Monday, 9 May 2016

मंत्र सार

मननात त्रायत इति मंत्र:, मनन त्राण धर्माणों मंत्रा: |
मन को शक्ति प्रदान कर के समस्त भयों से रक्षा करने वाले शब्दों को ‘मंत्र’ कहते हैं। मन’शब्द से मन को एकाग्र करना, ‘त्र’ शब्द से त्राण (रक्षा) करना जिसका धर्म है, वे मंत्र कहे जाते हैं। मंत्र ही समस्त जातकों को मंत्रणा प्रदान करता है। मंत्र ही मन को समृद्ध एवं शांत बनाता है। मंत्र के अभिमंत्रण से किसी भी व्यक्ति, वस्तु, या स्थान को सुरक्षित रखा जा सकता है। वर्णमाला के ‘’ से ले कर ‘’ तक 50 अक्षरों को मातृका कहा गया है। मातृका शब्द का अर्थ माता, अथवा जननी होता है। अतः समस्त वाङ्मय की यह जननी है। संसार का व्यवहार शब्दों के द्वारा होता है। इसलिए शब्द शक्ति सर्वोपरि मानी गयी है। ऋग्वेद के अनुसार मंत्र की पराश्रव्य ध्वनि वायु मंडल को बहुत प्रभावित करती है। मंत्र शक्ति क्रियात्मक ध्वनि तरंगों का पुंज है। मंत्र की तरंगें मस्तिष्क तथा ब्रह्मांडीय वातावरण को प्रभावित करती हैं।
मंत्रों की 3 जातियां मानी गयी हैं - पुरुष, स्त्री एवं नपुंसक। जिन मंत्रों के अंत में वषट्, या फट् का उपयोग होता है, वे पुरुषसंज्ञक हैं। स्वाहा, अथवा वौषट होने पर स्त्रीसंज्ञक तथा हुं एवं नमः अंत वाले मंत्र को नपुसंकसंज्ञक माना गया है। वशीकरण, उच्चाटन एवं स्तंभन में पुरुष मंत्र, क्षुद्र कर्म एवं रोगों के नाश के लिए स्त्रीसंज्ञक मंत्र एवं अभिचार में नपुंसक मंत्रों का प्रयोग सिद्धप्रद होते हैं।
1 अक्षर के मंत्र को ‘पिंड’ संज्ञा, 2 अक्षर को कर्तरी, 3 से 9 अक्षरों तक के मंत्र को ‘बीज’ मंत्र, 10 अक्षर से 20 अक्षर तक को ‘मंत्र’, 20 से अधिक अक्षर के मंत्रों को संज्ञा ‘माला’ माना गया है। इन्हीं नाद शक्तियों के पृथक-पृथक प्रभाव से मंत्र के जपकर्ता को लाभ होता है। जिस तरह किसी बीज में सूक्ष्म रूप से वृक्ष का सर्वांग छिपा होता है, जिसे प्रत्यक्ष नहीं देखा जा सकता है, उसी प्रकार छोटे से मंत्र में उसके अनेक गुण प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखे जा सकते हैं।
अभीष्ट सिद्धि के लिए समस्त मंत्रों को बतायी गयी संख्या में जप, पाठ आदि करना लाभप्रद होता है। यदि किसी मंत्र के प्रति जातक को संशय, भ्रांति हो, तो मंत्र के शुरुआत में ‘ह्रीं श्रीं क्लीं’ लगा कर जप-पाठ आदि करना चाहिए। इसके अतिरिक्त किसी भी मंत्र के आदि एवं अंत में प्रणव ‘ॐ’ लगा कर जप-पाठ आदि करना सिद्धिदायक होता है। जिन मंत्रों का जप किसी विशेष कार्यसिद्धि के लिए होता है, उनके लिए न्यास, विनियोग, संकल्प, उत्कीलन, शापोद्धार आदि आवश्यक होते हैं, यद्यपि निष्काम भावना के जप में न ही विशेष नियम-संयम का प्रावधान है, न ही संकल्पादि की आवश्यकता; अर्थात निष्काम भावना से यथाशक्ति यथासंख्यात्मक जप-पाठ किया जाता है। समस्त मंत्रों के उद्भवकर्ता शिव को मंत्रों का जनक माना जाता है। अतः किसी भी मंत्र का जप रुद्राक्ष की माला पर करें, तो बेहतर परिणाम सम्मुख आएंगे। ज्योतिष के प्रांगण में भी मंत्रों का महत्व सर्वोपरि है। जब किसी जातक की कुंडली में किसी ऐसे ग्रह की कमजोरी देखी जाती है, जिस ग्रह का रत्न धारण नहीं हो सकता है, तो ऐसी स्थिति में मंत्र जप ही लाभ प्रदान करता है।
औषधि, मणि, या मंत्र तब कार्य करते हैं, जब ग्रह-नक्षत्र आदि शुभ होते हैं। अशुभ काल में सभी निष्फल हो जाते हैं; अर्थात, यदि समय सही चल रहा हो, तो मंत्र अवश्य शुभ फल देते हैं।
मंत्र चिकित्सा अनेक असाध्य रोगों के लिए भी उचित मानी गयी है। जिन रोगों का निदान दुर्लभ होता है, अथवा विषघटी, गंडमूल, विष कन्या तथा अनेक प्रकार के दोषों का उपाय, अन्य उपायों की अपेक्षा, मंत्र द्वारा उत्तम माना गया है।
दीपावली, दशहरा, शिव रात्रि, नव रात्रि, सूर्य एवं चंद्र ग्रहण आदि विशिष्ट पर्वों में मंत्र जप का महत्व एवं फल अधिक होता है। मंत्र शक्ति की वृद्धि के लिए मंत्र का पुरश्चरण (नियमित एवं निश्चित संख्यात्मक जप) करना चाहिए; अर्थात् जब तक कोई जातक अमुक मंत्र का निश्चित पुरश्चरण नहीं करता है, तब तक वह मंत्र उसे पूर्ण फलीभूत नहीं होता है। अतः किसी मंत्र का पुरश्चरण कर लेने से उसमें असीमित शक्ति जाग्रत हो जाती है।
प्रत्येक अक्षर, अथवा शब्द का जन्म तो होता है, परंतु उसका विलय नहीं होता है। इसी लिए शब्द को ब्रह्म माना गया है। यदि यही अक्षर शुद्ध सात्विक तथा धर्म एवं आध्यात्म से जुड़े हों, तो ये अक्षर, अथवा शब्द ‘मंत्र’ बन कर, ब्रह्मांड में अमरता प्राप्त कर के, युगो-युगों पर्यंत अपना प्रभाव संपूर्ण विश्व को प्रदान करते रहते हैं।
शब्द के इसी प्रभाव के कारण मंत्रों को सर्वोपरि माना गया है। श्रद्धा एवं विश्वासपूर्वक किया गया मंत्र जप, अथवा मंत्र पाठ जातक को निश्चय ही लाभ देता है।

धनागमन का उपाय

धनागमन का मुख्य उपाय लक्ष्मी-कुबेर का स्तोत्र माना गया है। कुबेर देवताओं के कोषाधिपति हैं। आर्थिक उन्नति के लिए इनकी उपासना की जाती है। कुबेर यंत्र को पूजा के स्थान में रखने का बहुत महत्व है।
विधि- दीपावली से पूर्व कुबेर पूजा (धन तेरस) के दिन, अथवा आश्विन माह कृष्ण अष्टमी को इसकी पूजा-उपासना श्रेष्ठ मानी गयी है। लाल वस्त्र पर कुबेर एवं लक्ष्मी यंत्र (धातु का बना) को प्रतिष्ठित कर के, लाल पुष्प, अष्ट गंध, अनार, कमल गट्टा, कमल पुष्प, सिंदूर आदि से पूजन कर के, कमल गट्टे की माला पर कुबेर के मंत्रों का जप करें। जप के पश्चात कनकधारा स्तोत्र का पाठ, लक्ष्मी-गायत्री का पाठ करना शुभ फलों की वृद्धि करता है। पाठ के पश्चात् माला को गले में धारण कर लें।
विष्णु-लक्ष्मी का पूजन-अर्चन कर के, तांबे के बर्तन में शहद का शर्बत बना कर, ब्राह्मण को दान कर के अधिक लाभ पाया जा सकता है। हजार बेल पत्र को धो कर, विष्णु एवं लक्ष्मी के नामाक्षरों में नमः लगा कर, उन्हें अर्पण करना लक्ष्मी की तुष्टि का उपाय है। धन संग्रह: कई बार आय तो होती है, परंतु उसका अपव्यय होता रहता है। न चाहने पर भी, जातक अनेक तरह से खर्चों में पड़ जाता है। ऐसी स्थिति में निम्न लिखित उपाय सटीक माना गया है:
दीपावली, या किसी भी माह के सर्वार्थ सिद्धि योग, चैत्र शुक्ल पंचमी, अक्षय तृतीया, गुरु पुष्य, भीष्मा एकादशी में से किसी एक दिन जातक, सुबह स्नानादि कर के, मां भगवती के श्री सूक्त का पाठ करें। लक्ष्मी की प्रतिमा को लाल अनार के दाने का भोग लगा कर, आरती आदि कर के, घर से उत्तर दिशा की ओर से प्रस्थान कर, पौधशाला, अथवा अन्यत्र से बेल का छोटा पेड़ घर लाएं। इस बेल के पेड़ को शुद्ध मिट्टी के नये गमले में, लक्ष्मी का सूक्त पढ़ते हुए, लगा दें। इस बेल को घर के उत्तर दिशा में साफ-सुथरे स्थान पर रखें तथा प्रत्येक शाम को इसके पास शुद्ध देशी घी का दीपक जलाएं। जबतक इस बेल की पूजा होती रहेगी, तबतक जातक के घर में लक्ष्मी की वृद्धि होगी एवं अपव्यय बंद हो जाएगा।
कर्ज से छुटकारा- कर्ज़ पाने के लिए कुबेर देव तथा कर्ज चुकाने के लिए दक्षिणावर्ती गणेश की उपासना की जाती है। यदि कर्ज चुकाने की रकम इतनी अधिक हो जाए कि जातक उसे चुकाने में असमर्थ हो, तो ऐसे जातकों को ‘गजेेंद्रमोक्ष’ नामक स्तोत्र का पाठ करने से अधिक लाभ होता है।
विधि- नारद पुराण के अनुसार वैशाख माह के शुक्ल पक्ष तृतीया तिथि को, या दीपावली के दिन, विधिपूर्वक दक्षिणावर्ती गणेश (जिस गणेश की सूंड दाहिनी ओर घुमावदार हो) की मूर्ति, अथवा तस्वीर को चांदी के सिंहासन पर स्थापित कर के ‘गणपति’ यंत्र को उसके साथ स्थापित कर केे, यंत्र के दाहिनी ओर ‘कुबेर यंत्र’ को स्थापित करें। कर्ज संबंधी कार्य के निमित्त कुबेर मंत्र, अथवा श्री गजेंद्र मोक्ष स्तोत्र का दस हजार की संख्या में जप करें। जप के पश्चात हवन, तर्पण, मार्जन आदि करना आवश्यक अंग माना गया है।
चोरों से धन की रक्षा- बार-बार चोरों द्वारा धन चुराने, या व्यापार में बार-बार हानि होने की स्थिति से निपटने के लिए विष्णु के संग रहने वाली लक्ष्मी की उपासना करनी चाहिए।
विधि- ज्येष्ठ माह की शुक्ल एकादशी (भीष्मा एकादशी) या दीपावली के दिन, गंगादि पुण्य स्थल में, अथवा गंगा जल मिश्रित जल से घर में स्नान कर के, कसौटी पत्थर, अथवा गंडकी नदी से प्राप्त शालिग्राम को श्वेत कमल एवं लक्ष्मी यंत्र को लाल कमल के पुष्प पर स्थापित कर के, पुरुष सूक्त, लक्ष्मी सूक्त को आपस में संपुटित कर पाठ करना अति लाभकारी है। कमल गट्टे को घी में डुबो कर ज्येष्ठा लक्ष्मी के मंत्रों से यथाविधि हवन करने से चिरकाल तक लक्ष्मी का निवास होता है तथा चोरों से रक्षा होती है।
बुरी आत्माओं से धन की रक्षा- जहां भी धन रखने का स्थान होता है, वहां लाल कपड़े में, सिंदूर के साथ, कुबेर, लक्ष्मी, गणेश आदि का यंत्र बांध कर रखना चाहिए। धन के स्थान पर अन्य सामग्री रखने से धन हानि, अथवा अधिक धन खर्च आदि के साथ-साथ अन्य कई प्रकार की हानि की शंकाएं बनी रहती हैं।
विधि- सूर्य ग्रहण, अथवा चंद्र ग्रहण को, अथवा दीपावली की रात्रि को (अर्धरात्रि) धन रखने वाले स्थान पर डाकिनी का आवाहन कर के सूखा मेवा, लाल चंदन, नारियल का गोला, थोड़ी सी सरसों (पीली) लाल पुष्प आदि को लाल कपड़े में बांध कर, डाकिनी के 108 मंत्र पढ़ कर, जल से अभिमंत्रित कर के धन संग्रह के स्थान पर रखने से जातक के धन पर बुरी आत्माओं का कुप्रभाव नहीं पड़ता है।
मन्त्र- ॐ क्रीं क्रीं क्रीं क्लीं हीं ऐ डाकिनी हूँ हूँ हूँ फट रवाहा |

कालसर्प योग के प्रकार और उपाय

अग्रे राहुरध: केतु सर्वे मध्यगता: ग्रहा: | योगोयं कालसर्पाख्यो शीघ्रं तं तु विनाशय ||
आगे राहु हो या निचे केतु, मध्य में सभी सातों ग्रह विधमान हो तो कालसर्प योग बनता है |
कालसर्प योग का प्रभाव :
काल सर्प योग में उत्पन्न जातक को मानसिक अशांति, धनप्राप्ति में बाधा, संतान अवरोध एवं गृहस्थी में प्रतिपल कलह के रूप में प्रकट होता है। प्रायः जातक को बुरे स्वप्न आते हैं। कुछ न कुछ अशुभ होने की आशंका मन में बनी रहती है। जातक को अपनी क्षमता एवं कार्यकुशलता का पूर्ण फल प्राप्त नहीं होता है, कार्य अक्सर देर से सफल होते हैं। अचानक नुकसान एवं प्रतिष्ठा की क्षति इस योग के लक्षण हैं। जातक के शरीर में वात, पित्त, कफ तथा त्रिदोषजन्य असाध्य रोग अकारण उत्पन्न होते हैं। ऐसे रोग जो प्रतिदिन क्लेश (पीड़ा) देते हैं तथा औषधि लेने पर भी ठीक नहीं होते हों, काल सर्प योग के कारण होते हैं।जन्मपत्रिका के अनुसार जब-जब राहु एवं केतु की महादशा, अंतर्दशा आदि आती है तब यह योग असर दिखाता है। गोचर में राहु व केतु का जन्मकालिक राहु-केतु व चंद्र पर भ्रमण भी इस योग को सक्रिय कर देता है।
कालसर्प योग के भेद: काल सर्प योग उदित, अनुदित भेद से दो प्रकार के होते हैं। राहु के मुख मेें सभी सातों ग्रह ग्रसित हो जाएं तो उदित गोलार्द्ध नामक योग बनता है एवं राहु की पृष्ठ में यदि सभी ग्रह हों तो अनुदित गोलार्द्ध नामक योग बनता है।यदि लग्न कुंडली में सभी सातों ग्रह राहु से केतु के मध्य में हो लेकिन अंशानुसार कुछ ग्रह राहु केतु की धुरी से बाहर हों तो आंशिक काल सर्प योग कहलाता है। यदि कोई एक ग्रह राहु-केतु की धुरी से बाहर हो तो भी आंशिक काल सर्प योग बनता है। यदि केवल चंद्रमा अपनी तीव्रगति के कारण राहु केतु की धुरी से बाहर भी हो जाता है, तो भी काल सर्प दोष बना रहता है। अतः मुख्यतः छः ग्रह शनि, गुरु, मंगल व सूर्य, बुध, शुक्र राहु के एक ओर हैं तो काल सर्प दोष बनता है।
यदि राहु से केतु तक सभी भावों में कोई न कोई ग्रह स्थित हो तो यह योग पूर्ण रूप से फलित होता है। यदि राहु-केतु के साथ सूर्य या चंद्र हो तो यह योग अधिक प्रभावशाली होता है। यदि राहु, सूर्य व चंद्र तीनों एक साथ हों तो ग्रहण काल सर्प योग बनता है। इसका फल हजार गुना अधिक हो जाता है। ऐसे जातक को काल सर्प योग की शांति करवाना अति आवश्यक होता है।
बुध व शुक्र सूर्य के साथ ही विद्यमान रहते हैं। एवं सूर्य को राहु-केतु के एक ओर से दूसरी ओर आने में 6 माह तक लगते हैं। अतः काल सर्प योग अधिकतम 6 माह या उससे कम ही रहता है।
जब जब कालसर्प योग की स्थिति बनती है, पृथ्वी पर ग्रहों का गुरुत्वाकर्षण एक ओर बढ़ जाता है। जिसके कारण पृथ्वी पर अधिक हलचल रहती है व अधिक भूकंप व सुनामी आदि आते हैं। भूकंप की तीव्रता बढ़ जाती है। ऐसा पाया गया है कि अस्पताल में गर्भपात के केस अधिक होते हैं या अधिक मात्रा में आपरेशन होते हैं, खून का स्राव अधिक होता है एवं मानसिक रोग अधिक होते हैं। अतः कालसर्प दोष का प्रभाव विशेष देखने में आता है।
कालसर्प योग के प्रकार:
द्वादश भावों में राहु की स्थिति के अनुसार काल सर्प योग मुख्यतः द्वादश प्रकार के होते हैं। राहु जिस भाव में होकर कालसर्प दोष बनाता है उसी भाव के फल प्राप्त होते हैं। जैसे -
अनंत- स्वास्थ्य में परेशानी रहती है। षडयंत्र एवं सरकारी परेशानियों को झेलना पड़ता है। अनंत दुखों का सामना करना पड़ता है। बात-बात पर झूठ बोलना पड़ता है। पत्नी से झगड़ा रहता है।
कुलिक- आंखों में परेशानी रहती है, पेट खराब रहता है। लोग बोलने को गलत समझ लेते हैं और उसकी सफाई देनी पड़ती है। धन की कमी महसूस होती है। कुल में क्लेश झेलने पड़ते हैं।
वासुकि- कानों के कष्टों से पीडि़त रहते हैं। भाई बहनों से मेल मिलाप में कमी रहती है। कभी-कभी ऊर्जा का अभाव महसूस होता है। कैंसर आदि रोग से भी ग्रसित होने का भय होता है।
शंखपाल- माता-पिता का स्वास्थ्य खराब रहता है। घर में कलह बनी रहती है। घर में व वाहन में कुछ न कुछ मरम्मत की आवश्यकता पड़ती रहती है। काम में मन नहीं लगता है। व्यवसाय में नुकसान झेलना पड़ता है।
पदम्- संतान कहना नहीं मानती या संतान से कष्ट होता है। सोच-विचार कर किए गए कार्य भी हानि देते हैं। या आखिर में छोटी गलती के कारण नुकसान झेलना पड़ता है।
महापदम- स्वास्थ्य परेशान करता है। मामा की ओर से नुकसान होता है। खर्चे अधिक हो जाते हैं। अचानक अस्पताल आदि पर खर्च हो जाता हैं। जो वित्तीय प्रवाह को बिगाड़ देता है। अक्सर दुश्मन हावी हो जाते हैं या समय व पैसा बर्वाद करवा देते हैं।
तक्षक- पत्नी साथ नहीं देती। पारिवारिक व गृहस्थ जीवन उजड़ा सा रहता है। अपना स्वास्थ्य भी कभी-कभी अचानक खराब हो जाता है। धन हानि होती है।
कर्कोटक- स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखना पड़ता है। पेट की बीमारी व अपचन बनी रहती है। लोग थोड़ा बोलने पर भी प्रतिक्रिया करते हैं। धन संचय में परेशानी होती है। परिवार में कलह होती है।
शंखचुड- बड़े लोगों से मिलने में धन व समय नष्ट होता है। सिर दर्द या चक्कर आने का रोग हो जाता है। भाग्य साथ नहीं देता। हर काम में दुगनी मेहनत करनी पड़ती है।
घातक- पिता से विचार नहीं मिलते हैं। अचानक हानि हो जाती है। परिवार में कलह रहती है। एक काम अच्छी तरह से सेट नहीें होता। माता-पिता का स्वास्थ्य ध्यान आकर्षित करता रहता है।
विषधर- लाभ अचानक हानि में बदल जाता है। बड़े भाई बहनों का सहयोग नहीं प्राप्त होता। मित्र मंडली समय खराब कर देती है। एक से अधिक संबंध पारिवारिक कलह का कारण बनते हैं।
शेष नाग- रोग व अस्पताल पर विशेष व्यय होता है। कैंसर जैसे रोग तंग करते हैं। अपव्यय होता है। निरर्थक यात्रा होती है। समय-समय पर पैसे की दिक्कत महसूस होती है।
कुछ मुख्य उपाय
1. प्रति वर्ष मे एक बार किसी सिद्धस्थल जैंसे अमलेश्वर महाकाल धाम जाकर कालसर्प दोष की शांति करवाए एवं वर्ष मे एक-दों बार घर मे या मंदिर मे काल सर्पं शांति करवाएं। 2. नाग पंचमी पर रुद्राभिषेक करवाएं व नाग नागिन के एक या नौ जोड़े विसर्जित करें। 3. कालसर्प अंगूठी, लाकेट या यंत्र धारण करें। 4. भगवान विष्णु, शिव, राहु व केतु का पाठ व मंत्र जाप करें। 5. कालसर्प योग यंत्र के सम्मुख 43 दिन तक सरसों के तेल का दीया जलाकर निम्न मंत्र का जप करें। 6. ग्रहण के दिन तुला दान करें व नीले कंबल दान करें। 7. "ॐ नम: शिवाय" मंत्र का जप प्रतिदिन रुद्राक्ष माला पर करें व माला को धारण करें। 8. गरुड़ भगवान की पूजा करें। 9. 7 बुधवार एकाक्षी नारियल अपने ऊपर से उतारकर प्रवाहित करें। 10. 8, 9, व 13 मुखी रुद्राक्ष का कवच धारण करें।

ग्रहण क्यूँ होते है ???

ज्योतिष में ग्रहणों का बहुत महत्व है क्योंकि उनका सीधा प्रभाव मानव जीवन पर देखा जाता है। चंद्रमा के पृथ्वी के सबसे नजदीक होने के कारण उसके गुरुत्वाकर्षण का सबसे अधिक प्रभाव पड़ता है। इसी कारण पूर्णिमा के दिन समुद्र में सबसे अधिक ज्वार आते हैं और ग्रहण के दिन उनका प्रभाव और अधिक हो जाता है।
भूकंप भी गुरुत्वाकर्षण के घटने और बढ़ने के कारण ही आते हैं। यही भूकंप यदि समुद्र के तल में आते है, तो सुनामी में बदल जाते हैं। भूकंप, तूफान, सुनामी आदि में वैसे तो सूर्य, बुध, शुक्र और मंगल का प्रभाव देखा गया है लेकिन चंद्रमा का प्रभाव विशेष है एवं ग्रहण का प्रभाव और भी विशेष है। ग्रहण अधिकाशंतः किसी न किसी आने वाली विपदा को दर्शाते हैं।
यह तो सर्वविदित ही है कि चंद्र ग्रहण पूर्णिमा और सूर्य ग्रहण अमावस्या के दिन पड़ते हैं। लेकिन प्रत्येक पूर्णिमा या अमावस्या के दिन ऐसा नहीं होता क्योंकि सूर्य, राहु या केतु के साथ नहीं होता जिसके कारण चंद्रमा, सूर्य और पृथ्वी की रेखा से ऊपर या नीचे रह जाता है। पृथ्वी, चंद्र और सूर्य की जो स्थिति ग्रहण देती है वह निम्न रेखाचित्र में दर्शाया गया है।
ग्रहण पड़ने के कुछ नियम विशेष है
पृथ्वी की छाया अधिकतम 859000 मील तक जाती है जबकि चंद्रमा केवल 1 लाख मील से भी कम की दूरी पर स्थित है।
सूर्य ग्रहण कभी भी पूरी पृथ्वी पर दृष्टिगोचर नहीं होता। चन्द्र ग्रहण अधिकतर पृथ्वी के पूर्ण पटल पर दिखाई देता है।
एक वर्ष में अधिकतम 7 ग्रहण हो सकते हैं- चार सूर्य एवं तीन चंद्र या पांच सूर्य एवं दो चंद्र ग्रहण।
चंद्र ग्रहण सूर्य ग्रहण से कम होते हैं, लेकिन सूर्य ग्रहण के मुकाबले चंद्रमा पृथ्वी की छाया से अधिक बार ढक जाता है।
पूर्ण चंद्र ग्रहण अधिकतम 1 = घंटे का होता है। इस मध्य चंद्रमा 52कला आगे तक चला जाता है।
सूर्य ग्रहण पूर्ण, वलयाकार और आंशिक तीन प्रकार के होते हंै। वलयाकार में चंद्रमा सूर्य के मध्य पर से गुजरता है, लेकिन चंद्रमा के चारों ओर से सूर्य की रोशनी आती रहती है।
चंद्र ग्रहण तभी होता है जब सूर्य 9 दिन के अंदर केतु के ऊपर गोचर करने वाला हो।
चंद्र जब राहु और केतु के ऊपर से गुजरता है एवं सूर्य राहु, केतु से 12.1 0 के अंदर होता है तो चंद्र ग्रहण होता है। यदि सूर्य 9.5 0 के अंदर होता है तो पूर्ण ग्रहण होता है।
सूर्य ग्रहण जब होता है तब सूर्य राहु या केतु से 18.5 0 दूर होता है। 15.4 0 के अंदर होने पर पूर्ण या वलयाकार ग्रहण होता है।
जिस तारीख को पूर्णिमा या अमावस्या होती है उसी तारीख को 19 वर्ष पश्चात वही तिथि होती है। इसे लाक्षणिक चक्र ;डमजवदपब बलबसमद्ध कहते हैं। इस अवधि में चंद्र के 235 चक्र एवं पृथ्वी के 19 चक्र पूर्ण हो जाते हैं।
ग्रहण 18 वर्ष 11 दिन पश्चात् पुनः उसी शृंखला में आते हैं क्योंकि इस अवधि में चंद्रमा के 223 चक्र एवं राहु से सूर्य के 19 चक्र पूर्ण हो जाते हैं। यह चंद्र चक्र (Saros Cycle) कहलाता है।
सूर्य तथा चन्द्र ग्रहण काल के शुभाशुभ कृत्य:
चंद्र ग्रहण जिस प्रहर में हो उससे पूर्व के तीन प्रहरों में तथा सूर्य ग्रहण से पहले चार पहरों में भोजन नहीं करना चाहिए। केवल वृद्ध जन, बालक और रोगी इस निषेध काल में भोजन कर सकते हैं, उनके लिए भोजन का निषेध नहीं है। ग्रहण काल में अपने आराध्य देव के जपादि करने से अनंतगुणा फल की प्राप्ति होती है। ग्रहण काल की समाप्ति के पश्चात् गंगा आदि पवित्र नदियों में स्नान करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है।शास्त्रो कें अनुसार ग्रहण के समय दिया हुआ दान, जप, तीर्थ, स्नानादि का फल अनेक गुणा होता है। लेकिन यदि रविवार को सूर्य ग्रहण एवं चंद्रवार को चंद्रग्रहण हो, तो फल कोटि गुणा होता है।
आध्यात्मिक साधना के क्षेत्र में यंत्र-मंत्र सिद्धि साधना के लिए ग्रहण काल का अपना विशेष महत्व है। चंद्रग्रहण की अपेक्षा सूर्य ग्रहण का समय मंत्र सिद्धि, साधनादि के लिए अधिक सिद्धिदायक माना जाता है।

ॐ हनुमते नम:

अतुलितबलधाम हेमशैलाभदेह दनुजवनकृशानु ज्ञानिनामग्रगण्यम |
सकलगुणनिधान वानराणामधीश रघुपतिप्रियभक्त वातजातं नमामि ||
अतुल बल के धाम, सोने के पर्वत सुमेरु के समान शरीर वाले, दैत्य रूपी वन का ध्वंस करने के लिए अग्नि रूप, ज्ञानियों में अग्रगण्य, संपूर्ण गुणों के निधान, वानरों के स्वामी, श्री रघुनाथ जी के प्रिय भक्त पवन पुत्र श्री हनुमान जी को प्रणाम करता हूं ।।
आश्विनस्यासिते पक्षे स्वात्यां भौमे चतुर्दशी |
मेषलग्नेश्जनीगर्भात स्वयं जातो हर: शिव: || वायुपुराण
आश्विन मास के कृष्ण पक्ष में, चतुर्दशी तिथि को मंगल के दिन, स्वाति नक्षत्र और मेष लग्न में माता अंजना के गर्भ से स्वयं भगवान शिव हनुमान जी के रूप में प्रकट हुए। इस तथ्य के अनुसार सूर्य कन्या राशि में स्थित है एवं चंद्र सूर्य से कम अंशों पर है अर्थात स्वाति नक्षत्र नहीं हो सकता। इसका स्पष्टीकरण हृषिकेश पंचांग, वाराणसी में मिलता है।
शुक्लादिमासगणनया आश्विनकृष्ण कार्तिककृष्ण तुलार्केमेषलग्ने सायंकाले |
अतश्चचुर्दश्यां सायंकाले जन्मोत्सव: ||
इसके अनुसार: अर्थात शुक्लादि मास गणनानुसार आश्विन कृष्ण पक्ष एवं कृष्णादि मास गणनानुसार कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी को, तुला के सूर्य में, मेष लग्न में सायंकाल को श्री हनुमान का जन्म हुआ। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि श्री हनुमान जी का जन्म मास आश्विन शुक्लादि है न कि कृष्णादि। अतः मास प्रवेश में सूर्य अवश्य कन्या राशि में था, लेकिन मास समाप्ति के समय जब कृष्ण चतुर्दशी थी तब वह तुला के मध्य या उच्चांश पर स्थित था। इसी कारण चंद्रमा भी तुला में स्वाति नक्षत्र में स्थित था।
पंचांगों के अनुसार चैत्र पूर्णिमा को चित्रा नक्षत्र में हनुमान जयंती मनाई जाती है। लेकिन गीता प्रेस के श्री हनुमान अंक के अनुसार हनुमान जी की माता अंजना जी को उनकी कठोर तपस्या के पश्चात इस दिन वायु देवता ने पुत्र का वरदान दिया था। उसके कुछ समय पश्चात उन्होंने महाराष्ट्र प्रदेश में नासिक के पास अंजना नेरी पर्वत की एक गुफा में श्री हनुमान को जन्म दिया। अतः चैत्र पूर्णिमा उचित रूप में जयंती नहीं है।
श्री राम का जन्म यदि 21 फरवरी, 5115 ई.पू. (संदर्भ संपादकीय, फ्यूचर समाचार, मई 2005) को माना जाए जिसके अनुसार श्री हनुमान श्री राम के समकालीन थे और उनकी उम्र श्री राम की उम्र से कुछ वर्ष कम या अधिक रही होगी, एवं श्री हनुमान की प्रचलित कुंडली में सिंह के गुरु और मकर के शनि को ठीक मान कर वर्ष एवं दिन की गणना की जाए तो श्री हनुमान का जन्म 3 सितंबर, 5139 ई.पू. को लगभग सायं 7 बजे महाराष्ट्र में नासिक और त्रयंबकेश्वर के मध्य कार्तिक कृष्ण चतुदर्शी को स्वाति नक्षत्र में मेष लग्न में हुआ होगा।
ज्योतिष में हनुमान जी की विशेष महत्ता है। शनि के कारण उत्पन्न कष्टों के निवारण, मंगल ग्रह दोष, काल सर्प दोष आदि के निवारण एवं भूत-प्रेत की बाधाओं से मुक्ति पाने के लिए सबसे पहले हनुमान जी ही याद आते है। हनुमान जी के भक्तों को शनि तंग नहीं करता।
हनुमान जी, शिव जी की तरह, शीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं एवं श्री रामचंद्र जी की आराधना से अति प्रसन्न होते हैं। हनुमान जी की उपासना में पूजा, जप, पाठ, उपवास, चोला, ध्वजा आदि मुख्य हैं। हनुमान
जी की कृपा प्राप्त करने के लिए सुंदर कांड, बजरंग बाण, हनुमानाष्टक एवं हनुमान चालीसा आदि के पाठ का विधान है।
मारुति नंदन की कृपा के लिए मंगलवार का उपवास रखा जाता है। इस उपवास में नमक, मांस, मदिरा आदि वर्जित हैं एवं एक बार भोजन करने का विधान है। गुड़ एवं चने का सेवन विशेष रूप से फलदायी है। ‘ऊँ हनुमते नमः’ श्री मारुति नंदन का सिद्ध मंत्र है एवं इससे शीघ्र ही कार्य की सिद्धि होती है।
हनुमान जी के मंदिर भारत के हर शहर एवं गांव में हैं। अनेक सिद्ध पीठ हैं। कुछ मुख्य सिद्ध पीठों की चर्चा इस अंक में की गई है। सिद्ध पीठ में की गई आराधना किसी भी अन्य स्थल से सहस्र गुना अधिक फलदायी होती है।

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Sunday, 8 May 2016

मुहूर्त प्रश्नोत्तरी

मुहूर्त किसे कहते है ?
किसी भी कार्य विशेष के लिए पंचांग शुद्धि द्वारा निश्चित की गई समयावधि को ‘मुहूर्त’ कहा जाता है।
मुहूर्त निकलने के मुख्य नियम क्या है ?
तिथि, वार, नक्षत्र, योग एवं करण इन्हीं के आधार पर शुभ समय निश्चित किया जाता है। लग्न शुद्धि के साथ-साथ इन पांचों का शुभ होना परम आवश्यक है। इन सबके आधार पर ही शुभ व शुद्ध मुहूर्त निकाला जाता है।
किन कार्यों का मुहूर्त निकलकर काम करना चाहिए या किनका नहीं ?
दैनिक व नित्य कर्मों को करने के लिए कोई मुहूर्त नहीं निकाला जाता है, परंतु विशिष्ट कर्मों व कार्यों की सफलता हेतु मुहूर्त निकलवाना चाहिए ताकि शुभ घडि़यों का अधिकाधिक लाभ प्राप्त हो सके।
यदि मुहूर्त न निकल रहा हो तो आवश्यकता पड़ने पर क्या करें ?
यदि आवश्यकता के अनुसार मुहूर्त न निकल रहा हो, तो केवल शुभ योग देखकर और अति आवश्यकता में अभिजित मुहूर्त या गोधूलि के समय अथवा केवल लग्न शुद्धि कर कार्य कर सकते हैं।
गोधुलि व् अभिजित मुहूर्त को इतनी मान्यता क्यूँ है ?
गोधूलि व अभिजित मुहूर्त में सूर्य केंद्र में स्थित होता है, जो इन मुहूर्तों की महत्ता को बढ़ाता है।
किस वर्ष विवाह गृहप्रवेश मुहूर्त नहीं होता ऐसा क्यूँ होता है ?
विवाह मुहूर्त लगभग 15 जनवरी से 15 मार्च, 15 अप्रैल से 15 जुलाई व 15 नवंबर से 15 दिसंबर के बीच ही होते हैं। इसमें भी कभी-कभी गुरु और शुक्र अस्त हो जाते हैं। गुरु लगभग 3 सप्ताह एवं शुक्र 2 माह अस्त रहता है। इस प्रकार जब ये ग्रह अस्त होते हैं लगभग मुहूर्त की एक ऋतु बीत जाती है और ऐसा लगता है कि वर्ष में मुहूर्त ही नहीं है।
यदि एक मुहूर्त किसी एक कार्य के लिए शुद्ध हो, तो क्या अन्य कार्यों के लिए शुद्ध नहीं हो सकता ?
मुहूर्त शास्त्र के अनुसार प्रत्येक घड़ी का अपना महत्व होता है। फिर कार्य के अनुरूप ही नक्षत्र, तिथि, और वार का चयन कर मुहूर्त बताया जाता है। इसलिए यह आवश्यक नहीं है कि एक मुहूर्त किसी एक कार्य के लिए शुद्ध हो, तो वह अन्य कार्यों के लिए भी शुद्ध होगा।
राहुकाल,चौघड़िया, होरा एवं लग्न शुद्धि- समय शुद्धि की इन चार पद्धित्तियों में से कौन सी कब अपनानी चाहिए ?
प्रतिदिन लगभग 1 घंटा 30 मिनट की अवधि राहुकाल की अवधि मानी गई है। राहु काल में कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ करना या उसके लिए बाहर निकलना मना किया गया है। राहुकाल में प्रारंभ किए गए शुभ कार्य को ग्रहण लग जाता है। यदि अकस्मात यात्रा करने का मौका आ पड़े, तो उस अवसर के लिए विशेष रूप से चैघडि़या मुहूर्त का उपयोग होता है। इसी प्रकार होरा मुहूर्त कार्य सिद्धि के लिए पूर्ण फलदायक व अचूक माने जाते हैं, जो दिन रात के 24 घंटों में घूमकर मनुष्य को कार्य सिद्धि के लिए अशुभ समय में भी सुसमय, सुअवसर प्रदान करते हैं। सूर्य का होरा राज सेवा के लिए, चंद्रमा का होरा सभी कार्यों के लिए, वाद मुकदमे के लिए मंगल का होरा, ज्ञानार्जन के लिए बुध का होरा, प्रवास के लिए शुक्र, विवाह के लिए गुरु व द्रव्य संग्रह के लिए शनि का होरा उत्तम होता है। प्रत्येक कार्य के लिए लग्न शुद्धि शुभ भविष्य को दर्शाती है।
तीन ज्येष्ठ हों, तो क्या विवाह करना अशुभ है ?
परम्परा के अनुसार तीन ज्येष्ठ होने पर विवाह करना शुभ फलदायी नहीं माना जाता। इस योग में विवाह होने पर वर पक्ष अथवा वधू पक्ष में हानि होने की संभावना मानी जाती है। लेकिन मुहूर्त शास्त्र में उल्लेख नहीं हैं।
किसी कार्य को करने की शुभ तारीख ज्ञात करने के लिए शुभ योग की गणना करें या पंचांग शुद्धि से देखें ?
पंचांग शुद्धि के द्वारा दिन निर्धारण करना मुहूर्त शास्त्र के अनुसार श्रेयस्कर माना गया है। यदि समयावधि के अनुसार शुभ तारीख न बनती हो तो शुभ योगों की गणना कर कार्य करना उचित माना जाता है।
विवाह काल में यदि सुतक पड़े तो क्या विवाह करना उचित होगा ?
विवाह काल में यदि सूतक पड़ जाए, तो विवाह करना उचित नहीं माना जाता। ऐसी स्थिति में सूतक शुद्धि कर लेनी चाहिए। सूतक काल में शास्त्रों के अनुसार पूजा-पाठ व वैदिक अनुष्ठान वर्जित हैं।
अबूझ मुहूर्त में विवाह करना उचित है या केवल मुहूर्त की तारीख में ?
अबूझ मुहूर्त में विवाह करना उचित है, परंतु मुहूर्त की तारीखें विवाह के लिए उपयुक्त हों, तो उनमें विवाह करना श्रेयस्कर होता है , क्योंकि ये मुहूर्त पंचांग द्वारा शुद्धीकरण कर निकाले जाते हैं। अबूझ मुहूर्त को केवल शुभ तारीखें न मिलने पर अपनाना चाहिए।
अभुझ मुहूर्त में तारा आदि डूबें हो या अन्य कोई कारण हो तो भी क्या इनमें विवाह करना शुभ होगा ?
अबूझ मुहूर्त के समय तारा डूबा हो अथवा अन्य कोई कारण हो, तो इनमें विवाह करना ठीक नहीं है, क्योंकि अबूझ मुहूर्त शुभ मुहूर्त से कम फलदायी माना गया है।
यदि वर व् कन्या का मिलान शुभ न हो तो क्या शुभ मुहूर्त में विवाह कर दोष दूर किया जा सकता है ?
शुभ मुहूर्त में विवाह कर व दोष संबंधी दान-पूजा करवाकर मिलान दोष दूर तो नहीं, परंतु कम अवश्य किया जा सकता है। शुभ मुहूर्त में विवाह करवाने से दोष कुछ अवधि के लिए टल जाता है।
यदि वास्तु दोष हो तो क्या शुभ मुहूर्त में प्रवेश का वास्तु दोष से मुक्ति पाई जा सकती है ?
शुभ मुहूर्त मे प्रंवेश कर वास्तु दोष से मुक्ति तो नहीं पाई जा सकती, परंतु वास्तु दोष कम अवश्य किया जा सकता है। पूर्ण रूप से वास्तु दोष को तभी दूर किया जा सकता है, जब घर वास्तु आधारित नियमो कें अनुसार बनाया गया हो।
क्या मुहूर्त के द्वारा भविष्य को बदला जा सकता है ?
जिस प्रकार किसी बालक के जन्म समय के ग्रह उसके भविष्य को बताते हैं, उसी प्रकार मुहूर्त आने वाले समय में जो कार्य होना है, उसका भविष्य बताता है। शुभ मुहूर्त में कार्य कर भविष्य तो नहीं बदला जा सकता, परंतु कुछ दोष अवश्य कम किए जा सकते हैं। शुभ मुहूर्त में कार्य तभी सफल होता है जबकि आपके पूर्व जन्म के कर्म व भाग्य अनुकूल हों।

वर्षफल किस समय या स्थान से बनाएं

नीलकंठ ने सैकड़ों वर्ष पूर्व ज्योतिष में वर्षफल बनाने और उससे फल कहने का सिद्धांत दिया। आजकल कंप्यूटर के द्वारा गणना आसान होने के कारण यह पद्धति काफी प्रचलित हो गयी है। इस पद्धति में वर्ष के प्रवेश की तारीख और समय निकाल कर उस समय की कुंडली बना ली जाती है। एक ग्रह को जो वर्ष लग्न पर सबसे अधिक असर रखता है, वर्षेश्वर का शीर्षक दे दिया जाता है। मुंथा एक छाया ग्रह है, जो प्रतिवर्ष एक राशि चलती है, वर्ष कुंडली में इसकी भूमिका महत्त्वपूर्ण है। इसमें एक वर्ष अवधि की मुद्दा एवं पात्यंश दशा की गणना भी की जाती है। इस पद्धति में ग्रहों की दृष्टियां जन्मकुंडली जैसी नहीं होती हैं। योगों में इसमें केवल शोडष योग ही प्रचलित है। घटना घटने का समय निकालने के लिए सहम की गणना दी गयी है। ग्रहों के आपसी भेद देखने के लिए त्रिपताकी चक्र बनाया जाता है।
इस पद्धति में गणना काफी विस्तार से की गयी है। लेकिन इसकी मूल गणना - वर्ष प्रवेश गणना में कई मतभेद है। वर्षमान क्या लेना चाहिए? प्राचीन पद्धति में यह मान 1 वर्ष 15 घटी 31 पल 30 विपल अर्थात 365 दिन 6 घंटे 12 मिनट 36 सेकेंड, या 365.25875 लिया गया है। सायन सूर्य 365.242193 दिन अर्थात 365 दिन, 5 घंटे 48 मिनट 45.5 सेकेंड में अपना चक्कर पूरा कर लेता है और निरयण सूर्य को 365.256363 दिन, अर्थात् 365 दिन 6 घंटे 9 मिनट 9.8 सेकेंड लगते हैं। हमें कौन सा वर्षमान लेना चाहिए?
दूसरी समस्या स्थान की आती है। क्या हमें जन्म स्थान को ही वर्ष स्थान के रूप में लेना चाहिए, या व्यक्ति विशेष वर्ष प्रवेश के समय जिस स्थान पर हो, उस स्थान को लेना चाहिए?
इन समस्याओं के समाधान से पहले वर्ष की परिभाषा को समझना आवश्यक है। पृथ्वी के सूर्य के चारों ओर चक्कर लगा कर उसी स्थान पर आ जाने को वर्ष कहते हैं। ज्योतिष में हम पृथ्वी की स्थिति तारों के सापेक्ष में देखते हैं, न कि सूर्य के सापेक्ष में। अतः हमें निरयण वर्षमान को ही मानना होगा। अतः वर्ष के लिए वर्षमान 365.256363 दिन होता है। इतने समय में निरयण सूर्य लगभग उन्ही अंश, कला, विकला पर आ जाता है। यदि कला-विकला में कुछ फर्क आता है, तो वह केवल पृथ्वी के उद्वेलित होने के कारण। यह वर्षमान का उपयोग लाहिरी ने अपने पंचांग में भी किया है। रमन ने भी इसी वर्षमान को लिया है। लेकिन इसको पूर्ण रूप में ठीक से न ले कर कुछ सेकेंड की गलती कर दी है, जिसके कारण 100 वर्ष में कुछ मिनटों का अंतर आ जाता है।
अब प्रश्न है वर्ष स्थान का। यह सुनने में बहुत तार्किक लगता है कि वर्ष प्रवेश के समय व्यक्ति जहां पर हो, वही वर्ष स्थान लेना चाहिए। लेकिन वर्ष प्रवेश गणना एक खगोलीय गणना है और यह हमें खगाोल शास्त्र के आधार पर ही करनी चाहिए। वर्ष की परिभाषा के अनुसार यह वह मान है, जिसमें पृथ्वी घूम कर उसी स्थान पर आ जाती है। वर्षमान के लिए स्थान का महत्व नहीं है, क्योंकि पृथ्वी को एक बिंदु मान कर यह गणना की जा रही है।

पारिवारिक कलह: कारण व निवारण

ज्योतिष में सप्तम भाव अपने साथी का भाव माना गया है- वह जीवन साथी हो या व्यापार में साझेदार। सप्तम भावेश लग्नेश का सर्वदा शत्रु होता है। जैसे मेष, लग्न के लिए लग्नेश हुआ मंगल एवं सप्तमेश हुआ शुक्र और दोनों में आपस में शत्रुता है। शायद हमारे ऋषि मुनियों को यह ज्ञात था कि साथ में कार्य करने वालों में मतभेद होता ही है, इसलिए उन्होंने इस प्रकार के ज्योतिष योगों का निर्माण किया।
यदि आध्यात्मिक दृष्टि से विचार किया जाए तो प्रत्येक व्यक्ति अपने स्वभाव से बंधा हुआ है। इसके विपरीत चलने में उसे कष्ट होता है। साथ ही दूसरे को भी वह अपने स्वभाव के समानांतर चलाने की कोशिश करता है। यह प्रकृति का एक नियम है। लेकिन दो व्यक्तियों के स्वभाव आपस में कितने भिन्न हैं यह ज्योतिष द्वारा दोनों के लग्नों एवं राशियों के माध्यम से ज्ञात किया जा सकता है। इससे संबद्ध कुछ तथ्य इस प्रकार हैं:
यदि लग्न एक दूसरे के 3-11 हो तो आपसी सामजस्य उत्तम रहता है। एक लग्न दूसरे को मित्र मानता है तो दूसरा पहले को अपना पराक्रम अर्थात कष्ट का साथी। जैसे मेष लग्न के लिए मिथुन लग्न उसका पराक्रम का साथ है एवं कुंभ लग्न उसका मित्र।
लग्नों में 4-10 का संबंध भी उत्तम रहता है, लेकिन व्यापारिक में साझेदारी यह संबंध अति उत्तम पाया गया है। जिसका लग्न दशम भाव में हो, वह कर्मशील रहता है और जिसका चैथे में हो, वह आर्थिक व मानसिक सहायता द्वारा अपना योगदान देता है। जैसे मेष व कर्क लग्नों की साझेदारी में कर्क लग्न मेष के चैथे भाव में पड़ता है, अतः मेष लग्न के जातक के लिए कर्क लग्न का जातक आर्थिक व मानसिक सहायता प्रदान करेगा और कर्क लग्न के लिए मेष लग्न वाला जातक कर्म द्वारा अपने कार्यभार संभालेगा।
नवम-पंचम संबंध भी शुभ फल प्रदान करता है। लेकिन जिस जातक का लग्न दूसरे के नवम का सूचक होता है, वह अपने साथी के लिए सर्वदा भाग्य का सूचक रहता है एवं साथी को हर प्रकार का सुख पहुंचाता है। इसके विपरीत पंचम कारक जातक अपने साथी के लिए पिता जैसा व्यवहार तो रखता है, लेकिन साथी से सर्वदा लेने की भावना भी रखता है। इस प्रकार मेष लग्न के लिए सिंह लग्न शुभ होते हुए भी लाभ की स्थिति में रहता है जबकि मेष लग्न सिंह से नवम होने के कारण उसके लिए सर्वदा लाभकारी रहता है।
द्विद्र्वादश संबंध सर्वदा अशुभ माना गया है, लेकिन इसमें भी दूसरे भाव में पड़ने वाला लग्न शुभदायक रहता है एवं द्वादश में पड़ने वाला अशुभ जैसे मेष के लिए वृष शुभ एवं मीन अशुभ।
षडाष्टक संबंध अधिकांशतः कलह का कारण बनते हैं।
समसप्तक संबंध अर्थात् एक लग्न या सप्तम लग्न एक साधारण संबंध की ओर ही संकेत करता है। इस स्थिति में एक जातक दूसरे जातक को अति महत्वपूर्ण एवं अभिन्न साथी समझता है, लेकिन साथ रहने पर किसी न किसी कारणवश वैमनस्यता उत्पन्न हो जाती है।
उपर्युक्त सभी फल राशि के अनुसार भी घटित होते हैं।
गुण मिलान में उपर्युक्त फलों की भकूट दोष के द्वारा जाना जाता है। उपर्युक्त तथ्यों का पिता-पुत्र, भाई-बहन, पति-पत्नी एवं नौकर-मालिक के संबंधों को जानने में भी उपयोग किया जा सकता है।
कुंडली मिलान में अष्टकूट मिलान एवं मंगल दोष मिलान को प्राथमिकता दी गई है। अष्टकूट गुण मिलान में वर्ण एवं वश्य मिलान कार्यशैली को दर्शाता है। तारा से उनके भाग्य की वृद्धि में आपसी संबंध का पता चलता है। योनि-मिलान से उनके शारीरिक संबंधों की जानकारी मिलती है। ग्रह मैत्री स्वभाव में सहिष्णुता को दर्शाता है। गण मैत्री से उनका व्यवहार, भकूट से आपसी संबंध एवं नाड़ी से उनके स्वास्थ्य और संतान के बारे में जाना जाता है।
उपर्युक्त अष्ट गुणों में केवल ग्रह मैत्री एवं भकूट ही ऐसे दो गुण हैं जो आपसी संबंध को दर्शाते हैं।
अन्य गुण जीवन की अन्य भौतिकताओं को पूरा करने में सहायक होते हैं। मंगल दोष मिलान भी उनके अन्य संबंधों के बारे में संकेत न देकर वैवाहिक जीवन का संकेत देता है। अतः परिवार में यदि सभी सदस्यों का आपस में द्विद्र्वादश या षडाष्टक संबंध न हो तो पारिवारिक कलह की संभावनाएं कम रहती हैं।
पुरुष वर्ग पांच मुखी रुद्राक्षों की माला में एक मुखी, आठ मुखी व पंद्रह मुखी रुद्राक्ष डालकर धारण करें। इस माला पर प्रतिदिन प्रातः ॐ नमः शिवाय मंत्र का जप करें।
पत्नी मांग भरें, लाल बिंदी लगाएं और चूडि़यां धारण करें।
घर में विघ्नहर्ता श्री गणेश यंत्र स्थापित करें।
स्फटिक श्रीयंत्र की प्राण प्रतिष्ठा कर स्थापित करें।
ॐ नम: शिवशक्तिस्वरूपाय मम गृहे शांति कुरु कुरु स्वाहा मंत्र का जप करें।
पति-पत्नी बीच कलह को दूर करने के लिए गौरी शंकर रुद्राक्ष धारण करना उत्तम फलदायक होता है।
पानी से भरे चांदी के लोटे या गिलास में चंद्रमणि डालकर वह पानी परिवार के जिस सदस्य को क्रोध अधिक आता हो उसे पिलाएं।
वास्तु दोष को दूर करने के लिए एक कलश में पानी भरकर उसे नारियल से ढककर ईशान कोण में स्थापित करें और उसका जल प्रतिदिन बदलते रहें।
तात्पर्य यह कि परिवार में कलह की संभावना हमेशा रहती है। इसके कई कारण हो सकते हैं, किंतु यदि आस्था और निष्ठापूर्वक इनके निवारण के उपाय किए जाएं तो कलह से मुक्ति अवश्य मिल सकती है।

शिशु जन्म समय कैसे निर्धारण करें

आज के वैज्ञानिक युग में यदि मशीनीकरण हो रहा है एवं चिकित्सा शास्त्र में उन्नति हो रही है तो शिशु जन्म प्रक्रिया में भी अनेक अंतर आए हैं। आज शिशु का जन्म शल्य चिकित्सा द्वारा अपने मनचाहे समय पर करवा सकते हैं और इस प्रकार ज्योतिष विधान के अनुसार उसका भविष्य अपने हाथों निर्मित कर सकते हैं। क्या यह संभव है या एक कल्पना की उड़ान है? ज्योतिष शास्त्र के अनुसार ईश्वर ने हमें कर्म करने के लिए कुछ अवसर दिए हैं और इन अवसरों का सही उपयोग कर हम अपने भविष्य को सुधार सकते हैं। वेदांत में भी अपने भविष्य को प्रयत्नपूर्वक सुधारने के लिए कहा गया है।
किसी भी शुभ कर्म के लिए हम मुहूर्त देखते हैं। इसके मूल में छिपी भावना यही है कि शुभ समय में कार्य करेंगे तो उसका भविष्य भी शुभ ही होगा। इसी प्रकार से हम वर वधू का कुंडली मिलान करते हैं। इसके पीछे भी हमारी यही धारणा है कि यदि दो जातकों के विचार एकमत होंगे तो उनका भविष्य सुखमय रह सकेगा। यदि हम मुहूर्त के द्वारा किसी कार्य का भविष्य बदल कर उसे शुभ कर सकते हैं या मिलान द्वारा दो व्यक्तियों का भविष्य शांतिमय एवं आनंदमय बना सकते हैं तो जन्म समय निर्धारण कर होने वाले शिशु का भविष्य भी अवश्य ही स्वास्थ्यमय, सुखमय एवं शांतिमय बना सकते हैं। प्रथमतः विचारणीय है कि जन्म समय किसे कहते हैं - शिशु के बाहर निकलने के समय को, नाल काटने के समय को या उसके पहली सांस लेने के समय को? शिशु के प्रथम सांस लेने का समय ही ज्योतिष के अनुसार उसका जन्म समय है। यही समय उसके सर्वप्रथम रोदन का समय होता है।
अधिकांशतः शिशु के जन्म समय निर्धारण हेतु हमें केवल कुछ दिनों का ही समय चयन के लिए मिलता है और उसमें से ही सर्वोत्कृष्ट समय का निर्धारण करना होता है। इस अवधि में चंद्र को छोड़ लगभग सभी ग्रह उसी राशि में रहते हैं। उनमें केवल कुछ अंश या कला का ही अंतर आता है। लेकिन एक दिन में सभी 12 लग्न घूम जाते हैं, अतः जन्म समय का निर्धारण निम्न बिंदुओं को ध्यान में रखकर किया जा सकता है ।
सर्वप्रथम चार पांच दिनों में तिथि का चयन करने के लिए चंद्र के नक्षत्र को देखें। चंद्र कहीं मूल नक्षत्र में तो नहीं है? विशेष रूप से मूल के अशुभ पाद में तो नहीं है, क्योंकि मूल के अशुभ पाद में शिशु के जन्म होने से वह अपने मां-बाप, भाई-बहन, नाना-नानी या दादा-दादी के लिए भारी हो सकता है।
यदि जन्म सामान्य हो अर्थात शल्य चिकित्सा आवश्यक नहीं हो तो ऐसा लग्न निर्धारण करें ताकि उससे अगला या पिछला लग्न भी शुभ हो, क्योंकि कई बार सामान्य प्रसव में चार से छह घंटे का समय ही लगता है और सटीक जन्म समय का निर्धारण डाॅक्टर के हाथ में नहीं होता।
यदि शल्य चिकित्सा द्वारा जन्म समय का निर्धारण होना हो तो लग्न के साथ नवांश भी निर्धारित किया जा सकता है जिसकी अवधि केवल दस से पंद्रह मिनट होती है। ऐसे में चलित कुंडली का ध्यान अवश्य रखें। ऐसा न हो कि कुछ ग्रह चलित कुंडली में छठे, आठवें या बारहवें भाव में जा रहे हों।
लग्न का चयन शिशु को आप अपने इच्छानुसार बनाने के लिए भी कर सकते हैं। यदि आपको ज्ञानवान संतति चाहिए तो लग्न ऐसे चयन करें ताकि पंचम भाव में अधिक ग्रह हों। यदि ख्यातिवान संतति चाहिए तो लग्न में अधिक ग्रह चयन करें और यदि भाग्यशाली चाहिए तो नवम में। कर्मशील के लिए दशम में एवं धनवान या संपत्तिवान संतति के लिए ग्रहों को दूसरे और चैथे स्थान में स्थापित करें। आकर्षक व्यक्तित्व के लिए बलयुक्त चंद्र को लग्न में स्थापित करें।
लग्न निर्धारण में ग्रहों को शुभ स्थान जैसे केंद्र या त्रिकोण में स्थापित करना चाहिए एवं अशुभ स्थान जैसे छठे, आठवें या बारहवें को रिक्त रखने का प्रयास करना चाहिए। अशुभ या क्रूर ग्रहों को तीसरे, छठे या ग्यारहवें भाव में भी रखा जा सकता है।
यदि सभी ग्रह केंद्र या त्रिकोण में किसी भी लग्न में नहीं आ रहे हों तो कोशिश करें कि छठे, आठवें या बारहवें में कोई ग्रह न हो एवं आठवां घर तो अवश्य ही रिक्त हो। लग्न में या चैथे, पांचवें, नौवें या दसवें भाव में ग्रह उत्तम फल ही देते हैं।
लग्न चयन करने के साथ दशा का भी आकलन कर लें ताकि भविष्य में आनेवाली दशाएं शुभ ही हों। यदि जन्म अशुभ दशा से ही प्रारंभ हो रहा हो तो जन्म समय को एक दिन बाद उसी समय लेने से वह दशा समाप्त हो जाएगी एवं अगले नक्षत्र अथवा ग्रह की दशा शुरू हो जाएगी।
व्यवहार में ऐसा देखने में आया है कि उपर्युक्त सूत्रों के अनुसार जिन जातकों का जन्म समय निर्धारित होता है वे अत्यंत ही स्वस्थ, संुदर, ज्ञानवान एवं आकर्षक होते हैं और अपना जीवन सुख शांतिपूर्वक व्यतीत करते हैं। ज्योतिष शास्त्र में तो केवल जन्म समय निर्धारण का ही नहीं अपितु जन्म अवधि निर्धारण का भी प्रावधान है। प्राचीन काल में तो राजघरानों में गर्भाधान का भी समय निर्धारित किया जाता था। जन्म समय निर्धारण के आधार पर ज्योतिष द्वारा इस संसार को एक स्वस्थ एवं ज्ञानवान समाज देकर मानव जाति का कल्याण किया जा सकता है।

व्रत-पर्व प्रश्नोत्तरी



हिंदू धर्म में व्रतों, पर्वों आदि की विशेष मान्यताएं हैं और उनसे जुड़ी अनेक कथाएं हैं। लेकिन बहुधा हमारे मन में इन कथाओं को लेकर प्रश्न उभरते हैं, जिज्ञासाएं पनपती हैं। हमारे मन में उठने वाले कुछ प्रश्न और समाधान यहां प्रस्तुत हैं।
व्रत या उपवास क्यूँ करना चाहिए ?
व्रत को संस्कृत में उपवास कहा जाता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ईश्वर की प्राप्ति। इसके अतिरिक्त यह इंद्रियों पर नियंत्रण तथा मन के शुद्धीकरण में भी हमारी सहायता करता है। इसलिए व्रत या उपवास करना चाहिए।
कोई विशेष व्रत विशेष तिथि को ही क्यूँ करना चाहिए ?
मान्यता है कि किसी तिथि विशेष को देव पृथ्वी पर विचरण करते हैं। उनका सामीप्य बना रहे, हमारी पूजा अर्चना में भाग लेकर हमारे कष्टों का निवारण करें, इसी उद्देश्य से कोई विशेष व्रत किसी विशेष तिथि पर किया जाता है जिसका अपना महत्व होता है।
व्रत आदि पर कलावा (रक्षा सूत्र) क्यूँ बांधते है ?
कलावा (रक्षा सूत्र) का उपयोग पूजा स्थल पर किए जाने वाले संकल्प को बांधने के लिए किया जाता है। यह साधक और साध्य के बीच तादात्म्य की कड़ी का भी प्रतीक है। यह आसुरी शक्तियों से साधक की रक्षा करता है। इसीलिए इसे पूजन आदि के अवसर पर बांधते हैं।
सबसे महत्वपूर्ण व्रत या कथा कौन सी है और उसे कब और कैसे करनी चाहिए ?
सत्य नारायण व्रत कथा की विशेष महिमा है क्योंकि इसमें विष्णु भगवान की आराधना की जाती है। सत्य को अपने जीवन और आचरण में उतारना सबसे बड़ा व्रत है जिसकी प्रेरणा हमें सत्य नारायण की व्रत कथा सुनने सुनाने से मिलती है। यद्यपि सत्य नारायण व्रत किसी भी दिन किया जा सकता है, किंतु प्रत्येक मास की पूर्णिमा को इसका आयोजन करने की विशेष महत्ता है।
अधिकांश कथाओं के अंतर्गत उपकथा का समावेश होता है जैसे सत्यनारायण व्रत कथा में शौनकादिक ऋषियों, लकडहारा, राजा उल्कामुख, व्यापारी, कलावती आदि ने कथा सुनी या कही ?
भगवान अपने भक्तों को अपने से बड़ा मानते हैं। इसीलिए भगवान की कथा कहने के अतिरिक्त उनके भक्तों की कथा कहने की परंपरा भी रही है। भक्तों की कथा का फल भी वही होता है जो भगवान की कथा कहने या सुनने का होता है।
मूल आराधना विधि क्या है ?
षोडशोपचार पूजन ही शास्त्रोक्त विधि है। तदुपरांत मंत्र द्वारा भगवान की आराधना का विशेष महत्व है। जैसे विष्णु भगवान के लिए ‘¬ नमो भगवते वासुदेवाय’ या ‘¬ नमो नारायणाय’ मंत्र विशेष प्रचलित है।
भगवन को प्रसाद क्यूँ चढ़ाया जाता है ?
प्रसाद का एक शाब्दिक अर्थ है वह पदार्थ जो हमें शांति दे। इसीलिए भगवान को भोग लगाने के बाद हमें भी प्रसाद अवश्य ग्रहण करना चाहिए। भोजन भी एक यज्ञ है जो वैश्वानर भगवान (जठराग्नि) को अर्पित किया जाता है। अतः जिस वार को जो वस्तु दान दी जाती है उसे ही उस दिन ग्रहण करना उत्तम है।
क्या हनुमान जी की आराधना कन्याओं अथवा स्त्रियों को करना चाहिए ?
जैसे मनुष्य और पशु के बीच में स्त्री-पुरुष में भेद नहीं है उसी प्रकार देवता और मनुष्य के बीच में स्त्री-पुरुष का कोई भेद नहीं है। इसीलिए हनुमान जी की आराधना कन्याएं और स्त्रियां भी कर सकती हैं और इसमें कोई भेद नहीं मानना चाहिए।
पूजन के समय तिलक क्यूँ लगाया जाता है ?
दोनों भौंहों के बीच में आज्ञा चक्र स्थित है। इसी चक्र पर ध्यान केंद्रित करने पर साधक का मन पूर्ण शक्ति संपन्न हो जाता है। यह स्थान तृतीय नेत्र का भी है। तिलक लगाने से आज्ञा चक्र जाग्रत हो जाता है। तिलक सम्मान का सूचक भी है।
मूर्ति पूजा क्यूँ की जाती है ?
चिंतन, मनन और तप के लिए मन की एकाग्रता आवश्यक होती है और मन को एकाग्र करने के लिए किसी प्रतीक का होना जरूरी होता है। मूर्ति इसी प्रतीक का द्योतक है जिसकी पूजा की जाती है। यह प्रतीक कोई बिंदु, कोई मूर्ति अथवा कोई अन्य आकृति भी हो सकती है। ध्येय केवल एक है - मन की एकाग्रता।
पूजा किस दिशा की ओर उन्मुख होकर करनी चाहिए ?
पूजा पूर्व दिशा की ओर उन्मुख होकर करना सर्वोत्तम होता है। अर्थात् साधक को पूर्व की ओर मुंह करके बैठना चाहिए। इसके अतिरिक्त उत्तराभिमुखी होकर भी पूजा की जाती है। यदि इन दो दिशाओं की ओर उन्मुख होकर पूजा करना किसी कारणवश सभंव न हो तो ईशान कोण की ओर भी मुहं करके पूजा कर सकते हैं।
आसन का महत्व क्या है ?
आसन पूजा का एक अनिवार्य अंग है। इस पर बैठकर पूजा करने से मन की एकाग्रता बनी रहती है। कुश का आसन सर्वश्रेष्ठ माना गया है क्योंकि यह हमारे शरीर में संचित ऊर्जा को क्षय होने से बचाता है। इसके अभाव में ऊन अर्थात् कंबल के आसन का उपयोग भी किया जाता है। आसन का स्थिर व स्वच्छ होना आवश्यक है।
धुप, दीप आदि क्यूँ जलाते है ?
दीप ज्ञान का प्रतीक है। ज्ञान अज्ञान को उसी तरह दूर करता है जिस तरह प्रकाश अंधकार को। ज्ञान की प्राप्ति ईश्वर से होती है। इसीलिए प्रत्येक व्रतानुष्ठान तथा अन्य शुभ कार्यों के अवसर पर दीप प्रज्वलन की प्रथा है। धूप इसलिए जलाया जाता है कि पूजा स्थल तथा आसपास का क्षेत्र सुवासित रहें।
चरणामृत क्यूँ ग्रहण किया जाता है ?
चरणामृत का अर्थ है वह जल या दुग्ध जिससे ईश्वर का चरण पखारा गया हो। यह ईश्वर के प्रति हमारी निष्ठा का प्रतीक है। इसमें असीम शक्ति होती है। यह दुःख, कष्ट, दरिद्रता आदि से हमारी रक्षा करता है। इसीलिए हम चरणामृत ग्रहण करते हैं।
पूजा पाठ में पुष्प का क्या महत्व है ?
पूजा में पुष्प का बड़ा महत्व है। पूजा का अर्थ ही पुष्प अर्पित करना है। पुष्पार्पण एक प्रतीक है कि जिस तरह कोई फूल अपनी सारी पंखुडि़यों को खोलकर विकसित होता, मुस्कराता है, उसी तरह साधक का हृदय भी अपने ईश के समक्ष खुल जाए। एक प्रतीक यह भी है कि जिस तरह नान प्रकार के फूल प्रकृति में हंसते मुस्कराते हैं, उसी तरह ईश्वर हमारे जीवन को रंग, महक और खुशियों से भर दें।
क्या मूर्तियों में देवी देवता का वास होता है?
पूजा के समय हम ईश्वर का आवाहन करते हैं ताकि वे हमारे समीप रहें। इसलिए जब किसी मूर्ति में किसी देवी या देवता विशेष का आवाहन किया जाता है तब उसमें उस देवी या देवता का वास हो जाता है।

वैदिक ज्ञान एवं शिक्षा

अणिमा महिमा वैव गरिमा लधिमा तथा | प्राप्ति: प्राकाम्यमीशित्वं वशित्वं चास्टसिद्धिय:||
अर्थात्, अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्व, ये आठ सिद्धियां हैं। अणिमा - छोटा आकार धारण करना, महिमा - बड़ा आकार धारण करना, गरिमा - भारीपन प्राप्त करना, लघिमा - एकदम हल्का हो जाना, प्राप्ति - असंभव शक्ति प्राप्त करना, जैसे आकाश में तैरना, पानी में चलना आदि, प्राकाम्य- अपनी इच्छा से आकृति, रूप, वस्तु आदि का परिवर्तन करने में समर्थ होना, ईशित्व - संपूर्ण पदार्थों पर शासन होना एवं वशित्व - किसी को भी इच्छानुसार नियंत्रित करने की क्षमता प्राप्त कर लेना आदि सिद्धियों के प्राप्त कर लेने की चर्चा वेदों में अनेक स्थानों पर मिलती है।
इसके अतिरिक्त पक्षी आदि की बोली समझना, किसी के मन की बात जान लेना, कर्ण पिशाचिनी सिद्ध होना आदि अनेक सिद्धियां शास्त्रों में मिलती हैं। महर्षि पातंजलि के लिखे ‘योग सूत्र’ नामक ग्रंथ में इस प्रकार की चमत्कारिक सिद्धियों के बारे में पर्याप्त सामग्री उपलब्ध है। तंत्र शास्त्रों में विभिन्न देवताओं की विभिन्न प्रकार की साधनाओं के द्वारा प्राप्त की जा सकने वाली सिद्धियां उल्लिखित हैं। श्री हनुमान अष्ट सिद्धियों के दाता हैं, जैसा कि हनुमान चालीसा के श्लोक ‘अष्ट सिद्धि नव निधि के दाता’ से पता चलता है। अतः कोई भी सिद्धि प्राप्त करने के लिए हनुमान जी की आराधना आवश्यक है।
आज के युग में सिद्ध पुरुष के दर्शन दुर्लभ हैं। उनको अपना गुरु बना लेना तो नामुमकिन ही है। यदि सिद्ध पुरुष हैं भी, तो वे अपने को इतना छुपा लेते हैं कि साधारण मनुष्य उनके बारे में कुछ नहीं जान पाता। अतः इस गूढ़ विद्या को प्राप्त करना मुश्किल ही नहीं, असंभव है। लेकिन इसका अर्थ यह कदापि नहीं कि इस विद्या का विलय हो चुका है। भारत में अभी भी अनेक सिद्ध पुरुष होंगे, जो इन अष्ट सिद्धियों के ज्ञाता हैं। भारत वैदिक युग में विज्ञान के शिखर पर था। इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। उदाहरण के लिए विमान इस युग में बीसवीं शताब्दी की देन है, जबकि श्री राम लंका को जीतने के बाद वहां से अयोध्या विमान द्वारा ही आये थे। श्री तुलसी दास 16वीं शताब्दी में स्पष्ट लिख गये कि पुष्पक विमान के चलने से बहुत कोलाहल हुआ; श्री राम सीता जी को ऊपर से स्थान बताते गये आदि।
इसी प्रकार श्री राम ने एक तीर को, जो उन्होंने समुद्र को सोखने के लिए निकाल लिया था, अफी्रका की ओर फेंका, जिससे सारे जीव-जंतु जल गये एवं वहां मरुस्थल पैदा हो गया। शायद यह अणु बम ही रहा होगा। संजय ने कुरूक्षेत्र युद्ध की सारी जानकारी धृतराष्ट्र को महल में दी। अवश्य ही यह टेलीविजन का कोई रूप रहा होगा। मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा की खुदाई से भी यही पता चलता है कि वैदिक काल में भारत अवश्य ही विश्व शक्ति रहा होगा। उस समय ज्योतिष बहुत विकसित था। लेकिन जैसे विश्व युद्ध के बाद एक सभ्यता ही लुप्त हो जाती है, उसी प्रकार शायद महाभारत के बाद सभी वैज्ञानिक, या ज्योतिष ज्ञान प्रायः लुप्त हो गये। यही कारण है कि आज ज्योतिष उतना सही नहीं उतरता, जितना कि इस पर विश्वास करने के लिए होना चाहिए।हाल ही में अमेरिका में एक खोज हुई है कि शेयर बाजार के मूल्यों का ऊपर-नीचे होना एक संयोग नहीं है, वरन् गणित की इकाई द्वारा पहले से इसके बारे में जाना जा सकता है। इस खोज से यह सिद्ध होता है कि उतार-चढ़ाव किसी से संचालित होता है और केवल संयोग नहीं होता है। प्रश्न केवल यह है कि भारत में हजारों वर्ष पूर्व खोयी विद्या को आज हम कैसे ढूंढे? इसके लिए यह आवश्यक है कि इस विषय पर शोध हो। भारत सरकार ने इस बात को स्वीकार किया है कि इस विद्या को दोबारा ढूंढ निकालना होगा। यह तब ही संभव है, जब अधिक से अधिक व्यक्ति इस विद्या को सीखें।
शायद 50 या 100 वर्ष पूर्व हम यह अनुमान भी नहीं लगा सकते थे कि कभी कंप्यूटर इतने शक्तिशाली हो जाएंगे कि छोटे-छोटे काम के लिए भी मनुष्य इसे काम में लाएगा; या मनुष्य कभी पृथ्वी से चल कर दूसरे ग्रहों पर भी चला जाएगा, या एक बम से विश्व को तहसनहस किया जा सकता है, जबकि वेदों में इस प्रकार की चर्चाएं मिलती हैं। इसी प्रकार से यह भी आवश्यक नहीं है कि मनुष्य वेदों में लिखे गये इस दावे को कि किस प्रकार भविष्य बता दिया जाता था, ठीक मान ले। जब वेद के अन्य कथन सत्य हो सकते हैं, तो सटीक भविष्य बता देने का कथन भी अवश्य ही सत्य होगा। आज ज्योतिष के प्रति भावना श्रेष्ठ नहीं है। यह बात कुछ हद तक इसलिए सही है कि समाज में जितने विद्वान ज्योतिषी उपलब्ध हैं, उससे कहीं अधिक उनकी मांग है। जब विद्वान नहीं मिलते, तो अज्ञानी भी इसका फायदा उठा लेते हैं। बात वैसी ही है, जैसे गांव में चिकित्सक उपलब्ध नहीं होते, तो अनाड़ी भी डाॅक्टर बन जाते हैं। यह ज्योतिष हजारो वर्षों से चला आ रहा है। कोई भी असत्य हजारों वर्ष, बिना किसी कसौटी के, चल नहीं सकता। वैदिक ज्ञान भारत की एक शान रही है। ऐसा न हो कि विदेशी यहां का ज्ञान ले जा कर, उस पर अपनी मुहर लगा कर, हमें वापिस दें और तब हम जागें। इस ज्ञान को हमें ही सही प्रकार से जनोपयोगी बनाना है।
इन्हीं उद्देश्यों को ले कर अखिल भारतीय ज्योतिष संस्था संघ का गठन हुआ है एवं भारत के 40 से भी अधिक शहरों में ज्योतिष, सामुद्रिक शास्त्र एवं वास्तु शास्त्र पढ़ाने का कार्यक्रम शुरू किया गया है। हमें विश्वास है कि यह प्रयास अवश्य ही एक नयी जागृति पैदा करेगा एवं भारत के कोने-कोने में वैदिक शिक्षा का अध्ययन कराया जाएगा। गुणवान अवश्य ही, शोध द्वारा, इस लुप्त विद्या को दोबारा से जनोपयोगी बनाएंगे।

अचानक संपत्ति नष्ट और मृत्यु होना....ज्योतिषीय योग

अगर जन्मकुंडली में लग्नेश शुक्र वक्री होकर क्रूर ग्रह सूर्य के साथ युति बनता है तो और क्रूर ग्रह मंगल जो कि तुला लग्न के लिए अशुभ ग्रह है, उससे पूर्ण दृष्ट तो, उसके प्रभाव से स्वभाव में अधिक रिस्क लेने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है । स्वराशिगत सूर्य लाभ भाव में होने से यह उच्च महत्वाकांक्षी विचारों वाले व्यक्ति होते है। चतुर्थेश शनि ग्रह तीव्र गति वाले ग्रह चंद्र की राशि में स्थित होने से यह संकेत देते है कि वे व्यक्ति तीव्र वेग से चलने वाले वाहन आदि का शौक रखते है। चतुर्थ स्थान का कारक ग्रह, चंद्रमा, आकाश तत्व ग्रह की राशि पर स्थित होने से तथा आकाश तत्व ग्रह बृहस्पति की चतुर्थेश वायुतत्व ग्रह शनि पर पूर्ण दृष्टि होने से उनके पास आकाश में विचरण करने वाले वायुयान की निजी सुख-सुविधा प्राप्त होती है । संपत्ति के स्वामी चतुर्थेश शनि की दसवें स्थान से अपने घर पर पूर्ण दृष्टि है। शनि योगकारक है तथा केंद्र में स्थित होने से इसके प्रभाव से उन्हें सुंदर आलीशान घर भी बनवाते है लेकिन षष्ठेश शत्रु घर के स्वामी बृहस्पति की चतुर्थेश शनि पर दृष्टि होने से विरोधी शत्रुओं के षड्यंत्र के द्वारा भी उनकी संपत्ति नष्ट हो जाती है।
लग्नेश, अष्टमेश, लग्न भाव, अष्टम भाव की स्थिति पर विचार करें, तो लग्नेश ग्रह शुक्र जो कि तुला लग्न के लिए अष्टमेश भी है, वह क्रूर ग्रह सूर्य की युति में और क्रूर ग्रह प्रबल मारकेश मंगल से दृष्ट है। अगर लग्न पर किसी भी शुभ एवं पाप ग्रहों की दृष्टि नहीं है। वह तटस्थ है अर्थात् न अधिक शुभ और न ही अधिक अशुभ है। दूसरी ओर अष्टम जो कि मृत्यु का भाव है, वह मारकेश मंगल तथा अशुभ ग्रह केतु से ग्रसित होने के कारण अत्यंत पापपीडि़त होते है, जिसके कारण इस जातक की मध्य आयु में अचानक आघात होने से मृत्यु हुई। अन्य रीति से भी आयु का अवलोकन करें, तो अष्टम भाव से अष्टम तृतीय भाव भी आयु स्थान है। वह भी मारकेश मंगल से पूर्ण दृष्ट है एवं आयु कारक शनि भी अकारक ग्रह षष्ठेश बृहस्पति से दृष्ट है तथा चंद्रमा भी अशुभ भाव में मारकेश मंगल से दृष्ट है। इन सभी अशुभ ग्रह योगों के कारण यह जातक लंबी आयु का सुख प्राप्त नहीं कर सका। जब इनकी मृत्यु हुई उस समय चंद्र में शनि की अंतर्दशा तथा बृहस्पति की प्रत्यंतर्दशा में मंगल की सूक्ष्म दशा चल रही थी तथा गोचर में मंगल लग्नेश शुक्र के ऊपर से गोचर कर रहा था, दशानाथ चंद्रमा भी अष्टम से अष्टम स्थान में स्थित है तथा अंतर्दशानाथ शनि भी राहु से दृष्ट है एवं प्रत्यंतर्दशानाथ बृहस्पति भी अशुभ भाव छठे में है तथा उसी भाव का भावेश भी है। सूक्ष्म प्रत्यंतर्दशा का स्वामी मंगल भी प्रबल मारकेश होकर मृत्यु भाव में स्थित है, यह इनके लिए मारक सिद्ध हुआ।

सुप्रजनन पद्दति

2001 में जर्मनी में नोबेल पुरस्कार विजेताओं की काॅन्फ्रेंस में तुलसी को झूठा मेधावी करार किया गया था। परंतु अपनी मेहनत से तुलसी ने खुद को साबित किया और एक बार फिर से चर्चा में आ गए जब उन्होंने देश में सबसे कम उम्र में पी. एच. डी. की डिग्री 21 साल की उम्र में हासिल कर ली। आज आई. आई टी. मे फिजिक्स पढ़ंा रहे हैं। तथागत के फिजिक्स में अबतक करीब एक दर्जन लेख विभिन्न जर्नल में छप चुके हैं। उनकी प्रबल ईच्छा है कि उनकी उपलब्धियों के लिए उन्हें नोबेल पुरस्कार मिले। तथागत के पिता तुलसी नारायण प्रसाद का दावा है कि उनकी तीन संतानों में सबसे छोटी संतान तुलसी के विलक्षण प्रतिभा के बारे में उन्हें पूर्वानुमान था क्योंकि ऐसे बच्चे का जन्म कोई आकस्मिक नहीं बल्कि पूर्व निर्धारित और सुनियोजित था। सुप्रजनन पद्धति का उपयोग करने के लिए माता-पिता को पांच वर्ष तक घोर परिश्रम करना पड़ा जिसमें खान-पान को नियंत्रित करना प्रमुख था। श्री प्रसाद इसकी तुलना फसल उगाने की इस पद्ध ति से करते हैं, जब कड़ी मेहनत के बाद बंजर जमीन को ऊर्वरा बना कर उसमें बीज रोपण करते हैं फिर जैसे अच्छी फसल के बारे में कोई संदेह नहीं रह जाता ठीक उसी तरह वे पहले से ही तुलसी की विलक्षण बुद्धि के लिए आ सत्यकथा शिशु तुलसी की उंगलियों के पोर चक्रों से चिह्नित थे और कान भी अपेक्षाकृत बड़ थेे इसीलिए उन्होंने उसका नाम तथागत अवतार तुलसी रखा। उन्हें पूरा विश्वास है कि गौतम बुद्ध के अवतार ने उनके परिवार में जन्म लिया है।तथागत ने अपने जीवन में कठिन परिश्रम किया है और उसके अनुसार एक छात्र के लिए विश्लेषण, कल्पना और स्मरण की क्षमता उसकी मूल पूंजी है और जिसने भी अपने जीवन में इनका सही निवेश किया, सफलता उसके कदम चूमती रहेगी। अक्सर कहा जाता है कि बुद्धि जन्मजात होती है, ज्ञान अर्जित। लेकिन क्वांटम सर्च ऐल्गरिज्म पर अपना सिद्धांत प्रस्तुत करने वाले तथागत अवतार तुलसी बुद्धि और ज्ञान के अद्भुत संयोग हंै और तुलसी की यही ईच्छा है कि उन्हें नोबेल पुरस्कार मिले।  बुद्धिमान योग पंचमेश जिस ग्रह के नवमांश में हो वह ग्रह यदि जन्म लग्न अथवा चंद्र लग्न से केंद्र में तथा शुभ ग्रह से भी दृष्ट हो तो विशेष बुद्धिमान योग होता है। कुंडली में पंचमेश मंगल बुध के नवमांश में है तथा चंद्र कुंडली से बुध ग्रह सप्तम केंद्र में स्थित है एवं उस पर शुभ ग्रह चंद्रमा की दृष्टि है जिसके कारण तुलसी ने इतनी कम उम्र में अपने बुद्धि बल से इतनी बड़ी कामयाबी हासिल की। विशेष बुद्धि विद्या प्राप्ति योग पंचमेश बुद्धि, द्वितीयेश विद्या निपुणता, चतुर्थेश विद्या स्थान के स्वामी शुक्र इन तीनों विद्या व बुद्धि से संबंधित ग्रहों की द्वितीय भाव में एक साथ युति होने से बुद्धि और विद्या का अद्भुत संगम है और इसी के कारण विद्या के क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है । इन योगों के अतिरिक्त अगर कुंडली में चंद्रमा नवम भाव में और गुरु केंद्रस्थ होते है तो विद्या के क्षेत्र में सफलता प्राप्त होती है । ज्योतिष शास्त्र के अनुसार चंद्रमा नवमस्थ के समय यदि गुरु और बुध बली हों तो ऐसा जातक तीक्ष्ण बुद्धि का होता है। शुभ फल प्राप्ति योग मानसागरी ग्रंथ के अनुसार केतु यदि तीसरे भाव में हो तो सब दोषों का निवारण कर अत्यंत शुभ फल प्रदान करता है। कुंडली में केतु सौम्य ग्रह उच्चस्थ बुध के साथ तीसरे भाव में होने से विशेष शुभ फल प्राप्ति योग बन रहे हैं। पराक्रमी पुरुष योग सर्वार्थ चिंतामणि के अनुसार यदि तृतीय भाव का कारक ग्रह शुभ ग्रह के नवमांश में हो तथा वह जन्म कुंडली में शुभ ग्रह से युक्त हो तो ऐसा व्यक्ति महा पराक्रमी पुरूष होता है।

गर्दन के आकार से जानिए इंसान का स्वभाव

समुद्र शास्त्र के अनुसार, मनुष्य के शरीर का हर अंग उसके स्वभाव के बारे में कुछ न कुछ जरूर बताता है। यानी अगर किसी मनुष्य के शरीर पर पूरी तरह से गौर किया जाए, तो उसके चरित्र के बारे में काफी कुछ आसानी से जाना जा सकता है। गर्दन भी शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। इसी पर सिर का भार टिका होता है। मस्तिष्क से निकलकर सभी अंगों में पहुंचने वाली नसें और नाडिय़ां इसी से होकर गुजरती हैं। आज हम आपको बता रहे हैं कैसी गर्दन वाले व्यक्ति का चरित्र कैसा होता है।
आदर्श गर्दन - ऐसी गर्दन पारदर्शी व सुराहीदार होती है जो आमतौर पर महिलाओं पर पायीं जाती है | ऐसी गर्दन कलाप्रिय,कोमल, ऐश्वर्य,और भोग की परिचारक होती है | ऐसे लोग सुख व् वैभव का जीवन जीते है इनके जीवन में कभी कोई कमी नहीं होती |
सुखी गर्दन - ऐसी गर्दन में मांश कम होती है तथा नसे स्पष्ट रूप से दिखाई जाती है ऐसे लोग सुस्त कम महत्वकांक्षी, आल,सी क्रोधी, विवेकहीन और हार कार्य में असफल होते हैं |
छोटी गर्दन - अगर गर्दन सामान्य से छोटी है तो ऐसे लोग कम बोलने वाले कंजूस व् घमंडी होते है ऐसे लोगों का फ़ायदा उठाते है मगर इन्हें इस बात का पता भी नहीं चलता |
लम्बी गर्दन -अगर गर्दन सामान्य से अधिक लम्बी हो तो ऐसे लोग बातूनी, मंदबुद्धि,अस्थिर, निराश, और चापलूस होते है | यह अपने मुहं मियां मिट्ठू बनने की आदत से लाचार होते है |
सीधी गर्दन - जिन लोगो की गर्दन सीधी होती है ऐसे लोग स्वाभिमानी होते हैं साथ ही ये लोग समय के पबंध, वचनबद्ध, एवं सिद्धांतप्रिय होते है | इन पर आसानी से विश्वास किया जा सकता है |
मोटी गर्दन - ऐसी गर्दन वाले लोगों की नियत आमतौर पर ख़राब होती है ऐसे लोग भ्रष्ट चरित्र वाले, शराबी, अहंकारी तथा आक्रामक होते है | इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है |
ऊंट जैसी गर्दन - ऐसी गर्दन पतली और ऊँची रहती है ऐसे लोग अदूरदर्शी होते है | ये लोग अपना हित साधने में लगे रहते है और समय आने पर किसी भी हद तक जा सकता है |