प्रथम भाव जन्मकुंडली के प्रथम भाव में मंगल जातक को साहसी, निर्भीक, क्रोधी, किसी हद तक क्रूर बनाता है, पित्त रोग का कारक होता है तथा चिड़चिड़ा स्वभाव वाला बनाता है। उसमें तत्काल निर्णय लेने की क्षमता होती है तथा वह लोगों को प्रभावित करने तथा अपना काम करवाने की योग्यता रखता है। वह अचल संपत्ति उत्तराधिकार से प्राप्त करता है। साथ ही साथ स्वयं के प्रयास से भी निर्माण करता है। परन्तु यदि इस भाव में मंगल नीच का हुआ तो जातक दरिद्र, आलसी, असंतोषी, उग्र स्वभाव का, सुख में कमी, कठोर, दुव्र्यसनी तथा पतित चरित्र वाला बना सकता है। जातक को नेत्रों के कष्ट तथा पांचवें वर्ष में जीवन पर संकट का भय होता है। द्वितीय भाव जन्मकुंडली के दूसरे भाव का मंगल जातक को कृषि से आजीविका प्रदान करता है। चरित्रहीन लोगों से कष्ट पा सकता है। अनावश्यक विश्वास के कारण धन हानि तथा दांतों में कष्ट का भी भय रहता है। परिवार के अन्य सदस्यों का रूखा स्वभाव दुखों का कारण हो सकता है तथा उसके बिजली तथा आग से सावधान रहने की आवश्यकता है। वह तीखे भोजन का शौकीन, चिड़चिड़ा तथा औषधियों और पशुओं से लाभ प्राप्त करता है। जीवन के नवें वर्ष में स्वास्थ्य का तथा 12वें वर्ष में धन की हानि का भय रहता है। तृतीय भाव तृतीय भाव का मंगल जातक को पराक्रमी, शत्रु पर विजय पाने वाला, यु़द्ध कला में निपुण, परिवार जनों से सुख पाने वाला, छोटे भाई के लिए कष्ट का कारण तथा यात्रा का प्रेमी बनाता है। वह राजा अथवा शासन द्वारा सम्मान का अधिकारी होता है, परंतु पीड़ित मंगल मानसिक कष्ट, धन अभाव तथा जीवन के 13वें वर्ष में माता के लिए कष्ट का कारण हो सकता है। चतुर्थ भाव चतुर्थ भाव के मंगल का जातक पत्नी के प्रभाव में रहता है। माता से अप्रसन्न तथा विभिन्न रोगों से पीड़ा प्रदान करता है। जातक व्याकुल, चोर व अग्नि का भय तथा जीवन साथी (पति या पत्नी) से असंतोष का अनुभव करता है। इस भाव में उच्च का मंगल जातक को अचल संपत्ति तथा वैभवशाली वाहन का सुख प्रदान करता है किंतु नीच का मंगल आठ वर्ष की आयु में परिवार में दुर्घटना का कारण होता है। पंचम भाव पंचम भाव का मंगल जातक को शारीरिक रोगों से कष्ट, संतान से चिंता, अग्नि से भय तथा कम अक्ल लोगों से प्रभावित होने वाला बनाता है। जातक परिवार के साथ तीर्थ यात्रा करने वाला, क्रूर, चंचल, पत्नी का गर्भपात से कष्ट की संभावनाओं वाला होता है। जोखिम उठाने वाला, वैभवशाली, शिक्षा में बाधा, अनैतिक कार्य करने वाला तथा जीवन के छठे वर्ष में बिजली अथवा आग से कष्ट पाने वाला होता है। षष्ठम भाव छठे भाव का मंगल जातक को प्रसिद्धि, विद्वानों से मैत्री तथा उपक्रमों में सफलता प्रदान करता है। उनमें विरोधी और प्रतिद्वंद्वियों से सीधे सामना करने की योग्यता होती है। यदि छटे भाव में मंगल नीच का हो या कमजोर हो तो जातक अधीनस्थों व ठगों से छला जाने वाला, माता से सुख में कमी, निर्भीक किन्तु रोगों से कष्ट पाने वाला बनाता है। आयु का 34वां वर्ष लाभकारी होता है। सप्तम भाव सप्तम् भाव में मंगल जातक को साझेदारी से कष्ट, वैवाहिक जीवन में असंतोष अथवा परिवार से दूर आवास दे सकता है। यदि मंगल पीड़ित हो तो विभिन्न प्रकार से कष्ट देता है। जातक अनैतिक कार्यों में लिप्त हो सकता है। नशे आदि व्यसन का आदि हो सकता है। उसे विभिन्न मामलों में अदालत में खींचा जा सकता है। जीवन में समय-समय पर चुनौतियों का सामना करना पड़ता है। आयु के 27वें वर्ष में परिवार में किसी सदस्य के स्वास्थ्य के प्रति कष्टदायक होता है। अष्टम भाव अष्टम् भाव का मंगल जातक को धनवान और नेता बनाता है। उसमें व्यय की उत्कृष्ट ईच्छा होती है तथा वह नेत्र विकार से पीड़ित होता है। उसे अग्नि व अस्त्र से भय रहता है। इस भाव में उच्च का मंगल जातक को पैतृक संपत्ति पाने में सहायक होता है किंतु नीच का मंगल समस्याओं को जन्म देता है। ऐसा जातक बवासीर से पीड़ित तथा सदा आर्थिक समस्याओं से घिरा रहता है। आयु का 25वां वर्ष दुर्भाग्य देने वाला हो सकता है। नवम भाव नवम् भाव में मंगल जातक को झूठा, हठी, क्रूर, संदेही, ईष्र्यालु तथा पिता के प्यार से वंचित रखता है। उच्च का मंगल जातक को प्रसिद्धि, धार्मिक, धनी, दानी, शासन से सम्मानित, बुद्धिमान तथा अपने प्रयास द्वारा कार्यक्षेत्र में उन्नति के शिखर को पाने वाला बनाता है। नीच का मंगल उसे विभिन्न रोगों से पीड़ित, पापमय तथा दुर्भाग्यवान करता है। आयु के 28वें वर्ष में भाग्य लक्ष्मी जी की उस पर विशेष कृपा होती है। दशम भाव दशम् भाव का मंगल जातक को तेजस्वी, विजयी, उदारमना, बलिष्ठ, शक्तिमान तथा विपरीत लिंग वालों को सहज ही प्रभावित करने वाला बनाता है। वह अपने लक्ष्य को प्राप्त करने वाला कोई भी कार्य अधूरा न छोड़ने वाला तथा अपने गुरु व बड़ों का आदर करने वाला होता है। वह धैर्यवान, दूसरों की सहायता करने वाला, दानी तथा अपने पराक्रम द्वारा विद्रोहियों को परास्त करने की क्षमता रखने वाला होता है। वह चुनौतियों को स्वीकार करने वाला तथा अधिकतर अवसरों पर अपनी योग्यता को सिद्ध कर दिखाले वाला होता है। यदि मंगल कमजोर है तो जातक को नशे की लत, व्यापार में नुकसान तथा आयु के 26वें वर्ष में स्वयं पर संकट देता है। एकादश भाव ग्यारवें भाव का मंगल व्यक्ति को धनवान तथा अपनी अधिकांश इच्छाओं व अकांक्षाओं को पूरा करने वाला बनाता है। जातक उदार हृदय, शासन से लाभ पाने वाला, मुख्यतः अपने द्वारा किए गये प्रयासों से लाभान्वित होने वाला तथा प्रभावशाली लोगों से मैत्री रखने वाला होता है, किंतु नीच का मंगल समय-समय पर बाधाएं उत्पन्न करता है। उसे नीतिहीन, दुश्चरित्र मित्रों व संतान द्वारा धनहानि का भय रहता है। जीवन के 24वें वर्ष में वह विशेष लाभ अर्जित करता है। द्वादश भाव बारहवें भाव का मंगल जातक को सम्मान से वंचित तथा दूसरे के धन पर कुदृष्टि रखने वाला बनाता है। ऐसे व्यक्ति में नशे की लत व विवाह से अतिरिक्त संबंध होने की संभावना रहती है। यद्यपि वह परिश्रमी तथा धनसंग्रह की ईच्छा रखने वाला परंतु परिवार, विशेष रूप से पत्नी उसके जीवन की एक बड़ी बाधा होती है। नीच का मंगल होने पर जातक उच्च पद से पतित होता है एवं जेल का कष्ट भी भोगना पड़ सकता है। आयु के 45वें वर्ष में उसे समस्याओं से जूझना पड़ सकता है। विभिन्न राशियों में मंगल का परिण् ााम व प्रभावः मेष मंगल मेष राशि में व्यक्ति को साहसी, यु़द्ध क्षेत्र में विजयी तथा अधिकारियों व शासन से लाभ पाने वाला बनाता है। राजा व शासन से सम्मान, अधिकाधिक धन कमाने वाला तथा जीवन में संपत्ति और समृद्धिवान करता है। मेष राशि का व्यक्ति सदा सदाचारी रहता है किंतु कभी-कभी शारीरिक रोग का भागी होता है। वृष वृष राशि में मंगल व्यक्ति को ज्ञानी, व्यक्तियों का सम्मान करने वाला बनाता है। उसके उद्देश्य सदा सकारात्मक होते हैं। वह सत्य कर्मों में अपने धन को लगाने में रुचि रखता है। वह चिन्तनशील तथा जहां तक हो सके व्यवहारी होने का प्रयास करता है। उसमें वृद्धावस्था के लिए बहुत-सा धन संचय करने की एक महत्वपूर्ण ईच्छा रहती है तथा पत्नी के लिए वह अस्वस्थता का कारक होता है। मिथुन यदि मंगल मिथुन राशि में विराजमान हो तो यह व्यक्ति को भ्रमण प्रिय बनाता है। अतः वह विभिन्न स्थानों से अच्छी तरह परिचित हो जाता है। इस जातक का अपने पिता से हमेशा मतभेद रहता है किंतु अपने उच्चाधिकारियों पर वह अच्छा प्रभाव छोड़ता है। परिजनों से समरूपता का अभाव रहता है। वह बातूनी तथा विभिन्न कलाओं में दक्ष होता है। मंगल की इस राशि में उपस्थिति इसे अतिव्ययी बनाती है। कर्क कर्क राशि में मंगल जातक को वाहन, घर, नौकर, चाकर तथा अचल सम्पत्ति का सुख प्रदान करता है। उसमें अनावश्यक विवादों में पड़ने तथा उसके कारण मानसिक कष्ट भोगने की वृत्ति रहती है। कभी-कभी उसके अवैचारिक कार्य उसके लिए कष्ट का कारण होते हैं तथा पत्नी व संतान से असंतोष भी स्पष्ट दिखाई देता है। सिंह सिंह राशि में मंगल जातक को उच्चाधिकारी तथा दूसरों को सदा ही प्रभावित करने वाला होता है। वह व्यक्ति साहसी, विश्वसनीय, दृढ़ निश्चय वाला तथा नेतृत्व के गुणांे वाला होता है। वह राजा व अधिकारियों का प्रिय, संयमी, भाग्यवान तथा अपने अधिकारों के लिए सदा लड़ने को तैयार रहने वाला होता है। पत्नी या पति द्वारा भाग्य में वृद्धि, किंतु पुत्र से असंतोष, बिजली व आग से कष्ट का भय रहता है। कन्या कन्या राशि का मंगल जातक को चरित्रवान, नैतिक, समर्थ तथा अति धनी बनाता है। वह हंसमुख, प्रसन्नचित्त, हास-परिहास में रुचि वाला तथा दूसरों को सहज ही अपनी ओर कर लेने वाला होता है। विपरीत लिंग वालों से बहुत-सी आशाएं लगाने वाला होता है। जटिल परिस्थितियों के निर्णय में समर्थ किंतु धन का आना कुछ बाधित रहता है। तुला तुला राशि में मंगल जातक को कार्योन्मुख, स्पष्ट व्यवहार वाला, ईमानदार तथा उन्मुक्त स्वभाव वाला बनाता है। उसमें विद्युत गति से निर्णय लेने की शक्ति होती है। वह यात्राओं का प्रेमी तथा नए लोगों से मिलने को सदा आतुर रहता है। इन जातकों में व्यावसायिक समझ सदा सही होती है तथा विपरीत लिंग वालों से संबंधों में भाग्यवान होते हैं। वृश्चिक भाव वृश्चिक राशि में मंगल जातक को अचल संपत्ति से आय प्रदान करता है। वह साहसी, निर्भीक, खतरे उठाने वाला तथा बिना किसी देर के येन केन प्रकारेण सफलता के मार्ग पर बढ़ने वाला होता है। वह अपने इर्द-गिर्द बहुत से शत्रु बना लेता है। किंतु कोई भी उसके सम्मुख होकर उसकी आलोचना नहीं कर पाता। इनकी रुचि व अरुचि अति हद तक बढ़ी होती है। इन्हें जो रुचिकर होता है उस पर वह प्यार व ममता की बौछार कर देते हैं किंतु अरुचि होने पर उनके द्वेष व घृणा की कोई सीमा नहीं रहती तथा तब वह अपने वृश्चिक स्वभाव में आ जाते हैं। धनु भाव धनु राशि का मंगल जातक को सदा सत्य कार्यों में लिप्त तथा अपनी स्पष्ट छवि के प्रति सदा सचेत बनाता है। वह मेहनती व कर्मठ होते हैं तथा एक बार लक्ष्य के प्रति एकाग्र होने पर वह उसे पाने में कोई कसर नहीं छोड़ते। अनावश्यक विवादों से दूर रहने वाले तथा संबंधों में खुलेपन से व्यवहार करने वाले होते हैं। ये धार्मिक प्रवृत्ति तथा पौराणिक ग्रंथों में रुचि लेने वाले होते हैं। मकर मकर राशि में मंगल जातक को विजयी तथा युद्ध भूमि में सम्मान पाने वाला बनाता है। वाद-विवाद में बहुत कुशल तथा कभी भी प्रतिवादी से न हारने वाला होता है। वह उच्च पद प्राप्त करता है। समृद्ध वातावरण में जीवनयापन करता है। अच्छी आय तथा उच्च अधिकारी पद प्राप्त करने में समर्थ होता है। नेतृत्व की योग्यता होती है तथा अपने कार्यों के कारण समाज में ख्याति प्राप्त करता है। कुंभ कुंभ राशि में मंगल जातक को अर्थहीन, वाद-विवादों में लिप्त तथा अलाभकारी उपक्रमों में समय अपव्यय करने वाला बनाता है। यद्यपि सावधान रहते हैं किंतु अपने से संबंध न रखने वाले विषयों में उलझने वाले होते हैं। इनमें धार्मिक कर्मकांडों के विरोध की वृत्ति होती है। परंतु अधार्मिक होने का दिखावा करते हैं जो कि वे वास्तव में नहीं होते। संतान के साथ तालमेल में कमी तथा उन्हें न समझ पाना चिंता का कारण होता है। वह अतिव्ययी व क्रोधी हो सकता है। मीन मीन राशि में मंगल जातक को मानसिक द्वंद्व प्रदान करता है। इनमें दूसरों की सहायता व सत्यकर्म की अटूट ईच्छा होती है। किंतु इनका चित्त विभिन्न विचारों से इतना चिंताग्रस्त रहता है कि वह अपना संयम खोकर कठोर वृत्ति वाला हो जाता है। अव्यावहारिक निवेश उसके दुखों को बढ़ा देते हैं तथा उन्हीं के चलते वह कर्ज के बोझ में भी दब सकते हैं। संतान के लिए चिंता व बिना ईच्छा के परदेश में वास करना पड़ सकता है।

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Friday, 11 September 2015
इंडोनेशिया का शिव मंदिर
भगवान शिव के मंदिर दुनियाभर में मौजूद हैं। जहां भगवान शिव के साथ-साथ कई देवी-देवताओं को अलग-अलग नामों से पूजा जाता है। भगवान शिव का ऐसा ही एक बहुत सुंदर और प्राचीन मंदिर इंडोनेशिया के जावा में है। 10वीं शताब्दी में बना भगवान शिव का यह मंदिर प्रम्बानन मंदिर के नाम से जाना जाता है। शहर से लगभग 17 कि.मी. की दूरी पर स्थित यह मंदिर बहुत सुंदर और प्राचीन होने के साथ-साथ, इससे जुड़ी एक कथा के लिए भी प्रसिद्ध है।
यहां रोरो जोंग्गरंग के पूजा जाता है देवी दुर्गा के रूप में
इस मंदिर में भगवान शिव के साथ एक देवी की भी मूर्ति स्थापित है। उस मूर्ति को देवी दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। यहां पर देवी की स्थापना के पीछे एक कहानी है। कहा जाता है कि एक समय पर जावा का प्रबु बका नाम का एक दैत्य राजा था। उसकी एक बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसका नाम रोरो जोंग्गरंग था। बांडुंग बोन्दोवोसो नाम का एक व्यक्ति रोरो जोंग्गरंग से शादी करना चाहता था, लेकिन रोरो जोंग्गरंग ऐसा नहीं चाहती थी। बांडुंग बोन्दोवोसो के शादी के प्रस्ताव को मना करने के लिए रोरो जोंग्गरंग ने उसके आगे के शर्त रखी। शर्त यह थी कि बांडुंग बोन्दोवोसो को एक ही रात में एक हजार मूर्तियां बनानी थी। अगर वह ऐसा कर दे, तो ही रोरो जोंग्गरंग उससे शादी करेगी। शर्त को पूरा करने के लिए बांडुंग बोन्दोवोसो ने एक ही रात में 999 मूर्तियां बना दी और वह आखिरी मूर्ति बनाने जा रहा था। यह देखकर रोरो जोंग्गरंग ने पूरे शहर के चावल के खेतों में आग लगवा कर दिन के समान उजाला कर दिया। जिस बात से धोखा खा कर बांडुंग बोन्दोवोसो आखरी मूर्ति नहीं बना पाया और शर्त हार गया। जब बांडुंग बोन्दोवोसो को सच्चाई का पता चला, वह बहुत गुस्सा हो गया और उसने रोरो जोंग्गरंग को आखिरी मूर्ति बन जाने का श्राप दे दिया। प्रम्बानन मंदिर में रोरो जोंग्गरंग की उसी मूर्ति को देवी दुर्गा मान कर पूजा जाता है।
स्थानीय लोग कहते हैं इसे रोरो जोंग्गरंग मंदिर
इस मंदिर की कथा रोरो जोंग्गरंग से जुड़ी होने की वजह से यहां के स्थानीय लोग इस मंदिर को रोरो जोंग्गरंग मंदिर के नाम से भी जानते हैं। रोरो जोंग्गरंग मंदिर या प्रम्बानन मंदिर हिंदुओं के साथ-साथ वहां के स्थानीय लोगों के लिए भी भक्ति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है।
ब्रह्मा,विष्णु और शिव तीनों हैं यहां विराजित
प्रम्बानन मंदिर में मुख्य तीन मंदिर हैं- एक भगवान ब्रह्मा का, एक भगवान विष्णु का और एक भगवान शिव का। सभी भगवानों की मूर्तियों के मुंह पूर्व दिशा की ओर है। हर मुख्य मंदिर के सामने पश्चिम दिशा में उससे संबंधित एक मंदिर है। यह मंदिर भगवानों के वाहनों को समर्पित है। भगवान ब्रह्मा के सामने हंस, भगवान विष्णु के लिए गरूड़ और भगवान शिव के लिए नन्दी का मंदिर बना हुआ है। इनके अलावा परिसर में और भी कई मंदिर बने हुए हैं।
ऐसा है यहां का शिव, विष्णु और ब्रह्मा का मंदिर
प्रम्बानन मंदिर स्थित शिव मंदिर बहुत बड़ा और सुंदर है। यह मंदिर तीनों देवों के मंदिरों में से मध्य में है। शिव मंदिर के अंदर चार कमरे हैं। जिनमें से एक में भगवान शिव की विशाल मूर्ति है, दूसरे में भगवान शिव के शिष्य अगस्त्य की मूर्ति है, तीसरे में माता पार्वती की और चौथे में भगवान गणेश की मूर्ति स्थित है। शिव मंदिर के उत्तर में भगवान विष्णु का और दक्षिण में भगवान ब्रह्मा का मंदिर है।
मंदिर की दीवारों पर है रामायण
प्रम्बानन मंदिर की सुंदरता और बनावट देखने लायक है। मंदिर की दीवारों पर हिंदू महाकाव्य रामायण के चित्र भी बने हुए हैं। ये चित्र रामायण की कहानी को दर्शाते हैं। मंदिर की दीवारों पर की हुई यह कलाकारी इस मंदिर को और भी सुंदर और आकर्षक बनाती है।
यहां रोरो जोंग्गरंग के पूजा जाता है देवी दुर्गा के रूप में
इस मंदिर में भगवान शिव के साथ एक देवी की भी मूर्ति स्थापित है। उस मूर्ति को देवी दुर्गा के रूप में पूजा जाता है। यहां पर देवी की स्थापना के पीछे एक कहानी है। कहा जाता है कि एक समय पर जावा का प्रबु बका नाम का एक दैत्य राजा था। उसकी एक बहुत ही सुंदर बेटी थी, जिसका नाम रोरो जोंग्गरंग था। बांडुंग बोन्दोवोसो नाम का एक व्यक्ति रोरो जोंग्गरंग से शादी करना चाहता था, लेकिन रोरो जोंग्गरंग ऐसा नहीं चाहती थी। बांडुंग बोन्दोवोसो के शादी के प्रस्ताव को मना करने के लिए रोरो जोंग्गरंग ने उसके आगे के शर्त रखी। शर्त यह थी कि बांडुंग बोन्दोवोसो को एक ही रात में एक हजार मूर्तियां बनानी थी। अगर वह ऐसा कर दे, तो ही रोरो जोंग्गरंग उससे शादी करेगी। शर्त को पूरा करने के लिए बांडुंग बोन्दोवोसो ने एक ही रात में 999 मूर्तियां बना दी और वह आखिरी मूर्ति बनाने जा रहा था। यह देखकर रोरो जोंग्गरंग ने पूरे शहर के चावल के खेतों में आग लगवा कर दिन के समान उजाला कर दिया। जिस बात से धोखा खा कर बांडुंग बोन्दोवोसो आखरी मूर्ति नहीं बना पाया और शर्त हार गया। जब बांडुंग बोन्दोवोसो को सच्चाई का पता चला, वह बहुत गुस्सा हो गया और उसने रोरो जोंग्गरंग को आखिरी मूर्ति बन जाने का श्राप दे दिया। प्रम्बानन मंदिर में रोरो जोंग्गरंग की उसी मूर्ति को देवी दुर्गा मान कर पूजा जाता है।
स्थानीय लोग कहते हैं इसे रोरो जोंग्गरंग मंदिर
इस मंदिर की कथा रोरो जोंग्गरंग से जुड़ी होने की वजह से यहां के स्थानीय लोग इस मंदिर को रोरो जोंग्गरंग मंदिर के नाम से भी जानते हैं। रोरो जोंग्गरंग मंदिर या प्रम्बानन मंदिर हिंदुओं के साथ-साथ वहां के स्थानीय लोगों के लिए भी भक्ति का एक महत्वपूर्ण केन्द्र है।
ब्रह्मा,विष्णु और शिव तीनों हैं यहां विराजित
प्रम्बानन मंदिर में मुख्य तीन मंदिर हैं- एक भगवान ब्रह्मा का, एक भगवान विष्णु का और एक भगवान शिव का। सभी भगवानों की मूर्तियों के मुंह पूर्व दिशा की ओर है। हर मुख्य मंदिर के सामने पश्चिम दिशा में उससे संबंधित एक मंदिर है। यह मंदिर भगवानों के वाहनों को समर्पित है। भगवान ब्रह्मा के सामने हंस, भगवान विष्णु के लिए गरूड़ और भगवान शिव के लिए नन्दी का मंदिर बना हुआ है। इनके अलावा परिसर में और भी कई मंदिर बने हुए हैं।
ऐसा है यहां का शिव, विष्णु और ब्रह्मा का मंदिर
प्रम्बानन मंदिर स्थित शिव मंदिर बहुत बड़ा और सुंदर है। यह मंदिर तीनों देवों के मंदिरों में से मध्य में है। शिव मंदिर के अंदर चार कमरे हैं। जिनमें से एक में भगवान शिव की विशाल मूर्ति है, दूसरे में भगवान शिव के शिष्य अगस्त्य की मूर्ति है, तीसरे में माता पार्वती की और चौथे में भगवान गणेश की मूर्ति स्थित है। शिव मंदिर के उत्तर में भगवान विष्णु का और दक्षिण में भगवान ब्रह्मा का मंदिर है।
मंदिर की दीवारों पर है रामायण
प्रम्बानन मंदिर की सुंदरता और बनावट देखने लायक है। मंदिर की दीवारों पर हिंदू महाकाव्य रामायण के चित्र भी बने हुए हैं। ये चित्र रामायण की कहानी को दर्शाते हैं। मंदिर की दीवारों पर की हुई यह कलाकारी इस मंदिर को और भी सुंदर और आकर्षक बनाती है।
पेट का रोग: ज्योतिष्य विश्लेषण
संग्रहणी : पेट का गंभीर रोग बैक्टीरिया, कुपोषण, भोजन में मौजूद कुछ विशेष प्रोटीन इसका कारण हो सकते हैं। पाचन तंत्र संबंधी ऐसा रोग जिससे ग्रस्त रोगियों के मुंह तथा आमाशय में पाचक रस का स्त्राव तो समुचित रूप में होता है और भोजन का पाचन भी काफी हद तक ठीक होता है। परंतु उसकी आंतों में पचे हुए भोजन के प्रमुख अंश जैसे वसा, ग्लूकोज, कैल्शियम, कई प्रकार के विटामिन आदि का अवशोषण नहीं हो पाता है। इस रोग में अक्सर पाचन संस्थान से संबंधित सारे अंग (यकृत, अग्नाशय, पित्ताशय आदि) सामान्य ही मिलते हैं। साथ ही रोगी रोग के आक्रमण से पूर्व अथवा बाद में भी सामान्य प्रकृति का हो सकता है। किंतु रोग के आक्रमण के दौरान उसकी आंत्र आहार का अवशोषण किसी अज्ञात कारण के प्रभाव में आकर छोड़ देती है। फिर भी कुछ रोगियों में गंभीर अवस्था के दौरान विटामिन 'बी' समूह का घटक इस रोग की शुरूआत करते देखा गया है। इसलिए कह सकते हैं कि सभी रोगियों के लिए कोई एक निश्चित और स्पष्ट सिद्धांत अभी तक मान्य नहीं है। रोग के लक्षण : जो संग्रहणी रोग के पुराने मरीज हैं, उनमें कुछ लक्षण मिलते हैं जैसे अत्यधिक थकान, मानसिक उदासीनता, अवसाद, वजन का कम होना, भूख की कमी, अफारा आदि। रोग की शांति और पुनरावृत्ति का चक्र चलता रहता है। रोग की गंभीर अवस्था में रोगी को रोजाना 10 या अधिक बार मल त्याग हो सकता है। मल विसर्जन की इच्छा एकाएक तीव्र हो जाती है। उसे रोक पाना मुश्किल हो जाता है। मल की मात्रा सदैव ही ज्यादा रहती है। मल सदैव ही तरल रूप में पीले रंग का, झाग और दुर्गंध युक्त होता है और उसमें वसा की मात्रा बहुत अधिक होती है। मल शौचालय में चिपक जाता है तथा उसे साफ करना मुश्किल होता है। मितली के साथ वमन तथा पेट का फूलना आदि लक्षण भी उत्पन्न हो सकते हैं। रोगी की जीभ भी लाल रंग की घाव युक्त हो सकती है और उसमें दर्द रहता है। रोगी को भोजन निगलने में भी कठिनाई होने लगती है। जैसे जैसे रोग बढ़ता जाता है, रोगी का वजन कम होता जाता है। संग्रहणी रोग के कारण रोगी के शरीर में वसा भंडार बहुत कम रह जाता है। इसके कारण शरीर के सारे आंतरिक अंग सिकुड़कर छोटे होने लग जाते है। संग्रहणी रोग को लक्षणों के आधार पर दो भागों में बांटा गया है। उष्ण कटिबंधीय संग्रहणी और कोथलिक संग्रहणी। उष्ण कटिबंधीय : इस संग्रहणी का मुखय लक्षण दस्त हैं, जो रोग के प्रारंभ में अति तीव्र संखया में अधिक तथा पानी के सामान होते हैं। इसके बाद दस्तों की संखया घटने लग जाती है। किंतु उनका पीला रंग झाग युक्त और मात्रा बढ़ जाती है। दस्तों की तीव्रता के कारण शीघ्र ही विभिन्न पोषक तत्वों का अभाव उत्पन्न हो जाता है। कोथलिक संग्रहणी : इस का प्रमुख लक्षण है कि रोग के आरंभ में ही आंत्र में वसा, प्रोटीन, विटामिन 'बी'12, कार्बोहाइड्रेट और पानी आदि अपर्याप्त अवशोषण होने से ये मल के साथ जाने लगते हैं। मल प्रारंभ में भी अधिक मात्रा में पीला, झाग और दुर्गंध युक्त चिकनाहट वाला होता है। शरीर में वसा में घुलनशील विटामिन ए, बी, के आदि का अवशोषण न हो पाने से इनकी अल्पता होने लग जाती है। कोथलिक संग्रहणी के आधे से अधिक रोगी छोटे बच्चे ही होते हैं।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण : संग्रहणी रोग का मुखय कारण पेट की आंतें हैं। आंत में आहार का अवशोषण किसी जीव विष के कारण होता है। काल पुरुष की कुंडली में षष्ठ भाव पेट की आंतों का होता है, जिसका कारक ग्रह मंगल है। क्योंकि आहार का अवशोषण जीव विष से होता है और विष के कारक ग्रह राहु और केतू हैं, इसलिए यदि कुंडली में लग्नेश, लग्न, षष्ठ भाव, षष्ठेश मंगल, राहु के अशुभ प्रभावों में हों, तो संग्रहणी जैसा रोग जातक को हो जाता है। विभिन्न लग्नों में संग्रहणी रोग : मेष लग्न : शनि युक्त लग्नेश द्वितीय भाव में हो। बुध षष्ठ भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो, तो संग्रहणी रोग होता है। वृष लग्न : गुरु लग्नेश और षष्ठ भाव पर दृष्टि रखे। राहु धनु या मीन राशि में हो कर षष्ठेश पर दृष्टि रखे। लग्नेश पर मंगल की दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। मिथुन लग्न : राहु की षष्ठ में स्थिति या षष्ठ भाव पर दृष्टि होना और मंगल का लग्नेश या लग्न को देखना। गुरु का षष्ठ भाव में होना, शनि के द्वितीय भाव में होने से संग्रहणी रोग हो सकता है। वृष लग्न में गुरु लग्नेश और षष्ठ भाव पर दृष्टि रखे। राहु धनु या मीन राशि में हो कर षष्ठेश पर दृष्टि रखे। लग्नेश पर मंगल की दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र राहु से युक्त या दृष्ट हो, बुध द्वितीय भाव में या षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त न हो। मंगल अष्टम में, शनि 3, 6, 8 भावों में शुक्र से युक्त हो, तो संग्रहणी रोग होता है। सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य राहु से दृष्ट या युक्त हो। लग्न में बुध अस्त हो, मंगल 6 या 8 भाव में हो कर शनि से दृष्ट या युक्त हो। चंद्र शुक्र द्वितीय भाव में हों तो संग्रहणी रोग होने की संभावनाएं होती हैं। कन्या लग्न : लग्नेश बुध मंगल से युक्त या दृष्ट हो। राहु षष्ठ या अष्टम भाव में हो, शेष सभी ग्रह 10, 11, 12, 1, 2, 3 भाव में स्थित हों, जिनमें चंद्र शनि से युक्त या दृष्ट हो, तो संग्रहणी रोग होता है। तुला लग्न : गुरु षष्ठ भाव में राहु से युक्त हो। लग्नेश शुक्र शनि से सप्तम भाव में हो, और राहु से दृष्ट हो। चंद्र भी राहु या गुरु के प्रभाव में हो तो संग्रहणी रोग होता है। वृश्चिक लग्न : बुध द्वितीय भाव में, षष्ठ या अष्टम में हो और राहु से युक्त हो। शनि की लग्न या लग्नेश पर दृष्टि हो और चंद्र लग्न में हो, तो संग्रहणी रोग होता है। धनु लग्न : लग्नेश गुरु चंद्र से युक्त हो कर तृतीय, षष्ठ या अष्टम भाव में हो कर राहु से युक्त हो। शनि लग्न को देखता हो और बुध द्वितीय भाव या पंचम भाव में हो तो संग्रहणी रोग होता है। मकर लग्न : शनि त्रिक भावों में, राहु धनु या मीन राशि में हो और गुरु से दृष्ट हो। गुरु सप्तम या अष्टम भाव में हो कर चंद्र से युक्त हो। लग्नेश शनि पर मंगल की सातवीं या आठवीं दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। कुंभ लग्न : राहु षष्ठ भाव में हो। चंद्र शनि से युक्त हो कर पंचम, सप्तम या अष्टम भाव में हो। मंगल सप्तम भाव में, अष्टम भाव में या एकादश भाव में हो, तो संग्रहणी रोग हो सकता है। मीन लग्न : शुक्र षष्ठ भाव, सूर्य अष्टम भाव में, शनि लग्न में या लग्न को देखे, लग्नेश अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो। राहु लग्न में या षष्ठ भाव पर दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा और गोचर के प्रतिकूल होने पर ही रोग होता है।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण : संग्रहणी रोग का मुखय कारण पेट की आंतें हैं। आंत में आहार का अवशोषण किसी जीव विष के कारण होता है। काल पुरुष की कुंडली में षष्ठ भाव पेट की आंतों का होता है, जिसका कारक ग्रह मंगल है। क्योंकि आहार का अवशोषण जीव विष से होता है और विष के कारक ग्रह राहु और केतू हैं, इसलिए यदि कुंडली में लग्नेश, लग्न, षष्ठ भाव, षष्ठेश मंगल, राहु के अशुभ प्रभावों में हों, तो संग्रहणी जैसा रोग जातक को हो जाता है। विभिन्न लग्नों में संग्रहणी रोग : मेष लग्न : शनि युक्त लग्नेश द्वितीय भाव में हो। बुध षष्ठ भाव में राहु से युक्त या दृष्ट हो, तो संग्रहणी रोग होता है। वृष लग्न : गुरु लग्नेश और षष्ठ भाव पर दृष्टि रखे। राहु धनु या मीन राशि में हो कर षष्ठेश पर दृष्टि रखे। लग्नेश पर मंगल की दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। मिथुन लग्न : राहु की षष्ठ में स्थिति या षष्ठ भाव पर दृष्टि होना और मंगल का लग्नेश या लग्न को देखना। गुरु का षष्ठ भाव में होना, शनि के द्वितीय भाव में होने से संग्रहणी रोग हो सकता है। वृष लग्न में गुरु लग्नेश और षष्ठ भाव पर दृष्टि रखे। राहु धनु या मीन राशि में हो कर षष्ठेश पर दृष्टि रखे। लग्नेश पर मंगल की दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र राहु से युक्त या दृष्ट हो, बुध द्वितीय भाव में या षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त न हो। मंगल अष्टम में, शनि 3, 6, 8 भावों में शुक्र से युक्त हो, तो संग्रहणी रोग होता है। सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य राहु से दृष्ट या युक्त हो। लग्न में बुध अस्त हो, मंगल 6 या 8 भाव में हो कर शनि से दृष्ट या युक्त हो। चंद्र शुक्र द्वितीय भाव में हों तो संग्रहणी रोग होने की संभावनाएं होती हैं। कन्या लग्न : लग्नेश बुध मंगल से युक्त या दृष्ट हो। राहु षष्ठ या अष्टम भाव में हो, शेष सभी ग्रह 10, 11, 12, 1, 2, 3 भाव में स्थित हों, जिनमें चंद्र शनि से युक्त या दृष्ट हो, तो संग्रहणी रोग होता है। तुला लग्न : गुरु षष्ठ भाव में राहु से युक्त हो। लग्नेश शुक्र शनि से सप्तम भाव में हो, और राहु से दृष्ट हो। चंद्र भी राहु या गुरु के प्रभाव में हो तो संग्रहणी रोग होता है। वृश्चिक लग्न : बुध द्वितीय भाव में, षष्ठ या अष्टम में हो और राहु से युक्त हो। शनि की लग्न या लग्नेश पर दृष्टि हो और चंद्र लग्न में हो, तो संग्रहणी रोग होता है। धनु लग्न : लग्नेश गुरु चंद्र से युक्त हो कर तृतीय, षष्ठ या अष्टम भाव में हो कर राहु से युक्त हो। शनि लग्न को देखता हो और बुध द्वितीय भाव या पंचम भाव में हो तो संग्रहणी रोग होता है। मकर लग्न : शनि त्रिक भावों में, राहु धनु या मीन राशि में हो और गुरु से दृष्ट हो। गुरु सप्तम या अष्टम भाव में हो कर चंद्र से युक्त हो। लग्नेश शनि पर मंगल की सातवीं या आठवीं दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। कुंभ लग्न : राहु षष्ठ भाव में हो। चंद्र शनि से युक्त हो कर पंचम, सप्तम या अष्टम भाव में हो। मंगल सप्तम भाव में, अष्टम भाव में या एकादश भाव में हो, तो संग्रहणी रोग हो सकता है। मीन लग्न : शुक्र षष्ठ भाव, सूर्य अष्टम भाव में, शनि लग्न में या लग्न को देखे, लग्नेश अष्टम भाव में सूर्य से अस्त हो। राहु लग्न में या षष्ठ भाव पर दृष्टि हो, तो संग्रहणी रोग होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा और गोचर के प्रतिकूल होने पर ही रोग होता है।
हिस्टीरिया का रोग: ज्योतिष्य विश्लेषण
वैज्ञानिक फ्रॉयड ने पहली बार यह सिद्ध किया कि हिस्टीरिया भी एक आत्मरति है, जो विशेष श्रेणी के स्त्री-पुरुषों में अपने आप होती है; अर्थात ऐसे स्त्री-पुरुष जिनमें यौन का आवेश दमित होता है।
विवाह में विलंब, पति की पौरुषहीनता, तलाक, मृत्यु, गंभीर आघात, धन हानि, मासिक धर्म विकार, संतान न होना, गर्भाशय की बीमारियां, पति की अवेहलना या दुर्व्यवहार आदि कई कारणों से स्त्रियां इस रोग में ग्रस्त हो जाती हैं। इस रोग का वेग या दौरा सदा किसी दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति में होता है। कभी किसी अकेली स्त्री को हिस्टीरिया का दौरा नहीं पड़ता। जिन स्त्रियों को यह विश्वास होता है कि उनका कोई संरक्षण, पालन, परवाह एवं देखभाल करने वाला है, उन्हें ही यह रोग होता है। यदि, इसके विपरीत, रोगी को विश्वास हो जाए कि किसी को उसकी चिंता नहीं है और कोई उसके प्रति सद्भावना-सहानुभूति नहीं रखता है और न कोई देखभाल करने वाला है तो उस स्त्री का यह रोग अपने आप ठीक हो जाता है। आयुर्वेद के अनुसार ज्ञानवाही नाड़ियों में तमोगुण एवं वात तथा रूखेपन की वृद्धि हो कर चेतना में शिथिलता, अथवा निष्क्रियता आ जाने से यह रोग होता है। इस रोग की शुरुआत से पूर्व, या रोग होने पर किसी अंग विशेष, स्नायु, वातवाहिनी में या अन्य कहीं क्या विकार हो गया है, यह पता नहीं चलता।
हिस्टीरिया के लक्षण :
इस रोग के कोई निश्चित लक्षण नही होते, जिससे यह कहा जा सके कि रोग हिस्टीरिया ही है। अलग-अलग समय अलग- अलग लक्षण होते हैं। किन्हीं दो रोगियों के एक से लक्षण नहीं होते। रोगी जैसी कल्पना करता है, वैसे ही लक्षण दिखाई पड़ते हैं। साधारणतः रोगी बिना कारण, या बहुत मामूली कारणों से, हंसने या रोने लगता है। प्रकाश या किसी प्रकार की आवाज उसे अप्रिय लगते हैं। सिर, छाती, पेट, शरीर की संधि, रीढ़ तथा कंधों की मांसपेशियों में काफी वेदना होने लगती है। प्रायः दौरे से पहले रोगी चीखता, किलकारी भरता है तथा उसे लगातार हिचकियां आती रहती हैं। मूर्च्छा में रोगी के दांत भी भिंच सकते है।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण :
विवाह में विलंब, पति की पौरुषहीनता, तलाक, मृत्यु, गंभीर आघात, धन हानि, मासिक धर्म विकार, संतान न होना, गर्भाशय की बीमारियां, पति की अवेहलना या दुर्व्यवहार आदि कई कारणों से स्त्रियां इस रोग में ग्रस्त हो जाती हैं। इस रोग का वेग या दौरा सदा किसी दूसरे व्यक्ति की उपस्थिति में होता है। कभी किसी अकेली स्त्री को हिस्टीरिया का दौरा नहीं पड़ता। जिन स्त्रियों को यह विश्वास होता है कि उनका कोई संरक्षण, पालन, परवाह एवं देखभाल करने वाला है, उन्हें ही यह रोग होता है। यदि, इसके विपरीत, रोगी को विश्वास हो जाए कि किसी को उसकी चिंता नहीं है और कोई उसके प्रति सद्भावना-सहानुभूति नहीं रखता है और न कोई देखभाल करने वाला है तो उस स्त्री का यह रोग अपने आप ठीक हो जाता है। आयुर्वेद के अनुसार ज्ञानवाही नाड़ियों में तमोगुण एवं वात तथा रूखेपन की वृद्धि हो कर चेतना में शिथिलता, अथवा निष्क्रियता आ जाने से यह रोग होता है। इस रोग की शुरुआत से पूर्व, या रोग होने पर किसी अंग विशेष, स्नायु, वातवाहिनी में या अन्य कहीं क्या विकार हो गया है, यह पता नहीं चलता।
हिस्टीरिया के लक्षण :
इस रोग के कोई निश्चित लक्षण नही होते, जिससे यह कहा जा सके कि रोग हिस्टीरिया ही है। अलग-अलग समय अलग- अलग लक्षण होते हैं। किन्हीं दो रोगियों के एक से लक्षण नहीं होते। रोगी जैसी कल्पना करता है, वैसे ही लक्षण दिखाई पड़ते हैं। साधारणतः रोगी बिना कारण, या बहुत मामूली कारणों से, हंसने या रोने लगता है। प्रकाश या किसी प्रकार की आवाज उसे अप्रिय लगते हैं। सिर, छाती, पेट, शरीर की संधि, रीढ़ तथा कंधों की मांसपेशियों में काफी वेदना होने लगती है। प्रायः दौरे से पहले रोगी चीखता, किलकारी भरता है तथा उसे लगातार हिचकियां आती रहती हैं। मूर्च्छा में रोगी के दांत भी भिंच सकते है।
ज्योतिषीय दृष्टिकोण :
वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हम इस तथ्य पर पहुंचे कि हिस्टीरिया उन स्त्री-पुरुषों को होता है जिनके यौन का आवेश दमित रहता है और शारीरिक रूप से वे असंतुष्ट रहते हैं। ज्योतिष में कुंडली का बारहवां भाव यौन सुख का होता है और सप्तम भाव जीवन साथी, अर्थात पति/पत्नी का होता है। इन दोनों भावों के शुभ प्रभावों में रहने से जातक यौन सुख का पूर्ण आनंद उठाता है। इसलिए ज्योतिष दृष्टिकोण से देखें, तो सप्तम भाव, सप्तमेश, द्वादश भाव और द्वादशेश अगर अशुभ प्रभावों में हैं, तो हिस्टीरिया रोग हो सकता है। इसके साथ, क्योंकि इसमें दौरा पड़ता है, इसलिए सूर्य, मंगल, चंद्र और लग्नेश के अशुभ प्रभावों में रहना जातक को हिस्टीरिया रोग से पीड़ित करता है।
विभिन्न लग्नों में हिस्टीरिया रोग
मेष लग्न : सप्तमेश छठे भाव में लग्नेश से युक्त, बुध अष्टम भाव में गुरु से युक्त हो, द्वादश भाव में चंद्र केतु से युक्त या दृष्ट हो, तो हिस्टीरिया रोग होने की संभावना होती है।
वृष लग्न : मंगल अष्टम् भाव में सूर्य से अस्त हो और बुध से युक्त हो, चंद्र सप्तम भाव में हो, और राहु-केतु से युक्त हो, लग्नेश शनि से युक्त, या दृष्ट हो और लग्न गुरु से दृष्ट हो, तो हिस्टीरिया रोग हो सकता है।
मिथुन लग्न : सप्तमेश केंद्र में चंद्र से दृष्ट या युक्त हो, द्वादशेश और लग्नेश मंगल से दृष्ट हों, बुध त्रिक भावों में अस्त हो, द्वादश भाव में केतु हो, तो जातक की कामेच्छा दमित रहती है, जिससे हिस्टीरिया रोग हो सकता है।
कर्क लग्न : शनि सूर्य से अस्त हो, लग्नेश राहु और केतु से दृष्ट या युक्त हो, बुध अस्त हो, मंगल-गुरु षष्ठ भाव में हों, तो जातक की यौन इच्छा दमित रहती है।
सिंह लग्न : शनि सप्तम भाव में राहु से दृष्ट हो और सूर्य शनि से दृष्ट हो, चंद्र त्रिकोण भाव में मंगल से युक्त हो और द्वादश भाव में शुक्र की दृष्टि हो, तो जातक को हिस्टीरिया रोग हो सकता है।
कन्या लग्न : गुरु (सप्मेश) द्वादश भाव में मंगल से दृष्ट या युक्त हो, सप्तम भाव केतु से दृष्ट हो, सूर्य पंचम भाव में और चंद्र सप्तम भाव में हों, बुध षष्ठ भाव में अस्त हो, तो जातक की कामेच्छा दमित होने से शारीरिक विकृतियां होती हैं।
तुला लग्न : शुक्र षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त हो, केतु लग्न में चंद्र से युक्त हो, सप्तमेश द्वादश भाव में गुरु से दृष्ट, या युक्त हो, शनि शुभ प्रभावों से रहित हो, तो जातक अपनी कामेच्छा पूर्ण नहीं कर पाता।
वृश्चिक लग्न : शुक्र त्रिक स्थानों में, गुरु-केतु द्वादश भाव में हों, या दृष्टि रखें, लग्नेश अस्त हो, सूर्य सप्तम भाव में, या दृष्टि रखे, चंद्र राहु-केतु से दृष्ट हो, तो यौन इच्छाएं दमित होती हैं।
धनु लग्न : सप्तमेश बुध द्वादश भाव में, सूर्य एकादश भाव में हों, शुक्र लग्न में चंद्र से युक्त हो और केतु से दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में और शनि सप्तम भाव पर दृष्टि रखें, तो जातक को हिस्टीरिया हो सकता है।
मकर लग्न : गुरु लग्न में और मंगल से दृष्ट हो, केतु द्वादश भाव में चंद्र से युक्त हो, बुध सप्तम भाव में, शुक्र षष्ट भाव में अस्त हो, तो जातक शारीरिक रूप से असंतुष्ट रहता है।
कुंभ लग्न : सप्तमेश सूर्य और द्वादशेश शनि षष्ठ भाव में हों और शनि अस्त हो, चंद्र लग्न में राहु-केतु से युक्त, या दृष्ट हो, गुरु सप्तम भाव में हो, या दृष्टि रखे, मंगल द्वादश भाव में हो, तो जातक की यौन इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती।
मीन लग्न : गुरु (लग्नेश) षष्ठ भाव में अस्त हो, बुध पंचम भाव में शुक्र से युक्त हो, शनि द्वादश भाव में केतु से दृष्ट, या युक्त हो, चंद्र अष्टम भाव में मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, तो जातक हिस्टीरिया जैसे रोग से ग्रस्त हो सकता है। उपर्युक्त सभी योग संबंधित ग्रह की दशा-अंतर्दशा में और गोचर के अनुसार होते हैं।
मेष लग्न : सप्तमेश छठे भाव में लग्नेश से युक्त, बुध अष्टम भाव में गुरु से युक्त हो, द्वादश भाव में चंद्र केतु से युक्त या दृष्ट हो, तो हिस्टीरिया रोग होने की संभावना होती है।
वृष लग्न : मंगल अष्टम् भाव में सूर्य से अस्त हो और बुध से युक्त हो, चंद्र सप्तम भाव में हो, और राहु-केतु से युक्त हो, लग्नेश शनि से युक्त, या दृष्ट हो और लग्न गुरु से दृष्ट हो, तो हिस्टीरिया रोग हो सकता है।
मिथुन लग्न : सप्तमेश केंद्र में चंद्र से दृष्ट या युक्त हो, द्वादशेश और लग्नेश मंगल से दृष्ट हों, बुध त्रिक भावों में अस्त हो, द्वादश भाव में केतु हो, तो जातक की कामेच्छा दमित रहती है, जिससे हिस्टीरिया रोग हो सकता है।
कर्क लग्न : शनि सूर्य से अस्त हो, लग्नेश राहु और केतु से दृष्ट या युक्त हो, बुध अस्त हो, मंगल-गुरु षष्ठ भाव में हों, तो जातक की यौन इच्छा दमित रहती है।
सिंह लग्न : शनि सप्तम भाव में राहु से दृष्ट हो और सूर्य शनि से दृष्ट हो, चंद्र त्रिकोण भाव में मंगल से युक्त हो और द्वादश भाव में शुक्र की दृष्टि हो, तो जातक को हिस्टीरिया रोग हो सकता है।
कन्या लग्न : गुरु (सप्मेश) द्वादश भाव में मंगल से दृष्ट या युक्त हो, सप्तम भाव केतु से दृष्ट हो, सूर्य पंचम भाव में और चंद्र सप्तम भाव में हों, बुध षष्ठ भाव में अस्त हो, तो जातक की कामेच्छा दमित होने से शारीरिक विकृतियां होती हैं।
तुला लग्न : शुक्र षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त हो, केतु लग्न में चंद्र से युक्त हो, सप्तमेश द्वादश भाव में गुरु से दृष्ट, या युक्त हो, शनि शुभ प्रभावों से रहित हो, तो जातक अपनी कामेच्छा पूर्ण नहीं कर पाता।
वृश्चिक लग्न : शुक्र त्रिक स्थानों में, गुरु-केतु द्वादश भाव में हों, या दृष्टि रखें, लग्नेश अस्त हो, सूर्य सप्तम भाव में, या दृष्टि रखे, चंद्र राहु-केतु से दृष्ट हो, तो यौन इच्छाएं दमित होती हैं।
धनु लग्न : सप्तमेश बुध द्वादश भाव में, सूर्य एकादश भाव में हों, शुक्र लग्न में चंद्र से युक्त हो और केतु से दृष्ट हो, मंगल अष्टम भाव में और शनि सप्तम भाव पर दृष्टि रखें, तो जातक को हिस्टीरिया हो सकता है।
मकर लग्न : गुरु लग्न में और मंगल से दृष्ट हो, केतु द्वादश भाव में चंद्र से युक्त हो, बुध सप्तम भाव में, शुक्र षष्ट भाव में अस्त हो, तो जातक शारीरिक रूप से असंतुष्ट रहता है।
कुंभ लग्न : सप्तमेश सूर्य और द्वादशेश शनि षष्ठ भाव में हों और शनि अस्त हो, चंद्र लग्न में राहु-केतु से युक्त, या दृष्ट हो, गुरु सप्तम भाव में हो, या दृष्टि रखे, मंगल द्वादश भाव में हो, तो जातक की यौन इच्छा पूर्ण नहीं हो पाती।
मीन लग्न : गुरु (लग्नेश) षष्ठ भाव में अस्त हो, बुध पंचम भाव में शुक्र से युक्त हो, शनि द्वादश भाव में केतु से दृष्ट, या युक्त हो, चंद्र अष्टम भाव में मंगल से दृष्ट, या युक्त हो, तो जातक हिस्टीरिया जैसे रोग से ग्रस्त हो सकता है। उपर्युक्त सभी योग संबंधित ग्रह की दशा-अंतर्दशा में और गोचर के अनुसार होते हैं।
राहु की महादशा
राहु की दृष्टि कुंडली के पंचम, सप्तम और नवम भाव पर पड़ती है। जिन भावों पर राहु की दृष्टि का प्रभाव पड़ता है, वे राहु की महादशा में अवश्य प्रभावित होते हैं।
राहु की महादशा 18 वर्ष की होती है। राहु में राहु की अंतर्दशा का काल 2 वर्ष 8 माह और 12 दिन का होता है। इस अवधि में राहु से प्रभावित जातक को अपमान और बदनामी का सामना करना पड़ सकता है। विष और जल के कारण पीड़ा हो सकती है। विषाक्त भोजन, से स्वास्थ्य प्रभावित हो सकता है। इसके अतिरिक्त अपच, सर्पदंश, परस्त्री या पर पुरुष गमन की आशंका भी इस अवधि में बनी रहती है। अशुभ राहु की इस अवधि में जातक के किसी प्रिय से वियोग, समाज में अपयश, निंदा आदि की संभावना भी रहती है। किसी दुष्ट व्यक्ति के कारण उस परेशानियों का भी सामना करना पड़ सकता है।
उपाय:
भगवान शिव के रौद्र अवतार भगवान भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढ़ाएं और तेल का दीपक जलाएं।
शराब का सेवन न करें।
लावारिस शव के दाह-संस्कार के लिए शमशान में लकड़िया दान करें।
अप्रिय वचनों का प्रयोग न करें।
राहु में बृहस्पति:
भगवान शिव के रौद्र अवतार भगवान भैरव के मंदिर में रविवार को शराब चढ़ाएं और तेल का दीपक जलाएं।
शराब का सेवन न करें।
लावारिस शव के दाह-संस्कार के लिए शमशान में लकड़िया दान करें।
अप्रिय वचनों का प्रयोग न करें।
राहु में बृहस्पति:
राहु की महादशा में गुरु की अंतर्दशा की यह अवधि दो वर्ष चार माह और 24 दिन की होती है।
राक्षस प्रवृत्ति के ग्रह राहु और देवताओं के गुरु बृहस्पति का यह संयोग सुखदायी होता है। जातक के मन में श्रेष्ठ विचारों का संचार होता है और उसका शरीर स्वस्थ रहता है। धार्मिक कार्यों में उसका मन लगता है। यदि कुंडली में गुरु अशुभ प्रभाव में हो, राहु के साथ या उसकी दृष्टि में हो तो उक्त फल का अभाव रहता है। ऐसी स्थिति में निम्नांकित उपाय करने चाहिए।
किसी अपंग छात्र की पढ़ाई या इलाज में सहायता करें।
शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं।
शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगाएं।
पीले रंग के फूलों से शिव पूजन करें।
राहु में शनि:
शैक्षणिक संस्था के शौचालयों की सफाई की व्यवस्था कराएं।
शिव मंदिर में नित्य झाड़ू लगाएं।
पीले रंग के फूलों से शिव पूजन करें।
राहु में शनि:
राहु में शनि की अंतदर्शा का काल 2 वर्ष 10 माह और 6 दिन का होता है। इस अवधि में परिवार में कलह की स्थिति बनती है। तलाक भाई, बहन और संतान से अनबन, नौकरी में या अधीनस्थ नौकर से संकट की संभावना रहती है। शरीर में अचानक चोट या दुर्घटना के दुर्योग, कुसंगति आदि की संभावना भी रहती है। साथ ही वात और पित्त जनित रोग भी हो सकता है।
दो अशुभ ग्रहों की दशा-अंतर्दशा कष्ट कारक हो सकती है। इससे बचने के लिए निम्न उपाय अवश्य करने चाहिए।
भगवान शिव की शमी के पत्रों से पूजा और शिव सहस्रनाम का पाठ करना चाहिए।
महामृत्युंजय मंत्र के जप स्वयं, अथवा किसी योग्य विद्वान ब्राह्मण से कराएं। जप के पश्चात् दशांश हवन कराएं जिसमें जायफल की आहुतियां अवश्य दें।
नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं।
काले तिल से शिव का पूजन करें।
राहु में बुध:
नवचंडी का पूर्ण अनुष्ठान करते हुए पाठ एवं हवन कराएं।
काले तिल से शिव का पूजन करें।
राहु में बुध:
राहु की महादशा में बुध की अंतर्दशा की अवधि 2 वर्ष 3 माह और 6 दिन की होती है। इस समय धन और पुत्र की प्राप्ति के योग बनते हैं। राहु और बुध की मित्रता के कारण मित्रों का सहयोग प्राप्त होता है। साथ ही कार्य कौशल और चतुराई में वृद्धि होती है। व्यापार का विस्तार होता है और मान, सम्मान यश और सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।
उपाय:
भगवान गणेश को शतनाम सहित दूर्वाकुंर चढ़ाते रहें।
हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं।
कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं।
पक्षी को हरी मूंग खिलाएं।
राहु में केतु:
हाथी को हरे पत्ते, नारियल गोले या गुड़ खिलाएं।
कोढ़ी, रोगी और अपंग को खाना खिलाएं।
पक्षी को हरी मूंग खिलाएं।
राहु में केतु:
राहु की महादशा में केतु की यह अवधि शुभ फल नहीं देती है। एक वर्ष और 18 दिन की इस अवधि के दौरान जातक को सिर में रोग, ज्वर, शत्रुओं से परेशानी, शस्त्रों से घात, अग्नि से हानि, शारीरिक पीड़ा आदि का सामना करना पड़ता है। रिश्तेदारों और मित्रों से परेशानियां व परिवार में क्लेश भी हो सकता है।
उपाय:
भैरवजी के मंदिर में ध्वजा चढ़ाएं। कुत्तों को रोटी, ब्रेड या बिस्कुट खिलाएं।
कौओं को खीर-पूरी खिलाएं।
घर या मंदिर में गुग्गुल का धूप करें।
राहु में शुक्र:
कौओं को खीर-पूरी खिलाएं।
घर या मंदिर में गुग्गुल का धूप करें।
राहु में शुक्र:
राहु की महादशा में शुक्र की प्रत्यंतर दशा पूरे तीन वर्ष चलती है। इस अवधि में शुभ स्थिति में दाम्पत्य जीवन में सुख मिलता है। वाहन और भूमि की प्राप्ति तथा भोग-विलास के योग बनते हैं। यदि शुक्र और राहु शुभ नहीं हों तो शीत संबंधित रोग, बदनामी और विरोध का सामना करना पड़ सकता है। इस अवधि में अनुकूलता और शुभत्व की प्राप्ति के लिए निम्न उपाय करें-
सांड को गुड़ या घास खिलाएं।
शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें और वस्त्र आदि दें।
एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें।
स्फटिक की माला धारण करें।
राहु में सूर्य:
शिव मंदिर में स्थित नंदी की पूजा करें और वस्त्र आदि दें।
एकाक्षी श्रीफल की स्थापना कर पूजा करें।
स्फटिक की माला धारण करें।
राहु में सूर्य:
राहु की महादशा में सूर्य की अंतर्दशा की अवधि 10 माह और 24 दिन की होती है, जो अन्य ग्रहों की तुलना में सर्वाधिक कम है। इस अवधि में शत्रुओं से संकट, शस्त्र से घात, अग्नि और विष से हानि, आंखों में रोग, राज्य या शासन से भय, परिवार में कलह आदि हो सकते हैं। सामान्यतः यह समय अशुभ प्रभाव देने वाला ही होता है।
उपाय:
इस अवधि में सूर्य को अघ्र्य दें। उनका पूजन एवं उनके मंत्र का नित्य जप करें।
हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें।
चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें।
हरिवंश पुराण का पाठ या श्रवण करते रहें।
चाक्षुषोपनिषद् का पाठ करें।
राहु में चंद्र:
एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है।
एक वर्ष 6 माह की इस अवधि में जातक को असीम मानसिक कष्ट होता है। इस अवधि में जीवन साथी से अनबन, तलाक या मृत्यु भी हो सकती है। लोगों से मतांतर, आकस्मिक संकट एवं जल जनित पीड़ा की संभावना भी रहती है। इसके अतिरिक्त पशु या कृषि की हानि, धन का नाश, संतान को कष्ट और मृत्युतुल्य पीड़ा भी हो सकती है।
उपाय:
राहु और चंद्र की दशा में उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से बचने के लिए माता की सेवा करें।
माता की उम्र वाली महिलाओं का सम्मान और सेवा करें।
प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें।
चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें।
राहु और चंद्र की दशा में उत्पन्न होने वाली विषम परिस्थितियों से बचने के लिए माता की सेवा करें।
माता की उम्र वाली महिलाओं का सम्मान और सेवा करें।
प्रत्येक सोमवार को भगवान शिव का शुद्ध दूध से अभिषेक करें।
चांदी की प्रतिमा या कोई अन्य वस्तु मौसी, बुआ या बड़ी बहन को भेंट करें।
राहु में मंगल:
राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते है । इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।
राहु की महादशा में मंगल की अंतर्दशा का यह समय एक वर्ष 18 दिन का होता है। इस काल में शासन व अग्नि से भय, चोरी, अस्त्र शस्त्र से चोट, शारीरिक पीड़ा, गंभीर रोग, नेत्रों को पीड़ा आदि हो सकते है । इस अवधि में पद एवं स्थान परिवर्तन तथा भाई को या भाई से पीड़ा की संभावना भी रहती है।
सर्दी-जुकाम जैसी बिमारियों का ज्योतिष्य उपाय और कारण
नजला-जुकाम एक बहुत ही आम और हमेशा परेशान करने वाला रोग है। वास्तव में यह रोग नहीं, शरीर की एक सांवेदनिक प्रतिक्रिया है, जो मौसम बदलने, नाक में धूल कण जाने आदि से उत्पन्न होती है। पूरे विश्व के लोग कभी न कभी, इसके शिकार होते ही हैं। नज़ला-जुकाम शीत के कारण होने वाला एक ऐसा रोग है, जिसमें नाक से पानी बहने लगता है। मामूली- सा दिखने वाला यह रोग, कफ की अधिकता के कारण अधिक कष्टदायक हो जाता है। यों तो ऋतु आदि के प्रभाव से दोष संचय काल में संचित हो कर अपने प्रकोप काल में ही कुपित होते हैं, परंतु दोषों के प्रकोपक कारणों की अधिकता, या प्रबलता के कारण तत्काल भी कुपित हो जाते हैं, जिससे जुकाम हो जाता है; अर्थात नज़ला-जुकाम शीत काल के अतिरिक्त भी हो सकता है।
नजला-जुकाम के प्रमुख कारण : नजला-जुकाम मस्तिष्कजन्य रोग होते हुए भी इस रोग का मूल कारण अग्नि है; अर्थात जब जठराग्नि मंद होती है, तो इसमें अजीर्ण हो जाता है। पाचन क्रिया बिगड़ जाती है और भोजन ठीक से पच नहीं पाता एवं कब्ज हो जाने के कारण उपचय पदार्थ का विसर्जन नही होता, जिसके कारण जुकाम की उत्पत्ति होती है क्योंकि शरीर में एकत्रित विजातीय तत्व जब अन्य रास्तों से बाहर नहीं निकल पाते, तो वे जुकाम के रूप में नाक से निकलने लगते हैं। यह जुकाम अत्यधिक कष्टदायक होता है। इससे सिर, नाक, कान, गला तथा नेत्र के विकार उत्पन्न होने लगते हैं।
जुकाम का कारण मानसिक गड़बड़ी भी देखा गया है। इसके अतिरिक्त अन्य कारण हैं। मल, मूत्र, छींक, खांसी आदि वेगों को रोकना, नाक में धूल कण का प्रवेश होना, अधिक बोलना, क्रोध करना, अधिक सोना, अधिक जागरण करना, शीतल जल और ठंडे पेय पीना, अति मैथुन करना, रोना, धुएं आदि से मस्तिष्क में कफ जम जाना। साथ ही साथ मस्तिष्क में वायु की वृद्धि हो जाती है। तब ये दोनों दोष मिल कर नजला-जुकाम व्याधि उत्पन्न करते हैं।
जुकाम को साधारण रोग मान कर उसकी उपेक्षा करने से यह अति तकलीफदह हो जाता है; साथ ही अन्य विकार भी उत्पन्न होने लगते हैं। जुकाम बिगड़ने पर वह नजले का रूप धारण कर लेता है।
नजला हो जाने पर नाक में श्वास का अवरोध, नाक से हमेशा पानी बहना, नाक पक जाना, बाहरी गंध का ज्ञान न होना, मुख की दुर्गंध आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
कष्टदायी है जुकाम का बिगड़ना : जुकाम के बिगड़ जाने की अवस्था के बाद मस्तिष्क की अनेक व्याधियां होती हैं, जो कष्टदायी हो जाती हैं। इस रोग के कारण बहरापन, कान के पर्दे में छेद तथा कान, नाक, तालु, श्वास नलिका में कैंसर होने की संभावना रहती है। अंधापन भी उत्पन्न हो जाता है। कहा जाता है कि नजले ने शरीर के जिस अंग में अपना आश्रय बना लिया, वही अंग वह खा गया। दांतों में घुस गया, तो दांत गये, कान में गया, तो कान गये, आंखों में गया, तो आंखे गयी, छाती में जमा हो, तो दमा और कैंसर जैसी व्याधियां उत्पन्न कर देता है। सिर पर गया, तो बाल गये।
ज्योतिषीय कारण : यों तो यह रोग आम तौर पर सभी को कभी-कभी होता ही है, लेकिन फिर भी कुछ लोग इससे विशेष प्रभावित रहते हैं और जिंदगी भर इस रोग से ग्रस्त रहते हैं। जाहिर है कि उनकी ग्रह स्थितियां ही कुछ ऐसी रही होंगी।
नज़ला-जुकाम मस्तिष्कजन्य रोग है। फिर भी इसका मूल कारण अग्नि है; अर्थात् पाचन क्रिया बिगड़ जाती है। काल पुरुष की कुंडली में पाचन का स्थान पंचम भाव है, जिसका प्रतिनिधित्व सिंह राशि करती है। मस्तिष्क का स्थान प्रथम भाव है। इन दोनों भावों का आपसी त्रिकोणिक संबंध है। अग्नि के कारक ग्रह सूर्य और मंगल हैं और इसके विपरीत चंद्र और शुक्र शीतलता के प्रतीक हैं। नजले का स्राव नाक से होता है। इसलिए द्वितीय और तृतीय भाव भी इससे जुड़े हैं। यदि कुंडली में लग्न, लग्नेश, पंचम भाव, पंचमेश, सूर्य, मंगल, चंद्र, शुक्र दुष्प्रभावों में हों, तो नजला-जुकाम जातक को सदैव तंग करता है। खास तौर पर जब संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा चल रही हो और गोचर ग्रह भी अशुभ फल दे रहे हों, तब रोग अपनी चरम सीमा पर होता है।
विभिन्न लग्नों में नजला-जुकामः
मेष लग्न : यदि लग्नेश अष्टम भाव, सूर्य जल राशि, चंद्र पंचम भाव में शनि, या राहु-केतु से प्रभावित हो। शुक्र अष्टम, बुध तृतीय भाव में हों, तो जातक को नजला-जुकाम और सर्दी जल्द लगती है, जिससे वह सदैव इस रोग से पीड़ित रहता है।
वृष लग्न : लग्नेश मीन, या कर्क राशि में हो, सूर्य वृश्चिक राशि में हो, चंद्र पंचम भाव में हो और गुरु से दृष्ट हो, तो जातक को नजला-जुकाम होता है।
मिथुन लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त हो, पंचमेश शुक्र, पंचम, या अष्टम भाव में मंगल से दृष्ट हो और मंगल स्वयं जल राशि में हो, चंद्र भी मंगल से दृष्ट हो, तो जातक को नजला -जुकाम सदैव तंग करता रहता है।
कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र षष्ठ भाव, या अष्टम भाव में हो, बुध लग्न में हो, पंचमेश मंगल भी लग्न में हो और सूर्य द्वितीय भाव में हो, शुक्र द्वितीय भाव में हो और राहु-केतु से दृष्ट, या युक्त हो, तो जातक को नजला संबंधित रोग देता है।
सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य अष्टम भाव में, शनि तृतीय भाव में, मंगल कर्क राशि में, पंचमेश गुरु जल राशि में हो, शुक्र अष्टम भाव में हो, राहु लग्न में, या लग्न को देखता हो, तो जातक को नजला-जुकाम की शिकायत बनी रहती है।
कन्या लग्न : लग्नेश बुध जल राशि में हो और सूर्य से अस्त हो, मंगल भी जल राशि में हो और चंद्र को देखता हो, चंद्र-शुक्र एक साथ हों, या एक दूसरे से द्विर्द्वादश हों, गुरु तृतीय भाव में हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम बना रहता है।
तुला लग्न : लग्नेश शुक्र और पंचमेश एक दूसरे से युक्त हो कर जल राशि में हों, सूर्य पंचम भाव में हो, राहु-केतु से दृष्ट हो, मंगल नीच का हो, लग्न में गुरु देखता हो, या सूर्य को देखता हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम होता है।
वृश्चिक लग्न : मंगल लग्नेश और षष्ठेश हो कर सूर्य से अस्त हो और मीन राशि हो, चंद्र त्रिक भावों में हो और राहु से दृष्ट हो, शुक्र तृतीय भाव में हो, तो जातक को उपर्युक्त रोग होता है।
धनु लग्न : लग्नेश अष्टम भाव में, सूर्य द्वादश भाव में, बुध लग्न में, सूर्य द्वितीय, या तृतीय भाव में हो, चंद्र शुक्र, या बुध से युति कर रहा हो, बुध अस्त नहीं हो, राहु लग्नेश को देखता हो, तो नजला-जुकाम होता है।
मकर लग्न : लग्नेश शनि तृतीय, या एकादश भाव में हो, सूर्य पंचम भाव में राहु से दृष्ट, या युक्त हो, पंचमेश शुक्र कर्क राशि में चंद्र से दृष्ट, या युक्त हो, अकारक गुरु लग्न में हो, तो जातक को आम तौर पर नज़ला-जुकाम रहता ही है।
कुंभ लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में, पंचमेश बुध मीन में, लग्न में सूर्य, शुक्र तृतीय भाव में, गुरु अग्निकारक राशियों में हो, राहु-केतु द्विस्वभाव राशियों में हों, चंद्र जल राशियों में हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम होता ही रहता है।
मीन : लग्नेश अष्टम भाव में चंद्र से युक्त हो, शुक्र तृतीय भाव में, पंचम भाव में शनि सूर्य से युक्त हो, राहु लग्न में हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। जब संबंधित ग्रह की दशा-अंतर्दशा और गोचर प्रतिकूल रहते हैं, तो जातक को संबंधित रोग से जूझना पड़ता है।
नजला-जुकाम के प्रमुख कारण : नजला-जुकाम मस्तिष्कजन्य रोग होते हुए भी इस रोग का मूल कारण अग्नि है; अर्थात जब जठराग्नि मंद होती है, तो इसमें अजीर्ण हो जाता है। पाचन क्रिया बिगड़ जाती है और भोजन ठीक से पच नहीं पाता एवं कब्ज हो जाने के कारण उपचय पदार्थ का विसर्जन नही होता, जिसके कारण जुकाम की उत्पत्ति होती है क्योंकि शरीर में एकत्रित विजातीय तत्व जब अन्य रास्तों से बाहर नहीं निकल पाते, तो वे जुकाम के रूप में नाक से निकलने लगते हैं। यह जुकाम अत्यधिक कष्टदायक होता है। इससे सिर, नाक, कान, गला तथा नेत्र के विकार उत्पन्न होने लगते हैं।
जुकाम का कारण मानसिक गड़बड़ी भी देखा गया है। इसके अतिरिक्त अन्य कारण हैं। मल, मूत्र, छींक, खांसी आदि वेगों को रोकना, नाक में धूल कण का प्रवेश होना, अधिक बोलना, क्रोध करना, अधिक सोना, अधिक जागरण करना, शीतल जल और ठंडे पेय पीना, अति मैथुन करना, रोना, धुएं आदि से मस्तिष्क में कफ जम जाना। साथ ही साथ मस्तिष्क में वायु की वृद्धि हो जाती है। तब ये दोनों दोष मिल कर नजला-जुकाम व्याधि उत्पन्न करते हैं।
जुकाम को साधारण रोग मान कर उसकी उपेक्षा करने से यह अति तकलीफदह हो जाता है; साथ ही अन्य विकार भी उत्पन्न होने लगते हैं। जुकाम बिगड़ने पर वह नजले का रूप धारण कर लेता है।
नजला हो जाने पर नाक में श्वास का अवरोध, नाक से हमेशा पानी बहना, नाक पक जाना, बाहरी गंध का ज्ञान न होना, मुख की दुर्गंध आदि विकार उत्पन्न हो जाते हैं।
कष्टदायी है जुकाम का बिगड़ना : जुकाम के बिगड़ जाने की अवस्था के बाद मस्तिष्क की अनेक व्याधियां होती हैं, जो कष्टदायी हो जाती हैं। इस रोग के कारण बहरापन, कान के पर्दे में छेद तथा कान, नाक, तालु, श्वास नलिका में कैंसर होने की संभावना रहती है। अंधापन भी उत्पन्न हो जाता है। कहा जाता है कि नजले ने शरीर के जिस अंग में अपना आश्रय बना लिया, वही अंग वह खा गया। दांतों में घुस गया, तो दांत गये, कान में गया, तो कान गये, आंखों में गया, तो आंखे गयी, छाती में जमा हो, तो दमा और कैंसर जैसी व्याधियां उत्पन्न कर देता है। सिर पर गया, तो बाल गये।
ज्योतिषीय कारण : यों तो यह रोग आम तौर पर सभी को कभी-कभी होता ही है, लेकिन फिर भी कुछ लोग इससे विशेष प्रभावित रहते हैं और जिंदगी भर इस रोग से ग्रस्त रहते हैं। जाहिर है कि उनकी ग्रह स्थितियां ही कुछ ऐसी रही होंगी।
नज़ला-जुकाम मस्तिष्कजन्य रोग है। फिर भी इसका मूल कारण अग्नि है; अर्थात् पाचन क्रिया बिगड़ जाती है। काल पुरुष की कुंडली में पाचन का स्थान पंचम भाव है, जिसका प्रतिनिधित्व सिंह राशि करती है। मस्तिष्क का स्थान प्रथम भाव है। इन दोनों भावों का आपसी त्रिकोणिक संबंध है। अग्नि के कारक ग्रह सूर्य और मंगल हैं और इसके विपरीत चंद्र और शुक्र शीतलता के प्रतीक हैं। नजले का स्राव नाक से होता है। इसलिए द्वितीय और तृतीय भाव भी इससे जुड़े हैं। यदि कुंडली में लग्न, लग्नेश, पंचम भाव, पंचमेश, सूर्य, मंगल, चंद्र, शुक्र दुष्प्रभावों में हों, तो नजला-जुकाम जातक को सदैव तंग करता है। खास तौर पर जब संबंधित ग्रह की दशांतर्दशा चल रही हो और गोचर ग्रह भी अशुभ फल दे रहे हों, तब रोग अपनी चरम सीमा पर होता है।
विभिन्न लग्नों में नजला-जुकामः
मेष लग्न : यदि लग्नेश अष्टम भाव, सूर्य जल राशि, चंद्र पंचम भाव में शनि, या राहु-केतु से प्रभावित हो। शुक्र अष्टम, बुध तृतीय भाव में हों, तो जातक को नजला-जुकाम और सर्दी जल्द लगती है, जिससे वह सदैव इस रोग से पीड़ित रहता है।
वृष लग्न : लग्नेश मीन, या कर्क राशि में हो, सूर्य वृश्चिक राशि में हो, चंद्र पंचम भाव में हो और गुरु से दृष्ट हो, तो जातक को नजला-जुकाम होता है।
मिथुन लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में सूर्य से अस्त हो, पंचमेश शुक्र, पंचम, या अष्टम भाव में मंगल से दृष्ट हो और मंगल स्वयं जल राशि में हो, चंद्र भी मंगल से दृष्ट हो, तो जातक को नजला -जुकाम सदैव तंग करता रहता है।
कर्क लग्न : लग्नेश चंद्र षष्ठ भाव, या अष्टम भाव में हो, बुध लग्न में हो, पंचमेश मंगल भी लग्न में हो और सूर्य द्वितीय भाव में हो, शुक्र द्वितीय भाव में हो और राहु-केतु से दृष्ट, या युक्त हो, तो जातक को नजला संबंधित रोग देता है।
सिंह लग्न : लग्नेश सूर्य अष्टम भाव में, शनि तृतीय भाव में, मंगल कर्क राशि में, पंचमेश गुरु जल राशि में हो, शुक्र अष्टम भाव में हो, राहु लग्न में, या लग्न को देखता हो, तो जातक को नजला-जुकाम की शिकायत बनी रहती है।
कन्या लग्न : लग्नेश बुध जल राशि में हो और सूर्य से अस्त हो, मंगल भी जल राशि में हो और चंद्र को देखता हो, चंद्र-शुक्र एक साथ हों, या एक दूसरे से द्विर्द्वादश हों, गुरु तृतीय भाव में हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम बना रहता है।
तुला लग्न : लग्नेश शुक्र और पंचमेश एक दूसरे से युक्त हो कर जल राशि में हों, सूर्य पंचम भाव में हो, राहु-केतु से दृष्ट हो, मंगल नीच का हो, लग्न में गुरु देखता हो, या सूर्य को देखता हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम होता है।
वृश्चिक लग्न : मंगल लग्नेश और षष्ठेश हो कर सूर्य से अस्त हो और मीन राशि हो, चंद्र त्रिक भावों में हो और राहु से दृष्ट हो, शुक्र तृतीय भाव में हो, तो जातक को उपर्युक्त रोग होता है।
धनु लग्न : लग्नेश अष्टम भाव में, सूर्य द्वादश भाव में, बुध लग्न में, सूर्य द्वितीय, या तृतीय भाव में हो, चंद्र शुक्र, या बुध से युति कर रहा हो, बुध अस्त नहीं हो, राहु लग्नेश को देखता हो, तो नजला-जुकाम होता है।
मकर लग्न : लग्नेश शनि तृतीय, या एकादश भाव में हो, सूर्य पंचम भाव में राहु से दृष्ट, या युक्त हो, पंचमेश शुक्र कर्क राशि में चंद्र से दृष्ट, या युक्त हो, अकारक गुरु लग्न में हो, तो जातक को आम तौर पर नज़ला-जुकाम रहता ही है।
कुंभ लग्न : लग्नेश षष्ठ भाव में, पंचमेश बुध मीन में, लग्न में सूर्य, शुक्र तृतीय भाव में, गुरु अग्निकारक राशियों में हो, राहु-केतु द्विस्वभाव राशियों में हों, चंद्र जल राशियों में हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम होता ही रहता है।
मीन : लग्नेश अष्टम भाव में चंद्र से युक्त हो, शुक्र तृतीय भाव में, पंचम भाव में शनि सूर्य से युक्त हो, राहु लग्न में हो, तो जातक को नज़ला-जुकाम होता है। उपर्युक्त सभी योग चलित पर आधारित हैं। जब संबंधित ग्रह की दशा-अंतर्दशा और गोचर प्रतिकूल रहते हैं, तो जातक को संबंधित रोग से जूझना पड़ता है।
मूलांक 1: जीवन,विद्या,आपसी रिश्ते
विद्या-जिन स्त्री पुरूषों का मूलांक एक होता है वह अच्छी विद्या प्रांप्त करते हैं । ये डिग्रियां प्राप्त करते हैं तथा खोज, अनुसंधान अदि में भी रूचि लेते है और सफल भी होते है। स्कूलों या कालेजों में युनियानों के प्रधान जाम देखे गये हैं । अध्यापक तथा साथी, विद्यार्थी इनका मान-सम्मान करते है । विद्या के क्षेत्र में वे कई सम्मान प्राप्त करते है। ये अत्पधिक उत्साही होते हैं, परीक्षाएं अच्छे नंबरों से पास करते है तथा परीक्षाओं में असफलता अथवा निराशा कम ही मिलती है । प्रतियोगिताओं का परिणाम भी प्राय: इनके पक्ष में ही होता है । हठी और (अड़ियल स्वभाव के कारण विद्या का योग मध्यम भी बन जाता है, इसमें अधिक इनका ही दोष सोता है । विद्या का योग मध्यम भी हों, फिर भी इनकी बौद्धिक प्रतिभा विलक्षण होती है तथा यह उच्च और बौद्धिक वर्ग में विशेष स्थान तथा सम्मान पाते हैं ।
भाई बहन, मित्र शत्रु-मूलांक एक अगले सभी अंकों का आधार है। यह सारे अंको में अग्रनी है । अत: भाईयों में साधारण तथा में बड़े होते हैं एवं प्रत्येक कार्य में इनकी राय ली जाती है । अपने भाई बहनों की ये पूरी सहायता करते है परन्तु इनकी सहायता कोई कम ही करता है। यहाँ तक भी देखा गया है कि इनको परेशान करने तथा हानि पहुँचाने का यत्न किया जाता है। सम्बन्धी भी इन्हें हानि पहुँचाते है हांलाकि ये सब सम्बन्धियों के लिए कुछ-न-कुछ करते रहते है। ये व्यक्ति फिर भी भलाई और उपकार करते रहते है।
मूलांक एक वाले व्यक्ति मित्रों के मित्र होते हैं । इनका मन साफ़ होता है। जिससे मित्रता करते है, पूरी करते हैं तथा उसे पूरी तरह निभाते हैं परन्तु जिससे शत्रुता करते हैं, भी पक्की करते है। जिससे इनकी शत्रुता हो जाये तो ये शत्रु का दमन किए बिना चैन से नहीँ सोते हैं । इनके मित्रों का घेरा बडा विशाल होता है, परन्तु इनमें अधिकतर चापलूस ही होते है । ऐसे मित्रों से इन्हें कम ही लाभ होता है तथा कई मित्र तो हानि तथा धोखा भी देते हैं । क्योंकि इनकी मित्रता, स्नेह अथवा प्रेम दृढ़ होता है, अत: ये शत्रुता भी फिर दृढ़ ही करते हैं । यदि इनके समक्ष घुटने टेक दिए जाएं तो ये मुस्करा कर क्षमा भी कर देते हैं । मूलांक एक का मूलांक 2-4-7 वाले स्त्री पुरूषों की ओर स्वाभाविक आकर्षण देखा गया है। अतः मूलांक एक वालों के मूलांक 2-4-7 वाले अधिकांश मित्र होते है । प्राय: 4- 1 - 3-5 -7-9 मूलांक वाले भी इनके मित्र देखे गए हैं । मूलांक 8 वालों की मूलांक एक वाले व्यक्तियों से व्यवहारिक जीवन में शत्रुता देखीं गयी है।
प्रेम, विवाह एवं सन्तान-मूलांक एक वाले स्त्री पुरुष उपर से सख्त एवं रूखे लगते है परन्तु अन्दर से यह कोमल तथा प्रेम के भूखे होते हैं । इनके व्यक्तित्व के कारण भी इनकी ओर आकर्षण होता है । इनका प्रेम सम्बन्ध स्थाई और पक्का होता है । प्रेमी/प्रेमिका का यदि विवाह न हो पाए तो भी इनके सम्बन्ध बने रहते हैं और एक दूसरे की
सहायता को तत्पर रहते हैं । मूलांक एक वाले धन से अधिक प्रेम को महत्व देते हैं ।
कुछेक मूलांक एक वाले प्रेम के क्षेत्र में सन्देह के कारण असफल भी रहते हैं । कईं बार ये एक को खोलकर दूसरे के पीछे लग जाते है, अत: सफल प्रेमी "नहीं बन पाते। सन्देह के कारण सारा मामला ही गड़बड़ हो जाता है।
ये धीर स्वभाव, पूर्ण वफादार तथा (आज्ञाकारी पत्नी पसन्द करते है । ये घर में पूर्ण सलीका और अनुशासन पसन्द करते से । ये चाहते है
कि परिवार के सदस्य इनका कहना माने, यहाँ तक कि ये नौकरों-चाकरों पर भी आदेशों की झडी लगा देते हैं । यदि कोई भी किसी तरह उनका विरोध करता है तो ये गृह में युद्ध जैसा वातावरण पैदा कर देते हैं । इनके अड़ियल स्वभाव, घमण्ड एवं अहंकार के कारण भी पारिवारिक खुशी कम ही नसीब होती से । इनका दांपत्य जीवन कम ही सुखी रहा करता है, गृह-कलह बना ही रहता हैं। मूलांक एक वालों पर प्रेम सम्बन्धों के आरोप भी लगते रहते हैं ।
यदि कहीँ मूलांक एक वाले को पत्नी भी मूलांक एक वाली मिल जाए या मूलांक एक वाली स्त्री को पति भी मूलांक एक वाला मिल जाए तब तो अवश्य ही गृह-कलेश रहता है और तलाक तक की सम्भावना बन जाती है ।
मूलांक एक वाले पुरुष अधिकतर अकेले तथा मूलांक एक वाली स्त्रियाँ अधिकतर अकेली या विधवा देखीं गई हैं। मूलांक एक वालों का 22 जुलाई से 21 अगस्त, नवम्बर 22 से दिसम्बर 20 तथा मार्च 21 से अप्रैल 20 के बीच जन्म लेने वाली स्त्रियों तथा मूलांक
एक वाली स्त्रियों का इस समय के बीच जन्म लेने पुरुषों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है और कई बार ये विवाह बन्धन में भी बन्ध जाते है ।
प्राय: इनका एक पुत्र अवश्य होता हैं। सन्तान के कारण इन्हें परेशानी भी झेलनी पड़ती है । साधारणतया इनके सन्तान कम ही होती है । ये बच्चों को बहुत चाहते हैं परन्तु यह प्यार को कम प्रकट करते हैं । अत: पुत्र अथवा सन्तान, पितृ-प्रेम की कमी अनुभव करती है । सन्तान का पालन-पोषण अधिकतर मां ही करती है । यदि कहीँ पुत्र का संयोग
से 8 मूलांक दो तो पिता-पुत्र मतभेद अवश्य ही जाते है ।
घर में नये-नये वाहन रखना इनकी लालसा होती है । घर में ये शान-ओ-शौकत का सामान पसन्द करते हैं । मोती एवं बहुमूल्य रत्नों को घर की शान समझते हैं तथा ये इन्हें धारण करके अथवा पहन कर इनका प्रदर्शन भी करते रहते हैं । अच्छी, श्रीमती तथा रौबदार पोशाक इन्हें अपने कार्य से समय निकालकर घर गृहस्थ को भी खबर सुध लेनी चाहिए।
भाई बहन, मित्र शत्रु-मूलांक एक अगले सभी अंकों का आधार है। यह सारे अंको में अग्रनी है । अत: भाईयों में साधारण तथा में बड़े होते हैं एवं प्रत्येक कार्य में इनकी राय ली जाती है । अपने भाई बहनों की ये पूरी सहायता करते है परन्तु इनकी सहायता कोई कम ही करता है। यहाँ तक भी देखा गया है कि इनको परेशान करने तथा हानि पहुँचाने का यत्न किया जाता है। सम्बन्धी भी इन्हें हानि पहुँचाते है हांलाकि ये सब सम्बन्धियों के लिए कुछ-न-कुछ करते रहते है। ये व्यक्ति फिर भी भलाई और उपकार करते रहते है।
मूलांक एक वाले व्यक्ति मित्रों के मित्र होते हैं । इनका मन साफ़ होता है। जिससे मित्रता करते है, पूरी करते हैं तथा उसे पूरी तरह निभाते हैं परन्तु जिससे शत्रुता करते हैं, भी पक्की करते है। जिससे इनकी शत्रुता हो जाये तो ये शत्रु का दमन किए बिना चैन से नहीँ सोते हैं । इनके मित्रों का घेरा बडा विशाल होता है, परन्तु इनमें अधिकतर चापलूस ही होते है । ऐसे मित्रों से इन्हें कम ही लाभ होता है तथा कई मित्र तो हानि तथा धोखा भी देते हैं । क्योंकि इनकी मित्रता, स्नेह अथवा प्रेम दृढ़ होता है, अत: ये शत्रुता भी फिर दृढ़ ही करते हैं । यदि इनके समक्ष घुटने टेक दिए जाएं तो ये मुस्करा कर क्षमा भी कर देते हैं । मूलांक एक का मूलांक 2-4-7 वाले स्त्री पुरूषों की ओर स्वाभाविक आकर्षण देखा गया है। अतः मूलांक एक वालों के मूलांक 2-4-7 वाले अधिकांश मित्र होते है । प्राय: 4- 1 - 3-5 -7-9 मूलांक वाले भी इनके मित्र देखे गए हैं । मूलांक 8 वालों की मूलांक एक वाले व्यक्तियों से व्यवहारिक जीवन में शत्रुता देखीं गयी है।
प्रेम, विवाह एवं सन्तान-मूलांक एक वाले स्त्री पुरुष उपर से सख्त एवं रूखे लगते है परन्तु अन्दर से यह कोमल तथा प्रेम के भूखे होते हैं । इनके व्यक्तित्व के कारण भी इनकी ओर आकर्षण होता है । इनका प्रेम सम्बन्ध स्थाई और पक्का होता है । प्रेमी/प्रेमिका का यदि विवाह न हो पाए तो भी इनके सम्बन्ध बने रहते हैं और एक दूसरे की
सहायता को तत्पर रहते हैं । मूलांक एक वाले धन से अधिक प्रेम को महत्व देते हैं ।
कुछेक मूलांक एक वाले प्रेम के क्षेत्र में सन्देह के कारण असफल भी रहते हैं । कईं बार ये एक को खोलकर दूसरे के पीछे लग जाते है, अत: सफल प्रेमी "नहीं बन पाते। सन्देह के कारण सारा मामला ही गड़बड़ हो जाता है।
ये धीर स्वभाव, पूर्ण वफादार तथा (आज्ञाकारी पत्नी पसन्द करते है । ये घर में पूर्ण सलीका और अनुशासन पसन्द करते से । ये चाहते है
कि परिवार के सदस्य इनका कहना माने, यहाँ तक कि ये नौकरों-चाकरों पर भी आदेशों की झडी लगा देते हैं । यदि कोई भी किसी तरह उनका विरोध करता है तो ये गृह में युद्ध जैसा वातावरण पैदा कर देते हैं । इनके अड़ियल स्वभाव, घमण्ड एवं अहंकार के कारण भी पारिवारिक खुशी कम ही नसीब होती से । इनका दांपत्य जीवन कम ही सुखी रहा करता है, गृह-कलह बना ही रहता हैं। मूलांक एक वालों पर प्रेम सम्बन्धों के आरोप भी लगते रहते हैं ।
यदि कहीँ मूलांक एक वाले को पत्नी भी मूलांक एक वाली मिल जाए या मूलांक एक वाली स्त्री को पति भी मूलांक एक वाला मिल जाए तब तो अवश्य ही गृह-कलेश रहता है और तलाक तक की सम्भावना बन जाती है ।
मूलांक एक वाले पुरुष अधिकतर अकेले तथा मूलांक एक वाली स्त्रियाँ अधिकतर अकेली या विधवा देखीं गई हैं। मूलांक एक वालों का 22 जुलाई से 21 अगस्त, नवम्बर 22 से दिसम्बर 20 तथा मार्च 21 से अप्रैल 20 के बीच जन्म लेने वाली स्त्रियों तथा मूलांक
एक वाली स्त्रियों का इस समय के बीच जन्म लेने पुरुषों के प्रति स्वाभाविक आकर्षण होता है और कई बार ये विवाह बन्धन में भी बन्ध जाते है ।
प्राय: इनका एक पुत्र अवश्य होता हैं। सन्तान के कारण इन्हें परेशानी भी झेलनी पड़ती है । साधारणतया इनके सन्तान कम ही होती है । ये बच्चों को बहुत चाहते हैं परन्तु यह प्यार को कम प्रकट करते हैं । अत: पुत्र अथवा सन्तान, पितृ-प्रेम की कमी अनुभव करती है । सन्तान का पालन-पोषण अधिकतर मां ही करती है । यदि कहीँ पुत्र का संयोग
से 8 मूलांक दो तो पिता-पुत्र मतभेद अवश्य ही जाते है ।
घर में नये-नये वाहन रखना इनकी लालसा होती है । घर में ये शान-ओ-शौकत का सामान पसन्द करते हैं । मोती एवं बहुमूल्य रत्नों को घर की शान समझते हैं तथा ये इन्हें धारण करके अथवा पहन कर इनका प्रदर्शन भी करते रहते हैं । अच्छी, श्रीमती तथा रौबदार पोशाक इन्हें अपने कार्य से समय निकालकर घर गृहस्थ को भी खबर सुध लेनी चाहिए।
रुद्राष्टक स्तोत्र
रुद्राष्टक स्तोत्र भगवान शिव की स्तुति है। स्तुति में तुलसीदास जी ने भगवान के साकार व निराकार रुप की प्रंशसा की है। जीवन में दुर्भाग्य दूर होकर सौभाग्य का उदय होता है।
नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम्।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेङहम्।।
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेङहम्।।
हे मोक्षस्वरूप, विभु, ब्रह्म और वेदस्वरूप, ईशान दिशा के ईश्वर व सबके स्वामी श्री शिव जी! मैं आपको नमस्कार करता हूं। निजस्वरूप में स्थित (अर्थात माया आदि से रहित), गुणों से रहित, भेद रहित, इच्छा रहित, चेतन आकाशरूप एवं आकाश को ही वस्त्र रूप में धारण करने वाले दिगम्बर आपको भजता हूं।
निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिराज्ञानगोतीतमीशं गिरीशम्।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोङहम्।।
करालं महाकालकालं कृपालं गुणागारसंसारपारं नतोङहम्।।
निराकार, ओंकार के मूल, तुरीय (तीनों गुणों से अतीत), वाणी, ज्ञान व इंद्रियों से परे, कैलासपति, विकराल, महाकाल के भी काल, कृपालु, गुणों के धाम, संसार के परे आप परमेश्वर को मैं नमस्कार करता हूं।
तुषाराद्रिसंकाशगौरं गभीरं मनोभूतकोटि प्रभाश्रीशरीरम्।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसदभालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा।।
स्फुरन्मौलिकल्लोलिनी चारुगंगा लसदभालबालेन्दुकण्ठे भुजंगा।।
जो हिमाचल समान गौरवर्ण व गम्भीर हैं, जिनके शरीर में करोड़ों कामदेवों की ज्योति एवं शोभा है,जिनके सर पर सुंदर नदी गंगा जी विराजमान हैं, जिनके ललाट पर द्वितीय का चंद्रमा और गले में सर्प सुशोभित है।
चलत्कुण्डलं भ्रुसुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम्।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि।।
जिनके कानों में कुण्डल हिल रहे हैं, सुंदर भृकुटि व विशाल नेत्र हैं, जो प्रसन्नमुख, नीलकंठ व दयालु हैं, सिंहचर्म धारण किये व मुंडमाल पहने हैं, उनके सबके प्यारे, उन सब के नाथ श्री शंकर को मैं भजता हूं।
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम्।
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेङहं भावानीपतिं भावगम्यम्।।
त्रयः शूलनिर्मूलनं शूलपाणिं भजेङहं भावानीपतिं भावगम्यम्।।
प्रचण्ड (रुद्र रूप), श्रेष्ठ, तेजस्वी, परमेश्वर, अखण्ड, अजन्मा, करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश वाले, तीनों प्रकार के शूलों (दुःखों) को निर्मूल करने वाले, हाथ में त्रिशूल धारण किए, प्रेम के द्वारा प्राप्त होने वाले भवानी के पति श्री शंकर को मैं भजता हूं।
कलातिकल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनान्ददाता पुरारी।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।
चिदानंदसंदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ।।
कलाओं से परे, कल्याणस्वरूप, कल्प का अंत (प्रलय) करने वाले, सज्जनों को सदा आनन्द देने वाले, त्रिपुर के शत्रु सच्चिनानंदमन, मोह को हरने वाले, प्रसन्न हों, प्रसन्न हों।
न यावद उमानाथपादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम्।
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्।।
हे पार्वती के पति, जब तक मनुष्य आपके चरण कमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इसलोक में न परलोक में सुख शान्ति मिलती है और न ही तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न होइए।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोङहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।
जरजन्मदुःखौ घतातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो।।
मैं न तो जप जानता हूं, न तप और न ही पूजा। हे प्रभो, मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूं। हे प्रभो, बुढ़ापा व जन्म-मृत्यु, दुःखों से जलाए हुए मुझ दुःखी की दुःखों से रक्षा करें। हे ईश्वर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
न तावत्सुखं शान्ति संतापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम्।।
हे पार्वती के पति, जब तक मनुष्य आपके चरण कमलों को नहीं भजते, तब तक उन्हें न तो इसलोक में न परलोक में सुख शान्ति मिलती है और न ही तापों का नाश होता है। अतः हे समस्त जीवों के अंदर (हृदय में) निवास करने वाले प्रभो, प्रसन्न होइए।
न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोङहं सदा सर्वदा शम्भुतुभ्यम्।
जरजन्मदुःखौ घतातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो।।
मैं न तो जप जानता हूं, न तप और न ही पूजा। हे प्रभो, मैं तो सदा सर्वदा आपको ही नमन करता हूं। हे प्रभो, बुढ़ापा व जन्म-मृत्यु, दुःखों से जलाए हुए मुझ दुःखी की दुःखों से रक्षा करें। हे ईश्वर, मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विपेण हरतुष्टये
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।
भगवान रुद्र का यह अष्टक उन शंकर जी की स्तुति के लिए है। जो मनुष्य इसे प्रेमस्वरूप पढ़ते हैं, श्री शंकर उन से प्रसन्न होते हैं।
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति।।
भगवान रुद्र का यह अष्टक उन शंकर जी की स्तुति के लिए है। जो मनुष्य इसे प्रेमस्वरूप पढ़ते हैं, श्री शंकर उन से प्रसन्न होते हैं।
श्री महालक्ष्मी मंत्र
महालक्ष्मी का पूजन सुख-समृद्धि की प्राप्ति कराता है। वैभव लाता है। महालक्ष्मी के पूजन में निम्न में से किसी भी एक मंत्र का जप 108 बार करना चाहिए।
श्री महालक्ष्मी के पूजन के सरल मंत्र
महालक्ष्मी पूजन के दो सरल मंत्र हैं। जिनका उच्चारण भी सरल है। महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए रोज इन मंत्रों का जप किया जा सकता है।
श्री महालक्ष्म्यै नमः।
ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।
महालक्ष्मी पूजन के दो सरल मंत्र हैं। जिनका उच्चारण भी सरल है। महालक्ष्मी की प्रसन्नता के लिए रोज इन मंत्रों का जप किया जा सकता है।
श्री महालक्ष्म्यै नमः।
ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।
श्री महालक्ष्मी के अन्य मंत्र-
शास्त्रों में देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के कई मंत्र हैं। जिनमें से तीन मंत्र इस प्रकारहैं। इन मंत्रों को तीव्र असरकारी कहा गया है। लेकिन उच्चारण में कठिन है। इसलिए प्रशिक्षित होने पर ही इन मंत्रों का जाप करें।
ऊँ श्रीं श्रियै नमः।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा ।
ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।
शास्त्रों में देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने के कई मंत्र हैं। जिनमें से तीन मंत्र इस प्रकारहैं। इन मंत्रों को तीव्र असरकारी कहा गया है। लेकिन उच्चारण में कठिन है। इसलिए प्रशिक्षित होने पर ही इन मंत्रों का जाप करें।
ऊँ श्रीं श्रियै नमः।
श्रीं ह्रीं क्लीं ऐं कमलवासिन्यै स्वाहा ।
ऊँ श्रीं ह्रीं श्रीं कमले कमलालये प्रसीद प्रसीद श्रीं ह्रीं श्रीं ऊँ महालक्ष्म्यै नमः।
Thursday, 10 September 2015
Wednesday, 9 September 2015
अनुराधा नक्षत्र और शनि
यदि शनि अनुराधा नक्षत्र के पहले चरण में उपस्थित हो तो जातक सभी प्रकार के अवांछित कार्य करने वाला, चोर तथा हत्यारा होता है । वह मध्यम कद का, खतरनाक कार्यों को अंजाम देने वाला और अविश्वसनीय चरित्र का स्वामी होता है ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक मूर्ख, चौडे कंधों वाला, गंजे सिर का,
झगड़ालू प्रत्येक कार्य में विघ्न डालने वाला तथा दूसरों के धन पर कब्ज़ा करने
वाला होता है । वह कानून द्वारा प्रताड़ित या दंडित भी किया जा सकता है ।
यदि तीसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक कठोर हृदय वाला, फटेहाल तथा कठिनाइयों से जीवन गुजारने वाला होता है । अधेड़ायु में उसकी हालत में कुछ सुधार अवश्य होता है, किन्तु भीतर से वह सदा दुखी रहता है।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक जुर्म करने वालों का साथी, लंबे समय तक शरीर के रोगों से लड़ने वाला तथा अत्यधिक व्यय करने वाला होता है। ऐसा जातक बुरी सोहबत में पड़कर जुआरी, शराबी और सट्टेबाज हो जाता है ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक मूर्ख, चौडे कंधों वाला, गंजे सिर का,
झगड़ालू प्रत्येक कार्य में विघ्न डालने वाला तथा दूसरों के धन पर कब्ज़ा करने
वाला होता है । वह कानून द्वारा प्रताड़ित या दंडित भी किया जा सकता है ।
यदि तीसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक कठोर हृदय वाला, फटेहाल तथा कठिनाइयों से जीवन गुजारने वाला होता है । अधेड़ायु में उसकी हालत में कुछ सुधार अवश्य होता है, किन्तु भीतर से वह सदा दुखी रहता है।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक जुर्म करने वालों का साथी, लंबे समय तक शरीर के रोगों से लड़ने वाला तथा अत्यधिक व्यय करने वाला होता है। ऐसा जातक बुरी सोहबत में पड़कर जुआरी, शराबी और सट्टेबाज हो जाता है ।
विशाखा नक्षत्र और शनि
यदि विशाखा नक्षत्र के पहले चरण में ज्ञानि हो तो जातक सरकारी नौकरी करने वाला क्लर्क या लेखाकार होता है । उसे कज्ज या वायु रोग सताते रहते हैं ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक हड्डी, त्वचा अथवा रक्तदोष के कारण रोगी रहने वाला तथा माता-गिता के रोगों से दुखी और परेशान रहता है । ऐसे जातक को हर कदम पर बाधाएँ झेलनी पड़ती हैं ।
यदि शनि तीसरे चरण में विराजमान हो तो जातक श्रेष्ठ विचारों वाला और दीर्घायु होता है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक को धन की कोई कमी नहीं रहती । वह शरीर से रोगी तथा बड़े परिवार से संबंधित होता है ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक हड्डी, त्वचा अथवा रक्तदोष के कारण रोगी रहने वाला तथा माता-गिता के रोगों से दुखी और परेशान रहता है । ऐसे जातक को हर कदम पर बाधाएँ झेलनी पड़ती हैं ।
यदि शनि तीसरे चरण में विराजमान हो तो जातक श्रेष्ठ विचारों वाला और दीर्घायु होता है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक को धन की कोई कमी नहीं रहती । वह शरीर से रोगी तथा बड़े परिवार से संबंधित होता है ।
स्वाति नक्षत्र और शनि
अगर शनि स्वाति नक्षत्र के पहले चरण में उपस्थित हो तो जातक समाज द्वारा सम्मानित तथा अपने क्षेत्र में प्रसिद्ध होता है । ऐसे व्यक्ति को अपने स्वास्थ्य के प्रति अत्यधिक जागरूक रहना चाहिए, वरना उसे घातक रोग का सामना करना पड़ सकता है ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक को र्डनायु अधिक नहीं होगी, वह अल्पायु होता है। किन्तु वह शरीर से स्वस्थ और धनी होता है ।
यदि तीसरे चरण में शनि हो तो जांतक सौढी-दर-सोढी चढ़ता हुआ अपनी मंजिल तक पहुंच जाता है । वह जिस कार्य में हाथ डालता है, उसमें अत्यधिक उन्नति करता है । यदि इस चरण में शनि के साथ सूर्य और चंद्र का भी प्रभाव हो तो जातक को आयु बहुत कम होती है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक अपनी बिरादरी का मुखिया होता है । वह शहर का प्रमुख अथवा ग्राम का प्रधान भी हो सकता है । ऐसे जातक राज्य की उच्च गदी पर आसीन होते देखे हैं ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक को र्डनायु अधिक नहीं होगी, वह अल्पायु होता है। किन्तु वह शरीर से स्वस्थ और धनी होता है ।
यदि तीसरे चरण में शनि हो तो जांतक सौढी-दर-सोढी चढ़ता हुआ अपनी मंजिल तक पहुंच जाता है । वह जिस कार्य में हाथ डालता है, उसमें अत्यधिक उन्नति करता है । यदि इस चरण में शनि के साथ सूर्य और चंद्र का भी प्रभाव हो तो जातक को आयु बहुत कम होती है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक अपनी बिरादरी का मुखिया होता है । वह शहर का प्रमुख अथवा ग्राम का प्रधान भी हो सकता है । ऐसे जातक राज्य की उच्च गदी पर आसीन होते देखे हैं ।
मूलांक 1: स्वाभाव एवं व्यक्तित्व
जन्म तारीख 1,10,19, 28
परिचय-यदि किसी स्त्री पुरूष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 1,1 0,1 9,2 8 को जन्म हुआ है तो उनका जन्म तारीख मूलांक 1 होता है । जब किसी को अपनी जन्म तारीख ज्ञान न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरान्त मूलांका आता है, तो
उनका मूलांक भी 1 होता है। इस अंक का स्वामी सूर्य है अंत: इस अंक व्याक्तियों पर सूर्य का प्रभाव होता है ।
सूर्य जीवन भक्ति का प्रतीक है ।सूर्य से ही सबको जीवन शक्ति मिलती है । सूर्य सब जीवों का पालनकर्ता भी माना गया है। इसीलिए सूर्य देव की विश्व भर में पूजा-अराधना की जाती है । सूर्य समस्त ग्रहों का सम्राट भी है । अंक एक ही अपने सभी अंको का आधार है । अंक
एक से ही अगले सभी अंक किसी न किसी रूप से शक्ति ग्रहण करते हैं इसी लिए यह सभी अंकों का अधार अथवा सूर्य के समान सभी अंकों का सम्राट माना गया है । जैसे सभी ग्रहों में सूर्य प्रधान माना गया है उसी तरह अंक एक पूर्व तथा सूर्य से " प्रभावित होने के कारण सारे
अंकों का प्रधान अंथवा अग्रणी माना जाता है।
स्वभाव एवं व्यक्तित्व मूलांक 1 वाले व्यक्ति स्वाभिमान, दृढ़निश्चयी, स्वतन्त्रता प्रेमी, स्पष्टवादी, उदार आत्मविश्वासी तथा नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा वाले सोते है । इनमें शासन करने तथा नेतागिरी करने जन्मजात शक्ति होती है । यदि यह कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा कि मूलांक एक वाले जन्म से ही अंग्रिन, मुख्या एवं भगुवा होते है । इनका परिचय का घेरा बड़ा विशाल होता है । यह किसी भी सभा में सहज ही पहचाने जा सकते है । यह जहाँ भी जाते हैं अपनी छाया जमा लेते हैं । इनका व्यवित्तत्व इतना आकर्षक अथवा रौबदार होता है कि अपरिचित व्यक्ति भी इनका परिचत्त बन जाता है । ये लोगों के बीच घिरे रहना, मान-सम्मान प्राप्त करना बहुत पसन्द करते है।
इनमें नेतृत्व के गुण विशेष होते है। किसी की अधीनता में कार्यं करना तथा किसी के आगे झुकना इन्हें कतई पसन्द अथवा मंजूर नहीं होता । वे बड़े परिश्रमी, ज्ञानशील, स्वाभिमानी, निखर तथा शक्तिशाली होते हैं । वे जीते हैं तो सिर उठाकर जीते है। स्वाभिमान इन्हें इतना प्रिया होता है कि वह स्वाभिमान की रक्षा के लिए टूट सकते हैं, सिर झुका नहीं सकते।
इनकी प्रकृति गम्भीर होती है तथा यह अपने उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य का गम्भीरता के निर्वाह करते है। इनकी विचारधारा सुदृढ़ होती है | कभी-कभी ये बडी-बडी शाहाना बाते भी करते हैं और आगे से किसी की बात सुनना पसन्द नहीँ करते । यदि कोई ऐसा करता है तो उसके साथ बिगड़ भी जाते है । साधारणत: ये गम्भीर एवं धैर्यवान होते है । कई बार इनमें सहनशीलता कुछ कम भी देखी गयीं है। घर हो या बाहर वे अपनी ही बात मनवाने पर दृढ़ रहते है और किसी की बात सुनने को तैयार नहीं सोते । आगे से थोडा सा विरोध भी सहन नहीं करते |
मूलांक एक वाले व्यक्ति परिश्रमी एवं संघर्षशील होते है । ये अपनी बातों से दूसरों को प्रभावित करने की पूरी भक्ति रखते है । वे स्वयं को परिस्थिति के अनुसार डाल भी लेते है । ये व्यक्ति स्थिरचित इरादे के पक्के और अपने वचनों का पालन करने वाले होते हैं।अनुसासन की भावना इनमे कुट-कूट कर भरी होती है। ये व्यक्ति जो राय एवं नीति बना लेते हैं उस पर पूरा उतरते हैं ।इनमें उत्साह एवं निर्णय लेने की शक्ति आथाह होती है । जो भी निर्णय होते हैं वह ठीक और सही होता है। ये कार्य को सलीके से करना पसन्द करते हैं और प्राय: में जलदबाज भी होते है। ये बहादुर एवं शूरवीर होते है। प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करना ही इनका उद्देश्य होता है । ये क्रोधी भी होते हैं । क्रोधावेग इतना तेज होता है जैसे किसी वर्तन में से दूध उबल पड़ता है । अत: क्रोध शीघ्र जाता से । और धीरे-धीरे ही शांत होता है | यदि आगे से कोई घुटने टेक दे तो ये क्षमा कर देते है तथा बुराई का जवाब अपना भलाई में ही देते हैं| ये हठी, जिद्दी, सख्तकठोर तथा अड़ियल होते हैं । जिस बात या काम पर अड़ जाएं, अड़े रहते हैं और पीछे नहीँ हटते। झुकना ये जानते नहीं और न ही इनका स्वभाव समझौता वादी होता है। ये व्यक्ति वादा करके उसे निभाना भी जानते हैं परन्तु पीछे नहीं हटते।
सूर्य यश, सान-सम्मान, पद-प्रत्तिष्ठा दिलाने वाला ग्रह है, अत: इसी प्रभाव के कारता ये व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के बल पर वश और मान-समान प्राप्त करते है । मूलांक एक वाले व्यक्ति अत्यन्त महत्वाकाँक्षी होते है। ये सदैव अपने कार्यों से असंतुष्ट रहते है। ये
अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सही ढंग प्रयोग करते है । धैर्य का साथ नहीँ छोड़ते तथा अच्छी सुझ-बुझ और स्वतंत्र विचारों के कारण किसी का आश्रम नहीं ढूंढते। इनकी हानि चापलूस ही करते हैं । अन्य पर विश्वास करके आम तौर पर वह धोखा भी खा जाते है ।
ये सकारात्मक व सज्जनशील सूझ-बूझ रखते हैँ। ये दयालु, कृपालु, मेहरबान तथा रक्षक सोते है । गरीबों, निराश्रितों को ये रक्षा भी करते हैं और इनको आश्रय एवं प्रश्रय भी देते हैं । इनके विचार मौलिक होते हैं । उदार एवं दयालु स्वाभाव के कारण वे द्ररब्री के दु८ख को देख नहीँ सकते । यह स्वयं को सर्वेसर्वा मानकर चलहु से । यह स्वयं झुकना अथवा दबना भी पसन्द नहीं करते जोर ना हीं किसी अन्य को व्यर्थ में दबाते ही है। वे अधिक संपर्क रखना, मेलजोल, मित्रता आदि पसन्द कम ही करते हैं । वे स्वस्वार्थ के पक्के, यश मान-सम्मान, ऊँच-नीच, लाभ-हानि तथा डर-जीत को आँखों को ओझल नहीं होने देते । ये स्व-स्वाथीं अवश्य कहे जा सकते हैं, किन्तु सुख-दुख में सहयोगी भी बने रहते है ।
मूलांक एक चाले व्यक्तियों की प्रवृति अधिकार भक्ति एवं वैभव की और रहती है । दूसरों पर अधिकार एवं उनको अपना समझ बैठना दुखों का कारण भी बन जाता है। फिर भी साहसी तथा बहादुर होने के कारण इन्हें असफलता का मुँह कम ही देखता पड़ता है । कहीँ निराशा अथवा असफलता मिल भी जाए तो ये घबराते नहीं। ऐसी स्थिति में वे एक कोने लग कर बैठ जाते हैं जोर पुन: पूरी शक्ति के साथ सामने आ जाते है । इनका ह्रदय विशाल होता है । यदि कोई क्षमा मांगे तो ये क्षमा भी कर देते है । ये व्यक्ति उदार ह्रदय होने के कारण दान व परोपकार भी अत्यधिक करते है । घंमण्ड एवं अहंकार कभी- कभी इन्हें हानि भी देता है । प्राय: वह देखा गया है कि इनका अधिक नुकसान चापलूस ही करते है। यदि इनकी प्रत्येक बात को आज्ञा मान कर पालन किया जाये तथा आदेशों का तुरन्त पालन किया जाये तो वह बहुत प्रसन्न होते हैं और वहां तक कि वह अपने विरोधियों तथा शत्रुओं को भी क्षमा कर देते है ।
मूलांक एक वाले व्यक्ति अपने आप में ही रहते हैँ। अपने ढंग से ही सोचते और कार्य करते है । किसी को परखने का ढंग भी इनका अपना ही होता है। ये किसी के अनुचित दबाव में नहीँ आते । इनके जीवन में उत्पन-पतन जाते रहते हैं परन्तु फिर भी वे संघर्षरत रहकर आगे बढ़ते हैं । कठिनाईयों रूकावटों आदि को ये कुछ भी नहीं समझने, अपनी शक्ति, साहस तथा सुझ-बुझ के साथ पार कर जाते है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक संघर्ष इन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । ये अपना मार्ग स्वयं बनाते हैं तथा बने-बनाए मार्ग पर चलना
पसन्द नहीं करते ।यह स्वयं निरन्तर कार्य करते हैं और ये स्पष्टीकस्या नहीं बल्कि आदेशों के पालन में विश्वास रखते है।
जिन स्त्रियों का मूलांक एक होता है ,वह दयालु, स्वाभिमानी एवं स्वतंत्रबद्ध प्रेमी होती है| ये जीवन को कलात्मक ढंग से जीना चाहती है। ये अनुसासन प्रिय, संघर्षशील तथा विशाल ह्रदय सोती हैं। ये गृहकार्य में दक्ष होती हैं । ये दयालु स्वभाव के कारण मान-सम्मान भी पाती हैं । पति ओर पुत्र पर अंकुश रखकर उन्हें स्वेच्छानुसार चलाती है। पुन्न के लालन-पालन में ये आत्यधिक योगदान पाती है। पुत्र का झुकाव भी अधिक इनकी ओर ही रहता है।
ये समाजिक एवं धार्मिक कार्यो में अग्रनीय रहती हैं । वे शान-शौकत, मान-मर्यादा के बनाए रखने के लिए सदैव संघर्षशील रहती है । ये भावुक भी होती है और शान के साथ खुलकर खर्च करती है। कई बार इसी कारण कई समस्याएं भी खडी हो जाती है। मूलांक एक वाली रित्रयां पक्के इरादे, दृढ़निश्चय, परिश्रम तथा आत्मविश्वास के बल पर सफलता पा लेती है । इन्हें क्रोध जल्दी ही आता है और दूसरे पल चला भी जाता है ।
आमतौर पर जिन रत्री, पुरूषों का मूलांक एक होता है, उनमें मूलांक एक वाली सभी विशेषताएं समान रूप में पाई जाती है।
परिचय-यदि किसी स्त्री पुरूष का किसी भी अंग्रेजी महीने की 1,1 0,1 9,2 8 को जन्म हुआ है तो उनका जन्म तारीख मूलांक 1 होता है । जब किसी को अपनी जन्म तारीख ज्ञान न हो, तो यदि नाम अक्षरों का मूल्यांकन करने के उपरान्त मूलांका आता है, तो
उनका मूलांक भी 1 होता है। इस अंक का स्वामी सूर्य है अंत: इस अंक व्याक्तियों पर सूर्य का प्रभाव होता है ।
सूर्य जीवन भक्ति का प्रतीक है ।सूर्य से ही सबको जीवन शक्ति मिलती है । सूर्य सब जीवों का पालनकर्ता भी माना गया है। इसीलिए सूर्य देव की विश्व भर में पूजा-अराधना की जाती है । सूर्य समस्त ग्रहों का सम्राट भी है । अंक एक ही अपने सभी अंको का आधार है । अंक
एक से ही अगले सभी अंक किसी न किसी रूप से शक्ति ग्रहण करते हैं इसी लिए यह सभी अंकों का अधार अथवा सूर्य के समान सभी अंकों का सम्राट माना गया है । जैसे सभी ग्रहों में सूर्य प्रधान माना गया है उसी तरह अंक एक पूर्व तथा सूर्य से " प्रभावित होने के कारण सारे
अंकों का प्रधान अंथवा अग्रणी माना जाता है।
स्वभाव एवं व्यक्तित्व मूलांक 1 वाले व्यक्ति स्वाभिमान, दृढ़निश्चयी, स्वतन्त्रता प्रेमी, स्पष्टवादी, उदार आत्मविश्वासी तथा नेतृत्व की जन्मजात प्रतिभा वाले सोते है । इनमें शासन करने तथा नेतागिरी करने जन्मजात शक्ति होती है । यदि यह कहा जाए तो अनुचित नहीं होगा कि मूलांक एक वाले जन्म से ही अंग्रिन, मुख्या एवं भगुवा होते है । इनका परिचय का घेरा बड़ा विशाल होता है । यह किसी भी सभा में सहज ही पहचाने जा सकते है । यह जहाँ भी जाते हैं अपनी छाया जमा लेते हैं । इनका व्यवित्तत्व इतना आकर्षक अथवा रौबदार होता है कि अपरिचित व्यक्ति भी इनका परिचत्त बन जाता है । ये लोगों के बीच घिरे रहना, मान-सम्मान प्राप्त करना बहुत पसन्द करते है।
इनमें नेतृत्व के गुण विशेष होते है। किसी की अधीनता में कार्यं करना तथा किसी के आगे झुकना इन्हें कतई पसन्द अथवा मंजूर नहीं होता । वे बड़े परिश्रमी, ज्ञानशील, स्वाभिमानी, निखर तथा शक्तिशाली होते हैं । वे जीते हैं तो सिर उठाकर जीते है। स्वाभिमान इन्हें इतना प्रिया होता है कि वह स्वाभिमान की रक्षा के लिए टूट सकते हैं, सिर झुका नहीं सकते।
इनकी प्रकृति गम्भीर होती है तथा यह अपने उत्तरदायित्व एवं कर्तव्य का गम्भीरता के निर्वाह करते है। इनकी विचारधारा सुदृढ़ होती है | कभी-कभी ये बडी-बडी शाहाना बाते भी करते हैं और आगे से किसी की बात सुनना पसन्द नहीँ करते । यदि कोई ऐसा करता है तो उसके साथ बिगड़ भी जाते है । साधारणत: ये गम्भीर एवं धैर्यवान होते है । कई बार इनमें सहनशीलता कुछ कम भी देखी गयीं है। घर हो या बाहर वे अपनी ही बात मनवाने पर दृढ़ रहते है और किसी की बात सुनने को तैयार नहीं सोते । आगे से थोडा सा विरोध भी सहन नहीं करते |
मूलांक एक वाले व्यक्ति परिश्रमी एवं संघर्षशील होते है । ये अपनी बातों से दूसरों को प्रभावित करने की पूरी भक्ति रखते है । वे स्वयं को परिस्थिति के अनुसार डाल भी लेते है । ये व्यक्ति स्थिरचित इरादे के पक्के और अपने वचनों का पालन करने वाले होते हैं।अनुसासन की भावना इनमे कुट-कूट कर भरी होती है। ये व्यक्ति जो राय एवं नीति बना लेते हैं उस पर पूरा उतरते हैं ।इनमें उत्साह एवं निर्णय लेने की शक्ति आथाह होती है । जो भी निर्णय होते हैं वह ठीक और सही होता है। ये कार्य को सलीके से करना पसन्द करते हैं और प्राय: में जलदबाज भी होते है। ये बहादुर एवं शूरवीर होते है। प्रत्येक कार्य में सफलता प्राप्त करना ही इनका उद्देश्य होता है । ये क्रोधी भी होते हैं । क्रोधावेग इतना तेज होता है जैसे किसी वर्तन में से दूध उबल पड़ता है । अत: क्रोध शीघ्र जाता से । और धीरे-धीरे ही शांत होता है | यदि आगे से कोई घुटने टेक दे तो ये क्षमा कर देते है तथा बुराई का जवाब अपना भलाई में ही देते हैं| ये हठी, जिद्दी, सख्तकठोर तथा अड़ियल होते हैं । जिस बात या काम पर अड़ जाएं, अड़े रहते हैं और पीछे नहीँ हटते। झुकना ये जानते नहीं और न ही इनका स्वभाव समझौता वादी होता है। ये व्यक्ति वादा करके उसे निभाना भी जानते हैं परन्तु पीछे नहीं हटते।
सूर्य यश, सान-सम्मान, पद-प्रत्तिष्ठा दिलाने वाला ग्रह है, अत: इसी प्रभाव के कारता ये व्यक्ति अपने व्यक्तित्व के बल पर वश और मान-समान प्राप्त करते है । मूलांक एक वाले व्यक्ति अत्यन्त महत्वाकाँक्षी होते है। ये सदैव अपने कार्यों से असंतुष्ट रहते है। ये
अपने लक्ष्य की प्राप्ति हेतु सही ढंग प्रयोग करते है । धैर्य का साथ नहीँ छोड़ते तथा अच्छी सुझ-बुझ और स्वतंत्र विचारों के कारण किसी का आश्रम नहीं ढूंढते। इनकी हानि चापलूस ही करते हैं । अन्य पर विश्वास करके आम तौर पर वह धोखा भी खा जाते है ।
ये सकारात्मक व सज्जनशील सूझ-बूझ रखते हैँ। ये दयालु, कृपालु, मेहरबान तथा रक्षक सोते है । गरीबों, निराश्रितों को ये रक्षा भी करते हैं और इनको आश्रय एवं प्रश्रय भी देते हैं । इनके विचार मौलिक होते हैं । उदार एवं दयालु स्वाभाव के कारण वे द्ररब्री के दु८ख को देख नहीँ सकते । यह स्वयं को सर्वेसर्वा मानकर चलहु से । यह स्वयं झुकना अथवा दबना भी पसन्द नहीं करते जोर ना हीं किसी अन्य को व्यर्थ में दबाते ही है। वे अधिक संपर्क रखना, मेलजोल, मित्रता आदि पसन्द कम ही करते हैं । वे स्वस्वार्थ के पक्के, यश मान-सम्मान, ऊँच-नीच, लाभ-हानि तथा डर-जीत को आँखों को ओझल नहीं होने देते । ये स्व-स्वाथीं अवश्य कहे जा सकते हैं, किन्तु सुख-दुख में सहयोगी भी बने रहते है ।
मूलांक एक चाले व्यक्तियों की प्रवृति अधिकार भक्ति एवं वैभव की और रहती है । दूसरों पर अधिकार एवं उनको अपना समझ बैठना दुखों का कारण भी बन जाता है। फिर भी साहसी तथा बहादुर होने के कारण इन्हें असफलता का मुँह कम ही देखता पड़ता है । कहीँ निराशा अथवा असफलता मिल भी जाए तो ये घबराते नहीं। ऐसी स्थिति में वे एक कोने लग कर बैठ जाते हैं जोर पुन: पूरी शक्ति के साथ सामने आ जाते है । इनका ह्रदय विशाल होता है । यदि कोई क्षमा मांगे तो ये क्षमा भी कर देते है । ये व्यक्ति उदार ह्रदय होने के कारण दान व परोपकार भी अत्यधिक करते है । घंमण्ड एवं अहंकार कभी- कभी इन्हें हानि भी देता है । प्राय: वह देखा गया है कि इनका अधिक नुकसान चापलूस ही करते है। यदि इनकी प्रत्येक बात को आज्ञा मान कर पालन किया जाये तथा आदेशों का तुरन्त पालन किया जाये तो वह बहुत प्रसन्न होते हैं और वहां तक कि वह अपने विरोधियों तथा शत्रुओं को भी क्षमा कर देते है ।
मूलांक एक वाले व्यक्ति अपने आप में ही रहते हैँ। अपने ढंग से ही सोचते और कार्य करते है । किसी को परखने का ढंग भी इनका अपना ही होता है। ये किसी के अनुचित दबाव में नहीँ आते । इनके जीवन में उत्पन-पतन जाते रहते हैं परन्तु फिर भी वे संघर्षरत रहकर आगे बढ़ते हैं । कठिनाईयों रूकावटों आदि को ये कुछ भी नहीं समझने, अपनी शक्ति, साहस तथा सुझ-बुझ के साथ पार कर जाते है । इसमें कोई सन्देह नहीं कि प्रत्येक संघर्ष इन्हें आगे बढ़ने की प्रेरणा देता है । ये अपना मार्ग स्वयं बनाते हैं तथा बने-बनाए मार्ग पर चलना
पसन्द नहीं करते ।यह स्वयं निरन्तर कार्य करते हैं और ये स्पष्टीकस्या नहीं बल्कि आदेशों के पालन में विश्वास रखते है।
जिन स्त्रियों का मूलांक एक होता है ,वह दयालु, स्वाभिमानी एवं स्वतंत्रबद्ध प्रेमी होती है| ये जीवन को कलात्मक ढंग से जीना चाहती है। ये अनुसासन प्रिय, संघर्षशील तथा विशाल ह्रदय सोती हैं। ये गृहकार्य में दक्ष होती हैं । ये दयालु स्वभाव के कारण मान-सम्मान भी पाती हैं । पति ओर पुत्र पर अंकुश रखकर उन्हें स्वेच्छानुसार चलाती है। पुन्न के लालन-पालन में ये आत्यधिक योगदान पाती है। पुत्र का झुकाव भी अधिक इनकी ओर ही रहता है।
ये समाजिक एवं धार्मिक कार्यो में अग्रनीय रहती हैं । वे शान-शौकत, मान-मर्यादा के बनाए रखने के लिए सदैव संघर्षशील रहती है । ये भावुक भी होती है और शान के साथ खुलकर खर्च करती है। कई बार इसी कारण कई समस्याएं भी खडी हो जाती है। मूलांक एक वाली रित्रयां पक्के इरादे, दृढ़निश्चय, परिश्रम तथा आत्मविश्वास के बल पर सफलता पा लेती है । इन्हें क्रोध जल्दी ही आता है और दूसरे पल चला भी जाता है ।
आमतौर पर जिन रत्री, पुरूषों का मूलांक एक होता है, उनमें मूलांक एक वाली सभी विशेषताएं समान रूप में पाई जाती है।
चित्रा नक्षत्र और शनि
अगर शनि चित्रा नक्षत्र के पहले चरण में हो तो जातक की आर्थिक स्थिति साधारण होती है। वह अल्प संतान वाला अथवा संतानहीन होता है । अग्निदाह, दुर्घटना चर्म रोगों से उसे वहुत शारीरिक कष्ट होता है ।
अगर दूसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक सिर या मुख रोग से ग्रस्त है । उसकी आर्थिक अवस्था बहुत खराब होती है । ऐसा जातक धन के लिए इधर-उधर भटकता फिरता है |
अगर चौथे चरण में शनि हो तो जातक श्रेष्ट जीवन व्यतीत करने वाला धनवान समाज एवं राज्य से सम्मानित होता है । यह सब उसे स्वत: मिलता है । उसे व्यापार में धन का आशातीत लाभ तथा कार्यक्षेत्र में भारी सफलता मिलती है ।
अगर दूसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक सिर या मुख रोग से ग्रस्त है । उसकी आर्थिक अवस्था बहुत खराब होती है । ऐसा जातक धन के लिए इधर-उधर भटकता फिरता है |
अगर चौथे चरण में शनि हो तो जातक श्रेष्ट जीवन व्यतीत करने वाला धनवान समाज एवं राज्य से सम्मानित होता है । यह सब उसे स्वत: मिलता है । उसे व्यापार में धन का आशातीत लाभ तथा कार्यक्षेत्र में भारी सफलता मिलती है ।
उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र और शनि
यदि शनि उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र के पहले चरणमें हो तो जातक को माता का है सुख पूर्ण रूप से नहीं मिलता । यदि शनि के साथ राहु, केतु या मेंगल की दृष्टि हो तो उसके बाल्यकाल में ही माता का देहांत हो जाता है । ऐसे जातक को अपने बडे भाई से हर प्रकार का सहयोग मिलता है।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक को जीवन भर भौंतिक सुख की कमी रहती है । उसका वैवाहिक जीवन कभी सुखी नहीं होता तथा उसकी धन की आकांक्षा कभी पूरी नहीं होती ।
यदि तीसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक सदैव बीमार रहता है । वह रहस्यपूर्ण विद्याओं में रुचि लेने वाला होता है ।
अगर चौथे चरण में शनि हो तो जातक धन से हीन, संतान से हीन तथा सदैव अप्रसन्न रहने वाला होता है ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक को जीवन भर भौंतिक सुख की कमी रहती है । उसका वैवाहिक जीवन कभी सुखी नहीं होता तथा उसकी धन की आकांक्षा कभी पूरी नहीं होती ।
यदि तीसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक सदैव बीमार रहता है । वह रहस्यपूर्ण विद्याओं में रुचि लेने वाला होता है ।
अगर चौथे चरण में शनि हो तो जातक धन से हीन, संतान से हीन तथा सदैव अप्रसन्न रहने वाला होता है ।
पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र और शनि
यदि शनि पूर्वाफाल्गुनी नक्षत्र के पहले चरण में उपस्थित हो तो जातक बाल्यावस्था में अत्यधिक दुखी, अनाथों जैसा जीवन-यापन करने बल्ला, शारीरिक रूप से विकलता अथवा किसी असाध्य रोग का शिकार होता है ।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक उदार हृदय, लंपट, लोभी, दूसरों की नकल करके गरिमा को बढाने वाला, श्रेष्ठ लेखन-शेली वाला, पचास वर्ष की आयु के पश्चात सुखी दांपत्य जीवन जीने वाला तथा एक पुत्र और एक पुत्री से युक्त होता है ।
तीसरे चरण में शनि की उपस्थिति से जातक अनेक संकटों से घिरा रहता है । वह लंबे-चौडे परिवार वाला तथा दूसरों को मदद के लिए स्वयं को खतरे में डालने वाला होता है । उसमें दूसरों को प्रभावित करने की अनोखी कला होती है ।ऐसा जातक उच्च राजनेता भी हो सकता है ।
यदि चौथे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक अधेड़ायु में विवाह करने वाला, स्वभाव से कठोर, अत्यधिक परिश्रमी तथा निष्ठावान कर्मचारी होता है।
यदि दूसरे चरण में शनि हो तो जातक उदार हृदय, लंपट, लोभी, दूसरों की नकल करके गरिमा को बढाने वाला, श्रेष्ठ लेखन-शेली वाला, पचास वर्ष की आयु के पश्चात सुखी दांपत्य जीवन जीने वाला तथा एक पुत्र और एक पुत्री से युक्त होता है ।
तीसरे चरण में शनि की उपस्थिति से जातक अनेक संकटों से घिरा रहता है । वह लंबे-चौडे परिवार वाला तथा दूसरों को मदद के लिए स्वयं को खतरे में डालने वाला होता है । उसमें दूसरों को प्रभावित करने की अनोखी कला होती है ।ऐसा जातक उच्च राजनेता भी हो सकता है ।
यदि चौथे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक अधेड़ायु में विवाह करने वाला, स्वभाव से कठोर, अत्यधिक परिश्रमी तथा निष्ठावान कर्मचारी होता है।
मधा नक्षत्र और शनि
यदि शनि मधा नक्षत्र के पहले चरण में हो तो जातक छोटे कद का, मोटा और कठोर शरीर का स्वामी होता है । वह सरकारी सेवा में कार्यरत, आचरणहीन, वैवाहिक जीवन में दुखी तथा योग्य पुत्र एवं पुत्रियों वाला होता है । वह जीवन को मध्यावस्था में पक्षाघात से ग्रस्त हो सकता है।
यदि दुसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक दो बार विवाह करता है । उसे दांपत्य जीवन में अनेक प्रकार की कठिनाइयां भोगनी पड़ती है तथा उसकी आर्थिक स्थिति कभी संतोषजनक नहीं रहती, अगर तीसरे चरण में शनि का प्रभाव हो तो जातक का गृहस्थ जीवन सदैव कष्टकारी रहता है। उसकी पत्नी दुर्भाग्य की सूचक, व्रहू और मुंहजोर होती है । इसी कारण जातक पत्नी से अलग हो जाता है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक स्वस्थ युवं सुगठित शरीर का स्वामी, ईमानदार, भद्दी भाषा का प्रयोग करने वाला, मेहनत-मजदूरी करके आजीविका चलाने वाला तथा स्वामी भक्त होता है । ऐसे जातक को कहीं से भी आकस्मिक रूप से धन की प्राप्ति हो सकती है ।
यदि दुसरे चरण में शनि उपस्थित हो तो जातक दो बार विवाह करता है । उसे दांपत्य जीवन में अनेक प्रकार की कठिनाइयां भोगनी पड़ती है तथा उसकी आर्थिक स्थिति कभी संतोषजनक नहीं रहती, अगर तीसरे चरण में शनि का प्रभाव हो तो जातक का गृहस्थ जीवन सदैव कष्टकारी रहता है। उसकी पत्नी दुर्भाग्य की सूचक, व्रहू और मुंहजोर होती है । इसी कारण जातक पत्नी से अलग हो जाता है ।
यदि चौथे चरण में शनि हो तो जातक स्वस्थ युवं सुगठित शरीर का स्वामी, ईमानदार, भद्दी भाषा का प्रयोग करने वाला, मेहनत-मजदूरी करके आजीविका चलाने वाला तथा स्वामी भक्त होता है । ऐसे जातक को कहीं से भी आकस्मिक रूप से धन की प्राप्ति हो सकती है ।
नक्षत्र और रोग विचार
फलित शास्त्र में अभिजित् नामक एक अत्ठाईसवा नक्षत्र भी माना गया है । यह उत्तराषाढ़ के बाद तथा श्रवण से पहले आता है । यह नक्षत्र कुल ज्योतिष्य शास्त्र के
सामान्य व्यवहार में अभिजित् नक्षत्र का स्थान नहीं है । तथा रोग विचार में भी यह
कोई अहं भूमिका नहीं निभाता | नक्षत्रों का सामान्य परिचय
अश्विनी-यह नक्षत्र अनिद्रा एव मतिभ्रम आदि रोगों से संबंधित है । इस नक्षत्र में रोग प्रारम्भ होने पर वह १,९ या २५ दिन तक रहता है ।
भरणी…यह नक्षत्र तीव्र ज्वर, वेदना (दर्द ) एव शिथिलता से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र से रोग का प्रारम्भ होने पर वह १,२१,३० दिन . चलता है । कभी-कभी इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग मृत्युदायक भी हो जाता है ।
कृत्तिका-यह नक्षत्र दाह, उदरशूल, तीव्र वेदना, अनिद्रा एव नेत्र रोग से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग का प्रारम्भ होने पर वह ९/१ ० या २१ दिन तक रहता है ।
रोहिणी-यह नक्षत्र सिरदर्द, उन्माद, प्रलाप एव कुक्षिपूल से सम्बन्धित है : इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग ३ ।७। या १ ० दिन तक चलता है ।
मृगशीर्ष -यह नक्षत्र त्रिदोष, चर्मरोग एव असहिष्णुता (एलर्जी) से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ३, ५ या दि दिन तक रहता है ।
आद्रा- यह नक्षत्र वायुविकार, स्नायु-विकार एव कफ रोगों से सम्बन्धित है । इसमें
रोग होने पर वह १० दिन या मैं मास तक रहता है । कभी-कभी इस रोग में उत्पन्न रोग
से मृत्यु हो जाती है ।
पुनर्वसु-यह नक्षत्र कमर में दर्द, सिरदर्द या गुर्दे के रोगो से सम्बन्धित है । इसमें रोग होने पर ७ या ९ दिन चलता है ।
पुष्य-यह नक्षत्र ज्वर, दर्द एव आकस्मिक पीडा-दायक रोगी से सम्बन्धित है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग ७ दिन तक रहता है ।
आश्लेषा - यह नक्षत्र सर्वात्रपीडा, मृत्यु तुल्य कष्ट, विपरोग एव सर्पदश आदि से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग २० या ३ ० दिन रहता है । तथा अधिकाशतया वह मृत्युदायक होता है ।
मघा -यह नक्षत्र वायुविकार, उदर विकार एवं मुखरोगों से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग २ ०,३ ० या ४५ दिन तक चलता है । और उसकी पुनरावृति भी हो जाती है ।
पूर्वाफाल्गुनी-यह नक्षत्र कर्णरोग, शिरोरोग, ज्वर तथा वेदना से सम्बन्धित है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग ८, १५ दिन तक रहता है । कभी-कभी इस नक्षत्र में रोग एक वर्ष तक भी रहता है ।
उत्तराफाल्गुनी-यह नक्षत्र पित्तज्यर, अस्थिभांग एव सर्व पीड़ा से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ७, १५ या २७ दिन तक चलता है ।
हस्त-यह नक्षत्र उदर शूल, म्रिदाग्नी एवं अन्य उदर विकारों से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ७, ८, मैं या १५ दिन तक रहता है । कभी-कभी रोग की पुनरावृत्ति भी हो जाती ।
चित्रा -यह नक्षत्र अत्यन्त कष्टदायक या दुर्घटना जन्य पीडाओं से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ८, ११ या १५ दिन तक रहता है । तथा कभी-कभी उस रोग से मृत्यु भी हो जाती है ।
स्वाति-यह नक्षत्र उन जटिल रोगी से सम्बन्धित है, जिनका शीघ्र निदान या उपचार नहीं हो पाता है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग १ , २, ५ या १० मास तक रहता है ।
सामान्य व्यवहार में अभिजित् नक्षत्र का स्थान नहीं है । तथा रोग विचार में भी यह
कोई अहं भूमिका नहीं निभाता | नक्षत्रों का सामान्य परिचय
अश्विनी-यह नक्षत्र अनिद्रा एव मतिभ्रम आदि रोगों से संबंधित है । इस नक्षत्र में रोग प्रारम्भ होने पर वह १,९ या २५ दिन तक रहता है ।
भरणी…यह नक्षत्र तीव्र ज्वर, वेदना (दर्द ) एव शिथिलता से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र से रोग का प्रारम्भ होने पर वह १,२१,३० दिन . चलता है । कभी-कभी इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग मृत्युदायक भी हो जाता है ।
कृत्तिका-यह नक्षत्र दाह, उदरशूल, तीव्र वेदना, अनिद्रा एव नेत्र रोग से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग का प्रारम्भ होने पर वह ९/१ ० या २१ दिन तक रहता है ।
रोहिणी-यह नक्षत्र सिरदर्द, उन्माद, प्रलाप एव कुक्षिपूल से सम्बन्धित है : इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग ३ ।७। या १ ० दिन तक चलता है ।
मृगशीर्ष -यह नक्षत्र त्रिदोष, चर्मरोग एव असहिष्णुता (एलर्जी) से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ३, ५ या दि दिन तक रहता है ।
आद्रा- यह नक्षत्र वायुविकार, स्नायु-विकार एव कफ रोगों से सम्बन्धित है । इसमें
रोग होने पर वह १० दिन या मैं मास तक रहता है । कभी-कभी इस रोग में उत्पन्न रोग
से मृत्यु हो जाती है ।
पुनर्वसु-यह नक्षत्र कमर में दर्द, सिरदर्द या गुर्दे के रोगो से सम्बन्धित है । इसमें रोग होने पर ७ या ९ दिन चलता है ।
पुष्य-यह नक्षत्र ज्वर, दर्द एव आकस्मिक पीडा-दायक रोगी से सम्बन्धित है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग ७ दिन तक रहता है ।
आश्लेषा - यह नक्षत्र सर्वात्रपीडा, मृत्यु तुल्य कष्ट, विपरोग एव सर्पदश आदि से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग २० या ३ ० दिन रहता है । तथा अधिकाशतया वह मृत्युदायक होता है ।
मघा -यह नक्षत्र वायुविकार, उदर विकार एवं मुखरोगों से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में प्रारम्भ हुआ रोग २ ०,३ ० या ४५ दिन तक चलता है । और उसकी पुनरावृति भी हो जाती है ।
पूर्वाफाल्गुनी-यह नक्षत्र कर्णरोग, शिरोरोग, ज्वर तथा वेदना से सम्बन्धित है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग ८, १५ दिन तक रहता है । कभी-कभी इस नक्षत्र में रोग एक वर्ष तक भी रहता है ।
उत्तराफाल्गुनी-यह नक्षत्र पित्तज्यर, अस्थिभांग एव सर्व पीड़ा से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ७, १५ या २७ दिन तक चलता है ।
हस्त-यह नक्षत्र उदर शूल, म्रिदाग्नी एवं अन्य उदर विकारों से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ७, ८, मैं या १५ दिन तक रहता है । कभी-कभी रोग की पुनरावृत्ति भी हो जाती ।
चित्रा -यह नक्षत्र अत्यन्त कष्टदायक या दुर्घटना जन्य पीडाओं से सम्बन्धित है । इस नक्षत्र में रोग होने पर वह ८, ११ या १५ दिन तक रहता है । तथा कभी-कभी उस रोग से मृत्यु भी हो जाती है ।
स्वाति-यह नक्षत्र उन जटिल रोगी से सम्बन्धित है, जिनका शीघ्र निदान या उपचार नहीं हो पाता है । इसमें प्रारम्भ हुआ रोग १ , २, ५ या १० मास तक रहता है ।
रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग
भगवान शिव के सभी ज्योतिर्लिंगों के स्थापना की अपनी-अपनी कथाएं और महत्व है, लेकिन इस ज्योतिर्लिंग की कथा कुछ अलग है क्योंकि इस की स्थापना और किसी ने नहीं बल्कि खुद भगवान राम ने की थी। तमिलनाडु के रामनाथपुरम् में भगवान शिव का यह रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग है।
ऐसे हुई थी रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग की स्थापना
लंकापति रावण एक ब्राह्मण था। जिको भगवान शिव का लिंग स्थापित करके अभिषेक करने को कहा। श्रीराम ने हनुमान को कैलाश पर्वत जाकर भगवान शिव की मूर्ति लाने को कहा। हनुमान को कैलाश पर्वत जाने पर भगवान शिव की कोई मूर्ति नहीं दिखाई दी, तो हनुमान भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनका तप करने लगे, जिसकी वजह से वे समय पर श्रीराम के पास नहीं पहुंचे। बहुत समयसकी वजह से रावण का वध करने पर श्रीराम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। ऋषियों ने श्रीराम को ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित करने को कहा। इसके लिए ऋषियों ने श्रीराम तक इतजार करने पर भी जब हनुमान भगवान शिव की मूर्ति लेकर नहीं लौटे, तो ऋषियों ने श्रीराम को माता सीता का बालू से बनाया हुआ शिवलिंग स्थापित करके उसकी पूजा-अर्चना करने की आज्ञा दी। वहीं शिवलिंग रामेश्वरम् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्रीराम के नाम पर पड़ा इस ज्योतिर्लिंग का नाम
इय ज्योतिर्लिंग की स्थापना खुद श्रीराम ने की थी, जिसकी वजह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम श्रीराम के नाम रक ही रामेश्वरम् पड़ गया। कहा जातालगभग एक हजार फीट और उत्तर से दक्षिण से लगभग साढ़े छः सौ फीट में फैला हुआ है। यहां के मुख्य द्वार पर लगभग सौ फीट ऊंचा एक गोपुरम् है। तीनों दिशाओं में अन्य तीन भव्य गोपुरम् स्थित है।
यहां मौजूद हैं चौबीस तीर्थ
रामेश्वरम् मंदिर परिसर में धनुषकोटि, चक्रतीर्थ, शिव तीर्थ, अगस्त्य तीर्थ, गंगा तीर्थ, यमुना तीर्थ जैसे कुल चौबीस तीर्थ हैं। इस सभी तीर्थों के दर्शन करने के बाद ही रामे है इस ज्योतिर्लिंग की पूजा-अर्चना करने पर न की सिर्फ भगवान शिव बल्कि श्रीराम भी प्रसन्न होते है।
ऐसा है मंदिर का स्वरूप
रामेश्वरम् मंदिर शिल्पकला का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। आज जिस मंदिर का निर्माण लगभग 350 साल पहले किया गया था। यह मंदिर पूर्व से पश्चिम तक श्वरम् ज्योतिर्लिंग पर जल चढ़ाने का महत्व माना जाता है।
शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है सिर्फ गंगाजल
अन्य ज्योतिर्लिंगों की तरह यहां भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर कोई भी सामान्य जल नहीं चढ़ता है। मान्यताओं के अनुसार, इस ज्योतिर्लिंग पर केवल गंगोत्री या हरिद्वार से लाया गया गंगाजल ही चढ़ाया जाता है, जिसे यहां के पुजारी चढ़ाते हैं।
जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्वा और विश्वास के साथ रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग और हनुमदीश्वर लिंग का दर्शन करता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है. यहां के दर्शनों का मह्त्व सभी प्रकार के यज्ञ और तप से अधिक कहा गया है. इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है, कि यहां के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. यह स्थान ज्योतिर्लिंग और चार धाम यात्रा दोनों के फल देता है.
रामेश्वरम को पित्तरों के तर्पण का स्थल भी कहा गया है. यह स्थान दो ओर से सागरों से घिरा हुआ है. इस स्थान पर आकर श्रद्वालु अपने पित्तरों के लिए कार्य करते है. तथा समुद्र के जल में स्नान करते है. इसके अतिरिक्त यहां पर एक लक्ष्मणतीर्थ नाम से स्थान है, इस स्थान पर श्रद्वालु मुण्डन और श्राद्व कार्य दोनों करते है. रामेश्वरम मंदिर के विषय में कहा जाता है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, वे पत्थर श्रीलंका से लाये गए थे, क्योकि यहां आसपास क्या दूर दूर तक कोई पहाड नहीं है.
ऐसे हुई थी रामेश्वरम् ज्योतिर्लिंग की स्थापना
लंकापति रावण एक ब्राह्मण था। जिको भगवान शिव का लिंग स्थापित करके अभिषेक करने को कहा। श्रीराम ने हनुमान को कैलाश पर्वत जाकर भगवान शिव की मूर्ति लाने को कहा। हनुमान को कैलाश पर्वत जाने पर भगवान शिव की कोई मूर्ति नहीं दिखाई दी, तो हनुमान भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनका तप करने लगे, जिसकी वजह से वे समय पर श्रीराम के पास नहीं पहुंचे। बहुत समयसकी वजह से रावण का वध करने पर श्रीराम पर ब्रह्म हत्या का पाप लगा था। ऋषियों ने श्रीराम को ब्रह्म हत्या के पाप का प्रायश्चित करने को कहा। इसके लिए ऋषियों ने श्रीराम तक इतजार करने पर भी जब हनुमान भगवान शिव की मूर्ति लेकर नहीं लौटे, तो ऋषियों ने श्रीराम को माता सीता का बालू से बनाया हुआ शिवलिंग स्थापित करके उसकी पूजा-अर्चना करने की आज्ञा दी। वहीं शिवलिंग रामेश्वरम् के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
श्रीराम के नाम पर पड़ा इस ज्योतिर्लिंग का नाम
इय ज्योतिर्लिंग की स्थापना खुद श्रीराम ने की थी, जिसकी वजह से इस ज्योतिर्लिंग का नाम श्रीराम के नाम रक ही रामेश्वरम् पड़ गया। कहा जातालगभग एक हजार फीट और उत्तर से दक्षिण से लगभग साढ़े छः सौ फीट में फैला हुआ है। यहां के मुख्य द्वार पर लगभग सौ फीट ऊंचा एक गोपुरम् है। तीनों दिशाओं में अन्य तीन भव्य गोपुरम् स्थित है।
यहां मौजूद हैं चौबीस तीर्थ
रामेश्वरम् मंदिर परिसर में धनुषकोटि, चक्रतीर्थ, शिव तीर्थ, अगस्त्य तीर्थ, गंगा तीर्थ, यमुना तीर्थ जैसे कुल चौबीस तीर्थ हैं। इस सभी तीर्थों के दर्शन करने के बाद ही रामे है इस ज्योतिर्लिंग की पूजा-अर्चना करने पर न की सिर्फ भगवान शिव बल्कि श्रीराम भी प्रसन्न होते है।
ऐसा है मंदिर का स्वरूप
रामेश्वरम् मंदिर शिल्पकला का एक बहुत अच्छा उदाहरण है। आज जिस मंदिर का निर्माण लगभग 350 साल पहले किया गया था। यह मंदिर पूर्व से पश्चिम तक श्वरम् ज्योतिर्लिंग पर जल चढ़ाने का महत्व माना जाता है।
शिवलिंग पर चढ़ाया जाता है सिर्फ गंगाजल
अन्य ज्योतिर्लिंगों की तरह यहां भगवान शिव के ज्योतिर्लिंग पर कोई भी सामान्य जल नहीं चढ़ता है। मान्यताओं के अनुसार, इस ज्योतिर्लिंग पर केवल गंगोत्री या हरिद्वार से लाया गया गंगाजल ही चढ़ाया जाता है, जिसे यहां के पुजारी चढ़ाते हैं।
जो व्यक्ति पूर्ण श्रद्वा और विश्वास के साथ रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग और हनुमदीश्वर लिंग का दर्शन करता है, उसे सभी पापों से मुक्ति मिलती है. यहां के दर्शनों का मह्त्व सभी प्रकार के यज्ञ और तप से अधिक कहा गया है. इसके अतिरिक्त यह भी कहा जाता है, कि यहां के दर्शन मात्र से ही व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं पूरी होती है. यह स्थान ज्योतिर्लिंग और चार धाम यात्रा दोनों के फल देता है.
रामेश्वरम को पित्तरों के तर्पण का स्थल भी कहा गया है. यह स्थान दो ओर से सागरों से घिरा हुआ है. इस स्थान पर आकर श्रद्वालु अपने पित्तरों के लिए कार्य करते है. तथा समुद्र के जल में स्नान करते है. इसके अतिरिक्त यहां पर एक लक्ष्मणतीर्थ नाम से स्थान है, इस स्थान पर श्रद्वालु मुण्डन और श्राद्व कार्य दोनों करते है. रामेश्वरम मंदिर के विषय में कहा जाता है कि जिन पत्थरों से यह मंदिर बना है, वे पत्थर श्रीलंका से लाये गए थे, क्योकि यहां आसपास क्या दूर दूर तक कोई पहाड नहीं है.
डाक्टर बनने के ग्रहयोग और ज्योतिष्य विश्लेषण
आज के इस युग में हर माँ-बाप की इच्छा होती है कि उसका बेटा या बेटी डॉक्टरी की उच्च शिक्षा प्राप्त कर सफल डॉक्टर का व्यवसाय अपना कर समाज में इज्जतदार आदमी बने । जैसे-जैसे समाज में बीमारियों बढती जा रही है, वैसे-वैसे डॉक्टरी पेशे से जुडे हुए लोंग का महत्व बढ़ता जा रहा है। ज्योतिष विज्ञान के आधार पर कौन जातक डाँक्टर बनेगा और किस तरह की बीमारियों का इलाज करेगा आदि-आदि सूक्ष्म विश्लेषण के बाद जाना जा सकता है| डाक्टर बनने के ज्योतिष के कुछ योग निम्नानुसार देखे जा सकते है-
1. यदि मेष, वृश्चिक, वृष, तुला, मकर या कुम्भ राशि कीं लग्न हो और उनमें मंगल-शनि या चंद्र-शनि या बुध-शनि की युति हो या फिर सूर्य-चंद्र के साथ अलग-अलग तीन ग्रहों की युति हो, तो जातक चिकत्सा विज्ञान की पढाई कर चिकित्सक बनने की प्रबल संभावना रहती है।
2.चाहे कोई भी लग्न या राशि हो और केन्द्र में सूर्य-शनि या सूर्य-मंगल-शनि या चंद्र-शनि या चन्द्र-मंगल-शनि या बुध-शनि या बुध-मंगल-शनि या सूर्य-बुध-शनि या चंद्र-बुध-शनि की युति में से किसी की भी युति हो व इनमें कोई दो केन्द्रधिपत्य हो और युति कारक ग्रहों में से कोई अस्त न हो, तो जातक के डाँक्टर बनने की प्रबल संभावना होती है ।
3.सामान्यत: यदि लग्न में मंगल स्वराशि या उच्चराशि का होकर बैठा हो तो भी जातक को सर्जरी में निपुण बनाता है । मंगल चुंकि साहस व रक्त का कारक है ओर सर्जन के लिए रक्त और साहस दोनों से संबंध होता है ।
4. यदि कुंडली में " कर्क राशि एवं मंगल बलवान हो तथा लग्न व दशम से मंगल तथा राहू का किसी भी रुप में संबंध हो, तो भी जातक को डॉक्टर बनाता है।
5. केतु हमेशा डाक्टर की कुंडली में बली होता है । साथ ही सूर्य, मंगल एवं गुरू भी ताकतवर होने चाहिए। चुंकि सूर्य आत्मा का कारक है एवं गुरू बहुत बड़ा मरीज को ठीक करने वाला होता है ।
6 वृश्चिक राशि दवाओं का प्रतिनिधित्व करती है, अत: इसका स्वामी मंगल भी ताकतवर होना चाहिए ।
7. भाव 6 एवं उसका स्वामी का यदि भाव 10 से संबंध हो रहा हो, तो भी डॉक्टर बनाने में सहायक होता है |
8. यदि मंगल या केतू बली होकर दशवें भाव या दशमेश से संबंध बना रहा हो तो जातक सर्जरी वाला डॉक्टर हो सकता है |
9.मीन या मिथुन राशि गुप्त रोगियों से संबंधित दवाओं के डॉक्टर बनाने में के सहायक होता है ।
10. यदि पंचमेश भाव 8 मेँ हो, तो भी डॉक्टर बनने की संभावना होती है ।
11. यदि भाव 10 में चतुथेंश हो और दशमेश भाव 4 में हो, तो जातक दवाऐ जानने वाला दवाओं के माध्यम से जीवन यापन कर डॉक्टरी पेशा अपनाता है ।
12 जिन जातकों की कुंडली में चंद्र व गुरु का बली संबध होता है, वे भी सफल चिकत्सक होते है ।
13. यदि कुंडली का आत्म्कारक ग्रह अपने मूल त्रिकोंण का लग्न में पंचमेश से युति कर रहा हो, तो जातक प्रसिद्ध नाम वाला चिकत्सक होता है ।
14.यदि अकारात्मक ग्रह या भाग्येश या दोनो वर्गोत्त्मी होकर कारकांश कुंडली में लग्न से केन्द्र में हो, तो रसायन से संबंधित दवाओं का व्यवसाय करने की संभावना रहती है ।
15 यदि सूर्य और मंगल की पंचम भाव से युति हो और शनि अथवा राहू भाव 6 में हो, तो जातक सर्जन हो सकता है।
16. यदि वृश्चिक राशि में बुध तथा तृतीय भाव पर चंद्र की दृष्टि हो तो जातक मनोचिकित्सक हो सकता है ।
17 यदि कुंभ लग्न में स्वगृही मंगल दशम भाव से हो तथा चंद्र व सूर्य भी अच्छी स्थिति में हो, तो ऐसा जातक भी सर्जन हो सकता है ।
18. यदि समराशि का बुध हो और लग्न विषम राशि की हो तथा धनेश मार्गी हो तथा अच्छे स्थान में हो, मंगल व चंद्र भी अच्छी स्थिति में हों, तो जातक को विख्यात चिकत्साशास्त्री बना सकता है ।
19. यदि कर्क लग्न की कुंडली के छठे भाव में गुरु व केतू बैठे हों, तो जातक होम्योपैथिक चिकित्सक बन सकता है ।
20. सिह लग्न कुंडली के दशम भाव में लग्नेश सूर्य हो और दशमेश शुक्र नवमस्थ हो तथा योगकारक पाल शुभ स्थान में बली हो, तो डॉक्टर बनता है ।
21. कुंडली में यदि मंगल लाभ भाव में हो तथा तृतीयेश भाव 5 में बैठे एवं शुक्र चंद्र व सूर्य भी अच्छी स्थिति में हों, तो जातक का स्त्री एवं बाल रोग विशेषज्ञ बनने की सभावना होती है
22.कुंडली के पंचम भाव में यदि सूर्य-राहू या राहू-बुध युति हों तथा 'दशमेश की इन पर दृष्टि हो, साथ ही मंगल, चंद्र ,गुरु भी अच्छी स्थिति में हो, तो जातक चिकित्सा क्षेत्र में ज्योतिष प्रयोग द्वारा सफल चिकित्सक बन सकता है|
23. यदि कुंडली में लाभेश और रोगेश की युति ताभ भाव में हो तथा मंगल,चंद,सूर्य भी शुभ होकर अच्छी स्थिति में हो, तो जातक का चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ने की संभावना होती है ।
1. यदि मेष, वृश्चिक, वृष, तुला, मकर या कुम्भ राशि कीं लग्न हो और उनमें मंगल-शनि या चंद्र-शनि या बुध-शनि की युति हो या फिर सूर्य-चंद्र के साथ अलग-अलग तीन ग्रहों की युति हो, तो जातक चिकत्सा विज्ञान की पढाई कर चिकित्सक बनने की प्रबल संभावना रहती है।
2.चाहे कोई भी लग्न या राशि हो और केन्द्र में सूर्य-शनि या सूर्य-मंगल-शनि या चंद्र-शनि या चन्द्र-मंगल-शनि या बुध-शनि या बुध-मंगल-शनि या सूर्य-बुध-शनि या चंद्र-बुध-शनि की युति में से किसी की भी युति हो व इनमें कोई दो केन्द्रधिपत्य हो और युति कारक ग्रहों में से कोई अस्त न हो, तो जातक के डाँक्टर बनने की प्रबल संभावना होती है ।
3.सामान्यत: यदि लग्न में मंगल स्वराशि या उच्चराशि का होकर बैठा हो तो भी जातक को सर्जरी में निपुण बनाता है । मंगल चुंकि साहस व रक्त का कारक है ओर सर्जन के लिए रक्त और साहस दोनों से संबंध होता है ।
4. यदि कुंडली में " कर्क राशि एवं मंगल बलवान हो तथा लग्न व दशम से मंगल तथा राहू का किसी भी रुप में संबंध हो, तो भी जातक को डॉक्टर बनाता है।
5. केतु हमेशा डाक्टर की कुंडली में बली होता है । साथ ही सूर्य, मंगल एवं गुरू भी ताकतवर होने चाहिए। चुंकि सूर्य आत्मा का कारक है एवं गुरू बहुत बड़ा मरीज को ठीक करने वाला होता है ।
6 वृश्चिक राशि दवाओं का प्रतिनिधित्व करती है, अत: इसका स्वामी मंगल भी ताकतवर होना चाहिए ।
7. भाव 6 एवं उसका स्वामी का यदि भाव 10 से संबंध हो रहा हो, तो भी डॉक्टर बनाने में सहायक होता है |
8. यदि मंगल या केतू बली होकर दशवें भाव या दशमेश से संबंध बना रहा हो तो जातक सर्जरी वाला डॉक्टर हो सकता है |
9.मीन या मिथुन राशि गुप्त रोगियों से संबंधित दवाओं के डॉक्टर बनाने में के सहायक होता है ।
10. यदि पंचमेश भाव 8 मेँ हो, तो भी डॉक्टर बनने की संभावना होती है ।
11. यदि भाव 10 में चतुथेंश हो और दशमेश भाव 4 में हो, तो जातक दवाऐ जानने वाला दवाओं के माध्यम से जीवन यापन कर डॉक्टरी पेशा अपनाता है ।
12 जिन जातकों की कुंडली में चंद्र व गुरु का बली संबध होता है, वे भी सफल चिकत्सक होते है ।
13. यदि कुंडली का आत्म्कारक ग्रह अपने मूल त्रिकोंण का लग्न में पंचमेश से युति कर रहा हो, तो जातक प्रसिद्ध नाम वाला चिकत्सक होता है ।
14.यदि अकारात्मक ग्रह या भाग्येश या दोनो वर्गोत्त्मी होकर कारकांश कुंडली में लग्न से केन्द्र में हो, तो रसायन से संबंधित दवाओं का व्यवसाय करने की संभावना रहती है ।
15 यदि सूर्य और मंगल की पंचम भाव से युति हो और शनि अथवा राहू भाव 6 में हो, तो जातक सर्जन हो सकता है।
16. यदि वृश्चिक राशि में बुध तथा तृतीय भाव पर चंद्र की दृष्टि हो तो जातक मनोचिकित्सक हो सकता है ।
17 यदि कुंभ लग्न में स्वगृही मंगल दशम भाव से हो तथा चंद्र व सूर्य भी अच्छी स्थिति में हो, तो ऐसा जातक भी सर्जन हो सकता है ।
18. यदि समराशि का बुध हो और लग्न विषम राशि की हो तथा धनेश मार्गी हो तथा अच्छे स्थान में हो, मंगल व चंद्र भी अच्छी स्थिति में हों, तो जातक को विख्यात चिकत्साशास्त्री बना सकता है ।
19. यदि कर्क लग्न की कुंडली के छठे भाव में गुरु व केतू बैठे हों, तो जातक होम्योपैथिक चिकित्सक बन सकता है ।
20. सिह लग्न कुंडली के दशम भाव में लग्नेश सूर्य हो और दशमेश शुक्र नवमस्थ हो तथा योगकारक पाल शुभ स्थान में बली हो, तो डॉक्टर बनता है ।
21. कुंडली में यदि मंगल लाभ भाव में हो तथा तृतीयेश भाव 5 में बैठे एवं शुक्र चंद्र व सूर्य भी अच्छी स्थिति में हों, तो जातक का स्त्री एवं बाल रोग विशेषज्ञ बनने की सभावना होती है
22.कुंडली के पंचम भाव में यदि सूर्य-राहू या राहू-बुध युति हों तथा 'दशमेश की इन पर दृष्टि हो, साथ ही मंगल, चंद्र ,गुरु भी अच्छी स्थिति में हो, तो जातक चिकित्सा क्षेत्र में ज्योतिष प्रयोग द्वारा सफल चिकित्सक बन सकता है|
23. यदि कुंडली में लाभेश और रोगेश की युति ताभ भाव में हो तथा मंगल,चंद,सूर्य भी शुभ होकर अच्छी स्थिति में हो, तो जातक का चिकित्सा क्षेत्र से जुड़ने की संभावना होती है ।
Tuesday, 8 September 2015
लंदन स्वामीनारायण मंदिर
लंदन का स्वामीनारायण मंदिर भगवान कृष्ण को समर्पित है। स्वामीनारायण संप्रदाय की आस्था का मुख्य केन्द्र है। स्वामीनारायण संप्रदाय भी वैष्णम संप्रदाय का ही एक रूप है। यह ब्रिटेन का पहला प्रामाणिक हिंदू मंदिर माना जाता है। यह एक बहुत ही खुबसूरत मंदिर है। मंदिर परिसर से साथ-साथ यहां स्थित भगवान कृष्ण की मूर्ति का श्रृंगार भी बहुत ही सुदंर किया जाता है।लंदन के किंग्सबरी में स्थित नवनिर्मित स्वामीनारायण मंदिर मणीनगर संस्थान के आचार्यश्री पुरुषोत्ताम प्रियदासजी की प्रेरणा से तैयार हुआ यह मंदिर दुनिया का सबसे बड़ा और पहला ईको फ्रैंडली मंदिर होगा |
स्वामीनारायण संप्रदाय के संतों के मार्गदर्शन से इस मंदिर का निर्माण पर्यावरण सुरक्षा के हरेक पहलू को ध्यान में रखकर बनाया गया यह मंदिर 1.84 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है। इसलिए इस मंदिर को लंदन की पर्यावरणीय संस्था 'ब्रीम' ने एक्सीलेंट रेटिंग भी दी है।
इस मंदिर के निर्माण के लिए आउटर ही नहीं, बल्कि इंटीरियर डिजाइनिंग भी देखने योग्य है। मंदिर में भगवान श्री स्वामीनारायण के मूल सिद्धांत का पूरी तरह से पालन की गई है।
जीआरसी सामान्य कांक्रीट की तुलना में हल्के ग्लासफायबर रिइंफोर्स कांक्रीट का उपयोग किया गया है। इसके साथ ही वजन कम होने के कारण स्ट्रक्चर पर ज्यादा वजन भी नहीं पड़ता, और जीआरसी की पतली दीवारें अन्य कांक्रीट या पत्थर से कहीं ज्यादा मजबूत होती हैं। इस मंदिर के निर्माण में जिन पत्थरों का उपयोग किया गया था, वह इस मंदिर से पहले किसी हिंदू मंदिर के निर्माण में उपयोग नहीं किए गए थे।हिंदू संस्था ने करवाया था मंदिर का निर्माण इस मंदिर का निर्माण और देखभाल श्री बोछासंवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण नाम की संस्था करती है। इस मंदिर का उद्घाटन 1995 में किया गया था स्वामीनारायण मंदिर को हवेली के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर की निर्माण वास्तुकला का एक अच्छा उदाहरण है।
मंदिर में बनाए जाते है सभी हिंदू त्यौहार
लंदन का स्वामीनारायण मंदिर वहां रहने वाले हिंदू के लिए आस्था का केन्द्र है। यहां पर लगभग सभी हिंदू त्यौहार बहुत ही धूम-धाम से मनाए जाते हैं। त्यौहार के अनुसार मंदिर की सजावट की जाती है और भगवान के वस्त्र और श्रृंगार भी वैसे ही पहनाए जाते हैं।
मंदिर में मौजूद मूर्तियां
मंदिर में तीन बहुत ही सुदंर मूर्तियां हैं। जिनमें से मध्य में भगवान स्वामीनारायण उनके बाएं ओर अक्षरब्रह्मा गुणातीतानन्द स्वामी और दाहिनी ओरअक्षरमुक्ता गोपालानंद स्वामी की मूर्ति है। इन मूतिर्यों का रोज अलग-अलग तरह से श्रृंगार किया जाता है।
हिंदू रीति-रिवाजों का होता हैं पालन
मंदिर विदेश में स्थित क्यों न हो, लेकिन यहां पर लगभग सभी हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया जाता हैं। भारत के मंदिरों की तरह ही यहां पर भी सुबह मंगला आरती उसके बाद श्रृंगार आरती और फिर दोपहर में राजभोग आरती की जाती है। शाम के समय में संध्या आरती और रात को शयन आरती करके मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं।
स्वामीनारायण संप्रदाय के संतों के मार्गदर्शन से इस मंदिर का निर्माण पर्यावरण सुरक्षा के हरेक पहलू को ध्यान में रखकर बनाया गया यह मंदिर 1.84 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है। इसलिए इस मंदिर को लंदन की पर्यावरणीय संस्था 'ब्रीम' ने एक्सीलेंट रेटिंग भी दी है।
इस मंदिर के निर्माण के लिए आउटर ही नहीं, बल्कि इंटीरियर डिजाइनिंग भी देखने योग्य है। मंदिर में भगवान श्री स्वामीनारायण के मूल सिद्धांत का पूरी तरह से पालन की गई है।
जीआरसी सामान्य कांक्रीट की तुलना में हल्के ग्लासफायबर रिइंफोर्स कांक्रीट का उपयोग किया गया है। इसके साथ ही वजन कम होने के कारण स्ट्रक्चर पर ज्यादा वजन भी नहीं पड़ता, और जीआरसी की पतली दीवारें अन्य कांक्रीट या पत्थर से कहीं ज्यादा मजबूत होती हैं। इस मंदिर के निर्माण में जिन पत्थरों का उपयोग किया गया था, वह इस मंदिर से पहले किसी हिंदू मंदिर के निर्माण में उपयोग नहीं किए गए थे।हिंदू संस्था ने करवाया था मंदिर का निर्माण इस मंदिर का निर्माण और देखभाल श्री बोछासंवासी अक्षर पुरुषोत्तम स्वामीनारायण नाम की संस्था करती है। इस मंदिर का उद्घाटन 1995 में किया गया था स्वामीनारायण मंदिर को हवेली के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर की निर्माण वास्तुकला का एक अच्छा उदाहरण है।
मंदिर में बनाए जाते है सभी हिंदू त्यौहार
लंदन का स्वामीनारायण मंदिर वहां रहने वाले हिंदू के लिए आस्था का केन्द्र है। यहां पर लगभग सभी हिंदू त्यौहार बहुत ही धूम-धाम से मनाए जाते हैं। त्यौहार के अनुसार मंदिर की सजावट की जाती है और भगवान के वस्त्र और श्रृंगार भी वैसे ही पहनाए जाते हैं।
मंदिर में मौजूद मूर्तियां
मंदिर में तीन बहुत ही सुदंर मूर्तियां हैं। जिनमें से मध्य में भगवान स्वामीनारायण उनके बाएं ओर अक्षरब्रह्मा गुणातीतानन्द स्वामी और दाहिनी ओरअक्षरमुक्ता गोपालानंद स्वामी की मूर्ति है। इन मूतिर्यों का रोज अलग-अलग तरह से श्रृंगार किया जाता है।
हिंदू रीति-रिवाजों का होता हैं पालन
मंदिर विदेश में स्थित क्यों न हो, लेकिन यहां पर लगभग सभी हिंदू रीति-रिवाजों का पालन किया जाता हैं। भारत के मंदिरों की तरह ही यहां पर भी सुबह मंगला आरती उसके बाद श्रृंगार आरती और फिर दोपहर में राजभोग आरती की जाती है। शाम के समय में संध्या आरती और रात को शयन आरती करके मंदिर के दरवाजे बंद कर दिए जाते हैं।
लीवर की बीमारी और ज्योतिष्य विश्लेषण
यकृत शरीर के अत्यंत महत्वपूर्ण अंगों में से है। यकृत की कोशिकाएँ आकार में सूक्ष्मदर्शी से ही देखी जा सकने योग्य हैं, परंतु ये बहुत कार्य करती हैं। एक कोशिका इतना कार्य करती हैं कि इसकी तुलना एक कारखाने से (क्योंकि यह अनेक रासायनिक यौगिक बनाती है), एक गोदाम से (ग्लाइकोजन, लोहा और बिटैमिन को संचित रखने के कारण), अपशिष्ट निपटान संयंत्र से (पिपततवर्णक, यूरिया और विविध विषहरण उत्पादों को उत्सर्जित करने के कारण) और शक्ति संयंत्र से (क्योंकि इसके अपचय से पर्याप्त ऊष्मा उत्पन्न होती है) की जा सकती है। जिगर की विफलता के रोगों के रूप में विल्सन रोग, हेपेटाइटिस (यकृत शोथ), जिगर कैंसर, क्रोनिक जिगर की सूजन (यकृत चयापचय गतिविधि में परिवर्तन कर सकते हैं और अगर यह लंबे समय के लिए प्रभावित हो तो इसके हानिकारक प्रभाव से पूरा शरीर प्रभावित होता है। ज्योतिष में कुंडली के यकृत का संबंध ग्रह गुरु है। गुरु का अपना रंग पीला ही होता है और पीलिया रोग में भी जब रक्त में बिलीरूबिन जाता है, तो शरीर के सभी अंगों को पीला कर देता है। ऐसा पित्त के बिगडने से भी होता है। गुरु ग्रह भी पित्त तत्व से संबंध रखता है। पीलिया रोग में बिलीरूबिन पदार्थ रक्त की सहायता से सारे शरीर में फैलता है। रक्त के लाल कण मंगल के कारण होते हैं और तरल चंद्र से। इसलिए मंगल और चंद्र भी इस रोग के फैलने में अपना महत्त्व रखते है। इस प्रकार गुरु, मंगल और चंद्र जब अशुभ प्रभावों में जन्मकुंडली एवं गोचर में होते हैं, तो व्यक्ति को पीलिया रोग हो जाता है। जब तक गोचर और दशांतर दशा अशुभ प्रभाव में रहेंगे, तब तक जातक को पीलिया रोग रहेगा उसके उपरांत नहीं।
Pt.P.S.Tripathi
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आपके साथी के साथ व्यवहार कैसा होगा:जाने ज्योतिष से
प्रत्येक व्यक्ति की यह कामना होती है कि उसका साथी उसके लिए लाभकारी तथा सुखकारी हो, किंतु कई बार सभी प्रकार से अच्छा करने के बाद भी साथ वाला व्यक्ति आपके लिए दुख का कारक बन जाता है। ज्योतिष से जाने कि आपके साथी के साथ व्यवहार कैसा होगा। सप्तमभाव या सप्तमेष का किसी से भी प्रकार से मंगल, शनि या केतु से संबंध होने पर रिश्तों में बाधा, सुख में कमी का कारण बनता है वहीं शुक्र से संबंधित हो तो रिश्तों में आकर्षक तथा लगाव होगा तथा उसकी आर्थिक स्थिति तथा भौतिक सुख भी अच्छी होगी, जिसका लाभ साथी को भी मिलेगा। ऐसी स्थिति सप्तम या सप्तमेष का किसी भी प्रकार का संबंध 6, 8 या 12 वे भाव से बनने पर भी दिखाई देता है। वहीं पर लग्नेश, पंचमेश, सप्तमेश या द्वादशेष की युक्ति किसी भी प्रकार से शनि के साथ बनने पर लगाव के साथ अधिकार का भाव ज्यादा होता है। अतः इन ग्रहों के विपरीत फलकारी होने पर या कू्रर ग्रहों से आक्रांत होेने पर सर्वप्रथम इन ग्रहों से संबंधित निदान कराने के उपरांत ही साथी के साथ रिश्ता निभाना ज्यादा आसान होता है साथ ही कुंडली मिलान में नौ ग्रहों के मिलान कर भी आपसी समझ तथा लगाव को बढ़ाने के ज्योतिष उपाय करना चाहिए।
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कैसे लें वास्तु अनुरूप अपार्टमेंट्स में घर
वर्तमान के बदलते परिवेश में जहां भूखंडों की कीमतें लगातार बढ़ रही हैं ऐसे में अपार्टमेंट में घर लेना काफी सुविधाजनक हो गया है। वास्तु सभी अपार्टमेंट को एक स्वतंत्र इकाई मानता है इसलिए अपार्टमेंट में आप ऊपर रहें या नीचे, दिशा निर्धारण का वही सिद्धांत लागू होता है। अगर अपार्टमेंट बहुत ऊंचाई पर है, तब भी बेहतर यह है कि पूरा ब्लॉक वर्गाकार या आयताकार हो ताकि पृथ्वी से उसका नाता जुड़ा रहे। वास्तु के अनुसार वर्गाकार भवन पुरुषोचित होते हैं जबकि आयताकार इमारतें स्त्रियोचित(नारी-जातीय) और कोमल।
यदि आप अपार्टमेंट ब्लॉक में रहने जा रहे हैं तो उसकी ऊपरी मंजिल चुनिए ताकि भूतल स्तर के नुकसानदायक प्रभावों से बचा जा सके। अपार्टमेंट के लिए सबसे अच्छी जगह ब्लॉक की उत्तर-पूर्व या पूर्व दिशा है, जो प्रात:कालीन प्रकाश के अनुकूल गुणों को ग्रहण करती है। उत्तर-पूर्व दिशा वाला अपार्टमेंट यह सुनिश्चित करेगा कि अन्य अपार्टमेंट दक्षिण-पश्चिम में बाधाएं पैदा कर नकारात्मक शक्तियों के प्रवेश को रोकेंगे। ब्लॉक पर्याप्त दूरी पर हों ताकि कमरों में रोशनी व हवा आ सके।
वास्तु शास्त्रों का यह भी मानना है कि घर बनाने में प्रयुक्त किए गए सभी पदार्थों में जैविक ऊर्जा होती है। बलुआ तथा संगमरमर जैसे पत्थर घर में रहने वाले लोगों पर शुभ प्रभाव डालते हैं जबकि ग्रेनाइट तथा स्फटिक जैसे पत्थर नसों में खून के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करते हैं तथा स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी खड़ी करते हैं। आदर्श अपार्टमेंट वह ब्लॉक है जो ईंटों या पत्थर से निर्मित हो न कि शीशे या पथरीली कांक्रीट से।
वर्तमान में आधुनिक भवनों में पथरीली क्रंकीट, इस्पात, शीशे या सिंथेटिक सामग्री के उपयोग किया जाने लगा है। यह इमारत को मजबूत तो बनाती हैं लेकिन सेहत पर बुरा प्रभाव भी डालती है। वास्तु शास्त्र के अनुसार कंक्रीट मृत सामग्री है जो नकारात्मक ऊर्जा उत्सर्जित करती है जिसके कारण बीमारी व अन्य परेशानियां उत्पन्न होती है।
यदि आप अपार्टमेंट ब्लॉक में रहने जा रहे हैं तो उसकी ऊपरी मंजिल चुनिए ताकि भूतल स्तर के नुकसानदायक प्रभावों से बचा जा सके। अपार्टमेंट के लिए सबसे अच्छी जगह ब्लॉक की उत्तर-पूर्व या पूर्व दिशा है, जो प्रात:कालीन प्रकाश के अनुकूल गुणों को ग्रहण करती है। उत्तर-पूर्व दिशा वाला अपार्टमेंट यह सुनिश्चित करेगा कि अन्य अपार्टमेंट दक्षिण-पश्चिम में बाधाएं पैदा कर नकारात्मक शक्तियों के प्रवेश को रोकेंगे। ब्लॉक पर्याप्त दूरी पर हों ताकि कमरों में रोशनी व हवा आ सके।
वास्तु शास्त्रों का यह भी मानना है कि घर बनाने में प्रयुक्त किए गए सभी पदार्थों में जैविक ऊर्जा होती है। बलुआ तथा संगमरमर जैसे पत्थर घर में रहने वाले लोगों पर शुभ प्रभाव डालते हैं जबकि ग्रेनाइट तथा स्फटिक जैसे पत्थर नसों में खून के प्रवाह में अवरोध उत्पन्न करते हैं तथा स्वास्थ्य संबंधी परेशानियां भी खड़ी करते हैं। आदर्श अपार्टमेंट वह ब्लॉक है जो ईंटों या पत्थर से निर्मित हो न कि शीशे या पथरीली कांक्रीट से।
वर्तमान में आधुनिक भवनों में पथरीली क्रंकीट, इस्पात, शीशे या सिंथेटिक सामग्री के उपयोग किया जाने लगा है। यह इमारत को मजबूत तो बनाती हैं लेकिन सेहत पर बुरा प्रभाव भी डालती है। वास्तु शास्त्र के अनुसार कंक्रीट मृत सामग्री है जो नकारात्मक ऊर्जा उत्सर्जित करती है जिसके कारण बीमारी व अन्य परेशानियां उत्पन्न होती है।
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