शनि जैसे ग्रहों की शांति भी भग्वती के स्तुति मात्र से होती है। शत्रुबाधा, व्यावसायिक हानि, शारीरिक कष्ट, वैवाहिक विलंब, कामना सिद्धि, आर्थिक लाभ, धन-धान्य-सुख सभी की प्राप्ति भग्वतीकृपा से होती है। अत: सभी कष्टों की निवृत्ति के लिए दुर्गा आराधन श्रेयस्कर है।
चैत्र नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से होता है। जहां हम संपूर्ण श्रद्धा से देवी की उपासना करते हैं, तन मन को शुद्ध कर संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास से जप किया जाए तो कोई भी मन्त्र जाप सिद्ध होते हैं। इस नवरात्रि में विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाए तो कई कष्टों से बचा जा सकता है। वैसे भी इसके नित्य पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है। तेज में वृद्धि होती है,आत्मविश्वास बढ़ता है। ३१ मार्च २०१४ के दिन से नव सम्वत्सर प्रारम्भ होगा. साथ ही इस दिन से चैत्र शुक्ल पक्ष का पहला नवरात्रा होने के कारण इस दिन कलश स्थापना भी की जायेगी. नवरात्रे के नौ दिनों में माता के नौ रुपों की पूजा करने का विशेष विधि विधान है. साथ ही इन दिनों में जप-पाठ, व्रत- अनुष्ठान, यज्ञ-दानादि शुभ कार्य करने से व्यक्ति को पुन्य फलों की प्राप्ति होती है.
नवरात्र का विधान और महत्व— भारतीय चिंतनधारा में 'साधनाÓ आध्यात्मिक ऊर्जा और दैवी चेतना के विकास का सबसे विश्वसनीय साधन माना जाता है। तन्त्रगमों के अनुसार यह साधना नित्य एवं नैमित्तिक भेद से दो प्रकार की होती है। जो साधना जीवनभर एवं निरंतर की जाती है, वह नित्य साधना कहलाती है। किन्तु संसार एवं घर गृहस्थी के चक्रव्यूह में फंसे आम लोगों के पास न तो इतना समय होता है और नहीं इतना सामथ्र्य कि वे नित्य साधना कर सकें। अत: गृहस्थों के जीवन में आने वाले कष्टों/दु:खों की निवृत्ति के लिए हमारे ऋषियों ने नैमित्तिक साधना का प्रतिपादन किया है। नैमित्तिक-साधना के इस महापर्व को 'नवरात्रÓ कहते हैं।
दुर्गापूजा का प्रयोजन— महामाया के प्रभाववश सांसारिक प्राणी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी जाने और कभी अनजाने में दु:खों के दलदल में फंसता चला जाता है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है-
ज्ञानिनामपि चेतांहि देवी भगवती हि..सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रगच्छति।।
इन सांसारिक कष्टों से, जिनको धर्म की भाषा में दुर्गति कहते हैं-इनसे मुक्ति के लिए माँ दुर्गा की उपासना करनी चाहिए क्योंकि 'आराधिता सैव नृणां भोगस्वगपिवर्गहाÓ मार्कण्डेय पुराण के इस वचन के अनुसार 'माँ दुर्गा की उपासना करने से स्वर्ग जैसे भोग और मोक्ष जैसी शान्ति मिल जाती है।Ó भारतीय जनमानस उस आद्या शक्ति 'दुर्गा को माँ या माता के रूप में देखता और मानता है। जैसे पुत्र के कुपुत्र होने पर भी माता कुमाता नहीं होती। वैसी भगवती दुर्गा अपने भक्तों का वात्सल्य भाव से कल्याण करती है। अत: हमें उनकी पूजा/उपासना करनी चाहिए।
नवदुर्गा— 'एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा- दुर्गासप्तशती के इस वचन के अनुसार वह आद्यशक्ति 'एकमेव और 'अद्वितीय होते हुए भी अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए 1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा,
4. कूष्माण्डा, 5. स्कन्धमाता, 6. कात्यायनी,
7. कालरात्रि, 8. महागौरी एवं 9. सिद्धिदात्री।
इन नवदुर्गा के रूप में अवतरित होती है। वही जगन्माता सत्त्व, रजस् एवं तमस् इन गुणों के आधार पर महाबाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं।
दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी— आद्याशक्ति के 'दुर्गा नाम का निर्वचन करते हुए प्रतिपादित किया गया है 'कि जो दुर्ग के समान अपने भक्तों की रक्षा करती है अथवा जो अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती है, वह आद्याशक्ति 'दुर्गा कहलाती है।
दुर्गापूजा का काल— वैदिक ज्योतिष की काल-गणना के अनुसार हमारा एक वर्ष देवी-देवताओं का एक 'अहोरात्र(दिन-रात) होता है। इस नियम के अनुसार मेषसंक्रांति को देवताओं का प्रात:काल और तुला संक्रांति को उनका सायंकाल होता है।
इसी आधार पर शाक्त तन्त्रों ने मेषसंक्रांति के आसपास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से बासन्तिक नवरात्रि और तुला संक्रांति के आसपास आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का समय निर्धारित किया है। नवरात्रि के ये नौ दिन 'दुर्गा पूजा के लिए सबसे प्रशस्त होते हैं।
पूजा के उपचार— पूजा में जो सामग्री चढ़ाई जाती है, उनको उपचार कहते हैं, ये पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं।
* पंचोपचार : गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य इन पाँचों को पंचोपचार कहते हैं।
* दशोपचार : 1. पाद्य, 2. अघ्र्य, 3. आचमनीय, 4. मधुपर्क, 5. आचमनीय, 6. गन्ध, 7. पुष्प, 8. धूप, 9. दीप एवं 10. नैवेद्य इनको दशोपचार कहते हैं।
* षोडशोपचार : 1. आसन, 2. स्वागत, 3. पाद्य, 4. अघ्र्य, 5. आचमनीय, 6. मधुपर्क, 7. आचमन, 8. स्नान, 9. वस्त्र, 10. आभूषण, 11. गन्ध, 12. पुष्प, 13. धूप, 14. दीप, 15. नैवेद्य एवं प्रणामाज्जलि, इनको षोडशोपचार कहते हैं।
नवरात्र में उपवास— व्रतराज के अनुसार नवरात्र के व्रत में 'निराहारो फलाहारो मिताहारो हि सम्मत: अर्थात् निराहार, फलाहार या मिताहार करके व्रत रखना चाहिए। निराहार व्रत में केवल एक जोड़ा लौंग के साथ जल पीकर व्रत रखा जाता है। फलाहारी व्रत में एक समय फलाहार की वस्तुओं से भोजन किया जाता है, और मिताहारी व्रत में शुद्ध, सात्विक एवं शाकाहारी 'हविष्यान्न का ग्रहण होता है। नवरात्रि के व्रत में नौ दिन व्रत रखकर नवमी को कन्या पूजन के बाद पारणा किया जाता है। जिन लोगों के अष्टमी पुजती है, वे अष्टमी को कन्या पूजन के बाद पारणा कर लेते हैं। यदि नौ दिन का व्रत रखने का सामथ्र्य न हो, तो नवरात्र की प्रतिपदा, सप्तमी अष्टमी एवं नवमी में किसी एक या दो दिन का व्रत अपनी श्रद्धा एवं शक्ति के अनुसार रखना चाहिए।
व्रत के दिनों में आचार एवं विचार की शुद्धता का पालन करने पर जोर दिया गया है। अत: व्रत के दिनों में चोरी, झूठ, क्रोध, ईष्र्या, राग, द्वेष एवं किसी भी प्रकार का छल-छिद्र नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्रत के दिनों में मन, वचन एवं कर्म से किसी का दिल दु:खाना नहीं चाहिए। जहां तक सम्भव हो, दूसरों का भला करना चाहिए।
कन्या-पूजन— अपनी कुल परम्परा के अनुसार कुछ लोग नवरात्र की अष्टमी को और कुछ लोग नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा एवं हवन करने के बाद कन्यापूजन करते हैं। कहीं-कहीं यह पूजन सप्तमी को भी करने का प्रचलन है।
कन्या पूजन में दो वर्ष से दस वर्ष तक की आयु वाली नौ कन्याओं और एक बटुक का पूजन किया जाता है। इसकी प्रक्रिया में सर्वप्रथम कन्याओं के पैर धोकर, उनके मस्तक पर रोली-चावल से टीका लगाकर, हाथ में कलावा (मौली) बाँध, पुष्प या पुष्पमाला समर्पित कर कन्याओं को चुनरी उढ़ाकर हलवा, पूड़ी, चना एवं दक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक उनको प्रणाम करना चाहिए। कुछ लोग अपनी परंपरा के अनुसार कन्याओं को चूड़ी, रिबन व श्रृंगार की वस्तुएं भी भेंट करते हैं। कन्याएं माँ दुर्गा का भौतिक एक रूप हैं। इनकी श्रृद्धाभक्ति से पूजा करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं।
व्रत/उपवास के फलाहार की वस्तुएं-
आलू, शकरकन्द, जिमिकन्द, दूध, दही, खोआ, खोआ से बनी मिठाइयों, कुट्ट, सिन्घाड़ा, साबूदाना, मूंगफली, मिश्री, नारियल, गोला, सूखे मेवा एवं मौसम के सभी फल-व्रतोपवास के फलाहार में प्रशस्त माने गये हैं। फलाहार की कोई भी वस्तु तेल में नहीं बनायी जाती और सादा नमक के स्थान पर सैन्धा (लाहौरी) नमक प्रयोग में लाया जाता है।
सप्तमी/अष्टमी/नवमी की पूजा— नवरात्र में अपनी कुल परम्परा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी या नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है। इसमें एकाग्रतापूर्वक जप, श्रद्धा एवं भक्ति से पूजन एवं हवन, मनोयोगपूर्वक पाठ तथा विधिवत कन्याओं का पूजन किया जाता है। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।
चैत्र नवरात्रि को बनाएँ स्वास्थ्य नवरात्रि- नीम को संस्कृत में निम्ब तथा वनस्पति शब्दावली में आजाडिरिक्ता-इंडिका कहते हैं। नीम के बारे में हमारे ग्रंथों में कहा गया है-
निम्ब शीतों लघुग्राही कटुकोडग्रि वातनुत।
अध्य: श्रमतुट्कास ज्वरारुचिकृमि प्रणतु॥
अर्थात नीम शीतल, हल्का, ग्राही पाक में चरपरा, हृदय को प्रिय, अग्नि, वात, परिश्रम, तृषा, ज्वर अरुचि, कृमि, व्रण, कफ, वमन, कुष्ठ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है। नीम में कई तरह के लाभदायी पदार्थ होते हैं। चैत्र नवरात्रि पर नीम के कोमल पत्तों को पानी में घोलकर सिल-बट्टे या मिक्सी में पीसकर इसकी लुगदी तैयार की जाती है। इसमें थोड़ा नमक और कुछ काली मिर्च डालकर उसे ग्राह्म बनाया जाता है। इस लुगदी को कपड़े में रखकर पानी में छाना जाता है। छाना हुआ पानी गाढ़ा या पतला कर प्रात: खाली पेट एक कप से एक गिलास तक सेवन करना चाहिए।
पूरे नौ दिन इस तरह सेवन करने से वर्षभर के स्वास्थ्य की गारंटी हो जाती है। सही मायने में चैत्र नवरात्रि स्वास्थ्य नवरात्रि है। यह रस एंटीसेप्टिक, एंटीबेक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीवर्म, एंटीएलर्जिक, एंटीट्यूमर आदि गुणों का खजाना है।
नवदुर्गा आराधना : ज्योतिष की नजर से- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मृताम्।
देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदंबा को नमस्कार करते हैं। भद्रा को नमस्कार है। नित्या गौरी एवं धात्री को बारंबार नमस्कार है। ज्योत्स्नामयी चंद्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है। इस प्रकार देवी दुर्गा का स्मरण कर प्रार्थना करने मात्र से देवी प्रसन्न होकर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करती है। देवी माँ दुर्गा अपनी शरण में आए हर शरणार्थी की रक्षा कर उसका उत्थान करती है। देवी की शरण में जाकर देवी से प्रार्थना करें, जिस देवी की स्वयं देवता प्रार्थना करते हैं। वह भगवती शरणागत को आशीर्वाद प्रदान करती है। इस प्रकार देवी की शरण में जाने वालों को इतनी शक्ति प्रदान कर देती है कि उस मनुष्य की शरण में दूसरे आने लग जाते हैं। देवी धर्म के विरोधी दैत्यों का नाश करने वाली है। देवताओं की रक्षा के लिए देवी ने दैत्यों का वध किया। वह आपके आतंरिक एवं बाह्य शत्रुओं का नाश करके आपकी रक्षा करेगी।
भगवती का कहना है कि मेरी शरण में आया हर व्यक्ति दु:ख से परे हो जाता है। यदि आप संगणित है तथा और आपके बीच दूरियाँ हो गई है तो आप पुन: संगठित हो जाएँगे। ग्रहों से आक्रांत हुए जातकों के लिए देवी का माहात्म्य शांतिकारक है। देवी प्रसन्न होकर धार्मिक बुद्धि, धन सभी प्रदान करती है। इस प्रकार देवी के नौ विभिन्न रूपों की पूजा से नवग्रह शांत होते हैं।
नवरात्र में नवग्रह शांति की विधि:- यह है कि प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शांति करानी चाहिए. द्वितीय के दिन राहु ग्रह की शान्ति करने संबन्धी कार्य करने चाहिए. तृतीया के दिन बृहस्पति ग्रह की शान्ति कार्य करना चाहिए. चतुर्थी के दिन व्यक्ति शनि शान्ति के उपाय कर स्वयं को शनि के अशुभ प्रभाव से बचा सकता है. पंचमी के दिन बुध ग्रह, षष्ठी के दिन केतु, सप्तमी के दिन शुक्र, अष्टमी के दिन सूर्य एवं नवमी के दिन चन्द्रमा की शांति कार्य किए जाते है.
किसी भी ग्रह शांति की प्रक्रिया शुरू करने से पहले कलश स्थापना और दुर्गा मां की पूजा करनी चाहिए. पूजा के बाद लाल वस्त्र पर नव ग्रह यंत्र बनावाया जाता है. इसके बाद नवग्रह बीज मंत्र से इसकी पूजा करें फिर नवग्रह शांति का संकल्प करें. प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शांति होती है इसलिए मंगल ग्रह की फिर से पूजा करनी चाहिए. पूजा के बाद पंचमुखी रूद्राक्ष, मूंगा अथवा लाल अकीक की माला से 108मंगल बीज मंत्र का जप करना चाहिए. जप के बाद मंगल कवच एवं अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करना चाहिए. राहू की शांति के लिए द्वितीया को राहु की पूजा के बाद राहू के बीज मंत्र का 108 बार जप करना, राहू के शुभ फलों में वृ्द्धि करता है.
इस प्रकार इस चैत्र नवरात्र में विधि पूर्वक दुर्गा उपासना से वर्ष भर के स्वास्थ्य एवं ग्रह शांति का विधान कर स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। इतिश्री...।
Pt.P.S Tripathi
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