Sunday, 12 April 2015

सूर्य


भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है। सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं। यह राशिचक्र की पांचवीं राशि सिंह का स्वामी है। सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है, स्वर्ण आभूषण, तांबा आदि का कारक है। मन्दिर, सुन्दर महल, जंगल, किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है। शरीर में पेट, आंख, ह्रदय, चेहरा का प्रतिधिनित्व करता है और इस ग्रह से आंख, सिर, रक्तचाप, गंजापन एवं बुखार संबंधी बीमारी होती है। सूर्य की जाति क्षत्रिय है। शरीर की बनावट सूर्य के अनुसार मानी जाती है। हड्डियों का ढांचा सूर्य के क्षेत्र में आता है। सूर्य का अयन 6माह का होता है, 6माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है और 6माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है। इसका रंग केशरिया माना जाता है। धातु तांबा और रत्न माणिक उपरत्न लाडली है। यह पुरुष ग्रह है इससे आयु की गणना 50 साल मानी जाती है। सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है। सूर्य सप्तम दृष्टि से देखता है। सूर्य की दिशा पूर्व है। सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है।
सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु हैं। शत्रु शनि और शुक्र हैं। समान देखने वाला ग्रह बुध है। सूर्य की विंशोत्तरी दशा 6साल की होती है। सूर्य गेंहू, घी, पत्थर, दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है। पित्त रोग का कारण सूर्य ही है और वनस्पति जगत में लम्बे पेड़ का कारक सूर्य है। मेष के 10 अंश पर उच्च और तुला के 10 अंश पर नीच माना जाता है सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर 0 अंश से लेकर 10 अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है। सूर्य के देवता भगवान शिव हैं। सूर्य का मौसम गर्मी की ऋतु है। सूर्य के नक्षत्र कृतिका है और इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम अ ई उ अक्षरों से चालू होते हैं। इस नक्षत्र के तारों की संख्या अनेक है इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है।
सूर्य का अन्य ग्रहों से सम्बन्ध: चन्द्र के साथ इसकी मित्रता है। मंगल भी सूर्य का मित्र है। बुध भी सूर्य का मित्र है तथा हमेशा सूर्य के आसपास घूमा करता है। गुरु यह सूर्य का परम मित्र है, दोनो के संयोग से जीवात्मा का संयोग माना जाता है। गुरु जीव है तो सूर्य आत्मा। शनि सूर्य का पुत्र है लेकिन दोनो की आपसी दुश्मनी है,जहां से सूर्य की सीमा समाप्त होती है, वहीं से शनि की सीमा चालू हो जाती है। छाया मर्तण्ड सम्भूतं के अनुसार सूर्य की पत्नी छाया से शनि की उत्पत्ति मानी जाती है। सूर्य और शनि के मिलन से जातक कार्यहीन हो जाता है, सूर्य आत्मा है तो शनि कार्य आत्मा कोई काम नही करती है इस युति से ही कर्म हीन विरोध देखने को मिलता है।
शुक्र रज है और सूर्य का शत्रु है। सूर्य गर्मी स्त्री जातक और पुरुष जातक के आमने सामने होने पर रज जल जाता है। राहु सूर्य और चन्द्र दोनो का दुश्मन है। एक साथ होने पर जातक के पिता को विभिन्न समस्याओं से ग्रसित कर देता है। केतु यह सूर्य से सम है।
वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है। सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है, यह आज एक सर्वमान्य सत्य है। वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे। सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक यह सर्व प्रकाशक, सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है।
ऋग्वेद के देवताओं में सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है। यजुर्वेद ने ''चक्षो सूर्यो जायतÓÓ कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है। छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है। ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है। प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है। सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उत्पत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है। सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है। सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का निर्माण हुआ। भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है। अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है, कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी। प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे। वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद, ज्योतिष, हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है।
जन्मकुंडली में विभिन्न भावों में बैठे सूर्य की दृष्टि का फल:
सूर्य यदि लग्न को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो जातक रजोगुणी, नेत्ररोगी, सामान्य धनी, पितृभक्त, एवं राजमान्य होता है।
दूसरे भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो धन तथा कुटुंब से सामान्य सुखी, संचित धननाशक एवं परिश्रम से थोड़े धन का लाभ करने वाला होता है।
तीसरे भाव को देखता हो तो कुलीन, राजमान्य, बड़े भाई के सुख स वंचित, उद्यमी एवं नेता होता है।
चौथे भाव को देखता हो तो 22 वर्ष पर्यंत सुखहानि लेकिन वाहन सुख प्राप्ति एवं सामान्यत: मातृसुखी होता है।
पांचवें भाव को पूर्ण दृष्टि से देखता हो तो प्रथम संताननाशक, पुत्र के लिए चिंतित, 21 वर्ष की आयु में संतान प्राप्त करने वाला एवं विद्वान होता है।
छठे भाव को देखता हो तो जीवनभर ऋणी, 22 वर्ष की आयु में स्त्री के लिए कष्टकारक होता है।
सातवें भाव में सूर्य की दृष्टि व्यापारी बनाती है, ऐसा जातक जीवन के अंतिम दिनों में सुखी होता है।
आठवें भाव को देखता हो तो रोगी, व्यभिचारी, पाखंडी एवं निंदित कार्य करने वाला होता है।
नौवें भाव को देखता हो तो धर्मभीरू, बड़े भाई और साले के सुख से वंचित होता है।
दसवें भाव को देखता हो तो राजमान्य, धनी, मातृनाशक तथा उच्च राशि का सूर्य हो तो माता, वाहन और धन का पूर्ण सुख प्राप्त करने वाला होता है।
ग्यारहवें भाव को देखता हो तो धन लाभ करने वाला, प्रसिद्ध व्यापारी, बुद्धिमान, कुलीन एवं धर्मात्मा होता है।
बारहवें भाव को देखता हो तो प्रवासी, शुभ कार्यों में व्यय करने वाला, मामा को कष्टकारक एवं वाहन का शौकीन होता है।

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दिल का रोग


हृदय शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है। मानवों में यह छाती के मध्य में, थोड़ी सी बाईं ओर स्थित होता है और एक दिन में लगभग एक लाख बार एवं एक मिनट में 60-90 बार धड़कता है। यह हर धड़कन के साथ शरीर में रक्त को धकेलता करता है। हृदय को पोषण एवं ऑक्सीजन, रक्त के द्वारा मिलता है जो कोरोनरी धमनियों द्वारा प्रदान किया जाता है। यह अंग दो भागों में विभाजित होता है, दायां एवं बायां। हृदय के दाहिने एवं बाएं, प्रत्येक ओर दो चैम्बर (एट्रिअम एवं वेंट्रिकल नाम के) होते हैं। कुल मिलाकर हृदय में चार चैम्बर होते हैं। दाहिना भाग शरीर से दूषित रक्त प्राप्त करता है एवं उसे फेफडों में पम्प करता है और रक्त फेफडों में शोधित होकर ह्रदय के बाएं भाग में वापस लौटता है जहां से वह शरीर में वापस पम्प कर दिया जाता है। चार वॉल्व, दो बाईं ओर (मिट्रल एवं एओर्टिक) एवं दो हृदय की दाईं ओर (पल्मोनरी एवं ट्राइक्यूस्पिड) रक्त के बहाव को निर्देशित करने के लिए एक-दिशा के द्वार की तरह कार्य करते हैं। दिल के कुछ भागों में रक्त संचार में बाधा होती है, जिससे दिल की कोशिकाएं मर जाती हैं। यह आमतौर पर कमजोर धमनीकलाकाठिन्य पट्टिका के विदारण के बाद परिहृद्-धमनी के रूकावट के कारण होता है, जो कि लिपिड (फैटी एसिड) का एक अस्थिर संग्रह और धमनी पट्टी में श्वेत रक्त कोशिका (विशेष रूप से बृहतभक्षककोशिका) होता है। स्थानिक-अरक्तता के परिणामस्वरूप (रक्त संचार में प्रतिबंध) और ऑक्सीजन की कमी होती है, अगर लम्बी अवधि तक इसे अनुपचारित छोड़ दिया जाए, तो हृदय की मांसपेशी ऊतकों (मायोकार्डियम ) की क्षति या मृत्यु (रोधगलन) हो सकती है।
कुंडली में षठा घर रोग का स्थान है, अष्टम घर मृत्यु का और बारहवा घर व्यय का स्थान है। दूसरे घर के मालिक और सप्तम घर को मारक स्थान कहते है। जो ग्रह कुंडली के षठा भाव, अष्टम या बारहवे भाव में हो या षठा, अष्टम या बारहवे घर के स्वामी के साथ हो, तो रोग का कारक बनता है।
सूर्य हृदय का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका भाव पंचम है। जब पंचम भाव, पंचमेश तथा सिंह राशि पाप प्रभाव में हो तो हार्ट अटैक की सम्भावना बढ़ जाती है। सूर्य पर राहु या केतु में से किसी एक ग्रह का पाप प्रभाव होना भी हृदय रोग का कारण होता है। जीवन में घटने वाली घटनाएं अचानक ही घटती हैं जोकि राहु या केतु के प्रभाव से ही घटती हैं। हार्ट अटैक भी अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के आता है, इसीलिए राहु या केतु का प्रभाव आवश्यक है। चौथा भाव और दसवां भाव हृदय कारक अंगों के प्रतीक हैं। चतुर्थ भाव का कारक चन्द्र भी आरोग्यकारक है। दशम भाव के कारक ग्रह सूर्य, बुध, गुरु व शनि हैं। पाचंवा भाव छाती, पेट, लीवर, किडनी व आंतों का है, ये अंग दूषित हों तो भी हृदय को हानि होती है। यह भाव बुद्धि अर्थात विचार का भी है। यदि षष्ठेश केतु के साथ हो तथा गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र अष्टम भाव में हों, चतुर्थ भाव में केतु हो तो हृदय रोग होता है। चतुर्थेश लग्नेश, दशमेश व व्ययेश के साथ आठवें हो और अष्टमेश वक्री होकर तृतीयेश बनकर तृतीय भाव में हो व एकादश भाव का स्वामी लग्न में हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
षष्ठेश की अष्टम भाव में स्थित गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र पर दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीडि़त होता है।
शनि दसवीं दृष्टि से मंगल को पीडि़त करे, बारहवें भाव में राहु तथा छठे भाव में केतु हो, चतुर्थेश व लग्नेश अष्टम भाव में व्ययेश के साथ युत हो तो भी हृदय रोग होता है।
छठे भाव का कारक मंगल व शनि हैं। मंगल रक्त का कारक और शनि वायु का कारक है। ये भी रोग कारक हैं। आठवां भाव रोग और रोगी की आयु का सूचक है। आठवें का कारक शनि है। विचार करते समय भाव व उनके कारकों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
सूर्य, चन्द्र, मंगल, शनि, राहु व केतु ग्रह का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ये सभी रोग को प्रभावित करते हैं या बढ़ाते हैं। सूर्य-शनि की युति त्रिक भाव में हो या बारहवें भाव में हो तो यह रोग होता है। अशुभ चन्द्र चौथे भाव में हो एवं एक से अधिक पापग्रहों की युति एक भाव में हो।
केतु-मंगल की युति चौथे भाव में हो। अशुभ चन्द्रमा शत्रु राशि में या दो पापग्रहों के साथ चतुर्थ भाव में स्थित हो तो हृदय रोग होता है। सिंह लग्न में सूर्य पापग्रह से पीडि़त हो। मंगल-शनि-गुरु की युति चौथे भाव में हो। सूर्य की राहु या केतु के साथ युति हो या उस पर इनकी दृष्टि पड़ती हो। शनि व गुरु त्रिक भाव अर्थात 6, 8, 12 के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों। राहु-मंगल की युति 1, 4, 7 या दसवें भाव में हो। निर्बल गुरु षष्ठेश या मंगल से दृष्ट हो। बुध पहले भाव में एवं सूर्य व शनि षष्ठेश या पापग्रहों से दृष्ट हों। यदि सूर्य, चन्द्र व मंगल शत्रुक्षेत्री हों तो हृदय रोग होता है। चौथे भाव में राहु या केतु स्थित हो तथा लग्नेश पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय पीड़ा होती है।
शनि या गुरु छठे भाव के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों व पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय कम्पन का रोग होता है। लग्नेश चौथे हो या नीच राशि में हो या मंगल चौथे भाव में पापग्रह से दृष्ट हो या शनि चौथे भाव में पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है। चतुर्थ भाव में मंगल हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो रक्त के थक्कों के कारण हृदय की गति प्रभावित होती है जिस कारण हृदय रोग होता है। पंचमेश षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से युत हो अथवा पंचमेश छठे, आठवें या बारहवें में स्थित हो तो हृदय रोग होता है। पंचमेश नीच का होकर शत्रुक्षेत्री हो या अस्त हो तो हृदय रोग होता है। पंचमेश छठे भाव में, आठवें भाव में या बारहवें भाव में हो और पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है। सूर्य पाप प्रभाव में हो तथा कर्क व सिंह राशि, चौथा भाव, पंचम भाव एवं उसका स्वामी पाप प्रभाव में हो अथवा एकादश, नवम एवं दशम भाव व इनके स्वामी पाप प्रभाव में हों तो हृदय रोग होता है।
मेष या वृष राशि का लग्न हो, दशम भाव में शनि स्थित हो या दशम व लग्न भाव पर शनि की दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीडि़त होता है। लग्न में शनि स्थित हो एवं दशम भाव का कारक सूर्य शनि से दृष्ट हो तो जातक हृदय रोग से पीडि़त होता है। नीच बुध के साथ निर्बल सूर्य चतुर्थ भाव में युति करे, धनेश शनि लग्न में हो और सातवें भाव में मंगल स्थित हो, अष्टमेश तीसरे भाव में हो तथा लग्नेश गुरु-शुक्र के साथ होकर राहु से पीडि़त हो एवं षष्ठेश राहु के साथ युत हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
चतुर्थेश एकादश भाव में शत्रुक्षेत्री हो, अष्टमेश तृतीय भाव में शत्रुक्षेत्री हो, नवमेश शत्रुक्षेत्री हो, षष्ठेश नवम में हो, चतुर्थ में मंगल एवं सप्तम में शनि हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो तो जातक को हृदय पीड़ा होती है।
लग्नेश शत्रुक्षेत्री या नीच का हो, मंगल चौथे भाव में शनि से दृष्ट हो तो हृदय शूल होता है।
सूर्य-मंगल-चन्द्र की युति छठे भाव में हो और पापग्रहों से पीडि़त हो तो हृदय शूल होता है।
सूर्य चौथे भाव में शयनावस्था में हो तो हृदय में तीव्र पीड़ा होती है।
लग्नेश चौथे भाव में निर्बल हो, भाग्येश, पंचमेश निर्बल हो, षष्ठेश तृतीय भाव में हो, चतुर्थ भाव पर केतु का प्रभाव हो तो जातक हृदय रोग से पीडि़त होता है।
ह्रदय रोग के डाक्टरी (चिकित्सीय) कारण: अनियमित व अनियंत्रित खानपान। नियमित व्यायाम का अभाव। भोजन की गुणवत्ता पर ध्यान नहीं देना। भोजन लेने के ठीक बाद सोना। वसायुक्त भोजन का अधिक मात्रा में सेवन करना।
काफी देर तक एक ही स्थिति में बैठने से हृदय रोग का खतरा बढ़ सकता है। खासकर महिलाओं के संदर्भ में यह अधिक खतरनाक हो सकता है। एक नए अध्ययन के मुताबिक, देर तक एक ही स्थिति में बैठी रहने वाली महिलाओं के फेफड़ों में रक्त का थक्का बनने का खतरा सक्रिय रहने वाली महिला की तुलना में दो से तीन गुना अधिक होता है, जो खतरनाक हो सकता है। यह पहला अध्ययन है जिसमें बताया गया है कि देर तक एक ही स्थिति में बैठे रहने से 'पल्मोनरी इम्बोलिज्म का खतरा बढ़ सकता है, जो हृदय रोग का एक सामान्य कारण है। इसके मुताबिक 'पल्मोनरी इम्बोलिज्म तब होता है जब पैरों की नस से फेफड़ों तक होने वाला रक्त का प्रवाह जम जाता है। सांस लेने में कठिनाई, छाती में दर्द और कफ इसके लक्षण हैं। इस निष्कर्ष तक पहुंचने के लिए शोधकर्ताओं ने 69,950 महिला नर्सो का 18साल तक अध्ययन किया। हर दो साल पर इनसे इनकी जीवनशैली को लेकर सवाल किए गए। उन्होंने पाया कि देर तक (काम के अतिरिक्त सप्ताह में 41 घंटे) बैठी रहने वाली महिलाओं में 'पल्मोनरी इम्बोलिज् का खतरा उन महिलाओं से दो गुना अधिक होता है, जो कम समय तक (काम के अतिरिक्त सप्ताह में 10 घंटे) बैठती हैं।
ह्रदय रोग का उपचार/इलाज:
ब्रिटेन के वैज्ञानिकों ने एक 'सुपर फूलगोभीÓ विकसित करने का दावा किया है, जो कि लोगों को हृदय रोग और कैंसर से बचा सकता है। नॉरविच स्थित इंस्टिच्यूट ऑफ फूड रिसर्च और जॉन इन्नेस सेंटर के एक दल ने बताया नया स्ट्रेन जिसे बेनफोर्ट नाम दिया गया है, दिखने में सामान्य फूलगोभी की तरह ही है लेकिन पोषक तत्व ग्लुकोराफानिन इसमें तीन गुणा अधिक पाया जाता है। अनुसंधान में पता चला है कि ग्लुकोराफानिन हदय रोगों और कैंसर को रोकने में मदद कर सकता है। इस पोषक तत्व को परिवर्तित करके यौगिक सल्फोराफेन बना लिया गया है। वैज्ञानिकों ने बताया कि यह यौगिक दिल का दौरा, कैंसर की शुरूआती अवस्था में अनियंत्रित कोशकीय विभाजन के लिए जिम्मेवार जलन को स्पष्ट तौर पर कम करने और रोगों के खिलाफ लडऩे वाले एंटी-ऑक्सिडेंट की मौजूदगी को बढ़ाता है। आनुवांशिक इंजीनियरिंग के बजाय जनन (ब्रीडिंग) के जरिये सुपर फूलगोभी विकसित करने वाले वैज्ञनिकों का कहना है कि यह सामान्य फूलगोभी के मुकाबले सल्फोराफेन के स्तर को दो से चार गुणा तक बढ़ा देता है।
पका हुआ पीला काशीफल (कद्दू) लेकर उसके बीज निकाल करके किसी भी मन्दिर के प्रांगण में रखकर ईश्वर से स्वस्थ होने की कामना करते हुए रख दें। उपाय सूर्योदय के उपरान्त एवं सूर्यास्त से पूर्व करें। किसी के लिए वही कर सकता है जिसका रोगी से रक्त का संबंध हो। यह उपाए कम से कम तीन दिन करें और अधिक कष्ट हो तो अधिक दिन भी कर सकते हैं। यहां आस्था एवं निरन्तरता महत्वपूर्ण है।
हृदय रोग आज के समय में किसी भी उम्र को अपना शिकार बना सकता है, यह रोग आज भी मृत्यु का एक प्रमुख कारण है। आधुनिक विज्ञान में हृदय रोगों को कार्डीयकडीजीज के नाम से जाना जाता है। हृदय रोगों में कोरोनरी हार्ट डीजीज, कार्डीयो मायोपैथी, कार्डीयो वास्कुलर डीजीज, इस्चमीक हार्टडीजीज, हार्टफेलियर आदि अनेक रोग आते हैं।
हृदयरोग की जड़ में अनेक कारण हो सकते हैं- धूम्रपान, गलत खान-पान, आराम की जिंदगी, चलने-फिरने और शारीरिक श्रम में कोताही या फिर दौड़-धूप और तनाव की अधिकता।
ह्रदय रोग का ज्योतिषीय उपचार:
छठे भाव का कारक मंगल व शनि हैं। मंगल रक्त का कारक और शनि वायु का कारक है। ये भी हृदयरोग कारक हैं। अत: किसी भी स्थिति में मंगल अथवा शनि विपरीत कारक हो तो मंगल शनि के मंत्रों को जाप, हवन, तर्पन, मार्जन आदि कराया जाकर दान करने से उक्त ग्रहों को प्रबल किया जा सकता है, जिससे ह्दय रोग से बचा जा सकता है। सूर्य हृदय का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका भाव पंचम है। जब पंचम भाव, पंचमेश तथा सिंह राशि पाप प्रभाव में हो तो हार्ट अटैक की सम्भावना बढ़ जाती है। इस स्थिति में सूर्य को प्रबल करने हेतु आदित्यह्दय स्त्रोत का जा कर सूर्य को प्रबल करना चाहिए। सूर्य पर राहु या केतु में से किसी एक ग्रह का पाप प्रभाव होना भी हृदय रोग का कारण होता है। राहु से पापाक्रांत ग्रहों की शांति हेतु राहु की शांति कराना चाहिए। कुंडली में षठा घर रोग का स्थान है, यदि छठेश की दशा चल रही हो और वह लग्न या भाग्य स्थान में हो तो छठे भाव की शांति कराई जानी चाहिए। आठवां भाव रोग और रोगी की आयु का सूचक है। आठवें का कारक शनि है। शनि की शांति कराने से भी इस रोग से बचाव संभव है। यदि यह रोग आ ही जाए तो महामृत्युंजय का सवालाख जाप कराया जा कर हवन आदि करने से रोग से निवृत्ति प्राप्त होती है।

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भाग्योदय में बाधा


कठिन परिश्रम के बाद भी किस्मत साथ नहीं दे, और धक्के खाने पड़े तो व्यक्ति निराश हो जाता है। कहावत है कि जैसा करोगे वैसा ही भरोगे। लगातार मेहनत और व्यापार करने पर लाभ की जगह घटा हो रहा हो। ईमानदारी से और कठिन परिश्रम करने के बावजूद भी नौकरी नहीं मिलती हो। योग्यता व पात्रता के आधार पर अच्छा वेतन नहीं मिलता है। आपके जूनियर तरक्की करते जाय आप इसी पद पर वर्षों से रहे। आप अपने आपको कोस रहे हैं। जी हां यदि मेहनत, श्रम और ईमानदारी से काम करने और योग्यता के आधार पर यश, धन, नौकरी, व्यापार, पढ़ाई, विवाह, मकान, दुकान, रोग और सेहत में सुख नहीं मिले लगातार निरंतर हानि, अपयश, रोग, दरिद्रता कम तनख्वाह किराये का मकान में रहना आदि दुख पीछा नहीं छोड़ता है, तो समझ लेना चाहिए, कि भाग्य साथ नहीं दे रहा है।
प्रश्न उठता है कि आखिर आप के साथ ही क्यों होता है?
1 भाग्य की बाधा के लिये जन्मपत्री में नवम भाव व नवमेश का गहराई से अध्ययन करना चाहिए।
2 नवम से नवम अर्थात पंचम भाव व पंचमेश की स्थिति का भी निरीक्षण ध्यानपूर्वक करना चाहिए।
3 भाग्य-यश के दाता सूर्य की स्थिति, पाप ग्रहों की दृष्टि नीच ग्रहों की दृष्टि नीच ग्रहों की दृष्टि के प्रभाव में तो नहीं है।
4 धन, वैभव, नौकरी, पति, पुत्र व समृद्धि का दायक गुरु कहीं नीच का होकर पाप प्रभाव में तो नहीं है।
5 लग्नेश व लग्न पर कहीं पाप व नीच ग्रहों का प्रभाव तो नहीं है।
भाग्य में बाधा डालने वाले कुछ दोष:
1. लग्नेश यदि नीच राशि में, छठे, आठवे, 12 भाव में हो तो भाग्य में बाधा आती है।
2. राहू यदि लग्न में नीच का शनि जन्मपत्री में किसी भी स्थान में हो, तथा मंगल चतुर्थ स्थान में हो तो भाग्य में बाधा आती है।
3. लग्नेश सूर्य चंद्र व राहू के साथ 12वें भाव में हो तो भाग्य में बाधा आती है।
4. लग्नेश यदि तुला राशि के सूर्य तथा शनि के साथ छठे, 8वें में हो तो जातक का भाग्य साथ नहीं देता।
5. पंचम भाव का स्वामी यदि नीच का हो या वक्री हो तथा छठे, आठवें, 12वें भाव में स्थित हो तो भाग्य के धोखे सहने पड़ते हैं।
6.पंचम भाव का स्वामी तथा नवमेश यदि नीच के होकर छठे भाव में हो तो शत्रुओं द्वारा बाधा आती है।
7. पंचम भाव पर राहु, केतु तथा सूर्य का प्रभाव हो लग्नेश छठे भाव में हो पितृदोष के कारण भाग्य में बाधा आती है।
8. मकर राशि का गुरु पंचम भाव में यदि हो तो भाग्य के धक्के सहने पड़ते हैं।
9. पंचमेश यदि 12वें भाव में मीन राशि के बुध के साथ हो भाग्य में बाधा आती है।
10. पंचम या नवम भाव में सूर्य उच्च के शनि के साथ हो तो भाग्य में बाधा देखी जाती है।
11. नवम भाव में यदि राहु के साथ नवमेश हो तो भाग्य बन जाता है।
12. नवम भाव में सूर्य के साथ शुक्र यदि शनि द्वारा देखा जाता हो। तो भाग्य साथ नहीं देता।
13. नवमेश यदि 12वें या 8वें भाव में पाप ग्रह द्वारा देखा जाता हो, तो भाग्य साथ नही देता।
14. नवम भाव का स्वामी 8वें भाव में राहु के साथ स्थित हो तो पग-पग पर ठोकरे खानी पड़ती है।
15. नवमेश यदि द्वितीय भाव में राहु-केतु के साथ, शनि द्वारा देखा जाता है, तो व्यक्ति का भाग्य बंध जाता है।
16. नवमेश यदि द्वादश भाव में षष्ठेश के साथ स्थित होकर पाप ग्रहों द्वारा देखा जाता हो, तो बीमारी कर्जा व रोग के कारण कष्ट उठाने पड़ते है।
17. नीच का गुरु नवमेश के साथ अष्टम भाव में राहु, केतु द्वारा दृष्ट हो तो गुरु छठे, 8वें, 12वें राहु शनि द्वारा देखा जाता हो तो भाग्य साथ नहीं देता।
18. नीचे का गुरु छठे, 8वें, और 12वें राहु शनि द्वारा देखा जाता हो तो भाग्य साथ नहीं देता।
भाग्य बाधा निवारण के उपाय:
सूर्य गुरु लग्नेश व भाग्येश के शुभ उपाय करने से भाग्य संबंधी बाधाएं दूर हो जाती है।
1. गायत्री मंत्र का जाप करके भगवान सूर्य को जल दें।
2. प्रात:काल उठकर माता-पिता के चरण छूकर आशीर्वाद लें।
3. अपने ज्ञान, सामर्थ और पद प्रतिष्ठा का कभी भी अहंकार न करें।
4. किसी भी निर्बल व असहाय व्यक्ति की बददुआ न ले।
5. वद्धाश्रम और कमजोर वर्ग की यदाशक्ति तन, मन और धन से मदद करें।
6. सप्ताह में एक दिन मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारा जाकर ईश्वर से शुभ मंगल की प्रार्थना करें। मंदिर निर्माण में लोहा, सीमेंट, सरिया इत्यादि का दान देकर मंदिर निर्माण में मदद करें।
7. पांच सोमवार रुद्र अभिषेक करने से भाग्य संबंधी अवरोध दूर होते है।
8. 'ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय इस मंत्र का जाप 108 बार रोज करने से बंधा हुआ भाग्य खुलने लगता है।
9. भाग्यस्थ अथवा अष्टमस्थ राहु अथवा इन दोनों स्थानों पर राहु की दृष्टि भाग्योदय में बाधा का बडा कारण होती है। राहु की दशा, अंतदर्शा अथवा प्रत्यंतर दशा में अकसर भाग्य बाधित होता है। अत: कुंडली में इस प्रकार के योग बन रहे हों तो उक्त राहु की शांति करानी चाहिए। इसके लिए अज्ञात पितर दोष निवृत्ति हेतु नारायणबली, नागबली एवं कालसर्प शांति कराने से जीवन में भाग्योदय का रास्ता खुलता है।

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मिरगी रोग ज्योतिषीय विश्लेषण




मिरगी कुछ सबसे पुरानी बीमारियों में से एक है। इसे अपस्मार और अंग्रेजी में ऐपिलेप्सी भी कहते हैं। यह न्यूरॉजिकल डिस्ऑर्डर यानी दिमाग की नसों से जुड़ी बीमारी है। इसमें मरीज को दौरे पड़ते हैं, जो आमतौर पर 30 सेकेंड से लेकर 2 मिनट तक के होते हैं। कुछ मरीजों में दौरे की अवधि लंबी भी होती है। दौरे के दौरान मरीज का बेहोश हो जाना, दांत भिंच जाना, शरीर लडख़ड़ाना, मुंह से झाग निकलना आम है। भारत में इसके मरीजों की तादाद लगभग 10 लाख है, जबकि दुनिया में करीब 5 करोड़ लोग इससे पीडि़त हैं। आम बोलचाल में इसके लिए दिमाग में कीड़ा होने जैसा जुमला इस्तेमाल किया जाता है।
वजह और लक्षण: मिरगी कोई बीमारी नहीं, बल्कि दिमाग की बीमारी का लक्षण है। मिरगी दिमाग में ट्यूमर, टीबी और धमनियों में गुच्छे का संकेत हो सकता है। इसलिए दिमाग में जो बीमारी होती है, उसी का इलाज किया जाता है। मिरगी के पीछे कई वजहें हो सकती हैं। यह बच्चों में बुखार, दिमाग का सही विकास न हो पाने और ब्रेन इंजरी से भी हो सकता है। ब्रेन में इंफेक्शन और ट्यूमर भी वजह हो सकते हैं। यानी यह सीधे तौर पर दिमाग से जुड़ी समस्या है। हमारे दिमाग में इलेक्ट्रिक एक्टिविटी चलती रहती है, लेकिन जब यह एक्टिविटी या इलेक्ट्रिक डिस्चार्ज बढ़ जाता है तो झटके लगने या बेहोशी की दिक्कत आती है।
मिरगी रोग में किसी मानसिक विकार के कारण दूषित त्रिदोष वश मिरगी रोग होता है। प्राय: अधिक व्यसन में पडऩे से अथवा अचानक सिर में चोट और आंतों में अधिक कीड़े होने से अथवा संक्रामक बुखार से होता है। आयुर्वेद त्रिदोष के कारण इसके चार प्रकार मानता है, जैसे वात-मिरगी, पित्त-मिरगी, कफ-मिरगी एवं सन्निपात-मिरगी। वात-मिरगी में रोगी के मुख से झाग, दांत भिंचना, कंपकपी, तेज सांस चलना होता है। पित्त-मिरगी में रोगी के मुख से पीला झाग और शरीर का वर्ण पीला हो जाता है। कफ-मिरगी में त्वचा का रंग श्वेत, मुख से सफेद झाग निकलते हैं। सन्निपात-मिरगी में उक्त तीनों लक्षण पाए जाते हैं। दुर्घटनावश या अचानक आघात से भी यह रोग हो जाता है।
ज्योतिष और मिरगी रोग: मूलत: मिरगी रोग का सम्बन्ध सूर्य और मंगल ग्रह की अशुभता के कारण होता है। सूर्य और मंगल ग्रह ऊर्जा के कारक हैं। जब शारीरिक ऊर्जा में अवरोध हो तो से मिरगी का दौरा पड़ता है। चन्द्र ग्रह मन का कारक है और ऊर्जा के प्रवाह में सहायक है। जातक की कुंडली में चन्द्र ग्रह भी दुष्प्रभाव में होता है। मुख्य रूप से चन्द्र, मंगल, सूर्य एवं लग्नेश के निर्बल एवं दुष्प्रभाव में होने पर मिरगी रोग होता है। रोग कब होगा इसके लिए रोगकारक ग्रहों की दशान्तर्दशा का विचार करते हैं। यहां मिरगी होने के कुछ ज्योतिष योग दे रहे हैं जिनको कुंडली में विचार कर यह ज्ञात कर सकते हैं कि अमुक कुंडली का जातक इस रोग से ग्रस्त होगा या नहीं। ये योग इस प्रकार हैं -
1. सूर्य, चन्द्र, मंगल ग्रह एक साथ लग्न या अष्टम में हों या ये ग्रह लग्न या अष्टम में किसी में युत होकर एक दूसरे से सम्बन्ध रखते हों अथवा अशुभ या क्रूर ग्रहों से दृष्ट हों। इस रोग में छाया ग्रह की युति या दृष्टि महत्वपूर्ण है।
2. चन्द्र व राहु की युति आठवें या पहले भाव में हो तो जातक को यह रोग होता है।
3. राहु लग्न में और चन्द्र छठे भाव में हो तो जातक को मिरगी रोग होता है।
4. जातक का जन्म यदि सूर्य या चन्द्र ग्रहण के समय हो तो भी यह रोग होता है।
5. षष्ठ या अष्टम भाव में शनि-मंगल की युति हो।
6. राहु व बुध की युति लग्न या छठे भाव में हो तो भी यह रोग होता है।
7. राहु-मंगल की युति लग्न में हो, लग्नेश छाया ग्रहों से दृष्ट हो तो जातक को यह रोग होता है।
8. मंगल या बुध ग्रह छाया ग्रहों से युत या दृष्ट हो एवं इनका संबंध लग्न से हो तो जातक को मिरगी के दौरे पड़ते हैं।
9. मेष लग्न हो और राहु-बुध लग्न में हों, सूर्य बारहवें हो या उससे संबंध रखता हो तो जातक को मिरगी के दौरे पड़ते हैं।
10. वृष लग्न हो सूर्य पहले भाव में, चन्द्र-केतु आठवें हो एवं लग्नेश शुक्र या राहु से युत हो तो जातक को मिरगी रोग से पीडि़त होता है।
11. मिथुन लग्न हो चन्द्र पूर्ण अस्त होकर पहले भाव में हो, मंगल दशम भाव में छाया ग्रह से दृष्ट या युत हो तो मिरगी रोग से जातक पीडि़त होता है।
12. कर्क लग्न हो मंगल, सूर्य चन्द्र पहले भाव में हों या अष्टम भाव में हों व अस्त् हों व छाया ग्रह से दृष्ट हों तो मिरगी रोग होता है।
13. सिंह लग्न में सूर्य-मंगल आठवें होकर छाया ग्रह से दृष्ट हों तो यह रोग होता है।
14. कन्या लग्न में चन्द्र पांचवे अस्त होकर राहु से युत या दृष्ट हो व लग्न में मंगल हो।
15. तुला लग्न में गुरु-शुक्र की युति सातवें हो और दोनों अस्त हों, मंगल व चन्द्र छाया ग्रह के प्रभाव में हो तो मिरगी रोग होता है।
16. वृश्चिक लग्न में सूर्य बारहवें अस्त मंगल के साथ युत हो, लग्न में राहु व बुध की युति हो तो मिरगी रोग होता है।
17. धनु लग्न में बुध-चन्द्र की युति लग्न में हो, गुरु व मंगल त्रिक भावों में छाया ग्रह से युत या दृष्ट हों तो यह रोग होता है।
18. मकर लग्न में लग्नेश छाया ग्रह से युत या दृष्ट हो, लग्न में सूर्य-चन्द्र की युति हो।
19. कुंभ लग्न में शनि छठे अस्त हो, मंगल व चन्द्र छाया ग्रह के साथ दसवें हो।
20. मीन लग्न में छठे या आठवें भाव में बुध सूर्य के साथ हो एवं मंगल छाया ग्रह के साथ आठवें युत हो तो यह रोग होता है।
60-70 फीसदी लोगों का इलाज दवा के जरिए होता है, जबकि लगभग 30 फीसदी लोगों को ठीक होने के लिए सर्जरी यानी ऑपरेशन की जरूरत पड़ती है। लगातार 3 साल तक दवा लेने के बाद लगभग 70 फीसदी लोगों के दौरे हमेशा के लिए बंद या कंट्रोल हो जाते हैं। इंफेक्शन वाला पोर्क, बीफ और पालक तथा बंदगोभी जैसी हरी पत्तेदार सब्जियों से भी मिरगी हो सकती है। इससे बचने के लिए डॉक्टर सब्जियों को धोकर और बंदगोभी के पत्तों की ऊपरी दो-तीन परतें उताकर इस्तेमाल करने की सलाह देते हैं।

पर्वत विचार


सामुद्रिक ज्योतिष महासागर की तरह गहरा है। इसमें हाथ की रेखाओं, हाथ का आकार, नाखून, हथेली का रंग एवं पर्वतों को काफी महत्व दिया गया है। हमारी हथेली पर जितने भी ग्रह हैं उन सबके लिए अलग-अलग स्थान निर्धारित किया गया है। ग्रहों के लिए निर्घारित स्थान को ही पर्वत कहा गया है। ये पर्वत हमारी हथेली पर चुम्बकीय केन्द्र हैं, जो अपने ग्रहों से उर्जा प्राप्त कर मस्तिष्क और शरीर के विभिन्न अंगों तक पहुंचाते हैं। ऐसे ही सर्वगुण दर्शाने वाले हथेली के क्षेत्र के बारे में नीचे वर्णन किया गया है:
1 प्रबुद्ध क्षेत्र :
(तर्जनी)- इस अंगुली के गुरु पर्वत, शुभ मंगल पर्वत, शुक्र पर्वत तथा अंगूठे का संपूर्ण भाग को प्रबुद्ध क्षेत्र कहते हैं। यदि यह सभी क्षेत्र उन्नत हो तो व्यक्ति प्रबुद्ध, ज्ञानवान, अध्ययन का शौकीन व यशस्वी जीवन जीता है।
2 सामाजिक क्षेत्र :
शनि की अंगुली, शनि पर्वत, नेपच्यून पर्वत, यूरेनस पर्वत तथा राहु व केतु पर्वतों के प्रभाव को बताने वाला यह क्षेत्र सामाजिक क्षेत्र कहलाता है।
3 अर्ध चेतन क्षेत्र :
अर्ध चेतन क्षेत्र में बुध की अंगुली, बुध पर्वत, निम्न मंगल, चन्द्र पर्वत व अपोलो पर्वत का प्रभाव होता है।
हम जानते हैं कि ग्रहों की कुल संख्या 9 है। इन नवग्रहों का हमारे जीवन पर प्रत्यक्ष प्रभाव होता है। ग्रह हमारे जीवन को दिशा देते हैं और इन्हीं के प्रभाव से हमारे जीवन में उतार-चढ़ाव, सुख-दुख और यश-अपयश प्राप्त होता है। हमारी हथेली पर भी ग्रहों की स्थिति होती है, हम अपनी अथवा किसी अन्य की हथेली देखकर भी विभिन्न ग्रहों के प्रभाव का अनुमान लगा सकते हैं।
हम सबसे पहले हथेली में बृहस्पति ग्रह के स्थान यानी गुरू पर्वत की स्थिति और उससे प्राप्त प्रभाव पर दृष्टि डालते हैं।
गुरू पर्वत : गुरू पर्वत का स्थान हथेली पर तर्जनी उंगली के ठीक नीचे होता है। जिनकी हथेली पर यह पर्वत अच्छी तरह उभरा होता है उनमें नेतृत्व एवं संगठन की अच्छी क्षमता पायी जाती है। जिनकी हथेली में ऐसी स्थिति होती है वे धार्मिक प्रवृति के होते हैं, ये लोगो की मदद करने हेतु सदैव तत्पर रहते हैं। हस्त रेखा विज्ञान के अनुसार यह पर्वत उन्नत होने से व्यक्ति न्यायप्रिय होता है और दूसरों के साथ जान बूझ कर अन्याय नहीं करता है। शारीरिक तौर पर उच्च गुरू पर्वत वाले व्यक्ति का शरीर मांसल होता है यानी वे मोटे होते हैं।
यह पर्वत जिनमें बहुत अधिक विकसित होता है वैसे व्यक्ति स्वार्थी व अहंकारी होते हैं। जिनके हाथों में यह पर्वत कम विकसित होता है वे शरीर से दुबले पतले होते हैं। अविकसित गुरू के होने से व्यक्ति में संगठन एवं नेतृत्व की क्षमता का अभाव पाया जाता है। इस स्थति में व्यक्ति मान सम्मान हासिल करने हेतु बहुत अधिक उत्सुक रहता है। ऐसे व्यक्ति धन से बढ़कर मान सम्मान और यश के लिए ललायित रहते हैं।
गुरू पर्वत का स्थान जिस व्यक्ति की हथेली में सपाट होता है वे व्यक्ति असामाजिक लोगों से मित्रता रखते हैं, इनकी विचारधारा निम्न स्तर की होती है ये अपने बड़ों को सम्मान नहीं देते हैं।
शनि पर्वत : हथेली में शनि पर्वत का स्थान मध्यमा उंगली के ठीक नीचे माना जाता है। सामुद्रिक ज्योतिष कहता है जिस व्यक्ति के हाथ में यह पर्वत विकसित होता है वे बहुत ही भाग्यशाली होते हैं, इन्हें अपनी मेहनत का पूरा लाभ मिलता है। ये एक दिन अपनी मेहनत के बल पर श्रेष्ठ स्थिति को प्राप्त करते हैं। जिनकी हथेली पर भाग्य रेखा बिना कटे हुए इस पर्वत को छूती है वे जीवन में अपने भाग्य से दिन ब दिन कामयाबी की सीढिय़ां चढ़ते जाते हैं। उन्नत शनि पर्वत होने से व्यक्ति अपने कर्तव्य के प्रति सजग और जिम्मेवार होता है।
विकसित शनि पर्वत होने से व्यक्ति में अकेले रहने की प्रवृति होती है, अर्थात वह लोगों से अधिक घुला-मिला नहीं रहता है। इनमें अपने लक्ष्य के प्रति विशेष लगन होती है जिसके कारण आस पास के परिवेश से सामंजस्य नहीं कर पाते हैं। जिनकी हथेली में शनि पर्वत बहुत अधिक उन्नत होता है वे अपने आस-पास से बिल्कुल कट कर रहना पसंद करते हैं और आत्महत्या करने की भी कोशिश करते हैं।
हस्तरेखीय ज्योतिष कहता है जिनकी हथेली में शनि पर्वत सपाट होता है वे जीवन को अधिक मूल्यवान नहीं समझते हैं। इस प्रकार की स्थिति जिनकी हथेली में होता है वे विशेष प्रकार की सफलता और सम्मान प्राप्त करते हैं। यह भी मान्यता है कि जिनकी हथेली में यह पर्वत असामान्य रूप से उभरा होता है वे अत्यंत भाग्यवादी होते हैं और अपने भाग्य के बल पर ही जीवन में तरक्की करते हैं। अगर इस पर्वत पर कई रेखाएं है तो यह कहा जाता है कि व्यक्ति में साहस की कमी रहती है और वह काम-वासना के प्रति आकृष्ट रहता है।
सूर्य पर्वत : सूर्य पर्वत अनामिका उंगली के जड़ में स्थित होता है इसे बुद्धिमानी , दयालुता, उदारता और सफलता का स्थान माना जाता है। जिनकी हथेली में यह पर्वत उभरा होता है उनका दिमाग तेज होता है। वे लोगों की सहायता और मदद करने के लिए तत्पर रहते हैं व जीवन में सफलता हासिल करते हैं। उभरा हुआ सूर्य पर्वत यश और प्रसिद्धि को भी दर्शाता है। उन्नत सूर्य पर्वत होने से लोगों के साथ कदम से कदम मिलाकर काम करने वाले होते हैं। खुशमिज़ाज और आत्मविश्वासी होते हैं। यह पर्वत अविकसित होने पर सौन्दर्य के प्रति लगाव रखते हैं परंतु इस क्षेत्र में सफलता नहीं मिलती है।
अपोलो पर्वत अत्यंत उन्नत होने पर कहा जाता है कि खुशामद पसंद होते हैं और अपने आप पर जरूरत से अधिक गर्व महसूस करते है जिससे लोग घमंडी समझते हैं। इस पर्वत का सपाट या धंसा होना शुभ संकेत नहीं माना जाता है इस स्थिति में इनकी सोच सीमित होती है जिससे ये मूर्खतापूर्ण कार्य कर जाते हैं। इनका जीवन स्तर भी सामान्य रहता है।
बुध पर्वत : सबसे छोटी उंगली यानी कनिष्ठा की जड़ में बुध ग्रह का स्थान होता है यानी यहां बुध पर्वत स्थित होता है। बुध पर्वत को भौतिक सुख, खुशहाली और धन सम्पत्ति का स्थान कहा जाता है। जिनकी हथेली में बुध पर्वत उच्च स्थिति में होता है वे अविष्कार व नई चीजो की तलाश के प्रति उत्सुक रहते हैं। हथेली में बुध उभरा होने से व्यक्ति मनोविज्ञान समझने वाला होता है जिससे लोगों को आसानी से प्रभावित कर पाता है। बुध पर्वत उन्नत होने से व्यक्ति यात्रा का शौकीन होता है और काफी यात्राएं करता है। जिनकी हथेली में यह पर्वत बहुत अधिक उभरा होता है वे काफी चालाक, धूर्त और छल कपट में उस्ताद होता हैं।
बुध पर्वत अगर असामान्य रूप से उभरा हुआ है साथ ही इस पर सम चतुर्भुज का चिन्ह दिख रहा है तो यह संकेत है कि व्यक्ति कानून का उलंघन करेगा और अपराध की दुनियां में नाम कमाएगा। अविकसित बुध पर्वत के होने से भी व्यक्ति जुर्म की दुनिया से रिश्ता कायम कर सकता है। जिनकी हथेली में यह पर्वत अस्पष्ट या सपाट है उन्हें गरीबी का मुंह देखना पड़ता है।
चन्द्र पर्वत : चन्द्र पर्वत का स्थान हथेली में अंगूठे के दूसरी ओर कलाई के नीचे होता है। इसे हस्तरेखीय ज्योतिष में कल्पना, कला, उदारता और उत्साह का स्थान माना जाता है। जिनकी हथेली में चन्द्र पर्वत विकसित होता है वे सौन्दर्योपासक होते हैं इनका हृदय कोमल और संवेदनशील होता है। ये नित नई कल्पना और ख्वाबो के ताने बाने बुनते रहते हैं। ये कला के किसी भी क्षेत्र जैसे लेखन, चित्रकारी, संगीत आदि में पारंगत होते हैं।
चन्द्रपर्वत अत्यधिक उन्नत होने से मन की चंचलता अधिक रहती है, जिसके कारण व्यक्ति में उतावलापन अधिक देखा जाता है। चन्द्र पर्वत की यह स्थिति व्यक्ति को शंकालु और मानसिक तौर पर बीमार बना देती है। यह स्थिति जिनकी हथेली में पायी जाती है वे अक्सर सिर दर्द से परेशान रहते हैं। समुद्रिक शास्त्र के मुताबिक अविकसित चन्द्र पर्वत होने से व्यक्ति हवाई किले बनाने वाला होता है। जिनकी हथेली में चन्द्र की ऐसी स्थिति होती है उनमें बहुत अधिक भावुकता पायी जाती है और कल्पना लोक में खोये रहने के कारण इनका कोई भी काम पूरा नहीं हो पाता है।
जिनकी हथेली में चन्द्र पर्वत सपाट होता है वे भावना रहित होते हैं, ये धन और भौतिक सुख के पीछे भागते हैं। इस तरह की हथेली जिनकी होती है वे जीवन में प्रेम को गौण समझते हें और लड़ाई झगड़े में आगे रहते हैं।
शुक्र पर्वत : अंगूठे के नीचे जीवन रेखा से घिरा हुआ भाग शुक्र का स्थान होता है जिसे शुक्र पर्वत कहते हैं। यह पर्वत विकसित होने पर सम्मान की प्राप्ति होती है और जीवन में आनन्द एवं खुशहाली बनी रहती है। सामुद्रिक ज्योतिष के अनुसार उन्नत शुक्र पर्वत होने से व्यक्ति सुखी होता है। ये ईश्वर पर यकीन नहीं करते हैं। अविकसित शुक्र होने से व्यक्ति में कायरता रहती है और ये काम वासना से पीडि़त रहते हैं।
आमतौर पर दूसरे पर्वत अगर जरूरत से अधिक विकसित हों तो नुकसान होता है परंतु शुक्र के बहुत अधिक विकसित होने पर नुकसान नहीं होता है। यह पर्वत अत्यधिक उन्नत होने से व्यक्ति साहसी होता है एवं स्वस्थ रहता है। यह स्थिति जिनकी हथेली में पायी जाती है वह सभ्य होते हैं और अपने गुणों से दूसरों को प्रभावित करते हैं। शुक्र पर्वत हथेली में सपाट होने से व्यक्ति अकेला रहना पसंद करता है व पारिवारिक जीवन से लगाव नहीं रखता है। इस तरह की स्थिति जिस हथेली में होती है वे कठिनाईयों भरा जीवन जीते हैं और धन की कमी से परेशान रहते हैं।
मंगल पर्वत : हथेली में दो स्थान पर मंगल पर्वत होता है। एक उच्च का पर्वत होता है और दूसरा नीच का होता है। उच्च मंगल पर्वत हृदय रेखा जहां से शुरू होती उसके ऊपर स्थित होता है जबकि नीच का मंगल जहां से जीवन रेखा शुरू होती है वहां से कुछ ऊपर होता है। जिनकी हथेली में मंगल उभरा होता है वे साहसी, बेखौफ और शक्तिशाली होते हैं। मंगल पर्वत उन्नत होने पर व्यक्ति दृढ़ विचारों वाला होता है और इनके जीवन में संतुलन देखा जाता है। यही पर्वत जिनकी हथेली में बहुत अधिक उन्नत होता है वे मार पीट, लड़ाई-झगड़े में उस्ताद होते हैं। मंगल की यह स्थिति व्यक्ति को अत्याचारी बनाता है और जुर्म की दुनियां की ओर ले जाता है।
वैसे व्यक्ति जिनकी हथेली में मंगल पर्वत सामान्य रूप से उभरा होता है व लालिमा लिये होता है वे जीवन में अच्छी सफलता प्राप्त करते हैं और उच्च पद पर आसीन होते हैं। जिनकी हथेली पर मंगल पर्वत का स्थान सपाट होता है वह कायर और डरपोक होते हैं ऐसा हस्त रेखीय ज्योतिष कहता है। मंगल पर्वत पर गुणा का चिन्ह होना यह संकेत देता है कि व्यक्ति की मौत किसी संघर्ष के दौरान होगी जबकि टेढ़ी मेढ़ी रेखा बताती है कि व्यक्ति किसी दुर्घटना का शिकार होगा।

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स्वप्न ज्योतिष


उपनिषदों के अनुसार आत्मचेतना में आत्मा की गति स्थूल कोषों से सूक्ष्म कोषों की ओर होती है। किन्तु वह सूक्ष्मतम आनन्दमय कोष में नहीं, बल्कि स्वयं आनन्दमय है। इसी प्रकार चेतना की दृष्टि से आत्मा की चार अवस्थाएँ होती हैं-
(1) जाग्रत- जागने की स्थिति, जिसमें सब इन्द्रियाँ अपने विषयों में रमण करती रहती हैं।
(2) स्वप्न- वह स्थिति जिसमें इन्द्रियाँ तो सो जाती हैं, किन्तु मन काम करता रहता है और अपने संसार की स्वयं सृष्टि कर लेता है।
(3) सुषुप्ति- वह स्थिति, जिसमें मन भी सो जाता है, स्वप्न नहीं आता, किन्तु जागने पर यह स्मृति बनी रहती है कि, नींद अच्छी तरह आई।
(4) तुरीया- वह स्थिति, जिसमें सोपाधिक अथवा कोषावेष्टित जीवन की सम्पूर्ण स्मृतियाँ समाप्त हो जाती हैं।
स्वप्न के सन्दर्भ में कुछ प्रसिद्द घटनाएँ :
''दि अंडर-स्टैंडिंग आफ ड्रीम्स एंड देयर एन्फ्लूएन्सेस ऑन दि हिस्ट्री ऑफ मैनÓÓ हाथर्न बुक्स न्यूयार्क द्वारा प्रकाशित पुस्तक में एडाल्फ हिटलर के एक स्वप्न का जिक्र है, जो उसने फ्रांसीसी मोर्चे के समय सन् 1917 में देखा था। उसने देखा कि उसके आसपास की मिट्टी भरभराकर बैठ गई है, वह तथा उसके साथी लोहे में दब गये हैं- हिटलर बचकर भाग निकले, किंतु तभी बम विस्फोट होता है- उसी के साथ हिटलर की नींद टूट गयी। हिटलर अभी उठकर खड़े ही हुए थे कि सचमुच तेज धमाका हुआ, जिससे आसपास की मिट्टी भरभराकर ढह पड़ी और खंदकों में छिपे उनके तमाम सैनिक बंदूकों सहित दबकर मर गये। स्वप्न और दृश्य का यह सादृश्य हिटलर आजीवन नहीं भूले।
टीपू सुल्तान को अपने स्वप्नों पर आश्चर्य हुआ करता था, सो वह प्रतिदिन स्वप्न डायरी में नोट किया करता था। उनके सच हुए स्वप्नों के विवरण कुछ इस प्रकार हैं- ''रात को मैंने सपना देखा। एक वृद्ध पुरुष कांच का एक पत्थर लिए मेरे पास आए हैं और वह पत्थर मेरे हाथ में देकर कहते हैं- सेलम के पास जो पहाड़ी है उसमें इस काँच की खान है, यह कांच मैं वहीं से लाया हूँ। इतना सुनते-सुनते मेरी नींद खुल गई। टीपू सुल्तान ने अपने एक विश्वास पात्र को सेलम भेजकर पता लगवाया, तो ज्ञात हुआ कि सचमुच उस पहाड़ी पर काँच का भंडार भरा पड़ा है। इन घटनाओं से इस बात की पुष्टि होती है कि समीपवर्ती लोगों को जिस तरह बातचीत और भौतिक आदान-प्रदान के द्वारा प्रभावित और लाभान्वित किया जा सकता है, उसी तरह चेतना के विकास के द्वारा बिना साधना भी आदान-प्रदान के सूत्र खुले हुए हैं।
स्वप्न में मनुष्य की रुचि हमेशा से ही है। हमारे वेदों-पुराणों में भी स्वप्न के बारे में जिक्र किया गया है। अग्नि पुराण में स्वप्न विचार और शकुन-अपशकुन पर भी विचार किया गया है। हमारे ऋषि-मुनियों के अनुसार सपनों का आना ईश्वरीय शक्ति का वरदान है और निद्रा की चतुर्थ अवस्था या रात्रि के अंतिम प्रहर में आए स्वप्न व्यक्ति को भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास कराते हैं। हमारे आदि ऋषि-मुनियों ने स्वप्न के मर्म को समझते हुए इनके ज्योतिषीय पक्ष के शुभा शुभ फलों के बारे में तो बताया, लेकिन यह पहेली अनसुलझी रह गई कि स्वप्न क्यों आते हैं और इनका मनोवैज्ञानिक आधार क्या है?
स्वप्न के सन्दर्भ में मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण:
प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक वैवस्टर के अनुसार स्वप्न सोए हुए व्यक्ति के अवचेतन मस्तिष्क में चेतनावस्था के दौरान घटित घटनाओं, देखी हुई आकृतियों, कल्पनाओं व विचारों का अपरोक्ष रूप से चित्रांकन होना है। प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक फ्रॉयड के अनुसार हमारे दो मस्तिष्क होते हैं- पहला चेतन और दूसरा अवचेतन। हमारा जब चेतन मस्तिष्क सुप्तावस्था में होता है तो अवचेतन मस्तिष्क सक्रिय होना प्रारंभ होता है और इंसान के जीवन में घटी घटनाओं या निर्णयों के उन पहलुओं पर गौर करता है जिन पर चेतन मस्तिष्क में गौर नहीं कर पाता। नींद की चार अवस्था होती हैं। चौथी अवस्था में रेम सिद्धांत कार्य करता है। इसमें चेतन मस्तिष्क द्वारा उपेक्षित घटनाओं या अवस्थाओं का समेकित रूप होकर प्रतिकृति के रूप में सामने आते हैं। फ्रॉयड के ही अनुसार बुरे सपने आपको भावनात्मक अवसाद से बचाने के लिए आपका मनोबल बढ़ाते हैं और साथ ही भविष्य में घटित होने वाली घटनाओं का पूर्वाभास भी कराते हैं।
हमारी नींद कई चक्रों में बंटी होती है और हर चक्र कई चरणों में। हर चक्र की शुरुआत हल्की नींद से होती है। अंतिम 2 चरणों में गहरी नींद और रेम (रैपिड आई मूवमेंट) का नंबर आता है। हम हर रात 4 से 5 रेम पीरियड से गुजरते हैं। इनकी अवधि 5 से लेकर 45 मिनट तक की होती है। सारे सपने सिर्फ रेम पीरियड में ही दिखते हैं और सिर्फ स्तनधारियों को ही।
नींद की शुरुआत में रेम पीरियड काफी छोटा होता है, लेकिन जैसे-जैसे नींद की अवधि लंबी होती जाती है, रेम पीरियड की अवधि भी बढ़ती जाती है। यही वजह है कि हम ज्यादातर सपने सुबह या नींद के आखिरी चक्र में देखते हैं। इसी वजह से कई बार जब हमारी नींद सुबह में खुलती है तो हम रेम पीरियड में होते हैं और थोड़े समय पहले देखे गए सपने दिमाग में मौजूद रहते हैं। अक्सर जो बुरे सपने याद रहते हैं, वह भी सुबह के वक्त ही देखे गए होते हैं। इसकी एकमात्र वजह है रेम पीरियड में नींद का खुलना। रेम पीरियड के बाद नींद खुलने पर व्यक्ति को कुछ भी याद नहीं रहता है। न ही अच्छा न ही बुरा ।
चिकित्सकों का सामना अक्सर ऐसे मरीजों से होता रहता है, जो दु:स्वप्न के शिकार होते हैं। ऐसे लोगों की सामान्य रूप से डर और चिंता के मारे नींद खुलने की शिकायत होती है। नींद खुलने के पीछे अधिकतर का यही कहना होता है कि स्वप्न में वे किसी मृत या जिंदा (जाने-अनजाने) व्यक्ति को देखते हैं। ऐसी स्थितियों को साधारण लोग भूत-प्रेत या पिशाच से जोड़ देते हैं।
बार-बार दु:स्वप्न देखने को ड्रीम एंग्जाइटी डिसॉर्डर कहा जाता है। इसके इलाज की जरूरत होती है। ठीक तरह से इलाज न होने पर इनसे पारिवारिक-जीवन के लिए भी परेशानी पैदा होने का खतरा रहता है। दु:स्वप्न देखने की बीमारी पुरुषों की तुलना में महिलाओं में ज्यादा पाई जाती है। महिलाओं में यह समस्या युवा अवस्था में शुरू हो जाती है ।
स्वप्न के सन्दर्भ में ज्योतिषीय दृष्टिकोण :
ऐसा माना जाता है कि यदि कोई बुरा स्वप्न दिखाई दे, तो नींद खुलते ही अपने आराध्य को ध्यान करके पानी पी लेना चाहिए। इसके पश्चात् फिर सोना नहीं चाहिए। ऐसी मान्यता भी है कि दिन में दिखे स्वप्न निष्फल होते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनेक पुराणों एवं् संहिता ग्रंथों में स्वप्नों के शुभाशुभ फल का विस्तृत वर्णन दिया गया है। अनेकों बार स्वप्न के माध्यम से हमें भविष्य में होने वाली शुभ या अशुभ घटना का संकेत मिलता है।
शुभ-फलदायक स्वप्न:
(1) स्वप्न में देव दर्शन, पितृ दर्शन, भाई-बहन और कुटुंबियों का दिखना शुभ माना जाता है।
(2) स्वप्न में स्वयं को मृतक देखना, सर्प द्वारा काटना, खून निकलना, स्वर्ग दर्शन, सर्प को मारना सूर्य चंद्र ग्रहण को देखना, सेना को देखना, वर्षा होते दिखाई देना मनोरथ पूर्ण होने के संकेत करता है।
(3) यदि आप स्वप्न में स्वयं को मल में लिपटा हुआ पाते हैं या सांप ने आपको काट लिया है, तो इसका मतलब है कि आपको धन की प्राप्ति होगी। सपने में आपके सिर पर सांप काट ले, तो आप राजा तक बन सकते हैं ।
(4) स्वप्न में मृत्यु, शमशान में अंत्येष्टि, शव आदि दिखाई देते है तो शुभ-लाभ, उन्नति और मनोरथों की प्राप्ति होती है।
(5) स्वप्न में मृत्यु देखना, लाश देखना, पाखाना देखना आदि शुभ एवं हाथी या घोड़े द्वारा पीछा करना कोई बडा सम्मान या पदोन्नति दिलाता है।
(6) स्वप्न में सुंदर स्त्री या अप्सरा देखना प्रेमी या प्रेमिका से मिलाप कराता है।
(7) स्वप्न में दांत टूटना या नाखून काटना कर्ज से मुक्ति, ट्रेन दिखना यात्राकारक, बाग-बगीचा या हराभरा मैदान देखना, चिंता से मुक्ति दिलाता है।
(8) स्वप्न में अपने को उड़ता देखना- यह आत्मविश्वास या स्वतंत्रता एवं मोक्ष का दर्शन है। आधुनिक विचारधारा इसे असाधारण क्षमता के प्रतीक के रूप में देखती है।
(9) यदि स्वप्न में कबूतर दिखाई दे तो यह शुभ समाचार का सूचक है।
(10) यदि स्वप्न में कोई व्यक्ति अपनी खोई हुई वस्तु प्राप्त करता है तो उसे आगामी जीवन में सुख मिलता है ।
(11) यदि स्वप्न में व्यक्ति खुद को पर्वत पर चढ़ता पाए, तो उसे एक दिन सफलता निश्चित मिलती है।
(12) यदि स्वप्न में भंडारा कराते देखे तो व्यक्ति का जीवन धनधान्य से पूर्ण रहेगा।
(13) यदि आप स्वप्न में किसी बच्चे को गोद में लेते है तो स्वप्न शुभ फलदायक होता है, आपको भविष्य में जुए, लॉटरी या सट्टे से बगैर कमाए ही धन मिल सकता है।
(14) यदि आप अभी कुंवारे है, आप स्वप्न में देखते है कि कोई हथियार आपके सामने फर्श पर पड़ा हुआ है, इसका फल बहुत ही शुभ है अर्थात आपको आने वाले समय में शीघ्र ही जीवन साथी मिलने वाला है।
अशुभ-फलदायक स्वप्न:-
ज्योतिषीय दृष्टिकोण से निम्न स्वप्नो का अशुभ फल प्राप्त होता है :--
(1) यदि स्वप्न में किसी व्यक्ति को सांप दिखाई देते हैं तो निश्चित ही उसकी कुंडली में काल-सर्प योग होगा। सोते हुए सर्प को अपने शरीर की तरफआते देख घबरा जाना कुंडली में काल-सर्प योग का प्रतीक होता है।
(2) यदि स्वप्न में कोई व्यक्ति खुद को चावल खाते देखें या चावल दिखाई देने पर व्यक्ति को कड़ी मेहनत के बाद भी बहुत कम धन प्राप्त होता है।
(3) यदि कोई व्यक्ति सपने में खोटा सिक्का प्राप्त करता है तो इसका मतलब यही है कि निकट भविष्य में आपको धन की हानि हो सकती है। घर की सुख-समृद्धि बुरी तरह प्रभावित होगी।
(4) यदि स्वप्न में व्यक्ति खुद को रोटी बनाता देखे, तो यह रोग का सूचक है।
(5) स्वप्न में विकराल देवताओं के दर्शन, पिशाच और राक्षसी, नरक दृश्य, बर्फ गिरते देखना अशुभ माना गया है।
(6) स्वप्न में पानी में डूब जाना, बराती देखना, शराब पीना, सुंदर स्त्री को पाना, वृक्षों को काटना, विष खाना आदि देखने का फल अशुभ होता है ।
(7) स्वप्न में कबूतर, कौवा, गिद्ध, विद्युत, दिखाई देना, काला वस्त्र धारण करना, हंसना, अंगारे, भस्म, हंसता हुआ संन्यासी नदी का सूखना, गीत गाना, कीचड और घी का दिखना अशुभ माना गया है ।
(8) स्वप्न में यदि कुत्ता काटे या आप ऊंचाई से गिर रहे हो तो मानहानि या किसी अन्य रुप में कष्ट संभव हैं ।
देव द्विज श्रेष्ठ वीर गुरू वृहद तपस्विन:।
यद्वदन्ति नरं स्वप्ने सत्य मेविति तद्विदु।
यदि सपने में वेद अघ्ययन देखा तो श्रेष्ठ है। देव, ब्राह्मन, श्रेष्ठ वीर, गुरू, वृहद तपस्वी जो कुछ आपको स्वप्न में कहें उसे सत्य मानें।
सूर्योदय से कुछ पहले अर्थात ब्रह्म मुहूर्त में देखे गए सपने का फल दस दिनों में सामने आ जाता है। रात के पहले पहर में देखे गए सपने का फल एक साल बाद, दूसरे पहर में देखे सपने का फल छह महीने बाद, तीसरे पहर में देखे सपने का फल तीन महीने बाद और आखिरी पहर के सपने का फल एक महीने में सामने आता है।
स्वप्न के सन्दर्भ में स्वप्न ज्योतिष के अनुसार स्वप्न चार प्रकार के होते हैं:- पहला दैविक, दूसरा शुभ, तीसरा अशुभ और चौथा मिश्रित। दैविक व शुभस्वप्न कार्य सिद्ध की सूचना देते हैं। अशुभ स्वप्न कार्य असिद्धि की सूचना देते हैं तथा मिश्रित स्वप्न मिश्रित फलदायक होते हैं। यदि पहले अशुभ स्वप्न दिखे और बाद में शुभ स्वप्न दिखे तो शुभस्वप्न के फल को ही पाता है। अगर आपको लगातार बुरे सपने आते हों तो उसके अशुभ फल से बचने के लिए यह उपाय आपके लिए लाभदायक हो सकते हैं-
(1)- बुरे स्वप्न को देखकर यदि व्यक्ति उठकर पुन: सो जाए अथवा रात्रि में ही किसी से कह दे तो बुरे स्वप्न का फल नष्ट हो जाता है।
(2)- सुबह उठकर भगवान शंकर को नमस्कार कर स्वप्न फल नष्ट करने के लिए प्रार्थना कर तुलसी के पौधे को जल देकर उसके सामने स्वप्न कह दें। इससे भी बुरे सपनों का फल नष्ट हो जाता है।
(3)- धर्म शास्त्रों के अनुसार रात में सोते समय अपने आराध्य का स्मरण करने से भी बुरे सपने नहीं आते ।
हनुमान चालीसा में एक दोहा है: भूत पिशाच निकट नहीं आवे...। मिथकीय संदर्भ में देखें तो हनुमान को ऐसे रूप में दर्शाया गया है जिसे प्राणायाम और उससे जुड़ी दूसरी सिद्धियों पर अधिकार प्राप्त है। दोहे का मूल अर्थ यह है कि प्राणायाम आदि से खुद को जोड़ कर इन व्याधियों से मुक्ति पाई जा सकती है।

वस्तुशास्त्र में दिशा का महत्व

विज्ञान में चार दिशाओं उत्तर, दक्षिण, पूरब और पश्चिम ये चार मूल दिशाएं हैं। इसके अलावा मूल दिशाओं के मध्य की चार दिशाओं को चार विदिशाएं ईशान, आग्नेय, नैऋत्य और वायव्य हैं। आकाश और पाताल को भी इसमें दिशा स्वरूप शामिल किया गया है इस प्रकार चार दिशा, चार विदिशा और आकाश-पाताल को जोड़कर इस विज्ञान में दिशाओं की संख्या कुल दस माना गया है। जैसा कि हम सब जानते हैं कि ग्रह नौ हैं। ये ग्रह विभिन्न दिशाओं के स्वामी हैं।
सूर्य: सितो भूमिसुतोऽदय राहु: शनि: शशीज्ञश्च बृहस्पतिश्च प्राच्यादितो दिक्षुविदिक्षुचापि दिशामधीशा: क्रमत: प्रदिष्टा॥ (मुहूर्त चिंतामणि)
वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा:
वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण मानी गई है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है. पूर्व दिशा का स्वामी सूर्य है। इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं. भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए. यह सुख और समृद्धि कारक होता है. इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं. परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं. उन्नति के मार्ग मे भी बाधा आति है। इस दिशा में भवन शास्त्र के अनुसार उचित प्रकार से बना हो, इस दिशा का विकिरण घर में आता हो, कोई दोष नहीं हो तो उस घर में निवास करने वाले व्यक्तियों को उत्तम स्वास्थ्य, धन-धान्य की प्राप्ति होती है। निर्माण दोषपूर्ण होने पर व्यक्ति इनसे वंचित रहता है। रोगी होने की आशंका अधिक रहती है।
वास्तुशास्त्र में दक्षिण दिशा:
घर के दक्षिण की दिशा मंगल की है, इस दिशा के स्वामी यम देव हैं. इसका सबसे अधिक प्रभाव गृहस्वामी पर होता है, उसकी स्वास्थ्य व प्रगति मुख्यत: इसी दिशा पर आधारित है। यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है। इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है। गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है. दक्षिण भाग में ऊँचा रहने वाला घर सम्पूर्ण वास्तु के नाम से अभिहित किया जाता है। वह मनुष्यों की सभी कामनाओं को पूर्ण करता है। दक्षिण दिशा की ओर बढ़ाया हुआ वास्तु मृत्युकारी होता है, इसमें संदेह नहीं है।
वास्तुशास्त्र में पश्चिम दिशा:
पश्चिम दिशा का स्वामी शनि है। इसका प्रभाव बंधु, पुत्र, धान्य तथा उत्कृष्ट उन्नति पर अधिक होता है।
वास्तुशास्त्र में उत्तर दिशा:
उत्तर दिशा का स्वामी बुध है। यह दिशा विजय, धन व वृद्धि को प्रभावित करती है। उत्तर की किरणें घर में सीधे प्रवेश करें तो उसमें निवास करने वाले उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए लक्ष्य प्राप्त करते हुए सुखी जीवन व्यतीत कर सकते हैं।
अन्य दिशाएं:
* नैऋत्य दिशा राहु की है। यह दोषपूर्ण होने पर कलह कराती है तथा पितृ का स्थान होने से वंशवृद्धि को प्रभावित करती है।
* पश्चिमोत्तर दिशा का स्वामी चंद्रमा है। चंद्रमा चंचलता का, मन का, गति का प्रतीक है। यह दिशा नौकर, वाहन, गमन तथा पुत्र को प्रभावित करती है।
* पूर्वोत्तर दिशा का स्वामी बृहस्पति है। घर का यह भाग साफ-सुथरा तथा अनुकूल होने पर सभी कामनाओं की पूर्ति करते हुए आनंद देता है।
इस प्रकार से हम देखते हैं कि घर का प्रत्येक हिस्सा महत्वपूर्ण है तथा अलग-अलग दिशा अलग-अलग बातों को विशेष रूप से प्रभावित करती है। इसलिए घर का प्रत्येक भाग उचित रूप से बना होना चाहिए। पूर्व तथा घर के चारों ओर तथा द्वार के सम्मुख और पीछे कुछ भुमि को छोड़ देना शुभकारक है। पिछला भाग दक्षिणावर्त रहना ठीक है; क्योंकि वामावर्त विनाशकारक होता है।
ईशानकोण में सूत्रपात और अग्निकोण में स्तम्भारोपण होता है। स्तम्भ उत्तर या पूर्व की ओर ढालू होना चाहिये, अस्पष्ट दिशा में नहीं कराना चाहिये। इस बात का ध्यान भवन, स्तम्भ, निवासगृह तथा द्वार निर्माण के समय भी स्थापन रखना चाहिये; क्योंकि दिशा की अस्पष्टता से कुल का नाश हो जाता है।
घर के किसी अंश को पिण्ड से आगे नहीं बढ़ाना चाहिये। यदि बढ़ाना ही हो तो सभी दिशा में बढ़ावे। पूर्व दिशा में बढ़ाया गया वास्तु सर्वदा वैर पैदा करता है, जो वास्तु पश्चिम की ओर बढ़ाया जाता है, वह धनक्षयकारी होता है तथा उत्तर की ओर बढ़ाया हुआ दु:ख एवं सन्ताप की वृद्धि करता है। जहाँ अग्निकोण में वृद्धि होती है, वहाँ वह अग्नि का भय देने वाला नैर्ऋत्यकोण बढ़ाने पर शिशुओं का विनाशक, वायव्य कोण में बढ़ाने पर वात-व्याधि- उत्पादक, ईशान कोण में बढ़ाने पर अन्न के लिये हानिकारक होता है। गृह के ईशान कोण में देवता का स्थान और शान्तिगृह, अग्निकोण में रसोई घर और उसके बगल में उत्तर दिशा में जलस्थान होना चाहिये। बुद्धिमान पुरुष सभी घरेलू सामग्रियों को नैर्ऋत्य कोण में करे। पशुओं आदि के बाँधने का स्थान और स्नानागार गृह के बाहर बनाये। वायव्य कोण में अन्नादिका स्थान बनाये। इसी प्रकार कार्यशाला भी निवास-स्थान से बाहर बनानी चाहिये। इस ढंग से बना हुआ भवन गृहपति के लिये मंगलकारी होता है।
ईशान कोण उत्तर-पूर्व कोना:
उत्तर-पूर्व दिशा को ईशान कोण कहते हैं। इसमें जल तत्व का प्रभाव रहता है। प्लॉट व घर का यह कोना थोड़ा बढ़ा हुआ होना शुभ रहता है। अत: पूजाघर इसी कोण में होना चाहिए। अन्य रचनात्मक कार्य जैसे लेखन आदि भी इस कोण में किए जाएं तो निश्चित रूप से ज्यादा फायदा मिलता है। घर में ऊर्जा का प्रवेश मुख्य दरवाजे से होता है। पूर्व और उत्तर दिशा को उर्जा प्रधान दिशाएँ कहा जाता है। इसीलिए प्रवेश द्वार उत्तर या पूर्व में यदि रखा जाए तो उसमें रहने वाले काम में रूचि लेते हैं। इसी प्रकार घर की पूर्व एवं उत्तर दिशा को खाली रखा जाना चाहिए।
अगर ऐसा संभव न हो तो पूर्व या उत्तर दिशा में रखी वस्तुओं के वजन से लगभग डेढ़ गुना वजन नैऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) या दक्षिण दिशा में रखा जाना चाहिए क्योंकि नैऋत्य कोण भारी एवं ईशान कोण (पूर्व-उत्तर) हलका होना चाहिए। इसी प्रकार घर की घडिय़ों को हमेशा पूर्व या उत्तर दिशा में लगाया जाना जाना चाहिए इससे अच्छे समय के आगमन के व्यवधान समाप्त होते हैं। ईशान कोण पवित्र एवं स्वच्छ रखा जाना चाहिए एवं एक घड़ा जल भरकर इस कोने में रखना चाहिए, इसके सत्परिणाम मिलते हैं। घर में उर्जा को बनाए रखने के लिए अनावश्यक घर का मुख्यद्वार खोलकर नहीं रखना चाहिए। उर्जा का संतुलन बनाए रखने के लिए घर के कुल दरवाजों की संख्या सम होना चाहिए। यदि यह संख्या विषम है तो इसके कारण विपरित परिणाम होते हैं। घर में दरवाजों की ज्यादा संख्या अतिरिक्त ऊर्जा पैदा करती है। इसलिए किसी घर में दस या दस के गुणक में जैसे बीस या तीस दरवाजे नहीं होना चाहिए।
घर का मध्य भाग:
घर के मध्य भाग में आकाश तत्व का प्रभाव होता है, जो घर का संतुलन बनाए रखने में बहुत महत्वपूर्ण होता है। यह भाग हमेशा खुला रहे एवं छत आकाश के लिए खुली रहे। इस स्थान को ब्रह्म स्थान भी कहा जाता है। यह उतना ही महत्वपूर्ण है जितना मनुष्य के शरीर में हृदय। एक तरह से यह कहा जा सकता है कि पूरे घर में ऊर्जा का प्रसार इसी जगह से होता है। इस जगह को हमेशा साफरखना चाहिए। किसी भी तरह का बेकार या पुराना सामान यहाँ नहीं होना चाहिए। यहाँ पूजा घर भी बनाया जा सकता है। यदि संभव हो तो इस जगह एक तुलसी का पौधा लगाने से भी बेहतर परिणाम मिलते हैं। इस जगह रोशनी और हवा ठीक प्रकार से आती हो इसका ध्यान रखना चाहिए। घर में हमेशा एकता कायम रखने के लिए परिवार के सभी सदस्यों को दिन में कभी भी एक बार इस जगह बैठ कर बातचीत करना चाहिए।
नैऋत्य कोण दक्षिणी-पश्चिमी कोना:
पृथ्वी तत्व का प्रभाव रहता है। यह कोना सबसे ऊँचा होना चाहिए। इस कोने के कमरे का फर्श सभी कमरों से ऊँचा हो। छोटे बच्चे इस कमरे में न सोएँ एवं नौकर को भूल से भी इस कोने का कमरा न दें। नैऋत्य कोण में घर का टॉयलेट, बेडरूम या स्टोर रूम बनाना चाहिए। यह घर का दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र होता है। घर का वजनी सामान भी यहाँ रखा जा सकता है लेकिन बेकार सामान यहाँ नहीं रखना चाहिए। इस कोण में घर का मेन गेट नहीं बनाना चाहिए।
आग्नेय कोण उत्तर-पश्चिम कोण:
घर में वायु तत्व का प्रभाव रहता है। घर के मेहमानों का निवास, शौचालय (इस कोने में भी ठीक रहता है) यह कोना बढ़़ा हुआ नहीं होना चाहिए। अग्निकोण का स्वामी शुक्र ग्रह है, यह ग्रह भौतिक सुख व भौतिक उन्नति देता है। यह दिशा शास्त्रानुसार होने पर धन, प्रसिद्धि, भौतिक सुख, इच्छाओं की पूर्ति सुगमता से होती है। घर के इस भाग में गंदगी, कचरा-कूड़ा, शौचालय आदि नहीं होना चाहिए। इसे लक्ष्मी का स्थान भी कहा गया है।

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यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंत:करण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं। महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
प्रकृति का स्वभाव यज्ञ परंपरा के अनुरूप है। समुद्र बादलों को उदारतापूर्वक जल देता है, बादल एक स्थान से दूसरे स्थान तक उसे ढोकर ले जाने और बरसाने का श्रम वहन करते हैं। नदी, नाले प्रवाहित होकर भूमि को सींचते और प्राणियों की प्यास बुझाते हैं। वृक्ष एवं वनस्पतियाँ अपने अस्तित्व का लाभ दूसरों को ही देते हैं। पुष्प और फल दूसरे के लिए ही जीते हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, वायु आदि की क्रियाशीलता उनके अपने लाभ के लिए नहीं, वरन् दूसरों के लिए ही है। शरीर का प्रत्येक अवयव अपने निज के लिए नहीं, वरन् समस्त शरीर के लाभ के लिए ही अनवरत गति से कार्यरत रहता है। इस प्रकार जिधर भी दृष्टि डाली जाए, यही प्रकट होता है कि इस संसार में जो कुछ स्थिर व्यवस्था है, वह यज्ञ वृत्ति पर ही अवलम्बित है। यदि इसे हटा दिया जाए, तो सारी सुन्दरता, कुरूपता में और सारी प्रगति, विनाश में परिणत हो जायेगी। ऋषियों ने कहा है- यज्ञ ही इस संसार चक्रकी धुरी है। धुरी टूट जाने पर गाड़ी का आगे बढ़ सकना कठिन है।
मन्त्रों में अनेक शक्ति के स्रोत दबे हैं। जिस प्रकार अमुक स्वर-विन्यास ये युक्त शब्दों की रचना करने से अनेक राग-रागनियाँ बजती हैं और उनका प्रभाव सुनने वालों पर विभिन्न प्रकार का होता है, उसी प्रकार मंत्रोच्चारण से भी एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि तरंगें निकलती हैं और उनका भारी प्रभाव विश्वव्यापी प्रकृति पर, सूक्ष्म जगत् पर तथा प्राणियों के स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों पर पड़ता है।
यज्ञ के द्वारा जो शक्तिशाली तत्व वायुमण्डल में फैलाये जाते हैं, उनसे हवा में घूमते असंख्यों रोग कीटाणु सहज ही नष्ट होते हैं। साधारण रोगों एवं महामारियों से बचने का यज्ञ एक सामूहिक उपाय है। दवाओं में सीमित स्थान एवं सीमित व्यक्तियों को ही बीमारियों से बचाने की शक्ति है; पर यज्ञ की वायु तो सर्वत्र ही पहुँचती है और प्रयत्न न करने वाले प्राणियों की भी सुरक्षा करती है। मनुष्य की ही नहीं, पशु-पक्षियों, कीटाणुओं एवं वृक्ष-वनस्पतियों के आरोग्य की भी यज्ञ से रक्षा होती है।
यज्ञ की ऊष्मा मनुष्य के अंत:करण पर देवत्व की छाप डालती है। जहाँ यज्ञ होते हैं, वह भूमि एवं प्रदेश सुसंस्कारों की छाप अपने अन्दर धारण कर लेता है और वहाँ जाने वालों पर दीर्घकाल तक प्रभाव डालता रहता है। प्राचीनकाल में तीर्थ वहीं बने हैं, जहाँ बड़े-बड़े यज्ञ हुए थे। जिन घरों में, जिन स्थानों में यज्ञ होते हैं, वह भी एक प्रकार का तीर्थ बन जाता है और वहाँ जिनका आगमन रहता है, उनकी मनोभूमि उच्च, सुविकसित एवं सुसंस्कृत बनती हैं। महिलाएँ, छोटे बालक एवं गर्भस्थ बालक विशेष रूप से यज्ञ शक्ति से अनुप्राणित होते हैं। उन्हें सुसंस्कारी बनाने के लिए यज्ञीय वातावरण की समीपता बड़ी उपयोगी सिद्ध होती है।
कुबुद्धि, कुविचार, दुर्गुण एवं दुष्कर्मों से विकृत मनोभूमि में यज्ञ से भारी सुधार होता है। इसलिए यज्ञ को पापनाशक कहा गया है। यज्ञीय प्रभाव से सुसंस्कृत हुई विवेकपूर्ण मनोभूमि का प्रतिफल जीवन के प्रत्येक क्षण को स्वर्गीय आनन्द से भर देता है, इसलिए यज्ञ को स्वर्ग देने वाला कहा गया है।
यज्ञीय धर्म प्रक्रियाओं में भाग लेने से आत्मा पर चढ़े हुए मल-विक्षेप दूर होते हैं। फलस्वरूप तेजी से उसमें ईश्वरीय प्रकाश जगता है। यज्ञ से आत्मा में ब्राह्मण तत्व, ऋषि तत्व की वृद्धि दिनानु-दिन होती है और आत्मा को परमात्मा से मिलाने का परम लक्ष्य बहुत सरल हो जाता है। ब्राह्मणत्व प्राप्त करने के लिए यज्ञ कर्म करना चाहिए।
विधिवत् किये गये यज्ञ इतने प्रभावशाली होते हैं, जिसके द्वारा मानसिक दोषों-र्दुगुणों का निष्कासन एवं सद्भावों का अभिवर्धन नितान्त संभव है। काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ईष्र्या, द्वेष, कायरता, कामुकता, आलस्य, आवेश, संशय आदि मानसिक उद्वेगों की चिकित्सा के लिए यज्ञ एक विश्वस्त पद्धति है। शरीर के असाध्य रोगों तक का निवारण उससे हो सकता है।
अग्निहोत्र के भौतिक लाभ भी हैं। वायु को हम मल, मूत्र, श्वास तथा कल-कारखानों के धुआँ आदि से गन्दा करते हैं। गन्दी वायु रोगों का कारण बनती है। वायु को जितना गन्दा करें, उतना ही उसे शुद्ध भी करना चाहिए। यज्ञों से वायु शुद्ध होती है। इस प्रकार सार्वजनिक स्वास्थ्य की सुरक्षा का एक बड़ा प्रयोजन सिद्ध होता है।
यज्ञ का धूम्र आकाश में-बादलों में जाकर खाद बनकर मिल जाता है। वर्षा के जल के साथ जब वह पृथ्वी पर आता है, तो उससे परिपुष्ट अन्न, घास तथा वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं, जिनके सेवन से मनुष्य तथा पशु-पक्षी सभी परिपुष्ट होते हैं। यज्ञाग्नि के माध्यम से शक्तिशाली बने मन्त्रोच्चार के ध्वनि कम्पन, सुदूर क्षेत्र में बिखरकर लोगों का मानसिक परिष्कार करते हैं, फलस्वरूप शरीरों की तरह मानसिक स्वास्थ्य भी बढ़ता है।
अनेक प्रयोजनों के लिए-अनेक कामनाओं की पूर्ति के लिए, अनेक विधानों के साथ, अनेक विशिष्ट यज्ञ भी किये जा सकते हैं। दशरथ ने पुत्रेष्टि यज्ञ करके चार उत्कृष्ट सन्तानें प्राप्त की थीं, अग्निपुराण में तथा उपनिषदों में वर्णित पंचाग्नि विद्या में ये रहस्य बहुत विस्तारपूर्वक बताये गये हैं। विश्वामित्र आदि ऋषि प्राचीनकाल में असुरता निवारण के लिए बड़े-बड़े यज्ञ करते थे। राम-लक्ष्मण को ऐसे ही एक यज्ञ की रक्षा के लिए स्वयं जाना पड़ा था। लंका युद्ध के बाद राम ने दस अश्वमेध यज्ञ किये थे। महाभारत के पश्चात् कृष्ण ने भी पाण्डवों से एक महायज्ञ कराया था, उनका उद्देश्य युद्धजन्य विक्षोभ से क्षुब्ध वातावरण की असुरता का समाधान करना ही था। जब कभी आकाश के वातावरण में असुरता की मात्रा बढ़ जाए, तो उसका उपचार यज्ञ प्रयोजनों से बढ़कर और कुछ हो नहीं सकता। आज पिछले दो महायुद्धों के कारण जनसाधारण में स्वार्थपरता की मात्रा अधिक बढ़ जाने से वातावरण में वैसा ही विक्षोभ फिर उत्पन्न हो गया है। उसके समाधान के लिए यज्ञीय प्रक्रिया को पुनर्जीवित करना आज की स्थिति में और भी अधिक आवश्यक हो गया है।
यज्ञ आयोजनों के पीछे जहाँ संसार की लौकिक सुख-समृद्धि को बढ़ाने की विज्ञान सम्मत परंपरा सन्निहित है- जहाँ देव शक्तियों के आवाहन-पूजन का मंगलमय समावेश है, वहाँ लोकशिक्षण की भी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है। जिस प्रकार बाल फ्रेम में लगी हुई रंगीन लकड़ी की गोलियाँ दिखाकर छोटे विद्यार्थियों को गिनती सिखाई जाती है, उसी प्रकार यज्ञ का दृश्य दिखाकर लोगों को यह भी समझाया जाता है कि हमारे जीवन की प्रधान नीति यज्ञ भाव से परिपूर्ण होनी चाहिए।
हम यज्ञ आयोजनों में लगें-परमार्थ परायण बनें और जीवन को यज्ञ परंपरा में ढालें। हमारा जीवन यज्ञ के समान पवित्र, प्रखर और प्रकाशवान् हो। गंगा स्नान से जिस प्रकार पवित्रता, शान्ति, शीतलता, आदरता को हृदयंगम करने की प्रेरणा ली जाती है, उसी प्रकार यज्ञ से तेजस्विता, प्रखरता, परमार्थ-परायणता एवं उत्कृष्टता का प्रशिक्षण मिलता है। अपने घी, शक्कर, मेवा, औषधियाँ आदि बहुमूल्य वस्तुएँ जिस प्रकार हम परमार्थ प्रयोजनों में होम करते हैं, उसी तरह अपनी प्रतिभा, विद्या, बुद्धि, समृद्धि, सार्मथ्य आदि को भी विश्व मानव के चरणों में समर्पित करना चाहिए। इस नीति को अपनाने वाले व्यक्ति न केवल समाज का, बल्कि अपना भी सच्चा कल्याण करते हैं।
यज्ञीय प्रेरणाओं का महत्व समझाते हुए ऋग्वेद में यज्ञाग्नि को पुरोहित कहा गया है, उसकी शिक्षाओं पर चलकर लोक-परलोक दोनों सुधारे जा सकते हैं। वे शिक्षाएँ इस प्रकार हैं-
1- जो कुछ हम बहुमूल्य पदार्थ अग्नि में हवन करते हैं, उसे वह अपने पास संग्रह करके नहीं रखती, वरन् उसे सर्वसाधारण के उपयोग के लिए वायुमण्डल में बिखेर देती है। ईश्वर प्रदत्त विभूतियों का प्रयोग हम भी वैसा ही करें, जो हमारा यज्ञ पुरोहित अपने आचरण द्वारा सिखाता है। हमारी शिक्षा, समृद्धि, प्रतिभा आदि विभूतियों का न्यूनतम उपयोग हमारे लिए और अधिकाधिक उपयोग जन-कल्याण के लिए होना चाहिए।
2- जो वस्तु अग्नि के सम्पर्क में आती है, उसे वह खुद में आत्मसात कर लेती है। आप भी पिछड़े या छोटे या बिछुड़े व्यक्ति अपने सम्पर्क में आएँ, उन्हें हम आत्मसात् करने और समान बनाने का आदर्श पूरा करें।
3- अग्नि की लौ कितना ही दबाव पडऩे पर नीचे की ओर नहीं होती, वरन् ऊपर को ही रहती है। प्रलोभन, भय कितना ही सामने क्यों न हो, हम अपने विचारों और कार्यों की अधोगति न होने दें। विषम स्थितियों में अपना संकल्प और मनोबल अग्नि शिखा की तरह ऊँचा ही रखें।
4- अग्नि जब तक जीवित है, उष्णता एवं प्रकाश की अपनी विशेषताएँ नहीं छोड़ती। उसी प्रकार हमें भी अपनी गतिशीलता की गर्मी और धर्म-परायणता की रोशनी घटने नहीं देनी चाहिए। जीवन भर पुरुषार्थी और कत्र्तव्यनिष्ठ रहना चाहिए।
5- यज्ञाग्नि का अवशेष भस्म मस्तक पर लगाते हुए हमें सीखना होता है कि मानव जीवन का अन्त मु_ी भर भस्म के रूप में शेष रह जाता है। इसलिए अपने अन्त को ध्यान में रखते हुए जीवन के सदुपयोग का प्रयत्न करना चाहिए।
अपनी थोड़ी-सी वस्तु को वायुरूप में बनाकर उन्हें समस्त जड़-चेतन प्राणियों को बिना किसी अपने-पराये, मित्र-शत्रु का भेद किये साँस द्वारा इस प्रकार गुप्तदान के रूप में खिला देना कि उन्हें पता भी न चले कि किस दानी ने हमें इतना पौष्टिक तत्व खिला दिया, सचमुच एक श्रेष्ठ ब्रह्मभोज का पुण्य प्राप्त करना है, कम खर्च में बहुत अधिक पुण्य प्राप्त करने का यज्ञ एक सर्वोत्तम उपाय है।
यज्ञ सामूहिकता का प्रतीक है। अन्य उपासनाएँ या धर्म-प्रक्रियाएँ ऐसी हैं, जिन्हें कोई अकेला कर या करा सकता है; पर यज्ञ ऐसा कार्य है, जिसमें अधिक लोगों के सहयोग की आवश्यकता है। होली आदि बड़े यज्ञ तो सदा सामूहिक ही होते हैं। यज्ञ आयोजनों से सामूहिकता, सहकारिता और एकता की भावनाएँ विकसित होती हैं। प्रत्येक शुभ कार्य, प्रत्येक पर्व-त्यौहार, संस्कार यज्ञ के साथ सम्पन्न होता है। यज्ञ भारतीय संस्कृति का पिता है। यज्ञ भारत की
एक मान्य एवं प्राचीनतम वैदिक उपासना है।
धार्मिक एकता एवं भावनात्मक एकता को लाने के लिए ऐसे आयोजनों की सर्वमान्य साधना का आश्रय लेना सब प्रकार दूरदर्शितापूर्ण है।
सभी कर्मकाण्डों, धर्मानुष्ठानों, संस्कारों, पर्वों में यज्ञ आयोजन मुख्य है। उसका विधि-विधान जान लेने एवं उनका प्रयोजन समझ लेने से उन सभी धर्म आयोजनों की अधिकांश आवश्यकता पूरी हो जाती है। लोकमंगल के लिए, जन-जागरण के लिए, वातावरण के परिशोधन के लिए स्वतंत्र रूप से भी यज्ञ आयोजन सम्पन्न किये जाते हैं। संस्कारों और पर्व-आयोजनों में भी उसी की प्रधानता है।
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किस्सा कुर्सी का (ज्योतिष, टैरो एवं अंकज्योतिषीय समीक्षा)




ज्योतिष नज़र से
प्रश्न : क्या मोदी 2014 चुनाव में प्रधानमंत्री बनेंगे?
उत्तर : विश्वस्थ सूत्रों से प्राप्त जन्म विवरण अनुसार मोदीजी का जन्म लग्र वृश्चिक और राशि भी वृश्चिक है। उनके लग्र में मंगल और चंद्रमा, पंचम राहु तथा राज्यभाव में शुक्र तथा राहु इस समय उनकी राहु में चंद्रमा की दशा तथा चुनाव, 2014 में मतगणना यानि की 16मई के दिन उनकी शुक्र की प्रत्यंतर दशा होगी। चंूकि उनका शुक्र राज्यभाव में शनि के साथ सत्ताकारी है तथा राहु उनके पंचम में होकर सामाजिक प्रतिष्ठादायी है अत: मोदी जी की कुंडली में सत्तालाभ का प्रबल योग दिखाई दे रहा है।
प्रश्न : क्या राहुल विपक्ष के नेता बन पायेंगे?
उत्तर : विश्वस्थ सूत्रों से प्राप्त जन्म विवरण अनुसार राहुल गांधी का जन्म लग्र कर्क और राशि वृश्चिक है। उनके राज्यभाव में नीच का शनि तथा अष्टम राहु होने के कारण उन्हें अभी अपने प्रयास का प्रतिफल प्राप्त नहीं होने देगा, साथ ही सत्ताभाव का कारक ग्रह मंगल भी व्ययस्थ होने के कारण लाभ में कमी देता है तथा चुनाव, 2014 में मतगणना यानि की 16मई के दिन उनकी मंगल तथा उसके तत्काल बाद राहु की प्रत्यंतर दशा होगी। अत: उन्हें सत्ता से दूर रहना पड़ सकता है पर वे विपक्ष के नेता बन सकते हैं।
प्रश्न : क्या केजरीवाल को 05 सीटें मिल पाऐंगी?
उत्तर : विश्वस्थ सूत्रों से प्राप्त जन्म विवरण अनुसार अरविंद केजरीवाल का जन्म लग्र वृषभ और राशि भी वृषभ है। उनके राज्यभाव का कारक ग्रह शनि नीच का होकर द्वादशस्थ हो गया है हालांकि उनके आयभाव में उच्च का राहु लाभकारी है अत: पिछले 28दिसंबर को जब उनकी राहु की प्रत्यंत दशा चली तब उनकी दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हुई किंतु अभी उनकी गुरू में शुक्र की अंतरदशा चल रही है तथा मई 16को मतगणना के दिन उनकी मंगल की प्रत्यंतरदशा चल रही होगी अत: उनकी सिंह राशी स्थित गुरू एवं शुक्र उन्हें मनोनुकूल लाभदायी नहीं होंगे। परंतु सप्तमेश मंगल सहभागियों के सहयोग से उन्हें कम से कम 05 सीट दे ही सकता है।
प्रश्न : गुजरात का मिशन 26-0 कामयाब हो पायेगा या नहीं?
उत्तर : गुजरात में 26विधानसभा में से पूर्ण 26सीट प्राप्त करने का बीजेपी का मिशन कामयाब होना इसलिए संदेहजनक है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की सूर्य में राहु की दशा चल रही है और बीजेपी की कुंडली में सूर्य तृतीयेश होकर अपने स्थान से अष्टम तथा सत्ता कारक गुरू राहु से पापाक्रांत होकर तीसरे स्थान पर है अत: बीजेपी की कुंडली के अनुसार जो वर्तमान में दिखाई दे रहा है वह भ्रम है अत: परिणाम इसके अपेक्षाकृत कम आने के योग हैं। अर्थात इसकी संभावना कम है कि गुजरात का मिशन 26-0 कामयाब हो। मगर आंशिक सफलता के योग प्रबल हैं।
प्रश्न : बीजेपी का 272+ का मिशन कामयाब होगा या नहीं?
उत्तर : विधानसभा चुनाव, 2014 में बीजेपी का मिशन 272+ कामयाब होना इसलिए संदेहजनक है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की सूर्य में राहु की दशा चल रही है और बीजेपी की कुंडली में सूर्य तृतीयेश होकर अपने स्थान से अष्टम तथा सत्ता कारक एवं सहभागिता का कारक गुरू राहु से पापाक्रांत होकर तीसरे स्थान पर है अत: बीजेपी की कुंडली के अनुसार जो वर्तमान में दिखाई दे रहा है वह भ्रम है अत: परिणाम अनुमान से कम आने की संभावना है। क्योंकि सहयोगियों का योग सफलतादायी नहीं कहा जा सकता। अत: इसकी संभावना कम है कि बीजेपी का 272+ का मिशन कामयाब हो।
टॅरो की नज़र से
प्रश्न : क्या मोदी 2014 चुनाव में प्रधानमंत्री बनेंगे?
उत्तर : नरेंद्र मोदी के लिए टैरो का कार्ड आता है द टॉवर। द टावर के अनुसार टैरो कहता है कि नरेंद्र मोदी को अप्रत्याशित सदमे का सामना करना पड़ सकता है साथ ही उन्हें अवांछिनीय लांछन दे सकता है अत: सफलता के नजदीक पहुॅचकर उन्हें अचानक कोई सदमा सहना पड़ सकता है इसका अर्थ है कि उन्हें प्रधानमंत्री पद से किसी विवाद के कारण रूकावट एवं लांछन लग सकता है किंतु उसके उपरांत भी उन्हें प्रधानमंत्री का पद मिलता दिखाई देता है।
प्रश्न : क्या राहुल विपक्ष के नेता बन पायेंगे?
उत्तर : राहुल गांधी के लिए टैरो का कार्ड आता है पेज ऑफ कप्स के अनुसार टैरो कहता है कि राहुल गांधी को अप्रत्याशित लाभ मिल सकता है साथ ही उन्हें शुभ समाचार मिलने के संकेत दिखाई देते हैं अत: लोकसभा चुनाव परिणाम के टैरो कार्ड के अनुसार कहा जा सकता है कि राहुल गांधी के लिए जितने बुरे परिणाम के अनुमान लगाये जा रहे हैं उसके विपरीत उन्हें लाभ प्राप्त हो अत: उन्हें विपक्ष का नेता बनाया जा सकता है।
प्रश्न : केजरीवाल को 05 सीट मिलेगी या 10 सीट?
उत्तर : केजरीवाल के लिए टैरो का कार्ड आता है नाईन ऑफ वैंड्स के अनुसार टैरो कहता है कि केजरीवाल को नाईन ऑफ वैड्स के अनुसार दागदार चरित्र तथा असहयोग के कारण इच्छित सफलता प्राप्ति के मार्ग में बाधा दे सकता है अत: उन्हें उम्मीद के अनुरूप सीट प्राप्त नहीं होती दिखाई देती है अत: उन्हें 10 से कम ही सीट प्राप्त होगी।
प्रश्न : गुजरात का मिशन 26-0 कामयाब हो पायेगा या नहीं?
उत्तर : गुजरात का मिशन 26-0 के लिए टैरो का कार्ड आता है द फूल के अनुसार टैरो कहता है कि गुजरात का मिशन 26-0 को अप्रत्याशित लाभ मिलने में भ्रम की स्थिति बनती है क्यों कि द फूल होने से ये संभावना कम है कि बीजेपी सभी सहयोगियों को जीता कर जीत का जश्र मना ले क्योंकि द फूल वर्तमान स्थिति और सच्चाई में कोई भी साम्य नहीं होता है। अत: इसकी संभावना कम है कि गुजरात का मिशन 26-0 कामयाब हो। मगर आंशिक सफलता के योग प्रबल हैं।
प्रश्न : बीजेपी का 272+ का मिशन कामयाब होगा या नहीं?
उत्तर : विधानसभा चुनाव, 2014 में बीजेपी का मिशन 272+ कामयाब होना इसलिए संदेहजनक है क्यों कि इसके लिए टैरो का कार्ड आता है द स्टेंथ के अनुसार टैरो कहता है कि बीजेपी का 272+ का मिशन को कामयाबी मिलने में भ्रम की स्थिति बनती है क्यों कि द स्टेंथ होने से ये संभावना कम है कि बीजेपी सभी सहयोगियों को जीता कर जीत का जश्र मना ले यह कार्ड बताता है कि हताशा और आपसी वैमनस्यता ही जीत के रास्ते में बाधक होगी अत: मिशन की कामयाबी हेतु सभी के सहयोग की अपेक्षा होगी जोकि इस चुनाव में कम दिखाई देगी हालांकि उपरी स्तर पर भ्रम हो किंतु आंतरिक तौर पर वैमनस्यता के कारण परिणाम अपेक्षाकृत अनुकूल आने की संभावना कम है।
आंकशास्त्र की नज़र से
प्रश्न : क्या मोदी 2014 चुनाव में प्रधानमंत्री बनेंगे?
उत्तर : विश्वस्थ सूत्रों से प्राप्त जन्म विवरण अनुसार मोदीजी का जन्मांक 17 अर्थात: जोड़ 8होता है अंक आठ वाले लोगों को किसी सहयोग की आवश्यकता नहीं होती वे स्वयं ही अपने दम पर मोर्चे पर काबिज रहकर अंत तक हार नहीं मानने वाले होते हैं साथ ही चुनाव परिणाम की तिथि 16मई अर्थात: मूलांक 7 एवं पूर्णांक 1 है अत: यह दिन मोदीजी के लिए व्यवधान कारक है। 8 एवं 1 को योग चंूकि शनि एवं सूर्य का योग है, शनि एवं सूर्य हालांकि पुत्र पिता है किंतु बैर जगजाहिर है अत: अंतिम समय में पंगे के कारण व्यवधानकारी हो सकता है जिससे उन्हें सफलता प्राप्त होने के उपरांत भी सत्तालाभ का सुख प्राप्त होने में थोड़ा व्यवधान दिखाई देता है।
प्रश्न : क्या राहुल विपक्ष के नेता बन पायेंगे?
उत्तर : विश्वस्थ सूत्रों से प्राप्त जन्म विवरण अनुसार राहुल गांधी का जन्मांक 19 अर्थात जोड 01 अत: एक अंक बनता है। अत: अंक 01 योजनाओं को कार्यरूप में परिणित होने में सफलता देता है अत: उन्हें इच्छित परिणाम प्राप्त होने में कोई बाधा नहीं है साथ ही चुनाव परिणाम की तिथि 16 मई अर्थात: मूलांक 7 एवं पूर्णांक 1 है इस कारण अंक एक से राहुल गांधी एवं पूर्णांक से भी अंक एक का कारक सूर्य उनको सत्ता से दूर रखने की योजना को फलीभूत होने में कठिनाई दिखाई देती है अत: राहुल गांधी के लिए परिणाम बेहतर आने के योग बनते हैं। अत: विपक्ष के नेता बनने के योग बनते हैं।
प्रश्न : केजरीवाल को 05 सीट मिलेगी या 10 सीट?
उत्तर : विश्वस्थ सूत्रों से प्राप्त जन्म विवरण अनुसार अरविंद केजरीवाल का जन्मांक 16 अत: कुल जोड़ सात होता है। 'सातÓ अंक का स्वामी रहस्यपूर्ण एवं कल्पनाशील होता है, साथ ही अंक 'सात को केतु का प्रतिनिधि माना जाता है अत: केतु जन्य एवं 'सात अंक साथ ही चुनाव परिणाम की तिथि 16 मई अर्थात: मूलांक 7 एवं पूर्णांक 1 है, के कारण उन्हें भ्रम की स्थिति देता है, परन्तु अल्प-लाभ भी देता है। अत: उनका अनुमान एक भ्रम होगा अत: उन्हें मनोनुकूल लाभ प्राप्त नहीं होने के योग बनते हैं। उन्हें 05 सीट लगभग प्राप्त हो सकता है।
प्रश्न : गुजरात का मिशन 26-0 कामयाब हो पायेगा या नहीं?
उत्तर : गुजरात में 26विधानसभा में से पूर्ण 26सीट प्राप्त करने का बीजेपी का मिशन कामयाब होना इसलिए संदेहजनक है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की अंकशास्त्र के अनुसार अंक होगा 6 और छह: अंक शुक्र को लीड करता है अत: मुलांक छह: होने से अतिमहत्वाकांक्षा वाली स्थिति बनती है साथ ही छह: अंक के होने से ऐसे अंक वालों को सहयोगियों का साथ शुभ नहीं होता है साथ ही चुनाव परिणाम की तिथि 16मई अर्थात: मूलांक 7 एवं पूर्णांक 1 है। अत: शुक्र एवं केतु का योग अंकशास्त्र के अनुसार इसकी संभावना कम है कि बीजेपी सभी सहयोगियों को जीता कर जीत का जश्र मना ले। अत: इसकी संभावना कम है कि गुजरात का मिशन 26-0 कामयाब हो। मगर आंशिक सफलता के योग प्रबल हैं।
प्रश्न : बीजेपी का 272+ का मिशन कामयाब होगा या नहीं?
उत्तर : विधानसभा चुनाव, 2014 में बीजेपी का मिशन 272+ कामयाब होना इसलिए संदेहजनक है क्योंकि भारतीय जनता पार्टी की अंकशास्त्र के अनुसार अंक होगा 6 और छह: अंक शुक्र को लीड करता है साथ ही चुनाव परिणाम की तिथि 16मई अर्थात: मूलांक 7 एवं पूर्णांक 1 है बीजेपी का मूलांक छह: एवं पूर्णांक एक शुक्र एवं सूर्य का अंक होने से भ्रम की स्थिति बनती है साथ ही छह: अंक के होने से ऐसे अंक वालों को सहयोगियों का साथ शुभ नहीं होता है। अत: अंकशास्त्र के अनुसार इसकी संभावना कम है कि बीजेपी का 272+ का मिशन कामयाब हो।

नामकरण संस्कार


शिशु जन्म के दसवें या बारहवें दिन बच्चे का नाम रखा जाता है, इसे नामकरण संस्कार कहते हैं। इस संस्कार के समय माता, बालक को शुद्ध वस्र से ढंक कर एवं उसके सिर को जल से गीला कर पिता की गोद में देती है। इसके पश्चात् प्रजापति, तिथि, नक्षत्र तथा उनके देवताओं, अग्नि तथा सोम की आहुतियाँ दी जाती हैं। तत्पश्चात् पिता शिशु के दाहिने कान की ओर झुकता हुआ उसके नाम का उच्चारण करता है।
ऐतिहासिक परिपे्रक्ष्य: हिंदू संस्कारों का शुभारंभ नामकरण संस्कार से ही होता है। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में इसका सर्वप्रथम उल्लेख शतपथ ब्राह्मण में पाया जाता है, इनमें इसके संबंध में जो विवरण पाया जाता है, उसके अनुसार शिशु का पिता जननाशौच काल के व्यतीत होने पर अगले दिन प्रात: काल स्नानादि करके तीन ब्राह्मणों को भोजन कराकर वर्ण तथा लिंग के अनुसार शिशु के नाम का चयन कर उसे रख लेता था।
प्रसवाशौच: नामकरण संस्कार के संदर्भ में गृह्यसूत्रों में प्राप्त संक्षिप्त विवरणों से व्यक्त है कि इससे संबद्ध अनेक आनुष्ठानिक तत्वों का विकास का मात्र उद्देश्य था, प्रसवजन्य अशौच की शुद्धि तथा शिशु को लोकव्यवहार के लिए एक व्यक्तिगत नाम देना। इससे संबद्ध वैदिक मंत्रों का प्रयोग भी सर्वप्रथम गोभिल में ही पाया जाता है। इसकी समयावधि के विषय में मनु दसवें के अतिरिक्त बारहवें अथवा अन्य किसी भी शुभ दिन में इसे किये जाने का विधान करते हैं, पर साथ- ही यह भी उल्लेखनीय है कि अधिकतर गृह्यसूत्रों में ग्यारहवें दिन को ही इसके लिए अधिक उपयुक्त माना गया है।
नामचयन: नवजात शिशु के नामचयन के संदर्भ में वैदिक तथा वैदिकोत्तर साहित्य में अनेक प्रकार का वैविध्य पाया जाता है, पर भाष्य करते हुए सायण ने वैदिक काल में चार प्रकार के नामों के प्रचलन का उल्लेख किया है, जो कि इस प्रकार हुआ करते थे -
(1) शिशु के जन्म के नक्षत्र पर आधारित- नक्षत्र नाम, (2) जातकर्म के समय माता पिता के द्वारा रखा गया- गुप्त नाम, (3) नामकरण संस्कार के समय रखा गया- व्यावहारिक नाम, (4) यज्ञकर्म विशेष के संपादन के आधार पर रखा जाने वाला - याज्ञिक नाम।
किसी बालक या बालिका का नामकरण बच्चे के जन्म नक्षत्र एवं उसके चरनानुसार रखने की परिपाटी भारत-वर्ष में रही है । नक्षत्रों के चरण भी हिंदी वर्णमाला के अनुसार ही अभिव्यक्त किये जाते हैं , अर्थात नक्षत्र के जिस चरण पर बच्चे का जन्म होगा, उसी के अनुसार उसका नाम रखा जाता है ।
नामकरण संस्कार की आनुष्ठानिक प्रक्रिया: जन्म नक्षत्र के अनुसार शिशु का नाम का चयन कर, उसे एक कांसे की थाली या काष्ट पट्टिका पर केसर युक्त चंदन से अथवा रोली से लिखकर उसे एक नूतन वस्र खण्ड से आच्छादित कर देते हैं। कर्मकाण्ड की आनुष्ठानिक औपचारिकताओं को पूरा करने के उपरांत पुरोहित एक श्वेत वस्र खण्ड पर कुंकुम या रोली से शिशु के जन्मनक्षत्रानुरुप नाम के साथ उसके कुलदेवता, जन्ममास से संबद्ध दो अन्य नाम तथा साथ में माता- पिता द्वारा सुझाया गया स्वचयित व्यावहारिक नाम लिखता है। उसे एक शंख में आवेष्टित कर शिशु के कान के पास ले जाकर पिता, माता तथा पारिवारिक वृद्ध जनों के द्वारा इन नामों को अमुक शर्मा / वर्मासि दीर्घायुर्भव कह कर बारी- बारी से उच्चारित किया जाता है।
कई पद्धतियों में जातकर्म के स्थान पर नामकर्म के समय पर शिशु की वाणी में माधुर्य का आधार किये जाने के उद्देश्य से मधुप्राशन कराया जाता है। श्वेत को पवित्रता एवं निर्विकारता का प्रतीक माने जाने के कारण इसके लिए चाँदी के चम्मच का प्रयोग किया जाता है। कतिपय संस्कार पद्धतियों में नामकर्म संबंधी सारी क्रियाओं की समाप्ति पर आचार्य द्वारा शिशु को गोदी में लेकर उसके कान में निम्नलिखित श्लोक का उच्चारण करने तथा अन्य में आचार्य तथा अन्य सभी अभिभावकों के द्वारा उसे हे बाल ! त्वमायुष्मान, वर्चस्वी, तेजस्वी श्रीमान् भूय: कह कर आशीर्वाद देने का भी विधान पाया जाता है। इस प्रकार नामकरण संस्कार के माध्यम से शिशु को समाज से और समाज को शिशु से परिचय कराया जाता है इसलिए शिशु को एक संबोधन शब्द दिया जाता है। तात्पर्य है कि हम शिशु का जो भी नाम रखें उस नाम का गुण, कर्म, विशेषता बताकर उसी अनुरूप जीवन जीने की प्रेरणा देकर, हम बच्चे को जैसा चाहते हैं, उसी अनुरूप बना सकते हैं, ढाल सकते हैं। नाम की विशेषता को उसके जीवन का साँचा बना सकते हैं, और उस साँचे से एक महामानव, देवमानव बना सकते हैं। यथा नाम तथा गुण होता है। इसलिए शिशु को अच्छा नाम देना चाहिए ताकि जीवन भर उसे भाव ऊर्जा मिलती रहे।