Wednesday 27 July 2016

वर्षा का आतिथ्य करें........

भारत की प्रमुख 4 ऋतुओं में से पावस ऋतु एक महत्वपूर्ण एवं उपयोगी ऋतु है। यह जीवन दायिनी ऋतु है। अन्न-जल और धान्य का बरखा से अटूट सम्बन्ध है, जिसके बिना मनुष्यों का जीवन संभव न होता। देखा जाए तो अभी वर्षा का गर्भकाल चल रहा है। आर्द्रा प्रवेश षष्ठी तिथि, वृश्चिक लग्न में हो रहा है। आर्द्रा लगते ही वर्षा का जन्म हो जाता है और 6नक्षत्रों में वर्षा होती है। वर्तमान समय वृश्चिक लग्न का है जिसका स्वामी जल तत्व है। वर्तमान में गुरु और शुक्र कर्क राशि में, जबकि मंगल और सूर्य मिथुन राशि में रहेंगे। गुरु-शुक्र महोत्पात का संयोग बनाएंगे।
प्रकृति जीवन और अध्यात्म के बीच में एक कड़ी बनकर जीवन की दिशाओं को संस्कृत होने की प्रेरणा देती रही है। जीवन की पोषक होने के साथ-साथ वर्षा ऋतु का मानव जीवन के सांस्कृतिक स्वरूप से भी गहरा सम्बन्ध है। संस्कृत साहित्य में कलिदास का वर्षा-ऋतु चित्रण अप्रतिम है।
मेघालोके भवति सुखिनोस्प्पन्यथावृत्ति चेत:।
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि जने किं पुनर्दूरसंस्थे॥
अर्थात मेघ को देख लेने पर तो सुखी अर्थात संयोगी जनों का चित्त कुछ का कुछ हो जाता है फिर वियोगी लोगों का क्या कहना। कालिदास ने प्रकृति को मनुष्य के सुख-दु:ख में सहभागिनी निरूपति किया है। विरही राम को लताएँ अपने पत्ते झुका-झुका कर सीता के अपहरण का मार्ग बताती हैं, मृगियाँ दर्भाकुर चरना छोडक़र बड़ी-बड़ी आँखें दक्षिण दिशा की ओर लगाये टुकुर-टुकुर ताकती रह जाती हैं और लंका के दिशा को इंगित करती हैं।
रामचरित मानस में तुलसी ने किष्किन्धाकाण्ड में स्वयं राम के मानोभावों द्वारा वर्षा ऋतु का वर्णन किया है जो अद्भुत है। मानस के इस प्रसंग के कुछ अंश हैं, राम गहन जंगलों में ऋष्यमूक पर्वत पर जा पहुंचे हैं, सुग्रीव से मैत्री भी हो चुकी है। सीता की खोज का गहन अभियान शुरू हो इसके पहले ही वर्षा ऋतु आ जाती है। वर्षा का दृश्य राम को भी अभिभूत करता है, वे लक्ष्मण से कह उठते हैं-
बरषा काल मेघ नभ छाए।
गरजत लागत परम सुहाए।।
हे लक्ष्मण! देखो ये गरजते हुए बादल कितने सुन्दर लग रहे हैं और इन बादलों को देखकर मोर आनन्दित हो नाच रहे हैं, मगर तभी अचानक ही सीता की याद तेजी से कौंधती है और तुरंत ही बादलों के गरजने से उन्हें डर भी लगने लगता है।
घन घमंड नभ गरजत घोरा।
प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥
हिन्दी साहित्य के मध्ययुग में तो तुलसी, सूर, जायसी आदि कवियों ने पावस ऋतु का सुंदर-सरस चित्रण किया ही है, कवि रहीम कहते हैं -
पावस देखि रहीम मन, कोइल साधे मौन।
अब दादुर वक्ता भए, हमको पूछत कौन।।                                
अर्थात, वर्षा ऋतु आते ही मेंढको की आवाज चारों तरफ गूंजने लगती है तब कोयल यह सोचकर खामोश हो जाती है कि उसकी आवाज कौन सुनेगा। आहो! कैसा सुंदर विवरण है।
  परंतु वर्तमान परिदृश्य में देखें तो हमें वर्षा का वह स्वरूप दिखता नहीं है। कभी अनावृष्टि तो कभी अतिवृष्टि। मनुष्य ने जल-थल और नभ पर राज कर रखा है और उसे अपने अनुसार चलाता है। प्रकृति रूठ चुकी है जिससे आये दिन अपना भयानक रूप दिखा रही है। आवश्यकता है कि वर्षा ऋतु में ईश्वर ने जो जल हमें दिया है उसका उचित आतिथ्य हो। वर्षा के जल का आतिथ्य से मेरा अभिप्राय वर्षा-जल के संचलन से है। सरकारी एजेंसियां तो अपना काम कर ही रही हैं (और आपको पता ही है कि वह किस तरह काम करती है) आम जनता को भी इसके लिए प्रयास करना चाहिए। अभी सही मौका है कि जनसमूह बनाकर गांवों और शहरों के तालाबों को साफ किया जाये, उन्हें गहरा किया जाए ताकि वर्षाजल वहां संचयित हो सके। विशेषकर जिन क्षेत्रों में जल का नित आभाव रहता है उन्हें वर्षाजल को जलाशयों में इकट्ठा करके रखें जो गर्मी के दिनों में काम तो आयेगी ही साथ इससे भूमि का जलस्तर भी बेहतर होगा।

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