Sunday, 15 November 2015

कुंडली से जाने - अप्प दीपो भव -

यह सच है कि मनुष्य को एक दूसरे के सहयोग की अपेक्षा होती है किंतु मनुष्य का सबसे बड़ा संबल उसका आत्मविष्वास ही होता है। निष्चित ही बच्चे को माता-पिता गुरू का संरक्षण एवं सहयोग आवष्यक है किंतु चलने के अभ्यास हेतु। चलना तथा गिरना तो बच्चे के विकास का अभिन्न अंग है। केवल माता-पिता, गुरू के सहयोग से आत्मविष्वास जागृत करें तथा स्वयं अपना दीपक बने और अपना कार्य पूर्ण ईमानदारी तथा आत्मविष्वास पैदा कर अपना, अपनो तथा समाज के हित में कार्य करें अर्थात् अप्प दीपो भव अथवा अपना दीपक स्वयं बनें। क्यो किसी जातक के इसकी क्षमता है अथवा कम क्षमता को विकसित कैसें करें कि आत्मविष्वास तथा आत्मनिर्णय का विस्तार हो सके इसके लिए किसी भी जातक की कुंडली में लग्न, दूसरे, तीसरे तथा एकादष स्थान के ग्रहों तथा इन स्थानों पर मौजूद ग्रहों का आकलन करने से ज्ञात होता है अगर किसी जातक की कुंडली में लग्न या तीसरा स्थान स्वयं विपरीत हो जाए अथवा इस स्थान पर क्रूर ग्रह हो तो ऐसे जातक के जीवन में आत्मविष्वास तथा आत्मसंयम की कमी के कारण जीवन में सफलता दूर रहती है इसी प्रकार एकादष स्थान का स्वामी क्रूर ग्रहों से पापक्रांत हो अथवा छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाए तो ऐसे लोग अनियमित दिनचर्या के कारण अपनी योग्यता का पूर्ण उपयोग नहीं कर पाते अर्थात् स्वयं अपने जीवन में प्रकाष का समय तथा आवष्यकतानुसार उपयोग नहीं कर पाते जिसके कारण परेषान रहते हैं। इन सभी स्थितियों से बचने के लिए जीवन में आत्मसंयम तथा अनुषासन के साथ ग्रह शांति करनी चाहिए। बाल्य अवस्था में मंगल के मंत्रजाप तथा बड़ो का आदर तथा युवा अवस्था में शनि के मंत्रों का जाप, दान तथा अनुषाासन रखना चाहिए।
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आदर प्राप्ति हेतु करें अहं का त्याग-जाने अहंकार का ज्योतिषीय कारण -

प्रातः हर मनुष्य में अपने को बड़ा मानने की प्रवृत्ति सहज ही होती है और यह प्रवृत्ति बुरी भी नहीं है। किंतु अकसर अहं स्वयं को सही और दूसरो को गलत साबित करता है। आत्मसम्मान और स्वाभिमान के बीच बारीक रेखा होती है जिसमें अहंकार का कब समावेष होता है पता भी नहीं चलता। कोई कितना भी योग्य हो यदि वह अपनी योग्यता का स्वयं मूल्यांकन करता है तो आदर का पात्र नहीं बन पाता अतः बड़ा बनकर आदर का पात्र बनने हेतु अहंकार का त्याग जरूरी है। अहंकार का अतिरेक किसी जातक की कुंडली से देखा जा सकता है। यदि किसी जातक के लग्न, तीसरे, एकादष स्थान का स्वामी होकर सूर्य, शनि जैसे ग्रह छठवे, आठवे या बारहवे स्थान में हो जाएं तो ऐसे जातक अहंकार के कारण रिष्तों में दूरी बना लेते हैं वहीं अगर इन स्थानों का स्वामी होकर गुरू जैसे ग्रह हों तो बड़प्पन कायम होता है। अतः यदि लोगों का आपके प्रति सच्चा आदर ना दिखाई दे और आदर का पात्र होते हुए भी आदर प्राप्त न कर पा रहें हो तो कुंडली का आकलन कराकर पता लगा लें कि कहीं जीवन में अहंकार का भाव प्रगाढ़ तो नहीं हो रहा। अथवा सूर्य की उपासना, अध्र्य देकर तथा सूक्ष्म जीवों के साथ असमर्थ की मदद कर अपने जीवन से अहंकार को कम कर जीवन में आदर तथा सम्मान प्राप्त किया जा सकता है।
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Saturday, 14 November 2015

स्थिरप्रज्ञ बनें और पायें सफलता -

कुछ लोगों का स्वाभाव होता है कि वे जल्दी-जल्दी अपना काम बदलते रहते हैं। एक काम को ठीक से किये बिना असफलता के डर से कार्य बदल देते हैं या उस कार्य को छोड़कर दूसरे काम में ध्यान देने लगते हैं। काम को अच्छे से किए बिना बदलने से स्थायी सफलता मिलने तथा विष्वास प्राप्त करने में भी अवरोध आता है। अतः अपनी रूचि और योग्यतानुसार किसी एक लक्ष्य तथा दिषा का चुनाव कर उस कार्य को तत्परतापूर्वक स्थायी रूप से करने से सफलता निष्चित ही प्राप्त होगी। यदि किसी के जीवन में स्थिरप्रज्ञ होना हो तो उसे अपनी कुंडली का अध्ययन कराया जाना चाहिए और अस्थिरता को रोकने के लिए कुंडली के तीसरे एवं एकादष स्थान का अध्ययन कर देखना चाहिए कि कहीं तीसरे स्थान का स्वामी कमजोर है तो कमजोर मानसिकता के कारण आत्मविष्वास की कमी के चलते स्थिरता में बाधक होता है वहीं यदि एकादष स्थान का स्वामी विपरीत हो तो दैनिक-दैनिंदन कार्य में स्थिरता केा कम कर देता है। इसी प्रकार यदि दूसरे, तीसरे, अष्टम या भाग्य स्थान में राहु हो या इन स्थानों का स्वामी राहु से पापाक्रांत हो जाए तो भी जीवन में स्थाईत्व की कमी हो सकती है। अतः अगर अस्थाईत्व प्रकृति ही सफलता में बाधक हो तो तीसरे, एकादष एवं राहु की शांति कराना, मंत्र का जाप करना तथा सूक्ष्म जीवों की सेवा करना चाहिए, जिससे स्थिरप्रज्ञ बन जा सकता है और जीवन में स्थाई सफलता प्राप्त की जा सकती है।

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अनिष्ट की आंशका दूरने हेतु करें रवि योग में रवि की पूजा

 ज्योतिष के अनुसार अगर कोई भी कार्य शुभ योग-संयोग देखकर किया जाए तो सफलता निश्चित रूप से मिलती है। शुभ कार्य संपन्न करने या मंगल कार्य को बिना किसी बाधा के करने के लिए के लिए सिद्धि योग एवं शुभ मुहुर्त देख कर ही किए जाने चाहिए। शास्त्रों में कहा गया है कि जिस तरह हिमालय का हिम सूर्य के उगने पर गल जाता है और सैकडों हाथियों के समूहों को अकेला सिंह भगा देता है, उसी तरह से रवि योग भी सभी अशुभ योगों को भगा देता है, अर्थात इस योग में सभी शुभ कार्य निर्विघ्न रूप से पूर्ण होते हैं। रवि-योग को सूर्य का अभीष्ट प्राप्त होने के कारण प्रभावशाली योग माना जाता है। सूर्य की पवित्र ऊर्जा से भरपूर होने से इस योग में किया गया कार्य अनिष्ट की आंशका को नष्ट करके शुभ फल प्रदान करता है। यह संयोग खरीदी एवं कोई भी शुभ कार्य की शुरुआत के लिए सर्वश्रेष्ठ मुहूर्त माने जाते हैं। आज किए जाने वाले शुभ कार्य विशेष फलदायी होंगे क्योंकि आज सर्वार्थसिद्ध योग भी है। अतः रवियोग के संयोग में बाजार से खरीदी स्थायित्व प्रदान करने वाली होगी अतः स्थाथी संपत्ति क्रय हेतु सूर्य की पूजा के साथ किए गए कार्य आज शुभ फलदायी है।

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मंगल की महादशा में अंतर्दशा का फल

मंगल-यदि मंगल उच्च राशि, स्वक्षेत्री, शुभ यहीं से दुष्ट होकर केन्द्र, त्रिकोण, आय और सहज भावस्थ हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभा-शुभ फल प्रदान करता है। बलवान मंगल, बली आयेश या धनेश से सम्बन्ध करता हो तो जातक इसकी दशा में राज्यानुग्रह प्राप्त कर लेता है । सेना अथवा अर्द्धसैनिक बल में नौकरी मिल जाती है, कमाण्डर जैसे पद प्राप्त होते हैं, सैन्य या पुलिस पदक मिलता है, व्यवसायी हो तो व्यवसाय खूब चमकता है क्या लश्मी की कूपा बनी रहती है। व्यक्ति परमोत्साही, पर क्रूरकमाँ बन जाता है, खून में गरमी बढ जाती है।अशुभ मंगल एव अशुभ स्थानस्थ मंगल की दशा में, व्यक्ति को क्रोध अधिक आ जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है, निम्न पदों पर नौकरी करनी पड़ती है, इष्टजनों से कलह, व्यवसायियों का ग्राहकों से झगडा, रक्तचाप, रक्तविकार, शिरोवेदना, नेत्र रोग, खुजली, देह में चकते जैसे रोग व अन्य व्याधिया हो जाती है क्या इनकी चिकित्सा कराने में धन व्यय होता है। व्यवसाय स्थिर हो जाता है।
राहु-मंगल और राहु दोनों ही नैसर्गिक पापी ग्रह है। मंगल की महादशा में राहु की अन्तर्दशा में शुभाशुभ, अर्थात मिश्रित फल मिलते है। शुभ मंगल की महादशा में शुभ राहु का अंतर चल रहा हो तो जातक मकान, भूमि, धन, माल आकस्मिक रूप से पा लेता है, शत्रुओँ का मनमर्दन कर विशेष बाहुबल का परिचय देता है। कृषि में लाभ, वाद-विवाद में विजय मिलती है। प्रवास अधिक करने पड़ते हैं, दुर्घटना का भय रहता है । अशुभ राहु के दशाकाल में जातक मन में बहम, अपने-परायों से झगडा,व्यर्थ के लाछन और अपवाद, शत्रुआँ से कष्ट, स्थानान्तरण, उदर शूल, वायुबिकार, मन्दाग्नि, रक्तक्षय, श्यास-कास से पीडित रहता है, बनते कार्यों में विघ्न आते हैं और प्रत्येक कार्य में असफलता मिलती है ।
बृहस्पति-शुभ मंगल की दशा में यदि शुभ और बलवान ब्रिहस्पती की अन्तर्दशा चले तो जातक की सल्कीर्ति फैलती है, कई अच्छे ग्रन्धों का निर्माण होता है, अकर्मण्य को कर्म मिलता है, पूर्वार्जित सम्पत्ति मिलती है, नौकरी में पदवृद्धि, वेतनवृछि होती है, सत्कर्म, परोपकार, तीर्थाटन में रुचि बढती है, आरोग्यता वनी रहती है, कार्य-व्यवसाय में वृद्धि होती है । पुत्रोत्सव से मन में हर्ष, सन्तान के कारण यश मिलता है तथा समाज में मान-सम्मान बहता है। अशुभ और निर्बल बृहस्पति की अन्तर्दशा चल रही हो तो पदावनति, राजम, सन्तान से कष्ट, स्वी सुख में कमी, इष्ट-मित्रों से अनबन, कार्य-व्यवसाय में हानि, ज्वर, कर्ण पीडा, कफ-पित्तादि रोगों से पीडा तथा अपवृत्यु की आशंका बढ़ जाती है।
शनि-मंगल महादशा में राहु अन्तर्दशा के जैसे मिश्रित मंगल शनि अन्तर्दशा के भी मिलते है। बलवान शनि शुभ अवस्था आदि में हो तो अपनी अन्तर्दशा से जातक को स्लेछ वर्ग से लाभ, स्वग्राम में व अपने समाज में यश-प्रतिष्ठा, घन-घान्य की वृद्धि, काले पशुधन से लाभ एव ग्रामसभा का सदस्य आदि जैसे पाल प्रदान करता है। किसी पराक्रमपूर्ण कार्य के लिए स्वल्प पारितोषिक मिलता है । यदि पापी और अशुभ स्थानस्थ शनि हो तो जातक इस दशाकाल में अस्थिर-धि, एक कार्य को छोड़कर दूसरा कार्य प्रारम्भ करने वाला, स्वजनों का नाश देखने वाला, चोर-लुटेरों-शत्रुओँ व शस्त्राघात से पीडित होने वाला, पुत्र सुख से हीन, अपकीर्ति पाने वाला होता है । नौबत यहा तक आ पहुंचती है कि जातक सभी ओर से निराश होकर ईंश्वरभक्ति करता है अथवा आत्महनन करने की चेष्टा कर कारागृह की शोभा बढा देता है ।
बुध-बली बुध शुभ होकर केन्द्र, त्रिकोण या आय स्थान में हो तथा मंगल में बुध का अन्तर चल रहा हो तो जातक स्थिर मति, पश्चिम से कार्य करने वाला होता है । उसके यहा संख्या, कीर्तन, प्रवचन आदि होते रहते है ।वैश्य वर्ग से लाभ मिलता है। सेना में पदृवृद्धि, विद्या-विनोद, बहुमूल्य सम्पत्ति का स्वामित्व प्राप्त होता है। कन्या रत्न उत्पत्ति के उपलक्ष्य से उत्सव मनाता है। निर्बल और अशुभ बुध की अन्तर्दशा हो तो जातक की अपकीर्ति फैलती है, कठिन श्रम का फल शून्य मिलता है, लेखन कार्य से अपयश, कार्य-व्यवसाय में हानि, दुष्टजनों से मनस्ताप, ग्रहक्लह से मानसिक वेदना मिलती है । अनुभव से ऐसा आता है कि जिन्हें दशा के प्रारम्भ में हानि होती है, उन्हें दशा के अन्त में लाभ मिल जाता है और जिन्हें दशा के अन्त में हानि रहती है, उन्हें दशा के प्रारम्भ में लाभ मिलता है ।
केतु-शुभ केतु की अन्तर्दशा में जातक को सुख और शान्ति मिलती है, पद व उत्साह में वृद्धि और साकार होता है। अशुभ केतु की दशा में जातक के मन में भय, पाप कर्म में रुचि, निराशा, इष्टजनों को कष्ट, नीव तीनों की संगति से अपयश, शत्रुओ से पराजय, व्यर्थ में इधर-उधर भटकना, बिजली, बादल से अपपृत्यु, अग्नि भय, आवास का नाश, राज्यदण्ड जिने की आशंका बनती है । उदर शूल, पेड़ शूल, पत्यरी, कार्बक्ल, नासूर, भगन्दर जैसे दुष्ट रोग पीडित करते है । केतु अन्तर्दशा विशेष कष्टदायक होती है
शुक्र-ज़ब मंगल की महादशा में शुभ और बलवान शुक्र की अंतर्दशा व्यतीत हो रही हो तो जातक के मन में चंचलता, कामावेग में वृद्धि, चित्त में ईष्यएँ व द्वेष भर जाते हैं ।परीक्षार्थी येन-केन-प्रकारेण उतीर्ण हो जाते हैं, पुत्र उत्पत्ति का हर्ष, श्वसुर पक्ष से दान-दहेज मिलता है, सुन्दर स्त्रियों से प्रेमालाप एव उपहारों की प्राप्ति होती है । राज्य कृपा से भूमि की प्राप्ति, नाटक, संगीत, सिनेमा, नाच-गाने में रुचि बढती है । पापी और अशुभ क्षेत्री शुक्र की अन्तर्दशा से जातक विदेश गंमन करता है,|
सूर्य-मंगल की महादशा में जब उच्च, स्वक्षेत्री, शुभ ग्रह युक्त या दृष्ट सूर्य की अन्तर्दशा चलती है तो व्यक्ति राज्य से विशेष लाभ प्राप्त करता है । नौकर हो तो आनरेरी पद से वृद्धि, अग्रिम वेतन वृद्धि होती है । उच्चधिकांरेयों का कृपापात्र बनता है । सेना व पुलिस सेवा के कर्मचारी इस दशा में विशेष लाभान्वित होते है। युद्ध व वादविवाद में विजय मिलती है। दूर-दराज के जंगलों, पहाडों मेँ निवास होता है। पापक्षेत्री, पापप्रभाबी, निर्बल सूर्य की दशा हो तो जातक गुरु-ब्राहम्ण से द्वेष करता है, माता-पिता को कष्ट मिलता है, मन को परिताप पहुँचता है, धनहानि व पशुओ का नाश होता है। विष्य-वासना बढ़ती है और जातक समलैंगिक संसर्ग करता है।
चन्द्रमा-शुभ पाल की महादशा में जब शुभ और बली चन्द्रमा की अन्तर्दशा चलती है तो जातक का मन शान्त, लेकिन देह में आलस्य बढ़ जाता है। जातक अधिक सोता है, दूध, खोये के पदार्थ खाने को मिलते हैं, प्रवास अधिक होते हैं, प्राकृतिक दृश्यों की छटा के अवलोकन की विशेष रुचि बनती है, श्वेत वस्तुओं व घातुओँ के व्यवसाय से विशेष लाभ मिलता है। बाग-बगीचे लगवाने पर धन व्यय, विवाहोत्सव एव मांगलिक कार्य सप्पन्न होते है। इष्ट-मित्रों से बहुमूल्य उपहार मिलते है। अशुभ और पाप प्रभावी चन्द्रमा की अन्तर्दशा से जातक को नजला, जुकाम, स्वप्नदोष, जिगर-तिल्ली में शोथ,| जातक अविवाहित और पराई रित्रयों से रमण करता है, मन में उद्धिग्नत्ता बनी रहती है, कल्पनालोक से विचरण कर अमूल्य समय को नष्ट करता है। यदि चन्द्रमा मारकेश से सम्बन्थ करता हो तो अपमृत्यु का भय बनता है।
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चन्द्रमा की महादशा में अंतर्दशा फल

चन्द्रमा-यदि चन्द्रमा कारक होकर उच्च राशि का, स्वराशि का, शुभ ग्रहों से युक्त और दुष्ट हो तो अपनी दशा-अंतर्दशा में जातक को पशुधन से, विशेषत: दूध देने वाले पशुओं से लाभान्वित कराता है। इस दशा में जातक यशोभागी होकर अपनी कीर्ति को अक्षुष्ण बना लेता है, कन्या-रत्न की प्राप्ति या कन्या के विवाह जैसा उत्सव और मंगल कार्य संपन्न होता है। मायन-वादन आदि ललित कलाओं में जातक की रुचि बाती है, स्वास्थ्य सुख, घन-घान्य की वृद्धि होती है। आप्तजनों द्वारा कल्याण होता है तथा राज्यस्तरीय सम्मान मिलता है । यदि चन्द्रमा नीच राशि का, पाप ग्रहों से युक्त अथवा प्राण योग में हो तथा त्रिक स्थानस्थ हो तो अपनी दशज्जा-अन्तर्दशा में जातक को देह में आलस्य, माता को कष्ट, चित्त में भ्रम और भय, परस्वीरमण से अपयश तथा प्रत्येक कार्य में विफलता जैसे कुफल देता है । जल में डूबने की आशंका रहती है, शीत ज्वर, नजला जुकाम अथवा थातुव्रिकार जैसी पीड़ाएं भोगनी पड़ती है।
मंगल-यदि मंगल कारक होकर उच्च राशि, स्वराशि, मित्र राशि अथवा शुभ प्रभाव से युक्त हो तो चन्द्रमा की महादशा में अपनी दशाभुक्ति में जातक को परमोत्साही बना देता है 1 यदि जातक सेना या पुलिस में हो तो उसे उच्च पद मिलता है, इष्ट-मित्रों से लाभ मिलता है, कवि-व्यवसाय की उन्नति होती है । जातक क्रूर कर्मों से विशेष ख्याति अर्जित करता है । शत्रुओं को समूल नष्ट करने में सक्षम ही जाता है । यदि अशुभ क्षेत्री अथवा नीच राशि का मंगल हो तो अपने दशाकाल में अवस्था-भेद से अनेक अशुभ फल प्रदान करता है। धनधान्य व पैतृक सप्पत्ति का नाश हो जाता है, बलात्कार के केस से कारावास होता है, क्रोधावेग बढ़ जाता है । माता पिता व इष्ट मित्रों से वैचारिक वैमनस्य बाता है, दुर्घटना के योग बनते है, रक्तविकार, रक्तचाप, रक्तार्श, रक्तपित्त, बिजली से झटका लगने से देह कृशता, नकसीर फूटना जैसी व्याधियों की चिकिंत्सा पर धन का व्यय होता है।
राहु-चन्द्रमा की महादशा में राहु की अन्तर्दशा शुभ फलदायक नहीं रहती । हा, दशा के प्रारम्भ में कुछ शुभ फल अवश्य प्राप्त होते हैं । यदि राहु किसी कारक ग्रह से युक्त हो तो कार्य-सिद्धि होती है, जातक तीर्थाटन करता है क्या किसी उच्चवर्गीय व्यक्ति से उसे लाभ भी मिलता है। इस दशाकाल में जातक पश्चिम दिशा में यात्रा करने पर विशेष लाभान्वित होता है। अशुभ राहु की अंतर्दशा में जातक की बुद्धि मलिन हो जाती है, विद्यार्थी हो तो परीक्षा में अनुत्तीर्ण हो जाता है और उत्तीर्ण भी हो तो तृतीय श्रेणी ही प्राप्त होती है, कार्य-व्यवसाय की हानि होती है, शत्रु पीडित करते हैं, परिजनों को कष्ट मिलता है । जातक अनेक आधि-व्याधियों और जीर्ण ज्वर, काला ज्वर, प्लेग, मन्दाग्नि व जिगर सम्बन्धी रोगों से घिर जाता है। इस दशाकाल में जातक को जो कष्ट न हों, वहीँ कम हैं ।
बृहस्पति- यदि बृहस्पति उच्च राशि का, स्वराशि का व शुभ प्रभाव से युक्त होकर चन्द्रमा से केन्द्र, वित्ति, द्वितीय व जाय स्थानगत हो तो चन्द्रमा की महादशा में बृहस्पति की अन्तर्दशा के समय जातक के ज्ञान में वृद्धि क्या घर्माघर्म के विवेचन में उसकी बुद्धि सक्षम हो जाती है । उसके मन में उपकार करने की भावना, दानशीलता व धर्मशीलता आदि का आयुदय होता है । स्वाध्याय और यज्ञादि कर्म करने की प्रवृति और मग्रेगलिक कयों में व्यय होता है । अविवाहित जातक का विवाहोत्सव या विवाहित को पुत्रोत्सव का हर्ष, उत्तम स्वास्थ्य, नौकरी में पद-वृद्धि, किए गए प्रयत्नों से सफलता और किसी मनोमिलाषित वस्तु की प्राप्ति होती है । यदि बृहस्पति नीच राशि का, शत्रु क्षेत्री, पाप प्रभावी और त्रिकस्थ हो तो इस दशाकाल में कार्य-व्यवसाय में हानि, मानसिक व्यथा, गृह-कलह, पुत्र-कलह, कष्ट, विदेश गमन, पदच्युति और धनहानिं होती है । जातक की जठराग्नि मन्द पड़ जाने से उसे वायु संबन्धी और यकृत रोग भी हो जाते है।
शनि-जब चन्द्रमा की महादशा में शनि की अन्तर्दशा व्यतीत हो रही हो.| तथा चन्द्रमा से केन्द्र, त्रिक्रोण, धन या आय स्थान में स्थित शनि उच्च राशि का, स्वराशि का या पाप प्रभाव से रहित व बली हो तो जातक को गुप्त धन की प्राप्ति होती है तथा उसे कृषि कार्यों, भूमि के कय-विक्रय, लोहा, तेल, कोयला व पत्थर के व्यवसाय से अच्छा लाभ मिलता है । निम्न वर्ग के लोरा प्राय लाभकारी रहते हैं । यदि शनि निचली, नीव राशि का व पाप प्रभावी होकर छठे, आठवें अथवा बारहवे भाव में हो तो जातक अस्थिर मति हो जाता है। तर्क, प्रतियोगिता आदि में असफल, इष्टजनों से अनबन, कामवासना की प्रबलता, नीच स्त्री से प्रेमालाप के कारण उसके अपयश, वातव्याधि, मन्दाग्नि, गैस्ट्रीक ट्रबल, उदरशूल व गठिया आदि रोगों से पीडित होने की आशंका बनती है ।
बुध-यदि चन्द्रमा की महादशा में बुध की अंतर्दशा चल रही हो और कुण्डली में बुध पूर्ण बली, शुभ ग्रहों से युक्त और दृष्ट होकर केन्द्र, त्रिकोण आदि शुभ स्थानगत हो तो जातक निर्मल और सात्विक बुद्धि का, पठन-पाठन में रुचि रखने वाला, कार्य-व्यवसाय में धन-मान अर्जित करने वाला, आप्तज़नों से सत्कार पाने वाला, विधत समाज में पूजित, ग्रन्थ लेखक, कन्या सन्तति का सुख पाने वाला व अनेक वाहनो का स्वामी होता है, लेकिन इच्छानुकूल फल प्राप्ति उसे फिर भी नहीं होती, अर्थात इतने पर भी उसके मन में तृष्णा बनी रहती है। यदि बुध नीच राशि का, नीच नवांश का व अशुभ ग्रहों से पुनीत या दुष्ट हो तथा अशुभ भाव में स्थित हो तो अपने दशाकाल के प्रारम्भ में शत्रु से पीडा, पुत्र से वैमनस्य, स्त्री सुख में कमी, पशुधन का नाश, कवि-व्यवसाय में हानि देता है तथा अन्त में त्वचा के रोगों से देह कृशता, ज्वर तथा किसी लांछन में कारावास आदि जैसे फ़ल प्रदान करता है ।
केतु-चन्द्रमा की महादशा से केतु की अन्तर्दशा भी विशेष शुभ नहीं रहती, लेकिन यदि केतु शुभ क्षेत्री क्या शुभ ग्रहों से युक्त व दृष्ट हो तो दशा के प्रारम्भ में अशुभ और मध्य में शुभ फल प्रदान करता है। अत्यन्त मामूली धनलाभ, देहसूख, देवाराधन में रुचि तथा अन्त में धन-हानि और कष्ट होता है। अशुभ केतु के दशाफल में जातक द्वारा किए गए प्रयत्नों से असफलता, नीच कर्मो में प्रवृति, परिजनों से कलह, धर्म-विरुद्ध आचरण से अपकीर्ति, पैतृक सम्पत्ति का नाश, माता की मृत्यु, पानी में डूबने की आशंका प्राय
केतु का दशाकाल सुखद न होकर पीड़ायुक्त ही व्यतीत होता है।
शुक्र-यदि चन्द्रमा की महादशा में शुभ एव बली शुक्र का अंतर व्यतीत हो रहा हो तो जातक की बृद्धि सात्विक होती है, पुत्रोत्सव होता है तथा इस उपलक्ष्य में ससुराल से प्रचुर मात्रा में दहेज मिलता है अथवा किसी अन्य व्यक्ति से उसे धन-प्राप्ति होती है क्या सुकोमल एव सुन्दर रित्रयों का संग ह्रदय में प्रसन्नता भर देता है । जातक को वाहन, वस्त्रालंकार, राज्य और समाज में प्रतिष्ठा, उच्च पद की प्राप्ति और भाग्य में वृद्धि होती है । यदि चन्द्रमा क्षीण तथा शुक्र पाप प्रभावी और अशुभ स्थानगत हो तो इससे विपरीत फल मिलते हैं । विषय-वासना की अधिकता, लांछन, बदनामी, देह दुख, रोग, पीडा, वाद-विवाद में पराजय, स्त्री सुख का नाश, मधुमेह, सूजाक आदि रोग और मन को सन्ताप निलता है।
सूर्य-बलवान और शुभ सूर्य की अन्तर्दशा जब चन्द्रमा की महादशा में चलती है तो राज्य कर्मचारियों को पदवृद्धि, वेतनघृछि अथवा अन्य प्रकार से लाभ मिलता है। इस समय जातक का शत्रुपक्ष निर्जल, वाद-विवाद में जय, उत्तम स्वास्थ्य, राजा के समान वैभव, ऐश्वर्य तथा स्वर्गोपम सुखों की प्राप्ति, स्त्री व पुत्र-सूख में वृद्धि तथा परिजनों से लाभ मिलता है। यदि चन्द्रमा क्षीणावट्यश का और सूर्य नीच, पाप प्रभाव में अथवा अशुभ स्थानगत हो तो इस दशा में किसी विधवा स्त्री के द्वारा अपमान, दूसरों की उन्नति से ईष्यों द्वेष, पिता की मृत्यु अथवा संक्रामक रोगी होते की सम्भावना, पित्तज्वर, आमातिसार, सदीं-जुकाम आदि रोगों से देहपीड़ा, मन में व्यर्थ की विकलता, चोर व अग्नि से सम्पत्ति की हानि आदि फल मिलते है।
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सूर्य की महादशा में अंतर्दशा का फल

सूर्य-यदि कुण्डली में सूर्य कारक हो, उच्च राशि का हो तथा पाप प्रभाव से रहित हो तो अपनी दशा-अन्तर्दशा में शुभ फल देता है । जातक के धन-घान्य की वृद्धि होती है, उसे पदोन्नति का अवसर निर्माता है । राज्यस्तरीय सामान प्राप्त होता है, अपने समाज में मान-प्रतिष्ठा बढती है । जातक के सभी कार्य अनायास ही हो जाते हैं । अकारक एव पाप प्रभावी सूर्य की अन्तर्दशा में जातक के शरीर में गर्मी बढ जाती है, कोडा-मुरी, चकत्ते, खाज जैसे रोग उसे पीडित करते हैं। जातक के मन में अशान्ति उत्पन्न होती है तथा उसके चित को परिताप पहुंचता है । आय की अपेक्षा व्यय बढा-चढा रहता है, फलत: आर्थिक स्थिति बिगड़ जाती है। पदावनति, स्थानान्तरण, अधिकारियों से विरोध जैसी आपत्तियां जाती है तथा व्यर्थ भटकना पड़ता है ।
चन्द्रमा-यदि कुण्डली में चन्द्रमा उच्च राशि का, स्वगृही, मित्रक्षेत्री, शुभ प्रभाव में होकर सूर्य का मित्र हो तथा सूर्य से केन्द्र, धन अथवा साय स्थान में स्थित हो तो शुभ फल प्रदान करता है । चन्द्रमा की शुभ दशा में जातक धन-घान्य में वृद्धि कर लेता है तथा नौकरी करता हो तो पदोन्नति होती है। उसे स्त्री एव सन्तति सुख मिलता है, विरोधी गुटों से सन्धि होती है । मित्र वर्ग, विशेषता स्त्री मित्रों से लाभ रहता है । ऐसे समय में जातक में भावावेग बढ़ जाता है क्या वह कल्पना में विवरण करता है तथा कविता, सिनेमा एव प्राकृतिक दृश्यों आदि का अवलोकन करने में विशेष रुचि लेता है। यदि चन्द्रमा क्षीणावस्था में, पाप प्रभाव से, सूर्य से छठे या आठवें स्थित हो तो अशुभ फल ही मिलते है। जातक में कामवासना बढ जाती है, प्रेम-प्रसंगों से अपयश मिलता है, धन हानि तथा लोगों में व्यर्थ की तकरार होती है । कई प्रकार के रोग जैसे जलोदर, आमातिसार, नजला, जुकाम आदि उसे घेर लेते है।
मंगल-यदि कुण्डली में मंगल उच्च राशि का होकर शुभ प्रभाव में तथा दशानाथ से व शुभ लग्न से शुभस्थानगत हो तो जातक इसकी दशा में भूमि एव कृषि-कार्यों से लाभ प्राप्त कर लेता है । जातक को नवीन गृह की प्राप्ति होती है। यदि मंगल लाभ अथवा भाग्य भाव के अधिपति से युक्त हो तो जातक को विशेष रूप से वाहन, मकान एव धन का लाभ होता है। यदि जातक सेना में हो तो उसे उच्च पद प्राप्त होता है अथवा उसकी पदोन्नति होती है ।यदि मंगल अशुभ अवस्था में होकर त्रिक स्थान में स्थित हो तो जातक को सेना, पुलिस व चोर लुटेरों से भय रहता है, मित्रों-परिजनों से व्यर्थ के झगडे होते हैं, धन व भूमि का नाश तथा अर्श, रक्तपित्त, नेत्रपीड़ा, रक्तचाप एव मन्दाग्नि जैसे रोग हो जाते हैं । जातक का चित्त दुर्बल हो जाता है तथा विफलता एव घबराहट बढ़ जाती है ।
राहु-राहु चूँकि सूर्य का प्रबल शत्रु है, अत: सूर्य महादशा में राहु की अंतर्दशा कोई विशेष फल प्रदान नहीं कर पाती। यदि राहु शुभ ग्रह व राशि में होकर सूर्य से केन्द्र, द्वितीय अथवा एकादश भाव में हो तो दशा के प्रारम्भ में कुछ अशुभ फ़ल एव अन्त में कुछ अच्छे फल प्रदान करता है । जातक निरोग बना रहता है । भाग्य में अचानक वृद्धि, पुत्रोत्सव, घर में मंगल कार्य, प्रवास पर जाने से लाभ एव पदोन्नति क्या स्थानान्तरण जैसे माल देता है। यदि पाप प्रभाव में स्थित राहु सूर्य से त्रिक स्थान में गया हो तो जातक को राजकीय दण्ड की आशंका बनती है । आप्तजनों से पीड़ा, कारावास, अकाल मृत्यु, सर्पदंश का भय, धन, मन, भूमि और द्रव्य का नाश होता है । इस दशाकाल में जातक सुख की एक सास तक नहीं ले पाता।
बृहस्पति-सूर्य की महादशा में उच्च, स्वक्षेत्री, पित्रक्षेत्री या शुभ प्रभावी बृहस्पति की अंतर्दशा चले तो जातक को अनेक शुभ पाल मिलते है । जातक अविवाहित हो तो सर्वगुण सम्पन्न जीवन-साथी मिलता है, उच्च शिक्षा, प्रतियोगी परीक्षा में सफलता, धन व मान-सम्मान की प्राणि, राज्यकूपा, पदोन्नति, देवाराधन में रुचि, ब्राह्मण, अथिति, साधु-सन्यासी की सेवा करने की प्रवृत्ति बनती है । शत्रु परास्त होते हैं, परिवार में महोत्सव क्या आप्तजनों से लाभ रहता है।यदि बृहस्पति नीव का, पाप मध्यत्व मेँ, पापी ग्रहों से दृष्ट अथवा युक्त होकर सूर्य के त्रिक स्थान में स्थित हो तो अपनी अंतर्दशा में जातक को स्त्री व सन्तान-पीडा, देह-पीडा तथा मन में भय उत्पन्न करता है । जातक पाप कर्मो में लगा रह कर अपना सर्वनाश कर
लेता है क्या पित्तज्यर, पीलिया, कामला, अस्थि-पीडा और क्षयरोग से पीडित होता है ।
शनि-राहु की भाँती शनि भी सूर्य का शत्रु ग्रह है। इस दशाकाल में जातक को बहुत कुछ राहु जैसे ही फल मिलते हैं, लेकिन जातक पापकर्मा नहीं बनता । शनि अपने अन्तर्दशा काल में जातक को स्वल्प यन-धान्य की प्राप्ति कराता है तथा उसके शत्रु नष्ट होते हैं । यदि शनि उच्च अथवा स्वक्षेत्री होकर केन्द्र, द्वितीय, तृतीय या जाय स्थान में हो तो जातक का कल्याण होता है, निम्न वर्ग के तीनों से उसे लाभ रहता है, न्यायालय में लम्बित केसों में उसे विजय निलती है, लेकिन यदि अशुभ शनि सूर्य से त्रिक स्थान में गया हो तो जातक की बुद्धि अमित हो जाती है, पिता-पुत्र में वैमनस्य बढ़ जाता है, शत्रुओ की प्रबलता के कारण चित्त को परिताप पहुंचला है, अधिकार हानि व पदावनति होकर कवि-व्यवसाय चौपट हो जाता है । वृत्ति का हास एवं शारीरिक-शक्ति क्षीण हो जाती है, आत्मघात करने की इच्छा होती है, जन्मस्थान को त्यागना पड़ता है, वायुरोग प्रबल हो जाते हैं, जेसे स्वास, अफारा, दांत व कान में पीडा, दाद, छाजन आदि रोग पीडित करते हैं
बुध-बुध एक ऐसा ग्रह है जो सूर्य के साथ रहकर भी अस्त फल नहीं देता । यदि बुध परमोच्च, स्वक्षेत्री, मित्रक्षेत्री, शुभ ग्रहों से प्रभावित और सूर्य से न्निक स्थान में न हो तो जातक राश्यकूपा पा जाता है। उसे स्वी-पुत्रादि का पूर्ण सुख मिलता है तथा वाहन व वस्वाभूषणों की प्राप्ति होती है। यदि बुध भाग्य स्थान में भाग्येश से 'युक्त हो तो जातक की भाग्यवृद्धि करता है, यदि लाभ स्थान में हो तो व्यवसाय में प्रबल वृद्धि होकर धनार्जन होता है । यदि कर्म स्थान में कर्मेश से युक्त हो तो सत्कर्पो में रुचि, मान-प्रतिष्ठा में वृद्धि व पदोन्नति होती है । जातक संपूर्ण सुख पा लेता है। अशुभ बुध छठे या जाओं स्थित हो तो जातक मन से अज्ञान रहता है, प्रवास अधिक करने होते हैं तथा धन-हानि होती है और स्वास्थ्य क्षीणा हो जाता है । कार्य-व्यवसाय ठप्प हो जाता है, इष्ट-मित्रों से सन्ताप पहुंचता है । जातक को विशु, चर्प रोग, दाद, खुजली, फीड़ा-फुन्सी जूती-ताप, स्नायुदोबंल्य, जिगर-तिल्ली या अजीर्ण आदि जैसे रोग घेर लेते है तथा जातक अपने धन का एक बड़। भाग दवा-दारू पर व्यय करने को बाध्य हो जाता है।
केतु-यदि सूर्य महादशा में केतु की अंतर्दशा चल रही हो तो थोडे शुभ फलों को भी जातक भूल जाता है, क्योंकि प्राय इस दशा में अशुभ फल ही अधिक मिलते है । देह-पीडा व स्वजनों से विछोह हो जाता है । शत्रु वर्ग प्रबल हो जाता है, पदावनति होती है, स्थानान्तरण ऐसी जगह होता है जहां जातक कष्ट ही कष्ट झेलता है । दशा के प्रारम्भ काल में थोडे शुभ फल निलते हैं, अल्प धन की प्राप्ति, देह-सुख एव स्त्री-सुख मिलता है, शुभ कर्मों में भी रुचि रहती है, लेकिन सूर्य से त्रिक स्थान में स्थित केतु की दशा में धन व स्वास्थ्य की हानि होती है, मनस्ताप मिलता है, परिजनों से झगडे होते हैं, दुष्ट संगति में रहने से राज्यदण्ड मिलता है, दुर्घटना में हड्डी टूटने का भय बढ जाता है तथा पदावनति होती है।
शुक्र--यदि शुक्र उच्च राशि, स्वराशि व नित्य राशि का हो तथा शुभ ग्रह से युक्त अथवा दृष्ट हो तथा सूर्य से दुस्थान में स्थित न हो तो सूर्य महादशा में शुक्र की अंतर्दशा अतीव शुभ फलों के देने वाली होती है । विवाहोत्सव, पुत्रोत्सव आदि अनेक मंगल कार्य स्थान होते है । राज्य सरीखे वैभव की प्राप्ति होती है । पशुधन, रत्न, आमूषण,मिष्ठान्न भोजन एव विविध वस्त्रालंकार मिलते है । नौकर-चाकर, वाहन व मकान का पूर्ण सुख मिलता है तथा मान-सन्मान में वृद्धि होती है। यदि शुक्र नीच राशि का व पाप प्रभावी होकर सूर्य से त्रिक स्थान से हो तो मानसिक कलह, पत्नी-सुख में कमी, सन्तति-कष्ट व विवाह में अवरोध उत्पन्न होते हैं, स्वजनों से वैमनस्य बढ़ता हे, शिरोवेदना, ज्वरातिसार, शूल, प्रमेह, स्वप्नदोष व शुक्रदोष जैसी व्याधिया होती हैं ।
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Friday, 13 November 2015

शनि की महादशा का फल

शुक्र नैसर्गिक शुभ ग्रह होकर भी काम और सुख का कारक माना जाता है। यदि जातक की कुण्डली में शुक्र कारक होकर उच्च राशि, मूल त्रिकोण राशि, स्वराशि या मित्र राशि का होकर केन्द्र अथवा त्रिक्रोण में स्थित हो तो अपनी दशा में सदैव,कामसुख, भोग एवं ऐश्वर्य प्रदान करता है। यदि जातक के बाल्यकाल में शुक्र महादशा प्रारम्भ हो तो जातक सात्विक एव निर्मल बुद्धि वाला होता है, पढने-लिखने में उसका चित्त रमता और वह बिना किसी विशेष प्रयत्न के ही परीक्षाएं पास कर लेता है। इस दशाकाल में जातक की रुचि श्रृंगार की ओर स्वाभाविक रूप से रहती है, वह अपने स्वय के रख-रखाव को अधिक महत्व देता है तथा सुगन्धित वस्तुओं एव वस्त्राभूषण पर धन व्यय करता है। ऐसे समय में जातक के चित्त में चंचलता वनी रहती है । चलचित्र, नाटक, नाच, गाने आदि देखने-सुनने में उसे विशेष आनन्द का अनुभव होता है । प्रेम कहानी, उपन्यास एव प्रेमरस प्रधान कविताए पढने में उसका मन लगता है । यदि जातक लेखक हो तो ऐसी ही रचनाएं रचता भी है । अभिनय क्षेत्र में रुचि लेकर उच्च स्थान प्राप्त करता है । युवकों के लिए यह दशा मिले-जुले फल प्रदान करती है । यदि जातक चन्द्र को छोडकर अन्य ग्रहों से प्रभावित हो तो उच्च शिक्षा प्राप्त कर वकील या जज बन जाता है अथवा स्वतन्त्र कारोबार करता है । लेखक अथवा सम्पादक भी बन जाता है । समीक्षक हो तो समालोचना में व्यंग्यात्मक भाषा का प्रयोग नहीं करता, अपितु मधुर कटाक्ष ही करता है ।शिल्प कलाओं, ललित कलाओं और काव्य-सृजन से धन और मान अर्जित कर लेता है । नए-नए लोगों से उसकी मित्रता होती है तथा उनके द्वारा उसे आनन्ददायक पदार्थों के उपहार मिलते हैं । सुघड़ और सुन्दर स्त्रियों से रमण करने के अवसर प्राप्त होते है । उत्कृष्ट वाहन व् सुन्दर आवास उपलब्ध रहता है तथा आर्थिक स्थिति सुदृढ़ बनती है ।देश-विदेश में अपना व्यवसाय फैलाकर जातक अटूट लक्ष्मी का स्वामी बनता है । इस दशा में जातक सुन्दर भवनों का निर्माण करता है उधान, बाग़-बगीचे बनवाता है । उसके घर में मांगलिक कार्य होते है,कन्या रत्न की उत्पति पर उत्सव मनाता है और विवाहोत्सव पर अत्यधिक व्यय करता है । यदि जातक राजनीति में हो तो उसे मंत्री पद मिलता है, विश्व की प्रत्येक विलासिता की वस्तु उसे सहज ही सुलभ हो जाती है ।इस दशाकाल में कामवासना प्रबल हो जाती है और जातक घार्मिक कृत्यों को अधिक महत्व नहीं देता । उसकी आय के कई स्रोत होते है तो वह व्यय भी खुले हाथो करता है | यदि कुण्डली में शुक्र अकारक होकर नीच राशि या शत्रु राशि का हो अथवा पाप मध्यत्व में हो या पापी ग्रहों से दुष्ट या युक्त हो तो उपरोक्त सभी फलों का विरोधाभास होता है ।जातक दूसरों का उपकार करके भी घृणा का पात्र बनता है । उसकी कामवासना इतनी बढ़ जाती है कि वह अपनी वासनापूर्ति के लिए नैतिक-अनैतिक सभी तरीके अपनाने पर बाध्य हो जाता है । अपने वर्ग और समाज में बदनाम होता है । भ्रष्ट स्त्रियों के सम्पर्क में जाकर अपना धन गंवाता है । साथ ही स्वास्थ्य को भी क्षीणा कर लेता है तथा मधुमेह,स्वप्नदोष एव अन्य इन्दियजनित। यदि शुक उच्च राशि का होकर सप्तमस्थ हो, लेकिन नवांश में नीच का हो गया हो तो अपनी दशा में घनहानि, भाग्यहीनता,बन्धु-बांधवों से बैर,स्त्री से वियोग तथा कलह आदि प्रदान करता है । षष्ठ भाव से पापी शुक्र जातक को अनेक रोगों से पीडित करता है । जातक को प्रमेह, मूत्रकृच्छ, आतशक, सूजाक,पामा जैसे रोग घेर लेते हैं और इनकी चिकित्सा पर उसे भारी व्यय करना पड़ता है । स्त्री का स्वास्थ्य क्षीण हो जाता है अथवा पत्नी से वियोग हो जाता है । आयु स्थान में होकर भी अशुभ शुक्र के फल अशुभ ही होते हैं । व्यय स्थानगदा शुक्र की दशा में जातक प्रवास अधिक करता है उसकी स्थानच्युती होती है, पत्नी से वियोग, शय्या सूख में कमी एवं धनहानि जैसे अशुभ फल अनुभव में आते हैं।
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बृहस्पति की महादशा का फल

यदि कुंडली में बृहस्पति करक हो,उच्च राशी,मूल त्रिकोण राशी,स्वर राशी या मित्र राशी में स्थित हो,शुभ ग्रह से युक्त अथवा दुष्ट हो तथा केंद्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो तो अपनी दशा में जातक को बहुत शुभ फल प्रदान करता है | यदि बृहस्पति नीच राशी का होकर उच्च नवांश में हो तो जातक राज्यकृपा प्राप्त करता है,पदोन्नति होती है, गुरुकृपा से विधोपार्जन होता है,देवाराधना में वित्त रमता है तथा जातक धन-कीर्ति पा लेता है बृहस्पति की शुभ दशा में जातक चुनाव में विजयी होकर ग्रामसभा का प्रधान, पालिकाप्रधान अथवा विधानसभा का सदस्य भी बन जाता है। केन्दीय मंत्रिमंडल की कृपा पाकर धन-धान्य में वृद्धि कर लेता है तथा यशोभागी होता है । दर्शन के प्रति उसकी रूचि बढती है,वेद-वेदांग का अध्ययन करने का अवसार मिलता है तथा जातक अनेक अच्छे ग्रंथो की रचना करता है, जिसके कारण देश-विदेश में उसकी ख्याति फैलती है | अनेक वरिष्ट अधिकारियों से उसके सम्पर्क बढ़ते हैं, विदेश यात्रा के योग बनते है तथा राज्याधिकार प्राप्त करने के अवसर भी मिलते हैं । जातक का बौद्धिक विकास होकर उसमें न्यायपरायाणता जाती है तथा जातक ऐसे कार्य करता है जिससे देश और समाज का कल्याण हो। वह घार्मिक कार्यों में विशेष रुचि लेता है तथा प्याऊ व घार्मिक स्थानों के निर्माण में धन का सद्व्यय करता है। कथा-कीर्तन में बढ़-चढ़कर भाग लेता है, ब्राह्मण, गुरु और साधुओं के उदर-साकार को संदेय तत्पर रहता है। बृहस्पति की शुभ दशा में जातक के घर में अनेक मंगल कार्य होते है । देह में निरोगता व् मन में प्रसन्नता बनी रहती है । पुत्रोत्सव से मन में हर्ष होता है, घर में सुख-शान्ति बनी रहती है और पत्नी का विशेष अनुग्रह प्राप्त होता है । शत्रु परास्त होते है वाद-विवाद में विजय मिलती है । परीक्षार्थी इन दिनों में सफल रहते है । प्रतियोगिता परीक्षा में सफलता मिलती है क्या उच्च पद प्राप्त होता है । जातक की मन्त्रणाशक्ति का विकास होता है तथा उसकी सभी अभिलाषाएं पूर्ण हो जाती है। जातक इस दशाकाल में राज्य की ओर से उच्च सम्मान एवं पुरस्कार प्राप्त कर लेता है | यदि बृहस्पति उच्च राशि का हो, लेकिन नवांश में नीच का हो गया हो तो जातक घोर कष्ट भोगता है। उसका धन चोरों द्वारा हरण कर लिया जाता है, स्त्री से वियोग होता है, संतान के कारण उसे अपयश मिलता है । यदि बृहस्पति अकारक हो, नीच राशि, शत्रु राशि, अस्त, वक्री एव पाप मध्यत्व में होकर बुरे भावों में स्थित हो तथा पापी ग्रह से युक्त अथवा दुष्ट हो तो अनेकानेक अशुभ फलों का अनुभव कराता है । यदि बृहस्पति राहू से संबंध करता हो तो जातक को सर्पदंश का भय बनता है, विषपान से देह-पीड़ा भोगनी पाती है, शत्रु के द्वारा शस्त्रघात का भय भी बनता है ।यदि बृहस्पति मारक ग्रह के साथ हो तो मृत्युसम कष्ट अथवा मृत्यु भी हो सकती है, स्त्री पुत्रों द्वारा अपमानित होना पड़ता है तथा अनेक कष्ट झेलना पड़ते हैं । जातक में अधीरता आ जाती है, स्थिर मति से कोई भी कार्य न करने के कारण प्रत्येक कार्य में उसे असफलता ही मिलती है। वह ब्राह्मण, गुरु से द्वेष रखता है । अपने उच्चधिकारियों के विरोध का उसे सामना करना पड़ता है तथा जातक की पदोन्नति में बार-बार विघ्न उपस्थित होते हैं। परीक्षार्थियों को परीक्षा में कठिनता से ही सफलता मिलती है। परिजनों से मनोमालिन्य बढ़ता है, तीर्थ पर जाने का अवसर प्रथम तो मिलता ही नहीं, मिले भी तो कोई विघ्न उपस्थित होकर जाना स्थगित करा देता है । स्वयं को भी रोगों के कारण प्रताडित होना पड़ता है, सन्तान के स्वास्थ्य की चिन्ता बनती है । यदि अशुभ बृहस्पति शत्रु स्थान में हो तो जातक गुल्परोग, रक्तातिसार एवं कष्ट रोग से पीडित होता है। यदि बृहस्पति अष्टम भाव में हो तो अपनी दशा में जातक को वाहन, आवास व सन्तान की हानि कराता है । जातक को विदेशवास तक करना पड़ता है । व्यय स्थानगत होकर शय्या सुख में कमी, स्त्री की मृत्यु अथवा वियोग, राज्यदण्ड का भय, बान्धवो को कष्ट तथा विदेश यात्रा में स्वय को कष्ट जैसे फल प्रदान करता है ।
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Thursday, 12 November 2015

भैया दूज की कथा

 

भगवान सूर्य नारायण की पत्नी का नाम छाया था। उनकी कोख से यमराज तथा यमुना का जन्म हुआ था। यमुना यमराज से बड़ा स्नेह करती थी। वह उससे बराबर निवेदन करती कि इष्ट मित्रों सहित उसके घर आकर भोजन करो। अपने कार्य में व्यस्त यमराज बात को टालता रहा। कार्तिक शुक्ला का दिन आया। यमुना ने उस दिन फिर यमराज को भोजन के लिए निमंत्रण देकर, उसे अपने घर आने के लिए वचनबद्ध कर लिया। यमराज ने सोचा कि मैं तो प्राणों को हरने वाला हूं। मुझे कोई भी अपने घर नहीं बुलाना चाहता। बहन जिस सद्भावना से मुझे बुला रही है, उसका पालन करना मेरा धर्म है। बहन के घर आते समय यमराज ने नरक निवास करने वाले जीवों को मुक्त कर दिया। यमराज को अपने घर आया देखकर यमुना की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। उसने स्नान कर पूजन करके व्यंजन परोसकर भोजन कराया। यमुना द्वारा किए गए आतिथ्य से यमराज ने प्रसन्न होकर बहन को वर मांगने का आदेश दिया।
यमुना ने कहा कि भद्र! आप प्रति वर्ष इसी दिन मेरे घर आया करो। मेरी तरह जो बहन इस दिन अपने भाई को आदर सत्कार करके टीका करे, उसे तुम्हारा भय न रहे। यमराज ने तथास्तु कहकर यमुना को अमूल्य वस्त्राभूषण देकर यमलोक की राह की। इसी दिन से पर्व की परम्परा बनी। ऐसी मान्यता है कि जो आतिथ्य स्वीकार करते हैं, उन्हें यम का भय नहीं रहता। इसीलिए भैयादूज को यमराज तथा यमुना का पूजन किया जाता है।

भाई दूज

भाई दूज का त्योहार भाई बहन के स्नेह को सुदृढ़ करता है। यह त्योहार दीवाली के दो दिन बाद मनाया जाता है। हिन्दू धर्म में भाई-बहन के स्नेह-प्रतीक दो त्योहार मनाये जाते हैं - एक रक्षाबंधन जो श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता है। इसमें भाई बहन की रक्षा करने की प्रतिज्ञा करता है। दूसरा त्योहार, 'भाई दूज' का होता है। इसमें बहनें भाई की लम्बी आयु की प्रार्थना करती हैं। भाई दूज का त्योहार कार्तिक मास की द्वितीया को मनाया जाता है। भैया दूज को भ्रातृ द्वितीया भी कहते हैं। इस पर्व का प्रमुख लक्ष्य भाई तथा बहन के पावन संबंध व प्रेमभाव की स्थापना करना है। इस दिन बहनें बेरी पूजन भी करती हैं। इस दिन बहनें भाइयों के स्वस्थ तथा दीर्घायु होने की मंगल कामना करके तिलक लगाती हैं। इस दिन बहनें भाइयों को तेल मलकर गंगा यमुना में स्नान भी कराती हैं। यदि गंगा यमुना में नहीं नहाया जा सके तो भाई को बहन के घर नहाना चाहिए। यदि बहन अपने हाथ से भाई को जीमाए तो भाई की उम्र बढ़ती है और जीवन के कष्ट दूर होते हैं। इस दिन चाहिए कि बहनें भाइयों को चावल खिलाएं। इस दिन बहन के घर भोजन करने का विशेष महत्व है। बहन चचेरी अथवा ममेरी कोई भी हो सकती है। यदि कोई बहन न हो तो गाय, नदी आदि स्त्रीत्व पदार्थ का ध्यान करके अथवा उसके समीप बैठ कर भोजन कर लेना भी शुभ माना जाता है। इस दिन गोधन कूटने की प्रथा भी है। गोबर की मानव मूर्ति बना कर छाती पर ईंट रखकर स्त्रियां उसे मूसलों से तोड़ती हैं। स्त्रियां घर-घर जाकर चना, गूम तथा भटकैया चराव कर जिव्हा को भटकैया के कांटे से दागती भी हैं। दोपहर पर्यन्त यह सब करके बहन भाई पूजा विधान से इस पर्व को प्रसन्नता से मनाते हैं। इस दिन यमराज तथा यमुना जी के पूजन का विशेष महत्व है।

अवसाद और ग्रहों का प्रभाव -

बच्चों के कैरियर या लक्ष्य प्राप्ति के मार्ग में छोटी सी असावधानी कई योग्य बच्चों के तनाव तथा अवसाद से उनके कैरियर के भटकाव का कारण भी बनता है। तनाव या अवसाद की विभिन्न स्थिति को कुंडली के माध्यम से बहुत अच्छी प्रकार विष्लेषित किया जा सकता है। यदि किसी जातक का तृतीयेष बुध होकर अष्टम स्थान में हो तो जल्दी तनाव में आने का कारण बनता है वहीं किसी प्रकार से क्रूर ग्रह या राहु से आक्रांत या दृष्ट होने पर यह तनाव अवसाद में जाने का प्रमुख माध्यम बन जाता है। जब बुध की दषा या अंतरदषा चले तो ऐसे में तनाव को होना प्रभावी रूप से दिखाई देता है। ऐसे में व्यक्ति को कम नींद, आहार तथा व्यवहार में अंतर दिखाई देता है। इस प्रकार तनाव का प्रभाव उस जातक के प्रदर्षन पर भी दिखाई देता है। अतः यदि किसी भी प्रकार से तृतीयेष बुध अष्टम में हो और बुध की दषा या अंतरदषा चले तो जातक को बुध की शांति के साथ गणपति के मंत्रों का वैदिक जाप हवन तर्पणा मार्जन आदि कराकर हरी वस्तुओं के सेवन के साथ तनाव से बाहर आकर सामान्य प्रयास करने से भी अवसाद से बाहर आने में मददगार साबित होती है।
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जीवन का सर्वश्रेष्ठ वरदान प्रेम- कुंडली से जाने की आपको प्राप्त होगा या नहीं -

मानवीय शक्तियों में प्रेम को सबसे बड़ी शक्ति माना गया है। प्रेम में मनुष्य का जीवन बदल देने की शक्ति होती है। प्रेम के प्रसाद से मनुष्य की निर्बलता और दरिद्रता, शक्तिमत्ता और सम्पन्नता में बदल जाती है। प्रेम पूर्ण जीवनचर्या में अशांति और असंतोष तो पास फटकने तक नहीं पाते। प्रेम मनुष्य जीवन का सर्वश्रेष्ठ वरदान माना गया है। किसी व्यक्ति को प्रेम प्राप्त होगा या नहीं और यह प्रेम कितना सफल होगा जाने कुंडली के विष्लेषण से...किसी जातक की कुंडली में अगर किसी भी स्थान का स्वामी अपने स्थान छठवे आठवे या बारहवे स्थान पर हो तो उसे स्थान से संबंधित प्रेम की प्राप्ति नहीं होती क्योंकि किसी वस्तु या व्यक्ति से सुख तथा आनंद की प्राप्ति ही प्रेम है। इसलिए जैसे किसी की कुंडली में दसम स्थान का स्वामी लग्न या भाग्य स्थान से अनुकूल संबंध ना बनाये तो उस व्यक्ति को अपने पिता, बाॅस, कार्य तथा अवसर की अनुकूल प्राप्तियाॅ नहीं होगी जिससे उसे सुख तथा आनंद नहीं प्राप्त होगा अतः यदि दसमेष छइवे, आठवे या बारहवे स्थान पर हो जाए या क्रूर ग्रहों से पापक्रांत हो तो उसे पिता का प्रेम प्राप्त नहीं होगा तथा कार्य का सुख भी प्राप्त नहीं होगा। इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति का पंचमेष या सप्तमेष प्रतिकूल हो तो उसे पार्टनर का प्रेम प्राप्त होने में बाधा आयेगी। इस प्रकार सुख तथा आनंद की प्राप्ति ही प्रेम है और यदि इसे संपूर्ण तौर पर प्राप्त करना चाहते हैं तो अपनी कुंडली का विष्लेषण कराकर पता करें कि आपके जीवन में किस प्रकार के सुख या प्रेम की कमी है और उस प्रेम को प्राप्त करने के लिए उससे संबंधित ग्रह की शांति जिसमें ग्रह दान, मंत्रजाप तथा रत्न धारण करना चाहिए।
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Gand Mool Nakshtra

People are scared to learn that their child has been borne in Ganda Mool. They feel some kind of calamity would befall, on the family in near future if shanti pooja is not done on 27th day of the birth. Therefore those who consult an astrologer for birth horoscope would invariably go for 'shanti'. In the past when parents were not so particular about horosocpe of the newly born, would obviously not perform Ganda Mool shanti. Astrologers, on their part, would always recommend for 'Mool Shanti' even if the nakshatra charan 'phala' is found to be positive. Even when examining the horoscope of an elder person, Ganda Mool nakshatra comes to the notice of the astrologer, generally the astrologer would blame the Ganda Mool nakshatra for all the problems faced by the native and recommend for Mool shanti. Thus Ganda Mool nakshatra is treated at par with other doshas like Kaal Sarpa, Pitri, 'Dhaiyya' or 'Sadhesati' of shani, Manglik doshas etc. Ganda Mool Shanti should be performed upto 27 months or maximum 7 years age of the child, thereafter it is irrelevent. Birth Nakshatra is part of the Panchang In astrology five parameters of Panchang are applied to assess the auspiciousness or otherwise of any event. This is extensively used in forecasting of Muhurta time for any important event of life. The birth of a person is the most important happening of his life. The configuration of planets at birth time form the horoscope from which we can decipher the quality of one's entire life, the good and bad periods of life, health, longevity, educational and professional field, financial position, family relations etc. In fact astrology enables us to reply to any query raised by the native about any aspect of life. The birth time horoscope is equivalent to the seed of a plant which contains all the information about the sprouting of the seed, the size and colours of its branches, leaves, flowers, fruits, the blooming time, its utilities as a gift of nature. The five parameters of Panchang are : 1. Tithi, 2. Vaar, 3. Nakshatra, 4. Yoga, 5. Karan Thus birth nakshatra is one of the five consttituents of Panchang. It is the nakshatra of the Moon at the time of birth. Every component of the Panchang is important. There are good tithis and bad tithis. Apart from rikta tithis, chaturdashi and amavasyas are considered inauspicious in krishna paksha. Among the Vaars, Tuesday, Saturday and Sunday are not auspicious. There are ten yogas, out of 27, which are supposed to be inauspicious. Among the Karans, Vishti Karan or Bhadra is highly inauspicious while sthir karans such as Shakuni, Chatuspada, Naag and Kinstughna are also not so auspicious. Similarly among the nakshatras, six nakshatras out of twenty seven, are supposed to be inauspicious. Three of these viz. Ashwini, Magha and Mool belong to Ketu and another three viz. Ashlesha, Jyeshtha and Revati belong to planet Mercury. These six nakshatras are referred to as Ganda Mool nakshatras. In our opinion, Birth Nakshatra is the most important constitutent of the birth time panchang. Moon in astrology is as important as the ascendant. Moon's rashi is called the birth or Janma rashi of the native. Moon's nakshatra is the basis for calculating the dasha cycle of the native because the first Vimshottari dasha belongs to the lord of the Moon's nakshatra. In muhurta calculations, the Moon's rashi of the person is taken into consideration. Again for studying the impact of transiting planets, Moon's rashi is taken as the lagna and accordingly the auspicious houses of the planets are decided. In this way Moon's nakshatra is highly important factor to influence the life of the native. Gandanta time is inauspicious 'Ganda' in Sanskrit language is the 'Sandhi' time or the knot tied between two important parameters of time for connecting one to the other. As a knot, to tie two pieces of thread, is a weak spot, similarly Gandanta time is a weak link between two astrologically important factors. Brihat parashar Horashashtra has mentioned three types of Gandanta in chapter 94 under "Gandanta Lakshan." Thus according to sage Parashar, Tithi, Nakshatra and Lagna are three types of Gandanta which are inauspicious like death at the time of birth, travel or marriage like ceremonies. The two ghati of end of Revati and beginning of Ashwini, Ashlesha end and beginning of Magha, Jyeshtha end and Mool's beginning, thus Nakshatra Gandanta is of 4 ghatis between three pairs of Ganda Mool nakshatras. Half a ghati each of Meena-Mesh, Karka-Singh, Vrishchika-Dhanu, thus one ghati of these three pairs of lagnas form Lagna Gandanta. We can find from the above that lagna Gandantas also specify the same nakshatra pair as contained in Nakshatra-Gandanta. The ghati represents 24 minutes of time. We also find that all kinds of Sandhi kaal or transitional periods are considered troublesome, confusing and destructive. The concept of Gandanta is extended to Sun's sankranti (ingress into next rashi), Bhava-Sandhi, Dasha-Sandhi, Sandhya time in early morning and Sun's setting time in evening. These are supposed to be delicate and sensitive times. Any event happening at transition time can cause havoc in the life of the concerned person. We all know when one Ritu or season ends and the other begins e.g. summer-rainy, autumn-winter, winter-spring etc. the immune system is weak and is challenged by seasonal change. Ganda Mool Nakshatras The names of the six Ganda Mool nakshatras with their serial numbers are : 1 Ashwini, 27 Revati, 10 Magha, 9 Ashlesha, 19 Mool, 18 Jyeshtha While Ashwini, Magha and Mool belong to Ketu and fall at the beginning of Mesh, Simha and Dhanu rashis (all Agni tatwa rashis), Revati, Ashlesha and Jyeshtha belong to Mercury and fall at the end of Meena, Karka and Vrishchika rashis (all Jal tattwa rashis). Thus we note that the sandhi or joining point of these three pairs of nakshatras also happens to be the joining point of two mutually contradictory elements of fire and water. The birth of a child in Gandanta Mool nakshatra is very critical, either the child does not survive or if it survives then achieves special name and fame in its life but still it is very troublesome for the parents. According to Brihat Parashar Horashashtra The birth of a child in Gandanta Mool nakshatra is very critical, either the child does not survive or if it survives then achieves special name and fame in its life but still it is very troublesome for the parents.

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Tuesday, 10 November 2015

दीपावली पूजन विधि


दीपावली:
दीपावली का अर्थ है दीपों की पंक्ति। दीपावली शब्द 'दीप एवं 'आवली की संधि से बना है। आवली अर्थात पंक्ति, इस प्रकार दीपावली शब्द का अर्थ है, दीपों की पंक्ति। भारतवर्ष में मनाए जाने वाले सभी त्यौहारों में दीपावली का सामाजिक और धार्मिक दोनों दृष्टि से अत्यधिक महत्व है। इसे दीपोत्सव भी कहते हैं। 'तमसो मा ज्योतिर्गमय अर्थात् 'अंधेरे से ज्योति अर्थात प्रकाश की ओर जाइए यह उपनिषदों की आज्ञा है। इसे सिख, बौद्ध तथा जैन धर्म के लोग भी मनाते हैं। माना जाता है कि दीपावली के दिन अयोध्या के राजा श्री रामचंद्र अपने चौदह वर्ष के वनवास के पश्चात लौटे थे। अयोध्यावासियों का ह्रदय अपने परम प्रिय राजा के आगमन से उल्लसित था। श्री राम के स्वागत में अयोध्यावासियों ने घी के दीए जलाए। कार्तिक मास की सघन काली अमावस्या की वह रात्रि दीयों की रोशनी से जगमगा उठी। तब से आज तक भारतीय प्रति वर्ष यह प्रकाश-पर्व हर्ष व उल्लास से मनाते हैं। यह पर्व अधिकतर ग्रिगेरियन कैलन्डर के अनुसार अक्तूबर या नवंबर महीने में पड़ता है। दीपावली दीपों का त्योहार है। इसे दीवाली या दीपावली भी कहते हैं। दीवाली अँधेरे से रोशनी में जाने का प्रतीक है। भारतीयों का विश्वास है कि सत्य की सदा जीत होती है झूठ का नाश होता है। दीवाली यही चरितार्थ करती है- असतो माऽ सद्गमय, तमसो माऽ ज्योतिर्गमय। दीपावली स्वच्छता व प्रकाश का पर्व है। कई सप्ताह पूर्व ही दीपावली की तैयारियाँ आरंभ हो जाती है। लोग अपने घरों, दुकानों आदि की सफाई का कार्य आरंभ कर देते हैं। घरों में मरम्मत, रंग-रोगन,सफ़ेदी आदि का कार्य होने लगता हैं। लोग दुकानों को भी साफ़ सुथरा का सजाते हैं। बाज़ारों में गलियों को भी सुनहरी झंडियों से सजाया जाता है। दीपावली से पहले ही घर-मोहल्ले, बाज़ार सब साफ-सुथरे व सजे-धजे नजऱ आते हैं।
इस दिन घरों में सुबह से ही तरह-तरह के पकवान बनाए जाते हैं। बाज़ारों में खील-बताशे, मिठाइयाँ, खांड़ के खिलौने, लक्ष्मी-गणेश आदि की मूर्तियाँ बिकने लगती हैं। स्थान-स्थान पर आतिशबाजी और पटाखों की दूकानें सजी होती हैं। सुबह से ही लोग रिश्तेदारों, मित्रों, सगे-संबंधियों के घर मिठाइयाँ व उपहार बाँटने लगते हैं। दीपावली की शाम लक्ष्मी और गणेश जी की पूजा की जाती है। पूजा के बाद लोग अपने-अपने घरों के बाहर दीपक व मोमबत्तियाँ जलाकर रखते हैं। चारों ओर चमकते दीपक अत्यंत सुंदर दिखाई देते हैं। रंग-बिरंगे बिजली के बल्बों से बाज़ार व गलियाँ जगमगा उठते हैं। बच्चे तरह-तरह के पटाखों व आतिशबाजिय़ों का आनंद लेते हैं। रंग-बिरंगी फुलझडिय़ाँ, आतिशबाजिय़ाँ व अनारों के जलने का आनंद प्रत्येक आयु के लोग लेते हैं। देर रात तक कार्तिक की अँधेरी रात पूर्णिमा से भी से भी अधिक प्रकाशयुक्त दिखाई पड़ती है। दीपावली से अगले दिन गोवर्धन पर्वत अपनी अँगुली पर उठाकर इंद्र के कोप से डूबते ब्रजवासियों को बनाया था। इसी दिन लोग अपने गाय-बैलों को सजाते हैं तथा गोबर का पर्वत बनाकर पूजा करते हैं। अगले दिन भाई दूज का पर्व होता है। दीपावली के दूसरे दिन व्यापारी अपने पुराने बहीखाते बदल देते हैं। वे दूकानों पर लक्ष्मी पूजन करते हैं। उनका मानना है कि ऐसा करने से धन की देवी लक्ष्मी की उन पर विशेष अनुकंपा रहेगी। कृषक वर्ग के लिये इस पर्व का विशेष महत्त्व है। खरीफ़ की फसल पक कर तैयार हो जाने से कृषकों के खलिहान समृद्ध हो जाते हैं। कृषक समाज अपनी समृद्धि का यह पर्व उल्लासपूर्वक मनाता हैं।
दीपावली यानी धन और समृद्धि का त्यौहार. इस त्यौहार में गणेश और माता लक्ष्मी के साथ ही साथ धनाधिपति भगवान कुबेर, सरस्वती और काली माता की भी पूजा की जाती है. सरस्वती और काली भी माता लक्ष्मी के ही सात्विक और तामसिक रूप हैं. जब सरस्वती, लक्ष्मी और काली एक होती हैं तब महालक्ष्मी बन जाती हैं.
दिपावली की रात गणेश जी की पूजा से समृद्धि और ज्ञान मिलता है जिससे व्यक्ति में धन कमाने की प्रेरणा आती है. व्यक्ति में इस बात की भी समझ बढ़ती है कि धन का सदुपयोग किस प्रकार करना चाहिए. माता लक्ष्मी अपनी पूजा से प्रसन्न होकर धन का वरदान देती हैं और धनपति कुबेर धन संग्रह में सहायक होते हैं. इन उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही दीपावली की रात गणेश लक्ष्मी के साथ कुबेर की भी पूजा की जाती है.
पूजन सामग्री:
कलावा, रोली, सिंदूर, 1 नारियल, अक्षत, लाल वस्त्र , फूल, 5 सुपारी, लौंग, पान के पत्ते, घी, कलश, कलश हेतु आम का पल्लव, चौकी, समिधा, हवन कुण्ड, हवन सामग्री, कमल गट्टे, पंचामृत ( दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल), फल, बताशे, मिठाईयां, पूजा में बैठने हेतु आसन, हल्दी , अगरबत्ती, कुमकुम, इत्र, दीपक, रूई, आरती की थाली. कुशा, रक्त चंदन, श्रीखंड चंदन.
पर्वोपचार:
पूजन शुरू करने से पूर्व चौकी को धोकर उस पर रंगोली बनाएं. चौकी के चारों कोने पर चार दीपक जलाएं. जिस स्थान पर गणेश एवं लक्ष्मी की प्रतिमा स्थापित करनी हो वहां कुछ चावल रखें. इस स्थान पर क्रमश: गणेश और लक्ष्मी की मूर्ति को रखें. अगर कुबेर, सरस्वती एवं काली माता की मूर्ति हो तो उसे भी रखें. लक्ष्मी माता की पूर्ण प्रसन्नता हेतु भगवान विष्णु की मूर्ति लक्ष्मी माता के बायीं ओर रखकर पूजा करनी चाहिए.
आसन बिछाकर गणपति एवं लक्ष्मी की मूर्ति के सम्मुख बैठ जाएं. इसके बाद अपने आपको तथा आसन को इस मंत्र से शुद्धि करें अपवित्र: पवित्रोवा सर्वावस्थां गतोऽपिवा। य: स्मरेत् पुण्डरीकाक्षं स बाह्याभ्यन्तर: शुचि:॥ इन मंत्रों से अपने ऊपर तथा आसन पर 3-3 बार कुशा या पुष्पादि से छींटें लगायें फिर आचमन करें। केशवाय नम: माधवाय नम:, नारायणाय नम:, फिर हाथ धोएं, पुन: आसन शुद्धि मंत्र बोलें:-
पृथ्वी त्वयाधृता लोका देवि त्वम् विष्णुनाधृता। त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरु चासनम्॥
शुद्धि और आचमन के बाद चंदन लगाना चाहिए. अनामिका उंगली से श्रीखंड चंदन लगाते हुए यह मंत्र बोलें चन्दऔनस्यद महत्पुहण्यधम् पवित्रं पापनाशनम्, आपदां हरते नित्यलम् लक्ष्मीा तिष्ठडतु सर्वदा।
दीपावली पूजन हेतु संकल्प:
पंचोपचार करने बाद संकल्प करना चाहिए. संकल्प में पुष्प, फल, सुपारी, पान, चांदी का सिक्का, नारियल (पानी वाला), मिठाई, मेवा, आदि सभी सामग्री थोड़ी-थोड़ी मात्रा में लेकर संकल्प मंत्र बोलें- विष्णुर्विष्णुर्विष्णु:, तत्सदद्य श्री पुराणपुरुषोत्तमस्य विष्णोराज्ञया प्रवर्तमानस्य ब्रह्मणो ऽह्नि द्वितीय पराद्र्धे श्री श्वेतवाराहकल्पे सप्तमे वैवस्वतमन्वन्तरे, अष्टाविंशतितमे कलियुगे, कलिप्रथम चरणे जम्बुद्वीपे भरतखण्डे आर्यावर्तान्तर्गत ब्रह्मवर्तैकदेशे पुण्य (अपने नगर/गांव का नाम लें) क्षेत्रे बौद्धावतारे वीर विक्रमादित्यनृपते:, तमेऽब्दे शोभन नाम संवत्सरे दक्षिणायने/उत्तरायणे हेमंत ऋतो महामंगल्यप्रदे मासानां मासोत्तमे कार्तिक मासे कृष्ण पक्षे अमायाम तिथौ (जो वार हो) गुरूवासरे चित्रानक्षत्रे अमुक गोत्रोत्पन्नोऽहं (गोत्र का नाम लें), अमुकनामाहम् (अपना नाम लें), सकलपापक्षयपूर्वकं सर्वारिष्ट शांतिनिमित्तं सर्वमंगलकामनया श्रुतिस्मृत्योक्त फल प्राप्तर्थं महागणपति नवग्रहप्रणव सहितं कुलदेवतानां पूजनसहितं स्थिर लक्ष्मी महालक्ष्मी देवी पूजन निमित्तं एतत्सर्वं शुभ-पूजोपचारविधि सम्पा-दयिष्ये.
गणपति पूजन:
किसी भी पूजा में सर्वप्रथम गणेश जी की पूजा की जाती है. इसलिए आपको भी सबसे पहले गणेश जी की ही पूजा करनी चाहिए. हाथ में पुष्प लेकर गणपति का ध्यान करें. गजाननम्भूतगणादिसेवितं कपित्थ जम्बू फलचारुभक्षणम्। उमासुतं शोक विनाशकारकं नमामि विघ्नेश्वरपादपंकजम्।
आवाहन- गं गणपतये इहागच्छ इह तिष्ठ कहकर पात्र में अक्षत छोड़ें. अर्घा में जल लेकर बोलें एतानि पाद्याद्याचमनीय-स्नानीयं, पुनराचमनीयम् गं गणपतये नम:. रक्त चंदन लगाएं- इदम रक्त चंदनम् लेपनम् गं गणपतये नम:, इसी प्रकार श्रीखंड चंदन बोलकर श्रीखंड चंदन लगाएं. इसके पश्चात सिन्दूर चढ़ाएं इदं सिन्दूराभरणं लेपनम् गं गणपतये नम:. दर्वा और विल्बपत्र भी गणेश जी को चढ़ाएं. गणेश जी को वस्त्र पहनाएं. इदं रक्त वस्त्रं गं गणपतये समर्पयामि.
पूजन के बाद गणेश जी को प्रसाद अर्पित करें- इदं नानाविधि नैवेद्यानि गं गणपतये समर्पयामि:. मिष्ठान्न अर्पित करने के लिए मंत्र- इदं शर्करा घृत युक्त नैवेद्यं गं गणपतये समर्पयामि:. प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें. इदं आचमनयं गं गणपतये नम:. इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें -इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं गं गणपतये समर्पयामि:. अब एक फूल लेकर गणपति पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि गं गणपतये नम:
इसी प्रकार से अन्य सभी देवताओं की पूजा करें. जिस देवता की पूजा करनी हो गणेश के स्थान पर उस देवता का नाम लें.
कलश पूजन:
घड़े या लोटे पर मोली बांधकर कलश के ऊपर आम का पल्लव रखें. कलश के अंदर सुपारी, दूर्वा, अक्षत, मुद्रा रखें. कलश के गले में मोली लपेटें. नारियल पर वस्त्र लपेट कर कलश पर रखें. हाथ में अक्षत और पुष्प लेकर वरूण देवता का कलश में आह्वान करें. ओ3म् त्तत्वायामि ब्रह्मणा वन्दमानस्तदाशास्ते यजमानो हविभि:। अहेडमानो वरुणेह बोध्युरुशंस मान आयु: प्रमोषी:। (अस्मिन कलशे वरुणं सांगं सपरिवारं सायुध सशक्तिकमावाहयामि, ओ3म्भूर्भुव: स्व:भो वरुण इहागच्छ इहतिष्ठ। स्थापयामि पूजयामि॥)
इसके बाद जिस प्रकार गणेश जी की पूजा की है उसी प्रकार वरूण देवता की पूजा करें. इसके बाद देवराज इन्द्र फिर कुबेर की पूजा करें.
लक्ष्मी पूजन:
सबसे पहले माता लक्ष्मी का ध्यान करें-
या सा पद्मासनस्था, विपुल-कटि-तटी, पद्म-दलायताक्षी।
गम्भीरावर्त-नाभि:, स्तन-भर-नमिता, शुभ्र-वस्त्रोत्तरीया।।
लक्ष्मी दिव्यैर्गजेन्द्रै:। मणि-गज-खचितै:, स्नापिता हेम-कुम्भै:।
नित्यं सा पद्म-हस्ता, मम वसतु गृहे, सर्व-मांगल्य-युक्ता।।
इसके बाद लक्ष्मी देवी की प्रतिष्ठा करें. हाथ में अक्षत लेकर बोलें-
भूर्भुव: स्व: महालक्ष्मी, इहागच्छ इह तिष्ठ, एतानि पादाद्याचमनीयं-स्नानीयं, पुनराचमनीयम्।
प्रतिष्ठा के बाद स्नान कराएं। मन्दाकिन्या समानीतै:, हेमाम्भोरुह-वासितै: स्नानं कुरुष्व देवेशि, सलिलं च सुगन्धिभि:।। लक्ष्म्यै नम:।। इदं रक्त चंदनम् लेपनम् से रक्त चंदन लगाएं। इदं सिन्दूराभरणं से सिन्दूर लगाएं। ' मन्दार-पारिजाताद्यै:, अनेकै: कुसुमै: शुभै:। पूजयामि शिवे, भक्तया, कमलायै नमो नम:।। लक्ष्म्यै नम:, पुष्पाणि समर्पयामि। इस मंत्र से पुष्प चढ़ाएं फिर माला पहनाएं. अब लक्ष्मी देवी को इदं रक्त वस्त्र समर्पयामि कहकर लाल वस्त्र पहनाएं.
लक्ष्मी देवी की अंग पूजा:
बायें हाथ में अक्षत लेकर दायें हाथ से थोड़ा-थोड़ा छोड़ते जायें— चपलायै नम: पादौ पूजयामि चंचलायै नम: जानूं पूजयामि, कमलायै नम: कटि पूजयामि, कात्यायिन्यै नम: नाभि पूजयामि, जगन्मातरे नम: जठरं पूजयामि, विश्ववल्लभायै नम: वक्षस्थल पूजयामि, कमलवासिन्यै नम: भुजौ पूजयामि, कमल पत्राक्ष्यै नम: नेत्रत्रयं पूजयामि, श्रियै नम: शिरं: पूजयामि।
अष्टसिद्धि पूजा:
अंग पूजन की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें. अणिम्ने नम:, ओं महिम्ने नम:, गरिम्णे नम:, ओं लघिम्ने नम:, प्राप्त्यै नम: प्राकाम्यै नम:, ईशितायै नम: ओं वशितायै नम:।
अष्टलक्ष्मी पूजन:
अंग पूजन एवं अष्टसिद्धि पूजा की भांति हाथ में अक्षत लेकर मंत्रोच्चारण करें. आद्ये लक्ष्म्यै नम:, ओं विद्यालक्ष्म्यै नम:, सौभाग्य लक्ष्म्यै नम:, ओं अमृत लक्ष्म्यै नम:, लक्ष्म्यै नम:, सत्य लक्ष्म्यै नम:, भोगलक्ष्म्यै नम:, योग लक्ष्म्यै नम:।
नैवैद्य अर्पण:
पूजन के पश्चात देवी को ''इदं नानाविधि नैवेद्यानि महालक्ष्म्यै समर्पयामि मंत्र से नैवैद्य अर्पित करें. मिष्टान अर्पित करने के लिए मंत्र: इदं शर्करा घृत समायुक्तं नैवेद्यं महालक्ष्म्यै समर्पयामि बालें. प्रसाद अर्पित करने के बाद आचमन करायें. इदं आचमनयं महालक्ष्म्यै नम:. इसके बाद पान सुपारी चढ़ायें: इदं ताम्बूल पुगीफल समायुक्तं महालक्ष्म्यै समर्पयामि. अब एक फूल लेकर लक्ष्मी देवी पर चढ़ाएं और बोलें: एष: पुष्पान्जलि महालक्ष्म्यै नम:।
लक्ष्मी देवी की पूजा के बाद भगवान विष्णु एवं शिव जी पूजा करनी चाहिए फिर गल्ले की पूजा करें. पूजन के पश्चात सपरिवार आरती और क्षमा प्रार्थना करें।
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बुध की महादशा का फल

यदि बुध कारक ग्रह होकर अपनी उच्च राशि, मूल त्रिक्रोण राशि, स्वराशि या मित्र राशि का होकर केन्द्र अथवा त्रिक्रोण में हो तो बुध की दशा जातक के लिए आनन्ददायक रहती है । उसे अनेक प्रकार की भोग सामग्री प्राप्त होती है । उच्च वाहन, सुन्दर आवास, मूल्यवान वस्त्राभूषण जातक क्रय कर लेता है । विद्या के क्षेत्र में भी जातक उन्नति करता है,उसके मन में नए नए विचारों का सूत्रपात होता है | वैज्ञानिक क्षेत्र में नए आविष्कार करने की क्षमता आती है तथा वह कई जटिल समस्याओं का हल खीज निकलता है |
यदि बुध शुक्र से प्रभावित हो तो जातक का ध्यान विलासिता की ओर अधिक रहता है तथा यह अनेक सुन्दर रमणियों से रमण कर आनन्द प्राप्त करता है । धनार्जन के एक से अधिक स्रोत होने से जातक की आर्थिक स्थिति सुदृढ हो जाती है । यदि बुध शनि से प्रभावित हो तो जातक कृषि-कार्यों में रुचि लेकर उन्नति को प्राप्त होता है। घर में धार्मिक कृत्य होते हैं, संतान के कारण यश मिलता है। विद्धत समाज में मान बढ़ता है और जातक समाज को दिशा-निर्देश दे सकते की स्थिति में पहुच जाता है ।
यदि बुध सूर्य से प्रभावित हो तो जातक को राज्य की ओर से सम्मान प्राप्त होता है | जातक देश-विदेश में अपना व्यवसाय फैला देता हैं नौकरी करता हो तो पदोन्नति निश्चित रूप से होती है ।परिजनों-सम्बन्धियों से प्यार मिलता है, जुआ-सट्टा-लाटरी आदि से धनवृद्धि होती है । जातक नए-नए सम्बन्ध जोड़कर नित्य का क्षेत्र बढा लेता है। इन लोगों के द्वारा भी धनार्जन के अवसर हिलते हैं । घर में शुभ समाचार आते हैं । स्वर्ण, रजत और रत्नों के व्यवसाय में लगे लोग अधिक लाभार्जन कर लेते हैं। इन दिनों जातक जो भी इच्छा करता है, वह पूरी हो जाती है । बेरोजगार जातक आजीविका पा लेते हैं । ऐसा अनुभव में आया है की जातक नैतिक-अनैतिक दोनों प्रकार के कर्म करता है तथा सफलता पा लेता है तथा आस्तिक-नास्तिक दोनों दोनों प्रकार के जीवन का यथा स्थिति जीता है | यदि बुध अकारक होकर नीच राशि, शत्रु राशि अथवा पाप मध्य्त्व में हो, वक्री हो या उच्च का होकर नीव नवांश में हो तो अतीव अशुभ फलप्रदाता बनता है । जातक के धन-धान्य होता है क्या उसे दरिद्रता में समय व्यतीत करना पड़ता है | यह अलग बात है कि द्रारिद्रय उसके कर्म-हास का फल होता है । मानसिक चिन्ताएं जातक को पीडित करती है । अपने उच्चधिकारियों से मतभेद बढ़ते है, राज्यकर्मचारियों से द्वेष के कारण उसे हानि उठानी पड़ती है । जातक छल-कपट व धोखेबाजी से येन-केन-प्रकारेण। धन-संचय करने का प्रयास करता है। धूतक्रीडा में धनहानि होती है, बूतकर्म के कारण जातक की बदनामी होती है और उसके सम्मान को ठेस पहुंचती है ।
यदि बुध अनिष्ट भाव से स्थित होकर वक्री हो तो जातक का मित्रों से वैमनस्य हो जाता है तथा नित्र भी शत्रुवत व्यवहार करते है, विदेशवास करना पड़ता है । परिवार से विलग रहकर जातक नीच स्त्रियों से सम्पर्क बनाता है, जिसके कारण धन मान-सम्मान एव प्रतिष्ठा का हास होता है । जीविकोपार्जन के लिए दूसरों की चापलूसी एव सेवा करनी पड़ती है | यदि बुध पापी ग्रह से पुल अथवा दुष्ट होकर निर्बल हो तो कृषि-कार्य में हानि क्या विद्या के क्षेत्र में अवनति होती है । पशुदृभुका नाश होने से आर्थिक स्थिति बिगड़ती है, कारावास का भय बस्ता है क्या चित्त को परिताप पहुँचता है |मन में अस्थिरता बढ़ती है, क्या करूं क्या न करू का निर्णय ले पाने की क्षमता नहीं रहती,मष्तिष्क विकार होने की समभावना बढ़ जाती है |तथा लोगों में व्यर्थ में अपवाद फैलते है | यद बुध अष्टमस्थ हो तो शत्रु प्रबल होते हैं, उनके द्वारा शस्वाघात का भय रहता है धनहानि होती है, राजकीय दण्ड मिल सकता है, परिजनों से वैमनस्य तथा घर से कलह का वातावरण बनता हैं |
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मंगल की महादशा का फल

यदि मंगल शुभ स्थानस्थ हो, अपनी उच्च राशि, मूल त्रिकोण राशि, स्वराशि (मेष या वृविचक) या मित्र राशि का होकर केन्द्र या त्रिकोण में हो तो अपनी दशा में जातक को शुभ फल प्रदान करता है। ऐसे मंगल की दशा में जातक स्त्री एवं सन्तान का पूर्ण सख प्राप्त कर लेता है। भूमि सम्बन्धी कार्यों से उसे विशेष लाभ मिलता है। भूमि क्रय करने, आवास बनाकर विक्रय करने अथवा आवास योग्य भूमि के क्रय-विक्रय से या भूमिगत धन मिलने से जातक अत्यन्त सुखी होता है।समाज में मान-प्रतिष्ठा बढ़ती है तथा जातक अपने समाज को दिशा-निर्देश देने की क्षमता पा लेता है । आय के अवांछित साधन भी हो सकते हैं । यह सहीं है कि मंगल की शुभ दशा जातक को धनार्जन कराती है,भले ही वह किसी रीती से हो लेकिन यह भी सही है की ऐसी आय शुभ अथवा मंगल कार्यों में व्यय नहीं होती | बुद्धि का विकास तो होता है, लेकिन जातक बौद्धिक कार्यों की अपेक्षा बल्युक्त एवं पराक्रम के कार्य अधिक करते हैं । इसलिए यदि हम यह कहें कि जातक में बल-पराक्रम की वृद्धि होती है एवं वह युद्धकला में प्रवीण होता है तो अतिश्योक्ति न होगी । जातक सेना अथवा पुलिस में कर्मचारी हो तो इन दिनों पदोन्नति पा लेता है, मान-सम्मान में वृद्धि होती है तथा राजकीय सम्मान पाकर कीर्ति अजित कर लेता है। बन्धु-बांधवों से भी उसे सहयोग एवं सुख मिलता है |यदि मंगल उच्च राशि का होकर धन अथवा आय स्थान में हो तो जातक को मानसिक शान्ति प्राप्त होती है, उसकी आय के एक से अधिक साधन बनते हैं, उच्च वाहन एव उत्तम वस्त्राभूषण प्राप्त होते हैं, प्रवास पर जाने से अच्छा लाभ मिलता है । उच्च नवांशगत मंगल भले ही कुण्डली में नीच का हो तो भी अपनी दशा में पराक्रम से द्रव्य लाभ एव शत्रु पर विजय प्राप्त करा देता है ।
यदि मंगल अपनी नीच राशी में हो, शत्रुक्षेत्री हो, अशुभ स्थानस्थ हो या पाप प्रभाव में हो तो अपनी दशा में अशुभ फल ही देता है । अशुभ मंगल की दशा में जातक का परिजनों से मनोमालिन्य बढ़ता है, बंधुवर्ग से सप्पत्ति के बंटवारे को लेकर विरोध बढाता है तथा नौबत न्यायालय जाते तक आ जाती है। जातक को इस काल में चोरों और शत्रुओं से सावधान रहना चाहिए, क्योंकि इनके द्वारा उसे आर्थिक हानि युवं दैहिक कष्ट मिल सकते हैं।
यदि मंगल नीच राशि में होकर वक्री हो, अस्त हो या उच्च राशि का होकर नीच नवांश में हो, अशुभ भावस्थ हो, पाप मध्यत्व में हो तो अपनी दशा में जातक को अनेक प्रकार से प्रताडित करता है। जातक पित्त प्रकोप, दुक्त सन्यासी रोग, ज्वर,रक्तातिसार,मिर्गी, लकवा आदि रोगों से पीडित होता है| नित्य नईं-नई परेशानियां आती रहती है, अपने उच्चाधिकारियों के कोप का भाजन होना पड़ता है । बन्धु-बांधवों से उसका झगडा होता है अथवा किसी सहोदर की मृत्यु से संताप पहुँचता है । पत्नी से विरोध होने के कारण घर में भी कलह का वातावरण बनता है | शत्रु प्रबल हो जाते है तथा उनके कारण शस्त्रधात का भय बनता है, अग्निकाण्ड से आर्थिक हानि होती है । अतीव अशुभ मंगल की दशा मे स्वय के आग में जलने का भय रहता है,पित्त के कारण देह में खुजली एव चकते निकल जाते हैं, दृष्टि मन्द पड़ जाती है। गले और छाती में जलन का अनुभव होता है, प्यास अधिक लगती है।
कुटम्ब-परिवार से मजबूरी से विलग होना पड़ता है| जातक का अधिक समय और धन शत्रुओं और रोगों से संघर्ष करने में ही व्यय होता है । ऋण लेना पड़ता है तथा त्रदृणभार दिनो-दिन बढता रहता है । मन में अधार्मिक विचार बढने से जातक अपने हिंतैषियों को ही अपना शत्रु मान लेता है, जिनके कारण राजकीय दण्ड मिलने की सम्भावना बढ़ जाती है तथा मान-सम्मान और प्रतिष्ठा को आंच आती है । शत्रु भावस्थ अशुभ मंगल की दशा में जातक अनैतिक कार्यो और क्रूर कर्मों से धनार्जन का प्रयास करता है| खाना-पीना और मौज-मस्ती करना ही उसका जीवन-दर्शन बन जाता है । कारावास हो जाने की आशंका रहती है । आयु भाव में स्थितमंगल की दशा में जातक की यौन रोगो, जैसे उपदंश, सूजाक, एडूस आदि से देहपीड़ा मिलती है, प्रवास करने पड़ते हैं और धनहानि होती है। व्यय स्थानगत मंगल की दशा में जातक अनेक कष्ट भोगता है, शय्या सुख का नाश होता है, चल-अचल सप्पत्ति की हानि होती है तथा उसे राजकीय दण्ड भोगना पड़ता है।
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चन्द्रमा की महादशा का फल

यदि चन्द्रमा पूर्ण वली हो, उच्च राशिगत हो, स्वगृही हो, केन्द्र अथवा त्रिक्रोण में स्थित हो तथा किसी भी अशुभ ग्रह से न तो दृष्ट हो, न ही उससे युति करता हो तो चन्द्रमा की महादशा में जातक की पदोन्नति होती है, व्यवसाय में वृद्धि होती है, विदेश यात्रा के अवसर मिलते है । विंशेषत: जलमार्ग से यात्रा करने पर लाभ रहता है। यदि चन्द्रमा लाभ्स्थान से युति करता हो तो जातक के लिए चन्द्रमा की महादशा अत्यन्त सौभाग्यदायक रहती है । जातक को भोग-सामग्री की प्राप्ति होती है, वह अनेक तीर्थों की यात्रा करता है तथा धार्मिक कार्यों में धन का सदूव्यय कर कीर्ति अर्जित करता है। यह मन्दिर, प्याऊ, बगीचा आदि बनवाने से रुचि लेता है । जातक के घर में भी मंगल कार्य होते हैं । यदि चन्द्रमा कर्मेश से युक्त हो तो जातक को राज्य की ओर से सम्मान मिलता है तथा समाज से भी उसका यश चहु ओर फैलता है । जातक चुनाव लड़कर सूख भोगता है । यदि भाग्येश और कर्मेश दोनो से युक्त होकर चन्द्रमा भाग्य अथवा कर्म स्थान में ही स्थित हो तो जातक मंत्री पद भी प्राप्त कर लेता है। यदि परीक्षा में उतीर्ण होता है तो वजीफा मिलने का योग बनता है, उच्च शिक्षा के लिए विदेश जाने का अक्सर मिलता है। उसे सभी कार्यों में सहज ही सफलता प्राप्त हो जाती है। यदि जातक का कोई केस न्यायालय में विचाराधीन हो तो इस दशा में उसकी जीत सुनिश्चित हो जाती है । प्राय ऐसा अनुभव में आया है कि चन्द्रमा की महादशा का पूर्व भाव्जन्य फल और बाद का समय राशिजन्य फल देता है। जातक को सन्तति लाभ, स्त्री सुख में वृद्धि, धन, वाहन एवं अच्छे निवास की प्राप्ति होती है। विशेषत: सुगन्धित द्रव्यों की प्राप्ति एवं उनके व्यापार से धन की प्राप्ति होती है। कन्या सन्तान, धन एव मान-सम्मान मिलता है, साथ ही उसे भ्रमणशील भी होना पड़ता । यदि चन्द्रमा धन भाव में उच्च राशि में हो तो जातक को निश्चित रूप से पुत्र प्राप्ति होती है। यहा पुत्र प्राप्ति तभी संभव है जब ऐसी आयु हो, अन्यथा पुत्र जैसा कोई अन्य व्यक्ति सहयोगी होता है, पशु-धन में वृद्धि, स्वर्ण, रजत एवं रत्नों के आभूषणों की प्राप्ति, भाग्य में वृद्धि, राज्य में सम्मान, परिवार में वृद्धि, उच्च शिक्षा की प्राप्ति आदि फल प्राप्त होते हैं । यदि चन्द्रमा अशुभ प्रभाव में हो, क्षीणबली हो, अस्त हो, पापी ग्रहों से दृष्ट हो अथवा उनसे युक्त हो, शत्रुक्षेत्री हो तथा अशुभ भावों में स्थित हो तो जातक को चन्द्रमा की दशा का फल घोर दुःखदायक है । जातक के घर-परिवार में कलह का वातावरण बना रहता है, शिरोवेदना एवं शीत ज्वर आदि से पीडा मिलती है तथा अप्रत्याशित व्यय से उसकी आर्थिक स्थिति डावांडोल हो जाती है । वाहन-दुर्घटना से कष्ट होता है । यदि' केतु भी साथ में हो तो दुर्घटना में अंग-भंग का भय बढ़ जाता है । परिजनों से मनोमलिनीय बना रहता है व्यर्थ के अपवाद से मन में खिन्नता बनती है, सन्तान का जन्म हो, तो धनहानि एवं अपमानित होने की आशंका रहती है। जातक की धर्म की अपेक्षा अधर्म में रुचि बढ़ती है, अधिकारी वर्ग की अप्रसन्नता एव मातुल पक्ष से विरोध के कारण उसके चित्त में उद्वेग एव उदासीनता बढ़ती है, यकृत रोग के कारण भोजन में अरुचि होने लगती है । बुद्धि का हास हो जाता है, माता की मृत्यु का भय होता है, व्यापार में हानि होती है तथा वात रोगों से देह पीडित रहती है |यदि अशुभक्षेत्री चन्द्रमा किसी शुभ भावपति से सम्बन्थ करता हो तो उपरोक्त बुरे फलों में किंचित कमी हो जाती है तथा कभी-कभी सुख एव लाभ भी मिल जाता है। यदि चन्द्रमा छठे, आठवें अथवा बारहवें भाव में से किसी एक में क्षीणा होकर पाप प्रभाव में हो तो जातक को अपनी दशा में अत्यधिक बुरे फल देता है । शत्रुभाव में होने से जातक को विभिन्न प्रकार के रोग घेर लेते है |स्त्री से वियोग होता है ,घर में कलह का वातावरण बनता है | यदि चद्रमा अष्टम भाव में हो तो पद में अवनति,व्यवसाय में हानि,जैसे कुफल मिलते है |
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सूर्य की महादशा का फल

सूर्य की महादशा में जातक देश-विदेश की यात्रा करता है तथा इन यात्राओं से धन अर्जित करता है | राज्य कर्मचारी हो तो उसकी पदोन्नति होती है एवं उसे धनार्जन का अवसर मिलता है |जातक को अपने उच्चधिकारियों से सम्मान प्राप्ति होती है तथा प्रभावशाली व्यक्तियों से मेल-मिलाप के अवसर मिलते है | गुप्त विद्याओं के प्रति जातक की रुचि बढती है तथा वाहन सुख में बढ़ोतरी होती है| उपरोक्त सभी फल सूर्य के सुभावस्था में होने पर ही प्राप्त होते हैं|
यदि सूर्य उच्च राशि का हो तो अपनी दशा में जातक को धन, पुत्र,भूमि,स्त्री,शौर्य, कीर्ति एव राज्यस्तर पर सम्मानित कराने में सक्षम होता है । यदि सूर्य मूल त्रिक्रोणी अथवा स्वक्षेत्री होकर केन्द्र, त्रिकोण अथवा लाभ स्थान में हो तो जातक जीवन के सभी सुखों का उपभोग कर लेता है तथा उस पर इश्वर की कृपा बनी रहती है।
यदि सूर्य पंचमेश से युक्त हो तो जातक को सन्तान-लाभ मिलता है, धनेश से युक्ति करता हो तो घन और कूटुम्ब सुख में वृद्धि होती है, तृतीयेश से युक्त हो तो भ्रात सुख से कमी आती है । चतुर्थेश से युक्त हो तो कई वाहनों का सुख प्राप्त होता है । दशम स्थान के स्वामी से युक्त हो तो राज्यकृपा बनी रहती है, घन-मान एव प्रतिष्ठा की प्राप्ति होती है । यदि जातक सेना में नौकरी करता हो तो उसे कमान संभालने का अवसर मिलता है । यदि सूर्य शुभ भावों का अधिपति होकर सप्तम, सप्तमेश व भाग्येश से युति करके केन्द्र अथवा त्रिकोण में स्थित हो तथा जातक व्यापारी हो तो सुर्य की महादशा में उसे व्यापारिक कार्यों में…विशेषत: हाथी-दांत, पशुओं की खाले, सोना चांदी एवं मसालों आदि में उत्तम लाभ प्राप्त होता है । सामजिक प्रतिष्ठा तथा धार्मिक कार्यों में रूचि बढती है तथा जातक किसी धर्म स्थल के निर्माण में धन का व्यय करता है | उसमे आत्मविश्वास,पुरुषार्थ,तथा ज्ञान की वृद्धि होती है | ऐसा जातक शत्रुओं पर विजय पा लेता है | यदि सूर्य नीच का हो व त्रिक स्थान में हो तथा राहू, केत् अथवा किसी पापी ग्रह से सम्बन्धित हो तो सिरदर्द, बाहूपीड़ा, उदरशूल, दन्तविकार, नेत्ररोग, कीर्तिनाश,का भय जैसे अशुभ फल मिलते है। यदि सूर्य 'छठे स्थान में हो तो देहपीड़ा, गुल्मरोग, क्षय, अतिसार, उदरशूल, ज्वर आदि से पीडित करता है-एवं धन की हानि होती है। यदि सूर्य आठवे स्थान में हो तो पारी का ज्वर, मलेरिया, काससहिंत ज्वर, संग्रहणी आदि रोग देता है तथा पदावनति का कारण बनता है । यदि सूर्य व्यय स्थानगत हो तो जातक को प्रवास अधिक करने पड़ते हैं,घर में कलह रहती है, विषभय बनता है | मानसिक क्लेश से मन त्रस्त रहता है |, शय्या सुख में कमी आती है तथा सन्तान को कष्ट होता है । पाप प्रभाव में आया सूर्य दशा के प्रारम्भ में पितृकष्टकारक होता है एवं धनहानि कराता है । दशा के मध्य में देहकष्ट एवं रोगादि देता है तथा अन्त में किंचित सुख की प्राप्ति होती है।
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Monday, 9 November 2015

त्रिदोष निवारण कार्तिक मास में

कार्तिक मास को शास्त्रों में पुण्य मास कहा गया है। पुराणों के अनुसार जो फल सामान्य दिनों में एक हजार बार गंगा नदी में स्नान का होता है तथा प्रयाग में कुंभ के दौरान गंगा स्नान का फल होता है, वही फल कार्तिक माह में सूर्योदय से पूर्व किसी भी नदी में स्नान कर पूजा करने से प्राप्त हो जाता है। शास्त्रों के अनुसार कार्तिक मास स्नान की शुरुआत शरद पूर्णिमा से होती है और इसका समापन कार्तिक पूर्णिमा को होता है। जब अपत्य हिनता, कष्टमय जीवन और दारिद्र, शरीर के न छुटने वाले विकार भुतप्रेत, पिशाच्च बाधा, अपमृत्यू, अपघातों का सिलसिला साथ ही पुर्वजन्म में मिले पितृशाप, प्रेतशाप, मातृशाप, भ्रातृशाप, पत्निशाप, मातुलशाप आदी संकट मनुष्य के सामने निश्चल रुप में खडे हो। इसके अलावा नाग या सर्प की इस जन्म में अथवा पिछले किसी जन्म में हत्या की गयी तो उसका शाप लगता है। वात, पित्त, कफ जैसे त्रिदोष, जन्य ज्वर, शुळ, ऊद, गंडमाला, कुष्ट्कंडु, नेत्रकर्णकच्छ आदी सारे रोगो का निवारण करने के लिए एवं संतती प्राप्ति के लिए साथ ही जीवन में सभी प्रकार के सुख एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए कार्तिक माह में किए गए प्रयोजन शुभ फल की प्राप्ति देते हैं। इन सभी प्रकार के कर्म के लिए कार्तिक मास के प्रारंभ में अर्थात् अश्विनी पक्ष की पूर्णिमा से कार्तिक मास का स्नान, दान और व्रत पूजा की जाती हैं इस मास में किए गए प्रयास से सभी शापों से मुक्ति मिलती है। अतः कार्तिक मास में पितृशांति, देवशांति या नारायणबली - नागबली का विधान करना चाहिए। ये विधान श्री क्षेत्र अमलेश्वर में करना चाहिए।
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नरक चतुर्दशी की पूजन विधि

आज के दिन नरक से मुक्ति पाने के लिए तेल लगाकर अपामार्ग के पौधे सहित जल में स्नान करना चाहिए और संध्या काल में दीप दान करना चाहिए। इस दिन को छोटी दीपावली भी कहते हैं। इस दिन सूर्योदय से पहले आटा, तेल और हल्दी का उबटन लगाकर स्नान करें। थाली में सोलह एक मुखी छोटे दीपक तथा एक चर्तुमुख आटे का दीपक जलायें। फिर षोडशोपचार से इनका पूजन करें एवं सोलह दीपको को घर के अंदर तथा एक चर्तुमुख दीपक को घर के दरवाजे पर रखें और लक्ष्मी जी के आगे चैक पूरकर धूप, दीप से पूजन करें इससे सभी प्रकार की सिद्धियाॅ प्राप्त होती हैं।
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क्यूँ मनाया जाता है नरक चतुर्दर्शी का त्योहार

एक बार रंतीदेवी नामक राजा हुए थे। वे बड़े धर्मात्मा और दानी थे। उनकी अंतिम काल में यमदूत उन्हें नरक ले जाने के लिए आयें, राजा ने यमदूतों से इस बारे में प्रश्न किया तो यमदूतों ने बताया कि तुम्हारे द्वार से एक ब्राम्हण भूखा लौट गया था, इसलिए तुम्हे नरक जाना पड़ेगा। यह सुनकर राजा ने यमदूतों से एक वर्ष की आयु बढ़ाने के लिए विनती की। यमदूतों ने स्वीकार कर लिया। अब राजा ने ऋषियों से इस पाप का प्रायश्च्छित पूछा। तब ऋषियों ने बताया कि हे राजन कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुदर्शी को व्रत रखकर भगवान कृष्ण का पूजन करों, ब्राम्हणों को भोजन कराकर दक्षिणा देकर फिर ब्राम्हणों से अपना अपराध कहकर क्षमा मांगना, इससे मुक्ति मिलेगी। राजा ने इस दिन नियम पूर्वक व्रत किया और विष्णुलोक की प्राप्ति की।
इस दिन सौंर्दय रूप श्री कृष्ण की पूजा भी की जाती है। इसे रूप चतुदर्शी भी कहते हैं। एक समय भारत वर्ष में हिरर्णयगर्भ नामक नगर में एक योगीराज रहते थे। उन्होंने चित्त को एकाग्र कर समाधि लगा ली। उनके शरीर में कीड़े पड़ गए। योगीराज दुखी हुए, उसी समय वहाॅ नारदमुनि प्रगट हुए। योगीराज ने अपने रोग का कारण पूछा। नारदजी ने कहा कि आप भगवान का चिंतन तो करते हैं परंतु देह आचार्य का पालन नहीं करते। योगीराज ने रोग का निदान पूछा। नारदजी ने कहा कि कार्तिक मास की कृष्णपक्ष की चतुदर्शी को भगवान कृष्ण का पूजन और व्रत करों तो तुम्हारा देह पुनः पूर्व की भांति हो जायेगा। योगीराज ने ऐसा ही किया और उसी समय उनका शरीर पूर्ववत हो गया। तब से ही इस चतुदर्शी को रूप चतुदर्शी कहने लगे।
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अध्यात्मिक तरंगों से परिपूर्ण शरद पूर्णिमा

कुछ रात्रियों का बहुत महत्व होता है जैसे नवरात्री, शिवरात्रि, पूनम की रात्रि आदि शारदीय नवरात्र के बादे आने वाले शरद पूर्णिमा का अपना अलग ही धार्मिक महत्व है। कहा जाता है कि इस दिन अमृत की वर्षा होती है। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहते हैं। इसे ‘रास पूर्णिमा’ भी कहते हैं। इनमे चंद्रमा के नीचे बैठ कर जप व् त्राटक करने को महत्व दिया गया है। ग्रह नक्षत्र के हिसाब से शरद पूर्णिमा की रात्रि चन्द्रमा पृथ्वी के बहुत नजदीक होती है इस दिन वातावरण में एक अध्यात्मिक तरंगे प्रवाहित होती हैं, जिस से सकारात्मक विचार व मन प्रफुलित होता है। ज्योतिष की मान्यता है कि संपूर्ण वर्ष में केवल इसी दिन चंद्रमा षोडश कलाओं का होता है। कहा जाता है इस रात्रि को चंद्रमा की किरणों से सुधा झरती है इसलिए रासोत्सव का यह दिन भगवान कृष्ण ने जगत की भलाई के लिए निर्धारित किया है क्योंकि इस दिन श्री कृष्ण को कार्तिक स्नान करते समय स्वयं (कृष्ण) को पति रूप में प्राप्त करने की कामना से देवी पूजन करने वाली कुमारियों को चीर हरण के अवसर पर दिए वरदान की याद आई थी और उन्होंने मुरलीवादन करके यमुना के तट पर गोपियों के संग रास रचाया था। इस दिन मंदिरों में विशेष सेवा-पूजन किया जाता है। तथा इस दिन खीर बनाकर अमृत वर्षा के उपरांत दूसरे दिन प्रातःकाल उसे ग्रहण करने से स्वास्थ्य लाभ प्राप्त करने का विधान है।
कैसे मनाएँ
इस दिन प्रातः काल स्नान करके आराध्य देव को सुंदर वस्त्राभूषणों से सुशोभित करके आवाहन, आसान, आचमन, वस्त्र, गंध, अक्षत, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, सुपारी, दक्षिणा आदि से उनका पूजन करना चाहिए। रात्रि के समय गौदुग्ध (गाय के दूध) से बनी खीर में घी तथा चीनी मिलाकर अर्द्धरात्रि के समय भगवान को अर्पण (भोग लगाना) करना चाहिए।
पूर्ण चंद्रमा के आकाश के मध्य स्थित होने पर उनका पूजन करें तथा खीर का नैवेद्य अर्पण करके, रात को खीर से भरा बर्तन खुली चांदनी में रखकर दूसरे दिन उसका भोजन करें तथा सबको उसका प्रसाद दें। ऐसा करने से मानसिक शांति तथा स्वास्थ्य लाभ प्राप्त होता है।
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Significance of ketu in horoscope: Astrological point of view

In Astrology, Keth is also said to be a 'Node', 'Chayagrah or Shadowy planet like Rahu, as it has no mass shape or substance and is not verified by visual observation. In Hindu Mythology, Kethu represents dragon's tail. This Chayagrah is also malefic and cruel in nature. Kethu has celestial points on the Zodiac, with regulated movement and orbit and that it has a distinct and predictable influence on horoscope.
Westerner Astrologers also call Ketu as Cauda. Kethu does not own any zodiac sign but has a strong influencing power. Kethu is considered as south node or descending node of Moon. Fire or accidents, past karma, broken relations, magical power, assassination, deep thinking, and desire for knowledge, changing events, spiritual growth, comets, cheatings, and mental illness are associated with influence of Ketu.
Ketu dasha cycle or the time period under the influence of Kethu is very unsuspicious period and results extreme depressing events in life. This period generally lasts 7 years in person's life.
Myths about dragon's tail Ketu
Ketu is also said to be a demon and represents all characteristics shown by a dragon like shadowy planet Rahu. Vedic mythologists believe that Kethu represents tail of dragon snake. As per ancient Hindu mythologies, Kethu is a demon who became immortal during a war Samundra Mandhan (churning of Ocean by two opposing armies) between devil and deities for the purpose of getting Amrit (nectar).
Lord Vishnu, observing this war, came down in embodiment of Mohini-a wonderful angel to enchant asuras so that they can break their attentions from war for amrit. But one dragon among asuras was quite a witty demon, he understood the intentions of lord Vishnu and other devtas, and noiselessly tried to drink amrit.
But lord Vishnu caught him inhaling amrit and suddenly took out chakra (wheel-sized edge) to cut-off and depart his head from the body before the nectar could pass his throat. And, unfortunately that dragon was pieced in two parts-head and tail, head of the dragon was given a name "Rahu" and the other part was given a name "Ketu", and now they are immortal.
In Vedic Astrology, Kethu is said to be the south node of Moon or descending lunar node. Kethu does not own any zodiac sign but is conceived exalted in Scorpio and fallen in zodiac sign Taurus. Ketu is ever stronger planet than other planets whether it is aspected by a planet or conjoined with the planet.
Ketu indicates maternal grandfather. This node is also indicator of imprisonment. Ketu is indicator for all awry activities like magical power, fire or accidents, changing events, and broken relations. Fire, accidents or injury, renunciation, bad nature to have pleasure with other ladies, sour experience, salvation, punishment, imprisonment, fear complex and allergy are attributed to Ketu. It is very strong planet like Rahu when exalted.
Worse influence of Ketu can make one's character impious. Disappointment in life and untruthfulness are some characteristics due to influence of Rahu. This node can cause imprisonment. If one express feeling for enjoying life at other's spending like living in a rented home, using car offered by office or etc. are because of the attribution of Kethu like node Rahu. However, Kethu is influential in growing spiritual strength and makes one curious to have desire for more wise knowledge.

Significance of rahu in horoscope: Astrological point of view

In Astrology, Rahu is considered to be a 'Node', 'Chayagrah or Shadowy planet which has a distinct, profound and predictable impact on human lives. Although Rahu is not an observable heavenly body with shape and size like other planets but has a strong influencing power. Rahu does not own any zodiac sign. In Hindu Mythology, Dragon's head represents Rahu. Rahu governs one's ego, anger, mentality, lust, and liquor-habit. Rahu also governs robbery, black magic, and awry activities of life. Adverse influence of Rahu can make one a completely brutal, and violent. Rahu is also significator for hidden money, gambling, fatality, and darkness. Rahu in one's natal chart with good position indicates a long journey. RahuKal or the time period under the influence of Rahu is very unsuspicious period and results acute negative events in life. Other evil act of Rahu that is often mentioned is that he swallows Sun and Moon and thus causes solar eclipses to spread darkness.
Rahu is said to be a demon and represents all characteristics shown by a dragon. Vedic mythologists believe that Rahu represents head of dragon snake. According to Puranas (Hindu ancient scriptures) Asuras (Demons) were in a war with devtas (deities) for the aim to get Amrit (nectar) during the Samundra Mandhan (churning of Ocean by two opposing armies-Deities and devils). Seeing this clash, Lord Vishnu came with an Avatar of 'Mohini' to mesmerize asuras for deviate their attentions from amrit and to keep nectar safe for devtas. But one dragon among asuras was quite a witty demon, he understood the intentions of lord Vishnu and other devtas, and noiselessly tried to drink amrit. But lord Vishnu caught him inhaling amrit and suddenly took out chakra (wheel-sized edge) to cut-off and depart his head from the body before the nectar could pass his throat. And, unfortunately that dragon was pieced in two parts-head and tail, head of the dragon was given a name "Rahu" and the other part was given a name "Ketu", and now they are immortal. Under the influence of Rahu Kaal one faces unfavorable occurrences in life, the best way is "Rahu Pooja" or chanting mantra of Rahu to control the negative effects of this nodal planet.
In Vedic Astrology, Rahu is the north-node of Moon or ascending lunar node, and hence he is a nodal planet. He is portrayed in art as a dragon with no body riding a chariot drawn by eight black horses. Rahu does not own any zodiac sign but can become lord of any house. Leo and Caner are unfriendly with Rahu.
Rahu indicates the paternal grandfather. Rahu also causes solar eclipses, if Rahu, Sun and Moon are in the same zodiacal longitude, solar eclipse takes place. And, he swallows Sun and Moon to cause darkness on earth due to eclipse.
Rahu is significator for all morally wrong things like gambling, stealing, and other poisonous acts. Rahu is significator for travel, death, snakes, night, missing things, gambling and hidden money.
Rahu makes one thought evil. Dissatisfaction in life, affections towards travelling in mountain and forest, dishonesty, cheating, and untruthfulness are some characteristics due to influence of Rahu. This node can cause imprisonment. If one express feeling for enjoying life at other's spending like living in a rented home, using car offered by office or etc. are because of the attribution of Rahu.
However, Rahu is influential in intensification of one's power and converting even an enemy into a friend. Further, westerners believe that Rahu is also benefic in nature.