Tuesday, 3 May 2016

बृहस्पति ग्रह का नैसर्गिक फल'

यदि बृहस्पति शुभ व बलवान हो तो जातक को राज, मन्त्रित्व एवं मनोवांछित फल प्राप्त होता है। देवार्चन, धार्मिक कर्म करता है। वाहन, भूमि एवं वस्त्र का लाभ होता है। उत्तम मनुष्यों की संगति प्राप्त होती है। कुटुम्ब व अन्यों का भरण-पोषण करता है।मेष, मिथुन, सिंह, धनु व मीन राशि में बृहस्पति उत्तम फल देता है। तुला, वृश्चिक, मकर तथा कुम्भ राशियों में मध्यम फल तथा वृष, कन्या एवं कर्क राशि में अशुभ फल प्राप्त होते है। आयु के अन्तिम भाग में यशस्वी होते हंै। यदि बृहस्पति स्त्री राशि में या पीडि़त हो तो जातक आयु के आरम्भ में नौकरी करते है, बाद में स्वतन्त्र व्यवसाय होता है। किन्तु दशम स्थान में बृहस्पति हो तो जीवन भर नौकरी करनी पड़ती है। ये लोग स्कूल, काॅलेज, आश्रम आदि संस्थाएं स्थापित करते हैं। नगर पालिका, जिला बोर्ड, विधान सभा आदि में चुनाव लड़ते हैं। यदि बृहस्पति पीडि़त हो तो मिथ्या अभिमानी, बार-बार व्यवसाय बदलना, दूसरों को तुच्छ समझते हैं। दूसरों की बुराइयां निकालते रहते है। पत्नी के साथ पांच मिनट तक स्थिरता से बात नहीं कर पाते, परन्तु अन्य स्त्रियों से घुलमिल कर घण्टों बिता देते हैं। अपने को बहुत सुशिक्षित समझते हैं। अन्य लोगों पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं।
विभिन्न भावगत बृहस्पति की दशा का फल
त्रिकोण व् केंद्र में स्थित- जातक धन, राजा, पुत्र व स्त्री से सुख पाता है। उच्च पद प्राप्त करता है।
लग्न भाव - जातक धन, समाज व् वस्त्र आभूषण एवं वहां प्राप्त करता है |
द्वितीय भाव- राज-सम्मान व धन की प्राप्ति होती है। जातक बुद्धिमान, परोपकारी, सुखी, विजयी, वस्त्र आभूषण प्राप्त करता है।
तीसरा भाव- भाई से धन व राजा के द्वारा सम्मान प्राप्त करता है।
चतुर्थ भाव- वाहन सुख, राज्य-अधिकार, माता का सुख, स्त्री, बन्धुओं से सम्मान प्राप्त करता है।
पंचम भाव- मंत्र-तंत्र विद्याओं में रुचि, बच्चे उत्पन्न होते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाला होता है।
छटवा भाव- स्वास्थ्य व स्त्री प्राप्त होती है। अन्त में चोर, रोग व स्त्री से भय होता है।
सप्तम भाव- स्त्री, पुत्र का सुख, विदेश भ्रमण एवं विजयी होता है। धार्मिक कार्य करता है।
अष्टम भाव- आरम्भ में दुःख होता है, स्थानच्युत, विदेश यात्रा, बन्धुजनों से वियोग होता है। परन्तु अन्त में स्त्री, पुत्र तथा राजा से सम्मान प्राप्त होता है।
नवम भाव -त्रिकोण भाव का फल प्राप्त होता है।
दशम भाव- राज-अधिकार, धन, स्त्री, पुत्र तथा शुभ की प्राप्ति होती है।
एकादश भाव- पुत्र प्राप्ति, धन, बन्धुओं से सम्मान प्राप्त होता है।
द्वादश भाव- नाना प्रकार के क्लेश और विदेश यात्रा होती है। वाहन सुख प्राप्त होता है। यदि बृहस्पति शुभ हो तो शुभ कार्यों में व्यय होता है।
गुरु गुरु- सुख सौभाग्य में वृद्धि हो। समाज में मान, प्रतिष्ठा व यश मिले। मुख व देह की कान्ति बढ़े। गुणों का विकास व प्रकाश हो। गुरु-संत जन से मिलन, मनोकामना सिद्धि, सरकार द्वारा गुणों का मूल्यांकन हो, प्रशंसा तथा पुरस्कार मिले। सर्वत्र सराहना हो।
गुरु/शनि- मद्यपान व वेश्याओं की संगति तथा सांसारिक सुख वैभव की प्राप्ति हो। सुरा-सुन्दरी पर धन का अपव्यय हो। कुटुम्बी व पशुओं को पीड़ा हो। नेत्र रोग, पुत्र पीड़ा, तथा मन में भय बना रहे। भय व पीड़ा तो शनि का स्वभाव ही है। गुरु काल पुरुष का भोगेश है तो शनि लाभेश है। अतः भोग में वृद्धि होगी। शनि सप्तमस्थ होने से सुंदर वेश्याओं की संगति भी देगा।
गुरु/बुध- सुरा-सुन्दरी, द्यूत क्रीड़ा तथा वात पित्त कफ जनित रोग हों। बुध राजकुमार है, सुन्दर युवक व मधुर भाषी है, व्यवहार कुशल व चतुर है, स्वार्थ सिद्धि हेतु छल कपट भी कर बैठता है, अतः भोग प्राप्ति के लिये जुआ व शराब का सहारा ले सकता है। अन्य मनीषियों का विचार है कि गुरु सात्विक व वेदनिष्ठ ब्राह्मण है। यह ज्ञान, विवेक एवं प्रज्ञा का प्रतीक है तो बुध बुद्धि व व्यवहार कुशलता है। अतः इस अन्तर्दशा में देवता एवं ब्राह्मण की पूजा, उपासना से ही सभी सुख, वैभव, पुत्र, धन व परिवार की सुख समृद्धि प्राप्त होगी।
गुरु/केतु- देह पर चोट/घाव, नौकरों से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को कष्ट तथा चित्त में व्यथा होती है। गुरुजन अथवा प्रियजन से वियोग, बिछोह तथा कभी जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट या प्राण हानि हो। इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि काल पुरुष के जन्मांग में केतु त्रिकोण (नवम भाव) में गुरु की राशि में बैठा है, किंतु गुरु से षष्ठम है। दशानाथ-अन्तर्दशानाथ का परस्पर षष्ठम, अष्टम होना अशुभ व अनिष्टकर माना गया है तथा रोग, शत्रु व घाव पीड़ा देने वाला है।
गुरु/शुक्र- अनेक प्रकार के धन-धान्य, वस्त्राभूषण, सुख सामग्री की प्राप्ति व वृद्धि हो। स्त्री-पुत्र का सुख मिले। स्वादिष्ट भोजन, उत्तम पेय का सुख मिले। देवता व ब्राह्मण की अर्चना, उपासना में जातक तत्पर रहे। (कालपुरुष के जन्मांग में शुक्र, भोगस्थान में उच्च का होकर गुरु की राशि में है तो गुरु भाग्येश भी है, अतः भाग्य से विविध प्रकार भोग-वैभव की प्राप्ति होना स्वाभाविक है।
गुरु/सूर्य- शत्रु पर विजय, राजसम्मान, यशवृद्धि, धन लाभ व वाहन सुख मिले। प्रभाव व पुरुषार्थ में वृद्धि हो। महानगर में रहकर जातक उच्च कोटि के वैभव व सुख संपदा भोगें। कालपुरुष के जन्मांग में गुरु सुख भाव में है तो सूर्य लग्न में उच्चस्थ है। लग्न सुख भाव के लिये दशम भाव है अतः कार्य क्षेत्र में उन्नति, सफलता, मान-सम्मान की वृद्धि व मानसिक सुख मिलना सहज है।
गुरु/चन्द्रमा -स्त्री व धन की प्राप्ति हो। यश वृद्धि व कृषि से लाभ मिले। व्यापार (क्रय-विक्रय) द्वारा लाभ मिले। देवता व ब्राह्मण की पूजा हो। गुरु, चंद्रमा की राशि में उच्चस्थ होता है। लाभ का नैसर्गिक कारक होने से यह निश्चय ही लाभ देगा, किन्तु धर्म विमुखता साधु-संत का अनादर करने से कभी अपयश व मानसिक क्लेश भी दिया करता है। ऐसी परिस्थिति में पत्नी से अनबन, स्त्री सुख की हानि, धन नाश भी हुआ करता है। अतः विज्ञ जन गजकेसरी योग की सार्थकता हेतु धार्मिक अनुष्ठान व देवोपासना का सुझाव दें।
गुरु/मंगल- जातक के कार्यों से बन्धुओं को सुख संतोष प्राप्त हो, शत्रुओं से भी जातक लाभ पायें। भूमि भवन की प्राप्ति हो। प्रभाव व प्रताप में वृद्धि हो। किसी गुरुजन को चोट लगे। जातक को नेत्र पीड़ा हो तथा सत्कर्म के प्रभाव से जातक सुख पाये। मंगल, बंधु, स्नेह व शत्रु से संघर्ष का प्रतीक है तो गुरु लाभ का। काल पुरुष के जन्मांग में गुरु चतुर्थ (सुख भाव) में है तो मंगल कर्म भाव में। अतः कर्म के प्रभाव से तथा कर्म के द्वारा जातक को सुख व सभी प्रकार के लाभ मिलेंगे।
गुरु/राहु- बंधुओं को/से कष्ट व संताप हो। मन में दुःख, चिन्ता व उद्विग्नता हो। रोग व चोर से भय। गुरुजन को कष्ट/जातक को उदर विकार हो। राजा से कष्ट पीड़ा या दंड मिले। शत्रु जनित कष्ट बढ़े। धन का नाश हो। गुरु, देवताओं का रक्षक व मंत्रदाता गुरु है; तो राहु देवताओं का प्रबल शत्रु है। अतः अशुभ फल होना स्वाभाविक है। काल पुरुष की कुंडली में राहु, गुरु से द्वादश होकर बंधु स्थान में है, अतः भाई बंधुओं के कारण सुख की हानि, घर परिवार में अशान्ति, मन में दुःख क्लेश भी होगा ही।

राहु ग्रह का नैसर्गिक फल

राहु एक छाया ग्रह है। इसका प्रभाव मानव जगत पर होने के कारण हमारे मनीषियों ने इसे भी ग्रहों में स्थान दिया है। कुछ आचार्यों के मत से राहु का स्वगृह कन्या एवं उच्च राशि मिथुन है- नीच राशि धनु है। अन्य आचार्यों के मत से राहु की उच्च राशि वृष, मूल त्रिकोण राशि कुम्भ तथा प्रिय राशि कर्क है तथा अन्य गुण शनिवत है। राहु का शत्रु मंगल , शनि सम तथा शेष ग्रह मित्र है। अन्य मत से मंगल, सूर्य व चंद्रमा शत्रु ग्रह है। राहु प्रधान व्यक्ति स्नेहशील, प्रपंच में आसक्त होता है, स्वार्थ पूरा कर परोपकार करता है। मीन का इच्छुक, अभिमानी महत्वाकांक्षी होता है। बहुत बोलना नहीं चाहता, लेखन में सरस, तेजस्वी तथा काव्य पूर्ण होता है। वह दूसरों के काम में दखल नहीं देता एवं दूसरों के ,द्वारा अपने काम में दखल देना पसंद नहीं करता है।
कुण्डली में राहु अशुभ योग में हो (विषम भाव में, विषम राशि में हो) तो जातक बुद्धिहीन, दुष्ट, स्वार्थी, अविश्वनीय, दुरभिमानी, झूठे आचरण से पूर्ण, निर्लज्ज, उद्दण्ड, अपने मत को ही श्रेष्ठ मानने वाला, दूसरों को ताने देने वाला, दूसरों का अहित करने वाला होता है। राहु की दृष्टि के बारे में भी मतभेद है। राहु की दृष्टि 5, 7, 9, 12 मानी गई है। परन्तु सप्तम व द्वादश दृष्टि ही अनुभव में आती है। सदा वक्री रहता है।
विभिन्न भावगत राहु की दशा का फल
लगन भाव- जातक बुद्धिहीन, विष, अग्नि तथा शस्त्र से भय, बन्धु वर्ग से विरोध, पराजय व कष्ट पाता है।
द्वितीय भाव- राज्य व धन की हानि, राजा से भय, निम्न व्यक्तियों की सेवा करनी पड़ती है। अच्छे भोजन का अभाव, मन में चिन्ता व क्रोध रहता है। कुटुम्ब में कलह रहता है।
तीसरा भाव- सन्तान, स्त्री, धन व भाइयों से सुख प्राप्त होता है। विदेश में आना जाना रहता है।
चतुर्थ भाव- माता को कष्ट या मृत्यु होती है। भूमि, कृषि, धन की हानि, राजा से भय, बधुओं से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को रोग तथा मानसिक कष्ट रहता है।
पंचम भाव- उन्माद, बुद्धिहीन, झगड़ा, राजा से भय, सन्तान से कष्ट या नाश होता है।
छटवा भाव- राजा, अग्नि, चोर व शत्रुओं से भय, नाना प्रकार के रोग तथा मृत्यु भय रहता है।
सप्तम भाव- विदेश यात्रा, भूमि, धन की हानि, नौकरी की कमी, सन्तान की चिन्ता तथा सर्प से भय
अष्टम भाव- मृत्यु का भय, सन्तान का नाश, चोर, अग्नि एवं राजा से भय रहता है।
नवम भाव- पिता की मृत्यु, विदेश यात्रा, बन्धु वर्ग, गुरुजनों को कष्ट, धन सन्तान की हानि होती है।
दशम भाव- धार्मिक कार्य एवं गंगा स्नान आदि होता है। यदि राहु अशुभ हो तो विदेश वास व कलंकित होता है।
एकादश भाव- सम्मान, धन, गृह, भूमि, तथा नाना प्रकार के सुख प्राप्त होते हंै।
द्वादश भाव- विदेश यात्रा, स्त्री-पुत्र से वियोग, धन, भूमि आदि की हानि होती है।
यदि किसी जन्मांग में राहु कन्या (6) वृश्चिक (8) अथवा मीन (12) राशि में स्थित हो तो वह अपनी महादशा में उच्च अधिकार (हकूमत, बादशाहत) तथा वाहन वैभव जन्य सुख समृद्धि देकर दशा की समाप्ति तक सभी कुछ वापिस भी ले लेता है।
राहु/राहु -विष व जल से भय (दूषित जल के कारण रोग हो) हो, परस्त्री संग से अपयश, इष्टजन का वियोग व दुष्टजन से कष्ट, मन, वाणी में कटुता, क्रोध एवं क्रूरता बढ़े।
राहु/गुरु- जातक देवता व ब्राह्मण का पूजन करे। शरीर निरोग व स्वस्थ हो। सुन्दर स्त्रियों से समागम, विद्वत्ता पूर्ण विचार विनिमय व शास्त्र चिंतन में समय सुख पूर्वक बीते।
राहु/शनि स्त्री-पुत्र-भाइयों से मतभेद एवं झगड़ा होता है। जातक की पदच्युति, नौकर से या नौकरी में बाधा/ हानि हो। शरीर में चोट लगे, वात, पित्त जन्य रोग से पीड़ा होती है। शनि काल पुरुष के लग्न में 44
नीचस्थ होता है। अतः इसका दोषी होना सहज है। यदि राहु को तृतीयस्थ मानें तो भाइयों से, पुत्र-स्त्री से झगड़ा, दुःख, क्लेश व देह पीड़ा होना भी स्वाभाविक है।
राहु/बुध- धन और पुत्र की प्राप्ति, मित्रों से समागम तथा चित्त में प्रसन्नता हो। बुद्धि में चतुराई व कुशलता की वृद्धि से कार्य सिद्धि व लाभ मिले। राहु व बुध परस्पर मित्र हैं। बुध व्यवहार कुशलता, वणिक, बुद्धि, व्यापार चातुर्य देकर मधुर वाणी से भी अपनी ओर आकर्षित करता है। कालपुरुष के जन्मांग में राहु बुध की राशि में स्थित है तथा कन्या राशि के बुध से (दशमस्थ) केन्द्र में है, अतः निश्चय ही कार्य में कुशलता-प्रवीणता से सुख बढ़ेगा |
राहु/केतु- राहु केतु परस्पर शत्रु माने गये हैं। अतः ये दशा ज्वर, अग्नि, शस्त्र व शत्रु जन्य भय दिया करती है। कभी सिर में रोग, शरीर में कंपन, विषया व्रण(घाव) से कष्ट होता है। मित्रों से कलह, गुरुजन की उदासीनता भी मनोवेदना व व्यथा बढ़ाती है।
राहु/शुक्र- स्त्री की अनुकूलता व सहवास सुख मिले। भूमि, भवन, वाहन व वैभव की प्राप्ति हो। अपने ही लोगों से वैर विरोध हो तथा जातक वात, कफ जन्य रोगों से कष्ट पाये। काल पुरुष के जन्मांग में उच्चराशि का शुक्र द्वादश भाव (भोग भवन) में राहु से दशमस्थ (विपरीत गणना से चतुर्थस्थ) है। अतः सभी प्रकार के भोग मिलना स्वाभाविक है।
राहु/सूर्य -आपत्ति, विपत्ति शत्रुजन्य बाधा व कष्ट, विष/अग्नि पीड़ा, शस्त्राघात, नेत्र पीड़ा की संभावना बढ़े। राजा/सरकार से भय हो तथा स्त्री पुत्र को भी कष्ट मिले। राहु व सूर्य परस्पर शत्रु हैं। सूर्य आत्मा, राजा व सरकार का प्रतीक है। यदि कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य लग्न में है तो राहु तृतीय भाव में होने से परस्पर 3-11 की स्थिति बनती है जो अशुभ मानी गयी है। अतः अशुभ फल होना सहज एवं स्वाभाविक है।
राहु/चन्द्रमा- स्त्री सुख की हानि/नाश, स्वजन/परिजन से कलह व क्लेश हो। मन में चिंता संताप, मित्रों पर विपत्ति तथा जल से भय हो। कृषि, धन, पशु व संतान को क्षति पहुँचे। चंद्रमा मन, मित्र, जल व मानसिक सुख शांति का प्रतीक है; तथा राहु प्रबल क्रूर शत्रु होकर कालपुरुष के जन्मांग में चंद्रमा से द्वितीय स्थान (मारक भाव) में स्थित है। यहाँ राहु मन की सुख शांति तथा मित्रादि के लिए मारक सरीखा कार्य करेगा।
राहु/मंगल- राजा (सरकार), अग्नि, चोर एवं अस्त्र से भय हो। देह या मन में रोग जनित पीड़ा हो। हृदय रोग, नेत्र पीड़ा व पदच्युति (स्थानहानि) की संभावना बढ़े। मंगल कालपुरुष के जन्मांग में दशमस्थ है। अतः कार्य क्षेत्र, कार्यस्थल, राजा (सरकार) से परेशानी होना सहज ही है। काल पुरुष के जन्मांग में राहु एक छाया ग्रह होकर (दशमस्थ) मंगल से षष्ठमस्थ होने से गुप्त रोग/पीड़ा दे सकता है। अतः अतिरिक्त सावधानी तथा जातक को स्नेहपूर्ण सेवा व सहयोग की आवश्यकता होगी।

Sunday, 1 May 2016

मंगल दशा का नैसर्गिक फल

साधारणतया मंगल की महादशा में निम्न नैसर्गिक फल प्राप्त होते हैं। राजकीय क्षेत्र से, शत्रु से, शस्त्र बनाने से, झगड़ों से, औषधियों से, धूर्तता से, भूमि से, क्रूरता से, पशुओं से आदि अनेक प्रकार से धन प्राप्त होता है। (यह तब होगा जब मंगल शुभ भाव में, शुभ भाव का स्वामी होकर, शुभ युक्त या दृष्ट होकर बलवान हो। यदि मंगल अशुभ हो तो पित्त जनित रक्त-विकार, ज्वर, दुर्घटनाएं होती हैं। चोर, राजा, अग्नि, दुर्घटनाओं से भय रहता है। घर में कलह, पुत्रों और सम्बन्धियों से विरोध रहता है। बंधन व व्रण रोग से कष्ट होता है।
पराशर मतानुसार मंगल केन्द्र व त्रिकोण का स्वामी हो तो शुभ तथा 3, 6, 8, 11, एवं 12 भाव का स्वामी हो तो अशुभ फल मिलता है। चंद्र या शुक्र के सम्बन्ध से मंगल दूषित हो जाता है।
अग्नि तत्व राशियों (मेष, सिंह एवं धनु) में क्रूर व साहसी मिथुन, तुला एवं कुम्भ (वायुतत्व) राशियों में प्रवासी एवं भाग्यहीन, वृष, कन्या एवं मकर (पृथ्वी तत्व) राशियों में लोभी, स्वार्थी, दीर्घ द्वेषी, स्त्री प्रिय, झगड़ालू एवं शराबी या कुछ अन्य पदार्थ का सेवक। कर्क, वृश्चिक एवं मीन (जल तत्व) राशियों में नाविक, पियक्कड़, व्यभिचारी होता है। भोगी, प्रवासी एवं धनवान फल स्त्री राशियों का है।
विभिन्न भावगत मंगल की दशा का फल
लग्न भाव - चोर, विष, कलह, शत्रुता एवं विदेश यात्रा की सम्भावना होती है।
द्वितीय भाव- वाणी में तीव्रता, धन एवं कृषि लाभ, किन्तु राज पक्ष से दंडित होता है। मुख व नेत्र में रोग की सम्भावना रहती है।
तीसरा भाव- उत्साह, आनन्द, राज पक्ष से लाभ, धन, सन्तान, स्त्री, भाई-बहिनों से सुख मिलता है।
चौथा भाव- स्थानच्युत, बन्धुओं से विरोध, चोर व अग्नि से भय एवं राज पक्ष से पीडि़त होता है।
पंचम भाव- स्त्रियों से विरोध, जातक को नेत्र रोग या दुःसाध्य रोग होता है। भाई दुखी रहता है।
षष्ठ भाव- स्त्रियों से विरोध, पदच्युति, शोक, विदेश भ्रमण, विपक्ष से वाद-विवाद होता है।
सप्तम भाव- स्त्री की मृत्यु, गुदा रोग, मूत्रकृच्छ गुप्त रोग आदि रोगों की सम्भावना रहती है।
अष्टम भाव- दुःख व स्त्री मृत्यु की सम्भावना रहती है। पदच्युति होती है। विदेश यात्रा करनी पड़ती है। गुदा रोग, गुप्त रोगों का भय रहता है।
नवम भाव- पद की समाप्ति या परिवर्तन होता है। गुरुजनों को कष्ट तथा धार्मिक कार्यों में अरुचि या विघ्न होता है।
दशम भाव- उद्योग भंग, अपकीर्ति, स्त्री, पुत्र धन एवं विद्या का नाश होता है (अशुभ मंगल)।
एकादश भाव- राजकीय सम्मान, धन व सुख का लाभ होता है। लड़ाई में विजय, परोपकारी, सम्मान प्राप्त करता है।
द्वादश भाव- धन हानि, राज भय, भूमि, पुत्र एवं स्त्री नाश एवं भाइयों की विदेश यात्रा होती है।
मंगल/मंगल
शरीर में गर्मी बढ़ने (पित्त प्रकोप) से कष्ट हो, शरीर को चोट लगे/घाव हो तथा छोटे भाइयों से वियोग/विग्रह (मतभेद) हो। जाति, बंधु से शत्रुता व राजा से विरोध हो। अग्नि या चोर का भय हो। मंगल सबल होने पर सफलता व संतोष देता है किन्तु पापी होने पर प्रायः शत्रु व भाइयों से कष्ट दिलाता है। (ध्यान रहे मंगल षष्ट भाव व तृतीय भाव का कारक है।
मंगल/राहु
शत्रु, शस्त्र, चोर व राजा से कष्ट मिले। गुरु जन या बन्धु की हानि/वियोग हो। जातक के सिर, नेत्र व बगल में रोग हो/मारक होने पर महान आपत्ति व मृत्यु भय भी देता है।
मंगल/गुरु
गुरु एक शुभ ग्रह है व काल पुरुष का भाग्येश भोगेश होकर सुख स्थान में होने पर अत्यधिक शुभ प्रद माना गया है। जातक के पुत्र व मित्रों की वृद्धि हो। देवता व ब्राह्मण की उपासना से इष्टकार्य सिद्धि हो। अतिथि पूजा का सुअवसर मिले। तीर्थ यात्रा व पुण्य कर्मों के अवसर मिले। पापी गुरु होने से कान में रोग, पीड़ा व कफ जनित कष्ट होता है।
मंगल/शनि
शनि काल पुरुष का दुख है- अतः दुख तो होगा पर धीरज से काम लें। पुत्र, गुरुजन, पितर गणों पर विपत्ति आती है। जातक स्वयं भी मुसीबतों व परेशानियों से घिरा रहता है। शत्रु धन हरण करते हैं। मन में गुप्त अनजानी पीड़ा रहती है। अग्निकांड या तूफान से क्षति होती है। वात पित्त जन्य रोग व कष्ट हो।
मंगल /बुध
काल पुरुष के जन्मांग में बुध, पराक्रमेश व षष्ठेश होकर छठे भाव में उच्चस्थ है अतः राजा या सरकार से कष्ट हो। शत्रु से भय, चोरी द्वारा धन हानि हो। पशु (वाहन) व सम्पत्ति की क्षति भी शत्रु के कारण होनी संभव है।
मंगल/केतु
कुछ मनीषियों ने केतु को शुभ माना है, किन्तु ये दशा प्रायः अप्रिय घटनाएं ही अधिक देती है। वज्राघात, अग्नि व शस्त्र से पीड़ा, धननाश, विदेश (परदेश) गमन या अपना देश छोड़ना पड़े, कभी तो स्वयं अपने या पत्नी के प्राणों को भी संकट होता है।
मंगल/शुक्र
काल पुरुष के जन्मांग में मंगल, लग्नेश अष्टमेश होकर दशमस्थ है तो शुक्र धनेश-सप्तमेश होकर द्वादश भाव में स्थित है। अतः इस दशा भुक्ति में स्वदेश छोड़कर विदेश में जाकर बसने की संभावना बढ़ जाती है। कभी बाएं नेत्र में कष्ट होता है। चोरी होने से धन हानि व नौकरों को कष्ट व कमी भी होती है। यदि द्वादश भाव विदेश व बाएं नेत्र का प्रतीक है तो सप्तम भाव से दास-दासी व चोरी का विचार किया जाता है।
मंगल/सूर्य
संघर्ष/स्पर्धा में विजय मिले, समाज में मान प्रतिष्ठा व प्रभाव (दबदबा) बढ़े, राज सम्मान प्राप्त हो। लक्ष्मी की कृपा से धन, धान्य, वैभव विलास जनित सुख बढ़े। साहस व श्रम द्वारा धन की वृद्धि हो। कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य उच्चस्थ होकर लग्न में है तो लग्नेश मंगल दशम भाव में उच्चस्थ है। अतः आत्मबल व सत्कर्म से सुख-वैभव की वृद्धि होना सहज संभव है।
मंगल/चन्द्रमा
विविध प्रकार के धन व संपदाएं प्राप्त हों- रत्न-वस्त्र-आभूषण, पुत्र-पत्नी,भूमि भवन व वाहन का सुख मिले। शत्रु से मुक्ति मिले। शत्रु जनित भय व पीड़ा नष्ट हो जाए। कभी गुरु जन को पीड़ा तो कभी स्वयं को भी गुल्म व पित्त जन्य कष्ट हो सकता है। चंद्रमा को कालपुरुष के धन स्थान में उच्चस्थ होने से, धन प्रदाता माना जाता है। चंद्रमा काल पुरुष का मन है अतः सुख, शान्ति व धन वैभव मिलना स्वाभाविक है |

चन्द्रमा का नैसर्गिक फल

चंद्र की महादशा में जातक को युवती, स्त्रियां, धन, भूमि, पुष्प, गन्ध, वस्त्र एवं आभूषणों की प्राप्ति होती है। जातक को मंत्र, वेद तथा ब्राह्मणों में रुचि होती है। राजपक्ष से लाभ, सम्मान व पद प्राप्त होता है। जातक इधर-उधर भ्रमण में प्रेम करता है। विद्युत व चुम्बकीय प्रवाह, माता का दूध, रेलवे अधिकारी, जहाजों के कारखाने, दवाई की दुकान, पेटेंट दवाइयां, किराना की दुकानें, दूध की डेयरी, विमान, चावल, कपास, सफेद वस्त्र आदि में जातक रुचि लेता है। स्व. काटवे के अनुसार मेष, तुला, वृश्चिक और मीन राशियों में चंद्रमा के फल उत्तम होते हैं। मिथुन, सिंह एवं धनु-राशियों में साधारण फल होते हैं। वृष, कर्क, कन्या एवं मकर राशि में अशुभ फल प्राप्त होते है। वृष में अत्यन्त अशुभ फल और वृश्चिक में अत्यन्त शुभ फल प्राप्त होते है। पुरुष राशियों में चंद्रमा कुम्भ राशि में अच्छा नहीं है। स्त्री राशियों में मीन राशि में चंद्रमा अच्छा है।
यह श्री काटवे का अपना अनुभव है जो हमें ध्यान में रखना चाहिये। परन्तु महर्षि पाराशर, मन्त्रेश्वर आदि ने अवस्था के अनुसार फल कहा है। इसलिये चंद्रमा का पक्ष बल, भाव ग्रह बल, वर्गीय बल तथा अवस्था का ध्यान रखना चाहिये।
विभिन्न भावगत चन्द्रमा की दशा का फल
लग्न भाव- अग्नि तत्व राशियों में (मेष, सिंह, धनु) जातक कम बोलने वाला, कार्यकत्र्ता, कामेच्छा तीव्र, स्थिर, क्रोधी, पैसे के विषय में बेेफिक्र होता है। धनुराशि में संसार सुख कम। पृथ्वी तत्व राशियां (वृष, कन्या एवं मकर) में जातक स्वयं को बहुत बड़ा विद्वान समझता है। किन्तु सभा में जाने से डरता है। वृष राशि में संसार सुख कम मिलता है। विवाह नहीं होता, यदि हुआ तो मध्यम आयु में पत्नी की मृत्यु, स्वभाव से दुष्ट व पर स्त्रियों में आसक्त होते हैं। वायुतत्व राशियों में जातक नेता होने की इच्छा रखता है। अपना लाभ न होते हुए भी दूसरों का नुकसान करता है। स्वार्थी होते हैं। जलतत्व राशियों (कर्क, वृश्चिक व मीन) का जातक असंतुष्ट रहता है।
द्वितीय भाव- जातक को स्त्री-पुत्र और धन से सुख तथा धन का लाभ होता है। उत्तम भोजन प्राप्त होता है। रति-सुख की प्राप्ति होती है। तीर्थ यात्रा होती है।
तीसरा भाव- भाइयों का सुख, वित्त लाभ, वस्त्र-आभूषणों का लाभ, कृषि में उन्नति होती है। अच्छा भोजन प्राप्त होता है।
चतुर्थ भाव- माता की मृत्यु, भूमि, वाहन से सुख, कृषि तथा नवीन गृह का लाभ एवं प्रकाशन का कार्य होता है।
पंचम भाव- पुत्र लाभ, धन युक्त, विनीत होता है। लोगों से सम्मान प्राप्त होता है। बन्धुओं से विरोध उत्पन्न होता है।
षष्ठ भाव- जातक को दुःख, कलह, अपमान, वियोग मिलता है। अग्नि, जल, राजा से भय मूत्रकृच्छता रोग, शत्रु भय व धन नाश होता है।
सप्तम भाव- चंद्रमा की महादशा में स्त्री तथा पुत्रों से सुख तथा शैय्या सुख प्राप्त होता है।
अष्टम भाव- जातक कमजोर व रोगी होता है। जल से भय व बन्धुओं व मित्रों से विरोध होता है। विदेश यात्रा की सम्भावना होती है। माता तथा मातृपक्ष को कष्ट एवम् मृत्यु की सम्भावना भी रहती है।
नवम भाव -लोगों से सम्मान प्राप्त होते हैं। किन्तु स्वजनों से विरोध होता है। पुत्र लाभ, धन लाभ तथा धार्मिक कार्य करता है।
दशम भाव - कीर्ति, सम्मान तथा पदोन्नति होती है। धार्मिक कार्य करता है। भूमि, वस्त्र एवं वाहन सुख प्राप्त होता है।
एकादश भाव- अनेक प्रकार से वित्त लाभ, उत्तम भोजन, आभूषण, वस्त्र, वाहन सुख, कन्या लाभ एवं मन प्रसन्न रहता है।
द्वादश भाव- धन नाश तथा स्थान परिवर्तन होता है। जातक का मन दुःखी होता है।
चन्द्रमा/चन्द्रमा
पुत्री का जन्म, बहुमूल्य वस्त्र व आभूषण की प्राप्ति, ब्राह्मणों से समागम तथा माता की प्रसन्नता मिले। पत्नी का पूर्ण सुख मिले।
चन्द्रमा/मंगल
देह में पित्त कुपित हो, रक्त दोष हो। शत्रु, चोर अथवा अग्नि से भय, मन में क्लेश व दुःख। धन व मान-सम्मान की हानि हुआ करती है। यों तो मंगल, चंद्र परस्पर मित्र हैं किन्तु चंद्रमा जल तत्व व कोमल भावनाओं का प्रतिनिधि है तो मंगल उग्रस्वभाव, अग्नि तत्व व संघर्ष/स्पर्धा का प्रतीक है। अतः मंगल अपनी अन्तर्दशा में अशुभ फल ही अधिक दिया करता है। सुख पाने के लिए झगड़ना पड़ता है या सुख में व्यवधान हुआ करता है।
चन्द्रमा/राहु
मन को भयानक कष्ट व रोग हो। शत्रु वृद्धि व शत्रु जन्य पीड़ा हो। मित्र व बान्धव रोग ग्रस्त हों। प्राकृतिक (तूफान, बिजली, बाढ़) आपदाओं से क्लेश होता है, खान पान में गड़बड़ी से रोग व पीड़ा हो। चंद्रमा मन है, तो राहु प्रबल शत्रु है। अतः मन की सुख-शांति नष्ट होगी व क्लेश बढ़ेगा।
चन्द्रमा/गुरु
दया, दान तथा धर्म में प्रवृत्ति हो। राज सम्मान, मित्र समागम व वस्त्राभूषण की प्राप्ति से मन में प्रसन्नता बढ़े। चंद्रमा व गुरु के परस्पर संबंध से गज केसरी योग बनता है जो मान, प्रतिष्ठा, सुख समृद्धि, प्रसन्नता व सफलता का प्रतीक है।
चन्द्रमा/शनि
रोग जनित कष्ट व पीड़ा हो। पुत्र, मित्र व स्त्री भी रोग पीड़ा भोगें। महान विपत्ति या अनिष्ट की आशंका। चंद्रमा मन है तो शनि काल पुरुष का दुःख है। अतः मन का दुःखी, पीडि़त व अवसाद युक्त होना सहज है।
चन्द्रमा/बुध
विविध धन-संपदा (भूमि, भवन, वाहन, रत्नाभूषण) की प्राप्ति हो। मन में सुख संतोष बढ़े। सत्कार्य व ज्ञान वृद्धि में मन लगे। बुध, विद्या अध्ययन विवेक, वाणी का कारक है। अतः ज्ञान व विवेक का आश्रय लेने से सुख शांति मिलेगी। मामा के सहयोग, अनुग्रह से भी लाभ होगा।
चन्द्रमा/केतु
मन में क्षोभ व अशान्ति तथा जल से भय हो। बंधु वियोग/विरोध व धन हानि हो। दास व सेवक संबंधी कष्ट व क्लेश मिले। केतु पाप ग्रह होने से मानसिक क्लेश बढ़ाया करता है।
चन्द्रमा/शुक्र
वाहन का सुख मिले। स्त्री, धन, वस्त्राभूषण का सुख प्राप्त हो। क्रय-विक्रय (व्यापार), कृषि कर्म (उत्पादन उद्योग) से लाभ हो। पुत्र, मित्र, धन, धान्य से हर्ष हो। शुक्र कालपुरुष का धनेश व सप्तमेश है, तथा चंद्रमा मन है, चंद्रमा वृष में उच्चस्थ होता है, अतः धन प्राप्ति व स्त्री सुख होना सहज ही है।
चन्द्रमा/सूर्य
राज सम्मान मिले। पराक्रम व शौर्य का यश मिले। रोग मिटे, स्वास्थ्य लाभ हो। शत्रु पराजित हों। सुख, सौभाग्य व सफलता मिले। सूर्य पापी होने पर वात, पित्त से कष्ट तथा माता-पिता को रोग देता है। चंद्र मन व सूर्य आत्मा है तथा कालपुरुष के जन्मांग में सूर्य पंचमेश (त्रिकोणेश) होकर लग्न में उच्चस्थ है तो चंद्रमा सुखेश होकर धन भाव में है। अतः सुख-सम्मान तो मिलेगा ही। यों भी ग्रह परिषद में सूर्य राजा व चंद्रमा रानी है।

सूर्य दशा का नैसर्गिक फल

सूर्य की महादशा में विदेश यात्रा, विदेश वास, भूमि, राजद्वार, ब्राह्मण, अग्नि, शस्त्र तथा औषधि से धन हानि या प्राप्ति होती है। जातक की रुचि यन्त्र, मन्त्र में बढ़ती है। राज पुरुषों, राजनीतिज्ञों, अधिकारियों से मित्रता बढ़ती है। भाई-बन्धुओं से शत्रुता, स्त्री, पुत्र या पिता से वियोग या चिन्ता, व्यथा, नेत्र, दाँत तथा उदर में विकार, पीड़ा, गो धन, पशु धन एवं नौकरी में हानि होती है।
किन्तु लग्न, पंचम, दशम तथा व्यय भाव में स्थित रवि की दशा उत्तम होती है। अन्य स्थानों में अशुभ होती है। सूर्य की महादशा में शनि, मंगल तथा चंद्र की अन्तर्दशाएं अशुभ होती हैं। अग्नि तत्व राशियों में सूर्य का फल अत्यन्त अशुभ रहता है। मेष में अत्यन्त बुरा, सिंह में मध्यम व धनु में तुलानात्मक शुभ फल रहता है। वृष, कन्या और मकर (पृथ्वी तत्व) राशियों में स्थित सूर्य का फल मामूली मिलता है।
वायुतत्व राशियों (मिथुन, तुला एवं कुम्भ) में सूर्य का तुलनात्मक रूप से अच्छा फल मिलता है। जल तत्व राशियों (कर्क, वृश्चिक एवं मीन) में मामूली फल प्राप्त होेते हैं। हमें सूर्य के उच्च, नीच, स्वगृही, शत्रु गृही, मित्रगृही, वर्गों में स्थिति, युति, दृष्टि आदि का ध्यान रखकर सूर्य के बल का अनुमान लगा कर फल कहना चाहिए।
सूर्य/सूर्य (अवधि 0 वर्ष 3 मास 18 दिन)
राज सम्मान मिले। धन की प्राप्ति हो। वन पर्वतों पर वास हो। पित्त व ज्वर से पीड़ा, पिता का वियोग भी होना संभव है। सूर्य राजा, प्रशासन व सरकार के साथ पिता का भी कारक है। सूर्य शुभ होने पर (केन्द्र/त्रिकोण,उच्च, स्वक्षेत्री, मूलत्रिकोण, मित्र के साथ) शुभ फल देगा। सूर्य दुर्बल या दुःस्थान (षष्ठ, अष्ट, द्वादश भाव) में होने पर अनिष्ट फल देगा।
सूर्य/चंद्र (अवधि 06 मास)
शत्रु पर विजय मिले। कष्ट व परेशानियाँ मिट जाए। धन मिले। कृषि (बागवानी से लाभ। सुन्दर घर प्राप्त हो। मित्रों से समागम हो। यदि चंद्रमा पापी हो तो धन हानि, मानसिक क्लेश व जल तथा अग्नि से भय हो सकता है।
सूर्य/मंगल
रोग, पदच्युति (अवनति), शत्रु से भय व पीड़ा हो। अपने कुल के लोगों से वैर, विरोध तथा राजा से भय होता है। कभी चोट लगती है व धन हानि भी होती है। ध्यान रहे सूर्य व मंगल दोनों ही क्रूर ग्रह होने से कष्टकारी हो जाते हैं किन्तु यदि सूर्य व मंगल परस्पर (केन्द्र त्रिकोण) इष्ट राशि में हों तो निश्चय ही शुभ फल प्राप्त होगा-सर्वत्र विजय, सफलता व प्रतिष्ठा मिलेगी।
सूर्य/राहु
शत्रु सिर उठाएं, वैर विरोध बढ़े, घर में चोरी या धन की हानि हो। आपत्तियाँ/मुसीबत आये। नेत्र व सिर में पीड़ा। सांसारिक भोगों के प्रति आकर्षण व आसक्ति बढ़ेगी। सूर्य सतोगुणी ग्रह है, किंतु राहु म्लेच्छ होने के साथ सूर्य का प्रबल शत्रु व महान पापी है। जैसे राजपाट छिन जाने पर पापी शत्रु के चंगुल में फंसे एक राजा की दुर्दशा होती है कुछ वैसी ही परिस्थितियों की कल्पना विज्ञ जन कर लें।
सूर्य/गुरु
शत्रुओं का नाश हो, शत्रु दुम दबाकर भागे। बहुविध लाभ व धन की प्राप्ति होगी। देवता व ब्राह्मण की सेवा, सहायता से सुख समृद्धि मिले। गुरु व बन्धुओं से स्नेह, सत्कार मिले। गुरु पापी होने पर कान में पीड़ा अथवा कर्ण रोग तथा तपेदिक, दमा दे सकता है। गुरु श्रवण सुख है।
सूर्य/शनि
स्त्री को रोग, पुत्र वियोग, किसी गुरुजन (गुरु, पिता, चाचा, ताऊ) की मृत्यु हो सकती है। बहुत अधिक व्यय व धन की हानि होती है। शनि यों तो सूर्य का पुत्र हैं किंतु अपने पिता (सूर्य) का प्रबल शत्रु व विरोधी है। सूर्य राजा है तो शनि सेवक/दास है। वह सतोगुणी है तो शनि तमोगुणी व गंदगी पसंद है। जातक इस अवधि में मैला, कुचैला व गंदी बस्ती में रहना पसंद करता है। कभी वात पित्त जनित रोग व पीड़ा भी होती है।
सूर्य/बुध
बुध एक सौम्य ग्रह है, किंतु सूर्य क्रूर है। अतः इस अवधि में चर्म रोग, फोड़े, फुंसी, कुष्ठ, पीलिया की संभावना बढ़ती है। पेट व कमर में पीड़ा होती है। वात-पित्त-कफ जन्य रोग व पीड़ा हो सकती है।
सूर्य/केतु
मित्र से वियोग/बिछुड़ना हो। अपने सहयोगी व कुटुंबी जन से मतभेद, जन्म क्लेश हो। शत्रु से भय व धन नाश की संभावना बढ़े। सिर व पैर में दर्द या गुरु जन को रोग व पीड़ा हो। राहु सरीखा केतु भी पापी व सूर्य का प्रबल शत्रु है- इस कारण अशुभ फल अधिक मिलते हैं।
सूर्य/शुक्र
सिर में पीड़ा, पेट में रोग या बवासीर से कष्ट हो। कृषि कार्य, भूमि, भवन, अन्न, संतान सुख में कमी का अनुभव करे। स्त्री व संतान को रोग होना संभव है। शुक्र दैत्य, गुरु, रजोगुणी, भोग प्रदायक होने के साथ सूर्य का शत्रु भी है। शत्रु की अन्तर्दशा में धन नाश व स्वजन कष्ट सामान्य बात है।

ज्योतिष विद्या वरदान या अंधविश्वास



अभी तक परिचर्चा हुआ करती थीं कि विज्ञान वरदान है, या अभिशाप ? लेकिन समय के बदलते परिवेश में आज परिचर्चा का विषय भी बदला है और आजकल परिचर्चा का सबसे ज्वलंत विषय है - ज्योतिष विज्ञान है, या महज एक अंधविश्वास। यह बात इससे और भी साबित होती है कि आजकल टी.वी. चैनलों द्वारा भी बहस के लिए ऐसे मुद्दों को उठाया जा रहा है। प्रायः ज्योतिष में विश्वास न रखने वाले लोगों का कहना होता है कि जब शादी की जाती है, तो प्रायः कुंडली मिलान कर के ही शादी की जाती है। क्या कारण है कि फिर भी शादी टूट जाती है ? शायद यह प्रश्न किसी के मन भी उठ सकता है। लेकिन जब इसका कारण ढूंढने की कोशिश की जाए, तो इसका कारण बिल्कुल साफ और सरल है। माना कि ज्योतिषी कुंडली मिलान कर के यह तो बता देता है कि अमुक व्यक्ति की कुंडली अमुक लड़की से मिलती है, या नहीं; साथ ही यह भी बता दिया जाता है कि कुंडली किस हद तक मिल रही है, अर्थात उन दोनों की कुंडली में कितने गुण मिल रहे हैं तथा मांगलिक दोष है, या नहीं। इसके बावजूद शादी असफल रहने के दो कारण मुख्य हैं। सर्वप्रथम केवल कुंडली मिलान ही शादी की सफलता, या असफलता का एक नहीं हैं; बल्कि इसके अतिरिक्त यह भी कम महत्वपूर्ण नहीं कि वर-वधू की कुंडली में विवाह सफल होने का कितना प्रतिशत है। कहने का तात्पर्य यह है कि उनके सप्तम भाव कितने शक्तिशाली तथा दोषरहित हैं। इसके अलावा सप्तमेश कितना बलवान है तथा विवाह का कारक गुरु, या शुक्र की स्थिति क्या है? प्रायः जब कोई व्यक्ति किसी ज्योतिषी के पास कुंडली मिलवाने जाता है, तो वह गुण मिलान और कुडली मिलान की तो बात करता है, परंतु उसकी अन्य विधाओं को पूछने का कष्ट नहीं करता, क्योंकि आजकल मनचाहे विवाह संबंध मिलने पहले तो बड़े मुश्किल हो जाते हैं और जब मिलते हैं, तो कुंडली के कारण छोड़ने पड़ जाते हैं। फिर माता-पिता, या अन्य संबंधी परेशान हो कर सिर्फ कुंडली मिलान तक ही सीमित रह जाते हैं तथा अन्य तथ्यों को उतना महत्व नहीं देते। इस प्रकार यह एक अहम कारण है कि विवाह कुंडली मिलान के बाद भी असफल हो जाते हैं। दूसरा अहम् कारण यह भी है कि ज्योतिषी के पास जब व्यक्ति जाता है, तो कुंडली मिलान के पश्चात दूसरा काम यह करता है कि विवाह के लिए मुहूर्त निकलवाता है। अममून देखने में आता है कि ज्योतिषी से लोग मुहूत्र्त तो अच्छा से अच्छा निकलवाने की कोशिश करते हैं, परंतु जब विवाह संपन्न होने जा रहा होता है, तो इसके महत्व को नजरअंदाज करके अन्य कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। जैसे कि उधर तो पंडित जी विवाह के मुहूर्त को ध्यान में रख कर पूजा इत्यादि की तैयारी कर रहे होते हैं, तो दूसरी तरफ लड़के वाले या तो नाच-गाने में व्यस्त होते हैं, खाना खाने में व्यस्त होते हैं या लड़की वाले फोटो इत्यादि खिंचवाने में व्यस्त होते हैं। अंततः विवाह शुभ मुहूत्र्त में संपन्न हो ही नहीं पाता है। इस कारण अच्छा से अच्छा किया हुआ कुडली मिलान तथा शुभ मुहूत्र्त धरे के धरे रह जाते हैं तथा इस प्रकार ज्योतिष में विश्वास न रखने वालों को कहने का अवसर मिल जाता है कि कुंडली मिलान के पश्चात भी विवाह असफल हो जाता है, या शादी टूट जाती है। इस प्रकार यह सत्यापित होता हैै कि दोष ज्योतिष में नहीं शायद हम में ही कहीं होता है। कुछ लोग कहते हैं कि ज्योतिष विज्ञान नहीं, सिर्फ कला है। इसका विज्ञान से कोई संबंध नहीं । ऐसा कथन शायद उन ही लोगोें का हो सकता है जिन लोगों ने न तो ज्योतिष को कभी पढ़ा है, न उसमें छिपे हुए तथ्यों को समझने का प्रयास किया है और न ही कभी इस विषय पर शोध किया है। वरना कोई भी व्यक्ति किसी भी विषय का अध्ययन किये बिना कैसे कह सकता है कि उक्त विषय विज्ञान है, या कला। सिर्फ बहस और मुद्दों के आधार पर यह तय नहीं किया जा सकता है कि अमुक विषय विज्ञान का है, या नहीं। इसलिए किसी विषय के बारे में राय बनाने से पहले यह आवश्यक है कि उस विषय का गहनता से अध्ययन किया जाये, सर्वेक्षण कर के शोध किया जाए तथा इन सब तथ्यों के आधार पर ही यह निश्चय किया जाए कि ज्योतिष विज्ञान है, या नहीं। इस संबंध में अगला तर्क यह है कि जो विषय, या वस्तु सत्य है वही विषय, या वस्तु लंबे समय तक जीवित रह सकते हंै, अन्यथा वह या तो संशोधित हो जाते हैं, या उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। आज सभी जानते हैं कि यह विषय कोई सौ, या दो सौ साल पुराना विषय नहीं हैं। जबसे मनुष्य इस पृथ्वी पर आया तबसे मनुष्य ने सूर्य, चंद्रमा और मंगल ग्रह के बारे में जानने की कोशिश की और उसी समय से इन ग्रहों का मनुष्य पर प्रभाव का अध्ययन किया जाता रहा है और आज भी वही अध्ययन ज्योतिष केे अंतर्गत कर रहे हैं। यदि यह अध्ययन और निष्कर्ष गलत होते, या औचित्यरहित होते, तो इन अध्ययनों और निष्कर्षों की समाप्ति हो चुकी होती, या संशोधित हो चुके होते। यदि उन्हीं निष्कर्षेां और अध्ययनों को आज भी सत्य माना जा रहा है, तो इसका यही तात्पर्य है कि वे निष्कर्ष और तथ्य सही हैं। यदि कोई ज्योतिषी फलित करने में असफल होता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ज्योतिष विज्ञान नहीं है और महज एक अंधविश्वास है, या ज्योतिष सिर्फ मनोरंजन का विषय है, या कला के समान है; बल्कि इसका तात्पर्य यह होता है कि या तो ज्योतिषी के अध्ययन, या विवेचन में कहीं कमी है, या इस ज्योतिष में और शोध की आवश्यकता है। यदि किसी ज्योतिषी के फलादेश में गलती के कारण ज्योतिष को गलत कहा जा सकता है, तो हमारे चिकित्सा विज्ञान को तो सदैव ही गलत कहा जा सकता है। क्यों एक डाॅक्टर अपने मरीज को मौत के मुंह में जाने से नहीं बचा पाता है? यदि नहीं बचा पाया, तो इसका मतलब तो यह हो जाना चाहिए था कि चिकित्सा विज्ञान गलत है, जबकि ऐसा नहीं है। इसका तात्पर्य यह होता है कि उस डाॅक्टर में कहीं कमी थी, जो वह उस व्यक्ति को नहीं बचा सका, न कि चिकित्सा विज्ञान में कमी थी, या दूसरा कारण यह कह सकते हैं कि ज्योतिष के अनुसार उस व्यक्ति की आयु ही उतनी थी, जिसको आज का विज्ञान बचा नहीं पाया। यदि विज्ञान से ही सब कुछ संभव है, तो क्यों विज्ञान मनुष्य को मृत्यु जैसे अटल सत्य से बचा सकता नहीं है? क्यों हमारा मौसम विभाग सही भविष्यवाणियां नहीं कर पाता है, जबकि उसके पास आज उपग्रह जैसे अत्याधुनिक उपकरण भी उपलब्ध हैं? क्यों विज्ञान नहीं बता पाता कि भूकंप कब आएगा और कहां, जबकि हमारे ज्योतिष शास्त्र की मेदिनीय शाखा में कहा गया है कि जब शनि रोहिणी नक्षत्र में आता है, तो भूकंप जैसी विनाशलीला होती है, पृथ्वी पर हड़कंप जैसी गतितिवधियां होती हैं, जैसे बाढ़ आना, तूफान आना आदि? इसके अतिरिक्त ज्योतिष में ही घाघ-भड्डरी की कहावतें भी वर्षा होने, या सूखा पड़ने की संभावनाओं को बताता है, जो आज हमारे मौसम विभाग की भविष्यवाणियों से कहीं अधिक सत्य साबित होती हैं। उदाहरणार्थ: आगे मंगल पीछे भान, वर्षा होत ओस समान अर्थात्, यदि सूर्य मंगल के साथ एक ही राशि में हो, परंतु मंगल के अंश सूर्य से कम हों, तो वर्षा ओस के समान, अर्थात बहुत कम होती है। अन्य जेहि मास पड़े दो ग्रहणा, राजा मरे, या सेना अर्थात् जिस मास में दो ग्रहण पड़ें, उस महीने में या तो राजा की मृत्यु होती है, या आम जनता की हानि होती है। यदि विज्ञान से ही सब कुछ संभव हो सकता है तो ज्योतिष में विश्वास न रखने वाले लोग क्यों अपने बच्चों की शादी के समय मुहूत्र्त निकलवाने के लिए ज्योतिषियों के पास ही जाते हैं? क्यों वे अपने बच्चों का विवाह पितृ पक्ष, या श्राद्ध के दिनों में नहीं कर देते? कुछ लोग कहते हैं कि यदि भाग्य ही सब कुछ है, तो कार्य करने की क्या आवश्यकता है? यह शायद उन लोगों का कहना है, जो बिना पुरुषार्थ के भाग्य के भरोसे रह कर ही सब कुछ अर्जित करना चाहते हैं। यहां एक बात स्पष्ट करने योग्य यह है कि भाग्य आपको बैठे-बिठाए कुछ नहीं देने वाला है। भाग्य सिर्फ आपको कुछ दिलाने में सहायता करता है। भाग्य आपको अपने पूर्वजन्मों के फलों के कारण मिलता है। क्या कारण है कि एम.बी.ए., एम.सी.ए. या सी. ए. जैसी उपाधियां तो ले लेते हैं, परंतु सफल जीवन तो कुछ लोग ही जी पाते हैं? अर्थात उन्होंने अपने पुरुषार्थ से डिग्री तो ले ली, परंतु भाग्य की कमी से, समान डिग्री होने के बावजूद, समान सुख तथा जीवन की सफलता प्राप्त नहीं कर सके। इस संबंध को यदि नीचे लिखे सूत्र से समझने की कोशिश की जाए, तो शायद अच्छी प्रकार समझा जा सकता है: परिणाम = कर्म ग भाग्य गणित के नियमानुसार यदि इन दोनों में से एक भी वस्तु शून्य है, तो उसका परिणाम शून्य ही होगा। यदि हमारा कर्म शून्य होगा, तो भाग्य भले ही कितना ही अच्छा तथा उच्च क्यों न हो, उपलब्धि शून्य ही होगी। इसी प्रकार यदि भाग्य शून्य होगा और कर्म कितने भी पुरुषार्थ भरे क्यों न हों, उपलब्धि शून्य ही होगी। अब हम यहां भाग्य तो पूर्व जन्म के कारण ले कर आये हैं, जिसको परिवर्तित नहीं किया जा सकता; अर्थात हम सिर्फ किये हुए कर्मों को ही परिवर्तित कर सकते हैं। अतः हमें अधिक से अधिक उपलब्धि के लिए ज्यादा से ज्यादा और सही दिशा में पुरुषार्थ करना चाहिए, न कि कर्महीन हो कर, भाग्य पर आश्रित हो कर, फल की इच्छा करनी चाहिए। आज ज्योतिष को अन्य विषयों के समान विज्ञान की उपाधि न मिलने का कारण और भी हैं, जैसे ज्योतिष जैसा विषय का अध्ययन सर्वप्रथम हमारे ऋषि और पूर्वजों के द्वारा किया गया और ये ऋषि-मुनि किसी स्कूल, काॅलेज, या विश्वविद्यालयों में न तो शिक्षा प्राप्त करते थे और न ही शिक्षा देते थे। यह अध्ययन सिर्फ गुरु-शिष्य परिपाटी से किया जाता रहा है। इस विषय का उद्भव एवं विकास हमारे भारत देश में ही हुआ है और इतिहास गवाह है कि हमारा देश काफी समय तक गुलामी में रहा है- पहले मुस्लिम राजाओं की गुलामी में और उसके पश्चात अग्रेज शासकों की गुलामी में। इसके उपरांत आज जब हम स्वतंत्र हैं, तो यह ज्ञान हमारे चारों ओर फैल पाया है और इस ज्ञान के प्रति जागरूक हो पायें हैं। आज जब लोग इस विषय को स्कूल, काॅलेजों, या विश्वविद्याालयों में पढ़ाये जाने की बात सार्वजनिक तौर पर करते हैं, तो तर्क-वितर्क द्वारा उसे पढ़ाये जाने का विरोध करने लगते हैं, क्योंकि उन लोगों ने इसको पढ़ा तथा समझा नहीं है, जबकि अमेरिका जैसे देशों में लोग ज्योतिष को जानने और समझने लगे हैं तथा इसके पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता महसूस करते हैं। इंटरनेट पर बनने वाली अधिकतर साइटें ज्योतिष को ही अपना विषय बनाती हैं तथा सबसे अधिक ख्याति प्राप्त करती हैं। अंततः निष्कर्ष यही है कि आज इस ज्योतिष को महज कुछ चंद्र लोगों तक सीमित न छोड़ कर इस विषय को सार्वजनिक रूप से अध्ययन और शोध का विषय बनाया जाना चाहिए तथा इस विषय पर गंभीरतापूर्वक अध्ययन कर के नये शोध और परिणामों को प्राप्त करना चाहिए एवं इसके पश्चात ही निर्णय देना चाहिए कि ज्योतिष एक विज्ञान है, या महज अंध विश्वास।

साप्ताहिक श्रेष्ठ मुहूर्त



सर्वाधिक प्रचलित शुभ मुहूर्त्तो में रवि योग, सर्वार्थ सिद्धि योग, अमृत सिद्धि योग, द्विपुष्कर योग, त्रिपुष्कर योग, शुभ योग मुहूर्त की श्रेणी में आते हैं तो भद्रा तिथि, पंचक, विषयोग, उत्पात योग, हुताशन योग, अशुभ मुहूर्त की श्रेणी में आते हैं मगर कुछ कार्यों के लिए इन मुहूर्तों का चयन कर सफलता प्राप्त की जा सकती है। किस कार्य हेतु कौन सा मुहूर्त सर्वार्थ सिद्धि योग : विशेषवार को यदि नक्षत्र-विशेष का संयोग बनता है तो सर्वार्थ सिद्धि का सृजन होता है जिसमें प्रायः सभी कार्य सफल होते हैं। रविवार : मूल, तीनों उत्तरा, अश्विनी, हस्त, पुष्य नक्षत्र। सोमवार : श्रवण, अनुराधा, रोहिणी, पुष्य व मृगशिरा नक्षत्र मंगलवार : उत्तराभाद्रपद, कृतिका अश्विनी, आश्लेषा। बुधवार : हस्त, अनुराधा, कृतिका, रोहिणी, मृगशिरा। शुक्रवार : पुनर्वसु अनुराधा, रेवती अश्विनी, श्रवण। शनिवार : रोहिणी, श्रवण स्वाती। पंचक नक्षत्रों में पांचगुना, त्रिपुष्कर योग में तीन गुना तथा द्विपुष्कर योग में दो गुना लाभ या हानि होती है। अतः आवश्यक है कि अपनी राशि क अनुसार चंद्रमा का बलाबल देखकर इन योगों के शुभ मुहूर्त्तों का लाभ उठायें। व्यापार, विवाह, यात्रा, क्रय-विक्रय, गृह प्रवेश, प्रसूति का स्नान, विद्यारंभ, कूप उत्खनन आदि मुहूर्तों में उत्पात योग पर विशेष ध्यान रखना चाहिए। संक्रांति योग में भी शुभ कार्य नहीं करना चाहिए। अभिजित मुहूर्त में दक्षिण दिशा की यात्रा भी वर्जित है। प्राचीन काल में अभिजित मुहूर्त की गणना सूर्य की रोशनी से पड़ने वाली छाया के आधार पर की जाती थी। अभिजित मुहूर्त के समय छाया पूर्व या पश्चिम दिशा में नहीं पड़ती है। अभिजित मुहूर्त से भी अधिक शुभ श्रेष्ठ और सरलता से प्राप्त होने वाले लाभ होरा मुहूर्त अत्यंत श्रेष्ठ और महत्वपूर्ण है। प्रतिदिन वार के क्रम से चलने वाला होरा मुहूर्त एक घंटे का होता है। सूर्य की होरा का मुहूर्त राजकीय कार्य के संदर्भ में, चंद्र की होरा सर्वकार्य सिद्धि के लिए, मंगल मुकदमा दायर करने व वाद-विवाद के लिए तथा दवाई ग्रहण के लिए, बुध की होरा ज्ञान प्राप्ति, गुरु की होरा विवाह, सगाई बातचीत हेतु तथा शुक्र की होरा यात्रा के लिए शुभ, तो शनि की होरा द्रव्य, संचय विनियोग तथा स्थायी संपत्ति के क्रय हेतु प्रयोग में लानी चाहिए। अपनी राशि के स्वामी ग्रह के शत्रु ग्रहों की होरा मुहूर्त में यात्रा, विवाह आदि नहीं करना चाहिए।

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Saturday, 30 April 2016

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Tuesday, 26 April 2016

देश काल और पात्र अनुसार आराध्य देवी देवताओं का चयन

व्याधिं मृत्यं भय चैव पूजिता नाशयिष्यसि। सोऽह राज्यात् परिभृष्ट: शरणं त्वां प्रपन्नवान।।
प्रण्तश्च यथा मूर्धा तव देवि सुरेश्वरि। त्राहि मां पऽपत्राक्षि सत्ये सत्या भवस्य न:।।
तुम पूजित होने पर व्याधि, मृत्यु और संपूर्ण भयों का नाश करती हो। मैं राज्य से भृष्ट हूं इसलिए तुम्हारी शरण में आया हूं। कमलदल के समान नेत्रों वाली देवी मैं तुम्हारे चरणों में नतमस्तक होकर प्रणाम करता हूं। मेरी रक्षा करो। हमारे लिए सत्यस्वरूपा बनो। शरणागतों की रक्षा करने वाली भक्तवत्सले मुझे शरण दो।
महाभारत युद्ध आरंभ होने के पूर्व भगवान श्रीकृष्ण ने पांडवों को यह स्तुति की सलाह देते हुए कहा ‘‘तुम शत्रुओं को पराजित करने के लिए रणाभिमुख होकर पवित्र भाव से दुर्गा का स्मरण करो।’’ अपने राज्य से भृष्ट पाण्डवों द्वारा की गई यह स्तुति वेद व्यास कृत महाभारत में है। महर्षि वेद व्यास का कथन है ‘‘जो मनुष्य सुबह इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसे यक्ष, राक्षस, पिशाच भयभीत नहींं करते, वह आरोग्य और बलवान होकर सौ वर्ष तक जीवित रहता है। संग्राम में सदा विजयी होता है और लक्ष्मी प्राप्त करता है।’’ महाज्ञानी और श्रीकृष्ण के परम भक्त पाण्डवों ने यह स्तुति मां दुर्गा को श्रीकृष्ण की बहन के रूप में ही संबोधित करके आरंभ की। ‘‘यशोदागर्भ सम्भूतां नारायणवर प्रियाम्। वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमाल्य विभूषिताम्।। इसी प्रकार बहुत से स्तोत्र एवं स्तुतियां ग्रंथों में मिलती हैं, जो भिन्न-भिन्न देवी देवताओं की होने पर भी लगभग एक सा ही फल देने वाली मानी गई है। जैसे कि शत्रुओं पर विजय, भय, रोग, दरिद्रता का नाश, लंबी आयु, लक्ष्मी प्राप्ति आदि। एक ही देवी-देवता की भी अलग-अलग स्तुतियां यही फल देने वाली कही गई हैं। उदाहरणतया रणभूमि में थककर खड़े श्री राम को अगस्त्य मुनि ने भगवान सूर्य की पूजा आदित्य स्तोत्र से करने को कहा ताकि वे रावण पर विजय पा सकें। पाण्डव तथा श्रीराम दोनों ही रणभूमि में शत्रुओं के सामने खड़े थे, दोनों का उद्देश्य एक ही था। श्रीराम त्रेता युग में थे और आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करने के पश्चात रावण पर विजयी हुए। इस प्रकार युद्ध में विजय दिलाने वाला आदित्य हृदय स्तोत्र तो एक सिद्ध एवं वेध उपाय था, तब श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को दुर्गा स्तुति की जगह इसका पाठ करने की सलाह क्यों नहींं दी? ऐसी स्थिति में उचित निर्णय लेने के लिए हमारे शास्त्रों में अनेक सिद्धांत दिये हें जैसे देश, काल व पात्र को भी ध्यान में रखकर निर्णय लेना। उपासक को किस देवी देवता की पूजा करनी है, यह इस प्रकार एक श्लोक के भावार्थ से स्पष्ट होता है। अर्थात् आकाश तत्व के स्वामी विष्णु, अग्नि तत्व की महेश्वरि, वायु तत्व के सूर्य, पृथ्वी तत्व के शिव तथा जल तत्व के स्वामी गणेश हैं।
योग पारंगत गुरुओं को चाहिये कि वे प्रकृति एवं प्रवृत्ति की तत्वानुसार परीक्षा कर शिष्यों के उपासना अधिकार अर्थात किस देवी देवता की पूजा की जाये का निर्णय करें। यहां उपासक की प्रकृति एवं प्रवृत्ति को महत्व दिया गया है। अभिप्राय यह है कि किस देवी-देवता की किस प्रकार से स्तुति की जाये। इसका निर्णय समस्या के स्वभाव, देश, समय तथा उपासक की प्रकृति, प्रवृत्ति, आचरण, स्वभाव इत्यादि को ध्यान में रखकर करना चाहिये। जैसे अहिंसा पुजारी महात्मा गांधी तन्मयता से ‘‘वैष्णव जन को’’ तथा ‘‘रघुपति राघव राजा राम’’ गाते थे। चंबल के डाकू काली और भैरों की पूजा पाठ करते आये हैं। भिन्न प्रकृति, प्रवृत्ति व स्वभाव के अनुसार इष्टदेव का चुनाव भी अलग-अलग तत्व के अधिपति देवी-देवताओं का हुआ। यह कैसे जाने कि उपासक में किस तत्व की प्रवृत्ति एवं प्रकृति है?
यहां भी हम वास्तुशास्त्र की सहायता ले सकते हैं। वास्तुशास्त्र में दिशाओं को विशेष स्थान प्राप्त है जो इस विज्ञान का आधार है। यह दिशाएं प्राकृतिक ऊर्जा और ब्रह्माड में व्याप्त रहस्यमयी ऊर्जा को संचालित करती हैं, जो राजा को रंक और रंक को राजा बनाने की शक्ति रखती है। इस शास्त्र के अनुसार प्रत्येक दिशा में अलग-अलग तत्व संचालित होते हैं, और उनका प्रतिनिधित्व भी अलग-अलग देवताओं द्वारा होता है। वह इस प्रकार है। उत्तर दिशा के देवता कुबेर हैं, जिन्हें धन का स्वामी कहा जाता है और सोम को स्वास्थ्य का स्वामी कहा जाता है, जिससे आर्थिक मामले और वैवाहिक व यौन संबंध तथा स्वास्थ्य प्रभावित करता है। उत्तर पूर्व (ईशान कोण) के देवता सूर्य हैं जिन्हें रोशनी और ऊर्जा तथा प्राण शक्ति का मालिक कहा जाता है। इससे जागरूकता और बुद्धि तथा ज्ञान प्रभावित होते हैं। पूर्व दिशा के देवता इन्द्र हैं, जिन्हें देवराज कहा जाता है। वैसे आमतौर पर सूर्य को ही इस दिशा का स्वामी माना जाता है जो प्रत्यक्ष रूप से संपूर्ण विश्व को रोशनी और ऊर्जा दे रहे हैं। लेकिन वास्तु अनुसार इसका प्रतिनिधित्व देवराज करते हैं जिससे सुख संतोष तथा आत्म विश्वास प्रभावित होता है। दक्षिण पूर्व (आग्नेय कोण) के देवता अग्निदेव हैं, जो अग्नि तत्व का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिससे पाचन शक्ति तथा धन और स्वास्थ्य मामले प्रभावित होते हैं। दक्षिण दिशा के देवता यमराज हैं, जो मृत्यु देने के कार्य को अंजाम देते हैं, जिन्हे धर्मराज भी कहा जाता है। इनकी प्रसन्नता से धन, सफलता, खुशियां व शांति प्राप्ति होती है। दक्षिण-पश्चिम दिशा के देवता निरती हैं, जिन्हें दैत्यों का स्वामी कहा जाता है, जिससे आत्म शुद्धता और रिश्तों में सहयोग तथा मजबूती एवं आयु प्रभावित होती है। पश्चिम दिशा के देवता वरूण देव हैं, जिन्हें जल तत्व का स्वामी कहा जाता है, जो अखिल विश्व में वर्षा करने और रोकने का कार्य संचालित करते हैं, जिससे सौभाग्य, समृद्धि एवं पारिवारिक ऐश्वर्य तथा संतान प्रभावित होती है। उत्तर पश्चिम के देवता पवन देव हैं, जो हवा के स्वामी हैं, जिससे संपूर्ण विश्व में वायु तत्व संचालित होता है। यह दिशा विवेक और जिम्मेदारी, योग्यता, योजनाओं एवं बच्चों को प्रभावित करती है। इस प्रकार यह ज्ञात होता है कि वास्तुशास्त्र में जो दिशा निर्धारण किया गया है, वह प्रत्येक पंच तत्वों के संचालन में अहम भूमिका निभाते हैं। जिन पंच तत्वों का यह मानव का पुतला बना हुआ है, अगर वह दिशाओं के अनुकूल रहे तो यह दिशायें आपको रंक से राजा बनाकर जीवन में रस रंगों को भर देती हैं। अत: वास्तु शास्त्र में पांच तत्वों की पूर्ण महत्व दिया है, जैसे घर के ब्रह्मस्थान का स्वामी है, आकाश तत्व, पूर्व दक्षिण का स्वामी अग्नि, दक्षिण-पश्चिम का पृथ्वी, उत्तर-पश्चिम का वायु तथा उत्तर पूर्व का अधिपति हैं, जल तत्व। अपने घर का विधिपूर्वक परीक्षण करके यह जाना जा सकता है कि यहां रहने वाले परिवार के सदस्य किस तत्व से कितना प्रभावित हैं, ग्रह स्वामी तथा अन्य सदस्यों को किस तत्व से सहयोग मिल रहा है तथा कौन सा तत्व निर्बल है। यह भी मालूम किया जा सकता है कि किस सदस्य की प्रकृति व प्रवृत्ति किस प्रकार की है। अंत में यह निर्णय लेना चाहिये कि किस सदस्य को किसकी पूजा करने से अधिक फलीभूत होगी। किस अवसर या समस्या के लिए किस पूजा का अनुष्ठान किया जाये यह भी वास्तु परीक्षण करके मालूम किया जा सकता है।

ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील : शनि



शनि को ब्रह्माण्ड का बैलेंस व्हील माना जाता है अर्थात् शनि सृष्टि के संतुलन चक्र का नियामक है। क्योंकि बैलेंस शनि का मुख्य गुण है इसलिए यह बैलेंस की कारक राशि तुला में अतिप्रसन्न अर्थात् उच्चराशिस्थ होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में अधिक संतुलन, सुरक्षा व स्थिरता अर्थात् जॉब सैक्यूरिटी आदि देने में समर्थ होते हैं। इसे न्याय का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि यह मनुष्य को उसकी गलतियों और पाप कर्मों के लिए दण्डित करके मानवता की रक्षा करता है और सृष्टि में संतुलन स्थापित करने की प्रक्रिया को स्थिरता पूर्वक गति देता रहता है। यदि जातक की जन्मकुंडली में करियर के उच्चतम शिखर पर पहुंचने के सभी शुभ योग विद्यमान हों तो यह सही है कि जातक अपने करियर में ऊंचा उठेगा लेकिन उन्नति प्राप्त होने का उसका मार्ग सरल होगा या कठिनाइयों से भरा हुआ होगा इसका सूक्ष्म विष्लेषण करने हेतु कुंडली में शनि की स्थिति का अध्ययन करना होगा। यदि कुंडली में शनि की स्थिति उत्तम हो, यह 3, 6, 10 या 11वें भाव में स्थित हो, नीचराषिस्थ व पीडि़त न हो तो आसानी से सफलता मिलेगी। नीचराषिस्थ होने की स्थिति में पूर्ण नीचभंग हो रहा हो तो भी सफलता मिल सकती है। परंतु यदि शनि का नीचभंग नहींं हुआ या शनि शत्रुराषिस्थ व पीडि़त होकर अशुभ भाव में स्थित हुआ तो जातक की सफलता पर प्रश्न चिह्न लग जाएगा तथा विशेष योग्यता संपन्न होने के बावजूद भी उसे जीवन में कठिनाइयों व संघर्ष से जूझना पड़ेगा तथा वह साधारण जीवन जीने के लिए मजबूर हो जाएगा। शनि हमें यथार्थवादी बनाकर हमारी वास्तविक शक्तियों व योग्यताओं से अवगत करवाता है तथा हमें एकान्तप्रिय होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर करवाता है। कालपुरुष के अनुसार शनि को व्यवसाय के कारक दशम भाव का स्वामी माना जाता है। हमारे जीवन में स्थिरता व संतुलन का विचार दशम भाव से भी किया जाता है क्योंकि दशम भाव व्यवसाय का घर होता है और जितना हम व्यावसायिक स्तर पर सफल होते हैं उतनी ही श्रेष्ठ सफलता हमें जीवन के दूसरे क्षेत्रों में भी प्राप्त होती है। निष्कर्षत: हम कह सकते हैं संतुलन अर्थात् बैलेंस के कारक शनि की राशि का व्यवसाय के भाव में होना उचित ही है। ग्रहों में शनि को सर्वाधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। यदि यह ग्रह बलवान होकर शुभ भाव में स्थित हो तो सफलता जातक के कदम चूमती है। शनि की विशेष उत्तम स्थिति से जातक को बहुत से नौकर-चाकर, उच्च पद्वी, सत्ता व धन सम्पदा आदि सभी कुछ प्राप्त हो जाता है। शनि को सत्ता का कारक इसलिए माना जाता है क्योंकि राजनीति, कूटनीति, मंत्रीपद सभी इसी के इर्द-गिर्द घूमते हैं। यदि कुंडली में शनि लग्न में बैठा हो तो यह कालपुरुष की दशम राशि मकर को दशम दृष्टि से देखकर न केवल व्यावसायिक जीवन में सफलता की गारंटी देता है अपितु अपनी लग्नस्थ स्थिति के कारण जातक को कुशल विचारक व योजनाबद्ध तरीके से कार्य करने की योग्यता भी देता है। बड़े-बड़े राजनीतिज्ञों, व्यापारियों, वैज्ञानिकों, तांत्रिकों व ज्योतिषियों की कुंडली में शनि की इस प्रकार की स्थिति देखी जा सकती है। यदि लग्नस्थ शनि नीच का भी हो तो भी व्यावसायिक जीवन में स्थिरता व अधिकार प्राप्ति का कारक बनता है क्योंकि वह दशम दृष्टि से अपनी राशि को देखता है और कालपुरुष के अनुसार भी दशम भाव में इसकी मकर राशि ही होती है जिसे व्यवसाय की कारक राशि माना जाता है। लग्नस्थ शनि सभी लग्नों के लिए श्रेष्ठ है यद्यपि चर लग्न के लिए शनि की लग्नस्थ स्थिति अधिक उत्तम मानी जाएगी क्योंकि चर लग्नों के जातकों में शीघ्र निर्णय लेने की क्षमता होती है जबकि शनि का गुण धैर्य व स्थिरितापूर्वक एकाग्रचित्त होकर कार्य सम्पादन करना है। इसलिए इन दोनों गुणों का सम्मिश्रण जातक को श्रेष्ठस्तरीय सफलता का सूत्र व मार्ग स्पष्ट कर देता है। यदि कर्क लग्न के शनि का विचार करें तो यह सामान्य रूप से प्रबल अकारक होता है लेकिन शुभ भाव लग्न में बैठकर यह न केवल अष्टमेश का शुभ फल देकर दीर्घायु बनाता है अपितु जातक को रिसर्च ओरिएंटड, गुप्त व कूटनीतिक योग्यताओं से सम्पन्न भी कर देता है। कर्क लग्न की अपनी यह विशेषता होती है कि इससे प्रभावित जातकों का शरीर, मन और आत्मा एकात्म समन्वित होते हैं। लग्न से शरीर व आत्मा का विचार तो होता ही है साथ ही मन की राशि कर्क के लग्न में आ जाने से चंद्रमा का प्रभाव भी लग्न में आ जाएगा क्योंकि यह लग्नेश होगा इसलिए ऐसी कुंडली में लग्नस्थ शनि शरीर, मन व आत्मा तीनों को प्रभावित करेगा अर्थात् मानव को सर्वाधिक प्रभावित करने वाले ग्रह शनि का प्रभाव आपके जीवन के हर पक्ष पर सीधे रूप से पड़ेगा और फलस्वरूप आप सर्वाधिक सफलता प्राप्त करने में सक्षम होंगे तथा राजनीति के गलियारों में आपकी कुशलता का विशेष डंका बजेगा। तुला लग्न की पत्री में लग्नस्थ शनि उच्चराशिस्थ होकर चतुर्थेश व पंचमेश होकर आपको शश योग से समन्वित करके परम भाग्यशाली बना देगा तथा जीवन के हर क्षेत्र में आप सफल होंगे। ऐसा भी संभव है कि आप योग, अध्यात्म, वैराग्य, दर्शन, त्याग आदि की कठिनतम रहस्यमयी आध्यात्मिक दुनिया में प्रवेश करके संसार को चमत्कृत कर दें अथवा कोई बड़े वैज्ञानिक बनें। मकर राशि की कुंडली में लग्नेश शनि अपार धन सम्पदा से सम्पन्न बड़ा व्यापारी तो बना ही देगा साथ ही आपकी एकाग्रचित्त होकर निरंतर अपने लक्ष्य की ओर बढऩे की प्रवृत्ति को भी सुदृढ़ करेगा। अधिकतर ऐसा देखा गया है कि दशम भावस्थ शनि चाहे किसी भी राशि का हो, जातक के जीवन में व्यावसायिक स्थिरता बनी रहती है। यदि ऐसा शनि नीच का हो तो भी जातक का कार्य चलता रहता है। नीच राशि का शनि अक्सर ज्योतिष कार्यों से या अन्य परामर्श संबंधी कार्यों से लाभान्वित कराता है। शनि का दशम भाव से संबंध होने से लोहे का व्यापार तथा तिल, तेल, खनिज पदार्थ, पेट्रोल, शराब आदि के क्रय-विक्रय से, ठेकेदारी से, दण्डाधिकारी, सरपंच अथवा मंत्री पद आदि से लाभान्वित करवा सकता है। जब शनि गोचर में उच्चराशिस्थ होता है तो समाज, देश व संसार में जगह-जगह पर न्याय व्यवस्था के समुचित रूप से स्थापित किए जाने की आवाजें उठने लगती हैं। ऐसा 30 वर्ष में एक बार होता है और ऐसे में शनि समाज में फैली अव्यवस्थाओं और अन्याय को नियंत्रित करता ही है। मानव के स्वभाव, भाग्य व जीवन चक्र का नियमन चंद्र की गति, नक्षत्र व चंद्र पर अन्य ग्रहों के प्रभाव द्वारा होता है इसलिए जातक की मानसिकता, मन: स्थिति, ग्रह दशा के क्रम व गोचर का विचार भी चंद्रमा को केंद्र में रखकर ही किया जाता है। कुंडली में सत्ता की प्राप्ति के प्रबल कारक शनि का गोचर में चंद्रमा के निकट आना जीवन में जिम्मेदारियों के बढऩे तथा सत्ता प्राप्ति का सबब बनते देखा गया है। इसे साढ़ेसाती भी कहते हैं। कुंडली में शनि की खराब स्थिति तथा साढ़ेसाती में अशुभ भाव व राशि में वक्री या अस्त होकर गोचर करना करियर में जबर्दस्त नुकसान देता है, नौकरी छूट जाती है, राजनीति में हार तथा व्यापार में हानि उठानी पड़ती है। वहीं कुंडली में शनि की शुभ स्थिति हो तथा अच्छे राजयोग बन रहे हों तो ऐसे में साढ़ेसाती के समय शनि का शुभ भाव व राशि में गोचर करियर में श्रेष्ठतम सफलता प्रदान करता है। जितनी श्रेष्ठ कुंडली होगी उतनी ही ऊंची सफलता सुनिश्चित हो जाएगी। श्रेष्ठतम कुंडली में शुभ साढ़ेसाती सत्ता का सुख देती है। चाहे ग्रह योग व साढ़ेसाती का सूक्ष्म निरीक्षण कितना ही शुभ फलदायी प्रतीत होता हो परंतु जातक को साढ़ेसाती के समय व्यापार में जोखिम नहींं उठाना चाहिए। शनि की साढ़ेसाती आपको अपने व्यवसाय के बारे में सूक्ष्म रूप से यथार्थवादी दृष्टिकोण अपनाने के लिए प्रेरित करती है साथ ही आपको जोखिम उठाने के लिए मना करती है। आपके लिए ऐसी कठिनाइयां भी उत्पन्न करती है जिससे आप अपनी गलतियों से सीखें। यह तकलीफें देकर आपको न केवल एक अच्छा इंसान बना देती है अपितु करियर को भी समुचित दिशा प्रदान करती है। जब कुंडली में शनि की स्थिति श्रेष्ठ हो, धन व लाभ भाव के स्वामी विशेष बली हों तथा गुरु व बुध भी उत्तम स्थिति में हों और गोचरस्थ शनि चंद्रमा से तृतीय, षष्ठ व एकादश भावों में शुभ राशि व शुभ ग्रहों के ऊपर से गोचर कर रहा हो तो वह समय व्यापारिक क्षेत्र में उन्नति के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। इस समय यदि शुभ भावों में स्थित ग्रह की दशा भी चल रही हो तो जोखिम भी उठाए जा सकते हैं क्योंकि सफलता तय है। जिस समय दशम भाव, दशमेश व दशम के कारक पर शनि व गुरु दोनों का गोचरीय प्रभाव आ रहा हो और यह गोचर चंद्रमा से शुभ हो व शुभ राशि में भी हो तो करियर में उन्नति निश्चित रूप से होती है। यदि शनि मेष या वृश्चिक राशि में हो या मंगल से दृष्ट हो तो जातक मशीनरी, फैक्ट्री, धातु, इंजीनियरिंग, इंटीरियर या बिजली संबंधी कार्यों, केंद्रीय सरकार, कृषि विभाग, खान, खनिज या वास्तुकला विभाग में कार्य करता है। यदि इस ग्रह योग पर गुरु व शुक्र का भी प्रभाव हो तो ऐसा जातक न केवल धन लाभ अर्जित करता है अपितु उसे भूमि व संपत्ति का लाभ भी प्राप्त होता है। यदि शनि वृष या तुला राशि में हो अथवा इस पर शुक्र की दृष्टि हो तो कला, प्रबंधन, कम्प्यूटर के व्यवसाय से लाभ उठाता है। यदि गुरु व बुध का शुभ प्रभाव भी इस ग्रह योग पर पड़ता हो तो कानूनविद्, वकील, न्यायाधीश आदि के लिए विशेष श्रेष्ठ होता है। शनि और शुक्र मित्र हैं इसलिए शनि पर शुक्र का यह प्रभाव सौभाग्यवर्धक माना जाता है। शनि से गुरु, शुक्र व बुध की शुभ स्थिति के फलस्वरूप जीवन में आय लाभ नियमित रूप से होता रहता है। ऐसे जातक अपने व्यवसाय में विशेष सुखी होते हैं। उनके पास धन, वाहन और भवन सभी मौजूद रहते हैं। शनि मिथुन या कन्या में हो अथवा बुध से दृष्ट हो तो ऐसे जातक एकाउंटिंग, कॉस्टिंग, अभिनय, बुद्धिजीवी वाले कार्यों, व्यापार, वित्तीय सौदों, विज्ञान व वाकपटुता आदि के अतिरिक्त लेखन कला व कानून संबंधी कार्यों से धन लाभ प्राप्त करते हैं। यदि गुरु व शुक्र का भी प्रभाव रहे तो धन कमाना सरल होने लगता है। ऐसे जातक को मित्रों से भी सहयोग मिलता है। शनि कर्क राशि में हो या चंद्रमा से दृष्ट हो तो ऐसा व्यक्ति कला, ज्योतिष, राजनीति, धर्म, यात्रा, पेय पदार्थ, साहित्य, जल, मदिरा आदि के कार्यों से लाभ उठाते हैं। ऐसे लेगों के करियर में बार-बार परिवर्तन होते हैं। करियर में यात्राएं भी खूब होती हैं लेकिन यह आवश्यक नहींं कि ऐसे लोग कठिन परिश्रम वाले कार्यों में संलग्न होना चाहें। ऐसे लोग अधिकतर शांत व नरम स्वभाव के होते हैं। शनि सिंह राशि में हो अथवा सूर्य से दृष्ट हो तो ऐसे जातक को सरकारी नौकरी या सत्ताधारी लेागों से लाभ मिलता है। इसका यह भी संकेत निकाल सकते हैं कि पिता पुत्र का व्यापार या साझेदारी आदि में संबंध है। इसके कारण सरकारी नौकरी व राजनीति से लाभ मिलता है। शनि सूर्य की शत्रुता के चलते कुछ संघर्ष के पश्चात् सफलता मिलती है। इसलिए यदि गुरु, शुक्र व बुध आदि ग्रहों का शनि पर प्रभाव न हो तो व्यावसायिक जीवन में संघर्ष का सामना करना पड़ता है। लेकिन यदि गुरु, शुक्र, बुध व बलवान चंद्रमा का प्रभाव आ जाए तो जातक को विशेष प्रसिद्धि की प्राप्ति होती है। यदि शनि धनु या मीन राशि में हो या गुरु से दृष्ट हो तो जातक को कानून, वन विभाग, लकड़ी या धार्मिक संस्थाओं आदि में विशेष सफलता मिलती है। यह ग्रह योग जातक को मनोविज्ञान, गुप्त ज्ञान (पराविद्या), प्रशासनिक कार्य, प्रबंधन कार्य, शिक्षक, अन्वेषक, वैज्ञानिक, ज्योतिषी, मार्गदर्शक, वकील, इतिहासकार, चिकित्सक, धर्मोपदेशक आदि के रूप में प्रतिष्ठित कराता है। ऐसे जातक में वाद-विवाद करने का विशेष चातुर्य होता है व व्यक्तित्व विशेष आकर्षक होता है। इनके बहुत से मित्र होते हैं तथा व्यावसायिक जीवन में निश्चित रूप से प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है। ऐसा ग्रह योग स्वतंत्र व्यवसाय या रोजगार की प्राप्ति करवाता है। शनि मकर या कुंभ राशि में हो तो जातक को सेवा, यात्रा, जन आंदोलन, विक्रय कार्य अथवा लायजनिंग संबंधी कार्यों से लाभ होता है। शनि विदेशी भाषा का कारक है इसलिए विद्या व भाषा पर अधिकार देने वाले ग्रहों जैसे शुक्र, गुरु, बुध व केतु से इसका शुभ संबंध और स्थिति जातक को अंग्रेजी या अन्य विदेशी भाषाओं का विद्वान बनाती है। शनि के ऊपर, गुरु, बुध, केतु इन सभी का प्रभाव पड़े तो मशहूर वकील बने। शनि पर केवल राहु का प्रभाव हो तो जातक छोटी नौकरी से गुजर बसर करता है परंतु यदि राहु के साथ-साथ गुरु, शुक्र का भी प्रभाव हो तो प्रारंभ में नौकरी करने के पश्चात् जातक धीरे-धीरे अपने आप को स्वतंत्र व्यवसाय में भी स्थापित कर लेता है।

महेश्वर सबके नियंता

कुत: सर्वमिदं जातं कस्मिश्च लयमेफ्यति। नियंता कश्च सर्वेषां वदस्व पुरूषोत्तम।। यह जगत किससे उत्पन्न हुआ है और किसमें जा कर विलीन हो जाता है? इस संसार का नियंता कौन है? हे पुरुषोत्तम! यह बताने की कृपा करें। महेश्वर: परोऽव्यक्त: चर्तुव्यूह सनातन:। अननंता प्रमेयश्च नियंता सर्वतोमुख:।। सनातन अनंत अप्रमेय सर्वशक्तिमान महेश्वर सबके नियंता हैं। तत्व चिंतको ने उन्हें ही अव्यक्त कारण, नित्य, सत, असत्य रूप, प्रधान तथा प्रकृति कहा है। वह (परमात्मा) गंध, वर्ण तथा रस से हीन, शब्द और स्पर्श से वंचित, अजर, ध्रुव, अविनाशी, नित्य और अपनी आत्मा में अवस्थित रहते हैं। वही संसार के कारण, महाभूत परब्रह्म, सनातन, सभी भूतों के शरीर, आत्मा में अधिष्ठित, अनादि, अनंत, अजन्मा, सूक्ष्म, त्रिगुण, प्रभव, अव्यय, और अविज्ञेय ब्रह्म सर्वप्रथम थे।
आत्मपुरुष के गुण साम्य की अवस्था में रहने पर जब तक विश्व की रचना नहींं हो जाती है, तब तक प्राकृत प्रलय होता है। यह प्राकृत प्रलय ब्रह्मा की रात्रि कही गयी है और सृष्टि करना उनका दिन कहा गया है। वस्तुत: ब्रह्मा का न दिन होता है, न रात। रात्रि के अंत में जागने पर जगत के अंतर्यामी, आदि, अनादि सर्वभूतमय, अव्यक्त ईश्वर प्रकृति और पुरूष में शीघ्र (हलचल) प्रवेश कर के परम योग से स्पंदन उत्पन्न करता है। वही परमेश्वर क्षोभ उत्पन्न करने वाला है। वही क्षुब्ध होने वाला है। वह संकुचन और विकास (लय और सृष्टि) द्वारा प्रधानत्व प्रकृति में अवस्थित होता है। स्पंदित प्रकृति से पुरातन पुरुष से प्रधान पुरुषात्मक बीज उत्पन्न हुआ। उसी से आत्मा, मति, ब्रह्मा, प्रबुद्धि, ख्याति, ईश्वर, प्रज्ञा, धृति, स्मृति और सवित् की उत्पत्ति हुई। यह सृष्टि मनोमय है। यही प्रथम विकार है। यह तीन प्रकार के हैं- तेजस, भूतादि, तामस। वैकारिक अहंकार से वैकारिक सृष्टि हुई। इंद्रियां तेज का विकार हैं। इनके वैकारिक दस देवता है। ग्यारहवां मन है, जो, अपने गुणों से, उभयात्मक है। भूतादि (तामस अहंकार) से शब्द तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे आकाश उत्पन्न हुआ, जिसका गुण शब्द माना जाता है। आकाश ने भी विकार को प्राप्त कर के स्पर्श तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे आयु उत्पन्न हुआ, जिसका गुण स्पर्श कहा गया है। वायु ने भी विकार अग्नि को उत्पन्न कर के रूप तन्मात्रा की सृष्टि की। उससे अग्नि से जल उत्पन्न हुआ, जो रस (जिह्वा) का आधार है। जल ने भी, विकार को प्राप्त कर के, गंध तन्मात्रा को उत्पन्न किया। उससे गुण संघातमयी पृथ्वी उत्पन्न हुई। उसका गुण गंध है। इस प्रकार पुराणसम्मत उत्पत्ति विषयक तथ्यों से यह ज्ञान प्राप्त होता है कि यह व्यावहारिक जगत उस प्रथम पुरुष के अधीन एक सत्ता है। सतोगुण, रजोगुण तमोगुण से युक्त यह पृथ्वी ईश्वर की माया के अधीन है। पृथ्वी कभी नष्ट नहींं होती है। प्रलय के पश्चात् इसका प्रकटीकरण होता है। यह जगत वास्तव में क्या है? कहां से इसकी उत्पत्ति हुई और कहां इसका लय है? व्यावहारिक जगत में इसका उत्तर है मुक्ति से ही जगत की उत्पत्ति हुई है। मुक्ति में ही विश्राम है और मुक्ति (निवृत्ति) में ही अंत में लय हो जाता है। यह भावना कि हम मुक्त हुए एक आश्चर्यजनक भावना है, जिसके बिना हम एक क्षण भी नहींं चल सकते हैं। इस विचार के अभाव में हमारे सभी कार्य, यहां तक कि हमारा जीवन भी व्यर्थ है। प्रत्येक क्षण प्रकृति यह संदेश सिद्ध कर रही है कि हम दास हैं। पर उसके साथ ही यह भाव उत्पन्न होता है कि हम मुक्त हैं। प्रतिक्षण हम माया से आहत हो कर बंधन में प्रतीत होते हैं। उसी क्षण अंतरस में हलचल होती है। हम मुक्त हैं। यह मुक्ति की भावना ही हमें ईश्वर अंश जीव अविनाशी का बोध कराती है और यह बंधन हमें हमारी शेष इच्छाओं और वासनाओं का। इच्छाएं, वासनाएं जगत प्रपंच के अंतर्गत हंै, जबकि भुक्ति जगत से ऊपर है। जहां किसी प्रकार गति नहींं है, किसी प्रकार का परिणाम नहींं है, यही मोक्ष है। जगत का कोई भी पदार्थ स्वतंत्र नहींं है।
प्रत्येक पदार्थ पर उसके बाहर स्थित अन्य कोई भी पदार्थ कार्य कर सकता है; अर्थात् परस्पर सापेक्षता समस्त विश्व का नियम है। कार्य-कारण का सिद्धांत ही पुनर्जन्म की मान्यता को सिद्ध करता है। जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं और अनुभव करते हैं, संक्षेप में जगत का सभी कुछ एक बार कारण बनता है और फिर कार्य। एक वस्तु अपने आने वाली वस्तु का कारण बनती है। वह स्वयं अपनी पूर्ववर्ती किसी अन्य वस्तु का कार्य भी है। हम अपनी ही वासनाओं के परिवर्तित रूपों को हर जन्म में जीते हैं। गीता का यही संदेश है। जगत का प्रत्येक प्राणी वैकारिक अहंकार के अधीन ही कर्म करता है और कर्म के परिणामों से सुखी और दु:खी अनुभव करता है। ज्योतिष और वास्तु का ज्ञान व्यक्ति को मुक्ति का मार्ग दिखा सकता है। कर्म प्रधान संसार होने के कारण ही योनियां निर्धारित हैं। दिशाओं और ब्रह्मांडीय ऊर्जा, चुंबकीय बल का प्रभाव समस्त अंडज, पिंडज, स्वदेज उद्भिज पर पड़ता है। इसमें मानव योनि ही कर्मशील और विवेकयुक्त है। अन्य सभी भोग योनियां रहती हैं। अथर्व वेद से निकले स्थापत्य वेद के नियमानुसार भवन निर्माण की प्रक्रिया पूर्णतया वैज्ञानिक है। ग्रहीय प्रभाव, उत्तरी और दक्षिणी अंक्षाश के प्राकृतिक अंतर को ध्यान में रख कर, वास्तु का पूर्ण लाभ लिया जा सकता है। आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी इन पंच महाभूतों, तमोगुण, रजोगुण और सतोगुण, इनके प्रभाव को मानव अपने और प्रकृति के मध्य एक सामंजस्य बना कर ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है। वास्तु शास्त्र को सरलता से समझने के लिए ऋषियों ने इसे वास्तु पुरुष की संज्ञा दी, जो विभिन्न दिशाओं पर राज्य करते हैं, जिनका प्रभाव, सूर्य के उदय और अस्त होने के कारण, जैविक ऊर्जा और प्राणिक उर्जा के सकारात्मक और नकारात्मक प्रभावों को दर्शाते हैं। प्रत्येक दिशा अपना शुभ और अशुभ प्रभाव रखती है। उत्तर-पूर्व दिशा, ऐश्वर्य और सोम (अमृत) प्रदान करती है और शरीर में वाणी, बुद्धि, विद्या, न्रमता, आध्यात्मिक शक्ति का विकास करती है। पूर्व दिशा मन-मस्तिष्क को स्वस्थ रखने, अस्थियों के विकास और वंश वृद्धि में सहायक होने के साथ-साथ दीर्घायु कारक है। जापान में आयु का प्रतिशत विश्व में सबसे अधिक है। उसे उगते हुए सुरज का देश कहा जाता है। अग्नि कोण और दक्षिण, जहां शुक्र और मंगल से युक्त है वहीं, प्रदूषणयुक्त और जीवाणुरहित क्षेत्र होने के कारण, स्वास्थ्य और समृद्धि, जोश एवं उत्साह का संवाहक है। उत्तर-पूर्व दिशाएं जहां सकारात्मक प्रभाव डालती है, दक्षिण और दक्षिण-पश्चिम दिशाएं नकारात्मक ऊर्जा की संवाहक है। पूर्व से पश्चिम सौर ऊर्जा का प्रभाव क्षेत्र रहता है। सूर्योदय से तीन घंटे सूर्य जीवन के लिए लाभदायक हैं और वृद्धि देता है। अगले तीन घंटे सूर्य के अग्नि और प्रकाश तत्व बढ़ जाते हैं। ऊर्जा का अधिक विकिरण होने के कारण ये हानिकारक ऊर्जा देते हैं। अगले तीन घंटे सूर्य अपने संपूर्ण प्रभाव से यम दिशा में स्थित होता है। यह सूर्य की विध्वंसक अवस्स्था होती हैं। अगले तीन घंटे सूर्य पश्चिम दिशा में फिर सौम्य रूप में होता है। रात्रि भर सूर्य की किरणें चंद्रमा के ऊपर पड़ कर पृथ्वी पर आती हैं और मानव, वनस्पति और सभी जड़-चेतन पर अपना प्रभाव डालती है। ज्योतिष और वास्तु में, संपूर्ण सौर मंडल में सूर्य ही एक नियामक ग्रह है, जिसकी किरणों के सातों अंश ग्रहोत्पादक हैं। सुषुम्न, हरिकेश, विश्वकर्मा, विश्वश्र्रवा संयद्वंसु, अर्वावसु और सप्तम स्वर है । इनमें सुषुम्न नामक किरण चंद्रमा को पुष्ट करती है। हरिकेश नामक किरण नक्षत्रों को पुष्ट करती है। विश्वकर्मा नामक किरण बुध का पोषण करती है। शुक्र का पोषण विश्वश्रवा नामक किरण करती है। संयद्वंसु नामक किरण मंगल का पोषण करती है। अर्वावसु किरण बृहस्पति को पुष्ट करती है। सप्तम स्वर नामक किरण शनि को पुष्ट करती है। इस प्रकार सूर्य के प्रभाव को प्राप्त कर के तारे-नक्षत्र वृद्धि को प्राप्त होते हैं और प्राणी जगत को प्रभावित करते हैं।

आपने बहुत देर कर दी !!!

नंद कुमार की माँ अक्सर बीमार रहती थी। माँ रोज बेटे-बहू को कहती थी कि बेटा, मुझे डॉक्टर के पास ले चल। बेटा भी रोज पत्नी को कह देता, ‘‘माँ को ले जाना, मैं तो फैक्टरी के काम में व्यस्त रहता हूँ। क्या तुम माँ का चेकअप नहीं करा सकती हो?’’
पत्नी भी लापरवाही से उत्तर दे देती, ‘‘पिछले साल गई तो थी, डॉक्टर ने कोई ऑपरेशन का कहा है। जब तकलीफ होगी ले जाना।’’
आनंद कुमार भी ब्रीफकेस उठाकर चलता हुआ बोल जाता है कि ‘‘माँ तुम भी थोड़ी सहनशक्ति रखा करो।’’
कुछ दिनों से आनंद कुमार की फैक्टरी की पार्किंग में मरे जैसे सूरत का एक गरीब लडक़ा बूट करने आ रहा था। जब कभी बूट पॉलिश का काम नहीं होता, तब वह वहाँ रखी गाडिय़ों को कपड़े से साफ करता। गाड़ी वाले उसे जो भी 2-4 रुपए देते, उसे ले लेता। आनंद कुमार उसे अब पहचानने लगा था। दूसरे लोग भी रोज मिलने से उसे पहचानने लग गए थे। लडक़ा भी जिस साहब से 5 रुपए मिलते, उस साहब को लंबा सलाम ठोकता था।
एक दिन की बात है आनंद कुमार शाम को मीटिंग लेकर अपने कैबिन में आकर बैठा। उसको एक जरूरी फोन पर जानकारी मिली, जो उसके घर से था। घर का नंबर मिलाया तो नौकर ने कहा ‘‘साहब आपको 11 बजे से फोन कर रहे हैं। माताजी की तबीयत बहुत खराब हो गई थी, इसलिए बहादुर और रामू दोनों नौकर उन्हें सरकारी अस्पताल ले गए हैं..’’
आनंद कुमार चिल्लाया ‘‘क्या मेम साहब घर पर नहीं हैं?’’
वह डरकर बोला, ‘‘वे तो सुबह 10 बजे ही आपके जाने के बाद चली गईं। साहब घर पर कोई नहीं था और हमें कुछ समझ में नहीं आया। माताजी बड़ी मुश्किल से कह पाईं थीं ‘‘बेटा मुझे सरकारी अस्पताल ले चलो...। तो माली और बहादुर दोनों रिक्शा में ले आए और मां जी को अस्पताल ले गए और साहब मैं मेम साहब का रास्ता देखने के लिए और आपको फोन करने के लिए घर पर रुक गया।’’
आनंद कुमार के गुस्से का ठिकाना न रहा। ऐन मौकों में ही ऐसा बखेड़ा खड़ा करना था मां को। वह लगभग दौड़ते हुए गाड़ी निकालकर तेज गति से सरकारी अस्पताल की ओर निकल पड़ा। जैसे ही अस्पताल के रिसेप्शन की ओर बढ़ा, उसने सोचा कि यहीं से जानकारी ले लेता हूँ।
‘‘सलाम साब’’
आनंद कुमार एकाएक चौंक पड़ा ‘‘अरे तुम वही लडक़े हो? बूट पालिस वाले।’’
‘‘हां साब।’’ उस लडक़े के साथ एक बूढ़ी औरत भी थी।
‘‘अरे तुम यहाँ? क्या बात है?’’ आनंद कुमार ने पूछा।
लडक़ा बोला ‘‘साहब, ये मेरी मां है। बीमार थी। 15 दिनों से यहीं भर्ती थी साब। इसीलिए पैसे इक_े करता था, वहां..., आपकी फैक्ट्री में।
‘‘मगर साब आप यहाँ कैसे?’’
आनंद कुमार जैसे नींद से जागा। ‘‘हाँ... !’’ कहकर वह रिसेप्शन की ओर दौड़ गया।
वहाँ से जानकारी लेकर लंबे-लंबे कदम से आगे बढ़ता गया। सामने से उसे दो डॉक्टर आते मिले। उसने अपना परिचय दिया और माँ के बारे में पूछा।
‘‘ओ आई एम सॉरी, शी इज नो मोर..... शी इज नो मोर, आपने बहुत देर कर दी।’’
शाम ढल चुकी थी, पंछी अपने घोसलों को वापस आ रहीं थीं। आनंद कुमार वहीं हारा-सा बैठा हुआ था। सामने गरीब लडक़ा चला जा रहा था और उसके कंधे पर हाथ रखे धीरे-धीरे उसकी माँ जा रही थी।