Tuesday 3 May 2016

बृहस्पति ग्रह का नैसर्गिक फल'

यदि बृहस्पति शुभ व बलवान हो तो जातक को राज, मन्त्रित्व एवं मनोवांछित फल प्राप्त होता है। देवार्चन, धार्मिक कर्म करता है। वाहन, भूमि एवं वस्त्र का लाभ होता है। उत्तम मनुष्यों की संगति प्राप्त होती है। कुटुम्ब व अन्यों का भरण-पोषण करता है।मेष, मिथुन, सिंह, धनु व मीन राशि में बृहस्पति उत्तम फल देता है। तुला, वृश्चिक, मकर तथा कुम्भ राशियों में मध्यम फल तथा वृष, कन्या एवं कर्क राशि में अशुभ फल प्राप्त होते है। आयु के अन्तिम भाग में यशस्वी होते हंै। यदि बृहस्पति स्त्री राशि में या पीडि़त हो तो जातक आयु के आरम्भ में नौकरी करते है, बाद में स्वतन्त्र व्यवसाय होता है। किन्तु दशम स्थान में बृहस्पति हो तो जीवन भर नौकरी करनी पड़ती है। ये लोग स्कूल, काॅलेज, आश्रम आदि संस्थाएं स्थापित करते हैं। नगर पालिका, जिला बोर्ड, विधान सभा आदि में चुनाव लड़ते हैं। यदि बृहस्पति पीडि़त हो तो मिथ्या अभिमानी, बार-बार व्यवसाय बदलना, दूसरों को तुच्छ समझते हैं। दूसरों की बुराइयां निकालते रहते है। पत्नी के साथ पांच मिनट तक स्थिरता से बात नहीं कर पाते, परन्तु अन्य स्त्रियों से घुलमिल कर घण्टों बिता देते हैं। अपने को बहुत सुशिक्षित समझते हैं। अन्य लोगों पर अपना प्रभाव जमाना चाहते हैं।
विभिन्न भावगत बृहस्पति की दशा का फल
त्रिकोण व् केंद्र में स्थित- जातक धन, राजा, पुत्र व स्त्री से सुख पाता है। उच्च पद प्राप्त करता है।
लग्न भाव - जातक धन, समाज व् वस्त्र आभूषण एवं वहां प्राप्त करता है |
द्वितीय भाव- राज-सम्मान व धन की प्राप्ति होती है। जातक बुद्धिमान, परोपकारी, सुखी, विजयी, वस्त्र आभूषण प्राप्त करता है।
तीसरा भाव- भाई से धन व राजा के द्वारा सम्मान प्राप्त करता है।
चतुर्थ भाव- वाहन सुख, राज्य-अधिकार, माता का सुख, स्त्री, बन्धुओं से सम्मान प्राप्त करता है।
पंचम भाव- मंत्र-तंत्र विद्याओं में रुचि, बच्चे उत्पन्न होते हैं। बहुमुखी प्रतिभा वाला होता है।
छटवा भाव- स्वास्थ्य व स्त्री प्राप्त होती है। अन्त में चोर, रोग व स्त्री से भय होता है।
सप्तम भाव- स्त्री, पुत्र का सुख, विदेश भ्रमण एवं विजयी होता है। धार्मिक कार्य करता है।
अष्टम भाव- आरम्भ में दुःख होता है, स्थानच्युत, विदेश यात्रा, बन्धुजनों से वियोग होता है। परन्तु अन्त में स्त्री, पुत्र तथा राजा से सम्मान प्राप्त होता है।
नवम भाव -त्रिकोण भाव का फल प्राप्त होता है।
दशम भाव- राज-अधिकार, धन, स्त्री, पुत्र तथा शुभ की प्राप्ति होती है।
एकादश भाव- पुत्र प्राप्ति, धन, बन्धुओं से सम्मान प्राप्त होता है।
द्वादश भाव- नाना प्रकार के क्लेश और विदेश यात्रा होती है। वाहन सुख प्राप्त होता है। यदि बृहस्पति शुभ हो तो शुभ कार्यों में व्यय होता है।
गुरु गुरु- सुख सौभाग्य में वृद्धि हो। समाज में मान, प्रतिष्ठा व यश मिले। मुख व देह की कान्ति बढ़े। गुणों का विकास व प्रकाश हो। गुरु-संत जन से मिलन, मनोकामना सिद्धि, सरकार द्वारा गुणों का मूल्यांकन हो, प्रशंसा तथा पुरस्कार मिले। सर्वत्र सराहना हो।
गुरु/शनि- मद्यपान व वेश्याओं की संगति तथा सांसारिक सुख वैभव की प्राप्ति हो। सुरा-सुन्दरी पर धन का अपव्यय हो। कुटुम्बी व पशुओं को पीड़ा हो। नेत्र रोग, पुत्र पीड़ा, तथा मन में भय बना रहे। भय व पीड़ा तो शनि का स्वभाव ही है। गुरु काल पुरुष का भोगेश है तो शनि लाभेश है। अतः भोग में वृद्धि होगी। शनि सप्तमस्थ होने से सुंदर वेश्याओं की संगति भी देगा।
गुरु/बुध- सुरा-सुन्दरी, द्यूत क्रीड़ा तथा वात पित्त कफ जनित रोग हों। बुध राजकुमार है, सुन्दर युवक व मधुर भाषी है, व्यवहार कुशल व चतुर है, स्वार्थ सिद्धि हेतु छल कपट भी कर बैठता है, अतः भोग प्राप्ति के लिये जुआ व शराब का सहारा ले सकता है। अन्य मनीषियों का विचार है कि गुरु सात्विक व वेदनिष्ठ ब्राह्मण है। यह ज्ञान, विवेक एवं प्रज्ञा का प्रतीक है तो बुध बुद्धि व व्यवहार कुशलता है। अतः इस अन्तर्दशा में देवता एवं ब्राह्मण की पूजा, उपासना से ही सभी सुख, वैभव, पुत्र, धन व परिवार की सुख समृद्धि प्राप्त होगी।
गुरु/केतु- देह पर चोट/घाव, नौकरों से विरोध, स्त्री एवं पुत्र को कष्ट तथा चित्त में व्यथा होती है। गुरुजन अथवा प्रियजन से वियोग, बिछोह तथा कभी जातक को मृत्यु तुल्य कष्ट या प्राण हानि हो। इसे एक विडंबना ही कहा जाएगा कि काल पुरुष के जन्मांग में केतु त्रिकोण (नवम भाव) में गुरु की राशि में बैठा है, किंतु गुरु से षष्ठम है। दशानाथ-अन्तर्दशानाथ का परस्पर षष्ठम, अष्टम होना अशुभ व अनिष्टकर माना गया है तथा रोग, शत्रु व घाव पीड़ा देने वाला है।
गुरु/शुक्र- अनेक प्रकार के धन-धान्य, वस्त्राभूषण, सुख सामग्री की प्राप्ति व वृद्धि हो। स्त्री-पुत्र का सुख मिले। स्वादिष्ट भोजन, उत्तम पेय का सुख मिले। देवता व ब्राह्मण की अर्चना, उपासना में जातक तत्पर रहे। (कालपुरुष के जन्मांग में शुक्र, भोगस्थान में उच्च का होकर गुरु की राशि में है तो गुरु भाग्येश भी है, अतः भाग्य से विविध प्रकार भोग-वैभव की प्राप्ति होना स्वाभाविक है।
गुरु/सूर्य- शत्रु पर विजय, राजसम्मान, यशवृद्धि, धन लाभ व वाहन सुख मिले। प्रभाव व पुरुषार्थ में वृद्धि हो। महानगर में रहकर जातक उच्च कोटि के वैभव व सुख संपदा भोगें। कालपुरुष के जन्मांग में गुरु सुख भाव में है तो सूर्य लग्न में उच्चस्थ है। लग्न सुख भाव के लिये दशम भाव है अतः कार्य क्षेत्र में उन्नति, सफलता, मान-सम्मान की वृद्धि व मानसिक सुख मिलना सहज है।
गुरु/चन्द्रमा -स्त्री व धन की प्राप्ति हो। यश वृद्धि व कृषि से लाभ मिले। व्यापार (क्रय-विक्रय) द्वारा लाभ मिले। देवता व ब्राह्मण की पूजा हो। गुरु, चंद्रमा की राशि में उच्चस्थ होता है। लाभ का नैसर्गिक कारक होने से यह निश्चय ही लाभ देगा, किन्तु धर्म विमुखता साधु-संत का अनादर करने से कभी अपयश व मानसिक क्लेश भी दिया करता है। ऐसी परिस्थिति में पत्नी से अनबन, स्त्री सुख की हानि, धन नाश भी हुआ करता है। अतः विज्ञ जन गजकेसरी योग की सार्थकता हेतु धार्मिक अनुष्ठान व देवोपासना का सुझाव दें।
गुरु/मंगल- जातक के कार्यों से बन्धुओं को सुख संतोष प्राप्त हो, शत्रुओं से भी जातक लाभ पायें। भूमि भवन की प्राप्ति हो। प्रभाव व प्रताप में वृद्धि हो। किसी गुरुजन को चोट लगे। जातक को नेत्र पीड़ा हो तथा सत्कर्म के प्रभाव से जातक सुख पाये। मंगल, बंधु, स्नेह व शत्रु से संघर्ष का प्रतीक है तो गुरु लाभ का। काल पुरुष के जन्मांग में गुरु चतुर्थ (सुख भाव) में है तो मंगल कर्म भाव में। अतः कर्म के प्रभाव से तथा कर्म के द्वारा जातक को सुख व सभी प्रकार के लाभ मिलेंगे।
गुरु/राहु- बंधुओं को/से कष्ट व संताप हो। मन में दुःख, चिन्ता व उद्विग्नता हो। रोग व चोर से भय। गुरुजन को कष्ट/जातक को उदर विकार हो। राजा से कष्ट पीड़ा या दंड मिले। शत्रु जनित कष्ट बढ़े। धन का नाश हो। गुरु, देवताओं का रक्षक व मंत्रदाता गुरु है; तो राहु देवताओं का प्रबल शत्रु है। अतः अशुभ फल होना स्वाभाविक है। काल पुरुष की कुंडली में राहु, गुरु से द्वादश होकर बंधु स्थान में है, अतः भाई बंधुओं के कारण सुख की हानि, घर परिवार में अशान्ति, मन में दुःख क्लेश भी होगा ही।

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