Tuesday 25 August 2015

छत्तीसगढ़ के कला तीर्थ में विख्यात भोरमदेव मंदिर

छत्तीसगढ़ के कला तीर्थ के रूप में विख्यात भोरमदेव मंदिर रायपुर-जबलपुर मार्ग पर कवर्धा से लगभग 17 किमी पूर्व की ओर मैकल पर्वत श्रृंखला पर स्थित ग्राम छपरी के निकट चौरागांव नामक गांव में स्थित है। भोरमदेव मंदिर न केवल छत्तीसगढ़ अपितु समकालीन अन्य राजवंशों की कला शैली के इतिहास में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। 11वीं शताब्दी के अंत में (लगभग 1089ई) निर्मित इस मंदिर में शैव, वैष्णव, एवं जैन प्रतिमाएं भारतीय संस्कृति एवं कला की उत्कृष्टता की परिचायक हैं। इन प्रतिमाओं से ऐसा प्रतीत होता है कि धार्मिक व सहिष्णु राजाओं ने सभी धर्मों के मतावलम्बियों को उदार प्रश्रय दिया था।
रायपुर से करीब 100 किमी दूर है कवर्धा जो आजकल कबीरधाम जिला कहलाता है। यहां से 17 किमी दूर है घने जंगलों के बीच बेहद खुबसूरत घाटी में एक सुन्दर सरोवर के किनारे बना है भोरमदेव का मंदिर। यहां करीब एक मड़वा महल मंदिर भी है। वहां से प्राप्त शिलालेख में नागवंशी राजाओं के वंशवृक्ष पर पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। मड़वा महल मंदिर का निर्माण नागवंशी राजा रामचंद्र ने करवाया था। राजा रामचंद्र का विवाह हैहैयवंशी राजकुमारी अंबिकादेवी से हुआ था। मड़वा महल मंदिर में मिथुन मूर्तियां उकेरी गई है। इन मिथुन मूर्तियों की खजुराहो के मंदिरों की मूर्तियों से तुलना की जाती है।
भोरमदेव मंदिर के मण्डप में प्रतिष्ठित एक योगी की मूर्ति पर उत्कृठ लेख यह मंदिर छठे नागवंशी राजा गोपालदेव द्वारा बनाया गया। दुर्लभ शिल्पकला और नागर शैली कलाकृतियों का ये अनूठा और सुन्दर उदाहारण है। पूर्वाभिमुख मंदिर के तीन प्रवेश द्वार है। तीनों द्वार पर तीन अध्र्द मण्डप और बीच में वर्गाकार मण्डप अंत में गर्भगृह निर्मित है। द्वार के दोनों ओर शिव की त्रिभंग मूर्तियां सुशोभित है। ललाट बिंब पर तप मुद्रा में द्विभुजीय नागराज जिसके शिरोभाग में पंच फन है, आसीन है। प्रवेश द्वार शाखा, लता, बेलों से अलंकृत है। बीच का वर्गाकार मण्डप 16 खंभों पर टिका है। स्तंभों की चौकी उल्टे विकसित कमल के समान है। जिस पर बने कीचक याने भारवाहक छत के भार को थामे हुए है। मण्डप की छत पर सहस्त्र दल कमल देखने लायक है।
गर्भगृह मण्डप के धरातल से लगभग डेढ़ मीटर बना है। यहां बीचोबीच विशाल शिवलिंग बना है। शिवलिंग के ठीक उपर मण्डप के समान सहस्त्र दल कमल बना हुआ है। यहां पंचमुख नाग प्रतिमा, नृत्य गणेश की अष्टभुजीय प्रतिमा, तपस्यारत योगी, आसनस्थ उपासक दंपति की प्रतिमाऐं गर्भगृह की दीवार के पास पूजा के लिये रखी गई है।
भोरमदेव मंदिर का क्रमश: संकरा होता अलंकृत गोलाकार शिखर आज कलश विहीन है। शेष भाग अपने मूलरूप में स्थित है। मंदिर के दक्षिण द्वार पर लगे शिलालेख के अनुसार 16वीं सदी मे रतनपुर के शासक ने आक्रमण कर इसका कलश तोड़ दिया और विजय के प्रतीक के रूप में अपने साथ ले गये।
भोरमदेव मंदिर का शिखर समूचे छत्तीसगढ़ के प्राचीन मंदिरों में सबसे महत्वपूर्ण है। गर्भगृह में प्रकाश के लिये पूर्व दिशा में शिखर के नीचे अलंकरणयुक्त गवाक्ष बना हुआ है। मंदिर के बाहर की दीवारें अलंकरणयुक्त है। इसमें देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ मिथुन के अनेक दृश्य तीन पंक्तियों में सुन्दर कलात्मक कलाओं के साथ बनी है। यहां मिथुन मूर्तियां बहुत है। अप्सरायें और सुर सुंदरियों की विभिन्न मुद्राओं में अंगड़ाई लेती हुई जीवंत नजर आती है। मिथुन मूर्ति में सहज मैथुन के अलावा कुछ काल्पनिक और अप्राकृतिक मैथुन का भी अंकन है। ये मूर्तियां जहां सृष्टि के विकास का संकेत है तो दैहिक और आत्मिक समरसता का संदेश देती है।
भोरमदेव की मूर्तियों में गीत, वाद्य और नृत्य, संगीत की तीनों विधाओं के दृश्य महत्वपूर्ण है। सामने का सरोवर काफी बड़ा है और उसमें हमेशा नीले गुलाबी कमल खिले रहते है। यहां बोटिंग का भी इंतजाम है। चारों ओर पहाडिय़ों से घिरे भोरमदेव मंदिर में अद्भुत शांति मिलती है। घने जंगलों से घिरी पहाडिय़ों के बीच कुछ गांव ऐसे भी है जहां ठंड में एक दो बार बर्फ पड़ जाती है। भोरमदेव से कुछ किमी आगे राष्ट्रीय उद्यान कान्हा किसली भी है जो बंटवारे में मध्यप्रदेश के हिस्से चला गया।
मंदिर की खासियत: यह मंदिर चंदेलों द्वारा बनाये गए खजुराहो के मंदिरों की शैली से बना है। मंदिर वास्तु और शिल्प दोनों ही रूप में कला का एक उत्कृष्ट उदहारण है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन स्तरों में विभिन्न प्रकार की मूर्तियों को उकेरा गया है जिनमें शिव की लीलाओं, विष्णु के विभिन्न अवतारों और अन्य देवी देवताओं की कई मूर्तियां शामिल हैं। दीवारों पर नृत्य करते नायक, नायिकाओं, योद्धाओं, काम-कलाओं को प्रदर्शित करते युगलों का बेहद कलात्मक ढंग से अंकन किया गया है। दीवारों की काम-कला की मूर्तियों की तुलना खजुराहो की मूर्तियों से की जाती है जिस कारण इस मंदिर को छत्तीसगढ़ का खजुराहो भी कहा जाता है।
कौन हैं भोरम देव? यह मंदिर एक शिव मंदिर है, स्थानीय गोंड समाज में कुल देवता को बूढ़ादेव, बड़ादेव या भोरमदेव कहा जाता है, इसीलिए इस मंदिर का नाम भोरमदेव पड़ा।
भोरमदेव मंदिर का निर्माण एक सुंदर और विशाल सरोवर के किनारे किया गया है, जिसके चारों और फैली पर्वत श्रृंखलाएं और हरी-भरी घाटियां पर्यटकों का मन मोह लेती हैं। भोरमदेव मंदिर मूलत: एक शिव मंदिर है। ऐसा कहा जाता है कि शिव के ही एक अन्य रूप भोरमदेव गोंड समुदाय के उपास्य देव थे। जिसके नाम से यह स्थल प्रसिद्ध हुआ। नागवंशी शासकों के समक्ष यहां सभी धर्मों के समान महत्व प्राप्त था जिसका जीता जागता उदाहरण इस स्थल के समीप से प्राप्त शैव, वैष्णव, बौद्ध और जैन प्रतिमाएं हैं।
भोरमदेव मंदिर की स्थापत्य शैली चंदेल शैली की है और निर्माण योजना की विषय वस्तु खजुराहो और सूर्य मंदिर के समान है जिसके कारण इसे छत्तीसगढ़ का खजुराहो के नाम से भी जानते हैं। मंदिर की बाहरी दीवारों पर तीन समानांतर क्रम में विभिन्न प्रतिमाओं को उकेरा गया है जिनमे से प्रमुख रूप से शिव की विविध लीलाओं का प्रदर्शन है। विष्?णु के अवतारों व देवी देवताओं की विभिन्न प्रतिमाओं के साथ गोवर्धन पर्वत उठाए श्रीकृष्ण का अंकन है। जैन तीर्थकरों की भी अंकन है। तृतीय स्तर पर नायिकाओं, नर्तकों, वादकों, योद्धाओं मिथुनरत युगलों और काम कलाओं को प्रदर्शित करते नायक-नायिकाओं का भी अंकन बड़े कलात्मक ढंग से किया गया है, जिनके माध्यम से समाज में स्थापित गृहस्थ जीवन को अभिव्यक्त किया गया है। नृत्य करते हुए स्त्री पुरुषों को देखकर यह आभास होता है कि 11वीं-12वीं शताब्दी में भी इस क्षेत्र में नृत्यकला में लोग रुचि रखते थे। इनके अतिरिक्त पशुओं के भी कुछ अंकन देखने को मिलते हैं जिनमें प्रमुख रूप से गज और शार्दुल (सिंह) की प्रतिमाएं हैं। मंदिर के परिसर में विभिन्न देवी देवताओं की प्रतिमाएं, सती स्तंभ और शिलालेख संग्रहित किए गए हैं जो इस क्षेत्र की खुदाई से प्राप्त हुए थे। इसी के साथ मंदिरों के बाई ओर एक ईंटों से निर्मित प्राचीन शिव मंदिर भी स्थित है जो कि भग्नावस्था में है। उक्त मंदिर को देखकर यह कहा जा सकता है कि उस काल में भी ईंटों से निर्मित मंदिरों की परंपरा थी।
अन्य स्थल:
छेरकी महल: भोरमदेव मंदिर के पास ही छेरकी महल है, यह भी शिव मंदिर है। इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ था। स्थानीय बोली में बकरी को छेरी कहा जाता है इसलिए यह मान्यता है कि यह मंदिर बकरी चराने वालों को समर्पित है। इस मंदिर की खासियत है कि इसके पास जाने पर बकरियों के शरीर से आने वाली गंध आती है। पुरातत्व विभाग ने इस मंदिर को संरक्षित स्मारक घोषित किया है।
मड़वा महल: भोरमदेव मंदिर से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम के निकट एक अन्य शिव मंदिर स्थित है जिसे मड़वा महल या दूल्हादेव मंदिर के नाम से जाना जाता है। उक्त मंदिर का निर्माण 1349 ईसवी में फणीनागवंशी शासक रामचंद्र देव ने करवाया था। उक्त मंदिर का निर्माण उन्होंने अपने विवाह के उपलक्ष्य में करवाया था। हैहयवंशी राजकुमार अंबिका देवी से उनका विवाह संपन्न हुआ था। मड़वा का अर्थ मंडप से होता है जो कि विवाह के उपलक्ष्य में बनाया जाता है। मंदिर की बाहरी दीवारों पर 54 मिथुन मूर्तियों का अंकन अत्यंत कला?मकता से किया गया है जो कि आंतरिक प्रेम और सुंदरता को प्रदर्शित करती है।
कवर्धा महल: इटैलियन मार्बल से बना कवर्धा महल बहुत सुन्दर है। इसका निर्माण महाराजा धर्मराज सिंह ने 1936-39 ई. में कराया था। यह महल 11 एकड़ में फैला हुआ है। महल के दरबार के गुम्बद पर सोने और चांदी से नक्काशी की गई है। गुम्बद के अलावा इसकी सीढिय़ां और बरामदे भी बहुत खूबसूरत हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं। इसके प्रवेश द्वार का नाम हाथी दरवाजा है, जो बहुत सुन्दर है।
राधाकृष्ण मन्दिर: इस मन्दिर का निर्माण राजा उजीयार सिंह ने 180 वर्ष पहले कराया था। प्राचीन समय में साधु-संत मन्दिर के भूमिगत कमरों में कठिन तपस्या किया करते थे। इन भूमिगत कमरों को पर्यटक आज भी देख सकते हैं। मन्दिर के पास एक तालाब भी बना हुआ है। इसका नाम उजीयार सागर है। तालाब के किनारे से मन्दिर के खूबसूरत दृश्य दिखाई देते हैं, जो पर्यटकों को बहुत पसंद आते हैं।
राधाकृष्ण मन्दिर के अलावा पर्यटक यहां पर मदन मंजरी महल मन्दिर भी देख सकते हैं। भोरमदेव माण्डवा महल और मदन मंजरी महल मन्दिर पुष्पा सरोवर के पास स्थित हैं। इन दोनों मन्दिरों के निर्माण में मुख्य रूप से मार्बल का प्रयोग किया गया है। सरोवर के किनार पर्यटक चहचहाते पक्षियों को भी देख सकते हैं।
लोहारा बावली: कवर्धा की दक्षिण-पश्चिम दिशा में 20 कि.मी. की दूरी पर स्थित लोहारा बावली बहुत खूबसूरत है। बैजनाथ सिंह ने इसका निर्माण 120 वर्ष पहले कराया था। मानसून आने से पहले गर्मी से निजात पाने के लिए कवर्धा के शासक इन कमरों में रहते थे।
भोरमदेव छत्तीसगढ़ का महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल है। जनजातीय संस्कृति, स्थापत्य कला और प्राकृतिक सुंदरता से युक्त भोरमदेव देशी-विदेशी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र है। प्रत्येक वर्ष यहां मार्च के महीने में राज्य सरकार द्वारा भोरमदेव उत्सव का आयोजन अत्यंत भव्य रूप से किया जाता है। जिसमें कला व संस्कृति के अद्भुत दर्शन होते हैं।
कंकालीन-बैजलपुर से एक किलोमीटर दूर बफेला-देवसरा में आठवी शताब्दी की जैन तीर्थंकर पाश्र्वनाथ भगवान की काले ग्रेनाइट की कलात्मक प्रतिमा भी उत्खनन में प्राप्त हुई हैं जो पंडरिया के जैन मंदिर में प्रस्थापित है। इस प्रतिमा को स्थानीय बैगा आदिवासी मंत्रित मानते हैं और इसकी पूजा भी करते हैं। तामेश्वरनाथ मंदिर संत कबीर नगर जनपद मुख्यालय खलीलाबाद से मात्र सात कि.मी. की दूरी पर स्थित देवाधिदेव महादेव बाबा तामेश्वरनाथ मंदिर (तामेश्वरनाथ धाम) की महत्ता अन्नत (आदि) काल से चली आ रही है।
जनश्रुति के अनुसार यह स्थल महाभारत काल में महाराजा विराट के राज्य का जंगली इलाका रहा। यहां पांडवों का वनवास क्षेत्र रहा है और अज्ञातवास के दौरान कुंती ने पांडवों के साथ यहां कुछ दिनों तक निवास किया था। इसी स्थल पर माता कुंती ने शिवलिंग की स्थापना की थी, यह वही शिवलिंग है।
यही वह स्थान है जहां कऱीब ढाई हज़ार वर्ष पूर्व दुनिया में बौद्ध धर्म का संदेश का परचम लहराने वाले महात्मा बुद्ध ने मुण्डन संस्कार कराने के पश्चात अपने राजश्री वस्त्रों का परित्याग कर दिया था। भगवान बुद्ध के यहां मुण्डन संस्कार कराने के नाते यह स्थान मुंडन के लिए प्रसिद्ध है। महाशिव रात्रि पर यहां भारी संख्या में लोग यहां अपने बच्चों का मुंडन कराने के लिए उपस्थित होते है।
कैसे पहुंचे:
वायुमार्ग: निकटतम हवाई अड्डा रायपुर (134 किमी) है जो कि मुंबई, दिल्ली, नागपुर, भुवनेश्वर, कोलकाता, रांची, विशाखापट्नम एवं चेन्नई से जुड़ा हुआ है।
रेलमार्ग: हावड़ा-मुंबई मुख्य रेल मार्ग पर रायपुर(134किमी) समीपस्थ रेल्वे जंक्शन है।
सड़क मार्ग: कवर्धा (18किमी), रायपुर (116किमी), बिलासपुर से 150 किमी, भिलाई से 150 किमी और जबलपुर से 150 किमी दूर दैनिक बस सेवा एवं टैक्सियां उपलब्ध है।
कहां ठहरें: कवर्धा में विश्रामगृह और निजी होटल है। भोरमदेव में भी पर्यटन मंडल का विश्रामगृह हैँ।
Pt.P.S.Tripathi
Mobile No.- 9893363928,9424225005
Landline No.- 0771-4050500
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