आर्य समाज' स्थापना दिवस के रूप में चुना था| इसी शुभ दिन महर्षि दयानन्द ने आर्यसमाज की स्थापना की थी। यह दिवस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक श्री केशव बलिराम हेडगेवार के जन्मदिवस के रूप में मनाया जाता है। पूरे भारत में इसी दिन से चैत्र नवरात्र की शुरूआत मानी जाती है।


वैदिक संस्कृति से जोड़ता है हमें विक्रम संवत्----


 गुलामी के बाद अंग्रेजों ने हम पर ऐसा रंग चढ़ाया ताकि हम अपने नववर्ष को भूल उनके रंग में रंग जाए| उन्ही की तरह एक जनवरी को ही नववर्ष मनाये और हुआ भी यही लेकिन अब देशवासियों को यह याद दिलाना होगा कि उन्हें अपना भारतीय नववर्ष विक्रमी संवत बनाना चाहिए, जो आगामी 21 मार्च 2015  (शनिवार)को है|


 वैसे अगर देखा जाये तो विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति से जोड़ता है| भारतीय संस्कृति से जुड़े सभी समुदाय विक्रम संवत् को एक साथ बिना प्रचार और नाटकीयता से परे होकर मनाते हैं और इसका अनुसरण करते हैं| दुनिया का लगभग हर कैलेण्डर सर्दी के बाद बसंत ऋतु से ही प्रारम्भ होता है| यही नहीं इस समय प्रचलित ईस्वी सन बाला कैलेण्डर को भी मार्च के महीने से ही प्रारंभ होना था| आपको बता दें कि इस कैलेण्डर को बनाने में कोई नयी खगोलीय गणना करने के बजाए सीधे से भारतीय कैलेण्डर (विक्रम संवत) में से ही उठा लिया गया था|


हिंदी में 12 महीनों के नाम---


ऐसा कहा जाता है कि पृथ्वी द्वारा 365/366 दिन में होने वाली सूर्य की परिक्रमा को वर्ष और इस अवधि में चंद्रमा द्वारा पृथ्वी के लगभग 12 चक्कर को आधार मानकर कैलेण्डर तैयार किया और क्रम संख्या के आधार पर उनके नाम रखे गए हैं| हिंदी महीनों के 12 नाम हैं चैत्र, बैशाख, ज्‍येष्‍ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष, पौष, माघ और फाल्‍गुन|



हम कैसे मनायें नव वर्ष-नव संवत्सर..????


 भारतीय और वैदिक नव वर्ष की पूर्व संध्या पर हमें दीपदान करना चाहिये। घरों में शाम को 7 बजे लगभग घण्टा-घडियाल व शंख बजाकर मंगल ध्वनि से नव वर्ष का स्वागत करें। इष्ट मित्रों को एसएमएस, इमेल एवं दूरभाष से नये वर्ष की शुभकामना भेजना प्रारम्भ कर देना चाहिये। नव वर्ष के दिन प्रातःकाल से पूर्व उठकर मंगलाचरण कर सूर्य को प्रणाम करें। हवन कर वातावरण शुद्ध करें। नये संकल्प करें। नवरात्रि के नो दिन साधना के शुरू हो जाते हैं तथा नवरात्र घट स्थापना की जाती है।


 नव वर्ष का स्वागत करने के लिए अपने घर-द्वार को आम के पत्तों से अशोक पत्र से द्वार पर बन्दनवार लगाना चाहिये। नवीन वस्त्राभूषण धारण करना चाहिये। इसी दिन प्रातःकाल स्नान कर हाथ में गंध, अक्षत, पुष्प और जल ले कर ‘ओम भूर्भुवः स्वः संवत्सर-अधिपति आवाहयामि पूजयामि च’ मंत्र से नव संवत्सर की पूजा करनी चाहिये एवं नव वर्ष के अशुभ फलों के निवारण हेतु ब्रह्माजी से प्रार्थना करनी चाहिये। हे भगवन्! आपकी कृपा से मेरा यह वर्ष मंगलमय एवं कल्याणकारी हो। इस संवत्सर के मध्य में आने वाले सभी अनिष्ट और विघ्न शांत हो जाये।


नव संवत्सर के दिन नीम के कोमल पत्तों और ऋतु काल के पुष्पों का चूर्ण बनाकर उसमें काली मिर्च, नमक, हींग, जीरा, मिश्री, इमली और अजवाइन मिलाकर खाने से रक्त विकार आदि शारीरिक रोग होने की संभावना नहीं रहती है तथा वर्षभर हम स्वस्थ रह सकते हैं। इतना न कर सके तो कम-से-कम चार-पाँच नीम की कोमल पत्त्यिाँ ही सेवन कर ले तो पर्याप्त रहता है। इससे चर्मरोग नहीं होते हैं। महाराष्ट्र में तथा मालवा में पूरनपोली  या मीठी रोटी बनाने की प्रथा है। मराठी समाज में गुड़ी सजाकर भी बाहर लगाते हैं। यह गुड़ी नव वर्ष की पताका का ही स्वरूप है।


गुड़ी का अर्थ विजय पताका होती है। ‘युग‘ और ‘आदि‘ शब्दों की संधि से बना है ‘युगादि‘ ।  आंध्र प्रदेश और कर्नाटक में ‘उगादि‘ और महाराष्ट्र में यह पर्व ‘ग़ुड़ी पड़वा‘ के रूप में मनाया जाता है। विक्रमादित्य द्वारा शकों पर प्राप्त विजय तथा शालिवाहन द्वारा उन्हें भारत से बाहर निकालने पर इसी दिन आनंदोत्सव मनाया गया । इसी विजय के कारण प्रतिपदा को घर-घर पर ‘ध्वज पताकाएं’ तथा ‘गुढि़यां’ लगाई जाती है   गुड़ी का मूल ...संस्कृत के गूर्दः से माना गया है जिसका अर्थ... चिह्न, प्रतीक या पताका ....पतंग....आदि-   कन्नड़ में कोडु जिसका मतलब है चोटी, ऊंचाई, शिखर, पताका  आदि। मराठी में भी कोडि का अर्थ है शिखर, पताका। हिन्दी-पंजाबी में गुड़ी का एक अर्थ पतंग भी होता है। आसमान में ऊंचाई पर फहराने की वजह से इससे भी पताका का आशय स्थापित होता है।


भारत भर के सभी प्रान्तों में यह नव-वर्ष विभिन्न नामों से मनाया जाता है जो दिशा व स्थानानुसार सदैव मार्च-अप्रेल के माह में ही पड़ता है | गुड़ी पड़वा, होला मोहल्ला, युगादि, विशु, वैशाखी, कश्मीरी नवरेह, उगाडी, चेटीचंड, चित्रैय तिरुविजा आदि सभी की तिथि इस नव संवत्सर के आसपास ही आती है।



सच तो यह है कि विक्रम संवत् ही हमें अपनी संस्कृति की याद दिलाता है और  कम से कम इस बात की अनुभूति तो होती है कि भारतीय संस्कृति से जुड़े सारे समुदाय इसे एक साथ बिना प्रचार प्रसार और नाटकीयता से परे हो कर मनाते हैं। हम सब भारतवासियों का कर्तव्य है कि पूर्ण रूप से वैज्ञानिक और भारतीय कैलेण्डर विक्रम संवत् के अनुसार इस दिन का स्वागत करें। पराधीनता एवं गुलामी के बाद अंग्रेजों ने हमें एक ऐसा रंग चढ़ाया कि हम अपने नव वर्ष को भूल कर-विस्मृत कर उनके रंग में रंग गये। उन्हीं की तरह एक जनवरी को नव वर्ष अधिकांश लोग मनाते आ रहे हैं। लेकिन अब देशवासी को अपनी भारतीयता के गौरव को याद कर नव वर्ष विक्रमी संवत् मनाना चाहिये जो आगामी 21 मार्च को है।


क्या करें नव-संवत्सर के दिन  (गुड़ी पड़वा विशेष)----

---घर को ध्वजा, पताका, तोरण, बंदनवार, फूलों आदि से सजाएँ व अगरबत्ती, धूप आदि से सुगंधित करें।

----दिनभर भजन-कीर्तन कर शुभ कार्य करते हुए आनंदपूर्वक दिन बिताएँ।

---सभी जीव मात्र तथा प्रकृति के लिए मंगल कामना करें।

---नीम की पत्तियाँ खाएँ भी और खिलाएँ भी।

---ब्राह्मण की अर्चना कर लोकहित में प्याऊ स्थापित करें।

---इस दिन नए वर्ष का पंचांग या भविष्यफल ब्राह्मण के मुख से सुनें।

---इस दिन से दुर्गा सप्तशती या रामायण का नौ-दिवसीय पाठ आरंभ करें।

---इस दिन से परस्पर कटुता का भाव मिटाकर समता-भाव स्थापित करने का संकल्प लें।




Sunday, 10 May 2015

जानिये आज 10/05/2015 के विषय के बारे में प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से " कब होगा स्वयं का मकान जाने आपकी कुंडली द्वारा-"

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जानिये आज के सवाल जवाब(1) 10/05/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से

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ज्योतिष द्वारा कैसे दूर करें ह्रदय रोग

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पहले हज़ारों लोगों में से किसी एक को होने वाली बीमारियां अब घर-घर की कहानी बनती जा रही हैं। उन्हीं बीमारियों में एक है-हृदयाघात (Heart-attack)। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग (यूजीसी) से अनुदान प्राप्त कर जब काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञानं संकाय ने जब रिसर्च की, तो पता चला कि भारत में बढ़ी तादात में ह्रदय रोगी हैं। यूजीसी ने जब इस बीमारी का सफल इलाज ढूंढ़ने की ज़िम्मेदारी भी इसी संकाय को सौंपी, तो इस संकाय ने ज्योतिष विद्या के ज़रिए हृदयाघात का सफल इलाज कर चिकित्सा क्षेत्र में उपचार की एक नई विधा की खोज कर डाली।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्म विज्ञानं संकाय प्रमुख प्रोफ़ेसर शत्रुघ्न त्रिपाठी ने 213 ह्रदय रोगियों पर रिसर्च की और ज्योतिष विद्या से ह्रदय रोग का इलाज कर एक नई विधा को जन्म दे दिया। जिसके सहारे आज ह्रदय रोगियों का इलाज सफलतापूर्वक हो रहा है। यहां प्रतिदिन ओपीडी में भीड़ लगी रहती है। यहां मरीज की जन्मपत्री देख कर उनका इलाज किया जाता है। अभी तक किए गए इलाज के आंकड़ों पर भरोसा किया जाए अस्सी प्रतिशत से ज़्यादा मरीजों का इलाज सफल रहा है।
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी की माने तो सबसे ज़्यादा रोगी शनि ग्रह के प्रकोप के कारण होते हैं। इसके अलावा गुरु, मंगल, शुक्र और राहू ह्रदयघात के अन्य कारक हैं। ऐसे रोगी जातकों का इलाज करके प्रोफेसर त्रिपाठी ने उन लोगों को ज्योतिष विद्या पर विश्वास करने को विवश कर दिया है, जो इसे अंधविश्वास कह कर इस विद्या का मजाक उड़ाते रहे हैं।
ह्रदय रोग से पीड़ित दिवाकर चौबे ने बताया कि वो इलाज के लिए सभी छोटे-बड़े डाक्टरों और अस्पतालों से निराश हो चुके थे। हर जगह उनके रोग को लाइलाज बताकर उन्हें वापस भेज दिया जाता था। लेकिन यहां आकर उन्हें नई जिंदगी मिल गई।
प्रोफ़ेसर त्रिपाठी की ख्याति बहुत ही जल्द दूर-दूर तक फ़ैल गई है। दूसरे प्रांतों से भी ह्रदय रोगी इलाज के लिए यहां आते हैं। इलाज की इस विधा को भारत सरकार के शिक्षा अनुदान आयोग ने मान्यता भी दे दी है। इस विधा में आध्यात्मिक उपचार के तहत हृदयाघात से बचाने के लिए बजरंग बाण, ललिता स्तोत्र, सहस्त्र नाम का दैनिक पाठ करने, नरसिंह मंत्र, शतचंडी प्रयोग, अमृतेश्वरी मंत्र, बटुक भैरव और महामृत्युंजय मंत्र का उच्चारण करने की सलाह दी जाती है।
इलाज की इस नवीन विधा के लिए प्रोफ़ेसर शत्रुघ्न त्रिपाठी को राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित किया जा चुका है। उन्होंने बताया कि अब तक उनके द्वारा 213 ह्रदय रोगियों का सफलता पूर्वक उपचार किया जा चुका है। इस विधि में कुंडली से पता चल जाता है कि व्यक्ति को ह्रदय रोग है या नहीं। व्यक्ति का इलाज ग्रहों की चाल पर निर्भर करता है।
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निम्नलिखित ग्रह स्थितियां हृदय विकार एवं मानसिक संताप उत्पन्न कर सकती हैं:----
कुंडली में सूर्य की अवस्था हृदय की स्थिति की सूचक होती है। सूर्य समस्त सृष्टि में ऊर्जा एवं ताप का स्रोत है और यही कारण है कि वह जैविक देह में हृदय का सूचक है।
हृदय रोग की संभावना उस समय बढ़ जाती है जब सूर्य दुष्प्रभावित हो रहा हो। इसके अतिरिक्त सूर्य की राषि सिंह भी महत्वपूर्ण है । हृदय रोग मुख्यतः दो स्वरूपों में दृष्टिगोचर होता है पहला हृदयघात जो कि अकस्मात होता है तथा उसका किसी प्रकार का पूर्वाभास रोगी को नहीं होता और दूसरी समस्या वाल्व संबंधी । हृदय में अनेक छोटे छोटे सूराख सदृश वाल्व हाते हैं जो रुधिर के एकतरफा बहाव को नियंत्रित करते हैं ।
ये वाल्व प्रत्येक हार्ट धड़कन के साथ ही बंद होते हैं तथा रुधिर के पुनरागमन को बाधित करते हुए रक्तचाप को भी नियंत्रित करते हैं । इन वाल्व में उत्पन्न सिकुड़न या इनका बंद होना जानलेवा हो जाता है। हृदय की तरफ जाने वाली सभी धमनियों की स्थिति बुध द्वारा प्रदर्षित होती है तथा शरीर के किसी भी अंग में कोई सिकुड़न या खराबी का कारण शनि होता है ।
व्यक्ति के मस्तिष्क की अवस्था मंगल द्वारा प्रदर्षित होती है तथा रक्त एवं रक्त चाप चंद्रमा एवं कर्क राषि द्वारा देखे जाते हैं। हृदयाघात के अधिकांश प्रकरणों में देखा जा सकता है कि इसका मूल कारण कोई आकस्मिक मानसिक आघात होता है।
इस प्रकार के प्रकरणों में सूर्य एवं चंद्रमा पर मंगल का दुष्प्रभाव देखा गया है । मंगल एवं चंद्रमा संयुक्त रूप से व्यक्ति की मानसिक अवस्था के द्योतक होते हैं।
यदि मंगल युति अथवा दृष्टि से चंद्रमा को दुष्प्रभावित कर रहा हो तो व्यक्ति में असामान्य रक्तचाप की शिकायत देखने में आती है तथा जब यह सूर्य को भी प्रभावित करें और दषा, अंतर्दषा एवं गोचरवष इन तीनों का सामूहिक प्रभाव हो तब व्यक्ति किसी मानसिक आघात से पीड़ित होकर हृदयाघात की अवस्था में चला जाता है ।
इस प्रकार का आघात शनि, राहु एवं केतु भी उत्पन्न कर सकते हैं बषर्ते वे सूर्य एवं चंद्रमा को दुष्प्रभावित कर रहे हों ।
छठे भाव में स्थित ग्रह या उसके स्वामी तथा बाधक स्थानाधिपति या बाधक भाव में उपस्थित ग्रह की दषा, अंतर या प्रत्यंतर में युति कब होती है।
यदि इसके साथ ही प्रबल मारकेष भी किसी रूप में कार्यरत हो रहा है, तो मृत्यु या मृत्युतुल्य कष्ट होगा, किंतु एकादषेष या एकादष भाव में उपस्थित ग्रह की भी किसी रूप में दषा, अंतर या प्रत्यंतर हो तो व्यक्ति निःसंदेह उपचार से निरोग हो जाएगा।
यदि दषानाथ, अंतरनाथ या प्रत्यंतरनाथ केतु या शनि हो अथवा केतु से युत कोई ग्रह हो तो ऐसी अवस्था में शल्य चिक्त्सिा के योग बनते हैं, किंतु शल्य चिकित्सा द्वारा रोग ठीक होने के लिए आवष्यक है कि शनि अथवा केतु कंुडली में सकारात्मक अवस्था में उपस्थित हो, अन्यथा शल्य चिकित्सा सफल नहीं हो पाती है तथा अन्य पीड़ाएं भी उत्पन्न हो जाती हैं। बुध पर यदि शनि एवं केतु का प्रभाव हो तो एंजियोग्राफी एवं एंजियोप्लास्टी हो सकती है
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हृदय रोग के अनेक ज्योतिष योग हैं जोकि इस प्रकार हैं-
---पंचमेश द्वादश भाव में हो या पंचमेश-द्वादशेश दोनों ६,८,१२वें बैठे हों, पंचमेश का नवांशेश पापग्रह युत या दृष्ट हो।
----पंचमेश या पंचम भाव सिंह राशि पापयुत या दृष्ट हो।
----पंचमेश व षष्ठेश की छठे भाव में युति हो तथा पंचम या सप्तम भाव में पापग्रह हों।
----चतुर्थ भाव में गुरु-सूर्य-शनि की युति हो या मंगल, गुरु, शनि चतुर्थ भाव में हों या चतुर्थ या पंचम भाव में पापग्रह हों।
---पंचमेश पापग्रह से युत या दृष्ट हो या षष्ठेश सूर्य पापग्रह से युत होकर चतुर्थ भाव में हो।
---वृष, कर्क राशि का चन्द्र पापग्रह से युत या पापग्रहों के मध्य में हो।
----षष्ठेश सूर्य के नवांश में हो।
---चतुर्थेश द्वादश भाव में व्ययेश के साथ हो या नीच, शत्राुक्षेत्राी या अस्त हो या जन्म राशि में शनि, मंगल, राहु या केतु हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
----शुक्र नीच राशि में हो तो उसकी महादशा में हृदय में शूल होता है। द्वितीयस्थ शुक्र हो तो भी उसकी दशा में हृदय शूल होता है।
---पंचम भाव, पंचमेश, सूर्यग्रह एवं सिंह राशि पापग्रहों के प्रभाव में हों तो जातक को दो बार दिल का दौरा पड़ता है।
----पंचम भाव में नीच का बुध राहु के साथ अष्टमेश होकर बैठा हो, चतुर्थ भाव में शत्राुक्षेत्राीय सूर्य शनि के साथ पीड़ित हो, षष्ठेश मंगल भाग्येश चन्द्र के साथ बैठकर चन्द्रमा को पीड़ित कर रहा हो, व्ययेश छठे भाव में बैठा हो तो जातक को हृदय रोग अवश्य होता है।
-----राहु चौथे भाव में हो और लग्नेश पापग्रह से दृष्ट हो तो हृदय रोग जातक को अवश्य होता है।
----चतुर्थ भाव में राहु हो तथा लग्नेश निर्बल और पापग्रहों से युत या दृष्ट हो।
----चतुर्थेश का नवांश स्वामी पापग्रहों से दृष्ट या युत हो तो हृदय रोग होता है।
----लग्नेश शत्राुक्षेत्राी या नीच राशि में हो, मंगल चौथे भाव में हो तथा शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो या सूर्य-चन्द्र-मंगल शत्राुक्षेत्राी हों या चन्द्र व मंगल अस्त हों यापापयुत या चन्द्र व मंगल की सप्तम भाव में युति हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
----शनि तथा गुरु पापगहों से पीड़ित या दृष्ट हों तो जातक को हृदय रोग एवं शरीर में कम्पन होता है।
शनि या गुरु षष्ठेश होकर चतुर्थ भाव में पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो जातक को हृदय व कम्पन रोग होता है।
----तृतीयेश राहु या केतु के साथ हो तो जातक को हृदय रोग के कारण मूर्च्छा रोग होता है।
------चतुर्थ भाव में मंगल, शनि और गुरु पापग्रहों से दृष्ट हों तो जातक को हृदय रोग के कारण कष्ट होता है।
----स्थिर राशियों में सूर्य पीड़ित हो तो भी हृदय रोग होता है।
अधिकांश सिंह लग्न वालों को हृदय रोग होता है।
----षष्ठेश की की बुध के साथ लग्न या अष्टम भाव में युति हो तो जातक को हृदय रोग का कैंसर तक हो सकता है।
---षष्ठ भाव में सिंह राशि में मंगल या बुध या गुरु हो तो हृदय रोग होता है।
-----छठे भाव में कुम्भ राशि में मंगल हो तो हृदय रोग होता है। छठे भाव में सिंह राशि हो तो भी हृदय रोग होता है।
---चतुर्थेश किसी शत्राु राशि में स्थित हो और चौथे भाव में शनि व राहु या मंगल व शनि या राहु व मंगल या मंगल हो एवं शनि या पापग्रह से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
----सूर्य पापप्रभाव से पीड़ित हो तभी हृदय रोग होता है।
हार्टअटैक के लिए राहु-केतु क पाप प्रभाव होना आवश्यक है। हार्ट अटैक आकसिम्क होता है।
हृदय रोग होगा या नहीं यह जानने के लिए कुछ ज्योतिष योगों को समझने- जानने का प्रयास करते हे।
इन योगों के आधार पर आप किसी की कुण्डली देखकर यह जान सकेंगे कि जातक को यह रोग होगा या नहीं। कुछ प्रमुख हृदय रोग संबंधी ज्योतिष योग इस प्रकार हैं----
------ सूर्य-शनि की युति त्रिाक भाव में हो या बारहवें भाव में हो तो यह रोग होता है।
----- अशुभ चन्द्र चौथे भाव में हो एवं एक से अधिक पापग्रहों की युति एक भाव में हो।
---- केतु-मंगल की युति चौथे भाव में हो।
---- अशुभ चन्द्रमा शत्रु राशि में या दो पापग्रहों के साथ चतुर्थ भाव में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
--- सिंह लग्न में सूर्य पापग्रह से पीड़ित हो।
---- मंगल-शनि-गुरु की युति चौथे भाव में हो।
---- सूर्य की राहु या केतु के साथ युति हो या उस पर इनकी दृष्टि पड़ती हो।
---- शनि व गुरु त्रिक भाव अर्थात्‌ ६, ८, १२ के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों।
----राहु-मंगल की युति १, ४, ७ या दसवें भाव में हो।
----- निर्बल गुरु षष्ठेश या मंगल से दृष्ट हो।
------चतुर्थ भाव में मंगल, शनि तथा गुरु का क्रूर ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में गुरु, सूर्य तथा शनि की युति का अशुभ प्रभाव में होना। चतुर्थ भाव में षष्ठेश का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना और लग्नेश का पाप दृष्ट होकर बलहीन होना या शत्रु राशि या नीच राशि में होना। . मंगल का चतुर्थ भाव में होना और शनि का पापी ग्रहों से दृष्ट होना।
----- बुध पहले भाव में एवं सूर्य व शनि षष्ठेश या पापग्रहों से दृष्ट हों।
---- यदि सूर्य, चन्द्र व मंगल शत्रुक्षेत्री हों तो हृदय रोग होता है।
---- चौथे भाव में राहु या केतु स्थित हो तथा लग्नेश पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय पीड़ा होती है।
---- शनि या गुरु छठे भाव के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों व पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय कम्पन का रोग होता है।
--------शनि का चतुर्थ भाव में होना और षष्ठेश सूर्य का क्रूर ग्रह से युक्त या दृष्ट होना। चतुर्थ भाव में क्रूर ग्रह होना तथा चतुर्थेश का पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट होना या पापी ग्रहों के मध्य (पाप कर्तरी योग में) होना। चतुर्थेश का द्वादश भाव में द्वादशेश (व्ययेश) के साथ होना। पंचम भाव, पंचमेश, सिंह राशि तीनों का पापी ग्रहों से युक्त, दृष्ट या घिरा होना।
--- लग्नेश चौथे हो या नीच राशि में हो या मंगल चौथे भाव में पापग्रह से दृष्ट हो या शनि चौथे भाव में पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
---- चतुर्थ भाव में मंगल हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो रक्त के थक्कों के कारण हृदय की गति प्रभावित होती है जिस कारण हृदय रोग होता है।
----- पंचमेश षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से युत हो अथवा पंचमेश छठे, आठवें या बारहवें में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
---- पंचमेश नीच का होकर शत्रुक्षेत्री हो या अस्त हो तो हृदय रोग होता है।
-----पंचमेश तथा द्वादशेश का एक साथ छठे, आठवें, 11वें या 12 वें भाव में होना। पंचमेश तथा षष्ठेश दोनों का षष्ठम भाव में होना तथा पंचम या सप्तम भाव में पापी ग्रह का होना। अष्टमेश का चतुर्थ या पंचम भाव में स्थित होकर पाप प्रभाव में होना। चंद्र और मंगल का अस्त होकर पाप युक्त होना। सूर्य, चंद्र व मंगल का शत्रुक्षेत्री एवं पाप प्रभाव में होना। शनि व गुरु का अस्त, नीच या शत्रुक्षेत्री होना तथा सूर्य व चंद्र पर पाप प्रभाव होना।
---- पंचमेश छठे भाव में, आठवें भाव में या बारहवें भाव में हो और पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
---- सूर्य पाप प्रभाव में हो तथा कर्क व सिंह राशि, चौथा भाव, पंचम भाव एवं उसका स्वामी पाप प्रभाव में हो अथवा एकादश, नवम एवं दशम भाव व इनके स्वामी पाप प्रभाव में हों तो हृदय रोग होता है।
---- मेष या वृष राशि का लग्न हो, दशम भाव में शनि स्थित हो या दशम व लग्न भाव पर शनि की दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
---- लग्न में शनि स्थित हो एवं दशम भाव का कारक सूर्य शनि से दृष्ट हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
--- नीच बुध के साथ निर्बल सूर्य चतुर्थ भाव में युति करे, धनेश शनि लग्न में हो और सातवें भाव में मंगल स्थित हो, अष्टमेश तीसरे भाव में हो तथा लग्नेश गुरु-शुक्र के साथ होकर राहु से पीड़ित हो एवं षष्ठेश राहु के साथ युत हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
---- चतुर्थेश एकादश भाव में शत्राुक्षेत्राी हो, अष्टमेश तृतीय भाव में शत्रुक्षेत्री हो, नवमेश शत्रुक्षेत्री हो, षष्ठेश नवम में हो, चतुर्थ में मंगल एवं सप्तम में शनि हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
---- लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो तो जातक को हृदय पीड़ा होती है।
------ लग्नेश शत्रुक्षेत्री या नीच का हो, मंगल चौथे भाव में शनि से दृष्ट हो तो हृदय शूल होता है।
---- सूर्य-मंगल-चन्द्र की युति छठे भाव में हो और पापग्रहों से पीड़ित हो तो हृदय शूल होता है।
---- मंगल सातवें भाव में निर्बल एवं पापग्रहों से पीड़ित हो तो रक्तचाप का विकार होता है।
---- सूर्य चौथे भाव में शयनावस्था में हो तो हृदय में तीव्र पीड़ा होती है।
--- लग्नेश चौथे भाव में निर्बल हो, भाग्येश, पंचमेश निर्बल हो, षष्ठेश तृतीय भाव में हो, चतुर्थ भाव पर केतु का प्रभाव हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।

ह्रदय रोग का ज्योतिष कारण

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ज्योतिष शास्त्र के अनुसार लग्न कुण्डली के प्रथम भाव के नाम आत्मा, शरीर, होरा, देह, कल्प, मूर्ति, अंग, उदय, केन्द्र, कण्टक और चतुष्टय है। इस भाव से रूप, जातिजा आयु, सुख-दुख, विवेक, शील, स्वभाव आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। लग्न भाव में मिथुन, कन्या, तुला व कुम्भ राशियाँ बलवान मानी जाती हैं।
इसी प्रकार षष्ठम भाव का नाम आपोक्लिम, उपचय, त्रिक, रिपु, शत्रु, क्षत, वैरी, रोग, द्वेष और नष्ट है तथा इस भाव से रोग, शत्रु, चिन्ता, शंका, जमींदारी, मामा की स्थिति आदि बातों का अध्ययन किया जाता है। प्रथम भाव के कारक ग्रह सूर्य व छठे भाव के कारक ग्रह शनि और मंगल हैं।
जैसा कि स्पष्ट है कि देह निर्धारण में प्रथम भाव ही महत्वपूर्ण है ओर शारीरिक गठन, विकास व रोगों का पता लगाने के लिए लग्न, इसमें स्थित राशि, इन्हें देखने वाले ग्रहों की स्थिति का महत्वपूर्ण योगदान होता है। इसके अलावा सूर्य व चन्द्रमा की स्थिति तथा कुण्डली के 6, 8 व 12वां भाव भी स्वास्थ्य के बारे में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं।
सौर मंडल में सभी ग्रह सूर्य के चारों ओर परिक्रमा करते हैं और सूर्य से ऊर्जा प्राप्त करते हैं। चूंकि सूर्य ऊर्जा (प्राण) का स्रोत है इसलिए वह हृदय का प्रतिनिधित्व करता है। चंद्र मन एवं मन से उत्पन्न विचार, भाव, संवेदना, लगाव का परिचायक है तो शुक्र प्रेम, आसक्ति व भोग का। काल पुरुष की नैसर्गिक कुंडली में चतुर्थ भाव कर्क राशि का है जिसका स्वामी चंद्र है। पंचम भाव सिंह राशि का है जिसका स्वामी सूर्य है। चंद्र मन का कारक होने के कारण मन में उत्पन्न विचार एवं भावनाओं का सृजनकर्ता है जिनका संचयन किसी के प्रति प्रेम, चाहत, आसक्ति, लगाव या फिर घृणा उत्पन्न करता है और इसीलिए चतुर्थ भाव से द्वितीय (धन) अर्थात पंचम भाव प्रेम, स्नेह, अनुराग का है। इसी बात को इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि षष्ठम भाव शत्रुता और मनमुटाव का है और इसका व्यय स्थान (इससे द्वादश भाव) अर्थात पंचम भाव शत्रुता के व्यय (नाश) का अर्थात मेल मिलाप, प्रेम व लगाव का भाव है।
जब प्रेम आसक्ति में निराशा मिलती है या वांछित परिणाम परिलक्षित नहीं होते, तो मानसिक आघात लगता है जो हृदय संचालन को असंतुलित करता है। इससे हृदय में विकार उत्पन्न होते हैं और व्यक्ति रोगग्रस्त होता है। इसलिए पंचम से द्वादश अर्थात चतुर्थ भाव हृदय संबंधी विकारों का भाव हुआ। सूर्य और चंद्र का सम्मिलित प्रभाव हृदय की धड़कन गति एवं रक्त संचार को नियंत्रित करता है। सूर्य, चंद्र और उनकी राशियां क्रमशः सिंह व कर्क, चतुर्थ भाव व चतुर्थेश तथा पंचम भाव व पंचमेश पर क्रूर पापी ग्रहों (मंगल, शनि, राहु, केतु) का प्रभाव आदि हृदय को पीड़ा देते हैं। षष्ठेश व अष्टमेश तथा द्वादशेश का इन पर अशुभ प्रभाव भी रोगकारक व आयुनाशक ही होता है। राहु-केतु का स्वभाव आकस्मिक एवं अप्रत्याशित रूप से परिणाम देने का है इसलिए राहु-केतु की युति या प्रभाव का अचानक एवं अप्रत्याशित हृदयाघात, दिल का दौरा आदि की स्थिति उत्पन्न कर सकता है।
सामान्यतः सूर्य व चंद्र पर अशुभ प्रभाव के साथ-साथ चतुर्थ भाव पर अशुभ प्रभाव हृदय से संबंधित विकार एवं रोगों की स्थिति उत्पन्न करता है जबकि पंचम भाव पर अशुभ प्रभाव प्रेम, आसक्ति, चाहत से संबंधित स्थिति बताता है। इसलिए हृदय विकार, प्रेम, भावनाओं एवं उनके परिणामों के संबंध में फलादेश करने के पूर्व वर्णित भावों, राशियों एवं ग्रहों की स्थिति और उन पर शुभ-अशुभ प्रभावों का सही आकलन एवं विश्लेषण कर लेना चाहिए।
मंगल जब चन्द्र राशि में चतुर्थ भाव में नीच राशि में बैठता है तब वह अपने सत्त्व को खो देता है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, शनि जब एक दूसरे से विरोधात्मक सम्बन्ध बनाते हैं तो विकार उत्पन्न होता है।
हृदय रोग में सूर्य(आत्मा व आत्मबल) अशुद्ध रक्त को फेफड़ों द्वारा शुद्ध करके शरीर को पहुंचाता है, चन्द्रमा रक्त, मन व मानवीय भावना, मंगल रक्त की शक्ति, बुध श्वसन संस्थान, मज्जा, रज एवं प्राण वायु, गुरु फेफड़े व शुद्ध रक्त, शुक्र मूत्र, चैतन्य, शनि अशुद्ध रक्त, आकुंचन का कारक है।
जिन व्यक्तियों का मंगल अच्छा नहीं होता है, उनमें क्रोध और आवेश की अधिकता रहती है। ऐसे व्यक्ति छोटी-छोटी बातों पर भी उबल पड़ते हैं। अन्य व्यक्तियों द्वारा समझाने का प्रयास भी ऐसे व्यक्तियों के क्रोध के आगे बेकार हो जाता है। क्रोध और आवेश के कारण ऐसे लोगों का खून एकदम गर्म हो जाता है। लहू की गति (रक्तचाप) के अनुसार क्रोध का प्रभाव भी घटता-बढ़ता रहता है। राहू के कारण जातक अपने आर्थिक वादे पूर्ण नहीं कर पाता है। इस कारण भी वह तनाव और मानसिक संत्रास का शिकार हो जाता है।
मकर राशि में 28 अंश पर मंगल उच्चा के होते हैं तथा कर्क राशि में नीच के होते हैं। मंगल वीर, योद्धा, खूनी स्वभाव और लाल रंग के हैं। अग्नि तत्व व पुरूष प्रधान तथा क्षत्रिय गुणों से युक्त है। यह राशि मस्तिष्क, मेरूदण्ड तथा शरीर की आंतरिक तंत्रिकाओं पर विपरीत प्रभाव डालती है। लग्न में यह राशि स्थित हो तथा मंगल नीच के हो या बुरे ग्रहों की इस पर दृष्टि हो तो ऎसा जातक उच्चा रक्तचाप का रोगी होगा। आजीवन छोटी-मोटी चोटों का सामना करता रहेगा। सीने में दर्द की शिकायत रहती है और ऎसे जातक के मन में हमेशा इस बात की शंका रहती है कि मुझे कोई जहरीला जानवर ना काट ले। परिणाम यह होता है कि ऎसे जातक का आत्म विश्वास कमजोर हो जाता है और उसकी शारीरिक शक्ति क्षीण हो जाती है जो अनावश्यक रूप से विविध प्रकार की मानसिक बीमारियों का कारण होती है।