छोटे-छोटे नवजात शिशु से लेकर मौत की तरफ बढ़ रहे बड़े बूढ़े सभी भूतों के बारे में सुनते तो है परन्तु इनके पौराणिक उधम को जानते नहीं और भुत प्रेत के रहस्य से हमेशा आतंकित रहते हैं | लेकिन गरुड़ पुराण ने उस सरे भय को दूर करते हुए प्रतोयोगिनी से संबंधित रहस्यों को जीवित मनुष्यों के कर्म फल के साथ जोड़कर सम्पूर्ण अदृश्य जगत का जो वैज्ञानिक आधार तैयार किया है उस सबकी विस्तृत जानकारी पाएंगे आप इस लेख में |
वैदिक ग्रन्थ गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है और शोक संतप्त परिवार को इसके सुनने से राहत और तसल्ली मिलती है कि उनके द्वारा दिवंगत आत्मा का सही ढंग से क्रियाकर्म हो रहा है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है। प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है।
अनेक देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों की संस्कृतियों में प्रेतों से संबंधित लोक कथाएं तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं। जिसमें ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और चीनी, जापानी एवं अफ्रीकन संस्कृति प्रमुख है! मिस्र के पिरामिड भी भूतों के स्मारक है। इन स्मारकों को सिर्फ बाहर से ही देखने की अनुमति है अन्दर जाने की नहीं।
हिन्दू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’ इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व जीव अथवा प्रेत के रूप में होता है।
प्रेत का पौराणिक आधार:
गरुड़ पुराण में विभिन्न नरकों में जीव के पडऩे का वृतान्त है। मरने के बाद इसमें मनुष्य की क्या गति होती है उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है प्रेत योनि से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा पितरों के दारुण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
कर्मफल अवस्था: गरूड़ पुराण धर्म, शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कर्तव्य-अकर्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है।
पहली अवस्था: समस्त अच्छे बुरे कर्मो का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है।
दूसरी अवस्था: मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है।
तीसरी अवस्था: कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नर्क में जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में इन तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियां है, उसी प्रकार असंख्य नर्क भी हैं जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। ‘गरूड़ पुराण’ ने इसी स्वर्ग नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है।
प्रेत योनी किसे प्राप्त होती हैं ?
‘प्रेत कल्प’ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और संबंधियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताडि़त करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राहमण अथवा मंदिर की संपत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का घात करता है, माता, बहन, पुत्र-पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषिहानि, संतानमृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है। अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है जो धर्म का आचरण और नियमों का पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे अकाल मृत्यु में धकेल देते हैं।
गरुड़ पुराण में प्रेत योनि और नर्क में पडऩे से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक उपाय दान, यज्ञ, सत्संग, नाम संकीर्तन, स्वाध्याय, पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
सर्वाधिक प्रसिद्ध इस प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में आत्मज्ञान के महत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसके लिए अपने मन और इंद्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकांड पर सर्वाधिक बल देने के उपरांत गरुड़ पुराण में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकांड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
जीवों का सूक्ष्म विवेचन:
इस पृथ्वी पर चार प्रकार की आत्माएं पाई जाती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं। ऐसे जीवों को पुन: जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। वे इस जन्ममृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं। उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिए सब बराबर हैं। उनको सबसे प्रेम होता है किसी के प्रति घृणा नहीं होती है। इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं वे भी इस जनम मृत्यु के बंधनों से मुकत हो जाते हैं। लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है। दोनों का मिश्रण होता है उनका व्यक्तित्व ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रेत भी गर्भ प्राप्ति की प्रतीक्षा करते हैं:
चौथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा। ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ये जीव भटकते रहते हैं। प्रतीक्षा करते रहते हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें। जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले। जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं। जिन्हें बुरे पूर्वाग्रह वाले प्रेत कहते हैं और मृत्यु के बाद उन्हें गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ये जीव जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ये ही मनुष्य के शरीर में प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें कई तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं।
जिस व्यक्ति के जीव में अपने प्रति लगाव होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है। शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यही सबकुछ संचालित करता है। जब जीव का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है तब सूक्ष्म शरीर विकसित होता है, फैलता है और शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर का सबसे बड़ा गुण है, यही स्वरूप उस ब्रह्मा का भी है।
ज्योतिष के अनुसार वे लोग प्रेतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में राहु से पापाक्रांत प्रमुख ग्रहों के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनी प्राप्ति के कारण:
* कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं।
* कुंडली में बनने वाले कुछ प्रेत बाधा दोष इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रहों की स्थिति हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर प्रेत-पिशाच या नकारात्मक जीवों का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि या मंगल में से कोई भी ग्रह राहु से आक्रांत होकर सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी प्रेत बाधा या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. उक्त योगों की दशा-अंतर्दशा और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान होगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिए पितृ शांति कराना चाहिए।
4. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव में हों तो भी प्रेत बाधा बनते हैं।
5. प्रेत-बाधा अक्सर उन लोगों को कष्ट देता है जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
6. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और प्रेत बाधा देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को ज्यादा कष्टकारी माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। प्रेत बाधा दोष राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है।
प्रेतबाधा दोष जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है उसमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं और उनके अनुसार बुरे कर्म करने लगते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। स्वयं ही अपना तथा अपनों का नुकसान कर बैठते हैं।
7. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई उसका विनाश करने में लगा हुआ है और किसी भी इलाज पर उसे भरोसा नहीं होता।
8. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी प्रेतबाधा का प्रभाव आसानी से होने की संभावनाएं बनती हैं।
इस प्रकार परेशानियों से मुक्ति हेतु नारायण बलि, नागबलि, रुद्राभिषेक अर्थात पितृ शांति विद्वान आचार्य से किसी नदी के तट पर देवता के मंदिर प्रांगण में कराना चाहिए।
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में ‘‘उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय’’ में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।
वैदिक ग्रन्थ गरुड़ पुराण में भूत-प्रेतों के विषय में विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। अक्सर गरुड़ पुराण का श्रवण हिन्दू समाज में आज भी मृतक की आत्मा की शान्ति के लिए तीसरे दिन की क्रिया से नवें दिन तक पढ़ा जाता है और शोक संतप्त परिवार को इसके सुनने से राहत और तसल्ली मिलती है कि उनके द्वारा दिवंगत आत्मा का सही ढंग से क्रियाकर्म हो रहा है। श्रीमद्भागवत पुराण में भी धुंधकारी के प्रेत बन जाने का वर्णन आता है। प्रेत की अवधारणा उतनी ही पुरानी है जितना कि स्वयं मनुष्य है।
अनेक देशों की लोकप्रिय संस्कृतियों में प्रेतों का मुख्य स्थान है। सभी देशों की संस्कृतियों में प्रेतों से संबंधित लोक कथाएं तथा लिखित सामग्री पाई जाती हैं। जिसमें ईसाई, मुस्लिम, बौद्ध, पारसी और चीनी, जापानी एवं अफ्रीकन संस्कृति प्रमुख है! मिस्र के पिरामिड भी भूतों के स्मारक है। इन स्मारकों को सिर्फ बाहर से ही देखने की अनुमति है अन्दर जाने की नहीं।
हिन्दू धर्म में ‘‘प्रेत योनि’’ इस्लाम में ‘‘जिन्नात’’ आदि का वर्णन प्रेतों के अस्तित्व को इंगित करते हैं। पितृ पक्ष में हिन्दू अपने पितरों को तर्पण करते हैं। इसका अर्थ हुआ कि पितरों का अस्तित्व जीव अथवा प्रेत के रूप में होता है।
प्रेत का पौराणिक आधार:
गरुड़ पुराण में विभिन्न नरकों में जीव के पडऩे का वृतान्त है। मरने के बाद इसमें मनुष्य की क्या गति होती है उसका किस प्रकार की योनियों में जन्म होता है प्रेत योनि से मुक्ति कैसे पाई जा सकती है। श्राद्ध और पितृ कर्म किस तरह करने चाहिए तथा पितरों के दारुण दुख से कैसे मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है, आदि का विस्तारपूर्वक वर्णन है।
कर्मफल अवस्था: गरूड़ पुराण धर्म, शुद्ध और सत्य आचरण पर बल देता है, पाप-पुण्य, नैतिकता-अनैतिकता, कर्तव्य-अकर्तव्य तथा इनके शुभ-अशुभ फलों पर विचार करता है। वह इसे तीन अवस्थाओं में विभक्त कर देता है।
पहली अवस्था: समस्त अच्छे बुरे कर्मो का फल इसी जीवन में प्राप्त होता है।
दूसरी अवस्था: मृत्यु के उपरान्त मनुष्य विभिन्न चौरासी लाख योनियों में से किसी एक में अपने कर्मानुसार जन्म लेता है।
तीसरी अवस्था: कर्मों के अनुसार स्वर्ग या नर्क में जाता है। हिन्दू धर्म शास्त्रों में इन तीन प्रकार की अवस्थाओं का खुलकर विवेचन हुआ है। जिस प्रकार चौरासी लाख योनियां है, उसी प्रकार असंख्य नर्क भी हैं जिन्हें मनुष्य अपने कर्मफल के रूप में भोगता है। ‘गरूड़ पुराण’ ने इसी स्वर्ग नरक वाली व्यवस्था को चुनकर उसका विस्तार से वर्णन किया है। इसी कारण भयभीत व्यक्ति अधिक दान पुण्य करने की ओर प्रवृत्त होता है।
प्रेत योनी किसे प्राप्त होती हैं ?
‘प्रेत कल्प’ में कहा गया है कि नरक में जाने के पश्चात प्राणी प्रेत बनकर अपने परिजनों और संबंधियों को अनेकानेक कष्टों से प्रताडि़त करता रहता है। वह परायी स्त्री और पराये धन पर दृष्टि गड़ाए व्यक्ति को भारी कष्ट पहुंचाता है। जो व्यक्ति दूसरों की संपत्ति हड़प कर जाता है, मित्र से द्रोह करता है, विश्वासघात करता है, ब्राहमण अथवा मंदिर की संपत्ति का हरण करता है, स्त्रियों और बच्चों का संग्रहीत धन छीन लेता है, परायी स्त्री से व्यभिचार करता है, निर्बल को सताता है, ईश्वर में विश्वास नहीं करता, कन्या का घात करता है, माता, बहन, पुत्र-पुत्री, स्त्री, पुत्रवधु आदि के निर्दोष होने पर भी उनका त्याग कर देता है, ऐसा व्यक्ति प्रेत योनि में अवश्य जाता है। उसे अनेकानेक नारकीय कष्ट भोगना पड़ता है। उसकी कभी मुक्ति नहीं होती। ऐसे व्यक्ति को जीते जी अनेक रोग और कष्ट घेर लेते हैं। व्यापार में हानि, गर्भनाश, गृह कलह, ज्वर, कृषिहानि, संतानमृत्यु आदि से वह दुखी होता रहता है। अकाल मृत्यु उसी व्यक्ति की होती है जो धर्म का आचरण और नियमों का पालन नहीं करता तथा जिसके आचार-विचार दूषित होते हैं। उसके दुष्कर्म ही उसे अकाल मृत्यु में धकेल देते हैं।
गरुड़ पुराण में प्रेत योनि और नर्क में पडऩे से बचने के उपाय भी सुझाए गए हैं। उनमें सर्वाधिक उपाय दान, यज्ञ, सत्संग, नाम संकीर्तन, स्वाध्याय, पिंडदान तथा श्राद्ध कर्म आदि बताए गए हैं।
सर्वाधिक प्रसिद्ध इस प्रेत कल्प के अतिरिक्त इस पुराण में आत्मज्ञान के महत्व का भी प्रतिपादन किया गया है। परमात्मा का ध्यान ही आत्मज्ञान का सबसे सरल उपाय है। उसके लिए अपने मन और इंद्रियों पर संयम रखना परम आवश्यक है। इस प्रकार कर्मकांड पर सर्वाधिक बल देने के उपरांत गरुड़ पुराण में ज्ञानी और सत्यव्रती व्यक्ति को बिना कर्मकांड किए भी सद्गति प्राप्त कर परलोक में उच्च स्थान प्राप्त करने की विधि बताई गई है।
जीवों का सूक्ष्म विवेचन:
इस पृथ्वी पर चार प्रकार की आत्माएं पाई जाती हैं। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जो अच्छाई और बुराई के भाव से परे होते हैं। ऐसे जीवों को पुन: जन्म लेने की आवश्यकता नहीं होती। वे इस जन्ममृत्यु के बंधन से परे हो जाते हैं। इन्हें असली संत और असली महात्मा कहते हैं। उनके लिए अच्छाई और बुराई कोई अर्थ नहीं रखती। उनके लिए सब बराबर हैं। उनको सबसे प्रेम होता है किसी के प्रति घृणा नहीं होती है। इसी तरह कुछ ऐसे व्यक्ति होते हैं जो अच्छाई और बुराई के प्रति समतुल्य होते हैं यानी दोनों को समान भाव से देखते हैं वे भी इस जनम मृत्यु के बंधनों से मुकत हो जाते हैं। लेकिन तीसरी तरह के लोग ऐसे होते हैं जो साधारण प्रकार के होते हैं, जिनमें अच्छाई भी होती है और बुराई भी होती है। दोनों का मिश्रण होता है उनका व्यक्तित्व ऐसे साधारण प्रकार के लोग अपनी मृत्यु होने के बाद तत्काल किसी न किसी गर्भ को उपलब्ध हो जाते हैं, किसी न किसी शरीर को प्राप्त कर लेते हैं।
प्रेत भी गर्भ प्राप्ति की प्रतीक्षा करते हैं:
चौथे प्रकार के लोग असाधारण प्रकार के लोग हैं, जो या तो बहुत अच्छे लोग होते हैं या बहुत बुरे लोग होते हैं। अच्छाई में भी पराकाष्ठा और बुराई में भी पराकाष्ठा। ऐसे लोगों को दूसरा गर्भ प्राप्त करना कठिन हो जाता है। ये जीव भटकते रहते हैं। प्रतीक्षा करते रहते हैं कि उनके अनुरूप कोई गर्भ मिले तभी वह उसमें प्रवेश करें। जो अच्छाई की दिशा में उत्कर्ष पर होते हैं वे प्रतीक्षा करते हैं कि उनके अनुरूप ही योनी मिले। जो बुराई की पराकाष्ठा पर होते हैं वे भी प्रतीक्षा करते हैं। जिन्हें बुरे पूर्वाग्रह वाले प्रेत कहते हैं और मृत्यु के बाद उन्हें गर्भ प्राप्त करने में कभी-कभी बहुत ज्यादा समय लग जाता है। ये जीव जो अगले गर्भ की प्रतीक्षा करते रहते हैं, ये ही मनुष्य के शरीर में प्रेत का रूप लेकर प्रवेश करती हैं और उन्हें कई तरह की पीड़ाओं से ग्रसित करती हैं।
जिस व्यक्ति के जीव में अपने प्रति लगाव होता है, उस व्यक्ति का सूक्ष्म शरीर उतना ही विकसित होता है। शरीर में आपका सूक्ष्म शरीर सबसे अधिक महत्वपूर्ण है, यही सबकुछ संचालित करता है। जब जीव का मनोबल व संकल्प शक्तिशाली होता है तब सूक्ष्म शरीर विकसित होता है, फैलता है और शरीर में पूरी तरह व्याप्त रहता है। यह सूक्ष्म शरीर का सबसे बड़ा गुण है, यही स्वरूप उस ब्रह्मा का भी है।
ज्योतिष के अनुसार वे लोग प्रेतों का शिकार बनते हैं जिनकी कुंडली में पिशाच योग बनता है। यह योग जन्म कुंडली में राहु से पापाक्रांत प्रमुख ग्रहों के कारण बनता है। अगर कुंडली में वृश्चिक राशि में राहु के साथ चन्द्रमा होता तब पिशाच योग प्रबल बन जाता है। ये योग व्यक्ति को मानसिक रूप से कमजोर बनाता है।
भृगुसंहिता तथा जन्मकुंडली में प्रेतयोनी प्राप्ति के कारण:
* कुंडली द्वारा यह ज्ञात किया जा सकता है कि व्यक्ति इस प्रकार की दिक्कतों का सामना करेगा या नहीं।
* कुंडली में बनने वाले कुछ प्रेत बाधा दोष इस प्रकार है:
1. कुंडली के पहले भाव में चंद्र के साथ राहु हो और पांचवे और नौवें भाव में क्रूर ग्रहों की स्थिति हों। इस योग के होने पर जातक या जातिका पर प्रेत-पिशाच या नकारात्मक जीवों का प्रकोप शीघ्र होता है। यदि गोचर में भी यही स्थिति हो तो अवश्य ऊपरी बाधाएं तंग करती है।
2. यदि किसी की कुंडली में शनि या मंगल में से कोई भी ग्रह राहु से आक्रांत होकर सप्तम भाव में हो तो ऐसे लोग भी प्रेत बाधा या ऊपरी हवा आदि से परेशान रहते है।
3. उक्त योगों की दशा-अंतर्दशा और गोचर में भी इन योगों की उपस्थिति हो तो समझ लें कि जातक या जातिका इस कष्ट से अवश्य परेशान होगा। इस कष्ट से मुक्ति के लिए पितृ शांति कराना चाहिए।
4. कुंडली में चंद्र नीच का हो और चंद्र राहु संबंध बन रहा हो, साथ ही भाग्य स्थान पाप ग्रहों के प्रभाव में हों तो भी प्रेत बाधा बनते हैं।
5. प्रेत-बाधा अक्सर उन लोगों को कष्ट देता है जो ज्योतिषीय नजरिये से कमजोर ग्रह वाले होते हैं। इन लोगों में मानसिक रोगियों की संख्या ज्यादा होती है।
6. वैसे तो कुंडली में किसी भी राशि में राहु और चंद्र का साथ होना अशुभ और प्रेत बाधा देने वाला माना जाता है लेकिन वृश्चिक राशि में जब चंद्रमा नीच स्थिति में हो जाता है यानि अशुभ फल देने वाला हो जाता है तो इस स्थिति को ज्यादा कष्टकारी माना जाता है। राहु और चंद्रमा मिलकर व्यक्ति को मानसिक रोगी भी बना देते हैं। प्रेत बाधा दोष राहु द्वारा निर्मित योगों में नीच योग है।
प्रेतबाधा दोष जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में होता है उसमें इच्छा शक्ति की कमी रहती है। इनकी मानसिक स्थिति कमजोर रहती है, ये आसानी से दूसरों की बातों में आ जाते हैं और उनके अनुसार बुरे कर्म करने लगते हैं। इनके मन में निराशाजनक विचारों का आगमन होता रहता है। स्वयं ही अपना तथा अपनों का नुकसान कर बैठते हैं।
7. लग्न चंद्रमा व भाग्य भाव की स्थिति अच्छी न हो तो व्यक्ति हमेशा शक करता रहता है। उसको लगता रहता है कि कोई उसका विनाश करने में लगा हुआ है और किसी भी इलाज पर उसे भरोसा नहीं होता।
8. जिन व्यक्तियों का जन्म राक्षस गण में हुआ हो, उन व्यक्तियों पर भी प्रेतबाधा का प्रभाव आसानी से होने की संभावनाएं बनती हैं।
इस प्रकार परेशानियों से मुक्ति हेतु नारायण बलि, नागबलि, रुद्राभिषेक अर्थात पितृ शांति विद्वान आचार्य से किसी नदी के तट पर देवता के मंदिर प्रांगण में कराना चाहिए।
स्थल निर्णय:
यह विधि किसी खास क्षेत्र में ही की जाती है ऐसी किवदंति खास कारणों से प्रचारित की गई है किन्तु धर्म सिन्धु ग्रंथ के पेज न.- 222 में ‘‘उद्धृत नारायण बलि प्रकरण निर्णय’’ में स्पष्ट है कि यह विधि किसी भी देवता के मंदिर में किसी भी नदी के तट पर कराई जा सकती है। अत: जहां कहीं भी योग्य पात्र तथा योग्य आचार्य, इस विधि के ज्ञाता हों, इस कर्म को कराया जा सकता है। छत्तीसगढ़ की धरा पर अमलेश्वर ग्राम का नामकरण बहुत पूर्व भगवान शंकर के विशेष तीर्थ के कारण रखा गया होगा क्योंकि खारून नदी के दोनों तटों पर भगवान शंकर के मंदिर रहे होंगे, जिसमें से एक तट पर हटकेश्वर तीर्थ आज भी है और दूसरे तट पर अमलेश्वर तीर्थ रहा होगा, इसी कारण इस ग्राम का नाम अमलेश्वर पड़ा। अत: खारून नदी के पवित्र पट पर बसे इस महाकाल अमलेश्वर धाम में यह क्रिया शास्त्रोक्त रूप से कराई जाती है।
उपायों की सार्थकता:
यह विधि प्रेत बाधा दूर करने एवं परिजन को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने के लिए की जाती है।
जैसा कि ऊपर बताया गया है कि असमायिक मृत्यु जैसे कि एक्सीडेंट, बीमारी, आत्महत्या या हत्या, पानी में डूबने से या जलने से साथ ही प्रसव के दौरान इत्यादि से होने वाली मृत्यु के कारण कोई भी जीव सद्गति को प्राप्त न कर प्रेत योनि में प्रवेश कर जाता है। जीव को प्रेतयोनि में नाना प्रकार के कष्ट को भोगने पड़ते हैं जिसके कारण वह अपने परिवार के प्रियजनों को भी कष्ट देता रहता है, जिसके कारण उस परिवार के वंशज विभिन्न प्रकार के कष्ट जिसमें शारीरिक, आर्थिक, मानसिक अशांति अथवा गृह-क्लेशों से गुजरते रहते हैं। अपने पितृों को प्रेत योनि से मुक्ति दिलाने एवं स्वयं् पर आये प्रेत-बाधा दोष को दूर करने के लिए अमलेश्वर धाम पर संपन्न होने वाले नारायण नागबलि के विधिवत पूजा में सम्मिलत होकर अपने कष्टों का निवारण करना चाहिए। यही एक मात्र स्थान है जो इस पूजन विधि के लिए सबसे उपयुक्त है।