फल और फूल तो सभी के उपयोग में आते ही हैं, पर इनकी छाल, तना, जड़ तक उपयोग में आते हैं, जहां तक कि इनको श्रद्धापूर्वक नमन करने मात्र से जीवन की विभिन्न कठिनाईयां सुगमता से दूर हो जाती है, और विधि विधान से पूजा करने पर तो मनोकामनाएं भी सिद्ध हो जाती है फिर क्यों नहीं हम इनसे अपने आपको जोड़ते हैं, कुछ वृक्षों से सभी के जीवन की उभय परेशानियां का हल नीचे उल्लेखित करता हूं, जिससे पाठकों का जीवन तो सहज होगा ही साथ में उन्हें पुण्य लाभ की भी प्राप्ति होगी। वृक्ष जीवन के हर मोड़ पर मनुष्य का साथ देते हैं, पर क्या हर मनुष्य वृक्षों के बारे में किसी भी मोड़ पर सोचता है? वनस्पति में प्रभू की क्या लीला समाहित हें अभी तक समझ से परे हैं, पर हमारे ऋषि मुनियों ने इनके कुछ दिव्य गुणों का अनुभव किया है। इन उपायों में साधक की पूर्ण श्रद्धा, भक्ति और विश्वास का होना परम आवश्यक है। यदि कन्या के विवाह में विलंब हो रहा हो या उत्तम योग्य वर की प्राप्ति नहीं हो पा रही हो और जिनकी जन्म कुंडली में 1, 4, 7, 8, 12 भाव में मंगल शनि या राहु स्थित हो, उन्हें कन्या के द्वारा विष्णु मंदिर में बृहस्पतिवार के दिन आंवले और पीपल वृक्ष का रोपड़ कर 21 दिन तक वृक्ष के समीप दीपक प्रज्ज्वलित करें तो निश्चित रूप से सुयोग्य वर की शीघ्र प्राप्ति के योग बनते हैं। पति-पत्नी में तनाव की परम सीमा विवाद से होती हुई तलाक तक पहुंच जाती हैं। कई बारे ऐसी स्थिति में तंत्र शास्त्र व ज्योतिष में भी कारण पकड़ से बाहर लगता है, तनाव की स्थिति सुख, शांति को खत्म कर तलाक तक की स्थिति निर्मित हो जाती है। इसके निवारण के लिये पति-पत्नी को संयुक्त रूप से शिव मंदिर में पीपल और बरगद वृक्ष का रोपड़ सोमवार के दिन करने पर आपसी मतभेद समाप्त होकर आपसी प्रेम व सामंजस्य बनता है। व्यापार में हो रही लगातार हानि को दूर करने, लक्ष्मी देवी व कुबेर देव को प्रसन्न करने के लिये सीताफल और अशोक के वृक्ष को शुक्रवार के दिन देवी मंदिर में लगावें। निश्चित रूप से व्यापार में निरंतर वृद्धि के योग बनेंगे। यदि किसी घर में व्यक्ति को भूत-प्रेत का भय हो या परिवार के किसी व्यक्ति को प्रेत बाधा की परेशानी हो तो अनिष्ट प्रभाव की समाप्ति के लिये शिव मंदिर में सोमवार के दिन कटहल का वृक्ष रोपड़ कर तेल का दीपक लगाकर प्रार्थना करें- ”आप दिव्य शक्तियों के साथ मेरी तथा मेरे परिवार की रक्षा करें।“ कटहल की एक पत्ती ले जाकर घर के मुख्य द्वार पर लगा दें, तथा लगातार 21 दिन समयानुसार वृक्ष के समीप तेल का दीपक लगायें। इसके प्रभाव के कारण निश्चित रूप से प्रेत बाधा तथा अनिष्टकारी प्रभाव समाप्त करने का यह उत्तम उपय है। इमली के वृक्ष से तो सभी परिचित हैं ही इसे तंत्र क्रिया में भी लोग विशिश्ट रूप से प्रयुक्त करते हैं, ऋण से मुक्ति के लिये असाध्य रोग निवारणार्थ, निःसंतान दम्पत्ति को संतान प्राप्ति के लिये तथा विशेष रूप से विद्यार्थियों को शिक्षा में उच्च सफलता की प्राप्ति के लिये किसी भी शनिवार के दिन दोपहर में श्री रामचंद्र जी के मंदिर में इमली वृक्ष का रोपड़ करें व लगातार 11 शनिवार तने में तेल का दीपक लगावें, निश्चित ही कार्य सिद्धि के योग बनेंगे। जिनके घर में पितृ दोष की संभावना हो तथा जिनकी जन्म कुंडली में पितृ दोष हो तो एकादशी के दिन घर के मुख्य द्व ार के समीप तुलसी वृख का रोपड़ कर प्रतिदिन पुजन व दर्शन मात्र से पितृ दोष के कारण उत्पनन समस्या दूर हो जाती है। प्रियजन की आत्मशान्ति व सद्गति प्राप्ति के लिये बालक की मृत्यु होने पर उद्यान या श्री गणेश मंदिर में अमरूद (जामफल) और इमली वृक्ष का रोपड़ करें। युवा की मृत्यु होने पर, श्मशान (मुक्तिधाम) में नीम और बेल वृक्ष का रोपड़ करें, युवती की मृत्यु होने पर देवी मंदिर में शुक्रवार के दिन पीपल और अशोक वृक्ष का रोपड़ करें। विवाहिता स्त्री की मृत्यु होने पर सीताफल और अशोक वृक्ष का रोपड़ करें, वृक्ष का रोपड़ सूतक अवस्था की समाप्ति के उपरांत ही करें तथा सदैव उसका ध्यान रखें। उपरोक्त उपाय से गया श्राद्ध के बराबर पुण्य प्राप्त होता है। नवग्रह संबंधी जन्म कुंडली में अनिष्ट दोष को दूर करने के लिये ज्योतिष में कई उपायों का वर्णन है परंतु नवग्रह पीड़ा से बचने के लिये सबसे उत्तम सरल सुगम विधि संबंधित ग्रह के वृक्ष का रोपड़ उपयुक्त है। सूर्य: जिनकी जन्म कुंडली में सूर्य नीच का या शत्रु ग्रही हो, जिन्हें हृदय रोग व नेत्र संबंधित समस्या हो तथा आई. ए. एस. अधिकारी, न्यायाधीश व मंत्रियों को उच्च पतिष्ठा व सम्मान के लिये सफेद आंकड़े व बेल वृक्ष का रोपड़ रविवार के दिन विष्णु मंदिर में करने से शीघ्रता शीघ्र लाभ प्राप्त होता है, सिंह राशि के जातक को भी यह उपायें उपयुक्त हैं। चंद्र: चंद्रमा से जलीय पदार्थ का विचार किया जाता है, जिनकी राशि कर्क ह व जन्म कुंडली में चंद्र नीच का व शत्रु ग्रही हो उन्हें तथा औषधियों के विक्रेता, सिंचाई विभाग, कृषक, डेरीफार्म तथा मानसिक रूप से परेशान व्यक्ति को पलाश व चंदन वृक्ष का रोपड़ सोमवार के दिन शिव मंदिर में करें। मंगल: मंगल शक्ति का प्रतीक है, यह एक अग्नि तत्व का ग्रह है जिन जातक की जन्म कुंडली में मंगल कर्क राशि गत 28 अंश का है, तथा जिनकी जन्म कुंडली मांगलिक प्रभाव युक्त हो उन्हें अनिष्ट प्रभाव शांति के लिये तथा सैनिक, पुलिस विभाग में कार्यरत मेष व वृश्चिक राशि वाले जातक को खेर व अनार का रोपड़ मंगलवार के दिन हनुमान जी के मंदिर में करना लाभप्रद रहता है। बुध: बुध पृथ्वी तत्व का ग्रह है, जिनकी जन्म कुंडली में बुध शत्रु ग्रही व 15 अंश पर मीन राशि में नीच का हो, उन्हें तथा गणितज्ञ, लेखन कार्य करने वाले, क्लर्क, के लिये दरोप (दूर्वा) व आंवले वृक्ष का रोपड़ बुधवार के दिन श्री गणेश मंदिर या विद्यालय में रोपड़ करना चाहिए। बृहस्पति (गुरु): वाराह मिहिर ने गुरु को ‘गौर मात्र’ बताया है, यह सतोगुणी व आकाश तत्व का पुरुष ग्रह है, जिनकी राशि धनु व मीन हो, जिनकी जन्म कुंडली में गुरु अस्तगत व पांच अंश पर मकर राशि का हो उन्हें तथा वेदपाठी यज्ञाचार्य, अध्यापक, न्यायाधीश को उच्च सफलता प्राप्ति के लिये बृहस्पतिवार के दिन श्री राम या श्री विष्णु मंदिर में पीपल वृक्ष का रोपड़ करना शुभप्रद रहता है। शुक्र: शुक्र राजस प्रकृति, स्त्रीग्रह व जल तत्व है। जिनकी राशि वृषभ व तुला है, जिनकी जन्म कुंडली में शुक्र कन्या राशिगत नीच का है उन्हें तथा संगीतज्ञ, गायक, श्रृंगार संबंधी सामग्री के विक्रेता, कलाकार वर्ग को उचच लाभ प्रतिष्ठा हेतु उदुम्बर, आशोक या सीताफल वृक्ष का रोपड़ देवी मंदिर में शुक्रवार को करें। शनि: शनि मकर व कुंभ राशि का स्वामी, वायु तत्व है। जिनकी जन्म कुंडली में शनि, सूर्य व मंगल का योग हो उनके लिये शनि घातक होता है, सूर्य शनि का योग पिता से विरोध उत्पन्न करता है, इसके अनिष्ट प्रभाव से वात रोग, पैरों में रोग, चित्त भ्रमित रोग की संभावना रहती है, जिन्हें शनि की ढैय्या, साढ़ेसाती चल रही हो उन्हें तथा लोहे के व्यापारी, वकालत के क्षेत्र से जुड़े व्यक्ति, तेल के व्यापारी को शनि देव की संतुष्टि व प्रसन्नता के लिये शमी वृक्ष का रोपड़ शनिवार के दिन शनि मंदिर के समीप या दक्षिणाभिमुख श्री हनुमान मंदिर में करना चाहिए। साथ ही पक्षियों के रहने की व्यवस्था करना व वृद्धजनों की सेवा द्वारा भी शनि देव विशेष रूप से संतुष्ट होते हैं। राहु-केतु: राहु-केतु छाया ग्रह है, जिनकी जन्म कुंडली में कालसर्प योग हो, कार्य में लगातार विघ्न आने पर इनके अनिष्ट प्रभाव से व्यक्ति को पिशाच पीड़ा, नेत्र रोग, भूत प्रेतादि बाधा, भय जन्य रोग, विषजन्य रोग उत्पन्न होते हैं। इसके अनिष्ट प्रभाव के निवारणार्थ, दर्भ, अष्टगंध व चंदन का वृक्ष शिव मंदिर में रोपड़ करना चाहिए तथा लगातार 21 दिन तक मछलियों को रामनाम उच्चारण सहित गोलियां खिलाने से भी अनिष्ट प्रभाव समाप्त हो जाते हैं। वृष रोपड़ का समय स्थान व उसकी सुरक्षा विशेष महत्वपूर्ण है जिससे किये गये कर्म का पुण्य लाभ प्राप्त हों। वास्तुशास्त्र के अनुसार घर के समीप पाकर, नीम, आम, बहेड़ा, पीपल, बेर, गूलर, इमली, केला, बेल, खजुर आदि वृक्ष का होना अशुभ माना गया है। घर के समीप चंपा, अशोक, कटहल, चमेली, शाल, मौलसिरी आदि वृक्ष शुभ फल प्रदान करने वाले कहे गये हैं। ‘बृहत्संहिता’ व ‘समरांगणसूत्रधार’ के अनुसार जिस घर के आंगन में नींबू, अनार, केला व बेर उगते हैं उस घर की वृद्धि में बाधा उत्पन्न करते हैं। ‘बृहदैवज्ञ’ के अनुसार जिस घर में पीपल, केला, कदम्ब, बीजू, नींब का वृक्ष होता है उसमें रहने वाले की वंश वृद्धि में रूकावट उत्पन्न करता है। भविष्य पुराण के अनुसार घर के भीतर लगायी गई तुलसी धन-पुत्र व हरि भक्ति देने वाली होती है प्रतःकाल तुलसी का दर्शन करने से जाने अनजाने हुए पाप तुरंत समाप्त हो जाते हैं व सुवर्ण दान का फल प्राप्त होता है। घर के दक्षिण की ओर तुलसी वृक्ष का रोपण अनिष्टकारी माना गया हैं घर के समीप अशुभ वृक्ष होने पर वृक्ष व घर के मध्य में शुभ फल देने वाले वृक्ष को लगा देना चाहिए। घर के समीप पीपल वृक्ष होने पर उसकी सेवा पुजा करते रहने से अशुभ फल प्राप्त नहीं होता।
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Thursday, 17 December 2015
विकृतिजन्य व्यक्तित्व
व्यक्तित्व विकृति अत्यन्त गहराई तक बैठे हुए कुसमायोजित। व्यवहारों का वह संरूप है जो प्राय: किशरोवस्था या इसके पूर्व दिखाई देता है, अधिकांशत: प्रौढावस्था में बना रहता
है . यद्यपि मध्यावस्था एवं वृद्धावस्था में कम दिखाई देता है। विकृतिजन्य व्यक्तित्व अपने अवयवों के सन्तुलन और उनकी अभिव्यक्ति में असामान्य होता है परिणामस्वरूप न केवल वह व्यक्ति बल्कि पूरा समाज उससे प्रभावित होता है।विकृतिजन्य व्यक्तित्व की साधारण तौर पर निम्नलिखित विशेषताएँ होती है
1.असमाजिकता-ड़न व्यक्तियों में सामाजिक व्यवहारों की कमी पाई जाती है। सामजिक परम्पराओं और मर्यादाओं का ये सम्मान करने नहीं जानते और न ही कानून के प्रति इनमें आदर होता है। सामाजिक प्रतिष्ठा एल यज्ञा के इन्हें परवाह नहीं होती। समाज के अन्य व्यक्तियों से सहयोग का इनमें अभाव रहता है। इनका संबंधसमाजविरोधी कार्यों से भी होता है। सामाजिक अवसरों अथवा उत्सवों में ये सम्मिलित नहीं होते। ये दूसरों की भलाई को ध्यान में रखे बिना ऐसे कार्यों में संलग्न रहते है जो उनके स्वार्थ से प्रेरित होते है।
2. आवश्यकताओं और क्रियाओं में असमानता -विकृतिजन्य व्यक्तित्व वाले अपनी आवश्यकताओं के प्रति समायोजनात्मक दृष्टिकोणा नहीं रखते और न ही उनकी पूर्ति के लिए समुचित व्यवसाय करते है। ये छोटी-छोटी कठिनाइयों या विफलताओं यर घबडा जाते है। कठिनाइयों के सामने ये अपना साहस खो बैठते है।
3. कुससमायोजनात्मक व्यवहार -एक सामान्य व्यक्ति अपने व्यवहार को समय तथा परिस्थिति के अनुरूप समायोजित करते हुए कार्यं करता है। सुखद स्थितियों में सुख के और दुखद स्थितियों म दुख के भाव प्रकट करता है परन्तु विकृतिजन्य व्यक्तित्व में व्यवहार का कुससमायोजनात्मक पक्ष दिखलाई देता है। ये समय और परिस्थिति का ध्यान रखे बिना आचरण करते हैँ। जीवन की विभिन्न दबावपूर्ण परिस्थितियों में ये अपना समायोजन बनाए रखने में असफल होते हैं।
4. असुरक्षा की भावना -ये व्यक्ति जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन नहीं कर पाते इसलिए इनके अन्दर सदैव असुरक्षा की भावना विद्यमान स्मृती है। ये बिना किसी कारण के ही अपने को असुरक्षित अनुभव करते है।
5. अवास्तविक जीवन लक्ष्य -सामान्य एवं संतुलित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अपने जीवन लक्ष्यों का निर्धारण अपनी क्षमताओं तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप रखते है तथा इनकी प्राप्ति के लिए समुचित उपाय करते है परन्तु विकृतजन्य व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अपनी सामर्थ, योग्यता तथा क्षमता से बाहर अपने लक्ष्य निर्धारित करते है।
6. अनुपयुक्ता-इन व्यक्तियों का व्यवहार समय, स्थान, व्यक्ति एवं परिस्थिति के लिए उपयुक्त नहीं होता। इनके व्यवहार में अस्वाभाविकता दृष्टिगोचर होती है अथवा स्वाभाविकता के नाटक के झलक होती है। कई कार व्यक्ति स्वय को विभिन्न परिस्थितियों में अनुपयुक्त गाता है । अनुपयुक्ता की यह भावना उसके व्यक्तित्व को कुसमयोजित करती है।
विकृतजन्य व्यक्तित्व को उसके लक्षणों की गंभीरता के आघार पर दो वर्गों में रखा जा सकता है
1 अल्प गंभीर व्यक्तित्व विकृति
2 मध्यम गंभीर व्यक्तित्व विकृति
इससे अधिक गंभीर व्यक्तित्व विकृति को मानसिक रोगों के अन्तर्गत रखा जाता है।
1.अल्प गंभीर व्यक्तित्व विकृति-व्यक्तित्व विकार की इस श्रेणी के अन्तर्गत ये व्यक्ति आते है जो सामान्य से अधिक विचलित नहीं होते। इनके लक्षणों में भी गंभीरता कम होती है अर्थात् ये अल्प मात्रा में और कम समय के लिए विद्यमान होते है। अल्प गभीर व्यक्तित्व विकृति के अन्तर्गत आत्मप्रेमी व्यक्तित्व को रखा जा सलता हैं। आत्मप्रेमी व्यक्तित्व -नारसिसिज्म अथवा प्रेम का प्रत्यय फ्रांयड द्वारा प्रदान किया गया है। 2. मध्यम 'गंभीर व्यक्तित्व विकृति - विकृतिजन्य व्यक्तित्व वाले वे व्यक्ति जिनके लक्षण अपेक्षाकृत अधिक गंभीर हां, इस श्रेणी में आते हैँ। इनके लक्षण सीमावर्ती होते है। इससे अधिक गभीर लक्षण मानसिंक रोगो की श्रेणी में आ जाते है। इस प्रकार की व्यक्तित्व विकृति के कई प्रकार है
1)शिजॉयड व्यक्तित्व- शिजयड व्यक्तित्व की सबसे प्रमुख विशेषता है उनकी संवेदनशीलता लज्जा एवं संकोच तथा सामाजिक सम्बन्धी की उपेक्षा।अधिकांशत: ये आत्मकेन्द्रित होते हैं। व्यक्तित्व में शिजॉयड प्रतिक्रियाएं बाल्यकाल से ही दिखलाई पड़नी प्रारंभ हो जाती है। इस श्रेणी में आने वाले व्यक्ति चिडचिडे एवं एकान्त प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। ये बहुत अधिक मात्रा में दिवास्वप्न देखते है लेकिन वास्तविकता पर भी इनकी पकड़ बनी रहती है। इनका चिन्तन आत्माभिमुखी होता है। शिजॉयड व्यक्तित्व वाले लोगों को अपनी अत्कामक्रता तथा विद्वेष को अभिव्यक्त करने मे अत्यन्त कठिनाई होती है। वे बाधा डालने वाली प्रतिबल एवं तनावपूर्ण परिस्थितियों में आभासी रूप से अलगाव की प्रतिक्रिया प्रदर्शित करते हैं। भावनाओं के अभिव्यक्त न कर सकने की अपनी कमी को छिपने के लिए वे ऊपरी तौर पर शांति और अलगाव की मनोरचनाओं का सहारा लेते हैं। ये सभी लक्षण उसके कुसमायोजन को बढावा देते है।
2)साईक्लायड व्यक्तित्व -व्यक्तित्व विकृति का यह संरूप उतह विषाद प्रतिक्रियाओं का यह सरल रूप है। साईक्लायड व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में उत्साह और विषाद के एक के बाद एक नियमित आवर्ती सत्र होते है। उत्साह के सत्र में व्यक्ति अत्यन्त उत्साही एवं जोशीले, आशावादी तथा मित्रवत होता है जबकि विषाद के सत्र में उसमें दुख, निराशा, कम उर्जा तथा व्यर्थता एबं अनुपयुक्तता का एहसास पाया जाता है। उत्साह के अवस्था में वह सामाजिक आकर्षणा का व्यक्तित्व रहता है। वह किसी समिति का सदस्य, संयोजक अथवा स्वयंसेवी के रूप में देखा जा सकता है जबकि विषाद की अवस्था में वह बुझ-बुझा रहता है। सामान्य तौर पर इन व्यक्तियों के मूड का यह परिवर्तन तनावपूर्ण परिवेशगत दशाओं के कारण नहीं होता। अधिकांश साईक्लायड व्यक्तित्व वाले व्यक्ति बिना मनोविक्षिप्ति की विशेषताएँ विकसित किये पूरा जीवन उपर्युक्त दो सत्रों में व्यतीत कर देते है।
3) पैरानॉयड व्यक्तित्व -पैरानॉयड व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है उसकी अति संवेदनशीलता । इनका व्यवहार अत्यन्त कठोर एवं शत्रुतापूर्ण होता है। इनकी दृष्टि में स्वयं का महत्त्व बहुत अधिक होता है। इन व्यक्तियो में अकारण संदेह और ईंष्यों की भावना पाई जाती है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले दूसरों से सुदृढ़ तथा स्थायी संवेगिक सम्बन्ध बनने में कठिनाई का अनुभव करते है। ये अपने आपको अत्यधिक महत्त्व देते है और अपनी त्रुटियों के लिए दूसरों पर दोषरोपण करते है। बहुत से पैरानॉयड़ व्यक्तित्व वाले व्यक्ति जीवन की परिस्थितियों से सीमावर्ती समायोजन किसी तरह स्थापित क़र लेते है।
है . यद्यपि मध्यावस्था एवं वृद्धावस्था में कम दिखाई देता है। विकृतिजन्य व्यक्तित्व अपने अवयवों के सन्तुलन और उनकी अभिव्यक्ति में असामान्य होता है परिणामस्वरूप न केवल वह व्यक्ति बल्कि पूरा समाज उससे प्रभावित होता है।विकृतिजन्य व्यक्तित्व की साधारण तौर पर निम्नलिखित विशेषताएँ होती है
1.असमाजिकता-ड़न व्यक्तियों में सामाजिक व्यवहारों की कमी पाई जाती है। सामजिक परम्पराओं और मर्यादाओं का ये सम्मान करने नहीं जानते और न ही कानून के प्रति इनमें आदर होता है। सामाजिक प्रतिष्ठा एल यज्ञा के इन्हें परवाह नहीं होती। समाज के अन्य व्यक्तियों से सहयोग का इनमें अभाव रहता है। इनका संबंधसमाजविरोधी कार्यों से भी होता है। सामाजिक अवसरों अथवा उत्सवों में ये सम्मिलित नहीं होते। ये दूसरों की भलाई को ध्यान में रखे बिना ऐसे कार्यों में संलग्न रहते है जो उनके स्वार्थ से प्रेरित होते है।
2. आवश्यकताओं और क्रियाओं में असमानता -विकृतिजन्य व्यक्तित्व वाले अपनी आवश्यकताओं के प्रति समायोजनात्मक दृष्टिकोणा नहीं रखते और न ही उनकी पूर्ति के लिए समुचित व्यवसाय करते है। ये छोटी-छोटी कठिनाइयों या विफलताओं यर घबडा जाते है। कठिनाइयों के सामने ये अपना साहस खो बैठते है।
3. कुससमायोजनात्मक व्यवहार -एक सामान्य व्यक्ति अपने व्यवहार को समय तथा परिस्थिति के अनुरूप समायोजित करते हुए कार्यं करता है। सुखद स्थितियों में सुख के और दुखद स्थितियों म दुख के भाव प्रकट करता है परन्तु विकृतिजन्य व्यक्तित्व में व्यवहार का कुससमायोजनात्मक पक्ष दिखलाई देता है। ये समय और परिस्थिति का ध्यान रखे बिना आचरण करते हैँ। जीवन की विभिन्न दबावपूर्ण परिस्थितियों में ये अपना समायोजन बनाए रखने में असफल होते हैं।
4. असुरक्षा की भावना -ये व्यक्ति जीवन की विभिन्न परिस्थितियों में समायोजन नहीं कर पाते इसलिए इनके अन्दर सदैव असुरक्षा की भावना विद्यमान स्मृती है। ये बिना किसी कारण के ही अपने को असुरक्षित अनुभव करते है।
5. अवास्तविक जीवन लक्ष्य -सामान्य एवं संतुलित व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अपने जीवन लक्ष्यों का निर्धारण अपनी क्षमताओं तथा सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप रखते है तथा इनकी प्राप्ति के लिए समुचित उपाय करते है परन्तु विकृतजन्य व्यक्तित्व वाले व्यक्ति अपनी सामर्थ, योग्यता तथा क्षमता से बाहर अपने लक्ष्य निर्धारित करते है।
6. अनुपयुक्ता-इन व्यक्तियों का व्यवहार समय, स्थान, व्यक्ति एवं परिस्थिति के लिए उपयुक्त नहीं होता। इनके व्यवहार में अस्वाभाविकता दृष्टिगोचर होती है अथवा स्वाभाविकता के नाटक के झलक होती है। कई कार व्यक्ति स्वय को विभिन्न परिस्थितियों में अनुपयुक्त गाता है । अनुपयुक्ता की यह भावना उसके व्यक्तित्व को कुसमयोजित करती है।
विकृतजन्य व्यक्तित्व को उसके लक्षणों की गंभीरता के आघार पर दो वर्गों में रखा जा सकता है
1 अल्प गंभीर व्यक्तित्व विकृति
2 मध्यम गंभीर व्यक्तित्व विकृति
इससे अधिक गंभीर व्यक्तित्व विकृति को मानसिक रोगों के अन्तर्गत रखा जाता है।
1.अल्प गंभीर व्यक्तित्व विकृति-व्यक्तित्व विकार की इस श्रेणी के अन्तर्गत ये व्यक्ति आते है जो सामान्य से अधिक विचलित नहीं होते। इनके लक्षणों में भी गंभीरता कम होती है अर्थात् ये अल्प मात्रा में और कम समय के लिए विद्यमान होते है। अल्प गभीर व्यक्तित्व विकृति के अन्तर्गत आत्मप्रेमी व्यक्तित्व को रखा जा सलता हैं। आत्मप्रेमी व्यक्तित्व -नारसिसिज्म अथवा प्रेम का प्रत्यय फ्रांयड द्वारा प्रदान किया गया है। 2. मध्यम 'गंभीर व्यक्तित्व विकृति - विकृतिजन्य व्यक्तित्व वाले वे व्यक्ति जिनके लक्षण अपेक्षाकृत अधिक गंभीर हां, इस श्रेणी में आते हैँ। इनके लक्षण सीमावर्ती होते है। इससे अधिक गभीर लक्षण मानसिंक रोगो की श्रेणी में आ जाते है। इस प्रकार की व्यक्तित्व विकृति के कई प्रकार है
1)शिजॉयड व्यक्तित्व- शिजयड व्यक्तित्व की सबसे प्रमुख विशेषता है उनकी संवेदनशीलता लज्जा एवं संकोच तथा सामाजिक सम्बन्धी की उपेक्षा।अधिकांशत: ये आत्मकेन्द्रित होते हैं। व्यक्तित्व में शिजॉयड प्रतिक्रियाएं बाल्यकाल से ही दिखलाई पड़नी प्रारंभ हो जाती है। इस श्रेणी में आने वाले व्यक्ति चिडचिडे एवं एकान्त प्रेमी के रूप में जाने जाते हैं। ये बहुत अधिक मात्रा में दिवास्वप्न देखते है लेकिन वास्तविकता पर भी इनकी पकड़ बनी रहती है। इनका चिन्तन आत्माभिमुखी होता है। शिजॉयड व्यक्तित्व वाले लोगों को अपनी अत्कामक्रता तथा विद्वेष को अभिव्यक्त करने मे अत्यन्त कठिनाई होती है। वे बाधा डालने वाली प्रतिबल एवं तनावपूर्ण परिस्थितियों में आभासी रूप से अलगाव की प्रतिक्रिया प्रदर्शित करते हैं। भावनाओं के अभिव्यक्त न कर सकने की अपनी कमी को छिपने के लिए वे ऊपरी तौर पर शांति और अलगाव की मनोरचनाओं का सहारा लेते हैं। ये सभी लक्षण उसके कुसमायोजन को बढावा देते है।
2)साईक्लायड व्यक्तित्व -व्यक्तित्व विकृति का यह संरूप उतह विषाद प्रतिक्रियाओं का यह सरल रूप है। साईक्लायड व्यक्तित्व वाले व्यक्ति में उत्साह और विषाद के एक के बाद एक नियमित आवर्ती सत्र होते है। उत्साह के सत्र में व्यक्ति अत्यन्त उत्साही एवं जोशीले, आशावादी तथा मित्रवत होता है जबकि विषाद के सत्र में उसमें दुख, निराशा, कम उर्जा तथा व्यर्थता एबं अनुपयुक्तता का एहसास पाया जाता है। उत्साह के अवस्था में वह सामाजिक आकर्षणा का व्यक्तित्व रहता है। वह किसी समिति का सदस्य, संयोजक अथवा स्वयंसेवी के रूप में देखा जा सकता है जबकि विषाद की अवस्था में वह बुझ-बुझा रहता है। सामान्य तौर पर इन व्यक्तियों के मूड का यह परिवर्तन तनावपूर्ण परिवेशगत दशाओं के कारण नहीं होता। अधिकांश साईक्लायड व्यक्तित्व वाले व्यक्ति बिना मनोविक्षिप्ति की विशेषताएँ विकसित किये पूरा जीवन उपर्युक्त दो सत्रों में व्यतीत कर देते है।
3) पैरानॉयड व्यक्तित्व -पैरानॉयड व्यक्तित्व की प्रमुख विशेषता है उसकी अति संवेदनशीलता । इनका व्यवहार अत्यन्त कठोर एवं शत्रुतापूर्ण होता है। इनकी दृष्टि में स्वयं का महत्त्व बहुत अधिक होता है। इन व्यक्तियो में अकारण संदेह और ईंष्यों की भावना पाई जाती है। इस प्रकार के व्यक्तित्व वाले दूसरों से सुदृढ़ तथा स्थायी संवेगिक सम्बन्ध बनने में कठिनाई का अनुभव करते है। ये अपने आपको अत्यधिक महत्त्व देते है और अपनी त्रुटियों के लिए दूसरों पर दोषरोपण करते है। बहुत से पैरानॉयड़ व्यक्तित्व वाले व्यक्ति जीवन की परिस्थितियों से सीमावर्ती समायोजन किसी तरह स्थापित क़र लेते है।
Pt.P.S.Tripathi
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Feel free to ask any questions
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Know what it is mangal dosh?????
Astrology reading and making of birth charts came into practice much later than the Vedic times. By that time chart making had become a general practice; not only had a lot of time elapsed but the culture, society and human values had changed. All over the world human societies were dependent on agriculture and manpower was used in all activities.
It is an irony of fate that all the shastras or texts were written by men which favour him to the maximum as compared to women. The bias of men can easily be seen in all these texts when one starts looking at them minutely. The same is true for ‘mangal dosha’ or ‘Mars evil’ in astrology. Mars is the most potent planet of the zodiac after the Sun and every astrologer worth his salt, will praise the quality of Mars if it is present in the lagna of his male client. He may say that this person is very strong, courageous, energetic, forceful, dynamic, fearless, can conquer his enemies easily, may become commander –in-chief etc. etc.. However if the same Mars is present in a girl’s chart the astrologer gets depressed himself and makes sure that his client remains depressed for the rest of his life. His total reversal will be seen as he uses words like arrogance, stubborn, aggressive, negative, intolerant, dominating, housebreaker and god-forbid her husband may die due to this harmful Mars. Alas one wonders what has happened to Mars all of a sudden.
According to the prevalent understanding of mangal dosha, the placement of Mars can create havoc if placed in the following houses – 12th, 1st, 4th, 7th and 8th. According to South Indian system of astrology mangal dosha extends to two more houses 2nd and 5th. Mangal dosha is calculated from lagna, Moon and Venus. Acording to this calculation more than 80% people are born ‘manglik’. In other words, if five people are present in a group then four of them are bound to be manglik. It is very difficult to find non-manglik persons according to this calculation.
Lagna represents the physical aspect of human being; Moon denotes the mental makeup of a person and Venus decides the sexual aspect of a human being. The 12th house is considered bad for the placement of Mars because it deals with bed comforts or loss of energy. It is believed that if Mars is present in the 12th house in a woman’s chart especially then her sexual desires may be much more than what her husband can cope with. Therefore a girl born with Mars in the 12th house is generally discarded without giving much importance to the other aspects of her chart.
Lagna or 1st house represents self. If Mars is present in this house especially vis-a-vis to the girl then we had explained what would be the outcome. The 4th house deals with family, comfort and peace of mind. If Mars is placed in the 4th house in a girls chart then sure shot she is going to be a house-breaker sooner or later therefore she is rejected for the happiness of the groom’s family.
The 7th house represents spouse or partner and the placement of Mars in this house can make the girl very demanding for more sexual pleasures from her husband which he cannot easily fulfil. God forbid placement of Mars in the 8th house is a sure shot passport for the death of her husband. The 8th house is considered death house in astrology and Mars being a violent planet one imagines destruction only if it is present in the girls chart.
Our understanding and interpretation of Mars is very different to the prevalent concept. Man and woman are equally important and not lacking in any quality. According to Shivasutra in every man 50% of woman is present and in the same way in every woman 50% man is present. That is why any woman can show her fierce side as and when required and the same way every man has a softer side to him and can exhibit a motherly instinct. No culture no society no country can progress by ignoring or condemning 50% of its population and with changing times women are playing a very important role all over the world and so also in India. If India’s economy is progressing it is because of the large contribution of women power. In Vedic times women were given equal importance and that is why that society and knowledge evolved to the maximum.
Times are changing and so is the awareness of womenfolk especially in India. Astrology is nothing but the understanding, reading and study of time alone. Therefore it is the duty of savant astrologers to adapt to the changing times. According to our understanding if Mars is present in the 12th house of a girl’s chart then instead of creating problems on the sexual level she may be very useful in teaching her husband the inner concept of sex. The deeper understanding of sex is to enjoy it to the hilt and then drop it and move forward. The energy which was going waste or lying dormant can be used for spiritual development. When Mars is present in the 1st house in the woman’s horoscope then she can be a go-getter and solve the problems of a household just as a man does. The job of Mars in the first house is to give ample energy and force to the person so the person can fulfil their tasks with ease. Mars as a planet does not differentiate between girl and boy.
When Mars is placed in the 4th house of a girl’s chart then instead of destroying the peace of the house or fighting with her mother-in-law she will have better ideas to make the house heaven with her positive energy. When Mars is placed in the 7th house in a girl’s chart then in spite of focusing her energy on sex and destruction she can provide total support to her husband which gives freedom to both of them to bring happiness and harmony in the family. There is no truth in it that when Mars is present in the 8th house in a girl’s chart then she brings death to her husband. Birth and death are controlled by the Almighty and man’s role is insignificant in this scheme of the cosmos. The 8th house is also known for its secret power and hidden knowledge and treasure and placement of Mars in this house always contributes in those fields.
It is an irony of fate that all the shastras or texts were written by men which favour him to the maximum as compared to women. The bias of men can easily be seen in all these texts when one starts looking at them minutely. The same is true for ‘mangal dosha’ or ‘Mars evil’ in astrology. Mars is the most potent planet of the zodiac after the Sun and every astrologer worth his salt, will praise the quality of Mars if it is present in the lagna of his male client. He may say that this person is very strong, courageous, energetic, forceful, dynamic, fearless, can conquer his enemies easily, may become commander –in-chief etc. etc.. However if the same Mars is present in a girl’s chart the astrologer gets depressed himself and makes sure that his client remains depressed for the rest of his life. His total reversal will be seen as he uses words like arrogance, stubborn, aggressive, negative, intolerant, dominating, housebreaker and god-forbid her husband may die due to this harmful Mars. Alas one wonders what has happened to Mars all of a sudden.
According to the prevalent understanding of mangal dosha, the placement of Mars can create havoc if placed in the following houses – 12th, 1st, 4th, 7th and 8th. According to South Indian system of astrology mangal dosha extends to two more houses 2nd and 5th. Mangal dosha is calculated from lagna, Moon and Venus. Acording to this calculation more than 80% people are born ‘manglik’. In other words, if five people are present in a group then four of them are bound to be manglik. It is very difficult to find non-manglik persons according to this calculation.
Lagna represents the physical aspect of human being; Moon denotes the mental makeup of a person and Venus decides the sexual aspect of a human being. The 12th house is considered bad for the placement of Mars because it deals with bed comforts or loss of energy. It is believed that if Mars is present in the 12th house in a woman’s chart especially then her sexual desires may be much more than what her husband can cope with. Therefore a girl born with Mars in the 12th house is generally discarded without giving much importance to the other aspects of her chart.
Lagna or 1st house represents self. If Mars is present in this house especially vis-a-vis to the girl then we had explained what would be the outcome. The 4th house deals with family, comfort and peace of mind. If Mars is placed in the 4th house in a girls chart then sure shot she is going to be a house-breaker sooner or later therefore she is rejected for the happiness of the groom’s family.
The 7th house represents spouse or partner and the placement of Mars in this house can make the girl very demanding for more sexual pleasures from her husband which he cannot easily fulfil. God forbid placement of Mars in the 8th house is a sure shot passport for the death of her husband. The 8th house is considered death house in astrology and Mars being a violent planet one imagines destruction only if it is present in the girls chart.
Our understanding and interpretation of Mars is very different to the prevalent concept. Man and woman are equally important and not lacking in any quality. According to Shivasutra in every man 50% of woman is present and in the same way in every woman 50% man is present. That is why any woman can show her fierce side as and when required and the same way every man has a softer side to him and can exhibit a motherly instinct. No culture no society no country can progress by ignoring or condemning 50% of its population and with changing times women are playing a very important role all over the world and so also in India. If India’s economy is progressing it is because of the large contribution of women power. In Vedic times women were given equal importance and that is why that society and knowledge evolved to the maximum.
Times are changing and so is the awareness of womenfolk especially in India. Astrology is nothing but the understanding, reading and study of time alone. Therefore it is the duty of savant astrologers to adapt to the changing times. According to our understanding if Mars is present in the 12th house of a girl’s chart then instead of creating problems on the sexual level she may be very useful in teaching her husband the inner concept of sex. The deeper understanding of sex is to enjoy it to the hilt and then drop it and move forward. The energy which was going waste or lying dormant can be used for spiritual development. When Mars is present in the 1st house in the woman’s horoscope then she can be a go-getter and solve the problems of a household just as a man does. The job of Mars in the first house is to give ample energy and force to the person so the person can fulfil their tasks with ease. Mars as a planet does not differentiate between girl and boy.
When Mars is placed in the 4th house of a girl’s chart then instead of destroying the peace of the house or fighting with her mother-in-law she will have better ideas to make the house heaven with her positive energy. When Mars is placed in the 7th house in a girl’s chart then in spite of focusing her energy on sex and destruction she can provide total support to her husband which gives freedom to both of them to bring happiness and harmony in the family. There is no truth in it that when Mars is present in the 8th house in a girl’s chart then she brings death to her husband. Birth and death are controlled by the Almighty and man’s role is insignificant in this scheme of the cosmos. The 8th house is also known for its secret power and hidden knowledge and treasure and placement of Mars in this house always contributes in those fields.
Ramayana as a astrological point of view
Introduction: Bharat is the sacred Karma Bhoomi and Punya Bhoomi endowed with the majestic Himalayas, Vindhya Range of mountains, forests like Naimisaranya, Dandakaranya and other places, and holy rivers like Ganga, Yamuna, Narmada, Godavari, Krishna and Kaveri flowing through the length and breadth of the country. Brahmarishis and Maharishis born in this land have handed down an invaluable legacy and wisdom through various classical texts. The Vedas are the basis for our Sanatana Dharma. These Vedas were identified by Sri Veda Vyasa and passed on to his disciples. There are six Angaas (limbs) to this divine knowledge. Jyotisha Shastra is one of them. The traditional Vidyaas of our country are classified as 18. For those who cannot read the Vedas, the Itihasas and Puranas are a boon. Srimad Ramayana is the Adi Kaavya, the first treatise authored by sage Valmiki as per the instructions of the creator under the guidance of sage Narada. The life of Sri Rama, the Maryaada Purushottama, is vividly described in this treatise. There are plenty of references to Jyotisha Shastra in Ramayana. Ramayana consists of seven kandas (chapters). In every kanda we find references to Planets, Muhurthas Vaastu and a variety of other information useful in the day-to-day life. I will narrate a few of them here as they came to my mind. 1) BAALA KAANDA In the first chapter – Balakanda, we have the reference to the birth of Sri Rama and his three brothers.fter 12 months queen Kousalya gave birth to Sri Rama in the month of Chaitra on Shukla Navami day. Kousalya delivered Sri Rama, the Universal God, in Punarvasu star in “Karkata Lagna” with Jupiter (exalted) with Moon, Sun, Mars, Venus and Saturn also being exalted. Bharatha was born in the star Pushyami in Meena Lagna. The twins Laxmana and Shatrughna were born in the star Aslesha in Karkata Lagna on the next day”. The practitioners of astrology can draw the chart and have an in-depth study. The marriage of Sri Rama and his brothers was performed in Uttara Phalguni star. This star is proclaimed as very auspicious for marriage by the learned”. Marrying four children of the same parentage in the same Lagna and at the same venue is prohibited. That being so, how did the marriage of Sri Rama and his three brothers on the same day is justified? Though the father is the same person, the mothers are different. So the above prohibitory rule did not apply in the case of Rama and Bharatha. But Laxmana and Shatrughna had the same mother. In this case though the Lagna is same, the Navamsa Lagna is different. Hence this is acceptable. This clarification is available in the commentaries on Ramayana which have discussed these aspects elaborately with reference to other connected texts.
2) Ayodhya kaand In the second chapter – Ayodhya Kanda we find references to utpata-karaka planetary combinations, references to dreams and their effect, the importance of Vaastu Shastra etc.After the coronation of Sri Rama was announced, Dasaratha sends word to Sri Rama. When Sri Rama comes, he informs him.“Rama! I am getting frightening dreams. I have seen meteors falling with a thunderous sound. Oh Rama! my birth star is occupied with the planets Surya, Kuja and Rahu. The Daivagnas state that when such omens appear and malefics occupy the birth star as stated above, normally, the king will either die or face a dangerous situation. Today the moon has risen in the Punarvasu star. Tomorrow will be Pushyami which is specific for this auspicious function as per the Daivagnas. Hence you get ready for the coronation and observe the required rituals”. Here we find references to evil dreams and conjunction of Malefics and auspicious occasions.When Sri Rama was asked to go to the forests and Laxmana gets furious, Sri Rama pacifies him “Happiness and grief, peace and anger, profit and loss, smooth-sailing and mistakes - all these happen as per praarabdha. One has to understand the secret of this and conduct himself to make one’s life happy and peaceful”. After reaching the forest, Laxmana constructs the hermitage for the trio to live in. Here Sri Rama tells Laxmana We spend enormous amounts in constructing big buildings. We should be equally careful to see that the required rituals are performed.
3) Aranya kaand: Valmiki describes the event of Ravana taking away Janaki as This statement has got a very deep meaning. We should try to analyse and understand the same. We find in this chapter some startling points. A bird (Jatayu) tells Sri Rama about Muhurtha, a demon Kabandha, after being killed becomes a divine personality and advises Sri Rama as to what one should do when he is going through a bad (dasa) period. Jatayu tells Sri Rama - “Ravana has taken away your consort, Sita in the “Vinda” muhurtha. The person who steals another person’s property in this Muhurtha, will not be able to retain same with him or enjoy same. The owner will get back the property. Ravana did not think about this while taking away Sita. He will definitely perish like a fish caught in the hook.” Kabandha’s hands were cut off by Rama and Laxmana and he was cremated. The demon gets his original Gandharva form and advises Sri Rama not to get worried. He tells him about Sugriva: He states that “one who is afflicted by a bad dasa will get relief with the help of another who is in similar state. Rama’s wife was stolen by Ravana and Sugriva’s wife also was taken away by Vali. So both are facing identical problems. Rama is nearing the end of his bad dasa. So also is Sugriva. So their friendship will be beneficial to both of them. This could be perceived by Kabandha after he was released from the curse and attained his original form”. There is a deep meaning in these words of advice.
4) kishkindha kaand: Valmiki describes the fight between Vali and Sugriva as a fight between Kuja and Budha This point has to be considered well. The monkey army led by Angada and consisting of Jambavan, Neela, Hanuman and others reaches the shores of the sea. The bird Sampathi wants to devour them. Angada narrates the story of Rama. Then Sampathi tells them about the whereabouts of Sita.“Staying here, I am able to see Janaki and Ravana. The sorrowing Sita is kept in Lanka and is being guarded by female demons. You will be able to find her, the daughter of Janaka there. We have the golden eyes that can see things that are miles away.” Here we should note that even birds have divine vision by virtue of the penance done by them. Sampathi is definite about what it said. Daivagnas with the background of penance and knowledge of Jyotisha Shastra will be able to give amazing predictions.
5) Sundar Kaand: We find references to Vaastu Shastra in this chapter. Hanuman sees the layout of Lanka and the magnificent palaces of Ravana. Hanuman has seen the magnificent palaces of Ravana brimming with prosperity. These buildings are absolutely bereft of any Vaastu defects. They appeared as if they were built by Maya himself in accordance with Vaastu Shastra”. Here the reference to Maya, the author of Vaastu Shastra is to be noted. This implies that the Vaastu Shastra was there even before Ramayana period.Here the sage describes “Sita as the most venerable lady and the consort of the Guru of Laxmana who is an ardent disciple of his Guru (Rama). If such a lady is afflicted by grief we have to note that time is insurmountable.” The statement “Kaalo hi Durathi kramah” appears for nearly more than 50 times in this treatise. The sage is drawing the attention of the readers to the undisputed fact that “KAALA” is insurmountable. One has to bow down before the kaal purush. One’s wisdom lies in identifying the auspicious and inauspicious segments of time and act in a wise manner taking guidance from the Shaastras and Gurus. The narration of her dream by Trijata to the female demons is very interesting to analyse for those who are conscious of swapnas (dreams) and have an interest to read Swapna Shastra.
6)Yudh Kaand: In this chapter we find that the muhurtha for starting from Kishkindha to Lanka for the battle has been fixed by Sri Rama.“Oh Sugriva! Now the sun is in the mid-heaven and the muhurtha is Vijaya . So let us start our journey now. Today is Uttaraphalguni star and tomorrow will be Hastha star. Let us start with army of all the Vaanaraas”. After the death of Indrajit, the grief-stricken Ravana, in a fit of anger heads to kill Sita. At that time, his minister by name Suparsva stops him and advises him to fight with Rama and gain victory. He advises Rama as under “You get the army ready today, the chaturdasi day of Krishna Paksha. Tomorrow is Amaavasya when you should go to fight Rama to gain victory”. Amaavasya is good for demons and bad for others. Hence Rama finds it very difficult to kill Ravana. He was tired. At that time sage Agastya appears before Rama and gives the upadesha of aaditya hridayam. He advises him to repeat it three times with pointed devotion and that he will kill Ravana now. That was meticulously followed by Sri Rama and Ravana was conquered. Righteousness prevailed over evil.
2) Ayodhya kaand In the second chapter – Ayodhya Kanda we find references to utpata-karaka planetary combinations, references to dreams and their effect, the importance of Vaastu Shastra etc.After the coronation of Sri Rama was announced, Dasaratha sends word to Sri Rama. When Sri Rama comes, he informs him.“Rama! I am getting frightening dreams. I have seen meteors falling with a thunderous sound. Oh Rama! my birth star is occupied with the planets Surya, Kuja and Rahu. The Daivagnas state that when such omens appear and malefics occupy the birth star as stated above, normally, the king will either die or face a dangerous situation. Today the moon has risen in the Punarvasu star. Tomorrow will be Pushyami which is specific for this auspicious function as per the Daivagnas. Hence you get ready for the coronation and observe the required rituals”. Here we find references to evil dreams and conjunction of Malefics and auspicious occasions.When Sri Rama was asked to go to the forests and Laxmana gets furious, Sri Rama pacifies him “Happiness and grief, peace and anger, profit and loss, smooth-sailing and mistakes - all these happen as per praarabdha. One has to understand the secret of this and conduct himself to make one’s life happy and peaceful”. After reaching the forest, Laxmana constructs the hermitage for the trio to live in. Here Sri Rama tells Laxmana We spend enormous amounts in constructing big buildings. We should be equally careful to see that the required rituals are performed.
3) Aranya kaand: Valmiki describes the event of Ravana taking away Janaki as This statement has got a very deep meaning. We should try to analyse and understand the same. We find in this chapter some startling points. A bird (Jatayu) tells Sri Rama about Muhurtha, a demon Kabandha, after being killed becomes a divine personality and advises Sri Rama as to what one should do when he is going through a bad (dasa) period. Jatayu tells Sri Rama - “Ravana has taken away your consort, Sita in the “Vinda” muhurtha. The person who steals another person’s property in this Muhurtha, will not be able to retain same with him or enjoy same. The owner will get back the property. Ravana did not think about this while taking away Sita. He will definitely perish like a fish caught in the hook.” Kabandha’s hands were cut off by Rama and Laxmana and he was cremated. The demon gets his original Gandharva form and advises Sri Rama not to get worried. He tells him about Sugriva: He states that “one who is afflicted by a bad dasa will get relief with the help of another who is in similar state. Rama’s wife was stolen by Ravana and Sugriva’s wife also was taken away by Vali. So both are facing identical problems. Rama is nearing the end of his bad dasa. So also is Sugriva. So their friendship will be beneficial to both of them. This could be perceived by Kabandha after he was released from the curse and attained his original form”. There is a deep meaning in these words of advice.
4) kishkindha kaand: Valmiki describes the fight between Vali and Sugriva as a fight between Kuja and Budha This point has to be considered well. The monkey army led by Angada and consisting of Jambavan, Neela, Hanuman and others reaches the shores of the sea. The bird Sampathi wants to devour them. Angada narrates the story of Rama. Then Sampathi tells them about the whereabouts of Sita.“Staying here, I am able to see Janaki and Ravana. The sorrowing Sita is kept in Lanka and is being guarded by female demons. You will be able to find her, the daughter of Janaka there. We have the golden eyes that can see things that are miles away.” Here we should note that even birds have divine vision by virtue of the penance done by them. Sampathi is definite about what it said. Daivagnas with the background of penance and knowledge of Jyotisha Shastra will be able to give amazing predictions.
5) Sundar Kaand: We find references to Vaastu Shastra in this chapter. Hanuman sees the layout of Lanka and the magnificent palaces of Ravana. Hanuman has seen the magnificent palaces of Ravana brimming with prosperity. These buildings are absolutely bereft of any Vaastu defects. They appeared as if they were built by Maya himself in accordance with Vaastu Shastra”. Here the reference to Maya, the author of Vaastu Shastra is to be noted. This implies that the Vaastu Shastra was there even before Ramayana period.Here the sage describes “Sita as the most venerable lady and the consort of the Guru of Laxmana who is an ardent disciple of his Guru (Rama). If such a lady is afflicted by grief we have to note that time is insurmountable.” The statement “Kaalo hi Durathi kramah” appears for nearly more than 50 times in this treatise. The sage is drawing the attention of the readers to the undisputed fact that “KAALA” is insurmountable. One has to bow down before the kaal purush. One’s wisdom lies in identifying the auspicious and inauspicious segments of time and act in a wise manner taking guidance from the Shaastras and Gurus. The narration of her dream by Trijata to the female demons is very interesting to analyse for those who are conscious of swapnas (dreams) and have an interest to read Swapna Shastra.
6)Yudh Kaand: In this chapter we find that the muhurtha for starting from Kishkindha to Lanka for the battle has been fixed by Sri Rama.“Oh Sugriva! Now the sun is in the mid-heaven and the muhurtha is Vijaya . So let us start our journey now. Today is Uttaraphalguni star and tomorrow will be Hastha star. Let us start with army of all the Vaanaraas”. After the death of Indrajit, the grief-stricken Ravana, in a fit of anger heads to kill Sita. At that time, his minister by name Suparsva stops him and advises him to fight with Rama and gain victory. He advises Rama as under “You get the army ready today, the chaturdasi day of Krishna Paksha. Tomorrow is Amaavasya when you should go to fight Rama to gain victory”. Amaavasya is good for demons and bad for others. Hence Rama finds it very difficult to kill Ravana. He was tired. At that time sage Agastya appears before Rama and gives the upadesha of aaditya hridayam. He advises him to repeat it three times with pointed devotion and that he will kill Ravana now. That was meticulously followed by Sri Rama and Ravana was conquered. Righteousness prevailed over evil.
Weak planets in horoscope
n general, debilitated planets are considered as 'First Rate Malefics' and also a benefic planet. If debilitated, the planet is supposed to harm those planets and houses it is joined with, or aspects. Debilitated planets are also supposed to ruin and destroy those things which they rule, or fall in their houses, navamanshas and nakshtra. obviously if in the horoscope of any individual, any planet is found to be placed in a debilitated position, the native becomes very apprehensive of it's outcome. Therefore, there is a need to understand the condition, or combinations which actually reduce the ill effects of a debilitated planet and form Neech bhang Raj Yoga. While in Western astrology there is nothing like Neech bhang Raj yoga, in Hindu astrology such yogas have their own importance and their influence on a native and his life is always felt.This verse means that if a planet is debilitated in sign and the lord of that sign, or the lord of exalted sign of that planet be placed in an angle (Kendra) from either the moon sign, the native will become a religious, all powerful and supreme king.if both the lords of debilitated sign and that of debilitated planet's exalted sign be posited in an angle (Kendra) the native will become a supreme king. If a debilitated planet is aspected by the owner of the said debilitated sign, the native will become a famous king and if it is a good house the native will undoubtedly become a king, or a queen, or an emperor. The rule laid down in this verse is that in case a planet is debilitated and the ascendant (Lagna) be a moveable Sign (1.4.7.10) of Zodiac and if the lord of Navamansha sign occupied by the debilitated planet be placed in angle (Kendra) or Trine (Trikona) from the ascendant, this debilitation is cancelled and a strong Raj yoga is formed. In this case even if rising sign is not a moveable one, but if it's lord is posited in a moveable sign, or Navamansha, the debilitation of cancellation takes place and strong Raj yoga is formed. While in various works of Hindu astrology, a number of neech bhang Raj yogas have been mentioned by the scholars of different times, to sum them up in a short article like this, it may be concluded thus : 1.A debilitated planet aspecting another debilitated planet. 2.If a debilitated planet aspecting in any of second, third, fourth, ninth, tenth and eleventh houses. 3.If a debilitated planet is exalted in Navamansha. 4.If any of the owners of debilitated, or exalted sign of depressed planet be placed in an angle (Kendra) or trine (Trikona) either from ascendant, or from Moon and 5.Where ascendant is a moveable sign and it's lord also occupies a movable sign, or navamsha and navamsha lord of debilitated planet is placed in an angle, or trine from ascendent or Moon sign. 6.This debilitation of a planet stands cancelled and a strong Raj yoga is formed. The principles laid down here are the general principles of predictive astrology, which should always be used in judging the effects of planets, which otherwise seem awkwardly placed. The Neech Bhang Raj yogas are a purely Hindu conception and such yogas are more powerful than simple Raj yogas. so one need not worry, for such yogas have the capacity to raise the native from the lowest rung of ladder to the highest. So when you come across a planet in a horoscope next time, tell the native that what is apparently a weakness in the birth chart is really it's strength and he should view these combinations not as a threat, but as an opportunity and the here lies the very purpose of Indian astrology and works explaining it's concepts.
मानसिक मंदन
मनुष्य की भौतिक उपलब्धियों में भिन्नताएँ विचारणीय है। तीव्र बुद्धि के न्यूटन ने जहाँ अपने आविष्कारों से अमरत्व प्राप्त किया वहीँ कुछ ऐसे मद व्यक्ति भी हमें मिल जाएँगे जो अपने प्राथमिक आवश्यकताओं के पूर्ति नहीँ कर सकते। विभिनन क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियों के आधार पर हम उनकी योग्यताओं का आकलन करते है। इन योग्यताओं के बारे में सामान्य जन की धारणा यह है कि व्यक्तियों की यह विलक्षण तथा जन्म-जात विशेषताएँ है जो उनकी उपलब्धियों को प्रभावित करती है। व्यक्तिगत विभिन्नताओं के संस्थापक सर फ्रांसिस गाल्टन मानव सृजनन विज्ञान में अधिक इच्छुक थे। उनका विश्वास था कि अधिकतर मानव भिन्नताएँ जन्मजात होती है तथा इन भिन्नताओं के लिए उत्तरदायी विशेषताएं एक पीढी से दूसरी पीढ़ी में शारीरिक वंशानुत्क्रम के रूप में स्थान्तरित हो जाती है। गाल्टन ने इस तथ्य पर बल दिया कि कोई भी दो व्यक्ति एकदूसरे के समान नहीं है। किसी में बौद्धिक योग्यता की मात्रा अधिक पाई जाती है तो किसी में कमा बौद्धिक योग्यत्ता (मानसिक योग्यता) के आधार पर जब व्यक्तियों का श्रेणीकरण किया जाता है तो निम्नस्तर प्राप्त करने वाले व्यक्तिव को ही मानसिक मंदत्ता के वर्ग में रखा जाता है।
मानसिक मंदता एक प्रकार का मानसिक रोग है जो निम्म बौद्धिक योग्यता की ओंर संकेत करता है। मानसिक मंदता एक प्रकार की मानसिक रुग्णता है। यह एक ऐसी मानसिक दशा है जिससे बौद्धिक क्षमता एक सीमित मात्रा में पाई जाती है ।मनोवैज्ञानिक साहित्य के अवलोकन से यह विदित होता है कि मानसिक मंदता के लिए क्षीणमन्दयकता, मंद्बुद्धिता, जड़ता,मानसिक अप सामान्यता,अल्पमानसिकता आदि शब्दों को पर्यायवाची के रूप म प्रयोग किया जाता है।
मानसिक इतिहास का इतिहास नया नहीँ है, वरन मानव इतिहास जैसा ही पुराना है। मानसिक रोगी सभी काल में पाये जाते रहे है, परन्तु उनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण पहले अमानवीय रहा है। परन्तु अब लोगे के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है और लोगों ने मानसिक मन्द व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया है । 1799 में सर्वप्रथम जीन इटराड ने मानसिक मदन का अध्ययन प्रारंभ किया । इंगलैड में 1840 तथा 1847 में अमेरिका में मानसिक रूप से मंद बालकों के लिए विद्यालयों के स्थापना की गई। डारविन के विकासवाद सिद्धांत से प्रभावित होकर उनके रिश्ते के भाई सर फ्रांसिस गाल्टन ने आनुवंशिकता के प्रमाण का अध्ययन किया। यही नहीं बुंट ने 1879 में अपनी प्रयोगशाला में उपकरण के माध्यम से बुद्धि का मापन किया। उनके प्रभावों से प्रभावित होकर गाल्टन, पियर्सन, कैटेले, बिने, थोर्नडाइक, टरमन आदि मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अल्फ्रेड बिने ( 1908 ) में सर्वप्रथम मानसिक आयु प्रत्यय का प्रयोग किया और यह मत प्रकट किया कि वास्तविक आयु में वृद्धि के साथ-साथ मानसिक आयु में भी वृद्धि होती है। बुद्धि लब्धि का सम्प्रत्ययीकरण टरमन और उनके सहयोगियों द्वारा हुआ। स्टर्न ( 1911 ) ने मानसिक लब्धि संप्रत्यय को प्रस्तुत किया।
मानसिक मंदन के लक्षण
न्यून बौद्धिक क्षमता-ऐसे व्यक्तियों में मस्तिष्क का विकास अपूर्ण रहता है तथा बुद्धि के विकास की गति मंद पड़ जाती है जिससे मानसिक मंदन पाया जाता है।
2. न्यून शरीरिक विकास-यदि सामान्य बालक की तुलना मानसिक मंद बालकों से की जाय तो मानसिक मंद बालको का कद अपेक्षाकृत छोटा, पैर छोटा, होंठ भद्दे तथा सिर बड़ा होता है। इनकी संज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक योग्यताएँ देर से विकसित होती है। यही नहीं, भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी इनमें पाई जाती है। "
3. जीवन की समस्याओ के समाधान में असफलता-मंद बालकों में अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को समझने और उनके समाधान की योग्यता पाई जाती है। ऐसे बालको में व्यवहार कुशलता का अभाव पाया जाता है।
4. अनुपयुक्त समायोजन-मानसिक मंद व्यक्तियों में मानसिक एवं शारीरिक न्यूनता पाई जाती है इसलिए इनके व्यवहार में विचित्रता पाई जाती है जो सामान्य व्यक्तियों के व्यवहार से पूर्णत: भिन्न होती है। इनमें व्यवहार कुशलता तथा सामाजिक परिस्थिति को समझने की योग्यत्ता का अभाव पाया जाता है इसलिए इनका समायोजन ठीक नहीं होता है ।
5. सामाजिक गुणों को अनुपयुक्ता-मानसिक मंद व्यक्तियों में कल्पनाशीलता, तर्कशीलता, व्यवहार कुशलता, आत्मसंयम, आत्म विश्ववास, आत्मरक्षा जैसे सदगुणों का अभाव पाया जाता है। परिणामस्वरूप वे सामाजिक और असामाजिक कार्यों में अन्तर नहीं कर पाते है जिससे उनके व्यवहारों से समाजविरोधी कार्यों की अभिव्यक्ति होती है।
6. असामान्य मस्तिष्क संरचना-मानसिक मद व्यक्तियों में ज़लशीर्षता तथा लघुशीर्षता पाई जाती है, जिसमे उनकी मस्तिष्क संरचना का उपयुक्त विकास नहीं हो पता है और उनमें मानसिक मंदन पाया जता है।
7. जीविकोपार्जन में असमर्थता-चूँकि मानसिक मंद व्यक्तियों को अपनी देनिक जीवनचर्या के लिए ही नहीं, वरन व्यक्तिगत स्वच्छता के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है इसलिए ऐसे व्यक्तियों में निर्भरता बहुत अधिक पाई जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने लिए जीविकोपार्जन नहीँ कर सकते हैँ। .
8. अन्य जीवनकाल-मानसिक में बालक कभी दीर्घायु नहीं होते। कम बालक ही किशोरावस्था प्राप्त कर पाते है। जीवनकाल और मानसिक मंदन की तीव्रता में अनुसंधानकर्ताओं ने यह परिणाम प्राप्त किया है कि मानसिक मंदन जितना ही तीव्र होगा, जीवनकाल के कम होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
9. शैक्षिक अयोग्यता-मानसिक मंद बालकों का बौद्धिक स्तर औसत से नीचे होते है इसलिए उसे औपचारिक या अनौपचारिक प्रशिक्षण के द्वारा प्रशिक्षित करके उन्हें किसी प्रकार शिक्षित नहीं किया जा सकता है।
10. असमान्य शारीरिक अंग-सामान्य तथा मानसिक मंद बालकों की तुलना करने पर शारीरिक अंगों में असामान्यत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सामान्य व्यक्तियों की तुलना में मानसिक मंद बालकों के शारीर के अपेक्षाकृत असामन्य होते है।
11. प्रेरणा एवं संवेग की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति-मानसिक मंद बालकों में अपने प्राथमिक आवश्यकताओं तथा भूख प्यास के प्रति ही कोई चिन्तास नहीं पाई जाती है। यही नहीं, इनमें किसी प्रकार के संवेग तथा प्रेम, घृणा, दुख, प्रसन्नता आदि की अभिव्यक्ति भी प्रदर्शित नहीँ होती है। इनका जीवन आवेगहीन, उद्देश्यहीन, आवश्यकताहीन, प्रेरणाहिन एवं संवेगहीन होता है।
12. शरीरिक विकार की अधिकता-मानसिक मंद बालकों में अनेक प्रकार के शारीरिक विकार पाए जाते है जैसे चपरासी सम्बन्धी विकार, मस्तिष्क के उत्तकों एवं कोशिकाओं के अपक्षय आदि, इन्ही विकारों के कारण मानसिक मंदन पाया जाता है | इन विकारों की मात्रा जितनी ही अधिक होगी,मानसिक मंदन भी उतना ही अधिक होगा|
मानसिक मंदता एक प्रकार का मानसिक रोग है जो निम्म बौद्धिक योग्यता की ओंर संकेत करता है। मानसिक मंदता एक प्रकार की मानसिक रुग्णता है। यह एक ऐसी मानसिक दशा है जिससे बौद्धिक क्षमता एक सीमित मात्रा में पाई जाती है ।मनोवैज्ञानिक साहित्य के अवलोकन से यह विदित होता है कि मानसिक मंदता के लिए क्षीणमन्दयकता, मंद्बुद्धिता, जड़ता,मानसिक अप सामान्यता,अल्पमानसिकता आदि शब्दों को पर्यायवाची के रूप म प्रयोग किया जाता है।
मानसिक इतिहास का इतिहास नया नहीँ है, वरन मानव इतिहास जैसा ही पुराना है। मानसिक रोगी सभी काल में पाये जाते रहे है, परन्तु उनके प्रति लोगों का दृष्टिकोण पहले अमानवीय रहा है। परन्तु अब लोगे के दृष्टिकोण में परिवर्तन आ गया है और लोगों ने मानसिक मन्द व्यक्तियों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण रवैया अपनाया है । 1799 में सर्वप्रथम जीन इटराड ने मानसिक मदन का अध्ययन प्रारंभ किया । इंगलैड में 1840 तथा 1847 में अमेरिका में मानसिक रूप से मंद बालकों के लिए विद्यालयों के स्थापना की गई। डारविन के विकासवाद सिद्धांत से प्रभावित होकर उनके रिश्ते के भाई सर फ्रांसिस गाल्टन ने आनुवंशिकता के प्रमाण का अध्ययन किया। यही नहीं बुंट ने 1879 में अपनी प्रयोगशाला में उपकरण के माध्यम से बुद्धि का मापन किया। उनके प्रभावों से प्रभावित होकर गाल्टन, पियर्सन, कैटेले, बिने, थोर्नडाइक, टरमन आदि मनोवैज्ञानिकों ने बुद्धि के क्षेत्र में अपना महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। अल्फ्रेड बिने ( 1908 ) में सर्वप्रथम मानसिक आयु प्रत्यय का प्रयोग किया और यह मत प्रकट किया कि वास्तविक आयु में वृद्धि के साथ-साथ मानसिक आयु में भी वृद्धि होती है। बुद्धि लब्धि का सम्प्रत्ययीकरण टरमन और उनके सहयोगियों द्वारा हुआ। स्टर्न ( 1911 ) ने मानसिक लब्धि संप्रत्यय को प्रस्तुत किया।
मानसिक मंदन के लक्षण
न्यून बौद्धिक क्षमता-ऐसे व्यक्तियों में मस्तिष्क का विकास अपूर्ण रहता है तथा बुद्धि के विकास की गति मंद पड़ जाती है जिससे मानसिक मंदन पाया जाता है।
2. न्यून शरीरिक विकास-यदि सामान्य बालक की तुलना मानसिक मंद बालकों से की जाय तो मानसिक मंद बालको का कद अपेक्षाकृत छोटा, पैर छोटा, होंठ भद्दे तथा सिर बड़ा होता है। इनकी संज्ञानात्मक तथा क्रियात्मक योग्यताएँ देर से विकसित होती है। यही नहीं, भाषा संबंधी त्रुटियाँ भी इनमें पाई जाती है। "
3. जीवन की समस्याओ के समाधान में असफलता-मंद बालकों में अपने दैनिक जीवन की समस्याओं को समझने और उनके समाधान की योग्यता पाई जाती है। ऐसे बालको में व्यवहार कुशलता का अभाव पाया जाता है।
4. अनुपयुक्त समायोजन-मानसिक मंद व्यक्तियों में मानसिक एवं शारीरिक न्यूनता पाई जाती है इसलिए इनके व्यवहार में विचित्रता पाई जाती है जो सामान्य व्यक्तियों के व्यवहार से पूर्णत: भिन्न होती है। इनमें व्यवहार कुशलता तथा सामाजिक परिस्थिति को समझने की योग्यत्ता का अभाव पाया जाता है इसलिए इनका समायोजन ठीक नहीं होता है ।
5. सामाजिक गुणों को अनुपयुक्ता-मानसिक मंद व्यक्तियों में कल्पनाशीलता, तर्कशीलता, व्यवहार कुशलता, आत्मसंयम, आत्म विश्ववास, आत्मरक्षा जैसे सदगुणों का अभाव पाया जाता है। परिणामस्वरूप वे सामाजिक और असामाजिक कार्यों में अन्तर नहीं कर पाते है जिससे उनके व्यवहारों से समाजविरोधी कार्यों की अभिव्यक्ति होती है।
6. असामान्य मस्तिष्क संरचना-मानसिक मद व्यक्तियों में ज़लशीर्षता तथा लघुशीर्षता पाई जाती है, जिसमे उनकी मस्तिष्क संरचना का उपयुक्त विकास नहीं हो पता है और उनमें मानसिक मंदन पाया जता है।
7. जीविकोपार्जन में असमर्थता-चूँकि मानसिक मंद व्यक्तियों को अपनी देनिक जीवनचर्या के लिए ही नहीं, वरन व्यक्तिगत स्वच्छता के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है इसलिए ऐसे व्यक्तियों में निर्भरता बहुत अधिक पाई जाती है। ऐसे व्यक्ति अपने लिए जीविकोपार्जन नहीँ कर सकते हैँ। .
8. अन्य जीवनकाल-मानसिक में बालक कभी दीर्घायु नहीं होते। कम बालक ही किशोरावस्था प्राप्त कर पाते है। जीवनकाल और मानसिक मंदन की तीव्रता में अनुसंधानकर्ताओं ने यह परिणाम प्राप्त किया है कि मानसिक मंदन जितना ही तीव्र होगा, जीवनकाल के कम होने की संभावना उतनी ही अधिक होगी।
9. शैक्षिक अयोग्यता-मानसिक मंद बालकों का बौद्धिक स्तर औसत से नीचे होते है इसलिए उसे औपचारिक या अनौपचारिक प्रशिक्षण के द्वारा प्रशिक्षित करके उन्हें किसी प्रकार शिक्षित नहीं किया जा सकता है।
10. असमान्य शारीरिक अंग-सामान्य तथा मानसिक मंद बालकों की तुलना करने पर शारीरिक अंगों में असामान्यत्ता स्पष्ट दृष्टिगोचर होती है। सामान्य व्यक्तियों की तुलना में मानसिक मंद बालकों के शारीर के अपेक्षाकृत असामन्य होते है।
11. प्रेरणा एवं संवेग की अनुपयुक्त अभिव्यक्ति-मानसिक मंद बालकों में अपने प्राथमिक आवश्यकताओं तथा भूख प्यास के प्रति ही कोई चिन्तास नहीं पाई जाती है। यही नहीं, इनमें किसी प्रकार के संवेग तथा प्रेम, घृणा, दुख, प्रसन्नता आदि की अभिव्यक्ति भी प्रदर्शित नहीँ होती है। इनका जीवन आवेगहीन, उद्देश्यहीन, आवश्यकताहीन, प्रेरणाहिन एवं संवेगहीन होता है।
12. शरीरिक विकार की अधिकता-मानसिक मंद बालकों में अनेक प्रकार के शारीरिक विकार पाए जाते है जैसे चपरासी सम्बन्धी विकार, मस्तिष्क के उत्तकों एवं कोशिकाओं के अपक्षय आदि, इन्ही विकारों के कारण मानसिक मंदन पाया जाता है | इन विकारों की मात्रा जितनी ही अधिक होगी,मानसिक मंदन भी उतना ही अधिक होगा|
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मानसिक शक्तियों
श्रृंगार एवं प्रेम
यह मानसिक शक्ति कपाल के पीछे की ओर निचले भाग मे जहाँ गर्दन का प्रारम्भ होता है,स्थित होती है| इसका उभार उस भाग के साधारण विकास को देखकर अनुभव किया जा सकता है | यदि मन की यह शक्ति बहुत अधिक विकसित हो तो व्यक्ति काम वासना तथा विलासिता का दीवाना हो जाता है और लम्पट एवं व्यम्भिचारी बन जाता सामान्य रूप से बलवती होने पर यह मानसिक शक्ति,स्फूर्ति एवं प्रेरणा प्रदान करती है | इस प्रकार के व्यक्ति अपने विपरीत सैक्स के प्राणियों मे लोकप्रिय होने के लिए सब कुछ करने तथा उन्हें सब कुछ भेट करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते हैं । इनके जीवन मे प्रेम को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । प्रेम ही इनका जीवन और कार्यक्षेत्र होता है ।
सन्तान प्रेम
मन की यह शक्ति ऊपर वर्णन की गई प्रथम शक्ति के ठीक ऊपर होती है और मस्तक के पीछे के भाग का सबसे अंश इससे प्रभावित होता है । इस क्षेत्र का विकास पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के मस्तक में अधिक देखा जाता है । यह शक्ति वात्सल्य अर्थात सन्तान के प्रति बहुत स्नेह करने के लिए प्रेरित करती है, इसलिए नारी पूरुष की अपेक्षा सन्तान के प्रति अधिक स्नेहशील एवं वात्सल्यमयी होती है । इसी शक्ति के प्रभाव से माता-पिता अपने अबोध, छोटे, शक्तिहीन बच्चों का लालन-पालन करने तथा उन्हें सब प्रकार की सुविधा प्रदान करने के लिए प्रेरित होते है ।
ध्यान केन्द्रीकरण
मनुष्य के ध्यान को किसी भी बिन्दू पर केन्द्रित करने वाली मन की शक्ति मस्तक के पीछे की ओर सर्वाधिक उन्नत भाग के बिलकुल ऊपर दूसरी शक्ति अर्थात वात्सल्य एवं स्नेह की शक्ति के ऊपर स्थित होती है| इस प्रकार के व्यक्ति साधारणतया बुद्धिजीवी होते हैं । शारीरिक कार्य काने मे वे कम ही आत्मनिर्भर होते हैं । वे शारीरिक श्रम करने से कतराते है । अपने मित्रों का चुनाव प्राय: सुशिक्षित,सभ्य, बुद्धिजीवी एवं सुसंस्कृत लोगो में से करते है । आनी महत्ता का प्रदर्शन शब्दों से नहीं बल्कि अपने कार्यों से करते है ।
स्नेह एवं मिलनसारिता
मन की यह शक्ति सन्तान प्रेम अर्थात वात्सल्य की शक्ति के बगल मे कुछ ऊपर की ओर अवस्थित है । वैसे तो यह मानसिक शक्ति पुरुषों और स्त्रियों दोनों में विद्यमान होती हैं, परन्तु प्राय: ऐसा देख गया है कि पुरुषों को अपेक्षा स्त्रियों में यह अधिक विकसित होती है । ऐसे व्यक्तियो को मित्रो एवं-सगे सम्बन्धियों की संगति विशेष रुप से प्रिय होती है और वे उनसे बार-बार मिलने की चेष्टा करते है ।
झगड़ालू शक्ति
झगड़ालू शक्ति को इंद्रिय कान के पीछे लगभग डेढ़ इंच की दूरी पर स्थित होती है । ध्यान से देखने या हाथ से टटोलने पर ज्ञात होगा कि कानों के बीच में तथा पीछे मस्तक का एक भाग अन्य स्थानों की अपेक्षा चौड़ा होता है । यह मानसिक शक्ति मनुष्य में झगड़ालु प्रवृति तथा कलहप्रियता की भावना को जाग्रत करती है । इस प्रकार के लोग वाद-विवाद और तर्क-विर्तक करने को सदा तत्पर रहते हैं । ऐसे व्यक्तियों की जबान जितनी तेज होती है, उनका शरीर भी उतना ही हुष्ट-पुष्ट और सबल होता है। शरीरिक भ्रम खेलों में इनकी विशेष रूचि रहती है ।
विध्वंशक शक्ति
विध्वंसात्मक शक्ति की ग्रंथि कान के ठीक ऊपर और कुछ-कुछ उसके आस-पास विद्यमान होती है । इस ग्रंथि के विकसित रूप का अनुमान इस स्थान पर मस्तक की चौडाई से लगाया जा सकता हैं। ऐसे व्यक्ति के मन मे किसी व्यक्ति के प्रति दया, ममता, सहानुभूति आदि के भाव नहीं होते । निर्मम से निर्मम हत्या करते समय भी उसका हुदय विचलित नहीं होगा ।
यह सौभाग्य से परोपकारिता शक्ति के अत्यधिक विकसित होने के फलस्वरुप यह विध्वंसक शक्ति प्रभावित होकर दुर्बल पड़ जाए तो व्यक्ति की विध्वंसात्मक प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लग जाता है ।
गोपनीयता
गोपनीयता को मानसिक शक्ति मस्तक के पार्शव भाग के मध्य में विध्वंसक शक्ति के केन्द्र के ठीक ऊपर स्थित है तथा उसके बदुत आगे बढी हुई है। जब ये दोनों शक्तियां पूर्णतया विकसित होती हैं, तो मस्तक के पार्श्व भाग का नीचे का एवं मध्य का भाग साधारणतया भरा हुआ दिखाई देता है । इस शक्ति का मुख्य कार्य अन्य शक्तियों पर अंकुश लगाकर उन्हें नियंत्रित करना है । यदि यह शक्ति का विकसित हो, तो मनुष्य को गोयनीयता की शक्ति का हास हो जता है । ऐसे व्यक्ति अपना भेद भी दुसरे के सामने खोल देते है ।
प्राप्ति की लालसा
प्राप्ति की लालसा की मानसिक शक्ति का केन्द्र गोपनीयता की शक्ति के क्षेत्र में होता है । यह शक्ति मनुष्य को अधिकाधिक भौतिक संपत्ति अर्जित करने और उसका संचय करने के लिए प्रेरित करती है । मनुष्य मे यह मानसिक शक्ति अत्यधिक बलवती हो और विवेक शक्ति दुर्बल हो, तो वह धन-प्राप्ति की अपनी लालसा को वैधानिक एवं नैतिक सीमाओं में बांधकर नहीं रखता, अपितु जल्दी से जल्दी तथा अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए चोरी-डकैती जैसे अनैतिक उपायों का भी सहारा लेने से भी नहीं चुकता है|
सृजन-शक्ति
मनुष्य को सृजन-शक्ति जो रचना या निर्माण करने के लिए प्रेरित करती है, कनपटी के नोचे के भाग में प्राप्ति की लालसा के बिलकुल सामने उससे कुछ नीचे की ओर ही होती है। इसकी स्थिति का संबंध मस्तिष्क की आकृति से भी है। यदि मस्तिष्क का आधार संकीर्ण होता है तो इस ग्रन्थि का स्थान सामान्य से कुछ ऊपर होता है|मन की इस स्थिति का कार्य मनुष्य के अन्दर निहित रचना अर्थात निर्माण की इच्छा एवं प्रवृत्ति को जाग्रत करना है। जो लोग यंत्रों सम्बन्धी कार्यों को सीखने प्रज्ञा उनका निर्माण करने ने विशेष रुचि लेते हैं, उनमे यह शक्ति विकसित रूप मे देखि जा सकती है|
आत्म सम्मान
मनुष्य के जीवन मे आत्म-सम्मान का विशेष महत्व होता है । इसी के द्वारा वह जीवन मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता है । इसलिए मनुष्य के शरीर मे इस शक्ति की ग्रन्थि को उच्च स्थान प्राप्त है अर्थात् यह ग्रन्धि मस्तक के पिछले भाग की चोटी पर जहाँ शिखर (चोटी) होती है ।जब यह भाग बड़ा होता है तो इस शक्ति का क्षेत्र कान से बहुत ऊपर तथा पीछे की ओर विकसित होता है। यह शक्ति स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में अधिक विकसित होती है ।
प्रशंसा की चाह
प्रशंसा की चाह को ग्रन्थि आत्म-सम्मान की ग्रन्थि के दोनों पाश्वों में सिरे के ऊपर की ओंर पिछले भाग मे होती है । जब यह पर्याप्त उन्नत और विकसित होती है तो उस भाग के असाधारण रूप से उन्नत होने के साथ-साथ उसकी चौड़ाई भी बढ़ जाती है । देखा गया है, कि ग्रंथि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक बलवती होती है । ऐसे व्यक्ति की चेष्टा रहती है कि वह ऐसा कार्य करे जिसकी लोग प्रशंसा करे और जिसके लिए अधिक से अधिक आदर प्राप्त हो। यही कारण है, कि वह अपने मित्रों एवं परिजनों पर सदा ऐसा प्रभाव डालने का प्रयत्न करता है कि वह उनकी दृष्टि में सम्मान का पात्र बने ।
सर्तकता
मन की यह शक्ति मस्तिष्क के पिछले भाग के दोनों पाशर्वों के ऊपर की ओर विद्यमान होती है। यह ग्रंथि विकसित हो, या अविकसित दोनों आवस्थाओं में उसके उभार की मोटाई मे एक इंच तक का अन्तर पड़ जाता है । यह मानसिक शक्ति मनुष्य को इस बात के लिए प्रेरित करती है, कि वह अगला कदम उठाने से पहले प्रत्येक बात को भली-भांति सोच-समझ ले ।
यह शक्ति मनुष्य को बुद्धिमान, विवेकशील, सदा सर्तक और कभी-कभी भोरु भी बना देती है । यही शक्ति व्यक्ति को झगड़ालू प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती है ।
परोपंकारिता
परोपकारिता की मानसिक शक्ति मस्तक के सामने वाले क्षेत्र में ऊपर की ओंर स्थित है, जिसका आभास उस भाग की ऊंचाई से मिलता है। मन की यह शक्ति मनुष्य में परोपकारिता की भावना को जन्म देती है । ऐसे मनुष्य की हार्दिक इच्छा होती है, की वह दुखी और विपत्तिग्रस्त लोगो की सहायता करे। वह जन साधारण को चाहे उसके साथ उसका व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक संबंध हो या न हो, सुखी देखने की इच्छा रखता है ।
श्रद्धा
श्रद्धा की मानसिक शक्ति मस्तक के उपरी भाग के मध्य में परोपकारिता की मानसिक शक्ति के ठीक पीछे की ओर विधमान है। यदि मनुष्य में परोपकारिता के साथ-साथ श्रद्धा की शक्ति भी पूर्ण रूप से विकसित हो, तो मस्तक का यह भाग इतना उन्नत हो जाता है, कि इसे सरलता से पहचाना जा सकता है । मन की इस शक्ति का मुख्य कार्य श्रद्धा की भावना को जन्म देना है । यही कारण है, कि इस शक्ति से मुक्त व्यक्ति जिस मनुष्य एवं वस्तु को अपने से श्रेष्ठ समझता है, उसी के प्रति वह श्रद्धा रखने लगता है ।
दृढता
दृढता का परिचय देने वाली मानसिक शक्ति मस्तक की चोटी पर आत्म सम्मान की शक्ति के ठीक सामने होती है। इसके कारण मस्तक का वह आसपास के भाग से ऊंचा दिखता है ।
यह शक्ति मनुष्य को विभिन्न प्रकार की विघ्न-बाधाओं से झूझने के लिए दृढ़ता प्रदान करती है । जिस कार्य को करने का वह मन में संकल्प कर लेता है, उससे वह विचलित नहीं होता । उसे प्रत्येक स्तिथि में पूरा करके रहता है । कोई भी लालच, रिश्वत या अन्य प्रभाव उसे सच्चाई तौर ईमानदारी के मार्ग से नहीं हटा सकता । वह वही कार्य करती है जिसे उचित समझे ।
अन्त:करण की शुद्धता
अन्त: करण की शुद्धता नाम की मानसिक शक्ति दृढ़ता को शक्ति दोनों ओर सतर्कता से ऊपर तथा सामने की ओर एवं प्रशंसा की चाह नामक शक्ति के भी सम्मुख और आशा के पीछे की ओर स्थित है । यह शक्ति मनुष्य मे न्याय तथा औचित्य की भावना को जन्म देती है । नैतिक तथा न्याय को दृष्टि से सर्वथा उचित बातो को स्वीकार करने एवं उन्हे समर्थन देने के स्मिट प्रेरित करती है । ऐसा व्यक्ति नाना प्रकार कठिनाइयों एवं बाघाओं के मध्य में भी अपने सिद्धान्त पर निष्ठापूर्वक अडिग रहता है । -
आशा
आशा की मानसिक शक्ति श्रद्धा की शक्ति के दोनों ओर विद्यमान है, तथा मस्तक के सामने के कुछ भाग के नीचे को ओर फैली हुई है । मन की इस शक्ति का उदृदेश्य मनुष्य के मन में किसी कार्य अथवा इच्छा की पूर्ति होने की भावना जाग्रत करना है ।इसके फलस्वरूप व्यक्ति के मन में यह विश्वास जमने लगता है, कि उसे उसके उदृदेश्य में सफलता प्राप्त हो जायेगी । अन्य शक्तियों का सहयोग पाकर आशा की शक्ति और भी अधिक बलवती हो जाती है ।
विस्मय
विस्मय की मानसिक शक्ति का स्थान मस्तक के शिखर के निकट तथा कनपटी के ठीक उपर है। यह शक्ति जितनी अधिक विकसित होगी, मनुष्य का ललाट उतना ही प्रशस्त तया उन्नत होता है । यह शक्ति अपने धारणकर्ता के अन्दर विस्मय की भावना उत्पन्न करती है । संसार में ऐसे व्यक्ति को जो भी वस्तु उसे असाधारण प्रतीत होती है, उसे वह विस्मय एवं उत्सुकता से देखता है । उसे चमत्कार मानकर उस पर विश्वास करने लगता है । ऐसे लोग भूत-प्रेत, जादू-टोनों आदि पर विशेष रूप से विश्वास करते है ।
आदर्शवादिता
मन की इस शक्ति अर्थात आदर्शवादिता का स्थान विस्मय की शक्ति के निचे तथा कनपटियों तौर प्राप्ति की लालसा की शक्ति के कुछ ऊपर होता है । ऐसा व्यक्ति एक महान कलाकार होता है । उसके साहित्य,चित्र, शिल्प, संगीत आदि मे उसके आदर्श रुप के दर्शन किये जाते है । वह प्राकृतिक सरिता,निर्झरों, उपत्यकाओं, पक्षियों के क्लरव तथा फूल पौधों को एक नया सुन्दर रूप प्रदान करता है| रमणीयता उसका प्रमुख गुण है । वह एक सफल कवि, चित्रकार तथा शिल्पकार होता है ।
विनोदप्रियता
विनोदप्रियता को मानसिक शक्ति ललाट के उपरी तया पाशर्व भागों में आदर्शवादिता के ठीक सामने अवस्थित है, उपरी क्षेत्र मे ललाट की जो चौडाई होती है, उसे देखकर इसे शक्ति के विकास का अनुमान लगाया जा सक्ता है । यदि विनोदप्रिबता की शक्ति के साथ गोपनीयता का भी सहयोग हो जाये, तो उसका विनोद द्वि-अर्यक हो जाता जब इस शक्ति के साथ झाहालु शक्ति संयुक्त हो जाती है, तो यह ऐसे तीखे व्यंग्य बाग छोडने लगता है कि उसका शिकार तिलमिला जाता है ।
अनुकरणीयता
अनुकरणीता अथवा अनुकरण करने की शक्ति मस्तक के उपरी भाग मे दोनों नेत्रों की सीध में परोपकारिता की शक्ति के दोनो ओंर होती है। जब यह शक्ति अधिक विकसित होती है तो ललाट का वह भाग वृत्त्कार रूप मे उभरा दुआ दिखाई देता है । इस शक्ति की प्रेरणा से ही मन मे अनुकरण की भावना जाग्रत होती है और मनुष्य उस कार्यं का अनुकरण करने के लिये प्रेरित हो जाता है, जो उसके मन को भा जाती है अथवा जिसका अनुकरण करने से उसे धन, मान, प्रतिष्ठा आदि पाने की आशा होती है ।
वैयक्तिकता
वैयक्तिकता की शक्ति नाक के ऊपर दोनों भृकुटीयों के मध्य मे अवस्थित है। इसके अघिक विकसित होने पर भृकूटियो के मध्य की चौडाई और ललाट के उस क्षेत्र ने वृद्वि हो जाती है। जब यह शक्ति अर्द्धविकसित अथवा अविकसित रह जाती है, तो वह क्षेत्र दब सा जाता है तथा वहां स्पष्ट स्प से गड्ढा दिखाई देने लगता है । जब यह शक्ति अपने पूर्व विकास पर होती है, तो वह किसी भी वस्तु की सूक्ष्मतम विशेषताओं को ढूंढ़ निकालता है ।
स्वरुप
स्वरुप मन की वह शक्ति है, जिसका निवास नेत्रों के भीतरी कोनों के पास होता है और जो पुतलियों को किनारों की ओर दबाती है । इस स्थिति के परिणाम स्वरुप दोनों नेत्रों के मध्य में पर्याप्त दूरी बन जाती है । इस शक्ति का मुख्य कार्य स्पर्श एवं दृष्टि की ज्ञानेन्द्रियों में समन्वय स्थापित करना है ।
आकार
आकार का ज्ञान कराने वाली मानसिक शक्ति नासिका के दोनों पाशर्वो के विपरीत अवस्थित है। यह सरलता से परिलक्षित नहीं होती है। क्योंकि सामने को दरार से बहुधा छिपा लेती है। मनुष्य विभिन्न शरीरों के आकारों को देखने की क्षमता प्राप्त करता है, वह इसी शक्ति को देन है ।
भार
भार का ज्ञान कराने वाली मानसिक शक्ति भृकुटि की पहाड़ी के अंतर्गत नासिका के मूल भाग में निवास करती है। जब यह शक्ति समुचित रूप से विकसित होती है, तो मनुष्य में सन्तुलन स्थापित करने की अदृभुत शक्ति की क्षमता आ जाती है । वह अपना कार्य बड़े सन्तुलित रूप से करता है । चलते समय उसके पैर बड़े सधे हुए ढंग से सैनिको की भांति पडते है, हाथों को अंगुलियाँ हलकी और तीव्र गति से चलती है। उसके सम्पूर्ण चाल-ढाल मे उल्लेखनीय शालीनता रहती है ।
व्यवस्था
व्यवस्था मन की यह शक्ति है जिसका स्थान भृकुटि की पहाडी के अंतर्ग्रत आंख की पुतली के ठीक ऊपर है । इसकी ही प्रेरणा से मंनुष्य चाहता है कि प्रत्येक वास्तु अपने स्थान पर सफाई से सजी संवारी रखी हुई मिले । वह स्वयं भी सभी वस्तुओं को सजाकर रखता है । स्स बात का ध्यान वह सर्वत्र रखता है ।
स्थानीयता
स्थानीयता की मानसिक शक्ति व्यक्तिकता की शक्ति के दोनो पाश्वों में होती है और इसका विस्तार विनिद्प्रियता की शक्ति के क्षेत्र तक होता है। इस शक्ति के विकास को दो स्थानों पर स्पष्ट स्य से देख जा सक्ता है । वे स्थान है, नासिका के मूल के प्रत्येक पार्श्व के निकट से आरम्भ होकर ऊपर की ओर तिस्वे जाकर तथा बाहर की ओर ललाट के मध्य भाग तक की ऊचाई पर । पशुओं एवं पक्षियों मे इस शक्ति का अच्छा विकास होता है। यही कारण है कि कुत्ते या कबूतर को अपने घर से काफी दूरी पर छोड़ दिये जाने पर भी यह अपने घर पहुच जाता है ।
संख्या बोध
संख्या बोध का मानसिक शक्ति का निवास नेत्र के बाहय कोण में होता है। जब इस शक्ति का विकास बहुत अघिक होता है तो भृकुटि के सामने के सिरे बाहर की ओर दब जाते है । जिन व्यक्तियों में मन की इस शक्ति का समुचित विकास होता है, वे संख्याओं का शीघ्रता से और जल्दी-जल्दी जोड,घटा,गुणा,भाग कर लेते हैं ।ऐसे लोगो को इस प्रकार के साधारण प्रश्न हल करने में कागज पेन्सिल आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। कुछ लोगों में इस शक्ति का असाधारण विकास देखा गया है । वे कई अंको का गुणा-भाग मौखिक रुप से कर सकते हैं ।
रंग-प्रियता
रंग-प्रियता की मानसिक शक्ति भृकुटि की कमानी के मध्य ने होती है। इस शक्ति के पूर्व विकास का बोध अच्छी सुघड़ बाहर क्या ऊपरी ओर खिंची हुई, कमानीदार भ्रिकूटी से होता है । उस समय उसका बाहरी भाग नासिका के निकट वाले भाग के अपेक्षा उन्नत दिखाई देता है। रंगप्रियता की यह शक्ति पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अघिक पायी जाती है। ईरान, पूर्वी द्वीप समूह, चीन, जापान जैसे पूर्वीय देशों के लोगों में अधिक लोकप्रियता होती है ।
सम्भावित सम्बन्ध
मन की यह शक्ति, ललाट के मध्य मे वैय्क्तिकता तथा स्थानीयता की शक्तियों से ऊपर की ओर स्थित है । जिस व्यक्ति में इस शक्ति का सम्यक विकास होता है, वह किसी एक विषय मे पारंगत तो नहीं होता, परन्तु प्राय प्रत्येक वस्तु के विषय मे थोडा-थोड़ा ज्ञान रखता है । इसकी विशेषता यह है कि मनुष्य किसी पल विषय का अध्ययन करने लगता है |इस शक्ति का स्वामी अन्य लोगों को सदैव कार्यरत देखना चाहता है । इसकी जिज्ञासा-वृत्ति बहुत बलवती होती है |
समय बोध
समय बोध की मानसिक शक्ति भृकुटि के ऊपर तथा संभावित सम्बन्ध की शक्ति के दोनों पाश्वों में अवस्थित होती है । मन की इस शक्ति को धारण करने वाला व्यक्ति तारीखों को भली-भीति स्मरण रख सकता है । तिथियों के सम्बन्ध में उसकी स्मरण-शक्ति इतनी विशद और सटीक होती है कि वह वर्षों पुरानी बात को विवरण के साथ याद रखता है । जो अपने भावी कार्यक्रमों को काफी पहले से निर्धारित पर लेते हैं, कि अमुक-अमुक तिथि को अमुक-अमुक कार्यं करना है, उनकी मानसिक शक्ति विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होती है ।
स्वर बोध
स्वर बोध की शक्ति ललाट के नीचे के क्षेत्र में भृकुटि के अन्तिम भाग से प्रारम्भ होकर कनपटी तक फैली हुई है। जिन लोगों के मस्तिष्क आधार पर संकरे होते हैं, उनमे यह ग्रन्थि कुछ ऊंचाई पर होती है। ऐसा व्यक्ति यदि संगीत को व्यवसाय के रुप ने अपनाता है तो वह प्रख्यात संगीतकार बन जाता है ।
भाषा
भाषा, मन की वह शक्ति है, जो नेत्र के ऊपर एवं पिछले भाग में स्थित है । जब यह शक्ति अधिक विकसित होती है, तो नेत्र सामने की ओर उभर जाते है तथा कभी-कभी नेत्रो का निचे का भाग थोडा दब जाता है । यदि भृकुटि में स्थित शक्तियां भली-भांति विकसित हो, तो उस व्यक्ति के नेत्र गड्ढों में धंस जाते है ।
तुलना
तुलना को मानसिक शक्ति ललाट के ऊपरी भाग के मध्य में होती है । इसके ऊपर परोपकारिता, निचे सम्भावित संबंध तथा दोनों ओर कार्य-करण सम्बन्ध की मानसिक शक्तियाँ होती है । असमान वस्तुओं एवं परिस्थितियों की तुलना करना इस शक्ति का कार्य है। यह विभिन्न शक्तियों द्ररा सम्प्रन्न किये गये कार्यों के परिणामों की जाँच-पड़ताल करती है । फिर समस्त परिणामों का तुलनात्मक अध्ययन करती है ।
लाथीकारण
कार्य-कारण सम्बन्ध शक्ति ललाट के ऊपरी भाग मे तुलना कीं॰शक्ति के दोनों ओंर स्थिर होती है। किसी ने इस शक्ति का विकास अघिक होता है और किसी में कम जिस व्यक्ति में इसका विकास सम्यक रूप से होता है, उसके लालट का वह भाग वृताकार दिखाई देता है । जिन व्यक्तियों की यह शक्ति पूर्णतया विकसित होती है, उनमें तर्क सम्बन्धी योग्यता असाधारण होती है । वे प्रख्यात तार्किक एवं महान शास्त्री होते है। वे जिस वस्तु की जिस रुप में देखते है, उसके उस रूप को देखकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते। वे यह जानने का प्रयत्न करते है कि उसे यह रूप कैसे प्राप्त दुआ ।
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यह मानसिक शक्ति कपाल के पीछे की ओर निचले भाग मे जहाँ गर्दन का प्रारम्भ होता है,स्थित होती है| इसका उभार उस भाग के साधारण विकास को देखकर अनुभव किया जा सकता है | यदि मन की यह शक्ति बहुत अधिक विकसित हो तो व्यक्ति काम वासना तथा विलासिता का दीवाना हो जाता है और लम्पट एवं व्यम्भिचारी बन जाता सामान्य रूप से बलवती होने पर यह मानसिक शक्ति,स्फूर्ति एवं प्रेरणा प्रदान करती है | इस प्रकार के व्यक्ति अपने विपरीत सैक्स के प्राणियों मे लोकप्रिय होने के लिए सब कुछ करने तथा उन्हें सब कुछ भेट करने के लिए सदैव प्रस्तुत रहते हैं । इनके जीवन मे प्रेम को सर्वोच्च स्थान प्राप्त है । प्रेम ही इनका जीवन और कार्यक्षेत्र होता है ।
सन्तान प्रेम
मन की यह शक्ति ऊपर वर्णन की गई प्रथम शक्ति के ठीक ऊपर होती है और मस्तक के पीछे के भाग का सबसे अंश इससे प्रभावित होता है । इस क्षेत्र का विकास पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों के मस्तक में अधिक देखा जाता है । यह शक्ति वात्सल्य अर्थात सन्तान के प्रति बहुत स्नेह करने के लिए प्रेरित करती है, इसलिए नारी पूरुष की अपेक्षा सन्तान के प्रति अधिक स्नेहशील एवं वात्सल्यमयी होती है । इसी शक्ति के प्रभाव से माता-पिता अपने अबोध, छोटे, शक्तिहीन बच्चों का लालन-पालन करने तथा उन्हें सब प्रकार की सुविधा प्रदान करने के लिए प्रेरित होते है ।
ध्यान केन्द्रीकरण
मनुष्य के ध्यान को किसी भी बिन्दू पर केन्द्रित करने वाली मन की शक्ति मस्तक के पीछे की ओर सर्वाधिक उन्नत भाग के बिलकुल ऊपर दूसरी शक्ति अर्थात वात्सल्य एवं स्नेह की शक्ति के ऊपर स्थित होती है| इस प्रकार के व्यक्ति साधारणतया बुद्धिजीवी होते हैं । शारीरिक कार्य काने मे वे कम ही आत्मनिर्भर होते हैं । वे शारीरिक श्रम करने से कतराते है । अपने मित्रों का चुनाव प्राय: सुशिक्षित,सभ्य, बुद्धिजीवी एवं सुसंस्कृत लोगो में से करते है । आनी महत्ता का प्रदर्शन शब्दों से नहीं बल्कि अपने कार्यों से करते है ।
स्नेह एवं मिलनसारिता
मन की यह शक्ति सन्तान प्रेम अर्थात वात्सल्य की शक्ति के बगल मे कुछ ऊपर की ओर अवस्थित है । वैसे तो यह मानसिक शक्ति पुरुषों और स्त्रियों दोनों में विद्यमान होती हैं, परन्तु प्राय: ऐसा देख गया है कि पुरुषों को अपेक्षा स्त्रियों में यह अधिक विकसित होती है । ऐसे व्यक्तियो को मित्रो एवं-सगे सम्बन्धियों की संगति विशेष रुप से प्रिय होती है और वे उनसे बार-बार मिलने की चेष्टा करते है ।
झगड़ालू शक्ति
झगड़ालू शक्ति को इंद्रिय कान के पीछे लगभग डेढ़ इंच की दूरी पर स्थित होती है । ध्यान से देखने या हाथ से टटोलने पर ज्ञात होगा कि कानों के बीच में तथा पीछे मस्तक का एक भाग अन्य स्थानों की अपेक्षा चौड़ा होता है । यह मानसिक शक्ति मनुष्य में झगड़ालु प्रवृति तथा कलहप्रियता की भावना को जाग्रत करती है । इस प्रकार के लोग वाद-विवाद और तर्क-विर्तक करने को सदा तत्पर रहते हैं । ऐसे व्यक्तियों की जबान जितनी तेज होती है, उनका शरीर भी उतना ही हुष्ट-पुष्ट और सबल होता है। शरीरिक भ्रम खेलों में इनकी विशेष रूचि रहती है ।
विध्वंशक शक्ति
विध्वंसात्मक शक्ति की ग्रंथि कान के ठीक ऊपर और कुछ-कुछ उसके आस-पास विद्यमान होती है । इस ग्रंथि के विकसित रूप का अनुमान इस स्थान पर मस्तक की चौडाई से लगाया जा सकता हैं। ऐसे व्यक्ति के मन मे किसी व्यक्ति के प्रति दया, ममता, सहानुभूति आदि के भाव नहीं होते । निर्मम से निर्मम हत्या करते समय भी उसका हुदय विचलित नहीं होगा ।
यह सौभाग्य से परोपकारिता शक्ति के अत्यधिक विकसित होने के फलस्वरुप यह विध्वंसक शक्ति प्रभावित होकर दुर्बल पड़ जाए तो व्यक्ति की विध्वंसात्मक प्रवृत्ति पर कुछ अंकुश लग जाता है ।
गोपनीयता
गोपनीयता को मानसिक शक्ति मस्तक के पार्शव भाग के मध्य में विध्वंसक शक्ति के केन्द्र के ठीक ऊपर स्थित है तथा उसके बदुत आगे बढी हुई है। जब ये दोनों शक्तियां पूर्णतया विकसित होती हैं, तो मस्तक के पार्श्व भाग का नीचे का एवं मध्य का भाग साधारणतया भरा हुआ दिखाई देता है । इस शक्ति का मुख्य कार्य अन्य शक्तियों पर अंकुश लगाकर उन्हें नियंत्रित करना है । यदि यह शक्ति का विकसित हो, तो मनुष्य को गोयनीयता की शक्ति का हास हो जता है । ऐसे व्यक्ति अपना भेद भी दुसरे के सामने खोल देते है ।
प्राप्ति की लालसा
प्राप्ति की लालसा की मानसिक शक्ति का केन्द्र गोपनीयता की शक्ति के क्षेत्र में होता है । यह शक्ति मनुष्य को अधिकाधिक भौतिक संपत्ति अर्जित करने और उसका संचय करने के लिए प्रेरित करती है । मनुष्य मे यह मानसिक शक्ति अत्यधिक बलवती हो और विवेक शक्ति दुर्बल हो, तो वह धन-प्राप्ति की अपनी लालसा को वैधानिक एवं नैतिक सीमाओं में बांधकर नहीं रखता, अपितु जल्दी से जल्दी तथा अधिक से अधिक धन प्राप्त करने के लिए चोरी-डकैती जैसे अनैतिक उपायों का भी सहारा लेने से भी नहीं चुकता है|
सृजन-शक्ति
मनुष्य को सृजन-शक्ति जो रचना या निर्माण करने के लिए प्रेरित करती है, कनपटी के नोचे के भाग में प्राप्ति की लालसा के बिलकुल सामने उससे कुछ नीचे की ओर ही होती है। इसकी स्थिति का संबंध मस्तिष्क की आकृति से भी है। यदि मस्तिष्क का आधार संकीर्ण होता है तो इस ग्रन्थि का स्थान सामान्य से कुछ ऊपर होता है|मन की इस स्थिति का कार्य मनुष्य के अन्दर निहित रचना अर्थात निर्माण की इच्छा एवं प्रवृत्ति को जाग्रत करना है। जो लोग यंत्रों सम्बन्धी कार्यों को सीखने प्रज्ञा उनका निर्माण करने ने विशेष रुचि लेते हैं, उनमे यह शक्ति विकसित रूप मे देखि जा सकती है|
आत्म सम्मान
मनुष्य के जीवन मे आत्म-सम्मान का विशेष महत्व होता है । इसी के द्वारा वह जीवन मे सर्वोच्च स्थान प्राप्त करता है । इसलिए मनुष्य के शरीर मे इस शक्ति की ग्रन्थि को उच्च स्थान प्राप्त है अर्थात् यह ग्रन्धि मस्तक के पिछले भाग की चोटी पर जहाँ शिखर (चोटी) होती है ।जब यह भाग बड़ा होता है तो इस शक्ति का क्षेत्र कान से बहुत ऊपर तथा पीछे की ओर विकसित होता है। यह शक्ति स्त्रियों की अपेक्षा पुरूषों में अधिक विकसित होती है ।
प्रशंसा की चाह
प्रशंसा की चाह को ग्रन्थि आत्म-सम्मान की ग्रन्थि के दोनों पाश्वों में सिरे के ऊपर की ओंर पिछले भाग मे होती है । जब यह पर्याप्त उन्नत और विकसित होती है तो उस भाग के असाधारण रूप से उन्नत होने के साथ-साथ उसकी चौड़ाई भी बढ़ जाती है । देखा गया है, कि ग्रंथि पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अधिक बलवती होती है । ऐसे व्यक्ति की चेष्टा रहती है कि वह ऐसा कार्य करे जिसकी लोग प्रशंसा करे और जिसके लिए अधिक से अधिक आदर प्राप्त हो। यही कारण है, कि वह अपने मित्रों एवं परिजनों पर सदा ऐसा प्रभाव डालने का प्रयत्न करता है कि वह उनकी दृष्टि में सम्मान का पात्र बने ।
सर्तकता
मन की यह शक्ति मस्तिष्क के पिछले भाग के दोनों पाशर्वों के ऊपर की ओर विद्यमान होती है। यह ग्रंथि विकसित हो, या अविकसित दोनों आवस्थाओं में उसके उभार की मोटाई मे एक इंच तक का अन्तर पड़ जाता है । यह मानसिक शक्ति मनुष्य को इस बात के लिए प्रेरित करती है, कि वह अगला कदम उठाने से पहले प्रत्येक बात को भली-भांति सोच-समझ ले ।
यह शक्ति मनुष्य को बुद्धिमान, विवेकशील, सदा सर्तक और कभी-कभी भोरु भी बना देती है । यही शक्ति व्यक्ति को झगड़ालू प्रवृत्ति पर अंकुश लगाती है ।
परोपंकारिता
परोपकारिता की मानसिक शक्ति मस्तक के सामने वाले क्षेत्र में ऊपर की ओंर स्थित है, जिसका आभास उस भाग की ऊंचाई से मिलता है। मन की यह शक्ति मनुष्य में परोपकारिता की भावना को जन्म देती है । ऐसे मनुष्य की हार्दिक इच्छा होती है, की वह दुखी और विपत्तिग्रस्त लोगो की सहायता करे। वह जन साधारण को चाहे उसके साथ उसका व्यक्तिगत अथवा पारिवारिक संबंध हो या न हो, सुखी देखने की इच्छा रखता है ।
श्रद्धा
श्रद्धा की मानसिक शक्ति मस्तक के उपरी भाग के मध्य में परोपकारिता की मानसिक शक्ति के ठीक पीछे की ओर विधमान है। यदि मनुष्य में परोपकारिता के साथ-साथ श्रद्धा की शक्ति भी पूर्ण रूप से विकसित हो, तो मस्तक का यह भाग इतना उन्नत हो जाता है, कि इसे सरलता से पहचाना जा सकता है । मन की इस शक्ति का मुख्य कार्य श्रद्धा की भावना को जन्म देना है । यही कारण है, कि इस शक्ति से मुक्त व्यक्ति जिस मनुष्य एवं वस्तु को अपने से श्रेष्ठ समझता है, उसी के प्रति वह श्रद्धा रखने लगता है ।
दृढता
दृढता का परिचय देने वाली मानसिक शक्ति मस्तक की चोटी पर आत्म सम्मान की शक्ति के ठीक सामने होती है। इसके कारण मस्तक का वह आसपास के भाग से ऊंचा दिखता है ।
यह शक्ति मनुष्य को विभिन्न प्रकार की विघ्न-बाधाओं से झूझने के लिए दृढ़ता प्रदान करती है । जिस कार्य को करने का वह मन में संकल्प कर लेता है, उससे वह विचलित नहीं होता । उसे प्रत्येक स्तिथि में पूरा करके रहता है । कोई भी लालच, रिश्वत या अन्य प्रभाव उसे सच्चाई तौर ईमानदारी के मार्ग से नहीं हटा सकता । वह वही कार्य करती है जिसे उचित समझे ।
अन्त:करण की शुद्धता
अन्त: करण की शुद्धता नाम की मानसिक शक्ति दृढ़ता को शक्ति दोनों ओर सतर्कता से ऊपर तथा सामने की ओर एवं प्रशंसा की चाह नामक शक्ति के भी सम्मुख और आशा के पीछे की ओर स्थित है । यह शक्ति मनुष्य मे न्याय तथा औचित्य की भावना को जन्म देती है । नैतिक तथा न्याय को दृष्टि से सर्वथा उचित बातो को स्वीकार करने एवं उन्हे समर्थन देने के स्मिट प्रेरित करती है । ऐसा व्यक्ति नाना प्रकार कठिनाइयों एवं बाघाओं के मध्य में भी अपने सिद्धान्त पर निष्ठापूर्वक अडिग रहता है । -
आशा
आशा की मानसिक शक्ति श्रद्धा की शक्ति के दोनों ओर विद्यमान है, तथा मस्तक के सामने के कुछ भाग के नीचे को ओर फैली हुई है । मन की इस शक्ति का उदृदेश्य मनुष्य के मन में किसी कार्य अथवा इच्छा की पूर्ति होने की भावना जाग्रत करना है ।इसके फलस्वरूप व्यक्ति के मन में यह विश्वास जमने लगता है, कि उसे उसके उदृदेश्य में सफलता प्राप्त हो जायेगी । अन्य शक्तियों का सहयोग पाकर आशा की शक्ति और भी अधिक बलवती हो जाती है ।
विस्मय
विस्मय की मानसिक शक्ति का स्थान मस्तक के शिखर के निकट तथा कनपटी के ठीक उपर है। यह शक्ति जितनी अधिक विकसित होगी, मनुष्य का ललाट उतना ही प्रशस्त तया उन्नत होता है । यह शक्ति अपने धारणकर्ता के अन्दर विस्मय की भावना उत्पन्न करती है । संसार में ऐसे व्यक्ति को जो भी वस्तु उसे असाधारण प्रतीत होती है, उसे वह विस्मय एवं उत्सुकता से देखता है । उसे चमत्कार मानकर उस पर विश्वास करने लगता है । ऐसे लोग भूत-प्रेत, जादू-टोनों आदि पर विशेष रूप से विश्वास करते है ।
आदर्शवादिता
मन की इस शक्ति अर्थात आदर्शवादिता का स्थान विस्मय की शक्ति के निचे तथा कनपटियों तौर प्राप्ति की लालसा की शक्ति के कुछ ऊपर होता है । ऐसा व्यक्ति एक महान कलाकार होता है । उसके साहित्य,चित्र, शिल्प, संगीत आदि मे उसके आदर्श रुप के दर्शन किये जाते है । वह प्राकृतिक सरिता,निर्झरों, उपत्यकाओं, पक्षियों के क्लरव तथा फूल पौधों को एक नया सुन्दर रूप प्रदान करता है| रमणीयता उसका प्रमुख गुण है । वह एक सफल कवि, चित्रकार तथा शिल्पकार होता है ।
विनोदप्रियता
विनोदप्रियता को मानसिक शक्ति ललाट के उपरी तया पाशर्व भागों में आदर्शवादिता के ठीक सामने अवस्थित है, उपरी क्षेत्र मे ललाट की जो चौडाई होती है, उसे देखकर इसे शक्ति के विकास का अनुमान लगाया जा सक्ता है । यदि विनोदप्रिबता की शक्ति के साथ गोपनीयता का भी सहयोग हो जाये, तो उसका विनोद द्वि-अर्यक हो जाता जब इस शक्ति के साथ झाहालु शक्ति संयुक्त हो जाती है, तो यह ऐसे तीखे व्यंग्य बाग छोडने लगता है कि उसका शिकार तिलमिला जाता है ।
अनुकरणीयता
अनुकरणीता अथवा अनुकरण करने की शक्ति मस्तक के उपरी भाग मे दोनों नेत्रों की सीध में परोपकारिता की शक्ति के दोनो ओंर होती है। जब यह शक्ति अधिक विकसित होती है तो ललाट का वह भाग वृत्त्कार रूप मे उभरा दुआ दिखाई देता है । इस शक्ति की प्रेरणा से ही मन मे अनुकरण की भावना जाग्रत होती है और मनुष्य उस कार्यं का अनुकरण करने के लिये प्रेरित हो जाता है, जो उसके मन को भा जाती है अथवा जिसका अनुकरण करने से उसे धन, मान, प्रतिष्ठा आदि पाने की आशा होती है ।
वैयक्तिकता
वैयक्तिकता की शक्ति नाक के ऊपर दोनों भृकुटीयों के मध्य मे अवस्थित है। इसके अघिक विकसित होने पर भृकूटियो के मध्य की चौडाई और ललाट के उस क्षेत्र ने वृद्वि हो जाती है। जब यह शक्ति अर्द्धविकसित अथवा अविकसित रह जाती है, तो वह क्षेत्र दब सा जाता है तथा वहां स्पष्ट स्प से गड्ढा दिखाई देने लगता है । जब यह शक्ति अपने पूर्व विकास पर होती है, तो वह किसी भी वस्तु की सूक्ष्मतम विशेषताओं को ढूंढ़ निकालता है ।
स्वरुप
स्वरुप मन की वह शक्ति है, जिसका निवास नेत्रों के भीतरी कोनों के पास होता है और जो पुतलियों को किनारों की ओर दबाती है । इस स्थिति के परिणाम स्वरुप दोनों नेत्रों के मध्य में पर्याप्त दूरी बन जाती है । इस शक्ति का मुख्य कार्य स्पर्श एवं दृष्टि की ज्ञानेन्द्रियों में समन्वय स्थापित करना है ।
आकार
आकार का ज्ञान कराने वाली मानसिक शक्ति नासिका के दोनों पाशर्वो के विपरीत अवस्थित है। यह सरलता से परिलक्षित नहीं होती है। क्योंकि सामने को दरार से बहुधा छिपा लेती है। मनुष्य विभिन्न शरीरों के आकारों को देखने की क्षमता प्राप्त करता है, वह इसी शक्ति को देन है ।
भार
भार का ज्ञान कराने वाली मानसिक शक्ति भृकुटि की पहाड़ी के अंतर्गत नासिका के मूल भाग में निवास करती है। जब यह शक्ति समुचित रूप से विकसित होती है, तो मनुष्य में सन्तुलन स्थापित करने की अदृभुत शक्ति की क्षमता आ जाती है । वह अपना कार्य बड़े सन्तुलित रूप से करता है । चलते समय उसके पैर बड़े सधे हुए ढंग से सैनिको की भांति पडते है, हाथों को अंगुलियाँ हलकी और तीव्र गति से चलती है। उसके सम्पूर्ण चाल-ढाल मे उल्लेखनीय शालीनता रहती है ।
व्यवस्था
व्यवस्था मन की यह शक्ति है जिसका स्थान भृकुटि की पहाडी के अंतर्ग्रत आंख की पुतली के ठीक ऊपर है । इसकी ही प्रेरणा से मंनुष्य चाहता है कि प्रत्येक वास्तु अपने स्थान पर सफाई से सजी संवारी रखी हुई मिले । वह स्वयं भी सभी वस्तुओं को सजाकर रखता है । स्स बात का ध्यान वह सर्वत्र रखता है ।
स्थानीयता
स्थानीयता की मानसिक शक्ति व्यक्तिकता की शक्ति के दोनो पाश्वों में होती है और इसका विस्तार विनिद्प्रियता की शक्ति के क्षेत्र तक होता है। इस शक्ति के विकास को दो स्थानों पर स्पष्ट स्य से देख जा सक्ता है । वे स्थान है, नासिका के मूल के प्रत्येक पार्श्व के निकट से आरम्भ होकर ऊपर की ओर तिस्वे जाकर तथा बाहर की ओर ललाट के मध्य भाग तक की ऊचाई पर । पशुओं एवं पक्षियों मे इस शक्ति का अच्छा विकास होता है। यही कारण है कि कुत्ते या कबूतर को अपने घर से काफी दूरी पर छोड़ दिये जाने पर भी यह अपने घर पहुच जाता है ।
संख्या बोध
संख्या बोध का मानसिक शक्ति का निवास नेत्र के बाहय कोण में होता है। जब इस शक्ति का विकास बहुत अघिक होता है तो भृकुटि के सामने के सिरे बाहर की ओर दब जाते है । जिन व्यक्तियों में मन की इस शक्ति का समुचित विकास होता है, वे संख्याओं का शीघ्रता से और जल्दी-जल्दी जोड,घटा,गुणा,भाग कर लेते हैं ।ऐसे लोगो को इस प्रकार के साधारण प्रश्न हल करने में कागज पेन्सिल आदि की आवश्यकता नहीं पड़ती। कुछ लोगों में इस शक्ति का असाधारण विकास देखा गया है । वे कई अंको का गुणा-भाग मौखिक रुप से कर सकते हैं ।
रंग-प्रियता
रंग-प्रियता की मानसिक शक्ति भृकुटि की कमानी के मध्य ने होती है। इस शक्ति के पूर्व विकास का बोध अच्छी सुघड़ बाहर क्या ऊपरी ओर खिंची हुई, कमानीदार भ्रिकूटी से होता है । उस समय उसका बाहरी भाग नासिका के निकट वाले भाग के अपेक्षा उन्नत दिखाई देता है। रंगप्रियता की यह शक्ति पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों में अघिक पायी जाती है। ईरान, पूर्वी द्वीप समूह, चीन, जापान जैसे पूर्वीय देशों के लोगों में अधिक लोकप्रियता होती है ।
सम्भावित सम्बन्ध
मन की यह शक्ति, ललाट के मध्य मे वैय्क्तिकता तथा स्थानीयता की शक्तियों से ऊपर की ओर स्थित है । जिस व्यक्ति में इस शक्ति का सम्यक विकास होता है, वह किसी एक विषय मे पारंगत तो नहीं होता, परन्तु प्राय प्रत्येक वस्तु के विषय मे थोडा-थोड़ा ज्ञान रखता है । इसकी विशेषता यह है कि मनुष्य किसी पल विषय का अध्ययन करने लगता है |इस शक्ति का स्वामी अन्य लोगों को सदैव कार्यरत देखना चाहता है । इसकी जिज्ञासा-वृत्ति बहुत बलवती होती है |
समय बोध
समय बोध की मानसिक शक्ति भृकुटि के ऊपर तथा संभावित सम्बन्ध की शक्ति के दोनों पाश्वों में अवस्थित होती है । मन की इस शक्ति को धारण करने वाला व्यक्ति तारीखों को भली-भीति स्मरण रख सकता है । तिथियों के सम्बन्ध में उसकी स्मरण-शक्ति इतनी विशद और सटीक होती है कि वह वर्षों पुरानी बात को विवरण के साथ याद रखता है । जो अपने भावी कार्यक्रमों को काफी पहले से निर्धारित पर लेते हैं, कि अमुक-अमुक तिथि को अमुक-अमुक कार्यं करना है, उनकी मानसिक शक्ति विशेष रूप से लाभदायक सिद्ध होती है ।
स्वर बोध
स्वर बोध की शक्ति ललाट के नीचे के क्षेत्र में भृकुटि के अन्तिम भाग से प्रारम्भ होकर कनपटी तक फैली हुई है। जिन लोगों के मस्तिष्क आधार पर संकरे होते हैं, उनमे यह ग्रन्थि कुछ ऊंचाई पर होती है। ऐसा व्यक्ति यदि संगीत को व्यवसाय के रुप ने अपनाता है तो वह प्रख्यात संगीतकार बन जाता है ।
भाषा
भाषा, मन की वह शक्ति है, जो नेत्र के ऊपर एवं पिछले भाग में स्थित है । जब यह शक्ति अधिक विकसित होती है, तो नेत्र सामने की ओर उभर जाते है तथा कभी-कभी नेत्रो का निचे का भाग थोडा दब जाता है । यदि भृकुटि में स्थित शक्तियां भली-भांति विकसित हो, तो उस व्यक्ति के नेत्र गड्ढों में धंस जाते है ।
तुलना
तुलना को मानसिक शक्ति ललाट के ऊपरी भाग के मध्य में होती है । इसके ऊपर परोपकारिता, निचे सम्भावित संबंध तथा दोनों ओर कार्य-करण सम्बन्ध की मानसिक शक्तियाँ होती है । असमान वस्तुओं एवं परिस्थितियों की तुलना करना इस शक्ति का कार्य है। यह विभिन्न शक्तियों द्ररा सम्प्रन्न किये गये कार्यों के परिणामों की जाँच-पड़ताल करती है । फिर समस्त परिणामों का तुलनात्मक अध्ययन करती है ।
लाथीकारण
कार्य-कारण सम्बन्ध शक्ति ललाट के ऊपरी भाग मे तुलना कीं॰शक्ति के दोनों ओंर स्थिर होती है। किसी ने इस शक्ति का विकास अघिक होता है और किसी में कम जिस व्यक्ति में इसका विकास सम्यक रूप से होता है, उसके लालट का वह भाग वृताकार दिखाई देता है । जिन व्यक्तियों की यह शक्ति पूर्णतया विकसित होती है, उनमें तर्क सम्बन्धी योग्यता असाधारण होती है । वे प्रख्यात तार्किक एवं महान शास्त्री होते है। वे जिस वस्तु की जिस रुप में देखते है, उसके उस रूप को देखकर ही सन्तुष्ट नहीं हो जाते। वे यह जानने का प्रयत्न करते है कि उसे यह रूप कैसे प्राप्त दुआ ।
Pt.P.S.Tripathi
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कार्य संतुष्टि
कार्य संतुष्टि
कार्यं संतुष्टि एक जटिल संप्रत्यय है जो बहुत हद तक मनोवृति तथा मनोबल से संबंध और मिलता-जुलता है। किन्तु सही अर्थ में कार्यं संतुष्टि अपने निश्चित स्वरूप के कारण एक ओर मनोवृति से भिन्न है तो दूसरी ओर मनोबल से । औद्योगिक मनोवैज्ञानिक ने कार्य संतुष्टि को दो अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया है। हम यहाँ इन दोनों अर्थों में इस जटिल संप्रत्यय की व्याख्या करने का प्रयास करगे ।
1. सीमित अर्ध
सीमित अर्थ में कार्य संतुष्टि का तात्पर्य व्यवसाय कारक से है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि कर्मचारी के व्यवसाय से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न कारकों के प्रति उसकी मनोवृति को कार्यं संतुष्टि कहतें है। व्यवस्था से सम्बन्धित कई विशिष्ट कारक है जिनमें पारिश्रमिक, पर्यवेक्षण, कार्य परिस्थिति, पदोन्नति के अवसर, नियोक्ता के व्यवहार आदि मुख्य है। इन विशिष्ट कारक के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति जिस हद तक अनुकूल होती है उसी हद तक कार्य संतुष्टि भी सम्भावित्त होती है। किन्तु यह परिभाषा कार्य संतुष्टि के जटिल स्वरूप को स्पष्ट करने में पूरी तरह सफल नहीं है क्योंकि कार्य संतुष्टि का संबंध व्यवसाय कारकों के अतिरिक्त अन्य कारकों से भी है । अत: केवल व्यवसाय कारकों के संदर्भ में ही कार्यं संतुष्टि को परिभाषित करना युक्तिसंगत नहीं है।
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट संबंध होने के कारण कभी-कभी इन शब्दों का समुचित प्रयोग नहीं हो पाता। अत: इन दोनों संप्रत्ययों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देना अनावश्यक है।
1. कार्य संतुष्टि का तात्पर्य कार्य परिस्थितियों, पर्यवेक्षण तथा अपने समूह जीवन के प्रति कर्मचारी की मनोवृत्तियों से है जबकि औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य कार्यं समूह के कर्मचारियों के बीच एकता की भावना, भाईचारा तथा एकात्मता की भावना से है।
2 कार्य संतुष्टि के तीन मुख्य निर्धारक होते है जिन्हें व्यवसाय कारक,वैयक्तिक कारक तथा समूह कारक कहते हैँ। दूसरी ओंर, औद्योगिक मनोबल के चार निर्धारक होते है जिनमें सामूहिक एकता, लक्ष्य की आवश्यकता लक्ष्य के प्रति दृष्टव्य प्राप्ति तथा लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास के लिए किये जाने वाले सार्थक कार्यों म वैयक्तिक सहभागिता है।
3 कार्यं संतुष्टि मेँ वैयक्तिक लक्ष्य प्रधान होता है- जबकि मनोबल में सामूहिक लक्ष्य की प्रधानता होती है। कर्मचारी को कार्य संतुष्टि तभी होती है जब उसके वैयक्तिक लक्ष्यों जिनके निर्धारण में उसके व्यक्तिगत कारणों की भूमिका प्रमुख होती है, की प्राप्ति हो जाए। किन्तु मनोबल के बने रहने या उन्नत बनने में वैयक्तिक लक्ष्य की प्राप्ति गौण रहती है और सामूहिक लक्ष्य की प्राप्ति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में सामने आती है।
4 कार्य संतुष्टि में संज्ञानात्मक कारक की प्रधानता होती है जबकि मनोबल में भावात्मक कारक प्रधान होते है। यदि कर्मचारी के अपने कार्य, प्रबंधन आदि से संबंधित संज्ञान अनुकूल होते है तो कार्य संतुष्टि बढ़ जाती है। दूसरी और, मनोबल का उच्च या नीच होना सामूहिक लक्ष्य के भावात्मक कारकों पर निर्भर करता है।
5 कार्यं संतुष्टि के लिए लक्ष्य की वांछनीयता में विश्वास उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना मनोबल के लिए है। सामूहिक लक्ष्यों की वांछनीयता में कर्मचारियों का विशवास. जिस हद तक होगा उनका मनोबल उसी हद तक उन्नत बन जाएगा। यह बात कार्यं संतुष्टि पर लागू नहीं होती। उपर्युक्त अन्तरों के होते हुए भी कार्यं संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट सम्बन्ध होता है तथा कार्य संतुष्टि मनोबल को बढाने में सहायक हो सकती है। सामान्यत: कार्यं संतुष्टि के बढ़ने से मनोबल ऊँचा हो जाता है तथा कार्य असंतुष्टि के बढ़ने से निम्न हो जाता है। अत: यह कहा जा सकता है की मनोबल से भिन्न होने पर भी कार्य संतुष्टि मनोबल को प्रभावित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण अंग है। कार्य संतुष्टि या व्यवसाय संतुष्टि के सम्बन्ध में एक मुख्य प्रश्न यह उठता है कि किन परिस्थितियों में कर्मचारी की कार्यं संतुष्टि बढ़ती या घटती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं संतुष्टि बढ़ती है और किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं असंतुष्टि बढती है। कार्यं संतुष्टि या असंतुष्टि को प्रभावित करने वाले ऐसे कारकों को निर्धारक कहा जाएगा. हैरेल ने कार्य संतुष्टि को निर्धारित करने वाले इन कारकों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा है:-
( क ) वैयक्तिक कारक
(ख) व्यवसाय कारक तथा
(ग ) प्रबंधन कारक
हम यहीं इन तीनो प्रकार के कारकों अथवा चरों की अलग-अलग व्याख्या करेंगे यह बात उल्लेखनीय है कि यहाँ कार्य संतुष्टि की व्याख्या आश्रित चर के रूप में तथा उक्त तीन प्रकार के कारकों की व्याख्या स्वतंत्र चर के रूप में करेंगे
(क) वैयक्तिक कारक - कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारको के अंतर्गत वे कारक आते है जिनका संबंध कर्मचारी से होता है। कर्मचारी में ही कुछ ऐसे तत्त्व होते है जो उसकी कार्य संतुष्टि को निर्धारित करते हैं। इसीलिए समान कार्यं परिस्थिति तथा
प्रबंधन के होते हुए भी भिन्न-भिन्न कर्मचारियों की कार्य संतुष्टि इन व्यक्तिगत तत्वों के कारण भिन्न हो सकती है। इन व्यक्तिगत कारकों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण है।
2. आयु -कर्मचीरियों की आयु का प्रभाव भी उसकी कार्य संतुष्टि पर पड़ता है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कम आयु के कर्मचारियों की अपेक्षा अधिक आयु के कर्मचारियों में व्यवसाय संतुष्टि अधिक होती हैं। इसका कारण यह है कि अधिक आयु के कर्मचारियों के कार्यं अवसर इतने सीमित हो जाते है कि वे अपने कार्य से सहज ही संतुष्ट रहने लगते है। इसके विपरीत कम आयु के कर्मचारियों के समक्ष कार्यं अवसर अधिक होते है अर्थात् भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए दरवाजे खुले रहते हैँ। इसलिए वे अपने वर्तमान व्यवसाय से असंतुष्ट रहते है। इसके अलावा अधिक आयु वाले कर्मचारी पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व अधिक होता है जिससे उनकी संतुष्टि वर्तमान व्यवसाय से अधिक रहती है। दूसरी ओर कम आयु के कर्मचारियों पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व नहीं होने के कारण या कम होने के करण उनकी कार्य संतुष्टि घट जाती है। लेकिन सिन्हा ( 1973) के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उनके अनुसार कार्य संतुष्टि तथा आयु के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं होता। वास्तविकता यह है कि इन दोनों चरों के बीच कईं मध्यवर्तीय चर सक्रिय रहते है। जिनके कारण दोनों के बीच वास्तविक संबंध को निर्धारित कर पाना कठिन हो जाता है।
3. परिवार मैं आश्रितों की संख्या -कार्य संतुष्टि तथा असंतुष्टि पर कर्मचारी के परिवार में आश्रितों की संख्या का भी प्रभाव पड़ता है। किसी कर्मचारी की कार्य संतुष्टि. अन्य बातों के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसे अपने परिवार में कितने आश्रितों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कार्य संतुष्टि तथा कार्य-असंतुष्टि के बीच नकारात्मक सहसम्बन्ध होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आश्रितों की संख्या अधिक होने पर कार्य संतुष्टि घटती है। सम्भवत्त: इसका कारण यह है कि आश्रितों की संख्या बढ़ने से आर्थिक कठिनाई बढती है जिससे कार्यं संतुष्टि घटती है। लेक्लि सिन्हा के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उन्होंने अपने अध्ययन में कार्य संतुष्टि पर आश्रितों की संख्या का कोई सार्थक प्रभाव नहीं देखा। वास्तविकता यह है कि कार्यं संतुष्टि तथा आश्रितों की संख्या के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता बल्कि इन दोनो के बीच का मध्यवर्ती चर यथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आय, जीवन स्तर आदि सक्रिय रहते है जिनके कारण दोनों के बीच संबंध जटिल बन जाता । 4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
7. आकांक्षा-स्तर -कार्यं संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारकों में कर्मचारियों की आकाक्षा का स्तर भी एक महत्वपूर्ण कारक है। जब कर्मचारी की आकांक्षा के स्तर तथा उसके व्यवसाय के बीच स्थानान्तरण नहीं होता तब उसे निराशा का अनुभव होता है और परिणामत: अपने व्यवसाय के प्रति उसकी असंतुष्टि बढ़ जाती है। मोर्स के अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है। इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि कर्मचारी की कार्य संतुष्टि मूलत: इस बात पर निर्भर करती है की व्यक्ति की आकांक्षा क्या है और वर्तमान व्यवसाय से उसकी आकांक्षा की संतुष्टि कहाँ तक हो रही है |
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कार्यं संतुष्टि एक जटिल संप्रत्यय है जो बहुत हद तक मनोवृति तथा मनोबल से संबंध और मिलता-जुलता है। किन्तु सही अर्थ में कार्यं संतुष्टि अपने निश्चित स्वरूप के कारण एक ओर मनोवृति से भिन्न है तो दूसरी ओर मनोबल से । औद्योगिक मनोवैज्ञानिक ने कार्य संतुष्टि को दो अर्थों में परिभाषित करने का प्रयास किया है। हम यहाँ इन दोनों अर्थों में इस जटिल संप्रत्यय की व्याख्या करने का प्रयास करगे ।
1. सीमित अर्ध
सीमित अर्थ में कार्य संतुष्टि का तात्पर्य व्यवसाय कारक से है। दूसरे शब्दों में, यह कहा जा सकता है कि कर्मचारी के व्यवसाय से सम्बन्धित भिन्न-भिन्न कारकों के प्रति उसकी मनोवृति को कार्यं संतुष्टि कहतें है। व्यवस्था से सम्बन्धित कई विशिष्ट कारक है जिनमें पारिश्रमिक, पर्यवेक्षण, कार्य परिस्थिति, पदोन्नति के अवसर, नियोक्ता के व्यवहार आदि मुख्य है। इन विशिष्ट कारक के प्रति कर्मचारियों की मनोवृति जिस हद तक अनुकूल होती है उसी हद तक कार्य संतुष्टि भी सम्भावित्त होती है। किन्तु यह परिभाषा कार्य संतुष्टि के जटिल स्वरूप को स्पष्ट करने में पूरी तरह सफल नहीं है क्योंकि कार्य संतुष्टि का संबंध व्यवसाय कारकों के अतिरिक्त अन्य कारकों से भी है । अत: केवल व्यवसाय कारकों के संदर्भ में ही कार्यं संतुष्टि को परिभाषित करना युक्तिसंगत नहीं है।
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल
कार्य संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट संबंध होने के कारण कभी-कभी इन शब्दों का समुचित प्रयोग नहीं हो पाता। अत: इन दोनों संप्रत्ययों के बीच के अंतर को स्पष्ट कर देना अनावश्यक है।
1. कार्य संतुष्टि का तात्पर्य कार्य परिस्थितियों, पर्यवेक्षण तथा अपने समूह जीवन के प्रति कर्मचारी की मनोवृत्तियों से है जबकि औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य कार्यं समूह के कर्मचारियों के बीच एकता की भावना, भाईचारा तथा एकात्मता की भावना से है।
2 कार्य संतुष्टि के तीन मुख्य निर्धारक होते है जिन्हें व्यवसाय कारक,वैयक्तिक कारक तथा समूह कारक कहते हैँ। दूसरी ओंर, औद्योगिक मनोबल के चार निर्धारक होते है जिनमें सामूहिक एकता, लक्ष्य की आवश्यकता लक्ष्य के प्रति दृष्टव्य प्राप्ति तथा लक्ष्य की प्राप्ति के प्रयास के लिए किये जाने वाले सार्थक कार्यों म वैयक्तिक सहभागिता है।
3 कार्यं संतुष्टि मेँ वैयक्तिक लक्ष्य प्रधान होता है- जबकि मनोबल में सामूहिक लक्ष्य की प्रधानता होती है। कर्मचारी को कार्य संतुष्टि तभी होती है जब उसके वैयक्तिक लक्ष्यों जिनके निर्धारण में उसके व्यक्तिगत कारणों की भूमिका प्रमुख होती है, की प्राप्ति हो जाए। किन्तु मनोबल के बने रहने या उन्नत बनने में वैयक्तिक लक्ष्य की प्राप्ति गौण रहती है और सामूहिक लक्ष्य की प्राप्ति एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण कारक के रूप में सामने आती है।
4 कार्य संतुष्टि में संज्ञानात्मक कारक की प्रधानता होती है जबकि मनोबल में भावात्मक कारक प्रधान होते है। यदि कर्मचारी के अपने कार्य, प्रबंधन आदि से संबंधित संज्ञान अनुकूल होते है तो कार्य संतुष्टि बढ़ जाती है। दूसरी और, मनोबल का उच्च या नीच होना सामूहिक लक्ष्य के भावात्मक कारकों पर निर्भर करता है।
5 कार्यं संतुष्टि के लिए लक्ष्य की वांछनीयता में विश्वास उतना महत्त्वपूर्ण नहीं है जितना मनोबल के लिए है। सामूहिक लक्ष्यों की वांछनीयता में कर्मचारियों का विशवास. जिस हद तक होगा उनका मनोबल उसी हद तक उन्नत बन जाएगा। यह बात कार्यं संतुष्टि पर लागू नहीं होती। उपर्युक्त अन्तरों के होते हुए भी कार्यं संतुष्टि तथा मनोबल के बीच घनिष्ट सम्बन्ध होता है तथा कार्य संतुष्टि मनोबल को बढाने में सहायक हो सकती है। सामान्यत: कार्यं संतुष्टि के बढ़ने से मनोबल ऊँचा हो जाता है तथा कार्य असंतुष्टि के बढ़ने से निम्न हो जाता है। अत: यह कहा जा सकता है की मनोबल से भिन्न होने पर भी कार्य संतुष्टि मनोबल को प्रभावित करनेवाला एक महत्त्वपूर्ण अंग है। कार्य संतुष्टि या व्यवसाय संतुष्टि के सम्बन्ध में एक मुख्य प्रश्न यह उठता है कि किन परिस्थितियों में कर्मचारी की कार्यं संतुष्टि बढ़ती या घटती है। दूसरे शब्दों में यह कहा जा सकता है कि किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं संतुष्टि बढ़ती है और किन-किन कारकों की उपस्थिति में कार्यं असंतुष्टि बढती है। कार्यं संतुष्टि या असंतुष्टि को प्रभावित करने वाले ऐसे कारकों को निर्धारक कहा जाएगा. हैरेल ने कार्य संतुष्टि को निर्धारित करने वाले इन कारकों को निम्नलिखित तीन वर्गों में बाँटा है:-
( क ) वैयक्तिक कारक
(ख) व्यवसाय कारक तथा
(ग ) प्रबंधन कारक
हम यहीं इन तीनो प्रकार के कारकों अथवा चरों की अलग-अलग व्याख्या करेंगे यह बात उल्लेखनीय है कि यहाँ कार्य संतुष्टि की व्याख्या आश्रित चर के रूप में तथा उक्त तीन प्रकार के कारकों की व्याख्या स्वतंत्र चर के रूप में करेंगे
(क) वैयक्तिक कारक - कार्य संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारको के अंतर्गत वे कारक आते है जिनका संबंध कर्मचारी से होता है। कर्मचारी में ही कुछ ऐसे तत्त्व होते है जो उसकी कार्य संतुष्टि को निर्धारित करते हैं। इसीलिए समान कार्यं परिस्थिति तथा
प्रबंधन के होते हुए भी भिन्न-भिन्न कर्मचारियों की कार्य संतुष्टि इन व्यक्तिगत तत्वों के कारण भिन्न हो सकती है। इन व्यक्तिगत कारकों में निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण है।
2. आयु -कर्मचीरियों की आयु का प्रभाव भी उसकी कार्य संतुष्टि पर पड़ता है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कम आयु के कर्मचारियों की अपेक्षा अधिक आयु के कर्मचारियों में व्यवसाय संतुष्टि अधिक होती हैं। इसका कारण यह है कि अधिक आयु के कर्मचारियों के कार्यं अवसर इतने सीमित हो जाते है कि वे अपने कार्य से सहज ही संतुष्ट रहने लगते है। इसके विपरीत कम आयु के कर्मचारियों के समक्ष कार्यं अवसर अधिक होते है अर्थात् भिन्न-भिन्न कार्यों के लिए दरवाजे खुले रहते हैँ। इसलिए वे अपने वर्तमान व्यवसाय से असंतुष्ट रहते है। इसके अलावा अधिक आयु वाले कर्मचारी पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व अधिक होता है जिससे उनकी संतुष्टि वर्तमान व्यवसाय से अधिक रहती है। दूसरी ओर कम आयु के कर्मचारियों पर आर्थिक बोझ एवं दायित्व नहीं होने के कारण या कम होने के करण उनकी कार्य संतुष्टि घट जाती है। लेकिन सिन्हा ( 1973) के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उनके अनुसार कार्य संतुष्टि तथा आयु के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं होता। वास्तविकता यह है कि इन दोनों चरों के बीच कईं मध्यवर्तीय चर सक्रिय रहते है। जिनके कारण दोनों के बीच वास्तविक संबंध को निर्धारित कर पाना कठिन हो जाता है।
3. परिवार मैं आश्रितों की संख्या -कार्य संतुष्टि तथा असंतुष्टि पर कर्मचारी के परिवार में आश्रितों की संख्या का भी प्रभाव पड़ता है। किसी कर्मचारी की कार्य संतुष्टि. अन्य बातों के साथ-साथ इस बात पर भी निर्भर करती है कि उसे अपने परिवार में कितने आश्रितों की आवश्यकताओं की पूर्ति करनी होती है। मोर्स के अध्ययन से पता चलता है कि कार्य संतुष्टि तथा कार्य-असंतुष्टि के बीच नकारात्मक सहसम्बन्ध होता है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आश्रितों की संख्या अधिक होने पर कार्य संतुष्टि घटती है। सम्भवत्त: इसका कारण यह है कि आश्रितों की संख्या बढ़ने से आर्थिक कठिनाई बढती है जिससे कार्यं संतुष्टि घटती है। लेक्लि सिन्हा के अध्ययन से इस बात की पुष्टि नहीं होती। उन्होंने अपने अध्ययन में कार्य संतुष्टि पर आश्रितों की संख्या का कोई सार्थक प्रभाव नहीं देखा। वास्तविकता यह है कि कार्यं संतुष्टि तथा आश्रितों की संख्या के बीच कोई सीधा संबंध नहीं होता बल्कि इन दोनो के बीच का मध्यवर्ती चर यथा सामाजिक-आर्थिक स्थिति, आय, जीवन स्तर आदि सक्रिय रहते है जिनके कारण दोनों के बीच संबंध जटिल बन जाता । 4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
4. शिक्षा -कार्य संतुष्टि का एक वैयक्तिक निर्धारक कर्मचारियों का शैक्षिक स्तर भी है। अध्ययनों से पता चलता है कि अन्य बाते समान रहने पर भी उच्च शिक्षित कर्मचारियों की अपेक्षा कम शिक्षित कर्मचारियों में कार्यं संतुष्टि अधिक होती है। मोर्स ने अपने एक अध्ययन में देखा किं जो कर्मचारी प्राथमिक विद्यालय परीक्षा उत्तीर्ण थे उनमें कार्य संतुष्टि अधिक थी बनिस्पत उच्च शिक्षित कर्मचारियों के। किन्तु फायर तथा सिन्हा के अध्ययनों से ज्ञातव्य है कि कार्य संतुष्टि तथा शैक्षिक स्तर के बीच कोई सार्थक सम्बन्ध नहीं है। हैरेल के अनुसार शैक्षिक स्तर तथा कार्य संतुष्टि के बीच सम्बन्ध को निर्धारित करने में कईं अन्य कारकों का हाथ होता है जिनमें कर्मचारी की शिक्षा के प्रति प्रबंधक या पर्यवेक्षक की धारणा अधिक महत्वपूर्ण है।
5. बुद्धि -कर्मचारी की कार्य संतुष्टि पर उसके बौद्धिक स्तर का भी प्रभाव पडता है। इस संबंध से किए गए अध्ययनों से परस्पर विरोधी परिणाम प्राप्त हुए हैं। वुरव्रौक ने अपने अध्ययन में देखा कि मंद बुद्धि कर्मचारियों की अपेक्षा तीव्र बुद्धि के कर्मचारियों में कार्यं के प्रति कम अनुकूल मनोवृति थी जिससे कार्य असंतुष्टि बढती है। वैट तथा लैयडन ने चॉकलेट कारखाने में किए गए एक अध्ययन में देखा कि कर्मचारियों में कार्य की एकरसता के कारण कार्यं संतुष्टि घटी थी। यहीं यह उल्लेखनीय है कि एकरसता का
प्रभाव अधिक बुद्धि वाले कर्मचारियों पर अधिक पड़ता है। अत: इस अध्ययन से ये परस्पर निष्कर्ष की भी बुद्धि, एकरसत, कार्य संतुष्टि अथवा असंतुष्टि के आधार पर व्याख्या की गई। किन्तु कॉर्नहाउजर तथा शार्प के अध्ययन से इस बात को पुष्टि नहीं हुई। उनके अनुसार बौद्धिक स्तर तथा कार्यं संतुष्टि के बीच कोई निश्चित सम्बन्ध नहीँ होता। इन अध्ययनों के अलावा अन्य कई अध्ययनों में ये परस्पर विरोधी निष्कर्ष प्राप्त हुए हैं। अत: यहाँ यह कहा जा सकता है कि इस दिशा मेँ किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए गहन शोध की आवश्यकता है।
6. सेवा अवधि -कर्मचारिर्या की सेवा अवधि का भी प्रभाव उनकी कार्य संतुष्टि पर पाता है। इस संदर्भ में किए गए अध्ययनों से पता चलता है कि सेवा के प्रारंभिक दिनों में कर्मचारियों को अधिक संतुष्टि का अनुभव होता है। किन्तु सेवा अवधि के बढने के साथ-साथ उनकी कार्य संतुष्टि घटती जाती है। फिर 50-60 वर्ष की आयु के बाद कार्य संतुष्टि बढ़ती है। किन्तु सिन्हा ने कार्य संतुष्टि पर कर्मचारियों की सेवा अवधि का कोई प्रभाव नहीं देखा। हाल तथा काल्सटेड के अनुसार किसी संगठन में 20 वर्षों की सेवा के बाद कर्मचारियों का मनोबल उच्चतम रहता है जिसके कारण उनकी कार्य संतुष्टि बड़ जाती है।
7. आकांक्षा-स्तर -कार्यं संतुष्टि को प्रभावित करने वाले कारकों में कर्मचारियों की आकाक्षा का स्तर भी एक महत्वपूर्ण कारक है। जब कर्मचारी की आकांक्षा के स्तर तथा उसके व्यवसाय के बीच स्थानान्तरण नहीं होता तब उसे निराशा का अनुभव होता है और परिणामत: अपने व्यवसाय के प्रति उसकी असंतुष्टि बढ़ जाती है। मोर्स के अध्ययन से इस बात की पुष्टि होती है। इसकी व्याख्या करते हुए उन्होंने कहा है कि कर्मचारी की कार्य संतुष्टि मूलत: इस बात पर निर्भर करती है की व्यक्ति की आकांक्षा क्या है और वर्तमान व्यवसाय से उसकी आकांक्षा की संतुष्टि कहाँ तक हो रही है |
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Wednesday, 16 December 2015
औद्योगिक मनोबल
औद्योगिक समस्याओं में मनोबल की समस्या कर्मचारी तथा उद्योगपति दोनों के
दृष्टिकोण अत्यन्त जटिल तथा महत्त्वपूर्ण है। उच्च अथवा उन्मत औद्योगिक मनोबल से जहाँ कर्मचारी तथा उद्योगपति को लाभ पहुंचता है वहीँ निम्न औद्योगिक मनोबल से उन्हें निश्चित हानि पहुँचती है। इसीलिए प्रबंधन की ओंर से हमेशा इस बात का प्रयास किया जाता है कि कर्मचारी-मनोबल उन्नत बना रहे।
साधारण अर्थ में मनोबल का तात्पर्य किसी समूह के सदस्यों के बीच एकता, भाईचारा एवं आत्मीयता के भाव से है । इस दृष्टिकोण से औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य किसी उद्योग के कर्मचारियों के बीच एकता, सौजन्य तथा भाईचारे से है किन्तु इस कथन से औद्योगिक मनोबल का स्वरूप समुचित रूप से स्पष्ट नाते हो पाता। इस संबंध में ब्लम तथा नेलर के द्वारा दी गयी परिभाषा समग्र तथा संतोषजनक मानी जाती है। उनेके अनुसार, - सामूहिक उद्देश्य तथा उस उद्देश्य की वांछनीयता में विश्वास रखते हुए उसकी पूर्ति का प्रयास कर स्वयं को समूह के द्वारा स्वीकृत कर लिए जाने तथा उस समूह का सदस्य होने की भावना को औद्योगिक मनोबल कहा जाता हैं?"
इस परिभाषा के विश्लेषण से औद्योगिक मनोबल के संबंध में निम्नलिखित बाते स्पष्ट होती है -
(1) औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य किसी उद्योग के कर्मचारी या कर्मचारियों के एक निहित भाव से है। स्पष्टत: मनोबल का संबंध मुख्य रूप से कर्मचारी की भावात्मक प्रक्रिया से है।
(11) औद्योगिक मनोबल से इस बात का बोध होता है कि कर्मचारी का अपने कार्यसमूह द्वारा स्वीकृति के प्रति कैसा भाव है | यदि कर्मचारी को इस बात का बोध होता है कि उसके समूह द्वारा उसे स्वीकृति प्राप्त है तो समझा जाता है कि उसका मनोबल ऊँचा है । यदि उसे इस बात का बोध होता है कि उसके समूह द्वारा उसकी स्वीकृति संदिग्ध है तो समझा जाता है कि मनोबल नीचा है।
3) औद्योगिक मनोबल का संबंध समूह के प्रति निष्ठा के भाव से है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि किसी कर्मचारी में अपने समूह में होने का भाव है या नहीँ, और यदि है तो उसमें निष्ठा की मात्रा किस सीमा तक है।
4) औद्योगिक मनोबल का एक लक्ष्य सामूहिक लक्ष्य तथा लक्ष्यों के प्रति कर्मचारी की मनोवृति है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्मचारी अपने सामूहिक लक्ष्य या लक्ष्यों के प्रति केसी मनोवृति रखता है। मनोवृति की दिशा तथा मात्रा से उच्च अथवा निम्न मनोबल का संकेत मिलता है।
5) मनोवृति का संबंध सामूहिक लक्ष्य तथा लक्ष्यों की वांछनीयता से भी है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्मचारी अपने समूह के लक्ष्य या लक्ष्यों को कहॉ तक वांछनीय मानते है और उनमें उनका विश्वास किस सीमा तक है। इस विश्वास की सबलता या दुर्बलता से उच्च या निम्न मनोबल का पता चलता है।
औद्योगिक मनोबल के मापदण्ड का तात्पर्य उन भावों से है जिनके आधार पर इस बात की जानकारी मिलती है कि किसी उद्योग या संगठन के कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा है या निम्न है। ऐसे मापों को या मापदण्डों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :-
(क) वस्तुनिष्ठ माप तथा
(ख) आत्मनिष्ठ माप
(क) वस्तुनिष्ठ माप
वस्तुनिष्ठ माप का तात्पर्य उन मापों या मापदपडों से है जिनका निरीक्षण बाह्य रूप से किया जा सकता है। यहाँ कर्मचारियों के व्यवहारों तथा कार्य निष्पादन के निरीक्षण से
इस बात का प्रमाण मिलता है कि उनका मनोबल ऊंचा है या निम्न है। ऐसे मापदण्डों के निम्नलिखित प्रकार है-
1.हड़ताल-कर्मचारियों के द्वारा की जाने वाली हड़तालों से उनके मनोबल के संबंध में निश्चित जानकारी मिलती है। सामान्यत: हड़ताल से निम्न मनोबल का संकेत मिलता है जिस उद्योग में कर्मचारी प्राय: हड़ताल पर रहते हो वहां कर्मचारियों का मनोबल निश्चित रूप से निम्न होता है। इसके विपरीत जिन उद्योगो के कर्मचारी हड़ताल नहीं करते वे स्पष्ट रूप से अपने उच्च मनोबल का परिचय देते है। गीज तथा रटर ने भी कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैँ।
2. कार्य से अनुपस्थिति-औद्योगिक मनोबल का एक मापदण्ड कार्य से कर्मचारियों की अनुपस्थिति है। यदि कर्मचारी अपने कार्य से प्राय: अनुपस्थित रहते हो तो इसका स्पष्ट अर्थ यह होगा कि उनका मनोबल निम्न है। दूसरी ओर यदि कर्मचारियों मेँ अनुपस्थिति की बारंबारता नगण्य हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है। स्पष्टत: मनोबल तथा अनुपस्थिति के बीच नकारात्मक सहसंबंघ पाया जाता है।
3. श्रमिक परिवर्तन -मनोबल की पहचान किसी उद्योग में श्रमिक परिवर्तन से भी होती है। किसी उद्योग के कर्मचारियों में श्रमिक परिवर्तन अधिक होने से निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। दूसरी ओर श्रमिक परिवर्तन में कमी से कर्मचारियों के उच्च मनोबल का संकेत मिलता है। अत: श्रमिक परिवर्तन तथा औद्योगिक मनोबल के बीच भी नकारात्मक सहसंबंध पाया जाता है।
4. उत्पादन-उत्पादन के संतोषजनक अथवा असंतोषजनक होने के अनेक कारण हो सकते है । इनमें औद्योगिक मनोबल एक महत्त्वपूर्ण कारण है। उत्पादन जहाँ उच्च मनोबल से बढ़ता है वही निम्न मनोबल से घटता है। हॉथर्न अध्ययन से भी इस विचार का समर्थन होता है। अत: यदि किसी उद्योग का उत्पादन संतोषजनक हो तो समझा जाएगा कि कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा है । इसके विपरीत यदि उत्पादन संतोषजनक नहीँ हो तो समझा जाएगा कि कर्मचारियों का मनोबल गिर गया है।
5. शिकायते -कर्मचारियों के द्वारा अधिकारियों के समक्ष की जाने वाली शिकायतों से भी उच्च तथा निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। यदि किसी उद्योग के अधिकांश कर्मचारी अधिकरियों के समक्ष बार-बार विभिन्न प्रकार की शिकायतों को लेकर आते हो तो इसका अर्थ यह होगा कि उनका मनोबल गिर चुका है। दूसरी ओर यदि कर्मचारी शिकायत करने की आवश्यकता महसूस नहीं करते हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है ।
स्पष्ट है कि कईं बाहा मापों अथवा वस्तुनिष्ठ के उपर पर निम्न अथवा उच्च मनोबल की पहचान होने का दावा किया जाता है। किन्तु यह दावा अधिकांश परिस्थितियों में संदिग्ध ही रहता हे। ब्लम तथा नेलर ने इस संदर्भ में कहा है कि बाह्य मापों के आधार पर मनोबल की सही स्थिति का पता लगाना बहुत कठिन है क्योंकि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि कोई बाह्य माप सही अर्थों में उच्च या निम्न मनोबल को ही इंगित काता है । जैसे, हड़ताल की स्थिति में कर्मचारियों का मनोबल निम्न ही हो
यह आवश्यक नहीं। कभी-कभी मनोबल उच्च होते हुए भी व्यावसायिक शर्तों के अन्तर्गत हड़ताल की जाती है। इसी तरह निम्न मनोबल वाले कर्मचारी हड़ताल पर जाएँ ही यह भी आवश्यक नहीं क्योंकि कभी-कभी वे अधिकारियों के भय और अपनी बाध्यता के कारण निम्न मनोबल के होते हुए भी हड़ताल पर नहीँ जाते। यहीं कठिनाई दूसरे बाह्य मापदण्डों के साथ भी हो सकती है। अत: मनोबल की सही स्थिति की जानकारी के लिए आत्मनिष्ठ मापदण्डों का उपयोग भी आवश्यक है।
(ख) आत्मनिष्ठ मापदण्ड
आत्मनिष्ठ मापदण्ड का तात्पर्य कर्मचारियों के दिए गए विभिन्न प्रतिवेदनों से है। इन मापों या मापदण्डों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. एकता का भाव -जब एक कार्य समूह के सदस्यों में एकता का भाव होता है तो समझा जाता है कि औधोगिक मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत जिस हद तक एकता के भाव में कमी होती है उसी हद तक कर्मचारियों में मनोबल की कमी की धारणा बनती है |
2. सामूहिक लक्ष्य कै प्रति मनोवृति -यदि कर्मचारियों की मनोवृति अपने समूह लक्ष्य के प्रति अनुकूल होती है तो समझा जाता है की उनका मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत जब कर्मचारी में अपने समूह लक्ष्य के प्रति धनात्मक मनोवृति का अभाव होता है तो उसके निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। अत: जहाँ धनात्मक मनोवृति उच्च मनोबल की सूचक है वहीँ ऋणात्मक मनोवृति निम्न मनोबल को इंगित करतीं है।
3. अहम् सन्निहितता का भाव- जब किसी कार्य समूह के कर्मचारियों में अपने समूह-लक्ष्य में अपने अहन्के सग्निहित होने का भाव हो तो यह समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है । समूह लक्ष्य में अहम् के सन्नि हित होने का अर्ध है उस लक्ष्य के प्राप्ति से संतुष्टि महसूस करना और उसकी प्राप्ति को दिशा में असफलता से असंतुष्टि का हैंत्मा। इसके विपरीत, अपने समूह-लक्ष्य में अहमू के सन्निहित नहीँ होने की स्थिति में निम्न मनोबल का संकेत मिलता है।
4. 'हम' का भाव -उच्च मनोबल की पहचान 'हम' का भाव है जबकि निम्न मनोबल की पहचान 'मैं' का भाव है। यदि किसी कार्य-समूह के सदस्यों में 'हम' का भाव है अर्थात् उनमें आपस में अटूट सम्बन्ध है तो यह समझना चाहिए किं उनका मनोबल ऊँचा है। और यदि कर्मचारियों में 'मैं' भाव की प्रधानता हो अर्थात् उनमें वैक्तिकता की भावना अधिक हो तो यह समझा जाएगा कि वे निम्न मनोबल के शिकार हो चुके है।
5. नेतृत्व के प्रति निष्ठा -किंसी उद्योग में नैतृत्व के प्रति यदि कर्मचारियों में पर्याप्त निष्ठा उपलब्ध हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत नैतृत्व के प्रति निष्ठा का अभाव कर्मचारियों के निम्म मनोबल का परिचायक होता है। यह बात प्रजातांत्रिक तथा सत्तावादी दोनों प्रकार के नेतृत्व पर लागू होती है।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि उच्च तथा निम्न मनोबल की पहचान कई आत्मनिष्ठ मापदण्डो' अथवा अतिरिक्त मापों से संभव होती हैं | यदि कर्मचारी अपने आत्मनिरीक्षण प्रतिवेदन, देने में तटस्थता तथा ईमानदारी बरते तो ये सभी आन्तरिक माप अत्यन्त विश्वसनीय प्रमाणित होगे और उनके आधार पर मनोबल की सही स्थिति को यथार्थ रूप से समझना संभव हो जाएगा। किन्तु यदि कर्मचारी कई कारणों से सही बात को छिपा कर गलत प्रतिवेदन प्रस्तुत करे तब उस स्थिति में मनोबल की सही जानकारी नहीं मिल पाएगी। अत: औद्योगिक मनोबल उच्च है अथवा निम्न है इसकी सही जानकारी के लिए बाह्य मापी के साथ आन्तरिक पापों का उपभोग सहायक म/घो' के रूप में' किया जाना अधिक वांछनीय प्रतीत होता है |
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दृष्टिकोण अत्यन्त जटिल तथा महत्त्वपूर्ण है। उच्च अथवा उन्मत औद्योगिक मनोबल से जहाँ कर्मचारी तथा उद्योगपति को लाभ पहुंचता है वहीँ निम्न औद्योगिक मनोबल से उन्हें निश्चित हानि पहुँचती है। इसीलिए प्रबंधन की ओंर से हमेशा इस बात का प्रयास किया जाता है कि कर्मचारी-मनोबल उन्नत बना रहे।
साधारण अर्थ में मनोबल का तात्पर्य किसी समूह के सदस्यों के बीच एकता, भाईचारा एवं आत्मीयता के भाव से है । इस दृष्टिकोण से औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य किसी उद्योग के कर्मचारियों के बीच एकता, सौजन्य तथा भाईचारे से है किन्तु इस कथन से औद्योगिक मनोबल का स्वरूप समुचित रूप से स्पष्ट नाते हो पाता। इस संबंध में ब्लम तथा नेलर के द्वारा दी गयी परिभाषा समग्र तथा संतोषजनक मानी जाती है। उनेके अनुसार, - सामूहिक उद्देश्य तथा उस उद्देश्य की वांछनीयता में विश्वास रखते हुए उसकी पूर्ति का प्रयास कर स्वयं को समूह के द्वारा स्वीकृत कर लिए जाने तथा उस समूह का सदस्य होने की भावना को औद्योगिक मनोबल कहा जाता हैं?"
इस परिभाषा के विश्लेषण से औद्योगिक मनोबल के संबंध में निम्नलिखित बाते स्पष्ट होती है -
(1) औद्योगिक मनोबल का तात्पर्य किसी उद्योग के कर्मचारी या कर्मचारियों के एक निहित भाव से है। स्पष्टत: मनोबल का संबंध मुख्य रूप से कर्मचारी की भावात्मक प्रक्रिया से है।
(11) औद्योगिक मनोबल से इस बात का बोध होता है कि कर्मचारी का अपने कार्यसमूह द्वारा स्वीकृति के प्रति कैसा भाव है | यदि कर्मचारी को इस बात का बोध होता है कि उसके समूह द्वारा उसे स्वीकृति प्राप्त है तो समझा जाता है कि उसका मनोबल ऊँचा है । यदि उसे इस बात का बोध होता है कि उसके समूह द्वारा उसकी स्वीकृति संदिग्ध है तो समझा जाता है कि मनोबल नीचा है।
3) औद्योगिक मनोबल का संबंध समूह के प्रति निष्ठा के भाव से है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि किसी कर्मचारी में अपने समूह में होने का भाव है या नहीँ, और यदि है तो उसमें निष्ठा की मात्रा किस सीमा तक है।
4) औद्योगिक मनोबल का एक लक्ष्य सामूहिक लक्ष्य तथा लक्ष्यों के प्रति कर्मचारी की मनोवृति है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्मचारी अपने सामूहिक लक्ष्य या लक्ष्यों के प्रति केसी मनोवृति रखता है। मनोवृति की दिशा तथा मात्रा से उच्च अथवा निम्न मनोबल का संकेत मिलता है।
5) मनोवृति का संबंध सामूहिक लक्ष्य तथा लक्ष्यों की वांछनीयता से भी है। इससे इस बात का संकेत मिलता है कि कर्मचारी अपने समूह के लक्ष्य या लक्ष्यों को कहॉ तक वांछनीय मानते है और उनमें उनका विश्वास किस सीमा तक है। इस विश्वास की सबलता या दुर्बलता से उच्च या निम्न मनोबल का पता चलता है।
औद्योगिक मनोबल के मापदण्ड का तात्पर्य उन भावों से है जिनके आधार पर इस बात की जानकारी मिलती है कि किसी उद्योग या संगठन के कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा है या निम्न है। ऐसे मापों को या मापदण्डों को निम्नलिखित दो वर्गों में विभाजित किया जा सकता है :-
(क) वस्तुनिष्ठ माप तथा
(ख) आत्मनिष्ठ माप
(क) वस्तुनिष्ठ माप
वस्तुनिष्ठ माप का तात्पर्य उन मापों या मापदपडों से है जिनका निरीक्षण बाह्य रूप से किया जा सकता है। यहाँ कर्मचारियों के व्यवहारों तथा कार्य निष्पादन के निरीक्षण से
इस बात का प्रमाण मिलता है कि उनका मनोबल ऊंचा है या निम्न है। ऐसे मापदण्डों के निम्नलिखित प्रकार है-
1.हड़ताल-कर्मचारियों के द्वारा की जाने वाली हड़तालों से उनके मनोबल के संबंध में निश्चित जानकारी मिलती है। सामान्यत: हड़ताल से निम्न मनोबल का संकेत मिलता है जिस उद्योग में कर्मचारी प्राय: हड़ताल पर रहते हो वहां कर्मचारियों का मनोबल निश्चित रूप से निम्न होता है। इसके विपरीत जिन उद्योगो के कर्मचारी हड़ताल नहीं करते वे स्पष्ट रूप से अपने उच्च मनोबल का परिचय देते है। गीज तथा रटर ने भी कुछ इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैँ।
2. कार्य से अनुपस्थिति-औद्योगिक मनोबल का एक मापदण्ड कार्य से कर्मचारियों की अनुपस्थिति है। यदि कर्मचारी अपने कार्य से प्राय: अनुपस्थित रहते हो तो इसका स्पष्ट अर्थ यह होगा कि उनका मनोबल निम्न है। दूसरी ओर यदि कर्मचारियों मेँ अनुपस्थिति की बारंबारता नगण्य हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है। स्पष्टत: मनोबल तथा अनुपस्थिति के बीच नकारात्मक सहसंबंघ पाया जाता है।
3. श्रमिक परिवर्तन -मनोबल की पहचान किसी उद्योग में श्रमिक परिवर्तन से भी होती है। किसी उद्योग के कर्मचारियों में श्रमिक परिवर्तन अधिक होने से निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। दूसरी ओर श्रमिक परिवर्तन में कमी से कर्मचारियों के उच्च मनोबल का संकेत मिलता है। अत: श्रमिक परिवर्तन तथा औद्योगिक मनोबल के बीच भी नकारात्मक सहसंबंध पाया जाता है।
4. उत्पादन-उत्पादन के संतोषजनक अथवा असंतोषजनक होने के अनेक कारण हो सकते है । इनमें औद्योगिक मनोबल एक महत्त्वपूर्ण कारण है। उत्पादन जहाँ उच्च मनोबल से बढ़ता है वही निम्न मनोबल से घटता है। हॉथर्न अध्ययन से भी इस विचार का समर्थन होता है। अत: यदि किसी उद्योग का उत्पादन संतोषजनक हो तो समझा जाएगा कि कर्मचारियों का मनोबल ऊँचा है । इसके विपरीत यदि उत्पादन संतोषजनक नहीँ हो तो समझा जाएगा कि कर्मचारियों का मनोबल गिर गया है।
5. शिकायते -कर्मचारियों के द्वारा अधिकारियों के समक्ष की जाने वाली शिकायतों से भी उच्च तथा निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। यदि किसी उद्योग के अधिकांश कर्मचारी अधिकरियों के समक्ष बार-बार विभिन्न प्रकार की शिकायतों को लेकर आते हो तो इसका अर्थ यह होगा कि उनका मनोबल गिर चुका है। दूसरी ओर यदि कर्मचारी शिकायत करने की आवश्यकता महसूस नहीं करते हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है ।
स्पष्ट है कि कईं बाहा मापों अथवा वस्तुनिष्ठ के उपर पर निम्न अथवा उच्च मनोबल की पहचान होने का दावा किया जाता है। किन्तु यह दावा अधिकांश परिस्थितियों में संदिग्ध ही रहता हे। ब्लम तथा नेलर ने इस संदर्भ में कहा है कि बाह्य मापों के आधार पर मनोबल की सही स्थिति का पता लगाना बहुत कठिन है क्योंकि निश्चित रूप से यह नहीं कहा जा सकता कि कोई बाह्य माप सही अर्थों में उच्च या निम्न मनोबल को ही इंगित काता है । जैसे, हड़ताल की स्थिति में कर्मचारियों का मनोबल निम्न ही हो
यह आवश्यक नहीं। कभी-कभी मनोबल उच्च होते हुए भी व्यावसायिक शर्तों के अन्तर्गत हड़ताल की जाती है। इसी तरह निम्न मनोबल वाले कर्मचारी हड़ताल पर जाएँ ही यह भी आवश्यक नहीं क्योंकि कभी-कभी वे अधिकारियों के भय और अपनी बाध्यता के कारण निम्न मनोबल के होते हुए भी हड़ताल पर नहीँ जाते। यहीं कठिनाई दूसरे बाह्य मापदण्डों के साथ भी हो सकती है। अत: मनोबल की सही स्थिति की जानकारी के लिए आत्मनिष्ठ मापदण्डों का उपयोग भी आवश्यक है।
(ख) आत्मनिष्ठ मापदण्ड
आत्मनिष्ठ मापदण्ड का तात्पर्य कर्मचारियों के दिए गए विभिन्न प्रतिवेदनों से है। इन मापों या मापदण्डों को निम्नलिखित भागों में विभाजित किया जा सकता है
1. एकता का भाव -जब एक कार्य समूह के सदस्यों में एकता का भाव होता है तो समझा जाता है कि औधोगिक मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत जिस हद तक एकता के भाव में कमी होती है उसी हद तक कर्मचारियों में मनोबल की कमी की धारणा बनती है |
2. सामूहिक लक्ष्य कै प्रति मनोवृति -यदि कर्मचारियों की मनोवृति अपने समूह लक्ष्य के प्रति अनुकूल होती है तो समझा जाता है की उनका मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत जब कर्मचारी में अपने समूह लक्ष्य के प्रति धनात्मक मनोवृति का अभाव होता है तो उसके निम्न मनोबल का संकेत मिलता है। अत: जहाँ धनात्मक मनोवृति उच्च मनोबल की सूचक है वहीँ ऋणात्मक मनोवृति निम्न मनोबल को इंगित करतीं है।
3. अहम् सन्निहितता का भाव- जब किसी कार्य समूह के कर्मचारियों में अपने समूह-लक्ष्य में अपने अहन्के सग्निहित होने का भाव हो तो यह समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है । समूह लक्ष्य में अहम् के सन्नि हित होने का अर्ध है उस लक्ष्य के प्राप्ति से संतुष्टि महसूस करना और उसकी प्राप्ति को दिशा में असफलता से असंतुष्टि का हैंत्मा। इसके विपरीत, अपने समूह-लक्ष्य में अहमू के सन्निहित नहीँ होने की स्थिति में निम्न मनोबल का संकेत मिलता है।
4. 'हम' का भाव -उच्च मनोबल की पहचान 'हम' का भाव है जबकि निम्न मनोबल की पहचान 'मैं' का भाव है। यदि किसी कार्य-समूह के सदस्यों में 'हम' का भाव है अर्थात् उनमें आपस में अटूट सम्बन्ध है तो यह समझना चाहिए किं उनका मनोबल ऊँचा है। और यदि कर्मचारियों में 'मैं' भाव की प्रधानता हो अर्थात् उनमें वैक्तिकता की भावना अधिक हो तो यह समझा जाएगा कि वे निम्न मनोबल के शिकार हो चुके है।
5. नेतृत्व के प्रति निष्ठा -किंसी उद्योग में नैतृत्व के प्रति यदि कर्मचारियों में पर्याप्त निष्ठा उपलब्ध हो तो समझा जाएगा कि उनका मनोबल ऊँचा है। इसके विपरीत नैतृत्व के प्रति निष्ठा का अभाव कर्मचारियों के निम्म मनोबल का परिचायक होता है। यह बात प्रजातांत्रिक तथा सत्तावादी दोनों प्रकार के नेतृत्व पर लागू होती है।
इस प्रकार स्पष्ट हो जाता है कि उच्च तथा निम्न मनोबल की पहचान कई आत्मनिष्ठ मापदण्डो' अथवा अतिरिक्त मापों से संभव होती हैं | यदि कर्मचारी अपने आत्मनिरीक्षण प्रतिवेदन, देने में तटस्थता तथा ईमानदारी बरते तो ये सभी आन्तरिक माप अत्यन्त विश्वसनीय प्रमाणित होगे और उनके आधार पर मनोबल की सही स्थिति को यथार्थ रूप से समझना संभव हो जाएगा। किन्तु यदि कर्मचारी कई कारणों से सही बात को छिपा कर गलत प्रतिवेदन प्रस्तुत करे तब उस स्थिति में मनोबल की सही जानकारी नहीं मिल पाएगी। अत: औद्योगिक मनोबल उच्च है अथवा निम्न है इसकी सही जानकारी के लिए बाह्य मापी के साथ आन्तरिक पापों का उपभोग सहायक म/घो' के रूप में' किया जाना अधिक वांछनीय प्रतीत होता है |
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