Wednesday, 10 February 2016

राहुकाल



ज्योतिष शास्त्र में हर दिन को एक अधिपति दिया गया है। जैसे- रविवार का सूर्य, सोमवार का चंद्र, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, बृहस्पतिवार का गुरु, शुक्रवार का शुक्र व शनिवार का शनि। इसी प्रकार दिन के खंडों को भी आठ भागों में विभाजित कर उनको अलग-अलग अधिष्ठाता दिये गये हैं। इन्हीं में से एक खंड का अधिष्ठाता राहु होता है। इसी खंड को राहुकाल की संज्ञा दी गई है। राहुकाल में किये गये काम या तो पूर्ण ही नहीं होते या निष्फल हो जाते हैं। इसीलिए राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि इस समय में किये गये कार्यों में अनिष्ट होने की संभावना रहती है। लेकिन मुख्यतः ऐसा माना जाता है कि राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए और यदि कार्य का प्रारंभ राहुकाल के शुरु होने से पहले ही हो चुका है तो इसे करते रहना चाहिए क्योंकि राहुकाल को केवल किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ करने के लिए अशुभ माना गया है ना कि कार्य को पूर्ण करने के लिए। राहुकाल में घर से बाहर निकलना भी अशुभ माना गया है लेकिन यदि आप किसी कार्य विशेष के लिए राहुकाल प्रारंभ होने से पूर्व ही निकल चुके हैं तो आपको राहुकाल के समय अपनी यात्रा स्थगित करने की आवश्यकता नहीं है। राहुकाल का विशेष प्रचलन दक्षिण-भारत में है और इसे वहां राहुकालम् के नाम से जाना जाता है। यह उत्तर भारत में अब काफी प्रचलित होने लगा है एवं इसे मुहूर्त के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। राहु को नैसर्गिक अशुभ कारक ग्रह माना गया है, गोचर में राहु के प्रभाव में जो समय होता है उस समय राहु से संबंधित कार्य किये जायें तो उनमें सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। इस समय राहु की शांति के लिए यज्ञ किये जा सकते हैं। इस अवधि में शुभ ग्रहों के लिए यज्ञ और उनसे संबंधित कार्य को करने में राहु बाधक होता है शुभ ग्रहों की पूजा व यज्ञ इस अवधि में करने पर परिणाम अपूर्ण प्राप्त होता है। अतः किसी कार्य को शुरु करने से पहले राहुकाल का विचार कर लिया जाए तो परिणाम में अनुकूलता की संभावना अधिक रहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस समय शुरु किया गया कोई भी शुभ कार्य या खरीदी-बिक्री को शुभ नहीं माना जाता। राहुकाल में शुरु किये गये किसी भी शुभ कार्य में हमेशा कोई न कोई विघ्न आता है, अगर इस समय में कोई भी व्यापार प्रारंभ किया गया हो तो वह घाटे में आकर बंद हो जाता है। इस काल में खरीदा गया कोई भी वाहन, मकान, जेवरात, अन्य कोई भी वस्तु शुभ फलकारी नहीं होती। दक्षिण भारत के लोग राहुकाल को अत्यधिक महत्व देते हैं। राहुकाल में विवाह, सगाई, धार्मिक कार्य, गृह प्रवेश, शेयर, सोना, घर खरीदना अथवा किसी नये व्यवसाय का शुभारंभ करना, ये सभी शुभ कार्य राहुकाल में पूर्ण रूपेण वर्जित माने जाते हैं। राहुकाल का विचार किसी नये कार्य का सूत्रपात करने हेतु नहीं किया जाता है, परंतु जो कार्य पहले से प्रारंभ किये जा चुके हैं वे जारी रखे जा सकते हैं। राहुकाल गणना के लिए दिनमान को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। यदि सूर्योदय को सामान्यतः प्रातः 6 बजे मान लिया जाये और सूर्यास्त को 6 बजे सायं तो दिनमान 12 घंटों का होता है। इसे आठ से विभाजित करने पर एक खंड डेढ़ घंटे का होता है। प्रथम खंड में राहुकाल कभी भी नहीं होता। सोमवार का द्वितीय खंड राहुकाल होता है, इसी प्रकार शनिवार को तृतीय खंड, शुक्रवार को चतुर्थ, बुधवार को पंचम खंड, गुरुवार को छठा खंड मंगलवार को सप्तम खंड और रविवार को अष्टम खंड राहुकाल का होता है। राहुकाल केवल दिन में ही माना गया है। लेकिन कुछ विद्वान रात्रिकाल के लिए भी इसकी गणना करते हैं। रात्रि में वही खंड राहुकाल होता है जो दिन में होता है। यदि सोमवार को 07:30 से 9 बजे तक राहुकाल होता है तो रात्रि में भी सायं 07:30 से 9 बजे तक राहुकाल होगा। सूक्ष्म गणना मे सूंर्योदय व सूर्यास्त का सही समय लेना चाहिए और उसके अनुसार दिनमान व राहुकाल की गणना करनी चाहिए। चूंकि सूर्योदय व सूर्यास्त प्रतिदिन बदलते रहते हैं अतः राहुकाल का समय भी प्रतिदिन बदलता रहता है। इसी प्रकार सूर्योदय व सूर्यास्त स्थान के अक्षांश, रेखांश के अनुसार भी बदलते रहते हैं। अतः राहुकाल स्थान व दिनांक दोनों के अनुरूप बदलता रहता है। कुछ विद्वानों का मानना है कि राहुकाल के लिए अर्द्ध बिंब का सूर्योदय व सूर्यास्त का समय लेना चाहिए न कि बिंब स्पर्श होने का। दूसरे ऐसा भी मानना है कि सूर्योदय आदि के लिए दर्शित सूर्योदय काल नहीं लेना चाहिए बल्कि ज्यामितीय सूर्योदय काल लेना चाहिए जिसमें कि परावर्तन और ऊंचाई आदि की शुद्धि नहीं की गई हो। इनका ऐसा मानना है कि ज्यामितीय सूर्योदय सूर्य दर्शन के बाद में होता है। लेकिन परावर्तन के कारण सूर्य कुछ मिनट पूर्व ही दिखने लगता है। ज्योतिषीय गणनाओं में हमें दर्शन काल न लेकर, ग्रहों के मध्य से रेखा खींचकर गणना करनी चाहिए।राहुकाल का कुछ दिनों पर ज्यादा प्रभाव होता है, जैसे- शनिवार को इसका प्रभाव सर्वाधिक माना गया है। क्योंकि शनिवार को इसका काल लगभग 9:00 से 10:30 बजे तक होता है और यही समय होता है एक आम आदमी का अपने व्यवसाय पर जाने या कार्य शुरु करने का। अतः इस दिन राहुकाल का विशेष ध्यान रखना लाभकारी रहता है। मंगलवार, शुक्रवार व रविवार को भी राहुकाल विशेष प्रभावशाली माना गया है।

future for you astrological news rishto ka acount and kundli 10 02 2016

future for you astrological news swal jwab 2 10 02 2016

future for you astrological news swal jwab 1 10 02 2016

future for you astrological news swal jwab 10 02 2016

future for you astrological news rashifal dhanu to meen 10 02 2016

future for you astrological news rashifal kark se scorpio 10 02 2016

future for you astrological news rashifal mesh to mithun 10 02 2016

future for you astrological news panchang 10 02 2016

Tuesday, 9 February 2016

ज्योतिष में अनुसंधान और पुनरुथान

ज्योतिष में पुनरुथान को तीन भागों में बंटा जा सकता है
ज्योतिष के मूल नियम: प्रत्येक ग्रह, भाव, या राशि को ज्योतिष में किसी न किसी का कारक माना गया है, जैसे सूर्य को आखों का, तो चंद्र को मन का, प्रथम भाव को तन का, तो द्वितीय भाव को धन का, मेष को क्रोधी, तो वृष को मेहनती आदि। इसी प्रकार ग्रहों के अपने घर, उनकी मित्रता, उच्च-नीच अंश, दृष्टियां आदि अनेक ऐसे नियम हैं, जो ज्योतिष सीखने की पहली सीढ़ी पर सिखा दिये जाते हैं और सारी ज्योतिष इन्हीं बिंदुओं के चारों ओर चलती रहती है। लेकिन इन नियमों का क्या आधार है, यह शायद कोई नहीं जानता। कुछ विद्वान इन नियमों को केवल किसी कहानी, या किसी बेतार के तार द्वारा जोड़ने की कोशिश करते हैं, जिससे सभी विद्वान सहमत नहीं होते और बुद्धिजीवी, या वैज्ञानिक उन तर्कों को बिल्कुल ही नहीं मानते।
कोई आधार न होने के कारण मूल नियमों में भी विवाद देखने में मिलता है, जैसे पिता के लिए नवां भाव देखें, या दशम लग्न नवें से पंचम होता है, अतः नवम् भाव पिता का हुआ। इसी प्रकार दशम भाव चतुर्थ से सप्तम, अर्थात माता के पति (पिता) को दर्शाता है। वर और कन्या दोनों मंगलीक हों, तो दोष कैसे कट जाता है, बढ़ता क्यों नहीं? उच्च का मंगल दोषहीन है, तो नीच का मंगल क्या है? कौन सी दशा से फलित किया जाए? विंशोत्तरी दशा का इतना महत्व क्यों? ग्रहों के दशामान कैसे स्थापित किये गये हैं? न तो यह उनकी दूरी, न उनके वजन और न उनके परिभ्रमण काल के अनुसार हैं।इस प्रकार ज्योतिष के आधार के बारे में ज्योतिष में बहुत ही कम, या न के बराबर ज्ञान उपलब्ध है। यदि इस का आधार मालूम पड़ जाए, तो बहुत सारी गुत्थियां सुलझ सकती हैं। लेकिन यह काम कठिन है।
ज्योतिष योग
ज्योतिष के मूल नियमों का उपयोग करते हुए हजारों ज्योतिष योग हजारों प्रकार के उत्तर देते हैं, जैसे लग्न का सूर्य मनुष्य को ख्याति देता है; द्वितीय भाव में शुभ ग्रह धन देता है; सप्तम में बुध धनवान ससुराल देता है; या दशम में मंगल डाक्टर और बुध इंजीनियर बनाता है आदि।यह योग कितने ठीक हैं और कौनसा योग देख कर हम निश्चयता से फलित कथन कर सकते हैं? बहुत सारे नये नियमों की आवश्यकता है, जो पुराने ग्रंथो में नहीं थे। जैसे जातक केवल यह नहीं जानना चाहता कि वह डाक्टर बनेगा, या नहीं? वह यह भी जानना चाहता है कि उसकी विशेषज्ञता किसमें होगी? मंत्री जी यह जानना चाहते हैं कि उनको कौनसा विभाग मिलेगा, या कौनसा विभाग उनके लिए उत्तम रहेगा? व्यापारी अपने लिए उत्तम कारोबार की दिशा जानना चाहता है। इस नये युग में बहुत सारे विकल्प हैं और हर विकल्प के लिए ग्रहों के कारक पूर्णरूपेण इंगित नहीं देते। अतः कौनसे ग्रहों के कौनसे योग कितने हद तक फलदायी हैं, इस पर अनुसंधान आवश्यक है।
यदि कुंडली में कुछ कष्ट हैं, तो जातक उनसे निवारण भी अवश्य चाहता है। रत्न, मंत्र, जड़ी-बूटी, दान, पूजा इत्यादि अनेक उपाय हैं। कौनसा उपाय करना चाहिए और कौनसे ग्रह के लिए? ज्योतिष पूर्ण मानव जाति के लिए है, तो दूसरे धर्म के जातक किस प्रकार के उपाय करें? उनके धर्म में तो हिंदू देवी-देवता नहीं हैं; अर्थात पूजा-पाठ का आधारभूत नियम क्या है और इससे जीवन को कैसे खुशहाल बनाया जा सकता है?
उपायों पर अनुसंधान करने में मूल परेशानी एक और भी है। यह कैसे मालूम पड़े कि कार्य सफल हुआ, तो उपाय के कारण हुआ, या उसे सफल होना ही था। इसको सिद्ध करने के ज्योतिषीय नियम बहुत ही पक्के होने चाहिएं। तभी हम सांख्यिकी द्वारा इसका निष्कर्ष निकाल पाएंगे। ज्योतिष में अनुसंधान शुरू करने के लिए ज्योतिष के योगों पर अनुसंधान करना ही उत्तम है। जब हम इस दिशा में परिपक्व हो जाएं, तब मूल नियम एवं उपाय पर शोध किये जा सकते हैं। ज्योतिषीय योगों पर शोध कार्य को निम्न भागों में बांटा जा सकता है:
शोध विषय का चुनाव: विषय केंद्रित और लक्षित होने चाहिएं, जैसे डाक्टर बनने के क्या योग हैं, न कि व्यवसाय का चयन कैसे हो? शास्त्रों में विषय विशेष पर प्राप्त नियमों का संकलन। संबंधित एवं असंबंधित जन्मपत्रियों का संकलन। ये जितने अधिक हों, उतना अच्छा है। लेकिन 200 से 500 तक अवश्य हों। शास्त्रों से प्राप्त नियमों का आंकड़ों पर प्रयोग कर, नियम एवं फल का संबंध ज्ञात करना एवं नये नियम प्रस्तावित करना। शोध पत्र लिखना एवं शोध कार्य का फल चाहे सूत्रों को सही बताता हो, या गलत, पत्रिकाओं में छपवा कर जनसाधारण तक पहुंचाना। इस प्रकार किया गया शोध कार्य समय एवं ऊर्जा अवश्य लेगा। लेकिन यह वैज्ञानिकों को भी अवश्य मान्य होगा। इसके द्वारा हम ज्योतिष शास्त्र की वैज्ञानिकता को भी सिद्ध कर पाएंगे।

कैलेंडर व् पंचांग में भिन्नता क्यूँ

आधुनिक (ग्रेगोरियन) कैलेंडर में प्रति चार वर्ष पश्चात एक लीप वर्ष होता है, 100 वर्ष पश्चात लीप वर्ष नहीं होता एवं 400 वर्ष पश्चात पुनः लीप वर्ष होता है। इस प्रकार वर्ष मान 365.2425 दिनों का होता है जो कि सायन वर्ष मान 365.2422 के बहुत करीब है और केवल 3000 वर्षों बाद 1 दिन का अंतर आता है।
कैलेंडर की तुलना में पंचांग में सूर्य, चंद्र आदि के राशि प्रवेश व तिथि, योग, करण आदि की गणना दी जाती है। राशि अर्थात् तारों के परिपे्रक्ष्य में जब हम ग्रहों को देखते हैं, तो वह उसकी निरयण स्थिति होती है। निरयण वर्ष मान 365.2563 दिनों का होता है जो कि सूर्य के एक राशि में प्रवेश से अगले वर्ष उसी राशि में प्रवेश का काल है। यह सायन वर्ष से .0142 दिन बड़ा है। इस प्रकार 100 वर्षों में 1.42 दिनों का अंतर आ जाता है। पंचांग प्रति 100 वर्षों से कैलेंडर से लगभग डेढ़ दिन आगे खिसक जाता है। इस कारण मकर संक्रांति व लोहड़ी आदि में अंतर आ जाता है और हिंदू पर्व, जो तिथि के अनुसार मनाए जाते हैं, धीरे-धीरे आगे खिसकते जाते हैं। सायन व नियरण गणना क्या होती है और दोनों में क्या अंतर है? पृथ्वी अपनी धुरी पर सूर्य की परिक्रमा क्रांतिवृत्त पर लगाती है। लेकिन यह लगभग 23.40 झुकी रहती है। पृथ्वी के इस झुकाव के कारण ही गर्मी व सर्दी पड़ती हंै। झुकाव के कारण पृथ्वी का जो भाग सूर्य के सीधे सामने आ जाता है वहां गर्मी हो जाती है। क्योंकि ऋतुएं, अयन व सूर्योदय आदि पृथ्वी के झुकाव के कारण होते हैं न कि पृथ्वी की परिक्रमा के कारण, अतः कैलेंडर सायन बनाया जाता है। पृथ्वी का भूमध्य वृत्त क्रांतिवृत्त के साथ एक रेखा पर काटता है, जिसका एक बिंदु वसंत विषुव व दूसरा शरद विषुव कहलाता है। यह रेखा पृथ्वी के अक्ष दोलन छनजंजपवदद्ध के कारण 50.3 प्रतिवर्ष की गति से पश्चिम की ओर खिसकती जाती है। पृथ्वी के पूर्ण 3600 चलने को निरयण और उसके पुनः उसी झुकाव में आने को सायन वर्ष कहते हैं। इस कारण शरद विषुव पर पृथ्वी को पुनः आने में 360 0 से लगभग 50’’ कम चलना पड़ता है। यह अंतर ही अयनांश कहलाता है।
सायन कैलेंडर व निरयण पंचांग 23 मार्च 285 को एक थे। तदुपरांत आज तक लगभग 24 दिनों का अंतर आ गया है। अतः चैत्र मास, जो फरवरी व मार्च में आता था, अब मार्च व अप्रैल में पड़ता है। ज्येष्ठ मास मई की बजाय जून में पड़ता है और यही कारण है कि अत्यधिक गर्मी, जो ज्येष्ठ मास में पड़ती थी, अब वैशाख में ही पड़ जाती है। इसी प्रकार वर्षा ऋतु भी, जो श्रावण व भाद्रपद में पड़ती थीं, अब आषाढ़़ व श्रावण में आती है। ऋतुएं सूर्य के कारण बनती हैं अतः सायन कैलेंडर के अनुसार ही सत्यापित होती हैं। निरयण पंचांग, राश्यानुसार होने के कारण, ऋतुओं के लिए पूर्ण ठीेक नहीं बैठता है। कोई भी गणना, जो सूर्य पर आधारित होती है, ग्रेगोरियन कैलेंडर पर सत्य बैठती है व पंचांग में खिसकती जाती है। इसी प्रकार है सूर्योदय व अयन गोल आदि। कैलेंडर के अनुसार 23 दिसंबर को सबसे छोटा दिन होता है व इसी दिन सूर्य उत्तारायण हो जाता है। लेकिन पंचांग तिथि या प्रविष्टे के अनुसार सूर्य मकर राशि में नहीं होता। कभी (वर्ष 285 में) लोहड़ी या मकर संक्रांति सबसे छोटा दिन होता था लेकिन आज नहीं होता।
क्या हमें कैलेंडर निरयण कर देना चाहिए? या क्या पंचांग सायन कर देना चाहिए? उत्तर एक ही है-नहीं। दोनों अपने स्थान पर ठीक हैं। कैलेंडर आम जनता के लिए बना है, उसका सायन होना ही ठीक है। इस कारण ऋतुएं व सूर्योदय आदि तारीख के अनुसार एक बने रहते हैं। पंचांग ज्योतिर्विदों के लिए है, उससे ग्रहों की स्थिति जानी जाती है व गणना की जाती है। ग्रहों की स्थिति राश्यानुसार ही जानी जाती है, अतः इस गणना का निरयण होना स्वाभाविक है। इसे सायन नहीं कर सकते। इसी कारण सभी पंचांग निरयण ही होते हैं। ग्रहों की गणना के लिए सूर्य को आधार लेकर फिर अयनांश घटाकर ग्रह स्पष्ट करना सुलभ है। अतः गणना के लिए प्रथम सायन गणना कर अयनांश घटाकर निरयण गणना कर ली जाती है। ग्रह स्पष्ट की सायन सारणियां मिलती हैं। लेकिन इसका तात्पर्य यह कदापि नहीं है कि ग्रह सायन गणनानुसार राशि में चल रहे हैं। सभी ग्रह आकाश मंडल में (तारों के परिप्रेक्ष्य में) निरयण गति के अनुसार ही चलते हैं और ज्योतिष, जो कि राशियों, नक्षत्रों पर आधारित है, पूर्णतया निरयण ही है। अतः जो गणनाएं की जा रही हैं, वे पूर्ण सत्य हैं, उन्हें गलत मानकर फेरबदल करने से केवल भ्रामक स्थितियां ही पैदा होती हैं। यदि कैलेंडर व पंचांग में मतभेद है, तो वह भी सत्य है।
पंचांगों के एकीकरण में एक आवश्यकता है - ग्रह स्पष्ट सिद्धांत को एक मानने की। कुछ पंचांग पूर्व प्रकाशित सूर्य सिद्धांत या अन्य सिद्धांतों से ही गणना करते हैं, जबकि आज के युग में, जब मानव उपग्रह द्वारा ग्रहों पर पहुंच गया है, तो आधुनिक गणना को गलत मानना केवल रूढि़वादिता है। यदि ज्योतिष का फलित इन गणनाओं से सही आता नहीं प्रतीत होता है, तो हमें फलित के सिद्धांत बदलने चाहिए न कि गणित को। फलित गणित का आधार नहीं हो सकता, गणित के आधार पर ही फलित के सूत्र होने चाहिए। सभी पंचांगों को अंतर्राष्ट्रीय मानक प्राप्त ग्रह स्पष्ट को सही मानकर कम्प्यूटर द्वारा गणना करनी चाहिए, ताकि पंचांगों में अंतर समाप्त हो और आम मनुष्य भ्रमित न हो।
अयनांश में मतभेद भी ग्रह स्पष्ट को एक नहीं होने देते। जब हम सायन और निरयण के भेद में चूक कर जाते हैं और विश्वास सहित जातक की लग्न या राशि नहीं बता सकते, तो अयनांश में मतभेद रखने से क्या लाभ। कुछ अयनांश केवल नाम के कारण चल रहे हैं। अंतर इतने कम हैं कि ज्योतिष के द्वारा इसका सत्यापन करना बिल्कुल मुमकिन नहीं है। अतः मतभेद को त्यागकर गणना के लिए चित्रापक्षीय अर्थात लहरी अयनांश ही अपनाना चाहिए। फलित कथन के अपने-अपने सूत्र बनाए जा सकते हैं व उसके लिए कुछ भी जोड़ा या घटाया जा सकता है।
पंचांग बनाने में दूसरी दिक्कत है पर्वों को लेकर एकमत न होने की। तिथि निर्णय में सूर्योदय की भूमिका अहम है। स्थान के अनुसार सूर्योदय बदल जाता है। यदि सूर्योदय के आसपास तिथि बदल रही हो, तो स्थान के अनुसार तिथि में परिवर्तन आ जाता है और पंचांग में भी। तिथि जन्य पर्वों में भी अंतर आ जाता है। अतः हमें मुख्य पर्वों का इतिहास के अनुसार स्थान निश्चित कर देना चाहिए। उस स्थान व तिथि के अनुसार ही पर्व की गणना करनी चाहिए। सभी जगह उस तारीख पर ही वह पर्व मनाना चाहिए, चाहे वहां तिथि या नक्षत्र कोई भी हो। धर्म ग्रंथों में पर्व के साथ स्थान का उल्लेख नहीं है, लेकिन तिथि के अनुसार पर्व की गणना करना अनुचित है।
कभी-कभी एक पर्व दो तारीखों को पड़ता है। ऐसा अक्सर जन्माष्टमी व दीपावली के साथ होता है। कारण है दोनों पर्वों में मध्यरात्रि कालीन तिथि, नक्षत्र आदि का लिया जाना। प्रायः प्रातःकाल में तिथि दूसरी होती है। अतः गणना के लिए केवल तिथि के अनुसार पर्व की गणना कर देने के कारण यह अंतर आता है। यदि पर्व की गणना विधिवत् की जाए, तो इस प्रकार के अंतर नहीं आएंगे। हिंदू धर्म ग्रंथों में पर्व गणना के लिए विस्तृत सूत्र उपलब्ध हैं, जिससे गणना में कोई संदेह मुमकिन नहीं है।

प्लूटो अब केवल लघु ग्रहों की श्रेणी में

24 अगस्त 2006 को प्राग अंतर्राष्ट्रीय खगोल संघ के 2500 से अधिक खगोलविदों के पुनर्विचार एवं पुनर्परिभाषा के कारण प्लूटो को अब केवल लघु ग्रहों की श्रेणी में स्थापित कर दिया गया है।
पहले भी 1801 में सेरेस नामक लघु ग्रह की खोज हुई थी और उस समय इसे आठवें ग्रह के रूप में स्थापित किया गया था। बीस वर्ष पश्चात यूरेनस की खोज हुई और उसके बाद अन्य अनेक नए ग्रहों की। लगभग 1850 में सेरेस को भी ग्रह की श्रेणी से हटाकर उल्का पिंड की श्रेणी में डाल दिया गया था।
जेना को भी ग्रह का स्थान दिया जाना चाहिए था जो नहीं दिया गया है जबकि वह भी अन्य ग्रहों की भांति सूर्य की परिक्रमा करता है।
प्लूटो को नयी लघु ग्रह की श्रेणी में डालने के निम्नलिखित कारण थे:-
जैसे-जैसे टेलिस्कोप की शक्ति बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे सूक्ष्म ग्रहों का पता चलता जा रहा है। सेडना आदि इसी प्रकार के ग्रह हैं। सभी खगोलीय पिंडों को ग्रह की मान्यता देने से उनका महत्व क्षीण हो जाता है।
मंगल एवं गुरु के बीच में हजारों उल्का पिंड हैं। वे भी सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते रहते हैं। सूक्ष्म आकार होने के कारण उन्हें भी ग्रहों की श्रेणी से बाहर रखा गया है।
प्लूटो अति दूरस्थ एवं अति सूक्ष्म ग्रह है। इसका व्यास चंद्रमा से भी छोटा है।
इसका परिक्रमा चक्र वृत्ताकार न होकर एक वृत्त में टेढ़ा मेढ़ा है।
प्लूटो पृथ्वी की सतह पर भ्रमण न कर के उसके एक कोण पर भ्रमण करता है।
प्लूटो का परिक्रमा पथ इतना दीर्घ वृत्ताकार है कि वह नेप्च्यून के परिक्रमा पथ को भी पार कर पुच्छल तारे का स्वरूप प्राप्त कर लेता है।
ये ही कुछ मुख्य कारण हैं कि प्लूटो को लघु ग्रह का दर्जा दिया गया है। इस निर्णय से आम जनता के मन में प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि क्या अब ज्योतिष के नियमों को भी बदलना पड़ेगा और प्लूटो को अब किस प्रकार से ज्योतिष में समायोजित किया जाएगा? यहां पर यह बताना आवश्यक है कि ज्योतिष में ग्रह की परिभाषा एवं खगोल शास्त्र में ग्रह की परिभाषा में अंतर है। ज्योतिष के अनुसार ग्रह ब्रह्मांड में वह बिंदु है, जिसका असर पृथ्वी मंडल पर एवं मनुष्य जीवन पर देखा या महसूस किया जा सकता है जबकि खगोल शास्त्र में ग्रह सौरमंडल का वह पिंड है, जो सूर्य की परिक्रमा करता रहता है एवं अपनी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के कारण गोल होता है।ग्रह की ज्योतिषीय परिभाषा खगोल शास्त्र के ग्रह ;च्संदमजद्ध से भिन्न है। राहु-केतु, सूर्य एवं चंद्र को ज्योतिष में ग्रह का दर्जा दिया गया है जबकि खगोलशास्त्र में इन्हें क्रमानुसार छाया ग्रह ;तारा का स्थान दिया गया है। ज्योतिष खगोल पर आधारित होते हुए भी खगोल की ग्रह की परिभाषा से विमुक्त है।
ज्योतिष को इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि कितने और नए ग्रह खोज लिए गए हैं। क्योंकि ये सभी ग्रह तो सदा से ही मौजूद हैं। खोज के द्वारा केवल जानकारी ही प्राप्त की गई है। ज्योतिष में असर केवल तब पड़ सकता है जब कोई ग्रह नष्ट हो जाए या कोई नया उत्पन्न हो जाए।
समुद्र जब मीठा हो गया: 18 अगस्त की रात को अचानक ही माहिम खाड़ी में समुद्र का मीठा हो जाना किसी आश्चर्य से कम नहीं था। हजारों श्रद्धालु उमड़ पड़े और मन्नतें मांगने लगे। वैज्ञानिक जांच में भी पानी को मीठा पाया गया।
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ऐसा तब होता है जब बहुत वर्षा हो और समुद्र में भाटा हो जिसके कारण स्वच्छ जल समुद्र की ओर एकत्रित हो जाए। उस दिन भी कुछ ऐसा ही हुआ। मीठी नदी ने, जो वर्षा के कारण लबालब भरी थी, समुद्री भाटा के कारण समुद्र का खारापन कम कर दिया या कुछ समय के लिए बिलकुल खत्म कर दिया।
ज्योतिष के परिपेक्ष में अधिक वर्षा का योग तब बनता है जब मंगल कर्क या सिंह राशि में हो एवं सूर्य उसके साथ हो। ज्वार का योग चंद्रमा के चैथे एवं दशम भाव में स्थित होने से बनता है। यदि सूर्य भी चंद्रमा के साथ हो या सम्मुख हो अर्थात अमावस्या या पूर्णिमा के दिन मध्य रात्रि को या दोपहर को जब सूर्य और चंद्र दोनों ही चैथे या दशम भाव में होते हैं, तो वे समुद्री जल को अपनी ओर खींचते हैं जिससे अधिकतम ज्वार उत्पन्न होता है। इसी प्रकार जब लग्न या सप्तम में चंद्र स्थित होता है, तो भाटा उत्पन्न होता है। लेकिन उस दिन यह परिस्थिति अधिक फलदायी थी क्योंकि सूर्य एवं मंगल दोनों सिंह राशि में स्थित थे एवं शनि और गुरु सूर्य के दोनों ओर स्थित थे। इस कारण वर्षा अधिक हुई और मध्यरात्रि को जब चंद्र लग्न भाव में आया तो समुद्र में भाटा उत्पन्न हुआ एवं नदी का जल समुद्र में जा मिला। ऐसी स्थिति अनेक वर्षों में एक बार उत्पन्न होती है लेकिन ज्योतिष द्वारा इसका पूर्वानुमान अवश्य ही संभव है।

नए ग्रहों एवं राशियों की खोज पर ज्योतिष पर प्रभाव

हाल ही में प्लूटो के आगे 10वें ग्रह की खोज की गई है। खगोलज्ञों ने कैलिफोर्निया की पालोमर वेधशाला में सेडना नामक 10वें ग्रह का पता लगाया है। यह ग्रह पृथ्वी से 13 अरब कि.मी. दूर है। इसका व्यास लगभग 1200 कि.मी. है। इसका रंग मंगल से भी अधिक लाल है। प्लूटो की तुलना में सूर्य से इसकी दूरी तीन गुना अधिक है और आकार में लगभग उससे आधा है। दशम ग्रह की खोज ने एक बार फिर ज्योतिषियों को झकझोड़ डाला है और उन्हें इस पर पुनर्विचार करने को बाध्य कर दिया है कि सत्य क्या है। बुद्धिजीवियों का मानना है कि इस प्रकार की खोजों से ज्योतिष को नई परिभाषा देनी पड़ेगी और जो आज तक की ज्योतिषीय गणना है वह सब गलत है।
इसी प्रकार खगोलविद बताते हैं कि भचक्र में केवल 12 राशियां नहीं अपितु 13 राशियां हैं। तेरहवीं राशि वृश्चिक और धनु के बीच है जो ओफियूकस के नाम से जानी जाती है और राॅयल एस्ट्राॅनाॅमिकल सोसाइटी भी सन् 1995 में इसके अस्तित्व की पुष्टि कर चुकी है। सत्य क्या है? ज्योतिष की इस बारे में क्या मान्यताएं हैं? क्या ज्योतिष के नियमों को दोबारा लिखने की आवश्यकता है? सत्य यह है कि 10वां ग्रह हो या 13वीं राशि, यह केवल खोज है, नए ग्रह एवं राशियां उत्पन्न नहीं हुए हैं जो ज्योतिष को बदल दें। आसमान में अरबों तारे हैं जबकि ज्योतिष में केवल 9 ग्रहों की गणना के आधार पर ही भविष्यकथन किया जाता है और ये 9 ग्रह भी वे ग्रह नहीं हंै जो सूर्य के चारों ओर चक्कर लगाते हैं।
ज्योतिष में चंद्रमा, जो पृथ्वी का उपग्रह है, को भी अन्य ग्रहों से अधिक मान्यता दी गई है। इसी प्रकार से ज्योतिष में सूर्य को भी एक ग्रह के रूप में ही मान्यता मिली है एवं छाया ग्रह राहु और केतु को भी ग्रहों की श्रेणी में ही रखा गया है। ज्योतिष में ग्रह का अर्थ है वह बिंदु जिसका मनुष्य के जीवन पर प्रभाव पड़ता है जबकि खगोल में ग्रह वह आकाशीय पिंड हंै जो सूर्य के चारों ओर घूमते हंै। वैदिक ज्योतिष में केवल 9 ग्रहों को ही मान्यता दी गई है जिनमें यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो शामिल नहीं हंै। आधुनिक ज्योतिष में इनको सम्मिलित किया गया है लेकिन इनका प्रभाव काफी कम देखने में आया है। इसका कारण एक तो उनकी पृथ्वी से दूरी एवं दूसरा उनका छोटा आकार है। मुख्यतः किसी ग्रह का असर उसके गुरुत्वाकर्षण के कारण होता है जो द्रव्यमान के सीधे अनुपाती एवं दूरी के वर्ग के विलोमानुपाती होता है| इस कारणवश यूरेनस का प्रभाव शनि से केवल 4 प्रतिशत ही होता है और नेप्च्यून और प्लूटो का और भी कम हो जाता है। प्लूटो का प्रभाव तो शनि के मुकाबले हजारवां हिस्सा ही होता है।
अब यदि सेडना की गणना करें तो उसका प्रभाव प्लूटो से भी 10 गुना कम होगा। अन्य पिंडों का प्रभाव सेडना से और भी बहुत कम होता है। यही कारण है कि इनके प्रभाव को हम ज्योतिष में अधिक महत्व नहीं देते हैं। दूसरा कारण है पिंडों की सूर्य से दूरी जिसके कारण उनकी सूर्य की परिक्रमा की अवधि बहुत अधिक हो जाती है। जैसे यूरेनस की 88 वर्ष, नेप्च्यून की 160 वर्ष एवं प्लूटो की 248 वर्ष। ज्योतिष में हम ग्रह के उसी राशि एवं अंश पर आने के प्रभाव का अध्ययन करते हैं। मनुष्य के जीवन में यूरेनस, नेप्च्यून और प्लूटो पुनः उसी राशि एवं अंश पर नहीं आ पाते। इसी कारण उन्हें पूर्ण महत्व नहीं दिया जाता। ज्योतिष में भचक्र को 12 बराबर भागों में बांटकर राशियां बनाई गई हैं। भचक्र सर्वदा 360 अंशों का ही रहेगा चाहे उसमें 12 भाग किए जाएं या अन्य कुछ और।
राशि के इन अंशों के पीछे जो भी तारा समूह दिखाई दिया उसका एक नाम दे दिया गया। लेकिन यह आवश्यक नहीं कि यह तारा समूह पूरे अंशों में फैला हो या अपनी सीमा से बाहर न जा रहा हो। राशि केवल एक गणितीय गणना है और उसे व्यावहारिक रूप देने के लिए तारा समूह को नाम एवं आकार दिया गया है। अतः हम इन 360 अंशों के मध्य कोई नया समूह खोज लें या उसके और अधिक भाग कर दें इससे ज्योतिषीय भविष्यकथन पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता। भारतीय ज्योतिष में इस भचक्र को न केवल 12 भागों में बांटा गया है अपितु 27 नक्षत्रों में भी बांटा गया है जो चंद्रमा की प्रतिदिन की गति को दर्शाते हैं। चंद्रमा लगभग 27 दिनों में भचक्र का पूरा चक्कर लगा लेता है एवं प्रतिदिन एक नक्षत्र आगे बढ़ जाता है। इसी तरह सूर्य भी 365 दिनों में 12 राशि आगे चलता है एवं एक माह में एक राशि पार कर लेता है।
हमारे ऋषियों को इन सभी पिंडों के बारे में पूर्व जानकारी थी लेकिन उन्होेंने ज्योतिष को एक यथार्थ रूप देने के लिए केवल उन ग्रहों एवं राशियों का चयन किया जिनका मनुष्य के ऊपर गंभीर प्रभाव देखा या आंका जा सकता था। उन पिंडों को छोड़ दिया जिनका असर बहुत सूक्ष्म पाया गया। यह ठीक उसी प्रकार से है जैसे दिल्ली से बंबई की दूरी का माप हम केवल किलोमीटरों में करते हैं न कि मीटरों या मिलीमीटरों में। खगोलविद् कितनी भी खोज करते रहें एवं कितने ही नए ग्रहों का पता लगा लें या नई राशियों का नामकरण कर लें, ज्योतिष जो पहले था वही आज भी है और आगे भी रहेगा।

ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति

विष्णु पुराण में कहा गया है की
अव्यक्ताद्व्यक्तयः सर्वाः प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके।।
संपूर्ण चराचर भूतगण ब्रह्मा के दिन के प्रवेशकाल में अव्यक्त से अर्थात् ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर से उत्पन्न होते हैं और ब्रह्मा की रात्रि के प्रवेशकाल में उस अव्यक्त नामक ब्रह्मा के सूक्ष्म शरीर में लीन हो जाते हैं।
जिस प्रकार समुद्र में बुलबुले हर क्षण पैदा होते रहते हैं और उसी में विलय होते रहते हैं इसी प्रकार ब्रह्मांड में आकाशीय पिंड उत्पन्न होकर, समाप्त होते रहते हैं। जब वे उत्पन्न होते हैं तो वे किसी पिंड से जन्म नहीं ले रहे हैं और न ही वे किसी पिंड में विलय कर रहे हैं। बल्कि शून्य से कोई पिंड उत्पन्न होता है और करोड़ों-अरबों सालों तक रहकर शून्य में विलय हो जाता है। यही है हिंदू शास्त्र दर्शन।
वैज्ञानिकों में सृष्टि की उत्पत्ति आज भी एक रहस्य है। सृष्टि के पहले क्या था इसकी रचना किसने, कब और क्यों की? ऐसा क्या हुआ जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ। 1929 में एडवीन हब्बल ने एक आश्चर्यजनक खोज की। उन्होंने पाया कि अंतरिक्ष में आकाश गंगायें और अन्य आकाशीय पिंड तेजी से एक-दूसरे से दूर हो रहे हैं। दूसरे शब्दों में ब्रह्मांड का विस्तार हो रहा है। इसका मतलब यह है कि इतिहास में ब्रह्मांड के सभी पदार्थ आज की तुलना में एक-दूसरे से और भी पास रहे होंगे। एक समय ऐसा रहा होगा जब सभी आकाशीय पिंड एक ही स्थान पर रहे होंगे। शायद दस से बीस खरब साल पूर्व ब्रह्मांड के सभी कण एक-दूसरे से एकदम पास-पास थे। वे इतने पास-पास थे कि वे सभी एक ही जगह थे, एक ही बिंदु पर। सारा ब्रह्मांड एक बिंदु की शक्ल में था। यह बिंदु अत्यधिक घनत्व का अत्यंत छोटा बिंदु था।
ब्रह्मांड का यह बिंद-रूप अपने अत्यधिक घनत्व के कारण अत्यंत गर्म रहा होगा। इस स्थिति में किसी अज्ञात कारण से अचानक ब्रह्मांड का विस्तार होना शुरु हुआ। एक महा विस्फोट के साथ ब्रह्मांड का जन्म हुआ और ब्रह्मांड में पदार्थ ने एक-दूसरे से दूर जाना शुरु कर दिया।
महा विस्फोट के 10-43 सैकिंड के बाद केवल अत्यधिक ऊर्जा का फोटान कणों के रूप में ही अस्तित्व था। 10-34 सैंकिंड के पश्चात् क्वार्क और एंटी क्वार्क जैसे मूलभूत कणों का निर्माण हुआ। इस समय ब्रह्मांड का आकार एक संतरे के आकार का था। 10-10 सैकिंड के पश्चात् एंटी क्वार्क, क्वार्क से टकराकर पूर्ण रूप से खत्म हो चुके थे। इस टकराव से प्रोटोन और न्यूट्राॅन का निर्माण हुआ। 1 सेकेंड के पश्चात् जब तापमान 10 खरब डिग्री सेल्सियस था, ब्रह्मांड ने आकार लेना शुरू किया। उस समय प्रोटोन और न्यूट्राॅन ने एक दूसरे के साथ मिलकर तत्वों का केंद्र बनाना शुरू किया जिसे हाइड्रोजन, हीलियम आदि के नाम से जानते हैं।
तीन मिनट पश्चात् तापमान गिरकर 1 खरब डिग्री सेल्सियस हो चुका था। तत्व और ब्रह्मांडीय विकिरण का निर्माण हो चुका था। यह विकिरण आज भी मौजूद है, इसे महसूस किया जा सकता है। 3 लाख वर्ष पश्चात् विस्तार करता हुआ ब्रह्मांड अभी भी आज के ब्रह्मांड से मेल नहीं खाता था। तत्व और विकिरण एक दूसरे से अलग होना शुरु हो चुके थे। इसी समय इलेक्ट्राॅन, केंद्रक के साथ में मिलकर परमाणु का निर्माण कर रहे थे और परमाणु मिलकर अणु बना रहे थे। एक खरब वर्ष पश्चात् ब्रह्मांड का एक निश्चित आकार बनना शुरु हुआ था। इसी समय क्वासर प्रोटोग्लैक्सी (आकाश गंगा का प्रारंभिक रूप) तारों का जन्म होने लगा था। तारे हाइड्रोजन जलाकर भारी तत्वों का निर्माण कर रहे थे।
आज महा विस्फोट के लगभग 15 खरब साल पश्चात् तारों के साथ उनका सौर मण्डल बन चुका है, परमाणु मिलकर कठिन अणु बना चुके हैं जिसमें कुछ कठिन अणु जीवन के मूलभूत कण हैं।
ब्रह्मांड का अभी भी विस्तार हो रहा है। आकाशगंगाओं और आकाशीय पिंडों का समूह अंतरिक्ष में एक दूसरे से दूर जाने की गति पहले से कम है। भविष्य में आकाशीय पिंडों का गुरुत्वाकर्षण इस विस्तार की गति पर रोक लगाने में सक्षम हो जायेगा। इसी समय विपरीत प्रक्रिया का प्रांरभ होगा अर्थात् संकुचन का। सभी आकाशीय पिंड एक-दूसरे के और नजदीक आते जायेंगे और अंत में एक बिंदु के रूप में संकुचित हो जायेंगे। तदुपरांत एक और महा विस्फोट होगा और एक नया ब्रह्मांड बनेगा। विस्तार की प्रक्रिया एक बार और प्रारंभ होगी।यह प्रक्रिया अनादि काल से चल रही है। हमारा ब्रह्मांड इस विस्तार और संकुचन की प्रक्रिया में बने अनेकों ब्रह्मांडों में से एक है। ब्रह्मांड के संकुचित होकर एक बिंदु में बन जाने की प्रक्रिया को महा-संकुचन के नाम से जाना जाता है। हमारा ब्रह्मांड भी एक ऐसे ही महा संकुचन में नष्ट हो जाएगा। जो एक महाविस्फोट के द्वारा नए ब्रह्मांड को जन्म देगा। यह संकुचन की प्रक्रिया आज से 1 खरब 50 अरब वर्ष पश्चात् प्रारंभ होगी।
वैज्ञानिकों ने यह तो जान लिया कि सृष्टि का निर्माण महा विस्फोट से प्रारंभ हुआ। ब्रह्मांड में पदार्थ की संरचना कैसे हुई? इसके बारे में उन्होंने स्टेन्डर्ड माॅडल पेश किया जिसमें 12 फरमियान व 12 बोसोन होते हैं। एक बोसोन जिसे हिग्स बोसोन कहते हैं, सभी अणुओं को भार प्रदान करता है। ये 24 पार्टिकल आधार हैं इलेक्ट्राॅन, प्रोटोन, न्यूट्रोन बनाने के जिनसे अणु (एटम) बनता है और इन अणुओं से पदार्थ बनता है। हिग्स बोसोन की परिकल्पना 1964 में कर दी गई थी लेकिन इसे किसी ने देखा नहीं था। क्योंकि यह मात्र 3 ग 10-25 सैकिंड ही रह पाता था। इसको उत्पन्न करने के लिए बहुत उच्च ऊर्जा की आवश्यकता होती है।
अतः इस बोसोन को देखने के लिए स्विट्जरलैंड और फ्रांस की सीमा पर जमीन से 300 फुट नीचे 27 कि.मी. लंबी सुरंगनुमा प्रयोगशाला में लार्ज हेड्रोन कोलाइडर (एल.एच.सी) में असीम ऊर्जा सहित न्यूट्रोनों की जोरदार टक्कर करायी गयी जिससे हिग्स बोसोन पैदा हुए एवं उनको पहली बार 4 जुलाई 2012 को इस प्रयोगशाला में देखा गया। इस प्रयोग में लगभग वैसी ही स्थिति पैदा की गयी जो महा विस्फोट के समय थी और जिससे सृष्टि की उत्पत्ति हुई क्योंकि हिग्स बोसोन के कारण ही पदार्थ में भार पैदा हुआ, अतः यह कण सृष्टि रचना में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करता है। कण-कण में भगवान की मान्यता सनातन है इसे स्वीकार करते हुए वैज्ञानिकों ने इसे ‘‘ईश्वरीय कण’’ अर्थात् गौड पार्टीकल का नाम प्रदान किया।
इस कण को जान लेने के बाद वैज्ञानिकों को पदार्थ अर्थात् सृष्टि की उत्पत्ति के बारे में पता चल गया है और धीरे-धीरे वैज्ञानिक उसी मत की ओर अग्रसर हो रहे हैं जिसे हमारे ऋषि हजारों साल पहले बता चुके हैं कि सृष्टि शून्य से उत्पन्न हुई है और शून्य में ही समा जायेगी।

श्री कृष्ण जीवन लीला

श्री कृष्ण का जन्म मथुरा में, भाद्र कृष्ण अष्टमी की मध्य रात्रि को, रोहिणी नक्षत्र में, 21 जुलाई, 3228 ई. पू. को हुआ। कृष्ण-देवकी की वह 8वीं संतान थे। जन्म के समय कारागार के पट स्वयं खुल गये एवं कंस से रक्षा के लिए उनके पिता वसुदेव उन्हें, एक टोकरी में रख कर, यमुना पार नंद गांव में छोड़ आये। बाल लीलाएं उन्होंने उसी नंद गांव में ही कीं, जिनमें पूतना वध, कालिय मर्दन, माखन चोरी, सुदामा से मित्रता, गोपियों के साथ रास लीलाएं आदि प्रमुख हैं। अपनी युवावस्था में ही उन्होंने, कंस का वध कर, पृथ्वी का भार हरण किया। कंस की 2 रानियां थीं- अस्ति और प्राप्ति। उन दोनों के पिता थे मगधराज जरासंघ। कंस के मरने का शोक समाचार सुन कर उन्होंने निश्चय किया कि मैं पृथ्वी पर एक भी यदुवंशी नहीं रहने दूंगा और उन्होंने मथुरा को चारों ओर से घेर लिया। जरासंघ ने 17 बार श्री कृष्ण से युद्ध किया। लेकिन श्री कृष्ण ने हर बार उनकी सारी सेना नष्ट कर दी। किंतु 18 वीं बार, जरासंघ को बहुत बलशाली जानते हुए, भगवान श्री कृष्ण, समस्त संबंधियों के साथ, द्व ारिका चले गये। इस प्रकार वह रणछोड़ कहलाये।
श्री कृष्ण का रुक्मिणी से विवाह हुआ एवं रुक्मिणी के गर्भ से उनके 10 पुत्र हुए- प्रभुत्व, चारुदेष्ण, सुदेष्ण, चारुदेह, सुचारु, चारुगुप्त, भद्रचारु, चारुचंद्र, विचारु और चारु। देवर्षि नारद की सलाह पर फुफेरे भाई पांडवों के राजसूय यज्ञ में सहायता करने के लिए श्री कृष्ण भगवान इंद्रप्रस्थ पहुंचे। कौरवों के पिता धृतराष्ट्र दुर्योधन को हस्तिनापुर का राजा बनाना चाहते थे, जबकि पांडु पुत्र युधिष्ठिर को राज्य मिलना चाहिए था। पांडु पुत्रों को इस हक से दूर करने के लिए दुर्योधन ने जुए की चाल चली और उन्हें 14 वर्ष का बनवास दिलवाया। बनवास की अवधि के बाद भी जब उन्होंने युधिष्ठिर को राज्य देने से मना कर दिया, तो पांडवांे और कौरवों में महाभारत युद्ध हुआ।
महाभारत युद्ध के समय श्री कृष्ण 90 वर्ष के थे। उस समय आकाश में भयावह स्थिति थी। राहु सूर्य के निकट जा रहा था, केतु, चित्रा नक्षत्र का अतिक्रमण कर के, स्वाति पर स्थित हो रहा था। धूमकेतु पुष्य नक्षत्र पर दोनों सेनाओं के लिए अमंगल की सूचना दे रहा था। मंगल, वक्र हो कर, मघा में, गुरु श्रवण में एवं सूर्य पुत्र शनि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र में स्थित थे। शुक्र पूर्व भाद्रपद में आरूढ़ था एवं परिघ नामक उपग्रह उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में विद्यमान था। केतु नामक उपग्रह, धूम नामक उपग्रह के साथ, ज्येष्ठा नक्षत्र पर स्थित था। एक तिथि का क्षय हो कर 14 वें दिन, तिथि क्षय न होने पर 15 वें दिन
और एक तिथि की वृद्धि होने पर अमावस्या का होना तो देखा गया है, लेकिन 13 वें दिन अमावस्या का होना नहीं देखा जाता। पूर्णिमा के बाद अमावस्या, जो 15 दिन बाद आती है, वह, तिथियों के क्षय होने के कारण, 13 दिन बाद ही आ गयी थी एवं 13 दिनों के अंदर चंद्र ग्रहण और सूर्य ग्रहण दोनों लग गये। राहु ने चंद्र और सूर्य दोनों को ग्रस रखा था। ग्रहण की यह अवस्था राजा और प्रजा दोनों का संहार दर्शा रही थी। चारों ओर धूल की वर्षा हो रही थी।
भूकंप होने के कारण चारों सागर, वृद्धि को प्राप्त हो कर, अपनी सीमा को लांघते हुए से जान पड़ते थे। कैलाश, मंदराचल तथा हिमालय से शिखर टूट-टूट कर गिर रहे थे। इस प्रकार संपूर्ण पृथ्वी, जल एवं आकाश संसार के विनाश को दर्शा रहे थे। अंततः मार्गशीर्ष अमावस्या के अगले दिन, मार्गशीर्ष शुक्ल प्रतिपदा को, मूल नक्षत्र में महाभारत युद्ध 21 अक्तूबर, 3138 ई. पू. को प्रारंभ हुआ। युद्ध आरंभ होने पर अर्जुन ने जब दूसरी ओर अपने सभी भाई-बंधुओं एवं गुरुओं को खड़े देखा, तो वह विचलित हो उठा और श्री कृष्ण से कहने लगा कि युद्ध जीत कर भी हार है। अतः मैं युद्ध नहीं लडूंगा। इसपर श्री कृष्ण ने गीता का उपदेश दिया और बताया कि यह देह सर्वदा नाशवान है और आत्मा कभी नष्ट नहीं होती। कर्म तो मनुष्य को अपने स्वभाव के कारण करना पड़ता है। अतः बिना फल की इच्छा के कर्म करना ही मनुष्य का कर्तव्य है।
कहा जाता है कि 10 वें दिन भीष्म पितामह को अर्जुन के बाणों ने वेध दिया और महाभारत, केवल 18 दिन में पूरी पृथ्वी को तहसनहस कर, समाप्त हो गया। भीष्म पितामह, जिनको इच्छा मृत्यु का वरदान था, सूर्य के उत्तरायण में आने की प्रतीक्षा करते रहे और 58 रातें उन्होंने उसी बाण शैय्या पर बितायीं। तत्पश्चात माघ शुक्ल अष्टमी को, मध्याह्न के समय, रोहिणी नक्षत्र में वह परमात्मा में विलीन हो गये।महाभारत के 35 वर्ष उपरांत 36वें वर्ष, चैत्र शुक्ल प्रतिपदा के दिन, 18 फरवरी 3102 ई. पू. को श्री कृष्ण ब्रह्मस्वरूप विष्णु भगवान में लीन हो गये। उस समय श्री कृष्ण 125 वर्ष पूर्ण कर 126 वें वर्ष में चल रहे थे। जिस दिन भगवान पृथ्वी को छोड़ स्वर्ग सिधारे, उसी दिन महाबली कलि युग आ गया। केवल एक कृष्ण के भवन को छोड़, जनशून्य द्वारिका को समुद्र ने डुबो दिया।
अर्जुन सभी द्वारिकावासियों को पंचनद (पंजाब) देश में बसाने के लिए ले चले। रास्ते में लुटेरों ने, उनपर धावा बोल कर, उन्हें लूट लिया। हारे हुए से अर्जुन अपनी राजधानी इंद्रप्रस्थ आये और वहां व्यास जी को संपूर्ण वृत्तांत सुनाया। व्यास जी ने अर्जुन को समझाया कि प्राणियों की उन्नति और अवनति का कारण काल ही है। संपूर्ण चराचर काल के ही रचे हुए हैं और काल से ही क्षीण हो जाते हैं। तदोपरांत अर्जुन, व्यास जी के कथनानुसार, अपने भाइयों सहित संपूर्ण राज्य को छोड़ कर, परीक्षित को अभिषिक्त कर स्वयं हिमालय को चले गये। इन्ही राजा परीक्षित का संवाद भागवत् के नाम से प्रसिद्ध हुआ, जो मुत्यु लोक के संपूर्ण कष्टों का निवारण करने में सक्षम है।

कर्म और भाग्य

प्रकृति ने मनुष्य को एक अनोखा गुण दिया है - विचार। इसी के कारण मनुष्य अन्य जीव-जंतुओं से भिन्न है और इसी कारण उसे हमेशा यह जानने की उत्कंठा रही है कि वह कौन है? अंतरिक्ष क्या है? समय क्या है? पदार्थ क्या है? आत्मा क्या है आदि? एक अहम् प्रश्न यह भी रहता है कि मनुष्य के शरीर छोड़ने के पश्चात क्या होता है? क्या यह जीवन-मृत्यु का चक्र है, या जीवन के साथ ही एक अध्याय समाप्त हो जाता है? क्या मनुष्य कुछ भी करने में सक्षम है? क्या कर्म से वह अपना भविष्य बदल सकता है? यदि हां, तो भाग्य क्या है और ज्योतिष की बात हम क्यों करते हैं? यदि नहीं, तो हम कर्म क्यों करते हैं? ज्योतिष में मुहूर्त क्यों निकालते हैं, या कुंडली मिलान क्यों करते हैं?
सत्य को जानने के लिए चार मार्ग बताये गये हैं: ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग एवं सांख्य योग। ज्ञान योग के अनुसार ‘‘तत्वमसि’’ अर्थात तू (वही) है; अर्थात यह आत्मा ही ब्रह्म है। लेकिन, सांसारिक संबंधों और शारीरिक आवश्यकताओं के कारण, इस योग और मनुष्य के बीच बड़ा व्यवधान रह जाता है। अतः इस दूरी को कम करने के लिए भक्ति योग की स्थापना हुई। इस योग में एक के बदले दो की मान्यता है। एक भक्त है और दूसरा भगवान। सारा संसार भगवान का ही रूप है। भगवान ने इच्छा की कि मैं एक से अनेक हो जाऊं और वह सूक्ष्म रूप से प्रत्येक प्राणी और पदार्थ में समा गया। इस योग में भी एक कठिनाई हैै; पूर्ण रूप से एक पर विश्वास करने की। शायद कलि युग में, ऐसा संभव नहीं। कोई कष्ट आ जाए, तो मनुष्य अनेक विकल्प ढृूंढता है- सबसे पहले अपने शरीर को, फिर घरवालों, या मित्र एवं पड़ोसियों को, तीसरे विशेषज्ञों, जैसे डाॅक्टर, इंजीनियर, वकील आदि को, चैथे पदार्थ को, जैसे दवाई, मशीन या दस्तावेज़ आदि को, फिर अपने पुण्यों को और उसके बाद ही भगवान को याद करता है।
अतः कलि युग में शायद कर्म योग और सांख्य योग अधिक व्यावहारिक हैं। कर्म योग में मनुष्य केवल अपने कर्म से ही बंधन मुक्त हो जाता है। उसे केवल इस बात का अभ्यास करना है कि वह फल की इच्छा न करे। फल उसके अनुकूल हो, या प्रतिकूल, कर्म में आसक्त नहीं होना है। कर्म में किसी प्रकार का हठ नहीं होना चाहिए।
सांख्य योग से आज के वैज्ञानिक एकमत हैं कि सभी प्राणी एवं पदार्थ सूक्ष्म कणों से बने हैं और प्रत्येक कण ऊर्जा का स्रोत है। यदि सभी कणों की ऊर्जा का उपयोग किया जाए, तो थोड़ा सा पदार्थ भी अणु बम बन जाता है; अर्थात् यह शरीर ऊर्जा का केंद्र है। इस योग के अनुसार यह शरीर केवल एक जैविक प्रतिक्रिया के कारण उत्पन्न हुआ है। इसका न आदि है, न अंत; अर्थात न तो पहले यह किसी रूप में था और न ही इसका पुनर्जन्म होगा। मृत्योपरांत शरीर के कण वायु और पृथ्वी में मिल जाते हैं और सृष्टि की रचना चलती रहती है। इस योग के अनुसार इस शरीर का उद्देश्य केवल सृष्टि की रचना में भाग लेना है। यदि हम इस रचना में आसक्त हों, तो यह ऐसा ही है, जैसे कोई अभिनेता किसी नाटक को सच मान ले। इस संसार की सार्थकता केवल उतनी ही है, जितनी किसी सोये हुए व्यक्ति के लिए स्वप्न की।
इन चारों योगों में एक बात मुख्यतः सभी में आम है कि मनुष्य की अपनी पहचान नगण्य है। यह सही भी है। अगर भूत को देखें, तो अरबों-खरबों मनुष्य जन्म ले चुके हैं। आज हम केवल कुछ हजार वर्षों का इतिहास जानते हैं। उसमें भी कुछ गिने-चुने व्यक्ति विशेष के बारे में जानकारी है। यह जानकारी भी भविष्य में लुप्त होने वाली है। अतः मनुष्य को अभिमान नहीं करना चाहिए, क्योंकि भविष्य में उसका अस्तित्व अवश्य ही खो जाने वाला है।
कर्म करने में मनुष्य स्वतंत्र है, या परतंत्र, इसको मोहम्मद ने अपने चेले अली को बखूबी समझाया। उन्होंने कहा: एक पैर उठाओ। उसने तुरंत पैर उठा दिया। फिर कहा: दूसरा पैर उठाओ, तो अली समझ गया कि पहले कर्म के कारण वह अब बंधा है और दूसरा पैर नहीं उठा सकता। पहले वह स्वतंत्र था एवं दोनों में से कोई एक पैर उठा सकता था। लेकिन कोई एक पैर उठाते ही वह बंध गया और दूसरा पैर नहीं उठा सकता। इसी प्रकार मनुष्य के जीवन में भी अनेक अवसर आते हैं, जब वह स्वतंत्र होता है। लेकिन पहले निर्णय के बाद वह आगे पूर्ण स्वतंत्र नहीं रहता।
इसी प्रकार कर्म और फल में भी संबंध आवश्यक नहीं है। वैसे तो यह कहा गया है कि आम की गुठली बोओगे, तो आम मिलेंगे। बबूल बोओगे, तो कांटे ही मिलेंगे। लेकिन एक बार मुल्ला नसरुद्दीन जब एक मस्जिद के नीचे से गुजर रहे थे, तो एक आदमी ऊपर से गिर पड़ा और मुल्ला जी की कमर टूट गयी। कोई आदमी गिरता है और किसी की कमर टूट जाती है। अतः प्रकृति में सब कुछ सैद्धांतिक होने के बाद भी मनुष्य के कानून की कोई अहमियत नहीं है। यह बात अवश्य ठीक है कि फल ऊपर से नीचे ही गिरेगा, या नीला और पीला मिलाने से हरा रंग ही बनेगा, लेकिन यह आवश्यक नहीं कि कोई मनुष्य शुभ कर्म करे और उसे शुभ फल ही प्राप्त हों।
वैज्ञानिक कहते हैं कि पृथ्वी अपनी धुरी पर घूमती है और साथ ही सूर्य के चारों ओर भी ब्रह्मांड का चक्कर लगा रही है। ब्रह्मांड भी किसी बिंदु का चक्कर लगा रहा है और बिंदु भी शायद किसी महाबिंदु का चक्कर लगा रहा है। लय और प्रलय चलते रहते हैं। जीवन चलता रहता है। एक अकेली पृथ्वी पर ही नहीं, बल्कि वैज्ञानिकों के अनुसार, कम से कम पचास हजार ग्रहों पर जीवन है।
कर्म और जीवन के संबंध को व्यावहारिक रूप देने के लिए कर्म को एक नंबर दें एवं भाग्य को भी एक नंबर दें तथा फल = कर्म के अंक ग् भाग्य का अंक समझें। यदि कर्म या भाग्य दोनों पूर्ण होंगे, तभी पूर्ण फल मिलेगा। दोनों में से कोई एक शून्य हो जाता है, तो फल भी शून्य हो जाता है। फल के लिए आवश्यक है कि आप कर्म करें। लेकिन भाग्य का साथ देना आवश्यक है। भाग्य अपने हाथ में नहीं है। अतः जितना कर्म अपने हाथ में है, उतना कर्म अवश्य करें | यहीं सफलता की सीड़ी है |

मृत्यु के पश्चात् इस जीवन का क्या होता है?

मृत्यु के पश्चात् इस जीवन का क्या होता है? यह प्रश्न आदिकाल से मनुष्य के मस्तिष्क को कचोटता रहा है। वेदों के अनुसार यह शरीर इस जीव का केवल एक चोला मात्र है एवं मृत्योपरांत जीव इस चोले को छोड़ दूसरे चोले में चला जाता है, अर्थात पुनर्जन्म हो जाता है। जो जीव इस मनुष्य शरीर में रहते हुए, लौकिक संपदा से अपने को अलग कर लेते हैं, उनका पुनर्जन्म नहीं होता है और वे मोक्ष प्राप्त करते हैं। वेदानुसार जो (जीव) मनुष्य को सुख दुःख का अनुभव कराता है, वह केवल अंगुष्ठ मात्र है।
शरीर से किये हुए कर्म जीव के साथ चलते हैं एवं उन्हीं शुभाशुभ कर्मानुसार जीव की गति होती है।
जिस प्रकार मनुष्य पुराने वस्त्रों को त्याग कर नये वस्त्रों को धारण करता है, वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीर को त्याग कर नये शरीर को प्राप्त करती है।
जीव अपने कर्मो के अनुसार या तो भूलोक से ऊपर की ओर अथवा नीचे की ओर जाता है। पृथ्वी लोक से ऊपर सात लोक हैं - 1. सत्य लोक 2. तप लोक 3. महा लोक, 4. जन लोक, 5. स्वर्ग लोक, 6. भुवः लोक 7. भूमि लोक । भूमि लोक में जीवात्मा के साथ भूत, प्रेत एवं क्षुद्र आत्माएं निवास करती हैं। भुवः लोक में पितरों का विचरण स्थल माना गया है। स्वर्ग लोक में दिव्य आत्माएं, जन लोक में यज्ञ कर्ता की आत्माएं, महालोक में समाधि लेने वाले जातक की आत्माएं, तप लोक में सर्वोत्तम आत्माएं एवं सत्य लोक में ईश्वरीय, रक्षक एवं पालक महाशक्तियां निवास करती हैं।
पृथ्वी के नीचे 1. तल, 2. अतल, 3. सुतल, 4. तलातल, 5. महातल, 6. रसातल 7. पाताल लोक हैं। यहां पर निकृष्ट से निकृष्टतम जीव निवास करते हैं।
मृत्योपरांत जीव पुनर्जन्म से पहले प्रेत योनि को प्राप्त होता है, तदुपरांत पितृ योनि को प्राप्त होता है। पुनर्जन्म होने के पश्चात तो जीव को अपने कर्म या भोग के अनुसार फल प्राप्त होते हैैं, लेकिन प्रेत या पितृ योनि में इस जीव को कोई कष्ट न हो इसके लिए ‘श्राद्ध’ किया जाता है।
अर्थात पितृ लोक में जल की मात्रा न होने के कारण पितरों को उनके संबंधियों द्वारा श्राद्ध में दिया गया जल ही उन्हें प्राप्त होता है। श्राद्ध में ब्राह्मणों को दिया गया भोजन पितरों को प्राप्त होता है, जिससे उन्हें शांति मिलती है। इस प्रकार ये तृप्त पितृ जातक को आशीर्वाद रूप में धन, धान्य एवं सुख समृद्धि प्रदान करते हैं। इस आशीर्वाद को प्राप्त करने हेतु एवं अतृप्त पितरों से किसी प्रकार के नेष्ट बचाने हेतु ही ‘श्राद्ध’ कर्म किये जाते हैं।
पुनर्जन्म की वैज्ञानिक मान्यता कुछ भिन्न ही है। इसके अनुसार जीवन एक जैव रासायनिक क्रिया है एवं शरीर पंचधातु का बना एक जैविक पदार्थ है। चेतनता सर्वदा पदार्थ में विद्यमान है जाग्रत या सुषप्त। जैविक क्रियाओं के कारण यह शरीर बड़ा होता है और अहस्तांतरित क्रिया (पततमअमतेपइसम तमंबजपवदे) के कारण मृत्यु को प्राप्त होता है। मृत्योपरांत पंचभूतों से बना शरीर पंचभूत में मिल जाता है। जैसे लहर के समुद्र में समा जाने के बाद उसका कोई अस्तित्व नहीं रहता, या उसी लहर का पुनर्जन्म नहीं होता है, ठीक उसी प्रकार इस शरीर का इस पंचभूत में समा जाने के बाद इसका पुनर्जन्म नहीं होता है। केवल इस शरीर से मोह हमें पुनर्जन्म के बारे में सोचने को प्रेरित करता है। जिस प्रकार से माली अनेक पौधे लगाते हैं, कुछ बहुत अच्छे बनकर खिलते हैं एवं कुछ बीज उगते ही नहीं या कुछ को पानी एवं भोजन तक नहीं मिल पाता। इसी प्रकार कुछ मनुष्य बहुत ऊंचाईयों पर पहुंच जाते हैं और कुछ बिल्कुल पिछड़े ही रह जाते हैं। मनुष्य कर्म भी भाग्यानुसार बनते हैं एवं आवश्यक नहीं कि कर्म के अनुसार फल प्राप्त हों। कर्म और फल में अंतर को पिछले जन्मों के कर्मों का फल कह कर समझा दिया जाता है, जबकि वैज्ञानिक मतानुसार यह अंतर प्राकृतिक होता है।
यदि पुनर्जन्म नहीं है और केवल प्रकृति ही भौतिक रुप में काम कर रही है, तो वेदों में पुनर्जन्म के बारे में क्यों दिया गया है? क्या वेद गलत हैं? वैज्ञानिक मतानुसार शायद वेदों में जीवन को जीने की कला दी गई है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। जीवन को जीने के लिए कुछ आधार चाहिए, क्योंकि बिना आधार के जीवन व्यतीत करना बहुत कठिन हो जाता है। उसी आधार को देने के लिए वेदों में पुनर्जन्म की स्थापना की गई है। पूर्वजों में आस्था एवं उनसे मानसिक लगाव के कारण एवं उनसे आर्शीवाद प्राप्त करने हेतु ही, मनुष्य श्राद्ध कर्म करता है। अन्ततः कुछ भी सच हो, वेद या विज्ञान, यह सच है कि, पुनर्जन्म को मानने से ही मनुष्य अपने आपको समाज के बंधन में महसूस करता है एवं कोई गलत कार्य करने से डरता है, जो कि समाज को सुचारू रूप से चलाने के लिए अत्यंत आवश्यक है।

Friday, 5 February 2016

ग्रह प्रभावशाली या कर्म

वैज्ञानिकों की सर्वदा एक जिज्ञासा रही है कि ग्रह मानवीय जीवन पर कैसे असर डालते हैं। भौतिक जीवन में ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्य के कर्म ही उसके फल का कारण होते हैं जबकि ज्योतिष के अनुसार मनुष्य ग्रहों के प्रभाव से बंधा हुआ है और वह वही करता है जो ग्रह उससे करवाते हैं।
इस तथ्य की परख कैसे की जाए क्योंकि यदि कुछ फल प्राप्त है तो कुछ कर्म भी हुआ होगा। ऐसा ग्रहों के कारण हुआ या कर्म के कारण यह कैसे जानें? यदि कोई डाॅक्टर बना तो अपनी मेहनत के कारण या ग्रहों के कारण? इसी प्रकार अमीर होना, स्वस्थ होना या विजयी होना व्यक्ति विशेष के भाग्य में, उसकी कुंडली में विदित था या इसके निमित्त उसने मेहनत की?
वैज्ञानिक स्तर पर इस तथ्य की परख हम केवल सांख्यिकी द्वारा कर सकते हैं। इसके लिए हम अनेक जातकों के जन्म विवरण एकत्रित करते हैं और उन्हें दो भागों में बांट लेते हैं - कुछ डाॅक्टरों की कुंडलियां एवं कुछ अन्य व्यवसायियों की। इसी प्रकार अमीर व गरीब की। तदुपरांत दोनों समूहों में ग्रहों की बारंबारता को गिनते हैं। यदि दोनों समूहों में किसी ग्रह का किसी विशेष राशि या भाव में अधिक अंतर आता है तो यह ग्रह उस स्थिति में समूह की वास्तविक स्थिति को दर्शाता है। इस प्रकार सभी ग्रहों का विभिन्न राशियों, भावों, नक्षत्रों आदि में अंतर देखने पर यह ज्ञात हो जाता है कि कौन सी स्थिति उसके अनुरूप है और कौन सी विपरीत।
चिकित्सकों के वर्ग में मंगल का दषम भाव से संबंध दूसरे वर्ग की तुलना में बहुत अधिक प्रभावी होता है। बुध और शनि का योग भी दषम भाव में बहुत अधिक पाया गया। विष्लेषण से ज्ञात हुआ कि छात्र ने पढ़ा तो सही लेकिन उसका चिकित्सक बनना ग्रहों से नियंत्रित था। सैकड़ों हृदय रोगियों की जन्मपत्रियां एकत्र की गईं और पाया गया कि गुरु, शुक्र, सूर्य दूसरे भाव में, चंद्र और राहु लग्न में, मंगल चैथे में, बुध दशम में एवं शनि नवम में आदि योग ही हृदय रोग उत्पन्न करते हैं। जिस प्रकार डीएनए के द्वारा यह जाना जा सकता है कि मनुष्य को कौन सा रोग हो सकता है, उसी प्रकार ग्रह स्थिति द्वारा भी रोग की पूर्व जानकारी हो सकती है। लगभग 400 दम्पतियों की जन्मपत्रियों के मिलान से स्पष्ट हुआ है कि मंगल विशेष रूप से केवल प्रथम भाव में दुष्प्रभावी होता है। साथ ही अन्य ग्रह भी अलग-अलग स्थानों में अनपेक्षित फल देते हैं जैसे सूर्य तृतीय भाव में, चंद्रमा द्वादश में, बुध व शुक्र द्वितीय में, गुरु षष्ठ में, शनि दशम में व राहु एकादश में। इन सांख्यिकीय सूत्रों के अनुसार हम दो जातकों के समन्वय से 80 प्रतिषत तक सटीक फलकथन कर सकते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जातकों की आपसी समझ-बूझ ही समन्वय बनाने में पूर्ण सक्षम नहीं है, बल्कि यह समझ-बूझ भी ग्रहों की देन है। सूर्य प्रथम व चतुर्थ में, चंद्र द्वितीय व एकादश में, मंगल पंचम व षष्ठ में, बुध तृतीय व नवम में, गुरु द्वितीय में, शुक्र लग्न व द्वितीय में एवं राहु द्वादश में जातक को अविवाहित ही रखता है। इसके विपरीत सूर्य दशम में, चंद्र लग्न व दशम में, बुध एकादश में, गुरु नवम में, शुक्र द्वादश में व राहु पंचम में बहु विवाह योग बनाता है। अतः संन्यास या बहु विवाह के लिए व्यक्ति की मानसिक स्थिति भी ग्रहों द्वारा ही चलायमान होती है। शेयर बाजार में उतार-चढ़ाव का पूर्वानुमान भी 70 प्रतिषत तक ग्रहों के गोचर पर निर्भर करता है और भविष्य में ग्रहों की स्थिति की गणना के आधार पर ही शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव का अनुमान लगाया जा सकता है। सूर्य सिंह राशि में, चंद्रमा व मंगल कन्या में, गुरु सिंह व तुला में, शुक्र कुम्भ में और शनि कर्क में शेयर में तेजी लाने में सक्षम है जबकि सूर्य मेष में, चंद्रमा कर्क में, मंगल मिथुन में, बुध कन्या में, गुरु वृश्चिक में, शुक्र कन्या में, शनि वृष में व राहु सिंह में। इसी प्रकार वर्षा के अधिक या कम होने या फिर नहीं होने में भी ग्रहों की स्थिति की भूमिका अहम होती है। पिछले 50 वर्षों की वर्षा के अध्ययन से ज्ञात होता है कि सूर्य व मंगल ग्रह इसे सबसे अधिक नियंत्रित करते हैं। वहीं पहाड़ी इलाकों में वर्षा के होने या न होने में शनि और बृहस्पति की भूमिका भी होती है।
उपर्युक्त तथ्य इस बात को इंगित करते हैं कि प्राणी और वनस्पति या निर्जीव पदार्थ कर्म या फल देने में सक्षम और स्वतंत्र नहीं हैं। वे पूर्णतया ग्रहों की स्थिति पर निर्भर हैं। और क्यों न हो, हर व्यक्ति व पदार्थ गुरुत्वाकर्षण शक्ति से बंधा हुआ है।
इस शक्ति के मूल में पिंड (डंद्ध अर्थात ग्रह ही हैं। यह शक्ति ही मनुष्य के मन और बुद्धि को हर लेती है और मनुष्य वही करने लगता है जो ग्रह चाहते हैं। ऐसा केवल प्रतीत होता है कि मनुष्य कोशिश कर रहा है। जैसा भाग्य, जो ग्रहों द्वारा निर्दिष्ट होता है, करवाता है वैसा वह करने लगता है।
इसका अर्थ यह नहीं कि मनुष्य कर्म ही छोड़ दे। जो भाग्य में है वही होगा, पर कर्म करना आवश्यक है। ऐसा देखने में आता है कि ग्रह 70-80 प्रतिशत तक व्यक्ति के भविष्य को दर्शाते हैं। लेकिन 100 प्रतिशत नहीं अर्थात कुछ प्रतिशत शेष रह जाता है जो किसी और शक्ति द्वारा निर्दिष्ट है या यूं कहिए कि कर्म के लिए प्रकृति ने कुछ प्रतिशत स्थान रख छोड़ा है। भाग्य तो अपने स्थान पर स्थिर है ही, उसे हम बदल नहीं सकते। अतः कर्म करके जो कुछ प्रकृति ने मनुष्य के लिए विकल्प छोड़ा है, मनुष्य का कर्तव्य है कि उसका उपयोग करे और भविष्य को सार्थक बनाए।

भगवत् प्राप्ति साधन

प्रत्येक व्यक्ति की अभिलाषा रहती है कि वह भगवान के दर्शन कर ले। इसके लिए अनेक साधन बताए गए हैं- अनेक प्रकार के योग हैं, अनेक धर्म हैं लेकिन सब में एक वस्तु आम है, वह है अनन्यता- अर्थात् सब वस्तुओं में भगवत् स्वरूप का अहसास करना- सब कर्मों में और उसके फलों में उसकी इच्छा का अहसास करना।
कहते हैं, वह एक था। उसने चाहा कि मैं एक से अनेक हो जाऊं और वह संसार रूप में अनेक हो गया और इसमें उसने काम, क्रोध, लोभ मद, मोह व मत्सर रूपी माया घोल दी।
काम---किसी वस्तु या प्राणी को प्राप्त करने की इच्छा
क्रोध---अपने ज्ञान को दूसरे से श्रेष्ठ समझना
लोभ---प्राप्त वस्तु को न छोड़ने की इच्छा
मद---प्राप्त वस्तु का घमंड
मोह---प्राप्त वस्तु छूट न जाए, उसका भय
मत्सर---दूसरे को अपने से अधिक प्राप्त कैसे
इसी माया के कारण जीव भूल गया कि वह उसी भगवत् स्वरूप ब्रह्म का अंश है, उसमें और ब्रह्म में कोई अंतर नहीं है। तन, तीय, तनय, धाम, धन, धरनी,- इन छः रूपों में माया का वास है। जब इनको मनुष्य तिनके के बराबर समझकर त्याग देता है अर्थात् रमा को त्याग देता है तो राम के सम्मुख हो जाता है। कहते हैं, भक्त भगवान से बड़े होते हैं क्योंकि केवल भक्त के लिए ही भगवान पृथ्वी पर अवतरित होते हैं और पृथ्वी धन्य हो जाती है। अन्यथा संसार का संचालन तो ईश्वर सारी सृष्टि के कण-कण में व्याप्त होकर कर ही रहे हैं। क्या हम भक्त अपनी इच्छा या कोशिश से बन सकते हैं। कहते हैं, हमारे मन में इच्छा या कोशिश भी उसकी इच्छा से ही है क्योंकि कुछ भी तो उसकी इच्छा के बिना नहीं है। अतः यह समझकर कि सब कुछ उसके कराए ही हो रहा है और जो हो रहा है उसको उसकी इच्छा समझकर उसमें आनंद लेना, भगवत् प्राप्ति के लिए अपने को इसके पात्र बना लेना है। कभी वह देता है- उच्च परिवार में पैदाकरके। बिना कुछ लिए इतना दे देता है कि उतना कई विशेष प्रयत्नों के बाद भी नहीं प्राप्त कर पाते, कभी लाभ कराकर दे देता है तो कभी कर्म फल स्वरूप प्रदान करता है। कभी लेता तो है तो भूचाल, बाढ़ आदि प्रकोप से ले लेता है या बीमारी आदि द्वारा। कभी फिर कर्जे व कोर्ट कचहरी में डूबे परिवार में पैदा कराकर सभी सुख-चैन हर लेता है।
अनन्यता क्या है- एक भक्त रोटी बना रहे थे। रोटी बनाकर घी लेने के लिए अंदर गये, तभी एक कुŸाा रोटी लेकर भाग गया। भक्त (यह कहते हुए) उसके पीछे भागे, कि महाराज, रूखी रोटी खाओगे, चुपड़ तो लेने दो। अर्थात् वे भक्त कुत्ते में भी भगवान के दर्शन कर रहे थे। जब बुद्ध भगवान को भगवत् प्राप्ति होने वाली थी तो उनकी परीक्षा लेने के लिए भगवान राक्षस के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने कहा कि मैं तुमको इस रूप में भी उतना ही प्यार करता हूं और जैसा कि कहते हैं, वह राक्षस हंस बनकर उनके पैरों में आ पड़ा।
दो भक्त, एक पीपल के पेड़ के नीचे व एक इमली के पेड़ के नीचे बैठे भक्ति कर थे। नारद जी आए तो दोनों ने पूछा कि भगवान कब मिलेंगे। वे भगवान के पास आए और पूछा। भगवान ने कहा- जितने वृक्ष पर पŸो हैं उतने वर्ष तपस्या करेंगे तो मिलूंगा। पीपल के पेड़ वाले तो बोले ‘इतनी तपस्या कौन करेगा’ और चले गये। इमली के पेड़ के नीचे वाले भक्त यह वाक्य सुनकर झूम उठे कि उन्हें भगवान मिलेंगे। भगवान तुरंत ही मिल गये
धु्रव को नारद जी के द्वारा दिए गए मंत्र ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ के निरंतर जप से भगवत् प्राप्ति हो गई थी। अतः निरंतरता से अनन्यता भगवत प्राप्ति का अभुक्त मूल सिद्धांत है। अतः प्रभु को सर्वविद्यमान महसूस करना ही अनन्यता है। प्रभु का सदैव स्मरण रहे- खाते-पीते, सोते-जागते, लड़ते या प्यार करते उसका स्मरण करते रहना अनन्यता है। अनन्यता से अनुभूति होने लगती है कि वह हमारे साथ है। यही भगवत् प्राप्ति का प्रमुख लक्षण है।
भगवत् प्राप्ति के चार योग हैं- भक्ति योग, ज्ञान योग, कर्म योग व ध्यान योग। भक्ति योग में भक्त सभी में प्रभु को विद्यमान देखता है। ज्ञान योग में ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को देखता है। कर्म योग में कर्म और उसके फल भगवान की इच्छा मात्र देखता है और ध्यान योग में उसी ब्रह्म का दर्शन करता है। प्रत्येक साधन में अनन्यता ही आम है। कहते हैं, ज्ञान व भक्ति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ज्ञानी एक ही ब्रह्म स्वरूप परमात्मा को सब जगह देखता है तो भक्त उसी ब्रह्म के व्यक्त रूप का जन मानस में दर्शन करता है। इसीलिए श्रीराम भक्त हनुमान को ज्ञानियों में अग्रगण्य माना गया है एवं ज्ञान स्वरूप शिव जी राम के सर्वप्रथम भक्त हैं।
ज्ञान: आत्मा और ब्रह्म! दोनों इसी प्रकार से हैं जैसे बूंद व समुद्र या घटाकाश व आकाश। दोनों में भिन्नता कुछ नहीं, लेकिन संज्ञा दो हैं- आत्मा केवल ब्रहत् रूपी ब्रह्म के छोटे रूप को दर्शाती है जैसे बूंद व
समुद्र में कोई भेद नहीं है, बूंद समुद में मिल जाए तो समुद्र हो जाती है इसी प्रकार शरीर के अंत में आत्मा-परमात्मा में विलीन हो जाती है। आत्मा का पुनर्जन्म भी उसी प्रकार से है जैसे बूंद का समुद्र से। कहना मुश्किल है कि यह वही बूंद है जो पहले समुद्र में मिली थी। उसी बूंद के पुनः बनने का अर्थ भी कितना है?
भक्ति: यह संसार उसी की इच्छा का स्वरूप है। वैसे तो हर जीव में वह समाया है लेकिन किसी शरीर में वह विशेष शक्तियां लेकर अवतरित होता है जिसे हम भगवान कहते हैं। इसी भगवान को सर्वत्र देखना व अपने भगवान के लिए सदैव कुछ करने की चाह ही भक्ति है। भगवान के पास होते हुए भी यह सोचना कि वह दूर हो जाएगा, भक्ति की चरम सीमा है जिसमें राधा सदैव वास करती थी।
कर्म:जीव मात्र में प्रभु का अहसास करना व उसकी सेवा में सदैव संलग्न रहना, फल की इच्छा कभी मन में न आना ही कर्मयोग की चर्म सीमा है।
ध्यान:ब्रह्म स्वरूप का सदैव ध्यान ही इस योग की प्रमुखता है। जैसे एक सूर्य को हजारों शीशों में एक साथ देख सकते हैं उसी प्रकार इस आत्म तत्व के सभी शरीर में एक साथ दर्शन कर सकते हैं। एक अहम् प्रश्न है कि हमें भगवत् प्राप्ति की साधना क्यों करनी चाहिए- क्योंकि सभी वस्तुएं हमें कभी प्राप्त नहीं होती। यदि धन प्राप्त भी हो जाए तो सेहत या संतान और या स्त्री, किसी न किसी का दुःख या भय बना रहता है। पूर्णानंद की खोज में ही मनुष्य भगवत् प्राप्ति की ओर आकर्षित होता है क्योंकि माया और इच्छा से मुक्ति होने पर ही आनंद की अनुभूति होती है। माया से मुक्ति केवल एक मानसिक स्थिति ही है। ऐसे मनुष्य के कर्म एक आम व्यक्ति की तरह ही रहते हैं, लेकिन थोड़ा फर्क होता है जैसे कि एक सफल व्यक्ति व असफल व्यक्ति के परिश्रम में।
भगवत् प्राप्त मनुष्य की यही सबसे बड़ी पहचान है कि वह सदैव एक जैसा प्रसन्न व चिंता और भय मुक्त दिखाई देता है- यही उसकी ओर आकर्षण का बिंदु होता है।

राम और राम सेतु

चतुर नल और नील ने सेतु बांधा। श्रीराम जी की कृपा से उनका यह यश सर्वत्र फैल गया। जो पत्थर स्वयं डूबते हैं और दूसरों को डुबा देते हैं, वे ही जहाज के समान हो गए।।
हिंदू धर्म में एक ही आदर्श एवं मर्यादा पुरुष हैं - पुरुषोत्तम श्री राम। श्री राम का जन्म रामनवमी के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में अभिजित मुहूर्त में अयोध्या में हुआ। उस समय अधिकांश ग्रह उच्च या स्वराशि में स्थित थे। श्री राम की जीवन लीला का चित्रण हमारे ग्रंथ रामायण में विस्तृत रूप से किया गया है। यही नहीं, उनकी जीवन लीला का रूपांकन विभिन्न ऋिषियों ने अपने अपने ग्रंथों में किया है। ये ग्रंथ भी हजारों वर्ष पूर्व लिखे गए।
इन ग्रंथों से यह स्पष्ट हो जाता है, और यह सर्वविदित है, कि श्री राम ने 14 वर्ष वन में बिताए और वनवास के आखिरी दिनों में लंका के राजा रावण पर चढ़ाई कर सीता को वापस ले आए। उस काल में भी विज्ञान अत्यंत विकसित था जिसका पता इस बात से चलता है कि उन दिनों पुष्पक विमान, अग्नि वाण आदि विद्यमान थे। अतः यदि श्रीराम ने उस युग में समुद्र पर सेतु बंधवा दिया तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। कहते हैं श्री राम ने रामेश्वरम से लंका तक तैरते हुए सेतु का निर्माण केवल पांच दिन की अवधि में किया था।
यह सेतु 30 मील अर्थात 48 किमी लंबा है और दक्षिण-पश्चिम में मन्नार की खाड़ी को उत्तर-पूर्व में पाक की खाड़ी सेे जोड़ता है। यह कैल्शियम युक्त प्रवाल की भित्तियों (ब्वतंस तममेिद्ध का बना हुआ है जो कि कठोर एवं हल्का होता है। आज भी इसे रामेश्वरम से श्री लंका की ओर जाता हुआ साफ देखा जा सकता है। बहुत दूर तक पत्थरों की कतार कुछ पानी के ऊपर एवं कुछ पानी के अंदर दिखाई देती है। इस सेतु का चित्र हाल ही में नासा के उपग्रह द्वारा भी लिया गया है। समुद्र के तट में काफी दूर जाकर भी केवल 1 से 10 मीटर की गहराई में पत्थर अभी भी विद्यमान हैं। यही कारण है कि समुद्र के इस भाग के 48 किमी चैड़ा होते हुए भी इधर से जहाजों का यातायात नहीं हो पाता है। इतिहास के अनुसार 15वीं सदी तक यह सेतु समुद्र की सतह से ऊपर था और सन् 1480 में समुद्री तूफान के कारण इसका ऊपरी हिस्सा पानी में डूब गया।
हाल ही में भारत सरकार ने सेतु समुद्रम नौ-परिवहन नहर परियोजना शुरू की है। इस परियोजना के अंतर्गत इस सेतु को साफ कर समुद्र में गहरा बनाया जाएगा ताकि जहाजों का आवागमन सुगम हो सके। परियोजना के सफल हो जाने पर जहाज यात्रा में 30 घंटे के समय की बचत होगी और 400 किमी तक की दूरी कम तय करनी पड़ेगी।
विडंबना यह है कि जिसके बारे में इतिहास के रूप में इतना कुछ हमारे धर्म ग्रंथों में लिखा है, उसी को भारत सरकार ने नकारने में एक पल की भी देर नहीं की। यहां तक कि श्री राम के अस्तित्व पर ही प्रश्न चिह्न लगा दिया। इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं जो श्री राम जितना प्राचीन हो, जिसके बारे में इतना कुछ लिखा गया हो और जिसके हजारों की संख्या में मंदिरों के रूप में स्मारक हों। श्री राम के जन्म स्थल सहित उनके जीवन से संबंधित अनेक स्थलों जैसे चित्रकूट, पंचवटी, रामेश्वरम आदि का वर्णन रामायण में मिलता है जो आज भी उसी रूप में विद्यमान हैं। राम सेतु भी इन्हीं स्मारकों की एक कड़ी है।
हिंदू धर्म के अतिरिक्त किसी भी धर्म ग्रंथ में इस सेतु का कोई उल्लेख नहीं है। इतिहास केवल कुछ हजार वर्षों का ही उपलब्ध है। राम सेतु निर्विवाद रूप से श्री राम की रचना है। वैज्ञानिक भी मानते हैं कि यह प्राकृतिक संरचना नहीं है। ऐसी संरचना विश्व में कहीं और देखने में नहीं आती। प्राकृतिक होती तो अन्य स्थान पर भी देखने में आती। यदि मनुष्य द्वारा निर्मित है तो कभी तो किसी ने अवश्य बनाई होगी ! अन्य किसी भी धर्म में इसकी दावेदारी नहीं है, तो जो दावेदार हंै उन्हें मनाहीं क्यों?
भारत सरकार हमारे सभी ऐतिहासिक स्मारकों और अन्य पुरावशेषों के संरक्षण के प्रति वचनबद्ध है। दिल्ली में ही देखें तो कुतुब मीनार की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए मेट्रो का मार्ग बदल दिया गया। ताजमहल की सुरक्षा के लिए उसके आसपास के कई कारखानों को बंद कर दिया गया और कई स्थानों पर मार्ग की दिशा बदल दी गई। तो फिर ऐसे ऐतिहासिक सेतु की रक्षा के लिए कोई कदम क्यों नहीं ? यह सेतु तो भारत की ही नहीं, विश्व की धरोहर है क्योंकि यह प्राचीनतम वास्तु कला का एक उत्कृष्ट उदाहरण है।
हिंदू शास्त्र के अनुसार कोई भी वस्तु या प्राणी सर्वदा विद्यमान नहीं रहता और न ही किसी के समाप्त होने का शोक करना चाहिए। भविष्य के विकास के लिए भूत को छोड़ देना चाहिए। अतः सेतु को आने वाली पीढि़यों के अनुसंधान के लिए बचाते हुए भी भविष्य के विकास की गति को बढ़ाने के लिए मध्य मार्ग अपनाना चाहिए। सेतु की इस 48 किमी की लंबाई में से केवल आधा या 1 किमी के बीच गहरा बना कर विकास कार्य को भी कायम रखा जा सकता है और सेतु को भी बचाए रखा जा सकता है। इससे न तो पर्यावरण का कोई अधिक नुकसान होगा, न विकास में किसी प्रकार की बाधा आएगी और न ही हिंदुओं की आस्था को कोई आधात पहुंचेगा।

2016 Pisces Horoscope prediction

Pisces Horoscope 2016 For Family
We bring you Pisces horoscope 2016 so that you can know your fortune in 2016. Till Till August, family life might remain a bit troublesome. Pisces horoscopes 2016 predict that all your efforts to keep harmony and coordination alive might not give results. As a result, tiffs will pop up. Married life will go on the path of betterment after August. You will not share good chemistry with your father; however, things look promising with mother. It would be good if you listen to others carefully and don’t impose yourself forcefully on them. Forcing others might help you now, but it will create problems later.
Health Horoscope 2016 For Pisces
As per Pisces astrology 2016, you need to be careful till August. Major health issues are possible to the natives going through Mahadasha of Jupiter. Issues are possible in intestines, liver, kidney and blood. Take very good care of your eating habits and keep your diet restricted. Make sure you start exercising as much as possible, else your health will definitely get affected.
Finance Predictions Of 2016 For Pisces
2016 looks normal for your financial life. You will stay away from useless expenses, predict Pisces predictions 2016. Money will stick with you without any hurdle. However, you have to be careful till August, as betrayals are possible. Your future cards witness you shopping for new things as well as getting success in saving money.
Professional Life Astrology 2016 For Pisces
Some problems are possible initially, but things will fall in harmony later. 2016 will give you many opportunities for achieving success and going toward success. According to the Pisces 2016 forecast, you are expected to get new job this year; however, don’t leave the present job till you get other. In case you resign from the current job without having another in hand, you will have to wait for long to get a call from any other organization.
Business Life 2016 Predictions For Pisces
Pisceans who are into business will enjoy great profits after August. You might establish connections with new business partners, predicts Pisces 2016 horoscope. Working with them will take your business forward and on a progressive path. Though this year is beneficial for you; still, don’t trust anybody blindly till August. Natives going through Dasha of Saturn will cherish fabulous profits.
Pisces Love Horoscope 2016
Love life for you looks normal. Pisceans who have feelings for someone and are yearning to open their heart, need to wait to for sometime. Till the middle of August month, don’t reveal your emotions to that particular person. It is strongly possible that you might lose interest in this very person; hence, don’t rush into it. Why hurt someone later? Troubles are possible due to differences or misunderstandings as well, predicts Pisces 2016 astrology.
Pisces Astrology For January 2016
This month, you will focus on making good connections with your colleagues and seniors. As per the Pisces horoscope for 2016, you will make sure to do everything flawlessly. Decisions taken by you will prove right and will bestow you with benefits. Flow of income and expenses will go simultaneously. It would be good to take good care of your health. Enemies will remain harmless which will help you in every way. Businessmen will go through ups & downs in their partnership business. Try avoiding legal issues this month, as you might face losses in it.
Forecast Of February 2016 For Piscean
February will keep you extremely busy in professional life. According to the Pisces predictions of horoscopes 2016, Some of you might get transferred to a new place. Businessmen will enjoy profits during the first week of this month. Promotion is possible for servicemen. Finances will increase due to wealth gain from land or property. However, expenses will also increase tremendously. Love birds might face stress due to ongoing arguments with their partner. You will take out time for fun & entertainment in the second part of this month.
Pisces Predictions About March 2016
March seems favorable regarding finances and funds. However, you might face difficulties in meeting up your expenses easily. Concentrating on workfront will become a bit difficult for you which will affect your performance, predicts the astrology for Pisces in 2016. Try to solve such problems as soons as possible, else you will miss out some really great opportunities. Opponents will try to harm your image by talking behind your back. Though luck will support you, but you might feel disappointed at times.
Horoscope 2016 Of Piscean For April
The more you work hard, the better will be your results. As per the predictions about Pisces in 2016, your dedication and zeal to work flawlessly will bring success and fame for you. Family members will support you throughout this month. Short journeys are on your cards; however, their success quotient is uncertain. To enjoy hike in income, make sure to give your best. Your friend circle will increase; however, most of these friends will prove selfish in future. You might come across your ex-flame in any social gathering.
Prediction Of Pisces About May 2016
As per Pisces 2016 forecast, beginning of this month might give you worries related to financial life. However, you can keep things in control by planning your expenses and needs. Any religious ceremony is possible in your family. Before taking any major decision, discuss it with your family members. Profits are foreseen in partnership business. Time is good to change job; however, don’t leave the current job till you get any other. Ups & downs will remain in family life. Trying being self dependent and don’t keep expectations from others.
Pisces Astrology 2016 For June
June looks quite tricky regarding finances. Most of you will try to change your job. Pisces 2016 horoscope foretells that you might lack trust in your relationship which will spoil everything. It would be good to avoid being egoistic and solve every problem on time. Try saving money and cut off useless expenses. Accomplish important tasks on time and avoid delaying anything. Unexpected events are possible in your family. Don’t let your efforts fall down and keep on working hard to get the desired results. Luck might not support at times.
Pisces Forecast For July 2016
Your focus will shift on improving your financial life. As per the astrology predictions of Pisces in 2016, luck will support you in this matter. There will be a great rise in your confidence and energy which will do wonders for every aspect of your life. Work responsibilities will increase this month. Owing to increase in workload, you will not enough time to relax and sleep. However, try giving proper rest to your body, else your health will fall down. Partnership works will bring rewards. Servicemen will enjoy name & fame at workfront.
2016 Pisces Predictions For August
Professional life looks challenging this month. As a result, chances of promotion and growth might get hampered. Try to deal with this phase calmly as betterment will come in the second half of this month. Keep your words under control else you might sound offensive. Success will come to those who are engaged in government works, foretells the predictions of Pisces horoscopes in 2016. You can expect sudden profits in the second week of this month. Enemies will turn powerful this time; hence, be careful.
Horoscope Of September 2016 For Piscean
Listening to suggestions of people who are elder and experienced will give a new shape to your professional life. According to the 2016 Pisces horoscope predictions, you will get support of family and friends throughout this month. You might either sell or buy any property. Avoid taking risks this month. Your friend list will increase rapidly. Long distant journeys are possible in the beginning of the month. Students will get results of their hard work. Keep yourself away from junk food and alcohol as you are easily prone to obesity this month.
Pisces 2016 Prediction Of October
Confidence, strong willpower, and hard work will help you get success this month, predicts Pisces horoscopes predictions for 2016. Rather than getting into useless disputes, try spending our useful time creative ideas. Do not take any decision in hurry and discuss the matter with your elders. Most of you will get appreciation and fame at workfront. Financial life will remain strong throughout this month. Be careful from servants as they might steal any valuable asset of yours. Instead of acting stubborn and egoistic, act wise and calm.
Fortune For Piscean In November 2016
November is good to repay debts. Short journey will bring great rewards for you. Don’t let jealousy develop in you and try to improve your flaws. As per the horoscope 2016 for Pisces, students will get the result of their hard work. Love birds might not enjoy good times together. Work pressure will increase to a great extent. Throughout this month, you will lack contentment and mental bliss. However, you can get result of your hard work by keeping yourself away from useless issues. Be careful while working in kitchen.
Life Predictions For Pisces In December 2016
You might get to lead any important project this month. Make sure to give your best and impress your seniors with your performance. Astrology 2016 for Pisces predicts that you might take interest in arts, music and literature. Stay careful about your image, as someone might try to put false allegations on you. Issues related to property will affect your mental health. Avoid going on useless journeys. If any problem is going between you and your lover, try to solve it as soon as possible. You might spend excess money on buying luxurious things for your family.