Monday 31 August 2015

सूर्य-पुत्र शनि

शनि की क्रूर दृष्टि का प्रभाव सर्वविदित है । इससे आक्रांत जातक अभिशापों की श्रृंखला से आबद्ध हो जाता है । इसके क्षणिक प्रभाव से ही शारीरिक कष्ट, अर्थहानि, सामान क्षय, कार्यावरोध, पलायन, निष्कासन, कारावास, दरिद्रता, विभ्रम एवं शत्रुभय आदि अनेक दुखद स्थितियों सामने आ खडी होती हैं । यदि शनि ग्रह किसी पर पूर्णतया कुपित हो जाए तो फिर उसका सर्वनाश होने से कोई नहीं रोक सकता । "शनि से पीडित व्यक्ति को दुर्भाग्य का असाध्य रोगी कहा जा सकता है । भले ही अन्य ग्रहों का सुप्रभाव अवलंब देता रहे, र्कितु शनि का संत्रास उसे अवश्य ही भीगना पड़ता है । ग्रह संम्राट सूर्य के नौ पुत्रों में अपनी भीषणता के लिए शनि सर्वोपरि है। शनि के श्याम वर्ण को देखकर सूर्य ने एकबारगी तो उसे अपना पुत्र मानने से ही इनकार कर दिया था, संभवत: शनि की रुक्षता का एक कारण यह भी रहा हो । पुराकथाओं के अनुसार संतानों के योग्य होने पर सूर्य ने प्रत्येक संतान के लिए एक-एक लोक की व्यवस्था की । किन्तु पाप प्रधान प्रकृति का होने के कारण शनि अपने एक लोक से पूर्णतया संतुष्ट नहीं हुआ । उसने अपने समस्त भाइयों के लोकों पर आक्रमण करने की योजना प्रारूपित की । सूर्य को अपने पुत्र ज्ञानि को इस भावना से अत्यधिक वेदना हुई । र्कितु शनि पर भला उनकी वेदना का क्या प्रभाव पड़ने वाला था ? वह अत्यंत पराक्रमी और शक्तिशाली था । उसने ईश्वरीय अवतारों से लेकर चक्रवर्ती संम्राटों तक को अपनी शक्ति से विचलित कर दिया था । उसके बाहुबल से समस्त देबी शक्तियां प्रभावित थीं । परिणामत: प्रलयंकर श्री शिव ने शनि को अपनी सेवा में ग्रहण कर लिया । तब शनि को श्रीशिव द्वारा कर्मानुसार दंड प्रदान करने का अधिकार प्राप्त हुआ । इसी बब्जात क्रो ध्यान में रखते हुए सूर्य ने ज्ञाति क्री दुवृंत्ति का बखान श्रीशिब से करके आतुर निवेदन किया । भक्त भयहारी श्रीशिव् संमुपस्थित हुए और उन्होंने उहंड ज्ञानि को चेतावनी दी कि वह अपनी हरकतों से बाज आए । उनकी बात यर ध्यान न देकर जब शनि ने उपेक्षा कौ तो शिव-पुनि के चीड़ ठन गई । उनके बीच युद्ध प्रश्वारंभ हुआ । 'शनि ने अपने अद्भुत पराक्रम से नंदी तथा वीरभद्र सहित असंख्य शिवगणों को परास्त कर दिया | अपने सैन्यबल का संहार होता देखकर श्रीशिब कुपित हो गए । उन्होंने अपना प्रलयंकारी तृतीय नेत्र खौल दिया । शनि ने अपनी मास्क दृष्टि का संधान किया । शिव और यानि की दृष्टियों से उत्पन्न एक अप्रतिम ज्योति ने शनित्गेक क्रो आच्छादित कर दिया । यह देखकर श्रीशिव को बहुत क्रोध आया | उन्होंने शनि पर त्रिशूल से शक्तिशाली प्रहार किया । शनि इस प्रहार को तीव्रता को सहन नहीं कर सका । वह संज्ञाशून्य हो गया । ऐसे में पत्नी छाया के गर्भ से उत्पन्न हुए शनि के श्याम रूप को देखकर उसे अपना पुत्र
न मानने बाले सूर्य का पुत्रमोह प्रबल हो गया । उन्होंने भगवान श्रीशिव से शनि के रक्षण हेतु अनुनय निवेदन किया 1 इससे श्रीशिब ने प्रसन्न होकर शनि का संकट हर लिया ( इम घटना से शनि ने श्रीशिव को सर्वसमर्थत्ता स्वीकार कर ली । उसने श्रीशिव से क्षमा-याचना करके यह इच्छा व्यवत्त को कि वह अपनी समस्त सेवाएँ उन्हें समर्पित करना चाहता है। प्रचंड पराक्रमी शनि के रषाकौशल से अभिभूत त्रिनेत्रधारी भगवान आशुतोष ने शनि को अपना सेवक बना लिया और दंडाधिकारी के पद पर नियुक्त कर दिया ।

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