Friday, 25 December 2015

क्या यह असहिष्णुता नहीं


क्या यह दृश्य अब भी आपको दिखाई देता कि, रेलवे स्टेशन पर एक आदमी अब भी डस्टबिन से लोगों की फेंकी हुई सामग्री बीनकर अपना पेट भरता नजर आता है। क्या आपने दिल्ली से चलकर देश की अलग-अलग दिशा में जाने वाली ट्रेनों का हाल देखा है। नहीं, तो एक बार जाकर देखिए, बचे हुए समोसों-कचौरियों पर बच्चे कैसे टूटते हैं। क्या आपको पता है, देश में गरीबी का क्या हाल है और 27 रुपये या 32 रुपये में एक आदमी अपना दिन कैसे निकाल सकता है? क्या आप देश में बच्चों के भविष्य की कल्पना कर सकते हैं, जिसके 48फीसदी बच्चे किसी न किसी तरह के कुपोषण के शिकार हैं, जिनका जिक्र हमारे पूर्व प्रधानमंत्री ने ‘‘राष्ट्रीय शर्म’’ के रूप में किया? क्या आपको नौकरी के लिए चप्पल घिसते नौजवान नजर आते हैं? क्या आपको देश में हजारों किसानों की आत्महत्याएं सहिष्णु या असहिष्णु के सवाल की तरह चिंतनीय नहीं लगतीं? देश में सहिष्णुता है, नहीं है, खत्म हो रही है? अनुपम खेर से लेकर आमिर खान तक की बहस जाने किस नतीजे पर पहुंचेगी? पहुंचेगी भी या नहीं! लेकिन इस देश में कुछ और भी शब्द हैं जो समाज के असहिष्णु हो जाने सरीखे ही भयंकर और खतरनाक हैं। बावजूद इसके बीते सालों में ये शब्द कभी-कभी ही वैचारिक पटल पर गंभीरता से उठाए गए। भुखमरी, कुपोषण, बेरोजगारी, किसान आत्महत्या, भ्रष्टाचार- यूपीए से लेकर एनडीए तक इन शब्दों के प्रभाव से भली-भांति वाकिफ होते हुए भी, सुधारने के लिए क्या गंभीर कोशिश कर पाए हैं, देश की मौजूदा हालत देखकर समझ आता है, क्योंकि समस्याएं तो जस की तस हैं।
परंपरा के किसी घिसे-पिटे संस्करण के विरुद्ध, अंधविश्वास के किसी सतही स्वरूप के खिलाफ अगर आपने कुछ कहा तो किसी की भी भावना आहत हो सकती है और मौत की धमकी देने से लेकर उस पर अमल तक किया जा सकता है। असहिष्णुता और सार्थक संवाद की कम होती जा रही संभावना के खिलाफ विरोध अब केवल कुछ मु_ी भर लेखकों, फिल्मकारों, कलाकारों और बुद्धिजीवियों तक ही सीमित नहीं रह गया है। देश में व्याप्त स्थिति पर चिंता जताने वालों में पूर्व नौसेनाध्यक्ष एडमिरल रामदास, पाश्चात्य शास्त्रीय संगीत के क्षेत्र में जीनियस माने जाने वाले कंडक्टर जुबिन मेहता, शीर्ष फिल्म अभिनेता शाहरुख खान, चोटी के सरोदवादक अमजद अली खान, उद्योग जगत के एनआर नारायणमूर्ति, किरण शॉ मजूमदार, भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराम राजन, प्रसिद्ध वैज्ञानिक पीएम भार्गव और भारतीय मूल के ब्रिटिश अर्थशास्त्री लॉर्ड मेघनाद देसाई के नाम भी जुड़ गए हैं। सदाचार की बातें करते हुए किसी व्यक्ति की भावना आहत न हो और हिंसा न भडक़े, इसके लिए व्यक्ति की अभिव्यक्ति में सतर्क संतुलन स्थापित होना नितांत आवश्यक है किन्तु अपने विचार व्यक्त करने से ही असहिष्णुता की चिंगारी फैल जाये और सब मिलकर गलत साबित करने लगे ये तो घर के अंदर वार्तालाप से लेकर सामूहिक बयानबाजी, पान के ठेले पर चर्चा से लेकर मिडिया तक दिखाई देती है। 1947 में भारत का विभाजन धर्म के आधार पर हुआ था क्योंकि मुहम्मद अली जिन्ना के नेतृत्व वाली मुस्लिम लीग मुसलमानों के लिए एक अलग राष्ट्र चाहती थी। विभाजन के बाद बहुत बड़ी तादाद में हिन्दू सीमा पार से भारत आए और मुसलमान पाकिस्तान गए। लेकिन इसके बावजूद मुसलमानों की अधिकांश आबादी ने भारत में रहना ही तय किया। क्योंकि कांग्रेस के नेतृत्व में चला राष्ट्रीय आंदोलन सभी धर्मों के लोगों को साथ लेकर स्वाधीन भारत के निर्माण में यकीन रखता था और उसने कभी भी सिद्धांत रूप में मुस्लिम लीग के इस दावे को नहीं माना था कि सिर्फ वही भारतीय मुसलमानों की एकमात्र प्रतिनिधि और प्रवक्ता है।
इसलिए धर्म के आधार पर देश का बंटवारा होने के बावजूद भारत को हिन्दू राष्ट्र नहीं बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाने का फैसला लिया गया। राष्ट्रीय आंदोलन के नेतृत्व ने अपने लंबे राजनीतिक अनुभव के आधार पर निष्कर्ष निकाला था कि एक ऐसा देश जिसमें अनेक धर्मों, संस्कृतियों, भाषाओं और क्षेत्रों के लोग रहते हों, केवल लोकतांत्रिक, संघीय और धर्मनिरपेक्ष रूप में ही अपनी एकता और अखंडता को सुरक्षित रख सकता है। भारत के संविधान में भी अपने धर्म के पालन और प्रचार की स्वतंत्रता दी गई है और यह प्रत्येक भारतीय का बुनियादी अधिकार है। भारत जैसे बहुधार्मिक और बहुसांस्कृतिक देश में इस स्वतंत्रता के बिना लोकतंत्र नहीं चल सकता।
क्योंकि लोकतंत्र में वोटों का महत्व है, इसलिए हर धर्म के बीच ऐसे संगठन बन जाते हैं जो यह प्रचारित करते हैं कि उस धर्म के सभी मानने वालों के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक हित एक जैसे हैं और उन्हें वही संगठन पूरा कर सकता है। ये संगठन अंतत: सांप्रदायिक प्रचार पर उतर आते हैं जिसकी बुनियाद एक धार्मिक समुदाय को दूसरे के खिलाफ ख?ा करने की राजनीति पर टिकी होती है। लेकिन ऐसे सांप्रदायिक संगठन भी भारत में अपने विरोधी समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता छीनने की बात नहीं करते। यहां सुब्रहमण्यन स्वामी जैसे राजनीतिक नेता मुसलमानों से वोट का अधिकार छीनने जैसी सांप्रदायिक मांग तो उठा सकते हैं, लेकिन उनकी धार्मिक स्वतंत्रता छीनने की मांग उठाने की उनकी भी हिम्मत नहीं पड़ती, क्योंकि आम हिन्दू के लिए इससे बुरी बात कोई नहीं हो सकती कि किसी से उसका धर्म पालन करने का अधिकार छीन लिया जाए। भारत में रहने वाले ईसाई और मुसलमान भी यहां सदियों से रहते आए हैं और उनमें भी दूसरे धर्म को मानने वालों को अपने धर्म में लाने का वैसा जोश नहीं है जैसा दूसरे देशों में पाया जाता है। अधिकांश भारतीय धर्म को निजी चीज समझते हैं और इस बात में यकीन रखते हैं कि हम अपने धर्म का पालन करें और दूसरों को उनके धर्म का पालन करने दें।
भारतीय राजनीति के लिए भी इसके फलितार्थ हैं। ‘घर वापसी’ अभियान गैर-हिंदुओं को हिन्दू बनाना भी टांय-टांय-फिस्स हो गया क्योंकि यह भारतीय समाज की मानसिकता के विरुद्ध है। यह इस बात का संकेत है कि सांप्रदायिक राजनीति चाहे वह किसी भी समुदाय की क्यों न हो, भारतीय समाज में अधिक देर तक प्रभावशाली नहीं रह सकती क्योंकि इसमें रहने वाले अधिकांश लोग धार्मिक स्वतंत्रता के मुरीद हैं। हर भारतीय हिंसा और आतंकवाद वाले धार्मिक कट्टरपंथ से दूर रहना चाहता है वह उदारवादी धर्मनिरपेक्ष और आधुनिक बनने से पहले भारतीय कहलाना पसंद करता है नफरत और हिंसा से दूर रहकर गांधीवादी बन करूणा, प्यार और अहिंसा की विचारधारा को अपनाता है
किन्तु इस वर्ष की ज्योतिष्य गणनाओं बताती है की देश में कुछके छोटे-बड़े सांप्रदायिक घटनाएं हो सकती है |क्योंकि फ़रवरी की शुरुआत में ही गुरु,राहु से पापाक्रांत होकर कन्या राशि में भ्रमण करेगा | अर्थात कालपुरुष की कुंडली में कन्या राशि मतलब शत्रुता,जहाँ गुरु भाग्येश होकर छठे स्थान में राहु से आक्रांत रहेंगे इसका सीधा सा मतलब है प्रभावशाली लोग समस्या को नज़रअंदाज करेंगे और आमजन के मन में असंतोष पनप सकता है |जिसका सीधा सा मतलब है की 2016 के प्रथम छ:माही में असहिष्णुता स्पष्ट दिखाई देगी |इसे रोकने समय रहते प्रयास जरुरी है |
Pt.P.S.Tripathi
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Thursday, 24 December 2015

ज्योतिष्य आधार पर इच्हित संतान प्राप्ति योग

ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। समाज में रहकर हम सभी समाज की मान्यताओं के अनुकूल आचरण करते हैं। मान्यताएं विभिन्न होते हुए भी उनकी परिणति लगभग एक जैसी है। जिसके लिए प्रत्येक प्राणी संघर्ष करता है। परिवार की मर्यादाओं से बंधनयुक्त मनुष्य समाज द्वारा निर्धारित आचरणों का पालन करने को बाध्य है तथा विभिन्न संस्कारों पर आचरण करता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत मनुष्य संस्कारों से बंधा कर्तव्यरत रहता है। जीवन के प्रत्येक संस्कार का एक धार्मिक मूल्य है। संस्कृति भी हमारे कर्म तथा किये हुए कर्म पर आधारित है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य कर्म से बंधा है, जिसके अनुसार जन्म जन्मांतर से भोगमान भोगता है, इसलिए शास्त्रों में सत्कर्म करने पर जोर दिया जाता है। इस विधा में कर्मानुसार जन्म समय में क्षितिज में तदनुकूल ग्रह नक्षत्रादि भी उपस्थित रहते हैं, जो कि जन्म कुंडली के रूप में मिलते हैं। जन्मकुंडली वास्तव में जातक के पूर्व जन्म का वह लेखा जोखा है, जो इस जन्म में उसे भोगना पड़ता है। कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि अमुक बालक का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ। हिंदू धर्म का पुरातत्व नाम ही वर्णाश्रम धर्म है। जिससे हमारे विभिन्न संस्कार बंधे हैं, और आचरण की विधाएं। इन्हीं संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, वैवाहिक संस्कार। जिस पर दो अपरिचितों का मिलन, दोनों का भविष्य तथा मिलन के परिणति का वृत्तिफल इच्छित संतान होना भी निर्भर है। यही कारण है कि समाज के लोग विवाह के पूर्व लड़के तथा लड़कियों के परिवार के बारे में जानने समझने के बाद ही निर्णय लेते हैं तथा गणमान्य ज्योतिषियों से कुंडली दिखाते हैं तभी अंतिम निर्णय लेने की परंपरा है। ज्योतिष शास्त्र से कुंडली मिलाने की विधा जन्म काल के नक्षत्रादि से है। इसका वर्गीकरण 36 गुण किये हैं जिनके आधार पर मिलान आवश्यक है। यदि वर कन्या के 20 गुण मिलते हैं, तो इसे मध्यम माना जाता है। यदि 20 गुण से अधिक मिलते हैं, तो अति शुभ तथा 20 गुण से कम मिलने पर अशुभ माना गया है। अतः 20 गुण से जितना अधिक मिले उत्तरोत्तर उतना ही शुभ मानने का निर्देश शास्त्रों में है। अधिक गुणों के मेल पर अधिक जोर देना चाहिए। वर कन्या के नक्षत्रादि के आधार पर गुणों का मिलान किया जाता है। जन्मकाल में कुंडली बनाने में नक्षत्रों का प्रमुख महत्व है। पूछा भी जाता है कि कौन नक्षत्र में जन्मा है बच्चा? कैसा निकलेगा इत्यादि। यह सुनिश्चित एवं प्रमाणित है कि विशेष नक्षत्र में जन्म लिया व्यक्ति कुछ न कुछ नाक्षत्रिक विशेषता लिए पैदा होता है, जो सर्वविदित है। अतः नक्षत्रों की स्थिति के पश्चात् मनुष्य एक विशेष वर्ण, वश्य, गण, नाड़ी आदि को लेकर जन्म लेता है तथा उन गुण दोषों से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। उदाहरणार्थ यदि पूर्वा फाल्गुनी में कोई जन्म लेता है तो वह बालक निम्न गुण धर्म को लेकर जन्म लेता है। 1. वर्ण-क्षत्रिय 2 वश्य-वनचर 3. योनि-मूषक 4. गण-मनुष्य 5. नाड़ी-मध्य इत्यादि। ये सभी विशेषताएं मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म से पाता है तथा वैसी ही नैसर्गिक विशेषता लेकर जन्म लेता है। वास्तव में यह ईश्वरीय विधा है तथा सामाजिक एवं सांसारिक व्यवस्था से कहीं परे और सुनिश्चित है। इस प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्में मनुष्य का जन्म नक्षत्र- पूर्वा फाल्गुनी है तो नक्षत्र वशात् वह क्षत्रिय वर्ण का हुआ। अंक निर्णय लेना है कि उस मनुष्य की भौतिक स्थिति को ध्यान में रखकर हमें विशेषतया नाड़ी पर कुंडली मिलाते समय ध्यान रखना चाहिए या नक्षत्र वशात क्षत्रिय वर्ण होने, क्षत्रिय वर्ण पर ध्यान देना चाहिए, जो वास्तव में ईश्वरीय है, तथा भौतिकता से परे है। अस्तु यहां यह तर्कसंगत होगा कि नक्षत्रादि के विपाक से जो कुछ है वही सुनश्चित और अटल है। पूर्व उल्लिखित उदाहरण में नाड़ी पर विशेष जोर न देकर क्षत्रिय वर्ण की व्यवस्था ही ग्रहण करने योग्य है। नक्षत्र वशात् ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी जातक क्षत्रिय गुणों को अपने में संजोये रहेगा। आचरण भी बहुत कुछ उससे मिलता जुलता होगा। नक्षत्रों के आधार पर 36 गुण होते हैं। यदि 36 गुण मिल गये तो वह मिलान अत्यंत श्रेष्ठ माना जायेगा। लेकिन ऐसा काम होता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि कम गुण मिलने पर कुछ न कुछ कमी तो रहेगी ही। यह कमी किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। जैसे यदि भाग्यादि ठीक रहा तो कन्या का बाहुल्य हो गया संतति के क्षेत्र में इत्यादि। यही नहीं वंशानुगत रोगादि भी वर कन्या के सहवास के फलस्वरूप मिलता है, वह भी तो मेलापक के काम अधिक गुणों के मिलने का प्रतिफल है। अक्सर देखा जाता है कि यजमान लोग भी केवल ग्रह मैत्री संतान धन को मिलाने पर जोर देते हैं ऐसे में शास्त्र और विद्वान को दोष देना व्यर्थ है। सुख एवं दुःख ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो मनुष्य का गुण है कि यदि आज वह सुख भोग रहा है तो उसी को कल दुख भी भोगना पड़ सकता है। इसी प्रकार इस संसार चक्र को संचालित करने में नर एवं नाड़ी एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। यह संसार बिना दोनों के योग से चल ही नहीं सकता। दोनों पहिये यदि एक दूसरे के समर्थक व पूरक न हों अर्थात् उचित ताल मेल न हो तो जीवनयापन सुखी नहीं हो सकता। हमारा ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। अब समय आ गया है कि इस विषय को नये सिरे से वैज्ञानिकता के आधार पर विवेचना की जाये तथा वर्तमान काल, स्थिति के संदर्भ में उसको प्रस्तुत किया जाये ताकि सूर्य सिद्धांत व दृश्य गणित का अंतर देखें। यदि इस प्रकार के समयांतर को आधार बनायें तो घटियों का अंतर पड़ते-पड़ते अंश राशि तक पहुंच जायेगा। आज समय आ गया है कि इस पर नये सिरे से विचार करके प्राचीन पद्धति पर बनी सारणी को हटाकर नवीनतम सारणी को प्रस्तुत किया जाये। अपने को समयानुकूल ढ़ालने के लिए नया रूप देना होगा। जबकि पाश्चात्य देश हमारे ही सिद्धांतों को अपनाकर अंतरिक्ष युग में प्रवेश कर चुके हैं तो हमारी कार्य क्षमता पर प्रश्न चिन्ह क्यों। उक्त के अतिरिक्त इसी प्रकार वर्तमान समय के पाश्चात्य समाज में विवाह विषयक निर्णय के लिए रक्त ग्रुप तथा आनुवंशिकी प्रथा प्रचलित है। इस विषय में हमारे मनीषियों ने हजारों वर्षों पूर्व कुंडली मेलापक की व्यवस्था कर दी थी। जो गौरव की बात है।

ज्योतिष्य आधार पर इच्हित संतान प्राप्ति योग

ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। समाज में रहकर हम सभी समाज की मान्यताओं के अनुकूल आचरण करते हैं। मान्यताएं विभिन्न होते हुए भी उनकी परिणति लगभग एक जैसी है। जिसके लिए प्रत्येक प्राणी संघर्ष करता है। परिवार की मर्यादाओं से बंधनयुक्त मनुष्य समाज द्वारा निर्धारित आचरणों का पालन करने को बाध्य है तथा विभिन्न संस्कारों पर आचरण करता है। जन्म से मृत्यु पर्यंत मनुष्य संस्कारों से बंधा कर्तव्यरत रहता है। जीवन के प्रत्येक संस्कार का एक धार्मिक मूल्य है। संस्कृति भी हमारे कर्म तथा किये हुए कर्म पर आधारित है। क्योंकि प्रत्येक मनुष्य कर्म से बंधा है, जिसके अनुसार जन्म जन्मांतर से भोगमान भोगता है, इसलिए शास्त्रों में सत्कर्म करने पर जोर दिया जाता है। इस विधा में कर्मानुसार जन्म समय में क्षितिज में तदनुकूल ग्रह नक्षत्रादि भी उपस्थित रहते हैं, जो कि जन्म कुंडली के रूप में मिलते हैं। जन्मकुंडली वास्तव में जातक के पूर्व जन्म का वह लेखा जोखा है, जो इस जन्म में उसे भोगना पड़ता है। कुंडली देखकर यह बताया जा सकता है कि अमुक बालक का जन्म किन परिस्थितियों में हुआ। हिंदू धर्म का पुरातत्व नाम ही वर्णाश्रम धर्म है। जिससे हमारे विभिन्न संस्कार बंधे हैं, और आचरण की विधाएं। इन्हीं संस्कारों में एक महत्वपूर्ण संस्कार है, वैवाहिक संस्कार। जिस पर दो अपरिचितों का मिलन, दोनों का भविष्य तथा मिलन के परिणति का वृत्तिफल इच्छित संतान होना भी निर्भर है। यही कारण है कि समाज के लोग विवाह के पूर्व लड़के तथा लड़कियों के परिवार के बारे में जानने समझने के बाद ही निर्णय लेते हैं तथा गणमान्य ज्योतिषियों से कुंडली दिखाते हैं तभी अंतिम निर्णय लेने की परंपरा है। ज्योतिष शास्त्र से कुंडली मिलाने की विधा जन्म काल के नक्षत्रादि से है। इसका वर्गीकरण 36 गुण किये हैं जिनके आधार पर मिलान आवश्यक है। यदि वर कन्या के 20 गुण मिलते हैं, तो इसे मध्यम माना जाता है। यदि 20 गुण से अधिक मिलते हैं, तो अति शुभ तथा 20 गुण से कम मिलने पर अशुभ माना गया है। अतः 20 गुण से जितना अधिक मिले उत्तरोत्तर उतना ही शुभ मानने का निर्देश शास्त्रों में है। अधिक गुणों के मेल पर अधिक जोर देना चाहिए। वर कन्या के नक्षत्रादि के आधार पर गुणों का मिलान किया जाता है। जन्मकाल में कुंडली बनाने में नक्षत्रों का प्रमुख महत्व है। पूछा भी जाता है कि कौन नक्षत्र में जन्मा है बच्चा? कैसा निकलेगा इत्यादि। यह सुनिश्चित एवं प्रमाणित है कि विशेष नक्षत्र में जन्म लिया व्यक्ति कुछ न कुछ नाक्षत्रिक विशेषता लिए पैदा होता है, जो सर्वविदित है। अतः नक्षत्रों की स्थिति के पश्चात् मनुष्य एक विशेष वर्ण, वश्य, गण, नाड़ी आदि को लेकर जन्म लेता है तथा उन गुण दोषों से परिपूर्ण जीवन व्यतीत करता है। उदाहरणार्थ यदि पूर्वा फाल्गुनी में कोई जन्म लेता है तो वह बालक निम्न गुण धर्म को लेकर जन्म लेता है। 1. वर्ण-क्षत्रिय 2 वश्य-वनचर 3. योनि-मूषक 4. गण-मनुष्य 5. नाड़ी-मध्य इत्यादि। ये सभी विशेषताएं मनुष्य अपने पूर्व जन्म के कर्म से पाता है तथा वैसी ही नैसर्गिक विशेषता लेकर जन्म लेता है। वास्तव में यह ईश्वरीय विधा है तथा सामाजिक एवं सांसारिक व्यवस्था से कहीं परे और सुनिश्चित है। इस प्रकार ब्राह्मण कुल में जन्में मनुष्य का जन्म नक्षत्र- पूर्वा फाल्गुनी है तो नक्षत्र वशात् वह क्षत्रिय वर्ण का हुआ। अंक निर्णय लेना है कि उस मनुष्य की भौतिक स्थिति को ध्यान में रखकर हमें विशेषतया नाड़ी पर कुंडली मिलाते समय ध्यान रखना चाहिए या नक्षत्र वशात क्षत्रिय वर्ण होने, क्षत्रिय वर्ण पर ध्यान देना चाहिए, जो वास्तव में ईश्वरीय है, तथा भौतिकता से परे है। अस्तु यहां यह तर्कसंगत होगा कि नक्षत्रादि के विपाक से जो कुछ है वही सुनश्चित और अटल है। पूर्व उल्लिखित उदाहरण में नाड़ी पर विशेष जोर न देकर क्षत्रिय वर्ण की व्यवस्था ही ग्रहण करने योग्य है। नक्षत्र वशात् ब्राह्मण कुल में जन्म लेने पर भी जातक क्षत्रिय गुणों को अपने में संजोये रहेगा। आचरण भी बहुत कुछ उससे मिलता जुलता होगा। नक्षत्रों के आधार पर 36 गुण होते हैं। यदि 36 गुण मिल गये तो वह मिलान अत्यंत श्रेष्ठ माना जायेगा। लेकिन ऐसा काम होता है। इस प्रकार यह सुनिश्चित है कि कम गुण मिलने पर कुछ न कुछ कमी तो रहेगी ही। यह कमी किसी भी क्षेत्र में हो सकती है। जैसे यदि भाग्यादि ठीक रहा तो कन्या का बाहुल्य हो गया संतति के क्षेत्र में इत्यादि। यही नहीं वंशानुगत रोगादि भी वर कन्या के सहवास के फलस्वरूप मिलता है, वह भी तो मेलापक के काम अधिक गुणों के मिलने का प्रतिफल है। अक्सर देखा जाता है कि यजमान लोग भी केवल ग्रह मैत्री संतान धन को मिलाने पर जोर देते हैं ऐसे में शास्त्र और विद्वान को दोष देना व्यर्थ है। सुख एवं दुःख ये दोनों एक दूसरे के पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का कोई अस्तित्व नहीं है। यह तो मनुष्य का गुण है कि यदि आज वह सुख भोग रहा है तो उसी को कल दुख भी भोगना पड़ सकता है। इसी प्रकार इस संसार चक्र को संचालित करने में नर एवं नाड़ी एक ही रथ के दो पहिये होते हैं। यह संसार बिना दोनों के योग से चल ही नहीं सकता। दोनों पहिये यदि एक दूसरे के समर्थक व पूरक न हों अर्थात् उचित ताल मेल न हो तो जीवनयापन सुखी नहीं हो सकता। हमारा ज्योतिष शास्त्र बहुत ही प्राचीन है। हमारे मनीषी, विद्वानों ने अपने दिव्य चक्षु द्वारा देश एवं काल तथा उसके सूक्ष्म गति का अध्ययन करके कुछ सिद्धांतों को प्रतिपादित किया है। जिन्हें सूत्रबद्ध करके प्रस्तुत किया है। अब समय आ गया है कि इस विषय को नये सिरे से वैज्ञानिकता के आधार पर विवेचना की जाये तथा वर्तमान काल, स्थिति के संदर्भ में उसको प्रस्तुत किया जाये ताकि सूर्य सिद्धांत व दृश्य गणित का अंतर देखें। यदि इस प्रकार के समयांतर को आधार बनायें तो घटियों का अंतर पड़ते-पड़ते अंश राशि तक पहुंच जायेगा। आज समय आ गया है कि इस पर नये सिरे से विचार करके प्राचीन पद्धति पर बनी सारणी को हटाकर नवीनतम सारणी को प्रस्तुत किया जाये। अपने को समयानुकूल ढ़ालने के लिए नया रूप देना होगा। जबकि पाश्चात्य देश हमारे ही सिद्धांतों को अपनाकर अंतरिक्ष युग में प्रवेश कर चुके हैं तो हमारी कार्य क्षमता पर प्रश्न चिन्ह क्यों। उक्त के अतिरिक्त इसी प्रकार वर्तमान समय के पाश्चात्य समाज में विवाह विषयक निर्णय के लिए रक्त ग्रुप तथा आनुवंशिकी प्रथा प्रचलित है। इस विषय में हमारे मनीषियों ने हजारों वर्षों पूर्व कुंडली मेलापक की व्यवस्था कर दी थी। जो गौरव की बात है।

Profession identification through horoscope

Astrologically 5th and 10th houses play an important role in identifying the profession, the course of intellectual pursuit. In the modern world many new courses and branches of knowledge have come out, making it difficult to choose out of many branches of knowledge with the help of 12 Rasis, 12 Bhavas and the 9 planets. Our ancient saint like Parasara, either considered, that the Astrologers will be wise and logically well developed to make a judicious selection by permutation and combination of planets. Thus the new generation of astrologers are groping in darkness as to how to judge the horoscope to find the course of studies and the nature of profession. A study in a particular subject does not necessarily mean that he will take up a profession in the same line. There are many Doctors, Engineers who become a contractors, actors, politicians and dacoits. In other words many of them did not choose a profession suitable to their educational qualifications. Hence an astrological assessment of profession on the basis of study of planets in the 5th house may go wrong, without considering the 10th house. The course of study may be influenced by the ruling planets, in the life during the formative years i., 5th to 20th years of age. A qualified Doctor, by leaving his medical profession become a politician or an industrialist or an actor. An Engineer after 10 years of profession has become a Homeopathic Doctor, Ayurvedic Doctors have alternative medicine profession like magnetherphy, flower therphy and so on. Educational and profession deserves to be investigated astrologically fifth house, besides other things, is the house of gaining knowledge and education. 10th house is the house of profession and the karma. The Dasa of a planet from 5th to 20th year i.e., formative period gives an indication of the field of study. In the following example : Cancer is the lagna, 5th house is the Scorpio, and Aries is the 10th house. The 5th and the 10th house lord is Mars posited in 5th house, associated with Mercury the lord of 3rd and 12th. Jupiter the lord of 6th and 9th, Mars being 5th lord he should give technical education, 10th lord also being mars should give technical occupation, Engineering, Defence Services, Police etc. This assessment may not lead to correct prediction with reference to education and profession, we have to take into consideration the modifications in view of Mars association with the Jupiter., and mercury in the 5th house. The Mercury is a mathematician, a literary man, chemist, and a philosopher. As a lord of 3rd house he should deal with many people, being lord of 12th, he should have spiritual mind, loss of opportunities. The Ketu is not lord of any house in association with Mars and Mercury he goes with live stock, forests, timber and bones. So, the choice of profession largely lies in the shoulder of Mars, who is lord of Education and Karma bhava. Mars, Mercury and Jupiter posited in 5th house are in shadastaka with Moon the lord of 1st house. So, we can assume that the native will have technical education with a mixture of mathematics, literature, logic, chemicals food education, and teaching as per the qualities of Mercury and Jupiter. With this data, it becomes possible to fix the course of study, but to pin point we have to examine Dasa period from 5th to 20th year. The balance of Dasa at Birth is around 5 years Rahu. So 5th to 20th year, Jupiter dasa will be in force. Jupiter, essentially a teacher. During this period the native will take Technical studies connected with the Mars and Mercury. Mars is technician, Mercury mathematician. During this period the native studied a technical course with tinge of educational system designing and architects. But from 20th onwards for 19 years the native will enter Saturn Dasa, posited in 6th house, associated with the lord of 2nd Sun. This gives a Government Job involving certain changes induced by Saturn. Now during the sub-period the native is likely to be in a subordinate position. From 40th year Mercury Dasa being the lord of 3rd and 12th posited in 5th should give a position where certain elements of administration and pin pricks of comments or criticism are inevitable. The education can be decided from the planets who are ruling during dasas from 5th to 10th year with reference to their relatin with the 5th and 10th lords. But the career ordained by 5th lord need not necessarily be the same. The professional choice will be influenced by the Dasa lords from 20th onwards. The transition from Jupiter Dasa to Sani dasa will be quits sudden and unexpected with a change of all parameters. Saturn and Mercury they being friendly planets will not oppose each other ensuing continuity of profession in the same location or department with a change from servitude to official status power and financial gain. In this way though 5th house influences the course of study and the 10th house decides the course of career as to whether it should be technical course, subordinate position of administration position. The certification of the 5th and 10th lords depend entirely on the Dasa lords and their lordship of houses. The 5th and 10th lords may not always give them a career in accordance with the education alone. For fixing the profession one has to study and aspects of the horoscope to foresee the changes in the life by combined assessment of 5th and 10th lords dasa and their lordships associations the Bhavas.

शासकीय अधिकारी बनने के योग

जनतांत्रिक शासन प्रणाली में प्रधान नेता, मंत्री और शासकीय अधिकारी आदि उच्च पदों का विचार राजयोगों से और निम्न पदों (शासकीय सेवकों) का विचार राज प्रधान योगों से करना चाहिये। उच्चस्तरीय आजीविका की प्राप्ति में यह योग ही मुख्य भूमिका निभाते हैं। महर्षि पाराशर प्रणीत इन योगों को जानने के लिये आत्मकारक, अमात्यकारक ग्रह और आरुढ लग्न/पद लग्न को समझना पड़ेगा। आत्मकारक: जन्मकालीन ग्रहों में से जिस ग्रह के अंश सर्वाधिक हो वह आत्मकारक होता है। जहां ग्रहों के अंश तुल्य हों, वहां कला से अधिकता लेनी चाहिये और कला समान हो तो विकला से जो अधिक हो, वही आत्मकारक होता है। महर्षि पाराशर ने कहा है- जिनके जन्मकाल में दो ग्रह सम अंश वाले हो तो दोनों ही उस कारक के स्वामी होते हैं। परंतु उसका फल स्थिर कारक से कहना चाहिये। आत्मकारक ग्रह से न्यून अंश वाला ग्रह अमात्यकारक होता है। इसी प्रकार क्रमशः भ्रातृकारक, मातृकारक, पुत्रकारक, ज्ञातिकारक व स्त्रीकारक होते हैं। इन सभी में आत्मकारक प्रधान होता है व जातक का स्वामी होता है। आत्मकारक के वश से अन्य कारक फल देने वाले होते हैं। क्योंकि आत्मकारक सभी ग्रहों का राजा होता है। लग्नारूढ़ पद: जनुर्लग्नाल्लग्नस्वामी यावद दूरं हितिष्ठति। तावद् दूरं तदग्रे च लग्नारूढं चं कथ्यते।। लग्न लग्न से लग्नेश जितने दूर भाव में स्थित हो, उससे उतने ही भाव आगे की राशि लग्नेश का पद या आरुढ़ होता है। उसे लग्न पद या आरुढ़ लग्न कहते हैं। इस प्रकार लग्नारुढ़ को लग्न मानकर चक्र बनाये उसमें जो ग्रह जिस स्थान में हो उसे वहां लिखकर फल कहें। इस प्रकार द्वादश भावों का आरुढ़ पद बनाया जा सकता है लेकिन सभी पदों में लग्न का पद मुख्य होता है। निर्वध अर्गला: पद या लग्न से 2, 4, 7, 11 भाव में शुभ ग्रह होने से या उक्त भावों पर शुभ ग्रहों की दृष्टि होने से निर्बाध अर्गला होती है। निर्बाध अर्गला हो तो व्यक्ति भाग्यवान होता है। इस प्रकार प्रत्येक भाव से अर्गला का विचार किया जा सकता है। यदि 2, 4, 7, 11 भावों में अशुभ ग्रह हो या अशुभ ग्रहों की दृष्टि हो तो फल का आनुपातिक ह्रास होता है। चतुर्थ का दशम, द्वितीय का द्वादश और एकादश का तृतीय भाव क्रमशः बाधक होते हैं। अतः तृतीय, दशम, द्वादश भाव में स्थित ग्रह प्रतिबंधक अर्गला होते हैं अर्थात निर्बाध अर्गला में वधिक होते हैं। शुभ ग्रह की अर्गला भाव फल को खेलती है, धन की वृद्धि करती है और पाप ग्रह की अर्गला भाव फल को रोकती है एवं अल्प धन देती है। शुभ एवं पाप ग्रह की मिश्रित अर्गला होने पर कहीं वृद्धि कहीं ह्रास होता है। लग्न पद या चंद्रमा के साथ कोई उच्चस्थ ग्रह हो तथा उनसे गुरु शुक्र का योग हो और पाप ग्रह कृत अर्गला योग न हो तो निसंशय विशेष राजयोग होता है। पद या लग्न से सातवें भाव में निर्वध अर्गला होती है यदि यह अर्गला हो तो मनुष्य भाग्यवान होता है। शुभ ग्रह की अर्गला बहुत द्रव्य देने वाली होती है। महाराज योग और उच्चाधिकारी महर्षि पाराशर के मतानुसार में दैवज्ञ राजयोगों को जानता है वह राजा (शासक) द्वारा पूज्य होता है। आइये हम भी प्रमुख राज योगों को जानने का प्रयत्न करते हैं। लग्नेऽय पंचमे वापि लग्नेशे पंचमाधिपे। पुत्रात्मकारकौ विप्र लग्ने वा पंचमेऽपि च ।। सम्बंधे वीक्षिते तत्र दृष्टैवं पंचमाधिपे। स्वोच्चे स्वांशे स्वभे वापि शुभग्रह निरीक्षिते।। महाराजेति योगोऽयं सोडत्र जात सुखी नरः। गजवाजिरधैर्युक्तः सेनास्ग्मनेकधा।। 1. लग्नेश और पंचमेश लग्न या पंचम भाव में स्थित हो अथवा लग्नेश पंचम भाव में और पंचमेश लग्न में स्थित हो। तो राजयोग होता है। 2. अथवा आत्मकारक और पुत्रकारक दोनों लग्न या पंचम मे हो, या दोनों में किसी प्रकार का संबंध हो। तो राजयोग होता है। 3. जन्म लग्नेश तथा पंचमेश के संबंध से तथा आत्मकारक और पुत्रकारक के संबंध से और इनके बलाबल के अनुसार उत्तम, मध्यम और अधम राजयोग होता है। 4. राजयोगकारक ग्रह अपनी उच्च राशि में स्थित हों और शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट हो तो उत्तम श्रेणी का राजयोग ‘महाराज योग’ होता है। इस योग में उत्पन्न व्यक्ति शासन के उच्च पदों पर या उच्च प्रशासकीय अधिकारी होता है। 5. राजयोगकारक ग्रह अपने स्वयं के नवांश में स्थित होने और शुभ ग्रहों द्वारा दृष्ट होने पर जातक शासन या प्रशासन में द्वितीय श्रेणी का अधिकारी होता है। 6. राजयोग कारक ग्रह यदि स्वयं की राशि में स्थित हो तो जातक तृतीय श्रेणी का शासकीय कर्मचारी होता है तथा उसे राज्याश्रय प्राप्त होता है। उपरोक्त सभी स्थितियों में उत्पन्न मनुष्य वाहन आदि से युक्त और सुखी होता है। ‘महाराज योग’ श्रेष्ठ राजयोग है। जिनके जन्मकाल में यह योग पड़ता है। उस जातक का सभी सम्मान करते हैं तथा उसके आदेश का पालन करते हैं। भाग्येशः कारके लग्ने पंचमें सप्तमेऽपि वा। राजयोगप्रदातारौ गजवाजिधनरैपि।। यदि भाग्येश और आत्मकारक लगन, पंचम या सप्तम में हो तो हाथी, घोड़े और धन से युक्त राज्य देते हैं। महर्षि पाराशर के अनुसार यदि उच्च राशि में स्थित ग्रह लग्न को देखता हो तो राजयोग होता है। छठवे या आठवे भाव में अपनी नीच राशि में बैठा ग्रह यदि लग्न को देखे तो योगकारक होता है और राजयोग का फल देता है। धमकर्माधिपौ चैव व्यत्यये तावुभौ स्थितौ। युक्तश्चेद्वै तदा वाच्यः सर्व सौख्य समन्वितः।। नवमेश दशमेश के स्थान परिवत्रन से अर्थात नवमेश दशम भाव और दशमेश नवम भाव में स्थित हो अथवा इन दोनों की युति हो तो जातक सभी सुखों से युक्त होता है। लघु पाराशरी में परम केन्द्रेश और परम त्रिकोणेश के इस योग को प्रथम श्रेणी का राजयोग कहा गया है तथा इस योग का फल यश-कीर्ति और विजय बताया गया है। यह योग मैंने अनेक नेताओं और अधिकारियों की जन्मकुंडली में पाया है। जिसके आधार पर मैं कह सकता हूं कि उक्त योग में यदि राजभंग योग न हो तो जातक शासक वरिष्ठ मंत्री या उच्च अधिकारी होता है और धन-मान-सम्मान के साथ सुखी जीवन जीता है। सुख कर्माधिपौ चैव मन्त्रिनायेन संयुतौ। धर्मेशेनाऽथवा युक्तौ जालश्चेदिह राज्यभाक् सुखेश, कर्मेश यदि पंचमेश या धर्मेश (नवमेश) से युक्त हो तो जातक राज्य का अधिकारी होता है। यहां भी केंद-त्रिकोण के संबंध से राजयोग बताया गया है। किंतु इस योग में प्रथम और सप्तम केंद्र को शामिल नहीं किया गया है। पंचमेश सप्तमेश के संबंध से अमात्य योग होता हे। इसी योग में यदि कर्मेश योग करता है तो राजा या मंत्री होता है। केंद्रेश और नवमेश का योग हो तो राजा से वंदित राजा होता है। निष्कर्ष यह है कि सुखेश और पंचमेश का संबंध लक्ष्मीदायक है, सुखेश और नवमेश का संबंध इससे भी अच्छा (शुभ) है किंतु दशमेश और नवमेश का युति दृष्टि या स्थान परिवर्तन संबंध प्रबल राजयोग कारक है। लग्नेश, पंचमेश और नवमेश इन तीनों की युति यदि लग्न, चतुर्थ या दशम स्थान में हो तो राजवंश में उपन्न जातक राजा होता है। ऐसा महर्षि पाराशर का कथन है किसी शासक या अधिकारी के पुत्र की कुंडली में उक्त योग हो तो वह बालक भी अपने पिता के समान शासक या अधिकारी होता है। अपनी जन्म कुंडली में उक्त योग रखने वाला जातक यदि साधारण पिता का पुत्र हो तो ऐसा जातक निम्न श्रेणी का अधिकारी, मंत्री का सचिव होता है। सप्तमेश दशमस्थ में स्थित हो तथा अपनी उच्चराशि में कर्मेश भाग्येश के साथ हो तो ‘श्रीनाथ’ योग होता है। इस योग में उत्पन्न जातक द्वंद के समान राजा होता है।

जीवन में महत्वपूर्ण घटनाएं कब होती है

ज्योतिष का महत्वपूर्ण भाग फलकथन है। इसी गुण के कारण उसे वेदों का नेत्र कहा जाता है। भविष्य को जानने की चाह प्रत्येक व्यक्ति को होती है, संकट तथा परेशानी में यह चाह और भी बढ़ जाती है। भविष्य को व्यक्त करने की दुनिया के अलग-अलग धर्मों में अलग-अलग पद्धतियां हैं। सर्वाधिक प्रचलित तथा विश्वसनीय विधि जन्मपत्री का विश्लेषण है। जन्मपत्री विश्लेषण के कुछ महत्वपूर्ण बिंदु हैं जो जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का संकेत देते हैं। इनमें प्रमुख हैं: जातक का महादशा क्रम, अष्टकवर्ग एवं गोचर तथा नक्षत्रों के विभिन्न चरण तथा उनसे ग्रहों का गोचर। वैसे तो जन्मपत्री विश्लेषण के कई सूत्र हैं यथा - योग, वर्ग कुंडलियां, तिथ, वार, पक्ष, मास, नक्षत्र जन्म फल, ग्रहों के संबंध इत्यादि लेकिन भविष्य कथन में उपरोक्त तीन ही निर्णायक हैं। महर्षि पराशर ने मानव जीवन को 120 वर्ष की अवधि मानकर महादशा प्रणाली विकसित की। इस महादशा का निर्धारण जन्मकालीन चंद्रमा की नक्षत्रात्मक स्थिति में होता है। सभी 27 नक्षत्रों को नवग्रहों में विभक्त कर एक-एक ग्रह को तीन नक्षत्रों का स्वामी बना दिया गया तथा गहों के भी महादशा वर्ष निश्चित किए गए। यहां महादशा क्रम, अंतर व प्रत्यंतर दशा निकालने की विधि दी जा रही है, सिर्फ उन बिंदुओं की चर्चा की जा रही है जो महत्वपूर्ण घटनाक्रम का कारण बनते हैं। लग्न, पंचम व नवम भाव जन्म कुंडली के शक्तिशाली भाव हैं - इनसे स्वास्थ्य, बुद्धि व संतान तथा भाग्य का विचार किया जाता है। इन्हें त्रिकोण भाव कहा जाता है। इन भावों में स्थित राशियों के स्वामी ग्रहों की महादशा, अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा सदैव सुखद परिणाम देती है। इसी तरह छठा, आठवां व व्यय भाव दुःख स्थान या त्रिक् स्थान कहलाते हैं। इनके स्वामी ग्रहों की महादशा, अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा कष्टकारी होती है। लग्न व नवम भाव के स्वामी ग्रहों की ममहादशा में चतुर्थ या सप्तम भाव के स्वामी ग्रह की अंतरदशा घर में मंगल कार्य करवाती है। जन्म नक्षत्र से तीसरा नक्षत्र विपत, पांचवां प्रत्यरि तथा सातवां वध संज्ञक कहलाता है। इन नक्षत्रों के स्वामी ग्रहों की महादशा, अंतरदशा या प्रत्यंतरदशा दुखद परिणाम देती है लेकिन अगर ये ग्रह त्रिकोण भावों के स्वामी हों तो परिणाम मिश्रित होते हैं। द्वितीय व सप्तम भाव मारक भाव हंै। इनके स्वामी ग्रहों की दशा-अंतरदशा यह प्रत्यंतर दशा मारक होती है। शास्त्रों में आठ प्रकार की मृत्यु बताई गई है अतः मृत्यु का अर्थ केवल जीवन की समाप्ति नहीं होता। विंशोत्तरी महादशा के अतिरिक्त अन्य दशाओं का भी प्रयोग होता है। लेकिन अष्टोत्तरी, कालचक्र, योगिनी चर तथा माण्डु मुख्य हैं। लेकिन घटनाओं के निर्धारण में विंशोत्तरी की उपयोगिता निर्विवाद है। अष्टक वर्ग एक विशिष्ट प्रणाली है जो ग्रहों के शुभ-अशुभ प्रभावों को संख्या में व्यक्त करती है। इसका आधार है ग्रहों का ग्रहों पर प्रभाव। जिस राशि में जिस ग्रह के शुभ अंक ज्यादा हों, गोचर में उस राशि में वह ग्रह अपने भाव का भरपूर लाभ देता है। लेकिन इस प्रणाली को जानकार ज्योतिषियों के माध्यम से ही जाना जा सकता है। अष्टकवर्ग घटनाओं के निर्धारण तथा आयु निर्णय में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। गोचर अर्थात् ग्रहों का राशि पथ में भ्रमण और उसका जन्म कुंडली के विभिन्न भावों पर प्रभाव। गोचर सामान्यतः चंद्र राशि के आधार पर गोचर का निर्धारण कर फल कथन किया जाता है। जन्म नक्षत्र से तीसरा, पांचवां, सातवां 12वां,14वां,16वां,21वां,23वां या 25वां नक्षत्र गोचर के भाव से अशुभ है। इन नक्षत्रों से ग्रहों का भ्रमण अशुभ घटनाक्रम उत्पन्न कर सकता है। राशि पथ 27 नक्षत्रों तथा 108 चरणों में विभक्त है। यही 108 चरण नवांश भी कहलाते हैं। कुछ फलितकार जीवन भी 108 वर्ष का मानते हैं। जीवन के आयु तुल्य नवांश में जब भी कोई ग्रह भ्रमण करता है तो वह अपने भाव का शुभ या अशुभ फल अवश्य करता है। इधर कुछ फलितकारों की विशेष रूप से प्रश्न मार्ग की मान्यता है कि 108 चरणों को यदि जन्म कुंडली के 12 भावों में विभक्त किया जाए तो प्रत्येक भाव में 9 चरण आएंगे। यदि इन्हें क्रम से रखा जाए ता लग्न में 1,13,25,37,49,61,73,85 या 97वां चरण पड़ेगा। इन नवांशों में जब भी ग्रह गोचरस्थ होंगे वे स्वास्थ्य पर अपनी प्रकृति के अनुसार प्रभाव डालेंगे। इस प्रणाली में चतुर्थ भाव में पड़ने वाला 64वां एवं 88वां चरण अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। राहु-केतु-शनि तथा मंगल का इन चरणों से गोचर अत्यंत कष्ट देता है। ज्योतिष में राशियों के मृत्यु भाग का उल्लेख आता है। मेष का 260, वृष 120, मिथुन 130, कर्क 250, सिंह 20, कन्या 010, तुला 260, वृश्चिक 140, धनु 130, मकर 250, कुंभ 50 एवं मीन का 12वां अंश मृत्यु भाग है। लग्न से 210 से 220 अंशों को महाकष्टकारी माना जाता है। इन अंशों से ग्रहों का गोचर कष्ट ही देता है। यहां उन विशिष्ट बिंदुओं पर प्रकाश डाला गया है जो अति संवेदनशील है |

गोचर विज्ञान

इसे देखने के लिये अष्टक वर्ग जैसी अन्य पद्धतियों का नाम एवं विधि विस्तारपूर्वक बताएं। ब्रह्मांड में स्थित ग्रह अपने-अपने मार्ग पर अपनी-अपनी गति से सदैव भ्रमण करते हुए एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश करते रहते हैं। जन्म समय में ये ग्रह जिस राशि में पाये जाते हैं वह राशि इनकी जन्मकालीन राशि कहलाती है जो कि जन्म कुंडली का आधार है। जन्म के पश्चात् किसी भी समय वे अपनी गति से जिस राशि में भ्रमण करते हुए दिखाई देते हैं, उस राशि में उनकी स्थिति गोचर कहलाती है। वर्ष भर के समय की जानकारी गुरु और शनि से, मास की सूर्य से और प्रतिदिन की चंद्रमा के गोचर से प्राप्त की जा सकती है। वास्तविकता तो यह है कि किसी भी ग्रह का गोचर फल उस ग्रह की अन्य प्रत्येक ग्रह से स्थिति के आधार पर भी कहना चाहिए न कि केवल चंद्रमा की स्थिति से। गोचर फलादेश के सिद्धांत: 1. मनुष्य को ग्रह गोचर द्वारा ग्रहों की, मुख्यतः ग्रहों की जन्मकालीन स्थिति के अनुरूप ही अच्छा अथवा बुरा फल मिलता है। इस विषय में मंत्रेश्वर महाराज ने ‘फलदीपिका’ में लिखा है। ‘‘यद भागवो गोचरतो विलग्नात्देशश्वरः सर्वोच्च सुहृदय ग्रहस्थः तद् भाववृद्धि कुरूते तदानीं बलान्वितश्चेत प्रजननेऽपि तस्य’’ अर्थात् यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में बली होकर गोचर में भी अपनी उच्च राशि, अपनी राशि अथवा मित्र राशि में जा रहा हो तो लग्न से जिस भाव में गोचर द्वारा जा रहा होगा, उसी भाव के शुभ फल को बढ़ायेगा। इसी विषय को पुनः अशुभ फल के रूप में भी फलदीपिका कार इस प्रकार लिखते हैं। ‘‘बलोनितो जन्मनि पाकनाथौ मौढ्यं स्वनीचं रिपुमंदिरं वा। प्राप्तश्च यद भावमुपैति चारात् तदभाव नाशकुरूते तदानीम्।। अर्थात् यदि कुंडली में कोई ग्रह जिसकी दशा चल रही हो, निर्बल है, अस्त है, नीच राशि में अथवा शत्रु राशि में स्थित है तो वह ग्रह गोचर में लग्न के जिस भाव को देखेगा या जायेगा उस भाव का नाश करेगा। 2. यदि जन्मकुंडली में कोई ग्रह अशुभ भाव का स्वामी हो या अशुभ स्थान में पड़ा हो या नीच राशि अथवा नीच नवांश में हो तो वह ग्रह-गोचर में शुभ स्थान में आ जाने पर भी अपना गोचर का पूर्णअशुभ फल देगा। 3. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में शुभ हो, और गोचर में बलवान होकर शुभ स्थान में भ्रमण कर रहा हो तो उत्तम फल करता है। 4. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली के अनुसार शुभ हो, गोचर में भी शुभ भाव में होकर नीच आदि प्रकार से अधम हो तो कम शुभ फल करता है। 5. यदि कोई ग्रह जन्म कुंडली में अशुभ हो और गोचर में शुभ भाव में हो, परंतु नीच, शत्रु आदि राशि में हो तो बहुत कम शुभ फल करेगा, अधिकांश अशुभ फल ही प्रदान करेगा। 6. यदि कोई ग्रह जन्मकुंडली में अशुभ है और गोचर में भी अशुभ भाव में अशुभ राशि आदि में स्थित है तो वह अत्यंत अशुभ फल प्रदान करेगा। 7. जब ग्रह गोचरवश शुभ स्थान से जा रहा हो और जन्मकुंडली में स्थित दूसरे शुभ ग्रहों से अंशात्मक दृष्टि योग कर रहा हो तो विशेष शुभ फल प्रदान करता है। 8. गोचर में जब ग्रह मार्गी से वक्री होता है अथवा वक्री से मार्गी होता है तब विशेष प्रभाव दिखलाता है। 9. जब गोचर में कोई ग्रह अग्रिम राशि में चला जाता है और कुछ समय के लिए वक्री होकर पिछली राशि में आ जाता है तब भी वह आगे की राशि का फल प्रदान करता है। 10. सूर्य और चंद्रमा का गोचर फल: जिस जातक के जन्म नक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण पड़ता है तो उस व्यक्ति के स्वास्थ्य आयु आदि के लिए बहुत अशुभ होता है। इस संबंध में ‘मुहूर्त’ चिंतामणि’ का निम्नलिखित श्लोक इस प्रकार है- ‘‘जन्मक्र्षे निधने ग्रहे जन्मतोघातः क्षति श्रीव्र्यथा, चिन्ता सौख्यकलत्रादौस्थ्यमृतयः स्युर्माननाशः सुखम्। लाभोऽपाय इति क्रमातदशुभ्यध्वस्त्यै जपः स्वर्ण, गोदानं शान्तिस्थो ग्रहं त्वशुभदं नोवीक्ष्यमाहुवरे।।’’ अर्थात जिस व्यक्ति के जन्म नक्षत्र पर ग्रहण पड़ा हो उसकी सूर्य चंद्र के द्वारा जन्म नक्षत्र पर गोचर भ्रमण के समय मृत्यु हो सकती है। यही फल जन्म राशि पर ग्रहण लगने से कहा है। जन्म राशि से द्वितीय भाव में ग्रहण पड़े तो धन की हानि, तृतीय में पड़े तो धन की प्राप्ति होती है, पांचवे तो चिंता, छठे पड़े तो सुखप्रद होता है। सातवें पड़े तो स्त्री से पृथकता हो या उसका अनिष्ट हो, आठवें पड़े तो रोग हो, नवें पड़े तो मानहानि, दशम में पड़े तो कार्यों में सिद्धि, एकादश पड़े तो विविध प्रकार से लाभ और बारहवें पड़े तो अधिक व्यय तथा धन नाश होता है। 11. यदि वर्ष का फल अशुभ हो अर्थात् शनि, गुरु और राहु गोचर में अशुभ हों और मास का फल उत्तम हो तो उस मास में शुभ फल बहुत ही कम आता है। 12. यदि वर्ष और मास दोनों का फल शुभ हो तो उस मास में अवश्य अतीव शुभ फल मिलता है। 13. ग्रहों का गोचर में शुभ अशुभ फल जो उनके चंद्र राशि में भिन्न भावों में आने पर कहा है उसमें बहुत बार कमी आ जाती है। उस कमी का कारण ‘वेध’ भी होता है। जब कोई ग्रह किसी भाव में गोचरवश चल रहा हो तो उस भाव से अन्यत्र एक ऐसा भाव भी होता है जहां कोई अन्य ग्रह स्थित है तो पहले ग्रह का ‘वेध’ हो जाता है अर्थात् उसका शुभ अथवा अशुभ फल नहीं हो पाता। जैसे सूर्य चंद्र लग्न से जब तीसरे भाव में आता है, तो वह शुभ फल करता है, परंतु यदि गोचर में ही चंद्र लग्न से नवम् भाव में कोई ग्रह बैठा हो तो फिर सूर्य की तृतीय स्थिति का फल रुक जायेगा, क्योंकि तृतीय स्थित सूर्य के लिए नवम वेध स्थान है। इसी प्रकार चंद्रमा जब गोचर में चंद्र लग्न से पंचम भाव में स्थित हो तो कोई ग्रह यदि चंद्र लग्न से छठे भाव में आ जाय तो पंचम चंद्र का वेध हो जायेगा। इसी प्रकार अन्य ग्रहों का भी वेध द्वारा फल का रुक जाना समझ लेना चाहिए। सूर्य तथा शनि पिता पुत्र हैं। इसलिए इनमें परस्पर वेध नहीं होता है। इसी प्रकार चंद्र बुध माता पुत्र है। अतः चंद्र और बुध में भी परस्पर वेध नहीं होता। वेध को समझने के लिए एक तालिका बनाई गई है, जिसमें नौ ग्रहों के चंद्र लग्न से विविध भावों पर आने से कहां-कहां वेध होना है दर्शाया गया है। इस तालिका में अंकों से तात्पर्य भाव से है जो कि चंद्र लग्न से गिनी जाती है। उदाहरण: जैसे सूर्य तृतीय भाव में हो तो नवम भाव स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा। यदि चतुर्थ भाव में हो तो तृतीय भाव में स्थित ग्रह (शनि को छोड़कर) इसका वेध करेगा। यदि पंचम भाव में हो तो छठे भाव में स्थित कोई भी ग्रह (शनि को छोड़कर) इसको वेध करेगा इत्यादि। 14. मुहूर्त चिंतामणि में कहा गया है कि ‘‘दुष्टोऽपि खेटो विपरीतवेधाच्छुभो द्विकोणेशुभदः सितेऽब्जः ।।’’ अर्थात कोई ग्रह यदि गोचर में दुष्ट है, अर्थात जन्म राशि में अशुभ स्थानों में स्थित होने के कारण अशुभ फलदाता है और फिर वेध में आ गया है तो वह शुभफल दाता हो जाता है। दूसरे शब्दों में वेध का प्रभाव नाशात्मक है। यदि अशुभता का नाश होता है तो शुभता की प्राप्ति स्वतः सिद्ध होती है। 15. गोचर में चल रहे ग्रहों के फल के तारतम्य के सिलसिले में स्मरणीय है, वह यह है कि फल बहुत अंशों में ग्रह अष्टक वर्ग पर निर्भर करता है। अपने अष्टक वर्ग में उसे उस स्थान में चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो उस ग्रह की अशुभता कुछ दूर हो जायेगी। यदि उसे चार से कम रेखा मिलती हैं तो जितनी-जितनी कम रेखा होती जायेंगी उतनी ही फल में अशुभता बढ़ती जायेगी। यदि उसे कोई रेखा प्राप्त नहीं हो तो फल बहुत ही अशुभ होगा। यदि गोचरवश शुभ ग्रह को चार से अधिक रेखा प्राप्त होती हैं तो स्पष्ट है तो जितनी-जितनी अधिक रेखा होंगी, उतना ही फल उत्तम होता जायेगा। नोट: अष्टक वर्ग में रेखा को शुभ फल मानते है तथा बिंदु को अशुभ। दक्षिण भारत में बिंदु को शुभ एवं रेखा को अशुभ मानते हैं। महर्षि पराशर नें रेखा को शुभ एवं बिंदु को अशुभ के रूप में अंकित करने की सलाह दी है। इसीलिये यहां रेखा को शुभ के रूप में अंकित है। 16. गोचर में ग्रह कब फल देते हैं- ग्रहों की जातक विचार में जो फल प्रदान करने की विधि है वही गोचर में भी है। फलदीपिकाकार मंत्रेश्वर महाराज ने लिखा है। ‘‘क्षितितनय पतंगो राशि पूर्व त्रिभागे सुरपति गुरुशुक्रौ राशि मध्य त्रिभागे तुहिन किरणमन्दौराशि पाश्चात्य भागे शशितनय भुजड्गौ पाकदौ सार्वकालम्।।’’ अर्थात सूर्य तथा मंगल गोचर वश जब किसी राशि में प्रवेश करते हैं तो तत्काल ही अपना प्रभाव दिखलाते हंै। एक राशि में 30 अंश होते हैं, इसलिए सूर्य और मंगल 0 डिग्री से 10 डिग्री तक ही विशेष प्रभाव करते हैं। गुरु और शुक्र मध्य भाग में अर्थात 10 अंश से 20 अंश विशेष शुभ तथा अशुभ प्रभाव दिखलाते हैं। चंद्रमा और शनि, राशि के अंतिम भाग अर्थात 29 अंश से 30 अंश तक विशेष प्रभावशाली रहते हैं। बुध तथा राहु सारी राशि में अर्थात् 0 अंश से 30 अंश तक सर्वत्र एक सा फल दिखाते हैं। 17. ग्रहों के गोचर में फलप्रदान करने के विषय में ‘काल प्रकाशिका’ नामक पुस्तक में थोड़ा सा मतभेद चंद्र और राहु के विषय में है। उसमें कहा गया है। ‘‘सूर्योदौ फलदावादौ गुरुशुक्रौ मध्यगौ मंदाही फलदावन्तये बुधचन्द्रौ तु सर्वदा। अर्थात सूर्य तथा मंगल राशि के प्रारंभ में, गुरु, शुक्र मध्य में, शनि और राहु अंत में तथा बुध और चंद्रमा सब समय में फल देते हैं। जन्म कालीन ग्रहों पर से गोचर ग्रहों के भ्रमण का फल: 1. जन्मकालिक ग्रहों से सूर्य का गोचर फल: जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान (जन्म कुंडली) से गोचर के सूर्य का गोचर व्यक्ति को कष्ट देता है। धन लाभ तो होता है किंतु टिकता नहीं, व्यवसाय भी ठीक नहीं चलता। शरीर अस्वस्थ रहता है। यदि दशा, अंतर्दशा भी अशुभ हो तो पिता की मृत्यु हो सकती है। इस अवधि में जातक का अपने पिता से संबंध ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ चंद्रमा पर से या इससे सातवें स्थान में गुजरता हुआ सूर्य शुभ फल प्रदान करता है। यदि सूर्य कुंडली में अशुभ स्थान का स्वामी हो तो मानसिक कष्ट, अस्वस्थता होती है। यदि सूर्य शुभ स्थान का स्वामी हो तो शुभ फल देता है। जन्मस्थ मंगल पर से या इससे सातवें स्थान में गोचर रवि का प्रस्थान प्रायः अशुभ फल देता है। यदि कुंडली में मंगल बहुत शुभ हो तो अच्छा फल मिलता है। जन्मस्थ बुध से या उसके सातवें स्थान से सूर्य गुजरता है तो सामान्य तथा शुभ फल करता है परंतु संबंधियों से वैमनस्य की संभावना रहती है। जन्मस्थ गुरु पर से या उसके सातवें स्थान से गोचर का सूर्य शुभ फल नहीं देेता है। इस अवधि में उन्नति की संभावना कम रहती है। जन्मस्थ शुक्र पर से या उससे सातवें स्थान से सूर्य भ्रमण करने पर स्त्री सुख नहीं मिलता। स्त्री बीमार रहती है। व्यय होता है। राज्य की ओर से कष्ट होता है। जन्मस्थ शनि से या उससे सप्तम स्थान पर गोचर का सूर्य कष्ट देता है। 2. जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल: जन्मकालिक ग्रहों से चंद्र का गोचर फल जन्मस्थ चंद्र के पक्षबल पर निर्भर करता है। यदि पक्षबल में बली हो तो शुभ अन्यथा क्षीण होने पर अशुभ फल देता है। जन्मस्थ सूर्य पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर के चंद्रमा का शुभ प्रभाव जन्मस्थ चंद्र के शुभ होने पर निर्भर है। चंद्रमा स्वास्थ्य की हानि, धन की कमी, असफलता तथा आंख में कष्ट देता है। जन्मस्थ गुरु पर से या उससे सातवें स्थान से गोचर का चंद्रमा बली हो तो स्त्री सुख देता है। ऐशो आराम के साधन जुट जाते हैं, धन का लाभ होता है लेकिन जन्मकालीन चंद्रमा क्षीण हो तो इसके विपरीत अशुभ फल मिलता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सप्तम स्थान पर से जब गोचर का चंद्रमा गुजरता है तो धन मिलता है लेकिन निर्बल हो तो मनुष्य को व्यापार में घाटा होता है। 3. जन्मकालिक ग्रहों से मंगल का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा उससे दसवें स्थान पर से गोचर का मंगल जब जाता है तब उस अवधि में रोग होता है। खर्च बढ़ता है। व्यवसाय में बाधा आती है और नौकरी में भी वरिष्ठ पदाधिकारी नाराज हो जाते हैं। आंखों में कष्ट होता है तथा पेट के आॅपरेशन की संभावना रहती है। पिता को कष्ट होता है। जन्म के चंद्रमा पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान पर गोचरवश जब मंगल आता है तो शारीरिक चोट की संभावना रहती है। क्रोध आता है। भाईयों द्वारा कष्ट होता है। धन का नाश होता है। यदि जन्म कुंडली में मंगल बली हो तो धन लाभ होता है। राजयोग कारक हो तो भी धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है और जन्मकुंडली में मंगल दूसरे, चैथे, पांचवे, सातवें, आठवें अथवा बारहवें स्थान में हो और विशेष बलवान न हो तो धन हानि, कर्ज, नौकरी छूटना, बल में कमी, भाइयों से कष्ट व झगड़ा होता है तथा शरीर में रोग होता है। जन्मस्थ बुध पर अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से जब मंगल भ्रमण करता है तो अशुभ फल मिलता है। बड़े व्यापारियों के दो नंबर के खाते पकड़े जाते हैं। झूठी गवाही या जाली हस्ताक्षर के मुकदमे चलते हैं। धन हानि होती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल आता है तो लाभ होता है। लेकिन संतान को कष्ट होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान में गोचरवश मंगल भ्रमण करता है तो कामवासना तीव्र होती है। वैश्या इत्यादि से यौन रोग की संभावना रहती है। आंखों में कष्ट तथा पत्नी को कष्ट होता है। पत्नी का स्वास्थ्य ठीक नहीं रहता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा उससे सातवें, छठे अथवा दसवें स्थान से मंगल गुजरता है और यदि जन्मकुंडली में शनि द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, अष्टम, नवम अथवा द्वादश भाव में शत्रु राशि में स्थित हो तो उस गोचर काल में बहुत दुख और कष्ट होते हैं। भूमि व्यवसाय से या अन्य व्यापार से हानि होती है। मुकदमा खड़ा हो जाता है। स्त्री वर्ग एवं निम्न स्तर के व्यक्तियों से हानि होती है। यदि जन्मकुंडली में शनि एवं मंगल दोनों की शुभ स्थिति हो तो विशेष हानि नहीं होती है। लेकिन मानसिक तनाव बना रहता है। 4. जन्मकालिक ग्रहों से बुध का गोचर फल: बुध के संबंध में यह मौलिक नियम है कि यदि बुध शुभ ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो शुभ एवं पापी ग्रहों से युक्त या दृष्ट हो तो पाप फल करता है। इसलिए गोचर के बुध का फल उस ग्रह के फल के अनुरूप होता है जिससे या जिनसे जन्मकुंडली में बुध अधिक प्रभावित है। यदि बुध पर सूर्य मंगल, शनि यदि नैसर्गिक पापी ग्रहों का प्रभाव शुभ ग्रहों के अपेक्षा अधिक हो तो ऊपर दिये गये सूर्य, मंगल, शनि आदि ग्रहों के गोचर फल जैसा फल करेगा। विपरीत रूप से यदि जन्मकुंडली में बुध पर प्रबल प्रभाव, चंद्र, गुरु अथवा शुक्र का हो तो इन ग्रहों के गोचर फल जैसा फल भी देगा। 5. जन्मकालिक ग्रहों से गुरु का गोचर फल: जन्मकालिक सूर्य से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जाता हुआ गुरु यदि चंद्र लग्न के स्वामी का मित्र है तो गुरु बहुत अच्छा फल प्रदान करता है। यदि गुरु साधारण बली है तो साधारण फल होगा। यदि गुरु, चंद्र लग्नेश का शत्रु अथवा शनि, राहू अधिष्ठित राशि का भी स्वामी हो तो खराब फल करेगा। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से जाता हुआ गुरु अशुभ फल करता है। यदि जन्मकुंडली में चंद्रमा 2, 3, 6, 7, 10 और 11 राशि में हो और गुरु शनि अथवा राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो ऐसा गोचर का गुरु रोग देता है। माता से वियोग करता है। धन का नाश एवं व्यवसाय में हानि होती है। कर्ज के कारण मानसिक परेशानी होती है तथा घर से दूर भी कराता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव से गुजरता हुआ गुरु प्रायः शुभ फल देता है। यदि कुंडली में गुरु राहु या शनि अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो खराब फल मिलता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम या नवम भाव में, आया हुआ गोचर का गुरु निम्न प्रकार से फल प्रदान करता है। (क) यदि बुध अकेला हो और किसी ग्रह के प्रभाव में न हो तो शुभ फल मिलता है । (ख) यदि बुध पर गुरु के मित्र ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर के गुरु का वही फल होगा जो उन-उन ग्रहों पर गुरु की शुभ दृष्टि का होता है अर्थात शुभ फल प्राप्त होगा। (ग) यदि बुध पर गुरु के शत्रु ग्रहों का अधिक प्रभाव हो तो गोचर का गुरु अनिष्ट फल देगा। विशेषतया उस समय जब कि जन्म कुंडली में गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो और बुध पर दैवी श्रेणी के ग्रहों का प्रभाव हो। (घ) यदि बुध अधिकांशतः आसुरी श्रेणी के ग्रहों से प्रभावित हो तथा गुरु, शनि, राहु अधिष्ठित राशियों का स्वामी हो तो गुरु के गोचर में कुछ हद तक शुभता आ सकती है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में गोचरवश आया हुआ गुरु शुभ फल नहीं देता है। यदि यह जन्मकुंडली में 3, 6, 8 अथवा 12 भावों में शत्रु राशि में स्थित हो या पाप युक्त, पाप दृष्ट हो या शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो, ऐसी स्थिति में वह खराब फल देता है। यदि गुरु जन्म समय में बलवान हो तो शुभ फल होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव में जब गोचर वश गुरु आता है तो शुभ फल देता है, यदि शुक्र जन्म कुंडली में बली हो अर्थात् द्वितीय, चतुर्थ, पंचम, सप्तम, नवम अथवा द्वादश भाव में स्थित हो। यदि शुक्र जन्मकुंडली में अन्यत्र हो और गुरु भी पाप दृष्ट, पापयुक्त हो तो गोचर का गुरु खराब फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, पंचम अथवा नवम भाव से गोचरवश जब गुरु आता है तो शुभफल करता है। यदि शनि जन्मकुंडली में प्रथम, द्वितीय, तृतीय, षष्ठ, सप्तम अष्टम, दशम अथवा एकादश भावों में हो तो डूबा हुआ धन मिलता है तथा लाभ होता है यदि शनि अन्यत्र हो और पराशरीय नियमों के अनुसार अशुभ आधिपत्य भी हो तो गोचर का गुरु कोई लाभ नहीं पहुंचा सकता है बल्कि हानिप्रद ही सिद्ध होता है। 6. जन्मकालिक ग्रहों से शुक्र का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा इससे सप्तम स्थान में गोचरवश जाता हुआ शुक्र लाभप्रद होता है। यदि शुक्र का आधिपत्य अशुभ हो तो व्यसनों में समय बीतता है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र मन में विलासिता उत्पन्न करता है। वाहन का सुख मिलता है। धन की वृद्धि तथा स्त्री वर्ग से लाभ होता है। चंद्र यदि निर्बल हो तो अल्प मात्रा मंे लाभ मिलता है। जन्मस्थ मंगल पर से या उससे सप्तम भाव में गोचरवश आया हुआ शुक्र बल वृद्धि करता है, कामवासना में वृद्धि करता है, भाई के सुख को बढ़ाता है तथा भूमि से लाभ होता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा उससे सप्तम भाव में गोचर वश आया हुआ शुक्र विद्या लाभ देता है। सभी से प्यार मिलता है। स्त्री वर्ग से तथा व्यापार से लाभ होता है। यह फल तब तक मिलता है जब बुध अकेला हो। यदि बुध किसी ग्रह विशेष से प्रभावित हो तो गोचर का फल उस ग्रह पर से शुक्र के संचार जैसा होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा उससे सातवें भाव में गोचरवश जब शुक्र आता है जो सज्जनों से संपर्क बढ़ता है, विद्या में वृद्धि होती है। पुत्र से धन मिलता है, राजकृपा होती है, सुख बढ़ता है। यदि शुक्र निर्बल हो और शनि राहु अधिष्ठित राशि का स्वामी हो तो फल विपरीत होता है। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम भाव से जब शुक्र गुजरता है तो विलासिता की वस्तुओं में और स्त्रियों से संपर्क में वृद्धि करता है। तरल पदार्थों से लाभ देता है। स्त्री सुख में वृद्धि करता है तथा व्यापार में वृद्धि करता है। कमजोर शुक्र कम फल देता है। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश जब शुक्र आता है तो मित्रों की वृद्धि, भूमि आदि की प्राप्ति, स्त्री वर्ग से लाभ, नौकरी की प्राप्ति होती है। कमजोर शुक्र कम फल प्रदान करता है। 7. जन्मकालिक ग्रहों से शनि का गोचर फल: जन्म के सूर्य पर से अथवा उससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचरीय शनि आता है तो नौकरी छूटने की संभावनाएं रहती है, पेट में रोग तथा पिता को परेशानी होती है। जन्मस्थ चंद्र पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में शनि भ्रमण करता है तब धन हानि, मानसिक तनाव होता है तथा रोग होता है। यदि चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी की हो तो मिश्रित फल मिलता है तथा आर्थिक लाभ भी हो सकता है। जन्मस्थ मंगल पर से अथवा इससे सप्तम भाव से गोचरवश यदि शनि जाए तो शत्रुओं से पाला पड़ता है, स्वभाव में क्रूरता बढ़ती है तथा भाईयों से अनबन रहती है। राज्य से परेशानी है। रक्त विकार एवं मांसपेशियों में कष्ट होता है। बवासीर हो सकता है। जन्मस्थ बुध पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव में जब गोचर वश शनि जाता है तो बुद्धि का नाश, विद्या हानि, संबंधियों से वियोग व्यापार में हानि, मामा से अनबन एवं अंतड़ियों में रोग होता है। यदि बुध आसुरी श्रेणी का हो तो धन का विशेष लाभ होता है। जन्मस्थ गुरु पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से जब गोचरवश शनि जाता है तब कर्मचारियों की ओर से विरोध, धन में कमी पुत्र से अनबन अथवा वियोग होता है। सुख में कमी आती है। जिगर के रोग होते हैं। जन्मस्थ शुक्र पर से अथवा उससे सप्तम स्थान से, एकादश अथवा चतुर्थ भाव से गोचरवश शनि पत्नी से वैमनस्य कराता है। यदि शुक्र जन्म कुंडली में राहु, शनि आदि से पीड़ित हो तो तलाक भी करवा सकता है। प्रायः धन और सुख में कमी लाता है। सिवाय इसके जबकि जन्म लग्न आसुरी श्रेणी का हो। जन्मस्थ शनि पर से अथवा इससे सप्तम, एकादश अथवा चतुर्थभाव में जब गोचर वश शनि भ्रमण करता है तो निम्न वर्ग के लोगों से हानि, भूमि, नाश, टांगों में दर्द तथा कई प्रकार के दुख होते हैं। यदि लग्न तथा चंद्र लग्न आसुरी श्रेणी के हो तो धन, पदवी आदि सभी बातों में सुख मिलता है। 8. जन्मकालिक ग्रहों से राहु/केतु का गोचर फल: राहु और केतु छाया ग्रह है। इसका भौतिक अस्तित्व नहीं। यही कारण है कि इनको गोचर पद्धति में सम्मिलित नहीं किया गया है तो भी ज्योतिष की प्रसिद्ध लोकोक्ति है। शनिवत राहू कुजावत केतु अतः गोचर में राहू शनि जैसा तथा केतु मंगल जैसा ही फल करता है। यह स्मरणीय है कि राहु और केतु का गोचर मानसिक विकृति द्वारा ही शरीर, स्वास्थ्य तथा जीवन के लिए अनिष्टकारक होता है, विशेषतया जबकि जन्मकुंडली में भी राहु, केतु पर शनि, मंगल तथा सूर्य का प्रभाव हो, क्योंकि ये छाया ग्रह राहु जहां भी प्रभाव डालते हैं वहां न केवल अपना बल्कि इन पाप एवं क्रूर ग्रहों का भी प्रभाव साथ-साथ डालते हैं। राहु और केतु की पूर्ण दृष्टि नवम एवं पंचम पर भी (गुरु की भांति) रहती है। अतः गोचर में इन ग्रहों का प्रभाव और फल देखते समय यह देख लेना चाहिए कि ये अपनी पंचम और नवम, अतिरिक्त दृष्टि से किस-किस ग्रह को पीड़ित कर रहे हैं। ऐसा भी नहीं कि सदा ही राहु तथा केतु का गोचरफल अनिष्टकारी होता है। कुछ एक स्थितियों में यह प्रभाव सट्टा, लाॅटरी, घुड़दौड़ आदि द्वारा तथा ग्ग्ग्ग्ग्अन्यथा भी अचानक बहुत लाभप्रद सिद्ध हो सकता है। वह तब, जब, कुंडली में राहु अथवा केतु शुभ तथा योगकारक ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हों और गोचर में ऐसे ग्रह पर से भ्रमण कर रहे हों जो स्वयं शुभ तथा योग कारक हों। उदाहरण के लिए यदि योगकारक चंद्रमा तुला लग्न में हो और राहु पर जन्मकुंडली में शनि की युति अथवा दृष्टि हो तो गोचर वश राहु यदि बुध अथवा शुक्र अथवा शनि पर अपनी सप्तम, पंचम अथवा नवम दृष्टि डाल रहा हो तो राहु के गोचर काल में धन का विशेष लाभ होता है, यद्यपि राहु नैसर्गिक पाप ग्रह है। अष्टक वर्ग से गोचर का फल: गोचर के फलित का अष्टक वर्ग के फलित से तालमेल बैठाने की प्रक्रिया में निम्न बातों को ध्यान में रखना चाहिये। 1. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि से संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से अधिक रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग की 30 से अधिक रेखाएं हों तो गोचर में चंद्र से अशुभ स्थिति में होने के बावजूद उस भाव-राशि से संबंधित कार्य कलापों और विषयों के संदर्भ में वह ग्रह शुभ फल प्रदान करता है। 2. यदि कोई ग्रह गोचर में उस राशि में संचरण कर रहा हो जिसमें उस ग्रह से संबंधित रेखाष्टक वर्ग में 4 से कम रेखाएं हो और सर्वाष्टक वर्ग में 30 से कम रेखाएं हों तो भले ही वह ग्रह चंद्र से शुभ स्थानों में गोचर कर रहा हो, अशुभ फल ही देता है। ऐसी स्थिति में यदि उक्त ग्रह के संचरण वाली राशि चंद्र से अशुभ स्थान पर हो तो अशुभ फल काफी अधिक मिलते हैं। 3. ग्रह अष्टक वर्ग में भी शुभ हों और कुंडली में उपचय स्थान (3, 6, 10वें तथा 11 वें स्थान) में निज राशि में या मित्र की राशि में या अपनी उच्च राशि में स्थित हो तो बहुत शुभ फल देते हैं और यदि अनुपचय स्थान में नीच अथवा शत्रु राशि में हो और गोचर में भी अशुभ हो तो अधिक अशुभ फल देते हैं। कहने का तात्पर्य यह है कि अष्टक वर्ग से ग्रह का उतार-चढ़ाव देखा जाता है। 4. यदि किसी भाव को कोई रेखा न मिले तो उस भाव से गोचर फल अत्यंत कष्टकारी होता है। चार रेखा प्राप्त हो तो मिश्रित फल अर्थात मध्यमफल मिलता है। 5 रेखा मिलने पर फल अच्छा होता है। 6 रेखा मिले तो बहुत अच्छा, 7 रेखा मिले तो उत्तम फल और 8 में से 8 रेखा मिल जाये तो सर्वोत्तम फल कहना चाहिए। 5. जातक परिजात में अष्टकवर्ग को सबसे अधिक महत्व दिया गया है। जो ग्रह उच्च, मित्र राशि अथवा केंद्र (1, 4, 7, 10) कोण (5, 9), उपचय (3, 6, 10, 11) में स्थित है, जो शुभ वर्ग में है। बलवान है तो भी यदि अष्टक वर्ग में कोई रेखा नहीं पाता है तो फल का नाश करने वाला ही होता है और यदि कोई ग्रह पापी, नीच या शत्रु ग्रह के वर्ग में हो अथवा गुलिक राशि के स्वामी हो, परंतु अष्टक वर्ग में 5, 6, 7 अथवा 8 रेखा पाता है तो यह ग्रह उत्तम फल देता है। 6. सारावली ने अष्टकवर्ग के संबंध में जो सम्मति दी है, हम समझते हैं कि वह अधिक युक्तिसंगत है। सारावली में कहा गया है। ‘‘इत्युक्तं शुभ मन्यदेवमशुभं चारक्रमेण ग्रहाः’’ शक्ताशक्त विशेषितं विद्धति प्रोत्कृष्टमेतत्फलम्। स्वार्थी स्वोच्च्सुहृदगृहेषु सुतरां शस्तं त्वनिष्टसमम् नीचाराति गता ह्यानिष्ट बहुलं शक्तं न सम्यक् फलम्।। अर्थात इस प्रकार गोचरवश ये ग्रह शुभ अथवा अशुभ फल करते हैं। अष्टकवर्ग द्वारा ग्रह अच्छा, बुरा अथवा सम फल देते हैं। परंतु ग्रह उच्च राशि अथवा स्वक्षेत्र में होकर भी यदि अष्टकवर्ग में अशुभ हो अर्थात कम रेखा प्राप्त हों, तो बुरा फल देते हैं। 4. कोई ग्रह किसी राशि विशेष में कब-कब अपना शुभ या अशुभ फल दिखलाएगा? इसके लिए प्रत्येक राशि को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। एक राशि के 30 अंशों को आठ बराबर भाग में बांटने पर मान 3 अंश 45 कला के बराबर होता है। इन अष्टमांशों को कक्षाक्रम से ही ग्रहों को अधिपत्य दिया गया है तथा वे तदनुसार ही फल देते हैं। माना किसी व्यक्ति को शनि योगकारक उत्तमफल दायक है। अब शनि जब-जब अधिक रेखा युक्त राशि में गोचर करेगा तो उसे अच्छा फल मिलेगा। यह एक सामान्य नियम है। शनि एक राशि में 2 वर्ष 6 माह तक रहेगा। तो क्या पूरे समय में व्यक्ति को शुभ या अशुभ फल मिलता रहेगा या किसी विशेष भाग में? इसका उत्तर हमें गोचराष्टक वर्ग से मिलेगा। आचार्यों ने राशि को आठ बराबर भागों में बांटा है। उन आठ भागों को कक्षा क्रम से आठो वर्गाधिपति कहते हैं। अब देखना है कि अपने भिन्नाष्टक वर्ग में किस राशि में शनि को किस ग्रह ने रेखायें दी थी।

क्या इंजिनियर बन पायेंगे

राहु-केतु छाया ग्रह हैं, परंतु उनके मानव जीवन पर पड़ने वाले प्रभाव के आधार पर हमारे तत्ववेत्ता ऋषि-मुनियों ने उन्हें नैसर्गिक पापी ग्रह की संज्ञा दी है। केतु को ‘कुजावत’ तथा राहु को ‘शनिवत्’ कहा गया है। परंतु जहां शनि का प्रभाव धीरे-धीरे होता है, राहु का प्रभाव अचानक और तीव्र गति से होता है। राहु-केतु कुंडली में आमने-सामने 1800 की दूरी पर रहते हैं और सदा वक्र गति से गोचर करते हैं। राहु ‘इहलोक’ (सुख-समृद्धि) तथा केतु ‘परलोक’ (आध्यात्म), से संबंध रखता है। यह कुंडली के तीसरे, छठे और ग्यारहवें भाव में अच्छा फल देते हैं। सूर्य और चंद्रमा से राहु की परम शत्रुता है। शुभ ग्रहों से युति व दृष्टि संबंध होने पर राहु सभी प्रकार के सांसारिक -शारीरिक, मानसिक और भौतिक -सुख देता है, परंतु अशुभ व पापी ग्रह से संबंध कष्टकारी होता है। फल की प्राप्ति संबंधित ग्रह के बलानुपात में होती है। राहु से संबंधित अशुभ ग्रह की दशा जितने कष्ट देती है, उससे अधिक कष्टकारी राहु की दशा-भुक्ति होती है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर सूर्य अपने कारकत्व - पिता, धन, आदर, सम्मान, नौकरी, दाहिनी आंख, हृदय आदि- संबंधी कष्ट देता है। बहुत मेहनत करने पर भी लाभ नहीं मिलता। साथ ही सूर्य जिस भाव का स्वामी होता है उसके फल की हानि होती है। व्यक्ति के व्यवहार में दिखावा, घमंड व बड़बोलापन अंततः हानिकारक सिद्ध होता है। राहु द्वारा ग्रस्त होने पर चंद्रमा जातक की माता को कष्ट देता है। पारिवारिक शांति भंग होती है। जातक स्वयं छाती, पेट, बाईं आंख के रोग, या मानसिक संताप से ग्रसित होता है। उसे डर, असमंजस और चिंता के कारण नींद नहीं आती और वह बुरी आदतों में लिप्त हो जाता है। चंद्रमा के निर्बल और पीड़ित होने पर जातक हताशा में आत्महत्या तक कर लेता है। राहु द्वारा ग्रसित होने पर मंगल जातक को उग्र व क्रोधी बनाता है। वह चिड़चिड़ा और आक्रामक बन जाता है तथा समाज और कानून विरोधी कार्य करता है, लड़ाई-झगड़ा, संपत्ति हानि, चोट, फोड़ा-फुंसी, पित्त व रक्त-विकार, बुखार आदि की संभावना बढ़ जाती है। मंगल के स्वामित्व वाले भावों संबंधी कार्यों में अवरोध व हानि होती है। राहु द्वारा शुक्र के ग्रसित होने पर व्यक्ति अपनी सुख-सुविधाओं को अनैतिक रूप से प्राप्त करता है। उसे चेहरा, गला, आंख, किडनी, प्रजनन प्रणाली ओर यौन रोग की संभावना रहती है। व्यक्ति फिजूल-खर्ची करता है। उसके अन्य स्त्रियों से संबंध होते हैं, जो कष्टकारी सिद्ध होता है। राहु द्वारा बुध के ग्रस्त होने पर व्यक्ति के आचार-विचार में विकृति आती है। पढ़ाई में विघ्न तथा विद्या से लाभ नहीं होता। वह झूठ और बेईमानी का सहारा लेता है। उसे छाती, स्नायु, चर्म और पाचन संबंधी रोग होते हैं। राहु द्वारा बृहस्पति के ग्रस्त होने पर व्यक्ति को पुत्र, विद्या, धन, गुरु, धर्म, आदर, मान तथा सुख-समृद्धि में अवरोध आते हैं। उसे लिवर, मधुमेह, रक्त, हृदय, ट्यूमर, नासिका और चर्बी के रोग होते हैं। बृहस्पति के स्वामित्व वाले भावों संबंधी कार्यों में परेशानियां आती हैं। व्यक्ति की सोच में विकृति आती है। उसके संकुचित और अधार्मिक मार्ग अपनाने से मान-सम्मान में कमी आती है, वह दुखी रहता है। बृहस्पति से संबंध होने पर राहु के दुष्प्रभाव में कमी आती है। इस युति को ‘गुरु’ चंडाल योग’ कहते हैं। राहु द्वारा शनि का ग्रस्त होना सर्वाधिक अनिष्टकारी होता है। व्यक्ति को जीवन में दुख, कष्ट, अवरोध, बीमारी, धन हानि, और तिरस्कार मिलता है। व्यक्ति को सर्दी, जुकाम, पाचन क्रिया, तिल्ली, दांत व हड्डियों के रोग तथा अस्थमा, लकवा और गठिया जैसे दीर्घकालीन रोग होते हैं। इस प्रकार राहु तथा शनि का संबंध कुंडली के फलों में अनेक प्रकार के अवरोध लाता है। राहु के शनि से अगले भाव में स्थित होने पर जातक बहुत नीचे स्तर पर कार्य आरंभ करता है। उसकी प्रगति में अनेक बाधाएं आती हैं। वह असंतुष्ट रहता है। शिक्षा प्राप्ति की आयु में नैसर्गिक अशुभ ग्रहों से संबंधित राहु की दशा-भुक्ति ध्यान केन्द्रित नहीं होने देती और सफलता कठिनाई से मिलती है। राहु पर शुभ प्रभाव होने से टेकनिकल, इंजीनियरिंग, कंप्यूटर और डाॅक्टरी शिक्षा में सफलता मिलती है। राहु के केंद्र या त्रिकोण भाव में, त्रिकोण व केंद्र के स्वामी के साथ स्थित होने पर उसकी अपनी दशा-अंतर्दशा राजयोगकारी फल प्रदान कर व्यक्ति के जीवन को सुखी व समृद्धशाली बनाती है। इस प्रकार शुभ प्रभाव में राहु अपनी दशा-भुक्ति में शुभ फल तथा अशुभ प्रभाव में कष्ट देता है। अतः कुंडली में राहु के प्रभाव और भाव स्थिति का पूर्ण आकलन कर लेने से भविष्य कथन में परिपक्वता आती है। राहु प्रदत्त कष्ट निवारण के लिए प्रति दिन एक माला राहु मंत्र (ऊँ रां राहुवे नमः) का जप, तथा विशेषकर अमावस्या तिथि को एक, तीन या पांच कोढ़ियों को सरसों के तेल से बनी सब्जी, रोटी व एक गुड़-तिल का लड्डू स्वयं दान कर, साथ में कुछ दक्षिणा भी देना चाहिए।

आपकी राशि और आपकी लाइफस्टाइल

मेष राशि
प्रथम व मंगल की राशि होने के कारण ये फैशन की दुनिया में भी नं. 1 पर रहना चाहती हैं और नये से नये स्टाईल और फैशन को जल्द से जल्द अपनाकर नये ट्रेंड सेट करती हैं। इन्हें ब्राईट रंग के कपड़े लुभाते हैं और अपने परिधान के रंग और स्टाईल के मामले में बारिकी से चुनाव करती हैं। रंग इनके लिए सबसे मुख्य होता है, डार्क पिंक, रेड, रेडिश ब्राउन। अतः इस फैमिली के सारे शेड्स इनको लुभाते हैं।
वृषभ राशि
आप कपड़ों में मुख्यतः रंग एवं स्टाईल से ज्यादा गुणवत्ता और आराम पर ध्यान देना पसंद करती हैं। आपको लेटेस्ट फैशन की जगह ऐसे परिधान पसंद आयेंगे जो हमेशा सदाबहार हों तथा कभी फैशन से बाहर न हों। आप एक ऐसी महिला की परिभाषा हैं जिनका अपना एक स्टाईल या अंदाज है जो लम्बे समय में बनी परिपक्व पसंद का आएना है। आपको बेहद साफ्ट कपड़े पसंद आते हैं, एक बार अच्छा परिधान लेकर उसे लम्बे समय तक पहनना पसंद करती हैं। पिंक और ब्लू आपको मुख्यतया पसंद हैं।
मिथुन राशि
आपको कपड़ों का कलैक्शन करना बहुत पसंद होगा, एक बड़ी वार्डरोब की मालकिन होने के साथ-साथ हर मूड के लिए एक नई या अलग ड्रेस पहनना पसंद करेंगी। आप कपड़े खरीदने में ज्यादा सोच विचार नहीं करतीं, लेकिन आराम पर जरूर ध्यान देती हैं। रंग आपको बहुत प्रभावित करते हैं, कई रंगों के परिधान पहनना आपको प्रिय होगा या कपड़ों में कई तरह का विचार भी आप ही की देन है। यदि आप किसी महिला से पहले इनके कपड़ों से प्रभावित हो रहे हैं तो आप यही हैं।
कर्क राशि
आप अपने रिश्तों की तरह अपने कपड़ों से लगाव/स्नेह रखने वाली भावुक और काल्पनिक सोच की महिला हैं। हर दौर के फैशन में से कुछ चुनिंदा कपड़े आज आपने भी संजोकर रखे होंगे। आपकी पसंद काफी स्त्रियोचित होगी तथा आपको क्रिएशनल कपड़े, कारीगरी , एम्ब्रायडरी और लेसेज पसंद होगी, आप अपने कपड़ों को काफी संभाल करके रखेंगी। इनका आपका साथ लम्बे समय का रहेगा। इनके पसंदीदा रंग हैं - हरा, खाकी, आफ व्हाइट, क्रीम।
सिंह राशि
सूर्य जैसे तेज वाली सिंह लग्न की स्त्री जातक सर्वश्रेष्ठ परिधान धारण करने की ईच्छा से युक्त होती हैं। वह रंग और अच्छी क्वालिटी दोनों के आधार पर कपड़े पसंद करती हैं। फैशन से प्रभावित होने पर भी अपने स्टाईल को प्राथमिकता देती हैं। जो मैंने पहना है वही फैशन है कि धारणा रखने वाला प्रभावी व्यक्तित्व। ब्रांडेड और डिजाईनर कपड़ों की तरफ इनका झुकाव, समाज में ऊंचा पद हासिल करने की लालसा को झलकाता है। मेष की तरह ब्राईट रंग लेकिन नारंगी, सुनहला, पीला, सफेद एवं बैंगनी का मिश्रण।
कन्या राशि
बुध की बुद्धिम एवं जवां दिखना तथा व्यावहारिक परिधानों को अधिक पसंद करने वाली महिला हैं जो ऐसे कपड़ों का चुनाव करती हैं जिन्हें अधिकतर हर मौके पर पहना जा सके। अतः वह काफी इस्तेमाल में आए। नये-नये कंबिनेशन बनाने में आपको महारत हासिल है। आप अपने कपड़ों का खास ख्याल रखती हैं, अतः प्रेस किए हुए अच्छे कपड़े पहनना आपकी पसंद है। ऐसे परिधान जो आरामदेह होने के साथ साधारण और शरीर में ठीक से फिट होते हैं। इंद्र धनुष के सभी रंग आपको पसंद हैं।
तुला राशि
शुक्र का लग्न होने के कारण खूबसूरत राजकुमारी की तरह आकर्षण और पूरे परिधान का सेन्डल और आभूषण के साथ जबरदस्त ‘‘मैच’करना ही आपकी अनोखी कुशलता है। महंगे कपड़े, डिजाईनर वियर, कमर पर हल्के टाईट होते कपड़े आपकी कमजोरी हैं। पूर्णतया सज संवरकर तैयार होने का अद्भुत गुण रखने वाली आप ही हैं। कलर और स्टाईल दोनों में ही आपकी रुचि है। आप अधिकतर हल्के रंग या काले रंग पसंद करेंगी।
वृश्चिक राशि
आपका सजने का मुख्य उद्देश्य ही आकर्षित करना है। टाईट फिटिंग के कपड़े पहनना आपको पसंद है। पुरानी चीजों या फैब्रिक्स को नये अंदाज में पहनना आपका गुण है। जैसे इन्डो-वेस्टर्न स्टाइल, कंप्लिकेटेड स्टाइल। सबसे अलग दिखने की चाह ही आपको नए-नए कपड़ों में प्रयोग करने की ललक पैदा करती है। लेकिन आप इस धारणा को मानने वाली हैं कि परिधान से ज्यादा व्यक्तिगत आकर्षण की महत्व है। लाल रंग, ताम्र रंग, हल्का पीला आपको अत्यधिक पसंद है।
धनु राशि
फैशन एक सामाजिक प्रक्रिया है। अतः सामाजिक दायरों को ध्यान में रखकर ही कपड़ों का चुनाव करना चाहिए इस सोच को चरितार्थ करती हैं आप। समाज में अपनी छवि और पद के हिसाब से अधिकतर आमतौर के साधारण परिधान ही लेकिन बढ़िया फैशन आपको औरों से अलग करते हैं। ब्राकेड, वेल्वेट एवं हल्के वस्त्र आपको लुभाती हैं। आपके पसंदीदा रंग पीला, गहरा बैंगनी हैं।
मकर राशि
आप ऐसे परिधान या स्टाईल के कपड़े पहनना पसंद करेंगी जो काफी समय से प्रचलित हैं। अन्य शब्दों में कहा जाय तो पूर्णतया शनि की अधीन राशि होने के कारण ज्यादा परिधानों में अंतर पसंद नहीं करेंगी। आपके स्टाईल में लम्बे समय में थोड़ा ही अंतर आएगा। चमकीले कपड़ों से रिजर्व स्टाईल वाले कपड़े, कम वजन वाले सामान्य, सीधे कपड़े जो अधिकतर घुटनों पर आकर खत्म होते हैं आपका स्टाईल है। आपको धारी वाले या डार्क रंग जैसे डार्क ग्रे,काले, नीले, सफेद कपड़े पसंद आयेंगे।
कुम्भ राशि
आपकी मन की दुनिया कल्पना और खूबसूरती से प्रेरित है, ऐसे में आप खुद को ऐसे परिधान में देखना पसंद करेंगी जो नीवनतम फैशन स्टाईल और आपकी माडर्न छवि से मेल खाते हों। आप जो दुनिया से कहना चाहती हैं, वह कहीं न कहीं आपके कपड़ों से झलकता है। परंपरागत कपड़ों में आधुनिकता उभार कर स्टाईल स्टेटमेंट बनाना आप ही के वश की बात है। आफिस वियर में भी स्टाईल एड करने की क्षमता, साफ्ट, डेलीकेट कपड़े पहनना पसंद करती हैं।
मीन राशि
ब्लू, पिंक और हरे रंग की हल्की धुनों में सजे लम्बे दोहरे शेड वाले परिधान आपको बेहद पसंद आयेंगे। हर स्टाईल को करने की क्षमता और शौक रखने वाली स्त्री आप ही हैं। जो एक स्टाईल में ज्यादा दिन तक नहीं रहना पसंद करती (बोर महसूस करती हैं)। रोजमर्रा में भी अलग-अलग स्टाईल और अंदाज को सहेज कर चलना ही इनकी अपनी इमेज है जो सबको समाने की क्षमता रखती है।

अपने सिर से अपने व्यक्तित्व को पहचाने



किसी व्यक्ति के सिर के सिर्फ बड़े छोटे होने से ही उसके गुणों का अनुमान नहीं लगाना चाहिए क्योंकि किसी वस्तु का ‘‘परिमाण’’ ही सब कुछ है ऐसा समझना गलत है। परिमाण से अधिक महत्व है गुण का। क्योंकि सिर बड़े होने से ही व्यक्ति महान नहीं होता। तीन गुण का महत्व इस प्रकार है: 1. बड़ा परिमाण - लंबाई, चैड़ाई, ऊंचाई अधिक। 2. विशेष वजन - उत्तम प्रकार के मस्तिष्क वो कहलाते हैं जिनका वजन सामान्य व्यक्तियों के मस्तिष्क से विशेष होते हैं। 3. विशिष्टता - महान व्यक्तियों के ज्ञान व प्रवृत्ति कोण साधारण व्यक्तियों की तुलना में अधिक गुणयुक्त होते हैं। प्रथम गुण के अनुसार बुद्धिमान व विद्वान पुरुषों के सिर का नाप 21’’ (इक्कीस इंच) और स्त्री के सिर का नाप 20’’ होना चाहिए। यह नाप कान से ऊपर वाले भाग का लेना चाहिए। 21’’ इंच से कम नाप के सिर वाले लोग चतुर, परिश्रमी, दूसरों की बात को समझने वाले कलाकार एवं संगीतज्ञ तो हो सकते हैं किंतु बुद्धि की प्रखरता शक्ति, नवीन आविष्कार की क्षमता एवं प्रकांड पांडित्य ऐसे व्यक्तियों में नहीं मिलेगा। सिर की गवेषणा करते समय कुछ बातों का विशेष ध्यान रखना चाहिए- सिर के आगे का भाग ललाट कहलाता है। यह भाग चैड़ा व ऊंचा नहीं होना चाहिए। सिर के मुख्य दो भाग होते हैं। 1. कानों के आगे का भाग और 2. कानों के पीछे का भाग। कानों के आगे का भाग विशेषकर बड़ा व उन्नत होना चाहिए। 3. सिर का नाप कानों के ऊपर से ही लेना चाहिए। 21’’ नाप के बाद आधा या पौन इंच अधिक हो तो व्यक्ति व्यापार कुशल एवं परिश्रमी होगा। यदि सिर का नाप 23’’ या अधिक हो तो व्यक्ति वैज्ञानिक होगा। कान के ऊपर सिर को दो भागों में बांटा गया है। यदि दूसरी लंबाई पहली से 1’’ अधिक हो तो ऐसा व्यक्ति विचारशील तो होता है किंतु क्रियाशील नहीं होता। यदि प्रथम की अपेक्षा द्वितीय लंबाई आधा इंच अधिक हो तो ऐसे व्यक्ति में बौद्धिक विकास और आदर्शवादिता, महत्वाकांक्षा आदि विशेष गुण होते हैं, प्रबंधन योग्यता तथा स्वार्थवृत्ति अपेक्षाकृत कम होती है। यदि प्रथम की अपेक्षा द्वितीय भाग 2 इंच अधिक हो तो व्यक्ति में इतनी आदर्शवादिता आ जाती है कि उसे किसी के काम से संतोष नहीं होता। इसी प्रकार सिर का प्रथम भाग अधिक बड़ा हो तो व्यक्ति में गुप्त रखने की प्रवृत्ति, लालच, संग्रहशीलता, दूसरों को नष्ट करने की बुद्धि तथा राजसिक, तामसिक गुण होते हैं। आत्मिक या नैतिक उन्नति की अपेक्षा ऐसे व्यक्ति सावधानी तथा चतुराई को विशेष महत्व देते हैं। यदि भीतरी विकास अच्छा न हो तो उपयुक्त राजसिक व तामसिक गुण चोरी, अनाचार आदि की प्रवृत्ति होती है। मनुष्य के सिर के आकार का भी उतना ही महत्व है जितना परिमाण का। सिर के आकार का बुद्धि तथा मानसिक शक्ति से बहुत अधिक संबंध है। आकार से स्वभाव व चरित्र दोनों का पता चलता है। यहां चित्र में छः सिर दिखाये गये हैं। इन छः सिरों में प्रथम सिर वाला बुद्धिमान उसके बाद क्रम से बुद्धिमत्ता घटती जायेगी। इसके साथ-साथ ललाट की ऊंचाई तथा सिर का ऊपर की ओर जो चढ़ाव है उसकी ओर विशेष ध्यान दें। जिनका सिर मंडलाकार होता है वे संपत्तिवान होते हैं। यदि सिर टेढ़ा, ऊंचा-नीचा हो तो मनुष्य दुखी होता है। हाथी के कुंभ की तरह सिर परस्पर अच्छी तरह जुड़ा हुआ, चारांे ओर क्रमिक ढाल वाले सिर धनी व भोगी व्यक्ति के होते हैं। जिसका सिर चपटा हो उन्हें माता-पिता का पूर्ण सुख प्राप्त नहीं होता।

Power or Beliefs of Mantras

Mantras are that group of words having the power of executing transformations. This transformation could be of anything or for anything. Some mysterious Mantras that can change your life. Let's move further to know about the glory of Mantras. A mantra is the spell, syllable, sound, word or those groups of words that have the power of bringing change. The mantra originated from the 'Vedic tradition of India'. In all of the Hindu traditional functions, mantras are the most important part. Whether it is a Hindu marriage or birthday puja of a kid, mantras are everywhere. A traditional Hindu function is incomplete without the chanting of mantras. Most of us already know many mantras, but some things about them are still out of our knowledge. This page will assist you with almost all general mantras of Hindu tradition for free! Don't think much, just scroll down and find everything you want to know about mantras.As per our ancient Vedas, the entire texts of the Rig, Yajur and Sama Veda are considered as Mantras. Basically, these mantras were considered as the commentary from Brahamanda. With time, these mantras became the magic spells for fulfilling human desires. This revelation was done after the ancient schools of Vedanta, Yoga, Bhakti and Tantra segregated magical and powerful spells from the Veda content.
As per the Upanishads, syllable 'Om' is itself a mantra. Om represents the God-head, Brahmin and the whole creation. Om is a common syllable between two religions, Hindu and Buddhism.
Mantras generate those sound vibrations that exerts the influence of cosmic powers.
Here, on the page of mantras, that has been developed by AstroSage to answer your valuable questions, you will find all what you desire to know. If you are still not aware of the powers of mantra then we would suggest you to start chanting for a while, you may chant any basic mantra, say, Gayatri Mantra, you will experience the ecstasy of divinity. The only way to attunement or spiritual awakening is mantras. While chanting any mantra, you can easily calm down the trafficked thoughts of your mind to make you feel relaxed. This way you can easily concentrate on the divine vibrations. While chanting mantra, you will feel that those words are revolving inside your body with sound vibrations and purifying each corner of the body to make your senses fresh. Also, you may consider the mantras as the words of Almighty. If you chant God's words, his blessings will get a clearer way to reach you. Mantras act as a magnet between you and God. You both become like two opposite poles of magnet for each other and hence you experience the total enlightenment. This all can be done only if you chant mantras with faith, devotion and passion.

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Wednesday, 23 December 2015

भृगुकालेंद्र पूजन


भृगुकालेंद्र पूजन संवारें बच्चों का भविष्य

आज के आधुनिक युग में प्राप्त सुविधाएॅ जैसे गाड़ी, मोबाईल इत्यादि की सुविधा का बच्चों द्वारा गलत उपयोग किया जा रहा है। पैंरेंटस् जिन वस्तुओं को अपने बच्चों को जरूरत हेतु मुहैया कराते हैं, वहीं वस्तुएॅ बच्चों को गलत दिषा में ले जाती है। कई बार देखने में आता है कि जो बच्चे बहुत अच्छा प्रदर्षन करते रहे हैं वे भी युवा अवस्था में अपनी दिषा से भटक कर अपना पूरा कैरियर खराब कर देते हैं। यदि बच्चों के व्यवहार में अचानक बदलाव दिखाई दें, जैसे बच्चा अचानक गुस्सैल हो जाए, उसमें अहं की भावना जागृत होने लगे। दोस्तों में ज्यादा समय बिताने या इलेक्टानिक्स गजट पर पूरा ध्यान केंद्रित करें, बड़ों की बाते बुरी लगे तो तत्काल सावधानी आवष्यक है। शारीरिक दुष्प्रभावों के साथ-साथ मानसिक क्षमता का भी ह्रास दिखाई दे जैसे व्यसन, क्रोध, चिड़चिड़ा होने के साथ-साथ अपनी बौद्धिक शक्ति के साथ सहिष्णुता भी खो दे, तब किसी विद्वान ज्योतिषीय से अपने संतान की कुंडली का ग्रह दषा जानें तथा पता लगायें कि आपके संतान की शनि, शुक्र, राहु, सप्तमेष, पंचमेष की दषा तो नहीं चल रही है और इनमें से कोई ग्रह विपरीत स्थिति में या नीच का होकर तो नहीं बैठा है। अगर ऐसी कोई स्थिति दिखाई दे तो अपने संतान के लिए ज्योतिषीय काउंसिलिंग करायें इसके साथ भृगु-कालेंद्र पूजन करायें साथ ही नियम से मंत्र जाप करने की आदत डलवायें।
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बालरिष्ट योग

बच्चे तथा उसके माता-पिता द्वारा किए गए पूर्व जन्म के दुष्कृत्यों से संचित शिशु की जन्मकालिक क्रूर ग्रह स्थिति आदि को रिष्ट या अरिष्ट कहा गया है। रिष्ट तथा अरिष्ट का अर्थ शब्दकोश के अनुसार शुभ और अशुभ है, किंतु आयु निर्णय में इसका अर्थ अशुभ योग ही है। इन रिष्ट योगों में से कुछ रिष्ट योग केवल शिशु को, कुछ शिशु की माता को, कुछ पिता को, कुछ पिता और शिशु दोनों को, कुछ माता-पिता और शिशु तीनों के लिए कष्टकारक या मरणप्रद माने गये हैं। कुछ ऐसे भी रिष्ट योग हैं जो शिशु के भाई-बहन, दादा-दादी, नाना-नानी, मामा-मामी, सास-ससुर, साला, देवर-देवरानी आदि के साथ अन्य बंधुओं के साथ भी जातककारों ने अशुभ माने हैं। जातककारों का मानना है कि शिशु अपनी कायिक और मानसिक परम कोमलता या दुर्बलता के कारण मृत्यु प्रवण प्राणी है। अतः इसके तीन वर्षों में बिना अरिष्ट के भी वह मर सकता है। अतः शिशु की आयु के प्रथम तीन वर्षों को शिशु के लिए दुस्तर माना है। उनका मत है कि उसकी जन्मकालीन ग्रहस्थित्यादि से उसकी जीवनावधि को तीन वर्ष की आयु तक ‘इदमित्थम’ निश्चित नहीं किया जा सकता। इस प्रकार उन्होंने तीन वर्ष की आयु हो जाने पर ही शिशु की जन्मपत्री बनाने का दैवज्ञ को परामर्श दिया है। अपनी जातक पद्धति में आचार्य केशव ने इसे इस प्रकार लिखा है: जिवेत्क्वापि विभंगरिष्टज-शिशूरिष्टम् विनामीयतेऽथाधोब्दः शिशुदुस्तरोऽपि च परौ कार्यैषु नो पत्रिका।। शिशु की आयु के पहले तीन वर्ष बहुत संकटपूर्ण होते हैं। ये वर्ष रिष्टज योगों के कुप्रभाव से शीघ्र प्रभावित होने वाले हैं। वैद्यनाथ के अनुसार - प्रथम चार वर्षों में माता के पापों (पूर्वजन्मकृत दुष्कृत्यों) तदनंतर चार वर्षों में पिता के पापों तथा आगे शिशु अपने पापों से ही मृत्यु को प्राप्त करता है। आद्ये चतुष्के जननी कृताद्यैः मध्ये तु पित्रार्जितपापसंचयैः बालस्तदन्यासु चतुःशरत्सु स्वकीय दौषैः समुपैतिनाशये।। बारह वर्ष की अवस्था तक माता-पिता के दोषों से अर्थात् लालन पालन में असावधानी, बालावस्था में संभाव्य रोगों से बचाव एवं उसे भरपूर सुरक्षा प्रदान न कर सकने की अवस्था में निश्चय ही बालक का अनिष्ट हो सकता है। प्राचीन समय में चिकित्सादि सुविधाओं का पर्याप्त प्रचार व प्रसार न होने के कारण जातकों की मृत्यु दर अधिक थी। अतः प्राचीन समय में बालारिष्ट का प्रभाव अधिक होता था किंतु आधुनिक युग में आयु का निर्णय करते समय बालारिष्ट के साथ-साथ शिशु के परिवेश को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। मंत्रेश्वर, वैद्यनाथ तथा वेंकटेश शर्मा के अनुसार बारह वर्ष तक योगों का प्रभाव होने से तथा आत्मरक्षा के विवेक की कमी होने से बालक की अन्यथा ज्ञात आयु में संशय हो सकता है। अतः अच्छी आयु प्रतीत होने पर भी तब तक बालक को किसी संभावित दुर्घटना व रोग से बचाने के प्रयत्न, चिकित्सा, सावधानी, ईश्वराधना व जप, यज्ञ, दानादि करते रहना चाहिए। यथा- आद्वादशाब्दज्जन्तूनामायु ज्र्ञातुं न शक्यते। जप होम चिकित्साद्यै बलिरक्षां तु कारयेत्।। तद्दोषशान्त्यै प्रति जन्मतारमा द्वादशाब्दं जप होम पूर्वम। आयुष्करं कर्म विधाय तातो बालं चिकित्सादिभिरेव रक्षेत्।। जातक ग्रंथों में रिष्टजनक ग्रह स्थितियां भारी संख्या में दी गई हैं जिनमें से कुछ का यहां उल्लेख किया जा रहा है यथा- शिशु का तत्काल मृत्यु योग चक्रस्य पूर्वापर भागगेषु क्रूरेषु सौम्येषु च कीटलग्ने। क्षिप्रं विनाशं समुपैति जातः पापैर्विलग्नास्तमयाभितश्य।। वाराहमिहिर ने उपर्युक्त श्लोक में कहा है कि जन्मकुंडली के पूर्वार्ध में (दशम से चतुर्थ तक) अर्थात पूर्व कपाल में विद्यमान पाप ग्रहों से तथा लग्न कुंडली के परार्ध पश्चिम कपाल (चतुर्थ भाव से दशम भाव तक) में शुभ ग्रहों की स्थिति में भी जातक की शीघ्र मृत्यु होती है तथा लग्न और सप्तम से द्वितीय स्थान स्थित पाप ग्रहों से भी जातक का शीघ्र मरण होता है। यथा पापावुदयास्त गतौ क्रूरेण युतश्च शशी। दृष्टश्च शुभैर्न यदा मृत्युश्च भवेदचिरात।। अर्थात् लग्न सप्तमस्थ पाप ग्रहों से तथा पापयुक्त चंद्रमा पर शुभ ग्रह दृष्टि नहीं होने से भी जातक की शीघ्र मृत्यु होती है। शिशु का सप्ताह आयु योग: श्री कल्याण वर्मा ने सारावली में अरिष्ट योग बताया है कि यदि चंद्रमा सप्तम भाव में मंगल और सूर्य के साथ युति करे तो जातक की आयु एक सप्ताह होती है। यथा- सहितौ चन्द्रजामित्रे यस्यांगारक-भास्करौ। जातस्य तस्य ही तदा भवेत्सप्ताहजीवितम्।। एक मास में ही शिशु मृत्यु योग: मुकुंद दैवज्ञ ‘पर्वतीय’ के अनुसार कुछ अरिष्ट योगों में जातक की आयु मास पर्यंत हो जाती है जैसे द्वितीय, तृतीय व नवम स्थान में मंगल हो तथा सूर्य व शनि एक ही राशि में हों तो दस दिन से पहले ही जातक की मृत्यु हो जाती है यथा- मंगले मंगले वित्तेवानुजे मित्र मन्दयो। एक राशिगयोर्मृत्युः पाकस्य प्राग्दशाहतः।। जातक सारदीप में श्री नृसिंह दैवज्ञ ने इसे इस प्रकार कहा है- षष्ठाष्टगा वक्रितपापदृष्टा हन्युः शुभामासि शुभैरदृष्टाः। होरापतिः पापजितःस्मरस्थोमासेन तं मारयति प्रसूतम।। यदि अष्टम स्थान में मकर या कुंभ राशि का बृहस्पति हो तथा पाप ग्रहों से दृष्ट हो तो ग्यारहवें दिन जातक की मृत्यु हो जाती है। यथा- समन्दभेऽच्र्ये मृतिगेडंहसेक्षित। .एकादशाहेऽत्ययमेती शावकः।। चतुर्थ स्थान में राहु तथा षष्ठ व अष्टम में चंद्रमा हो, चंद्रमा से त्रिकोण स्थानों में सूर्य हो, इन योगों में उत्पन्न जातक बीस दिन की आयु लेकर आता है। भोगीश्वरेऽम्भो भवने भनायकेऽतरिक्षते वाऽमृतरश्मितोरवौ। पुत्रेपथिव्याधिभयार्छितोऽर्भकस्तदा नखाहेऽन्तकर्मान्दरं व्रजेत।। छः मास पर्यन्त आयु: सर्वार्थ चिन्तामणि में वेंकटेश शर्मा के अनुसार यदि सभी ग्रह आपोक्लिम में गए हों और निर्बल हों तो दो मास या अधिकतम छः मास आयु होती है। यथा- आपोक्लिमेस्थिताः सर्वे ग्रहा बलविवार्जिताः। षण्मासं वा द्विमासं वा तस्यायुः समुदाहृतम्।। एक वर्ष पर्यन्त आयु: चंद्रमा से केंद्र में पाप ग्रह हों और शुभ ग्रह न हों तो एक वर्ष के भीतर मृत्यु होती है। यथा- केन्द्रैश्चन्द्रात्पापयुक्तैर सौम्यैः। स्वर्गंयाति प्रोच्यते वत्सरेण।। दो वर्ष पर्यंत मृत्यु: वक्री शनिर्भौम गृहे केन्द्रे षष्ठे अष्टमेऽपि वा। कुजेन बलिना दृष्टे हन्ति वर्षद्वये शिशुम्।। शिशु-मातृ मृत्यु योग: लग्न से 7वें, 8वें भावों में कई पाप ग्रह यदि चंद्रमा को देखें तो माता व पुत्र दोनों की मृत्यु होती है। यदि शुभ दृष्टि भी हो तो सत्याचार्य के मत से रोग कारक होता है। यथा- लग्नात्सप्ताष्टभगैः पापैरभिवीक्षितश्चन्द्र सहजनन्या। भ्रियते शुभसंदृष्टैः सत्यमताद्वदेद व्याधिम्।। शिशु-पितृ मृत्यु योग: नृसिंह दैवज्ञ के अनुसार चतुर्थ में राहु हो तो पुत्र की, नवम में हों तो पिता की मृत्यु होती है। यदि पाप ग्रह की दृष्टि भी हो तो तीन दिनों में ही ऐसा हो जाता है। यथा- राहुश्चतुर्थगः पुत्रं नवमे पितरं तथा। हन्यात्केतुश्चतद्वस्यात् पाप दृष्टोदिनत्रये।। शिशु एवं तत्संबंधियों को शीघ्र मृत्यु योग: वैद्यनाथ के अनुसार यदि लग्न से पांचवें व नवें घर में पाप ग्रह की राशि हो और पाप ग्रह की राशि में सूर्य हो तो भाई की, बुध हो तो मामा की, बृहस्पति हो तो नानी की, शुक्र हो तो नाना की, शनि हो तो स्वयं बालक की मृत्यु होती है। तातांबिकासोदर-मातुलाश्च मातामही मातृ-पिता च बालः। सूर्यादिकैः पंचम-धर्मयातैः क्रूरक्र्षगैः आशुहता क्रमेण।। इसी तरह से अभुक्त मूल, भद्रा, यमघंट, दग्ध, मृत्यु योग, व्यतिपात, वैधृति, वज्रयोग, ग्रहणकाल, सूर्य संक्रांति, अमावस्या, कृष्ण चतुर्दशी, नक्षत्र-तिथि, विष घटि चंद्र एवं लग्न का राशि मृत्यु अंश आदि अनेकानेक अन्य अशुभ काल जातक मुहूर्त ग्रंथों में वर्णित हैं जिनमें जन्म शिशु तथा उसके संबंधियों के लिए कष्ट एवं मृत्यु कारक बताया गया है। इन कालों को भी रिष्ट की कोटि में माना जाता है। इसके अतिरिक्त जन्मकालीन वज्रपात, वात्या, उल्कापात, भूकंप, धूमकेतु उदय आदि असंख्य अपशकुन भी रिष्ट माने गये हैं जिनमें जन्म लेना शिशु के लिए अरिष्ट बतलाया गया है। किसी भी प्रकार के अरिष्ट योग का फलादेश करने से पहले जातक ग्रंथों में (बृहज्जातक आदि) अरिष्ट योगों के भंग (परिहार) का भी पूरी तरह से मनन कर लें।

क्यूॅ होता है व्यवसाय में उतार-चढाव -

आज के व्यवसायिक क्षेत्र की स्पर्धाओं के चलते किसी जातक के व्यवसाय का महत्व घट सकता है, क्योंकि नित्य कई संस्थाएॅ इस क्षेत्र में पदार्पण करती जा रही है, जिससे समान क्षेत्र में कार्य के साथ महत्व एवं पहचान बनाये रखना पहले की तुलना में कठिन होता जा रहा है। किसी भी क्षेत्र में बहुत अच्छी स्थिति से अचानक उतार दिखाई दे तो सबसे पहले कुंडली की गणना करानी चाहिए क्योंकि कार्य हेतु ज्योतिष विष्लेषण के अनुसार वाणिज्यकारक ग्रह बुध, ज्ञानकारक ग्रह गुरू, वैभवकारक ग्रह शुक्र तथा जनताकारक ग्रह शनि का महत्वपूर्ण योगदान कुंडली में होना आवष्यक है। इसके साथ ही कुंडली का लग्न, दूसरा, तीसरा, भाग्य, कर्मभाव व लाभभाव उत्तम होना भी जरूरी होता है। इसके साथ ही अष्टमभाव में राहु या राहु से पापाक्रांत उपयुक्त केाई ग्रह होने से भविष्य में कार्य में बाधा दिखाई देती है जोकि वित्तीय अनियिमितता के कारण संभव है चूॅकि कई बार व्यवसाय का धन व्यवसाय स इतर लगाने से व्यवसायिक हानि होती है। अतः उपयुक्त योग के साथ यदि कोई विपरीत स्थिति निर्मित हो रही हो तो ऐसे में अपनी कुंडली के अनुसार बाधा निवारण का उपाय करना लाभकारी होता है। जिसमें विषेषकर पितृषांति, दीपदान एवं सूक्ष्मजीवों की सेवा करना चाहिए।
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ईष्या का ज्योतिषीय कारण -

इन्सान की फितरत है कि वो दूसरे को अपने से अधिक अकलमंद नहीं समझता। साथ ही दूसरो की सफलता, प्रसिद्धि, सुंदरता या व्यवहार को लेकर लगातार तुलना करता रहता है, और उसके मन की यही प्रवृति दूसरों के प्रति ईष्या का कारण बनती है। उसकी ईष्या से दूसरों का तो कुछ बुरा होता, लेकिन उसकी इस ईष्या से वो मानसिक और शरीरिक रुप से परेशान जरुर होता है। इन्सान को ईष्या के कारण अपने भले बुरे का ज्ञान भी नहीं होता। व्यक्ति को हमेशा ही ईष्या से दूरे रहना चाहिए या अपने मन में ही नही आने देना चाहिए क्यो कि ईष्या हमेशा मनुष्य को दुख देती है। ईष्या के कारण को ज्योतिषीय नजरिये से देखें तो किसी भी मनोवृत्ति के लिए तीसरा स्थान होता है, ईष्या भी मन के कारण पैदा होता है अतः यदि तीसरे स्थान का स्वामी सप्तम स्थान में बैठ जाए और सप्तमेश की स्थिति अच्छी हो तो ऐसे लोग अपने प्रतिद्व्रदी की अच्छी स्थिति को लेकर उनके प्रति ईष्या रखते हैं। और यदि इसका स्वामी ग्रह शुक्र हो तथा तीसरे स्थान में राहु हो तो ऐसे लोग लगातार अपनी स्थिति के प्रति नकारात्मक और दूसरों की स्थिति को अपने से बेहतर मानते हुए परेशान रहते हैं। अतः यदि मन में ईष्या बहुत ज्यादा आ रही हो तो गणेशजी की पूजा करनी चाहिए। तिल गुड का दान करना चाहिए तथा गणपति अर्थव का पाठ करना चाहिए।
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बच्चे को सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु कराये बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण -

बच्चे को सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु कराये बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण -
आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।
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कृतध्न होना भी है असफलता का कारक - कुंडली से जाने कृतज्ञ हैं या नहीं -

भारतीय संस्कृति में व्यक्ति को तीन ऋणों उऋण होना अनिवार्य बताया गया है, ब्रम्ह, देव व पितृ ऋण। इसके लिए प्रत्येक को पंच महायज्ञों को करना अनिवार्य होता है। वस्तुतः भारतीय संस्कृति में यज्ञ कृतज्ञता का ही प्रतीक है। हमारे यहाॅ तैतीय कोटि देवता कहे गए हैं जिसमें पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाष, वायु इत्यादि को भी देवता माना गया है। देवता अर्थात् जो देता है वहीं देवता है। इसलिए प्रकृति के वे तत्व जो हमें जीवित रखने में सहयोग देते हैं हम उसे देवता मानकर उसके प्रति कृतज्ञ होते हैं। साथ ही उपकारी के प्रति आभार का भाव रखना ही कृतज्ञ होना है। किंतु अंहकार के कारण किसी के प्रति कृतज्ञता का भाव नहीं आता और हम जो मिला उसके लिए थैंक्सफुल होने की अपेक्षा जो प्राप्त नहीं है उसके लिए दूसरो अथवा ईष्वर को दोष देते रहते हैं। अथवा जो मिला उसमें अपना ही कर्म मानकर किसी के प्रति कृतज्ञ ना होना भी अहंकार का प्रतीक है। अतः यदि इसे कुंडली से देखा जाए तो लग्न, तीसरा अथवा भाग्य भाव का कारक ग्रह यदि प्रतिकूल हो तो ऐसे लोग किसी के भी प्रति कृतज्ञ नहीं होते। वहीं अगर लग्न, तीसरे स्थान में सूर्य अथवा शनि जैसे ग्रह होकर विपरीत कारक हों तो ऐसे लोग अहंकार के कारण कृतध्न होते हैं। अतः यदि आपके जीवन में थैंक्स की कमी हो अथवा आपके लिए धन्यवाद शब्द महत्वपूर्ण ना हो तो कई यह आपके जीवन में सफलता में कमी का कारण भी हो सकता है क्येांकि लग्न, तीसरे अथवा भाग्यभाव यदि विपरीत हो तो सफलता प्राप्ति में कमी या देरी होती है। अतः सफलता प्राप्ति हेतु अपने जीवन में कृतज्ञता का समावेष कर जीवन में सुख-समृद्धि तथा शांति प्राप्त की जा सकती है।
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एल्कोहोलिक होने के कारण और ज्योतिषीय उपाय -

एल्कोहोलिक होने के कारण और ज्योतिषीय उपाय -
कुछ व्यक्तियों का व्यक्तित्व विशेष ढंग का होता है जिसमें पहले से ही कुछ ऐसे लक्षण विद्यमान रहते हैं, जो उसे शराबी बना देती है और वह तनाव की स्थिति से समायोजित होने के लिए कोई दूसरी सुरक्षात्मक प्रक्रिया का उपयोग नहीं कर पाता। इसे अल्कोहोलिक व्यक्तित्व कहा जाता है। व्यक्ति अपने शराब पीने पर नियंत्रण नहीं रख पाते, इसका कारण मनोवैज्ञानिक है। असामाजिक व्यक्तित्व तथा अवसाद ये दो ऐसे चिकित्सकीय लक्षण है जो अत्यधिक मद्यपान करनेवाले व्यक्तियों में पाये जाते है। ये लक्षण किसी व्यक्ति की कुंडली में दिखाई देती है। यदि किसी जातक की कुंडली में उसका तृतीयेष राहु से पापाक्रांत होकर छठवे, आठवे या बारहवे स्थान पर आ जाए अथवा अपने स्थान से इन स्थानों पर हो तो ऐसा व्यक्ति तनाव से बचने के लिए अपने आप को नषे में डालता है और लगातार नषे के सेवन से एल्कोहोलिक होता हैं अतः कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर तीसरे स्थान के ग्रहों की शांति, मंत्रजाप तथा पूजा तथा रत्न धारण करना चाहिए। अच्छे मार्गदर्षक या साथ में रहना भी तनाव से बाहर निकलने का एक जरिया होता है।
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