Friday, 4 March 2016

शनि की शुभता और अशुभता



ज्योतिष में शनि की बहुत बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका है। मनुष्य जीवन को संचालित करने वाले अनेकों घटक शनि के अंतर्गत आते हैं और हमारे जीवन में आने वाले बड़े परिवर्तन शनि की गतिविधियों पर ही निर्भर करते हैं। जैसा कि हम जानते हैं शनि, सूर्य के पुत्र हैं और नव ग्रहों में उन्हें दण्डाधिकारी का पद भगवान शिव के द्वारा दिया गया है। भचक्र में मकर और कुम्भ राशि पर शनि का स्वामित्व है तथा तुला राशि में शनि को उच्च व मेष राशि में नीचस्थ माना जाता है। सूर्य, चंद्रमा, मंगल और केतु की शनि से शत्रुता, बृहस्पति सम व शुक्र, बुध, राहु से मित्रता मानी जाती है। शनि को हमारे कर्म, जनता, नौकर, नौकरी, अनुशासन, तपस्या, अध्यात्म आदि का कारक माना गया है। अब प्रश्न यह उठता है कि शनि की हमारे जीवन में शुभ भूमिका होगी या अशुभ। वास्तव में यह हमारी जन्मकुंडली में शनि की भिन्न-भिन्न परिस्थितियों पर निर्भर करता है सामान्यतया वृष, मिथुन, कन्या, तुला, मकर तथा कंुभ लग्न वाले जातकों के लिए शनि को शुभ कारक ग्रह माना जाता है और मेष, कर्क, सिंह, वृश्चिक, धनु और मीन लग्न की कुण्डली में शनि को अकारक ग्रह माना जाता है। इसके अतिरिक्त शनि से मिलने वाला शुभ या अशुभ फल इस बात पर निर्भर करता है कि शनि हमारी कुण्डली में है किस स्थिति में। शनि यदि जन्मकुंडली में स्व, उच्च, मित्र आदि राशि में बलवान होकर बैठा है तो निश्चित ही ऐसा शनि जातक को दूरद्रष्टा, कर्मप्रधान, अनुशासित एवं अच्छे पद वाला व्यक्ति बनायेगा। ऐसा व्यक्ति कर्म करते हुए भी अपने जीवन को प्रभु चरणों में लगाएगा और यदि शनि नीच राशि (मेष), शत्रु राशि या शत्रु ग्रहों से प्रभावित होकर पीड़ित या कुपित स्थिति में है तो वह जातक को आलस्य, लापरवाही, नकारात्मक सोच, कर्मों को कल पर छोड़ने की प्रवृत्ति देकर जीवन को संघर्षों से भर देगा कमजोर शनि वाले जातक को अपने करियर में बहुत संघर्षों के बाद ही सफलता मिलती है। शनि की अन्य ग्रहों से युति: 1. शनि-सूर्य: शनि और सूर्य का योग शुभ फल कारक नहीं माना जाता विशेष रूप से पिता और पुत्र दोनों में मतभेद रह सकते हैं। ऐसे व्यक्ति में आत्मविश्वास की कमी रहेगी तथा यश प्राप्ति में बाधाएं आयेंगी। 2. शनि-चंद्रमा: ऐसे जातक को मानसिक शांति की कमी सदैव अनुभव होगी, मानसिक एकाग्रता नहीं रहेगी। जल्दी डिप्रेस हो जायेगा, स्वभाव में आलस्य रहेगा और माता के सुख में भी कमी हो सकती है। 3. शनि-मंगल: ऐसे जातक को अपने व्यवसाय या करियर में अपेक्षाकृत अधिक संघर्ष करना पड़ता है और कठिन परिश्रम से ही सफलता मिलती है। 4. शनि-बुध: ऐसे जातक अपनी बुद्धि, वाणी, बुद्धि परक कार्यों से सफलता प्राप्त करते हैं और गहन अध्ययन में रुचि रखते हैं। 5. शनि-बृहस्पति: यह बहुत शुभ योग होता है। ऐसे जातक अपने सभी कार्य काफी लगन से करते हैं तथा जीवन में अच्छे पद प्राप्त करते हैं। 6. शनि-शुक्र: यह भी शुभफल कारक होता है। ऐसे जातक विवाह उपरान्त विशेष उन्नति पाते हैं तथा धन समाप्ति के लिए यह योग शुभ है। 7. शनि$राहु: यह बहुत अच्छा योग नहीं है। संघर्षपूर्ण स्थितियों के पश्चात् सफलता मिलती है, उतार-चढ़ाव अधिक आते हैं। 8. शनि$केतु: शनि की युति केतु के साथ हो तो जातक का ध्यान अध्यात्म या समाज सेवा की ओर उन्मुख हो सकता है परंतु ऐसे जातक को अपनी आजीविका चलाने के लिए अथक प्रयास करने पड़ते हैं। शनि और स्वास्थ्य: हमारे शरीर में शनि विशेषतः पाचनतंत्र और हड्डियों के जोड़ों को नियंत्रित करता है। इसके अतिरिक्त, दांत, नाखून, बाल, टांग, पंजे भी शनि के अंतर्गत आते हैं। जिन व्यक्तियों की कुंडली में शनि नीच राशि (मेष) में कुंडली के छठे या आठवें भाव में हो या अन्य प्रकार से पीड़ित हो तो ऐसे में पाचन तंत्र से जुड़ी समस्याएं और जाॅइंट्स पेन की समस्या का सामना करना पड़ता है। इसके अतिरिक्त दीर्घकालीन रोगों में भी शनि की भूमिका होती है। विशेष रूप से कर्क, सिंह और धनु लग्न वाले जातकों के लिए शनि अपनी दशाओं में स्वास्थ्य कष्ट उत्पन्न करता है। शनि और आजीविका: वर्तमान युग में शनि को एक तकनीकी ग्रह के रूप में देखा जाना चाहिए। यदि शनि कुंडली में अच्छी स्थिति में है तो निश्चित ही तकनीकी क्षेत्र में उन्नति देगा। इसके अंतर्गत मेकेनिकल इंजीनियरिंग, मशीनों से जुड़ा कार्य, लोहा, स्टील, कोयला पेट्रोल, गैस, कच्ची धातुएं, केमिकल प्रोडक्ट, सीमंेट तथा पुरातत्व विभाग से जुड़े कार्य आते हैं। शनि और साढ़ेसाती: साढ़ेसाती को लेकर सभी व्यक्ति भय से व्याप्त रहते हैं। जब शनि हमारी जन्म राशि से बारहवीं राशि में आते हैं तब साढ़ेसाती का प्रारंभ होता है। वास्तव में यह समय हमें संघर्ष की अग्नि में तपाकर हमारे पूर्व अशुभ कर्मों को स्वच्छ करने का कार्य करता है। परंतु ज्योतिषीय दृष्टिकोण से बात करें तो साढ़ेसाती का फल सबके लिए एक समान कभी नहीं होता। यह कुंडली में बनी ग्रह स्थितियों पर निर्भर करता है। यदि हमारी कुंडली में स्थित शनि बहुत पीड़ित व कमजोर और विशेषकर मंगल, केतु के प्रभाव में हो तो ऐसे में साढ़ेसाती बहुत संघर्ष और बाधापूर्ण होती है। कुंडली में चन्द्रमा यदि अतिपीड़ित हो तब भी साढ़ेसाती में दुष्परिणाम मिलते हैं। परंतु यदि कुंडली में शनि बृहस्पति या मित्र ग्रहों बुध, शुक्र के अधिक प्रभाव में शुभ स्थिति में है तो साढ़ेसाती में अधिक समस्याएं नहीं आतीं। इसके अलावा साढ़ेसाती के अंतर्गत गोचर का शनि यदि उन राशियों से गुजरता है जिनमें हमारे जन्मकालीन शुक्र, बुध व बृहस्पति बैठे हैं तब भी साढ़ेसाती शुभफल कारक होती है। शनि शांति के उपाय: यदि शनि की दशा या साढ़ेसाती में प्रतिकूल परिणाम मिल रहे हों तो निम्नलिखित उपाय अवश्य करें। 1. ऊँ शं शनैश्चराय नमः का 108 बार जाप करें। 2. शनिवार को पीपल के वृक्ष में जल दें। 3. लगातार पांच शनिवार साबुत उड़द का दान करें। 4. हनुमान चालीसा का पाठ करें। 5. सूर्यास्त के बाद घर की पश्चिम दिश में सरसों के तेल का दीया जलाएं। 6. माह में एक बार वृद्धाश्रम में कुछ धन या खाद्य सामग्री का दान अवश्य करें।

जुड़वां बच्चों का ज्योतिष्य अवधारणा

यदि दो जुड़वां भाई/बहन हं और दोनों का जन्म समय, तिथि व स्थान एक ही है तो निश्चित ही जन्मपत्री एक सी ही बनेगी तथा शक्ल, सूरत, विचार, इच्छाएं, रोग, जीवन की घटनाएं भी एक समान हो सकती हैं। परंतु फिर भी जुड़वां बच्चों के व्यक्तित्व, कर्म व जीवनधारा में काफी अंतर हो सकता है यद्यपि कि जन्मपत्री में ग्रह स्थिति एक सी ही हो। उसके कुछ कारण निम्नवत हैं: गर्भ कुंडली: वास्तविक जन्म गर्भ में भ्रूण प्रवेश/निषेचन के समय हो जाता है तथा यह भी तय हो जाता है कि बच्चा लड़का होगा या लड़की। जिस क्षण विशेष में गर्भ में भ्रूण स्थापित होता है वही क्षण उस बालक/बालिका के पूरे जीवन का आधार बनता है। भ्रूण समस्त ग्रहों का प्रभाव पिता व माता द्वारा स्वीकार करता है। उदाहरणार्थ, जो स्त्रियां पक्षबली चंद्रमा के समय में गर्भाधान करती हैं उन्हें निश्चित ही स्वस्थ, सुंदर, सफल व संस्कारवान संतान प्राप्त होती है। जुड़वां संतान की गर्भ कुंडली देखें तो उनमें अधिक अंतर होने की संभावना है क्योंकि गर्भ भ्रूण प्रवेश/ निषेचन एक ही समय में हो ऐसा संभव नहीं है। ज्योतिष नियमानुसार जन्म कुंडली से गर्भ कुंडली बनाई जा सकती है। पर यह निश्चित ही कठिन कार्य है। गर्भ कुंडली भिन्न हो जाने से जातक का व्यक्तित्व व भविष्य भिन्न रूप में विकसित होगा, यह निश्चित है। जैसे - एक राजा समान जीवन यापन कर रहा है तो दूसरा फुटपाथ पर मजदूरी। इसका कारण गर्भ में कुछ समय मिनट अंतराल में दोनों का गर्भ स्थापित होना है जिसमें दोनों की जन्मपत्री तो एक समान आती है, लेकिन हाथ की रेखाओं में काफी अंतर पाया जाता है। अतः ऐसे प्रश्नों का उत्तर ‘‘हस्त रेखा शास्त्र’’ आसानी से दे सकता है। जन्मकुंडली की इस परेशानी को दक्षिण भारत के महान ज्योतिष विद्वान ‘‘कृष्णमूर्ति’’ ने नक्षत्र पर आधारित पद्धति का निर्माण कर किया, जिसे ‘‘के. पी. पद्धति‘’ कहते हैं। इसके अनुसार किसी भाव का फल भावेश अर्थात उसका स्वामी न करके, वह ग्रह जिस नक्षत्र में स्थित हैं, उसका उपनक्षत्र स्वामी करेगा अर्थात् उस भाव का फल उपनक्षत्रेश के आधार पर होगा। जैसे-किसी की जन्मपत्री में तुला लग्न में दशमेश चंद्र, उच्च या स्वगृही है तो उसे किसी कंपनी/सरकारी नौकरी में उच्च पद पर या प्रतिष्ठित व्यवसाय में होना चाहिए। परंतु वास्तव में वह व्यक्ति फुटपाथ पर मजदूरी कर रहा था, तब ‘ऐसे में उसकी जन्मपत्री का अध्ययन किया तो यह पाया कि उसका उपनक्षत्र स्वामी, जन्मपत्री में नीच राशि में स्थित था, अतः उसे वास्तव में निम्न स्तर का रोजगार मिला। ठीक इस प्रकार जुड़वां बच्चों या समकक्ष में के. पी. ने उपनक्षत्र स्वामी का निर्माण राशियों को 4-4 मिनट में बांटकर सारणी तैयार कर किया तथा जुड़वां बच्चों के फल कथन में इस सिद्धांत को प्रस्तुत किया तो बिल्कुल सटीक पाया गया। क्योंकि जुडवां बच्चों में 2-3 मिनट का ही अंतर रहता है या एक ही स्थान, समय में भी 2-3 मिनट का ही अंतर पाया जाता है। अतः के. पी. की उपनक्षत्रेश पद्धति इनपर बिल्कुल सही साबित हुई। इसके अलावा, के. पी. पद्धति में प्रश्न कुंडली के आधार पर भी इन बच्चों का भविष्य कथन ज्ञात कर सकते हैं। यह आधुनिक ज्योतिष को के. पी. की महान देन है। हस्त रेखा एवं आयुर्विज्ञान के अनुसार, हस्तरेखाओं में भिन्नता 21वें क्रोमोसोम (गुणसूत्र) के कारण होती है, अतः गर्भ स्थान में कुछ समय (मिनट) अंतराल वास्तव में गर्भाशय में शुक्राणु का अंडाणु से निषेचन से होता है। अतः किसी का भी भाग्य का निर्माण चाहे सिंगल हो या जुड़वां, वह तो गर्भ स्थापन में ही हो जाता है बाकी के नौ महीने तो बालक के भ्रूण के पूर्ण निर्माण में लगते हैं। अतः यहां पर गर्भ स्थापन में 16 संस्कारों में गर्भाधान संस्कार का महत्व उपरोक्त कारण से है। के. पी. पद्धति से पूर्व ज्योतिष द्वारा जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन पूरी तरह सक्षम नहीं था। ऐसे में हस्तरेखा शास्त्र, भविष्य कथन में सहायक सिद्ध होता था। दो जातकों की हस्त रेखायें भिन्न होती हैं, जो जुडवां हो या एक ही समय और स्थान पर पैदा हुये हों। लेकिन के. पी. की नक्षत्र आधारित पद्धति ने ज्योतिष में जान डालकर हस्तरेखा की भांति सजीव बना दिया। के. पी. एवं हस्तरेखा के अलावा ‘‘प्रश्न ज्योतिष’ द्वारा भी जुडवां या समकक्ष बच्चों का भविष्य/जीवन ज्ञात कर सकते हैं। ज्योतिष में पंचम भाव, पंचमेश व कारक गुरु तीनों संतान से जुड़े हैं, ये किसी स्त्री ग्रह से युक्त/दृष्ट (प्रभावित) हो तो जुडवां संतानें होती हैं। ये योग स्त्री एवं पुरूष में न्यूनतम एक में होना अनिवार्य है। दैनिक जीवन में भी देखते हैं तो कई जातकों के जुडवां बच्चे पैदा होते हैं, उनमें न्यूनतम एक में यह योग अवश्य होता है। जीवनशैली/लालन पालन का महत्व: यदि जन्मकुंडली पूर्ण रूप से समान हो, जुड़वां बच्चों की लग्न, चंद्र राशि व नक्षत्र चरण समान हो फिर भी यदि बच्चों के लालन-पालन में, शिक्षा, संस्कार में भिन्नता हो तो भी बच्चे भिन्न व्यक्तित्व के हो सकते हैं। ग्रह प्रभाव की व्यापकता: यदि दोनों बच्चों का कारक ग्रह एक हो तो भी उनके जीवन में भिन्नता आ सकती है।

मंगल और शुक्र की भूमिका

चंद्र मन का प्रतिनिधित्व करता है और मन काम शक्ति का कारक है। सभी प्रकार के संबेधों का कारण भी चंद्र होता है। जब चंद्र की दृष्टि, युति आदि सूर्य से हो, तो संबंध में आश्रय पाने के विचार होते हैं। मंगल कारण कर्मठ व्यक्तियों से, बुध के कारण व्यापारी वर्ग से, गुरु के कारण आध्यात्मिक क्षेत्र से जुड़े व्यक्तियों से, शुक्र के कारण विपरीत लिंग से और शनि के कारण आलोचना करने वालों से संबंध होते हैं। राहु-केतु के कारण उनके स्वामी के अनुरूप ही संबंध होते हैं। मंगल तथा शुक्र के कारण कामुक संबंध स्थापित होते हैं। लेकिन इनके साथ चंद्र की भी अहं भूमिका होती है। और इन योगों में शनि का योगदान अनैतिक संबंध कारक माना जाता है। चतुर्थ भाव का संबंध नैतिक तथा पवित्र माना जाता है। लेकिन सप्तम, अष्टम एवं द्वादश भाव का संबंध उपर्युक्त योगों के साथ अनैतिक होता है। निर्बल मंगल गोपनीय संबंध बनाकर विवाहोपरांत जीवन को कष्टमय बना देता है। लेकिन मंगल और शुक्र दोनों बलवान हों तो बहु संबंधों के साथ बहुविवाह भी सफल होते हैं। विवाह आठ प्रकार के होते हैं- ब्राह्मण विवाह, प्राजापत्य विवाह, आर्ष विवाह, देव विवाह, गांधर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह, पैशाच विवाह। इन आठ प्रकार के विवाहों में ब्राह्मण वर्ण के लिए ब्रह्म विवाह, प्राजापत्य विवाह, आर्ष विवाह और देव विवाह सर्वश्रेष्ठ होते हैं। क्षत्रिय वर्ण के लिए आसुर विवाह और राक्षस विवाह श्रेष्ठ माने जाते हैं। वैश्य तथा शूद्र वर्णों के लिए गांधर्व विवाह तथा पैशाच विवाह श्रेष्ठ माने जाते हैं। गांधर्व विवाह की अनुमति सभी वर्णों के व्यक्तियों को होती है क्योंकि इस विवाह का कारक चंद्र, मंगल और शुक्र हैं। इसके अंतर्गत पुरुष स्त्री से प्रेम संबंध स्थापित कर विवाह कर लेता है। यह दोनों की सहमति से ही होता है। उपर्युक्त योगों के साथ-साथ अन्य ग्रहों की भी अपनी-अपनी भूमिका होती है। जैसे लग्नेश यदि चतुर्थ भाव में हो तथा चतुर्थ एवं सप्तम भाव मंगल और राहु से प्रभावित हों, तो जातक या जातका के कई स्त्रियों या पुरुषों से संबंध होते हैं। इसी प्रकार सप्तम भाव व सप्तमेश, पंचम भाव व पंचमेश तथा द्वादश भाव व द्वादशेश का किसी भी रूप में संबंध हो, तो स्त्री या पुरुष कामुकता के वशीभूत होकर विवाहेतर संबंध बनाते हैं। ज्योतिष में शुक्र दूसरों को रोमांस की दृष्टि से आकर्षित करने की क्षमता का परिचायक है। वह जातक या जातका को उसकी कामेच्छा, अभिलाषा, अभीप्सा आदि की पूर्ति हेतु संघर्ष के लिए प्रेरित करता है। बहु संबंध एवं बहु विवाह का एक प्रमुख कारण स्थान विशेष का वातावरण भी होता है। स्वभाव से पुरुष सौंदर्यप्रिय तथा स्त्री धनप्रिय होती है। वर्तमान काल में 40 प्रतिशत विवाह धन के कारण तथा 30 प्रतिशत विवाह सौंदर्य के कारण होते हैं। शेष 30 प्रतिशत विवाह निवास या कार्यालय के वास्तुदोषों के कारण होते हैं। लेकिन इन सभी कारणों में उपर्युक्त ग्रह योगों की भूमिका अहम होती है। इसी प्रकार उपर्युक्त योगों को हाथ की रेखाओं के माध्यम से भी देखा जा सकता है। यदि मंगल व शुक्र के कारण बहु संबंध या अनैतिक संबंध बन रहे हों, तो जातक की हस्त परीक्षा से शुक्र पर्वत पर महीन जाली मिलेगी या गुरु पर्वत पर एक तारा का चिह्न अवश्य मिलेगा। यदि त्रिकोण के अंदर चंद्र की आकृति हो, तो चारित्रिक शिथिलता का बोध होता है। शुक्र पर्वत पर 2 क्राॅस अति कामी बनाकर बहु संबंध बनाते हों, तो शुक्र पर्वत के नीचे की तरफ कोई वर्ग हो तथा किसी अंगुली में 4 पर्व हांे, तो अनैतिक संबंध से कारागार प्राप्त होता है

जीवन में कष्ट और क्लेश हो करें कुछ उपाय........



आप भी जानते हैं, कि संसार का हर एक जीव अपने परिवार तथा आस पास के लोगों से बहुत प्यार करता है और हर किसी के मन मंे प्यार और सम्मान पाने की बहुत चाह होती है। लेकिन आज-कल परिवार में छोटी-छोटी बातों को लेकर क्लेश होना और फिर उसके कारण उस क्लेश का विकराल रूप होने में देर नहीं लगती है। हम भी सोचने पर मजबूर हो जाते हैं, कि ये उसी कारण ऐसा हुआ है, अगर वो ऐसा नहीं करता तो आज ये हालात नहीं होते। ऐसा सोचना बिल्कुल गलत है, हम या आप किसी को गलत नहीं कह सकते हैं, क्योंकि इन सबके लिए जिम्मेदार हमारे कर्म तो होते हैं, लेकिन सबसे बड़े जिम्मेदार हमारे ग्रह ही होते हैं। कोई भी जीव धरती पर बुरा नहीं है, आइये अब कैसे इसे ठीक करें, जिससे कि हम हमारे प्यार करने वाले अनमोल परिवार से किसी भी तरह दूर न हों।
सबसे पहले क्या करें:
हमारे घर में छोटी-मोटी जरूरतों के लिए कीलें, बिना ताले की चाभियां, जंग लगा हुआ लोहा, बरसात की भीगी लकड़ी, कबाड़ के और भी जो रूप होते हैं, पड़े हुये मिल जाते हैं उन्हें बाहर निकालें।
छत पर भी कोई कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि नहीं होना चाहिए, घर की छत बिस्तर के सुख वाले ग्रह से संबन्धित माना गया है।
घर में मूर्ति लगाकर, ज्योत जलाकर पूजा पाठ न करें, मंदिर में जाकर आप दोनों प्रकार से पूजा कर सकते हैं, सिर्फ आपको घर में मना किया जा रहा है।
सुबह जल्दी उठकर घर में साफ-सफाई करके पूरे घर में अच्छी लेकिन हल्की खूशबू वाली अगरबत्ती या धूप जला दें, जिससे कि परिवार में सभी लोगों में सकारात्मक ऊर्जा का संचार हो सके।
गंदे-फटे बिस्तरों का प्रयोग न करें, हर सप्ताह में एक बार बिस्तरों के लिहाफ आदि बदल दें।
घर में नीले-काले रंग के पेंट आदि न करवाएँ और पर्दे आदि भी इस रंग के प्रयोग न करें।
घर के पूर्वी और उत्तर दिशा को हमेशा साफ रखें, इस दिशा में कभी भी कबाड़ या भारी सामान न रखें।
रोजाना घर की सबसे पहली रोटी में से कुत्ते, कौवे और गाय को हिस्सा जरूर दें, अगर रोटी में से न दे पाएँ तो अपने भोजन में से इनके लिए हिस्से अवश्य निकालें, ये कार्य करने से आपके सहकर्मी और आपके बड़े अधिकारी आपसे खुश रहेंगे तथा जीवनसाथी का सुख भी अच्छा मिलेगा।
घरेलू सुख-शांति के लिए ऐसा करें-
चाँदी के बड़े से बर्तन में गंगाजल भरकर चाँदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर घर में रखें, गंगाजल कभी सूखने न दें।
हर सप्ताह कम से कम एक बार गायों की सेवा जरूर करें, और संभव हो सके तो गली में साफ-सफाई करने वाले को भरपेट शाकाहारी भोजन अपने घर पर ही करवाएँ ।
जीवनसाथी के प्रति वफादारी कभी भी कम न करें।
तला हुआ खाना कम से कम बनाएँ, नारियल, बादाम तलने भुनने से बचें।
शौचालय, स्नानागार आदि बिल्कुल साफ सुथरे रखें, इनमें भी हल्की खूशबू का हमेशा प्रबंध रखें।
रात के समय जूठे बर्तन और गंदे कपड़े भिगोकर न सोएँ, अन्यथा आपके परिवार में एकता कभी नहीं बनेगी, और घर के सभी लोग अपनी- अपनी इच्छा का दबाव बनाकर सब कुछ नष्ट कर देंगे।
जो लोग दिन में मांसाहारी भोजन और शराब का सेवन करते हैं तो वो इसका सेवन सिर्फ रात को ही करें।
बीमारियाँ दूर न होती हों तो क्या करें ?-
हर महीने के किसी भी एक मंगलवार को पूरे महीने में आए रिश्तेदारों और घर के सदस्यों को जोड़ें। उनमंे चार और फालतू जोड़ लें तो जितनी भी संख्या हो उतनी ही आटे मंे गुड़ मिलाकर रोटियाँ तंदूर में लगवाकर कुत्तों और कौवों को डालें, लेकिन ध्यान रहे कि रोटियों मे लोहे का प्रयोग न हो।
हर रोज रात को सिरहाने दो-चार रुपए सिक्के के रूप में रखकर सोयें और सुबह उठाकर सफाई-कर्मचारी को दे दें।
घर के नौकर-चाकर और साथ में काम करने वालों को खुश रखें, उनसे झगड़ा और बहस कभी न करें।
रोजाना सुबह जल्दी उठकर सूर्य की रोशनी से स्नान करें।

ज्योतिष्य सार्थकता का जीवन पर प्रभाव....

ज्योतिष शास्त्र का मानव जीवन में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। ईश्वर ने प्रत्येक मानव की आयु की रचना उसके पूर्व जन्म के कर्मों के अनुसार की है, जिसे कोई भी नहीं बदल सकता विशेषरूप से मनुष्य के जीवन की निम्नांकित तीन घटनाओं को कोई नहीं बदल सकता: 1. जन्म 2. विवाह 3. मृत्यु। ज्योतिष विद्या इन्हीं तीनों पर विशेष रूप से प्रकाश डालती है, यद्यपि इन तीनों के अतिरिक्त जीवन से संबंधित अन्य महत्वपूर्ण बिदुओं से भी संबंधित है। कारण है कि यह एक ब्रह्म विद्या है। ज्योतिष शास्त्र को वेद के नेत्र के रूप में स्वीकार किया गया है। यह भारतीय ऋषि-महर्षियों के त्याग, तपस्या एवं बुद्धि की देन है। इसका गणित-भाग विश्व-मानव मस्तिष्क की वैज्ञानिक प्राप्ति का मूल है तथा फलित भाग उसका फल-फूल। ज्योतिष अपने विविध भेदों के माध्यम से समाज की सेवा करता आया है और करता रहेगा। यह सत्य है कि जिस किसी वस्तु, व्यक्ति या ज्ञान का विशेष प्रभाव समाज पर पड़ता है, उसका विरोध भी उसी स्तर पर होता है। ज्योतिष ने अपने ज्ञान के माध्यम से समाज को जितना अधिक प्रभावित किया है, उतने ही प्रखर रूप से इसकी आलोचना भी की गई। आलोचनाओं से निखर कर इसने अपने गणित-ज्ञान से विश्व को उद्घोषित किया तथा आकाश में रहने वाले ग्रहों, नक्षत्रों बिंबों तथा रश्मियों के प्रभावों का अध्ययन किया। इन प्रभावों से समाज में होने वाले परिवर्तन को देखा और समझा। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों के प्राणी पर पड़ने वाले प्रभावों को जानने के लिए मनीषियों ने ब्रह्मांड रूपी भचक्र में विचरने वाले ग्रहों का कुंडली के भचक्र के रूप में साक्षात्कार कर उसके माध्यम से जन-जीवन पर पड़ने वाले प्रभावों का विश्लेषण किया, जिसे ‘फलित ज्योतिष’ की संज्ञा दी गई जो अपने आप में सत्य और विज्ञान-सम्मत है। किंतु प्रश्न यह है कि आकश में भ्रमण करने वाले ग्रहों का प्रभाव सृष्टि जड़ चेतन पर भी पड़ता है। ब्रह्मांड में अपनी रश्मियों को बिखेरने वाले ग्रह सांसारिक जीवों तथा वस्तुओं पर अपना अमिट प्रभाव डालते हैं, जिसका मूर्त रूप सागर मे उठने वाले ज्वार-भाटा का मूल कारण ‘चंद्रमा’ के प्रभाव को मानते हैं। तरल पदार्थ पर चंद्रमा का प्रभाव विशेष रूप से पड़ता है। फाइलेरिया बीमारी का एक तीव्र वेग भी एकादशी से पूर्णिमा तक अधिक होता है। ज्योतिष चंद्रमा को रुधिर का कारक मानता है। चन्द्रमा जल में अपना प्रभाव डालकर जिस तरह उसमें उथल-पुथल मचाता है, उसी तरह से शरीर रक्त प्रवाह में भी अपना प्रभाव प्रदान कर मानव को रोगी बना देता है। वनस्पतियों पर यदि ध्यान दिया जाय तो चंद्रोदय होते ही कुमदिनी पुष्पित होती ह तथा कमल संकुंचित। सूर्योदय होने पर कमल प्रस्फुटित तथा कुमदिनीं संकुंचित। इससे स्पष्ट होता है कि सूर्य तथा चंद्रमा का इन दोनों पर स्पष्ट प्रभाव पड़ता है। ‘उद्मिज्जज्ञ सरलिनोंस’ ने अपनी पुष्पवाटिका में फूलों की ऐसी पंक्ति बैठा ली थी, जो बारी-बारी से खिलकर घड़ी का कार्य करती थी। पशु-पक्षियों पर भी ग्रहों का स्पष्ट प्रभाव दृष्टि गोचर होता है। उदाहरणार्थ बिल्ली की आंख की पुतली, चंद्रमा की कलानुसार घटती-बढ़ती रहती है। कुत्तों की काम वासना आश्विन-कार्तिक में जागृत होती है। अनेक पशु-पक्षी पर ग्रहों, तारों का प्रभाव अदृश्य रूप से पड़ता है, जो उनके क्रिया कलापों से उद्भाषित हो जाता है। पक्षियों की वाणी से घटनाओं की पूर्व सूचना हो जाती है। आदिवासी लोग बहुत कुछ इसी पर निर्भर रहते हैं। ज्योतिषशास्त्र के आचार्यों ने अपनी अन्वेषणात्मक बुद्धि से ग्रहों के पड़ने वाले प्रभावों को पूर्ण रूप से परखा तथा उसके विषय में समाज को उचित मार्ग-दर्शन प्रदान किया। आज इस बात की आवश्यकता है कि हम इस शास्त्र के ज्ञान को सही सरल और सुबोध बनाकर मानव-समाज के समक्ष प्रस्तुत करें। शास्त्र वर्णित नियमानुसार यदि फलादेश किया जाए, जो प्रत्यक्ष रूप से घटित हो, तो इस शास्त्र को विज्ञान कहने में किसी को कोई आपत्ति नहीं होनी चाहिए। फलादेश की प्रक्रिया: फलित ज्योतिष के विस्तार एवं विधाओं को देखने से ज्ञात होता है कि महर्षियों ने अपनी-अपनी सूझ-बूझ से अन्वेषण किया। परिणामतः उनके भेद-उपभेद होते चले गये। अतएव इसमें जातक, तांत्रिक, संहिता, केरल, समुद्रिक, अंक, मुहूर्त, रमल, शकुन, स्वर इत्यादि उपभेदों में भी अनेक सिद्धांतों का प्रचलन हुआ। मात्र जातक को ही लिया जाये, तो उसमें भी अनेक सिद्धांत प्रचलित हुए जिनमें केशव और पराशर को मूर्धन्य माना गया है। ग्रहों, राशियों, नक्षत्रों की मौलिक प्रकृति, गुणतत्व-दोष कारक तत्व इत्यादि में लगभग सभी का मतैक्य है, परंतु फलकथन की विधि, दृष्टि, योग और दशादि के विचार में सबमें मतांतर है। ज्योतिषशास्त्र में महर्षि पराशर ने ग्रहों के शुभा-शुभत्व के निर्णय का वैज्ञानिक दृष्टि से फलादेश करने की विधियों, राजयोग, सुदर्शन पद्धति, दृष्टि तथा विश्लेषण किया है, उतना ‘अन्यत्र’ नहीं है। उन्होंने ग्रहों के अधिकाधिक शुभाशुभत्व का अलग से निर्णय किया है। ‘राजयोग’ के बारे में भी उनका विचार स्वतंत्र तथा सुलझा हुआ है। यद्यपि वराहमिहिर आदि आचार्यों ने भी इस पर अपना प्रभाव कम नहीं डाला है, फिर भी पराशर के विचार की तुलना में इनका विचार गौण है। अतः समीक्षकों ने ‘फलौ पराशरी स्मृति’ तक कह दिया है। पराशर के अनुसार ग्रहों के फल दो प्रकार के होते हैं। 1. अदृढ़ कर्मज 2. दृढ़ कर्मज अदृढ कर्मज फल गोचर ग्रह कृति है, जो शांत्यादि अनुष्ठान से परिवर्तनशील होता है। परंतु दृढ़ कर्मज फल ग्रह की दशा, भाव आदि से उत्पन्न होता है, जो अमिट होता है। अतः आधुनिक ज्योतिषियों के द्वारा अभिव्यक्त गोचर फल स्थायित्व से रहित होता है। जब तक गोचर का ग्रह प्रबल योग कारक रहता है, तब तक शुभ फल की प्राप्ति होती है। जब प्रतिकूल हो जाता है, तब उस फल का भी विनाश हो जताा है। हां, यह कहना उचित प्रतीत नहीं होता कि नक्षत्र दशा का फल नहीं मिलता है। आचार्य वराहमिहिर ने लिखा है - स्व दशायु फलप्रदः सर्वे। अर्थात ग्रह अपने दशाकाल में अपना फल देते हैं। ग्रह भुक्ति के संबंध में पर्याप्त मतांतर है। सब के मतानुसार विभिन्न दशाएं हैं। किस दशा में ग्रह फल देते हैं, उसके संबंध में पराशर तीस से भी अधिक दशाओं में अपनी विशोंतरी दशा को प्रमुख बताया है। कुछ ज्योतिषियों का मत है कि दशादि के मध्यम से ग्रहकृत फलों का जो समय निर्धारित किया जाता है, सही नहीं होता है। इसके अनेक कारण हैं। समय का निर्धारण पंचांग के गणित के आधार पर किया जाता है, जो अधिकतर स्थूल होते हैं। अतः उनके द्वारा है अथवा नहीं। दशा अनुकूल हो, गोचर प्रतिकूल हो, तो अतिशुभ गोचर मिलान कर ही फलादेश किया जाये। अंत में समस्त ज्योतिष फलादेश विधि देखने से स्पष्ट होता है कि ज्योतिषियों के समक्ष सबसे बड़ा प्रश्न ग्रह जनित शुभाऽशुभ फल का समय निर्धारण करना है। यद्यपि ज्योर्तिविदों के इस संबंध में अनेक निर्णय हैं, फिर भी इस संबंध में और अधिक ठोस निर्णय लेने की आवश्यकता है।

शनि का गोचरीय प्रभाव

ग्रह सबसे बड़े व धीमी गति के होने के कारण धरती पर अपना सबसे ज्यादा प्रभाव डालते हैं। गोचर में भ्रमण करते हुये ये एक साथ 6 राशियों पर अपना नियंत्रण रखते हैं जिस कारण इनका फलित ज्योतिष में अपना अलग ही महत्व रहता है। अनुभवों से ज्ञात होता है कि शनि, मंगल व राहु गोचर में अपना शुभ फल लग्न से 62 अंश के बिन्दु पर होने पर देते हैं जबकि अन्य अंशों के बिन्दु में होने पर ये सभी ग्रह अपना अशुभफल प्रदान करते हैं। गुरु ग्रह इसी अंश के बिन्दु पर अपना सर्वोत्तम शुभ फल प्रदान करते हैं जबकि अन्य अंशों के बिन्दुओं पर केवल शुभफल ही देते हैं तथा लग्न से 200 अंश के बिन्दु में गुरु अशुभ फल देते हैं। जन्म लग्न से शनि का गोचर जातक विशेष के मस्तिष्क को कुंद करता है। जातक की सेहत खराब होने लग जाती है तथा लंबा व बड़ा रोग होने की संभावना बढ़ जाती है (टीबी. जैसे रोग इस दौरान ज्यादा पाये जाते हैं), जातक को दुर्घटनाओं का भय होने लगता है। स्त्री जातकों में इस समय प्रेम संबंधांे में निराशा, तलाक,विधवापन जैसी परेशानियाँ देखी गयी हैं। ऐसा नहीं है कि ये गोचर सारे अशुभ प्रभाव ही देता है। अनुभव में देखा गया है कि जो जातक तुला, मकर या कुम्भ लग्न के थे उन्हें शनि के इस गोचर ने शुभ फल भी प्रदान किए। इसके अतिरिक्त जिनकी पत्रिका मे शनि शुभ अवस्था में थे उन्हें शनि के इस गोचर ने बीमारी से मुक्ति, स्त्री सुख व स्त्री मिलन जैसे सुख भी प्रदान किए (जिनकी पत्नी उनसे दूर रहती हो वह वापस आ जाती हैं )। इसी प्रकार के नतीजे मंगल,सूर्य राहु, केतु के लग्न से गोचर करने पर भी पाये गए । यदि गोचरीय शनि को मंगल प्रभाव दे रहा हो तो जातक को बुरे वक्त से गुजरना पड़ता है, उसे आलोचना का शिकार होना पड़ता है। यदि शनि पर शुभ ग्रह का प्रभाव हो तो जातक को उसकी ईमानदारी का शानदार इनाम मिलता है। यही वह समय होता है जब जातक समाज में अपना ऊंचा स्थान पा जाता है। जब शनि लग्न से 60 अंश पर से गुजरता है तब जातक को जमीन जायदाद एवं व्यापार संबंधी लाभ प्राप्त होते हैं। जमीन से किसी भी प्रकार जुड़े व्यक्तियों को बहुत लाभ मिलता है। घर से गए व्यक्ति,गायब हुये व्यक्ति वापस अपने घर आ जाते हैं। यदि यह शनि मंगल के प्रभाव मंे हो तो जातक के छोटे भाई-बहनों क स्वास्थ्य की हानि होती है। रिश्तेदारों व पड़ोसियों से तनाव पैदा करता है, यदि इस शनि को गुरु ग्रह देख रहा हो तो परिवार में सुखों की वृद्धि होती है, संतान का जन्म होता है। लेखकों के लिए यह समय अति शुभ होता है, राजनीति से जुड़े लोगों की समस्या का समाधान होता है। कला से जुड़े व्यक्तियों, कलाकारों का सम्मान होता है तथा धरती पर दुधारू पशुओं की वृद्धि होती है। जब शनि गोचर में लग्न से 90 अंशों से गुजरता है तो जातक विशेष को अचानक हानि का सामना करना पड़ता है, माता या मातृपक्ष के किसी परिजन की मृत्यु हो जाती है, कोर्ट कचहरी के चक्करोंके कारण अनावश्यक खर्च होता है, धन हानि के साथ-साथ स्थान परिवर्तन भी होता है। यदि यह शनि शुभ ग्रह के प्रभाव में हो तो इन सभी अशुभफलों में कमी होकर जातक को धनप्राप्ति व नई परिस्थितियों,उम्मीदों का सामना करना पड़ता है। लग्न से 120 अंशांे पर गोचर करने पर शनि संबंधांे को तोड़ने का कार्य करता है, संतान को कष्ट व स्वास्थ्य हानि होती है। कुछ अवस्थाओं में बड़े बच्चे अपने माता-पिता की अवहेलना भी करने लगते हैं। यदि इस शनि पर कोई शुभ ग्रह प्रभाव डाल रहा हो तो जातक तीर्थयात्रा व धार्मिक शिक्षा का अध्यापन करता है। यदि यह शनि स्वगृही हो या शुभ हो तो राजनीतिज्ञों को अपने शत्रुओं पर विजय दिलाता है और यदि इस शनि पर पाप प्रभाव हो तो बड़ों के द्वारा दंड,कानून द्वारा सजा, विस्थापन,मृत्यु तथा घर वालों को बीमारी जैसे फल प्राप्त होते हैं। इस गोचर से व्यापारियों व कारोबारियों को नुकसान होता है, स्त्री को विवाह में बाधाएं व पति सुख में कमी जैसे फलों का सामना करना पड़ता है। मजदूर वर्ग हड़ताल जैसी समस्याओं का सामना करता है, चोटिल होता है। शनि का लग्न के 180 अंशो पर गोचर जातक विशेष को पत्नी की स्वास्थ्य हानि, परीक्षा में असफलता, किसी इल्जाम में फंसना, से मतभेद तथा पालतू जानवरांे की हानि जैसे फल देता है। जब शनि का गोचर लग्न से 199 अंश पर होता है तब जातक विशेष को पत्नी की हानि, संपत्ति बंटवारा, स्वयं के अस्तित्व पर संदेह,नौकरी में अवनति जैसे फल प्राप्त होते हैं। अगर इस शनि के गोचर पर पाप प्रभाव हो तो जातक को अवसाद, असहयोग,नकारात्मक सोच के कारण आत्महत्या जैसे विचार आते हैं।

उच्चतम मुहूर्त से उच्च चरित्र का निर्माण कैसे?????

हमारे लिए यह बड़े दुर्भाग्य की बात है कि पश्चिमी सभ्यता के अंधानुकरण में हम अपनी मूल संस्कृति से इतने दूर जा रहे हैं कि हमारे समाज में पति-पत्नी जैसे पवित्र संबंधं का भी महत्व नहीं रह गया है। प्रिंट मीडिया के कई सर्वेक्षणों से यह बात उभरकर सामने आई है कि आज हमारे समाज में चाहे वह कोई स्त्री हो या पुरुष, शादी से पहले या शादी के बाद कई-कई संबंध बेहिचक बनाने लगे हुए हैं। बात सिर्फ गुप्त रूप से बने संबंधों की नहीं है बल्कि लोग तो आज आधुनिकता की दौड़ में खुलकर बहु विवाह भी कर रहें हैं। इसमें उन्हें कोई भी शर्म या हिचक महसूस नहीं होती है। इन बहु विवाहों और बहु संबंधों के बारे में ज्योतिषीगण किसी जातक या जातका की जन्म पत्रिका देखकर उसके इन संबंधों के बारे में सटीक भविष्यवाणी करके बता भी देते हैं। प्रश्न उठता है कि क्या एक सच्चे ज्योतिषी का कर्तव्य यहीं समाप्त हो जाता है? शायद नहीं, मुहूर्त की मदद से एक मां इस समस्या को शायद ज्योतिषीय विधि से कहीं न कहीं कम कर सकती है। जीवन का प्रारंभ मां से होता है और यदि मुहूर्त और मातृत्व में सामंजस्य बन जाए तो जातक चरित्रवान, भाग्यवान, स्वस्थ एवं दीर्घायु हो सकता है। मातृत्व एवं मुहूर्त के विषय में ज्योतिष के अनेक विद्वानों ने दिग्दर्शन कर यश कमाया है। इनमें ‘मुहत्तर्त-मार्तंड’ के रचयिता आचार्य नारायण प्रमुख हैं। जीवन के बहु आयामों के अनुरूप अनेकानेक मुहूर्त निर्धारित किए जाते हैं, किंतु सर्व प्रथम मुहूर्त कन्या के प्रथम रजो दर्शन से ही प्रारंभ होते हैं; किंतु भारतीय परिवेश में लज्जा, संकोच एवं मुहूर्त को अनुपयुक्त समझकर इस अति महत्वपूर्ण तथ्य को नगण्य कर दिया जाता है और जातक के जन्म के बाद माता-पिता जीवन भर एक से दूसरे ज्योतिषी एवं एक उपाय से दूसरे उपाय तक भटकता फिरते हैं। अस्तु, आवश्यक है कि एक श्रेष्ठतर राष्ट्र निर्माण हेतु श्रेष्ठ नागरिक तैयार किए जाएं। प्राचीन काल में मुहूर्त का उपयोग राजवंशों में ही प्रचलित था। परिणामतः राजाओं की संतति अधिक स्वस्थ होती थी एवं उनका भाग्य बलशाली होता था। किंतु आज बदले हुए परिवेश में सर्वसाधारण भी मुहूर्त का उपयोग करने लगे हैं, क्योंकि यह उनके लिए भी उतना ही जरूरी है। इस कार्य में माताओं को ही अग्रणी भूमिका अदा करनी होगी। तभी पुत्री के इस प्रथम मातृ सोपान पर शुभाशुभ निर्णयकर जीवन को सहज एवं सफल अस्तित्व प्रदान किया जा सकेगा। कन्या की 12 से 14 वर्षों की आयु के अंतराल में यदि रजोदर्शन शुभ मुहूर्त में हो, तो निश्ंिचत रहें अन्यथा यदि मुहूर्त अशुभ हो, तो कुछ उपाय, दान आदि से अशुभता का निवारण करें। प्रथम रज दर्शन के शुभ मुहूर्त मास: माघ, अगहन, वैशाख, आश्विन, फाल्गुन, ज्येष्ठ, श्रावण। पक्ष: उपर्युक्त महीनों के शुल्क पक्ष तिथि: 1,2,3,5,7,10,11,13 और पूर्णिमा। वार: सोवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार। नक्षत्र: श्रवण, धनिष्ठा,शतभिषा, मृगशिरा, अश्विनी, रेवती, चित्रा, अनुराधा, हस्त, तनों उत्तरा, रोहिणी, पुनर्वसु, मूल, पुष्य शुभ लग्न: वृष, मिथुन, कर्क, कन्या, तुला, धनु, मीन शुभवस्त्र: श्वेत प्रथम रज दर्शन के अशुभ काल एवं उपाय यदि रजोदर्शन में पूर्वोक्त शुभ समय नहीं रहा हो, तो अशुभता निवारण हेतु उपाय सहज एवं सुलभ है। निषिद्ध योग उपाय भद्रा-स्वस्ति-वाचन, गणेशपूजन निद्रा-शिव संकल्प सूक्त के 11 पाठ संक्राति अमावस्या-सूर्याघ्र्य एवं दान रिक्ता तिथि-अन्न से भरा कलश दान संध्या- बहते जल में दीप दान षष्ठी, द्वादशी, अष्टमी- गौरी पूजन वैधृति योग- शिव लिंग पर दुग्ध, दूर्बा एवं विल्वपत्र समर्पण रोगावस्था- पीली सरसों की अग्नि में आहुति चंद्र सूर्य ग्रहण-काले उड़द का दान पात योग-राहु-केतु का दान अशुभ नक्षत्र-पार्थिव पूजन अशुभ लग्न-नव ग्रह पूजन पूर्वोक्त उपाय, कन्या के शुद्ध होने पर कन्या द्वारा ही कराएं। इन उपायों द्वारा अमंगल निवारण हो जाता है और भावी जीवन कल्याणकारी होता है। उपाय की उपयुक्तता: अगर जीवन में कुछ छोटी-छोटी बातों जैसे छिपकली या गिरगिट का गिरना, बिल्ली का रास्ता काटना आदि को शुभाशुभ मान कर उपाय करते हैं तो इस शारीरिक परिवर्तनारंभ का भी ज्योतिषीय उपाय एवं विश्लेषण किया जाना चाहिए क्योंकि यह आवश्यक एवं तर्कसंगत है। आज के वैज्ञानिक युग में यौन-संबंध के बिना भी जीवन उत्पत्ति (परखनली शिशु) होती देखी जा रही है। वैज्ञानिक उस जैव उत्पत्ति स्थान-परिसर में वातानुकूलन को अनिवार्य मानते हैं। मातृत्व हेतु मुहूर्त भी ग्रह-नक्षत्रों के अनुकूलन की प्रक्रिया है। दूसरा मातृत्व सोपान गर्भाधान होता है। भारतीय विद्वानों ने अपनी अलौकिक ज्ञान साधना द्वारा इस विषय पर सर्व सम्मति से निर्णय दिया है। भद्रा पर्व के दिन षष्ठी, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या पूर्णिमा, संक्रांति, रिक्ता, संध्याकाल, मंगलवार, रविवार, शनिवार और रजोदर्शन से 4 रात्रि छोड़कर शेष समय में तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी, स्वाति, श्रवण, धनिष्ठा एवं शतभिषा नक्षत्र में गर्भाधान शुभ होता है। गर्भाधान के पश्चात गर्भस्थ शिशु की सुरक्षा भी उतनी ही आवश्यक होती है, जितनी अंकुरित होते हुए बीज एवं विकसित होते हुए पौधों की। इस संबंध में मुहूर्त चिंतामणिकार ने गर्भकालीन दस मास तक के स्वामी ग्रहों की स्थिति का निर्धारण किया है। इन ग्रहों के दान-पूजन से उत्पन्न होने वाले जातक का जीवन एवं भाग्य सुदृढ़ होते है। मास ग्रह पूजन एवं उपाय प्रथम शुक्रगणेश स्मरण, मिष्टान्न एवं सुगंधि दान। द्वितीय मंगल गाय को मसूर की दाल खिलाएं। तृतीय गुरु परिवार के श्रेष्ठों को हल्दी का तिलक लगाकर आशीर्वाद लें। चतुर्थ सूर्य सूर्याघ्र्य दान पंचम चंद्रचंद्राघ्र्य दान षष्ठ शनि सायंकाल शनिवार को दीपदान सप्तम बुध हरी सब्जियों का उपयोग एवं दान अष्टम लग्नेश विष्णु पूजन करें, तुलसी को जल दें। नवम चंद्र चंद्राघ्र्य दान दशम सूर्य सूर्य को प्रणाम करें, गणेश का स्मरण करें। ज्योतिष मुहूर्त की अंक प्रक्रिया इसे पूर्ण वैज्ञानिक बनाती है।

आयुर्वेदिक विज्ञान का ज्योतिष्य महत्व

आयुर्वेद को जीवन का विज्ञान कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि यह विज्ञान मात्र शारीरिक संरचना, स्वास्थ्य संवर्धन का ही विवेचन नहीं करता, अपितु मनुष्य के आर्थिक, सामाजिक, मानसिक एवं बौद्धिक स्वास्थ्य की विवेचना भी इसका उद्देश्य है। कहा है: ”शरीरेन्द्रिय सत्वात्म संयोगो आयुः“ शरीर के साथ सत्वात्म की विवेचना ही व्यक्तित्व विवेचना है। सत्वात्म का विभिन्न परिमाणों में सम्मिश्रण ही व्यक्तित्व के बहुविध स्वरूपों का प्रदर्शन है। इस व्यक्तित्व के विकास के लिए स्वतंत्र रूप से भूत विद्या नामक चिकित्साशास्त्र की अवधारणा संहिताकारों ने की जिसका मूल स्रोत अथर्ववेद की अथर्वण परंपरा से संभवतः गृहीत किया गया है। क्या है व्यक्तित्व: मानस के विभिन्न क्रिया व्यापार के परिणामस्वरूप व्यवहार के रूप में प्राप्त जो विचार है उसे व्यक्तित्व कहते हैं। कुछ विद्वान ”मनोविचय“ को व्यक्तित्व के रूप में स्वीकार किया है। जिस प्रकार शारीरिक क्रियाओं को समझाने के लिए शरीरविचय की आवश्यकता होती है वैसे ही मानस व्यापार के माध्यम से मनोविचय का परिज्ञान होता है। व्यक्तित्व का आभास मनोविचय के माध्यम से भी होता है। मनस स्वयं अतींद्रिय है इसलिए उसके व्यापार दृष्ट एवं अदृष्ट दोनों प्रकार के होते हैं। इस सूक्ष्म एवं अतींद्रिय मनस के व्यापारों को समझने के लिए चित्त, बुद्धि, अहंकार के विषय का ज्ञान कर व्यक्तित्व ज्ञान किया जाता है। कहा भी है: ”शरीर विचयः शरीरोपकारार्थमिष्यते। ज्ञात्वा हि शरीरतत्वं शरीरोपकारकेषुभावेषु ज्ञानमुत्पद्यते। तस्मात् शरीरविचयं प्रशंसन्ति कुशलाः। चरकसंहिता शारीर 6/3 सभी दर्शन के आचार्य मनस का अस्तित्व स्वीकार करते हैं लेकिन मन के निष्क्रियत्व, क्रियत्व, विभुत्व, अविभुत्व निर्विकार और चिदंश स्वरूप को मानने में एकमत नहीं हैं। मानस के संगठन में संस्कार या संस्कार पुंज का विशेष स्थान है। संस्कार प्रत्येक जीवन के अनुभवों के आधार पर सत्व, रज और तम गुणों से संपृक्त होते हैं। मानस की रचना एवं क्रिया में संस्कार कोषों की महत्वपूर्ण भूमिका है। इसे हम मानस व्यापार के द्वारा समझ सकते हैं। आचार्य चरक का मत है कि मन अचेतन होने पर भी क्रियाशील है और उसको चैतन्यांश आत्मा से प्राप्त होता है। कहा भी है: अचेतनं क्रियावच्चमश्चेतयिता परः, युक्तस्य मनसा तस्य निर्दिश्यन्ते विभोः क्रियाः। चेतनावान् यतश्चात्मा ततः कत्र्तानिगद्यते, अचेतनत्वाच्च मनः क्रियावदपिनोच्यते। जिस प्रकार देह या शरीर के निर्माण में त्रिदोषों का महत्व है उसी प्रकार महागुणों का महत्व ‘मानस प्रकृति’ या ‘व्यक्तित्व’ निर्माण में स्वीकार किया गया है। महागुण या सत्व, रजस् या तमस गुणों का प्राधान्य ही व्यक्तित्व या मानस प्रकृति का परिचायक है। यह प्रकृति या व्यक्तित्व आचार्य वाग्भट्ट के अनुसार शुक्र आत्र्तव के माध्यम से प्राप्त होता है। यथाः शुक्रात्र्तवस्थैर्जन्मादौविषेणैव विषीक्रिमे, तैश्च तिस्र प्रकृतियोः हीन मध्योत्तमापृथक्। मातरं पितरं चैके मन्यन्ते जन्मकारणम् स्वभावं परनिर्माणं यदृच्छाचापरे जनाः। आचार्य सुश्रुत ने प्रकृति की परिभाषा करते हुए बतलाया है कि शुक्र शोषित संयोग में जो दोष प्रबल होता है उसी से प्रकृति उत्पन्न होती है। कहा भी है ”प्रकृतिर्नाम जन्ममरणान्तराल भाविनी गर्भावक्रान्ति समये स्वकारणोद्रेक जनिता निर्विकारिणी दोषस्थितिः।“ व्यक्तित्व या प्रकृति प्रकार एवं विनियोग: आयुर्वेद का मुख्य प्रयोजन धातु साम्य है, अतः प्रकृति का अर्थ धातु साम्य के साथ ही सन्निहित है। जब प्रकृति का अर्थ स्वभाव किया जाता है तब इससे शरीर और मानस व्यक्तित्व का ग्रहण किया जाता है। स्वभावदृष्टया शरीर मानस प्रकृति और देह प्रकृति का परिचायक है। आयुर्वेद चिकित्सा विज्ञान के अनुसार इन दोनों प्रकार की प्रकृतियों का निर्माण गर्भावस्था में ही होता है। यह पोषण पंचमहाभूतात्म, षडरसात्मक आहार जो माता ग्रहण करती है उसी के अंश से गर्भ को प्राप्त होता है। आचार्य चरक ने चरक संहिता सूत्रस्थान 1/5 में कहा है कि शरीर में ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जिसकी त्रिदोषों या पंच महाभूतों से उत्पत्ति न हुई हो। आचार्य सुश्रुत ने भी पंचमहाभूतों/त्रिदोषों को शरीर की प्राथमिक इकाई के रूप में स्वीकार किया है और ये ही शरीर के सामान्य क्रिया व्यापार को नियमित करते हैं। व्यक्तित्व या मानस प्रकृति के प्रतिनिधित्व के रूप में सत्व, रजस और तमस को भी आधार रूप में मानते हैं। अतः यहां पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सत्व, रज एवं तम पंचमहाभूतों या त्रिदोषों से अलग नहीं हैं। डाॅ. ए. लक्ष्मीपति का मत है कि त्रिदोष या पंचमहाभूत अथवा महागुण (सत्व, रज, तम) शरीर कोशिकाओं के चारों ओर स्थित होते और उन्हें ठोस, गैस और द्रव रूपात्मक द्रव्यसत्ता से पोषण प्रदान करते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैज्ञानिक क्रिया का सुव्यवस्थित, एवं पारदर्शी स्वरूप मिलने के कारण और प्रत्यक्ष प्रमाण से अधिकाधिक ज्ञापित होने के कारण इसे ‘न्यूरोह्यूमर्स’ के रूप में प्रतिपादित करते हैं। आयुर्वेदीय संहिताओं में इस तरह के भी संदर्भ हैं कि गर्भधारण से पूर्व एवं धारण के पश्चात जिस प्रकार के आचार-विचार, व्यवहार, खान-पान का प्रयोग मां करती है उसका भी प्रभाव गर्भ पर पड़ता है। आधुनिक विज्ञानवेत्ता भी इससे सहमत हैं। व्यक्तित्व एवं ज्योतिष विज्ञान: आयुर्वेद की प्रमुख संहिताओं चरक सुश्रुत एवं अष्टांग संग्रह और अष्टांग हृदय सहित संहितेतर ग्रंथों में शरीरशास्त्र औषधि ग्रहण एवं प्रयोग विधि, निर्माण विधि के संदर्भ में ज्योतिषीय आधारों को ग्रहण करने का निर्देश दिया गया है। ज्योतिषशास्त्र का आधार मुख्य रूप से ग्रहों, नक्षत्रों को माना गया है और इनका ही ‘जातक’ के जन्मकाल, स्थान विशेषादि से गणितीय गणना के आधार पर आकलन कर सुखासुख विवेक निर्धारित किया जाता है। सूर्य, चंद्र, बुध, गुरु, मंगल, शुक्र, राहु, शनि आदि कुंडली के अनुसार सुखासुख विवेक को प्रदर्शित करते हैं। प्रत्येक ग्रह का अपना नैसर्गिक फल होता है। भावाधीश फल का लग्नेश के अनुसार फल बदल जाता है। इसी को आधार मानकर आयुर्वेद के आचार्य साध्यासाध्य व्याधि का विचार कर सकते हैं। अनेक असाध्य व्याधियों का उल्लेख भी है जिनकी साध्यासाध्यता औषधि प्रयोग और ज्योतिषीय फलादेश के आधार पर निश्चित की जा सकती है। यह बात महत्वपूर्ण है कि जहां आयुर्वेद विज्ञान कार्य कारण सिद्धांत के अनुसार शरीराभिनिवृत्ति, द्रव्यमनि निवृत्ति, रोगारोग्य कारणों सहित व्यक्तित्व का प्रतिवादन करता है वहीं ज्योतिष विज्ञान संभावनाओं के आधार पर जातक के गुणावगुणों और दुःख-सुखादि भावों को बताने में समर्थ है। अतः दोनों विज्ञानों का समन्वय कर चिकित्सा जगत की समस्याओं का निवारण किया जा सकता है।

ग्रहों का बलवान एवं अच्छी स्थिति में होना सफलता की कुंजी क्यों है?

अगर लग्न एवं लग्नेश बलवान है तो वह व्यक्ति स्वयं ऊर्जावान एवं क्षमतावान होगा और उसकी प्रतिकूल परिस्थितियों एवं बाधाओं से निपटने की क्षमता तथा प्रतिरोधात्मक शक्ति भी दुगनी होगी जिससे वह अपना बचाव करते हुए आगे बढ़ने का रास्ता निकाल सकता है। लग्न एवं लग्नेश के निर्बल होने पर उनकी प्रतिरोधक क्षमता नगण्य हो जाती है और उसे थोड़ा भी प्रतिकूल प्रभाव अधिक महसूस होता है। फलस्वरूप उसकी प्रगति में गतिरोध उत्पन्न हो जाता है। इस बात को इस प्रकार समझा जा सकता है कि अगर किसी पहलवान को चोट लग जाए तो वह उससे जल्दी स्वस्थ हो जाएगा, जबकि एक निर्बल व्यक्ति के लिए वह जानलेवा भी हो सकती है। अस्तु बलशाली लग्न एवं लग्नेश वाले व्यक्ति को अरिष्ट योगों का अपेक्षाकृत कम बुरा परिणाम परिलक्षित होगा और व्यक्ति के ऊर्जावान होने से अच्छे योगों का वह और अधिक लाभ उठाएगा, जबकि निर्बल लग्न एवं लग्नेश वाले व्यक्ति के ऊर्जाहीन रहने से उसे अनिष्ट योगों का प्रभाव ज्यादा कष्टप्रद महसूस होगा और अच्छे योगों का फल भी उसे अपेक्षाकृत कम लाभ ही दे पायेगा। ऐसी स्थिति जन्म कुण्डली में स्थित ग्रहों के सम्बन्ध में दृष्टिगोचर होती है। अगर ग्रह बलवान है तो उसका प्रभाव अच्छा परिलक्षित होगा, जबकि निर्बल ग्रह का प्रभाव कम या नगण्य ही रहेगा। वैसे तो ग्रहों का बल कई प्रकार से आकलित किया जाता है किन्तु राशि अंशों के आधार पर 0 से 6 अंश तक ग्रह को बालक 6 से 12 अंश तक कुमार, 12 से 18 अंश तक युवा, 18 से 24 अंश तक प्रौढ़ तथा 24 से 30 अंश तक वृद्ध माना गया है। इस प्रकार किसी राशि में ग्रह 10 अंश से 24 अंश के बीच बलशाली रहेगा। ग्रह की नीच, अशुभ या शत्रुभाव में स्थिति, क्रूर, अशुभ, शत्रु ग्रहों की युति या दृष्टि ग्रहों की शुभता को कम कर उसकी अशुभता में वृद्धि करती है। उच्च, शुभ या मित्र भाव में ग्रह की स्थिति, शुभ एवं मित्र ग्रहों से युति या उसकी दृष्टि ग्रह की अशुभता को कम कर उसकी शुभता में वृद्धि करती है। चन्द्रमा की सबलता व्यक्ति की दृढ़ इच्छाशक्ति एवं मानसिकता का परिचायक है। कई बार देखने में आता है कि जन्मकुण्डली में प्रथम दृष्टया राजयोग एवं कई अच्छे योग होने के बावजूद व्यक्ति का जीवन साधारण स्तर का ही व्यतीत होता है, जबकि अशुभ एवं अनिष्टकारी योग होने के बावजूद कई व्यक्तियों का जीवन अस्त-व्यस्त नहीं होता और मामूली कुछ झटके सहकर वे संभल जाते हैं। यह परिणामों की विसंगति लग्न, लग्नेश, चन्द्र एवं योग निर्मित करने वाले ग्रहों के बल एवं उनकी स्थिति के कारण होती है। अगर योग निर्मित करने वाले ग्रह निर्बल हैं, अच्छी स्थिति में नहीं हैं, पीड़ित हैं तो वे अपना प्रभाव देने में असमर्थ रहेंगे। लग्न एवं लग्नेश की सबलता योग की शुभता में वृद्धि करेगी, जबकि निर्बलता अशुभता को बढ़ा देगी। यह एक सर्वमान्य सिद्धान्त है कि शक्ति के समक्ष सब नतमस्तक होते हैं।

बच्चों के जीवन और कैरिअर को सही दिशा

इसी महीने बच्चों की परीक्षा का समय आ गया है। हम अपनी जिंदगी में आजकल इतना व्यस्त हो चुके हैं कि हमें अपने भविष्य को बनाने के अलावा और किसी बात की चिंता ही नहीं होती, जिसके कारण पारिवारिक जीवन अंदर ही अंदर खराब होता रहता है। पति-पत्नी में भी आए-दिन क्लेश होते रहते हैं, कई बार तो बच्चों की पढ़ाई की वजह से घर में क्लेश बड़ा रूप ले लेता है जिसके कारण पति-पत्नी में भी तनाव बन जाता है।
बच्चों की पिटाई करना भी अच्छा नहीं लगता, क्योंकि जिसे इतना प्यार करते हैं, उसी औलाद पर कैसे हाथ उठा दें। समस्या का ये कोई हल भी नहीं है, ऐसा बिलकुल न करें। बच्चांे में बढ़ती उम्र के साथ जिद्दीपन, गुस्सा, छोटी-छोटी बातों को लेकर घर में तोड़ फोड़ करने की आदत न जाने कहां से आ जाती है, फिर यही सोचने पर मजबूर हो जाते हैं कि हम तो ऐसे नहीं थे फिर हमारे बच्चे ऐसे कैसे हो गए। आइये आज हम ऐसी ही बहुत सी परेशानियों के हल निकालें....
मन का न लगना या फिर याद करके भूल जाना
जो बच्चे पढ़ने लिखने में ध्यान नहीं देते हैं, उनको सबसे पहले तो गहरे नीले और काले रंग से परहेज करवाएं, उनके कमरे में भी इन रंगों को न करवाएं।
सूर्यास्त के बाद बच्चों को दूध न पिलाएं अगर पीना ही हो तो रंग बदलकर पीने दें।
बच्चों को हमेशा उत्तर दिशा की तरफ मुंह करके पढ़ने के लिए कहें, बच्चों की स्टडी टेबल पर सफेद या लाल रंग का प्रयोग करें।
घर से सभी तरह के नए-पुराने बिजली के खराब सामान, बंद घड़ियां, खोटे सिक्के, जंग लगा हुआ लोहा आदि बाहर निकालें, क्योंकि इनकी दुर्गंध सांस के द्वारा जब अंदर जाती है तो दिमाग में सहन शक्ति कम होने लगती है और याददाश्त कमजोर होती है साथ ही यही घर में बीमारी भी कभी खत्म नहीं होने देते।
चांदी के बर्तन में गंगाजल भरकर चांदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर बच्चों के पढ़ने वाले कमरे में रखें।
बच्चे के कमरे में बृहस्पति की पोटली कील पर लटका दें।
बच्चों के कमरे में मां सरस्वती जी की फोटो उत्तर दिशा की तरफ जरूर लगाएं।
परीक्षा के दौरान क्या करें और क्या नहीं करें
जब भी बच्चा परीक्षा देने जाये तो उससे पहले 6 दिन लगातार 600 ग्राम दूध मंदिर में रखें।
काले, नीले रंग के कवर वाले पेन न ले जाएं, और पेन का ढक्कन अगर सुनहरा हो तो बहुत ही अच्छा होगा।
बच्चों को 6 से 7 घंटे की नींद जरूर लेने दें, न ही इससे ज्यादा नींद लेने दें और ना ही इससे कम नींद लेने दें।
नीले, काले रंग के कपड़े पहनकर एक्जाम देने ना जाएं, अगर भूल जाने की आदत हो तो हरे रंग से परहेज रखें।
जो बच्चे अपनी पढ़ाई टिककर नहीं करते अर्थात धैर्य से नहीं पढ़ते उनको सवा 5 रत्ती लाल मूंगा (बंगाली मूंगा अति उत्तम होता है) चांदी में लगवाकर शुक्ल पक्ष में मंगलवार के दिन सीधे हाथ की अनामिका अंगुली में पहना दें। रत्न के लिए सही तरह से जन्मकुंडली का देखना जरूरी होगा।
बच्चे में बढ़ते गुस्से और जिद्दीपन
बच्चों में बढ़ते गुस्से और जिद्दीपन को रोकने के लिए हर मंगलवार 8 गुड़ की रोटियां तंदूर में लगवाकर 4 कुत्तों को डालें और 4 कौवों को डालें, रोटियों में लोहे की छड़ न लग पाये।
बच्चों को अच्छे और सहनशील दोस्तों का चयन करना सिखाएं।
बच्चों की पिटाई ना करें, इससे उनके अंदर का डर एक दिन खत्म हो जाएगा, बहुत ज्यादा होने पर ही ऐसा कदम सोच समझकर उठाएं।
घर की छत पर किसी भी प्रकार का कबाड़, लोहा, लकड़ी आदि न रखें।
उनके कमरे की और कपड़ों की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।
चांदी के बर्तन में गंगाजल भरकर चांदी का एक चैकोर टुकड़ा डालकर बच्चों के पढ़ने वाले कमरे में रखें।
बच्चे के कमरे में बृहस्पति की पोटली कील पर लटका दें।
खेलने का कम से कम एक से डेढ़ घंटे मौका अपने बच्चों को जरूर दें जिससे कि उन्हें पसीना जरूर आये और श्वांस प्रक्रिया के द्वारा दिमाग में, आॅक्सीजन पहुंच सके, मुंह से सांस न लेने की आदत डाले, इससे बच्चे की याददाश्त बढ़ेगी।
बच्चों को देर रात तक न जागने दें और सुबह देर तक ना सोने दें। सुबह जल्दी जगाकर उनके कमरे में अच्छी हल्की खूशबू की अगरबत्ती या परफ्यूम लगा दें जिससे कि जब वे जागें तो एक सकारात्मक सोच के साथ दिन की शुरूआत हो।

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Thursday, 3 March 2016

चरावेती-चरावेती प्रचलाम्ह निरंतरम् - केतु के अधीन पौरूष्र्य -

निरंतर चलायमान रहने अर्थात् किसी जातक को अपने जीवन में निरंतर उन्नति करने हेतु प्रेरित करने तथा बदलाव हेतु तैयार तथा प्रयासरत रहने हेतु जो ग्रह सबसे ज्यादा प्रभाव डालता है, उसमें एक महत्वपूर्ण ग्रह है केतु। ज्योतिष शास्त्र में राहु की ही भांति केतु भी एक छायाग्रह है तथा यह अग्नितत्व का प्रतिनिधित्व करता है। इसका स्वभाग मंगल ग्रह की तरह प्रबल और क्रूर माना जाता है। केतु ग्रह विषेषकर आध्यात्म, पराषक्ति, अनुसंधान, मानवीय इतिहास तथा इससे जुड़े सामाजिक संस्थाएॅ, अनाथाश्रम, धार्मिक शास्त्र आदि से संबंधित क्षेत्र का प्रतिनिधित्व करता है। केतु ग्रह की उत्तम स्थिति या ग्रह दषाएॅ या अंतरदषाओं में जातक को उन्नति या बदलाव हेतु प्रेरित करता है। केतु की दषा में परिवर्तन हेतु प्रयास होता है। पराक्रम तथा साहस दिखाई देता है। राहु जहाॅ आलस्य तथा कल्पनाओं का संसार बनाता है वहीं पर केतु के प्रभाव से लगातार प्रयास तथा साहस से परिवर्तन या बेहतर स्थिति का प्रयास करने की मन-स्थिति बनती है। केतु की अनुकूल स्थिति जहाॅ जातक के जीवन में उन्नति तथा साकारात्मक प्रयास हेतु प्रेरित करता है वहीं पर यदि केतु प्रतिकूल स्थिति या नीच अथवा विपरीत प्रभाव में हो तो जातक के जीवन में गंभीर रोग, दुर्घटना के कारण हानि,सर्जरी, आक्रमण से नुकसान, मानसिक रोग, आध्यात्मिक हानि का कारण बनता है। केतु के शुभ प्रभाव में वृद्धि तथा अषुभ प्रभाव को कम करने हेतु केतु की शांति करानी चाहिए जिसमें विषेषकर गणपति भगवान की उपासना, पूजा, केतु के मंत्रों का जाप, दान तथा बटुक भैरव मंत्रों का जाप करना चाहिए जिससे केतु का शुभ प्रभाव दिखाई देगा तथा जीवन में निरंतर उन्नति बनेगी।

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Wednesday, 2 March 2016

बच्चे को सामथ्र्यवान बनाने हेतु बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें-

आज बच्चे का सर्वगुण संपन्न होना अनिवार्य आवश्यकता हो गई है। बच्चे को यदि एक क्षेत्र में महारत हासिल है तो उससे अपेक्षा की जाती है कि अन्य क्षेत्रों में भी वह दक्षता हासिल करे। संगीत, कला, साहित्य, खेल, रचनात्मक योग्यता, सामान्य ज्ञान ये सारी पाठ्येत्तर गतिविधियों में तो वह कुशाग्र हो साथ ही वह विनम्र और आज्ञाकारी भी बना रहे इसके साथ उसमें अनुशासन तो आवश्यक है ही। यदि आप भी अपने बच्चे में एक साथ ये सारी आदतें देखना चाहते हैं तो बचपन में ही कुंडली का विश्लेषण करायें और उसे सर्वगुण संपन्न बनाने हेतु उसकी कुंडली के अनुसार लग्न, तृतीय, पंचम, सप्तम, नवम, दसम एवं एकादश स्थान के कारक ग्रह एवं उन स्थानों पर स्थित ग्रह के अनुसार अपने बच्चे के अच्छे गुण को विकसित करने के साथ प्रतिकूल ग्रहों की शांति अथवा ज्योतिषीय उपाय लेते हुए सभी गुणों में दक्ष बनाने हेतु निरंतर अभ्यास करायें। इससे ना सिर्फ आपका बच्चा पढ़ाई में अथवा जीवन के सभी रंगों से सराबोर होगा।
Pt.P.S.Tripathi
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मोटापा बढ़ रहा हो तो दिखाए अपनी शुक्र की स्थिति -

किसी भी जातक के यदि शुक्र राहु के साथ लग्न में हों या इसी प्रकार के योग दूसरे, तीसरे अथवा एकादष स्थान में बन जाए साथ ही लग्नेष शुक्र छठवे, आठवे या बारहवें स्थान में आ जाए तो ऐसे लोग ओवरइटर के षिकार होते हैं अथवा राहु के कारण कम्प्यूटर, मोबाईल जैसे इलेक्टानिक गैजेट के शौकिन होते हैं, जिससे शारीरिक कार्य नहीं होती और कई बार डिप्रेषन के कारण लोगो से कम मिलना अथवा घर में रहकर खाते रहने के आदी हो जाते हैं जिससे मोटापा बढ़ सकता है इसके आलावा कई बार यह जैनिटिकल बीमारी भी होती है इसे भी कुंडली के अष्टम भाव या अष्टमेष के लग्न में होने अथवा राहु से पापक्रांत होने से देखा जा सकता है। मोटापे या स्थूलता से ग्रस्त होने पर पहली समस्या यह होती है कि वे आमतौर पर भावुक होते हैं या मनोवैज्ञानिक रूप से समस्याग्रस्त होते हैं। मोटापा खतरनाक विकार भी उत्पन्न कर सकता है जैसे मधुमेह, उच्च रक्तचाप, ह्रदय रोग, निद्रा रोग और अन्य समस्याएं। कुछ अन्य विकारों में यकृत रोग, यौवन का जल्दी आना, या लड़कियों में मासिक धर्म का जल्दी शुरू होना, आहार विकार, त्वचा में संक्रमण और अस्थमा और श्वसन से सम्बंधित अन्य समस्याएं शामिल हो सकती हैं। अधिक वजन से आत्मविश्वास में कमी आती है और वे अपने आत्मसम्मान को कम महसूस करते हैं और अवसाद से भी ग्रस्त हो सकते हैं। अगर आपके परिवार में किसी में ऐसी स्थिति दिखाई दे तो उसकी कुंडली का विष्लेषण कराया जाकर ग्रहों की स्थिति के अनुसार उचित ग्रहषांति, व्यवहार एवं खानपान, रहनसहन में परिवर्तन कर इस समस्या से बचा जा सकता है।
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Tuesday, 1 March 2016

ज्योतिष में राहुकाल क्यों ?????

ज्योतिष शास्त्र में हर दिन को एक अधिपति दिया गया है। जैसे- रविवार का सूर्य, सोमवार का चंद्र, मंगलवार का मंगल, बुधवार का बुध, बृहस्पतिवार का गुरु, शुक्रवार का शुक्र व शनिवार का शनि। इसी प्रकार दिन के खंडों को भी आठ भागों में विभाजित कर उनको अलग-अलग अधिष्ठाता दिये गये हैं। इन्हीं में से एक खंड का अधिष्ठाता राहु होता है। इसी खंड को राहुकाल की संज्ञा दी गई है। राहुकाल में किये गये काम या तो पूर्ण ही नहीं होते या निष्फल हो जाते हैं। इसीलिए राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। कुछ लोगों का मानना यह भी है कि इस समय में किये गये कार्यों में अनिष्ट होने की संभावना रहती है। लेकिन मुख्यतः ऐसा माना जाता है कि राहुकाल में कोई भी शुभ कार्य प्रारंभ नहीं करना चाहिए और यदि कार्य का प्रारंभ राहुकाल के शुरु होने से पहले ही हो चुका है तो इसे करते रहना चाहिए क्योंकि राहुकाल को केवल किसी भी शुभ कार्य का प्रारंभ करने के लिए अशुभ माना गया है ना कि कार्य को पूर्ण करने के लिए। राहुकाल में घर से बाहर निकलना भी अशुभ माना गया है लेकिन यदि आप किसी कार्य विशेष के लिए राहुकाल प्रारंभ होने से पूर्व ही निकल चुके हैं तो आपको राहुकाल के समय अपनी यात्रा स्थगित करने की आवश्यकता नहीं है। राहुकाल का विशेष प्रचलन दक्षिण-भारत में है और इसे वहां राहुकालम् के नाम से जाना जाता है। यह भारत में अब काफी प्रचलित होने लगा है एवं इसे मुहूर् के अंग के रूप में स्वीकार कर लिया गया है। राहु को नैसर्गिक अशुभ कारक ग्रह माना गया है, गोचर में राहु के प्रभाव में जो समय होता है उस समय राहु से संबंधित कार्य किये जायें तो उनमें सकारात्मक परिणाम प्राप्त होता है। इस समय राहु की शांति के लिए यज्ञ किये जा सकते हैं। इस अवधि में शुभ ग्रहों के लिए यज्ञ और उनसे संबंधित कार्य को करने में राहु बाधक होता है शुभ ग्रहों की पूजा व यज्ञ इस अवधि में करने पर परिणाम अपूर्ण प्राप्त होता है। अतः किसी कार्य को शुरु करने से पहले राहुकाल का विचार कर लिया जाए तो परिणाम में अनुकूलता की संभावना अधिक रहती है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस समय शुरु किया गया कोई भी शुभ कार्य या खरीदी-बिक्री को शुभ नहीं माना जाता। राहुकाल में शुरु किये गये किसी भी शुभ कार्य में हमेशा कोई न कोई विघ्न आता है, अगर इस समय में कोई भी व्यापार प्रारंभ किया गया हो तो वह घाटे में आकर बंद हो जाता है। इस काल में खरीदा गया कोई भी वाहन, मकान, जेवरात, अन्य कोई भी वस्तु शुभ फलकारी नहीं होती। सभी लोग, विशेष रूप से दक्षिण भारत के लोग राहुकाल को अत्यधिक महत्व देते हैं। राहुकाल में विवाह, सगाई, धार्मिक कार्य, गृह प्रवेश, शेयर, सोना, घर खरीदना अथवा किसी नये व्यवसाय का शुभारंभ करना, ये सभी शुभ कार्य राहुकाल में पूर्ण रूपेण वर्जित माने जाते हैं। राहुकाल का विचार किसी नये कार्य का सूत्रपात करने हेतु नहीं किया जाता है, परंतु जो कार्य पहले से प्रारंभ किये जा चुके हैं वे जारी रखे जा सकते हैं। राहुकाल गणना: राहुकाल गणना के लिए दिनमान को आठ बराबर भागों में बांट लिया जाता है। यदि सूर्योदय को सामान्यतः प्रातः 6 बजे मान लिया जाये और सूर्यास्त को 6 बजे सायं तो दिनमान 12 घंटों का होता है। इसे आठ से विभाजित करने पर एक खंड डेढ़ घंटे का होता है। प्रथम खंड में राहुकाल कभी भी नहीं होता। सोमवार का द्वितीय खंड राहुकाल होता है, इसी प्रकार शनिवार को तृतीय खंड, शुक्रवार को चतुर्थ, बुधवार को पंचम खंड, गुरुवार को छठा खंड मंगलवार को सप्तम खंड और रविवार को अष्टम खंड राहुकाल का होता है।

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Sunday, 28 February 2016

महाशिवरात्रि व्रत का विधि विधान

महाशिवरात्रि का व्रत फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी को होता है। कुछ लोग चतुर्दशी के दिन भी इस व्रत को करते हैं। तीनों भुवनों की अपार सुंदरी तथा शीलवती गौरा को अर्धांगिनी बनाने वाले शिव प्रेतों व पिशाचों से घिरे रहते हैं। उनका रूप बड़ा अजीब है। शरीर पर मसानों की भस्म, गले में सर्पों का हार, कंठ में विष, जटाओं में जगत तारिणी पावन गंगा तथा माथे पर प्रलयंकर ज्वाला है। बैल को वाहन के रूप में स्वीकार करने वाले शिव अमंगल रूप होने पर भी भक्तों का मंगल करते हैं, और श्री -संपत्ति प्रदान करते हैं। काल के काल और देवों के देव महादेव के इस व्रत का विशेष महत्व है। इस व्रत को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, नर-नारी, बालक-वृद्ध हर कोई कर सकता है। व्रत विधि : इस दिन प्रातः काल स्नान ध्यान से निवृत्त होकर अनशन व्रत रखना चाहिये। पत्र-पुष्प तथा सुंदर वस्त्रों से मंडप तैयार करके सर्वतोभद्र की वेदी पर कलश की स्थापना के साथ-साथ गौरी शंकर की स्वर्ण मूर्ति और नंदी की चांदी की मूर्ति रखनी चाहिये। यदि इस मूर्ति का नियोजन न हो सके तो शुद्ध मिट्टी से शिवलिंग बना लेना चाहिये। दूध, दही, घी, शहद, कमलगट्टा, धतूरा, बेलपत्र आदि का प्रसाद शिव जी को अर्पित करके पूजा करनी चाहिए। रात को जागरण करके ब्राह्मणों से शिव स्तुति का पाठ कराना चाहिये। इस जागरण में शिवजी की चार आरती का विधान जरूरी है। इस अवसर पर शिव पुराण का पाठ मंगलकारी है। दूसरे दिन प्रातः, जौ, तिल-खीर तथा बेलपत्रों का हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराकर व्रत का पारण करना चाहिये। इस विधि-विधान तथा स्वच्छ भाव से जो भी यह व्रत रखता है, भगवान शिव प्रसन्न होकर उसे अपार सुख संपदा प्रदान करते हैं। भगवान शंकर पर चढ़ाया गया नैवेद्य खाना निषिद्ध है। ऐसी मान्यता है कि जो इस नैवेद्य को खा लेता है, वह नरक के दुखों का भोग करता है। इस कष्ट के निवारण के लिये शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम की मूर्ति का रहना अनिवार्य है। यदि शिव की मूर्ति के पास शालिग्राम हो तो नैवेद्य रखने का कोई दोष नहीं होता। माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में इसी दिन मध्य रात्रि में भगवान शंकर का ब्रह्म से रुद्र के रूप में अवतरण हुआ था। प्रलय की बेला में भी इसी दिन प्रदोष के समय भगवान शिव तांडव करते हुए ब्रह्मांड को तीसरे नेत्र की ज्वाला से समाप्त कर देते हैं। इसलिये इसे महाशिवरात्रि अथवा कालरात्रि कहा गया है। रखने का कोई दोष नहीं होता। व्रत कथा : किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। ब्राह्मण का लड़का चंद्रसेन दुष्ट प्रवृत्ति का था। बड़े होने पर भी उसकी इस नीच प्रवृत्ति में कोई अंतर नहीं आया बल्कि उसमें दिनो-दिन बढ़ोत्तरी होती गई। यह बुरी संगत में पड़कर चोरी-चकारी तथा जुए इत्यादि में उलझ गया। चंद्रसेन की मां बेटे की हरकतों से परिचित होते हुए भी अपने पति को कुछ नहीं बताती थी। वह उसके हर दोष को छिपा लिया करती थी। इसका प्रभाव यह पड़ा कि चंद्रसेन कुसंगति के गर्त में डूबता चला गया। एक दिन ब्राह्मण अपने यजमान के यहां पूजा कराके लौट रहा था तो उसने मार्ग में दो लड़कों को सोने की अंगूठी के लिये लड़ते देखा। एक कह रहा था कि यह अंगूठी चंद्र सेन से मैंने जीती है। दूसरे का तर्क था कि अंगूठी मैंने जीती है। यह सब देख-सुनकर ब्राह्मण बहुत दुखी हुआ। उसने दोनों लड़कों को समझा-बुझाकर अंगूठी ले ली। घर आकर ब्राह्मण ने पत्नी से चंद्रसेन के बारे में पूछा। उत्तर में उसने कहा - ''यहीं तो खेल रहा था अभी? ''जबकि हकीकत यह थी कि चंद्रसेन पिछले पांच दिनों से घर नहीं आया था। ब्राह्मण ऐसे घर में क्षणभर भी नहीं रहना चाहता था, जहां जुआरी चोर बेटा रह रहा हो तथा उसकी मां उसके अवगुणों पर हमेशा पर्दा डालती रही हो। अपने घर से कुछ चुराने के लिये चंद्रसेन जा ही रहा था कि दोस्तों ने उसके पिता की नाराजगी उस पर जाहिर कर दी। वह उल्टे पांव भाग निकला। रास्तें में एक मंदिर के पास कीर्तन हो रहा था। भूखा चंद्रसेन कीर्तन मंडली में बैठ गया। उस दिन शिवरात्रि थी। भक्तों ने शंकर पर तरह-तरह का भोग चढ़ा रखा था। चंद्रसेन इसी भोग सामग्री को उड़ाने की ताक में लग गया। कीर्तन करते-करते भक्तगण धीरे-धीरे सो गये। तब चंद्रसेन ने मौके का लाभ उठाकर भोग की चोरी की और भाग निकला। मंदिर से बाहर निकलते ही किसी भक्त की आंख खुल गई। उसने चंद्रसेन को भागते देख चोर-चोर कहकर शोर मचा दिया। लोगों ने उसका पीछा किया। भूखा चंद्रसेन भाग न सका और डंडे के प्रहार से चोट खाकर गिरते ही उसकी मृत्यु हो गई। अब मृतक चंद्रसेन को लेने शंकर जी के गण तथा यमदूत एक साथ वहां आ पहुंचे। यमदूतों के अनुसार चंद्रसेन नरक का अधिकारी था क्योंकि उसने पाप ही पाप किये थे, लेकिन शिव के गणों के अनुसार चंद्र सेन स्वर्ग का अधिकारी था क्योंकि वह शिवभक्त था। चंद्रसेन ने पिछले पांच दिनों से भूखे रहकर व्रत तथा शिवरात्रि का जागरण किया था। चंद्रसेन ने शिव पर चढ़ा हुआ नैवेद्य नहीं खाया था। वह तो नैवेद्य खाने से पूर्व ही प्राण त्याग चुका था इसलिये भी शिव के गणों के अनुसार वह स्वर्ग का अधिकारी था। ऐसा भगवान शंकर के अनुग्रह से ही हुआ था। अतः यमदूतों को खाली हाथ लौटना पड़ा। इस प्रकार चंद्रसेन को भगवान शिव के सत्संग मात्र से ही मोक्ष मिल गया।

भगवान विष्णु का मास: वैशाख मास

वैशाख मास परम पावन मास है। यह भगवान विष्णु का प्रिय मास है, इसलिए इस मास स्नान, तर्पण, मार्जन, पूजन आदि का विशेष महत्व है। वैशाख मास में जब सूर्य मेष राशि का होता है, तब किसी बड़ी नदी, तालाब, तीर्थ, सरोवर, झरने, कुएं या बावड़ी पर निम्नोक्त श्लोक का पाठ कर श्रद्धापूर्वक भगवान विष्णु का ध्यान करते हुए स्नान करना चाहिए। श्लोक ‘‘यथाते माधवो मासोवल्लभो मधुसूदन। प्रातः स्नानेन मे तस्मिन फलदः पापहा भव।। स्नान करने की विधि प्रातः काल उठकर सर्वप्रथम किसी नदी, तालाब, तीर्थ स्थान, कुएं या बावड़ी पर जाकर हाथ में कुश लेकर विधिपूर्वक आचमन करें, हाथ पांव धोकर भगवान नारायण का स्मरण करते हुए सविधि स्नान करें और ¬ नमो नारायणाय मंत्र का जप करें। फिर संकल्प करें तथा मन को एकाग्र कर शुद्ध चित्त से संवत, तिथि, मास, पक्ष, नक्षत्र, चंद्र, स्थान, तीर्थ, प्रांत, शहर, गांव, नाम, गोत्र, ऋतु, अयन, सूर्य तथा गुरु के नाम का उच्चारण करके संकल्प को छोड़ कर फिर स्नान करें और गंगा से प्राथना करें कि आप श्री भगवान विष्णु के चरणों से प्रकट हुई हैं, विष्णु ही आपके देवता हंै। इसलिए आपको वैष्णवी कहते हैं। हे देवि! आप सभी पापों से मेरी रक्षा करें। स्वर्ग, पृथ्वी और अंतरिक्ष में कुल साढ़े तीन करोड़ तीर्थ हैं और वे सभी आपके अंदर विद्यमान हैं। इसीलिए हे माता जाह्नवी! देव लोक में आपका नाम नन्दिनी और नलिनी है। इनके अलावा अन्य नामों से भी आपको जाना जाता है, जैसे दक्षा, पृथ्वी विपद्रंगा, विश्वकाया, शिवा, अमृता, विद्याधरी, महादेवी, लोक प्रसादिनी, क्षेमकरी, जाह्नवी, शांति प्रदायिनी आदि। स्नान करते समय इन पवित्र नामों का स्मरण व ध्यान करना चाहिए। ऐसा करने से त्रिपथ गामिनी भगवती गंगा प्रकट हो जाती हैं। दोनों हाथों में जल लेकर चार, छह और सात बार नामों का जप कर शरीर पर डालें, फिर स्नान करें। फिर आचमन कर शुद्ध वस्त्र पहनकर सबसे पहले सृष्टिकत्र्ता ब्रह्मा का, फिर श्री विष्णु, रुद्र और प्रजापति का और तब देवता, यक्ष, नाग, गंधर्व, अप्सरा, असुरगण, क्रूर सर्प, गरुड़, वृक्ष, जीव-जंतु, पक्षी आदि को जलांजलि दें। देवताओं का तर्पण करते समय यज्ञोपवीत को बायें कंधे पर रखें और ऋषि का तर्पण करते समय माला की तरह धारण करें। फिर पितृ तर्पण करें। सनक, सनन्दन सनातन और सनत्कुमार दिव्य मनुष्य हैं। कपिल, आसुरि, बोढु तथा पंचशिख प्रधान ऋषि पुत्र हंै। मरिचि, अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, प्रचेता, वशिष्ठ, नारद तथा अन्यान्य देवर्षियों, ब्रह्मर्षियों आदि का अक्षत और जल से तर्पण करें और कहें कि मेरे द्वारा दिए गए जल से तृप्त हों और उसे स्वीकार कर आशीर्वाद दें। पितृ तर्पण में दक्षिणमुख होकर अपसव्य जनेऊ दाएं कंधे पर रखें। फिर बाएं घुटने को पृथ्वी पर टेककर बैठें और उनका तिल तथा जल से तर्पण करें। फिर पूर्वाभिमुख और सव्य होकर जनेऊ सीधी करके आचमन कर सूर्य देव को अघ्र्य दें और निम्नोक्त श्लोक का पाठ कर परिक्रमा करें तथा जल, अक्षत पुष्प, चंदन आदि अर्पित करते हुए प्रार्थना करें। श्लोक नमस्ते विश्वरूपाय नमस्ते ब्रह्मरूपिणे। सहस्र रश्मये नित्यं नमस्ते सवतेजसे । नमस्ते रुद्र वपुषे नमस्ते भक्त वत्सल।। पद्मनाभ नमस्तेस्तु कुण्डलांगदभूषित। नमस्ते सर्वलोकानां सुप्तानामुपबोधन।। सुकृतं दुष्कृतं चैव सर्व पश्यसि सर्वदा।। सत्यदेव नमस्तेऽस्तु प्रसीदमम् भास्कर।। दिवाकर नमस्तेऽस्तु प्रभाकर नमोऽस्तुते।। भगवान की पूजा विधि भगवान केशव की कृपा के लिए उनकी पूजा विधिपूर्वक करनी चाहिए। पूजा तीन प्रकार की होती है - वैदिक, तांत्रिक और मिश्र। भगवान श्री हरि की पूजा तीनों ही विधियों से करनी चाहिए। शूद्र वर्ण के लिए पूजन की केवल तांत्रिक विधि विहित है। साधक को एकाग्रचित्त होकर निष्ठापूर्वक शास्त्रसम्मत विधि से भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। भगवान के विग्रह की चल और अचल दोनों रूपों से प्रतिष्ठा का विधान है। साधक सुविधानुसार किसी भी रूप से प्रतिष्ठा कर सकता है। पूजन में स्नान और अलंकरण आवश्यक है। प्रतिमा को शुद्ध जल, गंगाजल तथा पंचामृत से स्नान कराने के पश्चात वस्त्र धारण और अलंकरण कराकर सिंहासन पर स्थापित करें और फिर षोडशोपचार पूजन करें। फिर भोग लगाकर आरती करें। तत्पश्चात प्रार्थना, स्तुति व परिक्रमा कर दंडवत प्रणाम करें और अंत में उनकी झांकी स्वरूप का ध्यान करें। इस प्रकार पूजा करने के बाद सुख-शांति की प्राप्ति तथा धन-धान्य की वृद्धि के लिए हवन भी करें। भगवद्विग्रह की स्थापना करने से सार्वभौम पद की, मंदिर बनवाने से तीनों लोकों की और अनुष्ठान करने से भगवत्सायुज्य की प्राप्ति होती है। इस प्रकार वैशाख मास में शास्त्रानुसार सविधि स्नान कर तर्पण व पूजा करने से सभी मनोकामनाओं की पूर्ति होती है। इस मास धार्मिक अनुष्ठान, व्रत जप, पूजा-पाठ आदि का भी अपना विशेष महत्व है और साधक को इनका अनंत गुणा फल प्राप्त होता है।

महाशिवरात्रि में कालसर्प दोष की शांति

महाशिवरात्रि के दिन अथवा नागपंचमी के दिन किसी सिद्ध शिव स्थल पर कालसर्प योग की शांति करा लेने का अति विशिष्ट महत्व माना जाता है। निरंतर महामृत्युंजय मंत्र के जप से, शिवोपासना से, हनुमान जी की आराधना से एवं भैरवोपासना से यह योग शिथिल पड़ जाता है। श्रावण मास में सोमवार का व्रत करते हुये भगवान शिव से कालसर्प योग के दुष्प्रभावों से बचाने के लिये प्रार्थना करने पर बहुत शांति मिलती है। महा शिवरात्रि की शुभ वेला में संपूर्ण कालसर्प दोष निवारण यंत्र की स्थापना कर, महामृत्युंजय मंत्र का विधि-विधान से पंडित के द्वारा जाप करवाना, हवन शांति कराना, स्वयं सर्पसूक्त का पाठ करना, नवनाग नाम स्तोत्र का रूद्राक्ष माला से जप करना, चांदी के बने नाग-नागिन के जोड़े को शिवजी को अर्पित करना कालसर्प दोष निवारण के सरल एवं अचूक उपाय हैं। इसी दिन किसी शिवालय में जाकर शिव चालीसा अथवा शिव सहस्रनाम स्तोत्र की पोथियां वितरित करनी चाहिए। 1- कालसर्प दोष निवारण के विभिन्न उपाय विद्वानों द्वारा परामर्शित हैं। इस दोष की शांति विधानानुसार किसी योग्य अनुभवी, निर्लोभी, विद्वान ब्राह्मण, कुलगुरु या पुरोहित से करवा लेने से दोष शांत हो जाता है। 2- भगवान गणेश केतु की पीड़ा शांत करते हैं एवं सरस्वती देवी उनका पूजन-अर्चन करने वालों की राहु के अनिष्ट से रक्षा करती हैं। 3- भैरवाष्टक का नित्य पाठ करने वाले लोगों को इस दोष से शांति मिलती है। उनके दुर्दिन समाप्त होने के लक्षण दिखलाई देने लगते हैं। 4- नित्य ऊन के आसन पर बैठकर रुद्राक्ष की माला से नाग मंत्र गायत्री का जप करने से इस दोष के कष्टों से छुटकारा मिल सकता है बशर्ते सतत् 108 दिन जप करने का संकल्प लेकर प्रयास करें। जप के समय भोले नाथ के समक्ष शुद्ध घी का दीपक जलते रहना चाहिए। 5- इसी तरह से सतत् 108 दिनों तक संकल्प लेकर प्रतिदिन सर्पसूक्त का नित्य एक पाठ करने से दोष निवारण में सफलता मिलने लगती है। बिगड़े कार्य बनने लगते हैं और उन्नति के सुअवसर प्राप्त होने लगते हैं। अपने घर की पूजा स्थली में शिवजी के समीप ही सर्प पकड़े हुए गरुड़ासीन, श्री हरि विष्णु अथवा शेषशायी विष्णु की तस्वीर रखकर उनके दर्शन करते हुये लगातार 108 दिनों तक नवनाग नाम स्तोत्र के नित्य नौ बार पाठ करने से कालसर्प दोष निवारण में बहुत शांति मिलती है। उपरोक्त 108 दिनों के जप/पाठ का प्रारंभ महाशिवरात्रि के पावन पर्व के दिन से कर सकते हैं। ‘‘नमः शिवाय’’ मंत्र पंचाक्षर, जपत मिटत सब क्लेश भयंकर। नाग मंत्र ऊँ नवकुलाय विद्महे विषदन्ताय धीमहि। तन्नः सर्पः प्रचोदयात्।। नव नाग नाम स्तोत्र अनन्तं वासुकिं शेषं पद्मनाभं च कंबलम्। शंखपालं धार्तराष्ट्रं तक्षकं कालियं तथा।। 1 ।। एतानि नव नामानि नागानां च महात्मनाम्। सायंकाले पठेन्नित्यं प्रातः काले विशेषतः।। 2 ।। तस्मै विषभयं नास्ति सर्वत्र विजयी भवेत्।। 3 ।।

चतुर्मास का माहात्म्य

शांताकारं भुजगशयनं पद्मनाभं सुरेशं। विश्वाधारं गगनसदृशं मेघवर्ण शुभाङ्गम्।। लक्ष्मीकांतं कमलनयनं योगिभिध्र्यानगम्यं। वन्दे विष्णुं भवभयहरं सर्वलोकैकनाथम्।। जिनकी आकृति अतिशय शांत है, जो शेषनाग की शय्या पर शयन किए हुए हैं, जिनकी नाभि में कमल है, जो सब देवताओं द्वारा पूज्य हैं, जो संपूर्ण विश्व के आधार हैं, जो आकाश के सदृश सर्वत्र व्याप्त हैं, नीले मेघ के समान जिनका वर्ण है, जिनके सभी अंग अत्यंत सुंदर हैं, जो योगियों द्वारा ध्यान करके प्राप्त किये जाते हैं, जो सब लोकों के स्वामी हैं, जो जन्म-मरण रूपी भय को दूर करने वाले हैं, ऐसे लक्ष्मीपति, कमलनयन, भगवान विष्णु को मैं प्रणाम करता हूं। आषाढ़ माह में देवशयन एकादशी से कार्तिक माह में हरि प्रबोधिनी एकादशी अर्थात आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक चार माह श्रावण, भाद्रपद, आश्विन व कार्तिक माह को चतुर्मास कहते हैं। चातुर्मास में आधे से अधिक मुख्य त्यौहार पड़ते हैं। चतुर्मास में मुख्य पर्व है: गुरु पूर्णिमा, नाग पंचमी, कृष्ण जन्माष्टमी, रक्षा बंधन, हरीतीज, गणेश चतुर्थी, श्राद्ध, नवरात्रि, दशहरा, शरद पूर्णिमा, करवा चैथ, अहोई अष्टमी, धनतेरस, दीपावली, गोवर्धन, भैयादूज व छठ पूजन। श्रावण मास में पूर्णिमा के दिन चंद्रमा श्रावण नक्षत्र में होता है, इसलिए इस माह का नाम श्रावण है। यह माह अति शुभ माह माना जाता है एवं इस माह में अनेक पर्व होते हैं। इस माह में प्रत्येक सोमवार को श्रावण सोमवार कहते हैं। इस दिन विशेष रूप से शिवलिंग पर जल चढ़ाया जाता है। कहते हैं कि श्रावण मास में ही समुद्र मंथन से 14 रत्न प्राप्त हुए थे जिसमें एक था हलाहल विष। इसको शिवजी ने अपने गले में स्थापित कर लिया था जिससे उनका नाम नीलकंठ पड़ा। विष के जलन को रोकने के लिए सभी देवताओं ने उनपर गंगा जल डाला। तभी से श्रावण मास में श्रद्धालु (कांवड़िए) तीर्थ स्थल से गंगाजल लाकर शिवजी पर चढ़ाते हैं। कहते हैं कि उत्तरायण के 6 माह देवताओं के लिए दिन होता है और दक्षिणायन के 6 माह की रात होती हैं। चतुर्मास के चार महीने भगवान विष्णु योगनिद्रा में रहते हैं। अतः सभी संत एवं ऋषि-मुनि इस समय में व्रत का पालन करते हैं। इस समय ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए तामसिक वस्तुओं का त्याग किया जाता है। चार माह जमीन पर सोते हैं और भगवान विष्णु की आराधना की जाती है। विष्णु सहस्रनाम का पाठ किया जाना शुभ फलदायक होता है। पुराणों में ऐसा उल्लेख है कि इस दिन से भगवान श्री विष्णु चार मास की अवधि तक क्षीर सागर की अनंत शय्या पर शयन करते हैं। इसलिए इन चार माह में कोई भी धार्मिक कार्य नहीं किया जाता है। इस अवधि में कृषि और विवाहादि सभी शुभ कार्य नहीं होते। चतुर्मास में द्विगर्त प्रदेश अर्थात गंगा व यमुना के बीच के स्थानों में विशेष तौर से विवाहादि नहीं किए जाते हैं। इन दिनों में तपस्वी एक ही स्थान पर रहकर तप करते हैं। धार्मिक कार्यों में भी केवल ब्रज यात्रा की जा सकती है। यह मान्यता है कि इन चार मासों में सभी देव एकत्रित होकर ब्रज भूमि में निवास करते हैं। कुछ लोगों का ऐसा भी मानना है कि चतुर्मास में वर्षा का मौसम होता है। पृथ्वी में सुषुप्त जीव जंतु बाहर निकल आते हैं। चलने से या कृषि कार्य करने से या जमीन खोदने से ये जंतु मारे जा सकते हैं। अतः इन चार माह में एक स्थान पर रहना पर्यावरण के लिए शुभ होता है। ऋषि-मुनियों को तो हत्या के पाप से बचने के लिए विशेष तौर पर एक ही स्थान पर रहने के शास्त्रों के आदेश हैं। दूसरे इस अवधि में व्रत का आचरण एवं जौ, मांस, गेहूं तथा मंग की दाल का सेवन निषिद्ध बताया है। नमक का प्रयोग भी नहीं या कम करना चाहिए। वर्षा ऋतु के कारण मनुष्य की पाचन शक्ति कम हो जाती है। इन दिनों व्रतादि से शरीर का स्वास्थ्य उत्तम रहता है। साथ ही इन दिनों में सूर्य छुपने के पश्चात भोजन करना मना है। कारण लाखों करोड़ों कीट पतंगे रोशनी के सामने रात को आ जाते हैं और भोजन में गिरकर उसे अशुद्ध कर देते हैं। कहते हैं कि इन दिनों स्नान अगर किसी तीर्थ स्थल या पवित्र नदी में किया जाता है तो वह विशेष रूप से शुभ होता है। स्नान के लिए मिट्टी, तिल और कुशा का प्रयोग करना चाहिए। स्नान पश्चात भगवान श्री विष्णु जी का पूजन करना चाहिए। इसके लिए धान्य के ऊपर लाल रंग के वस्त्र में लिपटे कुंभ रखकर, उसपर भगवान की प्रतिमा रखकर पूजा करनी चाहिए। धूप दीप एवं पुष्प से पूजा कर ‘‘नमो-नारायण’’ या ‘‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’’ का जप करने से सभी कष्टों से मुक्ति मिलती है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। चतुर्मास का प्रारंभ अर्थात देवशयन एकादशी व इसका अंतिम दिन अर्थात हरि प्रबोधिनी एकादशी, दोनों ही विशेष शुभ दिन माने जाते हैं और इन दोनों को अनबूझ मुहूर्त की संज्ञा उपलब्ध है अर्थात् इस दिन मुहूर्त शोधन के बिना कोई भी शुभ कार्य जैसे विवाह, गृह प्रवेश आदि किए जा सकते हैं। देवशयन एकादशी के बाद चार माह कोई विवाहादि नहीं होते हैं और हरि प्रबोधिनी एकादशी से पहले चार माह कोई विवाह नहीं हुए होते हैं और ये दोनों दिन अतिशुभ श्रेणी में माने जाते हैं। अतः इन दोनों दिनों में अनेक शादियां होती हैं। अतः इन दोनों दिवसों की बड़े विवाह मुहूर्तों में गणना की जाती है। हो भी क्यों न आखिर भगवान श्री विष्णु के विशेष कार्य के दिन जो हैं। चतुर्मास के शुभाशुभ फल जो मनुष्य केवल शाकाहार करके चतुर्मास व्यतीत करता है, वह धनी हो जाता है। जो श्रद्धालु प्रतिदिन तारे देखने के बाद मात्र एक बार भोजन करता है, वह धनवान, रूपवान और गणमान्य होता है। जो चतुर्मास में एक दिन का अंतर करके भोजन करता है, वह बैकुंठ जाने का अधिकारी बनता है। जो मनुष्य चतुर्मास में तीन रात उपवास करके चैथे दिन भोजन करने का नियम साधता है, वह पुनर्जन्म नहीं लेता। जो साधक पांच दिन उपवास करके छठे दिन भोजन करता है, उसे राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञों का संपूर्ण फल मिलता है। जो व्यक्ति भगवान मधुसूदन के शयनकाल में अयाचित (बिना मांगे) अन्न का सेवन करता है, उसका अपने भाई-बंधुओं से कभी वियोग नहीं होता है। चैमासे में विष्णुसूक्त के मंत्रों में स्वाहा संयुक्त करके नित्य हवन में तिल और चावल की आहुतियां देने वाला आजीवन स्वस्थ एवं निरोगी रहता है। चतुर्मास में प्रतिदिन भगवान विष्णु के समक्ष पुरूषसूक्त का जप करने से बुद्धि कुशाग्र होती है। हाथ में फल लेकर जो मौन रहकर भगवान नारायण की नित्य 108 परिक्रमा करता है, वह कभी पाप में लिप्त नहीं होता। चैमासे के चार महीनों में धर्मग्रंथों के स्वाध्याय से बड़ा पुण्यफल मिलता है। श्रीहरि के शयनकाल में वैष्णव को अपनी किसी प्रिय वस्तु का त्याग अवश्य करना चाहिए। मनुष्य जिस वस्तु को त्यागता है वह उसे अक्षय रूप में प्राप्त होता है। चतुर्मास आध्यात्मिक साधना का पर्व काल है जिसका सदुपयोग आत्मोन्नति हेतु करना चाहिए। 

दिशाओं से जीवन में समृद्धि

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्टः शरणं त्वां प्रपन्नवान।। प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पùपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य नः।। ”तुभ पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।“ महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ”तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।“ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ”जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहीं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।“ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ”यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। ... वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्....।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहीं दी ? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश ळें। योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ”वैष्णव जन को“ तथा ”रघुपति राघव राजा राम“ गाते थे। चंबल े डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है? यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अतः वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।


ग्रह योगों में अभीष्ट और अनिष्ट स्थितियां

ग्रह पीड़ा निवारण हेतु - ग्रह योगों में अभीष्ट और अनिष्ट स्थितियां इस शक्ति के अनुकूल एवं प्रतिकूल कारणों से ही बनती है, अतः आद्याशक्ति की उपासना ग्रहों के अनिष्ट परिणामों से रक्षा कर सकती है। सभी लोगों तथा विशेषकर ज्योतिष फलादेश देने वालों को तो शक्ति उपासना बहुत शक्ति प्रदान करती है। आद्या शक्ति की उपासना महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, नवदुर्गा, दशविद्या, गायत्री आदि अनेक रूपों में की जाती है। नवरात्रि के समय शक्ति उपासना का महत्व सभी भारतीय पौराणिक ग्रंथों में बतलाया गया है। जन्म से मृत्युपर्यन्त की स्थिति का अवलोकन करें तो शिव संहार का कार्य करते हैं तथा शक्ति की प्रधानता सृष्टि कार्य के लिए स्वीकारी गई है। वह ऊर्जा जो गति में निरंतरता बनाए रखती है शक्ति कहलाती है तथा यह व्यक्तिगत तथा लौकिक सामर्थ्य तक विद्यमान रहती है। ज्योतिष शास्त्र का आधार ग्रह, नक्षत्र, राशियां तथा अनंत ब्रह्मांड है। ब्रह्मांड में मौजूद पिंड, पृथ्वी के जीवन पिंडों को अपनी ऊर्जा अर्थात् शक्ति प्रदान कर गतिशील बनाए रखते हैं। इन ग्रह पिंडों की शक्ति मानव पिंडों को प्रभावित करती है। मानव पिंडों को जो शक्ति ग्रह पिंडों से मिलती है, आदिकाल से उसी को आद्याशक्ति के नाम से जाना जाता है। शक्ति के बिना प्राणी शव के समान होता है। आराधना करने वाले आराधकों ने गुण-कार्य-भेद के कारण उसे महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती कहा है जबकि शक्ति एक ही है। ब्रह्मा, विष्णु, महेश ये समान धर्म रूप हैं। दुर्गा सप्तशती में लिखा है। या देवि सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिता॥ नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नमः॥ प्रत्येक मनुष्य में दो तरह की शक्तियां, शारीरिक एवं मानसिक रूप से मौजूद रहती हैं, इन्हें धन, ऋण, शिव-शक्ति, नर-मादा के नाम से जाना जाता है। बारह राशियों, नवग्रहों तथा 28 नक्षत्रों में ये योगात्मिका तथा क्षयात्मिका शक्तियां मौजूद रहती हैं और यही सृष्टि को निरंतरता देती हुई हमें प्रगति या अवनति का अहसास कराती है। ज्योतिषीय फलादेश चाहे ग्रह नक्षत्रों (जन्म पत्रिका) को देखकर दिया जाए अथवा अंक शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र को आधार मानकर। दोनों में ही निर्माणात्मक तथा संहारात्मक शक्तियों का आधार होता है। ये ही शिव-शक्ति स्वरूप माने जाते हैं। जन्मकुंडली में लग्न से सप्तम भाव तक शक्ति खंड है तथा सप्तम से लग्न तक शिव खंड है। स्त्री ग्रह पुरुष भाग में तथा पुरुष ग्रह स्त्री भाव में मौजूद होने पर शक्ति संपन्न देखे गये है। ग्रह योगों में अभीष्ट और अनिष्ट स्थितियां इस शक्ति के अनुकूल एवं प्रतिकूल कारणों से ही बनती है, अतः आद्याशक्ति की उपासना ग्रहों के अनिष्ट परिणामों से रक्षा कर सकती है। सभी लोगों तथा विशेषकर ज्योतिष फलादेश देने वालों को तो शक्ति उपासना बहुत शक्ति प्रदान करती है। शक्ति को भारतीय पुराणों, शास्त्रों में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, काली, चामुण्डा शैलपुत्री दुर्गा आदि अनेक नामों से जाना जाता है, परंतु वास्तव में यह सब एक ही है जो अपने विभिन्न स्वरूपों को आवश्यकतानुसार धारण करती हैं। हम उपासना, पूजा किसी चित्र या प्रतिमा को प्रतीक मानकर करते हैं, परंतु वास्तविकता यह है कि वह शक्ति हम में ही मौजूद होती है। विश्व में हमें जो दिखाई देता है, हम उसी का अस्तित्व स्वीकार करते हैं जबकि विश्व में ऐसी कोई वस्तु नहीं है, जिसमें कोई न कोई शक्ति न हो। वस्तुओं का अनुभव इंद्रियों से होता है, जबकि शक्ति का अनुभव इंद्रियों से नहीं हो सकता जैसे आग हमें आंखों से दिखाई देती है, परंतु उस आग में जलाने की शक्ति है यह अनुभव वस्तु के जलने पर ही पता चलता है। भविष्यवक्ताओं को फलादेश के लिए एक विशेष पराशक्ति की आवश्यकता होती है और वह पराशक्ति, गुरु कृपा, मातृकृपा, साधना से ही प्राप्त होती है। शक्ति उपासना के बिना इनमें सफलता कूूष्मांडा स्कंदमाता कात्यायनी मिलना संदिग्ध होता है। भविष्य बतलाने में तीन काल समाहित होते हैं, भूत, वर्तमान एवं भविष्य। इनको भली-भांति जानने के लिए ज्योतिषी के पास तीन शक्तियां अवश्य होनी चाहिए। इन तीन शक्तियों की साधना की जाए तो भूत, वर्तमान, भविष्य ज्योतिषी को प्रत्यक्ष दिखाई देगा। लेकिन यदि एक ही साधना सफल होती है तो एक भाग ही प्रत्यक्ष दिखाई देगा। आपने कई बार देखा होगा कि कोई भविष्य वक्ता, भूतकाल की सभी घटनाओं को बता देता है तो कोई वर्तमान को ही सटीकता से बता पाता है और यदि कोई भविष्य अच्छा बता पा रहा है तो उसकी भूत-वर्तमान काल के फलादेश पर पकड़ कमजोर हो जाती है, अतः सफल ज्योतिषी को आद्या, मध्या तथा पराशक्ति की साधना से ही चमत्कार संभव है अतः शारदीय नवरात्र में महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती स्वरूप त्रिशक्तियों की आराधना कर सिद्धि प्राप्त करनी चाहिए। विश्व में दो सप्तशती प्रसिद्ध है (1) गीता-मोक्षदायनी (2) दुर्गा सप्तशती-धर्म, अर्थ, काम प्रदाता। दुर्गा सप्तशती का पाठ करने से तथा ब्रह्मचर्य पालन से किसी भी प्रकार की शक्ति प्राप्त की जा सकती है। हम यहां स्पष्ट कर दें कि रावण को पराजित करने की इच्छा से भगवान राम ने नवरात्र काल में शक्ति का संचय कर विजयादशमी के दिन रावण का वध किया। महाभारत काल में युद्ध से पूर्व भगवान भी कृष्ण कालरात्रि सिद्धिदात्रि ने अर्जुन को पीताम्बरा शक्ति की उपासना की प्रेरणा दी थी। शारदीय नवरात्र प्रायः कन्या-तुला की संक्रांति पर आती है। नवग्रह में कोई भी ग्रह अनिष्ट फल देने जा रहा हो तो शक्ति उपासना एक विशेष फल प्रदान करती है। शक्ति उपासना में स्थापना मुहूर्त से करनी चाहिए ताकि उपासना में कोई विघ्न न आए। सूर्य कमजोर हो तो स्वास्थ्य के लिए शैलपुत्री की उपासना से लाभ मिलेगा। चंद्रमा के दुष्प्रभाव को दूर करने के लिए कूष्माण्डा देवी की विधि विधान से नवरात्रि में साधना करें। मंगल ग्रह के दुष्प्रभाव से बचने के लिए स्कंद माता, बुध ग्रह की शांति तथा अर्थव्यस्था के उत्तरोत्तर वृद्धि के लिए कात्यायनी देवी, गुरु ग्रह की अनुकूलता के लिए महागौरी, शुक्र के शुभत्व के लिए सिद्धिदात्री तथा शनि के दुष्प्रभाव को दूर कर, शुभता पाने लिए कालरात्रि की उपासना सार्थक रहती है। राहु की महादशा या नीचस्थ राहु (वर्तमान गोचर में राहु नीच राशि का धनु राशि में भ्रमण कर रहा है।) होने पर ब्रह्मचारिणी की उपासना से शक्ति मिलती है। केतु के विपरीत प्रभाव को दूर करने के लिए चंद्रघंटा की साधना अनुकूलता देती है। इस काल (शारदीय नवरात्रि) में सत्य मन से किये गये कार्य एवं विचार शुभ फल प्रदान करते हैं। नव दुर्गा के अतिरिक्त दश महाविद्याओं की उपासना ग्रहों की शुभता की अभिवृद्धि के उद्देश्य से भी की जाती है।

Saturday, 27 February 2016

बुधवार का व्रत साधना और नियम

बुधवार व्रत: व्रत बुध ग्रह को प्रसन्न करने वाला महत्वपूर्ण व्रत है। इस व्रत का पालन किसी भी बुधवार से किया जा सकता है। यह व्रत व्यापारियों को व्यापार में वृद्धि व लाभ प्रदाता, विद्यार्थियों को ज्ञान, बुद्धि व वाक्द्गाक्ति देने वाला, ग्रहस्थी महिलाओं को गृह कार्य में दक्षता प्रदान करने वाला, सेवाकार्य में स्थित देवियों को कार्य कुद्गालता का प्रतीक, वृद्धों को मनः स्थिति में संयम को देने वाला एवं जगत् के मानरूप में जन्मे प्रत्येक जीव को विवेक से संपन्न बनाने वाला है। मनुष्य के पास सबकुछ है, परंतु बुध की कृपा दृष्टि नहीं है, तो समझिए कुछ भी नहीं है। जीवन में बुध के द्वारा प्राप्त विवेक के द्वारा अंधा व्यक्ति मार्ग चलने में समर्थ, धनाढ्य व्यक्ति धन का सही प्रयोग करने में चतुर और बड़े-बड़े संकटों से भी पार जाने का मार्ग हर व्यक्ति को बुध की कृपा से ही प्राप्त होता है। भगवान् नारायण ने स्वयं ही जीवन मात्र पर कृपा करने के लिए नवग्रहों के स्वरूप बुध देवता को ''बुध'' अवतार के रूप में प्रकट होकर सर्वशक्तिमान स्वरूप प्रदान किया है। बुध की कृपा जिसे प्राप्त हो जाए, वह ऊंचाईयों की ओर निरंतर बढ़ता चला जाता है और जिस पर बुध क्रोधित हो जाए वह निश्चय ही पतन की ओर अग्रसर हो जाता है। बुध की कृपा से विवेक (ज्ञान) जाग्रत होता है तथा विवेक के आने पर वाणी व कार्य की कुशलता समृद्ध होती है और यही कुशलता जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में लाभकारी व उन्नति प्रदायक बनकर मानव का कल्याण करती है। उसके जीवन में बुध की प्रसन्नता के कारण ही असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योमाऽमृतं गमय का श्री गणेश होकर पूर्णत्व आता है। अभाव, दैन्यता, रिक्तता, अपूर्णता का नष्ट होना व भाव व पूर्णता को प्राप्त कराना यह बुध की सेवा से ही संभव है। संपूर्ण शरीर क्रिया शक्ति से युक्त हो परंतु मस्तक ज्ञान शून्य हो तो सारे कार्य निष्फल हो जाते हैं इसके विपरीत मस्तक ज्ञान (चेतना) से युक्त हो व शरीर क्रिया शक्ति शून्य हो तो भी मानव बैठे-बैठे दिमाग की चेतना से कठिन से कठिन कार्यों को भी सिद्ध कर लेता है एवं केवल मात्र दिशा निर्देश के द्वारा ही प्रगति पथ पर अग्रसर होता हुआ धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष रूपी पुरुषार्थों को भी सहज में प्राप्त कर जीवन को कृतार्थ कर लेता है। बुध ही ज्योतिष, गणित (हिसाब), नाच, वैद्य (डाक्टरी) हास्य (हंसी मजाक), लक्ष्मी, शिल्पकला, विद्या, बौद्धिक कार्य (लेखन, अध्यापक, कवित्व, चित्रकला आदि), संगीत, संपादक, वकील, पत्रकार, संवाददाता, न्याय संबंधी कार्य, औषधि, व्यावसायिक विभाग, सुगंधित द्रव्य, वस्त्र, दाल, अन्न, पक्षी, पन्ना, भूमि, नाटक, विज्ञान, धातु क्रिया (रसायनज्ञ), पूण्यव्रत (पुरोहित, पादरी), दूत, माया (ठग), असत्य कार्य, सेतु (पुल) जलमार्ग (जहाज नौकादि), जल संबंधी कार्य, यंत्र कार्य, प्रसाधन कर्ता (नाई, ब्यूटीसैलून स्वामी), जादूगर, रक्षाधिकारी, नट, घी, तेल, परिवहन, द्रव्य, खच्चर आदि का कारक ग्रह है। ज्योतिष में बुध चतुर्थ भाव व दशम भाव का कारक है। जूआ खेलना, युद्ध करना, कन्या के विवाहादि का निश्चय करना, शत्रु एवं रुठे हुए मित्रों से संधि करना आदि ऐसे अनेक कार्य बुधवार को शुभ होते हैं। बुध ग्रह बलवान होगा तो निश्चय ही उस व्यक्ति का पथ (मार्ग) सुख से युक्त व आनंद प्रदान करने वाला होगा। बुध को बलवान बनाने के लिए बुध मंत्र के जप, यज्ञ, कवच, बुध पंचविंशति नाम स्तोत्र का पाठ व बुध की वस्तुओं का दान तथा पन्नादि रत्नों का धारण करना लाभकारी रहेगा। बुध ग्रह की शांति व बल प्रदान करने के लिए मां दुर्गा की उपासना, मॉ सरस्वती की आराधना, गणेश पूजन, हनुमत उपासना, विष्णु पूजन एवं भगवान् श्रीकृष्ण का अभिषेक भी अद्भुत सफलता के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। लौकिक परंपरा में तो बुध के दिन बहिन की विदाई भी नहीं करनी चाहिए। जब भी बुधवार का व्रत प्रारंभ करना हो तो दैनिक कर्मों से निवृत्त होकर संकल्प के सहित बुध ग्रह व बुध भगवान् का गणेश गौरी नवग्रहादि ग्रहों सहित पूजन करना मंगलकारी है। इस संबंध में निम्न कथाओं का व विष्णु पुराण तथा श्रीमद्भागवत महापुराण का पाठ भी अवश्य ही करना चाहिए। सत्य भाषण व मौन रहें। आवश्यकता के समय ही समयानुकूल वार्तालाप करें तो हितकर होगा। षोऽशोपचार पूजन करें व बुध की या क्क जय जगदीश हरे की आरती करें। बुध का व्रत व उपासना-बुध की अशुभ दशाओं, अंतर्दशाओं, प्रत्यंतर दशाओं एवं बुध के वक्री, नीच, अस्त व मृतादि अवस्थाओं में भी अधिक लाभकारी है। बुध को मनाने वला बुद्धिमान बनता है व विजय श्री उसके कदम चूमती रहती है। बुध के व्रत में एक बार ही हरी वस्तुओं से निर्मित मीठा भोजन क रना चाहिए। हरे वस्त्र धारण करें व हरी वस्तुओं का दान भी यथायोग्य अवश्य करें। बुध जन्म की कथा : बुध एक सौम्य ग्रह है। सूर्य, चंद्र, मंगल एवं अन्य ग्रहों की भांति बुध के विषयों में भी अनेक पौराणिक आखयान प्राप्त होते हैं। बुध की उत्पत्ति के संबंध में एक रोचक कथा प्राप्त होती है। कहा जाता है कि अत्रि पुत्र चंद्रमा देव गुरु बृहस्पति का शिष्य था। विद्या अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् जब उसने गुरु को दक्षिणा देनी चाहिए तो उन्होंने उससे कहा कि वह उस दक्षिणा को उनकी पत्नी तारा को दे आए। चंद्रमा जब गुरु पत्नी को अपनी दक्षिणा देने गया तो उसके रूप में आसक्त हो गया और उसे साथ ले जाने का हठ करने लगा। गुरु पत्नी ने उसे बहुत समझाया पर वह न माना। जब बृहस्पति को यह बात मालूम हुई तो उसे शिष्य जान उन्होंने बहुत समझाया पर चंद्रमा ने फिर भी दुराग्रह न छोड़ा। अंततः वह युद्ध के लिए तत्पर हुआ। बृहस्पति ने भी शस्त्र संभाले लेकिन युद्ध में वह अपने शिष्य चंद्रमा से परास्त हो गये। अब देवताओं ने चंद्रमा को समझाया लेकिन वह अपने हठ पर अड़ा रहा। जब शिवजी को चंद्रमा का यह अनाचार पता चला तो वे क्रोधित हो उठे और चंद्रमा को दंड देने चल पड़े। चंद्रमा फिर भी नहीं माना। उसने नक्षत्रों, दैत्यों, असुरों के साथ-साथ शनैश्चर और मंगल के सहयोग से शिव से युद्ध करने का निर्णय किया। अब घोर युद्ध शुरु हो गया। तीनों लोक भयभीत हो उठे। अंततः ब्रह्मा ने हस्तक्षेप का निर्णय किया। इस बार चंद्रमा झुक गया और उसने गुरु पत्नी तारा को लौटा दिया। एक वर्ष बाद तारा ने एक कांतिवान पुत्र को जन्म दिया। उसका पिता चंद्रमा ही था। चंद्रमा ने उस पुत्र को ग्रहण कर लिया और उसका नाम बुध रखा। बुध के विषय में और भी अनेक आखयान प्राप्त होते है। विदेशी पौराणिक आखयानों में भी बुध के संबंध में अनेक कथाएं प्राप्त होती हैं। यूरोपीय जन इसे 'मरकरी' के नाम से जानते हैं। बुधवार व्रत कथा : एक समय एक व्यक्ति अपनी पत्नी को विदा करवाने के लिए अपनी ससुराल गया। वहां पर कुछ दिन रहने के पश्चात् सास-ससुर से विदा करने के लिए कहा। किंतु सब ने कहा कि आज बुधवार का दिन है आज के दिन गमन नहीं करते हैं। वह व्यक्ति किसी प्रकार न माना और हठधर्मी करके बुधवार के दिन ही पत्नी को विदा कराकर अपने नगर को चल पड़ा। राह में उसकी पत्नी को प्यास लगी तो उसने अपने पति से कहा कि मुझे बहुत जोर से प्यास लगी हो तब वह व्यक्ति लोटा लेकर रथ से उतरकर जल लेने चला गया। जैसे ही वह व्यक्ति पानी लेकर अपनी पत्नी के निकट आया तो वह यह देखकर आश्चर्य से चकित रह गया कि ठीक अपनी ही जैसी सूरत तथा वैसी ही वेश-भूषा में एक व्यक्ति उसकी पत्नी के साथ रथ में बैठा हुआ है। उसने क्रोध से कहा कि तू कौन है जो मेरी पत्नी के निकट बैठा हुआ है। दूसरा व्यक्ति बोला यह मेरी पत्नी है। मैं अभी-अभी ससुराल से विदा कराकर ला रहा हूं। वे दोनों व्यक्ति परस्पर झगड़ने लगे। तभी राज्य के सिपाही आकर लौटे वाले व्यक्ति को पकड़ने लगे। स्त्री से पूछा, तुम्हारा असली पति कौन-सा है? तब पत्नी शांत ही रही, क्योंकि दोनों एक जैसे थे, वह किसे अपना असली पति कहे। वह व्यक्ति ईश्वर से प्रार्थना करता हुआ बोला-हे परमेश्वर, यह क्या लीला है कि सच्चा झूठा बन रहा है। तभी आकाशवाणी हुई कि मूर्ख आज बुधवार के दिन तुझे गमन नहीं करना था। तूने किसी की बात नहीं मानी। यह सब लीला बुधदेव भगवान् की है। उस व्यक्ति ने बुधदेव से प्रार्थना की और अपनी गलती के लिए क्षमा मांगी। तब बुधदेव जी प्रसन्न हो आशीर्वाद देकर अंतर्ध्यान हो गए। वह अपनी स्त्री को लेकर घर आया तथा बुधवार का व्रत वे दोनों पति-पत्नी नियमपूर्वक करने लगे। जो व्यक्ति इस कथा को श्रवण करता तथा सुनता है उसको बुधवार के दिन यात्रा करने का कोई दोष नहीं लगता, उसको सर्व प्रकार से सुखों की प्राप्ति होती है। दान की वस्तुएं : स्वर्ण, कान्स्य, स्टेशनरी का सामान, हरे वस्त्र, हरी सब्जियां, मूंग, तोता, घी, हरे रंग का पत्थर, पन्ना, केला व हरी वस्तुएं। बुध मंत्र : ¬ ब्रां ब्रीं ब्रौं सः बुधाय नमः। ¬ उद्बुध्यस्वाग्ने प्रति जाग्रहि। त्वमिष्टापूर्ते सूं सृजेथामय च। अस्मिन्त्सधस्थे अध्युन्तरस्मिन् विश्वे देवा यजमानश्चय सदित। चंद्र पुत्राय विद्महे रोहिणी प्रियाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्। सौम्यरूपाय विद्महे वाणेशाय धीमहि। तन्नो बुधः प्रचोदयात्। ¬ बुधाय नमः। ¬ नमो नारायणाम। ¬ चंद्र पुत्राय नमः। ¬ विश्व रूपाय नमः।

मौन व्रत का महत्व

मौन व्रत भारतीय संस्कृति में सत्य व्रत, सदाचार व्रत, संयम व्रत, अस्तेय व्रत, एकादशी व्रत व प्रदोष व्रत आदि बहुत से व्रत हैं, परंतु मौनव्रत अपने आप में एक अनूठा व्रत है। इस व्रत का प्रभाव दीर्घगामी होता है। इस व्रत का पालन समयानुसार किसी भी दिन, तिथि व क्षण से किया जा सकता है। अपनी इच्छाओं व समय की मर्यादाओं के अंदर व उनसे बंधकर किया जा सकता है। यह कष्टसाध्य अवश्य है, क्योंकि आज के इस युग में मनुष्य इतना वाचाल हो गया है कि बिना बोले रह ही नहीं सकता। उल्टा-सीधा, सत्य-असत्य वाचन करता ही रहता है। यदि कष्ट सहकर मौनव्रत का पालन किया जाए तो क्या नहीं प्राप्त कर सकता? अर्थात् सब कुछ पा सकता है। कहा भी गया है- ‘कष्ट से सब कुछ मिले, बिन कष्ट कुछ मिलता नहीं। समुद्र में कूदे बिना, मोती कभी मिलता नही।।’ जैसे- जप से तन की, विचार से मन की, दान से धन की तथा तप से इंद्रियों की शुद्धि होती है। सत्य से वाणी की शुद्धि होनी-शास्त्रों तथा ऋषियों द्वारा प्रतिपादित है, परंतु मौन व्रत से तन, मन, इंद्रियों तथा वाणी-सभी की शुद्धि बहुत शीघ्र होती है। यह एक विलक्षण रहस्य है। व्रत से तात्पर्य है- कुछ करने या कुछ न करने का दृढ़ संकल्प। लौकिक एवं पारलौकिक दोनों प्रकार की सिद्धियों की प्राप्ति दृढ़ संकल्प से ही होती है। यह संसार भी सत्य स्वरूप भगवान के संकल्प से ही प्रकट हुआ है। मौन-व्रत से मनुष्य मस्तिष्क या मन में जो संकल्प-विकल्प उठते रहते हैं, उन पर नियंत्रण होता है। यदि संकल्प-विकल्प भगवन्निष्ठ हों तो सार्थक होता है, परंतु सदैव ऐसा नहीं होता। भगवान की माया शक्ति का प्रत्यक्ष प्रभाव है- यह जगत्। मनुष्य इस संसार की महानतम भौतिक उपलब्धियों को प्राप्त करने के लिए ही नाना प्रकार के संकल्प-विकल्प करता रहता है। फलतः मन की चंचलता निरंतर बनी रहती है। जितने क्षण मन कामना (संकल्प-विकल्प)- शून्य हो जाता है उतने क्षण ही योग की अवस्था रहती है। मौन-व्रत द्वारा निश्चित रूप से मन को स्थिर किया जा सकता है। ऋणात्मक ऊर्जा को धनात्मक ऊर्जा में परिवर्तित किया जा सकता है। मौन-व्रत रखने से भौतिक कामनाओं से मुक्ति के साथ-साथ परस्पर अनावश्यक वाद-विवाद से भी बचा जा सकता है। राग और द्वेष पर तो विजय मिल ही जाती है। जितने समय तक साधक मौन-व्रत रखता है, उतने काल तक असत्य बोलने से मुक्त रहता है। साथ ही मन तथा इंद्रियों पर संयम रहने से साधन-भजन में सफलता मिलती है। भजन में एकाग्रता एवं भाव का अधिक महत्व है। भाव सिद्ध होने पर क्रिया गौण तथा भाव प्रधान हो जाता है। मौन-व्रत से आत्मबल में बहुत अधिक वृद्धि होती है। संसार में अनेक प्रकार के बल हैं यथा-शारीरिक, आर्थिक, सौंदर्य, विद्या तथा पद (सत्ता) का बल। लौकिक दृष्टि से उपर्युक्त सभी प्रकार के बल अपना महत्व रखते हैं, परंतु आत्म बल इन सभी बलों में सर्वोपरि है। अभौतिक और जागतिक सभी प्रकार की उन्नति के लिए आत्म बल की परम आवश्यकता होती है। मौन-व्रत से आत्म बल में निरंतर वृद्धि होती है। मनुष्य सत्य वस्तु की ओर बढ़ता हैं भगवान् सत्यस्वरूप हैं और उनका विधान भी सत्य है। शरीर, धन, रूप, विद्या तथा सत्ता का बल मनुष्य को मदांध कर देता है। इनमें से एक भी बल हो तो मनुष्य दूसरे लोगों के साथ अनीतिमय व्यवहार करने लगता है। जरा सोचें, जिनके पास ये पांचों बल हों उसकी गति क्या होगी! मौन-व्रत ही ऐसा साधन है जिससे व्यक्ति स्वस्थ हो सकता है। मौन व्रत के पालन से वाणी की कर्कशता दूर होती है, मृदु भाषा का उद्गम बनता है। अंतरात्मा में सुख की वृद्धि होती है फिर विषय का त्याग करता हुआ जीवन के अद्वितीय रस भगवद् रस को प्राप्त करने लगता है। साधक को मौन-व्रत के पालन में अंदर तथा बाहर से चुप होकर निष्ठापूर्वक एकांत में रहकर भगवान नाम-जप करना चाहिए। ऐसा करने से ही आत्म बल में वृद्धि तथा नाम-जप में कई गुना सिद्धि प्राप्त होती है। प्रत्येक साधक को दिन में एक घंटे, सप्ताह में एक दिन एकांत वास कर मौन-व्रत धारण कर भगवद्भजन करना चाहिए। यह बड़ा ही श्रेयष्कर साधन है। यूं भी साधक को नियमित जीवन मंे ंउतना ही बोलना चाहिए जितना आवश्यक हो। अप्रिय सत्य नहीं बोलना चाहिए। निरंतर निष्ठा पूर्वक भगवन्नाम जप से वाकसिद्धि हो जाती है। मौन-व्रत का पालन बहुत सावधानी पूर्वक करना चाहिए। प्राचीन समय में हमारे ऋषि-मुनि मौन-व्रत तथा सत्य भाषण के कारण ही वाक्सिद्ध थे। यदि हमारी इंद्रियां तथा मन चलायमान रहें तो मौन-व्रत पालन करना छलावा मात्र ही रहेगा। मूल रूप से वाणी संयम तो आवश्यक है ही, किंतु उससे भी अधिक आवश्यक संयम बनाए रखना। संयम बनाए रखना ही वास्तव में मुख्य मौन-व्रत है। यह साधनावस्था की उच्चभूमि है जहां पहुंचकर ब्रह्मानंद, परमानंद, आत्मानंद की स्वतः अनुभूति होने लगती है। अतः धीरे-धीरे वाक् संयम का अभ्यास करते हुए मौन व्रत की मर्यादा में प्रतिष्ठित होने का प्रयत्न करना चाहिए।