Tuesday, 25 August 2015

भाई की रक्षा:

अपनी माँ की आँखों का तारा और बहन का इकलौता दुलारा भाई था अजेय। जिसे किसी ने कभी कोसा न हो अभिशाप न दिया हो कहते हैं ऐसे व्यक्ति को बुरी नजर जल्दी लगती है काल भी जैसे उसके लिये तैयार रहता है। भाई दौज आई तो वह माँ से बोला -मैं बहन से टीका कराने जाऊँगा। माँ कैसे भेजे। बहुत ही प्यारा और बूढी माँ का इकलौता सहारा। ऊपर से रास्ता बडे खतरों से भरा।
बेटा ना जा। बहन परदेश में है। तू अकेला है रस्ता बियाबान है। तेरे बिना मैं कैसे रहूँगी।
जैसे भी रह लेना मैया। बहन मेरी बाट देखती होगी।
बेटा आखिर चल ही दिया। पर जैसे ही दरवाजे से निकला दरवाजे की ईँटें सरकीं।
तुम्हें मुझे दबाना है तो ठीक है पर पहले मैं बहन से टीका तो कराके आ जाऊँ फिर मजे में दबा देना.। अजेय ने कहा तो दरवाजा मान गया। एक वन पार किया तो शेर मिला। अजेय को देखते ही झपटा।
अरे भैया ठहरो। मेरी बहन टीका की थाली सजाए भूखी बैठी होगी। पहले मैं बहन से टीका करा के लौट आऊँ तब मुझे खा लेना। शेर मान गया। आगे बियाबान जंगल के बीच एक नदी मिली। अजेय जैसे ही नदी पार करने लगा नदी उमड कर उसे डुबाने चली।
नदी माता, मुझे शौक से डुबा लेना पर पहले मैं बहन से टीका तो करवा आऊँ। वह मेरी बाट देखती होगी। नदी भी शान्त हो गई।
भाई बहन की देहरी पर पहुँचा। बहन अपने भाई के आंवडे-पाँवडे (कुशलता की प्रार्थना) बाँचती चरखा कात रही थी कि तागा टूट गया। वह तागा जोडने लग गई। अब न तागा जुडे न बहन भाई को देखे। भाई खिन्न मन सोचने लगा कि मैं तो इतनी मुसीबतें पार कर आया हूँ और बहन को देखने तक की फुरसत नही। वह लौटने को हुआ तभी तागा जुड गया बहन बोली--अरे भैया मैं तो चरखा चलाती हुई तेरे नाम के ही आँवडे-पाँवडे बाँच रही थी।
बहन ने भाई को बिठाया। दौडी-दौडी सास के पास गई, पूछा--अम्मा-अम्मा सबसे प्यारा पाहुना आवै तो क्या करना चाहिये? सास ने कहा कि करना क्या है गोबर माटी से आँगन लीप ले और दूध में चावल डाल दे। बहन ने झट से आँगन लीपा, दूध औटा कर खोआ खीर बनाई। भाई की आरती उतारी, टीका किया, रक्षा सूत्र बांधा। पंखा झलते हुए भाई को भोजन कराया।
दूसरे दिन तडके ही ढिबरी जलाकर बहन ने गेहूँ पीसे। रोटियाँ बनाई और अचार के संग कपडे में बाँधकर भाई को दे दीं। भाई को भूख कहाँ। आते समय सबसे कितने-कितने कौल वचन हार कर आया था। मन में एक तसल्ली थी कि बहन से टीका करवा लिया।
उधर उजाला हुआ। बच्चे जागे। पूछने लगे---माँ मामा के लिये तुमने क्या बनाया। बच्चों को देने के लिये बहन ने बची हुई रोटियाँ उजाले में देखीं तो रोटियों में साँप की केंचुली दिखी। कलेजा पकडकर बैठ गई - हाय राम! मैंने अपना भाई अपने हाथों ही मार दिया।
बस दूध चूल्हे पर छोडा, पूत पालने में छोडा और जी छोड कर भाई के पीछे दौड पडी। कोस दो कोस जाकर देखा, भाई एक पेड के नीचे सो रहा है और छाक (कपडे में बँधी रोटियाँ) पेड से टँगी है। बहन ने चैन की साँस ली। भाई को जगाया। भाई ने अचम्भे से बहन को देखा। बहन ने पूरी बात बताई। भाई बोला--तू मुझे कहाँ-कहाँ बचाएगी बहन। बहन बोली--मुझसे जो होगा मैं करूँगी पर अब तुझे अकेला नही जाने दूँगी।
भाई ने लाख रोका पर बहन न मानी। चलते-चलते रास्ते में वही नदी मिली। भाई को देख जैसे ही उमडने लगी। बहन ने नदी को चुनरी चढाई। नदी शान्त हो गई। शेर मिला तो उसे बकरा दिया। शेर जंगल में चला गया। दरवाजे के लिये बहन ने सोने की ईँट रख ली। चलते-चलते बहन को प्यास लगी।
भाई ने कहा--बहन मैंने पहले ही मना किया था। अब इस बियाबान जंगल में पानी कहाँ मिलेगा ? बहन बोली-- मिलेगा कैसे नही, देखो दूर चीलें मँडरा रहीं हैं वहाँ जरूर पानी होगा।
ठीक है, मैं पानी लेकर आता हूँ।
बहन बोली--पानी पीने तो मैं ही जाऊँगी? अभी पीकर आती हूँ। तब तक तू पेड के नीचे आराम करना।
बहन ने वहाँ जाकर देखा कि कुछ लोग एक शिला गढ रहे है।
भैया ये क्या बना रहे हो?
तुझे मतलब? पानी पीने आई है तो पानी पी और अपना रस्ता देख।
एक आदमी ने झिडककर कहा तो बहन के कलेजे में सुगबुगाहट हुई। जरूर कोई अनहोनी है। बोली- भैया बतादो ये शिला किसके लिये गढ रहे हो? मैं पानी तभी पीऊँगी।
बडी हठी औरत है। चल नही मानती तो सुन। एक अजेय पूत है। उसी की छाती पर सरकाने के लिये ऊपर से हुकम हुआ है।
बहन को काटो तो खून नही। माँ-जाए के लिये हर जगह काल बैरी बन कर खडा है।
उसने ऐसी क्या गलती करी है जो....?
तुझे आम खाने कि पेड गिनने? तू पानी पी और अपना रास्ता देख। दूसरा आदमी चिल्लाकर बोला पर वह नही गई। वही खडी गिडगिडाने लगी --सुनो भैया ! वह भी किसी दुखियारी माँ का लाल होगा। किसी बहन का भाई होगा। तुम्हें दौज मैया की सौगन्ध। बताओ, क्या उसे बचाने का कोई उपाय नही है?
हाँ उपाय तो है । आदमी हार मानकर बोला--उसे किसी ने कभी कोसा नही है। अगर कोई कोसना शुरु करदे तो अलह टल सकती।
बस बहन को कैसी प्यास! कहाँ का पानी! उसी समय से उसने भाई को कोसना चालू कर दिया और कोसती-कोसती भाई के पास आई--अरे तू मर जा। धुँआ सुलगे, मरघट जले.।
मेरी अच्छी-भली बहन बावली भी हो गई। मैंने कितना मना किया था कि मत चल मेरे संग। नही मानी। भाई ने दुखी होकर सोचा। जैसे-तैसे घर पहुँचे तो माँ हैरान। अच्छी भली बेटी को कौन सा प्रेत लग गया है कौन से भूत-चुडैल सवार हो गए हैं, जो भाई को कोसे जा रही थी। लडकी तो बावरी हो गई?
माँ कोई बात नही। बावरी है भूतरी है, जैसी भी है तो मेरी बहन। तू नाराज मत हो।
माँ चुप हो गई बहन रोज उठते ही भाई को कोसती और दिन भर कोसती रहती। ऐसे ही कुछ दिन गुजर गए। एक दिन भाई की सगाई आई। बहन आगे आ गई, इस जनम जले की सगाई कैसे होगी?
सबको बहुत बुरा लगा पर भाई ने कहा -मेरी बहन की किसी बात का कोई बुरा मत मानो। वह जैसी भी है मेरी बहन है।
फिर तो हर रस्म पर बहन इसी तरह भाई को रोकती रही टोकती रही और कोसती रही। भाई का ब्याह हो गया।
अब आई सुहागरात। बहन पहले ही पलंग पर जाकर लेट गई।
यह अभागा सुहागरात कैसे मनाएगा? मैं भी वही सोऊँगी।
और सब तो ठीक पर सुहागरात में कैसे क्या होगा। ऐसी अनहोनी तो न देखी न सुनी। पर भाई ने कहा -कोई बात नही। मेरी बावरी बहन है। मैं उसका जी नही दुखाऊँगा। हम जैसे भी रात काट लेंगे। फिर कोई क्या कहता।
बहन रात में भाई और भौजाई के बीच लेट गई। पर पलकों में नींद कहाँ से आती। सोने का बहाना करती रही। आधी रात को भगवान का नागदेवता को हुकम हुआ कि फलां घर में एक नया-नवेला जोडा है उसमें से दूल्हा को डसना है। नागदेवता आए। पलंग के तीन चक्कर लगाए पर जोडा नही वहाँ तो तीन सिर और छह पाँव दिख रहे थे। जोडा होता तो डसता। बहन सब देख-समझ रही थी। चुपचाप उठी। तलवार से साँप को मारा और ढाल के नीचे दबा कर रख दिया। और भगवान का नाम लेकर दूसरे कमरे में चली गई।
सुबह उसने सबको मरा साँप दिखाया और बोली-मैं बावरी आवरी कुछ नही हूँ। बस अपने भाई की जान, मैया की गोद और भौजाई का एहवात (सुहाग) बचाने के लिये यह सब किया। जो भूल चूक हुई उसे माफ करना।
भाई-भौजाई ने बहन का खूब मान-पान रखा। बहन खुशी-खुशी अपने घर चली गई।
जैसे इस बहन ने भाई की रक्षा की और भाई ने बहन का मान रखा वैसे ही सब रखें । जै दौज मैया की।
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चूड़ा-कर्म संस्कार का ज्योतिष्य यथार्थ और विधि

इसमें पहली बार बालक के सिर के बाल उतारे जाते हैं। यह कार्य जन्म से एक वर्ष या तीन वर्ष बाद होता है। चरक का विचार है कि केश, सिर एवं नखों के काटने एवं प्रसाधन से पौष्टिकता, बल, आयुष्य, शुचिता और सौंदर्य की प्राप्ति होती है। इस संस्कार के पीछे स्वास्थ्य एवं सौंदर्य की भावना ही प्रमुख थी। पहले यह घर पर होता था, किंतु बाद में देवालयों में।
काल निर्धारण: चूड़ाकर्म संस्कार, जिसे चौलकर्म भी कहा जाता है, केवल पुत्र संतति के लिए किया जाता है। इसका अर्थ है शिशु का मुण्डन पूर्वक शिखा(चूड़ा) का निर्धारण करना। सभी हिंदू शास्रकारों ने इसका वर्णन किया है। अधिकतर धर्मशास्रकारों ने इसे जन्म से तीसरे वर्ष में किये जाने का प्रस्ताव किया है, किंतु बौधा0 (2/8), पार0 गृ0 सू0 (2.1.1- 2) तथा मनु0 (2.35) के अनुसार उसे जन्म के प्रथम या तृतीय वर्ष में संपन्न किया जाना चाहिए, किंतु आश्व0 गृ0 सू0 (1/17/1 पर नारायणी टीका) तथा अन्य उत्तरकालीन संस्कार प्रकाश आदि संस्कार पद्धतियों में कहा गया है कि चौल कर्म के लिए यद्यपि प्रथम, तृतीय या पंचम वर्षों को सर्वाधिक उपयुक्त समझा गया है, किंतु असुविधा होने पर इसे इससे पूर्व या बाद में अथवा उपनयन संस्कार के साथ भी किया जा सकता है। इसीलिए कई सामाजिक वर्गों में इसे उपनयन के साथ ही किये जाने की परिपाटी पायी जाती है।
इस संदर्भ में गृह्यसूत्रकारों का यह भी कहना है कि इसके लिए उत्तरायण का समय अधिक उपयुक्त होता है। मासों की दृष्टि से राजमार्तण्ड के अनुसार इसके लिए चैत्र तथा पोष को अधिक उपयुक्त माना जाता है, किंतु सारसंग्रह में ज्येष्ठ तथा पौष को इसके लिए वर्जित कहा गया है।
चूड़ाकर्म का महत्व: इस संस्कार का संबंध प्रमुख रुप से शिशु की स्वास्थ्य रक्षा के साथ माना गया है। आश्व0 गृ0 सू0 के अनुसार इससे बालक की आयु वृद्धि होती है, वह यशस्वी एवं मंगल कार्यों में प्रवृत्त होता है। पुरातन आयुर्विज्ञान विशेषज्ञों ने भी इसके स्वास्थ्य संबंधी महत्व को स्वीकार किया है। चरक तथा सुशरुत दोनों का ही कहना है कि केश, सिर तथा नखों के केर्तन एवं प्रसाधन से आयुष्य, शारीरिक पुष्टता, बल, शुचिता एवं सौंदर्य की अभिवृद्धि होती है। अर्थात् केशवपन से भी शरीर पुष्ट, नीरोग एवं सौंदर्य सम्पन्न होता है।
गर्भजन्य बालों की विषमता के कारण शिशु के बालों का विकास भी समरुप में नहीं हो पाता है। अत: शैशवास्था में एक बार क्षुर (उस्तरे) से उनका वपन आवश्यकता होता है। केशवपन की इस आवश्यकता का अनुपालन, हिंदुओं के अतिरिक्त अन्य धर्मावलम्बियों में भी देखा जाता है।
क्रियाविधि: गृह्यसूत्रों में इसकी क्रिया विधि अति सरल एवं संक्षिप्त रुप में पायी जाती है। पार. गृ. सू. (2.1) के अनुसार इस दिन शिशु के माता-पिता इसके निमित्त तीन ब्राह्मणों को भोजन कराने के उपरांत शिशु की माता उसे स्नान कराकर तथा नूतन वस्र पहना कर यज्ञशाला में जाकर गोदी में लेकर, पूर्वाभिमुख होकर यज्ञाग्नि के पश्चिम में जाकर बैठती थी। पति-पत्नी दोनों अग्नि में घी की चौदह आहुतियाँ देकर वहाँ पर रखे गये जल में गरम जल मिलाते थे। तदनन्तर उस जल में नवनीत या घी अथवा दही मिलाते थे। इस मिश्रित जल से शिशु के बालों को गीला करके उन्हें कांटे से तीन भागों में विभक्त करके उनके बीच में कुशांकुन ग्रथित करते थे। आश्वलापन गृ. सू. में यहाँ पर छुरे की प्रार्थना भी की गयी है। इसके बाद उन्हें पुन: इस जल से गीला करते हुए पहले दक्षिण के भाग को, फिर पश्चिम के भाग को तथा अंत में उत्तर के भाग को काटा जाता था। इस क्रम में छुरे से सिर को तीन बार साफ किया जाता था। केशों को वहाँ पर पहले से ही रखे हुए बैल के गोबर में आरोपिट कर दिया जाता था। जिसे अन्त में गोष्ठ में अथवा किसी जलाशय अथवा जल धारा के समीप भूमि में दबा दिया जाता था।
मस्तकलेपन: सर्वप्रथम शीतोष्ण जल में गाय के घी, दूध, दही का मिश्रण कर वैदिक मंत्रों के साथ बालक के बालों को गीला किया जाता है, फिर उन्हें तीन भागों (दायां, बायां और मध्यस्थ) में विभक्त कर उनके बीच में मंत्रोच्चार के साथ कुशा के तृण रख कर उन्हें कलावे से जूड़े के रुप में बांधा जाता है। इसमें सृष्टि के सर्ग, स्थिति एवं संहार के तीनों अधिष्ठातृ देवों ब्रह्मा, विष्णु और महेश से संबंद्ध मंत्रों के द्वारा सृष्टि का संचालन करने वाली इन तीनों महाशक्तियों का आवाहन इस भावना से किया जाता है कि इनके प्रभाव से बालक के मस्तिष्क में सत्कार्यों की सृष्टि, उनका पोषण एव असत्यकार्यों के विनाश की प्रवृतियों का संचार हो सके।
क्षुरपूजन: इसके बाद बालक के माता-पिता क्षुर (उस्तरे) की मूठ पर कलावा बांधकर रोली, अक्षत, धूप, दीप से वैदिक मंत्रों के साथ उसका पूजन करते हैं। तदनन्तर यज्ञ कुण्ड में पांच आहुतियां देकर बालक को यज्ञ स्थल से बाहर ले जाकर उसके बाल उतारे जाते हैं तथा उन्हें गोबर या आटे के पिण्ड में लपेट कर स्वच्छ भूमि में गाड़ दिया जाता है। बालक को स्नान करा कर पीतवस्र धारण कराये जाते हैं तथा उसके मुंडित सिर पर रोली या चन्दन से ऊँ का या स्वस्तिक का चिह्म बनाया जाता है। इसके बाद स्वस्तिवाचन तथा आशीर्वचन के साथ इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया पूरी हो जाती है। तदनन्तर बधाई, भोज आदि का कार्य होता है। केशबन्धन के समान ही केशवपन के समय भी तीनों ग्रंथियों के अधिष्ठातृ देवों से सम्बद्ध मंत्रों का उच्चारण किया जाता है। बौधा0 शांखायन आदि गृह्यसूत्रों में नापित का कोई उल्लेख न होने से व्यक्त है कि पहले यह कार्य बालक के पिता के द्वारा ही किया जाता था, किन्तु आगे चलकर इसके लिए नापित का भी सहयोग लिया जाने लगा। (संस्काररत्नमाला, पृ0 901 )
केशाधिवासन: किन्तु उत्तर प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्रों में जहां कि यह उपनयन के साथ किया जाता है, प्रचलित संस्कार पद्धतियों में इसके आनुष्ठानिक स्तर पर अनेक रुपों की भिन्नता पायी जाती है, यथा, केशाधिवासन। यह क्रिया मुण्डन संस्कार की पूर्वसन्ध्या में की जाती है, इसमें गणेश पूजन के उपरान्त एतदर्थ पीले वस्रखण्डों में हल्दी, दूब, सरसों, अक्षत आदि मंगल द्रव्यों को रख कर उन्हें कलावे से बांध कर नौ पोटलियां बनायी जाती हैं और एक अलग से दसवीं भी बना ली जाती है। तदनन्तर बालक के माता - पिता संकल्प पूर्वक गणेशपूजन करके मुडन संस्कार के निमित्त प्रधान संकल्प लेते हैं, और उन पोटलियों को बालक के बालों को थोड़ा -थोड़ा इक_ा करके उन पर बांधते हैं। उनके बांधने का क्रम इस प्रकार होता है -सबसे पहले तीन पोटलियां दाहिने पक्ष की ओर, फिर तीन पीछे की ओर तथा अन्त में तीन बायें पक्ष की ओर और एक शिखा पर। इसके अतिरिक्त दो पोटलियाँ और भी बनाई जाती हैं जिनमें से एक को उस्तरे पर तथा एक को से ही के कांटों पर बांधा जाता है। वहाँ पर एक तांबे की परात में या कांसे की थाली में बैल का गोबर, गाय का घी, दूध, दही, तीखी धारवाला क्षुर, तीन - तीन करके त्रिगुणित सूत्र से लपेटे हुए कुशा के नौ तृणांकुरों को रख कर दक्षिणा संकल्प के साथ ब्राह्मणों को दक्षिणा देकर पोटलियों को यथावत् सुरक्षित रखने के लिए बालक के सिर पर एक कपड़ा बांध दिया जाता है। इस प्रकार केशाधिवासन का अनुष्ठान किया जाता है। केश मानव शरीर के अंग होने के कारण इनके माध्यम से किसी प्रकार के जादू -टोने के परिहार के निमित्त ही इन्हें गोबर में स्थापित कर भूमि के गर्भ में रखा जाता है।
अगले दिन प्रात:काल स्नानादि से निवृत्त होकर यज्ञशाला में जाकर संकल्प पूर्वक आचार्य का वरण करके यथाविधि वैदिक मंत्रों के साथ आज्यहोम तथा उसके बाद चूड़ांगहोम किया जाता है। तदनन्तर ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार एतदर्थ नियत मुहूर्त में लग्नदानसंकल्प करके वैदिक मंत्रों के साथ पूर्वोक्त रुप में केशकर्तन तथा शिखा को छोड़कर शीर्ष मुंडन किया जाता है। इसकी आनुष्ठानिक प्रक्रिया मैदानी भागों की प्रक्रिया की अपेक्षा अधिक विस्तृत है। अपिच, बटुक का कर्णवेध संस्कार भी इसी के साथ किया जाता है।
शिखा संचयन: यह कोई पृथक् संस्कार तो नहीं, किन्तु चूड़ाकर्म संस्कार का एक महत्त्वपूर्ण अंग होता है। जहां पर बालक का चौलकर्म बाल्यावस्था में सम्पूर्ण केशवपन के रुप में किया जाता है वहां पर शिखाचयन/शिखा स्थापन का कार्य उसके बाद केशवृद्धि हो जाने पर किसी भी दिन कर दिया जाता है और जहां पर चूड़ाकर्म का संस्कार कौमारावस्था में उपनयन के साथ ही किया जाता है वहां पर शिखास्थापन का कार्य उसी के साथ किया जाता है।
शिखासंचयन का महत्व: संस्कार ग्रंथों में शिखासंचयन संबंधी अनुष्ठानों का विश्लेषण करने पर देखा जाता है कि इसका संबंध हमारे शरीर के संचालन केंद्र मस्तिष्क की सुरक्षा के साथ होता है। शीर्ष के ऊपरी भाग को मस्तिष्क का मर्म स्थल माना जाता है। ब्रह्मरंध्र की स्थिति भी यहीं पर होती है और यही स्थान होता है, द्विदलीय आज्ञाचक्र का भी। आधुनिक चिकित्साविज्ञानियों का भी कहना है कि बालक को कौमारावस्था से किशोरावस्था की ओर अग्रसर करने वाली तथा हारमोंस के माध्यम से प्रत्येक आयु के व्यक्ति की चिंतन प्रक्रिया का नियमन करने वाली पीनियल नामक ग्रंथि भी यहीं पर होती है। मानव के इस सर्वाधिक महत्वपूर्ण मर्मस्थल को सभी प्रकार के आघातों से बचाये रखने के लिए ही शास्रों में गोखुर प्रमाण शिखा रखने का विधान किया गया था।
हमारे आयुर्विज्ञान सम्बन्धी ग्रंथ भी इसका पूरा अनुमोदन करते हैं। आचार्य सुश्रुत का कहना है हमारे मस्तक के अंदर उसके शीर्ष भाग में शिरा संबंधी सन्निपात होता है वहीं पर हमारे मस्तिष्क का नियामक केंद्र भी होता है इस स्थान के आहत होने पर तत्काल मृत्यु हो सकती है।
नक्षत्र: चूड़ाकर्म संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय सबसे पहले नक्षत्र का विचार किया जाता है ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजीत, पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, रेवती, चित्रा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र को चूड़ाकर्म संस्कार के लिए बहुत ही अच्छा माना गया है।
तिथि: इस संस्कार के लिए ज्योतिषशास्त्र कहता है कि द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्टी, दशमी, एकादशी, द्वादशी तिथि अनुकूल होती है। आप इनमें से किसी भी तिथि को यह संस्कार कर सकते हैं।
वार: बात करें वार कि तो इस संस्कार के लिए सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार को बहुत ही शुभ माना जाता है। माता पिता अपनी संतान का चूड़ाकर्म संस्कार इन वारों में से किसी वार को कर सकते हैं।
लग्न: चूड़ाकर्म संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय लग्न की स्थिति कैसी होनी चाहिए आइये इसे देखें। वृष, मिथुन, सप्तम में हों एवं दशम भाव में शुभ ग्रह हों व अष्टम भाव खाली हों तो यह उत्तम होता है
निषेध: ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि चन्द्र व तारा दोष होने पर चूड़ाकर्म संस्कार नहीं करना चाहिए। तारा और चन्द्र दोष से मुक्त होने पर ही इस संस्कार की शुरूआत करनी चाहिए।
विद्यारम्भ संस्कार:
जब विद्यारम्भ संस्कार आयोजित किया जाना चाहिए, इस संस्कार में गुरू बच्चे को पहली बार अक्षर से परिचय कराते हैं। विद्यारम्भ संस्कार में सबसे पहले गणेश जी, गुरू, देवी सरस्वती और पारिवारिक इष्ट की पूजा की जाती है। इन देवी देवताओं का आशीर्वाद लेने के बाद गुरू बच्चे को अक्षर का ज्ञान देते हैं। इस संस्कार में गुरू पूरब की ओर और शिष्य पश्चिम की ओर मुख करके बैठते हैं। संस्कार के अंत में गुरू को वस्त्र, मिठाई एवं दक्षिणा दी जाती है और गुरू बालक को आशीर्वाद देते हैं। विद्यारम्भ संस्कार जन्म के पांचवे वर्ष उत्तरायण में किया जाता है।
नक्षत्र: विद्यारम्भ संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय सबसे पहले नक्षत्र का विचार किया जाता है ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हस्त, अश्विनी, पुष्य और अभिजीत, पुनर्वसु, स्वाती, श्रवण, रेवती, चित्रा, अनुराधा और ज्येष्ठा नक्षत्र को विद्यारम्भ संस्कार के लिए बहुत ही अच्छा माना गया है।
तिथि: इस संस्कार के लिए ज्योतिषशास्त्र कहता है कि द्वितीया, तृतीया, पंचमी, षष्टी, दशमी, एकादशी, द्वादशी तिथि अनुकूल होती है। आप इनमें से किसी भी तिथि को यह संस्कार कर सकते हैं।
वार: बात करें वार कि तो इस संस्कार के लिए सोमवार, बुधवार, बृहस्पतिवार और शुक्रवार को बहुत ही शुभ माना जाता है। माता पिता अपनी संतान का विद्यारम्भ इन वारों में से किसी वार को कर सकते हैं।
लग्न: विद्यारम्भ संस्कार के लिए मुहुर्त ज्ञात करते समय लग्न की स्थिति कैसी होनी चाहिए आइये इसे देखें। वृष, मिथुन, सप्तम में हों एवं दशम भाव में शुभ ग्रह हों व अष्टम भाव खाली हों तो यह उत्तम होता है
निषेध: ज्योतिषशास्त्री बताते हैं कि चन्द्र व तारा दोष होने पर विद्यारम्भ नहीं करना चाहिए। तारा और चन्द्र दोष से मुक्त होने पर ही इस संस्कार की शुरूआत करनी चाहिए।
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छत्तीसगढ़ के कला तीर्थ में विख्यात भोरमदेव मंदिर

छत्तीसगढ़ के कला तीर्थ के रूप में विख्यात भोरमदेव मंदिर रायपुर-जबलपुर मार्ग पर कवर्धा से लगभग 17 किमी पूर्व की ओर मैकल पर्वत श्रृंखला पर स्थित ग्राम छपरी के निकट चौरागांव नामक गांव में स्थित है। भोरमदेव मंदिर न केवल छत्तीसगढ़ अपितु समकालीन अन्य राजवंशों की कला शैली के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 11वीं शताब्दी के अंत में (लगभग 1089ई) निर्मित इस मंदिर में शैव, वैष्णव, एवं जैन प्रतिमाएं भारतीय संस्कृति एवं कला की उत्कृष्टता की परिचायक हैं। इन प्रतिमाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक व सहिष्णु राजाओं ने सभी धर्मों के मतावलम्बियों को उदार प्रश्रय दिया था।
रायपुर से करीब 100 किमी दूर है कवर्धा जो आजकल कबीरधाम जिला कहलाता है। यहां से 17 किमी दूर है घने जंगलों के बीच बेहद खुबसूरत घाटी में एक सुन्दर सरोवर के किनारे बना है भोरमदेव का मंदिर। यहां करीब एक मड़वा महल मंदिर भी है। वहां से प्राप्त शिलालेख में नागवंशी राजाओं के वंशवृक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मड़वा महल मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र ने करवाया था। राजा रामचंद्र का विवाह हैहैयवंशी राजकुमारी अंबिकादेवी से हुआ था। मड़वा महल मंदिर में मिथुन मूर्तियां उकेरी गई है। इन मिथुन मूर्तियों की खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों से तुलना की जाती है।
भोरमदेव मंदिर के मण्डप में प्रतिष्ठित एक योगी की मूर्ति पर उत्कृठ लेख यह मंदिर छठे नागवंशी राजा गोपालदेव द्वारा बनाया गया। दुर्लभ शिल्पकला और नागर शैली कलाकृतियों का ये अनूठा और सुन्दर उदाहारण है। पूर्वाभिमुख मंदिर के तीन प्रवेश द्वार है। तीनों द्वार पर तीन अध्र्द मण्डप और बीच में वर्गाकार मण्डप अंत में गर्भगृह निर्मित है। द्वार के दोनों ओर शिव की त्रिभंग मूर्तियां सुशोभित है। ललाट बिंब पर तप मुद्रा में द्विभुजीय नागराज जिसके शिरोभाग में पंच फन है, आसीन है। प्रवेश द्वार शाखा, लता, बेलों से अलंकृत है। बीच का वर्गाकार मण्डप 16 खंभों पर टिका है। स्तंभों की चौकी उल्टे विकसित कमल के समान है। जिस पर बने कीचक याने भारवाहक छत के भार को थामे हुए है। मण्डप की छत पर सहस्त्र दल कमल देखने लायक है।
गर्भगृह मण्डप के धरातल से लगभग डेढ़ मीटर बना है। यहां बीचोबीच विशाल शिवलिंग बना है। शिवलिंग के ठीक उपर मण्डप के समान सहस्त्र दल कमल बना हुआ है। यहां पंचमुख नाग प्रतिमा, नृत्य गणेश की अष्टभुजीय प्रतिमा, तपस्यारत योगी, आसनस्थ उपासक दंपति की प्रतिमाऐं गर्भगृह की दीवार के पास पूजा के लिये रखी गई है।
भोरमदेव मंदिर का क्रमश: संकरा होता अलंकृत गोलाकार शिखर आज कलश विहीन है। शेष भाग अपने मूलरूप में स्थित है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार 16वीं सदी मे रतनपुर के शासक ने आक्रमण कर इसका कलश तोड़ दिया और विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये।
भोरमदेव मंदिर का शिखर समूचे छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में प्रकाश के लिये पूर्व दिशा में शिखर के नीचे अलंकरणयुक्त गवाक्ष बना हुआ है। मंदिर के बाहर की दीवारें अलंकरणयुक्त है। इसमें देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ मिथुन के अनेक दृश्य तीन पंक्तियों में सुन्दर कलात्मक कलाओं के साथ बनी है। यहां मिथुन मूर्तियां बहुत है। अप्सरायें और सुर सुंदरियों की विभिन्न मुद्राओं में अंगड़ाई लेती हुई जीवंत नजर आती है। मिथुन मूर्ति में सहज मैथुन के अलावा कुछ काल्पनिक और अप्राकृतिक मैथुन का भी अंकन है। ये मूर्तियां जहां सृष्टि के विकास का संकेत है तो दैहिक और आत्मिक समरसता का संदेश देती है।
भोरमदेव की मूर्तियों में गीत, वाद्य और नृत्य, संगीत की तीनों विधाओं के दृश्य महत्वपूर्ण है। सामने का सरोवर काफी बड़ा है और उसमें हमेशा नीले गुलाबी कमल खिले रहते है। यहां बोटिंग का भी इंतजाम है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे भोरमदेव मंदिर में अद्भुत शांति मिलती है। घने जंगलों से घिरी पहाडिय़ों के बीच कुछ गांव ऐसे भी है जहां ठंड में एक दो बार बर्फ पड़ जाती है। भोरमदेव से कुछ किमी आगे राष्ट्रीय उद्यान कान्हा किसली भी है जो बंटवारे में मध्यप्रदेश के हिस्से चला गया।
मंदिर की खासियत: यह मंदिर चंदेलों द्वारा बनाये गए खजुराहो के मंदिरों की शैली से बना है। मंदिर वास्तु और शिल्प दोनों ही रूप में कला का एक उत्कृष्ट उदहारण है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन स्तरों में विभिन्न प्रकार की मूर्तियों को उकेरा गया है जिनमें शिव की लीलाओं, विष्णु के विभिन्न अवतारों और अन्य देवी देवताओं की कई मूर्तियां शामिल हैं। दीवारों पर नृत्य करते नायक, नायिकाओं, योद्धाओं, काम-कलाओं को प्रदर्शित करते युगलों का बेहद कलात्मक ढंग से अंकन किया गया है। दीवारों की काम-कला की मूर्तियों की तुलना खजुराहो की मूर्तियों से की जाती है जिस कारण इस मंदिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी कहा जाता है।
कौन हैं भोरम देव? यह मंदिर एक शिव मंदिर है, स्थानीय गोंड समाज में कुल देवता को बूढ़ादेव, बड़ादेव या भोरमदेव कहा जाता है, इसीलिए इस मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा।
भोरमदेव मंदिर का निर्माण एक सुंदर और विशाल सरोवर के किनारे किया गया है, जिसके चारों और फैली पर्वत श्रृंखलाएं और हरी-भरी घाटियां पर्यटकों का मन मोह लेती हैं। भोरमदेव मंदिर मूलत: एक शिव मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि शिव के ही एक अन्य रूप भोरमदेव गोंड समुदाय के उपास्य देव थे। जिसके नाम से यह स्थल प्रसिद्ध हुआ। नागवंशी शासकों के समक्ष यहां सभी धर्मों के समान महत्व प्राप्त था जिसका जीता जागता उदाहरण इस स्थल के समीप से प्राप्त शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं हैं।
भोरमदेव मंदिर की स्थापत्य शैली चंदेल शैली की है और निर्माण योजना की विषय वस्तु खजुराहो और सूर्य मंदिर के समान है जिसके कारण इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो के नाम से भी जानते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन समानांतर क्रम में विभिन्न प्रतिमाओं को उकेरा गया है जिनमे से प्रमुख रूप से शिव की विविध लीलाओं का प्रदर्शन है। विष्?णु के अवतारों व देवी देवताओं की विभिन्न प्रतिमाओं के साथ गोवर्धन पर्वत उठाए श्रीकृष्ण का अंकन है। जैन तीर्थकरों की भी अंकन है। तृतीय स्तर पर नायिकाओं, नर्तकों, वादकों, योद्धाओं मिथुनरत युगलों और काम कलाओं को प्रदर्शित करते नायक-नायिकाओं का भी अंकन बड़े कलात्मक ढंग से किया गया है, जिनके माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन को अभिव्यक्त किया गया है। नृत्य करते हुए स्त्री पुरुषों को देखकर यह आभास होता है कि 11वीं-12वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में नृत्यकला में लोग रुचि रखते थे। इनके अतिरिक्त पशुओं के भी कुछ अंकन देखने को मिलते हैं जिनमें प्रमुख रूप से गज और शार्दुल (सिंह) की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के परिसर में विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाएं, सती स्तंभ और शिलालेख संग्रहित किए गए हैं जो इस क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इसी के साथ मंदिरों के बाई ओर एक ईंटों से निर्मित प्राचीन शिव मंदिर भी स्थित है जो कि भग्नावस्था में है। उक्त मंदिर को देखकर यह कहा जा सकता है कि उस काल में भी ईंटों से निर्मित मंदिरों की परंपरा थी।
अन्य स्थल:
छेरकी महल: भोरमदेव मंदिर के पास ही छेरकी महल है, यह भी शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था। स्थानीय बोली में बकरी को छेरी कहा जाता है इसलिए यह मान्यता है कि यह मंदिर बकरी चराने वालों को समर्पित है। इस मंदिर की खासियत है कि इसके पास जाने पर बकरियों के शरीर से आने वाली गंध आती है। पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
मड़वा महल: भोरमदेव मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम के निकट एक अन्य शिव मंदिर स्थित है जिसे मड़वा महल या दूल्हादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। उक्त मंदिर का निर्माण 1349 ईसवी में फणीनागवंशी शासक रामचंद्र देव ने करवाया था। उक्त मंदिर का निर्माण उन्होंने अपने विवाह के उपलक्ष्य में करवाया था। हैहयवंशी राजकुमार अंबिका देवी से उनका विवाह संपन्न हुआ था। मड़वा का अर्थ मंडप से होता है जो कि विवाह के उपलक्ष्य में बनाया जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर 54 मिथुन मूर्तियों का अंकन अत्यंत कला?मकता से किया गया है जो कि आंतरिक प्रेम और सुंदरता को प्रदर्शित करती है।
कवर्धा महल: इटैलियन मार्बल से बना कवर्धा महल बहुत सुन्दर है। इसका निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था। यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्काशी की गई है। गुम्बद के अलावा इसकी सीढिय़ां और बरामदे भी बहुत खूबसूरत हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इसके प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है।
राधाकृष्ण मन्दिर: इस मन्दिर का निर्माण राजा उजीयार सिंह ने 180 वर्ष पहले कराया था। प्राचीन समय में साधु-संत मन्दिर के भूमिगत कमरों में कठिन तपस्या किया करते थे। इन भूमिगत कमरों को पर्यटक आज भी देख सकते हैं। मन्दिर के पास एक तालाब भी बना हुआ है। इसका नाम उजीयार सागर है। तालाब के किनारे से मन्दिर के खूबसूरत दृश्य दिखाई देते हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं।
राधाकृष्ण मन्दिर के अलावा पर्यटक यहां पर मदन मंजरी महल मन्दिर भी देख सकते हैं। भोरमदेव माण्डवा महल और मदन मंजरी महल मन्दिर पुष्पा सरोवर के पास स्थित हैं। इन दोनों मन्दिरों के निर्माण में मुख्य रूप से मार्बल का प्रयोग किया गया है। सरोवर के किनार पर्यटक चहचहाते पक्षियों को भी देख सकते हैं।
लोहारा बावली: कवर्धा की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित लोहारा बावली बहुत खूबसूरत है। बैजनाथ सिंह ने इसका निर्माण 120 वर्ष पहले कराया था। मानसून आने से पहले गर्मी से निजात पाने के लिए कवर्धा के शासक इन कमरों में रहते थे।
भोरमदेव छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। जनजातीय संस्कृति, स्थापत्य कला और प्राकृतिक सुंदरता से युक्त भोरमदेव देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। प्रत्येक वर्ष यहां मार्च के महीने में राज्य सरकार द्वारा भोरमदेव उत्सव का आयोजन अत्यंत भव्य रूप से किया जाता है। जिसमें कला व संस्कृति के अद्भुत दर्शन होते हैं।
कंकालीन-बैजलपुर से एक किलोमीटर दूर बफेला-देवसरा में आठवी शताब्दी की जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ भगवान की काले ग्रेनाइट की कलात्मक प्रतिमा भी उत्खनन में प्राप्त हुई हैं जो पंडरिया के जैन मंदिर में प्रस्थापित है। इस प्रतिमा को स्थानीय बैगा आदिवासी मंत्रित मानते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं। तामेश्वरनाथ मंदिर संत कबीर नगर जनपद मुख्यालय खलीलाबाद से मात्र सात कि.मी. की दूरी पर स्थित देवाधिदेव महादेव बाबा तामेश्वरनाथ मंदिर (तामेश्वरनाथ धाम) की महत्ता अन्नत (आदि) काल से चली आ रही है।
जनश्रुति के अनुसार यह स्थल महाभारत काल में महाराजा विराट के राज्य का जंगली इलाका रहा। यहां पांडवों का वनवास क्षेत्र रहा है और अज्ञातवास के दौरान कुंती ने पांडवों के साथ यहां कुछ दिनों तक निवास किया था। इसी स्थल पर माता कुंती ने शिवलिंग की स्थापना की थी, यह वही शिवलिंग है।
यही वह स्थान है जहां कऱीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व दुनिया में बौद्ध धर्म का संदेश का परचम लहराने वाले महात्मा बुद्ध ने मुण्डन संस्कार कराने के पश्चात अपने राजश्री वस्त्रों का परित्याग कर दिया था। भगवान बुद्ध के यहां मुण्डन संस्कार कराने के नाते यह स्थान मुंडन के लिए प्रसिद्ध है। महाशिव रात्रि पर यहां भारी संख्या में लोग यहां अपने बच्चों का मुंडन कराने के लिए उपस्थित होते है।
कैसे पहुंचे:
वायुमार्ग: निकटतम हवाई अड्डा रायपुर (134 किमी) है जो कि मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग: हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर रायपुर(134किमी) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग: कवर्धा (18किमी), रायपुर (116किमी), बिलासपुर से 150 किमी, भिलाई से 150 किमी और जबलपुर से 150 किमी दूर दैनिक बस सेवा एवं टैक्सियां उपलब्ध है।
कहां ठहरें: कवर्धा में विश्रामगृह और निजी होटल है। भोरमदेव में भी पर्यटन मंडल का विश्रामगृह हैँ।
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रक्षाबन्धन का त्योहार

रक्षाबन्धन होली, दीवाली और दशहरे की तरह हिंदुओं का प्रमुख त्योहार है, जो प्रतिवर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है। श्रावण (सावन) में मनाये जाने के कारण इसे श्रावणी (सावनी) या सलूनो भी कहते हैं। यह भाई-बहन को स्नेह की डोर से बांधने वाला त्योहार है। यह त्योहार भाई-बहन के अटूट प्रेम का प्रतीक है। रक्षाबंधन का अर्थ है (रक्षा+बंधन) अर्थात किसी को अपनी रक्षा के लिए बांध लेना। इसीलिए राखी बांधते समय बहन कहती है - भैया! मैं तुम्हारी शरण में हूँ, मेरी सब प्रकार से रक्षा करना। आज के दिन बहन अपने भाई के हाथ में राखी बांधती है और उन्हें मिठाई खिलाती है। फलस्वरूप भाई भी अपनी बहन को रुपये या उपहार आदि देते हैं। रक्षाबंधन स्नेह का वह अमूल्य बंधन है जिसका बदला धन तो क्या सर्वस्व देकर भी नहीं चुकाया जा सकता। रक्षाबन्धन में राखी या रक्षासूत्र का सबसे अधिक महत्व है। राखी कच्चे सूत जैसे सस्ती वस्तु से लेकर रंगीन कलावे, रेशमी धागे, तथा सोने या चाँदी जैसी मँहगी वस्तु तक की हो सकती है। राखी सामान्यत: बहनें भाई को ही बाँधती हैं परन्तु ब्राह्मणों, गुरुओं और परिवार में छोटी लड़कियों द्वारा सम्मानित सम्बन्धियों (जैसे पुत्री द्वारा पिता को) भी बाँधी जाती है। कभी कभी सार्वजनिक रूप से किसी नेता या प्रतिष्ठित व्यक्ति को भी राखी बाँधी जाती है।
अनुष्ठान:
भारतीय परम्परा में विश्वास का बन्धन ही मूल है और रक्षाबन्धन इसी विश्वास का बन्धन है। यह पर्व मात्र रक्षा-सूत्र के रूप में राखी बाँधकर रक्षा का वचन ही नहीं देता वरन् प्रेम, समर्पण, निष्ठा व संकल्प के जरिए हृदयों को बाँधने का भी वचन देता है। पहले रक्षा बन्धन बहन-भाई तक ही सीमित नहीं था, अपितु आपत्ति आने पर अपनी रक्षा के लिए अथवा किसी की आयु और आरोग्य की वृद्धि के लिये किसी को भी रक्षा-सूत्र (राखी) बांधा या भेजा जाता था। भगवान कृष्ण ने गीता में कहा है कि- 'मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव- अर्थात 'सूत्र अविच्छिन्नता का प्रतीक है, क्योंकि सूत्र (धागा) बिखरे हुए मोतियों को अपने में पिरोकर एक माला के रूप में एकाकार बनाता है। माला के सूत्र की तरह रक्षा-सूत्र (राखी) भी लोगों को जोड़ता है। प्रात: स्नानादि से निवृत्त होकर लड़कियाँ और महिलाएँ पूजा की थाली सजाती हैं। थाली में राखी के साथ रोली या हल्दी, चावल, दीपक, मिठाई और कुछ पैसे भी होते हैं। लड़के और पुरुष तैयार होकर टीका करवाने के लिये पूजा या किसी उपयुक्त स्थान पर बैठते हैं। पहले अभीष्ट देवता की पूजा की जाती है, इसके बाद रोली या हल्दी से भाई का टीका करके चावल को टीके पर लगाया जाता है और सिर पर छिड़का जाता है, उसकी आरती उतारी जाती है, दाहिनी कलाई पर राखी बाँधी जाती है और पैसों से न्यौछावर करके उन्हें गरीबों में बाँट दिया जाता है। भारत के अनेक प्रान्तों में भाई के कान के ऊपर भोजली या भुजरियाँ लगाने की प्रथा भी है। भाई बहन को उपहार या धन देता है। इस प्रकार रक्षाबन्धन के अनुष्ठान को पूरा करने के बाद ही भोजन किया जाता है। प्रत्येक पर्व की तरह उपहारों और खाने-पीने के विशेष पकवानों का महत्व रक्षाबन्धन में भी होता है। आमतौर पर दोपहर का भोजन महत्वपूर्ण होता है और रक्षाबन्धन का अनुष्ठान पूरा होने तक बहनों द्वारा व्रत रखने की भी परम्परा है। पुरोहित तथा आचार्य सुबह सुबह यजमानों के घर पहुँचकर उन्हें राखी बाँधते हैं और बदले में धन वस्त्र और भोजन आदि प्राप्त करते हैं। यह पर्व भारतीय समाज में इतनी व्यापकता और गहराई से समाया हुआ है कि इसका सामाजिक महत्व तो है ही, धर्म, पुराण, इतिहास, साहित्य और फि़ल्में भी इससे अछूते नहीं हैं।
सामाजिक प्रसंग
रक्षाबन्धन आत्मीयता और स्नेह के बन्धन से रिश्तों को मज़बूती प्रदान करने का पर्व है। यही कारण है कि इस अवसर पर न केवल बहन भाई को ही अपितु अन्य सम्बन्धों में भी रक्षा (या राखी) बाँधने का प्रचलन है। गुरु शिष्य को रक्षासूत्र बाँधता है तो शिष्य गुरु को। भारत में प्राचीन काल में जब स्नातक अपनी शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात गुरुकुल से विदा लेता था तो वह आचार्य का आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए उसे रक्षासूत्र बाँधता था जबकि आचार्य अपने विद्यार्थी को इस कामना के साथ रक्षासूत्र बाँधता था कि उसने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह अपने भावी जीवन में उसका समुचित ढंग से प्रयोग करे ताकि वह अपने ज्ञान के साथ-साथ आचार्य की गरिमा की रक्षा करने में भी सफल हो। इसी परम्परा के अनुरूप आज भी किसी धार्मिक विधि विधान से पूर्व पुरोहित यजमान को रक्षासूत्र बाँधता है और यजमान पुरोहित को। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के सम्मान की रक्षा करने के लिये परस्पर एक दूसरे को अपने बन्धन में बाँधते हैं।
पौराणिक प्रसंग:
राखी का त्योहार कब शुरू हुआ यह कोई नहीं जानता। लेकिन भविष्य पुराण में वर्णन मिलता है कि देव और दानवों में जब युद्ध शुरू हुआ तब दानव हावी होते नजऱ आने लगे। भगवान इन्द्र घबरा कर बृहस्पति के पास गये। वहां बैठी इन्द्र की पत्नी इंद्राणी सब सुन रही थी। उन्होंने रेशम का धागा मन्त्रों की शक्ति से पवित्र करके अपने पति के हाथ पर बाँध दिया। संयोग से वह श्रावण पूर्णिमा का दिन था। लोगों का विश्वास है कि इन्द्र इस लड़ाई में इसी धागे की मन्त्र शक्ति से ही विजयी हुए थे। उसी दिन से श्रावण पूर्णिमा के दिन यह धागा बाँधने की प्रथा चली आ रही है। यह धागा धन,शक्ति, हर्ष और विजय देने में पूरी तरह समर्थ माना जाता है।
स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में रक्षाबन्धन का प्रसंग मिलता है। कथा कुछ इस प्रकार है- दानवेन्द्र राजा बलि ने जब 100 यज्ञ पूर्ण कर स्वर्ग का राज्य छीनने का प्रयत्न किया तो इन्द्र आदि देवताओं ने भगवान विष्णु से प्रार्थना की। तब भगवान वामन अवतार लेकर ब्राह्मण का वेष धारण कर राजा बलि से भिक्षा माँगने पहुँचे। गुरु के मना करने पर भी बलि ने तीन पग भूमि दान कर दी। भगवान ने तीन पग में सारा आकाश पाताल और धरती नापकर राजा बलि को रसातल में भेज दिया। इस प्रकार भगवान विष्णु द्वारा बलि राजा के अभिमान को चकनाचूर कर देने के कारण यह त्योहार बलेव नाम से भी प्रसिद्ध है। कहते हैं एक बार बाली रसातल में चला गया तब बलि ने अपनी भक्ति के बल से भगवान को रात-दिन अपने सामने रहने का वचन ले लिया। भगवान के घर न लौटने से परेशान लक्ष्मी जी को नारद जी ने एक उपाय बताया। उस उपाय का पालन करते हुए लक्ष्मी जी ने राजा बलि के पास जाकर उसे रक्षाबन्धन बांधकर अपना भाई बनाया और अपने पति भगवान बलि को अपने साथ ले आयीं। उस दिन श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि थी।
ऐतिहासिक प्रसंग:
राजपूत जब लड़ाई पर जाते थे तब महिलाएँ उनको माथे पर कुमकुम तिलक लगाने के साथ साथ हाथ में रेशमी धागा भी बाँधती थी। इस विश्वास के साथ कि यह धागा उन्हे विजयश्री के साथ वापस ले आयेगा। राखी के साथ एक और प्रसिद्ध कहानी जुड़ी हुई है। कहते हैं, मेवाड़ की रानी कर्मावती को बहादुरशाह द्वारा मेवाड़ पर हमला करने की पूर्व सूचना मिली। रानी लडऩ़े में असमर्थ थी अत: उसने मुगल बादशाह हुमायूँ को राखी भेज कर रक्षा की याचना की। हुमायूँ ने मुसलमान होते हुए भी राखी की लाज रखी और मेवाड़ पहुँच कर बहादुरशाह के विरूद्ध मेवाड़ की ओर से लड़ते हुए कर्मावती व उसके राज्य की रक्षा की। एक अन्य प्रसंगानुसार सिकन्दर की पत्नी ने अपने पति के हिन्दू शत्रु पुरूवास को राखी बाँधकर अपना मुँहबोला भाई बनाया और युद्ध के समय सिकन्दर को न मारने का वचन लिया। पुरूवास ने युद्ध के दौरान हाथ में बँधी राखी और अपनी बहन को दिये हुए वचन का सम्मान करते हुए सिकन्दर को जीवन-दान दिया।
महाभारत में भी इस बात का उल्लेख है कि जब ज्येष्ठ पाण्डव युधिष्ठिर ने भगवान कृष्ण से पूछा कि मैं सभी संकटों को कैसे पार कर सकता हूँ तब भगवान कृष्ण ने उनकी तथा उनकी सेना की रक्षा के लिये राखी का त्योहार मनाने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि राखी के इस रेशमी धागे में वह शक्ति है जिससे आप हर आपत्ति से मुक्ति पा सकते हैं। इस समय द्रौपदी द्वारा कृष्ण को तथा कुन्ती द्वारा अभिमन्यु को राखी बाँधने के कई उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में ही रक्षाबन्धन से सम्बन्धित कृष्ण और द्रौपदी का एक और वृत्तान्त भी मिलता है। जब कृष्ण ने सुदर्शन चक्र से शिशुपाल का वध किया तब उनकी तर्जनी में चोट आ गई। द्रौपदी ने उस समय अपनी साड़ी फाड़कर उनकी उँगली पर पट्टी बाँध दी। यह श्रावण मास की पूर्णिमा का दिन था। कृष्ण ने इस उपकार का बदला बाद में चीरहरण के समय उनकी साड़ी को बढ़ाकर चुकाया। कहते हैं परस्पर एक दूसरे की रक्षा और सहयोग की भावना रक्षाबन्धन के पर्व में यहीं से प्रारम्भ हुई।
रामायण:
त्रेता युग में रावण की बहन शूर्पणखा लक्ष्मण द्वारा नाक कटने के पश्चात रावण के पास पहुँची और रक्त से सनी साड़ी का एक छोर फाड़कर रावण की कलाई में बाँध दिया और कहा कि- भैया! जब-जब तुम अपनी कलाई को देखोगे, तुम्हें अपनी बहन का अपमान याद आएगा और मेरी नाक काटनेवालों से तुम बदला ले सकोगे।
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में रक्षा बन्धन पर्व की भूमिका:
भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में जन जागरण के लिये भी इस पर्व का सहारा लिया गया। श्री रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंग-भंग का विरोध करते समय रक्षाबन्धन त्यौहार को बंगाल निवासियों के पारस्परिक भाईचारे तथा एकता का प्रतीक बनाकर इस त्यौहार का राजनीतिक उपयोग आरम्भ किया। 1905 में उनकी प्रसिद्ध कविता मातृभूमि वन्दना का प्रकाशन हुआ जिसमें वे लिखते हैं हे प्रभु! मेरे बंगदेश की धरती, नदियाँ, वायु, फूल - सब पावन हों; है प्रभु! मेरे बंगदेश के, प्रत्येक भाई बहन के उर अन्त:स्थल, अविछन्न, अविभक्त एवं एक हों।
सन् 1905 में लॉर्ड कर्जऩ ने बंग भंग करके वन्दे मातरम् के आन्दोलन से भड़की एक छोटी सी चिंगारी को शोलों में बदल दिया। 16 अक्तूबर 1905 को बंग भंग की नियत घोषणा के दिन रक्षा बन्धन की योजना साकार हुई और लोगबाग गंगा स्नान करके सड़कों पर यह कहते हुए उतर आये-
सप्त कोटि लोकेर करुण क्रन्दन, सुनेना सुनिल कर्जऩ दुर्जन;
ताइ निते प्रतिशोध मनेर मतन करिल, आमि स्वजने राखी बन्धन।
महाराष्ट्र राज्य में यह त्योहार नारियल पूर्णिमा या श्रावणी के नाम से विख्यात है। इस दिन लोग नदी या समुद्र के तट पर जाकर अपने जनेऊ बदलते हैं और समुद्र की पूजा करते हैं। राजस्थान में रामराखी और चूड़ाराखी या लूंबा बाँधने का रिवाज़ है। रामराखी सामान्य राखी से भिन्न होती है। इसमें लाल डोरे पर एक पीले छींटों वाला फुँदना लगा होता है। यह केवल भगवान को ही बाँधी जाती है। चूड़ा राखी भाभियों की चूडिय़ों में बाँधी जाती है। जोधपुर में राखी के दिन केवल राखी ही नहीं बाँधी जाती, बल्कि दोपहर में पद्मसर और मिनकानाडी पर गोबर, मिट्टी और भस्मी से स्नान कर शरीर को शुद्ध किया जाता है। इसके बाद धर्म तथा वेदों के प्रवचनकत्र्ता अरुंधती, गणपति, दुर्गा, गोभिला तथा सप्तर्षियों के दर्भ के चट (पूजास्थल) बनाकर उनकी मन्त्रोच्चारण के साथ पूजा की जाती हैं। उनका तर्पण कर पितृॠण चुकाया जाता है। धार्मिक अनुष्ठान करने के बाद घर आकर हवन किया जाता है, वहीं रेशमी डोरे से राखी बनायी जाती है। राखी को कच्चे दूध से अभिमन्त्रित करते हैं और इसके बाद ही भोजन करने का प्रावधान है। तमिलनाडु, केरल, महाराष्ट्र और उड़ीसा के दक्षिण भारतीय ब्राह्मण इस पर्व को अवनि अवित्तम कहते हैं। यज्ञोपवीतधारी ब्राह्मणों के लिये यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इस दिन नदी या समुद्र के तट पर स्नान करने के बाद ऋषियों का तर्पण कर नया यज्ञोपवीत धारण किया जाता है। गये वर्ष के पुराने पापों को पुराने यज्ञोपवीत की भाँति त्याग देने और स्वच्छ नवीन यज्ञोपवीत की भाँति नया जीवन प्रारम्भ करने की प्रतिज्ञा ली जाती है। इस दिन यजुर्वेदीय ब्राह्मण 6 महीनों के लिये वेद का अध्ययन प्रारम्भ करते हैं। इस पर्व का एक नाम उपक्रमण भी है जिसका अर्थ है- नयी शुरुआत। व्रज में हरियाली तीज (श्रावण शुक्ल तृतीया) से श्रावणी पूर्णिमा तक समस्त मन्दिरों एवं घरों में ठाकुर झूले में विराजमान होते हैं। रक्षाबन्धन वाले दिन झूलन-दर्शन समाप्त होते हैं।
सरकारी प्रबन्ध:
भारत सरकार के डाक-तार विभाग द्वारा इस अवसर पर दस रुपए वाले आकर्षक लिफाफों की बिक्री की जाती हैं। लिफाफे की कीमत 5 रुपए और 5 रुपए डाक का शुल्क। इसमें राखी के त्योहार पर बहनें, भाई को मात्र पाँच रुपये में एक साथ तीन-चार राखियाँ तक भेज सकती हैं। डाक विभाग की ओर से बहनों को दिये इस तोहफे के तहत 50 ग्राम वजन तक राखी का लिफाफा मात्र पाँच रुपये में भेजा जा सकता है जबकि सामान्य 20 ग्राम के लिफाफे में एक ही राखी भेजी जा सकती है। यह सुविधा रक्षाबन्धन तक ही उपलब्ध रहती है। रक्षाबन्धन के अवसर पर बरसात के मौसम का ध्यान रखते हुए डाक-तार विभाग ने 2007 से बारिश से खऱाब न होने वाले वाटरप्रूफ लिफाफे भी उपलब्ध कराये हैं। ये लिफाफे अन्य लिफाफों से भिन्न हैं। इसका आकार और डिजाइन भी अलग है जिसके कारण राखी इसमें ज्यादा सुरक्षित रहती है। डाक-तार विभाग पर रक्षाबन्धन के अवसर पर 20 प्रतिशत अधिक काम का बोझ पड़ता है। अत: राखी को सुरक्षित और तेजी से पहुँचाने के लिए विशेष उपाय किये जाते हैं और काम के हिसाब से इसमें सेवानिवृत्त डाककर्मियों की सेवाएँ भी ली जाती है। कुछ बड़े शहरों के बड़े डाकघरों में राखी के लिये अलग से बाक्स भी लगाये जाते हैं। इसके साथ ही चुनिन्दा डाकघरों में सम्पर्क करने वाले लोगों को राखी बेचने की भी इजाजत दी जाती है, ताकि लोग वहीं से राखी खरीद कर निर्धारित स्थान को भेज सकें।
राखी और आधुनिक तकनीकी माध्यम:
आज के आधुनिक तकनीकी युग एवं सूचना सम्प्रेषण युग का प्रभाव राखी जैसे त्योहार पर भी पड़ा है। बहुत सारे भारतीय आजकल विदेश में रहते हैं एवं उनके परिवार वाले (भाई एवं बहन) अभी भी भारत या अन्य देशों में हैं। इण्टरनेट के आने के बाद कई सारी ई-कॉमर्स साइट खुल गयी हैं जो ऑनलाइन आर्डर लेकर राखी दिये गये पते पर पहुँचाती है। इसके अतिरिक्त भारत में 2007 राखी के अवसर पर इस पर्व से सम्बन्धित एक एनीमेटेड सीडी भी आ गयी है जिसमें एक बहन द्वारा भाई को टीका करने व राखी बाँधने का चलचित्र है। यह सीडी राखी के अवसर पर अनेक बहनें दूर देश में रहने वाले अपने भाइयों को भेज सकती हैं।
रक्षाबन्धन के अवसर पर कुछ विशेष पकवान भी बनाये जाते हैं जैसे घेवर, शकरपारे, नमकपारे और घुघनी। घेवर सावन का विशेष मिष्ठान्न है यह केवल हलवाई ही बनाते हैं जबकि शकरपारे और नमकपारे आमतौर पर घर में ही बनाये जाते हैं। घुघनी बनाने के लिये काले चने को उबालकर चटपटा छौंका जाता है। इसको पूरी और दही के साथ खाते हैं। हलवा और खीर भी इस पर्व के लोकप्रिय पकवान हैं।
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वास्तु शास्त्र अनुसार रसोई घर कैसे बनाएं

वास्तु शास्त्र के अनुसार पाकशाला (रसोईघर/ किचन): हमारी प्राचीन वैदिक संस्कृति का अभिन्न अंग वास्तु शास्त्र पूर्ण रूप से प्रकृति की लाभकारी ऊर्जा पर आधारित वैज्ञानिक तथ्यों एवं सिद्धान्तों पर आधारित है। प्राकृतिक ऊर्जा एवं पंचतत्वों के प्रभाव का गहन अध्ययन करने के उपरान्त ही हमारे ऋषि-मुनियों ने वास्तु शास्त्र के सूत्रों की रचना मानव जाति के कल्याण की मूलभूत भावना से की थी, जिनका लाभ मनुष्य आज हजारो वर्षों के बाद भी आसानी से प्राप्त कर सकता है। वास्तु शास्त्र के अनुसार पाकशाला (रसोईघर/ किचन) का प्रावधान, अत्यन्त सूक्ष्म परीक्षणों के पश्चात ही घर की दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा में किया गया। पूर्व से प्राप्य अवरक्त तथा दक्षिण से प्राप्य पराबैंगनी किरणों का उचित सामंजस्य, दक्षिण-पूर्व स्थित रसोई में न सिर्फ वहां प्रात:काल से लेकर मध्याह्न (भोजन बनाने का समय) तक स्वास्थ्यप्रद प्रकाश एवं ऊर्जा प्रदान करता है बल्कि पाकशाला में आसानी से फैल सकने वाले कीटाणुओं, वायरस, सीलन एवं दुर्गन्ध से भी रक्षा करता है। पूर्व एवं उत्तर दिशा की खिड़कियों से तैलीय गन्ध एवं धुंआ भी बगैर घर के अन्य भागों को प्रभावित किये आसानी से बाहर निकल जाते हैं।
वस्तुत: किचन दक्षिण-पूर्व के अलावा कुछ अन्य दिशाओं में भी आसानी से बनाया जा सकता है एवं वहां ऊर्जा के उचित प्रवाह के माध्यम से सम्पूर्ण लाभ प्राप्त किये जा सकते हैं। आग्नेय (दक्षिण-पूर्व) के अलावा मध्य दक्षिण एवं वायव्य के किचन भी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुंचाते हैं बशर्ते वहां की अन्य व्यवस्था वास्तु नियमों के अनुसार की गई हो। रसोईघर आपके घर का पावर हाऊस है, जहां गृहिणी का अधिकांश समय बीतता है एवं वहाँ बने भोजन को परिवार के सभी सदस्य ग्रहण करते हैं, जिसका प्रत्यक्ष प्रभाव उनके तन तथा मन पर पड़ता है एवं वास्तु अनुरूप रसोईघर में बने भोजन से तन एवं मन स्वस्थ तथा प्रसन्न रहते हैं, तो धन भी भला पीछे कैसे रह सकता है?
आग्नेय कोण: इस कोण में रसोईघर होना काफी शुभ माना जाता है। इससे घर की महिलाएं प्रसन्न रहती हैं और सभी तरह के सुखों का घर में वास होता है।
नैत्रत्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामिनी उत्साहित एंव उर्जायुक्त रहती है।
वायव्य कोण: इस कोण में रसोई होने पर गृहस्वामी आशिक मिजाज होता है। मालिक की बदनामी का भी भय रहता है और स्वास्थ्य सम्बन्धी समस्याओं से रूबरू होना पड़ सकता है।
ईशान कोण: इस कोण में रसोईघर होने से पारिवारिक सदस्यों को कोई खास सफलता नहीं मिलती है और घर में क्लेश रहने की संभावना बनी रहती है।
कौन सी दिशा सही है रसोईघर के लिए: रसोईघर के लिए सर्वाधिक उपयुक्त दिशा दक्षिण-पूर्व होती है। अत: इस दिशा में रसोई घर के निर्माण से घर में शान्ति और समृद्धि बनी रहती है
रसोई वास्तु के अनुसार: किचन की ऊँचाई 10 से 11 फीट होनी चाहिए और गर्म हवा निकलने के लिए वेंटीलेटर होना चाहिए। यदि 4-5 फीट में किचन की ऊँचाई हो तो महिलाओं के स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। कभी भी किचन से लगा हुआ कोई जल स्त्रोत नहीं होना चाहिए। किचन के बाजू में बोर, कुआँ, बाथरूम बनवाना अवाइड करें, सिर्फ वाशिंग स्पेस दे सकते हैं।
रसोई को घर के आग्नेय कोण (पूर्व-दक्षिण) में बनाना चाहिए क्योंकि इसे ही अग्नि का स्थान माना गया है। यहां रसोई होने से अग्नि देव नित्य प्रदीप्त रहते हैं और घर का संतुलन बना रहता है। किंतु, इससे यह भी देखा गया है कि अक्सर दिन में तीन या उससे अधिक बार भोजन बनता है यानी खर्च बना ही रहता है। ऐसे में एकदम अग्निकोण को छोड़कर पूर्व की ओर रसोई बनाएं। यदि पूर्व की रसोई बनी हुई हो तो चूल्हे को थोड़ा पूर्व की ओर खिसका दें। चूल्हा इस तरह लगाएं कि सिलेंडर भी उसके एकदम नीचे रहे। रसोई तैयार करते समय मुख की स्थिति पूर्व में रहनी चाहिए। यह भी ध्यान रखें कि यदि रसोई के दक्षिण में एग्जॉस्ट फैन हो तो व्यय की संभावना रहती है। ऐसे में पूर्व की दीवार पर एग्जॉस्ट फैन लगाना चाहिए। रसोई बन जाने के बाद भोजन कभी घर के ब्रह्मस्थान पर बैठकर नहीं करें। न ही वहां पर झूठा डालें।
अगर आपके घर का रसोईघर वास्तु के नियमानुसार नहीं है एवं उसके प्रतिकूल परिणाम आपको प्राप्त हो रहे हैं एवं किचन की स्थिति या घर बदलना सम्भव नहीं है, तो डरने या घबड़ाने की जरूरत नहीं है। वास्तु की सहायता से आप आसानी से अधिकांश वास्तु-दोष बिना किसी तोड़-फोड़ के सुधार सकते हैं। निम्नलिखित बातों का ध्यान अवश्य रखें:
* किचन के ईशान में सिंक तो ठीक है, परन्तु वहां जूठे बर्तन न तो रखें या धुलाई करें।
* किचन के ईशान से सटाकर चूल्हा कदापि न रखें, वहां गैस सिलिन्डर भी न रखें।
* घर में प्रवेश करते वक्त एवं घर से बाहर जाते समय परिवार के सदस्यों को चूल्हे के दर्शन न हो, ऐसी व्यवस्था अवश्य करें। ड्राइंग टेबल पर भोजन करते समय भी चूल्हा नहीं दिखना चाहिये।
* भोजन बनाने की व्यवस्था सीढिय़ों के नीचे कदापि न करें। वहाँ अत्यन्त नकारात्मक ऊर्जा रहती हैं।
* किचन में दवाइयाँ कदापि न रखें। वहां पूजा/ मन्दिर भी न रखें।
* किचन के दक्षिण-पूर्व में एक छोटा सा पीला, नारंगी या हरा बल्ब लगायें, शुभ परिणाम प्राप्त हो सकते हैं।
* किचन के वायव्य कोण में परदा हरगिज न लगायें। यह छोटी सी भूल अत्यन्त प्रतिकूल परिणाम दे सकती है। किचन में झाड़ू न रखें।
* रसोईघर की दीवार, देहरी, खिड़कियाँ, अलमारियाँ, विद्युत उपकरण, भोजन पकाने के प्लेटफार्म, बर्तन इत्यादि टूटी-फूटी अवस्था में न रखें। उन्हें तुरंत ठीक करवायें या बदलने की व्यवस्था करें। मुड़े हुए कांटे चम्मच, चाकू आदि भी तुरंत हटा दें। अपने रसोईघर को पूर्ण रूप से साफ अवश्य करें, ताकि आपका पावर हाऊस सदैव पावर फुल बना रहे।
* नित्य प्रात:काल अपने रसोईघर के ईशान की खिड़की से थोड़ा सा जल बाहर प्रवाहित करके सूर्य देवता का एवं आग्नेय में कपूर जला कर अग्नि देवता का ध्यान करके उनकी कृपादृष्टि हेतु प्रार्थना करें। परिवार में सौहार्द एवं समरसता की वृद्धि होने लगेगी और रसोईघर की रौनक सारे घर में रौनक लाकर सुख एवं समृद्धि के दरवाजे खोलने लगेगी।
* किचन में सूर्य की रोशनी सबसे ज्यादा आए। इस बात का हमेशा ध्यान रखें। किचन की साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें, क्योंकि इससे सकारात्मक व पॉजिटिव एनर्जी आती है।
* किचन में लॉफ्ट, अलमारी दक्षिण या पश्चिम दीवार में ही होना चाहिए।
* पानी फिल्टर ईशान कोण में लगाएँ।
* किचन में कोई भी पावर प्वाइंट जैसे मिक्सर, ग्रांडर, माइक्रोवेव, ओवन को प्लेटफार्म में दक्षिण की तरफ लगाना चाहिए। फ्रिज हमेशा वायव्य कोण में रखें।
* भोजन कभी वायव्य कोण में बैठकर या खड़े-खड़े भी नहीं करें। इससे अधिक खाने की आदत हो जाती है। इसी तरह नैऋत्य कोण में बैठकर भोजन नहीं करें। यह राक्षस कोना है और इससे पेटू हो जाने की आशंका रहती है।
* भोजन बनाकर खाने से पूर्व एकाध कौर आग की ज्वाला में अर्पित कर दें।
अगर आपके घर में किचन ईशान या नैऋत्य (ये दिशाएं किचन हेतु वर्जित है) दिशा में हैं जिसका स्थान परिवर्तन सम्भव नहीं है, तो उसे पिरामिड यंत्रों की सहायता से आसानी से सुधारा जा सकता है। अगर किसी कारणवश पूर्व दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाना सम्भव न हो तो जिस दिशा की तरफ मुख करके भोजन बनाते हैं, वहां चूल्हे के पास तीन पिरामिड लगाकर इस दोष को दूर किया जा सकता है। अगर सिंक एवं चूल्हा पास-पास रखे हों और उन्हें अलग जगह हटाना सम्भव न हो तो मध्य में एक छोटा सा पार्टीशन करके या सिंक पर एक पिरामिड लगाकर इस दोष से मुक्ति पा सकते हैं।
किचन के अगल-बगल या ऊपर-नीचे टायलेट अथवा पूजाघर हो या किचन के दरवाजे के ठीक सामने अन्य कमरों के दरवाजे पड़ते हों, तो सिंक पर पिरामिड लगाकर यह दोष सफलतापूर्वक दूर किया जा सकता है। अगर रसोईघर में बीम या दुच्छती हो, तो पिरामिड यंत्रों से उनकी नकारात्मकता को दूर किया जा सकता है। रसोई घर में रंगों का आयोजन बहुत हल्का होना चाहिए। वास्तु अनुसार ही रंगों का चयन हो तो रसोई समृद्धशाली बनती है। हल्का हरा, हल्का नींबू जैसा रंग, हल्का संतरी या हल्का गुलाबी।
इस तरह के कुछ सरल उपाए के द्वारा आप अपने घर कि स्त्रियो कि सेहत ठीक रखे व सेहतमंद भोजन करे ।
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भगवती लक्ष्मी की निष्ठापूर्वक पूजा उपासना

इस भौतिकवादी युग में जीवनयापन के लिए धन का होना परम आवष्यक है और धनोपार्जन के लिए श्रम के साथ-साथ धन की देवी भगवती लक्ष्मी की निष्ठापूर्वक पूजा उपासना करना जरूरी है। साथ ही यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि भगवती किस स्थान पर और किस तरह के आचरण के व्यक्ति के घर में स्थायी रूप से वास करती हैं। इस जानकारी के अभाव में उपार्जित धन भी हाथ से निकल जाता है। यहां इसी बात को ध्यान में रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनका अनुसरण कर सुधी पाठकगण अपने घर में लक्ष्मी के स्थायी वास के उपाय कर सकते हैं।
लक्ष्मी कहां रहती हैं
मधुर बोलने वाला, कर्तव्यनिष्ठ, ईश्वर भक्त, कृतज्ञ, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, उदार, सदाचारी, धर्मज्ञ, माता-पिता की भक्ति भावना से सेवा करने वाले, पुण्यात्मा, क्षमाशील, दानशील, बुद्धिमान, दयावान और गुरु की सेवा करने वाले लोगों के घर में लक्ष्मी का स्थिर वास होता है।
जिसके घर में पशु-पक्षी निवास करते हों, जिसकी पत्नी सुंदर हो, जिसके घर में कलह नहीं होता हो, उसके घर में लक्ष्मी स्थायी रूप से रहती हैं।
जो अनाज का सम्मान करते हैं और घर आए अतिथि का स्वागत सत्कार करते हैं, उनके घर लक्ष्मी निश्चत रूप से रहती हैं।
जो व्यक्ति असत्य भाषण नहीं करता, अपने विचारों में डूबा हुआ नहीं रहता, जो घमंडी नहीं होता, जो दूसरों के प्रति प्रेम रखता है, जो दूसरों के दुख से दुखी होकर उसकी सहायता करता है और जो दूसरों के कष्ट को दूर करने में आनंद अनुभव करता है, लक्ष्मी उसके घर में स्थायी रूप से वास करती हैं।
जो नित्य स्नान करता है, स्वच्छ वस्त्र धारण करता है, जो दूसरी स्त्रियों पर कुदृष्टि नहीं रखता, उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी सदा बनी रहती हैं।
आंवले के फल में, गोबर में, शंख में, कमल में और श्वेत वस्त्र में लक्ष्मी का वास होता है।
जिसके घर में नित्य उत्सव होता है, जो भगवान शिव की पूजा करता है, जो घर में देवताओं के सामने अगरबत्ती व दीपक जलाता है, उसके घर में लक्ष्मी वास करती है।
जो स्त्री पति का सम्मान करती है, उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करती, घर में सबको भोजन कराकर फिर भोजन करती है, उस स्त्री के घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है।
जो स्त्री सुंदर, हरिणी के समान नेत्र वाली, पतली कटि वाली, सुंदर केश श्रृंगार करने वाली, धीरे चलने वाली और सुशील हो, उसके शरीर में लक्ष्मी वास करती हैं।
जिसकी स्त्री सुंदर व रूपवती होती है, जो अल्प भोजन करता है, जो पर्व के दिनों में मैथुन का परित्याग करता है, लक्ष्मी उसके घर में निश्चित रूप से वास करती हैं।
जो सूर्योदय से पहले (ब्रह्म मुहूर्त में) उठकर स्नान कर लेता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है।
जो गया धाम में, कुरुक्षेत्र में, काशी में, हरिद्वार में अथवा संगम में स्नान करता है, वह लक्ष्मीवान होता है।
जो एकादशी तिथि को भगवान विष्णु को आंवला फल भेंट करता है, वह सदा लक्ष्मीवान बना रहता है।
जिन लोगों की देवता, साधु और ब्राह्मण में आस्था रहती है, उनके घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है।
जो घर में कमल गट्टे की माला, लघु नारियल, दक्षिणावर्त शंख, पारद शिवलिंग, श्वेतार्क गणपति, मंत्रसिद्ध श्री यंत्र, कनकधारा यंत्र, कुबेर यंत्र आदि स्थापित कर नित्य उनकी पूजा करता है, उसके घर से लक्ष्मी पीढिय़ों तक वास करती हैं।
धर्म और नीति पर चलने वाले तथा कन्याओं का सम्मान करने लोगों के जीवन और घर में लक्ष्मी स्थायी रूप से वास करती हैं।
लक्ष्मी कहां नहीं रहती हैं
जो लोग आलसी होते हैं, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, जो भ्रष्टाचारी, चोर तथा कपटी होते हैं, उनके पास लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो लोग बुद्धिमान नहीं होते, धन-प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते, उनके जीवन में लक्ष्मी कभी नहीं आती हैं ।
जो व्यक्ति गुरु का अनादर करता है, जो गुरु के घर चोरी करता है, जो गुरु पत्नी पर बुरी नजर रखता है, उसके जीवन और घर में लक्ष्मी नहीं रहतीं।
जो व्यक्ति देवताओं को बासी पुष्प अर्पित करता है, जो गंदा रहता है, जो टूटे-फूटे या फटे हुए आसन पर बैठता है, उसे लक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती है।
जो व्यक्ति एक पांव से दूसरा पांव रगड़ कर धोता है, जो गंदे स्थान पर सोता है, जो सायंकाल में स्त्री के साथ सहवास करता है, जो दिन में सोता है उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती।
जो व्यक्ति घर में आया हुआ या घर में बनाया हुआ मिष्टान्न घर में रहने वालों को दिए बिना ही खा लेता है, जो घर की रसोई में भेद-भाव रखता है, लक्ष्मी उसका साथ छोड़ देती हैं।
दूसरों का धन हड़पने वाले, पर-स्त्री गमन करने वाले, सूर्योदय के बाद तक सोने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी त्याग देती हैं।
जो देवताओं की पूजा नहीं करता, उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती हैं।
जो व्यक्ति व्यर्थ ही हंसता रहता है, जो खाते वक्त हंसता है, लक्ष्मी उसके पास कभी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री गंदी और पाप कर्म में रत रहती है, जो पर-पुरुषों में मन लगाती है, जिसका स्वभाव दूषित होता है, जो बात-बात पर क्रोध करती है, जो अपने पति को दबाने के लिए रोष प्रदर्शन, छल या मिथ्या भाषण करती है, उसके घर लक्ष्मी नहीं रहती।
जो स्त्री अपने घर को सजा कर नहीं रखती, जिसके विचार उत्तम नहीं होते, जो अपना घर छोड़ दूसरों के घर नित्य जाती रहती है, जिसे लज्जा नहीं आती, उसके घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री दयाहीन होती है, स्वभाव से निर्दयी होती है, दूसरों की चुगली करने में लगी रहती है, जो दूसरों को लड़ा-भिड़ाकर स्वयं को चतुर समझती है, उसके घर में लक्ष्मी वास नहीं होता है।
जो स्त्री स्वयं को सजा-संवार कर नहीं रखती या जिस स्त्री का घर सजा-संवरा नहीं होता, उसके घर लक्ष्मी नहीं रहतीं।
मांसाहारी लोगों के घर में लक्ष्मी का वास नहीं होता।
नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों के साथ लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री अपने पति की प्रिय नहीं होती, उसके घर में लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री अपने घर में पूजा का स्थान नहीं रखती, जो देवताओं की आरती नहीं उतारती, उन्हें धूप नहीं दिखाती, जो आरती नहीं गाती, लक्ष्मी उसका साथ नहीं देती हैं।
जिसका कोई गुरु नहीं होता, उसे लक्ष्मी की कृपा नहीं मिलती।
जो स्त्री दिन में सोती रहती है, माता-पिता, सास-ससुर का आदर नहीं करती, उसके घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती हैं।
जो व्यक्ति पुरुषार्थहीन और अकर्मण्य होता है, उसके घर लक्ष्मी नहीं आती।
जो अपने घर में शिव, विष्णु, गणपति और शालिग्राम को स्थापित नहीं करता और उनकी नित्य पूजा नहीं करता, उसके घर लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो लक्ष्मी के स्तोत्र का पाठ या मंत्र का जप नहीं करता, धन का अपव्यय करता है, या केवल भोग में ही जीवन का सुख समझता है, उसे लक्ष्मी कृपा कभी प्राप्त नहीं होती।
जिसके घर में कलह होता है, जो अपनी पत्नी का बात बात पर अपमान करता है, उसे नौकरानी समझता है, उसके घर लक्ष्मी का वास नहीं होता।लक्ष्मी कहां रहती और कहां नहीं रहती हैं
इस भौतिकवादी युग में जीवनयापन के लिए धन का होना परम आवष्यक है और धनोपार्जन के लिए श्रम के साथ-साथ धन की देवी भगवती लक्ष्मी की निष्ठापूर्वक पूजा उपासना करना जरूरी है। साथ ही यह जानना भी उतना ही जरूरी है कि भगवती किस स्थान पर और किस तरह के आचरण के व्यक्ति के घर में स्थायी रूप से वास करती हैं। इस जानकारी के अभाव में उपार्जित धन भी हाथ से निकल जाता है। यहां इसी बात को ध्यान में रखते हुए कुछ महत्वपूर्ण तथ्य प्रस्तुत किए जा रहे हैं जिनका अनुसरण कर सुधी पाठकगण अपने घर में लक्ष्मी के स्थायी वास के उपाय कर सकते हैं।
लक्ष्मी कहां रहती हैं
मधुर बोलने वाला, कर्तव्यनिष्ठ, ईश्वर भक्त, कृतज्ञ, इन्द्रियों को वश में रखने वाले, उदार, सदाचारी, धर्मज्ञ, माता-पिता की भक्ति भावना से सेवा करने वाले, पुण्यात्मा, क्षमाशील, दानशील, बुद्धिमान, दयावान और गुरु की सेवा करने वाले लोगों के घर में लक्ष्मी का स्थिर वास होता है।
जिसके घर में पशु-पक्षी निवास करते हों, जिसकी पत्नी सुंदर हो, जिसके घर में कलह नहीं होता हो, उसके घर में लक्ष्मी स्थायी रूप से रहती हैं।
जो अनाज का सम्मान करते हैं और घर आए अतिथि का स्वागत सत्कार करते हैं, उनके घर लक्ष्मी निश्चत रूप से रहती हैं।
जो व्यक्ति असत्य भाषण नहीं करता, अपने विचारों में डूबा हुआ नहीं रहता, जो घमंडी नहीं होता, जो दूसरों के प्रति प्रेम रखता है, जो दूसरों के दुख से दुखी होकर उसकी सहायता करता है और जो दूसरों के कष्ट को दूर करने में आनंद अनुभव करता है, लक्ष्मी उसके घर में स्थायी रूप से वास करती हैं।
जो नित्य स्नान करता है, स्वच्छ वस्त्र धारण करता है, जो दूसरी स्त्रियों पर कुदृष्टि नहीं रखता, उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी सदा बनी रहती हैं।
आंवले के फल में, गोबर में, शंख में, कमल में और श्वेत वस्त्र में लक्ष्मी का वास होता है।
जिसके घर में नित्य उत्सव होता है, जो भगवान शिव की पूजा करता है, जो घर में देवताओं के सामने अगरबत्ती व दीपक जलाता है, उसके घर में लक्ष्मी वास करती है।
जो स्त्री पति का सम्मान करती है, उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करती, घर में सबको भोजन कराकर फिर भोजन करती है, उस स्त्री के घर में सदैव लक्ष्मी का वास रहता है।
जो स्त्री सुंदर, हरिणी के समान नेत्र वाली, पतली कटि वाली, सुंदर केश श्रृंगार करने वाली, धीरे चलने वाली और सुशील हो, उसके शरीर में लक्ष्मी वास करती हैं।
जिसकी स्त्री सुंदर व रूपवती होती है, जो अल्प भोजन करता है, जो पर्व के दिनों में मैथुन का परित्याग करता है, लक्ष्मी उसके घर में निश्चित रूप से वास करती हैं।
जो सूर्योदय से पहले (ब्रह्म मुहूर्त में) उठकर स्नान कर लेता है, उस पर लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रहती है।
जो गया धाम में, कुरुक्षेत्र में, काशी में, हरिद्वार में अथवा संगम में स्नान करता है, वह लक्ष्मीवान होता है।
जो एकादशी तिथि को भगवान विष्णु को आंवला फल भेंट करता है, वह सदा लक्ष्मीवान बना रहता है।
जिन लोगों की देवता, साधु और ब्राह्मण में आस्था रहती है, उनके घर में लक्ष्मी का स्थायी वास होता है।
जो घर में कमल गट्टे की माला, लघु नारियल, दक्षिणावर्त शंख, पारद शिवलिंग, श्वेतार्क गणपति, मंत्रसिद्ध श्री यंत्र, कनकधारा यंत्र, कुबेर यंत्र आदि स्थापित कर नित्य उनकी पूजा करता है, उसके घर से लक्ष्मी पीढिय़ों तक वास करती हैं।
धर्म और नीति पर चलने वाले तथा कन्याओं का सम्मान करने लोगों के जीवन और घर में लक्ष्मी स्थायी रूप से वास करती हैं।
लक्ष्मी कहां नहीं रहती हैं
जो लोग आलसी होते हैं, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करते, जो भ्रष्टाचारी, चोर तथा कपटी होते हैं, उनके पास लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो लोग बुद्धिमान नहीं होते, धन-प्राप्ति के लिए प्रयत्न नहीं करते, उनके जीवन में लक्ष्मी कभी नहीं आती हैं ।
जो व्यक्ति गुरु का अनादर करता है, जो गुरु के घर चोरी करता है, जो गुरु पत्नी पर बुरी नजर रखता है, उसके जीवन और घर में लक्ष्मी नहीं रहतीं।
जो व्यक्ति देवताओं को बासी पुष्प अर्पित करता है, जो गंदा रहता है, जो टूटे-फूटे या फटे हुए आसन पर बैठता है, उसे लक्ष्मी की कृपा प्राप्त नहीं होती है।
जो व्यक्ति एक पांव से दूसरा पांव रगड़ कर धोता है, जो गंदे स्थान पर सोता है, जो सायंकाल में स्त्री के साथ सहवास करता है, जो दिन में सोता है उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती।
जो व्यक्ति घर में आया हुआ या घर में बनाया हुआ मिष्टान्न घर में रहने वालों को दिए बिना ही खा लेता है, जो घर की रसोई में भेद-भाव रखता है, लक्ष्मी उसका साथ छोड़ देती हैं।
दूसरों का धन हड़पने वाले, पर-स्त्री गमन करने वाले, सूर्योदय के बाद तक सोने वाले व्यक्ति को लक्ष्मी त्याग देती हैं।
जो देवताओं की पूजा नहीं करता, उसके जीवन तथा घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती हैं।
जो व्यक्ति व्यर्थ ही हंसता रहता है, जो खाते वक्त हंसता है, लक्ष्मी उसके पास कभी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री गंदी और पाप कर्म में रत रहती है, जो पर-पुरुषों में मन लगाती है, जिसका स्वभाव दूषित होता है, जो बात-बात पर क्रोध करती है, जो अपने पति को दबाने के लिए रोष प्रदर्शन, छल या मिथ्या भाषण करती है, उसके घर लक्ष्मी नहीं रहती।
जो स्त्री अपने घर को सजा कर नहीं रखती, जिसके विचार उत्तम नहीं होते, जो अपना घर छोड़ दूसरों के घर नित्य जाती रहती है, जिसे लज्जा नहीं आती, उसके घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री दयाहीन होती है, स्वभाव से निर्दयी होती है, दूसरों की चुगली करने में लगी रहती है, जो दूसरों को लड़ा-भिड़ाकर स्वयं को चतुर समझती है, उसके घर में लक्ष्मी वास नहीं होता है।
जो स्त्री स्वयं को सजा-संवार कर नहीं रखती या जिस स्त्री का घर सजा-संवरा नहीं होता, उसके घर लक्ष्मी नहीं रहतीं।
मांसाहारी लोगों के घर में लक्ष्मी का वास नहीं होता।
नशीले पदार्थों का सेवन करने वालों के साथ लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री अपने पति की प्रिय नहीं होती, उसके घर में लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो स्त्री अपने घर में पूजा का स्थान नहीं रखती, जो देवताओं की आरती नहीं उतारती, उन्हें धूप नहीं दिखाती, जो आरती नहीं गाती, लक्ष्मी उसका साथ नहीं देती हैं।
जिसका कोई गुरु नहीं होता, उसे लक्ष्मी की कृपा नहीं मिलती।
जो स्त्री दिन में सोती रहती है, माता-पिता, सास-ससुर का आदर नहीं करती, उसके घर में लक्ष्मी कभी नहीं रहती हैं।
जो व्यक्ति पुरुषार्थहीन और अकर्मण्य होता है, उसके घर लक्ष्मी नहीं आती।
जो अपने घर में शिव, विष्णु, गणपति और शालिग्राम को स्थापित नहीं करता और उनकी नित्य पूजा नहीं करता, उसके घर लक्ष्मी नहीं रहती हैं।
जो लक्ष्मी के स्तोत्र का पाठ या मंत्र का जप नहीं करता, धन का अपव्यय करता है, या केवल भोग में ही जीवन का सुख समझता है, उसे लक्ष्मी कृपा कभी प्राप्त नहीं होती।
जिसके घर में कलह होता है, जो अपनी पत्नी का बात बात पर अपमान करता है, उसे नौकरानी समझता है, उसके घर लक्ष्मी का वास नहीं होता।


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Vimsottari dasa

Vimsottari dasa is the most popular dasa system among Vedic astrologers of today. Sage Parasara mentions in “Brihat Parasara Hora Sastram” that this dasa system is the most suitable dasa system in Kali yuga. Vimsottari means 120. Vimsottari dasa is a dasa system where the total duration of the dasa cycle is 120 years. Dasas of different planets are for different number of years, but the sum of all dasas is 120 years. In Kali yuga, paramaayush (maximum longevity) of human beings is supposed to be 120 years. Consequently, Vimsottari dasa is the most suitable dasa in Kali yuga. Dasas are reckoned here based on the constellation occupied by Moon. There are other variations that are more applicable in some cases. Many contemporary Vedic astrologers ignore these variations and always reckon dasas from the lord of the constellation occupied by Moon. However, this may not result in the best predictions always. In this book, we will look at some of the variations. One’s life is divided into dasas – periods – ruled by the nine planets. A dasa is alsocalled a “mahadasa” (mahadasa = master period). Each mahadasa is again divided into 9 sub-periods ruled by 9 planets. These sub-periods in mahadasas are called “antardasas”. We can divide further. Sub-periods in antardasas are called “pratyantardasas”. Sub-periods in pratyantardasas are called “sookshma-antardasas” or simply sookshma dasas. Sub-periods in sookshma dasas are called “pranaantardasas” or simply prana dasas. Sub-periods in prana dasas are called “dehaantardasas”. In this book, we will denote mahadasa with MD, antardasa with AD, pratyantardasa with PD, sookshma dasa with SD, prana-antardasa with PAD and deha-antardasa with DAD.

Know Astrology????

Planets are constantly in motion with respect to earth in the skies. The positions of Sun, Moon and some planets close to earth can give important clues a bout the fortunes of individual human beings and groups of human beings. That is the basic premise of astrology. How exactly we can make guesses about the fortunes of individual human beings and groups of human beings based on the positions of those planets in the skies is the question that we will attempt to answer in this book. While astrology is the subject that deals with this question, there are many theories and philosophies in vogue and they are significantly different from each other. Sunsign astrology, for example, is based on categorizing people into 12 groups based on the solar month of birth. Some people may be convinced, based on their experiences, that people born in the same month share certain qualities. It is, however, not very logical from a rational perspective – there are just too many people in this world, who are totally different from each other. So the month of one's birth is totally inadequate for guessing one's nature or fortune. Even the date and the hour of birth are not enough. We know that there are many twins in this world, who are significantly different from each other! What we mentioned just now is, by the way, a very important question to be answered – it is like an “acid test” for any astrological doctrine. It is a known fact that there are many twins in this world, who are significantly different from each other and who lead totally different lives. Of course, some twins may have some common qualities between them, but the fact remains that several twins are significantly different. An astrological doctrine should be capable of explaining this fact in order to be considered as a meaningful subject. Most astrological doctrines of the world fail this acid test. If an astrological doctrine assumes, like in the case of many popular astrological theories of the world, that two persons born within a couple of hours in nearby towns will have the same fortune,then that doctrine is obviously lacking in completeness and inadequate for confident use in real-life. It fails the acid test of twins.

वास्तु श्र्ग्वेद अनुसार

प्राचीन वास्तु में सिन्धान्तकरो के पास आधुनिक खोगोलीय और भौतिक उपकरण नहीं थे, फिर भी उन्हें सूर्य की किरणों का सम्पूर्ण ज्ञान था | भारत में हमे सूर्य की प्रार्थनाये कई प्राचीन धार्मिक ग्रंथो में मिलती हैं |
श्र्ग्वेद के अनुसार- “हमे ऐसा सूर्य मिले जो अंधकार की चादर हटकर दूर तक प्रकाश फैलाये और समस्त देवताओ में सर्वश्रेष्ठ हो | मित्रो के मित्र, सूर्य, आप आकाश में उदित हो, मेरे ह्रदय रोग और पीत वर्ण का नाश करे | हे सूर्य, मैं अपने पीत वर्ण को शुक्र-सारिका में प्रतिष्ठापित करता हूँ | हे सूर्य, आप अपने तेज़ से समस्त रोगों का नाश करने में सक्षम हैं | इन रोंगों से मेरी रक्षा करैं |”
श्रग्वेद के उधाहरण से स्पष्ट हैं की सूर्य की किरणों मैं समस्त व्याधियो के नाश करने की शक्ति निहित हैं | इसी कारण वास्तुशास्त्र में पूर्व दिशा को सार्वाधिक महत्व् जाता हैं और सूर्योदय को सूर्यास्त के पृथ्वी की सतह को परिकल्पित किया गया हैं | भवन निवेश में भी पूर्व दिशा को महत्वपूर्ण स्थान दिया गया हैं क्योंकि पूर्व दिशा से उदित होते सूर्य की किरणे इमारत के प्रत्येक भाग में प्रवेश करती हैं | यह प्रमाणित हो चूका हैं की प्रातःकाल की पराबैंगनी सूर्य-किरणे विटामिन डी का बहुमूल्य स्त्रोत हैं जो रक्त के माध्यम से हमारे शरीर को सीधे प्रभावित करती हैं | इसी प्रकार, सूर्य-किरणों में दोपहर मैं रेडियोधर्मिता होती हैं जो हमारे देह पर विपरीत प्रभाव डालती हैं | इसीलिए भवन निवेश में दिग्विन्यास इस प्रकार किया गया है ताकि दोपहर की सूर्य की किरणों का हमारी देह पर न्यूनतम प्रभाव पड़े |

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Monday, 24 August 2015

ज्योतिष से जाने ऑखों के रोग :

आँख जीव जंतुओं के शरीर का आवश्यक अंग हैं। आँख या नेत्रों के द्वारा हमें वस्तु का दृष्टिज्ञान होता है। दृष्टि वह संवेदन है, जिस पर मनुष्य सर्वाधिक निर्भर करता है। दृष्टि एक जटिल प्रक्रिया है, जिसमें प्रकाश किरणों के प्रति संवेदिता, स्वरूप, दूरी, रंग आदि सभी का प्रत्यक्ष ज्ञान समाहित है। आँखें अत्यंत जटिल ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, जो दायीं-बायीं दोनों ओर एक-एक नेत्र कोटरीय गुहा में स्थित रहती है। ये लगभग गोलाकार होती हैं तथा इनका व्यास लगभग एक इंच (2.5 सेंटीमीटर) होता है। इन्हें नेत्रगोलक कहा जाता है। नेत्र कोटरीय गुहा शंक्वाकार होती है। इसके सबसे गहरे भाग में एक गोल छिद्र (फोरामेन) होता है, जिसमें से होकर द्वितीय कपालीय तन्त्रिका (ऑप्टिक तन्त्रिका) का मार्ग बनता है। नेत्र के ऊपर व नीचे दो पलकें होती हैं। ये नेत्र की धूल के कणों से सुरक्षा करती हैं। नेत्र में ग्रन्थियाँ होती हैं। जिनके द्वारा पलक और आँख सदैव नम बनी रहती हैं। इस गुहा की छट फ्रन्टल अस्थि से, फर्श मैक्ज़िला से, लेटरल भित्तियाँ कपोलास्थि तथा स्फीनॉइड अस्थि से बनती हैं और मीडियल भित्ति लैक्राइमल, मैक्ज़िला, इथमॉइल एवं स्फीनॉइड अस्थियाँ मिलकर बनाती हैं। इसी गुहा में नेत्रगोलक वसीय ऊतकों में अन्त:स्थापित एवं सुरक्षित रहता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार व्यक्ति के वर्तमान जीवन में जो भी उसकी शारीरक, मानसिक, सामाजिक या अध्यात्मिक परिस्थितियां या प्रवृत्ति है वह उसके पूर्व जन्म के संचित कर्मो के आधार पर निर्धारित होती है। व्यक्ति की कुंडली में उसी प्रकार ग्रहों की स्थितियाँ या युतियाँ होती हैं जैसी उसके पिछले जन्म के कर्म या संचित पुण्य होते हैं। चूँकि प्रत्येक ग्रह व्यक्ति के शरीर में उपस्थित किसी न किसी तत्व का प्रतिनिधित्व भी करता है और कारक होता है अत: उस ग्रह की किसी विशेष भाव में उपस्थिति, युति या उसका बल व्यक्ति में किसी न किसी प्रकार की शारीरिक, मानसिक व्याधि को जन्म देता है। मानव शरीर में ऑखें सबसे कीमती और जरूरी अंग है। यह संसार चक्र देखने एवं इसमें आसानी से जीवन यापन करने के लिए ऑखों का होना अति आवश्यक है। किंतु किसी व्यक्ति की ऑखें जन्म से ही नहीं होती तो किसी को बाद में अंधा होना पड जाता है। किसी जातक को मोतियाबिंद हो जाता है जिससे उसे दिन में दिखाई नहीं देता तो किसी को रतौंधी होने से रात की रोशनी में दिखाई नहीं देती। कभी आँखों से पानी गिरना, आँख आना, आँखों की दुर्बलता, आँखों की थकान, आँखों में चोट लगी हो जल गई हों, मिर्च मसाला गिरा हो, कोई कीड़ा गिर गया हो या डंक मारा हो, आँख लाल हो, दुखती हो, कीचड़ आती हो, प्रकाश सहन न, आँखों के आगे अँधेरा आता हो या कभी किसी बिमारी से रोशनी चली या कम हो जाती है। इस प्रकार यदि देखें तो जीवन में घटित इन आकस्मिक सी दिखाई देनी वाली घटनाओं को ज्योतिष के अनुसार पूर्ण निर्धारित कारण माना जाता है।
प्रश्र यह उठता है कि आखिर यह सब क्यों? इस प्रश्र का उत्तर ज्योतिष शास्त्र के द्वारा प्राप्त होता है। सूर्य धरती का जीवनदाता, लेकिन एक क्रूर ग्रह है, वह मानव स्वभाव में तेजी लाता है। यह ग्रह कमजोर होने पर सिर में दर्द, आँखों का रोग आदि देता हैं। जब भी किसी जातक के जन्मपत्र में दूसरे और बारहवें भाव में शुक्र का वग्र्र हो या स्वयं शुक्र निर्बल बैठा हो अथवा शुक्र सूर्य के साथ किसी भी भाव में बैठा हो तो ऑखों से संबंधित रोग होते हैं। इसके साथ ही अगल मंगल सूर्य की युति अथवा दृष्टि, सूर्य नीचोंन्मुख होकर शनि से युत अथवा चंद्रमा या मंगल से दृष्ट हो तो नेत्र ज्योति क्षीण होती है। इसके साथ इन दशाओं में शारीरिक लापरवाही मोतियाबिंद अथवा रतौंधी संबंधी बीमारी का कारण बनता है। जिसमें चंद्रमा के होने से रतौंधी तथा शुक्र के होने से मोतियाबिंद होने का कारण होता है। जिस मनुष्य के जन्म में षष्ठेश मंगल लग्र या षष्ठेश मेष या वृश्चिक को हो अथवा मंगल के साथ चंद्रमा या सूर्य बारहवें स्थान में हो या शनि 5, 7, 8, 9 स्थान में सिंह राशि का हो अथवा पापी ग्रहों के साथ नीच का हो जायें अथवा राहु से पापाक्रांत हो तो ऑखों से पानी आना अथवा फुंसी होना जैसी बीमारी होती है। यदि सूर्य शनि की युति द्वितीय अथवा बारहवें स्थान में अथवा द्वितीयेश अथवा द्वादशेश होकर 6, 8, 12 स्थान में हो जाये तो आखों से पानी निकलता तथा रोशनी मंद होना संबंधित बीमारी होती है। यदि सूर्य अथवा चंद्रमा मंगल के साथ पाप अथवा नीच स्थानों पर हो तो नेत्र में जाला बनना, मस्सा, गुहेरी अथवा घाव होने जैसी बीमारी इन दशाओं में होती है। व्ययेश अथवा धनेश होकर शुक्र सूर्य की युति में अथवा षष्ठम, अष्टम अथवा द्वादश स्थान में हो जाये अथवा राहु से दृष्ट हो तो नेत्र ज्योति क्षीण होने की आशंका होती है। धनेश-व्ययेश सूर्य शुक्र हो, युति बनाये अथवा दृष्टि हो, मंगल शनि की किसी भी प्रकार की दृष्टि इन ग्रहों पर हो, द्वितीयेश, व्ययेश, इन ग्रहों के छठे, आठवे अथवा बाहरवें स्थान में हो, कू्रर ग्रहों के प्रभाव में हो, तो नेत्र रोग अवश्य होता है। इन ग्रहों की दशाओं अथवा अंतरदशाओं में इन रोगों के होने की संभावना होती है।
शुक्र की बुध के साथ समीपी 6, 8, 12 स्थानों में हो या त्रिक स्थानों में स्थिति हो तो रतौंधी रोग होता है। यदि षष्ठेश मंगल लग्र में हो अथवा द्वितीयेश या द्वादशेश सूर्य राहु से पापाक्रांत होकर नीच स्थानों में हों तो ऑखों के रोग बचपन में ही हो जाते हैं। कुण्डली के दूसरे अथवा बारहवें दोनों घरों में से जिसमें सूर्य अथवा शुक्र बैठा होता है उस आंख में तकलीफ होने की संभावना अधिक रहती है। ज्योतिषशास्त्र के ग्रंथ सारावली में बताया गया है कि जिनकी कुण्डली में सूर्य और चन्द्रमा एक साथ बारहवें घर में होते हैं उन्हें नेत्र रोग होता है। ये दोनों घर मंगल, शनि, राहु एवं केतु के अशुभ प्रभाव में होने पर भी आंखों की रोशनी प्रभावित होती है। इससे स्पष्ट होता है कि सूर्य, शुक्र और चंद्रमा जो कि ज्योतिकारक ग्रह हैं। धनेश और व्ययेश जोकि नेत्रस्थ ज्योति हैं और इसके अतिरिक्त दूसरा, लग्र और बारहवां स्थान नेत्र भाव का स्थान है यदि इन में से किसी का भी संबंध छठवे, आठवे अथवा बारहवें स्थानों से या उनके अधिपतियों से अथवा किसी भी प्रकार से बने अथवा शत्रु, नेष्ट, अस्त, नीच अथवा नीचास्त, पापी क्रूर ग्रहों से संबंध इन में से किसी भी ग्रहों का बनें तो नेत्र से संबंधित कष्ट देता है।
नेत्र रोग के कई योग ज्योतिषशास्त्र में बताये गये हैं। साथ ही बताया गया है कि मंत्रों एवं ग्रहों के उपायों से नेत्र रोग देने वाले अशुभ योगों के प्रभाव को कम किया जा सकता है। इनमें सबसे आसान उपाय है नियमित सूर्योदय के समय उगते सूर्य को तांबे के बर्तन में जल भरकर अर्पित करना। नियमित ऐसा करने से नेत्र रोग होने की संभावना कम रहती है। कृष्ण यजुर्वेद साखा का एक उपनिषद् है चाक्षुषोपनिषद। इस उपनिषद् में आंखों को स्वस्थ रखने के लिए सूर्य प्रार्थना का मंत्र दिया गया है। माना जाता है कि इस मंत्र का नियमित पाठ करने से नेत्र रोग से बचाव होता है। जिन लोगों की आंखों की रोशनी अल्पायु में ही कमज़ोर हो गयी है, उन्हें भी इस मंत्र के जप से लाभ मिलता है।
सूर्य के गलत प्रभाव सामने आ रहे हों तो सूर्य के दिन यानी रविवार को उपवास तथा माणिक्य लालड़ी तामड़ा अथवा महसूरी रत्न को धारण किया जा सकता है। सूर्य को अनुकूल करने के लिए मंत्र-ऊस: सूर्याय नम: का एक लाख 47 हजार बार विधिवत जाप करना चाहिए। यह पाठ थोड़ा-थोड़ा करके कई दिन में पूरा किया जा सकता है।
अन्य उपाय:
भरपूर नींद लें जिससे ऑखों को भरपूर आराम मिल सके। भागदौड़ भरी जिंदगी में सबसे आगे रहने की टेंशन लेने के बजाय सामान्य रूप से जीने की आदत डालें और टेंशन को कम करने के लिए योग , मेडिटेशन , हॉबी क्लास , गेम्स आदि का सहारा लें। सिरदर्द ऑखों की बीमारी का एक लक्षण है, इससे बचाव में एक्सरसाइज की भूमिका काफी अहम है , क्योंकि इससे शरीर में एंडॉर्फिन रिलीस होता है, जोकि शरीर के लिए नैचरल पेनकिलर का काम करता है। स्मोकिंग से खून की नलियां और ब्लड सर्कुलेशन प्रभावित होता है, जिससे मसल्स में ब्लड सर्कुलेशन सही ढंग से नहीं हो पाता और तेज सिरदर्द हो जाता है। अल्कोहल कम लें। साथ ही, डीहाइड्रेशन से बचने के लिए ड्रिंक करने के बाद खूब सारा पानी पीना चाहिए। कई बार डीहाइड्रेशन से भी सिरदर्द हो जाता है। खूब पानी और दूसरे हेल्दी लिक्विड लेकर माइनर सिरदर्द अथवा ऑखों से संबंधित रोगो को रोका जा सकता है। आप जो खाते हैं, उससे ब्रेन की केमिस्ट्री प्रभावित होती है और इससे खून की नलियों का साइज भी बदल सकता है। जिसके कारण नेत्र ज्योति कमजोर होना, सिरदर्द होना अथवा ऑखों के रोग हो सकते हैं। काम के स्ट्रेस से बचने के लिए लोग काफी ज्यादा चाय, कॉफी आदि पीते रहते हैं, जिनमें कैफीन होता है। ज्यादा कैफीन लेने से ऑखों की रोशनी कम होती है, सिरदर्द की आशंका बढ़ती है।
सुबह उठकर अपने मुंह मे पानी भर ले और ठन्डे पानी से आखों मे छीटे मारना चाहिए .यह नेत्र ज्योति के लिए बहुत लाभ दायक पाया गया है। गाजर और पालक की भाजी का जूस तो यदि संभव हो तो हर दिन एक एक कप पीना ही चाहिए यह आखों के लिए बहुत लाभ दायक रहा है। सुबह उठकर सूर्य भगवान को अध्र्य भी देने का क्रम बना ले, भले ही इसकी उपयोगिता समझ मे आज ना आये पर आखों कि ज्योति के अधिपति सूर्य, चंद्र हैं अत: सूर्य अध्र्य से समस्या के समाधान मे बहुत सहायता मिलाती है। दैनिक जीवन मे सुर्योपंसना के महत्त्व को समझना चाहिए। सूर्य देव से संबंधित कोई भी मंत्र को अपने जीवन मे महत्त्व अवश्य दें, कम से कम 11 माला मंत्र जप तो करे। कई बार अनेको उपाय करने के बाद भाई सफलता या नेत्र रोग या दोष दूर नही हो रहे होते हैं क्योंकि ग्रह वाधा या ग्रह दोष का बहुत प्रभाव जो कि किसी भी चिकित्सीय उपाय को सफल नही होने देता हैं इस अवस्था में सूर्य और चंद्र के तांत्रिक मंत्रो का जप करना, बहुत लाभदायक माना गया है।
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