ह्रदय,अर्थात दिल शरीर का सबसे मूल्यवान अंग है | इसकी धड़कन की स्तिथि देखकर ही हम किसी के रोगी या निरोगी होने की पुष्टि करते हैं | यह ह्रदय ही सारे शरीर में शुद्ध ऑक्सीजन युक्त रक्त को पहुंचाने की जिम्मेदारी निर्वहन करता है | इसके लिए उसे पर्याप्त ऊर्जा की आवश्यकता होती है | जब यह शक्ति कम हो जाती है या उसकी आपूर्ति में गतिरोध आने लगता है,तो उनकी परेशानियाँ खड़ी होने लगती है |
दय असंख्य पतली-पतली नसों एवं मांसपेशियों से युक्त एक गोल लम्बवत खोखला मांस पिण्ड होता है। इसके अन्दर चार खण्ड (पार्ट) होते हैं और प्रत्येक खण्ड में एक ऑटोमैटिक वाल्व लगा रहता है। इससे पीछे से आया हुआ रक्त उस खण्ड में इकठ्ठा होकर आगे तो जाता है, परन्तु वापस आने से पहले वाल्व बन्द हो जाता है, जिससे वह रक्त शरीर के सभी भागों में चला जाता है। ऐसा हृदय के चारों भागों में चलता रहता है। जब इन ऑटोमैटिक वाल्वों में खराबी आ जाती है, तो रक्त पूरी मात्रा में आगे नहीं जा पाता और कुछ वापस आ जाता है, इससे रक्त सारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है और कई तरह की परेशानियाँ खड़ी होती हैं। हृदय पर अतिरिक्त बोझ पडऩे लगता है। जिससे उसमें अचानक तीव्र दर्द उठता है, जो असहनीय होता है। यह दर्द सीने के बीच के हिस्से में होता हुआ बायीं बाजू, गले व जबड़े की तरफ जाता है। इस स्थिति को ही दिल का दौरा कहते हैं।
हृदय रोग के कारण:
ज्यादा चर्बीयुक्त आहार प्रतिदिन लेने से वह चर्बी नसों में इक_ी होती जाती है और धमनियों को जाम कर देती हैं इससे रक्त संचार धीमा हो जाता है, जिससे हृदय में अतिरिक्त दबाव बढ़ जाता है और शरीर में रक्त प्रवाह की कमी हो जाती है। इस स्थिति में जब हम तेज-तेज चलते हैं, सीढिय़ां चढ़ते है या कोई वजन उठाते है, तब हमें ज्यादा ऑक्सिजन की जरूरत पड़ती हैै और हमारा हृदय उस बढ़ी हुई जरूरत को पूरी नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में हृदयघात होता है।
हृदय रोग से सम्बन्धित बीमारियाँ:
1.उच्च रक्तचाप: रक्त वहिनियों में अत्याधिक मात्रा में वसा जमा हो जाने के कारण उच्च रक्तचाप की बीमारी होती है। उच्च रक्तचाप के लगातार बने रहने से हृदय में अतिरिक्त दबाव बना रहता हैै, जिससे हृदय रोग होने की सम्भावना ज्यादा रहती है। अगर समय रहते दवाओं के माध्यम से ब्लड प्रेशर को सामान्य कर लिया जाये, तो हृदय रोग होने की सम्भावना घट जाती है।
2. गुर्दे की बीमारियाँ: गुर्दे की कई प्रकार की बीमारियों की वजह से खून की सफाई का कार्य बाधित होता है और हृदय में दूषित खून के बार-बार जाने से उसकी मांसपेशियाँ कमजोर पडऩे लगती है, जो हृदय रोग का कारण बनती हैैं।
3. मधुमेह: जब डायबिटीज के कारण खून में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है और लम्बे समय तक बराबर बनी रहती है, तो धीरे-धीरे यही हृदय रोग का कारण बनती है।
4. मोटापे की अधिकता: जब अनियमित खान-पान से या कई प्रकार की हारमोनल बीमारियों से व्यक्ति का मोटापा बढ़ जाता है तब भी हृदय रोग सामान्य से ज्यादा होने की सम्भावना रहती है।
5. पेट में कीड़े (कृमि) होने पर: जब आमाशय में दूषित खान-पान की वजह से कृमि पड़ जाते हैं और समय से इलाज न मिलने की वजह से पर्याप्त बड़े हो जाते है, तब वे वहां रहते हुए आपका खाना भी खाते हैं तथा दूषित मल भी विसर्जित करते हैं और वही खून हृदय में बार-बार जाता है जो हृदय रोग का कारण बनता है इसलिये वर्ष में एक बार कीड़े मारने की दवा अवश्य खानी चाहिये ।
6. खान-पान: तनावमुक्त रहते हुए, शाकाहारी भोजन को पूर्णत: अपने जीवन में अपनाकर काफी हद तक हृदय रोग से बचा जा सकता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखें।
७. तनाव, धूम्रपान एवं शराब: आधुनिक जीवन में पाये जाने वाले स्ट्रेस यानि तनाव, रक्तचाप बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. धूम्रपान करने से बचें क्योंकि धुम्रपान शरीर में मौजूद विटामिन एवं खनिज तत्वों का नाश करता है. तम्बाकू से हृदय गति और रक्तचाप तो बढ़ता ही है, साथ ही रक्त संचार प्रणाली में गतिरोध भी बढ़ जाता है.
८. शारीरिक निष्क्रियता एवं सिंड्रोम एक्स: नियमित व्यायाम के साथ उपयुक्त पोषक आहार लेने से हृदय की मांसपेशियों में मजबूती आती है. इसलिए नियमित रूप से व्यायाम करने की आदत डालें.
सावधानियां:
1- शरीर की आवश्यकता के अनुसार ही कम चिकनाईयुक्त आहार लेना चाहिए। 40 वर्ष की उम्र के बाद आवश्यकता से अधिक खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। नसों में अत्यधिक चर्बी के जमाव को रोकने के लिए चोकरयुक्त आटे की रोटियाँ, ज्यादा मात्रा में हरी सब्जियाँ, सलाद, चना, फल आदि का उपयोग करें।
2- खाने में लाल मिर्च, तीखे मसाला आदि एक निर्धारित मात्रा में ही सब्जी में डालें तथा ज्यादा तली चीजें, तेल युक्त अचार आदि बहुत कम मात्रा में लें। एक बार में ज्यादा खाना न खाकर आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा कई बार खाना खायें।
3- सूर्योदय के पहले उठना, धीरे-धीरे टहलना, स्नान आदि करके हल्के योग एवं ध्यान आदि प्रतिदिन करना चाहिये।
4- मांसाहार, अण्डे, शराब व धूम्रपान, तम्बाकू आदि से पूर्णत: अपने आपको बचायें। ये हृदय एवं शरीर के लिये अत्यन्त घातक हैं इसलिये इनका भूल कर भी सेवन न करें।
5- मानसिक तनाव को दूर रखें। इससे हृदय में दबाव पड़ता है। सदा ही प्रसन्न रहने की कोशिश करें, क्रोध बिल्कुल न करें, सदा हंसते रहें।
हृदय रोग के लक्षण:
ज्यादा तेज चलने, सीढिय़ाँ चढऩे या साइकिल आदि चलाने से सांस फूलना, कमजोरी व थकान लगना, पसीना अधिक आना, सीने में दर्द होना, मिचली आना, पैरों में सूजन हो जाना, दिल की धडक़न बढऩा, घबराहट होना, रात में नींद कम आना व अचानक खुलने पर नींद न आना आदि होने से समझ लें कि आपको हृदय रोग पकड़ रहा है। दर्द, जलन, दबाब, भारीपन महसूस करना, पेट का ऊपरी हिस्सा, गर्दन, जबड़ा तथा बाहों पर फिर कंधों के भीतर होना. छाती में बेचैनी, चंचल चित होना, चक्कर आना, सांस का छोटा होना, घबराहट, बेचैनी, ठंड, तेजी से पसीना छूटना, हृदय की गति तेज या अनियमित होना इसके लक्षण हैं। इसलिये समय रहते तुरन्त चिकित्सक से सम्पर्क करें। ऐलोपैथी में अनेकों दवायें खून पतला करने की एवं हृदय को ताकत देने की हैं और जब यह दवायें काम नहीं करती हैं तो आपरेशन ही अन्तिम विकल्प बचता है।
हृदय रोग निवारक आयुर्वेदिक औषधियाँ:
जैसे ही हमें चिकित्सकों से यह पता चले की हम हृदय रोग की चपेट में आ चुके हैं तो किसी योग्य आयुर्वेदिक डाक्टर या वैद्य द्वारा निर्देशित दवाओं का सेवन चालू कर दें। आज भी आयुर्वेद में इतनी क्षमता है कि वह हृदय रोग को ठीक कर सकता है। आयुर्वेद रोग को दबाता नहीं, अपितु उसे समूल नष्ट करता है।
ज्योतिषीय निदान:
हृदय मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है । हृदय की बनावट कार्य प्राणी या वाल्वों में रक्त संचार की रुकावट या शिराओं संचार व्यवस्था में गड़बड़ी होने से हृदय के कार्य करने में रुकावट पैदा होती है फलस्वरूप हृदय रोग उत्पन्न हो जाते हैं । धूम्रपान, शराब का सेवन करना, चिंता, शोक, उच्च रक्त चाप, चर्बी का बढऩा, मानसिक तनाव, अपुष्ट भोजन, वात-रोग, गठिया, भय, वंशानुगत कारणों, प्रमेह आदि कारणों से हृदय रोग होते हैं। हृदय रोग कई प्रकार के होते हैं जैसे जन्म से हृदय में छेद होना, हृदय शूल, खून के थक्के जमने से हृदय घात होना, वाल्व में खराबी आना, उच्च/निम्न रक्त चाप आदि। ज्योतिष की दृष्टि से हृदय रोग को प्रभावित करने वाले कारक कुंडली में चतुर्थ स्थान, हृदय का स्थान है। पंचम भाव/पंचमेश मनोस्थति को दर्शाता है। छठा भाव रोग का कारक है। सूर्य ऊर्जा का प्रतीक है। बुध स्नायु-मंडल पर प्रभाव रखता है। चन्द्रमा रक्त और मन का प्रतीक है। मंगल रक्ताणु और रक्त-परिभ्रमण पर प्रभाव रखता है। हृदय रोग सम्बन्धी योग कुंडली में पंचम भाव में पाप ग्रह बैठा हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से घिरा हुआ हो, से होता है। पंचम भाव का स्वामी पाप ग्रह के साथ बैठा हो अथवा पाप गृह से आक्रांत हो, तब यह रोग होता है। पंचम भाव का स्वामी नीच राशि अथवा शत्रु राशि में स्थित हो या अष्ठम भाव में बैठा हो तथा यदि पंचमेश बारहवे घर में हो या बारहवे भाव के स्वामी के साथ 6, 8या 12वे स्थान पर हो तो हृदय रोग होता है। सूर्य छठे भाव का स्वामी हो कर चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों के साथ बैठा हो, चतुर्थ भाव में मंगल के साथ शनि या गुरु स्थित हो और पाप ग्रहों द्वारा दृष्ट हो, सूर्य और शनि चतुर्थ भाव में साथ बैठे हों, सूर्य कुम्भ राशि में बैठा हो, सूर्य वृश्चिक राशि में बैठा हो और पाप ग्रहों से प्रभावित हो, ऐसी स्थिति में भी हृदयघात की संभावना बनती है। सूर्य, मंगल, गुरु चतुर्थ स्थान पर स्थित हो, चतुर्थ स्थान में शनि हो तथा सूर्य एवं छठे भाव के स्वामी पाप ग्रहों के साथ हों, चतुर्थ भाव में केतु और मंगल स्थित हों तब हृदय से संबंधित अन्य बीमारियां हो सकती हैं। यदि शनि, मंगल और वृहस्पति चतुर्थ भाव में हो तो जातक हृदय रोगी होता है। यदि तृतीयेश, राहु या केतु के साथ हो जातक हृदय रोग के कारण मूच्र्छा या कोमा में जाता रहता है। हृदय-शूल होने के कारक चतुर्थ भाव, चतुर्थ भाव के स्वामी और सूर्य की स्थिति होते हैं। चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो और लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो, द्वादश भाव में राहु हो तो गैस वायु से हृदय प्रदेश में दर्द होता है। पाप ग्रहों के साथ सूर्य वृश्चिक राशि में हों तब भी यही स्थिति बनती है। यदि पंचमेश और सप्तमेश छठे स्थान पर हो तथा पंचम अथवा सप्तम स्थान पर पाप ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो जातक हृदय-शूल से पीडि़त होता है तब घबराहट और बेचैनी के साथ हृदय कम्पन होता है। जब गुरु या शनि षष्ठेश होकर चतुर्थ स्थान पर बैठें हों और पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो यह रोग होने की अधिक संभावना होती है।
दय असंख्य पतली-पतली नसों एवं मांसपेशियों से युक्त एक गोल लम्बवत खोखला मांस पिण्ड होता है। इसके अन्दर चार खण्ड (पार्ट) होते हैं और प्रत्येक खण्ड में एक ऑटोमैटिक वाल्व लगा रहता है। इससे पीछे से आया हुआ रक्त उस खण्ड में इकठ्ठा होकर आगे तो जाता है, परन्तु वापस आने से पहले वाल्व बन्द हो जाता है, जिससे वह रक्त शरीर के सभी भागों में चला जाता है। ऐसा हृदय के चारों भागों में चलता रहता है। जब इन ऑटोमैटिक वाल्वों में खराबी आ जाती है, तो रक्त पूरी मात्रा में आगे नहीं जा पाता और कुछ वापस आ जाता है, इससे रक्त सारे शरीर को पर्याप्त मात्रा में नहीं मिल पाता है और कई तरह की परेशानियाँ खड़ी होती हैं। हृदय पर अतिरिक्त बोझ पडऩे लगता है। जिससे उसमें अचानक तीव्र दर्द उठता है, जो असहनीय होता है। यह दर्द सीने के बीच के हिस्से में होता हुआ बायीं बाजू, गले व जबड़े की तरफ जाता है। इस स्थिति को ही दिल का दौरा कहते हैं।
हृदय रोग के कारण:
ज्यादा चर्बीयुक्त आहार प्रतिदिन लेने से वह चर्बी नसों में इक_ी होती जाती है और धमनियों को जाम कर देती हैं इससे रक्त संचार धीमा हो जाता है, जिससे हृदय में अतिरिक्त दबाव बढ़ जाता है और शरीर में रक्त प्रवाह की कमी हो जाती है। इस स्थिति में जब हम तेज-तेज चलते हैं, सीढिय़ां चढ़ते है या कोई वजन उठाते है, तब हमें ज्यादा ऑक्सिजन की जरूरत पड़ती हैै और हमारा हृदय उस बढ़ी हुई जरूरत को पूरी नहीं कर पाता, ऐसी स्थिति में हृदयघात होता है।
हृदय रोग से सम्बन्धित बीमारियाँ:
1.उच्च रक्तचाप: रक्त वहिनियों में अत्याधिक मात्रा में वसा जमा हो जाने के कारण उच्च रक्तचाप की बीमारी होती है। उच्च रक्तचाप के लगातार बने रहने से हृदय में अतिरिक्त दबाव बना रहता हैै, जिससे हृदय रोग होने की सम्भावना ज्यादा रहती है। अगर समय रहते दवाओं के माध्यम से ब्लड प्रेशर को सामान्य कर लिया जाये, तो हृदय रोग होने की सम्भावना घट जाती है।
2. गुर्दे की बीमारियाँ: गुर्दे की कई प्रकार की बीमारियों की वजह से खून की सफाई का कार्य बाधित होता है और हृदय में दूषित खून के बार-बार जाने से उसकी मांसपेशियाँ कमजोर पडऩे लगती है, जो हृदय रोग का कारण बनती हैैं।
3. मधुमेह: जब डायबिटीज के कारण खून में शुगर की मात्रा बढ़ जाती है और लम्बे समय तक बराबर बनी रहती है, तो धीरे-धीरे यही हृदय रोग का कारण बनती है।
4. मोटापे की अधिकता: जब अनियमित खान-पान से या कई प्रकार की हारमोनल बीमारियों से व्यक्ति का मोटापा बढ़ जाता है तब भी हृदय रोग सामान्य से ज्यादा होने की सम्भावना रहती है।
5. पेट में कीड़े (कृमि) होने पर: जब आमाशय में दूषित खान-पान की वजह से कृमि पड़ जाते हैं और समय से इलाज न मिलने की वजह से पर्याप्त बड़े हो जाते है, तब वे वहां रहते हुए आपका खाना भी खाते हैं तथा दूषित मल भी विसर्जित करते हैं और वही खून हृदय में बार-बार जाता है जो हृदय रोग का कारण बनता है इसलिये वर्ष में एक बार कीड़े मारने की दवा अवश्य खानी चाहिये ।
6. खान-पान: तनावमुक्त रहते हुए, शाकाहारी भोजन को पूर्णत: अपने जीवन में अपनाकर काफी हद तक हृदय रोग से बचा जा सकता है। इस सम्बन्ध में निम्नलिखित बातों का विशेष ध्यान रखें।
७. तनाव, धूम्रपान एवं शराब: आधुनिक जीवन में पाये जाने वाले स्ट्रेस यानि तनाव, रक्तचाप बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है. धूम्रपान करने से बचें क्योंकि धुम्रपान शरीर में मौजूद विटामिन एवं खनिज तत्वों का नाश करता है. तम्बाकू से हृदय गति और रक्तचाप तो बढ़ता ही है, साथ ही रक्त संचार प्रणाली में गतिरोध भी बढ़ जाता है.
८. शारीरिक निष्क्रियता एवं सिंड्रोम एक्स: नियमित व्यायाम के साथ उपयुक्त पोषक आहार लेने से हृदय की मांसपेशियों में मजबूती आती है. इसलिए नियमित रूप से व्यायाम करने की आदत डालें.
सावधानियां:
1- शरीर की आवश्यकता के अनुसार ही कम चिकनाईयुक्त आहार लेना चाहिए। 40 वर्ष की उम्र के बाद आवश्यकता से अधिक खाना स्वास्थ्य की दृष्टि से हानिकारक है। नसों में अत्यधिक चर्बी के जमाव को रोकने के लिए चोकरयुक्त आटे की रोटियाँ, ज्यादा मात्रा में हरी सब्जियाँ, सलाद, चना, फल आदि का उपयोग करें।
2- खाने में लाल मिर्च, तीखे मसाला आदि एक निर्धारित मात्रा में ही सब्जी में डालें तथा ज्यादा तली चीजें, तेल युक्त अचार आदि बहुत कम मात्रा में लें। एक बार में ज्यादा खाना न खाकर आवश्यकतानुसार थोड़ा-थोड़ा कई बार खाना खायें।
3- सूर्योदय के पहले उठना, धीरे-धीरे टहलना, स्नान आदि करके हल्के योग एवं ध्यान आदि प्रतिदिन करना चाहिये।
4- मांसाहार, अण्डे, शराब व धूम्रपान, तम्बाकू आदि से पूर्णत: अपने आपको बचायें। ये हृदय एवं शरीर के लिये अत्यन्त घातक हैं इसलिये इनका भूल कर भी सेवन न करें।
5- मानसिक तनाव को दूर रखें। इससे हृदय में दबाव पड़ता है। सदा ही प्रसन्न रहने की कोशिश करें, क्रोध बिल्कुल न करें, सदा हंसते रहें।
हृदय रोग के लक्षण:
ज्यादा तेज चलने, सीढिय़ाँ चढऩे या साइकिल आदि चलाने से सांस फूलना, कमजोरी व थकान लगना, पसीना अधिक आना, सीने में दर्द होना, मिचली आना, पैरों में सूजन हो जाना, दिल की धडक़न बढऩा, घबराहट होना, रात में नींद कम आना व अचानक खुलने पर नींद न आना आदि होने से समझ लें कि आपको हृदय रोग पकड़ रहा है। दर्द, जलन, दबाब, भारीपन महसूस करना, पेट का ऊपरी हिस्सा, गर्दन, जबड़ा तथा बाहों पर फिर कंधों के भीतर होना. छाती में बेचैनी, चंचल चित होना, चक्कर आना, सांस का छोटा होना, घबराहट, बेचैनी, ठंड, तेजी से पसीना छूटना, हृदय की गति तेज या अनियमित होना इसके लक्षण हैं। इसलिये समय रहते तुरन्त चिकित्सक से सम्पर्क करें। ऐलोपैथी में अनेकों दवायें खून पतला करने की एवं हृदय को ताकत देने की हैं और जब यह दवायें काम नहीं करती हैं तो आपरेशन ही अन्तिम विकल्प बचता है।
हृदय रोग निवारक आयुर्वेदिक औषधियाँ:
जैसे ही हमें चिकित्सकों से यह पता चले की हम हृदय रोग की चपेट में आ चुके हैं तो किसी योग्य आयुर्वेदिक डाक्टर या वैद्य द्वारा निर्देशित दवाओं का सेवन चालू कर दें। आज भी आयुर्वेद में इतनी क्षमता है कि वह हृदय रोग को ठीक कर सकता है। आयुर्वेद रोग को दबाता नहीं, अपितु उसे समूल नष्ट करता है।
ज्योतिषीय निदान:
हृदय मानव शरीर का एक महत्वपूर्ण अंग है । हृदय की बनावट कार्य प्राणी या वाल्वों में रक्त संचार की रुकावट या शिराओं संचार व्यवस्था में गड़बड़ी होने से हृदय के कार्य करने में रुकावट पैदा होती है फलस्वरूप हृदय रोग उत्पन्न हो जाते हैं । धूम्रपान, शराब का सेवन करना, चिंता, शोक, उच्च रक्त चाप, चर्बी का बढऩा, मानसिक तनाव, अपुष्ट भोजन, वात-रोग, गठिया, भय, वंशानुगत कारणों, प्रमेह आदि कारणों से हृदय रोग होते हैं। हृदय रोग कई प्रकार के होते हैं जैसे जन्म से हृदय में छेद होना, हृदय शूल, खून के थक्के जमने से हृदय घात होना, वाल्व में खराबी आना, उच्च/निम्न रक्त चाप आदि। ज्योतिष की दृष्टि से हृदय रोग को प्रभावित करने वाले कारक कुंडली में चतुर्थ स्थान, हृदय का स्थान है। पंचम भाव/पंचमेश मनोस्थति को दर्शाता है। छठा भाव रोग का कारक है। सूर्य ऊर्जा का प्रतीक है। बुध स्नायु-मंडल पर प्रभाव रखता है। चन्द्रमा रक्त और मन का प्रतीक है। मंगल रक्ताणु और रक्त-परिभ्रमण पर प्रभाव रखता है। हृदय रोग सम्बन्धी योग कुंडली में पंचम भाव में पाप ग्रह बैठा हो और पंचम भाव पाप ग्रहों से घिरा हुआ हो, से होता है। पंचम भाव का स्वामी पाप ग्रह के साथ बैठा हो अथवा पाप गृह से आक्रांत हो, तब यह रोग होता है। पंचम भाव का स्वामी नीच राशि अथवा शत्रु राशि में स्थित हो या अष्ठम भाव में बैठा हो तथा यदि पंचमेश बारहवे घर में हो या बारहवे भाव के स्वामी के साथ 6, 8या 12वे स्थान पर हो तो हृदय रोग होता है। सूर्य छठे भाव का स्वामी हो कर चतुर्थ भाव में पाप ग्रहों के साथ बैठा हो, चतुर्थ भाव में मंगल के साथ शनि या गुरु स्थित हो और पाप ग्रहों द्वारा दृष्ट हो, सूर्य और शनि चतुर्थ भाव में साथ बैठे हों, सूर्य कुम्भ राशि में बैठा हो, सूर्य वृश्चिक राशि में बैठा हो और पाप ग्रहों से प्रभावित हो, ऐसी स्थिति में भी हृदयघात की संभावना बनती है। सूर्य, मंगल, गुरु चतुर्थ स्थान पर स्थित हो, चतुर्थ स्थान में शनि हो तथा सूर्य एवं छठे भाव के स्वामी पाप ग्रहों के साथ हों, चतुर्थ भाव में केतु और मंगल स्थित हों तब हृदय से संबंधित अन्य बीमारियां हो सकती हैं। यदि शनि, मंगल और वृहस्पति चतुर्थ भाव में हो तो जातक हृदय रोगी होता है। यदि तृतीयेश, राहु या केतु के साथ हो जातक हृदय रोग के कारण मूच्र्छा या कोमा में जाता रहता है। हृदय-शूल होने के कारक चतुर्थ भाव, चतुर्थ भाव के स्वामी और सूर्य की स्थिति होते हैं। चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो और लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से युक्त अथवा दृष्ट हो, द्वादश भाव में राहु हो तो गैस वायु से हृदय प्रदेश में दर्द होता है। पाप ग्रहों के साथ सूर्य वृश्चिक राशि में हों तब भी यही स्थिति बनती है। यदि पंचमेश और सप्तमेश छठे स्थान पर हो तथा पंचम अथवा सप्तम स्थान पर पाप ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो जातक हृदय-शूल से पीडि़त होता है तब घबराहट और बेचैनी के साथ हृदय कम्पन होता है। जब गुरु या शनि षष्ठेश होकर चतुर्थ स्थान पर बैठें हों और पाप ग्रहों के प्रभाव में हो तो यह रोग होने की अधिक संभावना होती है।
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