Sunday, 12 April 2015

जानिये आज का पंचांग 12/04/2015 प्रख्यात Pt.P.S tripathi (पं.पी एस त्रिपाठी) से





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शेयर बाजार में मंगल का असर




शेयर बाजार का सीधा संबंध मंगल से है। किसी व्यक्ति विशेष की कुण्डली में मंगल की सकारात्माक स्थिति उसे शेयर बाजार में लाभ दिलाती है। बारह भावों में से पांचवा भाव प्रारब्ध से जुडा होता है। पूर्व जन्मा के कर्म हमें इस जन्म में अनायास लाभ दिलाते हैं। पांचवें भाव या भावेश के साथ मंगल का संबंध होने पर हौंसला और भाग्य आपस में जुड जाते हैं। इस तरह शेयर बाजार की उतार चढाव के बीच द्वीप की तरह खडा व्यक्ति आसानी से तनाव को झेल जाता है और आशातीत धन कमाता है। किसी व्यक्ति की कुण्डली में शेयर बाजार से पैसा कमाने का योग है अथवा नहीं यह देखने के लिए पहले उसके पांचवें भाव को देखने की आवश्यकता होती है। पांचवें भाव का किसी भी तरह से मंगल से संबंध बनाता हो तो समझ लीजिए कि शेयर बाजार का काम किया जा सकता है। इसके बाद आता है बाजार में टिके रहने का। इसके लिए जरूरी है कि जातक का सूर्य भी मजबूत हो यानि सूर्य लग्न, पांचवें या मंगल से अच्छी तरह संबंधित हो तो ऐसा व्यक्ति पूरे भरोसे के साथ अंत तक बाजार में टिका रहता है। एक दिन में कई बार सौदे करने वाले लोगों के लिए चंद्रमा को भी देखना पडता है। ऐसे लोगों का चंद्रमा बारहवें भाव से संबंध कर या तो पूरी तरह खराब हुआ होता है या फिर पांचवे भाव में ही बैठकर जुआरी दिमाग देता है। चंद्रमा की खराब स्थिति में व्यक्ति शेयर बाजार से कमाकर भी सुखी नहीं रह पाता है जबकि पांचवे भाव का चंद्रमा वाला व्यक्ति शेयर बाजार में आसानी से कमाता है और जल्दीक बाहर आ जाता है।
बाजार में कौन सी कंपनियां मंगल के अधीन हैं इस बात का कोई लेन देन शेयर बाजार और मंगल से नहीं है लेकिन जातक की कुण्डली में मंगल का रोल अधिक महत्वपूर्ण है। शेयर बाजार के संबंध में सबसे आम धारणा यही है कि यह एक अनिश्चित कार्य है यानि युद्ध का मैदान कब कौन सी गोली किधर से आकर लग जाएगी कोई नहीं जानता।
शेयर बाजार में भी वहीं सबकुछ होता है जो कमोडिटी मार्केट में होता है अन्तर इतना है कि कमोडिटी में ट्रेडर के हाथ में फिजिकल जैसा कुछ नहीं होता और शेयर बाजार में डीमैटीरिएलाइज शेयर होते हैं। कमोडिटी में एक दिन का घाटा कुछ हजार रुपए से कुछ सौ करोड रुपए तक हो सकता है लेकिन शेयर बाजार में किसी एक व्यक्ति को इतना लाभ या घाटा नहीं होता। लेकिन नियम वही रहते हैं कि गोली कहीं से भी आ सकती है। तो कौन है जिसे शेयर बाजार में उतरना चाहिए। चंद्रमा की स्थिति मजबूत हो, लग्नेश उच्च हो और मंगल से संबंध बनाता हो तो शेयर बाजार में उतर जाना चाहिए। अगर यह कमजोर होता है तो शेयर बाजार की उतार चढाव के साथ बहने लगता है।
प्राय: मेष, सिंह और तुला लग्न के लोग शेयर बाजार के धंधे के लिए उत्तम होते हैं अन्य लग्नों के लोग भी इसमें सफलता प्राप्ति कर सकते हैं जबकि लग्न का अधिपति अच्छी स्थिति में बैठा हो। लग्न उत्तम होने पर आदमी स्पष्ट निर्णय कर पाता है और उस पर अडिग रह पाता है। लम्बी रेस के घोडों में यह खासियत होती है कि वे जल्दी से घबराते नहीं है एक बार पिछड जाने पर अपने निर्णयों को बदलते नहीं है और रेस के अंत में अधिक प्रयत्न कर जीत जाते हैं उन्हें छोटे छोटे झगडों में जीता जा सकता है लेकिन युद्ध वे ही जीतेंगे। इसलिए लग्न बहुत बलशाली होना चाहिए। कोई भी लग्न बलशाली हो सकता है। बशर्ते उस पर किसी क्रूर ग्रह की नजर न पड रही हो। मंगल सेनापति है। पहले लडने के लिए जोश देता है और फिर डटे रहने के लिए बाद में समय पर निकल जाने की बुद्धि भी।

कर्म का आत्म-तत्व


कर्म क्या है? भौतिक जगत का आधारभूत नियम कार्य-कारण का नियम है, इस बात को तो प्रत्येक व्यक्ति जानता है. कोई कार्य ऐसा नहीं हो सकता जिसका कारण न हो और न ही कोई कारण ऐसा हो सकता है कि जिसका कोई कार्य न हो. यही कार्य-कारण का सिद्धान्त जब भौतिक जगत के स्थान पर आध्यात्मिक जगत में काम कर रहा होता है, तो इसे कर्म का सिद्धान्त कहते है. कार्य-कारण के भौतिक नियम का अध्यात्मिक रूप ही ''कर्म है.
कार्य-कारण का नियम भौतिक जगत का एक अटल नियम है. कारण उपस्थित होगा तो कार्य होकर रहेगा. किसी बात की सुनवाई नहीं, कोई रियायत नहीं. पत्थर से टक्कर होगी तो चोट लगेगी ही, अग्नि में हाथ डालोगे तो हाथ जलेगा ही, पानी में कपड़ा गिरेगा तो गीला अवश्य होगा- यह निर्दय, निर्मम कार्य-कारण का नियम विश्व का संचालन कर रहा है. इस नियम से ही सूर्य उदित होता है, चन्द्रमा अपनी रश्मियों का विस्तार करता है, पृथ्वी अपनी परिधि पर घूमती है, समुद्र में ज्वार-भाटा आता है. अवश्यंभावी तो कार्य-कारण के नियम की आत्मा है. कारण का अर्थ अवश्यंभावी है, उसे टाला नहीं जा सकता.
''अवश्यंभाविता के साथ कार्य-कारण का नियम एक 'चक्र में चलता चला जाता है. कारण कार्य को उत्पन करता है, यह कार्य फिर कारण बन जाता है, अपने से अगले कार्य को उत्पन कर देता है और इस प्रकार प्रत्येक कारण अपने से पिछले का कार्य और अगले का कारण बनता चला जाता है, और यह प्रवाह सृष्टि का अनन्त प्रवाह बन जाता है. बीज वृक्ष को जन्म देता है और यह परम्परा अनन्त की ओर मुख किए आगे ही आगे बढ़ती चली जाती है.
अब क्यों कि 'कर्म का सिद्धान्त कार्य-कारण का ही सिद्धान्त है इसलिए 'कर्म में भी कार्य-कारण की दोनों बातें अवश्यंभाविता और चक्रपना पाई जाती हैं. प्रत्येक 'कर्म का फल अवश्य भोगना पड़ता है. यह 'अवश्यंभाविता है. प्रत्येक कर्म का फल फल ही न रहकर स्वयं एक कर्म बन जाता है, यह 'चक्र है.
'कर् का 'चक्र कैसे चलता है? हमें किसी नें मारा, यहाँ ये फल है या 'कर्म है या कार्य है या कारण है? या तो यह हमें अपने किसी कर्म का फल मिला है या जिसनें हमें मारा उसनें एक नया 'कर्म किया. एक नए कारण को उत्पन्न किया जिसका उसे फल मिलना है. अगर हमें 'फल मिला है तो यह किसी कारण का कार्य है और अगर हम थप्पड खाकर चुप रह जाएं, गुस्सा तक न करें तो फल शान्त हो जाए और अगली कार्य-कारण परम्परा को खड़ा न करे. परन्तु ऐसा नहीं होता. हमें किसी ने मारा तो हम उसका बदला अवश्य लेंगे, सीधे थप्पड़ का जवाब थप्पड़ से न दे सकेंगे, तो दूसरे किसी उपाय को सोचेंगे. अगर और कुछ नहीं तो बैठे-बैठे मन में ही संकल्प, विकल्पों का ताना बाना बुनने लगेंगे. नतीजा यह हुआ कि अगर यह फल था, किसी पिछले कारण का कार्य था तो भी यह सिर्फ कार्य या फल न रहकर फिर से कारण बन जाता है और अगले कार्य के चक्कर को चला देता है. और अगर यह फल नहीं था, एक नया कारण था, जिसनें हमें थप्पड़ मारा उसका एक नया ही कर्म था, तब तो कार्य-कारण के नियम के अनुसार इसका फल मिलना ही है. इससे भी चक्र का चल पडऩा स्वाभाविक ही है. हर हालत में प्रत्येक 'कर्म चाहे वह कारण हो या कार्य- एक नए चक्र को चला देता है, और प्रत्येक कर्म पिछले कर्म का कार्य और अगले कर्म का कारण बनता चला जाता है. इस प्रकार यह 'आत्म-तत्व कर्मों के एक ऐसे जाल में बँध जाता है जिसमें से निकलने का कोई उपाय नहीं सूझता. इसमें से निकलने का हर झटका एक दूसरी गाँठ बाँध देता है, और जितनी गाँठ खुलती जाती है उतनी ही नईं गाँठ पड़ती भी जाती है.

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माँ बम्लेश्वरी देवी मंदिर



माँ बम्लेश्वरी देवी के मंदिर के लिए विख्यात है डोंगरगढ़। यह एक ऐतिहासिक नगरी है। यहाँ माँ बम्लेश्वरी देवी के दो मंदिर हैं। पहला एक हजार फीट पहाड़ी पर स्थित है जो कि बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है तथा इसके समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है। माँ बम्लेश्वरी के मंदिर में प्रतिवर्ष नवरात्र के समय दो विराट मेले का आयोजन किया जाता है जिसमे लाखों की संख्या में दर्शनार्थी भाग लेते हैं। चारों ओर हरे-भरे वनों, पहाडियों, छोटे-बड़े तालाबों एवं पश्चिम में 'पनियाजोब जलाशय, उत्तर में 'ढारा जलाशय तथा दक्षिण में 'मदियान जलाशय से घिरा प्राकृतिक सुषमा से परिपूर्ण स्थान है डोंगरगढ़।
कामाख्या नगरी व डुंगराख्य नगर नामक प्राचीन नामों से विख्यात डोंगरगढ़ में उपलब्ध खंडहरों एवं स्तंभों की रचना शैली के आधार पर शोधकर्ताओं ने इसे कलचुरी-काल का निर्माण बताया है। डोंगरगढ़ छत्तीसगढ़ के राजनांदगाँव जिले के दक्षिण-पूर्वी मध्य रेलवे के हावड़ा-मुम्बई रेल मार्ग पर और रायपुर-नागपुर राष्ट्रीय राजमार्ग में महाराष्ट्र प्रांत से लगा सीमांत तहसील मुख्यालय है। ब्रिटिश शासन काल में यह एक जमीदारी थी। प्राचीन काल से बिमलाई देवी यहाँ की अधिष्ठात्री हैं, जो आज बमलेश्वरी देवी के नाम से विख्यात है।
डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर प्राचीन मूर्तियों के अवशेष मिलते हैं, जिसकी मूर्तिकला पर गौंड़ संस्कृति का पर्याप्त प्रभाव दिखाई देता है। यहाँ से प्राप्त मूर्तियाँ अधिकांशत: 15वीं-16वीं शता. ई. में निर्मित की गई थीं। स्टेशन के समीप की पहाड़ी पर 'बिमलाई देवी का सिद्धपीठ है।
पहाड़ी के पीछे 'तपसी काल नामक एक दुर्ग है, जिसके अंदर भगवान विष्णु का एक मंदिर अवस्थित है। कुछ लोगों के मत में बिमलाई देवी, मैना जाति के आदिवासियों की कुलदेवी हैं। धमतरी, रायपुर जिला में भी इस देवी का स्थान है। लगभग एक हजार सीढिय़ों को चढ़कर माता के दरबार में पहुंचने पर माता के दर्शन होते ही जैसे सारी थकान दूर हो जाती है, मन श्रद्धा से भर उठता है।
भारतीय साहित्य में देवी-देवताओं, गंधर्वों, किन्नरों और अप्सराओं के मनोरम विहार स्थलों एवं ऋषि-मुनियों की तपोस्थली पर्वतों में बतायी गयी है। माया मोह से उबर चुके मोक्षार्थियों को पर्वत में जाने का उल्लेख शास्त्रों में है। महाकवि कालिदास ने तो हिमालय को देवताओं का निवास स्थान बताया है। कवियों ने पर्वत मालाओं में देवी-देवताओं की कल्पना की है। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में बमलेश्वरी देवी विराजमान हैं। पहाड़ी के नीचे छोटी बमलेश्वरी देवी का भव्य मंदिर है। पहाड़ में गुफाओं के अतिरिक्त अन्य प्राकृतिक खंड हैं जो अपनी विकरालता के साथ विचित्रता के लिए प्रसिद्ध है। सन् 1968में सीढिय़ों का निर्माण और विद्युतीकरण का कार्य कराया गया। यात्रियों की सुविधा के लिए पहाड़ के ऊपर जनसहयोग से पेय जल की सुगम व्यवस्था, ठहरने के लिए धर्मशालाएं, प्रतीक्षालय, सुलभ काम्पलेक्स और भोजनालय आदि की व्यवस्था की गयी है। पहाड़ी में जाने के लिए 'रोप-वे की भी सुविधा है। सीढिय़ों को भी सुगम बनाया गया है। डोंगरगढ़ जाने के लिए सड़क मार्ग, रेल मार्ग आदि की सुविधा है।
ऐतिहासिक पृष्ठभूमि:
आज भी बमलेश्वरी पहाड़ अपने गर्भ में अतीत के अनेक ऐतिहासिक एवं रोमांचकारी तथ्य छुपाये हुए है। यह प्राचीन काल की कामावती नगर की वैभवशाली और अनेक स्मरणीय यादों को अपने गर्भ में समेटे अविचल, अडिग, अनादिकाल से खड़ा है। इसमें मां बमलेश्वरी की सत्ता सर्वोच्च शिखर पर इसका साक्षी है। इस पहाड़ पर ऋषि-मुनियों की कठोर तपस्या किये जाने के अवशेष यहां की गुफाओं में मिलते हैं। इसके अलावा इस पहाड़ के दूसरे किनारे पर अति दुर्गम चट्टान हैं। इस चट्टान पर खुले आसमान के नीचे साधना स्थल और जल कुंड के अवशेष हैं। पहाड़ी के नीचे ऋषि-मुनियों का आश्रम और सरोवर था। लोगों का ऐसा विश्वास है कि इस सरोवर में स्नान करने, इसका जल ग्रहण करने से रोगों से मुक्ति मिलती है। इस आश्रम को आज 'तपस्वी मंदिर के नाम से जाना जाता है।
किंवदंती है कि यहाँ पहाड़ी पर किसी समय एक दुर्ग था, जिसमें माधवानल-कामकन्दला नामक प्रसिद्ध उपाख्यान की नायिका 'कामकंदला का निवास स्थान था। इसी दुर्ग में कामकंदला की भेंट माधवानल से हुई थी। यह प्रेम कहानी छत्तीसगढ़ में सर्वत्र प्रचलित है।
डोंगरगढ़ के अतीत में कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी दफन है। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व यहां राजा कामसेन की वैभवशाली कामाख्या नगरी थी जो उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य के समकालीन थे। कला, नृत्य और संगीत के लिए विख्यात् इस नगरी में कामकंदला नाम की राज नर्तकी थी। वह नृत्यकला में निपुण और अनिंद्य सुन्दरी थी। एक बार राज दरबार में उसका नृत्य हो रहा था। उसी समय माधवानल नाम का एक निष्णात् संगीतज्ञ वहां आया। संगीत प्रेमी होने के कारण उन्होंने राज दरबार में प्रवेश करना चाहा लेकिन दरबान उन्हें भीतर प्रवेश नहीं करने दिया। तब वह वहीं बैठकर तबले और घुंघरुओं का आनंद लेने लगा। अचानक उन्हें लगा कि तबलची का बायां अंगूठा नकली है और नर्तकी के पैरों में बंधे घुंघरुओं में एक घुंघरू में कंकड़ नहीं होने से ताल में अशुद्धि है। वह बोल पड़ा- 'मैं व्यर्थ में यहां चला आया। यहां के राज दरबार में ऐसा एक भी संगीतज्ञ नहीं है जो ताल की अशुद्धियों को पहचान सके। द्वारपाल उस अजनबी से अपने राजा और राज दरबार के बारे में सुना तो उसे तत्काल रोककर राज दरबार में जाकर राजा से सारी बात कह सुनाया। राजा की आज्ञा पाकर द्वारपाल उन्हें सादर राज दरबार में ले गया। उनके कथन की पुष्टि होने पर उन्हें संगत का मौका दिया गया। यहां से कामकंदला और माधवानल की प्रेम कहानी शुरू हुई लेकिन राजा स्वयं् कामकंदला पर मोहित थे, अत: दोनों का मेल संभव नहीं हो पाया। तब माधवानल और कामकंदला ने जीवनरक्षा हेतु उज्जयनी के राजा विक्रमादित्य की शरण ली और उनसे दया और सहयोग की भीख मांगी।
राजा विक्रमादित्य ने उन्हें न्याय दिलाकर दोनों में मेल कराया। यहां ऐसी किंवदंती प्रचलित है कि माधवानल को न्याय दिलाने के लिए उन्हें कामावती के राजा से युद्ध करना पड़ा था जिसे रोकने के लिए मां भवानी और महादेव को आना पड़ा था। डोंगरगढ़ का 'कामकंदला-माधवानल सरोवर इसका साक्षी है।
एक अन्य किंवदंती का उल्लेख यहां मिलता है। उनके अनुसार एक बार सात आगर, सात कोरी यानी 147 मोटियारी नर्तकियां अपनी नृत्यकला का प्रदर्शन करने नांदगांवराज से डोंगरगढ़ आयीं। राजमाता को जब यह समाचार ज्ञात हुआ तब वह चिंतित हो गयी। उन्हें राजकुमार के किसी मोटियारी नर्तकी के ऊपर मोहित हो जाने का डर हो गया। अत: उन्होंने हल्दी के घोल में अभिमंत्रित जल मिलाकर राजकुमार को नृत्य शुरू होने के पूर्व नर्तकियों के उपर छिड़कने को कहा। राजकुमार द्वारा ऐसा करने पर सभी नर्तकियां शिलाखंड में परिवर्तित हो गयीं। डोंगरगढ़ की पहाड़ी में ऐसे अनेक शिलाखंड हैं जिन्हें नर्तकियों का शिलाखंड माना है।
डोंगरगढ़ के मोतीबीर तालाब में एक 10 फीट शिला स्तम्भ मिला है जिसमें फारसी में एक लेख उत्कीर्ण है। स्तम्भ रायपुर के घासीदास संग्रहालय में संग्रहित है। इसी प्रकार यहां की पहाड़ी में एक अन्य स्तम्भ है जिस पर उत्कीर्ण लेख को आज तक पढ़ा नहीं जा सका है। तथ्य चाहे जो भी हो, लेकिन डोंगरगढ़ की बमलेश्वरी माता आज भी लोगों की आराध्य देवी हैं, श्रद्धा की प्रतिमूर्ति हैं। उन्हें हमारा शत् शत् नमन।
डोंगरगढ़: साम्प्रदायिक सद्भावना की मिसाल- डोंगरगढ़, राजनांदगांव जिले की इस तहसील को कौमी एकता की मिसाल और तपोभूमि कहा जाए तो गलत नहीं होगा। मां बम्लेश्वरी मंदीर के लिए विख्यात ड़ोगरगढ़ में हिन्दू-मुस्लिम-सिख-इसाई सभी सम्प्रदाय की इबादतगाह है और तो और सभी पूजा-स्थलों की मान्यताएं व किवदंतियां हैं। मुस्लिम समाज यहां टेकरी वाले बाबा और कश्मीर वाले बाबा की दरगाह में सजदा करते हैं, तो सिख ऐतिहासिक गुरु द्वारे में कीर्तन। ईसाइयों का चर्च यहां पहाड़ी की चोटी पर स्थित है। कहा जाता है कि ब्रिटिश शासनकाल में बना ये चर्च छत्तीसगढ़ का पहला चर्च है। आदिवासियों के आराध्य बूढ़ादेव के मंदिर की अपनी अलग दंत कथा है तो दंतेश्वरी मैय्या भी यहां विराजमान है। मूंछ वाले राजसी वैभव के हनुमान जी की छह फीट ऊँची मूर्ति के अलावा खुदाई में निकली जैन तीर्थकर चंद्रप्रभु की प्रतिमा भव्य एवं विशाल है। बौद्ध धर्मावलंबियों ने यहां प्रज्ञागिरी में भगवान बुद्ध की विशाल प्रतिमा स्थापित कर डोंगरगढ़ को धार्मिक एकता के सूत्र में मजबूती से बांधने का काम किया है। सभी समाजों के पूजा-स्थलों की मान्यताओं के साथ डोंगरगढ़ विख्यात है मां बम्लेश्वरी देवी मंदिर के लिए।
माँ बम्लेश्वरी सबकी इच्छाएं पूरी करती है। हर समस्या का निदान मां के चरणों में है। सभी धर्म और आध्यात्मिक गुरुओं ने ये स्वीकार किया है कि आराधना और प्रार्थना अद्भत तरीके से फलदायी होती है। इसी चमत्कार के कारण डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी मंदिर की स्थापना हुई।
डोंगरगढ़ पहुंच-मार्ग: मुंबई-हावड़ा रेल लाइन के बीच स्थित डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से मात्र एक सौ चार किलोमीटर दूर है। सड़क मार्ग से यहां पहुंचने के लिए रास्ता प्रसिद्ध जी. ई. रोड के तुमड़ीबोड़ से मुड़ता है। राजनांदगांव जिले की यह सबसे बड़ी तहसील है।
पहाड़ी से घिरे इस नगर में हर धर्म के लोग अलग-अलग समय में जुटते हैं। चैत्र और आश्विन नवरात्रि में करीब दस से बारह लाख लोग यहां आते हैं तो 6फरवरी को प्रज्ञागिरी में देश-विदेश के बौद्ध भिक्षु, गुड फ्राईडे को मध्यभारत का मसीही समाज यहां पूजा करने आता है, तो टेकरी वाले बाबा के उर्स पार्क पर पहुँचने है मुस्लिम भाई।
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अजय चंद्राकर


अजय चंद्राकर का जन्म लग्र मिथुन, राशि कर्क है। आपके लग्र में राहु-सूर्य यूं तो ग्रहण योग बनाते हैं परंतु लग्रस्थ राहु के कारण गजब का प्रभावशाली व्यक्तित्व है, जिसके चलते आप जनता के बीच अत्यंत प्रसिद्ध हैं। राहु-सूर्य के कारण जीवन में उतार-चढ़ाव भी आते रहे हैं। बहुत से मिथक व चर्चे भी आपके होंगे। यह सब राहु-सूर्य के कारण हैं। छात्र जीवन से ही जीवन के संघर्ष एवं सामाजिक परिवेश के कारण समाज व राजनीति से अजब आकर्षण रहा है। वर्ष २००२ में जब शुक्र में राहु का अंतर प्रारंभ हुआ, आप छत्तीसगढ़ विधानसभा में पहुंचे एवं रमन-मंत्रिमंडल में सक्रिय और दबंग मंत्री के रूप में अपनी पहचान बना ली। मगर २००८ में शनि के अंतर में वे विधानसभा चुनाव में पराजित हुए। चूंकि शनि अष्टमेश और अष्टमस्थ भी है अत: पराजय के अलावा विवादों में भी लगातार तीन वर्ष उलझे रहे। वर्ष २०११ जून में बुध की अंतर में एक बार भी उनका भाग्य चमका, यद्यपि बुध बारहवें हैं फि र भी इस दशा में वे पुन: स्थापित हुए और पुन: रमन मंत्रिमंडल में अत्यंत महत्वपूर्ण बन गए। २ अप्रैल २०१४ से केतु का अंतर एक नई कहानी, एक नए परिदृश्य की रचना कर रहा है। आने वाला वर्ष अत्यंत थकान भरा, जिम्मेदारी भरा और सफ लताओं और प्रसिद्धियों का होगा। वर्ष २०१५ जून के बाद सूर्य की महादशा पुन: अपयश की वजह बन सकता है अत: सावधान रहने की आवश्यकता होगी।
लग्रस्थ राहु एवं तृतीयस्थ मंगल के कारण वे बड़ी तेजी से काम करने वाले जिन्होंने एक दिन में तीन विश्वविद्यालय के लिए अधिनियम पारित करने में सफ ल रहे। इसके अलावा पंचायती राज अधिनियम में संशोधन उनके लिए एक अन्य महत्वपूर्ण उपलब्धि रही, इस संशोधन के जरिए साक्षरता जैसे विषयों को कानून का स्वरूप दिया गया। साथ ही महिलाओं को पंचायत में 50 प्रतिशत आरक्षण का अधिनियम भी पारित किया गया. उच्च शिक्षा में एसआईआरडी, एनआईटी, ओपन स्कूल, व्यावसायिक शिक्षा मंडल, रिजनल साइंस सेंटर और अंबिकापुर में सैनिक स्कूल की स्थापना की गई। वहीं ए.आई.ट्रिपल आई. और आईआईएम के लिए छत्तीसगढ़ में पत्राचार भी अजय चंद्राकर ने शुरू करवाया। यह सब राहु के कारण ही संभव हो पाया क्योंकि राहु व्यक्ति को स्वप्रदृष्टा बनाता है। अपने विधानसभा क्षेत्र में चमचमाती सड़कें, नए स्कूलों की स्थापना, स्कूलों का उन्नयन के साथ विभिन्न समस्याओं के निराकरण में महती भूमिका रही। लग्र के राहु के कारण प्रारंभिक जीवन अत्यंत संघर्षमय होता है मगर अंततोगत्वा ऐसे जातक अटल बिहारी बाजपेयी की तरह प्रसिद्ध होते हैं। तीसरे मंगल के कारण अधीरता और क्रोध, इनकी प्रसिद्धि कम कर सकता है, इससे इनको बचना चाहिए। ऐसे जातक खुली आंखों से सपने देखने के आदि होते हैं तथा मंगल और गुरू के प्रभाव से यह अपने सपनों को पूरी ताकत से पूरा करने की चेष्टा भी करते हैं। शायद, इनका सपना हो कि वे छत्तीसगढ़ की विकास की गाथा लिखें।

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गंड-दोष(मूल- दोष)

तिथि गंड : नंदा तिथि के आदि (शुरुआत) की एवं पूर्णा तिथि के अंत की एक घड़ी अर्थात 24 मिनट का समय अशुभ होता है इसलिए इस समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।
नक्षत्र गंड : ज्येष्ठा, श्लेषा, रेवती के अंत की 2 घड़ी अर्थात 48मिनट और मूल, मघा, अश्विनी के आदि अर्थात शुरुआत की 2 घड़ी अर्थात 48मिनट तक के समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।
लग्न गंड : मीन, वृश्चिक, कर्क के अंत की आधी घड़ी अर्थात 12 मिनट का समय एवं मेष, धन, सिंह के आदि अर्थात शुरुआत आधी घड़ी अर्थात 12 मिनट के समय में कोई भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए।
तिथि, नक्षत्र, लग्न के गंड में अगर बालक का जन्म हो तो बालक का जीवित रहना थोड़ा मुश्किल रहता है, अगर जीवित रह जाये तो धनी अर्थात धनाड्य होता है।
कुल छ: नक्षत्र गंड हैं- मूल, ज्येष्ठा, श्लेषा, अश्विनी, रेवती, मघा, इनमें से तीन ज्येष्ठा, मूल, श्लेषा, नक्षत्रों को ज्यादा मानते हैं।
ज्येष्ठा नक्षत्र के गण्डमूल में जन्म लेने का फल: प्रत्येक नक्षत्र 24 घंटे का होता है, दिन के 24 घंटे के 10 भाग करें तो एक भाग के दो घंटे एवं 24 मिनट होते हैं इस प्रकार से ज्येष्ठा, नक्षत्र के प्रथम समय के दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो नानी के लिए अशुभ होता है। दूसरे दो घंटे 24 मिनट के समय में अगर बालक का जन्म हो तो, नाना को अशुभ होता है। तीसरे दो घंटे 24 मिनट के समय में अगर बालक का जन्म हो तो मामा को कष्ट होता है, चौथे दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, माँ को कष्ट होता है। पांचवे दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, स्वयं् बालक को कष्ट होता है। छठे दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, गोत्र के लोगों को कष्ट होता है। सातवें दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, नाना के परिवार एवं अपने कुटुंब को कष्ट होता है। आठवें दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, बड़े भाई को कष्ट होता है। नवें दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, होने वाले ससुर को कष्ट होता है। दसवें दो घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, सभी कुटुंब वालों को कष्ट होता है।
मूल नक्षत्र के गण्डमूल में जन्म लेने का फल: प्रत्येक नक्षत्र 24 घंटे का होता है, इस प्रकार मूल नक्षत्र में 24 घंटे के आठ भाग करें, प्रथम भाग के 3 घंटे 12 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, मूलनाश अर्थात बहुत ही अशुभ होता है। दूसरे भाग के 2 घंटे 24 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, धनहानि होती है। तीसरे भाग के 4 घंटे 24 मिनट में अगर जन्म हो तो भाई का नाश होता है। चौथे भाग के 3 घंटे 36मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, माँ को पीड़ा अथवा कष्ट करता है। पांचवें भाग के 5 घंटे 36मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, सम्पूर्ण परिवार का नाश हो सकता है। छठवें भाग के 2 घंटों में अगर बालक का जन्म हो तो, बालक राजा का मंत्री हो सकता है अर्थात बड़ा होकर बड़े पद को प्राप्त कर सकता है। सातवें भाग के 1 घंटे 36मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, राजा हो सकता है अर्थात बहुत उच्च पद को प्राप्त कर सकता है। आठवें भाग के 1 घंटे 12 मिनट में अगर बालक का जन्म हो तो, बालक की आयु कम होगी।
श्लेषा नक्षत्र के गण्डमूल नक्षत्र में जन्म लेने का फल: प्रत्येक नक्षत्र 24 घंटे का होता है, दिन के 24 घंटे के 10 भाग करें इस प्रकार बालक का जन्म अगर नक्षत्र के प्रथम भाग के 2 घंटों में हुआ हो तो, बालक को राज्य की प्राप्ति हो सकती है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के दूसरे भाग के 2 घंटे 48मिनट में हुआ हो तो, पिता को कष्ट हो सकता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के तीसरे भाग के 48मिनट में हुआ हो तो, माँ को कष्ट होता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के चौथे भाग के 1 घंटे 12 मिनट में हुआ हो तो, बालक बड़ा होकर पर स्त्री गामी हो सकता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के पांचवें भाग के 1 घंटे 36मिनट में हुआ हो तो, बालक पिता से विरोध होता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के छठे भाग के 3 घंटे 12 मिनट में हुआ हो तो, बलवान होता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के सातवें भाग के 4 घंटे 24 मिनट में हुआ हो तो, बालक आत्मघाती होता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के आठवें भाग के 2 घंटे 24 मिनट में हुआ हो तो, बालक त्यागी होता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के नवें भाग के 3 घंटे 36 मिनट में हुआ हो तो, भोगी अर्थात अपयश का कारण होता है। बालक का जन्म अगर नक्षत्र के दसवें भाग के 2 घंटों में हुआ हो तो, बालक धन नाश करता है।
ज्योतिषीय समाधान: मूल, ज्येष्ठा, श्लेषा, अश्विनी, रेवती, मघा इन छ: नक्षत्रों में जन्मे बालकों के दोषों को दूर करने के उपाय निम्न प्रकार से हैं :
उपरोक्त नक्षत्रों में से किसी भी नक्षत्र में बालक का जन्म हुआ हो तो, इस के लिए उक्त नक्षत्र के मंत्रों का अ_ाईस हजार जाप करें या किसी ब्राह्मण से करवाएं तथा जब नक्षत्र 28दिन में फिर से आये तब जिस नक्षत्र का मंत्र जपा हो उसके उस दिन 28छेद वाले घड़े से बालक एवं माता पिता की शुद्धिकरण कर उस मंत्र के दशांश का हवन करें या करवाएं एवं 28ब्राह्मणों को भोजन करवाएं, इससे नक्षत्र-गंड दोष दूर होते हैं।

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द्वार (मुख्य द्वार का वास्तु-विश्लेषण)


घर या ऑफिस में यदि हम खुशहाली लाना चाहते हैं तो सबसे पहले उसके मुख्य द्वार की दिशा और दशा ठीक की जाए। वास्तुशास्त्र में मुख्य द्वार की सही दिशा के कई लाभ बताए गए हैं। जरा-सी सावधानी व्यक्ति को ढेरों उपलब्धियों की सौगात दिला सकती है।
मानव शरीर की पांचों ज्ञानेन्द्रियों में से जो महत्ता हमारे मुख की है, वही महत्ता किसी भी भवन के मुख्य प्रवेश द्वार की होती है।
साधारणतया किसी भी भवन में मुख्य रूप से एक या दो द्वार मुख्य द्वारों की श्रेणी के होते हैं जिनमें से प्रथम मुख्य द्वार से हम भवन की चारदीवारों में प्रवेश करते हैं। द्वितीय से हम भवन में प्रवेश करते हैं। भवन के मुख्य द्वार का हमारे जीवन से एक घनिष्ठ संबंध है। वास्तु के सिद्धांतों के अनुसार सकारात्मक दिशा के द्वार गृहस्वामी को लक्ष्मी (संपदा), ऐश्वर्य, पारिवारिक सुख एवं वैभव प्रदान करते हैं जबकि नकारात्मक मुख्य द्वार जीवन में अनेक समस्याओं को उत्पन्न कर सकते हैं।
जहां तक संभव हो पूर्व एवं उत्तर मुखी भवन का मुख्य द्वार पूर्वोत्तर अर्थात ईशान कोण में बनाएं। पश्चिम मुखी भवन पश्चिम-उत्तर कोण में व दक्षिण मुखी भवन में द्वार दक्षिण-पूर्व में होना चाहिए। यदि किसी कारणवश आप उपरोक्त दिशा में मुख्य द्वार का निर्माण न कर सके तो भवन के मुख्य (आंतरिक) ढांचे में प्रवेश के लिए उपरोक्त में से किसी एक दिशा को चुन लेने से भवन के मुख्य द्वार का वास्तुदोष समाप्त हो जाता है। नए भवन के मुख्य द्वार में किसी पुराने भवन की चौखट, दरवाजे या लकड़ी प्रयोग न करें।
मुख्य द्वार का आकार आयताकार ही हो, इसकी आकृति किसी प्रकार के आड़े, तिरछे, न्यून या अधिक कोण न बनाकर सभी कोण समकोण हो। यह त्रिकोण, गोल, वर्गाकार या बहुभुज की आकृति का न हो।
विशेष ध्यान दें कि कोई भी द्वार, विशेष कर मुख्य द्वार खोलते या बंद करते समय किसी प्रकार की कोई कर्कश ध्वनि पैदा न करें। आजकल बहुमंजिली इमारतों अथवा फ्लैट या अपार्टमेंट सिस्टम ने आवास की समस्या को काफी हद तक हल कर दिया है। जहां तक मुख्य द्वार का संबंध है तो इस विषय को लेकर कई तरह की भ्रांतियां फैल चुकी हैं, क्योंकि ऐसे भवनों में कोई एक या दो मुख्य द्वार न होकर अनेक द्वार होते हैं। पंरतु अपने फ्लैट में अंदर आने वाला आपका दरवाजा ही आपका मुख्य द्वार होगा।
भवन के मुख्य द्वार के सामने कई तरह की नकारात्मक ऊर्जाएं भी विद्यमान हो सकती हैं जिनमें हम द्वार बेध या मार्ग बेध कहते हैं। प्राय: सभी द्वार बेध भवन को नकारात्मक ऊर्जा देते हैं, जैसे घर का 'टी जंक्शन पर होना या गली, कोई बिजली का खंभा, प्रवेश द्वार के बीचों-बीच कोई पेड़, सामने के भवन में बने हुए नुकीले कोने जो आपके द्वार की ओर चुभने जैसी अनुभूति देते हो आदि। इन सबको वास्तु में शूल अथवा विषबाण की संज्ञा की जाती है।

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भ्रष्टाचार का विरोध करेगा कौन ???



 

भ्रष्टाचार का विरोध करेगा कौन ???
आज जब मैं ये लिखने बैठा हूॅ कि भ्रष्टाचार को कौन समाप्त करेगा, तब बहुत सारे प्रश्र दिमाग में लगातार कौंध रहे हैं कि क्या ऐसा सचमुच संभव है? क्या ये कभी समाप्त भी हो सकता है या हम इसे दशहरा में मनाये जाने वाले रावण वध की तरह हर बार समाप्त करेंगे और ये भस्मासुर के मुंह की तरह फिर खुला हुआ मिलेगा? इन्हीं सब प्रश्रों के साथ आज शाम जब मैं ये लिखने बैठा हूॅ तब के प्रश्र कुंडली पर विचार करने पर यह दिखता है कि अभी जबकि वृश्चिक लग्र की कुंडली में लग्रस्थ शनि तृतीयेश और चतुर्थेश होकर लग्र में अपने न्यायकारी दृढ़ता के साथ दंडाधिकारी की महती भुमिका में बैठा है और उसी के अनुरूप द्वितीयेश और पंचमेश गुरू कर्क का होकर भाग्यस्थ है अर्थात समाज और समाजिकता हेतु उॅचे मापदंड स्थापित करने हेतु प्रतिबद्व दिखता है। हालांकि यह भी सच है कि दशम भाव का कारण सूर्य राहु से पापाक्रांत होकर पंचमस्थ है अर्थात सत्तापक्ष कितनी भी विपरीत परिस्थिति और विरोधाभास के बावजूद अपना अंह और मद छोड़ नहीं सकता। किंतु मेरा मानना है कि ग्रहों के गोचरों का प्रभाव समय के कालखंड पर पड़ता है तो जब से वृश्चिक शनि और कर्क का गुरू गोचर में है, तब से ही न्याय और उॅचे मापदंड स्थापित करता रहा है और अभी जब शनि और गुरू इस स्थिति में हैं तब तक तो ये सिलसिला जारी रहेगा। भ्रष्टाचार के कारण हमारे सामाजिक जीवन के अस्तित्व में ही छिपे हैं और नेतागण महज चिल्लाते रहते हैं कि हम भ्रष्टाचार को मिटा देंगे, हमारे आते ही भ्रष्टाचार समाप्त हो जायेगा किंतु मजे कि बात तो यह है कि जो नेता जितने जोर से मंच पर चिल्लाते हैं कि भ्रष्टाचार मिटा देंगे, वे उस मंच तक बिना भ्रष्टाचार के पहुंच नहीं पाते। जहां से भ्रष्टाचार मिटाने का व्याख्यान देना पड़ता है, उस मंच तक पहुंचने के लिए भ्रष्टाचार की सीढिय़ाँ पार करनी पड़ती हैं
जिस देश में इतनी गरीबी हो उस देश में सदाचार हो सकता है, यह चमत्कार होगा। यह संभव नहीं है। जहां जीना इतना कठिन हो, वहां आदमी ईमानदार रह सकेगा, यह मुश्किल है। हां, एकाध आदमी जो कोई संकल्पवान हो, रह सकता है, लेकिन इतना संकल्प सबके पास नहीं है और इसके लिए उन्हें दोषी भी नहीं ठहराया जा सकता। पूंजीवाद का कोई कसूर नहीं है कि भ्रष्टाचार है। भ्रष्टाचार का कारण दूसरा है। भ्रष्टाचार का कारण है कि भूख ज्यादा है, रोटी कम है। नंगे शरीर ज्यादा हैं, कपड़े कम हैं। आदमी ज्यादा हैं, मकान कम हैं। जीने की सुविधा कम है, और जीने वाले रोज बढ़ते चले जा रहे हैं। इसके बीच जो तनाव पैदा होगा, वह भ्रष्टाचार ले आएगा। इस भ्रष्टाचार को कोई नेता नहीं मिटा सकता। क्योंकि वह जिस ढंग से सोचते हैं, कि जाकर सारे मुल्क को समझायेंगे कि भ्रष्टाचार मत करो। तो क्या भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा? यहां अस्तित्व खतरे में है। यह प्रवचन से हल होने वाला नहीं है कि सारे हिंदुस्तान के साधु गांव-गांव जाकर समझाएं कि भ्रष्टाचार मत करो। तो बस भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा। यहां कोई शिक्षा कि कमी नहीं है और न प्रवचनों कि कमी है। क्योंकि भ्रष्टाचार की बुनियादी जड़ को पकडऩा पड़ेगा और अगर हम जड़ को पकड़ लें तो बहुत चीजें साफ हो जाएं।
भारत में वैसे तो अनेक समस्याएं विद्यमान हैं जिसके कारण देश की प्रगति धीमी है। उनमें प्रमुख है बेरोजगारी, गरीबी, अशिक्षा, आदि लेकिन उन सबमें वर्तमान में सबसे ज्यादा यदि कोई देश के विकास को बाधित कर रहा है तो वह है भ्रष्टाचार की समस्या। आज इससे सारा देश त्रस्त है। लोकतंत्र की जड़ो को खोखला करने का कार्य काफी समय से हो रहा है। आज जबकि कदम-कदम पर लोगों के मान-सम्मान को बेरहमी से कुचला जा रहा है। लोगों के कानूनी, संवैधानिक, प्राकृतिक एवं मानव अधिकारों का खुले आम हनन एवं अतिक्रमण हो रहा है। हर व्यक्ति को मनमानी, गैर-बराबरी, भेदभाव एवं भ्रष्टाचार का सामना करना पड रहा है। यह दयनीय स्थिति सिर्फ एक दिन में ही नहीं बनी है। यह लंबे समय से धीरे-धीरे गेंहू में घुन की तरह फैल रही थी और आज भ्रष्टाचार ने पूरे राष्ट्र को अपने आगोश में ले लिया है। वास्तव में भ्रष्टाचार के लिए आज सारा तंत्र जिम्मेदार है। ऐसी अनेकों प्रकार की नाइंसाफी, मनमानी एवं गैर-कानूनी गतिविधियाँ केवल इसलिये ही नहीं चल रही हैं कि सरकार एवं प्रशासन में बैठे लोग निकम्मे, निष्क्रिय और भ्रष्ट हो चुके हैं, बल्कि ये सब इसलिये भी तेजी से फल-फूल रहे हैं, क्योंकि हम आजादी एवं स्वाभिमान के मायने भूल चुके हैं। सच तो यह है कि हम इतने कायर, स्वार्थी और खुदगर्ज हो गये हैं कि जब तक हम  स्वयं इससे प्रभावित नहीं होते, तब तक हम इनके बारे में सोचते ही नहीं। यदि हम इसी प्रकार से केवल आत्म केन्द्रित होकर स्वार्थपूर्ण सोचते रहे, तो हमारे सामने भी भ्रष्टाचार अनेक रूप में सामने आ सकता है जैसे कि
हम या हमारा कोई अपना, बीमार हो और उसे केवल इसलिये नहीं बचाया जा सके, क्योंकि उसे दी जाने वाली दवायें उन अपराधी लोगों ने नकली बनायी हों, जिनका हम विरोध नहीं कर पा रहे हैं?
हम कोई अपना, किसी भोज में खाना खाये और खानें की वस्तुओं में मिलावट के चलते, वह असमय ही तडप कर बेमौत मारा जाए।
हम कोई अपना, बस यात्रा में हो और बस मरम्मत करने वाले मिस्त्री द्वारा उस बस में नकली पुर्जे लगा दिये जाने के कारण, वह बस बीच रास्ते में दुर्घटना हो जाये?
हम अपने वाहन में पेट्रोल या डीजल में घातक जहरीले द्रव्यों की मिलावट के कारण बीच रास्ते में वाहन के इंजन में आग लग जाये?
जब हम या हमारा कोई आत्मीय किसी बीमारी या दुर्घटना के कारण किसी अस्पताल में भर्ती हो और भ्रष्ट डॉक्टर बिना रिश्वत लिये तत्काल उपचार या ऑपरेशन करने से मना करे दे या लापरवाही, अनियमितता बरते और...?
जब हम या कोई आत्मीय रेल यात्रा करे और रेल की दुर्घटना हो जाये, क्योंकि रेल मरम्मत कार्य करने के लिये जिम्मेदार लोग मरम्मत कार्य किये एवं सुरक्षा सुनिश्चित किये बिना ही वेतन उठाते हों!
 सर्वविदित है की जि़म्मेदार पदों पर कितने गैर जि़म्मेदार लोग बैठे है! भ्रष्टाचार के निरंतर बढ़ते हुए प्रभाव के बावजूद यदि हम नाइंसाफी के विरुद्ध, पूरी ताकत के साथ और बेखौफ होकर बोलना शुरू करें, अपनी बात कहने में हिचकें नहीं, तो अभी भी बहुत कुछ ऐसा बचा हुआ है, जिसे बचाया जा सकता है। भ्रष्टाचार के इस रोग के कारण हमारे देश का कितना नुकसान हो रहा है, इसका अनुमान लगाना भी मुश्किल है. पर इतना तो साफ़ दिखता है कि सरकार द्वारा चलाई गयी अनेक योजनाओं का लाभ जरूरतमंद लोगो तक नहीं पहुँच पाता है। इसके लिये सरकारी मशीनरी के साथ ही साथ जनता भी दोषी है। सूचना के अधिकार का कानून बनने के बाद कुछ संवेदनशील लोग भ्रष्टाचार के विरुद्ध सामने आये हैं, मगर इस कानून का दुरूपयोग करने वाले ब्लैकमेलर भी इसकी आड़ में अपनी दुकानदारी भी चलाने लगे हैं। हालांकि कुछ चुनिंदा लोग बढिय़ा प्रयास कर रहे है जिससे पहले की तुलना में स्थिति सुधरी है। जिस देश में लोगों द्वारा चुने गये प्रतिनिधि ही लोगों का पैसा खाने के लिये तैयार बैठे हों, वहाँ इससे अधिक सुधार कानून द्वारा नहीं हो सकता है। वास्तव में देश से यदि भ्रष्टाचार मिटाना है तो आम जनता को सामने आना होगा। उन्हें यह प्रयत्न करना होगा कि उन्हें भ्रष्ट लोगों को समाज से न सिर्फ बहिष्कृत करना होगा बल्कि उच्च स्तर पर भी भ्रष्टाचार में लिप्त लोगों का बहिष्कार करना होगा। अपनी आम जरूरतों को पूरा करने एवं शीघ्रता से निपटाने के लिए बंद लिफाफे की प्रवृत्ति से बचना होगा। जब तब लोकतंत्र में आम नागरिक एवं उनके नेतृत्व दोनों ही मिलकर यह नहीं चाहेंगे तब तक भ्रष्टाचार से बच पाना असंभव ही है।
आखिर भ्रष्टाचार का श्रोत कहाँ है? भ्रष्टाचार के कारण क्या हैं? और दूसरा प्रमुख प्रश्न है कि इसका निवारण कैसे हो। यहाँ कुछ व्यवहारिक और ज्योतिषीय तरीके पर विचार करते हैं-
 नैतिक पतन पहला कारण है, आचरण का भ्रष्ट हो जाना ही भ्रष्टाचार है। आचरण का प्रतिनिधित्व सदैव नैतिकता करती है। किसी का नैतिक उत्थान अथवा पतन उसके आचरण पर भी प्रभाव डालता है। आधुनिक शिक्षा पद्धति और सामाजिक परिवेश में बच्चों के नैतिक उत्थान के प्रति लापरवाही बच्चे को जीवनभर प्रभावित करती है। अर्थात जब जीवन की पहली सीढ़ी पर ही उसे उचित मार्गदर्शन, नैतिकता का पाठ, और औचित्य अनौचित्य में भेद करने का ज्ञान उसके पास नहीं होता तो उसका आचरण धीरे धीरे उसकी आदत में बदलता जाता है। अत: भ्रष्टाचार का पहला श्रोत परिवार होता है जहां बालक नैतिक ज्ञान के अभाव में उचित और अनुचित के बीच भेद करने तथा नैतिकता के प्रति मानसिक रूप से सबल होने मे असमर्थ हो जाता है। सुलभ मार्ग की तलाश हर मानव का स्वभाव होता है कि किसी भी कार्य को व्यक्ति कम से कम कष्ट उठाकर प्राप्त कर लेना चाहता है। बिना लाईन में लगे काम हो जाए या बिना मेहनत के सुविधा प्राप्त हो जाए। वह हर कार्य के लिए एक छोटा और सुगम रास्ता खोजने का प्रयास करता है। इसके लिए दो रास्ते हो सकते हैं एक रास्ता नैतिकता का हो सकता है जो लम्बा और कष्टप्रद भी हो सकता है और दूसरा रास्ता है छोटा किन्तु अनैतिक रास्ता। लोग अपने लाभ के लिए जो छोटा रास्ता चुनते हैं उससे खुद तो भ्रष्ट होते ही हैं दूसरों को भी भ्रष्ट बनने हेतु बढ़ावा देते हैं। आर्थिक असमानता भी भ्रष्टाचार के लिए जिम्मेदार होती हैं। हर मनुष्य की कुछ मूलभूत आवश्यकताएँ होती हैं। जीवन यापन के लिए धन और सुविधाओं की कुछ न्यूनतम आवश्यकताएँ होती हैं। पूरी दुनिया में आर्थिक असमानता तेज़ी से बढ़ी है। अमीर और ज़्यादा अमीर हो रहे हैं जबकि गरीब को अपनी जीविका के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जब व्यक्ति की न्यूनतम आवश्यकताएँ सदाचार के रास्ते पूरी नहीं होतीं तो वह नैतिकता पर से अपना विश्वास खोने लगता है और कहीं न कहीं जीवित रहने के लिए अनैतिक होने के लिए बाध्य हो जाता है। कोई तो कारण ऐसा है कि लोग कई कई सौ करोड़ के घोटाले करने और धन जमा करने के बावजूद भी और धन पाने को लालायित रहते हैं और उनकी क्षुधा पूर्ति नहीं हो पाती। तेज़ी से हो रहे विकास और बदल रही भौतिक परिस्थिति जैसे मॉल या मोबाईल कल्चर ने लोगों में तमाम ऐसी नयी महत्वाकांक्षाएं पैदा कर दी हैं जिनकी पूर्ति के लिए वो अपने वर्तमान आर्थिक ढांचे में रह कर कुछ कर सकने मे स्वयं को अक्षम पाते हैं। जितनी तेज़ी से दुनिया में सुख सुविधा के साधन बढ़े हैं उसी तेज़ी से महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ी हैं। इन्हें नैतिक मार्ग से पाना लगभग असंभव हो जाता है। ऐसे में भ्रष्टाचार के द्वारा लोग अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए प्रेरित होते हैं। इसके साथ ही प्रभावी कानून की कमी भी भ्रष्टाचार का एक प्रमुख कारण  है। भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए या तो प्रभावी कानून नहीं होते हैं अथवा उनके क्रियान्वयन के लिए सरकारी मशीनरी का ठीक प्रबन्धन नहीं होता। सिस्टम में तमाम ऐसी खामियाँ होती हैं जिनके सहारे भ्रष्टाचारी को दण्ड दिलाना बेहद मुश्किल हो जाता है। कुछ परिस्थितियाँ ऐसी भी होती हैं जहाँ दबाव वश भ्रष्टाचार करना और सहन करना पड़ता है। इस तरह का भ्रष्टाचार सरकारी तंत्र में बहुतायत से दिखता है।
भ्रष्टाचार को कम करने अथवा मिटाने में कारगर सख्त और प्रभावी कानून के नियंत्रण के साथ नैतिकता और ईमानदारी अंदर से आनी चाहिए, न कि बाहर से थोपी जाय। भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए 12 अक्टूबर 2005 को देशभर में सूचना का अधिकार क़ानून लागू किया गया। इसके बावजूद रिश्वत खोरी कम नहीं हुई। हक ीक त में जनता के कल्याण के लिए शुरू की गई तमाम योजनाओं का फ़ायदा तो नौकरशाह ही उठाते हैं, आखीर में जनता तो ठगी की ठगी ही रह जाती है। शायद यही उसकी नियति है। जनता के हाथ में एक हथियार राइट टू रिजेक्ट का भी है। जिसका अर्थ है चुनाव लडऩे वाले सभी उम्मीदवारों को ख़ारिज करने का अधिकार। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने 26 सितम्बर 2013 को एक ऐतिहासिक फ़ैसला देते हुए देश के मतदाताओं को यह अधिकार दे दिया है कि वे अब मतदान के दौरान सभी प्रत्याशियों को खारिज कर सकेंगे। इसके साथ इलेक्ट्रानिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) में नोटा अर्थात इनमें से कोई नहीं के विकल्प का एक बटन है। ईवीएम में नोटा बटन का उपयोग ऐसे मतदाता कर सकेंगे जो उनके क्षेत्र में चुनाव लड़ रहे किसी भी उम्मीदवार को वोट नहीं देना चाहते। इस प्रकार आज जब जनता के हाथ में इतने सारे हथियार हैं तो उसका उपयोग जनता को करते हुए उॅचे मापदंड स्थापित करना चाहिए और दंडाधिकारी की भूमिका जनता को ही निभाना चाहिए क्योंकि तीसरे स्थान का शनि अर्थात जनता उच्चस्थ का होकर लग्रस्थ है अर्थात जनता अपने अधिकारों का उपयोग करते हुए भ्रष्टाचार का विरोध करें। उसे ही इसके लिए शुरूआत करना होगा। हर क्षेत्र में भ्रष्टाचार का विरोध करना होगा। इसके लिए शुरूआत उसे अपने घर से करना होगा कि अगर कोई महिला अपने पति के भ्रष्ट तरीके से कमाये हुए धन को स्थान ही ना दे और अपने पड़ोसियों के सामथ्र्य से अधिक विलासिता से प्रेरित ना हो तो उसके  घर में भ्रष्टाचार का अंत होगा। यदि एक व्यक्ति किसी भी कार्य के लिए भ्रष्टाचार का विरोध करें और बिना भ्रष्टाचार के कार्य को समर्थन करे तो ये तरीका है। इसके साथ ही भ्रष्टाचार कर रहे लोगो का सामूहिक विरोध होना चाहिए और अपनी क्षमता से अधिक साधन सम्पन्न होने वाले लोगों को समाजिक विरोध का सामना करना चाहिए, जिससे भी भ्रष्टाचार को रोका जा सकता है। इसके लिए जनता को ही प्रयास करना होगा। हर उस छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी जगह जहॉ पर भी अंतरविरोध दिखाई दे चाहे वह दूध में पानी मिलाने से लेकर मुफ्त में चावल लेना हो या फिर अपने किसी पद के चयन के लिए मोटी रकम से लेकर भौतिकता का सामान जुटाने के लिए। इस प्रकार सभी का विरोध जनता करने में सक्षम है। किंतु याद रहे यह कार्य सभी को करना होगा तभी वृश्चिक के शनि और कर्कगत बृहस्पति अपना प्रभाव दिखा पायेंगे। इसके लिए जनता को नेता या अधिकारियों को कोसने से पहले अपने हिस्से का भ्रष्टाचार रोकना होगा। शुरूआत जरूर कठिन हो सकती है किंतु लोगो का साथ लेकर इसे करना असंभव नहीं है इसका उदाहरण हमने दिल्ली के रामलीला मैदान या केजरीवाल विरूद्ध नरेंद्र मोदी के तौर पर देख ही चुके हैं। किंतु इसके लिए अपने सभी हथियार जैसे राईट टू रिजेक्ट से लेकर नोटा और अपने घरेलू भ्रष्ट धन के आगमन से लेकर पड़ोसी के शानओशौकत तक पर विरोध द्वारा कर सकते हैं।



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तनाव कारन और निदान




जब भी मेष लग्र या कर्क लग्र के जातक हों या वृषभ लग्र के जातक हों और उनका बुध, चंद्रमा अष्टमस्थ या द्वादशस्थ हो, उस स्थिति में जातक मानसिक परेशानी से घिरता है। निरन्तर तनावग्रस्त बने रहना जीवन में हानिकारक है। चूँकि जीवन-उद्देश्य आपके सामने है, तनाव से दूर रहना ही आपके लिए श्रेष्ठतर होगा। अत: आप तनाव के बहुत से कारकों से बचें, जो आप आसानी से कर सकते हैं और साथ में ये भी।
इस तरह के परेशानी वाले जातकों को संबंधित ग्रहों की शांति कराने के साथ तनाव से बचने के उपाए करने चाहिए।
* जब भी लग्रस्थ राहु, तीसरा राहु या चंद्रमा राहु से आक्रांत हो, उस स्थिति में जातक आलस्य के कारण कार्य को टालने की प्रवृत्ति रखता है। काम को टालने की प्रवृत्ति से बचें, अगले सप्ताह में पडऩे वाले कार्यो की अग्रिम सूची बना लें, सूची के अनुसार कार्य करें।
* अपने पास उतना ही कार्य लें, जितना कि आप आसानी से कर सकें।
* समय अमूल्य धरोहर है, इसलिए इसका उपयोग ध्यानपूर्वक करें।
* गतिशील रहने पर आप अपनी समस्याएं भूल जाते हैं, जॉगिंग करने से भी आपके मन को शांति मिलेगी।
* कार्बोहाइडेट के सेवन से चित्त शांत होता है, कैफीन वाले पदार्थो के सेवन में कमी करें। चाय-कॉफी के स्थान पर नीबू पानी या फलों के रस का सेवन करें।
* शोध से पता चलता है कि अपने पालतू पशु को प्यार करने सेे मन को शांति मिलती है।
* कार्य के प्रति, जीवन के प्रति आशावादी रुख अपनाने से आप जीवन के कठिन से कठिन क्षणों में भी विजय हासिल कर सकते हैं।
* बंटी हुई चिताएं आधी हो जाती हैं, इसलिए समस्याओं और दुखों को मन में न रखें, किसी निकटतम व्यक्ति से बातें करके, आपको हलकापन महसूस होगा।
* बीच-बीच में अपनी मनपसंद गतिविधि जैसे-बागवानी, घूमना, मनपसंद खेल, टीवी देखना, संगीत, समाचार, पत्र-पत्रिका वाचन, लेखन आदि कार्यो को करके आप तरोताजा महसूस करेंगे।
* अपना कुछ समय बाहर बिताएं, देखें कि बाहर क्या हो रहा है। छोटी-छोटी बातों पर गौर करने से आपको महसूस होगा कि जिंदगी में जीने लायक कितना कुछ है।
* चिडिय़ा की चहक सुनें, सूरज को डूबते देंखें, प्रकृति, वन, नदी को देखकर मन खुश हो जाता है।
* चिंता करना छोड़कर हमेशा खुश रहें, जीवन इतना गंभीर नहीं है, जितना आपने बना डाला है। उस स्थिति में हास्य का पुट दें, ऐसा करने से स्वयं को हलका महसूस करेंगे। ऐसे जातक को बुध, चंद्रमा, राहु की शांति करानी चाहिए और किसी कुशल चिकित्सक की सलाह लेनी चाहिए।
अव्यवस्थित जीवन:-
जिस जातक के लग्र या तीसरे या ग्यारहवें स्थान में राहु हो, वह जातक अव्यवस्थित जीवन जीने का आदि होता है।
* किसी कार्य की अपेक्षा रखना और फिर न होना।
* अवसाद से भी तनाव उत्पन्न होता है
* ऐसे और भी कारक जो तनाव पैदा करते है तनाव मुक्त जीवन के लिए हास्य का विशेष महत्व है।
* प्रतिदिन कुछ मिनट ध्यान करने से मन को शांति मिलती है। इससे मानसिक, भावनात्मक व शारीरिक राहत महसूस होगी।
* नौकरी करते हैं, तो छुट्टियों में आराम करके तरो-ताजा हो जाएं।
* कोई भी फोन करने से पहले मन में भलीभांति सोच लें कि क्या बातें करनी हैं, तुरन्त हा ना कहते हुए सोचकर जवाब दें।
* मन उचटाने वाली गतिविधियों से दूर रहें।
* संगीत को जीवन का हिस्सा बनाए।
* अपनी रूचि ॥शड्ढड्ढद्बद्गह्य बढ़ाए, जिससे जीवन में रचनात्मकता आए।
* कपट छल प्रपंचना से बचने के लिए भी तनाव मन में डर के कारण कि कहीं ये बातें खुल ना जायें टैंशन हो जाती है। मन को, तन को, मस्तिष्क को, निर्मल रखिए। कथनी करनी में भेद नहीं उलझने समस्याऐं तो आज हर किसी के जीवन में रहती हैं। कायर पुरूष उनसे घबड़ा जाते हैं पुरुषार्थी उनसे सामना करके विजय पाते हैं।
* शाकाहार फलाहारी बने, तले, चटपटे, मसालेदार खाने के पदार्थ ना लें। गुटके, तम्बाकू, चाय, मदिरा, धूम्रपान सेहत के लिए घातक हैं, हवा, जल, धूप, बागवानी श्रेष्ठ है।
* धार्मिक साहित्य नियम से पढे और आचरण मन, वचन, कर्म से शुद्धता की ओर हों। दया, प्रेम सहिष्णुता, सरलता सर्वोपरि है।
* बदले की प्रवृति छोड़ दें जो जैसा करेगा, भरेगा आप प्रभु पर छोड़ दें समझ लें क्षमा कर दिया पर उसके कुकर्म उसे बेमौत मार डालेंगे। और कोई अपील नहीं।
* ऐसे जातक को चंद्रमा, बुध तथा राहु की शांति करानी चाहिए। कई बार अनुवांशकीय बीमारी भी हो सकती है, इसके लिए अच्छे चिकित्सक की सलाह लें और अज्ञात पितृ श्राद्ध कराएं।
* आशावादी रहें। पक्का इरादा अपने लक्ष्य में रखें। अपना हर कार्य स्वयं करें विनम्र सदाचारी और उपकारी रहें। तनाव आपसे सदा दूर ही रहेगा। आचरण करें।
* यदि आप तनाव को चुनौती के रूप में स्वीकार सकते हैं, तो उसके आगे आप कभी हिम्मत नहीं हारेंगे और सफलता आपके कदम चूमेगी।

वासंतिक नवरात्रि

शनि जैसे ग्रहों की शांति भी भग्वती के स्तुति मात्र से होती है। शत्रुबाधा, व्यावसायिक हानि, शारीरिक कष्ट, वैवाहिक विलंब, कामना सिद्धि, आर्थिक लाभ, धन-धान्य-सुख सभी की प्राप्ति भग्वतीकृपा से होती है। अत: सभी कष्टों की निवृत्ति के लिए दुर्गा आराधन श्रेयस्कर है।
चैत्र नवरात्र का प्रारम्भ चैत्र मास शुक्ल पक्ष की प्रतिप्रदा से होता है। जहां हम संपूर्ण श्रद्धा से देवी की उपासना करते हैं, तन मन को शुद्ध कर संपूर्ण श्रद्धा व विश्वास से जप किया जाए तो कोई भी मन्त्र जाप सिद्ध होते हैं। इस नवरात्रि में विशेष रूप से दुर्गा सप्तशती का पाठ किया जाए तो कई कष्टों से बचा जा सकता है। वैसे भी इसके नित्य पाठ करने से शत्रुओं का नाश होता है। तेज में वृद्धि होती है,आत्मविश्वास बढ़ता है। ३१ मार्च २०१४ के दिन से नव सम्वत्सर प्रारम्भ होगा. साथ ही इस दिन से चैत्र शुक्ल पक्ष का पहला नवरात्रा होने के कारण इस दिन कलश स्थापना भी की जायेगी. नवरात्रे के नौ दिनों में माता के नौ रुपों की पूजा करने का विशेष विधि विधान है. साथ ही इन दिनों में जप-पाठ, व्रत- अनुष्ठान, यज्ञ-दानादि शुभ कार्य करने से व्यक्ति को पुन्य फलों की प्राप्ति होती है.
नवरात्र का विधान और महत्व— भारतीय चिंतनधारा में 'साधनाÓ आध्यात्मिक ऊर्जा और दैवी चेतना के विकास का सबसे विश्वसनीय साधन माना जाता है। तन्त्रगमों के अनुसार यह साधना नित्य एवं नैमित्तिक भेद से दो प्रकार की होती है। जो साधना जीवनभर एवं निरंतर की जाती है, वह नित्य साधना कहलाती है। किन्तु संसार एवं घर गृहस्थी के चक्रव्यूह में फंसे आम लोगों के पास न तो इतना समय होता है और नहीं इतना सामथ्र्य कि वे नित्य साधना कर सकें। अत: गृहस्थों के जीवन में आने वाले कष्टों/दु:खों की निवृत्ति के लिए हमारे ऋषियों ने नैमित्तिक साधना का प्रतिपादन किया है। नैमित्तिक-साधना के इस महापर्व को 'नवरात्रÓ कहते हैं।
दुर्गापूजा का प्रयोजन— महामाया के प्रभाववश सांसारिक प्राणी अपनी इच्छाओं के वशीभूत होकर कभी जाने और कभी अनजाने में दु:खों के दलदल में फंसता चला जाता है। जैसा कि मार्कण्डेय पुराण में कहा गया है-
ज्ञानिनामपि चेतांहि देवी भगवती हि..सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रगच्छति।।
इन सांसारिक कष्टों से, जिनको धर्म की भाषा में दुर्गति कहते हैं-इनसे मुक्ति के लिए माँ दुर्गा की उपासना करनी चाहिए क्योंकि 'आराधिता सैव नृणां भोगस्वगपिवर्गहाÓ मार्कण्डेय पुराण के इस वचन के अनुसार 'माँ दुर्गा की उपासना करने से स्वर्ग जैसे भोग और मोक्ष जैसी शान्ति मिल जाती है।Ó भारतीय जनमानस उस आद्या शक्ति 'दुर्गा को माँ या माता के रूप में देखता और मानता है। जैसे पुत्र के कुपुत्र होने पर भी माता कुमाता नहीं होती। वैसी भगवती दुर्गा अपने भक्तों का वात्सल्य भाव से कल्याण करती है। अत: हमें उनकी पूजा/उपासना करनी चाहिए।
नवदुर्गा— 'एकैवाहं जगत्यत्र द्वितीया का ममापरा- दुर्गासप्तशती के इस वचन के अनुसार वह आद्यशक्ति 'एकमेव और 'अद्वितीय होते हुए भी अपने भक्तों का कल्याण करने के लिए 1. शैलपुत्री, 2. ब्रह्मचारिणी, 3. चन्द्रघण्टा,
4. कूष्माण्डा, 5. स्कन्धमाता, 6. कात्यायनी,
7. कालरात्रि, 8. महागौरी एवं 9. सिद्धिदात्री।
इन नवदुर्गा के रूप में अवतरित होती है। वही जगन्माता सत्त्व, रजस् एवं तमस् इन गुणों के आधार पर महाबाली, महालक्ष्मी एवं महासरस्वती के रूप में अपने भक्तों की मनोकामनाएं पूरी करती हैं।
दुर्गा-दुर्गतिनाशिनी— आद्याशक्ति के 'दुर्गा नाम का निर्वचन करते हुए प्रतिपादित किया गया है 'कि जो दुर्ग के समान अपने भक्तों की रक्षा करती है अथवा जो अपने भक्तों को दुर्गति से बचाती है, वह आद्याशक्ति 'दुर्गा कहलाती है।
दुर्गापूजा का काल— वैदिक ज्योतिष की काल-गणना के अनुसार हमारा एक वर्ष देवी-देवताओं का एक 'अहोरात्र(दिन-रात) होता है। इस नियम के अनुसार मेषसंक्रांति को देवताओं का प्रात:काल और तुला संक्रांति को उनका सायंकाल होता है।
इसी आधार पर शाक्त तन्त्रों ने मेषसंक्रांति के आसपास चैत्र शुक्ल प्रतिपदा से बासन्तिक नवरात्रि और तुला संक्रांति के आसपास आश्विन शुक्ल प्रतिपदा से शारदीय नवरात्र का समय निर्धारित किया है। नवरात्रि के ये नौ दिन 'दुर्गा पूजा के लिए सबसे प्रशस्त होते हैं।
पूजा के उपचार— पूजा में जो सामग्री चढ़ाई जाती है, उनको उपचार कहते हैं, ये पंचोपचार, दशोपचार एवं षोडशोपचार के भेद से तीन प्रकार के होते हैं।
* पंचोपचार : गन्ध, पुष्प, धूप, दीप एवं नैवेद्य इन पाँचों को पंचोपचार कहते हैं।
* दशोपचार : 1. पाद्य, 2. अघ्र्य, 3. आचमनीय, 4. मधुपर्क, 5. आचमनीय, 6. गन्ध, 7. पुष्प, 8. धूप, 9. दीप एवं 10. नैवेद्य इनको दशोपचार कहते हैं।
* षोडशोपचार : 1. आसन, 2. स्वागत, 3. पाद्य, 4. अघ्र्य, 5. आचमनीय, 6. मधुपर्क, 7. आचमन, 8. स्नान, 9. वस्त्र, 10. आभूषण, 11. गन्ध, 12. पुष्प, 13. धूप, 14. दीप, 15. नैवेद्य एवं प्रणामाज्जलि, इनको षोडशोपचार कहते हैं।
नवरात्र में उपवास— व्रतराज के अनुसार नवरात्र के व्रत में 'निराहारो फलाहारो मिताहारो हि सम्मत: अर्थात् निराहार, फलाहार या मिताहार करके व्रत रखना चाहिए। निराहार व्रत में केवल एक जोड़ा लौंग के साथ जल पीकर व्रत रखा जाता है। फलाहारी व्रत में एक समय फलाहार की वस्तुओं से भोजन किया जाता है, और मिताहारी व्रत में शुद्ध, सात्विक एवं शाकाहारी 'हविष्यान्न का ग्रहण होता है। नवरात्रि के व्रत में नौ दिन व्रत रखकर नवमी को कन्या पूजन के बाद पारणा किया जाता है। जिन लोगों के अष्टमी पुजती है, वे अष्टमी को कन्या पूजन के बाद पारणा कर लेते हैं। यदि नौ दिन का व्रत रखने का सामथ्र्य न हो, तो नवरात्र की प्रतिपदा, सप्तमी अष्टमी एवं नवमी में किसी एक या दो दिन का व्रत अपनी श्रद्धा एवं शक्ति के अनुसार रखना चाहिए।
व्रत के दिनों में आचार एवं विचार की शुद्धता का पालन करने पर जोर दिया गया है। अत: व्रत के दिनों में चोरी, झूठ, क्रोध, ईष्र्या, राग, द्वेष एवं किसी भी प्रकार का छल-छिद्र नहीं करना चाहिए। तात्पर्य यह है कि व्रत के दिनों में मन, वचन एवं कर्म से किसी का दिल दु:खाना नहीं चाहिए। जहां तक सम्भव हो, दूसरों का भला करना चाहिए।
कन्या-पूजन— अपनी कुल परम्परा के अनुसार कुछ लोग नवरात्र की अष्टमी को और कुछ लोग नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा एवं हवन करने के बाद कन्यापूजन करते हैं। कहीं-कहीं यह पूजन सप्तमी को भी करने का प्रचलन है।
कन्या पूजन में दो वर्ष से दस वर्ष तक की आयु वाली नौ कन्याओं और एक बटुक का पूजन किया जाता है। इसकी प्रक्रिया में सर्वप्रथम कन्याओं के पैर धोकर, उनके मस्तक पर रोली-चावल से टीका लगाकर, हाथ में कलावा (मौली) बाँध, पुष्प या पुष्पमाला समर्पित कर कन्याओं को चुनरी उढ़ाकर हलवा, पूड़ी, चना एवं दक्षिणा देकर श्रद्धापूर्वक उनको प्रणाम करना चाहिए। कुछ लोग अपनी परंपरा के अनुसार कन्याओं को चूड़ी, रिबन व श्रृंगार की वस्तुएं भी भेंट करते हैं। कन्याएं माँ दुर्गा का भौतिक एक रूप हैं। इनकी श्रृद्धाभक्ति से पूजा करने से माँ दुर्गा प्रसन्न होती हैं।
व्रत/उपवास के फलाहार की वस्तुएं-
आलू, शकरकन्द, जिमिकन्द, दूध, दही, खोआ, खोआ से बनी मिठाइयों, कुट्ट, सिन्घाड़ा, साबूदाना, मूंगफली, मिश्री, नारियल, गोला, सूखे मेवा एवं मौसम के सभी फल-व्रतोपवास के फलाहार में प्रशस्त माने गये हैं। फलाहार की कोई भी वस्तु तेल में नहीं बनायी जाती और सादा नमक के स्थान पर सैन्धा (लाहौरी) नमक प्रयोग में लाया जाता है।
सप्तमी/अष्टमी/नवमी की पूजा— नवरात्र में अपनी कुल परम्परा के अनुसार सप्तमी, अष्टमी या नवमी को माँ दुर्गा की विशेष पूजा की जाती है। इसमें एकाग्रतापूर्वक जप, श्रद्धा एवं भक्ति से पूजन एवं हवन, मनोयोगपूर्वक पाठ तथा विधिवत कन्याओं का पूजन किया जाता है। इससे मनुष्य की सभी कामनाएं पूरी हो जाती हैं।
चैत्र नवरात्रि को बनाएँ स्वास्थ्य नवरात्रि- नीम को संस्कृत में निम्ब तथा वनस्पति शब्दावली में आजाडिरिक्ता-इंडिका कहते हैं। नीम के बारे में हमारे ग्रंथों में कहा गया है-
निम्ब शीतों लघुग्राही कटुकोडग्रि वातनुत।
अध्य: श्रमतुट्कास ज्वरारुचिकृमि प्रणतु॥
अर्थात नीम शीतल, हल्का, ग्राही पाक में चरपरा, हृदय को प्रिय, अग्नि, वात, परिश्रम, तृषा, ज्वर अरुचि, कृमि, व्रण, कफ, वमन, कुष्ठ और विभिन्न प्रमेह को नष्ट करता है। नीम में कई तरह के लाभदायी पदार्थ होते हैं। चैत्र नवरात्रि पर नीम के कोमल पत्तों को पानी में घोलकर सिल-बट्टे या मिक्सी में पीसकर इसकी लुगदी तैयार की जाती है। इसमें थोड़ा नमक और कुछ काली मिर्च डालकर उसे ग्राह्म बनाया जाता है। इस लुगदी को कपड़े में रखकर पानी में छाना जाता है। छाना हुआ पानी गाढ़ा या पतला कर प्रात: खाली पेट एक कप से एक गिलास तक सेवन करना चाहिए।
पूरे नौ दिन इस तरह सेवन करने से वर्षभर के स्वास्थ्य की गारंटी हो जाती है। सही मायने में चैत्र नवरात्रि स्वास्थ्य नवरात्रि है। यह रस एंटीसेप्टिक, एंटीबेक्टेरियल, एंटीवायरल, एंटीवर्म, एंटीएलर्जिक, एंटीट्यूमर आदि गुणों का खजाना है।
नवदुर्गा आराधना : ज्योतिष की नजर से- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मृताम्।
देवी को नमस्कार है, महादेवी शिवा को सर्वदा नमस्कार है। प्रकृति एवं भद्रा को प्रणाम है। हम लोग नियमपूर्वक जगदंबा को नमस्कार करते हैं। भद्रा को नमस्कार है। नित्या गौरी एवं धात्री को बारंबार नमस्कार है। ज्योत्स्नामयी चंद्ररूपिणी एवं सुखस्वरूपा देवी को सतत प्रणाम है। इस प्रकार देवी दुर्गा का स्मरण कर प्रार्थना करने मात्र से देवी प्रसन्न होकर अपने भक्तों की इच्छा पूर्ण करती है। देवी माँ दुर्गा अपनी शरण में आए हर शरणार्थी की रक्षा कर उसका उत्थान करती है। देवी की शरण में जाकर देवी से प्रार्थना करें, जिस देवी की स्वयं देवता प्रार्थना करते हैं। वह भगवती शरणागत को आशीर्वाद प्रदान करती है। इस प्रकार देवी की शरण में जाने वालों को इतनी शक्ति प्रदान कर देती है कि उस मनुष्य की शरण में दूसरे आने लग जाते हैं। देवी धर्म के विरोधी दैत्यों का नाश करने वाली है। देवताओं की रक्षा के लिए देवी ने दैत्यों का वध किया। वह आपके आतंरिक एवं बाह्य शत्रुओं का नाश करके आपकी रक्षा करेगी।
भगवती का कहना है कि मेरी शरण में आया हर व्यक्ति दु:ख से परे हो जाता है। यदि आप संगणित है तथा और आपके बीच दूरियाँ हो गई है तो आप पुन: संगठित हो जाएँगे। ग्रहों से आक्रांत हुए जातकों के लिए देवी का माहात्म्य शांतिकारक है। देवी प्रसन्न होकर धार्मिक बुद्धि, धन सभी प्रदान करती है। इस प्रकार देवी के नौ विभिन्न रूपों की पूजा से नवग्रह शांत होते हैं।
नवरात्र में नवग्रह शांति की विधि:- यह है कि प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शांति करानी चाहिए. द्वितीय के दिन राहु ग्रह की शान्ति करने संबन्धी कार्य करने चाहिए. तृतीया के दिन बृहस्पति ग्रह की शान्ति कार्य करना चाहिए. चतुर्थी के दिन व्यक्ति शनि शान्ति के उपाय कर स्वयं को शनि के अशुभ प्रभाव से बचा सकता है. पंचमी के दिन बुध ग्रह, षष्ठी के दिन केतु, सप्तमी के दिन शुक्र, अष्टमी के दिन सूर्य एवं नवमी के दिन चन्द्रमा की शांति कार्य किए जाते है.
किसी भी ग्रह शांति की प्रक्रिया शुरू करने से पहले कलश स्थापना और दुर्गा मां की पूजा करनी चाहिए. पूजा के बाद लाल वस्त्र पर नव ग्रह यंत्र बनावाया जाता है. इसके बाद नवग्रह बीज मंत्र से इसकी पूजा करें फिर नवग्रह शांति का संकल्प करें. प्रतिपदा के दिन मंगल ग्रह की शांति होती है इसलिए मंगल ग्रह की फिर से पूजा करनी चाहिए. पूजा के बाद पंचमुखी रूद्राक्ष, मूंगा अथवा लाल अकीक की माला से 108मंगल बीज मंत्र का जप करना चाहिए. जप के बाद मंगल कवच एवं अष्टोत्तरशतनाम का पाठ करना चाहिए. राहू की शांति के लिए द्वितीया को राहु की पूजा के बाद राहू के बीज मंत्र का 108 बार जप करना, राहू के शुभ फलों में वृ्द्धि करता है.
इस प्रकार इस चैत्र नवरात्र में विधि पूर्वक दुर्गा उपासना से वर्ष भर के स्वास्थ्य एवं ग्रह शांति का विधान कर स्वस्थ एवं प्रसन्न रहें। इतिश्री...।

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ASTROLOGY—AN OCCULT SCIENCE

ASTROLOGY—AN OCCULT SCIENCE
Astrology is a noble science. It is as old as the ages of the Vedas. It depends on the position of the planets ascertained astronomically. It explains the celestial phenomena and the corresponding terrestrial events. The true meaning of astrology is the 'Message of the Stars. " By using the salient principles of Astrology depending on the position- of the planets ascertained astronomically one can forecast events for the benefit of all and as such, it is a useful science for interpreting nature.
Astronomy is excellent; but it must come Up into life to have its full value Ana not remain there as Globes and Spaces "
—Emerson.
The whole world is run according to a well-defined plan. Nothing happens by chance. Astrology does not permit one to elassify anything as an accident, as it explains the cause and effect of events. The divine plan is well arranged. It is timed with amazing precision.
Some say that astrology is an art. Some others reject it as an idle dream or an illusion. Still others may speak of astrology as though it were an altogether contemptible superstition. They contemplate with pity those who believe in it. Some of those who have no disappointment or other difficulties in life take pride in saying that they have no faith in astrology and ridicule both the astrologer and the science. Probably they may fear that they may lose their self-importance if they were to recognize astrology. A few others say, under wrong impression or with prejudiced ideas, that astrology is not a science. These people would not have mastered the data on which correct predictions are based. This science explains clearly that such opponents of astrology will have in their horoscopes evil aspect between Mars and Uranus or between Mars and Mercury. These planets, when afflicted, do not give quick grasp of this science, good memory and reproductive ability, I and produce people who are either ignorant, arrogant, envious or are always inclined to find fault with what they are not able to understand. Pretending to know everything, they display their ignorance. The antagonists often quote the opinions of such learned men, who do not want to admit that it is a useful science. Learning is mechanical acquirement of facts and gaining knowledge in any subject. But wisdom is not 60. Astrology can be correctly interpreted only by a person endowed with divine grace and none can call himself learned without knowing astrology.
A great theosophist, Mr. Ceidambaram Iyer, says that nothing can be more funny than to find young men, especially, taking .up astrology, as their first subject of attack in their public utterances.; It is a subject to which they pay little or no attention except for purposes of ridicule. In my experience, I find a few elderly 1 members behave worse than such youngsters. I submit that astrology is a science and that it can render very useful service to one and all and create faith even in the sceptic, if one studies this text book.

A knowledge about the history of astrology and the illustrious and eminent sages and savants who practised astrology would give a better appreciation of the science itself.



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मंगल गौरी व्रत

मंगलवार के व्रत का विशेष महत्व है। मंगलवार को मंगलागौरी व्रत करने से सौभाग्य की प्राप्ति होती हैं। जिस जातक के विवाह में बाधा हो, विशेषकर कन्या के विवाह में बाधक को दूर करने के लिए इस व्रत को संकल्प के साथ 11 या 21 तक किये जाने का विधान शास्त्रों में है। प्रात: काल उठकर स्नान आदि से निवृत्त होकर इच्छुक वर की प्राप्ति तथा सौभाग्य कामना हेतु मंगलागौरी के व्रत का संकल्प लिया जाता है। इसके उपरंात मॉ मंगलागौरी का चित्र या प्रतिमा एक चौकी में लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित करें। चित्र के सामने आटे से बना एक धी का दीपक बनाकर सोलह बतियों का दीपक जलायें। इसके उपरंात ''कुंकमरागुरूलिप्तांगा सर्वाभरण-भूषिताम् नीलकण्ठप्रियां गौरीं वंदेहं मंगलाहयाम् का उच्चारण कर षोडषोपचार से पूजन करें। पूजन के बाद माता को सोलह माला, लड्डू, फल, पान, इलायची, लौंग, सुपारी, सुहाग की सामग्री व मिष्ठान चढ़ायें। कथा सुनने के बाद सभी सामग्री का दान ब्राम्हण को करें। संकल्पित वत्र की समाप्ति के बाद माता का चित्र जल में प्रवाहित करें। ऐसा करने से मनचाहा वर तथा कुल प्राप्त होता है साथ ही वैवाहिक जीवन सुखमय होता है।
कैसे करें व्रत:
* इस व्रत के दौरान ब्रह्म मुहूर्त में जल्दी उठें।
* नित्य कर्मों से निवृत्त होकर साफ-सुथरे धुले हुए अथवा कोरे, नवीन वस्त्र धारण कर व्रत करना चाहिए। इस व्रत में एक ही समय अन्न ग्रहण करके पूरे दिन मां पार्वती की आराधना की जाती है।
* मां मंगला गौरी; पार्वतीजी का एक चित्र अथवा प्रतिमा लें। फिर
''श्मम पुत्रापौत्रा सौभाग्य वृद्धये श्रीमंगला गौरीप्रीत्यर्थं पंचवर्षपर्यन्तं मंगलागौरीव्रतमहं करिष्येÓÓ इस मंत्र के साथ व्रत करने का संकल्प लेना चाहिए।
व्रत संकल्प का अर्थ:
ऐसा माना जाता है कि मैं अपने पति पुत्र-पौत्रों उनकी सौभाग्य वृद्धि एवं मंगला गौरी की कृपा प्राप्ति के लिए इस व्रत को करने का संकल्प लेती हूं। तत्पश्चात मंगला गौरी के चित्र या प्रतिमा को एक चौकी पर सफेद फिर लाल वस्त्र बिछाकर स्थापित किया जाता है। फिर उस प्रतिमा के सामने एक घी का दीपक, आटे से बनाया हुआ जलाएं दीपक ऐसा हो जिसमें सोलह बत्तियां लगाई जा सकें।
तत्पश्चात,
श्कुंकुमागुरुलिप्तांगा सर्वाभरणभूषिताम्।
नीलकण्ठप्रियां गौरीं वन्देहं मंगलाह्वयाम्ण्ण्।।
यह मंत्र बोलते हुए माता मंगला गौरी का षोडषोपचार पूजन किया जाता है। माता के पूजन के पश्चात उनको, सभी वस्तुएं सोलह की संख्या में होनी चाहिए 16मालाएं, लौंग, सुपारी, इलायची, फल, पान, लड्डू, सुहाग की सामग्री 16चुडिय़ां तथा मिठाई चढ़ाई जाती है। इसके अलावा 5 प्रकार के सूखे मेवे 7 प्रकार के अनाज. धान्य; जिसमें गेहूं, उड़द, मूंग, चना, जौ, चावल और मसूर आदि होना चाहिए। पूजन के बाद मंगला गौरी की कथा सुनी जाती है।
मां मंगला गौरी कथा:
पुराने समय की बात है। एक शहर में धरमपाल नाम का एक व्यापारी रहता था। उसकी पत्नी खूबसूरत थी और उनके पास बहुत सारी धन. दौलत थी। लेकिन उनको कोई संतान नहीं थी इस वजह से पति पत्नी दोनों ही हमेशा दुखी रहते थे।
फिर ईश्वर की कृपा से उनको पुत्र प्राप्ति हुई लेकिन वह अल्पायु था। उसे यह श्राप मिला हुआ था कि सोलह वर्ष की उम्र में सर्प दंश के कारण उसकी मौत हो जाएगी।
ईश्वरीय संयोग से उसकी शादी सोलह वर्ष से पहले ही एक युवती से हुई जिसकी माता मंगला गौरी व्रत किया करती थी। परिणामस्वरूप उसने अपनी पुत्री के लिए एक ऐसे सुखी जीवन का आशीर्वाद प्राप्त किया था जिसके कारण वह कभी विधवा नहीं हो सकती। इसी कारण धरमपाल के पुत्र ने 100 साल की लंबी आयु प्राप्त की।
शास्त्रों के अनुसार यह मंगला गौरी व्रत नियमानुसार करने से प्रत्येक मनुष्य के वैवाहिक सुख में बढ़ोतरी होकर पुत्र पौत्रादि भी अपना जीवन सुखपूर्वक गुजारते हैं। ऐसी इस व्रत की महिमा है।

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कर्ज़: नक्षत्र, लग्न और राषि का प्रभाव

वर्तमान दौर में व्यक्ति को कर्ज लेना ना केवल आवष्यक बल्कि मजबूरी भी है। आज के आधुनिक दौर में सभी आवष्यक कार्यो हेतु कर्ज लेना पड़ता फिर वह बच्चों की षिक्षा विवाह के लिए हो या मकान वाहन के लिए। हर अहम परिस्थिति में कर्ज लेना जरूरी हो गया है। कई बार कुछ कर्ज आसानी से चुक जाते हैं तो कई कर्ज बोझ बढ़ाने का ही कार्य करते हैं। अत: यदि कर्ज लेते समय नक्षत्र, लग्न एवं राषि पर विचार करते हुए अपनी ग्रह दषाओं के अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थितियों का निर्णय लेते हुए कर्ज लिया जाए तो बोझ ना होकर ऐष्वर्या तथा उन्नति बढ़ाने का साधन भी बन सकता है। अत: 27 नक्षत्रों में से 1.अष्विनी, 2.मृगषिरा, 3.पुनवर्सु, 5.चित्रा, 6.विषाखा, 8.अनुराधा, 9.श्रवण, 10.ज्येष्ठा, 11.धनिष्ठा, 12.षतभिषा, 13.रेवती ये नक्षत्र कर्ज हेतु उचित नक्षत्र हैं, जिनमें लिया गया कर्ज चुकाने में कठिनाई का सामना नहीं करना पड़ता वहीं पर हस्त, भरणी, पुष्य, स्वाति इत्यादि नक्षत्र कर्ज लेने हेतु प्रतिकूल फल देते हैं। उसी प्रकार चर लग्न में कर्जा लेना इसलिए उचित होता है क्योंकि इस लग्न में कर्ज आसानी से चुक जाता है किंतु इस लग्न में कर्ज देना उचित नहीं होता। वहीं पर द्विस्वभाव लग्न में लिया गया कर्ज चुकान के उपरांत भी चुका हुआ नहीं दिखता। स्थिर लग्न में लिया गया कर्ज चुकाने में बहुत कष्ट, विवाद की संभावना होती है अत: इन लग्नों में कर्ज लेने से बचना चाहिए। उसी प्रकार प्रत्येक व्यक्ति की कुंडली में अपनी राषि तथा ग्रह स्थिति को दृष्टिगत रखते हुए कर्ज लेना या देना चाहिए। अगर कोई ग्रह प्रतिकूल हैं उनकी स्थिति तथा दषाओं में कर्ज लेने से बचना ही तनाव से मुक्ति का सरल उपाय है।

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कालसर्प योग अवरोध और दुर्भाग्य का कारण

विभिन्न शास्त्रों में कालसर्प योग के बारे में विभिन्न धारणाएँ प्रस्तुत हैं, जिसमें सभी में एक मत है कि राहु एवं केतु के बीच यदि सभी ग्रह फंसे हुए हों तो कालसर्प योग निर्मित होता है। सर्प योनी के बारे में अनेक वर्णन मिलते है हमारे धर्म शास्त्रों में, गीता में स्वयं भगवान् श्री कृष्ण ने कहा है की पृथ्वी पर केवल विषय-वासना के कारण जीव की उत्पत्ति होती है. जीव रुपी मनुष्य जैसा कर्म करता है उसी के अनुरूप फल मिलता है. विषय-वासना के कारण ही काम-क्रोध, मद-लोभ और अहंकार का जन्म होता है इन विकारों को भोगने के कारण ही जीव को सर्प योनी प्राप्त होती है. कर्मों के फलस्वरूप आने वाली पीढिय़ों पर पडऩे वाले अशुभ प्रभाव को काल सर्प दोष कहा जाता है।
कुंडली में जब सारे ग्रह राहू और केतु के बीच में आ जाते है तब कालसर्प योग बनता है। यदि राहु आगे या केतु पीछे या सूर्यादि सातों ग्रह, राहु एवं केतु के एक ओर फंसे हुए हों तो कालसर्प योग बनता है। कालसर्प योग को दुर्भाग्य और अवरोध को उत्पन्न करने वाला माना जाना अनुचित नहीं है। यदि किसी जन्मांग में कालसर्प योग की संरचना हो रही हो तो व्यक्ति को अनेक प्रकार के अवरोध, विसंगतियों और दुर्भाग्य से जीवनपर्यंत संघर्ष करना पड़ता है। ज्योतिष में इस योग को अशुभ माना गया है लेकिन कभी कभी यह योग शुभ फल भी देता है, ज्योतिष में राहू को काल तथा केतु को सर्प माना गया है। राहू को सर्प का मुख तथा केतु को सर्प का पूंछ कहा गया है वैदिक ज्योतिष में राहू और केतु को छाया ग्रह संज्ञा दी गई है, राहू का जन्म भरणी नक्षत्र में तथा केतु का जन्म अश्लेषा में हुआ है जिसके देवता काल एवं सूर्य है. राहू को शनि का रूप और केतु को मंगल ग्रह का रूप कहा गया है, राहु मिथुन राशि में उच्च तथा धनु राशि में नीच होता है, राहु के नक्षत्र आद्र्रा स्वाति और शतभिषा है, राहु प्रथम द्वितीय चतुर्थ पंचम सप्तम अष्टम नवम द्वादस भावों में किसी भी राशि का विशेषकर नीच का बैठा हो, तो निश्चित ही आर्थिक मानसिक भौतिक पीडायें अपनी महादशा अन्तरदशा में देता है मनुष्य को अपने पूर्व दुष्कर्मो के फलस्वरूप यह दोष लगता है जैसे सर्प को मारना या मरवाना, भ्रुण हत्या करना या करवाने वाले को, अकाल मृत्यु (किसी बीमारी या दुर्घटना में होने करण) उसके जन्म जन्मान्तर के पापकर्म के अनुसार ही यह दोष पीढ़ी दर पीढ़ी चला आता है, मनुष्य को इसका आभास भी होता है —जैसे जन्म के समय सूर्य ग्रहण, चंद्रग्रहण जैसे दोषों के होने से जो प्रभाव जातक पर होता है, वही प्रभाव काल सर्प योग होने पर होता है यह योग जातक को अनेक प्रकार की परेशानियों में ला खड़ा करता है, जातक के लक्षण/ फल/प्रभाव परिलक्षित/दृष्टव्य होते हैं - अकल्पित, असामयिक घटना दुर्घटना का होना, जन-धन की हानि होना। परिवार में अकारण लड़ाई-झगड़ा बना रहना। पति तथा पत्नी वंश वृद्धि हेतु सक्षम न हों। आमदनी के स्रोत ठीक-ठाक होने तथा शिक्षित एवम् सुंदर होने के बावजूद विवाह का न हो पाना। बारंबार गर्भ की हानि (गर्भपात) होना। बच्चों की बीमारी लगातार बना रहना, नियत समय के पूर्व बच्चों का होना, बच्चों का जन्म होने के तीन वर्ष की अवधि के अंदर ही काल के गाल में समा जाना। धन का अपव्यय होना। जातक व अन्य परिवार जनों को अकारण क्रोध का बढ़ जाना, चिड़चिड़ापन होना। परीक्षा में पूरी तैयारी करने के बावजूद भी असफल रहना, या परीक्षा-हाल में याद किए गए प्रश्नों के उत्तर भूल जाना, दिमाग शून्यवत हो जाना, शिक्षा पूर्ण न कर पाना। ऐसा प्रतीत होना कि सफलता व उन्नति के मार्ग अवरूद्ध हो गए हैं। जातक व उसके परिवार जनों का कुछ न कुछ अंतराल पर रोग ग्रस्त रहना, सोते समय बुरे स्वप्न देख कर चौक जाना या सपने में सर्प दिखाई देना या स्वप्न में परिवार के मरे हुए लोग आते हैं. किसी एक कार्य में मन का न लगना, शारीरिक, आर्थिक व मानसिक रूप से परेशान तो होता ही है, इन्सान नाना प्रकार के विघ्नों से घिरा होता है प्राय: इसी योग वाले जातको के साथ समाज में अपमान, परिजनों से विरोध, मुकदमेबाजी आदि कालसर्प योग से पीडि़त होने के लक्षण हैं.
काल सर्प योग के 12 प्रकार के होते है -
(1) अनंत काल सर्प योग,
(2)कुलिक काल सर्प योग,
(3) वासुकी काल सर्प योग,
(4) शंखपाल काल सर्प योग,
(5)पदम् काल सर्प योग,
(6) महापद्म काल सर्प योग,
(7) तक्षक काल सर्प योग,
(8) कर्कोटक काल सर्प योग,
(9) शंख्चूर्ण काल सर्प योग,
(10) पातक काल सर्प योग,
(11) विषाक्त काल सर्प योग,
(12) शेषनाग काल सर्प योग,
काल सर्प योग शुभ फल भी प्रदान करता है:
कुंडली में कालसर्प योग को कमजोर बनाने वाले महत्वपूर्ण योग केंद्र में स्वगृही या उच्च का गुरु, शुक्र, शनि, मंगल, चंद्र इनमें से कोई भी ग्रह स्वगृही या उच्च का होने पर कालसर्प योग भंग होता है। उच्च का बुध और सूर्य हो तो बुधादित्य योग होने पर कालसर्प योग कमजोर होता है। केंद्र में स्वगृही या उच्च के चंद्र मंगल से चंद्र मांगल्य योग बनता हो तो कालसर्प योग भंग होता है। प्रत्येक जातक की आयु के 25 वर्ष राहु व केतु के आधिपत्य में रहते हैं। (18वर्ष राहु की महादशा +7 वर्ष केतु की महादशा = दोनों का योग 25 वर्ष हुआ)। ज्योतिष शास्त्र का एक मुख्य सूत्र है कि 3, 6, 11 भावों में पाप ग्रहों की उपस्थिति शुभ फलदायक रहती है। सामान्य रूप से 3, 6, 11वें भाव में स्थित राहु को शुभ माना गया है।
कालसर्प योग की शांति के वैदिक उपाय:
अगर आप की कुंडली में पितृदोष या काल सर्प दोष है तो आप किसी विद्वान पंडित से इसका उपाय जरुर कराएं। कालसर्प की शांति विधि-विधान से होता है। नदी का पवित्र स्थान हो, इस विधि का संपूर्ण ज्ञान हो इसके आलावा शिव संबंधी तीर्थं हो समय में अमावश्या या पंचमी के दिन काल सर्प दोष की शांति करनी चाहिए. कालसर्प की शमन विधान हेतु किसी विद्धान आचार्य द्वारा कालसर्प से होने वाली हानि का क्षेत्र जानकर उस से संबंधित विधान विधिपूर्वक किया जाना जिसमें विषेषकर रूद्राभिषेक, नागबलि-नारायण बलि आदि का विधान एवं राहु से संबंधित दान एवं मंत्रों के उपचार द्वारा दोष को निर्मूल किया जा सकता है।
कालसर्प योग का प्राभव:
जेसे किसी व्यक्ति को साप काट ले तो वह व्यक्ति शांति से नही बेठ सकता वेसे ही कालसर्प योग से पीड़ित व्यक्ति जीवन पर्यन्त शारीरिक, मानसिक, आर्थिक परेशानी का सामना करना पडता है। विवाह विलम्ब से होता है एवं विवाह के पश्च्यात संतान से संबंधी कष्ट जेसे उसे संतान होती ही नहीं या होती है तो रोग ग्रस्त होती है। उसकी रोजी-रोटी का जुगाड़ भी बड़ी मुश्किल से हो पाता है। अगर जुगाड़ होजाये तो लम्बे समय तक टिकती नही है। बार-बार व्यवसाय या नौकरी मे बदलाव आते रेहते है। धनाढय घर में पैदा होने के बावजूद किसी न किसी वजह से उसे अप्रत्याशित रूप से आर्थिक क्षति होती रहती है। तरह तरह की परेशानी से घिरे रहते हैं। एक समस्या खतम होते ही दूसरी पाव पसारे खडी होजाती है। योग से व्यक्ति को चैन नही मिलता उसके कार्य बनते ही नही और बन भी तो जाये आधे मे रुक जाते है। 99त्न हो चुका कर्य भी आखरी पलो मे अकस्मात ही रुक जाता है।

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