Thursday, 24 December 2015

गोचर विज्ञान

इसे देखने के लिये अष्टक वर्ग जैसी अन्य पद्धतियों का नाम एवं विधि विस्तारपूर्वक बताएं। ब्रह्मांड में स्थित ग्रह अपने-अपने मार्ग पर अपनी-अपनी गति से सदैव भ्रमण करते हुए एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते रहते हैं। जन्म समय में ये ग्रह जिस राशि में पाये जाते हैं वह राशि इनकी जन्मकालीन राशि कहलाती है जो कि जन्म कुंडली का आधार है। जन्म के पश्चात् किसी भी समय वे अपनी गति से जिस राशि में भ्रमण करते हुए दिखाई देते हैं, उस राशि में उनकी स्थिति गोचर कहलाती है। वर्ष भर के समय की जानकारी गुरु और शनि से, मास की सूर्य से और प्रतिदिन की चंद्रमा के गोचर से प्राप्त की जा सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी ग्रह का गोचर फल उस ग्रह की अन्य प्रत्येक ग्रह से स्थिति के आधार पर भी कहना चाहिए न कि केवल चंद्रमा की स्थिति से। गोचर फलादेश के सिद्धांत: 1. मनुष्य को ग्रह गोचर द्वारा ग्रहों की, मुख्यतः ग्रहों की जन्मकालीन स्थिति के अनुरूप ही अच्छा अथवा बुरा फल मिलता है। इस विषय में मंत्रेश्वर महाराज ने ‘फलदीपिका’ में लिखा है। ‘‘यद भागवो गोचरतो विलग्नात्देशश्वरः सर्वोच्च सुहृदय ग्रहस्थः तद् भाववृद्धि कुरूते तदानीं बलान्वितश्चेत प्रजननेऽपि तस्य’’ अर्थात् यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में बली होकर गोचर में भी अपनी उच्च राशि, अपनी राशि अथवा मित्र राशि में जा रहा हो तो लग्न से जिस भाव में गोचर द्वारा जा रहा होगा, उसी भाव के शुभ फल को बढ़ायेगा। इसी विषय को पुनः अशुभ फल के रूप में भी फलदीपिका कार इस प्रकार लिखते हैं। ‘‘बलोनितो जन्मनि पाकनाथौ मौढ्यं स्वनीचं रिपुमंदिरं वा। प्राप्तश्च यद भावमुपैति चारात् तदभाव नाशकुरूते तदानीम्।। अर्थात् यदि कुंडली में कोई ग्रह जिसकी दशा चल रही हो, निर्बल है, अस्त है, नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में स्थित है तो वह ग्रह गोचर में लग्न के जिस भाव को देखेगा या जायेगा उस भाव का नाश करेगा। 2. यदि जन्मकुंडली में कोई ग्रह अशुभ भाव का स्वामी हो या अशुभ स्थान में पड़ा हो या नीच राशि अथवा नीच नवांश में हो तो वह ग्रह-गोचर में शुभ स्थान में आ जाने पर भी अपना गोचर का पूर्णअशुभ फल देगा। 3. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में शुभ हो, और गोचर में बलवान होकर शुभ स्थान में भ्रमण कर रहा हो तो उत्तम फल करता है। 4. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली के अनुसार शुभ हो, गोचर में भी शुभ भाव में होकर नीच आदि प्रकार से अधम हो तो कम शुभ फल करता है। 5. यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अशुभ हो और गोचर में शुभ भाव में हो, परंतु नीच, शत्रु आदि राशि में हो तो बहुत कम शुभ फल करेगा, अधिकांश अशुभ फल ही प्रदान करेगा। 6. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में अशुभ है और गोचर में भी अशुभ भाव में अशुभ राशि आदि में स्थित है तो वह अत्यंत अशुभ फल प्रदान करेगा। 7. जब ग्रह गोचरवश शुभ स्थान से जा रहा हो और जन्मकुंडली में स्थित दूसरे शुभ ग्रहों से अंशात्मक दृष्टि योग कर रहा हो तो विशेष शुभ फल प्रदान करता है। 8. गोचर में जब ग्रह मार्गी से वक्री होता है अथवा वक्री से मार्गी होता है तब विशेष प्रभाव दिखलाता है। 9. जब गोचर में कोई ग्रह अग्रिम राशि में चला जाता है और कुछ समय के लिए वक्री होकर पिछली राशि में आ जाता है तब भी वह आगे की राशि का फल प्रदान करता है। 10. सूर्य और चंद्रमा का गोचर फल: जिस जातक के जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण पड़ता है तो उस व्यक्ति के स्वास्थ्य आयु आदि के लिए बहुत अशुभ होता है। इस संबंध में ‘मुहूर्त’ चिंतामणि’ का निम्नलिखित श्लोक इस प्रकार है- ‘‘जन्मक्र्षे निधने ग्रहे जन्मतोघातः क्षति श्रीव्र्यथा, चिन्ता सौख्यकलत्रादौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमातदशुभ्यध्वस्त्यै जपः स्वर्ण, गोदानं शान्तिस्थो ग्रहं त्वशुभदं नोवीक्ष्यमाहुवरे।।’’ अर्थात जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर ग्रहण पड़ा हो उसकी सूर्य चंद्र के द्वारा जन्म नक्षत्र पर गोचर भ्रमण के समय मृत्यु हो सकती है। यही फल जन्म राशि पर ग्रहण लगने से कहा है। जन्म राशि से द्वितीय भाव में ग्रहण पड़े तो धन की हानि, तृतीय में पड़े तो धन की प्राप्ति होती है, पांचवे तो चिंता, छठे पड़े तो सुखप्रद होता है। सातवें पड़े तो स्त्री से पृथकता हो या उसका अनिष्ट हो, आठवें पड़े तो रोग हो, नवें पड़े तो मानहानि, दशम में पड़े तो कार्यों में सिद्धि, एकादश पड़े तो विविध प्रकार से लाभ और बारहवें पड़े तो अधिक व्यय तथा धन नाश होता है। 11. यदि वर्ष का फल अशुभ हो अर्थात् शनि, गुरु और राहु गोचर में अशुभ हों और मास का फल उत्तम हो तो उस मास में शुभ फल बहुत ही कम आता है। 12. यदि वर्ष और मास दोनों का फल शुभ हो तो उस मास में अवश्य अतीव शुभ फल मिलता है। 13. ग्रहों का गोचर में शुभ अशुभ फल जो उनके चंद्र राशि में भिन्न भावों में आने पर कहा है उसमें बहुत बार कमी आ जाती है। उस कमी का कारण ‘वेध’ भी होता है। जब कोई ग्रह किसी भाव में गोचरवश चल रहा हो तो उस भाव से अन्यत्र एक ऐसा भाव भी होता है जहां कोई अन्य ग्रह स्थित है तो पहले ग्रह का ‘वेध’ हो जाता है अर्थात् उसका शुभ अथवा अशुभ फल नहीं हो पाता। जैसे सूर्य चंद्र लग्न से जब तीसरे भाव में आता है, तो वह शुभ फल करता है, परंतु यदि गोचर में ही चंद्र लग्न से नवम् भाव में कोई ग्रह बैठा हो तो फिर सूर्य की तृतीय स्थिति का फल रुक जायेगा, क्योंकि तृतीय स्थित सूर्य के लिए नवम वेध स्थान है। इसी प्रकार चंद्रमा जब गोचर में चंद्र लग्न से पंचम भाव में स्थित हो तो कोई ग्रह यदि चंद्र लग्न से छठे भाव में आ जाय तो पंचम चंद्र का वेध हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य ग्रहों का भी वेध द्वारा फल का रुक जाना समझ लेना चाहिए। सूर्य तथा शनि पिता पुत्र हैं। इसलिए इनमें परस्पर वेध नहीं होता है। इसी प्रकार चंद्र बुध माता पुत्र है। अतः चंद्र और बुध में भी परस्पर वेध नहीं होता। वेध को समझने के लिए एक तालिका बनाई गई है, जिसमें नौ ग्रहों के चंद्र लग्न से विविध भावों पर आने से कहां-कहां वेध होना है दर्शाया गया है। इस तालिका में अंकों से तात्पर्य भाव से है जो कि चंद्र लग्न से गिनी जाती है। उदाहरण: जैसे सूर्य तृतीय भाव में हो तो नवम भाव स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा। यदि चतुर्थ भाव में हो तो तृतीय भाव में स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसका वेध करेगा। यदि पंचम भाव में हो तो छठे भाव में स्थित कोई भी ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा इत्यादि। 14. मुहूर्त चिंतामणि में कहा गया है कि ‘‘दुष्टोऽपि खेटो विपरीतवेधाच्छुभो द्विकोणेशुभदः सितेऽब्जः ।।’’ अर्थात कोई ग्रह यदि गोचर में दुष्ट है, अर्थात जन्म राशि में अशुभ स्थानों में स्थित होने के कारण अशुभ फलदाता है और फिर वेध में आ गया है तो वह शुभफल दाता हो जाता है। दूसरे शब्दों में वेध का प्रभाव नाशात्मक है। यदि अशुभता का नाश होता है तो शुभता की प्राप्ति स्वतः सिद्ध होती है। 15. गोचर में चल रहे ग्रहों के फल के तारतम्य के सिलसिले में स्मरणीय है, वह यह है कि फल बहुत अंशों में ग्रह अष्टक वर्ग पर निर्भर करता है। अपने अष्टक वर्ग में उसे उस स्थान में चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो उस ग्रह की अशुभता कुछ दूर हो जायेगी। यदि उसे चार से कम रेखा मिलती हैं तो जितनी-जितनी कम रेखा होती जायेंगी उतनी ही फल में अशुभता बढ़ती जायेगी। यदि उसे कोई रेखा प्राप्त नहीं हो तो फल बहुत ही अशुभ होगा। यदि गोचरवश शुभ ग्रह को चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो स्पष्ट है तो जितनी-जितनी अधिक रेखा होंगी, उतना ही फल उत्तम होता जायेगा। नोट: अष्टक वर्ग में रेखा को शुभ फल मानते है तथा बिंदु को अशुभ। दक्षिण भारत में बिंदु को शुभ एवं रेखा को अशुभ मानते हैं। महर्षि पराशर नें रेखा को शुभ एवं बिंदु को अशुभ के रूप में अंकित करने की सलाह दी है। इसीलिये यहां रेखा को शुभ के रूप में अंकित है। 16. गोचर में ग्रह कब फल देते हैं- ग्रहों की जातक विचार में जो फल प्रदान करने की विधि है वही गोचर में भी है। फलदीपिकाकार मंत्रेश्वर महाराज ने लिखा है। ‘‘क्षितितनय पतंगो राशि पूर्व त्रिभागे सुरपति गुरुशुक्रौ राशि मध्य त्रिभागे तुहिन किरणमन्दौराशि पाश्चात्य भागे शशितनय भुजड्गौ पाकदौ सार्वकालम्।।’’ अर्थात सूर्य तथा मंगल गोचर वश जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो तत्काल ही अपना प्रभाव दिखलाते हंै। एक राशि में 30 अंश होते हैं, इसलिए सूर्य और मंगल 0 डिग्री से 10 डिग्री तक ही विशेष प्रभाव करते हैं। गुरु और शुक्र मध्य भाग में अर्थात 10 अंश से 20 अंश विशेष शुभ तथा अशुभ प्रभाव दिखलाते हैं। चंद्रमा और शनि, राशि के अंतिम भाग अर्थात 29 अंश से 30 अंश तक विशेष प्रभावशाली रहते हैं। बुध तथा राहु सारी राशि में अर्थात् 0 अंश से 30 अंश तक सर्वत्र एक सा फल दिखाते हैं। 17. ग्रहों के गोचर में फलप्रदान करने के विषय में ‘काल प्रकाशिका’ नामक पुस्तक में थोड़ा सा मतभेद चंद्र और राहु के विषय में है। उसमें कहा गया है। ‘‘सूर्योदौ फलदावादौ गुरुशुक्रौ मध्यगौ मंदाही फलदावन्तये बुधचन्द्रौ तु सर्वदा। अर्थात सूर्य तथा मंगल राशि के प्रारंभ में, गुरु, शुक्र मध्य में, शनि और राहु अंत में तथा बुध और चंद्रमा सब समय में फल देते हैं। जन्म कालीन ग्रहों पर से गोचर ग्रहों के भ्रमण का फल: 1. जन्मकालिक ग्रहों से सूर्य का गोचर फल: जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान (जन्म कुंडली) से गोचर के सूर्य का गोचर व्यक्ति को कष्ट देता है। धन लाभ तो होता है किंतु टिकता नहीं, व्यवसाय भी ठीक नहीं चलता। शरीर अस्वस्थ रहता है। यदि दशा, अंतर्दशा भी अशुभ हो तो पिता की मृत्यु हो सकती है। इस अवधि में जातक का अपने पिता से संबंध ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ चंद्रमा पर से या इससे सातवें स्थान में गुजरता हुआ सूर्य शुभ फल प्रदान करता है। यदि सूर्य कुंडली में अशुभ स्थान का स्वामी हो तो मानसिक कष्ट, अस्वस्थता होती है। यदि सूर्य शुभ स्थान का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। जन्मस्थ मंगल पर से या इससे सातवें स्थान में गोचर रवि का प्रस्थान प्रायः अशुभ फल देता है। यदि कुंडली में मंगल बहुत शुभ हो तो अच्छा फल मिलता है। जन्मस्थ बुध से या उसके सातवें स्थान से सूर्य गुजरता है तो सामान्य तथा शुभ फल करता है परंतु संबंधियों से वैमनस्य की संभावना रहती है। जन्मस्थ गुरु पर से या उसके सातवें स्थान से गोचर का सूर्य शुभ फल नहीं देेता है। इस अवधि में उन्नति की संभावना कम रहती है। जन्मस्थ शुक्र पर से या उससे सातवें स्थान से सूर्य भ्रमण करने पर स्त्री सुख नहीं मिलता। स्त्री बीमार रहती है। व्यय होता है। राज्य की ओर से कष्ट होता है। जन्मस्थ शनि से या उससे सप्तम स्थान पर गोचर का सूर्य कष्ट देता है। 2. जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल: जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल जन्मस्थ चंद्र के पक्षबल पर निर्भर करता है। यदि पक्षबल में बली हो तो शुभ अन्यथा क्षीण होने पर अशुभ फल देता है। जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर के चंद्रमा का शुभ प्रभाव जन्मस्थ चंद्र के शुभ होने पर निर्भर है। चंद्रमा स्वास्थ्य की हानि, धन की कमी, असफलता तथा आंख में कष्ट देता है। जन्मस्थ गुरु पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर का चंद्रमा बली हो तो स्त्री सुख देता है। ऐशो आराम के साधन जुट जाते हैं, धन का लाभ होता है लेकिन जन्मकालीन चंद्रमा क्षीण हो तो इसके विपरीत अशुभ फल मिलता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सप्तम स्थान पर से जब गोचर का चंद्रमा गुजरता है तो धन मिलता है लेकिन निर्बल हो तो मनुष्य को व्यापार में घाटा होता है। 3. जन्मकालिक ग्रहों से मंगल का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा उससे दसवें स्थान पर से गोचर का मंगल जब जाता है तब उस अवधि में रोग होता है। खर्च बढ़ता है। व्यवसाय में बाधा आती है और नौकरी में भी वरिष्ठ पदाधिकारी नाराज हो जाते हैं। आंखों में कष्ट होता है तथा पेट के आॅपरेशन की संभावना रहती है। पिता को कष्ट होता है। जन्म के चंद्रमा पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचरवश जब मंगल आता है तो शारीरिक चोट की संभावना रहती है। क्रोध आता है। भाईयों द्वारा कष्ट होता है। धन का नाश होता है। यदि जन्म कुंडली में मंगल बली हो तो धन लाभ होता है। राजयोग कारक हो तो भी धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है और जन्मकुंडली में मंगल दूसरे, चैथे, पांचवे, सातवें, आठवें अथवा बारहवें स्थान में हो और विशेष बलवान न हो तो धन हानि, कर्ज, नौकरी छूटना, बल में कमी, भाइयों से कष्ट व झगड़ा होता है तथा शरीर में रोग होता है। जन्मस्थ बुध पर अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से जब मंगल भ्रमण करता है तो अशुभ फल मिलता है। बड़े व्यापारियों के दो नंबर के खाते पकड़े जाते हैं। झूठी गवाही या जाली हस्ताक्षर के मुकदमे चलते हैं। धन हानि होती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है तो लाभ होता है। लेकिन संतान को कष्ट होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल भ्रमण करता है तो कामवासना तीव्र होती है। वैश्या इत्यादि से यौन रोग की संभावना रहती है। आंखों में कष्ट तथा पत्नी को कष्ट होता है। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से मंगल गुजरता है और यदि जन्मकुंडली में शनि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, नवम अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित हो तो उस गोचर काल में बहुत दुख और कष्ट होते हैं। भूमि व्यवसाय से या अन्य व्यापार से हानि होती है। मुकदमा खड़ा हो जाता है। स्त्री वर्ग एवं निम्न स्तर के व्यक्तियों से हानि होती है। यदि जन्मकुंडली में शनि एवं मंगल दोनों की शुभ स्थिति हो तो विशेष हानि नहीं होती है। लेकिन मानसिक तनाव बना रहता है। 4. जन्मकालिक ग्रहों से बुध का गोचर फल: बुध के संबंध में यह मौलिक नियम है कि यदि बुध शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो शुभ एवं पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो पाप फल करता है। इसलिए गोचर के बुध का फल उस ग्रह के फल के अनुरूप होता है जिससे या जिनसे जन्मकुंडली में बुध अधिक प्रभावित है। यदि बुध पर सूर्य मंगल, शनि यदि नैसर्गिक पापी ग्रहों का प्रभाव शुभ ग्रहों के अपेक्षा अधिक हो तो ऊपर दिये गये सूर्य, मंगल, शनि आदि ग्रहों के गोचर फल जैसा फल करेगा। विपरीत रूप से यदि जन्मकुंडली में बुध पर प्रबल प्रभाव, चंद्र, गुरु अथवा शुक्र का हो तो इन ग्रहों के गोचर फल जैसा फल भी देगा। 5. जन्मकालिक ग्रहों से गुरु का गोचर फल: जन्मकालिक सूर्य से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जाता हुआ गुरु यदि चंद्र लग्न के स्वामी का मित्र है तो गुरु बहुत अच्छा फल प्रदान करता है। यदि गुरु साधारण बली है तो साधारण फल होगा। यदि गुरु, चंद्र लग्नेश का शत्रु अथवा शनि, राहू अधिष्ठित राशि का भी स्वामी हो तो खराब फल करेगा। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से जाता हुआ गुरु अशुभ फल करता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा 2, 3, 6, 7, 10 और 11 राशि में हो और गुरु शनि अथवा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो ऐसा गोचर का गुरु रोग देता है। माता से वियोग करता है। धन का नाश एवं व्यवसाय में हानि होती है। कर्ज के कारण मानसिक परेशानी होती है तथा घर से दूर भी कराता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव से गुजरता हुआ गुरु प्रायः शुभ फल देता है। यदि कुंडली में गुरु राहु या शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो खराब फल मिलता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव में, आया हुआ गोचर का गुरु निम्न प्रकार से फल प्रदान करता है। (क) यदि बुध अकेला हो और किसी ग्रह के प्रभाव में न हो तो शुभ फल मिलता है । (ख) यदि बुध पर गुरु के मित्र ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर के गुरु का वही फल होगा जो उन-उन ग्रहों पर गुरु की शुभ दृष्टि का होता है अर्थात शुभ फल प्राप्त होगा। (ग) यदि बुध पर गुरु के शत्रु ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर का गुरु अनिष्ट फल देगा। विशेषतया उस समय जब कि जन्म कुंडली में गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो और बुध पर दैवी श्रेणी के ग्रहों का प्रभाव हो। (घ) यदि बुध अधिकांशतः आसुरी श्रेणी के ग्रहों से प्रभावित हो तथा गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो गुरु के गोचर में कुछ हद तक शुभता आ सकती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश आया हुआ गुरु शुभ फल नहीं देता है। यदि यह जन्मकुंडली में 3, 6, 8 अथवा 12 भावों में शत्रु राशि में स्थित हो या पाप युक्त, पाप दृष्ट हो या शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, ऐसी स्थिति में वह खराब फल देता है। यदि गुरु जन्म समय में बलवान हो तो शुभ फल होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में जब गोचर वश गुरु आता है तो शुभ फल देता है, यदि शुक्र जन्म कुंडली में बली हो अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो। यदि शुक्र जन्मकुंडली में अन्यत्र हो और गुरु भी पाप दृष्ट, पापयुक्त हो तो गोचर का गुरु खराब फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जब गुरु आता है तो शुभफल करता है। यदि शनि जन्मकुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम अष्टम, दशम अथवा एकादश भावों में हो तो डूबा हुआ धन मिलता है तथा लाभ होता है यदि शनि अन्यत्र हो और पराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ आधिपत्य भी हो तो गोचर का गुरु कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता है बल्कि हानिप्रद ही सिद्ध होता है। 6. जन्मकालिक ग्रहों से शुक्र का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा इससे सप्तम स्थान में गोचरवश जाता हुआ शुक्र लाभप्रद होता है। यदि शुक्र का आधिपत्य अशुभ हो तो व्यसनों में समय बीतता है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र मन में विलासिता उत्पन्न करता है। वाहन का सुख मिलता है। धन की वृद्धि तथा स्त्री वर्ग से लाभ होता है। चंद्र यदि निर्बल हो तो अल्प मात्रा मंे लाभ मिलता है। जन्मस्थ मंगल पर से या उससे सप्तम भाव में गोचरवश आया हुआ शुक्र बल वृद्धि करता है, कामवासना में वृद्धि करता है, भाई के सुख को बढ़ाता है तथा भूमि से लाभ होता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा उससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र विद्या लाभ देता है। सभी से प्यार मिलता है। स्त्री वर्ग से तथा व्यापार से लाभ होता है। यह फल तब तक मिलता है जब बुध अकेला हो। यदि बुध किसी ग्रह विशेष से प्रभावित हो तो गोचर का फल उस ग्रह पर से शुक्र के संचार जैसा होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें भाव में गोचरवश जब शुक्र आता है जो सज्जनों से संपर्क बढ़ता है, विद्या में वृद्धि होती है। पुत्र से धन मिलता है, राजकृपा होती है, सुख बढ़ता है। यदि शुक्र निर्बल हो और शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो फल विपरीत होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम भाव से जब शुक्र गुजरता है तो विलासिता की वस्तुओं में और स्त्रियों से संपर्क में वृद्धि करता है। तरल पदार्थों से लाभ देता है। स्त्री सुख में वृद्धि करता है तथा व्यापार में वृद्धि करता है। कमजोर शुक्र कम फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश जब शुक्र आता है तो मित्रों की वृद्धि, भूमि आदि की प्राप्ति, स्त्री वर्ग से लाभ, नौकरी की प्राप्ति होती है। कमजोर शुक्र कम फल प्रदान करता है। 7. जन्मकालिक ग्रहों से शनि का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचरीय शनि आता है तो नौकरी छूटने की संभावनाएं रहती है, पेट में रोग तथा पिता को परेशानी होती है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में शनि भ्रमण करता है तब धन हानि, मानसिक तनाव होता है तथा रोग होता है। यदि चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी की हो तो मिश्रित फल मिलता है तथा आर्थिक लाभ भी हो सकता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश यदि शनि जाए तो शत्रुओं से पाला पड़ता है, स्वभाव में क्रूरता बढ़ती है तथा भाईयों से अनबन रहती है। राज्य से परेशानी है। रक्त विकार एवं मांसपेशियों में कष्ट होता है। बवासीर हो सकता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचर वश शनि जाता है तो बुद्धि का नाश, विद्या हानि, संबंधियों से वियोग व्यापार में हानि, मामा से अनबन एवं अंतड़ियों में रोग होता है। यदि बुध आसुरी श्रेणी का हो तो धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से जब गोचरवश शनि जाता है तब कर्मचारियों की ओर से विरोध, धन में कमी पुत्र से अनबन अथवा वियोग होता है। सुख में कमी आती है। जिगर के रोग होते हैं। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम स्थान से, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से गोचरवश शनि पत्नी से वैमनस्य कराता है। यदि शुक्र जन्म कुंडली में राहु, शनि आदि से पीड़ित हो तो तलाक भी करवा सकता है। प्रायः धन और सुख में कमी लाता है। सिवाय इसके जबकि जन्म लग्न आसुरी श्रेणी का हो। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थभाव में जब गोचर वश शनि भ्रमण करता है तो निम्न वर्ग के लोगों से हानि, भूमि, नाश, टांगों में दर्द तथा कई प्रकार के दुख होते हैं। यदि लग्न तथा चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी के हो तो धन, पदवी आदि सभी बातों में सुख मिलता है। 8. जन्मकालिक ग्रहों से राहु/केतु का गोचर फल: राहु और केतु छाया ग्रह है। इसका भौतिक अस्तित्व नहीं। यही कारण है कि इनको गोचर पद्धति में सम्मिलित नहीं किया गया है तो भी ज्योतिष की प्रसिद्ध लोकोक्ति है। शनिवत राहू कुजावत केतु अतः गोचर में राहू शनि जैसा तथा केतु मंगल जैसा ही फल करता है। यह स्मरणीय है कि राहु और केतु का गोचर मानसिक विकृति द्वारा ही शरीर, स्वास्थ्य तथा जीवन के लिए अनिष्टकारक होता है, विशेषतया जबकि जन्मकुंडली में भी राहु, केतु पर शनि, मंगल तथा सूर्य का प्रभाव हो, क्योंकि ये छाया ग्रह राहु जहां भी प्रभाव डालते हैं वहां न केवल अपना बल्कि इन पाप एवं क्रूर ग्रहों का भी प्रभाव साथ-साथ डालते हैं। राहु और केतु की पूर्ण दृष्टि नवम एवं पंचम पर भी (गुरु की भांति) रहती है। अतः गोचर में इन ग्रहों का प्रभाव और फल देखते समय यह देख लेना चाहिए कि ये अपनी पंचम और नवम, अतिरिक्त दृष्टि से किस-किस ग्रह को पीड़ित कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि सदा ही राहु तथा केतु का गोचरफल अनिष्टकारी होता है। कुछ एक स्थितियों में यह प्रभाव सट्टा, लाॅटरी, घुड़दौड़ आदि द्वारा तथा ग्ग्ग्ग्ग्अन्यथा भी अचानक बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। वह तब, जब, कुंडली में राहु अथवा केतु शुभ तथा योगकारक ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों और गोचर में ऐसे ग्रह पर से भ्रमण कर रहे हों जो स्वयं शुभ तथा योग कारक हों। उदाहरण के लिए यदि योगकारक चंद्रमा तुला लग्न में हो और राहु पर जन्मकुंडली में शनि की युति अथवा दृष्टि हो तो गोचर वश राहु यदि बुध अथवा शुक्र अथवा शनि पर अपनी सप्तम, पंचम अथवा नवम दृष्टि डाल रहा हो तो राहु के गोचर काल में धन का विशेष लाभ होता है, यद्यपि राहु नैसर्गिक पाप ग्रह है। अष्टक वर्ग से गोचर का फल: गोचर के फलित का अष्टक वर्ग के फलित से तालमेल बैठाने की प्रक्रिया में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये। 1. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि से संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग की 30 से अधिक रेखाएं हों तो गोचर में चंद्र से अशुभ स्थिति में होने के बावजूद उस भाव-राशि से संबंधित कार्य कलापों और विषयों के संदर्भ में वह ग्रह शुभ फल प्रदान करता है। 2. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि में संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से कम रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग में 30 से कम रेखाएं हों तो भले ही वह ग्रह चंद्र से शुभ स्थानों में गोचर कर रहा हो, अशुभ फल ही देता है। ऐसी स्थिति में यदि उक्त ग्रह के संचरण वाली राशि चंद्र से अशुभ स्थान पर हो तो अशुभ फल काफी अधिक मिलते हैं। 3. ग्रह अष्टक वर्ग में भी शुभ हों और कुंडली में उपचय स्थान (3, 6, 10वें तथा 11 वें स्थान) में निज राशि में या मित्र की राशि में या अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो बहुत शुभ फल देते हैं और यदि अनुपचय स्थान में नीच अथवा शत्रु राशि में हो और गोचर में भी अशुभ हो तो अधिक अशुभ फल देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टक वर्ग से ग्रह का उतार-चढ़ाव देखा जाता है। 4. यदि किसी भाव को कोई रेखा न मिले तो उस भाव से गोचर फल अत्यंत कष्टकारी होता है। चार रेखा प्राप्त हो तो मिश्रित फल अर्थात मध्यमफल मिलता है। 5 रेखा मिलने पर फल अच्छा होता है। 6 रेखा मिले तो बहुत अच्छा, 7 रेखा मिले तो उत्तम फल और 8 में से 8 रेखा मिल जाये तो सर्वोत्तम फल कहना चाहिए। 5. जातक परिजात में अष्टकवर्ग को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जो ग्रह उच्च, मित्र राशि अथवा केंद्र (1, 4, 7, 10) कोण (5, 9), उपचय (3, 6, 10, 11) में स्थित है, जो शुभ वर्ग में है। बलवान है तो भी यदि अष्टक वर्ग में कोई रेखा नहीं पाता है तो फल का नाश करने वाला ही होता है और यदि कोई ग्रह पापी, नीच या शत्रु ग्रह के वर्ग में हो अथवा गुलिक राशि के स्वामी हो, परंतु अष्टक वर्ग में 5, 6, 7 अथवा 8 रेखा पाता है तो यह ग्रह उत्तम फल देता है। 6. सारावली ने अष्टकवर्ग के संबंध में जो सम्मति दी है, हम समझते हैं कि वह अधिक युक्तिसंगत है। सारावली में कहा गया है। ‘‘इत्युक्तं शुभ मन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः’’ शक्ताशक्त विशेषितं विद्धति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम्। स्वार्थी स्वोच्च्सुहृदगृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टसमम् नीचाराति गता ह्यानिष्ट बहुलं शक्तं न सम्यक् फलम्।। अर्थात इस प्रकार गोचरवश ये ग्रह शुभ अथवा अशुभ फल करते हैं। अष्टकवर्ग द्वारा ग्रह अच्छा, बुरा अथवा सम फल देते हैं। परंतु ग्रह उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में होकर भी यदि अष्टकवर्ग में अशुभ हो अर्थात कम रेखा प्राप्त हों, तो बुरा फल देते हैं। 4. कोई ग्रह किसी राशि विशेष में कब-कब अपना शुभ या अशुभ फल दिखलाएगा? इसके लिए प्रत्येक राशि को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। एक राशि के 30 अंशों को आठ बराबर भाग में बांटने पर मान 3 अंश 45 कला के बराबर होता है। इन अष्टमांशों को कक्षाक्रम से ही ग्रहों को अधिपत्य दिया गया है तथा वे तदनुसार ही फल देते हैं। माना किसी व्यक्ति को शनि योगकारक उत्तमफल दायक है। अब शनि जब-जब अधिक रेखा युक्त राशि में गोचर करेगा तो उसे अच्छा फल मिलेगा। यह एक सामान्य नियम है। शनि एक राशि में 2 वर्ष 6 माह तक रहेगा। तो क्या पूरे समय में व्यक्ति को शुभ या अशुभ फल मिलता रहेगा या किसी विशेष भाग में? इसका उत्तर हमें गोचराष्टक वर्ग से मिलेगा। आचार्यों ने राशि को आठ बराबर भागों में बांटा है। उन आठ भागों को कक्षा क्रम से आठो वर्गाधिपति कहते हैं। अब देखना है कि अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किस राशि में शनि को किस ग्रह ने रेखायें दी थी।

क्या इंजिनियर बन पायेंगे

राहु-केतु छाया ग्रह हैं, परंतु उनके मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर हमारे तत्ववेत्ता ऋषि-मुनियों ने उन्हें नैसर्गिक पापी ग्रह की संज्ञा दी है। केतु को ‘कुजावत’ तथा राहु को ‘शनिवत्’ कहा गया है। परंतु जहां शनि का प्रभाव धीरे-धीरे होता है, राहु का प्रभाव अचानक और तीव्र गति से होता है। राहु-केतु कुंडली में आमने-सामने 1800 की दूरी पर रहते हैं और सदा वक्र गति से गोचर करते हैं। राहु ‘इहलोक’ (सुख-समृद्धि) तथा केतु ‘परलोक’ (आध्यात्म), से संबंध रखता है। यह कुंडली के तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में अच्छा फल देते हैं। सूर्य और चंद्रमा से राहु की परम शत्रुता है। शुभ ग्रहों से युति व दृष्टि संबंध होने पर राहु सभी प्रकार के सांसारिक -शारीरिक, मानसिक और भौतिक -सुख देता है, परंतु अशुभ व पापी ग्रह से संबंध कष्टकारी होता है। फल की प्राप्ति संबंधित ग्रह के बलानुपात में होती है। राहु से संबंधित अशुभ ग्रह की दशा जितने कष्ट देती है, उससे अधिक कष्टकारी राहु की दशा-भुक्ति होती है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर सूर्य अपने कारकत्व - पिता, धन, आदर, सम्मान, नौकरी, दाहिनी आंख, हृदय आदि- संबंधी कष्ट देता है। बहुत मेहनत करने पर भी लाभ नहीं मिलता। साथ ही सूर्य जिस भाव का स्वामी होता है उसके फल की हानि होती है। व्यक्ति के व्यवहार में दिखावा, घमंड व बड़बोलापन अंततः हानिकारक सिद्ध होता है। राहु द्वारा ग्रस्त होने पर चंद्रमा जातक की माता को कष्ट देता है। पारिवारिक शांति भंग होती है। जातक स्वयं छाती, पेट, बाईं आंख के रोग, या मानसिक संताप से ग्रसित होता है। उसे डर, असमंजस और चिंता के कारण नींद नहीं आती और वह बुरी आदतों में लिप्त हो जाता है। चंद्रमा के निर्बल और पीड़ित होने पर जातक हताशा में आत्महत्या तक कर लेता है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर मंगल जातक को उग्र व क्रोधी बनाता है। वह चिड़चिड़ा और आक्रामक बन जाता है तथा समाज और कानून विरोधी कार्य करता है, लड़ाई-झगड़ा, संपत्ति हानि, चोट, फोड़ा-फुंसी, पित्त व रक्त-विकार, बुखार आदि की संभावना बढ़ जाती है। मंगल के स्वामित्व वाले भावों संबंधी कार्यों में अवरोध व हानि होती है। राहु द्वारा शुक्र के ग्रसित होने पर व्यक्ति अपनी सुख-सुविधाओं को अनैतिक रूप से प्राप्त करता है। उसे चेहरा, गला, आंख, किडनी, प्रजनन प्रणाली ओर यौन रोग की संभावना रहती है। व्यक्ति फिजूल-खर्ची करता है। उसके अन्य स्त्रियों से संबंध होते हैं, जो कष्टकारी सिद्ध होता है। राहु द्वारा बुध के ग्रस्त होने पर व्यक्ति के आचार-विचार में विकृति आती है। पढ़ाई में विघ्न तथा विद्या से लाभ नहीं होता। वह झूठ और बेईमानी का सहारा लेता है। उसे छाती, स्नायु, चर्म और पाचन संबंधी रोग होते हैं। राहु द्वारा बृहस्पति के ग्रस्त होने पर व्यक्ति को पुत्र, विद्या, धन, गुरु, धर्म, आदर, मान तथा सुख-समृद्धि में अवरोध आते हैं। उसे लिवर, मधुमेह, रक्त, हृदय, ट्यूमर, नासिका और चर्बी के रोग होते हैं। बृहस्पति के स्वामित्व वाले भावों संबंधी कार्यों में परेशानियां आती हैं। व्यक्ति की सोच में विकृति आती है। उसके संकुचित और अधार्मिक मार्ग अपनाने से मान-सम्मान में कमी आती है, वह दुखी रहता है। बृहस्पति से संबंध होने पर राहु के दुष्प्रभाव में कमी आती है। इस युति को ‘गुरु’ चंडाल योग’ कहते हैं। राहु द्वारा शनि का ग्रस्त होना सर्वाधिक अनिष्टकारी होता है। व्यक्ति को जीवन में दुख, कष्ट, अवरोध, बीमारी, धन हानि, और तिरस्कार मिलता है। व्यक्ति को सर्दी, जुकाम, पाचन क्रिया, तिल्ली, दांत व हड्डियों के रोग तथा अस्थमा, लकवा और गठिया जैसे दीर्घकालीन रोग होते हैं। इस प्रकार राहु तथा शनि का संबंध कुंडली के फलों में अनेक प्रकार के अवरोध लाता है। राहु के शनि से अगले भाव में स्थित होने पर जातक बहुत नीचे स्तर पर कार्य आरंभ करता है। उसकी प्रगति में अनेक बाधाएं आती हैं। वह असंतुष्ट रहता है। शिक्षा प्राप्ति की आयु में नैसर्गिक अशुभ ग्रहों से संबंधित राहु की दशा-भुक्ति ध्यान केन्द्रित नहीं होने देती और सफलता कठिनाई से मिलती है। राहु पर शुभ प्रभाव होने से टेकनिकल, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर और डाॅक्टरी शिक्षा में सफलता मिलती है। राहु के केंद्र या त्रिकोण भाव में, त्रिकोण व केंद्र के स्वामी के साथ स्थित होने पर उसकी अपनी दशा-अंतर्दशा राजयोगकारी फल प्रदान कर व्यक्ति के जीवन को सुखी व समृद्धशाली बनाती है। इस प्रकार शुभ प्रभाव में राहु अपनी दशा-भुक्ति में शुभ फल तथा अशुभ प्रभाव में कष्ट देता है। अतः कुंडली में राहु के प्रभाव और भाव स्थिति का पूर्ण आकलन कर लेने से भविष्य कथन में परिपक्वता आती है। राहु प्रदत्त कष्ट निवारण के लिए प्रति दिन एक माला राहु मंत्र (ऊँ रां राहुवे नमः) का जप, तथा विशेषकर अमावस्या तिथि को एक, तीन या पांच कोढ़ियों को सरसों के तेल से बनी सब्जी, रोटी व एक गुड़-तिल का लड्डू स्वयं दान कर, साथ में कुछ दक्षिणा भी देना चाहिए।

आपकी राशि और आपकी लाइफस्टाइल

मेष राशि
प्रथम व मंगल की राशि होने के कारण ये फैशन की दुनिया में भी नं. 1 पर रहना चाहती हैं और नये से नये स्टाईल और फैशन को जल्द से जल्द अपनाकर नये ट्रेंड सेट करती हैं। इन्हें ब्राईट रंग के कपड़े लुभाते हैं और अपने परिधान के रंग और स्टाईल के मामले में बारिकी से चुनाव करती हैं। रंग इनके लिए सबसे मुख्य होता है, डार्क पिंक, रेड, रेडिश ब्राउन। अतः इस फैमिली के सारे शेड्स इनको लुभाते हैं।
वृषभ राशि
आप कपड़ों में मुख्यतः रंग एवं स्टाईल से ज्यादा गुणवत्ता और आराम पर ध्यान देना पसंद करती हैं। आपको लेटेस्ट फैशन की जगह ऐसे परिधान पसंद आयेंगे जो हमेशा सदाबहार हों तथा कभी फैशन से बाहर न हों। आप एक ऐसी महिला की परिभाषा हैं जिनका अपना एक स्टाईल या अंदाज है जो लम्बे समय में बनी परिपक्व पसंद का आएना है। आपको बेहद साफ्ट कपड़े पसंद आते हैं, एक बार अच्छा परिधान लेकर उसे लम्बे समय तक पहनना पसंद करती हैं। पिंक और ब्लू आपको मुख्यतया पसंद हैं।
मिथुन राशि
आपको कपड़ों का कलैक्शन करना बहुत पसंद होगा, एक बड़ी वार्डरोब की मालकिन होने के साथ-साथ हर मूड के लिए एक नई या अलग ड्रेस पहनना पसंद करेंगी। आप कपड़े खरीदने में ज्यादा सोच विचार नहीं करतीं, लेकिन आराम पर जरूर ध्यान देती हैं। रंग आपको बहुत प्रभावित करते हैं, कई रंगों के परिधान पहनना आपको प्रिय होगा या कपड़ों में कई तरह का विचार भी आप ही की देन है। यदि आप किसी महिला से पहले इनके कपड़ों से प्रभावित हो रहे हैं तो आप यही हैं।
कर्क राशि
आप अपने रिश्तों की तरह अपने कपड़ों से लगाव/स्नेह रखने वाली भावुक और काल्पनिक सोच की महिला हैं। हर दौर के फैशन में से कुछ चुनिंदा कपड़े आज आपने भी संजोकर रखे होंगे। आपकी पसंद काफी स्त्रियोचित होगी तथा आपको क्रिएशनल कपड़े, कारीगरी , एम्ब्रायडरी और लेसेज पसंद होगी, आप अपने कपड़ों को काफी संभाल करके रखेंगी। इनका आपका साथ लम्बे समय का रहेगा। इनके पसंदीदा रंग हैं - हरा, खाकी, आफ व्हाइट, क्रीम।
सिंह राशि
सूर्य जैसे तेज वाली सिंह लग्न की स्त्री जातक सर्वश्रेष्ठ परिधान धारण करने की ईच्छा से युक्त होती हैं। वह रंग और अच्छी क्वालिटी दोनों के आधार पर कपड़े पसंद करती हैं। फैशन से प्रभावित होने पर भी अपने स्टाईल को प्राथमिकता देती हैं। जो मैंने पहना है वही फैशन है कि धारणा रखने वाला प्रभावी व्यक्तित्व। ब्रांडेड और डिजाईनर कपड़ों की तरफ इनका झुकाव, समाज में ऊंचा पद हासिल करने की लालसा को झलकाता है। मेष की तरह ब्राईट रंग लेकिन नारंगी, सुनहला, पीला, सफेद एवं बैंगनी का मिश्रण।
कन्या राशि
बुध की बुद्धिम एवं जवां दिखना तथा व्यावहारिक परिधानों को अधिक पसंद करने वाली महिला हैं जो ऐसे कपड़ों का चुनाव करती हैं जिन्हें अधिकतर हर मौके पर पहना जा सके। अतः वह काफी इस्तेमाल में आए। नये-नये कंबिनेशन बनाने में आपको महारत हासिल है। आप अपने कपड़ों का खास ख्याल रखती हैं, अतः प्रेस किए हुए अच्छे कपड़े पहनना आपकी पसंद है। ऐसे परिधान जो आरामदेह होने के साथ साधारण और शरीर में ठीक से फिट होते हैं। इंद्र धनुष के सभी रंग आपको पसंद हैं।
तुला राशि
शुक्र का लग्न होने के कारण खूबसूरत राजकुमारी की तरह आकर्षण और पूरे परिधान का सेन्डल और आभूषण के साथ जबरदस्त ‘‘मैच’करना ही आपकी अनोखी कुशलता है। महंगे कपड़े, डिजाईनर वियर, कमर पर हल्के टाईट होते कपड़े आपकी कमजोरी हैं। पूर्णतया सज संवरकर तैयार होने का अद्भुत गुण रखने वाली आप ही हैं। कलर और स्टाईल दोनों में ही आपकी रुचि है। आप अधिकतर हल्के रंग या काले रंग पसंद करेंगी।
वृश्चिक राशि
आपका सजने का मुख्य उद्देश्य ही आकर्षित करना है। टाईट फिटिंग के कपड़े पहनना आपको पसंद है। पुरानी चीजों या फैब्रिक्स को नये अंदाज में पहनना आपका गुण है। जैसे इन्डो-वेस्टर्न स्टाइल, कंप्लिकेटेड स्टाइल। सबसे अलग दिखने की चाह ही आपको नए-नए कपड़ों में प्रयोग करने की ललक पैदा करती है। लेकिन आप इस धारणा को मानने वाली हैं कि परिधान से ज्यादा व्यक्तिगत आकर्षण की महत्व है। लाल रंग, ताम्र रंग, हल्का पीला आपको अत्यधिक पसंद है।
धनु राशि
फैशन एक सामाजिक प्रक्रिया है। अतः सामाजिक दायरों को ध्यान में रखकर ही कपड़ों का चुनाव करना चाहिए इस सोच को चरितार्थ करती हैं आप। समाज में अपनी छवि और पद के हिसाब से अधिकतर आमतौर के साधारण परिधान ही लेकिन बढ़िया फैशन आपको औरों से अलग करते हैं। ब्राकेड, वेल्वेट एवं हल्के वस्त्र आपको लुभाती हैं। आपके पसंदीदा रंग पीला, गहरा बैंगनी हैं।
मकर राशि
आप ऐसे परिधान या स्टाईल के कपड़े पहनना पसंद करेंगी जो काफी समय से प्रचलित हैं। अन्य शब्दों में कहा जाय तो पूर्णतया शनि की अधीन राशि होने के कारण ज्यादा परिधानों में अंतर पसंद नहीं करेंगी। आपके स्टाईल में लम्बे समय में थोड़ा ही अंतर आएगा। चमकीले कपड़ों से रिजर्व स्टाईल वाले कपड़े, कम वजन वाले सामान्य, सीधे कपड़े जो अधिकतर घुटनों पर आकर खत्म होते हैं आपका स्टाईल है। आपको धारी वाले या डार्क रंग जैसे डार्क ग्रे,काले, नीले, सफेद कपड़े पसंद आयेंगे।
कुम्भ राशि
आपकी मन की दुनिया कल्पना और खूबसूरती से प्रेरित है, ऐसे में आप खुद को ऐसे परिधान में देखना पसंद करेंगी जो नीवनतम फैशन स्टाईल और आपकी माडर्न छवि से मेल खाते हों। आप जो दुनिया से कहना चाहती हैं, वह कहीं न कहीं आपके कपड़ों से झलकता है। परंपरागत कपड़ों में आधुनिकता उभार कर स्टाईल स्टेटमेंट बनाना आप ही के वश की बात है। आफिस वियर में भी स्टाईल एड करने की क्षमता, साफ्ट, डेलीकेट कपड़े पहनना पसंद करती हैं।
मीन राशि
ब्लू, पिंक और हरे रंग की हल्की धुनों में सजे लम्बे दोहरे शेड वाले परिधान आपको बेहद पसंद आयेंगे। हर स्टाईल को करने की क्षमता और शौक रखने वाली स्त्री आप ही हैं। जो एक स्टाईल में ज्यादा दिन तक नहीं रहना पसंद करती (बोर महसूस करती हैं)। रोजमर्रा में भी अलग-अलग स्टाईल और अंदाज को सहेज कर चलना ही इनकी अपनी इमेज है जो सबको समाने की क्षमता रखती है।

अपने सिर से अपने व्यक्तित्व को पहचाने



किसी व्यक्ति के सिर के सिर्फ बड़े छोटे होने से ही उसके गुणों का अनुमान नहीं लगाना चाहिए क्योंकि किसी वस्तु का ‘‘परिमाण’’ ही सब कुछ है ऐसा समझना गलत है। परिमाण से अधिक महत्व है गुण का। क्योंकि सिर बड़े होने से ही व्यक्ति महान नहीं होता। तीन गुण का महत्व इस प्रकार है: 1. बड़ा परिमाण - लंबाई, चैड़ाई, ऊंचाई अधिक। 2. विशेष वजन - उत्तम प्रकार के मस्तिष्क वो कहलाते हैं जिनका वजन सामान्य व्यक्तियों के मस्तिष्क से विशेष होते हैं। 3. विशिष्टता - महान व्यक्तियों के ज्ञान व प्रवृत्ति कोण साधारण व्यक्तियों की तुलना में अधिक गुणयुक्त होते हैं। प्रथम गुण के अनुसार बुद्धिमान व विद्वान पुरुषों के सिर का नाप 21’’ (इक्कीस इंच) और स्त्री के सिर का नाप 20’’ होना चाहिए। यह नाप कान से ऊपर वाले भाग का लेना चाहिए। 21’’ इंच से कम नाप के सिर वाले लोग चतुर, परिश्रमी, दूसरों की बात को समझने वाले कलाकार एवं संगीतज्ञ तो हो सकते हैं किंतु बुद्धि की प्रखरता शक्ति, नवीन आविष्कार की क्षमता एवं प्रकांड पांडित्य ऐसे व्यक्तियों में नहीं मिलेगा। सिर की गवेषणा करते समय कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए- सिर के आगे का भाग ललाट कहलाता है। यह भाग चैड़ा व ऊंचा नहीं होना चाहिए। सिर के मुख्य दो भाग होते हैं। 1. कानों के आगे का भाग और 2. कानों के पीछे का भाग। कानों के आगे का भाग विशेषकर बड़ा व उन्नत होना चाहिए। 3. सिर का नाप कानों के ऊपर से ही लेना चाहिए। 21’’ नाप के बाद आधा या पौन इंच अधिक हो तो व्यक्ति व्यापार कुशल एवं परिश्रमी होगा। यदि सिर का नाप 23’’ या अधिक हो तो व्यक्ति वैज्ञानिक होगा। कान के ऊपर सिर को दो भागों में बांटा गया है। यदि दूसरी लंबाई पहली से 1’’ अधिक हो तो ऐसा व्यक्ति विचारशील तो होता है किंतु क्रियाशील नहीं होता। यदि प्रथम की अपेक्षा द्वितीय लंबाई आधा इंच अधिक हो तो ऐसे व्यक्ति में बौद्धिक विकास और आदर्शवादिता, महत्वाकांक्षा आदि विशेष गुण होते हैं, प्रबंधन योग्यता तथा स्वार्थवृत्ति अपेक्षाकृत कम होती है। यदि प्रथम की अपेक्षा द्वितीय भाग 2 इंच अधिक हो तो व्यक्ति में इतनी आदर्शवादिता आ जाती है कि उसे किसी के काम से संतोष नहीं होता। इसी प्रकार सिर का प्रथम भाग अधिक बड़ा हो तो व्यक्ति में गुप्त रखने की प्रवृत्ति, लालच, संग्रहशीलता, दूसरों को नष्ट करने की बुद्धि तथा राजसिक, तामसिक गुण होते हैं। आत्मिक या नैतिक उन्नति की अपेक्षा ऐसे व्यक्ति सावधानी तथा चतुराई को विशेष महत्व देते हैं। यदि भीतरी विकास अच्छा न हो तो उपयुक्त राजसिक व तामसिक गुण चोरी, अनाचार आदि की प्रवृत्ति होती है। मनुष्य के सिर के आकार का भी उतना ही महत्व है जितना परिमाण का। सिर के आकार का बुद्धि तथा मानसिक शक्ति से बहुत अधिक संबंध है। आकार से स्वभाव व चरित्र दोनों का पता चलता है। यहां चित्र में छः सिर दिखाये गये हैं। इन छः सिरों में प्रथम सिर वाला बुद्धिमान उसके बाद क्रम से बुद्धिमत्ता घटती जायेगी। इसके साथ-साथ ललाट की ऊंचाई तथा सिर का ऊपर की ओर जो चढ़ाव है उसकी ओर विशेष ध्यान दें। जिनका सिर मंडलाकार होता है वे संपत्तिवान होते हैं। यदि सिर टेढ़ा, ऊंचा-नीचा हो तो मनुष्य दुखी होता है। हाथी के कुंभ की तरह सिर परस्पर अच्छी तरह जुड़ा हुआ, चारांे ओर क्रमिक ढाल वाले सिर धनी व भोगी व्यक्ति के होते हैं। जिसका सिर चपटा हो उन्हें माता-पिता का पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता।

Power or Beliefs of Mantras

Mantras are that group of words having the power of executing transformations. This transformation could be of anything or for anything. Some mysterious Mantras that can change your life. Let's move further to know about the glory of Mantras. A mantra is the spell, syllable, sound, word or those groups of words that have the power of bringing change. The mantra originated from the 'Vedic tradition of India'. In all of the Hindu traditional functions, mantras are the most important part. Whether it is a Hindu marriage or birthday puja of a kid, mantras are everywhere. A traditional Hindu function is incomplete without the chanting of mantras. Most of us already know many mantras, but some things about them are still out of our knowledge. This page will assist you with almost all general mantras of Hindu tradition for free! Don't think much, just scroll down and find everything you want to know about mantras.As per our ancient Vedas, the entire texts of the Rig, Yajur and Sama Veda are considered as Mantras. Basically, these mantras were considered as the commentary from Brahamanda. With time, these mantras became the magic spells for fulfilling human desires. This revelation was done after the ancient schools of Vedanta, Yoga, Bhakti and Tantra segregated magical and powerful spells from the Veda content.
As per the Upanishads, syllable 'Om' is itself a mantra. Om represents the God-head, Brahmin and the whole creation. Om is a common syllable between two religions, Hindu and Buddhism.
Mantras generate those sound vibrations that exerts the influence of cosmic powers.
Here, on the page of mantras, that has been developed by AstroSage to answer your valuable questions, you will find all what you desire to know. If you are still not aware of the powers of mantra then we would suggest you to start chanting for a while, you may chant any basic mantra, say, Gayatri Mantra, you will experience the ecstasy of divinity. The only way to attunement or spiritual awakening is mantras. While chanting any mantra, you can easily calm down the trafficked thoughts of your mind to make you feel relaxed. This way you can easily concentrate on the divine vibrations. While chanting mantra, you will feel that those words are revolving inside your body with sound vibrations and purifying each corner of the body to make your senses fresh. Also, you may consider the mantras as the words of Almighty. If you chant God's words, his blessings will get a clearer way to reach you. Mantras act as a magnet between you and God. You both become like two opposite poles of magnet for each other and hence you experience the total enlightenment. This all can be done only if you chant mantras with faith, devotion and passion.

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Wednesday, 23 December 2015

भृगुकालेंद्र पूजन


भृगुकालेंद्र पूजन संवारें बच्चों का भविष्य

आज के आधुनिक युग में प्राप्त सुविधाएॅ जैसे गाड़ी, मोबाईल इत्यादि की सुविधा का बच्चों द्वारा गलत उपयोग किया जा रहा है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं को अपने बच्चों को जरूरत हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएॅ बच्चों को गलत दिषा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्षन करते रहे हैं वे भी युवा अवस्था में अपनी दिषा से भटक कर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्टानिक्स गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बाते बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवष्यक है। शारीरिक दुष्प्रभावों के साथ-साथ मानसिक क्षमता का भी ह्रास दिखाई दे जैसे व्यसन, क्रोध, चिड़चिड़ा होने के साथ-साथ अपनी बौद्धिक शक्ति के साथ सहिष्णुता भी खो दे, तब किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दषा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शनि, शुक्र, राहु, सप्तमेष, पंचमेष की दषा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो अपने संतान के लिए ज्योतिषीय काउंसिलिंग करायें इसके साथ भृगु-कालेंद्र पूजन करायें साथ ही नियम से मंत्र जाप करने की आदत डलवायें।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
Feel free to ask any questions

बालरिष्ट योग

बच्चे तथा उसके माता-पिता द्वारा किए गए पूर्व जन्म के दुष्कृत्यों से संचित शिशु की जन्मकालिक क्रूर ग्रह स्थिति आदि को रिष्ट या अरिष्ट कहा गया है। रिष्ट तथा अरिष्ट का अर्थ शब्दकोश के अनुसार शुभ और अशुभ है, किंतु आयु निर्णय में इसका अर्थ अशुभ योग ही है। इन रिष्ट योगों में से कुछ रिष्ट योग केवल शिशु को, कुछ शिशु की माता को, कुछ पिता को, कुछ पिता और शिशु दोनों को, कुछ माता-पिता और शिशु तीनों के लिए कष्टकारक या मरणप्रद माने गये हैं। कुछ ऐसे भी रिष्ट योग हैं जो शिशु के भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, सास-ससुर, साला, देवर-देवरानी आदि के साथ अन्य बंधुओं के साथ भी जातककारों ने अशुभ माने हैं। जातककारों का मानना है कि शिशु अपनी कायिक और मानसिक परम कोमलता या दुर्बलता के कारण मृत्यु प्रवण प्राणी है। अतः इसके तीन वर्षों में बिना अरिष्ट के भी वह मर सकता है। अतः शिशु की आयु के प्रथम तीन वर्षों को शिशु के लिए दुस्तर माना है। उनका मत है कि उसकी जन्मकालीन ग्रहस्थित्यादि से उसकी जीवनावधि को तीन वर्ष की आयु तक ‘इदमित्थम’ निश्चित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार उन्होंने तीन वर्ष की आयु हो जाने पर ही शिशु की जन्मपत्री बनाने का दैवज्ञ को परामर्श दिया है। अपनी जातक पद्धति में आचार्य केशव ने इसे इस प्रकार लिखा है: जिवेत्क्वापि विभंगरिष्टज-शिशूरिष्टम् विनामीयतेऽथाधोब्दः शिशुदुस्तरोऽपि च परौ कार्यैषु नो पत्रिका।। शिशु की आयु के पहले तीन वर्ष बहुत संकटपूर्ण होते हैं। ये वर्ष रिष्टज योगों के कुप्रभाव से शीघ्र प्रभावित होने वाले हैं। वैद्यनाथ के अनुसार - प्रथम चार वर्षों में माता के पापों (पूर्वजन्मकृत दुष्कृत्यों) तदनंतर चार वर्षों में पिता के पापों तथा आगे शिशु अपने पापों से ही मृत्यु को प्राप्त करता है। आद्ये चतुष्के जननी कृताद्यैः मध्ये तु पित्रार्जितपापसंचयैः बालस्तदन्यासु चतुःशरत्सु स्वकीय दौषैः समुपैतिनाशये।। बारह वर्ष की अवस्था तक माता-पिता के दोषों से अर्थात् लालन पालन में असावधानी, बालावस्था में संभाव्य रोगों से बचाव एवं उसे भरपूर सुरक्षा प्रदान न कर सकने की अवस्था में निश्चय ही बालक का अनिष्ट हो सकता है। प्राचीन समय में चिकित्सादि सुविधाओं का पर्याप्त प्रचार व प्रसार न होने के कारण जातकों की मृत्यु दर अधिक थी। अतः प्राचीन समय में बालारिष्ट का प्रभाव अधिक होता था किंतु आधुनिक युग में आयु का निर्णय करते समय बालारिष्ट के साथ-साथ शिशु के परिवेश को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। मंत्रेश्वर, वैद्यनाथ तथा वेंकटेश शर्मा के अनुसार बारह वर्ष तक योगों का प्रभाव होने से तथा आत्मरक्षा के विवेक की कमी होने से बालक की अन्यथा ज्ञात आयु में संशय हो सकता है। अतः अच्छी आयु प्रतीत होने पर भी तब तक बालक को किसी संभावित दुर्घटना व रोग से बचाने के प्रयत्न, चिकित्सा, सावधानी, ईश्वराधना व जप, यज्ञ, दानादि करते रहना चाहिए। यथा- आद्वादशाब्दज्जन्तूनामायु ज्र्ञातुं न शक्यते। जप होम चिकित्साद्यै बलिरक्षां तु कारयेत्।। तद्दोषशान्त्यै प्रति जन्मतारमा द्वादशाब्दं जप होम पूर्वम। आयुष्करं कर्म विधाय तातो बालं चिकित्सादिभिरेव रक्षेत्।। जातक ग्रंथों में रिष्टजनक ग्रह स्थितियां भारी संख्या में दी गई हैं जिनमें से कुछ का यहां उल्लेख किया जा रहा है यथा- शिशु का तत्काल मृत्यु योग चक्रस्य पूर्वापर भागगेषु क्रूरेषु सौम्येषु च कीटलग्ने। क्षिप्रं विनाशं समुपैति जातः पापैर्विलग्नास्तमयाभितश्य।। वाराहमिहिर ने उपर्युक्त श्लोक में कहा है कि जन्मकुंडली के पूर्वार्ध में (दशम से चतुर्थ तक) अर्थात पूर्व कपाल में विद्यमान पाप ग्रहों से तथा लग्न कुंडली के परार्ध पश्चिम कपाल (चतुर्थ भाव से दशम भाव तक) में शुभ ग्रहों की स्थिति में भी जातक की शीघ्र मृत्यु होती है तथा लग्न और सप्तम से द्वितीय स्थान स्थित पाप ग्रहों से भी जातक का शीघ्र मरण होता है। यथा पापावुदयास्त गतौ क्रूरेण युतश्च शशी। दृष्टश्च शुभैर्न यदा मृत्युश्च भवेदचिरात।। अर्थात् लग्न सप्तमस्थ पाप ग्रहों से तथा पापयुक्त चंद्रमा पर शुभ ग्रह दृष्टि नहीं होने से भी जातक की शीघ्र मृत्यु होती है। शिशु का सप्ताह आयु योग: श्री कल्याण वर्मा ने सारावली में अरिष्ट योग बताया है कि यदि चंद्रमा सप्तम भाव में मंगल और सूर्य के साथ युति करे तो जातक की आयु एक सप्ताह होती है। यथा- सहितौ चन्द्रजामित्रे यस्यांगारक-भास्करौ। जातस्य तस्य ही तदा भवेत्सप्ताहजीवितम्।। एक मास में ही शिशु मृत्यु योग: मुकुंद दैवज्ञ ‘पर्वतीय’ के अनुसार कुछ अरिष्ट योगों में जातक की आयु मास पर्यंत हो जाती है जैसे द्वितीय, तृतीय व नवम स्थान में मंगल हो तथा सूर्य व शनि एक ही राशि में हों तो दस दिन से पहले ही जातक की मृत्यु हो जाती है यथा- मंगले मंगले वित्तेवानुजे मित्र मन्दयो। एक राशिगयोर्मृत्युः पाकस्य प्राग्दशाहतः।। जातक सारदीप में श्री नृसिंह दैवज्ञ ने इसे इस प्रकार कहा है- षष्ठाष्टगा वक्रितपापदृष्टा हन्युः शुभामासि शुभैरदृष्टाः। होरापतिः पापजितःस्मरस्थोमासेन तं मारयति प्रसूतम।। यदि अष्टम स्थान में मकर या कुंभ राशि का बृहस्पति हो तथा पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो ग्यारहवें दिन जातक की मृत्यु हो जाती है। यथा- समन्दभेऽच्र्ये मृतिगेडंहसेक्षित। .एकादशाहेऽत्ययमेती शावकः।। चतुर्थ स्थान में राहु तथा षष्ठ व अष्टम में चंद्रमा हो, चंद्रमा से त्रिकोण स्थानों में सूर्य हो, इन योगों में उत्पन्न जातक बीस दिन की आयु लेकर आता है। भोगीश्वरेऽम्भो भवने भनायकेऽतरिक्षते वाऽमृतरश्मितोरवौ। पुत्रेपथिव्याधिभयार्छितोऽर्भकस्तदा नखाहेऽन्तकर्मान्दरं व्रजेत।। छः मास पर्यन्त आयु: सर्वार्थ चिन्तामणि में वेंकटेश शर्मा के अनुसार यदि सभी ग्रह आपोक्लिम में गए हों और निर्बल हों तो दो मास या अधिकतम छः मास आयु होती है। यथा- आपोक्लिमेस्थिताः सर्वे ग्रहा बलविवार्जिताः। षण्मासं वा द्विमासं वा तस्यायुः समुदाहृतम्।। एक वर्ष पर्यन्त आयु: चंद्रमा से केंद्र में पाप ग्रह हों और शुभ ग्रह न हों तो एक वर्ष के भीतर मृत्यु होती है। यथा- केन्द्रैश्चन्द्रात्पापयुक्तैर सौम्यैः। स्वर्गंयाति प्रोच्यते वत्सरेण।। दो वर्ष पर्यंत मृत्यु: वक्री शनिर्भौम गृहे केन्द्रे षष्ठे अष्टमेऽपि वा। कुजेन बलिना दृष्टे हन्ति वर्षद्वये शिशुम्।। शिशु-मातृ मृत्यु योग: लग्न से 7वें, 8वें भावों में कई पाप ग्रह यदि चंद्रमा को देखें तो माता व पुत्र दोनों की मृत्यु होती है। यदि शुभ दृष्टि भी हो तो सत्याचार्य के मत से रोग कारक होता है। यथा- लग्नात्सप्ताष्टभगैः पापैरभिवीक्षितश्चन्द्र सहजनन्या। भ्रियते शुभसंदृष्टैः सत्यमताद्वदेद व्याधिम्।। शिशु-पितृ मृत्यु योग: नृसिंह दैवज्ञ के अनुसार चतुर्थ में राहु हो तो पुत्र की, नवम में हों तो पिता की मृत्यु होती है। यदि पाप ग्रह की दृष्टि भी हो तो तीन दिनों में ही ऐसा हो जाता है। यथा- राहुश्चतुर्थगः पुत्रं नवमे पितरं तथा। हन्यात्केतुश्चतद्वस्यात् पाप दृष्टोदिनत्रये।। शिशु एवं तत्संबंधियों को शीघ्र मृत्यु योग: वैद्यनाथ के अनुसार यदि लग्न से पांचवें व नवें घर में पाप ग्रह की राशि हो और पाप ग्रह की राशि में सूर्य हो तो भाई की, बुध हो तो मामा की, बृहस्पति हो तो नानी की, शुक्र हो तो नाना की, शनि हो तो स्वयं बालक की मृत्यु होती है। तातांबिकासोदर-मातुलाश्च मातामही मातृ-पिता च बालः। सूर्यादिकैः पंचम-धर्मयातैः क्रूरक्र्षगैः आशुहता क्रमेण।। इसी तरह से अभुक्त मूल, भद्रा, यमघंट, दग्ध, मृत्यु योग, व्यतिपात, वैधृति, वज्रयोग, ग्रहणकाल, सूर्य संक्रांति, अमावस्या, कृष्ण चतुर्दशी, नक्षत्र-तिथि, विष घटि चंद्र एवं लग्न का राशि मृत्यु अंश आदि अनेकानेक अन्य अशुभ काल जातक मुहूर्त ग्रंथों में वर्णित हैं जिनमें जन्म शिशु तथा उसके संबंधियों के लिए कष्ट एवं मृत्यु कारक बताया गया है। इन कालों को भी रिष्ट की कोटि में माना जाता है। इसके अतिरिक्त जन्मकालीन वज्रपात, वात्या, उल्कापात, भूकंप, धूमकेतु उदय आदि असंख्य अपशकुन भी रिष्ट माने गये हैं जिनमें जन्म लेना शिशु के लिए अरिष्ट बतलाया गया है। किसी भी प्रकार के अरिष्ट योग का फलादेश करने से पहले जातक ग्रंथों में (बृहज्जातक आदि) अरिष्ट योगों के भंग (परिहार) का भी पूरी तरह से मनन कर लें।

क्यूॅ होता है व्यवसाय में उतार-चढाव -

आज के व्यवसायिक क्षेत्र की स्पर्धाओं के चलते किसी जातक के व्यवसाय का महत्व घट सकता है, क्योंकि नित्य कई संस्थाएॅ इस क्षेत्र में पदार्पण करती जा रही है, जिससे समान क्षेत्र में कार्य के साथ महत्व एवं पहचान बनाये रखना पहले की तुलना में कठिन होता जा रहा है। किसी भी क्षेत्र में बहुत अच्छी स्थिति से अचानक उतार दिखाई दे तो सबसे पहले कुंडली की गणना करानी चाहिए क्योंकि कार्य हेतु ज्योतिष विष्लेषण के अनुसार वाणिज्यकारक ग्रह बुध, ज्ञानकारक ग्रह गुरू, वैभवकारक ग्रह शुक्र तथा जनताकारक ग्रह शनि का महत्वपूर्ण योगदान कुंडली में होना आवष्यक है। इसके साथ ही कुंडली का लग्न, दूसरा, तीसरा, भाग्य, कर्मभाव व लाभभाव उत्तम होना भी जरूरी होता है। इसके साथ ही अष्टमभाव में राहु या राहु से पापाक्रांत उपयुक्त केाई ग्रह होने से भविष्य में कार्य में बाधा दिखाई देती है जोकि वित्तीय अनियिमितता के कारण संभव है चूॅकि कई बार व्यवसाय का धन व्यवसाय स इतर लगाने से व्यवसायिक हानि होती है। अतः उपयुक्त योग के साथ यदि कोई विपरीत स्थिति निर्मित हो रही हो तो ऐसे में अपनी कुंडली के अनुसार बाधा निवारण का उपाय करना लाभकारी होता है। जिसमें विषेषकर पितृषांति, दीपदान एवं सूक्ष्मजीवों की सेवा करना चाहिए।
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ईष्या का ज्योतिषीय कारण -

इन्सान की फितरत है कि वो दूसरे को अपने से अधिक अकलमंद नहीं समझता। साथ ही दूसरो की सफलता, प्रसिद्धि, सुंदरता या व्यवहार को लेकर लगातार तुलना करता रहता है, और उसके मन की यही प्रवृति दूसरों के प्रति ईष्या का कारण बनती है। उसकी ईष्या से दूसरों का तो कुछ बुरा होता, लेकिन उसकी इस ईष्या से वो मानसिक और शरीरिक रुप से परेशान जरुर होता है। इन्सान को ईष्या के कारण अपने भले बुरे का ज्ञान भी नहीं होता। व्यक्ति को हमेशा ही ईष्या से दूरे रहना चाहिए या अपने मन में ही नही आने देना चाहिए क्यो कि ईष्या हमेशा मनुष्य को दुख देती है। ईष्या के कारण को ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी मनोवृत्ति के लिए तीसरा स्थान होता है, ईष्या भी मन के कारण पैदा होता है अतः यदि तीसरे स्थान का स्वामी सप्तम स्थान में बैठ जाए और सप्तमेश की स्थिति अच्छी हो तो ऐसे लोग अपने प्रतिद्व्रदी की अच्छी स्थिति को लेकर उनके प्रति ईष्या रखते हैं। और यदि इसका स्वामी ग्रह शुक्र हो तथा तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे लोग लगातार अपनी स्थिति के प्रति नकारात्मक और दूसरों की स्थिति को अपने से बेहतर मानते हुए परेशान रहते हैं। अतः यदि मन में ईष्या बहुत ज्यादा आ रही हो तो गणेशजी की पूजा करनी चाहिए। तिल गुड का दान करना चाहिए तथा गणपति अर्थव का पाठ करना चाहिए।
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बच्चे को सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु कराये बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण -

बच्चे को सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु कराये बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण -
आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।
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कृतध्न होना भी है असफलता का कारक - कुंडली से जाने कृतज्ञ हैं या नहीं -

भारतीय संस्कृति में व्यक्ति को तीन ऋणों उऋण होना अनिवार्य बताया गया है, ब्रम्ह, देव व पितृ ऋण। इसके लिए प्रत्येक को पंच महायज्ञों को करना अनिवार्य होता है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में यज्ञ कृतज्ञता का ही प्रतीक है। हमारे यहाॅ तैतीय कोटि देवता कहे गए हैं जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाष, वायु इत्यादि को भी देवता माना गया है। देवता अर्थात् जो देता है वहीं देवता है। इसलिए प्रकृति के वे तत्व जो हमें जीवित रखने में सहयोग देते हैं हम उसे देवता मानकर उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं। साथ ही उपकारी के प्रति आभार का भाव रखना ही कृतज्ञ होना है। किंतु अंहकार के कारण किसी के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं आता और हम जो मिला उसके लिए थैंक्सफुल होने की अपेक्षा जो प्राप्त नहीं है उसके लिए दूसरो अथवा ईष्वर को दोष देते रहते हैं। अथवा जो मिला उसमें अपना ही कर्म मानकर किसी के प्रति कृतज्ञ ना होना भी अहंकार का प्रतीक है। अतः यदि इसे कुंडली से देखा जाए तो लग्न, तीसरा अथवा भाग्य भाव का कारक ग्रह यदि प्रतिकूल हो तो ऐसे लोग किसी के भी प्रति कृतज्ञ नहीं होते। वहीं अगर लग्न, तीसरे स्थान में सूर्य अथवा शनि जैसे ग्रह होकर विपरीत कारक हों तो ऐसे लोग अहंकार के कारण कृतध्न होते हैं। अतः यदि आपके जीवन में थैंक्स की कमी हो अथवा आपके लिए धन्यवाद शब्द महत्वपूर्ण ना हो तो कई यह आपके जीवन में सफलता में कमी का कारण भी हो सकता है क्येांकि लग्न, तीसरे अथवा भाग्यभाव यदि विपरीत हो तो सफलता प्राप्ति में कमी या देरी होती है। अतः सफलता प्राप्ति हेतु अपने जीवन में कृतज्ञता का समावेष कर जीवन में सुख-समृद्धि तथा शांति प्राप्त की जा सकती है।
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एल्कोहोलिक होने के कारण और ज्योतिषीय उपाय -

एल्कोहोलिक होने के कारण और ज्योतिषीय उपाय -
कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व विशेष ढंग का होता है जिसमें पहले से ही कुछ ऐसे लक्षण विद्यमान रहते हैं, जो उसे शराबी बना देती है और वह तनाव की स्थिति से समायोजित होने के लिए कोई दूसरी सुरक्षात्मक प्रक्रिया का उपयोग नहीं कर पाता। इसे अल्कोहोलिक व्यक्तित्व कहा जाता है। व्यक्ति अपने शराब पीने पर नियंत्रण नहीं रख पाते, इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। असामाजिक व्यक्तित्व तथा अवसाद ये दो ऐसे चिकित्सकीय लक्षण है जो अत्यधिक मद्यपान करनेवाले व्यक्तियों में पाये जाते है। ये लक्षण किसी व्यक्ति की कुंडली में दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में उसका तृतीयेष राहु से पापाक्रांत होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर आ जाए अथवा अपने स्थान से इन स्थानों पर हो तो ऐसा व्यक्ति तनाव से बचने के लिए अपने आप को नषे में डालता है और लगातार नषे के सेवन से एल्कोहोलिक होता हैं अतः कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर तीसरे स्थान के ग्रहों की शांति, मंत्रजाप तथा पूजा तथा रत्न धारण करना चाहिए। अच्छे मार्गदर्षक या साथ में रहना भी तनाव से बाहर निकलने का एक जरिया होता है।
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Tuesday, 22 December 2015

Understanding Bahdkesh

Many a times a person is under the period (Maha Dasha) of a favourable planet and putting lots of efforts but to ones utter disappointment one is not able to get desired results in all the undertakings rather there are obstacles and failures in every sphere and undertakings. A time comes when ones starts feeling that the fate is being obstructed and infect. There is obstruction which is being caused by a planet who is lord of Badhakasthan. I am hesitatingly going to write here that most of well known astrologers falter here since the implication of a Badhaka planet is very difficult to understand due to non-availability of literature on Badhkasthan and Badhkesh. Most of the classics simply tell about the Badhaka planet but that too in limitations. But the experience shows that a Badhaka planet is more harmful as compared to a debilitated planet. A debilitated planet gets its debilitation cancelled under certain norms as mentioned in classics. A lord of a trik Bhava is not as dangerous as a Badhaka planet is. A Badhaka planet is decided on the basis of sign falling in the ascendant. Badhaka for Each Ascendant 1. For a Moveable (Char sign rising in ascendant 11th house is termed, as Badhakasthan and lord of sign falling in the 11th house is a Badhaka planet. 2. For a Fixed (sthir) sign rising in ascendant 9th house is termed, as Badhakasthan and lord of sign falling in the 11th house is a Badhaka planet. 3. For a Dual (Dawisawbhav) sign rising in ascendant 7th house is termed as Badhkasthan and lord of sign falling in the 7th house is a Badhaka planet. Tabulation of Badhkasthan and Badhaka Planet Sign in Badhk Sign falling Badhksthan Asc. sthan in Badhkesh 1. Aries 11th Aquarius Saturn 2. Taurus 9th Capricorn Saturn 3. Gemini 7th Sagittarius Jupiter 4. Cancer 11th Taurus Venus 5. Leo 9th Aries Mars 6. Virgo 7th Pisces Jupiter 7. Libra 11th Leo Sun 8. Scorpio 9th Cancer Moon 9. Sagittarius 7th Gemeni Mercury 10. Capricorn 11th Scorpio Mars 11. Aquarius 9th Libra Venus 12. Pisces 7th Virgo Mercury Note : If one notices the scheme of Badhaka planets one will find Sun and the Moon do not escape th ewrath of being Badhaka planet where as the most of texts exempt the lordship of Luminaries over trik bhavas. To make the things more clear it will be better to draw charts for each ascendant so that one can under stand the concept of Badhaka. Some of the eminent astrologrs have written their findings about Badhakas and complications created by the Badhaka planets.A very prominent astrologer of yesteryears was very much critical about the Badhaka planets. He was ready to compromise with debilitated planets,combust planets and with the lords of trik bahvas.While treating a debilitated planet he reconclied with cancellation of debilitation,while dealing with the lords of trik bhavas he opined that the planet looses some its vitality since the second sign must be falling in a good bhava and the same way he opined with cobust planets(with due respect to the Sages who laid down some rules and norms about the cancellation of debilitation of planets but when applied in a practical way one will find these rules and norms have their limitaions so is the case with combust planets. The auther of “Prasna Marga” had different approach about Badhakas. He allocated some fixed houses as the houses of harm or Badhkasthans and lords of the signs falling in these fixed houses termed as Badhaka plants. His views are tabulated below: 1. For All Moveable Signs……Aquarius is Badhkasthan…….Saturn is Badhaka. 2. For Leo/Virgo/Scorpio/Sagttarius… Scorpio.. do……………Mars is Badhaka. 3. For Capricorn………………..Taurus is Badhkasthan………..Venus is Badhaka. 4. For Gemini/Pisces………..Sagittarius is Badhaksthan….Jupiter is Badhaka. In this context one thing is discriminating and that is the author has exempted the Sun,the Moon and Mercury from being Badhaka lords,thus this findings of the author falters under so many reasons. Under the circustances one should adhere to first tabulated scheme of Badhkasthans and Badhaka Planets only. Now a big question arises here that the houses which have been marked as Badhkasthans are all very important houses when studied under the light of the characterstics and portfolios alloted to these houses. While to going into much detail the most important portfolio will be dealt with: 1. In case the11th house becomes a Badhkasthan one will suffer on account of gains during the period of the lord of sign falling in this house being a Badhaka lord. 2. In case 9th house becomes a Badhkasthan one will suffer on account of good fortune during period of the lord of sign falling in this house being a Badhaka lord. 3. In case the 7th house becomes a Badhkasthan one will be bereft of marital bliss during the period of the lord of sign falling in this house being a Badhaka Lord. But in real practice it has not been found. If this is the case then what about Badhkasthan and Badhaka lord? Answer to this question is that the Badhaka planet gives bad to worst results under some rules and when these rules are applicable to the Badhaka lord in that case one will not get any respite in one’s undertakings with putting extra efforts. The author of “Jatka Parijat” Volume2 and Sloka no.48 mentioned that a Badhaka planet is complete Badhaka only when it is associated with a “Kharesh” ie. Lord of Khara sign. Author has gone to te extent that in case two or more than two Khara planets influence the Badhaka lord by association or aspect the major period or the sub period of this Badhaka planet may prove fatal even. KHARESH DEFINED: 1. As per the author the lord of 22nd Drekkana and lord of 64th Navmamsha is known as Khara planets (Most of the authors suggest to reckon 22nd Drekkana and 64th Navmamsha from the natal Moon only but many a times 64th Navmamsha from the natal ascendant play a major role) 2. A Badhaka planet associated with or aspected by Gulika becomes a prominent fatal. 3. A Badhaka planet under the aspect of or associated with the lord of 22nd Star(Nakshatra) from one’s natlal Star(Here Star abhijit should be included). This 22nd Star(Nakshtra) is known as “Vainashishik Nakshtra”. 4. A Badhaka planet associated with or aspected by the lord 88th Navamamsha is also harmful since 22nd Nakshtra(Vainashik Nakshtra) falls in this Navamamsha. 5. A Badhaka planet associated with or aspected by Rahu is equally fatal. In this context Rahu is more dangrous to prduce evil as compared to Ketu. AREA OF HARM: This is a generlised study which gives appeciable results but even then it requires a lot of research so as to make it a rule. A Badhaka planet invriably harms the house it is placed in(in rules of becoming a Badhaka are met with) or a house it aspects or the house in which a Badhaka is placed and this house falling from a specific house under consideration when counted in a Zodiacal order, to be more more clear in a Badhaka planet is placed in the ascendant, it will give a bad constitution to the native..Same way if a Badhaka planet is placed in the 8th house it will give obstacles and loses in one’s profession during its period or sub period, a Badhka planet in 7th house when counted from ascendant will deprive one of marital bliss and so on…. Now the question arises that one person is born with Saturn as Badhaka, another with the Sun, another with Jupiter and so on with all the seven planets (Here Rahu and Ketu are not included since they do not have ruling on any sign and secondaly they are known as shadowy planets(Chhaya Greh). Answer to this lies in karma theory and it is due to one’s past life’s karma one is born with a specific planet as a Badhaka planet….What type of bad karmas one has done in his past life so that one is born with that very planet as a Badhaka.

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Monday, 21 December 2015

बच्चों के जीवन और कैरिअर को सही दिशा देने हेतु भृगु कालेन्द्र पूजन कराएं


ज्योतिष में राहु द्वारा निर्मित योग और उनका फल

ज्योतिष में राहु नैसर्गिक पापी ग्रह के रूप में जाना जाता है। राहु को Dragon's Head तथा North Node के नाम से भी जाना जाता है। राहु एक छाया ग्रह है। इनकी अपनी कोई राषि नहीं होती। अतः यह जिस राषि में होते हैं उसी राषि के स्वामी तथा भाव के अनुसार फल देते हैं। राहु केतु के साथ मिलकर कालसर्प नामक योग बनाता है जो कि एक अषुभ योग के रूप में प्रसि़द्ध है। इसी प्रकार यह विभिन्न ग्रहों के साथ एवं विभिन्न स्थानों में रहकर अलग-अलग योग बनाता है जो कि निम्न है-- अष्टलक्ष्मी योग जब राहु जन्म कुण्डली के छठे भाव में होता है और बृहस्पति केन्द्र में होता है तब इस योग का निर्माण होता है। अष्टलक्ष्मी योग से अभिप्राय है व्यक्ति सभी प्रकार के सुख साधन सम्पन्नता को प्राप्त करता है। अष्ट लक्ष्मी आठ प्रकार की लक्ष्मीेे को सूचित करती है-- (1) धन लक्ष्मी योग (2) धान्य लक्ष्मी योग (3) धैर्य लक्ष्मी योग (4) विजय लक्ष्मी योग (5) आदि लक्ष्मी योग (6) विद्या लक्ष्मी योग (7) गज लक्ष्मी योग (8) सन्तान लक्ष्मी योग जिस जातक का इस योग में जन्म होता है वह सभी तरह की सफलता (Eight fold Prosperity) को प्राप्त करता है। लेकिन इस योग के पूर्ण फल की प्राप्ति तभी सम्भव है जबकि राहु और बृहस्पति दोनों जन्म कुण्डली में मजबूत स्थिति में हों। कपट योग चतुर्थ भाव में जब पापी ग्रह हांे या चतुर्थ भाव के स्वामी को पापी ग्रह देखते हों या उसके साथ युति संबंध बनाते हों तब इस योग का निर्माण होता है। चतुर्थ भाव में राहु जब शनि या मंगल के साथ हो तथा चतुर्थेष भी पाप प्रभाव में हो तब कुण्डली में कपट योग का निर्माण होता है। ऐसा व्यक्ति दुष्ट स्वभाव का, धोखा देने वाला तथा स्वार्थी स्वभाव का होता है। इनका चरित्र भी संदेहास्पद होता है । श्रापित योग जब राहु शनि के साथ एक ही राषि में होता है तो इस योग का निर्माण होता है। कुछ ज्योतिषियों के अनुसार शनि पर राहु का दृष्टि प्रभाव भी इस योग का निर्माण करता है। इस योग में जातक की कुंडली पूर्व जन्म के कारण श्रापित ;ब्नतेमक भ्वतवेबवचमद्ध हो जाती है जिसके कारण व्यक्ति को इस जन्म में मानसिक, आर्थिक, शारीरिक परेषानियों तथा साथ ही विवाह में परेषानियां, संतति प्राप्ति में परेषानियाँ हो सकती हैं। चांडाल योग गुरु और राहु की युति से इस योग का निर्माण होता है। यह एक अषुभ योग है। यह योग जिस जातक की कुंडली में निर्मित होता है उसे राहु के पाप प्रभाव को भोगना पडता है। इस योग की स्थिति में जातक को आर्थिक तंगी का सामना करना पडता है, नीच कर्मों के प्रति झुकाव रहता है तथा ईष्वर के प्रति आस्था का अभाव रहता है। कालसर्प योग जब सभी ग्रह राहु और केतु के बीच में स्थित होते हैं तो इस योग का निर्माण होता है। कालसर्प योग वाले सभी जातकों पर इस योग का समान प्रभाव नहीं पड़ता। राहु तथा केतु किस भाव में है तथा कौन सी राषि में है और अन्य ग्रह कहाँ-कहाँ बैठे हैं, और उनका बलाबल कितना है ये सभी बिंदु कालसर्प योग के फल को प्रभावित करते हैं। जिस जातक की कुंडली में राहु दोष या कालसर्प योग होता है उसे साधारणतया सपने में सर्प दिखायी देते हैं, पानी में डूबना, उँचाई से गिरना आदि घटनाएं हो सकती हैं। ग्रहण योग जब जन्म कुण्डली में सूर्य या चन्द्रमा की युति राहु से होती है तो ग्रहण योग बनता है। इस छाया ग्रह की युति सूर्य के साथ होने से सूर्य ग्रहण तथा चन्द्रमा के साथ होने से चन्द्र ग्रहण बनता है जिसका प्रभाव व्यक्ति विषेष के जीवन पर पड़ता है।

नक्षत्रों का महत्व

1- नक्षत्रों की खोज राशियों से पहले हुई थी। 2- पृथ्वी से नक्षत्र राशियों से भी अधिक दूरी पर स्थित हैं। 3- नक्षत्रों को अन्य धर्म में तारों के नाम से भी जाना जाता है। 4- जिस प्रकार कुछ तारों के समूह को राशि कहते हैं उसी प्रकार कुछ तारों के समूह को नक्षत्र कहते हैं। 5- राशियों के समान नक्षत्रों की आकृति भी निश्चित होती है। 6- जिस प्रकार भचक्र को 12 भागों में विभाजित करने पर 12 राशियां होती हैं उसी प्रकार भचक्र को 27 भागों में विभाजित करने पर एक नक्षत्र का निर्माण होता है। 7- एक भचक्र में 27 नक्षत्र होते हैं। 8- एक नक्षत्र का मान 130 20’ होता है या 800’ होता है। 9- राशियों के समान नक्षत्र भी भचक्र में स्थिर होते हैं और यह ब्रह्मांड में एक पैमाने की तरह काम करते हैं। जैसे कि किसी स्केल (पैमाने) पर 12 इंच के निशान होते हैं उसी प्रकार भचक्र में 12 राशियां होती हैं और जिस प्रकार 1 फुट में 30 से.मी. के निशान होते हैं उसी प्रकार ब्रह्मांड में ग्रहों की स्थिति दर्शाने के लिये 27 नक्षत्र स्थिर होते हैं। 10- राशियों के स्वामी सप्त ग्रहों में व्यवस्थित हैं तो नक्षत्रों के स्वामी नौ ग्रहों में व्यवस्थित हैं। 11- एक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। 12- प्रत्येक नक्षत्र में चार चरण होते हैं। 13- नक्षत्र का विस्तार राशियों के विस्तार से कम होता है। 14- किसी कुंडली में जिस प्रकार ग्रहों के लिये राशि का महत्व होता है उसी प्रकार ग्रह किस नक्षत्र में स्थित है वह भी महत्वपूर्ण होता है। 15- राशियों के समान नक्षत्रों के भी स्वामी होते हैं। 16- ज्योतिष में नामाक्षर के लिये नक्षत्र व उसके चरण उत्तरदायी होते हैं। 17- जिस प्रकार किसी ग्रह का राशि स्वामी होता है उसी प्रकार उसका नक्षत्र स्वामी भी होता है और ग्रह का स्वभाव ग्रह के नक्षत्र स्वामी का प्रभाव लिये हुए होता है। 18- किसी भी मुहूर्त के लिये नक्षत्र विशेष का शुभ होना महत्वपूर्ण होता है। 19- रविपुष्य और गुरुपुष्य जैसे महत्वपूर्ण योगों के लिये राशि नहीं बल्कि पुष्य नक्षत्र का होना आवश्यक होता है। 20- कृष्णमूर्ति पद्धति का आधार नक्षत्र ही है। 21- ग्रह की स्थिति बताने के लिये नक्षत्र का संदर्भ अधिक सटीक है, क्योंकि उसमें चार चरण भी होते हैं। अतः ग्रह की ब्रह्मांड में स्थिति नक्षत्र व उसके चरण के साथ बतायी जा सकती है, जोकि राशि आधार से अधिक सटीक है। 22- राशियों के स्वामी में किसी एक ग्रह को एक राशि अथवा दो राशियों का स्वामित्व प्राप्त है वहीं नक्षत्रों में सभी 9 ग्रहों को तीन-तीन नक्षत्रों का स्वामित्व प्राप्त है। 23- गंडमूल नक्षत्र में जन्मे जातक का गंडमूल शांति 27वें दिन पुनः आने पर करायी जाती है, जिसमें सभी वस्तुओं का 27-27 की संख्या में संग्रह किया जाता है। यदि 27वें दिन तक गंडमूल नक्षत्र का ज्ञान न हो सके तो 27वें महीने में, नहीं तो 27वें वर्ष में, नहीं तो जब भी वह गंडगूल नक्षत्र आये उस दिन उस गंडमूल नक्षत्र की शांति करायी जाती है। 24- यदि किसी बच्चे का जन्म के समय स्वास्थ्य इतना खराब हो जाये कि बच्चा जन्म और मृत्यु के बीच हो तो आप निरीक्षण करने पर 90 प्रतिशत केस में पायेंगे कि बच्चे का जन्म गंडमूल नक्षत्र में हुआ होता है। 25- गंडमूल नक्षत्रों के नाम अश्विनी, मघा, मूल, अश्लेषा, ज्येष्ठा, रेवती है। 26- पंचक नक्षत्र किसी भी शुभ या अशुभ घटना की 5 बार पुनरावृत्ति कराते हैं चाहे वह घटना शुभ हो या अशुभ। तात्पर्य यह है कि यदि किसी परिवार में पंचक में किसी बच्चे का जन्म हुआ हो तो उस कुटुंब में एक वर्ष के अंदर पांच बच्चों का जन्म होता है। 27- यदि किसी परिवार में पंचक के दौरान किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाये तो उस कुटुंब में एक वर्ष के दौरान पांच व्यक्तियों की मृत्यु होती है। इसलिये इसके दुष्प्रभाव से बचने के लिये दाह संस्कार करते समय, साथ में चार और पुतले बनाकर विधि विधान के साथ दाह संस्कार किया जाता है। 28- पंचक का प्रारंभ काल चंद्रमा के कुंभ राशि में प्रवेश से प्रारंभ होता है और मेष राशि में प्रवेश के समय समाप्त होता है अर्थात जब चंद्रमा कुंभ और मीन राशि में रहता है तो पंचक होता है। इन दो राशियों में वास्तव में कुल साढ़े चार नक्षत्र ही आते हैं क्योंकि प्रत्येक राशि में सवा दो नक्षत्र होते हैं। लेकिन संख्या में 5 नक्षत्र आने के कारण इनको पंचक कहा जाता है। 29- पंचक नक्षत्र हैं - धनिष्ठा-3 से प्रारंभ, शतभिषा, पूर्वा भाद्रपद, उत्तरा भाद्रपद, रेवती। 30- पंचक नक्षत्रों में ईंधन एकत्र करना, चारपाई बुनना, छत डालना मना है। अर्थात आधुनिक युग में गैस का सिलेन्डर न लेना, पलंग न खरीदना और नये घर की छत डालना माना जा सकता है। 31- रेवती नक्षत्र पंचक और गंडमूल नक्षत्र दोनों होते हैं।

टैरो पद्धति एवं वैदिक ज्योतिष

टैरो पद्धति एवं वैदिक ज्योतिष दोनों को भविष्य फल कथन की विभिन्न प्रणालियों में से ऐसी विद्याएं मानी हैं जिनका भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में सर्वाधिक प्रचलन हो रहा है। आज विज्ञान ने मानव जीवन को सरल एवं सुखमय बनाने के लिये जहां अनेक आविष्कार किये हैं, वहीं इन्हें सुखी बनाने वाले साधनों ने जीवन को इतना जटिल बना दिया है कि प्रत्येक व्यक्ति चिंताओं में डूबा है। अब इन चिंताओं के भार से दबी जिंदगी अपने जीवन की समस्याओं का निदान ज्योतिष अथवा टैरो में देखती है। ज्योतिष की अपेक्षा टैरो कार्ड का अध्ययन सरल समझा जाता है। इसमें कुल 78 कार्ड हैं, जिसमें से 22 मुख्य अरकाना के अतिरिक्त 52 ताश के पत्तों से संसार के सभी देशों और सभ्यताओं के लोग परिचित हैं। इनमें चार और जोड़ दिये गये हैं। मुख्य अरकाना में भी चित्रों के माध्यम से समझाया गया है। जहां वैदिक ज्योतिष को अध्ययन करने के लिये एक लंबा समय चाहिए एवं भाषा, गणित, भूगोल एवं भौतिक शास्त्रों की एक सामान्य समझ होना आवश्यक है। वहीं दूसरी ओर चित्रों की भाषा को आत्मसात करना उतना कठिन नहीं है। टैरो कार्ड के चित्रों और संख्याओं को एक छोटा बच्चा जिसे अक्षरों एवं अंकों का ज्ञान है, अथवा कोई सामान्य व्यक्ति जो साक्षर है आसानी से पढ़ लेता है। यह एक मनोवैज्ञानिक अध्ययन की विधि है। जिन व्यक्तियों को अंतज्र्ञान का आशीर्वाद प्राप्त है वे आसानी से इन्हें पढ़कर इनसे फल कथन कर सकते हैं। अलबत्ता जिन्होंने वैदिक ज्योतिष का अध्ययन किया है तथा जिन्हें ज्योतिष का अच्छा ज्ञान है, उनके द्वारा टैरो कार्ड का फल कथन सरल व सटीक हो जाता है। एक सामान्य व्यक्ति की अपेक्षा वे इस विद्या में अधिक निपुण हो जाते हैं। प्रायः टैरो कार्ड से फल कथन करने वाले भी ज्योतिष का अध्ययन करते हैं। इसका प्रमुख कारण है कि टैरो कार्ड में राशियों, ग्रहों, नक्षत्रों, रंगों तथा अंकों का सभी चित्रों में प्रयोग किया गया है। इनमें ज्योतिष की राशियों के समान उन चारों तत्वों अग्नि, वायु, जल तथा पृथ्वी को प्रयोग किया गया है। अतः टैरो अध्ययन की सूक्ष्मता में वैदिक ज्योतिष का बहुत बड़ा योगदान है। वैदिक ज्योतिष पद्धति भारत में विकसित हुई वह विद्या है जिसे वेदों के छः प्रमुख अंगों में स्थान दिया गया है। यह वेदों की आंख मानी गई है। जैसे मानव शरीर में आंखें न होने पर मनुष्य जी तो लेगा, परंतु उसका जीवन कितना अधूरा होगा, यह कल्पना के परे का विषय है। वैदिक ज्योतिष भारत के प्राचीन ऋषि मुनियों, विद्वानों के सैकड़ो वर्षों की खोज का परिणाम है। आज भी किसी जातक के जन्म का समय, स्थान एवं काल का सही विवरण ज्ञात होने पर उसके भूत, वर्तमान एवं भविष्य के निश्चित समयावधि पर संपन्न होने की पूर्ण जानकारी दी जा सकती है। जातक के जीवन में होने वाली संपूर्ण घटनाक्रम का विवरण दिया जा सकता है। लेकिन टैरो कार्ड पद्धति में चंद दिनों से लेकर एक वर्ष तक की अवधि में होने वाली घटना क्रम के विषय में ही बताया जा सकता है। यह एक मनोवैज्ञानिक पद्धति है, जिसमें व्यक्ति न केवल दूसरों के विषय में बल्कि अपने गहन अंतर्मन को परतों में छिपे रहस्यों के विषय में ज्ञान प्राप्त कर सकता है, जिसे सामान्यतः बाहरी व्यक्तित्व को पता नहीं होता, लेकिन वो जीवन को बहुत निश्चित रूप से प्रभावित करती है। वैदिक ज्योतिष का विकास आज से हजारों वर्षों पूर्व माना जाता है, जबकि टैरो कार्ड का उल्लेख कुछ सदियों से ही इसका प्रारंभ माना जा रहा है। इतिहासकारों की मान्यता है कि अति प्राचीन काल में भारत में टैरो कार्ड का प्रयोग किया जाता था, जिन्हें गंजीफा कार्ड कहा जाता था। वे गोल आकार के होते थे, जिनके एक ओर देवी, देवताओं, राजा, रानी आदि के चित्र होते थे। इनको मनोरंजन एवं भविष्यकथन के रूप में प्रयोग किया जाता था। मध्य युग में जिप्सी लोग अपने कबीलों के साथ यात्रा करते हुए ये कार्ड यूरोप तथा पश्चिमी देशों में ले गये। कुछ की मान्यता है कि भारत के समृद्ध व्यापारी अपने साथ इन कार्ड को वहां ले गये, तथा बाद में इनमें ईसाई, यहूदी व अन्य धर्मों में से संबंधित व्यक्तियों के प्रतीक चित्रों को इसमें जोड़ दिया गया। अधिकतर विद्वान टैरो का स्रोत भारत से जोड़कर देखते हैं। यूरोप में चैदहवीं शताब्दी के पूर्वार्ध में इटली में 52 ताश के पत्तों वाला पहले कार्ड का संग्रह पाया गया है। बड़े 22 कार्ड कैसे कहां से जोड़े गये इनका कोई विवरण अभी तक ज्ञात नहीं है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि कार्ड इजीप्त को देवी जिसे जादू एवं गूढ़ रहस्यों की अधिष्ठात्री माना जाता था की किसी पुस्तक अथवा मोहरों से प्राप्त हुए हैं। इस गूढ़ विद्या का इतिहास अनेक व्यक्तियों व देशों से जोड़कर देखा जाता है। जहां प्राचीन सभ्यताओं का विकास हुआ। इनका वर्तमान इतिहास उन्नीसवीं सदी से प्रारंभ माना जाता है, जब यह यूरोप से लेकर अमेरिका तक प्रयोग किये जाने लगे। विशेष रूप से पिछले पचास वर्षों में इनका प्रचार प्रसार बहुलता से होने लगा और पश्चिम के देशों के साथ-साथ भाारत में भी यह टैरो कार्ड पद्धति भविष्य फल कथन के रूप में प्रयोग की जाने लगी। पश्चिम में तो टैरो कार्ड भविष्य फल कथन की एकमात्र पद्धति थी। टैरो कार्डस का संबंध कबालाह, मनोविज्ञान, ज्योतिष, संख्या शास्त्र, ईसाई सूक्ष्म तंत्र एवं भारतीय दर्शन से भी जोड़कर देखा जाता है। इसमें व्यष्टि आत्मा एवं समष्टि आत्मा अथवा जिसे भारत में जीवात्मा एवं परमात्मा कहते हैं उससे जोड़कर देखा जाता है। टैरो कार्डस को आत्मा का आईना कहा जाता है। यह हमारे अंतर्मन की परतों में छिपे रहस्यों का उद्घाटन करने के साथ-साथ आगामी जीवन में लिये जाने वाले निर्णयों में भी सहायक होते हैं। यह व्यक्ति के मन में छिपी ऐसी बातों को प्रदर्शित कर देते हैं जो अन्यथा व्यक्ति अपने में ही सीमित रखता है। यह व्यक्ति की इच्छाओं, आकांक्षाओं और उद्देश्यों को दर्शाने वाली एक सफल विधि है। यह किसी निश्चित समय पर व्यक्ति की उन अस्पष्ट इच्छाओं और अपेक्षाओं को सफलता से प्रदर्शित कर सकती है जो अन्यथा व्यक्ति अपने आप में सीमित रखता है। अतः इस पद्धति का प्रयोग केवल दूसरे लोगों के भविष्य कथन के लिये न होकर अपने स्वयं के जीवन की समस्याओं में भी सफल मार्गदर्शन करने में सक्षम हैं। इसमें कर्म के सिद्धांत को बहुत महत्वपूर्ण माना गया है। जो हम कर आए हैं उन्हीं का परिणाम हमारे सामने आगामी परिस्थितियों के रूप में प्रकट होता है। यह ही हमारी इच्छाओं, आकांक्षाओं का उद्गम अथवा प्रेरणा स्रोत है। जो भी हमारा जीवन था, है तथा होना है, सब कुछ पूर्व निश्चित है, इसे देखा और पढ़ा जा सकता है। वैदिक ज्योतिष का आधार भी कर्म का ही सिद्धांत है तथा घटनाओं और परिस्थितियों को पूर्व निश्चित मान कर ही पिछले कर्मों का फल अगले जीवन में भुगतान करना होता है। सभी व्यक्तियों का जन्म उनके पूर्वार्जित पुण्य अथवा कमजोर कर्मों का परिणाम होता है जो व्यक्ति की कुंडली का अध्ययन कर बताया जा सकता है। कुंडली का पंचम भाव पूर्व पुण्य का भाव माना जाता है। दशम भाव कर्म भाव है, जबकि नवम भाव से धर्म तथा पिता एवं विदेश यात्रा के विषय में जाना जाता है। पंचम भाव संतान का भी भाव है जबकि सप्तम पति-पत्नी के साथ-साथ साझेदारी व अन्य संबंधों को बताता है। अतः वैदिक ज्योतिष के आधार पर कुंडली का अध्ययन मनुष्य जीवन के संपूर्ण रूप का प्रदर्शन कर सकता है, लेकिन टैरो कार्ड के द्वारा यह संभव नहीं। यह वर्तमान की समस्याओं का सरल निदान है। यह उन व्यक्तियों की समस्याओं को सुलझाने में बहुत सहायक है जो मानसिक अवसाद से ग्रस्त हैं। पश्चिम में इस पद्धति का प्रयोग अवसाद से ग्रस्त व्यक्तियों के पुर्नस्थापन के लिये विशेष रूप से किया जाता है तथा टैरो रीडर को वास्तव में मनोचिकित्सक माना जाता है। आज के युग में अनेक वैज्ञानिकों एवं डाक्टरों के अध्ययन के ऐसे परिणाम सामने आए हैं, जिनकी मान्यतानुसार शरीर में उत्पन्न होने वाले अनेक भीषण रोग जैसे- दिल की बीमारी, कैन्सर आदि का कारण मानसिक अवसाद माना जा रहा है। बीसवीं सदी के प्रमुख मनोवैज्ञानिक कार्ल जुंग का इसमें विशेष योगदान माना जाता है। उनके अनुसार जब व्यक्ति टैरो कार्ड को छांटकर गड्डी से अलग करके निकालता है तो कार्ड का चयन उसके अंदर में छिपि ऐसी भावना से प्रेरित होते हैं, जिसे वो बाहर व्यक्त करना चाहता है। यह व्यक्ति की तात्कालिक मानसिकता से प्रेरित होते हैं। यह उस क्षण व्यक्ति के अन्तष्चेतन मन की सशक्त अभिव्यक्ति है, जो बाहर प्रकट होना चाहती है। हम सभी अपनी अचेतन मन में छिपी भावनाओं को किसी बाहरी माध्यम से अभिव्यक्त करना चाहते हैं। टैरो कार्ड इसका बहुत सफल माध्यम है। टैरो के प्रत्येक कार्ड में एक प्रतीक और चिन्ह में एक संदेश निहित है। हमारी अंतरात्मा उस संदेश को जानती है, अवचेतन को यह ज्ञात है कि हम अपने जीवन को किस स्थिति में देखना चाहते हैं, परंतु चेतन मन को यह पूर्णतः विश्वास नहीं कि यह संभव हो पायेगा। टैरो कार्ड इस काम को भली भांति कर देता है। हमारी अवचेन मन की रहस्यमय परतों को यह सरलता से उद्घाटन कर देता है। प्रत्येक टैरो कार्ड का कोई निश्चित अर्थ या संकेत नहीं होता। प्रत्येक टैरो कार्ड हमारे जीवन पथ के किसी निश्चित क्षण विशेष पर एक पड़ाव मात्र है। इसके प्रतीक और चिन्ह वो कहानी कह देते हैं जिसे हम सभ्यता के बाहरी प्रभाव के कारण व्यक्त नहीं कर पाते। प्रत्येक कार्ड संयोजन की अभिव्यक्ति विभिन्न टैरो रीडर को अलग-अलग संकेत देती है। इन कार्ड की भाषा आश्चर्यजनक रूप से समृद्ध है। सामान्य पाठक इसे पढ़कर यह प्रश्न सोच सकता है कि टैरो रीडिंग कोई भविष्य के फल कथन की विधि है, या जीवन की समस्याओं को सुलझाने के लिये कोई माध्यम अथवा मार्ग चयन है। संभव है यह दोनों ही है। यह किसी निश्चित आधार पर ठहरा तथ्य नहीं है जो परिवर्तित न हो सके। इस तरह वैदिक ज्योतिष से यह कोसों दूर है जहां पृथ्वी तथा उसके इर्द गिर्द संचरण करने वाले ग्रह नक्षत्रों के पृथ्वी के प्राणियों के जीवन पर पड़ने वाली ऊर्जा के विश्लेषण से मनुष्य जीवन की गतिविधियों का सफल भविष्य कथन किया जा सकता है। यूं तो ज्योतिष में भी जीवन की समस्याओं से घिरे मनुष्य की नकारात्मक सोच समझा कर परिवर्तित कर सकारात्मक जीवन जीने के लिये विभिन्न प्रकार के उपाय भी ऋषि महर्षियों ने सुझाये हैं। इनमें राशि अनुसार रत्न पहनना, दान, पूजा-पाठ, मंत्र उच्चारण, नदी-सागर स्नान, साधु महात्मा, वृद्धों, असहायों की सहायता एवं विभिन्न देवी देवताओं की उपासना आदि। जीवन की समस्याओं से निराश व्यक्ति को एक सहारा अथवा आश्वासन मिल जाता है। बस अब दुःख और नहीं। सब समस्याओं के होते हुए भी जीवन जीने जैसे एक चीज है। आज हमारे बुरे कर्मों का फल उदय हुआ है तो संभव है आने वाले कल में पुण्य फल भी उदय होगा। अथवा कुछ लोग जिन्होंने पहले पुण्य फल का भोग समाप्त कर लिया हो और आज समस्याओं से त्रस्त हैं, निश्चिंत रहें, आशा की नई किरण एक न एक दिन उनके जीवन में एक नया सवेरा लायेगी जब पुनः समृद्धि और खुशहाली उनके जीवन को ओत-प्रोत कर देगा। परिस्थिति और वातावरण नहीं बदलता, हमारा उनसे संघर्ष करने का साहस और बल बदल जाता है। पाठकों को संभवतः याद हो आज से हजारों वर्ष पूर्व का इतिहास जब स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के शांति के अथक प्रयत्न करने पर भी महाभारत युद्ध को रोका न जा सकता। युद्ध में दोनों ओर खड़े संबंधी और गुरुजनों की आसन्न मृत्यु रूपी युद्ध के भयंकर परिणाम को सोचकर अर्जुन जैसा महायोद्धा भी कांप उठा। उसने हथियार फेंक दिये तथा युद्ध को छोड़कर भिक्षा वृत्ति के द्वारा शेष बचे जीवन को बिताने की बात सोची। तब उसके परम सखा, संबंधी योगेश्वर श्रीकृष्ण ने उसे भली भांति समझाया कि प्रत्येक मनुष्य अपने कर्म फल से बंधा है। न चाहते हुए भी अनेक उतार-चढ़ाव हर प्राणी के जीवन में आते ही हैं। स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध स्वेन कर्मणा। कर्तुनेच्छसि यन्मोहात्करिण्यस्यवशोऽपि तत्।। (भ.गी 18 अ-श्लोक 60) ईश्वरः सर्वभूतानाम् ह्रद्देशेऽर्जुन तिष्ठति। भ्रमयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया।। (भगवदगीता अ-18 श्लो. 61) भावार्थ - हे अर्जुन मोहवश होकर आज तू जिस कार्य को करने के लिये उद्यत नहीं है, वह सब तू अपनी प्रकृति के आधीन होकर अवश्य करेगा। सब प्राणियों के हृदय में परमेश्वर का निवास है जो उनके कर्मानुसार उनके जीवन को चला रहा है। अतः टैरो कार्ड एवं वैदिक ज्योतिष दोनों ही हमें अपने अंतर्मन में बसे परमेश्वर से जोड़ने की एक प्रक्रिया है। जाने अनजाने हम सब विश्वात्मा, समष्टि-आत्मा अथवा परमात्मा से जुड़े हैं। चाहें टैरो रीडर से सलाह लें अथवा ज्योतिष मर्मज्ञ से हमें अपनी परिस्थिति से समझौता करने का साहस एकत्र करना ही पड़ता है। आज विश्व भर में एवं विशेष रूप से भारत में जीवन की समस्याऐं इतनी जटिल हो गई है कि व्यक्ति परेशानियों से घिरा दर-दर की ठोकरें खाता कहीं किसी ज्योतिषी का अता-पता खोज रहा होता है और कभी टैरो रीडर का। आज विश्व भर में आतंक, असुरक्षा, नौकरी, व्यवसाय, विवाह, तलाक, कलह, क्लेश, आर्थिक व सामाजिक कमियां उसे भंवर में फंसी छोटी सी नौका की भांति हिलाती रहती है। प्रत्येक व्यक्ति किसी भी कीमत पर धनवान, सुखी, समृद्ध होना चाहता है। इसी भावना के वशीभूत मेहनत से कमाये धन से हजारों रूपये किसी भी ज्योतिषवेत्ता अथवा टैरो रीडर को देकर समस्याओं से जूझना चाहता है। कोई न कोई उपाय की जिज्ञासा लिये या तो बहुमूल्य रत्न, नग-नगीने धारण कर अथवा किसी भी विधि से समस्या के चक्रव्यूह से बाहर निकलने की भरसक कोशिश करता है। आज के जीवन में शांति और संतोष की भावना खो सी गई है। कवि के शब्दों में गोधन, गजधन, बानिधन और रतन धन खान। जब आवे संतोष धन, सब धन धूरि समान। अब सन्तोष धन को खोजने के लिये टैरो रीडर की अथवा ज्योतिष मर्मज्ञ की आवश्यकता बहुत बढ़ गई है। गहनता से विचार करने पर दोनों ही विधियां हमें अच्छा मार्गदर्शन दे रही हैं। हमें अपने अंर्तमन से सुलह करने की शिक्षा देती है। वैदिक ज्योतिष का विकास जहां पूर्णतया भारतीय है वहीं टैरो कार्ड को पश्चिमी मानसिकता, सभ्यता एवं संस्कृति से जोड़कर देखा जाता है। इनके प्रतीक चिन्ह, दृश्य आदि ईसाई, कबालाह, यहूदी धर्मों से जोड़े जाने के साथ-साथ वैदिक ज्योतिष तथा भारतीय संस्कृति व साहित्य से भी जुड़े हैं। इनमें 22 मेजर अरकाना में से कार्ड संख्या आदि के प्रतीक के रूप में समझा जाता है। 1 2 हाई को मां गौरी प्रीसटैस 2 7 चैरियट को अर्जुन कार्ड 3 8 स्ट्रेन्गथ को दुर्गादेवी कार्ड 4 9 हरमिट को सन्यासी जीवन 5 10 चक्र को सौर मंडल के ग्रहों का प्रतीक 6 16 टावर को भगवत गीता अध्याय 10 7 17 स्टार को कर्क राशि 8 18 मून को मन की (उथल-पुथल) चंचलता 9 19 सन को सूर्य, आत्मा व स्वास्थ्य, प्रगति 10 21 वल्र्ड को विश्वात्मा, संपूर्णता टैरो पद्धति की पहुंच मानव मन की गहराईयों को स्पर्श करने वाली विधा है। इसे आत्मा का संगीत बजाने व सुनने का साधन समझा जाता है। यह भारतीय मानस के इस सिद्धांत से घनिष्ठ रूप से संबंधित है, जहां कहा है- जा की रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।। टैरो कार्ड रीडर तथा प्रश्न पूछने वाले की भावना से प्रभावित रहते हैं। चित्र वही है, लेकिन देखने वाले की आंख क्या परखती है, यह उसकी मानसिकता पर निर्भर है। भारत के लोग मूलतः अंर्तमन की गहराईयों को सदा से समझते आये हैं लेकिन पश्चिम ने उन्हें एक वैज्ञानिक स्वरूप दिया है। आज से 550 वर्ष पूर्व लिखि हुई रामचरितमानस की कुछ चैपाईयां यहां उदाहरण रूप में प्रस्तुत है - जिन्ह के रही भावना जेसी। प्रभु मूरत तिन्ह देखी तैसी।। देखहिं रूप महा रनधीरा। मनहुं वीर रस धरे समीरा।। डरे कुटिल नृप प्रभुति निहारी। मनहुं भयानक मूरति भारी।। विदुषन्ह प्रभु विराटमय दीसा। बहु मुखकर पग लोचन सीसा।। जोगिन्ह परम तत्वमय मासा। हरिभगतन देखे दोऊभ्राता। ईष्ट देव इव सब सुख दाता।। रामजी को प्रत्येक व्यक्ति अपनी अपनी भावना के अनुरूप देखते हैं। एक टैरो रीडर को सफल बनने के लिये योग, ध्यान, रेकी, मंत्रोच्चार आदि को साधना करना बहुत सहायक होता है। सफल भविष्य कथन के लिये इन साधनाओं का दैनिक अभ्यास किया जाता है। वैदिक ज्योतिष में अनेक समस्त् शास्त्रों के अध्ययन के साथ साथ सूर्य उपासना, गणेश एवं देवी सरस्वती की उपासना ही व्यक्ति को सफल भविष्यवक्ता बना सकती है। ऐसा ज्योतिषी जिसकी भविष्यवाणी हमेशा सत्य होगी उसे- गणितेशु प्रविणो यः, शब्द शास्त्रे कृत श्रमः। न्यायविद, बुद्धिमान, देश दिक्कालज्ञो जितेन्द्रियः।। अहापोह पटुर्होरा स्कन्ध श्रवण सम्पतः। मैत्रेय सत्यम याति तस्य वाक्यं न संशयः।। गणित में प्रवीण, शब्द शास्त्र में योग्य, न्यायविद, बुद्धिमान, जितेन्द्रिय, देश दिशा और काल का ज्ञाता ऊहापोह (सभी तथ्यों को ध्यान में रखकर निर्णय लेने की क्षमता) पटु तथा फलित ज्योतिष का अच्छा जानकार होना चाहिए। केवल कुछ पुस्तकें पढ़ लेने मात्र से न तो कोई व्यक्ति अच्छा टैरो रीडर हो सकता है न ही भविष्य कथन करने वाला कालज्ञ। अतः संक्षेपतः दोनों ही विद्याओं की विवेचना करने पर कुछ मुख्य समानताएं एवं विविधताएं स्पष्ट होती हैं- 1. ज्योतिष एवं टैरो कार्ड भविष्य फल कथन की विभिन्न प्रणालियां हैं। 2. टैरो कार्ड अध्ययन सरल एवं ज्योतिष का सम्यक ज्ञान परिश्रम साध्य है। 3. ज्योतिषीय गणना संपूर्ण जीवन से संबंधित होती है एवं दीर्घकालिक फल कथन किये जाते हैं। टैरो कार्ड का भविष्यकथन निकट भविष्य एवं वर्तमान को परखने की विद्या है। 4. वैदिक ज्योतिष का विकास पूर्णतया भारतवर्ष में हुआ है। टैरो कार्ड अध्ययन विधि का वर्तमान स्वरूप पश्चिमी देशों में विकसित एवं प्रचारित हुआ है। 5. वैदिक ज्योतिष का आधार समय स्थान तथा काल का सूक्ष्म अध्ययन कर विश्वव्यापी नियमों का अनुसंधान है जो सभी समय, देश व व्यक्तियों का पूर्ण चित्रण प्रस्तुत करते हैं। टैरो कार्ड के कोई निश्चित नियम या आधार नहीं है, जिनसे सार्वकालिक अथवा सार्वभौमिक नियम बनाये जा सकें। 6. टैरो कार्ड प्रणाली एक कला है, जबकि वैदिक ज्योतिष विज्ञान सम्मत शास्त्र है। निश्चय ही दोनों मानव जीवन को सरल एवं सुखमय बनाने का एक प्रयास हैं। हमारे दैनिक जीवन की कठिनाईयों में बढ़ते रहने की प्रेरणा इन दोनों में ही समान रूप से हो जाती है। अपना तथा अपनों का अध्ययन भावी निर्णय लेने में सहायक की भूमिका निबाहता है।

Venus:Guru of Demons

All the nine planets in Indian astrology (including the nodes) have distinct qualities, so their effects on our lives are also different and play a significant role to determine our paths of lives. In this article we are talking about the planet Venus. Venus is called the planet of beauty, the jewel of the sky, the planet of love, the planet of luxuries, entertainment and so on. There is no denying the fact that astronomically this is the most beautiful and brightest celestial object, next to only the Sun and the Moon, therefore it is natural to name it after Goddess of love and beauty. It is also known as the morning and evening star because at sun rise it appears in the east and at the sun set it appears in the west. Venus and earth are close together and similar in size which is the reason Venus is called earth's sister planet.
In Indian astrology, Venus is known as SHUKRA and has its domain on Friday. Hindu mythology describes Shukra as the son of the great sage - Bhrigu. Sage Bhrigu himself taught his son all the spiritual sciences and Vedic scriptures. Shukracharya is the one who founded Shilpashastra (Architecture),Vimanas (Airships), and Jyotish ( astrology). Shukracharya is also known as the teacher of demons who taught this science to Rahu, Ketu, and Shani. So as planet Jupiter is the Guru of gods, planet Venus Is called Guru of Demons whose ruling colour is white.
Astrologically, when we talk about the traits of this planet, Venus is karaka of beauty, love and fertility. It is associated with the principle of harmony, balance, feeling and affection and the urge to unite with others. It is involved with the desire for pleasure, sensuality, personal possessions, comfort and ease. It governs romantic relations, marriage, business partnership, sex, art, drama, music, cinema, fashion and social life. Hotels, good food, vehicles, painting, poetry, singing and all the luxurious things in life are the domain of this planet.
In kalpurush kundali Venus rules the 7th house of marriage and partnership; he is the lord of Taurus and Libra rashi. Venus exalts in the Jupitarian sign- Pisces, and debilitates in Mercurian sign- Virgo. In Male’s horoscope Venus is the karaka of wife and semen. An exalted Venus gives beautiful wife with fine tastes.
No doubt a strong Venus in the horoscope enriches the native with beauty, arts, love, knowledge, conjugal happiness, wealth, physical beauty and all the materialistic pleasures in life. The most important thing it gives a good moral character to the native. But a weak Venus placed in inauspicious house and having the malefic influence can create havoc in the person’s life. He will be lustful, devoid of strength with venereal diseases, his character may be questioned and this way he can lose the reputation and bring the bad name for himself as well as for his family.

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Sunday, 20 December 2015

बच्चों के जीवन और कैरिअर को सही दिशा देने हेतु भृगु कालेन्द्र पूजन कराएं


भृगुकालेंद्र पूजन से लायें बच्चों में अनुशासन एवं आज्ञापालन-




सनातन हिंदू धर्म बहुत सारे संस्कारों पर आधारित है, जिसके द्वारा हमारे विद्वान ऋषि-मुनियों ने मनुष्य जीवन को पवित्र और मर्यादित बनाने का प्रयास किया था। ये संस्कार ना केवल जीवन में विशेष महत्व रखते हैं, बल्कि इन संस्कारों का वैज्ञानिक महत्व भी सर्वसिद्ध है। गौतम स्मृति में कुल चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख किया गया है, वहीं महर्षि अंगिरा ने पच्चीस महत्वपूर्ण संस्कारों का उल्लेख किया है तथा व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन किया गया है जोकि आज भी मान्य है। माना जाता है कि मानव जीवन के आरंभ से लेकर अंत तक प्रमुख रूप से सोलह संस्कार करने चाहिए। वैदिक काल में प्रमुख संस्कारों में एक संस्कार गर्भाधान माना जाता था, जिसमें उत्तम संतति की इच्छा तथा जीवन को आगे बनाये रखने के उद्देश्य से तन मन की पवित्रता हेतु यह संस्कार करने के उपरांत पुंसवन संस्कार गर्भाधान के दूसरे या तीसरे माह में किया जाने वाला संस्कार गर्भस्थ शिशु के स्वस्थ्य और उत्तम गुणों से परिपूर्ण करने हेतु किया जाता था, गर्भाधान के छठवे माह में गर्भस्थ शिशु तथा गर्भिणी के सौभाग्य संपन्न होने हेतु यह संस्कार किये जाने का प्रचलन है। उसके उपरांत नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व जातकर्म करने का विधान वैदिक काल से प्रचलित है जिसमें दो बूंद घी तथा छ: बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर नौ मंत्रों का विशेष उच्चारण कर शिशु को चटाने का विधान है, जिससे शिशु के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की कामना की जाती थी। जिसके उपरांत प्रथम स्तनपान का रिवाज प्रचलित था। उसके उपरांत शिशु के जन्म के ग्यारवहें दिन नामकरण संस्कार करने का विधान है। यह माना जाता है कि ‘‘राम से बड़ा राम का नाम’’ अत: नामकरण संस्कार का महत्व जीवन में प्रमुख है। अत: यह संस्कार ग्यारहवें दिन शुभ घड़ी में किये जाने का विधान है। नामकरण के उपरांत निस्क्रमण संस्कार किया जाता है, जिसे शिशु के चतुर्थ माह के होने पर उसे सूर्य तथा चंद्रमा की ज्योति दिखाने का प्रचलन है, जिससे सूर्य का तेज और चंद्रमा की शीतलता शिशु को मिले, जिससे उसके व्यवहार में तेजस्व और विनम्रता आ सकें। उसके उपरांत अन्नप्राशन शिशु के पंाच माह के उपरांत किया जाता है जिससे शिशु के विकास हेतु उसे अन्न ग्रहण करने की शुरूआत की जाती है। चूड़ाकर्म अर्थात् मुंडन संस्कार पहले, तीसरे या पांचवे वर्ष में किया जाता है, जोकि शुचिता तथा बौद्धिक विकास हेतु किया जाता है। जिसके उपरांत विद्यारंभ संस्कार का विधान है जिसमें शुभ मुहूर्त में अक्षर ज्ञान दिया जाना होता है। उसके उपरांत कर्णेभेदन, यज्ञोपवीत तथा केशांत जिससे बालक वेदारम्भ तथा क्रिया-कर्मों के लिए अधिकारी बन सके अर्थात वेद-वेदान्तों के पढऩे तथा यज्ञादिक कार्यों में भाग ले सके। गुरु शंकराचार्य के अनुसार ‘‘संस्कारों हि नाम संस्कार्यस्य गुणाधानेन वा स्याद्दोशापनयनेन वा’’ अर्थात मानव को गुणों से युक्त करने तथा उसके दोषों को दूर करने के लिए जो कर्म किया जाता है, उसे ही संस्कार कहते हैं। इन संस्कारों के बिना एक मानव के जीवन में और किसी अन्य जीव के जीवन में विशेष अंतर नहींं है। ये संस्कार व्यक्ति के दोषों को खत्म कर उसे गुण युक्त बनाते हैं। महान विद्वान चाणक्य ने कहा था कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को सिर्फ प्यार से समझा कर सिखाना चाहिए। उन्हें ज़्यादा से ज़्यादा ज्ञान देने की कोशिश करना चाहिए। बाद में ये बात कई वैज्ञानिकों ने अपनी रिसर्च में साबित की कि 5 साल की उम्र तक बच्चों को जो भी सिखाया जाए वो हमेशा याद रहता है। लेकिन बच्चों को सिखाने की ये बात सिर्फ किताबों तक सीमित नहींं होनी चाहिए। बच्चे अक्षर या अंकों का ज्ञान तो लेंगे ही, लेकिन इसी उम्र में उनमें संस्कार और आचरण की नींव डालना भी बेहद ज़रूरी है। बच्चे कच्ची मिट्टी की तरह होते हैं, उन्हें जैसा रूप देना चाहें, दे सकते हैं। उनके अच्छे भविष्य और उन्हें बेहतर इंसान बनाने के लिए सही परवरिश जरूरी है। अधिकतर अभिभावक के लिए परवरिश का अर्थ केवल अपने बच्चों की खाने-पीने, पहनने-ओढऩे और रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करना है। इस तरह से वे अपने दायित्व से तो मुक्त हो जाते हैं लेकिन क्या वे अपने बच्चों को अच्छी आदतें और संस्कार दे पाते हैं, जिनसे वे आत्मनिर्भर और जिम्मेदार बन सकें।
हर बच्चा अलग होता है। उन्हें पालने का तरीका अलग होता है। बच्चों की सही परवरिश के लिए हालात के मुताबिक परवरिश की जरूरत होती है। सवाल यह है कि बच्चे के साथ कैसे पेश आएं कि वह अनुशासन में रहे और जीवन में सफलतापूर्वक अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें, सभी का सम्मान करें, अपने जीवन में सदाचार बनाये रखें। अक्सर अभिभावक इस बात को लेकर परेशान रहते हैं कि हम अपने बच्चों की परवरिश किस तरह से करें तो हम आपको बताते हैं आपके बच्चे की कुंडली में क्या योग बन रहे हैं और उन योगों के अनुसार आप अपने बच्चे के कौन से गुणों को उभार सकते हैं और कौन से ऐसे दोष हैं जिन्हें सुधारने की आवश्यकता हो सकती है या उसमें बदलाव लाना होगा। कुछ ऐसे ज्योतिषीय तरीके जो आपकी मदद करेंगे आपके बच्चे को योग्य और सामथ्र्यवान बनाने के साथ सुखी और खुशहाल बनाने में सहयोगी होते हैं। आप सबसे पहले अपने बच्चे की कुंडली किसी योग्य ज्योतिषाचार्य को दिखायें और देखें कि उसके जन्मांग में कौन-कौन से योग हैं जो उन्हें भटका सकते हैं और कौन से योग हैं जिन्हें उभारने की जरूरत है। जिनमें से देखें कि कुछ योग इस प्रकार हो सकते हैं-
* कुंडली में मंगल-शुक्र की युति के कारण बच्चों राह से भटकते है। कुंडली में शुक्र चन्द्र की युति से काल्पनिक होने से पढ़ाई में बाधा आती है तथा बच्चे-बच्चियों को अपोजिट सेक्स के प्रति आकर्षित करते हैं। चंद्रमा कमजोर हो तो बच्चा बहुत भावुक होता है। ऐसे बच्चो को कुछ स्वार्थी लोग बच्चे/बच्चियां ब्लैकमेल करते हैं।
* कुंडली में चन्द्र राहु की युति हो तो बच्चे के मन में खुराफातें उपजती हैं। चन्द्र राहु की युति होने से कई प्रकार के भ्रम आते हैं और उन भ्रमों से बाहर निकलना ही नहीं हो पाता है।
* मंगल शनि की युति हो और मंगल बहुत बली हो तो बच्चा किसी को भी हानि पहुँचाने से नहींं डरेगा। गुरु खराब हो, नीच, अस्त, वक्री हो तो बच्चा अपने माता-पिता, बड़े बुजुर्ग किसी की भी इज्जत नहींं करेगा।
* पांचवें भाव, पांचवें भाव का स्वामी और चंद्रमा भावनाओं को नियंत्रित करता है, अत: ये ग्रह खराब स्थिति में हों तो आत्मनियंत्रण में कमी होती है।
लग्न, पांचवें या सातवें भाव पर उनके प्रभाव से व्यक्ति अत्यधिक भावुक होता है।
* तीसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह और मंगल साहस का कारक हैं। यदि ये ग्रह छठे, आठवे या बारहवे स्थान में हों तो अतिवादी होने से लड़ाई होने की संभावना बहुत होती है।
* राहु तथा बारहवें और आठवें भाव के स्वामी सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* शुक्र, चंद्रमा, आठवें भाव लग्न या सातवें भाव के साथ जुड़ कर सुख के लिए मजबूत इच्छा को दर्शाता है।
* राहु, शुक्र और भावनाओं और साहस के कारकों के साथ जुडक़र प्यार के लिए जुनून दिखाता है। बच्चा उम्र की अनदेखी, सभी सामाजिक मानदंडों की अनदेखी कर सुख की इच्छाओं की पूर्ति के लिए प्रयास करता हैं। शुक्र और सप्तम घर की कमजोरी अतिरिक्त योगदान करता है। पंचम की स्थिति सातवें या आठवें भाव में हो तो विपरीत सुख के लिए झुकाव देता है। प्यार और लगाव के लिए जिम्मेदार ग्रह शनि, चंद्रमा, शुक्र और मंगल ग्रह और पंचम या सप्तम या द्वादश स्थान में होने से बचपन में ही स्थिति खराब हो जाती है।
* मोह, हानि, आत्महत्याओं के लिए अष्टम भाव को देखा जाता है। मन के संतुलन के हानि के लिए 12वां भाव और बुध गृह को देखना होता है। मन का भटकाव मंगल, राहु, बुध, शुक्र और चंद्रमा ग्रह की दशा और 5, 7वीं, 8वीं और 12वीं भाव के साथ संबंध हो तब होता है।
* आठवें भाव जो की वैवाहिक जीवन, विधवापन, पापों-घोटालों, यौन अंग, रहस्य मामलों तथा अश्लील हरकतों के लिए देखा जाता है।
* जब शनि और राहु की स्थिति विपरीत हो तो अनुशासन में रहना सिखाएं।
* बच्चा जब बड़ा होने लगता है तब ही से उसे नियम में रहने की आदत डालें। ‘‘अभी छोटा है बाद में सीख जाएगा यह रवैया खराब है।’’ उन्हें शुरू से अनुशासित बनाएं। कुछ पेरेंट्स बच्चों को छोटी-छोटी बातों पर निर्देश देने लगते हैं और उनके ना समझने पर डांटने लगते हैं, कुछ माता-पिता उन्हे मारते भी हैं। यह तरीका भी गलत है। वे अभी छोटे हैं, आपका यह तरीका उन्हें जिद्दी और विद्रोही बना सकता है। यदि आपके बच्चे की कुंडली में लग्र, द्वितीय, तीसरे या एकादश स्थान में शनि हो तो आपका बच्चा शुरू से ही जिद्दी होगा, अत: ऐसी स्थिति में उसे शुरू से ही अनुशासन में रहने की आदत डालें, इसके लिए उसे प्यार से समझाते हुए अनुशासित करें एवं उसकी जिद्द के उचित और अनुचित होने का भान कराते हुए भावनाओं को नियंत्रण में रखना सिखायें।
* जब तृतीयेश, छठे, आठवे या बारहवे स्थान में या क्रूर ग्रहों अथवा राहु से पापाक्रांत होकर बैठा हो तो उनके साथ दोस्ताना व्यवहार करें।
* अगर आपके बच्चे में यदि तीसरा स्थान कमजोर या नीच का होगा तो उसे कमजोर मनोबल वाला व्यक्तित्व देगा, जिससे यदि वह किसी गलत व्यक्ति के उपर भरोसा कर लें तो गलत आदतें सीख सकता है। अत: इसके लिए आप अपने बच्चे के स्वयं अच्छे दोस्त बनें और उसे साकारात्मक दिशा में प्रयास करने के लिए प्रेरित करें।
* यदि आपके बच्चे का लग्रेश और गुरू अथवा सूर्य या चंद्रमा कमजोर हो तो ऐसा जातक कमजोर आत्मविश्वास का होता है इसके लिए उसे आत्मनिर्भर बनाएं।
* बचपन से ही उन्हें अपने छोटे-छोटे फैसले खुद लेने दें। जैसे उन्हें डांस क्लास जाना है या जिम। फिर जब वे बड़े होंगे तो उन्हें सब्जेक्ट लेने में आसानी होगी। आपके इस तरीके से बच्चों में निर्णय लेने की क्षमता का विकास होगा और वे भविष्य में चुनौतियों का सामना डट कर, कर पाएंगे। ऐसे बच्चों को उसके छोटे-छोटे निर्णय लेने में सहयोग करें किंतु निर्णय उसे स्वयं करने दें। साथ ही ये शिक्षा भी दें कि क्या गलत है और क्या उनके लिए सही। इसके लिए उन्हें ग्रहों की शांति तथा मंत्रों के जाप का सहारा लेने की आदत डालें और सही गलत का फैसला स्वयं करने दें।
* यदि आपके बच्चे के एकादश एवं द्वादश स्थान का स्वामी विपरीत या नीच को हो तो गलत बातों पर टोकें।
* बढ़ती उम्र के साथ-साथ बच्चों की बदमाशियां भी बढ़ जाती है। जैसे- मारपीट करना, गाली देना, बड़ों की बात ना मानना आदि। ऐसी गलतियों पर बचपन से ही रोक लगा देना चाहिए ताकि बाद में ना पछताना पड़े। ऐसे बच्चों की कुंडली बचपन में देखें कि क्या आपके बच्चे का तीसरा, एकादश एवं पंचम स्थान दूषित तो नहींं है, ऐसी स्थिति में इन आदतों पर बचपन से काबू करने की कोशिश करें, इसके लिए कुंडली में ग्रहों की शांति का भी उपाय अपनायें।
* यदि दूसरे स्थान का स्वामी क्रूर ग्रह होकर कमजोर हो तो बच्चों के सामने अभद्र भाषा का प्रयोग ना करें।
* बच्चे नाजुक मन के होते हैं। उनके सामने बड़े जैसा व्यवहार करेंगे वैसा ही वे सीखेंगे। सबसे पहले खुद अपनी भाषा पर नियंत्रण रखें। सोच-समझकर शब्दों का चयन करें। आपस में एक दूसरे से आदर से बात करें। धीरे-धीरे यह चीज बच्चे की बोलचाल में आ जाएगी। कुंडली में स्थित कुछ योगों से पता चल सकता है की बच्चा किस प्रकार का है और उसी के अनुसार ही बच्चे पर ध्यान देना जरुरी है।
* इसके अलावा आप अपने बच्चे को शुरूआत से ही सामाजिक और पारिवारिक स्तर पर उसकी कुंडली के दोषों को दूर करने एवं गुणों को बढ़ाने के उपाय कर सकते हैं।
* मंगल-केतु के लिए बच्चे को खेलकूद में डालें, जिससे उसकी उर्जा का सही उपयोग होगा, जिससे उसमें लडऩे-झगडऩे की नौबत नहींं आयेगी और उसकी उर्जा का सदुपयोग होगा।
* बच्चों की कुंडली में यदि लग्र के दूसरे, तीसरे या पंचम स्थान में शुक्र, चंद्रमा या राहु हो तो इस तरह के योग में उसे संगीत, डांस, पेंटिंग आदि किसी कला में डाले, जिससे भटकाव की संभावना कम होगी।
* यदि आपके बच्चे की कुंडली में गुरू विपरीत स्थान में हो तो उसे बड़ों का आदर करना सिखाएं, अपने बुजुर्गों का आदर करने से गुरु ग्रह मजबूत होगा।
जीवन में अनुशासन बनाये रखने एवं सही मार्ग पर बने रहने के लिए भगवान हनुमान और गणेश की पूजा, हनुमान चालीसा का पाठ तथा ध्यान करने की आदत डालें।
इस प्रकार बचपन से ही बच्चों की सही परवरिश में यदि जन्म कुंडली का सहारा लिया जाकर उसके ग्रहों के दोषों के अनुरूप प्रयास किया जाए तो आपका बच्चा ना केवल एक अच्छा नागरिक बनेगा अपितु सफलता की हर उचाई को भी छू लेगा। इसके साथ वयस्क होते बच्चे की कुंडली में यदि राहु-शुक्र या शनि की दशा चले तो भृगुकालेन्द्र पूजा करायें।

संवेदनशील चरित्र

मनुष्य के लिए जितने महत्वपूर्ण उसके शरीर तथा परिवेश के परिवर्तन होंगे, उतनी ही गहन उसकी भावनाएं होंगी। संवेगों के साथ श्वास और नाड़ी की गति में परिवर्तन आते हैं (उदाहरण के लिए, उत्तेजना के मारे आदमी हांफ सकता है, उसकी सांस रुक सकती है, उसका दिल बैठ सकता है), शरीर के विभिन्न भागों में रक्त का संचार घट-बढ़ जाता है (मुंह का शर्म से लाल हो जाना या डर से पीला पड़ जाना), अंत:स्रावी ग्रंथियों की क्रिया प्रभावित होती है (दुख के मारे आंसू निकलना, उत्तेजना के मारे गला सूखना, डर के मारे पसीना छूटना)। आंतरिक अंगों की इन सभी प्रक्रियाओं को मनुष्य खुद आसानी से देख सकता है, महसूस कर सकता है और दर्ज कर सकता है। इसीलिए बहुत समय तक उन्हें ही संवेगों का कारण माना जाता था। हम आज भी ‘पत्थरदिल’. ‘दिल जलाना’, ‘दिल जीतना’, ‘दिल देना’ आदि मुहावरे इस्तेमाल करते हैं।
संवेदनशील चरित्र की विशेषताएं हैं भीरूता, मन की बात मन में रखना, शर्मीलापन। संवेदनशील किशोर अधिक, खास तौर पर नये संगी-साथियों से कतराते हैं, हमउम्रों की शरारतों के ऐसे साहसिक कार्यों में भाग नहींं लेते, जिनमें जोखिम उठाना पड़ता है, वे छोटे बच्चों के साथ खेलना पसंद करते हैं। वे परीक्षाओं से डरते हैं, बहुधा कक्षा में उत्तर देने से इसलिए डरते हैं कि कहीं उनसे गलती न हो जाए अथवा अपने उत्तर बहुत बढय़िा होने से वे अपने सहपाठियों की ईर्ष्या का पात्र न बन जाएं। किशोरों में अपनी त्रुटियों पर काबू पाने की सशक्त कामना का विशेष कारण होता है। वे उन क्षेत्रों में नहींं, जिनमें वे अपनी योग्यता प्रदर्शित कर सकते हैं, अपितु उन क्षेत्रों में अपने व्यक्तित्व की प्रतिष्ठापना करने का प्रयास करते हैं, जिनमें वे अपनी दुर्बलता अनुभव करते हैं। लड़कियां यह दिखाने का प्रयास करती हैं कि वे प्रफुल्लचित्त हैं। भीरू और शर्मीले बालक हेकड़ी और अकड़ की मुद्रा अपनाते हैं तथा अपनी स्फूर्ति और इच्छा-शक्ति का प्रदर्शन करने का प्रयत्न करते हैं। परंतु जब स्थिति उनसे साहसपूर्ण संकल्प की अपेक्षा करती है, तो उनका तुरंत दम सूख जाता है। अगर कोई उनका विश्वास पाने में सफल हो जाए और वे यह अनुभव करने लगें कि मिलनेवाले की उनसे सहानुभूति है और वह उनका समर्थन कर रहा है, तो वे ‘मैं किसी की परवाह नहींं करता’ का मुखौटा उतार फैकते हैं और उनका कोमल तथा संवेदनशील चित्त, अपने से हद से ज़्यादा कठोर अपेक्षाएं करने की उनकी भावना, आत्म-भर्त्सना तथा आत्म-ताडऩा से परिपूर्ण उनका जीवन, सब कुछ प्रकट हो जाता है। अप्रत्याशित रुचि तथा सद्भावना हेकड़ी और अक्खड़पन को सहसा अविरल अश्रुधारा में बदल सकती है।

Pt.P.S.Tripathi
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